पवित्र बाइबिल : Pavitr Bible ( The Holy Bible )

नया विधान : Naya Vidhan ( New Testament )

सन्त योहन का दूसरा पत्र ( 2 John )

अध्याय 1

1) मैं, अध्यक्ष, यह पत्र ईश्वर की उन कृपापात्र महिला और उनकी सन्तानों के नाम लिख रहा हूँ, जिन्हें मैं सच्चाई से प्यार करता हूँ और मैं ही नहीं, बल्कि वे सभी, जो सत्य को जानते हैं। यह प्रेम उस सत्य पर आधारित है,
2) जो हम में विद्यमान है और अनन्त काल तक हमारे साथ रहेगा।
3) यदि हम सत्य और प्रेम में बने रहेंगे, तो हमें पिता-परमेश्वर और पिता के पुत्र ईसा मसीह की ओर से कृपा, दया और शान्ति प्राप्त होगी।
4) मुझे यह देख कर बड़ा आनन्द हुआ कि आपकी कुछ सन्तानें सत्य के मार्ग पर चलती हैं, जैसा कि हमें पिता की ओर से आदेश मिला है।
5) अब, भद्रे! मेरा आप से एक निवेदन है। मैं आप को कोई नया आदेश नहीं, बल्कि वही आदेश दे रहा हूँ, जो हमें प्रारम्भ से प्राप्त है- हम एक दूसरे को प्यार करें।
6) और प्यार का अर्थ यह है कि हम उसकी आज्ञाओं के मार्ग पर चलते रहें। जो आदेश आप को प्रारम्भ से प्राप्त है, वह यह है कि आप को प्रेम के मार्ग पर चलना चाहिए।
7) बहुत-से भटकाने वाले संसार में फैल गये हैं। वे यह नहीं मानते कि ईसा मसीह सचमुच मनुष्य बन गये थे। यह भटकाने वाले और मसीह-विरोधी का लक्षण है।
8) आप लोग सावधान रहें, जिससे आप अपने परिश्रम का फल न खो बैठें, बल्कि अपना पूरा पुरस्कार प्राप्त करें।
9) जो मसीह की शिक्षा की सीमा के अन्दर नहीं रहता, बल्कि उस से आगे बढ़ता है, उसे ईश्वर प्राप्त नहीं है। जो शिक्षा की सीमा के अन्दर रहता है, उसे पिता और पुत्र, दोनों प्राप्त हैं।
10) यदि कोई आप लोगों के पास आता है और यह शिक्षा साथ नहीं लाता, तो आप अपने यहाँ उसका स्वागत नहीं करें और उसका अभिवादन तक नहीं करें;
11) क्योंकि जो व्यक्ति उसका अभिवादन करता है, वह उसके दुष्ट कर्मों का सहभागी बनता है।
12) मुझे आप लोगों को बहुत कुछ लिखना है, किन्तु मैं यह कागज और स्याही से नहीं करना चाहता। मुझे आशा है कि मैं आपके यहाँ आ कर आमने-सामने बातचीत करूँगा, जिससे हमारा आनन्द परिपूर्ण हो।
13) आपकी कृपापात्र बहन की सन्तानें आप लोगों को नमस्कार कहती हैं।