पवित्र बाइबिल : Pavitr Bible ( The Holy Bible )

नया विधान : Naya Vidhan ( New Testament )

सन्त योहन का प्रकाशना-ग्रन्थ ( Revelation )

अध्याय 1

1) यह ईसा मसीह की प्रकाशना है। यह उन्हें ईश्वर की ओर से प्राप्त हुई, जिससे वह अपने सेवकों को निकट भविष्य में होने वाली घटनाएं दिखायें। उसने अपने दूत को भेज कर इस प्रकाश्ना का ज्ञान अपने सेवक योहन को कराया।
2) योहन अनुप्रमाणित करता है कि उसने जो कुुछ देखा, वह ईश्वर का वचन और ईसा मसीह का साक्ष्य है।
3) धन्य है वह, जो यह भविष्यवाणी पढ़ कर सुनाता है और धन्य हैं वे, जो इसके शब्द सुनते हैं, और इस में लिखी हुई बातों का ध्यान रखते हैं; क्योंकि वह समय निकट आ गया है;
4) एशिया की कलीसियाओं को योहन का सन्देश। जो है, जो था और जो आने वाला है, उसकी ओर से, उसके सिंहासन के सामने उपस्थित रहने वाले सात आत्माओं
5) और ईसा मसीह की ओर से आप लोगों को अनुग्रह और शान्ति प्राप्त हो! मसीह विश्वसनीय साक्षी, पुनर्जीवित मृतकों में से पहलौठे और पृथ्वी के राजाओं के अधिराज हैं। वह हम को प्यार करते हैं। उन्होंने अपने रक्त से हमें पापों से मुक्त किया।
6) और अपने ईश्वर और पिता के लिए हमें याजकों का राजवंश बनाया। उनकी महिमा और उनका सामर्थ्य अनन्त काल तक बना रहे! आमेन!
7) देखो, वही बादलों पर आने वाले हैं। सब लोग उन्हें देखेंगे। जिन्होंने उन को छेदा, वे भी उन्हें देखेंगे और पृथ्वी के सभी राष्ट्र उन पर विलाप करेंगे। यह निश्चित है। आमेन!
8) जो है, जो था और जो आने वाला है, वही सर्वशक्तिमान् प्रभु-ईश्वर कहता है- आल्फा और ओमेगा (आदि और अन्त ) मैं हूँ।
9) मैं योहन हूँ, ईसा में आप लोगों का भाई और संकट, राज्य तथा धैर्य में आपका सभागी। ईश्वर के सुसमाचार का प्रचार करने तथा ईसा के विषय में साक्ष्य देने के कारण मैं पातमोस नामक टापू में पड़ा रहता था।
10) मैं प्रभु के दिन आत्मा से आविष्ट हो गया और मैं ने अपने पीछे तुरही-जैसी वाणी को उच्च स्वर से यह कहते सुना,
11) ''तुम जो देख रहे हो, उसे पुस्तक में लिखो और उसे सात कलीसियाओं को भेज दो- एफेसुस, स्मुरना, पेरगामोन, थुआतिरा, सारदैस, फिलदेलफ़िया और लौदीकिया को''।
12) मुझ से कौन बोल रहा है, उसे देखने के लिए मैं मुड़ा और मूड़ कर मैंने सोने के सात दीपाधार देखे,
13) और उनके बीच मानव पुत्र-जैसे एक व्यक्ति को। वह पैरों तक लम्बा वस्त्र पहने था और उसके वक्ष स्थल पर स्वर्ण मेखला बाँधी हुई थी।
14) उसके सिर के केश हिमश्वेत ऊन की तरह उजले थे और उसकी आँखे।अग्नि की तरह धधक रही थीं।
15) उसके पैर भट्टी में तपाये हुए काँसे की तरह चमक रहे थे और उसकी वाणी समुद्र की तरह गर्जन कर रही थी।
16) वह अपने दाहिने हाथ में सात तारे धारण किये था, उसके मुख से एक तेज दुधारी तलवार निकल रही थी और उसका मुखमण्डल मध्यान्ह के सूर्य की तरह चमक रहा था।
17) मैं उसे देखते ही मृतक-जैसा उसके चरणों पर गिर पड़ा। उसने मुझ पर अपना दाहिना हाथ रख कर कहा, ''मत डरो। प्रथम और अन्तिम मैं हूँ।
18) जीवन का स्रोत मैं हूँ। मैं मर गया था और देखो, मैं। अनन्त काल तक जीवित रहूँगा। मृत्यु और अधोलोक की कुंजियां मेरे पास हैं।
19) इस लिए तुमने जो कुछ देखा- जो अभी है और जो बाद में हाने वाला है - वह सब लिखो।
20) तुमने जिन सात तारों को मेरे दाहिने हाथ में देखा, उनका और सोने के सात दीपाधारों का रहस्य इस प्रकार है : सात तारे सात कलीसियाओं के स्वर्गदूत हैं और सात दीपाधार सात कलीसियाएं।

अध्याय 2

1) ''एफेसुस की कलीसिया के स्वर्गदूत को यह लिखो-''जो अपने दाहिने हाथ में सातों तारों को धारण किये है और सोने के सात दीपाधारों के बीच घूम रहा है, उसका सन्देश इस प्रकार है :
2) मैं तुम्हारे आचरण, तुम्हारे परिश्रम और धैर्य से परिचित हूँ। मैं जानता हूँ कि तुम दुष्टों को सह नहीं सकते। जो अपने को प्रेरित कहते हैं, किन्तु हैं नहीं, तुमने उनकी परीक्षा ली है और उन्हें झूठा पाया है।
3) तुम्हारे पास धैर्य है। तुमने मेरे नाम के कारण कष्ट सहा है और हार नहीं मानी।
4) किन्तु मुझे तुम से शिकायत यह है कि तुमने अपना पहला धर्मोत्साह छोड़ दिया है।
5) इस पर विचार करो कि तुम कितने ऊँचे स्थान से गिरे हो। पश्चाताप करो और पहले जैसा आचरण करो। नहीं तो मैं तुम्हारे पास आ कर तुम्हारा दीपाधार उसके स्थान पर से हटा दूँगा।
6) फिर भी तुम में यह अच्छाई है कि तुम मेरी तरह निकोलाईयों के कर्मों से घृणा करते हो।
7) जिसके कान हो, वह सुन ले कि आत्मा कलीसियाओं से क्या कहता है। मैं विजयी को उस जीवन-वृक्ष का फल खिलाऊँगा, जो ईश्वर की स्वर्ग-वाटिका के बीच है।
8) ''स्मुरना की कलीसिया के स्वर्गदूत को यह लिखो- ''जो प्रथम और अन्तिम है, जो मर गया था और पुनर्जीवित हो गया है, उसका सन्देश इस प्रकार है :
9) मैं तुम्हारे संकट और दरिद्रता से परिचित हूँ - फिर भी तुम धनी हो- और मैं यह भी जानता हूँ कि वे लोग तुम्हारी कितनी बदनामी करते हैं, जो अपने को यहूदी कहते है। किन्तु जो यहूदी नहीं, बल्कि शैतान के अनुयायी हैं।
10) तुम्हें जो कष्ट भोगना होगा, उस से मत डरो। शैतान तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए तुम लोगों में कुछ को कैद में डाल देगा और तुम लोग दस दिनों तक संकट में पड़े रहोगे। तुम मृत्यु तक ईमानदार बने रहो और मैं तुम्हें जीवन का मुकुट प्रदान करूँगा।
11) ''जिसके कान हों, वह सुन ले कि आत्मा कलीसियाओं से क्या कहता है। विजयी को द्वितीय मृत्यु से कोई हानि नहीं होगी।
12) ’‘पेरगामोन की कलीसिया के स्वर्गदूत को यह लिखो-’‘जिसके पास तेज दुधारी तलवार है, उसका सन्देश इस प्रकार हैः
13) मैं जानता हूँ कि तुम्हारा निवास कहाँ है- वह वहाँ है, जहाँ शैतान की गद्दी है। फिर भी तुम मेरा नाम दृढ़ बनाये रखते हो और तुमने उन दिनों भी मुझ में अपना विश्वास नहीं त्यागा, जब मेरा ईमानदार साक्षी अन्तिपस, तुम्हारे शहर में - जो शैतान का निवास स्थान है- मारा गया।
14) किन्तु मुझे तुम से कुछ शिकायतें हैं। तुम्हारे बीच कुछ ऐसे लोग रहते हैं, जो बलआम की शिक्षा को मानते हैं। बलआम ने बालाक को इस्राएलियों के मार्ग पर ठोकर डालने का परामर्श दिया, जिससे वे देवताओं को अर्पित मांस खायें और व्यभिचार करें।
15) तुम्हारे बीच कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो निकोलाइयों की शिक्षा मानते हैं।
16) इसलिए पश्चात्तप करो; नहीं तो मैं शीघ्र ही तुम्हारे पास आऊँगा और अपने मुख की तलवार से उन लोगों से युद्ध करूँगा।
17) जिसके कान हों, वह सुन ले कि आत्मा कलीसियाओं से क्या कहता है। मैं विजयी को छिपा हुआ मन्ना और एक सफेद पत्थर प्रदान करूँगा। उस पत्थर पर नया नाम अंकित होगा, जिस को पाने वाले के अतिरिक्त और कोई नहीं जानता।
18) ’‘थुआतिरा की कलीसिया के स्वर्गदूत को यह लिखो-’‘जिसकी आँखें अग्नि की तरह धधकती हैं और जिसके पैर भट्टी में तपाये हुए कासे की तरह चमकते हैं, उस ईश्वर के पुत्र का सन्देश इस प्रकार है :
19) मैं तुुम्हारे आचरण, तुम्हारे भ्रातृप्रेम, तुम्हारे विश्वास, तुम्हारी धर्म-सेवा, तुम्हारे धैर्य से परिचित हूँ। मैं जानता हूँ कि तुमने इधर पहले से भी अधिक परिश्रम किया है।
20) किन्तु मुझे तुम से यह शिकायत है कि उस स्त्री ईजबेल को अपने बीच रहने दे रही हो। वह अपने को नबिया कहती है और अपनी शिक्षा द्वारा मेरे सेवकों को व्यभिचार करने और देवताओं को अर्पित मांस खाने के लिए बहकाती है।
21) मैंने उसे पश्चात्ताप करने का समय दिया, किन्तु वह अपने व्यभिचार के लिए पश्चात्ताप करना नहीं चाहती।
22) देखो, मैं उसे रोग-शय्या पर पटक दूँगा और यदि उसके साथ व्यभिचार करने वाले उसके कमर्ोें से विमुख नहीं होंगे, तो मैं उन पर घोर विपत्ति ढाऊँगा।
23) मैं उसकी सन्तति को मार डालूँगा और सब कलीसियाएँ यह जान जायेंगी कि मैं वह हूँ, जो हृदयों की थाह लेता है और मैं हर एक को उसके कमर्ोें का फल दूँगा।
24) थुआतिरा के जो लोग इस शिक्षा को नहीं मानते और शैतान के तथाकथित गहरे भेद नहीं जानते, उन सबों से मैं यह कहता हूँ- मैं तुम लोगों पर कोई नया बोझ नहीं डालूँगा।
25) जो शिक्षा तुम्हारे पास है, मेरे आने तक उस पर दृढ़ बने रहो।
26) जो विजयी होगा, जो अन्त तक मेरी इच्छा पूरी करता रहेगा, मैं उसे राष्ट्रों पर वह अधिकार प्रदान करूँगा, जिसे मेरे पिता ने मुझे प्रदान किया।
27) वह लौह-दण्ड से राष्टों पर शासन करेगा और उन्हें मिट्टी के पात्रों की तरह चुकनाचूर कर देगा
28) और मैं उसे प्रभात का तारा प्रदान करूँगा।
29) जिसके कान हों, वह सुन ले कि आत्मा कलीसियाओं से क्या कहता है।

अध्याय 3

1) ’‘सारदैस की कलीसिया के स्वर्गदूत को यह लिखो- ‘‘जो ईश्वर के सातों आत्माओं और सातों तारों को धारण किये है, उसका सन्देश इस प्रकार है : मैं तुम्हारे आचरण से परिचित हूँ। लोग तुम्हें जीवित मानते हैं, किन्तु तुम तो मर चुके हो।
2) जागो! तुम में जो जीवन शेष है और बुझने-बुझने को है, उस में प्राण डालो। मैंने तुम्हारे आचरण को अपने ईश्वर की दृष्टि में अपूर्ण पाया है।
3) तुमने जो शिक्षा स्वीकार की और सुनी, उसे याद रखो, उसका पालन करो और पश्चात्ताप करो। यदि तुम नहीं जागोगे, तो मैं चोर की तरह आऊँगा और तुम्हें मालूम नहीं हैं कि मैं किस घड़ी तुम्हारे पास आ जाऊँगा।
4) सारदैस में तुम्हारे यहाँ कुछ ऐसे व्यक्ति भी है, जिन्होंने अपने वस्त्र दूषित नहीं किये हैं। वे उजले वस्त्र पहन कर मेरे साथ टहलेंगे, क्योंकि वे इसके योग्य हैं।
5) ’‘विजयी इस प्रकार उजले वस्त्र पहनेगा। मैं जीवन-ग्रन्थ में से उसका नाम नहीं मिटाऊँगा, बल्कि अपने पिता और उसके स्वर्गदूतों के सामने उसे स्वीकार करूँगा।
6) जिसके कान हों, वह सुन ले कि आत्मा कलीसियाओं से क्या कहता है।
7) ’‘फिलादेलफिया की कलीसिया के स्वर्गदूत को यह लिखो-’‘जो सच्चा है, जिसके पास दाऊद की कुंजी है, जिसके खोलने पर कोई नहीं बन्द कर सकता और जिसके बन्द करने पर कोई नहीं खोल सकता, उसका सन्देश इस प्रकार है :
8) ’‘मैं तुम्हारे आचरण से परिचित हूँ। मैंने तुम्हारे लिए एक द्वार खोला, जिसे कोई नहीं बन्द कर सकता। तुम्हारी शक्ति सीमित है, फिर भी तुमने मेरी आज्ञाओं का पालन किया और मेरा नाम अस्वीकार नहीं किया है।
9) देखो, मैं शैतान के उन अनुयायियों को, जो अपने को यहूदी कहते हैं, किन्तु यहूदी नहीं हैं और झूठ बोलते हैं, इसके लिए बाध्य करूँगा कि वे आ कर तुम्हारे चरणों में दण्डवत् करें और यह जानें कि मैं तुम को प्यार करता हूँ।
10) तुम मेरे आदेशानुसार दृढ़ बने रहे, इसलिए मैं भी तुम्हें इस विपत्ति के समय सुरक्षित रखँूगा, जो समस्त पृथ्वी पर आने वाली है और उसके निवासियों की परीक्षा लेगी।
11) मैं शीघ्र ही आने वाला हूँ। जो शिक्षा तुम्हारे पास है, उस पर दृढ़ बने रहो, जिससे कोई तुम को तुम्हारे मुकुट से वंचित न करे।
12) ’‘मैं विजयी को अपने ईश्वर के मन्दिर का खम्भा बनाऊँगा। वह फिर कभी उसके बाहर नहीं जायेगा। मैं अपने ईश्वर का नाम, अपने ईश्वर के नगर, उस नवीन येरुसालेम का नाम, जो मेरे ईश्वर के यहाँ से स्वर्ग से उतरने वाला है और अपना नया नाम उस पर अंकित करूँगा।
13) जिसके कान हों, वह सुन ले कि आत्मा कलीसियाओं से क्या कहता है।
14) लौदीकिया की कलीसिया के स्वर्गदूत को यह लिखो- ‘‘आमेन, विश्वसनीय तथा सच्चे साक्षी, ईश्वर की सृष्टि के मूलस्रोत का सन्देश इस प्रकार हैः
15) मैं तुम्हारे आचरण से परिचित हूँ। तुम न तो ठंडे हो और न गर्म। कितना अच्छा होता कि तुम ठंडे या गर्म होते!
16) लेकिन न तो तुम गर्म हो और न ठंडे, बल्कि कुनकुने हो, इसलिए मैं तुम को अपने मुख से उगल दूँगा।
17) तुम यह कहते हौ- मैं धनी हूँ, मैं समृद्ध हो गया, मुझे किसी बात की कमी नहीं, और तुम यह नहीं समझते कि तुम अभागे हो, दयनीय हो, दरिद्र, अन्धे और नंगे हो।
18) मेरी बात मानो। मुझ से आग में तपाया हुआ सोना खरीद कर धनी हो जाओ; उजले वस्त्र खरीद कर पहन लो और अपने नंगेपन की लज्जा ढँक लो; अंजन खरीद कर आँखों पर लगाओं, जिससे तुम देख सको।
19) मैं जिन सबों को प्यार करता हूँ, उन्हें डाँटता और दण्डित करता हूँ। इसलिए उत्साही बनो और पश्चात्ताप करो।
20) मैं द्वार के सामने खड़ा हो कर खटखटाता हूँ। यदि कोई मेरी वाणी सुन कर द्वार खोलेगा, तो मैं उसके यहाँ आ कर उसके साथ भोजन करूँगा और वह मेरे साथ।
21) मैं विजयी को अपने साथ उसी तरह अपने सिंहासन पर विराजमान होने का अधिकार दूँगा, जिस तरह मैं विजयी हो कर अपने पिता के साथ उसके सिंहासन पर विराजमान हूँ।
22) जिसके कान हों, वह सुन ले कि आत्मा कलीसियाओं से क्या कहता है।

अध्याय 4

1) इसके बाद मैंने एक दिव्य दृश्य देखा। मैंने देखा कि स्वर्ग में एक द्वार खुला है और वह तुरही-जैसी वाणी, जिसे मैंने पहले अपने से बाते करते सुना था, बोल रही है- ‘‘यहाँ, ऊपर आओं। मैं तुम्हें दिखाऊँगा कि बाद मे क्या होने वाला है।
2) मैं तुरन्त आत्मा से आविष्ट हो गया। मैंने देखा कि स्वर्ग में एक सिंहासन रखा हुआ है और उस पर कोई विराजमान है,
3) जिसका रूप-रंग सूर्यकान्त एवं रूधिराख्य के सदृश है और सिंहासन के चारों ओर मरकतमणि-जैसा एक आधा-मण्डल है।
4) सिंहासन के चारों और चौबीस सिंहासन रखे हुए है और उन पर चौबीस वयोवृद्ध विराजमान हैं। वे उजले वस्त्र पहने हैं और उनके सिर पर सोने के मुकुट हैं।
5) सिंहासन से बिजलियाँ, वाणियाँ और मेघ-गर्जन निकल रहे हैं। सिंहासन के सामने आग की सात मशाले जल रही हैं; वे ईश्वर के सात आत्मा हैं।
6) सिंहासन के आसपास का फर्श मानो स्फटिक-सदृश पारदर्शी समुद्र है। बीच में, सिंहासन के आसपास चार प्राणी हैं। वे आगे और पीछे की ओर आँखों से भरे हुए हैं।
7) पहला प्राणी सिंह के सदृश है और दूसरा प्राणी साँड़ के सदृश। तीसरे प्राणी का चेहरा मनुष्य-जैसा है
8) चारों प्राणियों के छः-छः पंख है। वे भीतर बाहर आँखों से भरे हुए हैं और दिन-रात निरन्तर यह कहते रहते हैं- पवित्र, पवित्र, पवित्र सर्वशक्तिमान् प्रभु-ईश्वर, जो था, जो है और जो आने वाला है!
9) जब-जब प्राणी सिंहासन पर विराजमान, युग-युगों तक जीवित रहने वाले को महिमा, सम्मान और धन्यवाद देते हैं,
10) तब तब चौबीस वयोवृद्ध सिंहासन पर विराजमान को दण्डवत् कहते हैं, युग-युगों तक जीवित रहने वाले की आराधना करते और यह कहते हुए सिंहासन के सामने अपने मुकुट डाल देते हैं-
11) हमारे पुभु-ईश्वर! तू महिमा, सम्मान और सामर्थ्य का अधिकारी है; क्योंकि तूने विश्व की सृष्टि की। तेरी इच्छा से वह अस्तित्व में आया और उसकी सृष्टि हुई है।''

अध्याय 5

1) इसके बाद मैंने देखा कि सिंहासन पर विराजमान के दाहिने हाथ में एक लपेटी हुई पुस्तक है, जिस पर दोनों ओर लिखा हुआ है और जिसे सात मोहरें लगा कर बन्द कर दिया गया है;
2) और मैंने एक शक्तिशाली स्वर्गदूत को देखा, जो ऊँचे स्वर से पुकार रहा था, ‘‘पुस्तक खोलने और उसकी मोहरें तोड़ने योग्य कौन है?''
3) किन्तु स्वर्ग में, पृथ्वी पर या पृथ्वी के नीचे कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला, जो पुस्तक खोलने या पढ़ने में समर्थ हो।
4) मैं फूट-फूट कर रोने लगा, क्योंकि पुस्तक खोलने या पढ़ने योग्य कोई नहीं मिला।
5) इस पर वयोवृद्धों में एक ने मुझ से कहा, ‘‘मत रोओ! देखो, यूदा-वंशी सिंह, दाऊद की सन्तति ने विजय पायी है। वह पुस्तक और उसकी मोहरें खोलने योग्य है।''
6) तब मैंने सिंहासन के पास के चार प्राणियों और वयोवृद्धों के बीच खड़े एक मेमने को देखा। वह मानो वध किया हुआ था। उसके सात सींग और सात नेत्र थे- ये ईश्वर के सात आत्मा हैं, जिन्हें ईश्वर ने सारी पृथ्वी पर भेजा है।
7) जब मेमने ने पास आ कर सिंहासन पर बैठने वाले के दाहिने हाथ से पुस्तक ली।
8) जब मेमना पुस्तक ले चुका, तो चार प्राणी तथा चौबीस वयोवृद्ध मेमने के सामने गिर पड़े। प्रत्येक वयोवृद्ध के हाथ में वीणा थी और धूप से भरे स्वर्ण पात्र भी- ये सन्तों की प्रार्थनाएँ हैं।
9) ये यह कहते हुए एक नया गीत गा रहे थे, ‘‘तू पुस्तक ग्रहण कर उसकी मोहरें खोलने योग्य है, क्योंकि तेरा वध किया गया है। तूने अपना रक्त बहा कर ईश्वर के लिए प्रत्येक वंश, भाषा, प्रजाति और राष्ट्र से मनुष्यों को खरीद लिया।
10) तूने उन्हें हमारे ईश्वर की दृष्टि में याजकों का राजवंश बना दिया है और वे पृथ्वी पर राज्य करेंगे।''
11) ेमेरे सामने वह दृश्य चलता रहा और मैंने सिंहासन, प्राणियों और वयोवृद्धों के चारों ओर खड़े बहुत-से स्वर्गदूतों की आवाज सुनी-उनकी संख्या लाखों और करोड़ों थी।
12) वे ऊँचे स्वर से कह रहे थे, ‘‘बलि चढ़ाया हुआ मेमना सामर्थ्य, वैभव, प्रज्ञा, शक्ति, सम्मान, महिमा तथा स्तुति का अधिकारी है''।
13) तब मैंने समस्त सृष्टि को- आकाश और पृथ्वी के, पृथ्वी के नीचे और समुद्र के अन्दर के प्रत्येक जीव को- यह कहते सुना, ‘‘सिंहासन पर विराजमान को तथा मेमने को युगानुयुग स्तुति, सम्मान, महिमा तथा सामर्थ्य!''
14) और चार प्राणी बोले, ‘‘आमेन'' और वयोवृद्धों ने मुँह के बल गिर कर दण्डवत् किया।

अध्याय 6

1) मेरे सामने वह दृश्य चलता रहा। जब मेमने ने उन सात मोहरों में पहली मोहर खोली, तो मैंने चार प्राणियों में एक को मेघगर्जन-जैसे स्वर में यह कहते सुनाः ‘‘आओ! ''
2) और मेरी आँखों के सामने एक सफेद घोड़ा दिखाई पड़ा। जो उस पर सवार था, वह धनुष लिये था। उसे एक मुकुट दिया गया और वह विजयी की तरह विजय-यात्रा के लिए निकल पड़ा।
3) जब उसने दूसरी मोहर खोली, तो मैंने दूसरे प्राणी को यह कहते सुनाः ‘‘आओ!''
4) और एक दूसरा घोड़ा प्रकट हुआ। वह लाल था और जो उस पर सवार था, उसे पृथ्वी पर से शान्ति उठा देने का अधिकार प्रदान किय गया, जिससे मनुष्य एक दूसरे का संहार करें और उसे एक बड़ी तलवार दी गयी।
5) जब उसने तीसरी मोहर खोली, तो मैंने तीसरे प्राणी को यह कहते सुनाः ‘‘आओ!'' और मेरी आँखों के सामने एक काला घोड़ा दिखाई पड़ा। जो उस पर सवार था, वह हाथ में तराजू लिये था।
6) और चार प्राणियों के बीच मुझे मानो एक वाणी यह कहते सुुनाई पड़ीः ‘‘एक रुपये सेर गेहूँ और एक रूपये में तीन सेन जौ! किन्तु जैतून और अंगूरी को हानि नहीं पहुँचाओ।''
7) जब उसने चौथी मोहर खोली, तो मैंने चौथे प्राणी को यह कहते सुनाः ‘‘आओ!''
8) और मेरी आँखों के सामने एक पीला घोड़ा दिखाई पड़ा। जो उस पर सवार था, उसका नाम था मृत्यु और उसके पीछे-पीछे अधोलोक आ रहा था। उसे पृथ्वी के चौथाई भाग पर अधिकार प्रदान किया गया, जिससे वह तलवार, अकाल, महामारी और पृथ्वी के बनैले पशुओं द्वारा संहार करे।
9) जब उसने पाँचवीं मोहर खोली, तो मैंने वेदी के नीचे उन लोगों की आत्माओं को देखा, जो ईश्वर के वचन के विषय में साक्ष्य देने के कारण मारे गये थे।
10) वे ऊँचे स्वर में यह कहते हुए पुकारते थेः ‘‘परमपावन एवं सत्यप्रतिज्ञ स्वामी! आप न्याय करने और पृथ्वी के निवासियों को हमारे रक्त का बदला चुकान में कब तक देर करेंगे ?
11) उन में प्रत्येक को एक उजला वस्त्र दिया गया और उन से थोड़ा समय और धैर्य रखने को कहा गया, जिससे उनके उन भाइयों की संख्या पूरी हो जाये, जो उन्हीं की तरह मसीह की सवो करते हुए मारे जायेंगे।
12) मैं देखता रहाः उसने छठी मोहर खोली और एक भारी भूकम्प हुआ। सूर्य बालों के बने टाट की तरह काला हो उठा और पूरा चन्द्रमा रक्त की तरह लाल।
13) आकाश के तारे प्रथ्वी पर गिर पड़े, जैसे आँधी से हिलाये जाने पर अंजीर का पेड़ अपने कच्चे फल झाड़ देता है।
14) आकाश विलीन हो गया, मानो किसी ने कागज के पुलिन्दे को लपेट लिया हो। सभी पर्वत और द्वीप अपने-अपने स्थान से हटा दिये गये।
15) पृथ्वी के राजा, सामन्त, सेनापति, धनवान् और शक्तिशाली लोग, दास और स्वतंत्र व्यक्ति सब-के-सब पहाड़ों की गुफाओं और चट्टानों में छिप गये
16) और वे पहाड़ों और चट्टानों से बोल उठे : ‘‘हम पर गिर पड़ो और सिंहासन पर विराजमान की दृष्टि से और मेमने के क्रोध से हमें छिपा लो''।
17) क्योंकि उनके प्रतिशोध का महादिवस आ गया है। कौन टिक सकेगा?

अध्याय 7

1) इसके बाद मैंने पृथ्वी के चार कोनों पर चार स्वर्गदूतों को खड़ा देखा। वे चारों पवनों को रोक रहे थे, जिसके फलस्वरूप कोई भी पवन न पृथ्वी पर बहता था न समुद्र पर और न किसी वृक्ष पर।
2) मैंने एक अन्य दूत को पूर्व से ऊपर उठते देखा। जीवन्त ईश्वर की मुहर उसके पास थी और उसने उन चार दूतों से, जिन्हें पृथ्वी और समुद्र को उजाड़ने का अधिकार मिला था, पुकार कर कहा,
3) ’‘जब तक हम अपने ईश्वर के दासों के मस्तक पर मुहर न लगायें, तब तक तुम न तो पृथ्वी को उजाड़ो, न समुद्र को और न वृक्षों को''।
4) और मैंने मुहर लगे लोगों की संख्या सुनी- यह एक लाख चौवालीस हजार थी और वे इस्राएलियों के सभी वंशों में से थे :
5) यूदा-वंश के बारह हजार, रूबेन-वंश के बारह हजार, गाद-वंश के बारह हजार,
6) आसेर-वंश के बारह हजार, नफ्ताली-वंश के बारह हजार, मनास्से-वंश के बारह-हजार,
7) सिमेयोन-वंश के बारह हजार, लेवी-वंश के बारह हजार, इस्साखार-वंश के बारह हजार
8) जबुलोन-वंश के बारह हजार, यूसुफ-वंश के बारह हजार और बेनयामीन-वंश के बारह हजार मुहर लगे लोग।
9) इसके बाद मैंने सभी राष्ट्रों, वंशों, प्रजातियों और भाषाओं का एक ऐसा विशाल जनसमूह देखा, जिसकी गिनती कोई भी नहीं कर सकता। वे उजले वस्त्र पहने तथा हाथ में खजूर की डालियाँ लिये सिंहासन तथा मेमने के सामने खड़े थे
10) और ऊँचे स्वर से पुकार-पुकार कर कह रहे थे, ‘‘सिंहासन पर विराजमान हमारे ईश्वर और मेमने की जय!''
11) तब सिंहासन के चारों ओर खड़े स्वर्गदूत, वयोवृृद्ध और चार प्राणी, सब-के-सब सिंहासन के सामने मुँह के बल गिर पड़े और उन्होंने यह कहते हुए ईश्वर की आराधना की,
12) ’‘आमेन! हमारे ईश्वर को अनन्त काल तक स्तुति, महिमा, प्रज्ञा, धन्यवाद, सम्मान, सामर्थ्य और शक्ति ! आमेन !''
13) वयोवृद्धों में एक ने मुझ से कहा, ‘‘ये उजले वस्त्र पहने कौन हैं और कहाँ से आये हैं?
14) मैंने उत्तर दिया, ‘‘महोदय! आप ही जानते हैं'' और उसने मुझ से कहाँ, ‘‘ये वे लोग हैं, जो महासंकट से निकल कर आये हैं। इन्होंने मेमने के रक्त से अपने वस्त्र धो कर उजले कर लिये हैं।
15) इसलिए ये ईश्वर के सिंहासन के सामने ख़ड़े रहते और दिन-रात उसके मन्दिर में उसकी सेवा करते हैं। वह, जो ंिसंहासन पर विराजमान है, इनके साथ निवास करेगा।
16) इन्हें फिर कभी न तो भूख लगेगी और न प्यास, इन्हें न तो धूप से कष्ट होगा और न किसी प्रकार के ताप से;
17) क्योंकि सिंहासन के सामने विद्यमान मेमना इनका चरवाहा होगा और इन्हें संजीवन जल के स्रोत के पास ले चलेगा और ईश्वर इनकी आँखों से सब आँसू पोंछ डालेगा।''

अध्याय 8

1) जब मेमने ने सातवीं मुहर खोली, तो लगभग आधे घण्टे तक स्वर्ग में सन्नाटा छाया रहा।
2) इसके बाद मैंने देखा कि उन सात स्वर्गदूतों को, जो ईश्वर के सामने खड़े रहते हैं, सात तुरहियाँ दी जा रही हैं।
3) तब एक दूसरा स्वर्गदूत सोने का धूपदान लिये आया और वेदी पर खड़ा हो गया। उसे बहुत-सा धूप दिया गया, जिससे वह उसे सब सन्तों की प्रार्थनाओं के साथ सिंहासन के सामने वाली स्वर्ण वेदी पर चढ़ाये।
4) और स्वर्ग-दूत के हाथ से धूप का धूआँ सन्तों की प्रार्थनाओं के साथ ऊपर चढ़ा और ईश्वर के सम्मुख पहुँचा।
5) इसके बाद स्वर्गदूत ने धूपदान ले कर उसे वेदी की आग से भरा और पृथ्वी पर फेंक दिया। इस पर मेघगर्जन, वाणियाँ और बिजलियाँ उत्पन्न हुई और भूकम्प हुआ।
6) वे सात स्वर्गदूत, जिनके पास सात तुरहियाँ थीं, अपनी-अपनी तुरही बजाने को तैयार हुए।
7) पहले ने तुरही बजायी। इस पर रक्त से मिश्रित ओले एवं आग उत्पन्न हुई और पृथ्वी पर गिर पड़ी। एक तिहाई पृथ्वी भस्म हो गयी, एक तिहाई वृक्ष भस्म हो गये और सारी हरी घास भस्म हो गयी।
8) दूसरे स्वर्गदूत ने तुरही बजायी। इस पर मानो एक विशाल प्रज्वलित पर्वत समुद्र में फेंका गया। एक तिहाई समुद्र रक्त बन गया,
9) समुद्र के एक तिहाई प्राणी मर गये और एक तिहाई जहाज नष्ट हो गये।
10) तीसरे स्वर्गदूत ने तुरही बजायी। इस पर मशाल की तरह जलता हुआ एक विशाल नक्षत्र आकाश से गिर पड़ा। वह एक तिहाई नदियों पर और जलस्रोतों पर गिरा।
11) नक्षत्र का नाम अफसन्तीन है। एक तिहाई जल अफसन्तीन बन गया और बहुत से लोग मर गये, क्योंकि जल कड़वा हो गया था।
12) चौथे स्वर्गदूत ने तुरही बजायी इस पर एक तिहाई सूर्य, एक तिहाई चन्द्रमा और एक तिहाई नक्षत्रों पर आघात हुआ, जिससे उनका एक तिहाई भाग अन्धकारमय हो गया। दिन और रात का एक तिहाई भाग नष्ट हो गया।
13) मेरे सामने वह दृश्य चलता रहा। मैंने मध्य आकाश में उड़ने वाले एक गरूड़ को ऊँचे स्वर में यह कहते सुना, ‘‘धिक्कार ! धिक्कार! धिक्कार पृथ्वी के निवासियों को उन तुरहियों के निनाद के कारण जिन्हें शेष तीन स्वर्गदूत बजाने वाले हैं!''

अध्याय 9

1) पाँचवें स्वर्गदूत ने तुरही बजायी। मैंने एक तारा देखा, जो आकाश से पृथ्वी पर गिरा था और उसे अगाध गर्त्त के विवर की कुंजी दी गयी।
2) उसने अगाधगर्त्त का विवर खोला। इस पर विवर से धूआँ निकला, जो बड़ी भट्टी के धूएँ-जैसा था और विवर के धूएँ से सूर्य और वायुमण्डल अन्धकारमय हो गया।
3) उस धूएँ में से टिड्डियाँ पृथ्वी पर उतरीं और उन्हें पृथ्वी के बिच्छुओं-जैसी शक्ति प्रदान की गयी।
4) उन्हें यह आदेश मिला कि वे घास अथवा किसी पौधे या वृक्ष को हानि नहीं पहुँचायें, बल्कि केवल उन मनुष्यों को, जिनके माथे पर ईश्वर की मुहर नहीं लगी हो।
5) टिड्डियों को इन लोगों का वध करने की नहीं, बल्कि इन्हें पाँच महीनों तक पीड़ित करने की अनुमति दी गयी। उनकी यन्त्रणा बिच्छुओं के डंक-जैसी थी।
6) उन दिनों मनुष्य मृत्यु की खोज करेंगे, किन्तु वह उन्हें नहीं मिलेगी। वे मरने की अभिलाषा करेंगे, किन्तु मृत्यु उन से भागती रहेगी।
7) उन टिड्डियों की आकृति युद्ध के लिए सुसज्जित अश्वों-जैसी थी। ऐसा लग रहा था कि उनके सिरों पर स्वर्ण मुकुट हों। उनके मुख मनुष्यों के मुख-जैसे थे।
8) उनके केश स्त्रियों के केश-जैसे और उनके दाँत सिंहों के दाँतों जैसे थे।
9) ऐसा लग रहा था कि उनके कवच लोहे के कवच थे। उनके डैनों की आवाज युद्ध के लिए तेज दौड़ने वाले बहुसंख्यक रथों और अश्वों की आवाज-जैसी थीं।
10) उनकी पूँछें, जिन में डंक थे, बिच्छुओं की पूँछों-जैसी थीं। उनकी पूँछों में मनुष्यों को पाँच महीनों तक हानि पहुँचाने का सामर्थ्य था।
11) उनका एक राजा था, अर्थात् अगाध गर्त्त का दूत, जिसका नाम इब्रानी में अबद्दीन है और यूनानी में अपोल्लुओन।
12) पहली विपत्ति अब बीत चुकी। इसके बाद दो विपत्तियाँ और आने वाली हैं।
13) छठे स्वर्गदूत ने तुरही बजायी। इस पर ईश्वर के सम्मुख अवस्थित स्वर्ण वेदी के कोनों में से एक वाणी सुनाई पड़ी।
14) मैंने उसे तुरहीधारी छठे स्वर्गदूत से यह कहते सुनाः ‘‘महानदी फरात के पास बँधे हुए चार दूतों को खोल दो''।
15) उन चार दूतों के बन्धन खोल दिय गये, जो उसी घड़ी, दिन, महीने और वर्ष के लिए प्रस्तुत थे, जब उन्हें एक तिहाई मनुष्यों का वध करना था।
16) घुड़सवार सैनिकों की संख्या बीस करोड़ थी। मैंने उनकी संख्या की घोषणा सुनी।
17) मुझे उस दृश्य में वे घोड़े और उन पर सवार सैनिक इस प्रकार दीख पड़े : सैनिक अग्नि-जैसे लाल, धूम्रकान्त-जैसे नीले और गन्धक-जैसे पीले कवच पहने हुए थे। घोड़ों के सिर सिंहों के सिर-जैसे थे और उनके मुँह से आग, धुँआ और गन्धक निकल रही थी।
18) इन तीन विपत्तियों द्वारा, अर्थात् आग, धूएँ और गन्धक द्वारा, जो घोड़ों के मुँह से निकलती थी, एक तिहाई मनुष्यों का वध किया गया;
19) क्योंकि उन घोड़ों का सामर्थ्य उनके मुँह में ही नहीं, उनकी पूँछें में भी था। उनकी पूँछें साँपों के सदृश थीं- उनके अपने सिर थे और वे उन से भी हानि पहुँचाते थे।
20) शेष मनुष्यों ने- जो इन विपत्तियों द्वारा नहीं मारे गये थे- अपने हाथों के कर्मों के लिए पश्चात्ताप नहीं किया। वे अपदूतों की पूजा करते रहे और सोना, चाँदी, काँसे पत्थर और लकड़ी की उन देवमूर्तियों की, जो न तो देख सकती हैं, न सुन और चल सकती हैं।
21) उन्होंने अपने हत्याकाण्डों, अपने जादू-टोनों, अपने व्यभिचार और अपनी चोरियों के लिए भी पश्चात्ताप नहीं किया।

अध्याय 10

1) इसके बाद मैंने एक दूसरे शक्तिशाली स्वर्गदूत को आकाश से उतरते देखा। वह मेघ लपेटे हुए था और उसके सिर पर इन्द्रधनुष शोभायमान था। उसका मुख-मण्डल सूर्य की तरह चमक रहा था और उसके पैर अग्निस्तम्भ जैसे थे।
2) वह हाथ में एक खुली पुस्तिका लिय था। उसने अपना दाहिना पैर समुद्र पर रखा और बायाँ पैर पृथ्वी पर।
3) वह सिंहगर्जन-जैसे ऊँचे स्वर से चिल्ला उठा और उसके चिल्लाने के बाद सात मेघगर्जन बोलने लगे।
4) जब सात मेघगर्जन बोल चुके, तो मैं लिखने ही वाला था कि मैंने स्वर्ग से एक वाणी को यह कहते सुना, ‘‘सात मेघगर्जनों का सन्देश गुप्त रखो; उसे मत लिखो''।
5) तब जिस स्वर्गदूत को मैंने समुद्र और पृथ्वी पर खड़ा देखा था उसने अपना दाहिना हाथ स्वर्ग की ओर ऊपर उठाया।
6) जो युग-युगों तक जीता रहता है, जिसने स्वर्ग और उस में जो कुछ है, पृथ्वी और उस पर जो कुछ है एवं समुद्र और उस में जो कुछ है, उसकी सृष्टि की, उसकी शपथ खा कर स्वर्गदूत ने यह कहा- ‘‘अब और देर नहीं होगी।
7) जिस दिन सातवें स्वर्गदूत की तुरही सुनाई पड़ेगी, उस दिन ईश्वर का गुप्त रहस्य पूरा हो जायेगा, जैसा कि उसने अपने सेवकों, अपने नबियों से घोषणा की।''
8) मैंने जो वाणी स्वर्ग से आते हुए सुनी थी, वह उस समय फिर मुझे सम्बोधित कर बोली, ‘‘जाओ, जो स्वर्गदूत समुद्र और पृथ्वी पर खड़ा है, उसके हाथ से वह खुली पुस्तक ले लो''।
9) इसलिए मैंने स्वर्गदूत के पास जा कर उस से निवेदन किया कि वह मुझे पुस्तिका दे दे। उसने कहा, ‘‘इसे ले लो और खाओ। यह ुतुम्हारे पेट में कड़वी, किन्तु तुम्हारे मुँह में मधु-जैसी मीठी लगेगी।''
10) मैंने स्वर्गदूत के हाथ से पुस्तिका ले ली और खायी। वह मेरे मुँह में मधु-जैसी मीठी लगी, किन्तु जब मैं उसे खा चुका, तो मेरा पेट कड़वा हो गया।
11) तब मुझ से कहा गया, ‘‘तुम्हे फिर प्रजातियों, राष्ट्रों, भाषाओं और बहुत-से राजाओं के विषय में भविष्य वाणी करनी होगी''।

अध्याय 11

1) इसके बाद किसी ने मुझे मापक-दण्ड के रूप में एक सरकण्डा दिया और कहा : ‘‘उठो, ईश्वर का मन्दिर, वेदी और वहाँ के आराधकों को नापो।
2) किन्तु मन्दिर का बाहरी प्रांगण छोड़ दो, उसे मत नापो ; क्योंकि वह गैर-यहूदियों के हवाले कर दिया गया है और वे पवित्र नगर को बयालस महीनों तक रौंदते रहेंगे।
3) मैं अपने दो साक्षियों को आदेश दूँगा कि वे उन बारह सौ साठ दिनों तक टाट ओढ़े भविष्यवाणी करते रहें।''
4) ये साक्षी वे जैतून के दो पेड़ और दो दीपाधार हैं, जो पृथ्वी के प्रभु के सामने खड़े हैं।
5) यदि कोई इन्हें हानि पहुँचाना चाहता है तो इनके मुँह से आग निकलती है और वह इनके शत्रुओं को नष्ट करती है। जो इन्हें हानि पहुँचाना चाहेगा, उसे उसी प्रकार मरना होगा।
6) इन्हें आकाश का द्वार बन्द करने का अधिकार है। इनकी भविष्यवाणी के समय पानी नहीं बरसेगा। इन्हें पानी को रक्त में बदलने का और जब-जब चाहें, तब-तब पृथ्वी पर हर प्रकार की महामारी भेजने का अधिकार है।
7) जब ये अपना साक्ष्य दे चुके होंगे, तो अगाध गर्त्त से ऊपर उठने वाला पशु इन से युद्ध करेगा और इन्हें पराजित कर इनका वध करेगा।
8) इनकी लाशें उस महानगर के चौक में पड़ी रहेंगी, जो लाक्षणिक भाषा में सोदोम या मिस्र कहलाता है और जहाँ इनके प्रभु को क्रूस पर आरोपित किया गया था।
9) साढ़े तीन दिनों तक हर प्रजाति, वंश, भाषा और राष्ट्र के लोग इनकी लाशें देखने आयेंगे और इन्हें कब्र में रखने की अनुमति नहीं देंगे।
10) पृथ्वी के निवासी इनके कारण उल्लसित हो कर आनन्द मनायेंगे और एक दूसरे को उपहार देंगे, क्योंकि ये दो नबी पृथ्वी के निवासियों को सताया करते थे।
11) किन्तु साढ़े तीन दिनों बाद ईश्वर की ओर से इन दोनों में प्राण आये और ये उठ खड़े हए। तब सब देखने वालों पर आतंक छा गया।
12) स्वर्ग से एक वाणी इन से यह कहती हुए सुनाई पड़ी, ‘‘यहाँ, ऊपर आओ'', और ये अपने शत्रुओं के देखते-देखते बादल में स्वर्ग चले गये।
13) उसी समय भारी भूकम्प हुआ और नगर का दसवाँ भाग मिट्टी में मिल गया। सात हजार लोग भूकम्प में मर गये और जो बच गये, उन्होंने भयभीत हो कर स्वर्ग के ईश्वर की स्तुति की।
14) अब दूसरी विपत्ति बीत गयी। देखो, तीसरी विपत्ति शीघ्र ही आने वाली है।
15) सातवें स्वर्गदूत ने तुरही बजायी। इस पर स्वर्ग में वाणियाँ सुनाई पड़ीं, जो ऊँचे स्वर से कह रही थीं, ‘‘हमारे प्रभु और उसके मसीह को इस संसार का राज्य प्राप्त हो गया है। वह युग-युगों तक राज्य करेंगे।''
16) चौबीस वयोवृद्ध, जो ईश्वर के सामने अपने आसनों पर विराजमान हैं, मुँह के बल गिर पड़े और यह कहते हुए ईश्वर की आराधना करने लगे,
17) ''सर्वशक्तिमान् प्रभु-ईश्वर, जो है और जो था! हम तुझे धन्यवावद देते हैं, क्योंकि तूने अपने सामर्थ्य का प्रदर्शन किया और राज्याधिकार ग्रहण कर लिया है।
18) 'राष्ट्र क्रुद्ध हो गये थे, किन्तु तेरा क्रोध आ गया है और वह समय भी, जब मृतकों का न्याय किया जायेगा; जब तेरे सेवकों, तेरे नबियों और तेरे सन्तों को पुरस्कार दिया जायेगा और उन सबों को भी, चाहे वे छोटे या बड़े हों, जो तेरे नाम पर श्रद्धा रखते हैं; और वह समय, जब उन लोगों का विनाश किया जायेगा, जो पृथ्वी का विनाश करते हैं।''
19) तब स्वर्ग में ईश्वर का मन्दिर खुल गया और मन्दिर में ईश्वर के विधान की मंजूषा दिखाई पड़ी। बिजलियां, वाणियाँ एवं मेघगर्जन उत्पन्न हुए, भूकम्प हुआ और भारी ओला-वृष्टि हुई।

अध्याय 12

1) आकाश में एक महान् चिन्ह दिखाई दिया : सूर्य का वस्त्र ओढ़े एक महिला दिखाई पड़ी। उसके पैरों तले चन्द्रमा था और उसके सिर पर बारह नक्षत्रों का मुकुट।
2) वह गर्भवती थी और प्रसव-वेदना से पीड़ित हो कर चिल्ला रही थी।
3) तब आकाश में एक अन्य चिन्ह दिखाई पड़ा- लाल रंग का एक बहुत बड़ा पंखदार सर्प। उसके सात सिर थे, दस सींग थे और हर एक सिर पर एक मुकुट था।
4) उसकी पूँछ ने आकाश के एक तिहाई तारे बुहार कर पृथ्वी पर फेंक दिये। वह पंखदार सर्प प्रसव-पीड़ित महिला के सामने खड़ा रहा, जिससे वह नवजात शिशु को निगल जाये।
5) उस महिला ने एक पुत्र प्रसव किया, जो लोह-दण्ड से सब राष्ट्रों पर शासन करेगा। किसी ने उस शिशु को उठाकर ईश्वर और उसके सिंहासन तक पहुंचा दिया
6) और वह महिला मरुभूमि की ओर भाग गयी, जहाँ ईश्वर ने उसके लिए आश्रय तैयार करवाया था और उसे बारह सौ साठ दिनों तक भोजन मिलने वाला था।
7) तब स्वर्ग में युद्ध छिड़ गया। मिखाएल और उसके दूतों को पंखदार सर्प से लड़ना पड़ा। पंखदार सर्प और उसके दूतों ने उनका सामना किया,
8) किन्तु वे नहीं टिक सके। और स्वर्ग में उनके लिए कोई स्थान नहीं रहा।
9) तब वह विशालकाय पंखदार सर्प वह पुराना सांप, जो इबलीस या शैतान कहलाता और सारे संसार को भटकाता है- अपने दूतों के साथ पृथ्वी पर पटक दिया गया।
10) मैंने स्वर्ग में किसी को ऊँचे स्वर से यह कहते सुना, ''अब हमारे ईश्वर की विजय, सामर्थ्य तथा राजत्व और उसके मसीह का अधिकार प्रकट हुआ है; क्योंकि हमारे भाइयों का वह अभियोक्ता नीचे गिरा दिया गया है, जो दिन-रात ईश्वर के सामने उस पर अभियोग लगाया करता था।
11) ''वे मेमने के रक्त और अपने साक्ष्य के द्वारा उस पर विजयी हुए, क्योंकि उन्होंने अपने जीवन का मोह छोड़ कर मृत्यु का स्वागत किया;
12) ''इसलिए स्वर्ग और उसके निवासी आनन्द मनायें। किन्तु धिक्कार तुम्हें, ऐ पृथ्वी और समुद्र! क्योंकि शैतान, यह जान कर कि मेरा थोड़ा समय ही शेष है, तीव्र क्रोध के आवेश में तुम पर उतर आया है।''
13) जब पंखदा सर्प ने देखा कि उसे पृथ्वी पर पटक दिया गया है, तो वह उस महिला का पीछा करने लगा, जिसने पुत्र प्रसव किया था।
14) परन्तु महिला को विशालकाय गरुड़ के दो पंख मिले, जिससे वह मरुभूमि के उस स्थान को उड़ जाये, जहां उसे, सर्व की पहुंच से परे, साढ़े तीन वर्ष तक भोजन मिलने वाला था।
15) सर्प ने नदी-जैसी जलधारा अपने मुंह से उगल कर महिला के पीछे छोड़ दी, जिससे वह महिला को अपनी बाढ़ में बहा ले जाये।
16) किन्तु पृथ्वी ने महिला की सहायता की और अपना मुँह खोल कर उस नदी को निगल गयी, जो पंखदार सर्प से निकली थी।
17) इस पर पंखदार सर्प को महिला पर बड़ा क्रोध हुआ और वह उसकी शेष सन्तान से युद्ध करने निकला, अर्थात् उन लोगों से, जो ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करते और ईसा का दिया हुआ साक्ष्य सुरक्षित रखते हैं।
18) इसके बाद पंखदार सर्प समुद्र के बालू पर खड़ा हो गया।

अध्याय 13

1) तब मैंने एक पशु को समुद्र से ऊपर आते देखा। उसके दस सींग और सात सिर थे। उसके सींगों पर दस मुकुट थे और उसके प्रत्येक सिर पर एक ईशनिन्दक नाम अंकित था।
2) मैंने जिस पशु को देखा, वह चीते के सदृश था, किन्तु उसके पैर भालू के पैरों-जैसे थे और उसका मुंह सिंह के मुंह जैसा। पंखदार सर्प ने उसे अपना सामर्थ्य, अपना सिंहासन और महान् अधिकार प्रदान किया।
3) ऐसा लग रहा था उसके एक सिर पर सांघातिक प्रहार किया गया था, किन्तु वह सांघातिक घाव अच्छा हो गया था। समस्त संसार आश्चर्यचकित हो कर उस पशु के पीछे हो लिया।
4) लोगों ने पंखदार सर्प की पूजा की, क्योंकि उसने पशु को अधिकार प्रदान किया था और उन्होंने यह कहते हुए पशु की पूजा की, ''इस पशु की बराबरी कौन कर सकता है? इस से युद्ध करने में समर्थ कौन है?''
5) पशु को डींग मारने एवं ईशनिन्दा करने की अनुमति और बयालीस महीनों तक बने रहने का अधिकार दिया गया।
6) इस पर वह ईश्वर का अपमान करने और उसके नाम, उसके निवासस्थान और उन लोगों की निन्दा करने लगा, जो स्वर्ग में निवास करते हैं।
7) उसे सन्तों से युद्ध करने एवं उन्हें पराजित करने की अनुमति और हर एक वंश, प्रजाति, भाषा और राष्ट्र पर अधिकार दिया गया।
8) पृथ्वी के वे सब निवासी पशु की पूजा करेंगे, जिनके नाम वध किये हुए मेमने के जीवन-ग्रन्थ में संसार के प्रारम्भ से अंकित नहीं हैं।
9) जिसके कान हों सुन ले।
10) जिसे बन्दी बनना है, वह बन्दी बनाया जायेगा। जिसे लतवार से मरना है, वह तलवार से मारा जायेगा। अब सन्तों के धैर्य और विश्वास का समय है।
11) तब मैंने एक दूसरा पशु पृथ्वी में से ऊपर आते देखा। मेमने के सींग-जैसे उसके दो सींग थे और वह पंखदार सर्प की तरह बोलता था।
12) वह पहले पशु के निरीक्षण में उसके समस्त अधिकार का उपयोग करता है। वह पृथ्वी और उसके निवासियों द्वारा पहले पशु की, जिसका संघातिक घाव अच्छा हो गया है, पूजा करवाता है।
13) वह महान् चमत्कार दिखाता है, यहाँ तक कि वह लोगों के देखते आकाश से पृथ्वी पर आग बरसाता है।
14) पशु के निरीक्षण में उस को जिन चमत्कारों को दिखाने की अनुमति मिली है, उन चमत्कारों द्वारा वह पृथ्वी के निवासियों को बहकाता है। वह पृथ्वी के निवासियों द्वारा उस पशु के आदर में एक प्रतिमा बनवाता है, जो तलवार का प्रहार सहने पर भी जीवित है।
15) उसे पशु की प्रतिमा में प्राण डालने की अनुमति मिली, जिसके फलस्वरूप वह प्रतिमा बोल सकी और उन सबों को मरवा देती थी, जो पशु की प्रतिमा की आराधना नहीं करते थे।
16) वह दूसरा पशु सभी लोगों को- चाहे वे छोटे हों या बड़े, धनी हों या दरिद्र, स्वतन्त्र हों या दास- इसके लिए बाध्य करता है कि वे अपने दाहिने हाथ या अपने माथे पर छाप लगवायें।
17) जिस पर वह छाप- पशु का नाम या उसके नाम की संख्या- नहीं लगी है, वह खरीद और बेच नहीं सकता।
18) यहां प्रज्ञा की आवश्यकता है। जो बुद्धिमान है, वह पशु के नाम की संख्या निकाले, क्योंकि वह किसी मनुष्य (के नाम) की संख्या है और उसकी संख्या छः सौ छियासठ है।

अध्याय 14

1) मैंने फिर देखा- मेमना सियोन पर्वत पर खड़ा है। उसके साथ एक लाख चौवालीस हजार व्यक्ति हैं, जिनके माथे पर उसका नाम और उसके पिता का नाम अंकित है।
2) मैंने तेजी से बहती हुई नदियों के निनाद और घोर मेघगर्जन की-सी आवाज स्वर्ग से आती हुई सुनी। मैं जो आवाज सुन रहा था, वह वीणा बजाने वालों की-सी आवाज थी।
3) वे सिंहासन और चार प्राणियों एवं वयोवृद्धों के सामने एक नया गीत गा रहे थे। उन एक लाख चौवालीस हजार व्यक्तियों के सिवा, जिन को पृथ्वी पर से खरीद लिया गया था, और कोई वह गीत नहीं सीख सकता था।
4) ये वे लोग हैं, जो स्त्रियों के संसर्ग से दूषित नहीं हुए हैं, ये कँुवारे हैं। जहाँ कहीं भी मेमना जाता है, ये उसके साथ चलते हैं। ईश्वर और मेमने के लिए प्रथम फल के रूप में इन्हें मनुष्यों में से खरीदा गया है।
5) इनके मुख में झूठ नहीं पाया गयाः ये अनिन्द्य हैं।
6) तब मैंने एक स्वर्गदूत को मध्य आकाश में उड़ते देखा। पृथ्वी पर रहने वालों को, हर एक राष्ट्र, वंश, भाषा और प्रजाति को सुनाने के लिए उसके पास एक शाश्वत सुसमाचार था।
7) वह ऊँचें स्वर से यह कह रहा था, ''ईश्वर पर श्रद्धा रखो! उसकी स्तुति करो! क्योंकि उसके न्याय का दिन आ गया है। जिसने स्वर्ग और पृथ्वी, समुद्र और जलस्त्रोतों की रचना की, उसकी आराधना करो।''
8) इसके बाद एक दूसरा स्वर्गदूत आया और बोला ''उसका सर्वनाश हो गया है! महान् बाबुल का सर्वनाश हो गया है! उसने सभी राष्ट्रों को अपने व्यभिचार की तीखी मदिरा पिलायी है।''
9) फिर एक तीसरा स्वर्गदूत आया और ऊँचे स्वर से बोला, ''यदि कोई पशु या उसकी प्रतिमा की आराधना करेगा और अपने माथे या अपने हाथ पर उसकी छाप ग्रहण करेगा,
10) तो उसे ईश्वर के के्रोध की मदिरा पिलायी जायेगी, जो बिना मिलावट के, उसके क्रोध के प्याले में ढाली गयी है और वह पवित्र स्वर्गदूतों और मेमने के सामने आग और गन्धक की यन्त्रणा भोगेगा।
11) जो लोग पशु या उसकी प्रतिमा की आराधना करते अथवा उसके नाम की छाप ग्रहण करते हैं, उनकी यन्त्रणा का धूआं युग-युगों तक उपर उठता रहेगा और उन्हें दिन-रात कभी चैन नहीं मिलेगा।''
12) अब सन्तों के धैर्य का समय है, जो ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करते और ईसा में विश्वास बनाये रखते हैं।
13) मैंने स्वर्ग में किसी को अपने से यह कहते सुना : ''लिखो धन्य हैं वे मृतक, जो प्रभु में विश्वास करते हुए मरते हैं!'' आत्मा कहता है, ''अब से वे अपने परिश्रम के बाद विश्राम करें, क्योंकि उनके सत्कर्म उनके साथ जाते हैं''।
14) मैंने देखा कि एक उजला बादल दिखाई पड़ रहा है। उस पर मानव पुत्र-जैसा कोई बैठा हुआ है। उसके सिर पर सोने का मुकुट है और हाथ में एक पैनी हंसिया।
15) एक दूसरा स्वर्गदूत मन्दिर से निकला और ऊँचे स्वर से पुकारते हुए बादल पर बैठने वाले से बोला, ''अपनी हंसिया चला कर लुनिए, क्योंकि कटनी का समय आ गया है और पृथ्वी की फसल पक चुकी है''।
16) बादल पर बैठने वाले ने अपनी हंसिया चलायी और पृथ्वी की फसल कट गयी।
17) तब एक दूसरा स्वर्गदूत स्वर्ग के मन्दिर से निकला। वह भी एक पैनी हंसिया लिये था।
18) एक और स्वर्गदूत ने, जिसे अग्नि पर अधिकार था, वेदी से आ कर ऊँचे स्वर से उस स्वर्गदूत से कहा, जो पैनी हंसिया लिये था, ''अपनी पैनी हंसिया चला कर पृथ्वी की दाखबारी के गुच्छे बटोर लीजिए, क्योंकि उसके अंगूर पक चुके हैं''।
19) इस पर स्वर्गदूत ने अपनी हंसिया चलायी और पृथ्वी की दाखबारी की फसल बटोर कर उसे ईश्वर के कोप-रूपी विशाल कुण्ड में डाल दिया।
20) नगर के बाहर कुण्ड रौंद दिया गया और उस में से जो रक्त निकला, वह सोलह सौ फरलांग की दूरी तक, घोड़ों की बागडोर की ऊँचाई तक, पहुँच गया।

अध्याय 15

1) मैंने स्वर्ग में एक और महान् एवं आश्चर्यजनक चिन्ह देखा। सात स्वर्गदूत सात विपत्तियाँ लिये थे। ये अन्तिम विपत्तियाँ हैं, क्योंकि इनके द्वारा ईश्वर का क्रोध पूरा हो जाता है।
2) मैंने आग से मिले कुए काँच के समुद्र-सा कुछ देखा। जो लोग पशु उसकी प्रतिमा और उसके नाम की संख्या पर विजयी हुए थे, वे काँच के समुद्र पर खड़े थे। वे ईश्वर की वीणाएं लिये
3) ईश्वर के दास मूसा का गीत और मेमने का गीत गाते हुए कहते थे। ''सर्वशक्तिमान् प्रभु-ईश्वर! तेरे कार्य महान् और अपूर्व हैं। राष्ट्रों के राजा! तेरे मार्ग न्यायसंगत और सच्चे हैं।
4) ''प्रभु! कौन तुझ पर श्रद्धा और तेरे नाम की स्तुति नहीं करेगा? क्योंकि तू ही पवित्र है।'' सभी राष्ट्र आ कर तेरी आराधना करेंगे, क्योंकि तेरे न्यायसंगत निर्णय प्रकट हो गये हैं।''
5) इसके बाद मैंने देखा कि स्वर्ग में साक्ष्य के तम्बू का मन्दिर खुल रहा है।
6) उस से सात विपत्तियाँ लिये सात स्वर्गदूत निकले। वे स्वच्छ और उज्ज्वल छालटी पहने थे। और उनके वक्षस्थल पर स्वर्ग मेखलाएं बाँधी हुईं थीं।
7) चार प्राणियों में एक ने सात स्वर्गदूतों को सात सोने के प्याले दिये, जिन में युग-युगों तक जीवित रहने वाले ईश्वर का क्रोध भरा हुआ था।
8) ईश्वर की महिमा और उसके सामर्थ्य के कारण मन्दिर धूएं से भर गया था और कोई तब तक मन्दिर में प्रवेश नहीं कर सकता था, जब तक सात स्वर्गदूतों की सात विपत्तियाँ पूरी न हो जायें।

अध्याय 16

1) मुझे मन्दिर में से एक गम्भीर वाणी सुनाई पड़ी, जो सात स्वर्गदूतों से यह कह रही थी, ''जाओ! ईश्वर के क्रोध के सात प्याले पृथ्वी पर उँढ़ेल दो''।
2) पहला स्वर्गदूत गया और उसने पृथ्वी पर अपना प्याला उँढ़ेला। जिन लोगों पर पशु की छाप लगी थी और जो उसकी प्रतिमा की आराधना करते थे, उनके शरीर पर घृणित और दुःखदायी फोड़े निकल आये।
3) दूसरे स्वर्गदूत ने समुद्र पर अपना प्याला उँढ़ेला। समुद्र मृतक के रक्त-जैसा बन गया और समुद्र में रहने वाले सभी प्राणी मर गये।
4) तीसरे स्वर्गदूत ने नदियों और जलस्त्रोतों पर अपना प्याला उँढ़ेला। वे रक्त बन गये।
5) तब मैंने जल के स्वर्गदूत को यह कहते सुना, ''परमपावन! जो है और जो था, तेरे ये निर्णय न्यायसंगत हैं;
6) क्योंकि उन्होंने सन्तों और नबियों का रक्त बहाया और तूने उन्हें रक्त पिलाया। वे अपनी करनी का फल भोग रहे हैं।''
7) और मैंने वेदी को यह कहते सुना, ''सर्वशक्तिमान् प्रभु-ईश्वर! तेरे निर्णय वास्तव में सच्चे और न्यायसंगत हैं!''
8) चौथे स्वर्गदूत ने सूर्य पर अपना प्याला उँढ़ेला। सूर्य को मनुष्यों को आग से जलाने की अनुमति मिली।
9) मनुष्य प्रचण्ड ताप से जल गये। उन्होंने उन विपत्तियों पर अधिकार रखने वाले ईश्वर के नाम की निन्दा की, लेकिन उन्होंने पश्चाताप नहीं किया और ईश्वर की स्तुति करना नहीं चाहा।
10) पांचवें स्वर्गदूत ने पशु के सिंहासन पर अपना प्याला उंढ़ेला। पशु के राज्य पर अन्धकार छा गया। लोग पीड़ा से विकल हो कर अपनी जीभें चबाने लगे।
11) उन्होंने अपनी पीड़ाओं और फोड़ों के कारण स्वर्ग के ईश्वर की निन्दा की, लेकिन उन्होंने अपने कर्मों के लिए पश्चाताप नहीं किया।
12) छठे स्वर्गदूत ने महानदी फ़रात पर अपना प्याला उंढ़ेला। फ़रात नदी का पानी सूख गया, जिससे पूर्व के राजाओं का मार्ग तैयार हो जाये।
13) तब मैंने पंखदार सर्प के मुंह से, पशु के मुंह से और झूठे नबी के मुंह से मेंढ़क-जैसी तीन अशुद्ध आत्माओं को निकलते देखा।
14) ये अपदूतों के आत्मा हैं, जो चमत्कार दिखाते और सर्वशक्तिमान् ईश्वर के महादिवस के युद्ध के लिए समस्त संसार के राजाओं को एकत्र करने जाते हैं।
15) (''सावधान! मैं चोर की तरह आ रहा हँू। धन्य है वह, जो जागता और वस्त्र पहने रहता है! कहीं ऐसा न हो कि वह नंगा फिरे और लोग उसकी नग्नता देखें!'')
16) उन्होंने राजाओं को उस स्थान पर एकत्र किया, जो इब्रानी में हरमागेदोन कहलाता है।
17) सातवें स्वर्गदूत ने हवा पर अपना प्याला उंढ़ेला और मन्दिर के सिंहासन में से एक गम्भीर वाणी यह कहते सुनाई पड़ी- ''समाप्त हो गया है''।
18) इस पर बिजलियाँ, वाणियाँ एवं मेघगर्जन उत्पन्न हुए और भारी भूकम्प हुआ। पृथ्वी पर मनुष्य के आने के समय से इतना भारी भूकम्प कभी नहीं हुआ था।
19) महानगर के तीन खण्ड हो गये और राष्ट्रों के नगरों का सर्वनाश हो गया। ईश्वर ने महान् बाबुल को याद किया और उसे अपने क्रोध की तीखी मदिरा का प्याला पिलाया।
20) सभी द्वीप विलीन हो गये और पर्वत लुप्त हो गये।
21) आकाश से मन-मन भर के बड़े ओले मनुष्यों पर गिरे। ओला-वृष्टि के कारण मनुष्यों ने ईश्वर की निन्दा की, क्योंकि वह ओला-वृष्टि बहुत भारी थी।

अध्याय 17

1) जो सात स्वर्गदूत सात प्याले लिये थे, उन में एक ने मेरे पास आ कर कहा, ''आइए, मैं आप को उस महावेश्या का दण्ड दिखाऊँगा, जो समुद्र के किनारे विराजमान है।
2) पृथ्वी के राजाओं ने उसके साथ व्यभिचार किया और पृथ्वी के निवासी उसके।व्यभिचार की मदिरा पी कर मतवाले हो गये हैं।''
3) मैं आत्मा से आविष्ट हो गया और स्वर्गदूत मुझे मरुभूमि ले चला। मैंने वहाँ एक स्त्री को एक लाल पशु पर बैठा हुआ देखा। पशु के सारे शरीर पर ईश-निन्दक शब्द अंकित थे। उसके सात सिर और दस सींग थे।
4) स्त्री बैंगनी और लाल वस्त्र पहने थी, और स्वर्णमणियों एवं मूर्तियों से विभूषित थी। वह आदमी सोने का प्याला लिए थे जो उनके व्यभिचार के घृणित एवं दूषित कर्मों से भरा हुआ था।
5) उसके माथे पर एक रहस्यमय नाम अंकित था : ''महान बाबुल। वेश्याओं और पृथ्वी के सभी घृणित कर्मों की माता।''
6) मैंने देखा कि वह स्त्री सन्तों का रक्त और ईसा के साक्षियों का रक्त पी कर मतवाली है। मैं उसे देखकर बड़े अचम्भे में पड़ गया।
7) स्वर्गदूत ने मुझ से कहा, ''आप आश्चर्य क्यों करते हैं? मैं आप को उस स्त्री का रहस्य बताऊंगा और उस पशु का भी, जिस पर वह सवार है और जिसके सात सिर और दस सींग हैं।
8) ''आपने जिस पशु को देखा, जो था और अब नहीं है, वह अगाध गर्त से ऊपर आयेगा और उसका सर्वनाश हो जायेगा। पृथ्वी के वे निवासी, जिनके नाम संसार के प्रारम्भ से जीवन-ग्रन्थ में अंकित नहीं हैं, पशु को देख कर अचम्भे में पड़ जायेंगे; क्योंकि वह था और अब नहीं है और आने वाला है।
9) यहाँ सूक्ष्म बुद्धि की आवश्यकता है सात सिर वे सात पहाड़ हैं जिन पर वह स्त्री विराजमान है। वे सात राजा भी हैं :
10) उन में पाँच का सर्वनाश हो चुका है, एक जीवित है और अन्तिम अब तक नहीं आया, किन्तु जब वह आयेगा, तो थोड़े ही समय तक रह पायेगा।
11) वह पशु, जो पहले था और अब नहीं है, आठवां है; लेकिन वह वास्तव में सात राजाओं में एक है और उसका सर्वनाश हो जायेगा।
12) आपने जिन दस सींगों को देखा, वे दस राजा हैं। उन्हें अब तक राज्य नहीं मिला है, परन्तु उन्हें घड़ी भर के लिए ही पशु के साथ राज्याधिकार प्रदान किया जायेगा।
13) उनका एक ही अभिप्राय है- वे अपना सामर्थ्य और अधिकार पशु को अर्पित करेंगे।
14) वे मेमने से युद्ध करेंगे और मेमना उन्हें पराजित कर देगा, क्योंकि वह प्रभुओं का प्रभु एवं राजाओं का राजा है। मेमने के साथ उसके अनुयायी भी विजयी होंगे- वे बुलाये गये हैं, कृपापात्र और ईमानदार हैं।''
15) स्वर्गदूत ने मुझे से यह कहा, ''आपने जिस समुद्र को देखा, जहाँ महावेश्या बैठी हुई है, वह है- प्रजातियाँ, जनसमूह, राष्ट्र और भाषाएँ।
16) आपने जिन दस सींगों और पशु को देखा, वे वेश्या से बैर करेंगे। वे उसे नंगा कर एकाकी छोड़ देंगे, उसका मांस खायेंगे और उसे आग में जला देंगे;
17) क्योंकि ईश्वर ने उनके मन में यह विचार उत्पन्न किया कि वे उसका अभिप्राय पूरा करें। उन्होंने एकमत हो कर पशु को तब तक अपना राज्य सौंपा, जब तक ईश्वर का वचन पूरा न हो जाये।
18) आपने जिस स्त्री को देखा, वह तो वह महानगर है, जो पृथ्वी के राजाओं पर शासन करता है।''

अध्याय 18

1) इसके बाद मैंने एक अन्य स्वर्गदूत को स्वर्ग से उतरते देखा। वह महान् अधिकार से सम्पन्न था और पृथ्वी उसके तेज से प्रदीप्त हो उठी।
2) उसने उंचे स्वर से पुकार कर कहा, ''उसका सर्वनाशा हो गया है! महान् बाबुल का सर्वनाश हो गया है! वह अपदूतों का डेरा, हर प्रकार के अशुद्ध आत्माओं और हर प्रकार के अशुद्ध एवं घृणित पक्षियों का बसेरा बन गया है;
3) क्योंकि सभी राष्ट्रों ने उसके व्यभिचार की तीखी मदिरा पी ली है, पृथ्वी के राजाओं ने उसके साथ व्यभिचार किया है और पृथ्वी के व्यापारी उसके अपार वैभव से धनी हो गये हैं।''
4) मुझे स्वर्ग से एक अन्य वाणी यह कहते सुनाई पड़ी, ''मेरी प्रजा! उस से निकल जाओ! कहीं ऐसा न हो कि तुम उसके पापों के भागी और उसकी विपत्तियों के शिकार बनो!
5) क्योंकि उसके पापों का अम्बार आकाश तक उंचा हो गया है और ईश्वर ने उसके अपराधों का स्मरण किया है।
6) उसने जैसा किया, तुम भी उसके साथ वैसा ही करो। उसके कुकर्मों का दुगुना बदला चुकाओ और उसने जो प्याला दूसरों के लिए भरा है, उस में उसके लिए दुगेना ढाल दो।
7) उसने जितनी डींग मारी और जितना भोग-विलास किया है, उसे उतनी यन्त्रणा और उतना शोक दो। वह अपने मन में यह कहती है, मैं रानी की तरह सिंहासन पर विराजमान हूँ। मैं विधवा नहीं हूँ और कभी शोक नहीं मनाउंगी।
8) इसलिए एक ही दिन में उस पर विपत्तियाँ आ पड़ेंगी- मृत्यु, शोक और अकाल। वह आग में भस्म हो जायेगी; क्योंकि प्रभु-ईश्वर शक्तिशाली है और उसने उसे दोषी ठहराया है।''
9) जब पृथ्वी के राजा, जिन्होंने उसके साथ व्यभिचार और भोग-विलास किया, उसके जलने का धुआं देखेंगे, तो वे रोयेंगे और उस पर विलाप करेंगे।
10) वे उसकी यन्त्रणा से भयभीत हो कर यह कहते हुए दूर ही खड़े रहेंगे, ''शोक! तेरे लिए शोक! महानगर! शक्तिशाली नगर बाबुल! तुझे घड़ी भर में ही दण्ड दिया गया है।''
11) पृथ्वी के व्यापारी उस पर रोयेंगे और शोक मनायेंगे, क्योंकि कोई फिर कभी उनका माल नहीं खरीदेगा-
12) सोना, और चांदी, रत्न और मोती; मलमल, बैंगनी, रेशमी और लाल वस्त्र; हर प्रकार की सुगन्धित लकड़ियाँ; हाथी-दाँत, बहुमूल्य लकड़ी, काँसे, लोहे और संगमरमर के हर प्रकार के पात्र;
13) दारचीनी, इलायची, धूप, अंगराग और लोबान; मदिरा, तेल, मैदा और गेहूँ; बैल और भेडें; घोड़े और रथ; दास और युद्धबन्दी।
14) तू जिस फल की कामना करती थी, वह तुझ से दूर से हो गया है। तेरे सारे वैभव और तड़क-भड़क का सर्वनाश हो गया। तू यह सब फिर नहीं देखेगी।
15) इन वस्तुओं के व्यापारी, जो बाबुल के वैभव से धनी हो गये, उसकी यन्त्रणा से भयभीत हो कर दूर ही खड़े रहेंगे। वे यह कहते हुए रोयेंगे और शोक मनायेंगे,
16) ''शोक! शोक! यह महानगर मलमल, बैंगनी एवं लाल वस्त्र पहने था और स्वर्ण, मणियों एवं मोतियों से विभूषित था।
17) यह सारा वैभव घड़ी भर में ही उजाड़ हो गया।'' सब कप्तान, जलयात्री, नाविक और समुद्र के व्यापारी दूर खड़े रहे
18) और उसके जलने का धुआं देख कर ऊँचे स्वर से बोल उठे, ''इस महानगर की बराबरी कौन नगर कर सका?''
19) वे अपने सिर पर धूल डाल कर, रोते और विलाप करते हुए उँचे स्वर से कहते थे, ''शोक! शोक! इस नगर के वैभव से जहाज के सब मालिक धनी बनी गये। यह घड़ी भर में ही उजाड़ हो गया।''
20) स्वर्ग! सन्तो! प्रेरितो और नबियो! आनन्द मनाओ, क्योंकि ईश्वर ने उसके विरुद्ध तुम्हें न्याय दिलाया है।
21) तब तक बलवान् स्वर्गदूत ने चक्की के बड़े पाट-जैसा एक पत्थर उठाया और यह कहते हुए समुद्र में फेंका, ''महानगर बाबुल इसी वेग से गिरा दिया जायेगा और उसका फिर कभी पता नहीं चलेगा।
22) वीणवादकों और संगीतकारों की, मुरली और तुरही बजाने वालों की आवाज तुझ में फिर कभी सुनाई नहीं पड़ेगी; किसी भी व्यवसाय के कारीगर तुझ में फिर कभी नहीं मिलेंगे। चक्की की आवाज तुझ में फिर कभी सुनाई नहीं पड़ेगी;
23) ''दीपक का प्रकाश तुझ में फिर कभी दिखाई नहीं देगा;''वर और वधू का स्वर तुझ में फिर कभी सुनाई पड़ेगा;''क्योंकि तेरे व्यापारी पृथ्वी के अधिपति थे और तूने अपने जादू द्वारा सभी राष्ट्रों को बहकाया।
24) ''बाबुल में नबियों, सन्तों और उन सब लोगों का रक्त पाया गया, जिनका पृथ्वी पर वध किया गया था।''

अध्याय 19

1) इसके बाद मैंने स्वर्ग में एक विशाल जनसमुदाय की-सी ऊँची आवाज को यह गाते हुए सुना,''अल्लेलूया! हमारे ईश्वर को विजय, महिमा और सामर्थ्य,
2) क्योंकि उसके निर्णय सच्चे और न्याय-संगत हैं। उसने उस महावेश्या को दण्डित किया है, जो अपने व्यभिचार द्वारा पृथ्वी को दूषित करती थी और उसने उसको अपने सेवकों के रक्त का बदला चुकाया है।''
3) तब उन्होंने फिर पुकार कर कहा, ''अल्लेलूया! उसके जलने का धुआं युग-युगों तक उठता रहेगा।''
4) चौबीस वयोवृद्ध और चार प्राणी मुँह के बल गिर पड़े और उन्होंने यह कहते हुए सिंहासन पर विराजमान ईश्वर की आराधना की, ''आमेन! अल्लेलूया!''
5) इसके बाद सिंहासन से एक वाणी यह कहते सुनाई पड़ी, ''तुम सब, जो ईश्वर की सेवा करते हो और तुम छोटे-बड़े, जो उस पर श्रद्धा रखते हो, हमारे ईश्वर की स्तुति करो।''
6) तब मैंने एक विशाल जनसमुदाय की सी आवाज, समुद्र की लहरों और गरजते हुए बादलों की-सी आवाज को यह कहते हुए सुना, ''अल्लेलूया! हमारे सर्वशक्तिमान् प्रभु-ईश्वर ने राज्याधिकार ग्रहण किया है।
7) हम उल्लसित हो कर आनन्द मनायें और ईश्वर की महिमा गायें, क्योंकि मेमने के विवाहोत्सव का समय आ गया है। उसकी दुल्हन अपना श्रृंगार कर चुकी है
8) और स्वच्छ उज्जवल मलमल के वस्त्र से सुसज्जित है। यह मलमल सन्तों के धर्माचरण का प्रतीक है।''
9) स्वर्गदूत ने मुझे से कहा, ''यह लिखो- धन्य हैं वे, जो मेमने विवाह-भोज में निमन्त्रित हैं! '' और उसने मुझ से कहा- ''यही ईश्वर के शब्द हैं''।
10) तब मैं उसकी आराधना करने के लिए उसके चरणों पर गिर पड़ा, लेकिन उसने मुझ से यह कहा, ''आप ऐसा नहीं करें। मैं भी आपकी और आपके भाइयों की तरह, जो ईसा का दिया हुआ साक्ष्य सुरक्षित रखते हैं, मसीह का सेवक हूँ। आप ईश्वर की आराधना करें। जो ईसा के विषय में साक्ष्य देते हैं, उन्हें नबियों की तरह ईश्वर से प्रेरणा मिलती है।''
11) तब मैंने देखा कि स्वर्ग खुला है। एक सफेद घोड़ा दिखाई पड़ा और उस पर जो सवार है, वह 'विश्वसनीय' और 'सच्चा' कहलाता है। वह न्याय के अनुसार विचार और युद्ध करता है।
12) उसकी आँखें अग्नि की तरह धधकती हैं और उसके सिर पर बहुत-से मुकुट हैं। उसके शरीर पर एक नाम अंकित हैं, जिसे उसके अतिरिक्त और कोई नहीं जानता।
13) वह रक्त में डुबाया हुआ वस्त्र हपने है और उसका नाम है- ईश्वर का शब्द।
14) स्वर्ग की सेनाएं, सफेद एवं स्वच्छ मलमल पहने और सफेद घोड़ों पर सवार हो कर, उसके पीछे-पीछे चलती हैं।
15) राष्ट्रों को मारने के लिए उसके मुख से एक तेज तलवार निकल रही है। वह लोह-दण्ड से उन पर शासन करेगा और सर्वशक्तिमान् ईश्वर की कोप रूपी अंगूरी का कुण्ड रौंदेगा।
16) उसके वस्त्र और उसकी जांघ पर यह नाम अंकित है- राजाओं का राजा और प्रभुओं का प्रभु।
17) मैंने एक स्वर्गदूत को सूर्य पर खड़ा देखा। उसने उँचे स्वर से चिल्लाते हुए मध्य आकाश में उड़ने वाले सव पक्षियों से कहा, ''आओ और महान् ईश्वर के भोजन के लिए एकत्र हो जाओ।
18) तुम राजाओं, सेनापतियों, शूरवीरों, घोड़ों, घुड़सवारों और सब लोगों का- चाहे वे स्वतन्त्र हों या दास, छोटे हो या बड़े- मांस खाओ।
19) तब मैंने पशु और पृथ्वी के राजाओं को देखा और उन सेनाओं की भी, जो घुड़सवार और उसकी सेना से युद्ध करने के लिए एकत्र की गयी थीं।
20) पशु बन्दी बनाया गया और उसके साथ वह झूठा नबी भी, जिसने पशु के निरीक्षण में चमत्कार दिखा कर उन लोगों को बहकाया था, जिन्होंने पशु की छाप ग्रहण की थी और उसकी प्रतिमा की आराधना की थी। वे दोनों जीवित ही धधकते गन्धक के अग्निकुण्ड में डाल दिये गये।
21) शेष लोग घुड़सवार के मुख से निकलने वाली तलवार से मारे गये और सभी पक्षी उनका मांख खा कर तृप्त हो गये।

अध्याय 20

1) इसके बाद मैंने एक स्वर्गदूत को स्वर्ग से उतरते देखा। उसके हाथ में अगाध गर्त की चाबी और एक बड़ी जंजीर थी।
2) उसने पंखदार सर्प को, उस पुराने सांप अर्थात् इबलीस या शैतान को पकड़ कर एक हजार वर्ष के लिए बांधा
3) और अगाध गर्त में डाल दिया। उसने अगाध गर्त बन्द कर उस पर मोहर लगायी, जिससे वह सर्प एक हजार वर्ष पूरे हो जाने तक राष्ट्रों को नहीं बहकाये। इसके बाद उसे थोड़े समय के लिए छोड़ दिया जाना आवश्यक है।
4) मैंने सिंहासन देखे। जो उन पर बैठने आये, उन्हें न्याय करने का अधिकार दिया गया। मैंने उन लोगों की आत्माओं को भी देखा, जिनके सिर ईसा के साक्ष्य और ईश्वर के वचन के कारण काटे गये थे, जिन्होंने पशु और उसकी प्रतिमा की आराधना नहीं की थी तथा अपने माथे और हाथों पर पशु की छाप स्वीकार नहीं की थी। वे पुनर्जीवित हो कर मसीह के साथ एक हजार वर्ष तक राज्य करते थे।
5) शेष मृतक एक हजार वर्ष पूरे हो जाने से पहले पुनर्जीवित नहीं हुए। यह पहला पुनरुथान है।
6) धन्य और पवित्र वह है, जो पहले पुनरुत्थान का सहभागी है। ऐसे लोगों पर द्वितीय मृत्यु का कोई अधिकार नहीं है। वे ईश्वर और मसीह के पुरोहित होंगे और उनके साथ एक हजार वर्ष तक राज्य करेंगे।
7) एक हजार वर्ष पूरे हो जाने के बाद शैतान बन्दीगृह से छोड़ दिया जायेगा
8) और वह पृथ्वी के चार कोनों में बसने वाले राष्ट्रों को बहकाने और गोग एवं मगोग की सेनाओं को, जो समुद्र के बालू-कणों की तरह असंख्य हैं, युद्ध के लिए एकत्र करने निकलेगा।
9) वे सारी पृथ्वी पर फैल गये। उन्होंने सन्तों के शिविर और ईश्वर के प्रिय नगर को घेर लिया, लेकिन आकाश से आग उतरी और उसने उन्हें भस्म कर दिया।
10) उन्हें बहकाने वाले शैतन को आग और गन्धक के कुण्ड में डाल दिया गया, जहाँ पशु और झूठा नबी डाल दिये गये थे। वे युग-युगों तक दिन रात यन्त्रणा भोगेंगे।
11) इसके बाद मैंने एक विशाल श्वेत सिंहासन और उस पर विराजमान व्यक्ति को देखा। पृथ्वी और आकाश उसके सामने लुप्त हो गये और उनका कहीं पता नहीं चला।
12) मैंने छोटे-बड़े, सब मृतकों को सिंहासन के सामने खड़ा देखा। पुस्तकें खोली गयीं। तब एक अन्य पुस्तक अर्थात् जीवन-ग्रन्थ खोला गया। पुस्तकों में लिखी हुई बातों के आधार पर मृतकों का उनके कर्मों के अनुसार न्याय किया गया।
13) समुद्र ने अपने मृतकों को प्रस्तुत किया। तब मृत्यु तथा अधोलोक ने अपने मृतकों को प्रस्तुत किया। हरेक का उनके कर्मों के अनुसार न्याय किया गया।
14) इसके बाद मृत्यु और अधोलोक, दोनों को अग्निकुण्ड में डाल दिया गया। यह अग्निकुण्ड द्वितीय मृत्यु है।
15) जिसका नाम जीवन-ग्रन्थ में लिखा हुआ नहीं मिला, वह अग्निकुण्ड में डाल दिया गया।

अध्याय 21

1) तब मैंने एक नया आकाश और एक नयी पृथ्वी देखी। पुराना आकाश तथा पुरानी पृथ्वी, दोनों लुप्त हो गये थे और समुद्र भी नहीं रह गया था।
2) मैंने पवित्र नगर, नवीन येरुसालेम को ईश्वर के यहाँ से आकाश में उतरते देखा। वह अपने दुल्हे के लिए सजायी हुई दुल्हन की तरह अलंकृत था।
3) तब मुझे सिंहासन से एक गम्भीर वाणी यह कहते सुनाई पड़ी, ''देखो, यह है मनुष्यों के बीच ईश्वर का निवास! वह उनके बीच निवास करेगा। वे उसकी प्रजा होंगे और ईश्वर स्वयं उनके बीच रह कर उनका अपना ईश्वर होगा।
4) वह उनकी आंखों से सब आंसू पोंछ डालेगा। इसके बाद न मृत्यु रहेगी, न शोक, न विलाप और न दुःख, क्योंकि पुरानी बातें बीत चुकी हैं।''
5) तब सिंहासन पर विराजमान व्यक्ति ने कहा, ''मैं सब कुुछ नया बना देता हूँ''।
6) इसके बाद उसने कहा, ''ये बातें लिखो, क्योंकि ये विश्वासनीय और सत्य हैं''। उसने मुझ से कहा, ''समाप्त हो गया है। आल्फा और ओमेगा, आदि और अन्त, मैं हूँ। मैं प्यासे को संजीवन जल के स्त्रोत से मुफ्त में पिलाउँगा।
7) यह विजयी की विरासत है। मैं उसका ईश्वर होउँगा और वह मेरा पुत्र होगा।
8) लेकिन कायरों, अविश्वासियों, नीचों, हत्यारों, व्यभिचारियों, ओझों, मूर्तिपूजकों और हर प्रकार के मिथ्यवादियों का भाग्य यह होगा- धधकती आग और गन्धक के कुण्ड में द्वितीय मृत्यु!''
9) जो सात स्वर्गदूत थे वे सात प्याले लिये थे, जिन में अन्तिम सात विपत्तियाँ भरी हुई थी, उन में से एक ने मेरे पास आ कर कहा, ''आइए, मैं आप को दुल्हन, मेमने की पत्नी के दर्शन कराऊँगा।''
10) मैं आत्मा से आविष्ट हो गया और स्वर्गदूत ने मुझे एक विशाल तथा ऊँचे पर्वत पर ले जा कर पवित्र नगर येरुसालेम दिखाया। वह ईश्वर के यहाँ से आकाश में उतर रहा था।
11) वह ईश्वर की महिमा से विभूषित था और बहुमूल्य रत्न तथा उज्ज्वल सूर्यकान्त की तरह चमकता था।
12) उसके चारों ओर एक बड़ी और उँची दीवार थी, जिस में बारह फाटक थे और हर एक फाटक के सामने एक स्वर्गदूत खड़ा था। फाटकों पर इस्राएल के बारह वंशों के नाम अंकित थे।
13) पूर्व की आरे तीन, उत्तर की और तीन, पश्चिम की आरे तीन और दक्षिण की ओर तीन फाटक थे।
14) नगर की दीवार नींव के बारह पत्थरों पर खड़ी थी और उन पर मेमने के बारह प्रेरितों के नाम अंकित थे।
15) जो मुझ से बातें कर रहा था, उसके पास नगर, उसके फाटक और उसकी दीवार नापने के लिए एक मापक-दण्ड, सोने का सरकण्डा था।
16) नगर वर्गाकार था। उसकी लम्बाई उसकी चौड़ाई के बराबर थी। उसने सरकण्डे से नगर नापा, तो बारह हजार ुफरलांग निकला। उसकी लम्बाई, चौड़ाई और उंचाई बराबर थी।
17) उसने उसकी दीवार नापी, तो- मनुष्यों में प्रचिलत माप के अनुसार, जिसका स्वर्गदूत ने उपयोग किया- एक सौ चौवालीस हाथ निकला।
18) नगर की दीवार सूर्यकान्त की बनी थी, लेकिन नगर विशुद्ध स्वर्ण का बना था, जो स्फटिक जैसा चमकता था।
19) दीवार की नींव नाना प्रकार के रत्नों की बनी थी। पहली परत सूर्यकान्त की थी, दूसरी नीलम की, तीसरी गोदन्ती की, चौथी मरकत की,
20) पांचवी गोमेदक की, छठी रूधिराख्य की, सातवीं स्वर्णमणि की, आठवीं फीरोजे की, नवीं पुखराज की, दसवीं रूद्राक्षक की, ग्यारहवीं धूम्रकान्त की और बाहरवीं चन्द्रकान्त की।
21) बारह फाटक बारह मोतियों के बने थे, प्रत्येक फाटक एक-एक मोती का बना था। नगर का चौक पारदर्शी स्फटिक-जैसे विशुद्ध सोने का बना था।
22) मैंने उस में कोई मन्दिर नहीं देखा, क्योंकि सर्वशक्तिमान् प्रभु-ईश्वर उसका मन्दिर है और मेमना भी।
23) नगर को सूर्य अथवा चन्द्रमा के प्रकाश की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ईश्वर की महिमा उसकी ज्योति और मेमना उसका प्रदीप है।
24) राष्ट्र उसकी ज्योति में चलेंगे और पृथ्वी के राजा उस में अपना वैभव ले आयेंगे।
25) उसके फाटक दिन में कभी बन्द नहीं होंगे और वहाँ कभी रात नहीं होगी।
26) उस में राष्ट्रों का वैभव और सम्पत्ति लायी जायेगी,
27) लेकिन, उस में न तो कोई अपवित्र व्यक्ति और न कोई ऐसा व्यक्ति, जो घृणित काम करता या झूठ बोलता है। वह केवल वही प्रेवेश कर पायेंगे, जिनके नाम मेमने के जीवन-ग्रन्थ में अंकित हैं।

अध्याय 22

1) इसके बाद उसने मुझे स्फटिक-जैसे संजीवन जल की नदी दिखायी, जो ईश्वर और मेमने के सिंहासन से बह रही थी।
2) नगर के चौक के बीचोंबीच बहती हुई नदी के तट पर, दोनों ओर एक जीवन-वृक्ष था, जो बारह बार, हर महीने एक बार, फल देता था। उस पेड़ के पत्तों से राष्ट्रों की चिकित्सा होती है।
3) वहाँ कुछ भी नहीं रहेगा, जो अभिशाप के यौग्य हो। वहाँ ईश्वर और मेमने का सिंहासन होगा। उसके सेवक उसकी उपासना करेंगे,
4) वे उसे आमने-सामने देखेंगे और उसका नाम उनके माथे पर अंकित होगा।
5) वहाँ फिर कभी रात नहीं होगी। उन्हें दीपक या सूर्य के प्रकाश की जरूरत नहीं होगी, क्योंकि प्रभु-ईश्वर उन्हें आलोकित करेगा और वे युग-युगों तक राज्य करेंगे।
6) उसने मुझ से कहा : ''ये बातें विश्वसनीय और सत्य हैं। जो नबियों को प्रेरित करता है, उस प्रभु-ईश्वर ने अपने दूत को भेजा है, जिससे वह अपने सेवकों को निकट भविष्य में होने वाली घटनाएं दिखायें।
7) ''देखो, मैं शीघ्र ही आऊँगा। धन्य है वह, जो इस पुस्तक की भविष्यवाणी का ध्यान रखता है!''
8) मैं-योहन - ने इन बातों को देखा और सुना। जब मैं देख और सुन चुका था, तो जिस स्वर्गदूत ने मुझे इन बातों को दिखाया था, मैं उसकी आराधना करने के लिए उसके चरणों पर गिर पड़ा,
9) लेकिन उसने मुझ से यह कहा, ''आप ऐसा नहीं करें। मैं भी आपकी और आपके भाइयों, नबियों की तरह, जो इस पुस्तक की बातों का पालन करते हैं, मसीह का सेवक हूँ। आप ईश्वर की ही आराधना करें।''
10) फिर उसने मुझ से कहा, ''आप इस पुस्तक की भविष्यवाणी की बातों को गुप्त नहीं रखें, क्योंकि समय निकट है।
11) इस बीच अधर्मी अधर्म और पापी पाप करता जाये, लेकिन धर्मी धार्मिक आचरण और सन्त पवित्रता की साधना करता जाये।
12) ''देखो, मैं शीघ्र ही आऊँगा। मेरा पुरस्कार मेरे पास है और मैं प्रत्येक मनुष्य को उसके कर्मों का प्रतिफल दूँगा।
13) मैं आल्फा और ओमेगा हूँ, प्रथम और अन्तिम, आदि और अन्त।
14) धन्य हैं, वे जो अपने वस्त्र धोते हैं। वे जीवन-वृक्ष के अधिकारी होंगे और फाटकों से हो कर नगर में प्रवेश करेंगे।
15) कुत्ते, ओझे, व्यभिचारी, हत्यारे, मूर्तिपूजक, असत्यप्रेमी और मिथ्यावादी बाहर ही रहेंगे।''
16) ''मैं-ईसा -ने कलीसियाओं के विषय में ये बातें प्रकट करने के लिए तुम्हारे पास अपना दूत भेजा है। मैं दाउद का वंशज तथा सन्तान हूँ, प्रभात का उज्ज्वल तारा हूँ।''
17) आत्मा तथा वधू, दोनों कहते हैं- 'आइए'। जो सुनता है, वह उत्तर दे -'आइए'। जो प्यासा है, वह आये। जो चाहता है, वह मुफ्त में संजीवन जल ग्रहण करे।
18) जो लोग इस पुस्तक की भविष्यवाणी की बातें सुनते हैं, मैं उन सबों को यह चेतावनी देता हूँ- ''यदि कोई इन में कुछ जोड़ेगा, तो ईश्वर इस पुस्तक में लिखी हुई विपत्तियां उस पर ढायेगा।
19) और यदि कोई भविष्यवाणी की इस पुस्तक की बातों से कुछ निकालेगा, तो ईश्वर इस पुस्तक में वर्णित जीवन-वृक्ष और पवित्र नगर से उसका भाग निकाल देगा''।
20) इन बातों का साक्ष्य देने वाला यह कहता है, ''मैं अवश्य शीघ्र ही आऊँगा''। आमेन! प्रभु ईसा! आइए!
21) आप सबों पर प्रभु ईसा की कृपा बनी रहे!