पवित्र बाइबिल : Pavitr Bible ( The Holy Bible )

नया विधान : Naya Vidhan ( New Testament )

इब्रानियों के नाम पत्र ( Hebrews )

अध्याय 1

1) प्राचीन काल में ईश्वर बारम्बार और विविध रूपों में हमारे पुरखों से नबियों द्वारा बोला था।
2) अब अन्त में वह हम से पुत्र द्वारा बोला है। उसने उस पुत्र के द्वारा समस्त विश्व की सृष्टि की और उसी को सब कुछ का उत्तराधिकारी नियुक्त किया है।
3) वह पुत्र अपने पिता की महिमा का प्रतिबिम्ब और उसके तत्व का प्रतिरूप है। वह पुत्र अपने शक्तिशाली शब्द द्वारा समस्त सृृष्टि को बनाये रखता है। उसने हमारे पापों का प्रायश्चित किया और अब वह सर्वशक्तिमान् ईश्वर के दाहिने विराजमान है।
4) उसका स्थान स्वर्गदूतों से ऊँचा है; क्योंकि जो नाम उसे उत्तराधिकार में मिला है, वह उनके नाम से कहीं अधिक श्रेष्ठ है।
5) क्या ईश्वर ने कभी किसी स्वर्गदूत से यह कहा- तुम मेरे पुत्र हो, आज मैंने तुम्हें उत्पन्न किया है और मैं उसके लिए पिता बन जाऊँगा और वह मेरा पुत्र होगा?
6) फिर वह अपने पहलौठे को संसार के सामने प्रस्तुत करते हुए कहता है- ईश्वर के सभी स्वर्गदूत उसकी आराधना करें,
7) जब कि वह स्वर्गदूतों के विषय में यह कहता है- वह अपने दूतों को पवन बनाता है और अपने सेवकों को धधकती आग।
8) किन्तु पुत्र के विषय में- ईश्वर! तुम्हारा सिंहासन युग-युगों तक बना रहता है और-उसका राजदण्ड न्याय का अधिकारदण्ड है।
9) तुमने न्याय का पक्ष ले कर अन्याय से बैर किया है, इसलिए, ईश्वर, तुम्हारे ईश्वर ने तुम को साथियों के ऊपर उठा कर आनन्द के तेल से तुम्हारा अभिषेक किया है।
10) और फिर-प्रभु! तुमने आदि में पृथ्वी की नींव डाली है। आकाश तुम्हारे हाथों का कार्य है।
11) वे तो नष्ट हो जायेंगे किन्तु तुम बने रहते हो। वे सब वस्त्र की तरह पुराने हो जायेंगे।
12) तुम चादर की तरह उन्हें समेट लोगे। वे वस्त्र की तरह बदल दिये जायेंगे, किन्तु तुम एकरूप रहते हो और तुम्हारे वर्षों का अन्त नहीं होगा।
13) क्या उसने स्वर्गदूतों में किसी से कभी यह कहा- तुम तब तक मेरे दाहिने बैठे रहो, जब तक मैं तुम्हारे शत्रुओं को तुम्हारा पाँव-दान न बना दूँ?
14) क्या सब स्वर्गदूत परिचारक नहीं हैं, जो उन लोगों की सेवा के लिए भेजे जाते हैं, जो मुक्ति के अधिकारी होंगे?

अध्याय 2

1) इसलिए हमें जो सन्देश मिला है, उस पर अच्छी तरह ध्यान देना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि हम मार्ग से भटक जायें।
2) यदि स्वर्गदूतों द्वारा दिये हुए सन्देश का इतना महत्व था कि उसके प्रत्येक अतिक्रमण अथवा तिरस्कार को उचित दण्ड मिला,
3) तो हम कैसे बच सकेंगे, यदि हम उस महान् मुक्ति का तिरस्कार करेंगे, जिसकी घोषणा पहले पहल प्रभु द्वारा हुई थी? जिन लोगों ने प्रभु को सुना, उन्होंने उनके सन्देश को हमारे लिए प्रमाणित किया।
4) ईश्वर ने भी चिन्हों, चमत्कारों, नाना प्रकार के महान् कार्यों और अपनी इच्छा के अनुसार प्रदत्त पवित्र आत्मा के वरदानों द्वारा उनके साक्ष्य का समर्थन किया।
5) ईश्वर ने उस भावी संसार को, जिसकी चर्चा हम कर रहे हैं, स्वर्गदूतों के अधीन नहीं किया है।
6) इसके सम्बन्ध में कोई धर्मग्रन्थ में यह साक्ष्य देता है- मनुष्य क्या है, जो तू उसकी सुधि ले? मनुष्य का पुत्र क्या है, जो तू उसकी देखभाल करे?
7) तूने उसे स्वर्गदूतों से कुछ ही छोटा बनाया और उसे महिमा तथा सम्मान का मुकुट पहनाया।
8) तूने सब कुछ उसके पैरों तले डाल दिया। जब ईश्वर ने सब कुछ उसके अधीन कर दिया, तो उसने कुछ भी ऐसा नहीं छोड़ा, जो उसके अधीन न हो। वास्तव में हम अब तक यह नहीं देखते कि सब कुछ उसके अधीन है।
9) परन्तु हम यह देखते हैं कि मृत्यु की यन्त्रणा सहने के कारण ईसा को महिमा और सम्मान का मुकुट पहनाया गया है। वह स्वर्गदूतों से कुछ ही छोटे बनाये गये थे, जिससे वह ईश्वर की कृपा से प्रत्येक मनुष्य के लिए मर जायें।
10) ईश्वर, जिसके कारण और जिसके द्वारा सब कुछ होता है, बहुत-से पुत्रों को महिमा तक ले जाना चाहता था। इसलिए यह उचित था कि वह उन सबों की मुक्ति के प्रवर्तक हो, अर्थात् ईसा को दुःखभोग द्वारा पूर्णता तक पहुँचा दे।
11) जो पवित्र करता है और जो पवित्र किये जाते हैं, उन सबों का पिता एक ही है; इसलिए ईसा को उन्हें अपने भाई मानने में लज्जा नहीं होती और वह कहते हैं -
12) मैं अपने भाइयों के सामने तेरे नाम का बखान करूँगा, मैं सभाओं में तेरा गुणगान करूँगा।
13) फिर-मैं उस पर पूरा भरोसा रखूँगा; और फिर - मैं और मेरी सन्तति, जिसे ईश्वर ने मुझे दिया है, हम प्रस्तुत हैं।
14) परिवार के सभी सदस्यों का रक्तमास एक ही होता है, इसलिए वह भी हमारी ही तरह मनुष्य बन गये, जिससे वह अपनी मृत्यु द्वारा मृत्यु पर अधिकार रखने वाले शैतान को परास्त करें
15) और दासता में जीवन बिताने वाले मनुष्यों को मृत्यु के भय से मुक्त कर दें।
16) वह स्वर्गदूतों की नहीं, बल्कि इब्राहीम के वंशजों की सुध लेते हैं।
17) इसलिए यह आवश्यक था कि वह सभी बातों में अपने भाइयों के सदृश बन जायें, जिससे वह ईश्वर -सम्बन्धी बातों में मनुष्यों के दयालु और ईमानदार प्रधानयाजक के रूप में उनके पापों का प्रायश्चित कर सकें।
18) उनकी परीक्षा ली गयी है और उन्होंने स्वयं दुःख भोगा है, इसलिए वह परीक्षा में दुःख भोगने वालों की सहायता कर सकते हैं।

अध्याय 3

1) भाइयो! आप पवित्र हैं, एक स्वर्गीय बुलावे के सहभागी हैं! इसलिए आप हमारे विश्वास के प्रवर्तक और प्रधानयाजक ईसा पर विचार करें।
2) जिस तरह मूसा ईश्वर के घराने के सब कार्यों में ईमानदार रहे, उसी तरह ईसा भी ईश्वर के प्रति ईमानदार रहे, जिसने उन्हें नियुक्त किया।
3) घर की अपेक्षा घर का निर्माता अधिक सम्मान के योग्य समझा जाता है। इसी तरह मूसा की अपेक्षा ईसा अधिक सम्मान के योग्य समझे गये हैं;
4) क्योंकि हर घर किसी के द्वारा निर्मित किया जाता है, किन्तु ईश्वर सभी वस्तुओं का निर्माता है।
5) मूसा तो ईश्वर के घराने के सब कार्यों में ईमानदार रहें, किन्तु सेवक के रूप- भविष्य में ईश्वर के प्रकट होने वाले सन्देश के विषय में साक्ष्य देने के लिए,
6) जब कि मसीह, ईश्वर के घराने का अध्यक्ष बन कर, पुत्र के रूप में ईमानदार रहे। ईश्वर का घराना हम हैं, बशर्ते हम अन्त तक वह भरोसा और आशा अक्षुण्ण बनाये रखें, जिस पर हम गौरव करते हैं।
7) इसलिए आप पवित्र आत्मा के इस कथन पर ध्यान दें- ओह! यदि तुम आज उसकी यह वाणी सुनो,
8) अपना हृदय कठोर न कर लो, जैसा कि पहले, विद्रोह के समय, हुआ था।
9) उस दिन तुम्हारे पूर्वजों ने मरूभूमि में मुझे चुनौती दी और मेरी परीक्षा ली, यद्यपि उन्होंने चालीस वर्षों तक मेरे कार्य देखे थे।
10) इसलिए मैं उस पीढ़ी पर अप्रसन्न हो गया और मैंने कहा, ''उनका हृदय भटकता रहा है। वे मेरे मार्ग जानना नहीं चाहते।''
11) मैंने क्रुद्ध होकर यह शपथ खायी : ''वे मेरे विश्रामस्थान में प्रवेश नहीं करेंगे।''
12) भाइयो! आप सावधान रहें। आप लोगों में किसी के मन में इतनी बुराई और अविश्वास न हो कि वह जीवन्त ईश्वर से विमुख हो जाये।
13) जब तक वह 'आज' बना रहता है, आप लोग प्रतिदिन एक दूसरे को प्रोत्साहन देते जायें, जिससे कोई भी पाप के फन्दे में पड़कर कठोर न बने।
14) हम तो मसीह के भागीदार बन गये हैं, बशर्ते हम अपना प्रारम्भिक विश्वास अन्त तक अक्षुण्ण बनाये रखें।
15) धर्मग्रन्थ कहता है- ओह! यदि तुम आज उसकी यह वाणी सुनो, अपना हृदय कठोर न कर लो, जैसा कि पहले, विद्रोह के समय हुआ था।
16) जिन लोगों ने वाणी सुन कर विद्रोह किया, वे कौन थे? निश्चय ही वे सब लोग, जो मूसा के नेतृत्व में मिस्र देश से निकल आये थे।
17) ईश्वर चालीस वर्षों तक किन लोगों पर अप्रसन्न रहा? निश्चय ही उन लोगों पर, जिन्होंने पाप किया था और जो मरूभूमि में ढेर हो गये थे।
18) उसने किन लोगों के विषय में शपथ खा कर कहा कि वे मेरे विश्रामस्थान में प्रवेश नहीं करेंगे? निश्चय ही उनके विषय में, जिन्होंने विश्वास करना अस्वीकार किया।
19) इस प्रकार हम देखते है कि वे अपने अविश्वास के कारण प्रवेश नहीं कर पाये।

अध्याय 4

1) ईश्वर के विश्रामस्थान में प्रवेश करने की वह प्रतिज्ञा अब तक कायम है, इसलिए हम सतर्क रहें कि आप लोगों में कोई उस में प्रवेश करने से न रह जाये।
2) हम को उन लोगों की तरह एक मंगलमय समाचार सुनाया गया है। उन लोगों ने जो सन्देश सुना, उन्हें उस से कोई लाभ नहीं हुआ; क्योंकि सुनने वालों में विश्वास का अभाव था।
3) हम विश्वासी बन गये हैं; इसलिए हम उस विश्रामस्थान में प्रवेश करते हैं, जिसके विषय में उसने कहा- मैंने क्रुद्ध होकर यह शपथ खायी : वे मेरे विश्रामस्थान में प्रवेश नहीं करेंगे। ईश्वर का कार्य तो संसार की सृष्टि के समय ही समाप्त हो गया है,
4) क्योंकि धर्मग्रन्थ सातवें दिन के विषय में यह कहता है - ईश्वर ने अपना समस्त कार्य समाप्त कर सातवें दिन विश्राम किया
5) और उपर्युक्त उद्धरण में हम यह पढ़ते हैं - वे मेरे विश्रामस्थान में प्रवेश नहीं करेंगे।
6) यह निश्चित है कि कुछ लोगों को प्रवेश करना है; किन्तु जिन लोगों को पहले वह शुभ समाचार सुनाया गया था, वे अवज्ञा करने के कारण प्रवेश नहीं कर पाये।
7) इसलिए ईश्वर एक दूसरा दिन निर्धारित करता है और वह बहुत वर्षों के बाद दाऊद के मुख से उपर्युक्त शब्द कहता है- ओह! यदि तुम आज उसकी यह वाणी सुनो, अपना हृदय कठोर न कर लो।
8) यदि योशुआ उन्हें विश्रामस्थान में ले गये होते, तो ईश्वर बाद में किसी दूसरे दिन की चर्चा नहीं करता।
9) इसलिए अब भी ईश्वर की प्रजा के लिए एक विश्रामस्थान बना हुआ है।
10) जो उस विश्रामस्थान में प्रवेश कर पाता है, वह अपना कार्य समाप्त कर उसी प्रकार विश्राम करता है, जिस प्रकार ईश्वर ने अपना कार्य समाप्त कर विश्राम किया।
11) इसलिए हम उस विश्रामस्थान में प्रवेश करने का पूरा-पूरा प्रयत्न करें, जिससे कोई भी उन लोगों की अवज्ञा का अनुसरण करता हुआ उस से वंचित न हो।
12) क्योंकि ईश्वर का वचन जीवन्त, सशक्त और किसी भी दुधारी तलवार से तेज है। वह हमारी आत्मा के अन्तरतम तक पहुँचता और हमारे मन के भावों तथा विचारों को प्रकट कर देता है। ईश्वर से कुछ भी छिपा नहीं है।
13) उसी आँखों के सामने सब कुछ निरावरण और खुला है। हमें उसे लेखा देना पड़ेगा।
14) हमारे अपने एक महान् प्रधानयाजक हैं, अर्थात् ईश्वर के पुत्र ईसा, जो आकाश पार कर चुके हैं। इसलिए हम अपने विश्वास में सुदृढ़ रहें।
15) हमारे प्रधानयाजक हमारी दुर्बलताओं में हम से सहानुभूति रख सकते हैं, क्योंकि पाप के अतिरिक्त अन्य सभी बातों में उनकी परीक्षा हमारी ही तरह ली गयी है।
16) इसलिए हम भरोसे के साथ अनुग्रह के सिंहासन के पास जायें, जिससे हमें दया मिले और हम वह कृपा प्राप्त करें, जो हमारी आवश्यकताओं में हमारी सहायता करेगी।

अध्याय 5

1) प्रत्येक प्रधानयाजक मनुष्यों में से चुना जाता और ईश्वर-सम्बन्धी बातों में मनुष्यों का प्रतिनिधि नियुक्त किया जाता है, जिससे वह भेंट और पापों के प्रायश्चित की बलि चढ़ाये।
2) वह अज्ञानियों और भूले-भटके लोगों के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार कर सकता है, क्योंकि वह स्वयं दुर्बलताओं से घिरा हुआ है।
3) यही कारण है कि उसे न केवल जनता के लिए, बल्कि अपने लिए भी पापों के प्रायश्चित की बलि चढ़ानी पड़ती है।
4) कोई अपने आप यह गौरवपूर्ण पद नहीं अपनाता। प्रत्येक प्रधानयाजक हारुन की तरह ईश्वर द्वारा बुलाया जाता है।
5) इसी प्रकार, मसीह ने अपने को प्रधानयाजक का गौरव नहीं प्रदान किया। ईश्वर ने उन से कहा, - तुम मेरे पुत्र हो, आज मैंने तुम्हें उत्पन्न किया है।
6) अन्यत्र भी वह कहता है- तुम मेलखिसेदेक की तरह सदा पुरोहित बने रहोगे।
7) मसीह ने इस पृथ्वी पर रहते समय पुकार-पुकार कर और आँसू बहा कर ईश्वर से, जो उन्हें मृत्युु से बचा सकता था, प्रार्थना और अनुनय-विनय की। श्रद्धालुता के कारण उनकी प्रार्थना सुनी गयी।
8) ईश्वर का पुत्र होने पर भी उन्होंने दुःख सह कर आज्ञापालन सीखा।
9) (९-१०) वह पूर्ण रूप से सिद्ध बन कर और ईश्वर से मेलख़िसेदेक की तरह प्रधानयाजक की उपाधि प्राप्त कर उन सबों के लिए मुक्ति के स्रोत बन गये, जो उनकी आज्ञाओं का पालन करते हैं।
11) इसके सम्बन्ध में हमें बहुत कुछ कहना है। वह समझाना कठिन है, क्योंकि आप लोगों की बुद्धि मन्द हो गयी है।
12) इस समय तक आप लोगों को शिक्षक बन जाना चाहिए था, किन्तु यह आवश्यक हो गया है कि आप लोगों को दुबारा ईश्वर की वाणी का प्रारम्भिक ज्ञान दिलाया जाये। आप लोगों को ठोस भोजन नहीं, बल्कि दूध की आवश्यकता है।
13) जो दूध से ही निर्वाह करता है, वह बच्चा है और धार्मिकता की शिक्षा समझने में असमर्थ है,
14) जब कि वयस्क लोग ठोस भोजन करते हैं। वे अनुभवी हैं और उनकी बुद्धि भला-बुरा पहचानने में समर्थ हैं।

अध्याय 6

1) इसलिए हम मसीह-सम्बन्धी प्रारम्भिक शिक्षा से आगे बढ़ें। मृत्यु की ओर ले जाने वाले कर्मों के लिए पश्चात्ताप, ईश्वर में विश्वास,
2) शुद्धीकरण की विधियों से सम्बन्धित शिक्षा, हस्तारोपण, मृतकों का पुनरुत्थान और अपरिवर्तनीय भाग्यनिर्णय - हम फिर से इन बातों की नींव न डालें, बल्कि प्रौढ़ शिक्षा की ओर बढ़ें।
3) यदि ईश्वर की अनुमति होगी, तो हम वही करेंगे।
4) क्योंकि जिन लोगों को एक बार दिव्य ज्योति मिली है, जो स्वर्गीय वरदान का आस्वादन कर चुके और पवित्र आत्मा के भागीदार बन गये हैं,
5) जिन्हें सुसमाचार की श्रेष्ठता और आगामी युग के शक्तिशाली चमत्कारों का अनुभव हो चुका है -
6) यदि वे पथभ्रष्ट होते हैं, तो उन्हें पश्चात्ताप के मार्ग पर ले आना असम्भव है! क्योंकि वे अपनी ओर से ईश्वर के पुत्र को फिर क्रूस पर आरोपित करते और उसका उपहास कराते हैं।
7) जो भूमि अपने ऊपर बार-बार पड़ने वाला पानी सोखती और उन लोगों के लिए उपयोगी फ़सल उगाती है, जो उस पर खेती करते हैं, वह ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करती है,
8) किन्तु यदि वह कांटे और ऊँट-कटारे उगाती है, तो वह बेकार है। उस पर अभिशाप पड़ने वाला है और अन्त में उसे जलाया जायेगा।
9) प्रिय भाइयो! यद्यपि हम इस प्रकार बोल रहे हैं, फिर भी हमारा दृढ़ विश्वास है कि आप लोगों की दशा इस से कहीं अच्छी है और आप मुक्ति के मार्ग पर चलते हैं।
10) ईश्वर अन्याय नहीं करता। आप लोगों ने उसके प्रेम से प्रेरित हो कर जो कष्ट उठाया, सन्तों की सेवा की और अब भी कर रहे हैं, ईश्वर वह सब नहीं भुला सकता।
11) मैं चाहता हूँ कि आपकी आशा के परिपूर्ण हो जाने तक आप लोगों में हर एक वही तत्परता दिखलाता रहे।
12) आप लोग ढ़िलाई न करें, वरन् उन लोगों का अनुसरण करें, जो अपने विश्वास और धैर्य के कारण प्रतिज्ञाओं के भागीदार होते हैं।
13) ईश्वर ने जब इब्राहीम से प्रतिज्ञा की थी, तो उसने अपने नाम की शपथ, खायी; क्योंकि उस से बड़ा कोई नहीं था, जिसका नाम ले कर वह शपथ खाये।
14) उसने कहा-मैं तुम पर आशिष बरसाता रहूँगा। और तुम्हारे वंशजों को असंख्य बना दूँगा।
15) इब्राहीम ने बहुत समय तक धैर्य रखने के बाद प्रतिज्ञा का फल प्राप्त किया।
16) लोग अपने से बड़े का नाम ले कर शपथ खाते हैं। उन में शपथ द्वारा कथन की पुष्टि होती है और सारा विवाद समाप्त हो जाता है।
17) ईश्वर प्रतिज्ञा के उत्तराधिकारियों को सुस्पष्ट रूप से अपने संकल्प की अपरिवर्तनीयता दिखलाना चाहता था, इसलिए उसने शपथ खा कर प्रतिज्ञा की।
18) वह इन दो अपरिवर्तनीय कार्यों, अर्थात् प्रतिज्ञा और शपथ में, झूठा प्रमाणित नहीं हो सकता। इस से हमें, जिन्होंने ईश्वर की शरण ली है, यह प्रबल प्रेरणा मिलती है कि हमें जो आशा दिलायी गयी है, हम उसे धारण किये रहें।
19) वह आशा हमारी आत्मा के लिए एक सुस्थिर एवं सुदृढ़ लंगर के सदृश है, जो उस मन्दिरगर्भ में पहुँचता है,
20) जहाँ ईसा हमारे अग्रदूत के रूप में प्रवेश कर चुके हैं; क्योंकि वह मेलख़िसेदेक की तरह सदा के लिए प्रधानयाजक बन गये हैं।

अध्याय 7

1) जब इब्राहीम राजाओं को हरा कर लौट रहे थे, तो सालेम के राजा और सर्वोच्च ईश्वर के पुरोहित वही मेलख़िसेदेक उन से मिलने आये और उन्होंने इब्राहीम को आशीर्वाद दिया।
2) इब्राहीम ने उन्हें सब चीजों का दशमांश दिया। मेलख़िसेदेक का अर्थ है -धार्मिकता का राजा। वह सालेम के राजा भी है, जिसका अर्थ है- शान्ति के राजा।
3) उनके न तो पिता है, न माता और न कोई वंशावली। उनके जीवन का न तो आरम्भ है और न अन्त। वह ईश्वर के पुत्र के सदृश हैं और वह सदा पुरोहित बने रहते हैं।
4) आप इस बात पर विचार करें कि मेलख़िसेदेक कितने महान् हैं! कुलपति इब्राहीम ने भी उन्हें लूट का दशमांश दिया।
5) पुरोहित-पदधारी लेवी-वंशी संहिता के आदेशानुसार लोगों से अर्थात् अपने भाइयों के दशमांश लेते हैं, यद्यपि वे भी इब्राहीम के वंशज हैं।
6) किन्तु मेलख़िसेदेक लेवीवंशी नहीं थे। तभी उन्होंने इब्राहीम से भी दशमांश लिया और प्रतिज्ञाओं के अधिकारी को आशीर्वाद दिया है।
7) अब यह निर्विवाद है कि जो छोटा है, वह अपने से बड़े का आशीर्वाद पाता है।
8) इसके अतिरिक्त दशमांश पाने वाले लेवी-वंशी मरणशील मनुष्य हैं, जब कि मेलख़िसेदेक के विषय में धर्मग्रन्थ कहता है कि वह जीवित रहते हैं।
9) यह भी कहा जा सकता है कि दशमांश पाने वाले लेवी ने इब्राहीम के माध्यम से दशमांश दिया है;
10) क्योंकि जब इब्राहीम से मेलख़िसेदेक की भेंट हुई, तो लेवी एक प्रकार से अपने पूर्वज इब्राहीम के शरीर में विद्यमान थे।
11) इस्राएली प्रजा को लेवियों के पौरोहित्य के आधार पर संहिता मिली थी। यदि इस पौरोहित्य के माध्यम से पूर्णता प्राप्त हो सकती थी, तो यह क्यों आवश्यक था कि एक अन्य पुरोहित की चर्चा की जाये, जो हारून की नहीं, बल्कि मेलख़िसेदेक की श्रेणी में आ जायेगा?
12) पौरोहित्य में परिवर्तन होने पर संहिता में भी परिवर्तन अनिवार्य है।
13) जिस पुरोहित के विषय में ये बातें कही गयी हैं, वह एक अन्य वंश का है और उस वंश का कोई भी व्यक्ति वेदी का सेवक नहीं बना;
14) क्योंकि यह तो प्रत्यक्ष है कि हमारे प्रभु यूदा के वंश में उत्पन्न हुए हैं और मूसा ने पुरोहितों के विषय में लिखते समय इस वंश का उल्लेख नहीं किया।
15) यह सब और भी स्पष्ट हो जाता है, यदि हम इस पर विचार करें कि एक अन्य पुरोहित प्रकट हुआ, जो मेलख़िसेदेक के सदृश है,
16) जो वंश-परम्परा पर आधारित किसी नियम के अनुसार नहीं, बल्कि अविनाशी जीवन के सामर्थ्य से पुरोहित बन गया है।
17) उसके विषय में धर्मग्रन्थ यह साक्ष्य देता है - तुम मेलख़िसेदेक की तरह सदा पुरोहित बने रहोगे।
18) पुराना विधान शक्तिहीन और निष्फल होने के कारण रद्द कर दिया गया है,
19) क्योंकि संहिता पूर्णता तक कुछ भी नहीं पहुँचा सकी। हमें इस से अधिक श्रेष्ठ आशा प्रदान की गयी है और हम इसके माध्यम से ईश्वर के निकट पहुँचते हैं।
20) शपथ के साथ ही ईसा की नियुक्ति हुई थी, जब कि वे शपथ के बिना पुरोहित नियुक्त हुए थे;
21) क्योंकि मसीह की नियुक्ति के समय ईश्वर ने शपथ खायी थी। जैसा कि धर्मग्रन्थ कहता है, ईश्वर की यह शपथ अपरिवर्तनीय है- तुम मेलख़िसेदेक की तरह सदा पुरोहित बने रहोगे।
22) इस प्रकार, हम देखते हैं कि ईसा जिस विधान का उत्तरदायित्व लेते हैं, वह कहीं अधिक श्रेष्ठ हैं।
23) वे बड़ी संख्या में पुरोहित नियुक्त किये जाते हैं, क्योंकि मृत्यु के कारण अधिक समय तक पद पर रहना उनके लिए सम्भव नहीं।
24) ईसा सदा बने रहते हैं, इसलिए उनका पौरोहित्य चिरस्थायी हैं।
25) यही कारण है कि जो लोग उनके द्वारा ईश्वर की शरण लेते हैं, वह उन्हें परिपूर्ण मुक्ति दिलाने में समर्थ हैं; क्योंकि वे उनकी ओर से निवेदन करने के लिए सदा जीवित रहते हैं।
26) यह उचित ही था कि हमें इस प्रकार का प्रधानयाजक मिले- पवित्र, निर्दोष, निष्कलंक, पापियों से सर्वथा भिन्न और स्वर्ग से भी ऊँचा।
27) अन्य प्रधानयाजक पहले अपने पापों और बाद में प्रजा के पापों के लिए प्रतिदिन बलिदान चढ़ाया करते हैं। ईसा को इसकी आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि उन्होंने यह कार्य एक ही बार में उस समय पूरा कर लिया, जब उन्होंने अपने को बलि चढ़ाया।
28) संहिता जो दुर्बल मनुष्यों को प्रधानयाजक नियुक्त करती है, किन्तु संहिता के समाप्त हो जाने के बाद ईश्वर की शपथ के अनुसार वह पुत्र पुरोहित नियुक्त किया जाता है, जिसे सदा के लिए परिपूर्ण बना दिया है।

अध्याय 8

1) इन बातों का सारांश यह है- हमारा एक ऐसा, प्रधानयाजक है, जो स्वर्ग में महामहिम के सिंहासन की दाहिनी ओर विराजमान हो कर
2) उस वास्तविक मन्दिर तथा तम्बू का सेवक है, जो मनुष्य द्वारा नहीं, बल्कि प्रभु द्वारा संस्थापित है।
3) प्रत्येक प्रधानयाजक भेंट और बलि चढ़ाने के लिए नियुक्त है, इसलिए यह आवश्यक है कि उसके पास चढ़ावे के लिए कुछ हो।
4) यदि ईसा अब तक पृथ्वी पर रहते, तो वे याजक भी नहीं होते; क्योंकि संहिता के अनुसार भेंट चढ़ाने के लिए याजक विद्यमान है,
5) यद्यपि वे एक ऐसे मन्दिर में सेवा करते हैं, जो स्वर्ग की वास्तविकता की प्रतिकृति और छाया मात्र है। यही कारण है कि जब मूसा तम्बू का निर्माण करने वाले थे, तो उन्हें ईश्वर की ओर से यह आदेश मिला-सावधान रहो; जो नमूना तुम्हें पर्वत पर दिखाया गया, उसी के अनुसार तुम सब कुछ बनाओ।
6) अब, जो धर्मसेवा मसीह को मिली है, वह कहीं अधिक ऊँची है; क्योंकि वे एक ऐसे विधान के मध्यस्थ हैं; जो श्रेष्ठतर है और श्रेष्ठतर प्रतिज्ञाओं पर आधारित हैं।
7) यदि पहला विधान परिपूर्ण होता, तो उसके स्थान पर दूसरे की क्या आवश्यकता थी?
8) ईश्वर उन लागों की निन्दा करते हुए कहता है- प्रभु यह कहता हैः वे दिन आ रहे हैं, जब मैं इस्राएल के घराने के लिए और यूदा के घराने के लिए एक नया विधान निर्धारित करूँगा।
9) यह उस विधान की तरह नहीं होगा, जिसे मैंने उनके पूर्वजों के लिए उस समय निर्धारित किया था, जब मैंने उन्हें मिस्र से निकालने के लिए उनके हाथ थामे थे।
10) प्रभु यह कहता है : उन्होंने मेरे विधान का पालन नहीं किया, इसलिए मैंने भी उनकी सुध नहीं ली। प्रभु यह कहता है : वह समय बीत जाने के बाद मैं इस्राएल के लिए यह विधान निर्धारित करूँगा - मैं अपने नियम उनके मन में रख दूँगा, मैं उनके हृदय पर अंकित करूँगा। मैं उनका ईश्वर होऊँगा और वे मेरी प्रजा होंगे।
11) इसकी जरूरत नहीं रहेगी कि वे एक दूसरे को शिक्षा दें और अपने भाइयों से कहें, 'प्रभु का ज्ञान प्राप्त कीजिए'; क्योंकि छोटे और बड़े, सब-के-सब मुझे जानेंगे।
12) मैं उनके अपराध क्षमा कर दूँगा और उनके पापों को याद भी नहीं रखूँगा।
13) ईश्वर इस विधान को 'नया' कह कर पुकारता है, इसलिए उसने पहला विधान रद्द कर दिया है। जो पुराना और जराग्रस्त हो गया है, वह लुप्त होने को है।

अध्याय 9

1) पहले विधान के भी अपने उपासना सम्बन्धी नियम थे और उसका अपना पार्थिव मन्दिर भी था।
2) एक तम्बू खड़ा कर दिया गया था। उसके अगले कक्ष में दीपाधार था, मेज थी और भेंट की रोटियाँ थीं। वह मन्दिर-गर्भ कहलाता था।
3) दूसरे परदे के पीछे का कक्ष परमपावन मन्दिर-गर्भ कहलाता था।
4) वहाँ धूपदान की स्वर्ण से मढ़ी हुई मंजूषा थी। मंजूषा में मन्ना से भरा हुआ स्वर्णमय पात्र था, हारून की छड़ी थी, जो पल्लवित हो उठी थी और विधान की पाटियाँ थी,
5) और मंजूषा के ऊपर प्रायश्चित का स्थान आच्छादित करने वाले महिमामय केरूबीम विराजमान थे। इन सब का विस्तृत विवरण यहाँ अपेक्षित नहीं हैं।
6) यही मन्दिर की व्यवस्था थी। उपासना की विधियाँ सम्पन्न करने के लिए याजक हर समय उसके अगले कक्ष में जाया करते थे,
7) किन्तु प्रधानायाजक ही, वर्ष में एक बार, पिछले कक्ष में वह रक्त लिये प्रवेश करता था, जिसे वह अपने और प्रजा के दोषों के लिए प्रायश्चित के रूप में चढ़ाता था।
8) इस प्रकार पवित्र आत्मा यह दिखलाना चाहता है कि जब तक पहला तम्बू खड़ा है, तब तक परमपावन मन्दिरगर्भ का मार्ग खुला नहीं है।
9) वह वर्तमान समय का प्रतीक है। वहाँ जो भेंट और बलिदान चढ़ाये जाते हैं, वे चढ़ाने वाले को आभ्यन्तर पूर्णता तक नहीं पहुँचा सकते।
10) वे बाह्य नियम हैं, जो खान-पान एवं नाना प्रकार की शुद्धीकरण-विधियों से सम्बन्ध रखते हैं और सुधार के समय तक ही लागू हैं।
11) किन्तु अब मसीह हमारे भावी कल्याण के प्रधानयाजक के रूप में आये हैं और उन्होंने एक ऐसे तम्बू को पार किया, जो यहूदियों के तम्बू से महान् तथा श्रेष्ठ है, जो मनुष्य के हाथ से नहीं बना और इस पृथ्वी का नहीं है।
12) उन्होंने बकरों तथा बछड़ों का नहीं, बल्कि अपना रक्त ले कर सदा के लिए एक ही बार परमपावन स्थान में प्रवेश किया और इस तरह हमारे लिए सदा-सर्वदा रहने वाला उद्धार प्राप्त किया है।
13) याजक बकरों तथा सांड़ों का रक्त और कलोर की राख अशुद्ध लोगों पर छिड़कता है और उनका शरीर फिर शुद्ध हो जाता है। यदि उस में पवित्र करने की शक्ति है,
14) तो फिर मसीह का रक्त, जिसे उन्होंने शाश्वत आत्मा के द्वारा निर्दोष बलि के रूप में ईश्वर को अर्पित किया, हमारे अन्तःकरण को पापों से क्यों नहीं शुद्ध करेगा और हमें जीवन्त ईश्वर की सेवा के योग्य बनायेगा?
15) मसीह पहले विधान के समय किये हुए अपराधों की क्षमा के लिए मर गये हैं और इस प्रकार वह एक नये विधान के मध्यस्थ हैं। ईश्वर जिन्हें बुलाते हैं, वे अब उसकी प्रतिज्ञा के अनुसार अनन्त काल तक बनी रहने वाली विरासत प्राप्त करते हैं।
16) वसीयतनामें के विषय में वसीयतकर्ता की मृत्यु का प्रमाणपत्र देना पड़ता है, क्योंकि मृत्यु के बाद ही वसीयतनामा कारगर होता है।
17) जब तक वसीयतकर्ता जीवित है, तब तक वसीयतनामा कारगर नहीं होता।
18) इसलिए रक्त के बिना प्रथम विधान का प्रवर्तन नहीं हुआ था;
19) क्योंकि जब मूसा ने सारी प्रजा के सामने संहिता की सब आज्ञाओं को पढ़ कर सुनाया था, तो उन्होंने जल, लाल ऊन और जूफ़े के साथ बछड़ों और बकरों का रक्त ले लिया था और उसे संहिता के ग्रन्थ और सारी प्रजा पर छिड़कते हुए
20) कहा था- यह उस विधान का रक्त है, जिसे ईश्वर ने तुम लोगों के लिए निर्धारित किया है।
21) उन्होंने तम्बू और उपासना में प्रयुक्त सभी पात्रों पर वह रक्त छिड़क दिया था।
22) संहिता के अनुसार प्रायः सब कुछ रक्त द्वारा शुद्ध किया जाता है और रक्तपात के बिना क्षमा नहीं मिलती।
23) जो चीजें स्वर्ग की चीजों की प्रतीक मात्र थीं, यदि उनका शुद्धीकरण इस प्रकार की विधियों द्वारा आवश्यक था, तो स्वर्ग की चीजों के लिए एक श्रेष्ठतर बलिदान आवश्यक था।
24) क्योंकि ईसा ने हाथ के बने हुए उस मन्दिर में प्रवेश नहीं किया, जो वास्तविक मन्दिर का प्रतीक मात्र है। उन्होंने स्वर्ग में प्रवेश किया है, जिससे वह हमारी ओर से ईश्वर के सामने उपस्थित हो सकें।
25) प्रधानयाजक किसी दूसरे का रक्त ले कर प्रतिवर्ष परमपावन मन्दिर-गर्भ में प्रवेश करता है। ईसा के लिए इस तरह अपने को बार-बार अर्पित करने की आवश्यकता नहीं है।
26) यदि ऐसा होता तो संसार के प्रारम्भ से उन्हें बार-बार दुःख भोगना पड़ता, किन्तु अब युग के अन्त में वह एक ही बार प्रकट हुए, जिससे वह आत्मबलिदान द्वारा पाप को मिटा दें।
27) जिस तरह मनुष्यों के लिए एक ही बार मरना और इसके बाद उनका न्याय होना निर्धारित है,
28) उसी तरह मसीह बहुतों के पाप हरने के लिए एक ही बार अर्पित हुए। वह दूसरी बार प्रकट हो जायेंगे- पाप के कारण नहीं, बल्कि उन लोगों को मुक्ति दिलाने के लिए, जो उनकी प्रतीक्षा करते हैं।

अध्याय 10

1) संहिता भावी कल्याण का वास्तविक रूप नहीं, उसकी छाया मात्र दिखाती है। उसके नियमों के अनुसार प्रतिवर्ष एक ही प्रकार के बलिदान चढ़ाये जाते हैं। संहिता उन बलिदानों द्वारा उपासकों को पूर्णता तक पहुँचाने में असमर्थ है।
2) यदि वह इस में समर्थ होती, तो बलिदान समाप्त कर दिये जाते; क्योंकि तब उपासक सदा के लिए शुद्ध हो जाते और उन में पाप का बोध नहीं रहता।
3) किन्तु अब तो उन बलिदानों द्वारा प्रतिवर्ष पापों का स्मरण दिलाया जाता है।
4) सांडों तथा बकरों का रक्त पाप नहीं हर सकता,
5) इसलिए मसीह ने संसार में आ कर यह कहा : तूने न तो यज्ञ चाहा और न चढ़ावा, बल्कि तूने मेरे लिए एक शरीर तैयार किया है।
6) तू न तो होम से प्रसन्न हुआ और न प्रायश्चित्त के बलिदान से;
7) इसलिए मैंने कहा - ईश्वर! मैं तेरी इच्छा पूरी करने आया हूँ, जैसा कि धर्मग्रन्थ में मेरे विषय में लिखा हुआ है।
8) मसीह ने पहले कहा, ''तूने यज्ञ, चढ़ावा, होम या या प्रायचित्त का बलिदान नहीं चाहा। तू उन से प्रसन्न नहीं हुआ'', यद्यपि ये सब संहिता के अनुसार ही चढ़ाये जाते हैं।
9) तब उन्होंने कहा, ''देख, मैं तेरी इच्छा पूरी करने आया हूँ''। इस प्रकार वह पहली व्यवस्था को रद्द करते और दूसरी का प्रवर्तन करते हैं।
10) ईसा मसीह के शरीर के एक ही बार बलि चढ़ाये जाने के कारण हम ईश्वर की इच्छा के अनुसार पवित्र किये गये हैं।
11) प्रत्येक दूसरा पुरोहित खड़ा हो कर प्रतिदिन धर्म-अनुष्ठान करता है और बार-बार एक ही प्रकार के बलिदान चढ़ाया करता है, जो पाप हरने में असमर्थ होते हैं।
12) किन्तु पापों के लिए एक ही बलिदान चढ़ाने के बाद, वह सदा के लिए ईश्वर के दाहिने विराजमान हो गये हैं,
13) जहाँ वह उस समय की राह देखते हैं, जब उनके शत्रुओं को उनका पावदान बना दिया जायेगा;
14) क्योंकि वह जिन लोगों को पवित्र करते हैं, उन्होंने उन को एक ही बलिदान द्वारा सदा के लिए पूर्णता तक पहुँचा दिया है।
15) इस सम्बन्ध में पवित्र आत्मा का साक्ष्य भी हमारे पास है। पहले वह बोलता है।
16) प्रभु यह कहता है, मैं उनके लिए यह विधान निर्धारित करूँगा। मैं अपने नियम उनके मन में रख दूँगा, मैं उन्हें उनके हृदय पर अंकित करूँगा।
17) और इसके बाद वह फिर कहता है- मैं उनके पापों और अपराधों को याद भी नहीं रखूँगा।
18) जब पाप क्षमा कर दिये गये हैं, तो फिर आप के लिए बलिदान की आवश्यकता नहीं रही।
19) भाइयो! ईसा का रक्त हमें निर्भय हो कर परमपावन मन्दिर-गर्भ में प्रवेश करने का आश्वासन देता है।
20) उन्होंने हमारे लिए एक नवीन तथा जीवन्त मार्ग खोल दिया, जो उनके शरीर-रूपी परदे से हो कर जाता है।
21) अब हमें एक महान् पुरोहित प्राप्त हैं, जो ईश्वर के घराने पर नियुक्त किये गये हैं।
22) इसलिए हम अपने हृदय को पाप के दोष से मुक्त कर और अपने शरीर को स्वच्छ जल से धो कर निष्कपट हृदय से तथा परिपूर्ण विश्वास के साथ ईश्वर के पास चलें।
23) हम अपने भरोसे का साक्ष्य देने में अटल एवं दृढ़ बने रहें, क्योंकि जिसने हमें वचन दिया है, वह सत्यप्रतिज्ञ है।
24) हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हम किस प्रकार भ्रातृप्रेम तथा परोपकार के लिए एक दूसरे को प्रोत्साहित कर सकते हैं,
25) हम भाइयों की सभा से अलग न रहें, जैसा कि कुछ लोग किया करते हैं, बल्कि हम एक दूसरे को ढारस बंधायें। जब आप उस दिन को निकट आते देख रहे हैं, तो ऐसा करना और भी आवश्यक हो जाता है।
26) क्योंकि सत्य का ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी यदि हम जान-बूझ कर पाप करते रहते हैं, तो पापों के लिए कोई बलिदान नहीं रह जाता,
27) एक भयानक आशंका ही रह जाती है- न्याय की और एक भीषण अग्नि की, जो विद्रोहियों को निगल जाना चाहती है।
28) जो व्यक्ति मूसा की संहिता का उल्लंघन करता है, यदि उसे दो या तीन गवाहों के आधार पर निर्ममता से प्राणदण्ड दिया जाता है,
29) तो आप लोग विचार करें कि जो व्यक्ति ईश्वर के पुत्र का तिरस्कार करता, विधान का वह रक्त तुच्छ समझता, जिसके द्वारा वह पवित्र किया गया था, और कृपा के आत्मा का अपमान करता है, ऐसे व्यक्ति को कहीं और घोर दण्ड के योग्य समझा जायेगा;
30) क्योंकि हम जानते हैं कि किसने यह कहा है- प्रतिशोध मेरा अधिकार है, मैं ही बदला चुकाऊँगा और फिर- प्रभु अपनी प्रजा का न्याय करेगा।
31) जीवन्त ईश्वर के हाथ पड़ना कितनी भयंकर बात है।
32) आप लोग उन बीते दिनों की याद करें, जब आप ज्योति मिलने के तुरन्त बाद, दुःखों के घोर संघर्ष का सामना करते हुए दृढ़ बने रहे।
33) आप लोगों में कुछ को सब के सामने अपमान और अत्याचार सहना पड़ा और कुछ इनके साथ पूरी सहानुभूति दिखलाते रहे।
34) जो बन्दी बनाये गये, आप लोग उनके कष्टों के सहभागी बने और जब आप लोगों की धन-सम्पत्ति जब्त की गयी, तो आपने यह सहर्ष स्वीकार किया; क्योंकि आप जानते थे कि इस से कहीं अधिक उत्तम और चिरस्थायी सम्पत्ति आपके पास विद्यमान है।
35) इसलिए आप लोग अपना भरोसा नहीं छोड़ें-इसका पुरस्कार महान् है।
36) आप लोगों को धैर्य की आवश्यकता है, जिससे ईश्वर की इच्छा पूरी करने के बाद आप को वह मिल जाये, जिसकी प्रतिज्ञा ईश्वर कर चुका है;
37) क्योंकि धर्मग्रन्थ यह कहता है - जो आने वाला है, वह थोड़े ही समय बाद आयेगा। वह देर नहीं करेगा।
38) मेरा धार्मिक भक्त अपने विश्वास के कारण जीवन प्राप्त करेगा; किन्तु यदि कोई पीछे हटेगा, तो मैं उस पर प्रसन्न नहीं होऊँगा।
39) हम उन लोगों में नहीं, जो हटने के कारण नष्ट हो जाते हैं, बल्कि हम उन लोगों में हैं, जो अपने विश्वास द्वारा जीवन प्राप्त करते हैं।

अध्याय 11

1) विश्वास उन बातों की स्थिर प्रतीक्षा है, जिनकी हम आशा करते हैं और उन वस्तुओं के अस्तित्व के विषय में दृढ़ धारणा है, जिन्हें हम नहीं देखते।
2) विश्वास के कारण हमारे पूर्वज ईश्वर के कृपापात्र बने।
3) विश्वास द्वारा हम समझते हैं कि ईश्वर के शब्द द्वारा विश्व का निर्माण हुआ है और अदृश्य से दृश्य की उत्पत्ति हुई है।
4) विश्वास के कारण हाबिल ने काइन की अपेक्षा कहीं अधिक श्रेष्ठ बलि चढ़ायी। विश्वास के कारण वह धार्मिक समझे गये, क्योंकि ईश्वर ने उनका चढ़ावा स्वीकार किया। विश्वास के कारण वह मर कर भी बोल रहे हैं।
5) विश्वास के कारण मृत्यु का अनुभव किये बिना हेनोख आरोहित कर लिये गये। वह फिर नहीं दिखाई पड़े, क्योंकि ईश्वर ने उन्हें आरोहित किया था। धर्मग्रन्थ उसके विषय में कहता है कि आरोहित किये जाने के पहले वह ईश्वर के कृपापात्र बन गये थे।
6) विश्वास के अभाव में कोई ईश्वर का कृपापात्र नहीं बन सकता। जो ईश्वर के निकट पहुँचना चाहता है, उसे विश्वास करना है कि ईश्वर है और वह उन लोगों का कल्याण करता है, जो उसकी खोज में लगे रहते हैं।
7) ईश्वर से उस समय तक अदृश्य बातों की सूचना पा कर नूह ने अपना परिवार बचाने के लिए विश्वास के कारण बड़ी सावधानी से पोत का निर्माण किया। उन्होंने अपने विश्वास द्वारा संसार को दोषी ठहराया और वह उस धार्मिकता के अधिकारी बने, जो विश्वास पर आधारित है।
8) विश्वास के कारण इब्राहीम ने ईश्वर का बुलावा स्वीकार किया और यह न जानते हुए भी कि वह कहाँ जा रहे हैं, उन्होंने उस देश के लिए प्र्रस्थान किया, जिसका वह उत्तराधिकारी बनने वाले थे।
9) विश्वास के कारण वह परदेशी की तरह प्रतिज्ञात देश में बस गये और वहाँ इसहाक तथा याकूब के साथ, जो एक ही प्रतिज्ञा के उत्तराधिकारी थे, तम्बुओं में रहने लगे।
10) इब्राहीम ने ऐसा किया, क्योंकि वह उस पक्की नींव वाले नगर की प्रतीक्षा में थे, जिसका वास्तुकार तथा निर्माता ईश्वर है।
11) विश्वास के कारण उमर ढ़ल जाने पर भी सारा गर्भवती हो सकीं; क्योंकि उनका विचार यह था जिसने प्रतिज्ञा की है, वह सच्चा है
12) और इसलिए एक मरणासन्न व्यक्ति से वह सन्तति उत्पन्न हुई, जो आकाश के तारों की तरह असंख्य है और सागर-तट के बालू के कणों की तरह अगणित।
13) प्रतिज्ञा का फल पाये बिना वे सब विश्वास करते हुए मर गये। उन्होंने उसे दूर से देखा और उसका स्वागत किया। वे अपने को पृथ्वी पर परदेशी तथा प्रवासी मानते थे।
14) जो इस तरह की बातें कहते हैं, वे यह स्पष्ट कर देते हैं कि वे स्वदेश की खोज में लगे हुए हैं।
15) वे उस देश की बात नहीं सोचते थे, जहाँ से वे चले गए थे; क्योंकि वे वहाँ लौट सकते थे।
16) वे तो एक उत्तम स्वदेश अर्थात् स्वर्ग की खोज में लगे हुए थे; इसलिए ईश्वर को उन लोगों का ईश्वर कहलाने में लज्जा नहीं होती। उसने तो उनके लिए एक नगर का निर्माण किया है।
17) जब ईश्वर इब्राहीम की परीक्षा ले रहा था, तब विश्वास के कारण उन्होंने इसहास को अर्पित किया। वह अपने एकलौते पुत्र को बलि चढ़ाने तैयार हो गये थे,
18) यद्यपि उन से यह प्रतिज्ञा की गयी थी, कि इसहाक से तेरा वंश चलेगा।
19) इब्राहीम का विचार यह था कि ईश्वर मृतकों को भी जिला सकता है, इसलिए उन्होंने अपने पुत्र को फिर प्राप्त किया। यह भविष्य के लिए प्रतीक था।
20) विश्वास के कारण इसहाक ने याकूब एवं एसाव को भविष्य के लिए आशीर्वाद दिया।
21) विश्वास के कारण याकूब ने यूसुफ़ के हर एक पुत्र को आशीर्वाद दिया और उन्होंने अपनी छड़ी की मूठ के सहारे झुक कर ईश्वर की आराधना की। विश्वास के कारण
22) यूसुफ़ ने मरते समय मिस्र से इस्राएलियों के निर्गमन का उल्लेख किया और अपनी हड्डियों के विषय में आदेश दिया।
23) विश्वास के कारण मूसा के माता-पिता ने यह देख कर कि बच्चा सुन्दर है, उन्हें जन्म के बाद तीन महिनों तक छिपाये रखा और वे राजा के आदेश से भयभीत नहीं हुए।
24) विश्वास के कारण सयाना हो जाने पर मूसा ने फिराउन की पुत्री का बेटा कहलाना अस्वीकार किया।
25) उन्होंने पाप का अल्पस्थायी सुख भोगने की अपेक्षा ईश्वर की प्रजा के साथ अत्याचार सहना अधिक उचित समझा।
26) उन्होने मिस्र की धन-सम्पत्ति की अपेक्षा मसीह के अपयश को अधिक मूल्यवान् माना, क्योंकि उनकी दृष्टि भविष्य में प्राप्त होने वाले पुरस्कार पर लगी हुई थी।
27) विश्वास के कारण उन्होंने मिस्र देश को छोड़ दिया। वह राजा के क्रोध से भयभीत नहीं हुए, बल्कि दृढ़ बने रहे, मानो वह अदृश्य ईश्वर का देख रहे थे।
28) विश्वास के कारण उन्होंने 'पास्का' मनाया और रक्त छिड़का, जिससे विनाशक दूत इस्राएलियों के पहलौठे पुत्रों पर हाथ न डाले।
29) विश्वास के कारण उन लोगों ने लाल समुद्र पार किया, मानों वह सूखी भूमि था और जब मिस्रियों ने वैसा ही करने की चेष्टा की, तो वे डूब मरे।
30) विश्वास के कारण येरीख़ो की चारदीवारी गिर पड़ी, जब इस्राएली सात दिनों में सात बार उसकी परिक्रमा कर चुके थे।
31) विश्वास के कारण रहाब नामक वेश्या, अविश्वासियों के साथ नष्ट नहीं हुई, क्योंकि उसने गुप्तचरों का स्वागत किया था।
32) मैं और क्या कहूँ? गिदियोन, बराक, समसोन, यिफ्तह, दाऊद, समूएल और अन्य नबियों की चरचा करने की मुझे फुरसत नहीं।
33) उन्होंने अपने विश्वास द्वारा राज्यों को अपने अधीन कर लिया, न्याय का पालन किया, प्रतिज्ञाओं का फल पाया, सिंहों का मुँह बन्द दिया
34) और प्रज्वलित आग बुझायी। वे तलवार की धार से बच गये और दुर्बल होने पर भी शक्तिशाली बन गये। उन्होंने युद्ध में वीरता का प्रदर्शन किया और विदेशी सेनाओं को भगा दिया।
35) स्त्रियों ने अपने पुनर्जीवित मृतकों को फिर प्राप्त किया। कुछ लोग यन्त्रणा सह कर मर गये और उस से इसलिए छुटकारा नहीं चाहते थे कि उन्हें श्रेष्ठतर पुनरुत्थान प्राप्त हो।
36) उपहास, कोड़ों, बेड़ियों और बन्दीगृह द्वारा कुछ लोगों की परीक्षा ली गयी है।
37) कुछ लोग पत्थरों से मारे गये, कुछ आरे से चीर दिये गये और कुछ तलवार के घाट उतारे गये। कुछ लोग दरिद्रता, अत्याचार और उत्पीड़न के शिकार बन कर भेड़ों और बकरियों की खाल ओढ़े इधर-उधर भटकते रहे।
38) संसार उनके योग्य नहीं था। उन्हें उजाड़ स्थानों, पहाड़ी प्रदेशों, गुफाओं और धरती के गड्ढों की शरण लेनी पड़ी।
39) वे सभी अपने विश्वास के कारण ईश्वर के कृपापात्र बने गये। फिर भी उन्हें प्रतिज्ञा का फल प्राप्त नहीं हुआ
40) क्योंकि ईश्वर ने हम को दृष्टि में रख कर एक श्रेष्ठत्तर योजना बनायी थी। वह चाहता था कि वे हमारे साथ ही पूर्णता तक पहुँचे।

अध्याय 12

1) जब विश्वास के साक्षी इतनी बड़ी संख्या में हमारे चारों ओर विद्यमान हैं, तो हम हर प्रकार की बाधा दूर कर अपने को उलझाने वाले पाप को छोड़ कर और ईसा पर अपनी दृष्टि लगा कर, धैर्य के साथ उस दौड़ में आगे बढ़ते जायें, जिस में हमारा नाम लिखा गया है।
2) ईसा हमारे विश्वास के प्रवर्तक हैं और उसे पूर्णता तक पहँुचाते हैं। उन्होंने भविष्य में प्राप्त होने वाले आनन्द के लिए क्रूस पर कष्ट स्वीकार किया और उसके कलंक की कोई परवाह नहीं की। अब वह ईश्वर के सिंहासन के दाहिने विराजमान हैं।
3) कहीं ऐसा न हो कि आप लोग निरूत्साह हो कर हिम्मत हार जायें, इसलिए आप उनका स्मरण करते रहें, जिन्होंने पापियों का इतना अत्याचार सहा।
4) अब तक आप को पाप से संघर्ष करने में अपना रक्त नहीं बहाना पड़ा।
5) क्या आप लोग धर्मग्रन्थ का यह उपदेश भूल गये हैं, जिस में आप को पुत्र कह कर सम्बोधित किया गया है? -मेरे पुत्र! प्रभु के अनुशासन की उपेक्षा मत करो और उसकी फटकार से हिम्मत मत हारो;
6) क्योंकि प्रभु जिसे प्यार करता है, उसे दण्ड देता है और जिसे पुत्र मानता है, उसे कोड़े लगाता है।
7) आप जो कष्ट सहते हैं, उसे पिता का दण्ड समझें, क्योंकि वह इसका प्रमाण है, कि ईश्वर आप को पुत्र समझ कर आपके साथ व्यवहार करता है। और कौन पुत्र ऐसा है, जिसे पिता दण्ड नहीं देता?
8) यदि आप को दूसरे पुत्रों की तरह दण्ड नहीं दिया जाता, तो आप औरस पुत्र नहीं, बल्कि जारज सन्तान हैं।
9) हमारे पार्थिव पिता हमें दण्ड देते थे और हम उनका सम्मान करते थे, तो हमें कहीं अधिक तत्परता से अपने आत्मिक पिता की अधीनता स्वीकार करनी चाहिए, जिससे हमें जीवन प्राप्त हो।
10) वे तो अपनी-अपनी समझ के अनुसार इस अल्पकालिक जीवन के लिए हमें तैयार करने के उद्देश्य से दण्ड देते थे। ईश्वर हमारे कल्याण के लिए ऐसा करता है, क्योंकि वह हमें अपनी पवित्रता का भागी बनाना चाहता है।
11) जब दण्ड मिल रहा है, तो वह सुखद नहीं, दुःखद प्रतीत होता है; किन्तु जो दण्ड द्वारा प्रशिक्षित होते हैं, वे बाद में धार्मिकता का शान्तिप्रद फल प्राप्त करते हैं।
12) इसलिए ढीले हाथों तथा शिथिल घुटनों को सबल बना लें।
13) और सीधे पथ पर आगे बढ़ते जायें, जिससे लंगड़ा भटके नहीं, बल्कि चंगा हो जाये।
14) सबों के साथ शान्ति बनाये रखें और पवित्रता की साधना करें। इसके बिना कोई ईश्वर के दर्शन नहीं कर पायेगा।
15) आप सावधान रहें- कोई ईश्वर की कृपा से वंचित न हो। ऐसा कोई कड़वा और हानिकर पौधा पनपने न पाये, जो समस्त समुदाय को दूषित कर दे।
16) आप लोगों में न तो कोई व्यभिचारी हो और न एसाव के सदृश कोई नास्तिक, जिसने एक ही भोजन के लिए अपना पहलौठे का अधिकार बेच दिया।
17) आप लोग जानते हैं कि वह बाद में अपने पिता की आशिष प्राप्त करना चाहता था, किन्तु ऐसा नहीं कर सका। यद्यपि उसने रोते हुए इसके लिए आग्रह किया, तो भी वह अपने पिता का मन बदलने में असमर्थ रहा।
18) आप लोग ऐसे पर्वत के निकट नहीं पहुँचे हैं, जिसे आप स्पर्श कर सकते हैं। यहाँ न तो सीनई बादल की धधकती अग्नि है और न काले बादल; न घोर अन्धकार, बवण्डर,
19) तुरही का निनाद और न बोलने वाले की ऐसी वाणी, जिसे सुन कर इस्राएली यह विनय करते थे कि वह फिर हम से कुछ न कहे;
20) क्योंकि वे इस आदेश से घबरा गये- यदि जानवर भी इस पर्वत का स्पर्श करेगा, तो वह पत्थरों से मारा जायेगा।
21) वह दृश्य इतना भयानक था कि मूसा बोल उठे, ''मैं भय से काँप रहा हूँ''।
22) आप लोग सियोन पर्वत, जीवन्त ईश्वर के नगर, स्वर्गिक येरुसालेम के पास पहुँचे, जहाँ लाखों स्वर्गदूत,
23) स्वर्ग के पहले नागरिकों का आनन्दमय समुदाय, सबों का न्यायकर्ता ईश्वर, धर्मियों की पूर्णता-प्राप्त आत्माएँ
24) और नवीन विधान के मध्यस्थ ईसा विराजमान हैं, जिनका छिड़काया हुआ रक्त हाबिल के रक्त से कहीं अधिक कल्याणकारी है।
25) आप लोग सावधान रहें। आप बोलने वाले की बात सुनना अस्वीकार नहीं करें। जिन लोगों ने पृथ्वी पर चेतावनी देने वाले की वाणी को अनसुना कर दिया था, यदि वे नहीं बच सके, तो हम कैसे बच सकेंगे, यदि हम स्वर्ग से चेतावनी देने वाले की वाणी अनसुनी कर देंगे?
26) उस समय उसकी वाणी ने पृथ्वी को हिला दिया था; किन्तु अब वह यह घोषित करता है - मैं एक बार और न केवल पृथ्वी को, बल्कि स्वर्ग को भी हिलाऊँगा।
27) 'एक बार और' - इन शब्दों से यह संकेत मिलता है कि सृष्टि की जो चीजे हिलायी जायेंगी, वे नष्ट हो जायेंगी और जो नहीं हिलायी जायेंगी, वे बनी रहेंगी।
28) हमें जो राज्य मिला है, वह नहीं हिलाया जा सकता, इसलिए हम ईश्वर को धन्यवाद देते रहें और उसकी इच्छानुसार भक्ति एवं श्रद्धा के साथ उसकी सेवा करते रहें;
29) क्योंकि हमारा ईश्वर भस्म कर देने वाली अग्नि हैं।

अध्याय 13

1) आप का भ्रातृप्रेम बना रहे। आप लोग आतिथ्य-सत्कार नहीं भूलें,
2) क्योंकि इसी के कारण कुछ लोगों ने अनजाने ही अपने यहाँ स्वर्गदूतों का सत्कार किया है।
3) आप बन्दियों की इस तरह सुध लेते रहें, मानो आप उनके साथ बन्दी हों और जिन पर अत्याचार किया जाता है, उनकी भी याद करें; क्योंकि आप पर भी अत्याचार किया जा सकता है।
4) आप लोगों में विवाह सम्मानित और दाम्पत्य जीवन अदूषित हो; क्योंकि ईश्वर लम्पटों और व्यभिचारियों का न्याय करेगा।
5) आप लोग धन का लालच न करें। जो आपके पास है, उस से सन्तुष्ट रहें; क्योंकि ईश्वर ने स्वयं कहा है - मैं तुम को नहीं छोडूँगा। मैं तुम को कभी नहीं त्यागूँगा।
6) इसलिए हम विश्वस्त हो कर यह कह सकते हैं -प्रभु मेरी सहायता करता है। मनुष्य मेरा क्या कर सकता है?
7) आप लोग उन नेताओं की स्मृति कायम रखें, जिन्होंने आप को ईश्वर का सन्देश सुनाया और उनके जीवन के परिणाम का मनन करते हुए उनके विश्वास का अनुसरण करें।
8) ईसा मसीह एकरूप रहते हैं- कल, आज और अनन्त काल तक।
9) नाना प्रकार के अनोखे सिद्धान्तों के फेर में नहीं पड़ें। उत्तम यह है कि हमारा मन भोजन से नहीं, बल्कि ईश्वर की कृपा से बल प्राप्त करे। भोजन-सम्बन्धी नियमों का पालन करने वालों को इन से कभी कोई लाभ नहीं हुुआ।
10) हमारी भी एक वेदी है। जो तम्बू की धर्मसेवा करते हैं, उन्हें इस वेदी पर से खाने का अधिकार नहीं है।
11) प्र्रधानयाजक जिन बलिपश्ुाओं का रक्त प्रायश्चित के रूप में मन्दिर-गर्भ में चढ़ाता है, उनके शरीर शिविर के बाहर जलाये जाते हैं,
12) ईसा ने फाटक के बाहर दुःख भोगा, जिससे वे अपने रक्त द्वारा जनता को पवित्र करें।
13) इसलिए हम उनके अपमान का भार ढोते हुए फाटक के बाहर उनके पास चलें;
14) क्योंकि इस पृथ्वी पर हमारा कोई स्थायी नगर नहीं। हम तो भविष्य के नगर की खोज में लगे हुए हैं।
15) हम ईसा के द्वारा ईश्वर को स्तुति का बलिदान अर्थात् उसके नाम की महिमा करने वाले होंठों का फल-निरन्तर चढ़ाना चाहते हैं।
16) आप लोग परोपकार और एक दूसरे की सहायता करना कभी नहीं भूलें, क्योंकि इस प्रकार के बलिदान ईश्वर को प्रिय होते हैं
17) आपके नेताओं को दिन-रात आपकी आध्यात्मिक भलाई की चिन्ता रहती है, क्योंकि वे इसके लिए उत्तरदायी हैं। इसलिए आप लोग उनका आज्ञापालन करें और उनके अधीन रहें, जिससे वे अपना कर्तव्य आनन्द के साथ, न कि आहें भरते हुए, पूरा कर सकें; क्योंकि इस से आप को कोई लाभ नहीं होगा।
18) आप हमारे लिए प्रार्थना करें। हमें विश्वास है कि हमारा अन्तःकरण शुद्ध है, क्योंकि हम हर परिस्थिति में सही आचरण करना चाहते हैं।
19) मैं विशेष रूप से इसलिए आप लोगों से प्रार्थना का आग्रह करता हूँ कि मैं शीघ्र ही आप लोगों के पास लौट सकूँ।
20) शान्ति का ईश्वर जिसने शाश्वत विधान के रक्त द्वारा भेड़ों के महान् चरवाहे हमारे प्रभु ईसा को मृतकों में से पुनर्जीवित किया, आप लोगों को समस्त गुणों से सम्पन्न करे, जिससे आप उसकी इच्छा पूरी करें।
21) वह ईसा मसीह द्वारा हम में वह कर दिखाये, जो उसे प्रिय है। उन्हीं मसीह को अनन्त काल तक महिमा! आमेन!
22) भाइयो! आप से अनुरोध है कि आप मेरे इस उपदेश का धीरज के साथ स्वागत करें। मैंने संक्षेप में ही आप को यह पत्र लिखा है।
23) मुझे आप लोगों को एक समाचार सुनाना है। हमारे भाई तिमथी रिहा कर दिये गये हैं। यदि वह समय पर पहुँचेंगे, तो मैं उनके साथ आप से मिलने आऊँगा।
24) आपके सभी नेताओं को और सभी सन्तों को नमस्कार : इटली के भाई आप लोगों को नमस्कार कहते हैं।
25) आप सबों पर कृपा बनी रहे।