पवित्र बाइबिल : Pavitr Bible ( The Holy Bible )

पुराना विधान : Purana Vidhan ( Old Testament )

समूएल का पहला ग्रन्थ ( I Samuel )

अध्याय 1

1) एफ्र+ईम के पहाड़ी क्षेत्र के रामतईम में एल्काना नामक सूफ़वंषी मनुष्य रहता था। एल्काना यरोहम का, यरोहम एलीहू का, एलीहू तोहू का ओर तोहू एफ्र+ईमवंषी सूफ़ का पुत्र था।
2) एल्काना के अन्ना और पेनिन्ना नामक दो पत्नियाँ थी। पेनिन्ना के सन्तान थी, किन्तु अन्ना के कोई सन्तान नहीं थी।
3) एल्काना प्रति वर्ष विष्वमण्डल के प्रभु की आराधना करने और उसे बलि चढ़ाने अपने नगर से षिलो जाया करता था। वहाँ एली के दोनों पुत्रों होप+नी और पीनहास प्रभु के याजक थे।
4) एल्काना जिस दिन बलि चढ़ाता था, अपनी पत्नी पेनिन्ना और उसके सब पुत्र-पुत्रियों को मांस का एक-एक अंष दिया करता था;
5) किन्तु वह अन्ना को दो हिस्से देता था, क्योंकि वह अन्ना को प्यार करता था, यद्यपि प्रभु ने उसे बाँझ बनाया था,
6) अन्ना की सौत उसे चिढ़ाने के लिए उसकी निन्दा किया करती थी; क्योंकि प्रभु ने उसे बाँझ बनाया था।
7) प्रति वर्ष यही होता था। जब अन्ना प्रभु के मन्दिर जाती, तो पेनिन्ना उसे उसी तरह चिढ़या करती थी और अन्ना रोती और भोजन करने से इनकार करती थी।
8) उसके पति एल्काना ने उस से कहा, ÷÷अन्ना! तुम क्यों रोती हो? क्यों नहीं खाती हो? तुम क्यों उदास हो? क्या मैं तुम्हारे लिए दस पुत्रों से बढ़ कर नहीं हूँ?
9) किसी दिन जब अन्ना का परिवार षिलो में भोजन कर चुका था, तो वह उठ कर प्रभु के मन्दिर गयी। उस समय याजक एली मन्दिर के द्वार के पास अपने आसन पर बैठा हुआ था। ।
10) अन्ना दुःखी हो कर प्रभु से प्रार्थना करती थी और आँसू बहाती हुई
11) उसने यह प्रतिज्ञा की, ÷÷विष्वमण्डल के प्रभु! यदि तू अपनी दासी की दयनीय दषा देख कर उसकी सुधि लेगा, यदि तू अपनी दासी को नहीं भुलायेगा और उसे पुत्र प्रदान करेगा, तो मैं उसे जीवन भर के लिए प्रभु को अर्पित करूँगी और कभी उसके सिर पर उस्तरा नहीं चलाया जायेगा।''
12) जब वह बहुत देर तक प्रभु से प्रार्थना करती रही, तो एली उसका मुख देखने लगा।
13) और धीमे स्वर से बोलती थी। उसके होंठ तो हिल रहे थे, किन्तु उसकी आवाज नहीं सुनाई दे रही थी। इसलिए एली को लगा कि वह नषे में है।
14) उसने उस से कहा, ÷÷कब तक नषे में रहोगी! जाओ और नषा उतरने दो।''
15) अन्ना ने यह उत्तर दिया, ÷÷महोदय! ऐसी बात नहीं है। मैं बहुत अधिक दुःखी हूँ। मैंने न तो अंगूरी पी और न कोई दूसरी नषीली चीज+। मैं प्रभु के सामने अपना हृदय खोल रही थी।
16) अपनी दासी को बदचलन न समझें- मैं दुःख और षोक से व्याकुल हो कर इतनी देर तक प्रार्थना करती रही।''
17) एली ने उस से कहा, ÷÷शान्ति ग्रहण कर जाओ। इस्राएल का प्रभु तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करे!''
18) इस पर अन्ना यह उत्तर दे कर चली गयी, ÷÷आपकी कृपा- दृष्टि आपकी दासी पर बनी रहे।'' उसने भोजन किया और उसकी उदासी दूर हो गयी।
19) दूसरे दिन वे सबेरे उठे और प्रभु की आराधना करने के बाद रामा में अपने घर लौट गये। एल्काना का अपनी पत्नी अन्ना से संसर्ग हुआ और प्रभु ने उसे याद किया।
20) अन्ना गर्भवती हो गयी। उसने पुत्र प्रसव किया और यह कह कर उसका नाम समूएल रखा, ÷÷क्योंकि मैंने उस को प्रभु से माँगा है।''
21) उसका पति एल्काना अपने सारे परिवार के साथ प्रभु को वार्षिक बलि चढ़ाने और अपनी मन्नत पूर्ण करने के लिए फिर गया।
22) इस बार अन्ना साथ नहीं गयी। उसने अपने पति से कहा, ÷÷जैसे ही मैं इस बालक का दूध छुड़ाऊँगी, मैं इसे वहाँ ले जाऊँगी, जिससे वह प्रभु के सामने उपस्थित हो और सदा के लिए वहीं रह जाये।''
23) उसके पति एल्काना ने उस से कहा, ÷÷तुम जो ठीक समझो, वही करो। जब तक तुम उसका दूध नहीं छुड़ा देती हो, तब तक रूको। प्रभु अपनी प्रतिज्ञा पूरी करे।'' इसलिए वह स्त्री तब तक रूकी रही, जब तक उसने अपने बालक का दूध नहीं छुड़ाया।
24) जब अन्ना समूएल का दूध छुड़ा चुकी, तो उसने उसे अपने साथ कर लिया। वह तीन वर्ष का बछड़ा, आधा मन आटा और एक मषक अंगूरी ले गयी और समूएल को षिलो में प्रभु के मन्दिर के भीतर लायी। उस समय बालक छोटा था।
25) बछड़े की बलि चढ़ाने के बाद, वे बालक को एली के पास ले गये।
26) अन्ना ने कहा, ÷÷महोदय! क्षमा करें। महोदय! आपकी शपथ! मैं वही स्त्री हूँ, जो यहीं प्रभु से प्रार्थना करती हुई आपके सामने खड़ी थी।
27) मैंने इस बालक के लिए प्रार्थना की और प्रभु ने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर ली।
28) इसलिए मैं इसे प्रभु को अर्पित करती हूँ। यह आजीवन प्रभु को अर्पित है।'' और उन्होंने वहाँ प्रभु की आराधना की।

अध्याय 2

1) अन्ना ने इस प्रकार प्रार्थना की : मेरा हृदय प्रभु के कारण आनन्दित हो उठा, मुझे अपने प्रभु से बल मिलता है। मैं अपने शत्रुओं का सामना कर सकती हूँ, क्योंकि तेरा सहारा मुझे उत्साहित करता है।
2) प्रभु जैसा कोई पावन नहीं, तुझे छोड़ कर कोई नहीं, हमारे ईष्वर- जैसी कोई चट्टान नहीं।
3) घमण्ड-भरी बातें मत करो, तुम्हारे मुख से ढिठाई के शब्द नहीं निकलें। प्रभु सर्वज्ञ ईष्वर है, वह कर्मों का लेखा रखता है।
4) शक्तिषालियों के धनुष टूट गये, और जो दुर्बल थे, वे शक्तिसम्पन्न बन गये।
5) जो तृप्त थे, वे रोटी के लिए मज+दूरी करते है। और जो भूखे थे, वे सम्पन्न बन गये। जो बाँझ थी, वह सात बार प्रसव करती है। और जो पुत्रवती थी, उसकी गोद ख़ाली है।
6) प्रभु मारता और जिलाता है, वह अधोलोक पहुँचाता और वहाँ से निकालता है।
7) प्रभु निर्धन और धनी बना देता है, वह नीचा दिखाता और ऊँचा उठाता है।
8) वह दीन-हीन को धूल से निकालता और कूड़े पर बैठे कंगाल को ऊपर उठा कर उसे रईसों की संगति में पहुँचाता और सम्पन्न के आसन पर बैठाता है; क्योंकि पृथ्वी के खम्भे प्रभु के हैं, उसने उन पर जगत् को रखा है।
9) वह अपने भक्तों के क़दमों की रक्षा करता है, किन्तु दुष्ट जन अन्धकार में लुप्त हो जायेंगे; क्योंकि मनुष्य अपने बाहुबल के कारण विजयी नहीं होता।
10) प्रभु के विरोधी नष्ट हो जायेगे, वह उनके विरुद्ध आकाश में गरज उठेगा। प्रभु समस्त पृथ्वी का न्याय करेगा वह अपने राजा को सामर्थ्य प्रदान करेगा। वह अपने अभिषिक्त का सिर ऊँचा उठायेगा।
11) एल्काना अपने घर रामा लौट आया, परन्तु बालक याजक एली के संरक्षण में प्रभु की सेवा करने लगा।
12) एली के पुत्र दुष्ट थे। वे याजक प्रभु पर श्रद्वा नहीं रखते
13) और लोगों के साथ इस प्रकार का व्यवहार करते थे - जब कोई बलि चढ़ाता, याजक का सेवक त्रिषूल ले कर आ जाता और जब मांस पकने लगता,
14) तो उसे तवा या कड़ाही या कड़ाह या पात्र में चुभोता और जो कुछ त्रिषूल में लगा आ जाता, याजक उसे अपने लिए रख लेता। षिलों में आने वाले सब इस्राएलियों के साथ वे यही किया करते,
15) यहाँ तक कि चरबी जलाने के पहले ही याजक का सेवक आकर बलि चढ़ाने वाले से कहता, ÷÷याजक को भुनने के लिए मांस दो। वह तुम्हारे पकाये हुए मांस से कुछ नहीं लेना चाहता। वह कच्चा मांस माँगता है।''
16) इस पर यदि वह कहता कि पहले चरबी तो जला लेने दो, उसके बाद तुम जो कुछ चाहों, ले लेना, तो वह उत्तर देता, ÷÷नहीं, तुम्हें अभी देना पड़ेगा; नहीं तो मैं उसे ज+बरदस्ती ले लूँगा।''
17) प्रभु की दृष्टि में उन युवकों का पाप बहुत बड़ा था, क्योंकि वे प्रभु को अर्पित चढ़ावा तुच्छ समझते थे।
18) बालक समूएल छालटी का एफ्र+ोद पहने प्रभु के सामने सेवा करता था।
19) उसकी माँ उसके लिए एक छोटा अंगरखा बनाती और प्रति वर्ष, जब वह अपनी वार्षिक बलि चढ़ाने अपने पति के साथ आती, उसे उसके पास लाया करती थी।
20) उस समय एली एल्काना और उसकी पत्नी को आषीर्वाद दे कर कहता, ÷÷प्रभु उस प्रभु-समर्पित बालक के बदले इस स्त्री द्वारा तुम्हें सन्तति दे, तुम्हारी वंष-वृद्वि करे।'' इसके बाद वे घर लौट जाते थे।
21) प्रभु की कृपा से अन्ना बार-बार गर्भवती हुई और वह तीन पुत्रों और दो पुत्रियों की माता बन गयी। इस बीच बालक समूएल प्रभु के सामने बढ़ता गया।
22) अब एली बूढ़ हो गया था। उसने वह सब सुना, जो उसके पुत्र सारे इस्राएलियों के साथ किया करते थे और यह भी कि वे दर्षन-कक्ष के द्वार पर सेवा करने वाली स्त्रियों के साथ सोते थे।
23) यह सुन उसने उन से कहा, ÷÷तुम ऐसा काम क्यों करते हो? मैं सब लोगों से तुम्हारे कुकमोर्ं की चरचा सुन रहा हूँ।
24) नहीं, नहीं, मेरे पुत्रों, प्रभु की प्रजा द्वारा जिसकी सर्वत्र चरचा होती है, वह कोई ठीक बात नहीं है।
25) मनुष्य जब मनुष्य के विरुद्ध अपराध करता, तो ईष्वर मध्यस्थ हो कर न्याय करता है; परन्तु यदि कोई मनुष्य प्रभु के विरुद्ध पाप करता, तो उसका मध्यस्थ कौन होगा?'' परन्तु उन्होंने अपने पिता की बातों पर ध्यान नहीं दिया, क्योंकि प्रभु की इच्छा थी कि उनकी मृत्यु हो जाये।
26) बालक समूएल के शरीर का विकास होता रहा और वह ईष्वर तथा मनुष्यों के अनुग्रह में बढ़ता गया।
27) एक दिन एली के पास एक ईष्वर-भक्त मनुष्य आया और बोला, ÷÷प्रभु का यह कहना है : जब तुम्हारे पिता का घराना मिस्र में फ़िराउन के अधीन था, तब मैं उनके सामने प्रकट हुआ था
28) और मैंने इस्राएल के सब वंषों में तुम्हारे पिता को अपना याजक नियुक्त किया था, जिससे वह मेरी वेदी के पास आकर सुगन्धित दृव्य चलाये और मेरे पवित्र-स्थान पर एफ्र+ोद पहने। मैंने तुम्हारे पिता के घराने को इस्राएलियों द्वारा अर्पित सब चढ़ावे दिये।
29) मैंने जो बलिदान और चढ़ावा अपने मन्दिर में अर्पित करने का आदेष दिया है, तुम उनका तिरस्कार क्यों करते हो और अपने पुत्रों को मुझ से अधिक क्यों समझते हो, जिससे तुम मेरी प्रजा इस्राएल द्वारा अर्पित प्रत्येक भेंट का सर्वोत्तम भाग खा कर मोटे होते जाते हो?
30) इसलिए प्रभु इस्राएल का ईष्वर यह कहता है : मैंने कहा था कि तुम्हारा और तुम्हारे पिता का घराना सदा मेरे पवित्र स्थान पर मेरी सेवा करेगा, किन्तु जब प्रभु कहता हैः ऐसा नहीं होगा। मैं उन्हीं का आदर करता हूँ, जो मेरा आदर करते हैं; परन्तु जो मुझे तुच्छ समझते हैं, वे तुच्छ समझे जायेंगे।
31) एक समय ऐसा आ जायेगा, जब मैं तुम्हारी तथा तुम्हारे पिता के घराने की शक्ति समाप्त कर दूँगा। तुम्हारे घराने में कोई बूढ़ा नहीं रह जायेगा।
32) तुम मन्दिर में एक प्रतिद्वन्द्वी को और उसके द्वारा किया हुआ इस्राएल का कल्याण देखोगे; किन्तु तुम्हारे घराने में कोई बूढ़ा नहीं रह पायेगा।
33) मैं अपनी वेदी के पास तुम्हारे एक वंषज को इसलिए बनाये रखूँगा कि वह तुम को रूलाता रहे और तुम्हारे जी को दुःख देता रहे और तुम्हारे सभी वंषजों की मृत्यु युवास्था में ही हो जायेगी।
34) जो तुम्हारे दोनों पुत्र होप+नी ओर पीनहास पर बीतेगी, वह तुम्हारे लिए एक चिन्ह होगा -दोनों की मृत्यु एक ही दिन होगी।
35) मैं अपने लिए एक ईमानदार याजक नियुक्त करूँगा, जो मेरे मन और मेरी इच्छा के अनुसार काम करेगा। मैं उसका वंष बनाये रखूँगा, जो सदा मेरे अभिषिक्त के सामने सेवा करता रहेगा।
36) जो तुम्हारे घराने में शेष रहेगा, वह एक सिक्का और एक रोटी माँगते हुए उसके सामने दण्डवत् करेगा और कहेगा : कृपया मुझे याजकीय दल में सम्मिलित कर लीजिए, जिससे मुझे खाने के लिए रोटी का टुकड़ा मिले'।''

अध्याय 3

1) युवक समूएल एली के निरीक्षण में प्रभु की सेवा करता था। उस समय प्रभु की वाणी बहुत कम सुनाई पड़ती थी और उसके दर्षन भी दुर्लभ थे।
2) किसी दिन ऐसा हुआ कि एली अपने कमरे में लेटा हुआ था उसकी आँखें इतनी कमज+ोर हो गयी थीं कि वह देख नहीं सकता था।
3) प्रभु का दीपवृक्ष उस समय तक बुझा नहीं था और समूएल प्रभु के मन्दिर में, जहाँ ईष्वर की मंजूषा रखी हुई थी, सो रहा था।
4) प्रभु ने समूएल को पुकारा। उसने उत्तर दिया, ÷÷मैं प्रस्तुत हँू''
5) और एली के पास दौड़ कर कहा, ÷÷आपने मुझे बुलाया है, इसलिए आया हूँ।'' एली ने कहा, ÷÷मैंने तुम को नहीं बुलाया। जा कर सो जाओ।'' वह लौट कर लेट गया।
6) प्रभु ने फिर समूएल को पुकारा। उसने एली के पास जा कर कहा, ÷÷आपने मुझे बुलाया है, इसलिए आया हूँ।'' एली ने उत्तर दिया, ÷÷बेटा! मैंने तुम को नहीं बुलाया। जा कर सो जाओ।''
7) समूएल प्रभु से परिचित नहीं था - प्रभु कभी उस से नहीं बोला था।
8) प्रभु ने तीसरी बार समूएल को पुकारा। वह उठ कर एली के पास गया और उसने कहा, ÷÷आपने मुझे बुलाया, इसलिए आया हूँ।'' तब एली समझ गया कि प्रभु युवक को बुला रहा है।
9) एली ने समूएल से कहा, ÷÷जा कर सो जाओ। यदि तुम को फिर बुलाया जायेगा, तो यह कहना, ÷प्रभु! बोल तेरा सेवक सुन रहा है।' समूएल गया और अपनी जगह लेट गया।
10) प्रभु उसके पास आया और पहले की तरह उसने पुकारा, ÷÷समूएल! समूएल!'' समूएल ने उत्तर दिया, ÷÷बोल, तेरा सेवक सुन रहा है।''
11) तब प्रभु ने समूएल से कहा, ÷÷देखों, मैं इस्राएल में वह काम करने वाला हूँ, जिसके विषय में सुन कर सब लोग चकित रह जायेंगे।
12) मैंने एली के घर के विषय में जो कुछ कहा, उसे मैं उस दिन से आदि से अन्त तक पूरा करूँगा।
13) मैं उसे यह बता देना चाहता हूँ कि मैं उसके दोष के कारण ही उसके घराने को अपरिवर्तनीय दण्ड देने जा रहा हूँ; क्योंकि उसने अपने पुत्रों को कुकर्म करते देख कर भी उन्हें नहीं रोका।
14) इसलिए मैं शपथ खाकर एली के घर से कहता हूँ कि उसके घर के दोष का प्रायष्चित न तो बलिदान द्वारा सम्भव है और न चढ़ावे द्वारा।''
15) प्रातः काल तक समूएल लेटा रहा। इसके बाद उसने प्रभु के मन्दिर के द्वार खोले। एली को अपना दिव्य दर्षन बताने में समूएल को संकोच हो रहा था।
16) पर एली ने समूएल को बुलाया और उस से कहा, ÷÷बेटा समूएल!'' उसने उत्तर दिया, ÷÷मैं प्रस्तुत हूँ।''
17) एली ने पूछा, ÷÷उसने तुम्हें क्या बताया है? मुझ से कुछ भी न छिपाना। ईष्वर ने तुम से जो कहा, यदि तुम उस में एक बात भी मुझ से छिपाओ, तो वह तुम को कठोर-से कठोर दण्ड दिलाये।''
18) इस पर समूएल ने उसे सब बातें बता दी; उस से कुछ भी नहीं छिपाया। एली ने कहा, ÷÷वह प्रभु है। वह जो उचित समझे, वही करे।''
19) समूएल बढ़ता गया, प्रभु उसके साथ रहा और उसने समूएल को जो वचन दिया थे, उन में से एक को भी मिट्टी में नहीं मिलने दिया
20) और दान से ले कर बएर-षेबा तक समस्त इस्राएल यह जान गया कि समूएल प्रभु का नबी प्रमाणित हो गया है।
21) प्रभु ने उसे बाद में भी षिलों में दर्षन दिये; क्योंकि प्रभु ईष-वाणी द्वारा षिलो में समूएल के सामने स्वयं को प्रकट करता था।

अध्याय 4

1) समूएल की बात इस्राएल भर में मान्य थी। उन दिनों फ़िलिस्ती इस्राएल पर आक्रमण करने के लिए एकत्र हो गये और इस्राएली उनका सामना करने निकले। उन्होंने एबेन-एजे+र के पास पड़ाव डाला और फ़िलिस्तियों ने अफ़ेद मे।
2) फ़िलिस्ती इस्राएलियों के सामने पंक्तिबद्ध हो गये। घमासान युद्ध हुआ और इस्राएली हार गये। फ़िलिस्तियों ने रणक्षेत्र में लगभग चार हजार सैनिकों को मार डाला।
3) जब सेना पड़ाव में लौट आयी, तो इस्राएली नेताओं ने कहा, ÷÷प्रभु ने आज हमें फ़िलिस्तियों से क्यों हारने दिया? हम षिलो जा कर प्रभु की मंजूषा ले आयें। वह हमारे साथ चले और हमें हमारे शत्रुओं के पंजे से छुड़ाये।''
4) उन्होंने मंजूषा ले आने कुछ लोगों को षिलों भेजा। यह विष्वमण्डल के प्रभु के विधान की मंजूषा है, जो केरूबीम पर विराजमान है। एली के दोनों पुत्र होप+नी और पीनहास ईष्वर के विधान की मंजूषा के साथ आये।
5) जब प्रभु के विधान की मंजूषा पड़ाव में पहंँुची, तो सब इस्राएली इतने ज+ोर से जयकार करने लगे कि पृथ्वी गूँज उठी।
6) फ़िलिस्तियों ने जयकार का वह नाद सुन कर कहा, ÷÷इब्रानियों के पड़ाव में इस महान् जयकार का क्या अर्थ है?'' जब उन्हें यह पता चला कि प्रभु की मंजूषा पड़ाव में आ गयी है,
7) तो वे डरने लगे। उन्होंने कहा, ÷÷ईष्वर पड़ाव में आ गया है।
8) हाय! हम हार गये! उस शक्तिषाली ईष्वर के हाथ से हमें कौन बचा सकता है? यह तो वही ईष्वर है, जिसने मिस्रियों को मरुभूमि में नाना प्रकार की विपत्तियों से मारा।
9) फ़िलिस्तियों! हिम्मत बाँधों और शूरवीरों की तरह लड़ो! नहीं तो तुम इब्रानियों के दास बनोगे, जैसे कि वे तुम्हारे दास थे। शूरवीरों की तरह लड़ो!''
10) फ़िलिस्तियों ने आक्रमण किया। इस्राएली हार कर अपने तम्बूओं में भाग गये। यह उनकी करारी हार थी। इस्राएलियों के तीस हज+ार पैदल सैनिक मारे गये,
11) ईष्वर की मंजूषा छीन ली गयी और एली के दोनों पुत्र होप+नी और पीनहास भी मार दिये गये।
12) एक बेनयामीनवंषी रणक्षेत्र से भाग कर उसी दिन षिलो आया। उसके कपड़े फट गये थे और उसका सिर धूल-धूसरित था।
13) जब वह वहाँ पहुँचा, तो एली मार्ग के किनारे कुरसी पर बैठ कर प्रतीक्षा कर रहा था; क्योंकि उसका हृदय ईष्वर की मंजूषा के विषय में व्याकुल था। नगर में पहुँच कर जब उस आदमी ने समाचार सुनाया, तो नगर भर में हाहाकार मच गया।
14) हाहाकार सुन कर एली ने पूछा, ÷÷इस कोलाहल का अर्थ क्या है?'' वह आदमी दौड़ कर एली को समाचार देने आया।
15) एली की अवस्था अट्ठानवे वर्ष की थी। उसकी दृष्टि धुँधली पड़ गयी थी और वह देख नहीं सकता था।
16) उस आदमी ने एली से कहा, ÷÷मैं अभी-अभी युद्धक्षेत्र से भाग कर आया हूँ।'' उसने पूछा, ÷÷अच्छा, बेटा, क्या हाल है?''
17) जो व्यक्ति समाचार लाया, उसने उत्तर दिया, ÷÷इस्राएली फ़िलिस्तियों के सामने से भाग निकले हैं। बहुत-से सैनिक मारे गये। आपके दोनों पुत्र होप+नी ओर पीनहास मारे गये हैं और ईष्वर की मंजूषा छीन ली गयी है।''
18) ज्यों ही उसने ईष्वर की मंजूषा का नाम लिया, एली फाटक की बगल में अपने आसन पर से पीछे की ओर लुढ़क गया। उसकी गर्दन टूट गयी और उसके प्राण निकल गये; क्योंकि वह बहुत बुढ़ा हो चला था और उसका शरीर बहुत मोटा था। उसने इस्राएल में चालीस वर्ष तक न्यायकर्ता का कार्य किया था।
19) उसकी पतोहू, पीनहास की पत्नी, गर्भवती थी और उसके प्रसव का समय निकट था। जैसे ही उसे ईष्वर की मंजूषा के अपहरण और अपने ससुर और पति, दोनों की मृत्यु का समाचार मिला, वह गिर पड़ी, उसे प्रसव-पीड़ा होने लगी और उसे प्रसव हो गया।
20) जब वह मरने-मरने को थी, तो उसकी सेवा करने वाली स्त्रियों ने उस से कहा, ÷÷डरिए नहीं। आप को एक लड़का हुआ है।'' परन्तु उसने न तो उसका उत्तर दिया और न इस पर ध्यान दिया ही दिया।
21) उसने यह कहते हुए लड़के का नाम ईकाबोद रखा, ÷÷ईष्वर की महिमा इस्राएल से उठ गयी है।'' उसने ईष्वर की मंजूषा के अपहरण तथा अपने ससुर और पति की मृत्यु के कारण ऐसा कहा।
22) उसने कहा, ÷÷इस्राएल से ईष्वर की महिमा उठ गयी है, क्योंकि ईष्वर की मंजूषा का अपहरण हो गया है।''

अध्याय 5

1) ईष्वर की मंजूषा छीन लेने के बाद फ़िलिस्ती उसे एबेन एजे+र से अषदोद ले गये।
2) फिर फ़िलिस्तियों ने ईष्वर की मंजूषा ले जा कर उसे दागोन के मन्दिर में दागोन के पास रखा।
3) अब दूसरे दिन सबेरे अषदोदवासी जागे, तो वे देखते क्या हैं कि प्रभु की मंजूषा के सामने दोगान सिर के बल भूमि पर गिर पड़ा है। उन्होंने दागोन को उठा कर फिर उसके स्थान पर रख दिया।
4) जब वे तीसरे दिन सबेरे उठे, तो फिर दागोन प्रभु की मंजूषा के सामने सिर के बल भूमि पर गिरा हुआ था। दागोन का सिर तथा उसके दोनों हाथ कट गये थे और देहली पर पड़े हुए थे। दागोन का अब धड़ ही रह गया था।
5) इसी कारण दागोन के पुजारी और सारे लोग, जो अषदोद में दागोन के मन्दिर में आते हैं, आज तक देहली पर पैर नहीं रखते।
6) प्रभु का हाथ अषदोद के निवासियों के लिए भारी पड़ा। उसने अषदोद और उसके आसपास के लोगों के शरीर में गिल्टियाँ उत्पन्न कर उन्हें उत्पीड़ित किया।
7) यह देख कर अषदोद के निवासियों ने कहा, ÷÷इस्राएल के ईष्वर की मंजूषा हमारे यहाँ न रखी जाये, क्योंकि उसका हाथ हम पर और हमारे देवता दागोन के लिए भारी पड़ रहा है।''
8) इसलिए उन्होंने फ़िलिस्तियों के सब शासकों को बुला कर उन से पूछा, ÷÷हम इस्राएल के ईष्वर की मंजूषा का अब क्या करें?'' उन्होंने कहा, ÷÷इस्राएल के ईष्वर की मंजूषा गत नगर पहुँचायी जाये।'' इसलिए इस्राएल के ईष्वर की मंजूषा वहीं ले जायी गयी।
9) वह वहाँ ले जायी गयी, तो प्रभु का हाथ उस नगर को दण्डित करने लगा, जिससे वहाँ आतंक छाया रहा। उसने उस नगर के सभी निवासियों को, क्या छोटे, क्या बडे+ को, मारा। उनके शरीर में गिल्टियाँ निकल आयी।
10) इस पर उन्होंने ईष्वर की मंजूषा एत्रोन भेज दी। जैसे ही ईष्वर की मंजूषा एत्रोन पहुँची, एन्नाोनवासी चिल्ला उठे, ÷÷वे हमें और हमारे लोगों को मार डालने के लिए इस्राएल के ईष्वर की मंजूषा हमारे यहाँ लाये हैं।
11) इसलिए उन्होंने फ़िलिस्तियों के सब शासकों को बुला कर उन से निवेदन किया, ÷÷इस्राएल के ईष्वर की मंजूषा वापस भेजिए। वह जहाँ पहले थी, वहीं लौटे। नहीं तो वह हमारा और हमारे लोगों का विनाष करेगी।'' सारे नगर पर मृत्यु का आतंक छा गया। ईष्वर के हाथ ने उस नगर को दण्डित किया।
12) जिन लोगों की मृत्यु नहीं हुई थी, वे गिल्टियों से पीड़ित थे। नगर का हाहाकार आकाष में गूँज उठा।

अध्याय 6

1) प्रभु की मंजूषा सात महीने तक फ़िलिस्तियों के देष में रही।
2) तब फ़िलिस्तियों ने पुजारियों और शकुन विचारने वालों को बुला कर पूछा, ÷÷हम प्रभु की मंजूषा का क्या करें? हमें बताओ कि हम उसे उसके अपने स्थान पर कैसे पहुँचाये।''
3) उन्होंने उत्तर दिया, ÷÷जब तुम इस्राएल के ईष्वर की मंजूषा उसके अपने स्थान पर पहुँचाओगे, तब उसे वहाँ यों ही नहीं पहुँचाना, बल्कि उसके साथ प्रायष्चित के रूप में बढ़ावा भी अर्पित करना। तब तुम्हारी बीमारियाँ दूर हो जायेंगी और तुम यह जान जाओगे कि उसका हाथ तुम को क्यों दण्डित करता था।''
4) उन्होंने पूछा, ÷÷हम उसे प्रायष्चित के रूप में क्या चढ़ाये?'' उन्होंने उत्तर दिया, ÷÷फ़िलिस्तियों के शासकों की संख्या के अनुसार सोने की पाँच गिल्टियाँ और सोने के पाँच चूहे, क्योंकि एक ही महामारी ने सब को, तुम को और तुम्हारे शासकों को, मारा है।
5) इसलिए अपनी गिल्टियों और देष को उजाड़ने वाले चूहों की प्रतिमाएँ बनवाओ और इस्राएल के ईष्वर की महिमा करो। हो सकता है कि वह तुम पर, तुम्हारे देवताओं और तुम्हारे देष पर अपने हाथ का दबाव कम कर दे।
6) तुम क्यों मिस्रियों और फ़िराउन की तरह अपना हृदय कठोर कर लेते हो? जब ईष्वर ने उन्हें कठोर दण्ड दिया था, तो क्या उन्होंने इस्राएलियों को नहीं जाने दिया?
7) इसलिए अब एक नयी गाड़ी तैयार करो और दूध पिलाने वाली गायें लो, जो जोती नहीं गयी हो। इन गायों को गाड़ी में जोतो, पर इनके बछड़ों को इन से अलग कर गोषाला में ले जाओ।
8) प्रभु की मंजूषा उठा कर उस गाड़ी पर रख दो। फिर उन सोने की वस्तुओं को, जिन्हें तुम प्रायष्चित के रूप में अर्पित करना चाहते हो, एक पेटी में बन्द कर मंजूषा के पास रखों और गाड़ी भेज दो।
9) तब तुम ध्यान दो। यदि गाड़ी इस्राएलियों के देष में मार्ग पर बेत-षेमेष की ओर जाये, तो समझ लो कि प्रभु ने हम पर यही बड़ी विपत्ति ढाही है। यदि वह उधर नहीं जाये, तो हम जान जायेंगे कि प्रभु के हाथ ने हम को नहीं मारा और हम पर जो बीता, वह संयोग की बात थी।''
10) लोगों ने ऐसा ही किया। उन्होंने दूध पिलाने वाली दो गायें ले कर उन्हें गाड़ी में जोता और उनके बछड़ों को गोषाला में बाँध रखा।
11) उन्होंने प्रभु की मंजूषा गाड़ी पर रख दी और उसके पास पेटी में सोने के चूहे और अपनी गिल्टियों की प्रतिमाएँ।
12) गायें सीधे बेत-षेमेष के मार्ग पर आगे बढ़ी। वे रम्भाती हुई चली गयीं और न दायें मुड़ीं और न बायें। फ़िलिस्तियों के शासक बेत-षेमेष की सीमा तक उनके पीछे-पीछे गये।
13) उधर बेत-षेमेष के निवासी मैदान में गेहूँ काट रहे थे। उन्होंने आँखें उठायीं, तो मंजूषा देखी और उसे देख कर वे प्रसन्न हुए।
14) गाड़ी बेत-षेमेष के योषुआ के खेत में आ पहुँची और वहीं रूक गयी। वहाँ एक बड़ा पत्थर पड़ा था। लोगों ने गाड़ी की लकड़ी के टुकड़े कर डाले और गायें प्रभु को होम-बलि में चढ़ा दी।
15) लेवियों ने प्रभु की मंजूषा और उसके पास की वह पेटी, जिस में सोने की वस्तुएँ रखी थी, नीचे उतारी और उन्हें उस बड़े पत्थर पर रख दिया। उस दिन बेत-षेमेष के निवासियों ने प्रभु को होम-बलियाँ और अन्य बलियाँ चढ़ायीं।
16) फ़िलिस्तियों के पाँचों शासक यह सब देख कर उसी दिन एक्रोन लौट गये।
17) सोने की गिल्टियाँ, जिन्हें फ़िलिस्तियों ने प्रायष्चित के रूप में चढ़ाया था, इस प्रकार थीं : अषदोद के लिए एक, गाज+ा के लिए एक, अषकलोन के लिए एक, गत के लिए एक और एक्रोन के लिए एक
18) और इनके अतिरिक्त फ़िलिस्तियों के उन -नगरों उन क़िलाबन्द नगरों और उनके आसपास के गाँवों - की संख्या के अनुसार, जो उन पाँच शासकों के अधीन थे, सोने के चूहे भी। वह बड़ा पत्थर, जिस पर उन्होंने प्रभु की मंजूषा रखी थी, आज तक बेत-षेमेष के योषुओं के खेत में इन घटनाओं के साक्षी के रूप में विद्यमान है।
19) बेत-षेमेश के कुछ निवासियों ने प्रभु की मंजूषा खोल कर उसके अन्दर झाँका, इसलिए प्रभु ने लोगों में सत्तर मनुष्यों को मार डाला। लोगों ने शोक मनाया, क्योंकि प्रभु ने उन्हें कठोर दण्ड दिया था।
20) बेत-षेमेश के लोगों ने कहा, ÷÷प्रभु इस परमपावन ईष्वर के सामने कौन टिक सकता है? मंजूषा हमारे यहाँ से चल कर कहाँ जायेगी?''
21) उन्होंने दूतों द्वारा किर्यत-यआरीम के निवासियों को यह कहला भेजा, ÷÷फ़िलिस्तियों ने हमें प्रभु की मंजूषा वापस कर दी है। अब तुम यहाँ आ कर उसे अपने यहाँ ले जाओ।''

अध्याय 7

1) किर्यत-यआरीम के निवासी आ कर प्रभु की मंजूषा ले गये और उसे अबीनादाब के घर में रख दिया, जो टीले पर स्थित था। उन्होंने प्रभु की मंजूषा की देखरेख करने के लिए उसके पुत्र एलआज+ार का अभिषेक किया।
2) किर्यत-यआरीम में मंजूषा की प्रतिष्ठा के बहुत समय बाद तक, बीस वर्षों तक, सब इस्राएली प्रभु के दर्षनों के लिए तरसते रहे।
3) तब समूएल ने सब इस्राएलियों को सम्बोधित करते हुए कहा, ÷÷यदि तुम सारे हृदय से प्रभु के पास लौट आये हो, तो अपने यहाँ से पराये देवताओं और अष्तारता-देवियों को दूर करो। अपना हृदय प्रभु की ओर अभिमुख कर उसी की सेवा करो और वह तुम को फ़िलिस्तियों के हाथों से मुक्त करेगा।''
4) इस्राएली बाल-देवताओं और अष्ताराता-देवियों को हटा कर प्रभु की ही सेवा करने लगे।
5) इसके बाद समूएल ने कहा, ÷÷मिस्पा में सब इस्राएलियों को एकत्रित करो। मैं तुम्हारे लिए प्रभु से प्रार्थना करूँगा।''
6) वे मिस्पा में एकत्रित हुए। उन्होंने पानी भर कर प्रभु को अर्घ अर्पित किया, उस दिन उपवास रखा तथा वहाँ स्वीकार किया कि हमने प्रभु के विरुद्व अपराध किया है। मिस्पा में समूएल ने इस्राएलियों के न्यायकर्ता का कार्य किया।
7) जब फ़िलिस्तियों को मालूम हुआ कि इस्राएली मिस्पा में एकत्रित हैं, तो फ़िलिस्तियों के शासक इस्राएलियों पर आक्रमण करने निकले। यह सुन कर इस्राएली फ़िलिस्तियों से भयभीत हो गये।
8) इस्राएलियों ने समूएल से कहा, ÷÷प्रभु, हमारे ईष्वर से हमारे लिए प्रार्थना करते रहिए, जिससे वह फ़िलिस्तियों के हाथों से हमारी रक्षा करे।''
9) इस पर समूएल ने एक दुधमुँहा मेमना ले कर उसे होम- बलि के रूप में प्रभु को चढ़ाया। समूएल ने इस्राएल के लिए प्रभु की दुहाई दी और प्रभु ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।
10) समूएल होम-बली अर्पित कर ही रहा था कि फ़िलिस्ती इस्राएलियों पर चढ आयें। उस दिन प्रभु ने फ़िलिस्तियों के विरुद्ध घोर गर्जन किया और उन्हें इतना आतंकित कर दिया कि वे इस्राएलियों से पराजित हो गये।
11) इस्राएलियों ने मिस्पा से निकल कर फ़िलिस्तियों का पीछा किया और उन्हें मारते-मारते बेतकार तक के पास तक भगा दिया।
12) समूएल ने एक पत्थर ले कर उसे मिस्पा और यषाना के बीच गाड़ दिया और यह कहते हुए उसका नाम एबेन-एजे+र रखा, ÷÷यहॉँ तक प्रभु ने हमारी सहायता की।''
13) फ़िलिस्ती लोग इस तरह पराजित हो गये कि वे फिर वे इस्राएलियों के देष में नहीं घुसे। समूएल के जीवन भर प्रभु का हाथ फ़िलिस्तियों को दण्डित करता रहा।
14) एक्रोन से गत तक के वे सारे नगर फिर से इस्राएलियों के हाथ आ गये, जिन्हें फ़िलिस्तियों ने इस्राएलियों से छीन लिया था। इस्राएलियों ने उनके आसपास की भूमि भी फ़िलिस्तियों के हाथों से छुड़ा ली। इस्राएल और अमोरियों के बीच शान्ति बनी रही।
15) समूएल ने इस्राएल में आजीवन न्यायकर्ता का कार्य किया।
16) वह प्रति वर्ष बेतेल, गिलगाल और मिस्पा का दौरा किया करता तथा उन सब स्थानों पर इस्राएलियों का न्याय करता।
17) इसके बाद वह रामा लौट आया करता, क्योंकि वहाँॅं उसका घर था। वह वहाँॅं भी इस्राएलियों का न्याय करता था। वहीं उसने प्रभु के लिए एक वेदी भी बनायी।

अध्याय 8

1) जब समूएल बूढ़ा हो चला, तो उसने अपने पुत्रों को इस्राएल के न्यायकर्ता के पद पर नियुक्त किया।
2) उसके जेठे पुत्र का नाम योएल था और दूसरे का नाम अबीया। वे बएर-षेबा में न्यायकर्ता का कार्य करते थे।
3) परन्तु उसके पुत्र अपने पिता के मार्ग का अनुसरण नहीं करते थे। वे लोभ में पड़ कर घूस लेते और न्याय भ्रष्ट कर देते थे।
4) इस्राएल के सब नेता इकट्ठे हो गये और रामा में समूएल के पास आये।
5) उन्होंने उससे कहा, ÷÷आप बूढ़े हो गये हैं और आपके पुत्र आपके मार्ग का अनुसरण नहीं करते। इसलिए आप हमारे लिए एक राजा नियुक्त कर,ें जो हम पर शासन करें, जैसा कि सब राष्ट्रों में होता है।÷÷
6) उनका यह निवेदन कि आप हमारे लिए एक राजा नियुक्त करें, जो हम पर शासन करें, समूएल को अच्छा नहीं लगा और उसने प्रभु से प्रार्थना की।
7) प्रभु ने समूएल से कहा, ÷÷लोगो की हर मॉँग पूरी करो, क्योंकि वे तुम को नहीं, बल्कि मुझ को अस्वीकार कर रहे हैं। वे नहीं चाहते कि मैं उनका राजा बना रहूॅूँ।
8) जिस दिन से मैं उन्हें मिस्र से निकाल लाया हॅूँ, उस दिन से आज तक उन्होंने मेरे साथ वैसा व्यवहार किया है, जैसा वे तुम्हारे साथ कर रहे है - वे मुझे त्याग कर अन्य देवताओं की सेवा करते रहे।
9) उनकी प्रार्थना सुनो, परन्तु उन्हें यह चेतावनी दो और अच्छी तरह समझाओं कि उन पर शासन करने वाला राजा उनके साथ कैसा व्यवहार करेगा।''
10) जिन लोगों ने समूएल से एक राजा की मॉँग की थी, समूएल ने उन्हें प्रभु की सारी बातें बता दीं।
11) उसने कहा, ÷÷जो राजा तुम लोगो पर शासन करेंगे, वह ये अधिकार जतायेंगे : वह तुम्हारे पुत्रों को अपने रथों तथा घोड़ों की सेवा में लगायेंगे और अपने रथ के आगे-आगे दौड़ायेंगे।
12) वह उन्हें अपनी सेना के सहस्रपति तथा पंचाषतपति के रूप में नियुक्त करेंगे, उन से अपने खेत जुतवायेंगे, अपनी फ़सल कटवायेंगे और हथियार तथा युद्ध-रथों का सामान बनवायेंगे।
13) वह मरहम तैयार करने, भोजन पकाने और रोटियॉंँ सेंकने के लिए तुम्हारी पुत्रियों की माँॅग करेंगे।
14) वह तुम्हारे सर्वोत्तम खेत, दाखबारियॉँ और जैतून के बाग़ तुम से छीन कर अपने सेवकों को प्रदान करेंगे।
15) वह तुम्हारी फ़सल और दाख़बारियों की उपज का दषमांष लेंगे और उसे अपने दरबारियों तथा सेवको को दे देंगे।
16) वह तुम्हारे दास-दासियों को, तुम्हारे युवकों और तुम्हारे गधों को भी अपने ही काम में लगा देंगे।
17) वह तुम्हारी भेड़-बकरियों का दषमांष लेंगे और तुम लोग भी उनके दास बनोगे।
18) उस समय तुम अपने राजा के कारण, जिसे तुमने स्वयं चुना होगा, प्रभु की दुहाई दोगे, किन्तु उस दिन प्रभु तुम्हारी एक भी नहीं सुनेगा।''
19) लोगों ने समूएल का अनुरोध अस्वीकार करते हुए कहा, ÷÷हमें एक राजा चाहिए!
20) तब हम सब अन्य राष्ट्रों के सदृष होंगे। हमारे राजा हम पर शासन करेंगे और युद्ध के समय हमारा नेतृत्व करेंगे।''
21) समूएल ने लोगों का निवेदन सुन कर प्रभु को सुनाया और
22) उसने उत्तर दिया, ÷÷उनकी बात मान लो ओर उनके लिए एक राजा नियुक्त करो।'' तब समूएल ने इस्राएलियों से कहा, ÷÷सब अपने-अपने नगर लौट जायें।''

अध्याय 9

1) बेनयामीन प्रान्त में कीष नामक एक धनी मनुष्य रहता था। वह अबीएल का पुत्र था। अबीएल सरोर का, सरोर बकोरत का और बकोरत अफ़ीअह का पुत्र था।
2) कीष के साऊल नामक एक नौजवान और सुन्दर पुत्र था। इस्राएलियों में साऊल से सुन्दर कोई सुन्दर नहीं था। वह इतना लम्बा था कि उसका सिर और उसके कन्धे दूसरे लोगों के ऊपर हो जाते थे।
3) किसी दिन साऊल के पिता कीष की गदहियॉँ भटक गयी थीं। उसने अपने पुत्र साऊल से कहा, ÷÷किसी नौकर के साथ गदहियों को खोजने जाओ।''
4) साऊल ने एफ्र+ईम का पहाड़ी प्रदेष और शालिषा प्रान्त पार किया, किन्तु गदहियों का पता नहीं चला। इसके बाद वे शआलीम प्रदेष और बेनयामीन प्रदेष पार कर गये, किन्तु वहॉँ भी गदहियाँ का पता नहीं चला।
5) जब वे सूफ़ प्रान्त आये, तब साऊल ने अपने साथ के नौकर से कहा, ÷÷चलो, अब हम वापस चलें। हो सकता है कि अब हमारे पिता गदहियों की चिन्ता छोड़ कर हमारी ही चिन्ता कर रहे हों।''
6) परन्तु उसने उत्तर दिया, ÷÷देखिए, इस नगर में एक ईष्वर-भक्त रहते हैं वह लोगों में परमश्रद्धेय हैं। वह जो कुछ कहते हैं, वह हो कर रहता है। चलिये, हम वहॉँ जायें। शायद वह हमें बतायेंगे कि हमें किधर जाना है।''
7) साऊल ने अपने नौकर से कहा, ÷÷लेकिन हम उनके पास जा कर उन्हें क्या देंगे? हमारी गठरी की रोटियॉँ तो ख़तम हो चुकी हैं और हमारे पास कोई ऐसी भेंट नहीं है, जो हम उन ईष्वर-भक्त को दे सकें। हमारे पास है ही क्या?''
8) नौकर ने साऊल को उत्तर दिया, ÷÷देखिए, मेरे पास चॉँदी का एक चौथाई शेकेल है। मैं यह उन ईष्वर-भक्त को दे दूॅँगा, तो वह हमें बतायेंगे कि हमें किधर जाना है।''
9) (प्राचीन काल में इस्राएल में जब-जब कोई ईष्वर से पूछने जाता था, तो वह कहता था, ÷÷चलो, हम दृष्टा के पास जायें''; क्योंकि जिसे आजकल नबी कहते हैं, वह प्राचीन काल में दृष्टा कहलाता था।)
10) साऊल ने अपने नौकर से कहा, ÷÷तुम्हारा कहना ठीक है आओ चलें,।'' अतः वे उस नगर को चल दिया, जहाँ वह ईष्वर-भक्त रहता था।
11) वे नगर के टीले चढ़ रहे थे कि उन्हें पानी भरने जाती हुई कन्याएॅँ मिली और उन्होंने उन से पूछा, ÷÷क्या दृष्टा यहीं रहते हैं?''
12) उन्होनें उत्तर दिया, ÷÷हाँॅ, ÷÷हाँ, देखो न, वह तुम्हारे सामने हैं। लेकिन जल्दी करो, क्योंकि वह अभी-अभी नगर में इसलिए आये हैं कि लोग आज टीले पर एक बलि चढ़ा रहे हैं।
13) नगर में पहँुॅचने पर बलि-भोज करने के लिए उनके टीले पर ऊपर जाने के पहले ही तुम उन से मिल सकते हो। उनके पहँुॅचने के पहले लोग बलि-भोज प्रारम्भ नहीं करते, क्योंकि पहले बलि को उनका आषीर्वाद मिलना आवष्यक है। इसके बाद ही निमन्त्रित लोग भोजन करते हैं। अच्छा, अब ऊपर जाओ। पहुॅँचते ही वह तुम्हें मिलेंगे।''
14) वे नगर की ओर चढ़े। वे नगर के फाटक में प्रवेष कर ही रहे थे कि समूएल उनके आगे टीले पर चढ़ रहा था।
15) साऊल के आने के एक दिन पहले ही प्रभु ने समूएल पर यह प्रकट किया था,
16) ÷÷कल इसी समय मैं बेनयामीन देष के एक पुरुष को तुम्हारे पास भेजूॅँगा। तुम मेरी प्रजा इस्राएल के शासक के रूप में उसका अभिषेक करोगे। मेरी प्रजा की दुहाई मेरे पास पहँुॅची है, इसलिए मैं अपनी प्रजा पर दया करूँगा और वह मेरी प्रजा को फ़िलिस्तियों के हाथों से मुक्त करेगा।''
17) समूएल ने जैसे ही साऊल को देखा, प्रभु ने उसे यह सूचना दी, ÷÷यह वही है, जिसके विषय में मैं तुमसे कह चुका हँॅू। यही मेरी प्रजा का शासन करेगा।''
18) साऊल ने फाटक पर समूएल के पास आ कर कहा, ÷÷कृपया मुझे यह बता दें कि दृष्टा का घर कहॉंँ है?''
19) समूएल ने साऊल को उत्तर दिया, ÷÷मैं ही दृष्टा हँूॅं। मेरे आगे पहाड़ी पर चढों - तुम आज मेरे साथ भोजन करोगे मैं कल सबेरे तुम्हें विदा करूँॅगा और तुम जिसके बारे में चिन्ता कर रहे हो, वह भी तुम्हें बताऊँॅगा।
20) उन गदहियों के लिए चिन्ता मत करो, जो तीन दिन पहले तुम्हारे यहॉँ से भाग गयी हैं। वे मिल गयी हैं। इस्राएल की समस्त सम्पत्ति किसकी है? क्या वह तुम्हारी और तुम्हारे पिता के घराने की नहीं है?''
21) साऊल ने उत्तर दिया, ÷÷परन्तु मैं बेनयामीन वंष का हँॅू, जो इस्राएल के वंषों में सब से छोटा है और मेरा कुल तो बेनयामीन वंष के सारे कुलो में सब से छोटा है। फिर आप मुझ से ऐसी बात क्यों कहते हैं?''
22) इसके बाद समूएल ने साऊल और उसके नौकर को भवन में ले जा कर आमंत्रित लोगों में सब से पहला स्थान दिया। वहॉँ लगभग बीस आमन्त्रित लोग थे।
23) समूएल ने रसोइये से कहा, ÷÷जाओ, वह व्यंजन ले आओ, जिसे मैंने तुम्हे अलग रखने को कहा था।''
24) तब रसोइये ने जाँघ और उसके आसपास का भाग ला कर साऊल को परोस दिया। समूएल ने कहा, ÷÷यह अलग रखा हुआ भाग तुम्हारे सामने है। इसे खाओ; क्योंकि यह तुम्हारे लिए उस समय अलग रखा गया, जब मैंने लोगों को आमन्त्रित किया।'' साऊल ने उस दिन समूएल के साथ भोजन किया।
25) वे टीले से उतर कर नगर आये और समूएल ने घर की छत पर साऊल के साथ बातचीत की।
26) वे बडे+ सबेरे उठे। समूएल ने पौ फटने पर छत पर साऊल को पुकारा, ÷÷उठो, चलो, मैं तुम्हें पहँुॅचा आऊॅँ।'' साऊल ने प्रस्थान किया। वह और समूएल, दोनों बाहर चल दिये।
27) नगर की सीमा पर पहँुॅचने पर समूएल ने साऊल से कहा, ÷÷नौकर से कहो कि वह हम से कुछ दूरी पर आगे बढ़े। जब वह आगे बढ़ जाये, तो तुम कुछ देर के लिए रूक जाओ, जिससे मैं तुम्हें ईष्वर का संदेष सुनाऊँॅ।''

अध्याय 10

1) समूएल ने तेल की शीषी ले कर उसे साऊल के सिर पर उॅँढे+ला। इसके बाद उसने उसका चुम्बन किया और कहा, ÷÷प्रभु ने अपनी प्रजा के शासक के रूप में तुम्हारा अभिषेक किया है।
2) यदि तुम आज यहॉँ से जाओगे, तो सलसह में, बेनयामीन प्रान्त के सीमान्त पर, राहेल की क़ब्र के पास तुम्हें दो पुरुष मिलेंगे, जो तुम से कहेंगे कि वे गदहियॉँ मिल गयी हैं, जिनकी खोज में तुम निकले थे और यह कि तुम्हारा पिता उन गदहियों की बात भूल गया है और अब तुम दोनों के लिए चिन्तित हो कर यह पूछ रहा है कि अब मैं अपने बेटे के विषय में क्या करूँॅ।
3) वहाँॅ से आगे बढ़ने पर, जब तुम ताबोर के बलूत के पास पहँॅुचोगे, तब वहॉँ तुम्हें तीन आदमी मिलेंगे, जो बेतेल में ईष्वर के पास जा रहे होंगे। पहले के पास बकरी के तीन बच्चे होंगे, दूसरे के पास तीन रोटियॉँ होंगी और तीसरे के पास एक कुप्पा अंगूरी।
4) वे तुम्हें प्रणाम करेंगे ओर दो रोटियॉँ देंगे। तुम उन्हें से ग्रहण कर लोगे।
5) इसके बाद तुम गिबआत एलोहीम पहँुॅचोगे जहाँॅं फ़िलिस्तियों का प्रषासक रहता है। नगर में प्रवेष करते ही तुम को नबियों का दल मिलेगा, जो टीले से नीचे उतर रहा होगा। वे वीणा, डफ, मुरली और सितार बजाते होंगे। वे आविष्ट हो कर भविष्यवाणी कर रहे होंगे।
6) तब तुम भी प्रभु के आत्मा से आविष्ट को कर उनके साथ भविष्यवाणी करोगे। तुम एक दूसरा व्यक्ति बन जाओगे।
7) जब तुम देखोगे कि ये बातें पूरी हो गयी हैं, तो तुम जो उचित समझोगे, वही करोंगे; क्योंकि प्रभु तुम्हारे साथ होगा।
8) मुझ से पहले गिलगाल चले जाओ। मैं होम-बलि और शान्ति-बलि चढ़ाने तुम्हारे पास आऊँॅगा। जब तक मैं तुुम्हारे पास नहीं आता और तुम को नहीं बताता कि तुम्हें क्या करना होगा, तुम तब तक, सात दिन तक, प्रतीक्षा करते रहोगे।''
9) फिर जैसे ही साऊल समूएल से विदा ले कर आगे बढ़ा, ईष्वर ने उसका मन बदल दिया और ये सब चिन्ह उसी दिन घटित हुए।
10) गिबआ पहुँचने पर वहॉँ उसे नबियों का दल मिला। उसे ईष्वरीय प्रेरणा प्राप्त हुई और वह उनके साथ आविष्ट हो गया।
11) जब उसके पुराने परिचितों ने देखा कि वह नबियों के साथ भविष्यवाणी कर रहा है, तो वे आपस में कहने लगे, ÷÷कीष के पुत्र को क्या हो गया है? क्या साऊल भी नबी बन गया?''
12) वहाँॅ के एक व्यक्ति ने पूछा, ÷÷इसका पिता कौन है?'' तब से यह कहावत प्रचलित हो गयी, ÷÷क्या साऊल भी नबी बन गया?''
13) जब साऊल प्रकृतिस्थ हो गया, तो वह टीले पर चढ़ा।
14) साऊल के चाचा ने उस से और उसके नौकर से पूछा, ÷÷तुम लोग कहाँॅ गये थे?'' उसने उत्तर दिया, ÷÷हम गदहियों को ढूँढ़ने गये थे। जब हम उन्हें ढँूॅढ़ नहीं पाये, तो हम समूएल के पास गये।''
15) साऊल के चाचा ने कहा, ÷÷तो समूएल ने तुम लोगों से क्या कहा है, मुझे बताओ।''
16) साऊल ने अपने चाचा से कहा, ÷÷उसने हमें आष्वासन दिया कि हमारी गदहियाँॅ मिल गयी हैं'' लेकिन समूएल ने राजत्व के सम्बन्ध में उस से जो कहा था, उसने उसे कुछ नहीं बताया।
17) इधर समूएल ने लोगों को मिस्पा में प्रभु के सामने एकत्रित किया
18) और इस्राएलियों से कहा, ÷÷प्रभु, इस्राएल के ईष्वर का कहना है : मैं स्वयं इस्राएल को मिस्र से निकाल लाया और मैंने तुम्हें मिस्रियों और उन राष्ट्रों से मुक्त किया, जिन्होंने तुम पर अत्याचार किया था।
19) परन्तु तुमने आज अपने उस ईष्वर को भुला दिया, जो तुम्हारे साथ कष्टों और दुःखों में तुम्हारा सहायक था और यह कहा कि हम पर एक राजा नियुक्त करो। अब अपने वंषों और कुलों के अनुसार प्रभु के सामने उपस्थित हो जाओं।''
20) जब समूएल ने सभी इस्राएली वंषों को अपने पास बुला लिया, तो बेनयामीन वंष के नाम चिट्ठी निकली।
21) उसने बेनयामीन वंष के विभिन्न कुलों को पास बुलाया और मट्री कुल के नाम चिट्ठी निकली। इसके बाद कीश के पुत्र साऊल के नाम चिट्ठी निकली। लोगों ने उसे ढँूढ़ा पर वह नहीं मिला।
22) उन्होंने फिर प्रभु से पूछा, ÷÷क्या वह यहाँॅ आया है?'' प्रभु ने उत्तर दिया ÷÷वह सामान के आसपास छिप गया है।''
23) वे दौड़ कर उसे वहॉँ से ले आये। जब वह लोगों के पास आया, तो पता चला कि वह इतना लम्बा है कि अन्य सब लोग उसके कन्धों तक पहँॅुचते हैं।
24) समूएल ने सब लोगों से कहा, ÷÷देखो, यह वही व्यक्ति है, जिसे प्रभु ने चुना है। सारी प्रजा में उसके समान कोई दूसरा नहीं है।'' तब सब लोग चिल्ला उठे, ÷÷राजा की जय÷÷।
25) समूएल ने लोगों को राजा के अधिकार और कर्तव्य सुनाये और उन्हें एक पुस्तक में लिख कर प्रभु के सामने रख दिया। इसके बाद समूएल ने सब लोगों को अपने-अपने घर भेज दिया।
26) साऊल भी गिबआ में अपने घर गया। उसके साथ वीर पुरुषों का एक दल भी गया, जिनका हृदय ईष्वर ने प्रेरित किया।
27) कुछ दृष्ट लोग कहने लगे, ÷÷वह हमारा उद्धार क्या करेगा?'' उन्होंने उसे तुच्छ समझा और उसे भेंट नहीं दी। लेकिन वह चुप रहा।

अध्याय 11

1) अम्मोनी नाहाष ने गिलआद के याबेष को घेर लिया। याबेष के सब निवासियों ने नाहाष से कहा, ÷÷हमारे साथ समझौता कर लीजिए। तब हम आपके अधीन हो जायेंगे।''
2) परन्तु अम्मोनी नाहाष ने उन्हें उत्तर दिया, ÷÷मैं केवल इस शर्त पर तुम्हारे साथ समझौता कर सकता हॅूँ कि मैं तुम में प्रत्येक की दाहिनी ऑँख फोड़ डालँू और इस प्रकार सारे इस्राएल का अपमान करूँॅ।''
3) याबेष के नेताओं ने उस से कहा, ÷÷हमें सात दिन का समय दीजिए, जिससे हम इस्राएलियों के पास सब जगह दूत भेज सकें। तब, यदि कोई हमारी सहायता नहीं करेगा, तो हम आपके अधीन हो जायेंगे।''
4) वे दूत साऊल के गिबआ में आये और लोगों को यह समाचार दिया। सब लोग ऊॅँचे स्वर से विलाप करने लगे।
5) उसी समय साऊल बैलों के पीछे-पीछे खेत से चला आ रहा था। साऊल ने पूछा, ÷÷क्या बात है, जो लोग विलाप कर रहे हैं?'' तब उसे याबेष के निवासियों का समाचार बताया गया।
6) उनकी बातें सुन कर साऊल ईष्वर के आत्मा से आविष्ट हो गया और उसका क्रोध भड़क उठा।
7) उसने बैलों की जोड़ी के टुकडे+-टुकडे+ कर डाले और उन्हें दूतों द्वारा इस्राएल में सर्वत्र भिजवा कर यह घोषणा करवा दी कि जो साऊल और समूएल के पीछे नहीं आयेगा, उसके साथ वैसा ही व्यवहार किया जायेगा, जैसा इन बैलों के साथ किया गया है। इस से लोगों में ऐसा आंतक छा गया कि वे सब एक होकर चल दिये।
8) साऊल ने बेजे+क में उनकी गिनती की, तो इस्राएलियों के तीन लाख और यूदा के तीस हज+ार आदमी निकले।
9) तब याबेष से आये हुए दूतों से यह कहा गया, ÷÷तुम गिलआद के याबेष के निवासियों से कह दो - कल धूप तेज+ हो जाने के समय तक तुम्हारा उद्धार किया जायेगा।'' जब दूतों ने आ कर याबेष-निवासियों को यह समाचार सुनाया, तो वे इस से बडे+ प्रसन्न हुए।
10) तब याबेष-निवासियों ने अम्मोनियों से कहा, ÷÷कल हम आपके अधीन हो जायेंगे। तब आप अपनी इच्छा के अनुसार हमारे साथ व्यवहार कीजिए।''
11) दूसरे दिन साऊल ने सेना को तीन दलों में विभाजित किया। सबेरे, पहले पहर में ही उन्होंने षिविर में घुस कर धूप के तेज+ होने तक अम्मोनियों को पराजित कर दिया। जो शेष बचे, वे इस तरह तितर-बितर हो गये कि उन में दो भी एक साथ नहीं रहे।
12) तब लोगों ने समूएल से पूछा, ÷÷वे कौन हैं, जो कहते थे कि साऊल हमारा राजा नहीं होगा? उन व्यक्तियों को हमारे हवाले कर दीजिए और हम उनका वध करेंगे।''
13) लेकिन साऊल ने कहा, ÷÷आज किसी का वध नहीं किया जायें, क्योंकि आज प्रभु ने इस्राएल को विजय दी है।''
14) समूएल ने लोगों से कहा, ÷÷चलो, अब हम गिलगाल चलें और वहॉंँ राज्य को सुदृढ़ बनायें।''
15) इस पर सब लोग गिलगाल गये और वहाँॅ गिलगला में प्रभु के सामने साऊल को अपना राजा बनाया। वहीं उन्होंने प्रभु के सामने शान्ति-बलियाँॅ चढ़ायीं। साऊल ने सभी इस्राएलियों के साथ एक महोत्सव मनाया।

अध्याय 12

1) समूएल ने सभी इस्राएलियों से कहा, ÷÷देखो, मैंने तुम्हारी वे सारी बातें स्वीकार कर ली हैं, जो तुमने मुझ से माँंगी थीं। मैंने तुम्हारे लिए एक राजा नियुक्त कर दिया है।
2) देखों, राजा ही अब तुम्हारा नेता है। मैं अब बूढ़ा हो चला हूँ, मेरे बाल पक गये हैं, मेरे पुत्र तुम्हारे साथ हैं। मैंने अपनी युवावस्था से आज तक तुम्हारा नेतृत्व किया है।
3) मैं प्र्रस्तुत हॅूँ; तुम प्रभु के सामने और उसके अभिषिक्त के सामने साक्ष्य दो। मैंने किसका बैल ले लिया? किसका गधा ले लिया? मैंने किसका शोषण किया? किस पर अत्याचार किया? मैंने किसका मामला अनदेखा करने के लिए घूस ली? यदि मैंने यह किया, तो मैं क्षतिपूर्ति करूँगा।''
4) लोगों ने उत्तर दिया, ÷÷आपने न तो हमारा शोषण किया, न हम पर अत्याचार किया और न किसी से घूस ली।''
5) तब उसने उन से कहा, ''तो प्रभु ही तुम्हारे लिये मेरा साक्षी है और आज उसका यह अभिषिक्त भी साक्षी है कि तुमने मेरे हाथ में अपना कुछ नहीं देखा है।'' उन लोगों ने कहा, ÷÷हांँ, वह साक्षी है।''
6) इसके बाद समूएल ने लोगों से कहा, ÷÷प्रभु ने मूसा और हारून को नियुक्त किया था और तुम्हारे पूर्वजों को मिस्र देश से निकाल लाया था।
7) अब प्रभु के सामने खडे+ रहो। मैं तुम्हें वे सब उपकार सुनाऊँंगा, जिन्हें प्रभु ने तुम्हारे पूर्वजों के लिए किया था।
8) जब याकूब मिस्र आया और तुम्हारे पुरखों ने प्रभु की सहायता के लिए दुहाई दी, तब प्रभु ने मूसा और हारून को भेजा, जिन्होंने तुम्हारे पुरखों को मिस्र से निकाल कर इस देश में बसाया है।
9) जब लोग प्रभु, अपने ईश्वर को भूल गये, तब उसने उन्हें हासोर के राजा के सेनापति सीसरा के, फ़िलिस्तियों के तथा मोआब के राजा के हाथों दे दिया था। तब उन्होंने उन से युद्ध किया।
10) उन्होंने प्रभु की दुहाई दी और स्वीकार किया कि हमने पाप किया है, क्योंकि हमने प्रभु को त्याग कर बाल -देवताओं और अश्तारता-देवियों की सेवा की है। लेकिन अब तू हमें अपने शत्रुओं के हाथों से मुक्त कर और हम तेरी सेवा करेंगे।
11) इस पर प्रभु ने यरुबबाल, बाराक, यिफ़तह और समूएल को भेज कर तुम्हें अपने पास के शुत्रओं के हाथों से बचाया। तभी तुम सुरक्षित रह पाये हो।
12) ÷÷जब तुमने देखा कि अम्मोनियों का राजा नाहाश तुम पर चढ़ा आ रहा है, तब तुमने मुझ से कहा था, ÷हमारे ऊपर एक राजा शासन करें', यद्यपि प्रभु, तुम्हारा ईश्वर तुम्हारा राजा था।
13) अब उस राजा को देखो, जिसे तुमने चुना और मांँगा है। देखो, प्रभु ने तुम्हारे ऊपर एक राजा नियुक्त कर दिया है।
14) यदि तुम ईश्वर पर श्रद्धा रखते रहोगे, उसकी सेवा करते रहोगे, उसके अधीन रहोगे और प्रभु की आज्ञाओं का विरोध नहीं करोगे; यदि तुम और तुम पर शासन करने वाला तुम्हारा राजा, दोनों प्रभु, अपने ईश्वर के अनुगामी बने रहोगे, तो तुम्हारा भला होगा।
15) परन्तु यदि तुम प्रभु की अवज्ञा और उसकी आज्ञाओं का विरोध करोगे, तो प्रभु का हाथ तुम को और तुम्हारे राजा को दण्ड देगा, जैसे उसने तुम्हारे पूर्वजों के साथ किया था।
16) ÷÷अब ध्यान दो और उस महान् चमत्कार को देखो, जिसे प्रभु तुम्हारी आंँखों के सामने करने जा रहा है।
17) क्या यह गेहूंँ की फ़सल का समय नहीं हैं? मैं प्रभु से प्रार्थना करूँगा और वह मेघगर्जन और वर्षा भेजेगा। इस से तुम समझ जाओगे कि तुमने प्रभु की दृष्टि में कितनी बड़ी बुराई की है' जो तुमने अपने लिए राजा माँगा है।''
18) अब समूएल ने प्रभु से प्रार्थना की और उसी दिन प्रभु से मेघगर्जन और वर्षा भेजी।
19) सब लोग प्रभु और समूएल से बडे+ भयभीत हुए और सब लोगों ने समूएल से निवेदन किया, ÷÷अपने दासों के लिए प्रभु, अपने ईश्वर से प्रार्थना कीजिए, जिससे हमारी मृत्यु न हो जाये; क्योंकि अपने-अपने पूर्व पापों के सिवा यह बुराई भी की है कि हमने अपने लिए एक राजा मांँगा है।''
20) समूएल ने लोगों को उत्तर दिया, ÷÷डरो मत। तुमने यह सब बुराई की है, किन्तु प्रभु से विमुख नहीं हो और सारे हृदय से प्रभु की सेवा करते रहो।
21) निस्सार देवी-देवताओं के अनुगामी मत बनो। वे न तो सहायता कर सकते और न तुम्हारा उद्धार ही कर सकते हैं, क्योंकि वे निस्सार है।
22) प्रभु का नाम महान् है। वह अपनी प्रजा को त्याग नहीं सकता; क्योंकि प्रभु ने कृपा कर तुम्हें अपनी प्रजा बनाया है।
23) रहा मैं-यदि मैं तुम लोगों के लिए प्रार्थना करना छोड़ देता, तो मैं घोर पाप करता। मैं तुम्हें सन्मार्ग की शिक्षा देता रहँूंगा।
24) तुम प्रभु पर श्रद्धा रखो और सारे हृदय से उसकी सच्ची सेवा करते रहो। भला सोचो तो कि उसने तुम्हारे लिए कितने महान् कार्य किये हैं।
25) परन्तु यदि तुम बुराई करते रहोगे, तो तुम राजा-सहित नष्ट कर दिये जाओगे।''

अध्याय 13

1) साऊल तीस वर्ष का था, जब उसने शासन करना प्रारम्भ किया और उसने बयालीस वर्ष तक इस्राएल पर राज्य किया।
2) साऊल ने इस्राइल में तीन हज+ार आदमियों को चुना। उन में दो हज+ार साऊल के पास मिकमास और बेतेल की पर्वतश्रेणी पर रखे गये और एक हज+ार बेनयामीन के गिबआ में योनातान के पास। उसने शेष लोगों को अपने- अपने घर जाने दिया।
3) योनातान ने गेबा में फ़िलिस्त्तियों के अध्यक्ष को मार डाला और फ़िलिस्तियों को इसका पता चला। साऊल ने देश भर में नरसिंगे बजवाये, जिससे इब्रानी इस घटना के विषय में सुन लें।
4) सब इस्राएलियों ने यह समाचार सुना कि साऊल ने फ़िलिस्तियों के अध्यक्ष को मारा है और फ़िलिस्ती इस्राएल से घृणा करने लगे। लोगों को साऊल से मिलने के लिए गिलगाल बुलाया गया।
5) फ़िलिस्ती इस्राएलियों से लड़ने के लिए एकत्रित हुए। उनके पास तीस हज+ार रथ और छः हज+ार घुड़सवार थे। उसने पैदल सैनिकों की संख्या समुद्रतट के रेतकणों की तरह असंख्य थी। उन्होंने आ कर बेतआवेन के पूर्व में मिकपास के पास पड़ाव डाला।
6) जब इस्राएलियों ने देखा कि वे बडे+ संकट में पडे+ है, क्योंकि उनकी सेना चारों ओर से घिर रही थी, तो लोग गुफाओं, गड्ढ़ों, चट्टान की दरारों, कब्रों और कुओं में जा छिपे।
7) कुछ लोग यर्दन पार कर गाद और गिलआद प्रदेश चले गये। किन्तु साऊल अब तक गिलआद में ही पड़ा था। उसके साथ के सभी सैनिक भयभीत थे।
8) उसने सात दिन तक - समूएल द्वारा निश्चित समय तक -प्रतीक्षा की; लेकिन समूएल गिलगाल नहीं आया। जब लोग उसके पास से भागने लगे,
9) तब साऊल ने आज्ञा दी, ÷÷होम-बलियांँ और शान्ति-बलियांँ ले आओ'' और उसने होम-बलि चढ़ायी।
10) वह होम-बलि चढ़ा चुका था कि समूएल आया। साऊल उसके स्वागत के लिए उस से मिलने आगे बढ़ा।
11) तब समूएल ने पूछा, ÷÷तुमने यह क्या किया?'' साऊल ने उत्तर दिया,÷÷जब मैंने देखा कि लोग मेरे पास से भाग रहे हैं और आप निश्चित समय तक नहीं आये तथा फ़िलिस्ती मिकमास में इकट्ठे हो गये,
12) तब मैंने सोचा, : मैंने अभी तक प्रभु की कृपा प्राप्त करने के लिए कुछ नहीं किया और फ़िलिस्ती लोग गिलगाल आ कर मुझ पर आक्रमण करने वाले हैं; इसलिए मैं स्वयं होम-बलि चढ़ाने के लिए बाध्य हुआ।÷÷
13) समूएल ने साऊल से कहा,÷÷तुमने मूर्खतापूर्ण कार्य किया है। मैंने तुम को प्रभु, तुम्हारे ईश्वर का जो आदेश दिया था, तुमने उसका पालन नहीं किया है। प्रभु तुम्हारा राज्य इस्राएल में सदा के लिए स्थापित करने वाला था,
14) लेकिन अब तुम्हारा राज्य सुदृढ़ नहीं होगा। प्रभु ने अपने मन के अनुकूल एक पुरुष चुना है। उसने उसे ही अपनी प्रजा का शासक नियुक्त किया है, क्योंकि तुमने प्रभु द्वारा अपने को दी गयी आज्ञा का पालन नहीं किया है।''
15) समूएल गिलगाल से बेनयामीन के गिबआ चला गया। साऊल ने अपने साथ के लोगों की गिनती की। उनकी संख्या लगभग छह सौ थी।
16) साऊल, उसका पुत्र योनातान और उनके साथ के लोग बेनयामीन के गेबा में रह गये, जब कि फ़िलिस्ती मिकमास में पड़ाव डाले पड़े थे।
17) फ़िलिस्तियों के पड़ाव से तीन छापामार दल निकले। एक ओफ्र+ा की ओर गया, जो शूआल प्रान्त में है,
18) दूसरा बेत-होरोन की ओर और तीसरा सीमा प्रान्त की ओर, जो उजाड़खण्ड के सामने सबोईम की घाटी के शिखर पर है।
19) पूरे इस्राएल में कोई लोहार नहीं था, क्योंकि फ़िलिस्ती नहीं चाहते थे कि इब्रानी अपने लिए तलवारें या बल्लम बनवा लें।
20) सभी इस्राएलियों को अपने हल की फाल, फावड़ा, कुल्हाड़ी या हँंसिया पजाने के लिए फ़िलिस्तयों के पास जाना पड़ता था।
21) हल की फाल और फावड़ा पजाने का दाम दो तिहाई शेकेल था, कुल्हाड़ी पजाने और अंकुश की नोक ठीक करने के लिए शेकेल की एक तिहाई।
22) इसलिए युद्ध के दिन साऊल और योनातान की सेना के पास न तलवारें थीं और न भाले। ये हथियार केवल साऊल और उसके पुत्र योनातान के पास थे।
23) फ़िलिस्तियों का एक दल मिकसाल की घाटी तक बढ़ आया था।

अध्याय 14

1) एक दिन साऊल के पुत्र योनातान ने अपने शस्त्रवाहक सेवक से कहा, ÷÷चलो, हम फ़िलिस्तियों की चौकी के पास जायें, जो घाटी के उस ओर है।'' लेकिन उसने इसके बारे में अपने पिता से कुछ नहीं कहा।
2) साऊल गिबआ की सीमा पर उस अनार वृक्ष के नीचे पड़ा था, जो मिगरोन के पास है। उसके साथ की सेना में लगभग छः सौ सैनिक थे।
3) शिलों में प्रभु के याजक एली का प्रपौत्र, पीनहास का पौत्र, अहीटूब का पुत्र, ईकाबोद का भाई अहीया एफ़ोद पहने हुए हुए साथ था। लोगों को यह मालूम नहीं था कि योनातान चला गया है।
4) फ़िलिस्तियों की चौकी पर आक्रमण करने के लिए योनातान को जिस घाटी को पार करना था, उसके दोनों ओर ऊंँची चट्टान थी। एक का नाम बोसेस था और दूसरी का सेन्ने।
5) एक चट्टान तो उत्तर की ओर मिकमास के सामने थी और दूसरी, दक्षिण की ओर गेबा के सामने।
6) योनातान ने अपने शस्त्रवाहक से कहा, ÷÷चलो, हम उन बेख़तना लोगों की चौकी के पास चलें। हो सकता है कि प्रभु हमारा साथ दे; क्योंकि विजय दिलाने से प्रभु को कुछ भी रोक नहीं सकता, चाहे हम संख्या में अधिक हों या कम।''
7) उसके शस्त्रवाहक ने उसे उत्तर दिया, ÷÷आप जो चाहते है, वही कीजिए। मैं सब कुछ करने को तैयार हूंँ। आप जो चाहेंगे, मैं भी वही चाहँूंगा।''
8) योनातान ने कहा, ÷÷हम उधर की ओर आगे बढ़े, जिससे चौकी वाले हमें देख लें।
9) यदि वे हम से कहेंगे कि जब तक हम तुम्हारे पास न आयें, तब तक ठहरे रहो, तो हम उसी स्थान पर रूक जायेंगे और उसके पास ऊपर नहीं चढ़ोगे;
10) और यदि वे हम से कहेंगे कि हमारे पास आ जाओ, तो हम उनके पास ऊपर चढ़ चलेंगे; क्योंकि यह हमारे लिए एक संकेत होगा कि प्रभु ने उन्हें हमारे हाथ दिया है।''
11) जब दोनों फ़िलिस्तिी चौकी की ओर आगे बढें, तो फ़िलिस्तियों ने कहा कि लगता है, अब इब्रानी उन कन्दराओं से निकल आये हैं, जिन में वे छिपे हुए थे।
12) उस चौकी के लोगों ने योनातान और उसके शस्त्रवाहक को पुकार कर कहा, ÷÷हमारे पास ऊपर आओ। हम तुम से कुछ कहना चाहते हैं।'' तब योनातान ने अपने शस्त्रवाहक से कहा, ÷÷मेरे पीछे-पीछे ऊपर चढ़ो, क्योंकि प्रभु ने उन्हें इस्राएल के हाथ दिया है।''
13) तब योनातान हाथ-पैर के सहारे ऊपर चढ़ गया और उसके पीछे-पीछे उसका शस्त्रवाहक उसके भी। चौकी के सैनिक योनातान के सामने गिरते गये और उसका शस्त्रवाहक उसके पीछे-पीछे उनका वध करता गया।
14) उस पहली मुठभेड़ में योनातान और उसके शस्त्रवाहक के द्वारा आधे बीघे भूमि में लगभग बीस मनुष्य मारे गये।
15) इसके बाद शिविर, क्षेत्र और सब लोगों में आतंक फैल गया। चौकी और छापामार दल के सैनिक भयभीत हो उठे। पृथ्वी काँंप उठी। यह ईश्वर का फैलाया हुआ आतंक था।
16) बेनयामीन के गिबआ में साऊल के पहरेदारों ने आंँखे उठायी, तो देखा कि लोग चारों ओर बिखर रहे हैं।
17) तब साऊल ने अपने पास के आदमियों को आज्ञा दी, ÷÷लोगों की गिनती करो और पता लगाओ कि हमारे यहांँ से कौन गया है।'' गिनती करने पर मालूम हुआ कि योनातान और उसका शस्त्रवाहक नहीं हैं।
18) तब साऊल ने अहीया को ईश्वर की मंजूषा पास लाने की आज्ञा दी, क्योंकि उस समय ईश्वर की मंजूषा इस्राएलियों के पास थी।
19) जिस समय साऊल याजक से बातें कर रहा था, फ़िलिस्तियों के शिविर का होहल्ला बढ़ता ही जा रहा था। तब साऊल ने याजक से कहा, ÷÷रहने दो।''
20) साऊल और उसके पास के सब सैनिक एकत्रित हुए और रण क्षेत्र में आ पहँुंचें। उन्होंने देखा कि सैनिक आपस में ही तलवार चला रहे हैं और बड़ी खलबली मची हुई है।
21) अब वे इब्रानी भी साऊल और योनातान के पास रहने वाले इस्राएलियों का साथ देने लगे, जो पहले फ़िलिस्तियों का साथ देते थे और उनके शिविर में आये थे।
22) जब एफ्र+ईम के पहाड़ी प्रदेश में छिपे हुए इस्राएलियों ने सुना कि फ़िलिस्ती भाग रहे हैं, तो उन्होंने भी युद्ध में सम्मिलित हो कर फ़िलिस्तियों का पीछा किया।
23) इस प्रकार प्रभु ने उस दिन इस्राएलियों का उद्धार किया और बेत-आवेन के आगे तक युद्ध फैलता रहा।
24) उस दिन इस्राएली बड़े परेशान रहे; क्योंकि साऊल ने लोगों को यह शपथ दिलाते हुए कहा कि जब तक सन्ध्या न हो जाये और मैं अपने शत्रुओं से बदला न ले लूंँ, तब तक यदि कोई आदमी कुछ खायेगा, तो वह अभिशप्त हो। इसलिए लोगों में किसी ने कुछ नहीं खाया।
25) सब लोग वन में आये और उन्हें वहांँ भूमि पर, एक खुले मैदान में मधु मिला।
26) लोगों ने वन में आगे बढ़ कर छत्तों से टपकता हुआ मधु देखा, किन्तु शपथ के कारण किसी ने उसकी ओर हाथ नहीं बढ़ाया।
27) किन्तु साऊल ने लोगों को जो शपथ दिलायी, उसके विषय में योनातान ने कुछ नहीं सुना था; इसलिए उसने अपने हाथ के डण्डे के सिरे को मधु के छत्ते में डुबा कर अपने हाथ से मुंँह में थोड़ा डाल लिया और उसकी आँंखें चमक उठीं।
28) लोगों में किसी ने उस से कहा, ÷÷तुम्हारे पिता ने लोगों को शपथ दिलाते हुए कहा कि जो आज खायेगा, वह अभिशप्त हो, इसलिए लोग थके मांँदे हैं।''
29) योनातान ने उत्तर दिया, ÷÷मेरे पिता तो देश को परेशान करते हैं। मैंने थोड़ा-सा मधु खाया और देखों मेरी आँखे चमक उठी हैं।
30) यदि लोगों ने भी अपने शत्रुओं से लूटी हुई चीजों से कुछ खाया होता, तो फ़िलिस्तियों पर हमारी जीत और शानदार होती।''
31) उस दिन उन्होंने फ़िलिस्तियों को मिकमास से अय्यालोन तक भगा दिया। लोग बडे+ थके-मांँदे थे;
32) इसलिए वे लूट पर टूट पडे+ और उन्होंने भेड़ो, बैलों और बछड़ों को पकड़ कर भूमि पर उनका वध किया और लोग उन्हें रक्त-सहित खाने लगे।
33) जब साऊल को यह सूचना मिली कि लोग रक्त सहित मांस खा कर प्रभु के विरुद्ध पाप कर रहे हैं, तो वह चिल्ला उठा, ÷÷तुम लोगों ने (ईश्वर के प्रति) विश्वासघात किया। मेरे पास तुरन्त एक बड़ा पत्थर लुढ़का लाओ।''
34) साऊल ने आज्ञा दी, ÷÷चारों ओर जा कर लोगों से कहो कि प्रत्येक व्यक्ति अपना बैल या भेड़ यहांँ लाये और मेरे सामने उसका वध कर उसे खाये। रक्त-सहित मांस खा कर प्रभु के विरुद्ध पाप मत करो।'' इस पर लोगों में प्रत्येक ने उस रात अपने पास का बैल ला कर उसका वहांँ वध किया।
35) साऊल ने प्रभु के लिए एक वेदी बनायी। यह प्रथम वेदी थी, जो उसने प्रभु के लिए बनायी थी।
36) तब साऊल ने कहा, ÷÷हम इसी रात फ़िलिस्तियों का पीछा करें और सबेरे तक उन्हें लूट लें। हम उन में एक को भी जीवित नहीं छोडें+।'' लोगों ने कहा, ÷÷आप जो उचित समझें, वहीं करें।'' परन्तु याजक ने कहा, ÷÷पहले हम ईश्वर से पूछेंगे।''
37) इसलिए साऊल ने ईश्वर से पूछा, ÷÷क्या मैं फ़िलिस्तियों का पीछा करूंँ? और क्या तू उन्हें इस्राएल के हाथ देगा?'' लेकिन उस दिन उसे कुछ उत्तर नहीं मिला।
38) इस पर साऊल ने आदेश दिया, ÷÷जनता के नेताओं! तुम सब यहाँं आओ। पता लगाओ कि आज यहांँ किसने पाप किया है।
39) इस्राएल के उद्धारक प्रभु की शपथ! यदि मेरे पुत्र योनातान ने भी पाप किया होगा, तो उसे भी मृत्युदण्ड मिलेगा।'' लोगों में किसी ने भी उसे उत्तर नहीं दिया।
40) तब उसने सब इस्राएलियों से कहा, ÷÷तुम एक ओर खडे+ होओ और मैं और मेरा पुत्र योनातान दूसरी ओर।'' लोगों ने साऊल को उत्तर दिया, ÷÷आप जो उचित समझें, वही करें। ''
41) तब साऊल ने प्रभु से प्रार्थना की, ÷÷प्रभु ! इस्राएल के ईश्वर! तू सत्य प्रकट कर। यदि अपराध मेरा या मेरे पुत्र योनातान का हो, तो प्रभु इस्राएल के ईश्वर! तू यह चिट्ठी द्वारा प्रकट कर। किन्तु यदि अपराध तुम्हारी प्रजा इस्राएल का हो, तो यह चिट्ठी द्वारा प्रकट कर।'' चिट्ठी योनातान और साऊल के नाम निकली और दूसरे लोग निर्दोष निकले।
42) तब साऊल ने कहा, ÷÷अब मेरे और मेरे पुत्र योनातान के नाम पर चिट्ठी डालो।'' तब चिट्ठी योनातान के नाम निकली।
43) साऊल ने योनातान से कहा, ÷÷मुझे बताओ कि तुमने क्या किया है?'' योनातान ने स्वीकार किया, ÷÷मैंने अपने हाथ के डण्डे से थोड़ा-सा मधु ले कर खा लिया था। मैं मरने को तैयार हँूं।''
44) साऊल ने कहा, ÷÷योनातान! यदि तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी, तो ईश्वर मुझे कठोर-से-कठोर दण्ड दिलाये।''
45) लेकिन लोगों ने साऊल से कहा, ÷÷क्या योनातान को, जिसने इस्राएल के लिए इतनी बड़ी विजय प्राप्त की है, मृत्युदण्ड मिलना चाहिए? कभी नहीं! जीवन्त ईश्वर की शपथ! उसके सिर के एक बाल को भी आंँच नहीं आनी चाहिए; क्योंकि ईश्वर की सहायता से ही आज उसने यह विजय प्राप्त की है।'' इस प्रकार लोगों ने योनातान को मृत्युदण्ड से बचा लिया।
46) साऊल ने फ़िलिस्तियों का पीछा करना बन्द कर दिया और फ़िलिस्ती अपने देश लौट गये।
47) साऊल के इस्राएल पर राज्याधिकार प्राप्त कर लेने के बाद उसे आसपास के सब शत्रुओं-मोआब, अम्मोनियों, एदोम, सोबा के राजाओं और फ़िलिस्तियों - से युद्ध करना पड़ा। वह जहांँ भी गया, विजयी हुआ।
48) उसने वीरता के साथ युद्ध किया, अमालेकियों को पराजित किया और इस्राएल को उसके लूटने वालों के हाथों से बचा लिया।
49) साऊल के पुत्र ये थे : योनातान, इश्वी और मलकीशूआ। उसकी दो पुत्रियांँ भी थीं। बड़ी पुत्री का नाम मेरब था और छोटी का नाम मीकल।
50) अहीमअस की पुत्री अहीनोअम साऊल की पत्नी थी। नेर का पुत्र, साऊल का चाचा अबनेर उसका सेनापति था।
51) साऊल का पिता कीश और अबनेर का पिता नेर, दोनों अबीएल के पुत्र थे।
52) साऊल के जीवनकाल तक भीषण युद्ध चलता रहा। जब साऊल किसी बलवान् और वीर पुरुष को देखता, तो वह उसे अपनी सेवा में ले लेता।

अध्याय 15

1) समूएल ने साऊल से कहा, ÷÷प्रभु ने मुझे इसलिए भेजा कि मैं उसकी प्रजा इस्राएल के राजा के रूप में तुम्हारा अभिषेक करूँं। इसलिए अब प्रभु सन्देश सुनो।
2) सर्वशक्तिमान् प्रभु का कहना है : मैं अमालेकियों को इसलिए दण्ड दूंँगा कि उन्होंने मिस्र से निकलते समय इस्राएलियों पर आक्रमण किया था।
3) अब जाकर अमालेक पर छापा मारो और उनके पास जो कुछ है, उसका सर्वनाश करो। उन पर दया मत करो। क्या पुरुष, क्या स्त्री, क्या बालक, क्या दुधमुंँहे शिशु, क्या गाय, क्या भेड़, क्या ऊँंट, क्या गधा,-सब का वध करो।''
4) साऊल ने सैनिकों को एकत्रित कर टलाईम में उनकी गिनती की। दो लाख पैदल सैनिक और यूदा के दस हज+ार आदमी निकले।
5) साऊल अमालेक के नगर पर छापा मारने के लिए घाटी में घात लगा कर बैठ गया।
6) साऊल ने केनी के वंशजों को यह कहला भेजा, ÷÷जाओ। अमालेकियों को छोड़ दो, जिससे मैं उनके साथ तुम लोगों का विनाश न करूँं; क्योंकि तुमने मिस्र्र से आते हुए सभी इस्राएलियों के साथ मित्रता पूर्ण व्यवहार किया था।'' इसलिए केनी के वंशज अमालेकियों से अलग हो कर चले गये।
7) साऊल ने अमालेकियों का पीछा हवीला से मिस्र के पूर्व में सूर तक किया।
8) उसने अमालेकियों के राजा अगाग को जीवित पकड़ लिया और उसकी सारी प्रजा को तलवार से घाट उतार डाला।
9) लेकिन साऊल और उसके लोगों ने अगाग, सर्वोत्तम भेड़ों, गायें, मोटे-मोटे बछड़ो और मेमनों को -वह सब कुछ, जो मूल्यवान् था, बचा लिया; उनका संहार नहीं किया। उन्होंने केवल बेकार और रद्दी चीजों का विनाश किया।
10) समूएल को प्रभु की यह वाणी सुनाई दी, ÷÷मुझे दुःख है कि मैंने साऊल क़ो राजा बनाया,
11) क्योंकि उसने मुझे त्याग दिया और मेरी आज्ञाओं का पालन नहीं किया।'' यह सुन कर समूएल घबराया और उसने सारी रात प्रभु से प्रार्थना की।
12) जब सबेरे समूएल साऊल से मिलने निकला, तो समूएल को यह समाचार मिला कि साऊल अपने नाम पर एक स्मारक बनाने के लिए करमेल गया है और वहांँ से आगे बढ़ कर गिलगाल तक पहुंँच गया है।
13) जब समूएल साऊल के पास आया, तो साऊल ने उस से कहा, ÷÷प्रभु का आशीर्वाद आप को प्राप्त हो! मैंने प्रभु के आदेश का पालन किया।''
14) लेकिन समूएल ने उत्तर दिया, ÷÷बकरियों का यह मिमियाना, जो मैं सुन रहा हॅूँ और गाय-बैलों का यह रँभाना, जो मैं सुन रहा हूँ इसका अर्थ क्या है?''
15) साऊल ने कहा, ÷÷मेरे सैनिक ये पशु अमालेकियों के यहांँ से ले आये हैं। उन्होंने प्रभु, आपके ईश्वर को बलि चढ़ाने के लिए सर्वोत्तम भेडें+ और बैल बचा रख हैं। शेष का हमने संहार कर दिया है।
16) समूएल ने साऊल से कहा, ÷÷बहुत हुआ। मैं तुम्हें बताना चाहता हूंँ कि प्रभु ने कल रात मुझ से क्या कहा।'' इस पर साऊल ने उत्तर दिया, ÷÷बताइये।''
17) समूएल ने कहा, ÷÷तुम भले ही अपने को छोटा समझते थे, फिर भी तुम इस्राएली वंशों के अध्यक्ष हो और प्रभु ने इस्राएल के राजा के रूप में तुम्हारा अभिषेक किया है।
18) प्रभु ने तुम्हें यह आदेश दे कर भेजा था, ÷जाओ और उन पापी अमालेकियों का संहार करो और उन से तब तक लड़ते रहो, जब तक उनका सर्वनाश न हो।'
19) तुमने क्यों प्रभु की आज्ञा का उल्लंघन किया और लूट के माल पर झपट कर वह काम किया, जो प्रभु की दृष्टि में बुरा है?''
20) इस पर साऊल ने समूएल से कहा, ÷÷मैंने प्रभु की आज्ञा का पालन किया। प्रभु ने जहांँ मुझे भेजा, मैं वहांँ गया और अमालेकियों का संहार कर अमालेक के राजा अगाग को यहांँ ले आया।
21) लेकिन जनता के लूट के माल में से सर्वोत्तम भेड़ों और बैलों को संहार से बचा कर ले लिया, जिससे वे उन्हें आपके प्रभु ईश्वर को बलि चढ़ायें।''
22) समूएल ने उत्तर दिया, ÷÷क्या होम और बलिदान प्रभु को इतने प्रिय होते हैं, जितना उसके आदेश का पालन? नहीं! आज्ञापालन बलिदान से कहीं अधिक उत्तम है और आत्मसमर्पण भेड़ों की चरबी से बढ़ कर है;
23) क्योंकि विद्रोह जादू-टोने की तरह पाप है और आज्ञाभंग मूर्तिपूजा के बराबर है। तुमने प्रभु का वचन अस्वीकार किया, इसलिए प्रभु ने तुम को अस्वीकार किया - तुम अब से राजा नहीं रहोगे।''
24) साऊल ने समूएल से कहा, ÷÷मैंने प्रभु का आदेश और आपके आदेश भंग कर पाप किया है। मैंने लोगों के डर से उनकी बात मानी।
25) अब कृपा कर मेरा पाप क्षमा कर दीजिए और मेरे साथ लौट जाइए, जिससे मैं वहाँं प्रभु की आराधना कर सकूंँ।''
26) परन्तु समूएल ने साऊल को उत्तर दिया, ÷÷मैं तुम्हारे साथ नहीं लौट सकता। तुमने प्रभु की आज्ञा भंग कर दी है, इसलिए प्रभु ने तुम को त्याग दिया है। तुम अब इस्राएल के राजा नहीं रहोगे।''
27) समूएल मुड़ कर जा ही रहा था कि साऊल ने उसके कपडे+ का छोर पकड़ लिया और वह फट गया।
28) इस पर समूएल ने उसे कहा, ÷÷प्रभु ने आज इस्राएल का राज्य तुम से छीन लिया और उसे एक ऐसे व्यक्ति को दे दिया, जो तुम से श्रेष्ठ है।
29) ईश्वर, ईश्वर इस्राएल का गौरव न तो झूठ बोलता और न अपना मन बदलता हैं; क्योंकि वह मनुष्य नहीं है, जो वह अपना मन बदल दे।''
30) उसने उत्तर दिया, ÷÷मैंने पाप किया है, परन्तु आप कृपा कर मेरी प्रजा के नेताओं और इस्राएल के सामने मेरी प्रतिष्ठा बनाये रखिए और मेरे साथ चलिए, जिससे मैं प्रभु आपके ईश्वर की आराधना कर सकूंँ।''
31) समूएल साऊल के साथ लौट गया और साऊल ने प्रभु की आराधना की।
32) समूएल ने कहा, ÷÷अमालेकियों के राजा अगाग को मेरे पास ले आओ।'' अगाग प्रसन्न हो कर उसके पास आया। उसका विचार यह था कि अब मृत्यु का भय टल गया है।
33) परन्तु समूएल ने कहा, ÷÷जैसे तुम्हारी तलवार ने स्त्रियों को निस्सन्तान कर दिया है, वैसे तुम्हारी मांँ भी अब निस्सन्तान होगी।'' इसके बाद समूएल ने गिलगाल में प्रभु के सामने अगाग का वध किया।
34) इसके बाद समूएल रामा चला गया और साऊल गिबआ-साऊल अपने घर गया।
35) तब से समूएल आजीवन साऊल को नहीं देख पाया। समूएल साऊल के लिए शोक मनाता रहा और प्रभु को इस बात का दुःख रहा कि उसने साऊल को इस्राएल का राजा नियुक्त किया था।

अध्याय 16

1) प्रभु ने समूएल से कहा, ÷÷तुम कब तक उस साऊल के कारण शोक मनाते रहोगे, जिसे मैंने इस्राएल के राजा के रूप में अस्वीकार किया है? तुम सींग में तेल भर कर जाओ। मैं तुम्हें बेथलेहेम-निवासी यिशय के यहाँं भेजता हँूं, क्योंकि मैंने उसके पुत्रों में एक को राजा चुना है।''
2) समूएल ने यह उत्तर दिया, ÷÷मैं कैसे जा सकता हूंँ? साऊल को इसका पता चलेगा और वह मुझे मार डालेगा।'' इस पर प्रभु ने कहा, ÷÷अपने साथ एक कलोर ले जाओ और यह कहो कि मैं प्रभु को बलि चढ़ाने आया हूंँ।
3) यज्ञ के लिए यिशय को निमन्त्रण दो। मैं बाद में तुम्हें बताऊँगा कि तुम्हें क्या करना है- मैं जिसे तुम्हें दिखाऊँगा, उसी को मेरी ओर से अभिषेक करोगे।''
4) प्रभु ने जो कहा था, समूएल ने वही किया। जब वह बेथलेहेम पहँुंचा, तो नगर के अधिकारी घबरा कर उसके पास दौडे+ आये और बोले, ÷÷कैसे पधारे? कुशल तो है?''
5) समूएल ने कहा, ÷÷सब कुशल है। मैं प्रभु को बलि चढ़ाने आया हूंँ। अपने को शुद्ध करो और मेरे साथ बलि चढ़ाने आओ।'' उसने यिशय और उसके पुत्रों को शुद्ध किया और उन्हें यज्ञ के लिए निमन्त्रण दिया।
6) जब वे आये और समूएल ने एलीआब को देखा, तो वह यह सोचने लगा कि निश्चय ही यही ईश्वर का अभिषिक्त है।
7) परन्तु ईश्वर ने समूएल से कहा, ÷÷उसके रूप-रंग और लम्बे क़द का ध्यान न रखो। मैं उसे नहीं चाहता। प्रभु मनुष्य की तरह विचार नहीं करता। मनुष्य तो बाहरी रूप-रंग देखता है, किन्तु प्रभु हृदय देखता है।''
8) यिशय ने अबीनादाब को बुला कर उसे समूएल के सामने उपस्थित किया। समूएल ने कहा, ÷÷प्रभु ने उसे को भी नहीं चुना।''
9) तब यिशय ने शम्मा को उपस्थित किया, किन्तु समूएल ने कहा, ÷÷प्रभु ने उस को भी नहीं चुना।''
10) इस प्रकार यिशय ने अपने सात पुत्रों को समूएल के सामने उपस्थित किया। किन्तु समूएल ने यिशय से कहा, ÷÷प्रभु ने उन में किसी को भी नहीं चुना।''
11) उसने यिशय से पूछा, ÷÷क्या तुम्हारे पुत्र इतने ही है? ''यिशय ने उत्तर दिया, ÷÷सब से छोटा यहांँ नहीं है। वह भेडे+ चरा रहा है।÷÷ तब समूएल ने यिशय से कहा, ÷÷उसे बुला भेजो। जब तक वह नहीं आयेगा, हम भोजन पर नहीं बैठेंगे।''
12) इसलिए यिशय ने उसे बुला भेजा। लड़के का रंग गुलाबी, उसकी आंँखें सुन्दर और उसका शरीर सुडौल था। ईश्वर ने समूएल से कहा, ÷÷उठो, इसका अभिषेक करो। यह वही है।''
13) समूएल ने तेल का सींग हाथ में ले लिया और उसके भाइयों के सामने उसका अभिषेक किया। ईश्वर का आत्मा दाऊद पर छा गया और उसी दिन से उसके साथ विद्यमान रहा। समूएल लौट कर रामा चल दिया।
14) प्रभु के आत्मा ने साऊल का त्याग कर दिया और प्रभु का भेजा हुआ एक दुष्ट आत्मा उसे सता रहा था।
15) साऊल के सेवकों ने उस से कहा, ÷÷देखिये, ईश्वर का भेजा हुआ दुष्ट आत्मा आप को सता रहा है।
16) हमारे स्वामी अपने दासों को आज्ञा दें कि हम, जो आपकी सेवा करने को प्रस्तुत हैं, आपके लिए एक ऐसे व्यक्ति का पता लगायें, जो सितार बजाने में निपुण हो। जब-जब ईश्वर का भेजा हुआ वह दुष्ट आत्मा आप पर सवार हो, तब-तब वह सितार बजाये, जिससे आपकी बेचैनी दूर हो जाये।''
17) साऊल ने अपने सेवकों से कहा, ÷÷हाँं, मेरे लिए एक निपुण सितारवादक का पता लगाओ और उसे मेरे पास ले आओ।''
18) उन युवकों में से एक ने कहा, ÷÷मैं बेथलेहेम के यिशय के पुत्र को जानता हँूं। वह वादन में बड़ा निपुण है; वीर योद्धा और अच्छा वक्ता है। उसका शरीर सुडौल है और प्रभु उसके साथ है।
19) इसलिए साऊल ने दूतों से यिशय को कहला भेजा, ÷÷अपने पुत्र दाऊद को मेरे पास भेज दो, जो भेड़- बकरियांँ चराता है।''
20) यिशय ने रोटियों से लदा हुआ गधा, एक कुप्पा अंगूरी और बकरी का एक बच्चा लेकर उन्हें अपने पुत्र दाऊद के साथ साऊल के पास भेज दिया।
21) इस प्रकार दाऊद साऊल के पास आया और उसकी सेवा करने लगा। वह उस को इतना प्रिय हो गया कि उसका शस्त्रवाहक सेवक बन गया।
22) साऊल ने यिशय से निवेदन किया कि दाऊद मेरी सेवा में रहे, क्योंकि वह मेरा कृपापात्र है।
23) जब-जब वह ईश्वर द्वारा भेजा हुआ आत्मा साऊल पर सवार होता, दाऊल सितार बजाने लगता। इस से साऊल का मन शान्त होता, उसे आराम मिलने लगता और वह दुष्ट आत्मा उस से दूर हो जाता।

अध्याय 17

1) फ़िलिस्तियों ने युद्ध के लिए अपने सैनिक एकत्र किये। उन्होंने यूदा के सोको के पास एकत्रित हो कर सोको और अजे+का के बीच एफे+स-दम्मीम में पड़ाव डाला।
2) साऊल और इस्राएली एकत्र हो कर तथा एला की घाटी में पड़ाव डाल कर फ़िलिस्तियों से युद्ध की तैयारियांँ कर रहे थे।
3) फ़िलिस्ती एक पहाड़ की ढाल पर थे और इस्राएली लोग दूसरे पहाड़ की ढाल पर। उनके बीच घाटी थी।
4) फ़िलिस्तियों के शिविर से एक महापराक्रमी योद्धा बाहर निकला। वह गत का निवासी था और उसका नाम गोलयत था।
5) वह छः हाथ एक बित्ता लम्बा था, उसके सिर पर काँंसे का टोप था और वह कवच पहने था। उसके कांँसे के कवच का वज+न पांँच हजार शेकेल था।
6) उसकी टांँगो में काँंसे के कवच थे और उसके कन्धों पर कांँसे की बरछी बँंधी थी।
7) उसके भाले का डण्डा करघे के डण्डे के समान था। भाले का फल लोहे का था और उसका वज+न छः सौ शेकेल था। उसका ढालवाहक सेवक उसके आगे-आगे चल रहा था।
8) उसने आ कर इस्राएलियों को ललकारा, ÷÷तुम क्यों बढे+ आ रहे हो और लड़ाई की तैयारियांँ कर रहे हो? क्या मैं फ़िलिस्ती नहीं हूंँ और तुम साऊल के दास नहीं हो? अपने बीच एक आदमी चुन लो, जो मेरे पास नीचे उतर आये।
9) यदि वह मुझ से लड कर मेरा वध करेगा, तो हम तुम्हारे अधीन हो जायेंगे और यदि मैं उसे पराजित कर उसका वध करूँंगा, तो तुम हमारे अधीन हो कर हमारे दास बन जाओगे।''
10) उस फ़िलिस्ती ने कहा, ÷÷आज मैं इस्रालियों की सेना को चुनौती देता हँूं। मेरे पास एक आदमी भेजो- हम द्वन्द्वयुद्ध करें।''
11) जब साऊल और सारे इस्रालियों ने उस फ़िलिस्ती की चुनौती सुनी, तो वे डर कर हिम्मत हार बैठे।
12) दाऊद बेथलेहेम के यूदा के एफ्र+ाती यिशय का पुत्र था। यिशय के आठ पुत्र थे। साऊल के राज्यकाल में वह बूढ़ा हो चला था और उसकी अवस्था बहुत अधिक हो गई थी।
13) यिशय के तीन बडे+ पुत्र साऊल के साथ युद्ध करने गये थे। युद्ध में जाने वाले उसके तीन पुत्रों के नाम ये थे : पहले का एलीआब, दूसरे का अबीनादाब और तीसरे का शम्मा। दाऊद सब से छोटा था।
14) तीन बडे+ पुत्र साऊल के साथ गये थे।
15) दाऊद बेथलेहेम में अपने पिता की भेडे+ं चराने के लिए साऊल के यहांँ से घर लौट आया करता।
16) वह फ़िलिस्ती चालीस दिन तक सुबह और शाम आ कर खड़ा होता रहा।
17) यिशय ने अपने पुत्र दाऊद से कहा, ÷÷अपने भाइयों के लिए यह आधा मन भुना अनाज और ये दस रोटियांँ ले लो और उनके शिविर में जल्दी वापस जाओ।
18) तुम पनीर के ये दस टुकडे+ उनके सहस्रपति के पास ले जाओ। अपने भाइयों का कुशल-क्षेम पूछो और उन से कोई निशानी मांँग कर आओ।
19) वे साऊल और सभी इस्राएलियों के साथ फ़िलिस्तयों से युद्ध करने के लिए एला की घाटी में पड़े हैं।''
20) दाऊल बडे+ सबेरे उठा और उसने भेडे+ किसी चरवाहे के सुपुर्द कर दी तथा स्वयं सामान ले कर यिशय की आज्ञा के अनुसार चल दिया। जब वह शिविर में पहँुंचा, उस समय सेना ललकारती हुई मोरचे पर चली जा रही थी।
21) इस्राएली और फ़िलिस्ती, दोनों आमने-सामने पंक्तिबद्ध खड़े हो गये थे।
22) इसलिए दाऊल अपना सामान रसद के रखवाले के पास छोड़ कर युद्धक्षेत्र की ओर दौड़ पड़ा। उसने अपने भाइयों के पास जा कर उनका कुशल-क्षेम पूछा।
23) वह उनसे बात कर ही रहा था कि गत के फ़िलिस्ती महापराक्रमी गोलयत ने फ़िलिस्तियों के दल से निकल कर पहले की ही तरह चुनौती दी। दाऊद ने उसे सुना।
24) इस्राएली उस आदमी को देखते ही उसके सामने से भाग खडे+ हुए। वे उस से बहुत डरते थे।
25) इस्राएलियों ने कहा, ÷÷देखो, वह आदमी आगे बढ़ रहा है। वह इस्राएलियों को ललकारने आ रहा है। जो उसे मार डालेगा, उसे राजा बड़ी धन-सम्पत्ति देगा। वह अपनी पुत्री से उसका विवाह कर देगा और इस्राएल में उसके पिता के घराने को कर से मुक्त कर देगा।''
26) दाऊल ने आसपास खडे+ सैनिकों से पूछा, ÷÷उस व्यक्ति का क्या होगा, जो उस फ़िलिस्ती को मार कर इस्राएल का यह कलंक दूर करेगा? यह बेख़तना फ़िलिस्ती कौन है, जो जीवन्त ईश्वर की सेना को ललकारने का साहस करता है?''
27) लोगों ने उसे उत्तर दिया, ÷÷जो उसे मारेगा, उसे वही पुरस्कार मिलेगा।''
28) जब उसके बडे+ भाई एलीआब ने उन व्यक्तियों से उसे इस प्रकार बात करते हुए सुना, तब एलीआब को दाऊद पर बड़ा क्रोध आया और वह उसे इस प्रकार फटकारने लगा, ÷÷तुम इधर क्यों आये? तुमने उन थोड़ी-सी भेड़ों को उजाड़खण्ड में किसके हवाले किया? मैं तुम्हारा दुस्साहस और तुम्हारा दुष्ट हृदय पहचानता हूंँ। तुम केवल लड़ाई देखने आये हो।''
29) दाऊद ने उत्तर दिया, ÷÷मैंने क्या बुरा किया है? मैंने तो केवल पूछा था।''
30) इसके बाद दाऊद ने अपने बडे+ भाई को छोड़ कर एक दूसरे व्यक्ति से वही प्रश्न पूछा। लोगों ने उसे वही उत्तर दिया, जो उसे पहली बार मिला था।
31) लोगों ने दाऊद की बातें सुन कर साऊल को इसके विषय में बतलाया। तब साऊल ने उसे बुला भेजा।
32) दाऊद ने साऊल से कहा, ÷÷उस फ़िलिस्ती के कारण कोई भी हिम्मत न हारे। आपका यह सेवक उससे लड़ने जायेगा।''
33) इस पर साऊल ने यह उत्तर दिया, ÷÷तुम उस फ़िलिस्ती से लड़ने नहीं जा सकते। तुम तो अभी किशोर हो और वह लड़कपन से ही वीर योद्धा है।''
34) दाऊद ने साऊल को उत्तर दिया, ÷÷आपका यह दास जब अपने पिता की भेडें+ चराता था और कोई सिंह या भालू आ कर झुण्ड से कोई भेड़ पकड़ ले जाता,
35) तो मैं उसके पीछे जा कर उसे मारता और उसके मुंँह से उसे छीन लेता था और यदि वह मेरा सामना करता, तो मैं उसकी अयाल पकड़ कर उस पर प्रहार करता और उसे मार डालता था।
36) आपके दास ने तो सिंहों और भालूओं को मारा है। इस बेख़तना फ़िलिस्ती के साथ भी ऐसा ही होगा, जैसा उनके साथ हुआ; क्योंकि इसने जीवन्त ईश्वर की सेना का अपमान किया है।
37) प्रभु ने मुझे सिंह और भालू के पंजे से बचा लिया। वह मुझे उस फ़िलिस्ती के हाथ से भी बचायेगा।'' इस पर साऊल ने दाऊद से कहा, ÷÷जाओ। प्रभु तुम्हारे साथ हो।''
38) तब साऊल ने दाऊद को अपना कुरता पहना दिया। उसके सिर पर कांँसे का टोप रखा और उसे कवच पहनाया।
39) अपने बख्+तर के ऊपर दाऊद ने तलवार बांँधी, लेकिन वह चल नहीं सका, क्योंकि उसे इसका अभ्यास नहीं था। इसलिए दाऊद ने साऊल से कहा, ÷÷मैं इन्हें पहन कर चल नहीं सकता, क्योंकि मुझे इनका अभ्यास नहीं है'' और दाऊद ने उन्हें उतार दिया।
40) तब दाऊद ने अपनी लाठी हाथ में ली और नाले से पाँंच चिकने पत्थर चुन कर अपनी चरवाहे की झोली के जेब में रख लिये। तब वह हाथ में ढेलवाँंस लिये फ़िलिस्ती की ओर बढ़ा।
41) फ़िलिस्ती भी धीरे-धीरे दाऊद की ओर बढ़ा। उसका ढालवाहक उसके आगे-आगे चलता था।
42) फिलिस्ती ने दाऊद को देखा और उस पर आंँखें दौड़ा कर उसका तिरस्कार किया, क्योंकि वह किशोर था (उसका रंग गुलाबी और शरीर सुडौल था)।
43) फ़िलिस्ती ने दाऊद से कहा, ÷÷क्या तुम मुझे कुत्ता समझे हो, जो लाठी लिये मुझ से लड़ने आये?'' और वह अपने देवताओं का नाम ले कर दाऊद को कोसने लगा।
44) इसके बाद उसने दाऊद से कहा, ÷÷मेरे पास आओ और मैं आकाश के पक्षियों और जंगल के जानवरों को तुम्हारा मांँस खिलाऊँंगा।''
45) दाऊद ने फ़िलिस्ती को यह उत्तर दिया, ÷÷तुम तलवार, भाला और बरछी लिये मुझ से लड़ने आ रहे हो। मैं तो विश्वमण्डल के प्रभु, इस्राएली सेनाओं के ईश्वर के नाम पर तुम से लड़ने आ रहा हूंँ, जिसे तुमने चुनौती दी है।
46) ईश्वर आज तुम को मेरे हवाले कर देगा। मैं तुम को पछाड़ कर तुम्हारा सिर काट डालूंँगा और आज ही आकाश के पक्षियों और जंगल के जानवरों को फ़िलिस्तियों की लाशें खिलाऊँंगा, जिससे सारी दुनिया यह जान जायेगी कि इस्राएल का अपना ईश्वर है।
47) और यहाँ का सारा समुदाय यह जान जायेगा कि प्रभु तलवार या भाले द्वारा नहीं बचाता। प्रभु ही युद्ध का निर्णय करता है और वह तुम लोगों को हमारे हवाले कर देगा।''
48) जब फ़िलिस्ती फिर आगे बढ़ने लगा, तो दाऊद उसका सामना करने के लिए दौड़ पड़ा।
49) दाऊद ने झोली में हाथ डाल कर एक पत्थर निकाल लिया, उसे ढेलवाँंस में लगाया और फ़िलिस्ती के माथे पर मार दिया। वह पत्थर उसके माथे में गड़ गया और वह मुंँह के बल भूमि पर गिर पड़ा।
50) इस प्रकार दाऊद ढेलवाँंस और पत्थर द्वारा फ़िलिस्ती पर विजयी हुआ। उसने फ़िलिस्ती को पछाड़ा और मार डाला, यद्यपि उसके हाथ में तलवार नहीं थी।
51) दाऊद फ़िलिस्ती के पास दौड़ा आया उसने फ़िलिस्ती की तलवार म्यान से निकाली और उस से उसका सिर काट कर उसे मार डाला। फ़िलिस्ती लोग यह देख कर कि उनका अपना वीर योद्धा मार डाला गया, भाग खडे+ हुए।
52) इस्राएल और यूदा के सैनिक ललकारते हुए आगे बढे+ और गत तथा एक्रोन के फाटकों तक फ़िलिस्तियों का पीछा करते रहे। शआरईम के मार्ग पर गत और एक्रोन तक मारे हुए फ़िलिस्तयों की लाशें पड़ी थीं।
53) जब इस्राएली फ़िलिस्तियों का पीछा करने के बाद लौटे, तो उन्होंने उनका शिविर लूटा।
54) दाऊद उस फ़िलिस्ती का सिर येरुसालेम ले गया और उसके हथियार अपने तम्बू में रख लिये।
55) जब साऊल ने दाऊद को फ़िलिस्ती की ओर जाते देखा, तो उसने अपने सेनापति अबनेर से पूछ, ÷÷अबनेर! यह नौजवान किसका पुत्र है?'' अबनेर ने उत्तर दिया, ÷÷महाराज! आपकी शपथ, मैं इसे नहीं जानता।''
56) इस पर राजा ने आज्ञा दी, ÷÷पूछो कि यह नौजवान किसका पुत्र है?''
57) जब दाऊद फ़िलिस्ती का वध कर लौटा, तो अबनेर उसे साऊल के पास ले गया। अब तक दाऊद उस फ़िलिस्ती का सिर अपने हाथ में लिये था।
58) साऊल ने उस से पूछा, ÷÷युवक! तुम किसके पुत्र हो?'' दाऊद ने उत्तर दिया, ÷÷मैं बेथलेहेमवासी आपके दास यिशय का पुत्र हूंँ।''

अध्याय 18

1) साऊल के साथ दाऊद की बातचीत समाप्त हो जाने के बाद से योनातान की आत्मा और दाऊद की आत्मा एक हो गयी और योनातान दाऊद को अपने प्राणों के समान प्यार करने लगा।
2) उस दिन से साऊल ने उसे अपने यहांँ रोक लिया और उसे उसके पिता के घर नहीं लौटने दिया।
3) योनातान ने दाऊद के साथ मित्रता का सम्बन्ध बना लिया, क्योंकि वह उसे अपने प्राणों के समान प्यार करता था।
4) योनातान ने अपना लबादा उतार कर दाऊद को पहना दिया और साथ-साथ अपना कुरता, अपनी तलवार, अपना धनुष और अपना कमरबन्द भी दे दिया।
5) साऊल उसे जहांँ-जहांँ भेजता था, दाऊद सब जगह अपने कामों में सफल होता था; इसलिए साऊल ने उसे अपनी सेना के उच्च पद पर नियुक्त किया। यह सब लोगों को और सेना के अधिकारियों को भी अच्छा लगा।
6) जब दाऊद फ़िलिस्ती को मारने के बाद सेना के साथ लौटा, तो स्त्रियांँ इस्राएल के सब नगरों से निकल कर नाचते-गाते, डफली और झांँझ बजाते और जयकार करते हुए राजा साऊल की अगवानी करने गयीं।
7) वे नाचती हुई यह गा रही थीं- साऊल ने सहस्रों को मारा और दाऊद ने लाखों को।
8) साऊल यह सुन कर बुरा मान गया और बहुत अधिक क्रुद्ध हुआ। उसने अपने से कहा, ÷÷उन्होंने दाऊद को लाखों दिया और मुझे केवल सहस्रों को। अब राज्य के सिवा उसे किस बात की कमी है?''
9) उस समय से साऊल दाऊल को ईर्ष्या की दृष्टि से देखने लगा।
10) दूसरे दिन ईश्वर का भेजा हुआ दुष्ट आत्मा साऊल पर सवार हुआ और वह अपने घर में आविष्ट हो गया। दाऊद प्रतिदिन की तरह सितार बजा रहा था। साऊल के हाथ में उसका भाला था।
11) उसने दाऊद की ओर उसे यह सोच कर फेंक मारा कि मैं दाऊद को दीवार में ठोंक दूंँगा। परन्तु दाऊद ने दो बार उस से अपने को बचा लिया।
12) साऊल दाऊद से डरता था, क्योंकि प्रभु दाऊद के साथ था और साऊल से दूर हो गया था।
13) इसलिए साऊल ने उसे अपनी सेवा से हटा दिया और उसे सहस्रपति नियुक्त किया। दाऊद युद्धों में सैनिकों का नेतृत्व किया करता था।
14) दाऊद अपने सब कामों में सफल होता था, क्योंकि प्रभु उसके साथ था।
15) जब साऊल ने देखा कि उसे बड़ी सफलता मिलती जा रही है, तो वह उस से और भी डरने लगा।
16) सारा इस्राएल और यूदा भी दाऊद को प्यार करता था, क्योंकि वही युद्धों में उनका नेतृत्व किया करता था।
17) साऊल ने दाऊद से कहा, ÷÷यह मेरी सब से बड़ी पुत्री मेरा मेरब है। मैं इस से तुम्हारा विवाह कर दँूंगा। शर्त यह है कि तुम शूरवीर की तरह मेरी सेवा और प्रभु के लिए युद्ध करते रहो।÷÷ साऊल का यह विचार था कि मैं अपने हाथ से उसे न मारूँं, फ़िलिस्ती उसे मार डालें।
18) दाऊद ने साऊल से कहा, ÷÷मैं कौन हँूूं, मेरे सम्बन्धी क्या हैं और इस्राएल में मेरे पिता का कुल क्या है, जो मैं राजा का दामाद बनँूं?''
19) जब साऊल की पुत्री मेरब के दाऊद के साथ विवाह का समय आया, तो उसका विवाह महोलाती अद्रीएल के साथ कर दिया गया।
20) साऊल की पुत्री मीकल दाऊद से प्रेम करती थी। जब यह बात साऊल को बतायी गयी, तो उसे सन्तोष हुआ;
21) क्योंकि साऊल ने सोचा कि मैं उसे दाऊद को दूंँगा, जिससे वह उसके लिए जाल बन जाये और दाऊल फ़िलिस्तयों के हाथ पड़ जाये। इसलिए उसने दो बार दाऊद से कहा, ÷÷आज तुम मेरे दामाद बन जाओगे।''
22) साऊल ने अपने सेवकों को यह आज्ञा दी, ÷÷तुम एकान्त में दाऊद से मिल कर उस से कहो, ÷राजा तुम पर प्रसन्न है और उसके सब सेवक भी तुम को चाहते हैं, इसलिए अब तुम राजा के दामाद बन जाओ'।''
23) साऊल के सेवकों ने जब दाऊद से कहा, तो दाऊद ने उन्हें उत्तर दिया, ÷÷क्या तुम सोचते हो कि मुझ-जैसे ग़रीब और साधारण व्यक्ति के लिए राजा का दामाद बन जाना छोटी बात है?''
24) सेवकों ने साऊल को बताया कि दाऊल ने क्या उत्तर दिया।
25) इस पर साऊल ने आज्ञा दी, ÷÷तुम दाऊद से कहो कि राजा दहेज स्वरूप फ़िलिस्तियों की सौ खलड़ियों के सिवा और कुछ नहीं मांँगता, जिससे राजा के शत्रुओं से बदला लिया जाये।'' साऊल को यह आशा थी कि दाऊद फ़िलिस्तियों के द्वारा मार डाला जायेगा।
26) सेवकों ने दाऊद को यह शर्त बतायी और दाऊद ने राजा का दामाद बनना स्वीकार कर लिया।
27) अभी समय पूरा भी नहीं हो पाया था कि दाऊद अपने साथियों को ले कर गया और दौ सौ फ़िलिस्तयों को मार डाला। दाऊद उनकी खलड़ियांँ ले आया, जो राजा के समाने ही गिनी गयीं, जिससे दाऊद राजा का दामाद बने। इस पर साऊल ने अपनी पुत्री मीकल से उसका विवाह कर दिया।
28) साऊल ने अच्छी तरह समझ लिया कि प्रभु दाऊद के साथ है और उसकी पुत्री मीकल उस से प्रेम करती है।
29) इसलिए वह दाऊल से और भी अधिक डर गया और उसे जीवन भर दाऊद से शत्रुता रही।
30) फ़िलिस्तियों के नेता युद्ध करने आते रहे और जब-जब वे आते थे, तो दाऊद को साऊल के अन्य सेनापतियों की अपेक्षा अधिक सफलता मिलती थी और उसका नाम प्रसिद्ध हो गया।

अध्याय 19

1) साऊल ने दाऊल की हत्या के विषय में अपने पुत्र योनातान और अपने सब दरबारियों से बातचीत की। साऊल का पुत्र योनातान दाऊद को बहुत प्यार करता था;
2) इसलिए उसने दाऊद से कहा, ÷÷मेरे पिता साऊल तुम को मार डालना चाहते हैं। कल सबेरे सावधान रहो। तुम किसी जगह छिप जाओ।
3) और मैं शहर से निकल कर उस मैदान में, जहाँ तुम होगे, अपने पिता के पास रहँूंगा और तुम्हारे विषय में अपने पिता से बात करूंँगा। जो कुछ मालूम होगा, मैं तुम्हें बता दूंँगा।''
4) योनातान ने दाऊद का पक्ष ले कर अपने पिता से यह कहा, ÷÷राजा अपने सेवक दाऊद के साथ अन्याय न करें; क्योंकि उसने आपके विरुद्ध कोई पाप नहीं किया। उलटे; उसने जो कुछ किया, उस से आप को बड़ा लाभ हुआ।
5) उसने अपनी जान हथेली पर रख कर उस फ़िलिस्ती को मारा और इस प्रकार प्रभु ने सारे इस्राएल को महान् विजय दिलायी! आपने यह देखा और आनन्द मनाया। अब आप क्यों अकारण ही दाऊद को मार कर निर्दोष रक्त बहाना चाहते हैं?''
6) साऊल ने योनातान की बात मान ली और शपथ खा कर कहा, ÷÷जीवन्त ईश्वर की शपथ! दाऊद नहीं मारा जायेगा।''
7) इसके बाद योनातान ने दाऊद को अपने पास बुलाया और उसे ये सभी बातें बतायी। योनातान दाऊद को साऊल के पास ले आया और वह फिर पहले की तरह साऊल के साथ रहने लगा।
8) फिर युद्ध छिड़ गया। दाऊद फ़िलिस्तियों से लड़ने गया और उसने उन्हें इतनी बुरी तरह मारा कि वे उसके सामने से भाग गये।
9) साऊल पर पुनः प्रभु द्वारा भेजा हुआ दुष्ट आत्मा सवार हुआ। वह अपने घर में भाला लिये बैठा था और दाऊद सितार बजा रहा था।
10) साऊल ने दाऊद को भाले से दीवार में ठोंकने का प्रयत्न किया, परन्तु उसने अपने को साऊल से बचा लिया और भाला दीवार में जा लगा। दाऊद उसी रात निकल भागा।
11) उस रात स+ाऊल ने दाऊद के घर दूत भेज कर उस पर पहरा बैठा दिया, जिससे वे सुबह होते ही उसे मार डालें। दाऊद की पत्नी मीकल से उस को यह कहते हुए सावधान किया, ÷÷यदि तुम इसी रात किसी सुरक्षित स्थान पर नहीं चले जाते, तो कल सबेरे तुम मार डाले जाओगे।''
12) तब मीकल ने दाऊद को खिड़की से नीचे उतार दिया और वह भाग निकला।
13) मीकल ने एक मूर्ति ले कर उसे पलंग पर रख दिया, फिर बकरियों के बालों की बनी हुई एक जाली उसके सिर पर लगा दी और उसे कपड़ो से ढक दिया।
14) जब साऊल ने दाऊद को ले आने के लिए दूत भेजे, तो वह बोली, ÷÷वह बीमार है।''
15) साऊल ने दाऊद को देखने उन दूतों को भेजा और उन से कहा, ÷÷उसे पलंग पर पडे+ हुए ही मेरे पास ले आओ, जिससे मैं उसका वध कर दँूं।''
16) जब दूत आये, तब उन्होंने देखा कि पलंग पर मूर्ति रखी है और उसके सिर पर बकरियों के बालों की जाली पड़ी है।
17) साऊल ने मीकल से कहा, ÷÷तुमने क्यों मुझे इस प्रकार धोखा दिया? तुमने मेरे शत्रु को जाने दिया और वह बच गया।'' मीकल ने साऊल को उत्तर दिया, ÷÷उसने मुझ से कहा-मुझे जाने दो, नहीं तो मैं तुम्हे मार डालूंँगा।''
18) दाऊद भाग कर बच गया और रामा में समूएल के पास आ कर उसने वह सब बताया, जो साऊल ने उसके साथ किया था। वह समूएल के साथ नायोत जा कर वहांँ रहा।
19) साऊल को इसका पता चला कि दाऊद रामा के नबियों के निवास पर रहता है।
20) साऊल ने दाऊद को पकड़ने के लिए दूत भेजे। जैसे ही उन्होंने नबियों के समुदाय को समूएल के नेतृत्व में भविष्यवाणी करते देखा, साऊल के दूत भी ईश्वर के आत्मा से आविष्ट हो कर भविष्यवाणी करने लगे।
21) इसके विषय में सुन कर साऊल ने दूसरे दूतों को भेजा। वे भी आविष्ट हो गये। इस पर साऊल ने तीसरी बार दूतों को भेजा, तो वे भी आविष्ट हो गये।
22) जब वह स्वयं रामा गया। सेकू के बडे+ कुण्ड के पास पहुंँच कर उसने पूछा, ÷÷समूएल और दाऊद कहाँं है?'' उसे उत्तर मिला, ÷÷वे रामा के नायोत में है।''
23) जब वह वहांँ से रामा के नायोत की ओर बढ़ा, तो वह ईश्वर के आत्मा से आविष्ट हो गया और नायोत पहुंँचने तक भविष्यवाणी करता रहा।
24) वहाँं पहुंँच कर उसने अपने कपडे+ उतार डाले और समूएल के सामने भाविष्यवाणी की। इसके बाद वह गिर कर दिन और रात भर नग्न पड़ा रहा। इसलिए लोगों में यह कहावत चल पड़ी, ÷÷क्या साऊल भी नबियों में से एक है?''

अध्याय 20

1) दाऊद रामा के नायोत से भाग कर योनातान के पास पहँुंचा और उस से बोला, ÷÷मैंने क्या किया है, मेरा दोष क्या है, मैंने तुम्हारे पिता के पिता के प्रति कौन-सा अपराध किया है, जो वह मेरे प्राणों के ग्राहक बन बैठे हैं?''
2) उसने उसे उत्तर दिया, ÷÷ऐसा नहीं होगा तुम नहीं मारे जाओगे। देखो, मुझे बताये बिना मेरे पिता कभी कोई छोटी या बड़ी बात नहीं करते। मेरे पिता मुझ से यह क्यों छिपायेंगे? यह हो नहीं सकता।''
3) दाऊद ने उत्तर दिया, ÷÷तुम्हारे पिता अच्छी तरह जानते हैं कि तुम मुझे प्यार करते हो और इसलिए वह सोचते हैं कि योनातान को इस बात का पता न चले, नहीं तो वह दुःखी होगा। मैं प्रभु की शपथ और तुम्हारी शपथ खा कर कहता हूंँ कि मेरे और मृत्यु के बीच अब केवल एक कदम की दूरी रह गयी है।''
4) योनातान ने दाऊद से कहा, ÷÷तुम मुझ से जो कुछ चाहोगे, मैं तुम्हारे लिए वह सब करूंँगा।''
5) दाऊद ने योनातान से कहा, ÷÷देखों, कल अमावस है। मुझे राजा के साथ भोजन करना पडे+गा। इसलिए तुम मुझे जाने की अनुमति दो, जिससे मैं तीसरे दिन की शाम तक खेत में छिपा रहूंँ।
6) यदि तुम्हारे पिता मुझे ढूंँढे, तो उन से कहना कि दाऊद ने मुझ से आग्रह किया कि मैं उसे अपने नगर बेथलेहेम जाने की अनुमति दँूं, क्योंकि वहांँ उसके सारे कुल के लिए वार्षिक बलिदान चढ़ाया जा रहा है।
7) यदि वह कह दें कि ठीक है, तो तुम्हारे इस सेवक को कोई खतरा नहीं है। परन्तु यदि वह क्रुद्ध हो जायें, तो समझो कि वह मेरा बुरा करने पर उतारू हैं।
8) तब मुझ, अपने सेवक पर कृपा करो, क्योंकि तुमने मुझ, अपने दास के साथ प्रभु के नाम पर मित्रता की है। यदि मैं दोषी हँूं, तो तुम स्वयं मुझे मार डालो, किन्तु अपने पिता के हवाले मत करो।''
9) योनातान ने उत्तर दिया, ÷÷ऐसा कभी नहीं होगा। यदि मुझे इसका पता होता कि मेरे पिता तुम्हारा बुरा करने पर ही उतारू हैं, तो मैं तुम्हें यह अवश्य बताता।''
10) दाऊद ने योनातान से कहा, ÷÷तो मुझे कौन बतायेगा कि तुम्हारे पिता ने कठोर उत्तर दिया है।''
11) योनातान ने दाऊद से कहा, ÷÷चलो, हम खेत चलें।'' दोनों खेत चले गये।
12) तब योनातान ने दाऊद से कहा, ÷÷प्रभु इस्राएल का ईश्वर यह जानता है कि कल या परसों मैं इसी समय अपने पिता की थाह लूंँगा। यदि उनके मन में तुम्हारे प्रति सद्भाव होगा, तो मैं अवश्य ही किसी को भेज कर तुम्हें सूचित करूंँगा।
13) और यदि मेरे पिता तुम्हारा बुरा करना चाहेंगे, तो यदि वह मैं स्वयं तुम्हें न बताऊँं और तब यदि तुम्हें न जाने दूंँ, जिससे तुम सुरक्षित रहो, तो प्रभु योनातान को कठोर-से-कठोर दण्ड दिलाये। प्रभु तुम्हारे साथ हो, जैसे वह मेरे पिता के साथ रहा है।
14) जब तक मैं जीवित रहँूं, तुम मुझ पर प्रभु-जैसा अनुग्रह बनाये रखो, जिससे मेरा वध न किया जाये।
15) मेरे घराने पर से अपनी कृपादृष्टि मत हटाओ-उस समय भी नहीं, जब ईश्वर पृथ्वी पर से दाऊद के सब शत्रुओं को मिटा देगा।''
16) योनातान ने यह कहते हुए दाऊद के घराने के साथ मित्रता की, ÷÷प्रभु दाऊद के शत्रुओं को दण्डित करे।''
17) फिर योनातान ने दाऊद को शपथ खिलायी कि वह योनातान को प्यार करता रहेगा; क्योंकि योनातान उसे अपने समान प्यार करता था।
18) योनातान ने दाऊद से कहा, ÷÷कल अमावास है। तुम्हारा आसन ख़ाली होने के कारण पता चलेगा कि तुम अनुपस्थित हो।
19) तीसरे दिन तुम लौट कर वहीं छिपे रहो, जहांँ तुम उस दिन छिपे थे और एजे+ल के पत्थर के पास बैठे रहो।
20) मैं उस ओर तीन तीर इस प्रकार छोडूंँगा, जैसे मैं उन्हें किसी निशाने पर चला रहा होऊंँ।
21) तब मैं एक लड़के से कहूंँगा कि जाओ, तीर ढूंँढ़ लाओ। यदि मैं उस लड़के से कहँूं, ÷तीर तुम्हारे इस तरफ़ है', तो तुम आओ; क्योंकि तुम सुरक्षित होगे। जीवन्त प्रभु की शपथ! तुम को कुछ नहीं होगा।
22) परन्तु यदि मैं उस लड़के से कहँूं, ÷देखो, तीर तुम्हारे उस तरफ़ है÷, तो तुम भाग जाओ; क्योंकि प्रभु चाहता है कि तुम चले जाओ।
23) प्रभु मेरे और तुम्हारे बीच इस बात का सदा साक्षी रहेगा।''
24) दाऊद ने अपने को खेत में छिपा रखा।
25) अमावास के दिन राजा भोजन करने बैठा। राजा सदा की भांँति दीवार के पास अपने स्थान पर बैठा, उसके सामने योनातान और साऊल की बग़ल में अबनेर।
26) दाऊद की जगह खाली रह गयी। उस दिन साऊल ने कुछ नहीं कहा। उसने सोचा कि दाऊद निश्चय ही किसी कारण अशुद्ध होगा।
27) जब अमावास के दूसरे दिन भी दाऊद की जगह ख़ाली रह गयी, तब साऊल ने अपने पुत्र योनातान से पूछा, ÷÷यिशय का पुत्र कल और आज भोजन पर क्यों नहीं आया?''
28) योनातान ने साऊल को उत्तर दिया, ÷÷बेथलेहेम जाने के लिए दाऊद ने मुझ से आग्रहपूर्वक छुट्टी माँगी।
29) उसने मुझ से कहा, ÷मुझे जाने दो; क्योंकि हमारा नगर बलिदान चढ़ाने वाला है। मेरे भाई ने मुझे बुला भेजा है। यदि तुम मुझे प्यार करते हो, तो मुझे जाने दो, जिससे मैं अपने भाइयों से मिल आऊँं।' इसलिए वह राजा के साथ भोजन पर नहीं आया है।''
30) तब साऊल को योनातान पर बड़ा क्रोध आया और उसने उस को फटकारते हुए कहा, ÷÷अरे तुम कुटिल और विद्रोही मांँ के पुत्र! मैं जानता हँूं कि तुम अपना मँुंह और अपनी माँं का मुंँह काला करने के लिए यिशय के पुत्र का पक्ष लेते हो।
31) जब तक यिशय का पुत्र पृथ्वी पर जीवित है, तब तक यह समझ लेना कि न तुम सुरक्षित रह सकते हो और न तुम्हारा राज्य। अब किसी को भेज कर उसे मेरे पास बुलवा लो। उसे अब मरना ही होगा।''
32) योनातान ने अपने पिता साऊल से कहा, ÷÷वह क्यों मारा जायेगा? उसने क्या बिगाड़ा है?''
33) इस पर साऊल ने उसे मारने के लिए उसकी ओर भाला चलाया। अब योनातान को विश्वास हो गया कि उसका पिता निश्चय ही दाऊद को मार डालना चाहता है।
34) योनातान बहुत क्रोध में भोजन की मेज+ पर से उठ कर चल दिया। अमावास के दूसरे दिन उसने कुछ नहीं खाया। वह दाऊद के लिए बड़ा दुःखी था, क्योंकि उसके पिता ने उसका अपमान किया था।
35) दूसरे दिन सबेरे योनातान निश्चित किये हुए स्थान पर खेत में दाऊद से मिलने गया। उसके साथ एक छोटा लड़का था।
36) उसने उस लड़के से कहा, ÷÷दौड़ कर ये तीर ढँूंढ लाओ, जिन्हें मैं छोड़ रहा हँूं।'' जब लड़का दौड़ा, तब उसने उसके आगे एक तीर छोड़ा।
37) जब वह लड़का योनातान के छोडे+ हुए तीर के पास आया, तब योनातान ने उस से पुकार कर कहा, ÷÷क्या तीर तुम से और आगे नहीं है?''
38) तब योनातान ने फिर लड़के से कहा, ÷÷जल्दी आओ; रूको मत।'' योनातान के साथ का लड़का तीर उठा कर अपने स्वामी के पास लौट आया।
39) परन्तु लड़का कुछ जान न पाया। केवल योनातान और दाऊद ही यह बात जान सके।
40) योनातान ने अपने हथियार अपने साथ के लड़के को दिये और उन्हें नगर में ले जाने की आज्ञा दी।
41) लड़का चला गया, तो दाऊद अपने छिपने के स्थान से निकला और उसने पृथ्वी पर सिर झुका कर तीन बार प्रणाम किया। इसके बाद दोनों ही एक दूसरे के लिपट कर देर तक रोते रहे। अन्त में दाऊद संँभल गया
42) और योनातान दाऊद से बोला, ÷÷शान्त मन से जाओ। हम दोनों ने प्रभु के नाम मित्रता की शपथ खायी-प्रभु सदा के लिए मेरे और तुम्हारे बीच, मेरे और तुम्हारे वंशजो के बीच साक्षी हो।''

अध्याय 21

1) इसके बाद दाऊद उठ कर चला गया और योनातान नगर लौट आया।
2) दाऊद नोब में याजक अहीमेलेक के पास आया। अहीमेलेक दाऊद से डरते-डरते मिला और उस से पूछा, ÷÷तुम अकेले क्यों आये हो? तुम्हारे साथ कोई क्यों नहीं आया?''
3) दाऊद ने याजक अहीमेलेक को उत्तर दिया, ÷÷राजा ने मुझे पर विशेष कार्य के लिए भेजते हुए मुझ से कहा-मैं जिस कार्य के लिए तुम्हें भेज रहा हँू, उसके विषय में कोई नहीं जान पाये'। इसलिए मैंने अपने सैनिकों को एक निश्चित जगह पर मुझ से मिलने कहा है।
4) क्या आपके पास कुछ है? मुझे पांँच रोटियाँं दें या वही, जो आपके पास हो।''
5) याजक ने दाऊद से कहा, ÷÷मेरे पास साधारण रोटियांँ नहीं हैं। केवल पवित्र रोटियांँ हैं। क्या वे सैनिक स्त्री-संसर्ग से दूर रहे हैं?''
6) दाऊद ने याजक को उत्तर दिया, ÷÷हमारा संसर्ग स्त्रियों से नहीं हुआ। जब मैं साधारण कामों के लिए बाहर निकलता हँूं, तब सैनिकों के शरीर शुद्ध रहते हैं और फिर आज तो उनके शरीर और अधिक शुद्ध होंगे।''
7) इस पर याजक ने उसे पवित्र रोटियांँ दे दीं; क्योंकि वहांँ केवल भेंट की ही रोटियांँ थीं, जो प्रभु के सामने से ताज+ी रोटियांँ रखने के समय उठा ली जाती हैं।
8) उस दिन साऊल का एक नौकर प्रभु के स्थान में ठहरा हुआ था। वह दोएग नामक एदोमी और साऊल का प्रमुख चरवाहा था।
9) दाऊद ने अहीमेलेक से पूछा, ÷÷यहाँं आपके पास कोई भाला या तलवार नहीं है? मुझे राजा के काम की इतनी जल्दी थी कि मैं अपनी तलवार या कोई अन्य हथियार अपने साथ न ला सका।''
10) याजक ने उत्तर दिया, ÷÷फिलिस्ती गोलयत की तलवार, जिसे तुमने एला की घाटी में मार डाला था, एफ़ोद के पीछे कपडे+ में लपेट कर रखी हुई है। यदि तुम उसे लेना चाहते हो, तो ले लो। उसके सिवा और कुछ नहीं है।'' दाऊद ने उत्तर दिया, ÷÷उसके समान और कोई तलवार नहीं है। मुझे वही दे दीजिए।''
11) दाऊद उस दिन साऊल से भागते हुए। गत के राजा आकीश के पास पहुंँचा।
12) आकीश के सेवकों ने उस से कहा, ÷÷यह तो वही दाऊद है, जो देश का राजा है। इसी के सम्मान में तो नाचते हुए गाया जाता था : साऊल ने सहस्रों को मारा और दाऊद ने लाखों को।''
13) यह सुन कर दाऊद के मन को चोट लगी और वह गत के राजा आकीश से बहुत डर गया।
14) इसलिए वह उसके सामने पागल-पन का स्वांँग भरने लगा और उन्होंने उसे पकड़ लिया, तो वह पागल की तरह उसके सामने फाटक के किवाडों के ऊपर कुछ निशान बनाने और अपनी दाढ़ी पर लार टपकाने लगा।
15) आकीश ने अपने सेवकों से कहा, ÷देखते हो न कि यह आदमी पागल है। तुम उसे मेरे पास क्यों लाये हो?
16) क्या मेरे यहांँ पागलों की कमी है, जो तुम उसे मेरे सामने उसका पागलपन दिखलाने लाये हो? क्या वह मेरे घर के भीतर जायेगा?''

अध्याय 22

1) वहांँ से चल कर दाऊद अदुल्लाम की गुफा पहँुंचा। जब उसके भाइयों और उसके सब सम्बन्धियों को इसका पता चला, तो वे वहाँ उसके पास आये।
2) इसके बाद जो लोग संकटग्रस्त, कर्जदार या विद्रोही थे , वे सब उसके पास इकट्ठे हो गये। दाऊद उनका नेता बन गया। उसके साथ लगभग चार सौ आदमी हो गये।
3) वहांँ से दाऊद मोआब के मिस्पे गया और उसने मोआब के राजा से निवेदन किया, ÷÷जब तक मैं यह नहीं जान लेता कि ईश्वर मेरे साथ क्या करने वाला है, क्या तब तक मेरे माता-पिता आपके यहांँ रह सकते हैं?''
4) तब वह उन्हें मोआब के राजा के पास ले गया और जब तक दाऊद शरण-स्थान में रहा, तब तक वे उसके पास पडे+ रहे।
5) नबी गाद ने दाऊद से कहा, ÷÷अपने शरण-स्थान में मत रहो। यहांँ से यूदा प्रदेश चले जाओ।'' इसलिए दाऊद वहांँ से प्रस्थान कर हेरेत वन चला गया।
6) साऊल को पता चल गया कि दाऊद और उसके साथ के आदमी कहांँ हैं। उस समय साऊल हाथ में भाला लिये, पहाड़ी पर गिबआ के पास, झाऊ के वृक्ष के नीचे बैठा था और उसके सब आदमी उसके आसपास खड़े थे।
7) साऊल ने अपने आसपास खडे+ लोगों से कहा, ÷÷बेनयामीन के वंशजों! मेरी बात सुनो। क्या यिशय का पुत्र तुम सब को खेत और दाखबारी देगा? या क्या वह तुम सब को सहस्रपति और शतपति बना देगा?
8) क्या तुमने इसलिए मेरे विरुद्ध षडयन्त्र रचा है? जब मेरा पुत्र यिशय के पुत्र से मित्रता करता, तो कोई मुझे यह बात नहीं बताता। तुम में कोई मेरी चिन्ता नहीं करता, कोई मुझे चेतावनी नहीं देता कि मेरे पुत्र ने मेरे नौकर को मेरी घात में बैठने के लिए उकसाया, जैसा कि आज हो रहा है।''
9) इस पर एदोमी दोएग ने, जो साऊल के आदमियों के साथ खड़ा था, कहा, ÷÷मैंने देखा था कि यिशय का पुत्र, अहीटूब के पुत्र अहीमेलेक के पास नोब आया था।
10) उसने उसके लिए प्रभु से पूछा, उसे खाने को दिया और उसे फ़िलिस्ती गोलयत की तलवार भी दे दी।''
11) इस पर राजा ने अहीटूब के पुत्र याजक अहीमेलेक, उसके सभी सम्बन्धियों, नोब के याजकों को बुलवाया। जब वे सब राजा के सामने उपस्थित हुए,
12) तब साऊल ने कहा, ÷÷अहीटूब के पुत्र, सुनो!'' उसने उत्तर दिया, ÷÷प्रस्तुत हूंँ, स्वामी।''
13) साऊल ने उस से पूछा, ÷÷क्यों तुम लोग, तुम और यिशय का पुत्र, मेरे विरुद्ध षड्यन्त्र रच रहे थे? तुमने उसे रोटियांँ दी, तलवार दी और तुमने उसके लिए ईश्वर से पूछा, जिससे वह मुझ से विद्रोह कर मेरे विरुद्ध षड्यन्त्र रच रहा है, जैसा आज हो रहा है।''
14) अहीमेलेक ने राजा को उत्तर दिया, ÷÷राजा के सब सेवकों में दाऊद के समान स्वामीभक्त और कौन है? वह राजा का दामाद है, आपके अंग रक्षकों का अध्यक्ष है और आपके घर में उसका आदर है।
15) क्या यह पहली बार है कि मैंने उसके लिए ईश्वर से पूछा? एकदम नहीं। राजा को अपने सेवक या मेरे सम्बन्धियों पर ऐसा झूठा आरोप नहीं लगाना चाहिए; क्योंकि आपके दास को इस सम्बन्ध में कोई भी छोटी या बड़ी बात मालूम नहीं है।''
16) लेकिन राजा ने कहा, ÷÷अहीमेलेक! तुम्हें और तुम्हारे सब सम्बन्धियों को निश्चय ही मरना होगा''
17) और तब राजा ने अपने पास खडे+ अंगरक्षकों को आज्ञा दी, ÷÷यहांँ आओ और प्रभु के इन याजकों को मार डालो, क्योंकि इन्होंने दाऊद का पक्ष लिया है। इन्हें पता था कि वह भाग रहा है, परन्तु इन्होंने मुझे नहीं बताया।'' राजा के सेवकों ने प्रभु के याजकों पर हाथ उठाने से इनकार किया।
18) इसलिए राजा ने दोएग को आज्ञा दी, ÷÷तुम यहांँ आओ और इन याजकों का वध करो।'' तब एदोमी दोएग ने याजकों पर प्रहार किया और उसी दिन उसने पचासी पुरुषों का वध किया, जो छालटी के एफ़ोन पहने हुए थे।
19) उसने याजकों के नगर नोब में पुरुषों, स्त्रियों, बच्चों, दुधमुंँहों, बैलों, गधों, भेड़ों-सब को तलवार के घाट उतार डाला।
20) केवल अहीटूब के बेटे अहीमेलेक के पुत्रों में एक, जिसका नाम एबयातर था, अपने को बचा कर दाऊद के पास भाग गया।
21) एबयातर ने दाऊद को बताया कि साऊल ने प्रभु के याजकों को मरवा डाला है।
22) दाऊद ने एबयातर से कहा, ÷÷जिस दिन एदोमी दोएग वहांँ था, उसी दिन मुझे मालूम हो गया था कि वह साऊल से यह बात अवश्य कह देगा। मैं ही तुम्हारे पिता के कुटुम्ब के सारे लोगों की मृत्यु का कारण हूँ।
23) तुम मेरे साथ रहो और मत डरो। जो मेरे प्राणों का गाहक है, वही तुम्हारे भी प्राण लेना चाहता है। मेरे यहाँ तुम सुरक्षित रहोगे।''

अध्याय 23

1) दाऊद को यह समाचार मिला कि फ़िलिस्ती कईला पर आक्रमण कर खलिहानों को लूट रहे हैं।
2) इस पर दाऊद ने प्रभु से पूछा, ÷÷क्या मैं जा कर उन फ़िलिस्तियों पर आक्रमण करूँ?'' प्रभु ने दाऊन को उत्तर दिया, ÷÷जा कर फ़िलिस्तियों पर आक्रमण करो और कईला की रक्षा करो।''
3) किन्तु दाऊद के आदमियों ने उस से कहा, ÷÷जब यहांँ यूदा में रह कर हम डर रहे हैं, तब यदि हम फ़िलिस्तियों की सेना के विरुद्ध लड़ने कईला पहुंँचेगे, तो वहाँ हम और अधिक डरेंगे।''
4) दाऊद ने फिर प्रभु से पूछा और प्रभु का उत्तर यह था, ÷÷कईला चलो, क्योंकि मैं फ़िलिस्तियों को तुम्हारे हाथ दे दूंँगा।''
5) तब दाऊद अपने आदमियों के साथ कईला जा कर फ़िलिस्तियों से लड़ने लगा। उसने उनके ढोर छीन लिये और उन को बुरी तरह पराजित किया। इस प्रकार दाऊद ने कईला के निवासियों की रक्षा की।
6) (जब अहीमेलेक का पुत्र एबयातर भाग कर दाऊद के पास कईला आया था, तब उसके साथ उसके हाथ में एक एफ़ोद भी था)
7) साऊल को यह समाचार दिया गया कि दाऊद कईला गया है। तब साऊल ने सोचा, ÷÷अब ईश्वर ने उसे मेरे हाथ कर दिया है, क्योंकि अब उसने एक क़िलाबन्द नगर में प्रवेश कर अपने को बन्दी बना लिया है।''
8) साऊल ने युद्ध के लिए अपनी सेना बुलायी, जिससे वे कईला जा कर दाऊद और उसके आदमियों को घेर लें।
9) जब दाऊद को पता चला कि साऊल उसके विरुद्ध षड्यन्त्र रच रहा है, तो उसने याजक एबयातर से कहा, ÷÷एफ़ोद यहाँ लाइए।''
10) तब दाऊद ने कहा, ÷÷प्रभु इस्राएल के ईश्वर! तेरे दास को पता चला कि साऊल मेरे कारण नगर को नष्ट करने के लिए कईला आने वाला है।
11) क्या कईलावासी मुझे उसके हाथ दे देंगे? क्या, जैसा तेरे दास ने सुना है, साऊल सचमुच आयेगा? प्रभु, इस्राएल के ईश्वर! अपने दास को उत्तर दे।'' प्रभु ने उत्तर दिया, ÷÷हाँ, वह आयेगा।+÷÷
12) तब दाऊद ने पूछा, क्या कईलावासी मुझे और मेरे आदमियों को साऊल के हाथ दे देंगे?'' प्रभु ने उत्तर दिया, ÷÷हाँं, वे तुम्हें दे देंगे?''
13) इस पर दाऊद अपने लोगों के साथ वहांँ से भाग चला। उनकी संख्या लगभग छः सौ थी। जब कईला छोड़ने के बाद वे इधर-उधर भटक रहे थे, तब साऊल को समाचार मिला कि दाऊद कईला से भाग निकला है और उसने नगर पर आक्रमण करने का विचार छोड़ दिया।
14) दाऊद उजाड़खण्ड के बीहड़ों में और ज+ीफ़ के उजाड़खण्ड की पहाड़ियों पर रहने लगा। साऊल उस को ढँूढता रहा, परन्तु ईश्वर ने उसे उसके हाथों में नहीं पड़ने दिया।
15) दाऊद को मालूम था कि साऊल उसके प्राणों का गाहक बन कर उसका पीछा कर रहा है। उस समय दाऊद ज+ीफ़ के उजाड़खण्ड में होरशा में था।
16) साऊल का पुत्र योनातान होरशा में दाऊद से मिलने आया। उसने ईश्वर ने नाम पर उसे ढारस देते हुए
17) कहा, ÷÷डरो मत। मेरे पिता साऊल तुम्हें नहीं पकड़ पायेंगे। तुम इस्राएल के राजा बनोगे और मेरा पद तुम्हारे बाद होगा। मेरे पिता साऊल भी यह जानते हैं।''
18) तब दोनों ने प्रभु को साक्षी बना कर सन्धि की। दाऊल होरशा में ही रह गया और योनातान घर लौट आया।
19) ज+ीफ़ के निवासियों ने गिबआ में साऊल के पास आ कर कहा, ÷÷दाऊद हमारे यहाँ होरशा के बीहड़ों में हकीला की पहाड़ी पर छिपा है, जो यशीमोन के दक्षिण में है।
20) राजा! आपकी इच्छा उधर आने की हो, तो आइए और हम उसे राजा के हाथ देंगे।''
21) साऊल ने उत्तर दिया, ÷÷प्रभु तुम्हें आशीर्वाद दे; क्योंकि तुम मुझ से सहानुभूति रखते हो।
22) जाओ, ठीक-ठीक पता लगाओ कि वह कहाँ रहता है और किसने उसे देखा है; क्योंकि लोग मुझ से यह कहते हैं कि वह बड़ा चालाक है।
23) उन स्थानों का पता लगाओ, जहांँ वह छिपा रहता है और निश्चित समाचार ले कर मेरे पास आओ। तब मैं तुम्हारे साथ चलूंँगा और यदि वह देश में होगा, तो मैं उसे यूदा के सब वंशों में ढूंँढ लूंँगा।''
24) वे साऊल के आगे चल कर ज+ीफ़ पहुंँचे। उस समय दाऊल और उसके आदमी माओन के उजाड़खण्ड में अराबा में पडे+ थे, जो यशीमोन के दक्षिण में है।
25) जब साऊल अपने आदमियों के साथ उसे ढूंँढ़ने लगा, तब दाऊद को इसकी ख़बर मिल गयी। इसलिए वह उस चट्टान पर चला गया, जो माओन के उजाड़खण्ड में है। यह सुन कर साऊल ने माओन के उजाड़खण्ड में दाऊद का पीछा किया।
26) साऊल पहाड़ के एक ओर चल रहा था और दाऊद अपने आदमियों के साथ पहाड़ के दूसरी ओर। वे साऊल से बचने के लिए जल्दी-जल्दी आगे बढ़ते थे। साऊल और उसके आदमी दाऊद और उसके आदमियों को घेर कर पकड़ने वाले ही थे
27) कि अचानक एक दूत ने साऊल के पास आ कर कहा, ÷÷जल्दी चलिए, फ़िलिस्तियों ने देश पर आक्रमण कर दिया है।''
28) इस पर साऊल दाऊ+द का पीछा करना छोड़ कर फ़िलिस्तियों का सामना करने चला गया। इसीलिए उस जगह का नाम ÷अनिश्चय की चट्टान' पड़ा।

अध्याय 24

1) दाऊल वहाँं से ऊपर चढ़ कर एनगेदी के बीहड़ों में रहने लगा।
2) साऊल समस्त इस्राएल के तीन हज+ार चुने हुए योद्धाओं को लेकर, ÷जंगली बकरों की चट्टानों' के पूर्व में दाऊद और उसके साथियों का पता लगाने निकला।
3) वह रास्ते के किनारे भेड़-बाड़ों के पास पहुँचा। वहाँ एक गुफा थी और साऊल शौच करने के लिए उस में घुस गया।
4) दाऊद और उसके साथी उस गुुफा के भीतरी भाग में बैठे हुए थे।
5) दाऊद के साथियों ने उस से कहा, ÷÷वह दिन आ गया है, जिसके विषय में प्रभु ने आप से कहा था - मैं तुम्हारे शत्रु को तुम्हारे हवाले कर देता हँूं; उसके साथ वही करो, जो तुम्हें उचित लगे।'' दाऊद ने उठ कर चुपके से साऊल के वस्त्र का टुकड़ा काट दिया।
6) दाऊद का हृदय धड़कने लगा, क्योंकि उसने साऊल के वस्त्र का टुकड़ा काट दिया
7) और उसने अपने साथियों से कहा, ÷÷प्रभु यह न होने दे कि मैं अपने स्वामी, प्रभु के अभिषिक्त पर हाथ डालूंँ; क्योंकि प्रभु ने उनका अभिषेक किया है।''
8) दाऊद ने यह कहते हुए अपने साथियों को रोका और उन्हें साऊल पर आक्रमण करने नहीं दिया। साऊल उठ कर गुफा से बाहर निकला और अपने रास्ते चला गया।
9) दाऊद भी गुफा से निकला और उसने साऊल से पुकार कर कहा, ÷÷मेरे स्वामी, ÷÷मेरे स्वामी, मेरे राजा!'' साऊल ने मुड़ कर देखा और दाऊल ने मुंँह के बल गिर कर उसे दण्डवत् किया।
10) तब दाऊद ने साऊल से कहा, ÷÷आप क्यों उन लोगों की बात सुनते हैं, जो कहते हैं कि दाऊद आपकी हानि करना चाहता है?
11) आपने आज अपनी आँखों से देखा कि प्रभु ने आज गुफा में आप को मेरे हवाले कर दिया था और मेरे साथी चाहते थे कि मैं आपको मारूँं। किन्तु मैंने यह कहते हुए आप को बचाया, ÷मैं अपने स्वामी पर हाथ नहीं डालूंँगा, क्योंकि वह प्रभु के अभिषिक्त हैं।'
12) देखिए, पिताजी! अपने वस्त्र का टुकड़ा मेरे हाथ में देखिए। मैंने आपके वस्त्र का टुकड़ा तो काट दिया, किन्तु आप को नहीं मारा- इस से यह जान लीजिए कि मुझ में न तो आपकी बुराई करने का विचार है और न विश्वासघात। मैंने आपके साथ कोई अन्याय नहीं किया, फिर भी आप मेरे प्राण लेने पर उतारू हैं।
13) प्रभु हम दोनों का न्याय करे। प्रभु आप को मेरा बदला चुकाये। मैं आप पर हाथ नहीं डालूंँगा।
14) यह पुरानी कहावत है- बुरे लोगों से ही बुराई पैदा होती है। इसलिए मैं आप पर हाथ नहीं डालूंँगा।
15) इस्राएल के राजा जिस से लड़ने निकले? आप किसका पीछा कर रहे हैं? मरे हुए कुत्ते का या किसी पिस्सू का?
16) प्रभु निर्णय देगा और हम दोनों का न्याय करेगा। वह विचार करे, मेरा पक्ष ले और मुझे आपके हाथों से छुड़ा कर न्याय दिलाये।''
17) जब दाऊद साऊल से यह सब बातें कह चुका था, तो साऊल ने कहा, ÷÷दाऊद बेटा! क्या यह तुम्हारी आवाज+ है?'' इसके बाद साऊल फूट-फूट कर रोने लगा
18) और दाऊद से बोला, ÷÷न्याय तुमहारे पक्ष में है। तुमने मेरे साथ भलाई और मैंने तुम्हारे साथ बुराई की है।
19) तुमने आज इसका प्रमाण दिया कि तुम मेरी भलाई चाहते हो। प्रभु ने मुझे तुम्हारे हवाले कर दिया था और तुमने मुझे नहीं मारा।
20) जब शत्रु वश में आ गया हो, तो कौन उसे यों ही जाने देता है? तुमने आज मेरे साथ जो भलाई की है, प्रभु तुम को उसका बदला चुकाये।
21) अब मैं जान गया हँू कि तुम अवश्य राजा बन जाओगे और तुम्हारे राज्यकाल में इस्राएल फलेगा -फूलेगा।
22) इसलिए प्रभु का नाम ले कर यह शपथ खाओ कि तुम मेरे बाद मेरे वंशजों का वध नहीं करोगे या मेरे पिता के घराने से मेरा नाम नहीं मिटाओगे।''
23) दाऊद ने साऊल के सामने इसकी शपथ खायी। तब साऊल अपने घर लौट गया। ऊधर दाऊद अपने आदमियों के साथ अपने पहाड़ी शरण-स्थान पर चढ़ गया।

अध्याय 25

1) समूएल की मृत्यु हो गयी। सभी इस्राएली उसका शोक मनाने के लिए इकट्ठे हुए। उसका रामा में, अपने निवास में दफ़न कर दिया गया। दाऊद पारान के उजाड़खण्ड चला गया।
2) माओन के एक व्यक्ति की जमीन-जायदाद करमेल में थी। वह बड़ा धनी था। उसके पास तीन हजार भेड़ें और एक हज+ार बकरियांँ थीं। वह करमेल में अपनी भेड़ों का ऊन कटवा रहा था।
3) उस व्यक्ति का नाम नाबाल था और उसकी पत्नी का नाम अबीगैल। पत्नी समझदार और सुन्दर थी, परन्तु पति चिड़चिड़ा और दुष्ट था। वह काबेल के वंश का था।
4) दाऊद ने उजाड़खण्ड में सुना कि नाबाल अपनी भेड़ों का ऊन कटवा रहा है।
5) इसलिए दाऊद ने दस नौजवान भेजे। दाऊद ने उन्हें आज्ञा दी, ÷÷तुम नाबात के यहांँ करमेल जाओ। उस से कहो-
6) आप को दाऊद का नमस्कार! आपका कल्याण हो! आपके घराने का कल्याण हो! जो कुछ आपका है, उसका कल्याण हो!
7) मैंने सुना है कि आपके यहाँ भेडें+ मुंँड़वायी जा रही हैं। जब तक आपके चरवाहे हमारे पास रहे, हमने उनके साथ दुर्व्यवहार नहीं किया और करमेल में रहते समय उनकी कोई हानि नहीं हुई।
8) अपने नौकरों से पूछिए, तो वे आप को यह बतायेंगे। इसलिए मेरे इन नौजवानों का स्वागत कीजिए, क्योंकि वे उत्सव के समय आये हैं। आप जो दे सकते हैं, उसे कृपा कर अपने सेवकों और अपने पुत्र दाऊद को दीजिए।''
9) दाऊद के आदमी उसके पास पहुंँचे और वे दाऊद का सन्देश दे कर उत्तर की प्रतीक्षा करने लगे।
10) नाबाल ने दाऊद के आदमियों को उत्तर दिया, ÷÷यह दाऊद कौन है? कौन है यिशय का पुत्र? आजकल कितने सेवक ऐसे हैं, जो अपने स्वामी के पास से भाग जाते हैं।
11) क्या मैं अपनी रोटी, अपना पानी और अपने वे पशु, जिन्हें मैंने ऊन काटने वालों के लिए मारा है, उन से छीन कर ऐसे लोगों को दे दँूं, जिनके विषय में मैं यह भी नहीं जानता कि वे कहांँ के हैं?''
12) दाऊद के आदमी मुड़ कर लौट चले और उन्होंने दाऊद को ये सब बातें सुनायीं।
13) इस पर दाऊद ने अपने आदमियों को आज्ञा दी, ÷÷अपनी- अपनी तलवार बांँध लो'' और तब प्रत्येक ने अपनी तलवार बाँध ली और दाऊद ने भी अपनी तलवार बाँध ली। दाऊद लगभग चार सौ आदमियों को लेकर निकल पड़ा और दो सौ आदमी सामान के पास रह गये।
14) इधर कोई लड़का नाबाल की पत्नी अबीगैल को यह बतला गया था, ÷÷दाऊद ने हमारे स्वामी को नमस्कार करने उजाड़खण्ड से दूत भेजे थे, लेकिन हमारे स्वामी ने उनका अपमान किया। उन लोगों का हमारे साथ बहुत अच्छा व्यवहार था।
15) उन्होंने हमारे साथ दुर्व्यवहार नहीं किया और जब तक हम खेतों में उनके साथ चलते रहे, तब तक हमारी कभी कोई हानि नहीं हुई।
16) जब तक हम उनके पास अपनी भेडें+ चराते, वे दिन-रात परकोटे की तरह हमारी रक्षा करते।
17) सोच कर देखिए, आप क्या कर सकती हैं, क्योंकि हमारे स्वामी और उनके पूरे घराने पर विपत्ति आने वाली है। वह इतने दुष्ट हैं कि उन से कोई बात भी नहीं कर सकता।
18) अबीगैल ने तुरन्त दो सौ रोटियांँ, दो कुप्पे अंगूरी, पांँच पकायी हुई भेडें+, एक मन भुना अनाज, किशमिश के एक सौ गुच्छ और अंजीर की दो सौ डालियांँ गधों पर लाद कर
19) अपने सेवकों से कहा, ÷÷मेरे आगे-आगे चलो। मैं तुम्हारे पीछे आ रही हूंँ।'' उसने अपने पति नाबाल को इसके विषय में कुछ नहीं बताया।
20) वह गधे पर बैठे पहाड़ से नीचे चली जा रही थी कि उसकी भेंट दाऊद से हो गयी। जो अपने आदमियों के साथ उसी ओर आ रहा था।
21) दाऊद अभी-अभी यह कह चुका था, ÷÷मैंने व्यर्थ ही उजाड़खण्ड में उसकी समस्त सम्पत्ति की रक्षा की, जिससे उसकी कोई हानि नहीं हुई और अब वह भलाई का बदला बुराई से दे रहा है।
22) यदि मैं सबेरे तक उसके सारे घराने के किसी भी प्राणी को जीवित रहने दूंँ, तो ईश्वर दाऊद को कठोर-से-कठोर दण्ड दिलाये।''
23) दाऊद को देखते ही अबीगैल झट गधे पर से उतर पड़ी और उसने दाऊद के सामने पृथ्वी पर माथा टेक कर उसे प्रणाम किया।
24) उसने उसके पांँव पड़ कर यह निवेदन किया, ÷श्रीमान, आप इसे मेरा दोष समझें। आप अपनी दासी को कुछ विनय करने दें। आप अपनी दासी की बात का ध्यान दें।
25) मेरे स्वामी, उन दृष्ट नाबाल की बात पर ध्यान न दें। वह तो अपने नाम के अनुरूप हैं। उनका नाम ही नाबाला (अर्थात मूर्ख ) हैं, उन में मूर्खता भरी है। मैंने, आपकी दासी ने, श्रीमान् के भेजे हुए आदमियों को नहीं देखा।
26) श्रीमान् प्रभु की शपथ और आपकी शपथ! प्रभु ने आप को खून करने और स्वयं बदला लेने से रोका है। आपके शत्रु और वे भी नाबाल जैसे (मूर्ख) हो जायें, जो मेरे स्वामी के विरुद्ध षड्यन्त्र रच रहे हैं।
27) जो भेंट आपकी यह दासी श्रीमान् के लिए लायी है, वह उन आदमियों में बांँट दी जाये, जो श्रीमान के साथ हैं।
28) अपनी दासी की भूल क्षमा करें। प्रभु श्रीमान का वंश बनाये रखेगा, क्योंकि श्रीमान् प्रभु के नाम पर ही लड़ रहे हैं। आप में आपके जीवन भर कोई दोष न पाया जाये।
29) यदि कोई आपके प्राण लेने के लिए आपका पीछा करता है, तो श्रीमान् के प्राण प्रभु के पास जीवितों के बस्ते में सुरक्षित रहेंगे और प्रभु गोफन से आपके शत्रुओं के प्राण दूर फेंक देगा।
30) जब प्रभु श्रीमान के कल्याण के लिए की हुई सब प्रतिज्ञाएंँ पूरी करेगा, और आपको इस्राएल का शासक नियुक्त करेगा,
31) तो श्रीमान् के लिए इसके कारण आत्मभर्त्सना या पश्चात्ताप का कोई कारण न हो कि उन्होंने अनावश्यक रक्तपात किया या स्वयं बदला लिया। जब प्रभु ने श्रीमान् का कल्याण किया होगा, तो आप अपनी दासी का भी ध्यान रखेंगे।''
32) दाऊद ने अबीगैल से कहा, ÷÷प्रभु इस्राएल का ईश्वर धन्य है, जिसने तुम्हें आज मुझ से मिलने भेजा है।
33) तुम्हारा विवेक धन्य है, तुम भी धन्य हो, क्योंकि आज तुमने मुझे रक्त बहाने और स्वयं बदला लेने से रोका है।
34) उस प्रभु, इस्राएल के ईश्वर की शपथ, जिसने मुझे तुम्हारी हानि करने से रोका है! यदि तुम शीध्र ही मुझ से मिलने न आती, तो सबेरे तक नाबाल के यहाँ का कोई भी पुरुष जीवित नहीं रहता।''
35) तब दाऊद ने उसके हाथ से उसकी लायी गयी भेंटें स्वीकार करते हुए कहा, ÷÷अच्छा, अब सकुशल घर लौट जाओ। देखो, मैंने तुम्हारी बात मान ली, तुम्हारा निवेदन स्वीकार कर लिया।''
36) जब अबीगैल नाबाल के पास लौटी, तो उस समय वह अपने घर से एक राजकीय भोज-जैसी दावत दे रहा था। उसका मन बड़ा प्रसन्न था और वह नशे से चूर था। इसलिए अबीगैल ने सबेरे तक उसे कोई बात नहीं बतायी।
37) सबेरे, जब नाबाल का नशा उतरा, तब उसकी पत्नी ने उस से ये सब बातें बतायी। सुन कर उसका जी बुझ गया और वह पत्थर-सा स्तब्ध रहा।
38) लगभग दस दिन बाद प्रभु ने उसे मारा और उसकी मृत्यु हो गयी।
39) यह सुन कर कि नाबाल मर गया, दाऊद ने कहा, ÷÷धन्य है प्रभु! जिसने नाबाल के मेरे प्रति किये गये अपमान का बदला लिया और जिसने मुझ, अपने दास को उसका बुरा करने से रोका। प्रभु ने नाबाल की बुराई का फल उसी के सिर डाल दिया है।'' इसके बाद दाऊद ने अबीगैल के पास लोगों को भेज कर उसे अपनी पत्नी बनाने का प्रस्ताव रखा।
40) दाऊद के सेवक अबीगैल के पास करमेल गये और उन्होंने उस से कहा, ÷÷दाऊद ने हमें आप को अपने पास ले आने भेजा है, जिससे वह आप को अपनी पत्नी बनायें।''
41) उसने उठ कर और पृथ्वी पर सिर झुका कर प्रणाम करते हुए कहा, ÷÷अपने स्वामी के नौकरों के पाँंव धोने के लिए यह सेविका प्रस्तुत है।''
42) इसके बाद अबीगैल तुरन्त उठी और गधे पर सवार हो गयी। उसके साथ उसकी पांँच दासियाँं भी चल दीं। वह दाऊद के दूतों के पीछे-पीछे चली और उसकी पत्नी बन गयी।
43) दाऊद यिज+्रएल से अहीनोअम को भी लाया था। दोनों उसकी पत्नियांँ हो गयीं।
44) साऊल ने अपनी पुत्री मीकल को, जो दाऊद की पत्नी रह चुकी थी, गल्लीम के लइश के पुत्र पल्टी को दे दिया था।

अध्याय 26

1) ज+ीफ़ के निवासियों ने गिबआ में साऊल के पास आ कर कहा, ÷÷दाऊद हकीला की पहाड़ी पर छिप रहा है, जो यशीमोन के पूर्व में है।''
2) साऊल इस्राएल के तीन हज+ार चुने हुए योद्धाओं को ले कर ज+ीफ़ के उजाड़खण्ड की ओर चल दिया, जिससे वह ज+ीफ़ के उजाड़खण्ड में दाऊद का पता लगाये।
3) साऊल ने हकीला की पहाड़ी पर, जो यशीमोन के पूर्व के मार्ग पर है, अपना पड़ाव डाला। दाऊद उजाड़खण्ड में ही था। जब उसने सुना कि साऊल उजाड़खण्ड में फिर उसका पीछा कर रहा है,
4) तब दाऊद ने गुप्तचरों को भेज कर यह मालूम किया कि साऊल आ ही पहँुंचा है।
5) दाऊल चल कर उस स्थान पर स्थान पर पहँुंचा, जहांँ साऊल ने पड़ाव डाला था। दाऊद ने उस स्थान को देखा, जहाँ साऊल और उसका सेनापति नेर का पुत्र अबनेर सोये हुए थे। साऊल पड़ाव के बीच में था और सैनिक उसके चारों ओर लेटे हुए थे।
6) तब दाऊद ने हिती अहीमेलेक से और अबीशय से, जो योआब का भाई और सरूया का पुत्र था, यह पूछा, ÷÷साऊल के पास पड़ाव में मेरे साथ कौन उतरेगा?'' अबीशय ने उत्तर दिया, ÷÷मैं आपके साथ नीचे उतरूँंगा।''
7) दाऊद और अबीशय रात को उन लोगों के पास पहुंँचे। उन्होंने पड़ाव में साऊल को सोया हुआ पाया। उसका भाला उसके सिरहाने जमीन में गड़ा हुआ था। अबनेर और दूसरे योद्धा उसके चारों ओर लेटे हुए थे।
8) तब अबीशय ने दाऊद से कहा, ÷÷ईश्वर ने आज आपके शत्रु को आपके हाथ दे दिया है। मुझे करने दीजिए- मैं उसे उसके अपने भाले के एक ही बार से ज+मीन में जकड दूंँगा। मुझे दूसरी बार वार करने की ज+रूरत नहीं पडे+गी।''
9) दाऊद ने अबीशय को यह उत्तर दिया, ÷÷उसे मत मारो। कौन प्रभु के अभिषिक्त को मार कर दण्ड से बच सकता है?''
10) दाऊद ने फिर कहा, ÷÷प्रभु की शपथ! प्रभु उसे स्वयं मारेगा या ऐसा दिन आयेगा, जब वह स्वतः मर जायेगा या लड़ाई में मार डाला जायेगा।
11) प्रभु ऐसा न करे कि मैं प्रभु के अभिषिक्त व्यक्ति पर अपना हाथ उठाऊँं। हम उसके सिरहाने का भाला और पानी की सुराही ले कर चलते बनें।''
12) दाऊद ने वह भाला और साऊल के सिरहाने के पास रखी हुई पानी की सुराही ले ली और वे चले गये। न किसी ने यह सब देखा, न किसी को इसका पता चला और न कोई जगा। वे सब-के-सब सोये हुए थे; क्योंकि प्रभु की ओर से भेजी हुई गहरी नींद उन पर छायी हुई थी।
13) दाऊद घाट पार कर दूर की पहाड़ी पर खड़ा हो गया- दोनों के बीच बड़ा अन्तर था।
14) तब दाऊद ने सैनिकों और नेर के पुत्र अबनेर को पुकार कर कहा, ÷÷अबनेर! उत्तर नहीं दोगे?'' अबनेर ने कहा, ÷÷तुम कौन हो, जो इस तरह राजा को बुला रहे हो?''
15) दाऊद ने अबनेर को उत्तर दिया, ÷÷क्या तुम-जैसा इस्राएल में कोई शूरवीर है? तो अपने स्वामी, राजा की रक्षा क्यों नहीं करते? तुम्हारे स्वामी, राजा को मारने के लिए कोई आया था।
16) तुमने जो किया, वह ठीक नहीं है। प्रभु की शपथ! तुम लोग मृत्युदण्ड के योग्य हो, क्योंकि तुमने अपने स्वामी, प्रभु के अभिषिक्त की रक्षा नहीं की। देखो, राजा का भाला और उसके सिर के पास की पानी की सुराही कहांँ है?''
17) साऊल ने दाऊद की आवाज पहचान कर पूछा, ÷÷क्या यह तुम्हारी आवाज+ है, दाऊद बेटे?'' दाऊद ने उत्तर दिया, ÷÷हाँं, मेरे स्वामी और मेरे राजा, मेरी ही आवाज+ है।''
18) फिर उसने कहा, ÷÷मेरे स्वामी अपने दास का पीछा क्यों कर रहे हैं? मैंने क्या बिगाड़ा है? मैंने कौन-सा अपराध किया हैं?
19) अब मेरे स्वामी और राजा अपने दास की बात सुनें : यदि प्रभु आप को मेरे विरुद्ध उकसाता हो, तो उसे सुगन्धयुक्त बलिदान चढ़ाया जाये। लेकिन यदि मनुष्यों ने ऐसा किया, तो वे प्रभु द्वारा अभिशप्त हों; क्योंकि वे मुझे इसलिए भगा रहे हैं कि प्रभु के दायभाग में मुझे कुछ न मिल पाये। वे कहते हैं, तुम जा कर अन्य देवताओं की पूजा करो।
20) पर मैं चाहता हूंँ कि प्रभु से दूर किसी अन्य देश में मेरा रक्त न बहाया जाये। इस्राएलियों का राजा मेरे प्राणों का गाहक बन कर निकला है, जैसे कोई जूंँ को पकड़ने या पहाड़ों में तीतर का शिकार करने निकलता है।''
21) साऊल ने उत्तर दिया, ÷÷मैंने गलती की है। बेटे दाऊद! तुम चले आओ। अब मैं तुम्हें कोई कष्ट नहीं दूँगा, क्योंकि आज तुम्हारी दृष्टि में मेरा जीवन मूल्यवान् था। मैंने मूर्खतापूर्ण कार्य कर बड़ी भूल की है।''
22) दाऊद ने उत्तर दिया, ÷÷यह राजा का भाला है। नवयुवकों में से कोई आ कर इसे ले जाये।
23) (२३-२४) प्रभु हर एक को उसकी धार्मिकता तथा ईमानदारी का फल देगा। आज प्रभु ने आप को मेरे हाथ दे दिया था, किन्तु मैंने प्रभु के अभिषिक्त पर हाथ उठाना नहीं चाहा; क्योंकि आज आपका जीवन मेरी दृष्टि में मूल्यवान् था। इसलिए मेरा जीवन भी प्रभु की दृष्टि से मूल्यवान् हो और वह भी मुझे सब संकटों से बचाता रहे।''
25) इस पर साऊल ने दाऊद से कहा, ÷÷बेटे दाऊद! तुम्हारा कल्याण हो। तुम महान् कार्य करोगे और उन में सफल भी होगे।'' दाऊद चला गया और साऊल अपने निवास लौट गया।

अध्याय 27

1) दाऊद ने अपने मन में सोचा, ÷÷एक दिन साऊल मुझे अवश्य मार डालेगा। इस से तो मेरे लिए यही अच्छा रहेगा कि मैं भाग कर फ़िलिस्तियों के देश चला जाऊंँ। इस तरह साऊल इस्राएल के समस्त प्रदेश में मुझे ढूंँढ़ना छोड़ देगा और मैं उसके हाथ से बच निकलूंँगा।''
2) इसलिए दाऊद अपने छः सौ आदमियों के साथ गत के राजा माओक के पुत्र आकीश के यहाँ चला गया।
3) दाऊद अपने आदमियों के साथ गत में आकीश के यहांँ रहने लगा। प्रत्येक व्यक्ति के साथ उसका परिवार भी था। दाऊद के साथ उसकी दोनों पत्नियांँ थीं- यिज्रएल की अहीनोअम और करमेल की अबीगैल, जो नाबाल की विधवा थी।
4) जब साऊल को समाचार मिला कि दाऊद गत भाग गया, तो उसने उसकी तलाश करना छोड़ दिया।
5) दाऊद ने आकीश से यह निवेदन किया, ÷÷यदि मैं आपका कृपापात्र बन गया हँू, तो मुझे देहात के किसी कस्बे में रहने के लिए स्थान मिल जाये। आपका दास आपके पास यहांँ राजधानी में क्यों निवास करे!''
6) इस पर आकीश ने उसी दिन उसे सिकलग दे दिया। इसलिए सिकलग आज तक यूदा के राजाओं के अधिकार में है।
7) दाऊद फ़िलिस्तियों के देश में एक साल और सात महीने तक रहा।
8) दाऊद अपने आदमियों को साथ ले कर गशूरियों, गिर्जि+यों और अमालेकियों पर छापे मारता रहा। ये जातियॉंँ प्राचीन काल से मिस्र की ओर शूर तक बसी हुई थीं।
9) जब दाऊद उस क्षेत्र पर आक्रमण करता, तो वह एक भी पुरुष या स्त्री को जीवित नहीं छोड़ता। वह उनकी भेडें, गायें, गधे, ऊॅँट और कपडे+ - सब छीन कर आकीश के यहाँॅ लौट आता।
10) जब आकीश पूछता कि तुमने आज कहाँॅ छापा मारा, तो दाऊद उत्तर देता, ÷÷यूदा के नेगेब में,'' या ÷÷यरह-मएलियों के नेगेब में,'' या ''केनियो के नेगेब में।''
11) दाऊद न पुरुषों को जीवित छोड़ता था और न स्त्रियों को, जिसने उन में कोई गत पहँुंॅच कर यह न बता दे कि दाऊद ने हमारे साथ ऐसा किया है। जब तक वह फ़िलिस्तियों के देश में रहा, तब तक ऐसा ही करता रहा।
12) आकीश का दाऊद पर विश्वास था; क्योंकि वह सोचता था कि उसके देश-भाई इस्राएली उस से इतनी घृणा करते हैं कि वह सदा मेरा सेवक बना रहेगा।

अध्याय 28

1) उस समय फ़िलिस्तियों ने इस्राएल से लड़ने के लिए अपने सैनिक इकट्ठे किये। आकीश ने दाऊद से कहा, ''तुम यह समझ लो कि तुम्हें अपने आदमियों के साथ मेरी सेना के साथ जाना होगा।''
2) दाऊद ने आकीश से कहा, ''अच्छा, आप को भी मालूूम हो जायेगा कि आपका सेवक क्या कर सकता है।'' आकीश ने दाऊद से कहा, ''बहुत अच्छा, तब तो मैं जीवन भर के लिए तुम को अपना अंगरक्षक बना दँूूॅगा।''
3) समूएल की मृत्यु हो चुकी थी। सभी इस्राएलियों ने उसका शोक मनाया था और उसका दफ़न उसके नगर रामा में कर दिया था। साऊल ने भूत-प्रेत साधने वालों और ओझों को देश से निकाल दिया था।
4) अब फ़िलिस्ती इकट्ठे हो कर आगे बढे+ और उन्होंने शूनेम के पास अपना पड़ाव डाला। साऊल ने सारे इस्राएलियों को इकट्ठा कर गिलओबा पर्वत पर पड़ाव डाला।
5) फ़िलिस्तियों के शिविर पर दृष्टि डालते ही साऊल भयभीत हो उठा और उसका हृदय काँॅपने लगा।
6) साऊल ने प्रभु से पूछा; लेकिन प्रभु ने उसे कोई उत्तर नहीं दिया - न स्वप्नों में, न ऊरीम द्वारा और न नबियों द्वारा।
7) इसलिए साऊल ने अपने सेवकों को आज्ञा दी, ''मेरे लिए एक भूत-प्रेत साधने वाली का पता लगाओ, जिसमें मैं उसके पास जाकर उस से परामर्श लूँ।'' उसके सेवकों ने उसे बतलाया कि एन-दोर में एक भूत-प्रेत साधने वाली है।
8) इसलिए साऊल ने कपड़े बदल कर छद्द-वेश धारण किया और वह दो आदमियों को साथ ले कर उसके पास गया। वे रात को उस स्त्री के पास पहुॅँचे और साऊल ने उस से कहा, ''मेरे लिए प्रेत-साधना करो और मैं जिसका नाम बताऊँॅ, उसे मेरे सामने ला दो।''
9) लेकिन उस स्त्री ने उत्तर दिया, ''तुम तो जानते ही हो कि साऊल ने क्या किया है। उसने प्रेत-साधकों और ओझों को देश से निकाल दिया है। अब तुम मुझे मारने के लिए फन्दा क्यों लगाते हो?''
10) प्रभु की शपथ खा कर साऊल ने उस से कहा, ''प्रभु की शपथ! इस बात लिए तुम को किसी प्रकार का दण्ड नहीं मिलेगा।''
11) इस पर उस स्त्री ने पूछा, ''मैं किस को तुम्हारे सामने लाऊँॅ?'' उसने उत्तर दिया, ''मेरे सामने समूएल को ले आओ।''
12) समूएल को देखते ही वह स्त्री ज+ोर-ज+ोर से चिल्ला कर साऊल से कहने लगी, ''तुमने मुझे धोखा क्यों दिया? साऊल तुम हो।''
13) राजा ने उस को उत्तर दिया, ''डरो मत। बताओ तो, तुम क्या देख रही हो।'' स्त्री ने साऊल से कहा, '' मैं पृथ्वी से निकलता हुआ एक अलौकिक प्राणी देख रही हूँ।''
14) उसने उस से पूछा, ''वह कैसा दिखता है?'' उसने कहा, ''चादर ओढे+ हुए एक बूढ़ा आदमी निकला आ रहा है।'' तब साऊल समझ गया कि वह समूएल ही है। उसे देख कर उसने धरती पर माथा टेक दिया।
15) समूएल ने साऊल से कहा, ''तुमने क्यों मेरी शान्ति भंग की है? क्यों मुझे ऊपर बुलाया है?'' साऊल ने उत्तर दिया, ''मैं बडे+ कष्ट में हँूॅ। फ़िलिस्ती मेरे विरुद्ध लड़ रहे हैं। ईश्वर ने मुझे त्याग दिया है और वह अब मुझे न तो नबियों द्वारा उत्तर देता है और न स्वप्नों में। इसीलिए मैंने आप को बुलवाया है, जिससे आप मुझे बतायें कि मुझे क्या करना चाहिए।''
16) समूूएल ने उत्तर दिया, ''तुम मुझ से क्यों पूछ रहे हो, जब प्रभु ही तुम से विमुख हो कर तुम्हारा विरोधी बन गया है?
17) प्रभु ने वही किया है, जो उसने मेरे माध्यम से तुम्हंें बताया। प्रभु ने तुम से राज्य छीन कर उसे एक दूसरे व्यक्ति दाऊद को दे दिया है।
18) प्रभु ने तुम्हारे साथ ऐसा किया; क्योंकि तुमने प्रभु की बातों पर ध्यान नहीं दिया और अमालेकियों के विरुद्ध उसका क्रोध शान्त नहीं किया।
19) इसके अतिरिक्त प्रभु इस्राएल को और तुम्हें फ़िलिस्तियों के हाथ कर देगा। कल तुम और तुम्हारे पुत्र मेरे साथ होंगे। प्रभु इस्राएलियों की सेना भी फ़िलिस्तियों के हाथ कर देगा।''
20) इस पर साऊल पृथ्वी पर मुॅँह के बल गिर पडा। वह समूएल की बातों से बहुत भयभीत हो गया था। उस में थोडी भी शक्ति नहीं रह गयी थी, क्योंकि उसने पूरे दिन और पूरी रात कुछ नहीं खाया था।
21) जब वह स्त्री साऊल के पास आयी और उसने देखा कि वह डर गया है, तो उसने उस से कहा, ÷÷देखों, तुम्हारी दासी ने तो तुम्हारी बात मानी है। मैं तुम्हारे कहने पर अपनी जान पर खेली। अब तुम अपनी दासी की बात मानो।
22) मैं तुम्हें थोड़ी रोटी परोसती हूँ। तुम उसे खा लो, जिससे तुम में चले जाने की शक्ति आ जायें।''
23) परन्तु उसने इनकार करते हुए कहा, ÷÷मैं कुछ नहीं खाऊँंगा।'' लेकिन जब उसके सेवकों और उस स्त्री ने उस से आग्रह किया, तो उसने उनकी मान ली। वह भूमि से उठा और आसन पर बैठ गया।
24) स्त्री के घर में एक पुष्टा बछड़ा था। उसने जल्दी से उसका वध किया। फिर आटा ले कर और उसे गँॅूध कर उसने रोटियॉँ बनायीं
25) और उन्हें साऊल तथा उसके आदमियों को परोसा। वे खाने-पीन के बाद उसी रात चले गये।

अध्याय 29

1) फ़िलिस्ती अफ़ेक के पास अपनी सारी सेना एकत्रित किये पडे+ थे और इस्राएलियों ने यिज्र+एल के जलस्त्रोत के पास पड़ाव डाला।
2) जब फ़िलिस्ती सेनापति अपने सौ-सौ और हज+ार-हज+ार सैनिको की टोलियों में निकल रहे थे और अन्त में आकीष के साथ दाऊद और उसके आदमी भी निकले,
3) तब फ़िलिस्ती सेनापतियों ने पूछा, ÷÷ये इब्रानी यहाँॅ क्या कर रहे हैं?'' आकीष ने फ़िलिस्ती सेनापतियो को उत्तर दिया, ÷÷यह तो इस्राएल के राजा साऊल का सेवक दाऊद है। एक-दो वर्ष से मेरे पास पड़ा है और इसके आने के दिन से आज तक मैंने इस में सन्देह की कोई बात नहीं पायी है।''
4) परन्तु फिलिस्ती सेनापति क्रोध में आकर बोले, ÷÷इस आदमी को यहॉँ से हटा दीजिए यह उसी जगह चला जाए, जो आपने इसे दी है। यह हमारे साथ लड़ाई में न चले। कहीं ऐसा न हो कि यह लड़ाई में हमारा विरोधी बन जाए। अपने स्वामी का फिर कृपापात्र बनने के लिए क्या यह सर्वोत्तम उपाय नहीं है कि यह हमारे आदमियों का वध करे?
5) यह वही दाऊद है, जिसके सम्मान में लोग नाचते हुए गाते थे : साऊल ने सहस्रों को मारा और दाऊद ने लाखों को।''
6) यह सुन आकीष ने दाउद को बुलाकर उससे कहा, ÷÷प्रभु की शपथ! तुम ईमानदार आदमी ठहरे और मुझे यह देख कर प्रसन्नता होती है कि तुम मेरे साथ युद्ध करने जा रहे हो; क्योंकि जब से तुम मेरे पास आये हो, तब से आज तक मैंने तुममे कोई दोष नहीं पाया है। लेकिन शासक तुम को पसन्द नहीं करते।
7) इसलिए तुम सकुषल वापस जाओ, जिससे तुम फ़िलिस्तियों के शासकों को अप्रिय न लगो।''
8) दाऊद ने आकीष से कहा, ÷÷मैंने क्या किया है? जब से मैं आपकी सेवा में हँॅू, तब से आज तक आपने अपने सेवक में क्या दोष पाया है कि अब मैं अपने स्वामी, राजा के शत्रुओं से न लडूँ?''
9) आकीष ने दाऊद को उत्तर दिया, ÷÷मैं तो तुम्हें स्वर्गदूत के समान निर्दोष समझता हँॅूू, पर फ़िलिस्ती सेनापतियों का कहना है कि वह हमारे साथ लड़ाई में न चले।
10) इसलिए कल बड़े सबेरे अपने स्वामी के सेवकों के साथ लौट जाओ, जो तुम्हारे साथ आये हैं। बडे+ सबेरे दिन निकलते ही चले जाओ।''
11) इस पर दाऊद अपने आदमियों के साथ बडे+ सबेरे उठकर फ़िलिस्तियों के देष लौट गया। उधर फ़िलिस्ती यिज+्रएल की ओर बढ़े।

अध्याय 30

1) तीसरे दिन दाऊद अपने आदमियों के साथ सिकलग आया। इसके पहले ही अमालेकी लूटने के लिए नेगेब और सिकलग पहॅुँचे थे। उन्होंने सिकलग को लूटकर जला दिया था।
2) वे वहॉँ की सब स्त्रियों और छोटे-बडे+, सभी लोगों को बन्दी बनाकर चल दिये थे। उन्होंने किसी को मारा नहीं था, परन्तु वे उनको अपने साथ ले गये थे।
3) जब दाऊद अपने आदमियों के साथ नगर पहुॅँचा, तब उन्होंने उसे जला हुआ पाया और देखा पत्नियॉँ, पुत्र-पुत्रियाँ सब बन्दी बना कर ले जाये गये हैं।
4) दाऊद और उसके आदमी जो+र-जो+र से इतना रोये कि उन्हें और रोने की शक्ति नहीं रह गयी।
5) दाऊद की दोनों पत्नियॉँ, यिज्र+एल की अहोनीअम और करमेल के नाबाल की विधवा अबीगैल भी बन्दी बनाकर ले जायी गयी थी।
6) अब दाऊद बड़े संकट में था। लोग उसे पत्थरों से मार डालने की सोच रहे थे। प्रत्येक व्यक्ति का मन अपने पुत्र-पुत्रियों की चिन्ता के कारण कटुता से भरा हुआ था। परन्तु दाऊद अपने प्रभु-ईष्वर पर भरोसा रख कर हिम्मत नहीं हारा।
7) दाऊद ने अहीमेलेक के पुत्र याजक एबयातार को आज्ञा दी, ÷÷मेरे पास एफ़ोद ले आओ।'' एबयातर दाऊद के पास एफ़ोद ले आया।
8) दाऊद ने प्रभु से पूछा, ÷÷मैं उस दल का पीछा करूँ, तो क्या मैं उन्हे पकड़ लूॅँगा?'' उसने उसको उत्तर दिया, ÷÷उनका पीछा करो। तुम उन्हें ज+रूर पकड़ोगे अपने लोगों को छुड़ा लोगे।''
9) इसलिए दाऊद अपने साथ के उन छः सौ आदमियों को लेकर चल पड़ा और बसोर नाले के पास पहुॅँचा, जहॉँ कुछ लोग रूक गये।
10) बाकी चार सौ आदमियों के साथ दाऊद उनका पीछा करता रहा और दो सौ आदमी रूके रह गये, जो थकावट के कारण बसोर नाले को पार करने में असमर्थ थे।
11) वहॉँ खुले मैदान में एक मिस्त्री पड़ा मिला और उसे दाऊद के पास लाया गया। उन्होंने उसे कुछ रोटी खिलायी और पानी पिलाया,
12) फिर उसे अंजीर की कुछ डलियाँॅ और किषमिष के दो गुच्छे दिये। जब वह खा चुका, तब उसमें शक्ति आयी; क्योंकि उसने तीन दिन और तीन रात कुछ नहीं खाया-पीया था।
13) दाऊद ने उससे पूछा, ÷÷तुम किसके आदमी हो और कहॉँ से आ रहे हो?'' उसने उत्तर दिया, ÷÷मैं मिस्त्री हूँ, एक अमालेकी का दास। आज से तीन दिन पहले मैं बीमार पड़ा, इसलिए मेरे स्वामी ने मुझे छोड़ दिया।
14) हमने करेतियों के नेगेब पर, यूदा के नेगेब और कालेबियों के नेगेब पर छापा मारा और सिकलग को जला डाला।''
15) तब दाऊद ने उससे पूछा, ÷÷क्या तुम मुझे उस दल के पास ले चलोगे?'' उसने उत्तर दिया, ÷÷यदि तुम ईष्वर की शपथ खा कर कहो कि तुम न तो मुझे मारोगे और न मुझे अपने स्वामी के हवाले कर दोगे, तो मैं तुम्हें उस दल के पास ले चलूॅँगा।
16) वह दाऊद को वहाँ ले गया, तो वे देखते क्या हैं कि वे लोग भूमि पर इधर-उधर पडे+ हैं। वे खा-पी रहे थे और उस बड़ी लूट के कारण विजयोत्सव मना रहे थे, जो वे फ़िलिस्तयों से और यूदा के देष से ले गये थे।
17) दाऊद उन्हें सन्ध्या से लेकर दूसरे दिन की शाम तक मारता रहा और उन में, उन चार सौ नौजवानों के सिवा, जो ऊँॅटों पर चढ़ कर भाग गये थे, एक भी शेष न रहा।
18) इस प्रकार दाऊद ने वह सब कुछ पा लिया, जो अमालेकी ले गये थे। दाऊद ने अपनी दोनों पत्नियों को भी छुड़ा लिया।
19) कोई या कुछ भी खोया नहीं था - न छोटे-बडे+ लोगों में, न पुत्र-पुत्रियों में और न लूट के माल में। जो कुछ ले लिया गया था, दाऊद वह सब वापस ले आया।
20) दाऊद ने सब भेड़-गायें भी ले लीं और उसके आदमियों ने उन्हें उसके आगे-आगे यह कहते हुए हॉँका, ÷÷यह दाऊद की लूट है।''
21) जब दाऊद उन दौ सौ आदमियों के पास आया, जो थकावट के कारण उसके साथ नहीं जा सके थे और जिन्हें उन्होंने बसोर नाले के किनारे छोड़ दिया था, तब वे दाऊद और उसके आदमियों से मिलने निकले। उनके पास जा कर दाऊद ने उनको नमस्कार किया।
22) दाऊद के आदमियों में जो दुष्ट और उपद्रवी थे, वे कहने लगे, ÷÷वे हमारे साथ नहीं गये थे, इसलिए जो लूट हम वापस ले आये, उस में से हम उन्हें उनकी पत्नियों और बच्चों के सिवा कुछ नहीं देंगे। वे उन्हें लेकर चलते बनें।''
23) दाऊद ने कहा, ÷÷भाइयों, ऐसा मत करो। जब प्रभु ने हमें सब कुछ दिया है, हमारी रक्षा की है और उस दल को हमारे हाथ दिया है, जो हमारा विरोध कर रहा था,
24) तो तुम्हारी यह बात कैसे मान ली जाये? सामान के पास रहने वालों का भी उतना ही भाग होना चाहिए, जितना लड़ाई में जाने वालों का। सब को बराबर हिस्सा मिलना चाहिए।''
25) दाऊद ने इस्राएल के लिए यह नियम और अध्यादेष बनाया, जो उस दिन से अब तक लागू है।
26) सिकलग पहुॅँच कर दाऊद ने लूट का एक भाग अपने मित्रों, यूदा के नेताओं के पास यह कहते हुए भेजा, ÷÷प्रभु के शत्रुओं की लूट का यह भाग आप को समर्पित है।''
27) उसने बेतेल, नेगेब, रामोत, यत्तीर,
28) अरोए+र. सिफ़मोत, एष्तमोआ,
29) राकाल, यरहमएलियों और केनियों के नगरों,
30) होरमा, बोर-आशान, अताक,
31) हेब्रोन और उन सब अन्य स्थानों के नेताओं के पास उपहार भेजे, जहॉँ दाऊद और उसके आदमी घूमते रहे।

अध्याय 31

1) फ़िलिस्ती इस्राएल के विरुद्ध लड़ रहे थे। इस्राएली फ़िलिस्तयों के सामने से भाग खडे+ हुए। गिलबोआ के पर्वत पर मरे हुए लोग पड़े थे।
2) फ़िलिस्तयों ने साऊल और उसके पुत्रों का पीछा कर साऊल के पुत्र योनातान, अबीनाबाद और मलकीषुआ को मार डाला।
3) तब साऊल के निकट घमासान युद्ध हुआ और तीरन्दाज+ उसकी ओर बढे+। साऊल तीरन्दाजों को देखकर थरथरा कर कॉँपने लगा।
4) साऊल ने अपने शस्त्रवाहक को आज्ञा दी, ÷÷अपनी तलवार खींच लो और मुझे मार डालो। ऐसा न हो कि वे बेख़तना लोग आ कर मुझे भोंक दें और मेरा अपमान करें।'' लेकिन उसके शस्त्रवाहक ने अस्वीकार कर दिया, क्योंकि वह बहुत डर रहा था। इस पर साऊल ने अपनी तलवार खींच कर अपने को उस पर गिरा दिया।
5) जब उसके शस्त्रवाहक ने देखा कि साऊल की मृत्यु हो गई है, तो उसने भी अपने को अपनी तलवार पर गिरा दिया और वह भी उसके साथ मर गया।
6) इस प्रकार साऊल, उसके तीन पुत्र, उसका शस्त्रवाहक और उसके सब सैनिक उसी दिन मर गये।
7) जब मैदान के और यर्दन के उस पार रहने वाले इस्राएलियों ने देखा कि इस्राएली सैनिक भाग गये हैं तथा साऊल और उसके पुत्र मरे पडे+ हैं, तो वे अपने नगर छोड़ कर भाग निकले। फ़िलिस्ती आ कर उन में बस गये।
8) दूसरे दिन मरे हुए लोगों को लूटने के लिए फ़िलिस्ती आ पहँॅुचे। उन्होंने साऊल और उसके तीन पुत्रों को पा लिया, जो गिलबोआ के पर्वत पर मारे गये थे।
9) उन्होंने साऊल का सिर काट लिया, उसका कवच उतार डाला और अपने देवताओं तथा लोगों को विजय की सूचना देने फ़िलिस्तियों के देष भर में दूत भेजे।
10) उन्होंने उसके अस्त्र-षस्त्र अष्तारता-देवियों के मन्दिर में रख दिये और उसका शव बेत-षान की चारदीवारी पर लटका दिया।
11) फ़िलिस्तयों ने साऊल के साथ जो किया था, जब गिलआद के याबेष के निवासियों ने वह सुना,
12) तब सब युद्ध योग्य पुरुष प्रस्थान कर और सारी रात चल कर साऊल और उसके पुत्रों के शव बेत-षान की चारदीवारी से उतार कर यावेष ले आए और वहॉँ उनको जला दिया।
13) फिर उन्होंने उनकी अस्तियाँॅं याबेष के झाऊ के वृक्ष के नीचे दफ़ना दीं और सात दिन तक उपवास किया।