1) यह पत्र पौलुस की ओर से है, जो न तो मनुष्यों की ओर से और न किसी मनुष्य द्वारा प्रेरित हुआ है, बल्कि ईसा मसीह द्वारा और पिता-परमेश्वर द्वारा नियुक्त हुआ है, जिसने उन्हें मृतकों में से पुनर्जीवित किया। |
2) मैं और जितने भाई मेरे साथ हैं, गलातियों की कलीसिया का अभिवादन करते हैं। |
3) हमारा पिता ईश्वर और हमारे प्रभु ईसा मसीह आप लोगों को अनुग्रह तथा शान्ति प्रदान करें! |
4) मसीह ने हमारे पापों के कारण अपने को अर्पित किया, जिससे वह हमारे पिता ईश्वर की इच्छानुसार इस पापमय संसार से हमारा उद्धार करें। |
5) उसी को युगयुगों तक महिमा! आमेन! |
6) मुझे आश्चर्य होता है कि जिसने आप लोगों को मसीह के अनुग्रह द्वारा बुलाया, उसे आप इतना शीघ्र त्याग कर एक दूसरे सुसमाचार के अनुयायी बन गये हैं। |
7) दूसरा तो है ही नहीं, किन्तु कुछ लोग आप में अशान्ति उत्पन्न करते और मसीह का सुसमाचार विकृत करना चाहते हैं। |
8) लेकिन जो सुसमाचार मैंने आप को सुनाया, यदि कोई- चाहे वह मैं स्वयं या कोई स्वर्गदूत ही क्यों न हो- उस से भिन्न सुसमाचार सुनाये, तो वह अभिशप्त हो! |
9) मैं जो कह चुका हूँ, वही दुहराता हूँ- जो सुसमाचार आप को मिला है, यदि कोई उस से भिन्न सुसमाचार सुनाये, तो वह अभिशप्त हो! |
10) मैं अब किसका कृपापात्र बनने की कोशिश कर रहा हूँ - मनुष्यों का अथवा ईश्वर का? क्या मैं मनुष्यों को प्रसन्न करना चाहता हूँ? यदि मैं अब तक मनुष्यों को प्रसन्न करना चाहता, तो मैं मसीह का सेवक नहीं होता। |
11) भाइयो! मैं आप लोगों को विश्वास दिलाता हूँ कि मैंने जो सुसमाचार सुनाया, वह मनुष्य-रचित नहीं है। |
12) मैंने किसी मनुष्य से उसे न तो ग्रहण किया और न सीखा, बल्कि उसे ईसा मसीह ने मुझ पर प्रकट किया। |
13) आप लोगों ने सुना होगा कि जब मैं यहूदी धर्म का अनुयायी था, तो मेरा आचरण कैसा था। मैं ईश्वर की कलीसिया पर घोर अत्याचार और उसके सर्वनाश का प्रयत्न करता था। |
14) मैं अपने पूर्वजों की परम्परओं का कट्टर समर्थक था और अपने समय के बहुत-से यहूदियों की अपेक्षा अपने राष्ट्रीय धर्म के पालन में अधिक उत्साह दिखलाता था। |
15) किन्तु ईश्वर ने मुझे माता के गर्भ से ही अलग कर लिया और अपने अनुग्रह से बुलाया था; |
16) इसलिए उसने मुझ पर- और मेरे द्वारा- अपने पुत्र को प्रकट करने का निश्चय किया, जिससे मैं गैर-यहूदियों में उसके पुत्र के सुसमाचार का प्रचार करूँ। इसके बाद मैंने किसी से परामर्श नहीं किया। |
17) और जो मुझ से पहले प्रेरित थे, उन से मिलने के लिए मैं येरुसालेम नहीं गया; बल्कि मैं तुरन्त अरब देश गया और बाद में दमिश्क लौटा। |
18) मैं तीन वर्ष बाद केफ़स से मिलने येरुसालेम गया और उनके साथ पंद्रह दिन रहा। |
19) प्रभु के भाई याकूब को छोड़ कर मेरी भेंट अन्य प्रेरितों में किसी से नहीं हुई। |
20) ईश्वर मेरा साक्षी है कि मैंने आप को जो लिखा है, वह एकदम सच है। |
21) इसके बाद मैं सीरिया और किलिकिया प्रदेश गया। |
22) उस समय यहूदिया की मसीही कलीसियाएं मुझे व्यक्तिगत रूप से नहीं जानती थीं। |
23) उन्होंने इतना ही सुना था कि जो व्यक्ति हम पर अत्याचार करता था, वह अब उस विश्वास का प्रचार कर रहा है, जिसका वह सर्वनाश करने का प्रयत्न करता था |
24) और वे मेरे कारण ईश्वर की स्तुति करती थीं। |
1) इसके चौदह वर्ष बाद मैं बरनाबस के साथ फिर येरुसालेम गया। मैं तीतुस को भी अपने साथ ले गया। |
2) ईश्वर ने मुझ पर प्रकट किया था कि मुझे जाना चाहिए मैंने उन लोगों के सामने अर्थात प्रतिष्ठित व्यक्तियों के सामने एकान्त में वह सुसमाचार प्रस्तुत किया, जिसका प्रचार मैं गैर-यहूदियों के बीच करता हूँं, जिससे ऐसा न हो कि मैं व्यर्थ परिश्रम करूँ या कर चुका होऊँ। |
3) किन्तु उन्होंने तीतुस को, जो मेरे साथ आये थे और यूनानी हैं, इसके लिए बाध्य नहीं किया कि वह अपना खतना कराये। |
4) यह प्रश्न इने-गिने झूठे भाइयों के कारण उठा था, जो अनधिकार ही छिपे-छिपे घुस कर, मसीह से प्राप्त हमारी स्वतंत्रता को छीनना और हमें दासता में डालना चाहते थे। |
5) हम उन लोगों के सामने एक क्षण के लिए भी नहीं झुके। हम सुसमाचार का सत्य आपके लिए पूर्ण रूप से बनाये रखना चाहते थे। |
6) किन्तु जो व्यक्ति प्रतिष्ठित माने जाने थे-उनका कितना महत्व था, इसकी मुझे कोई चिन्ता नहीं; क्योंकि ईश्वर पक्षपात नहीं करता- उन प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने मुझे नये निर्देश नहीं दिये। |
7) उल्टे, उन्होंने मान लिया कि मुझे उसी तरह गैर-यहूदियों में सुसमाचार का प्रचार-कार्य सौंपा गया था, जिस तरह पेत्रुस को यहूदियों में; |
8) क्योंकि जिस ईश्वर ने, पेत्रुस को यहूदियों का धर्मप्रचारक बनने की शक्ति प्रदान की थी, उसी ने मुझे गैर-यहूदियों का धर्मप्रचारक बनने की शक्ति प्रदान की थी। |
9) जो व्यक्ति कलीसिया के स्तम्भ समझे जाते थे- अर्थात् याकूब, केफ़स और योहन-उन्होंने कृपा का वह वरदान पहचाना, जो मुझे मिला है। उन्होंने मुझे और बरनाबस को अपने सहयोगी समझ कर हम से हाथ मिलाया। वे इस बात के लिए सहमत हुए कि हम गैर-यहूदियों के पास जायें और वे यहूदियों के पास। |
10) उनका आग्रह इतना ही था कि हमें दरिद्रों की सुध लेनी चाहिए और इसके लिए मैं स्वयं उत्सुक था। |
11) जब कैफ़स अन्ताखिया आये, तो मैंने उनके मुँह पर उनका विरोध किया, क्योंकि वह गलत रास्ते पर थे। |
12) वह पहले गैर-यहूदियों के साथ खाते थे, किन्तु जब याकूब के यहाँ से कुछ व्यक्ति आये, तो यहूदियों के भय से गैर-यहूदियों से किनारा करने और उन से अलग रहने लगे। |
13) दूसरे यहूदी भाइयों ने भी इस प्रकार का ढोंग रचा, यहाँ तक कि बरनाबस भी उनके ढोंग के कारण भटक गये। |
14) जब मैंने देखा कि उनका आचरण सुसमाचार के सत्य के अनुकूल नहीं है, तो मैंने सबों के सामने कैफ़स से यह कहा, ''यदि आप, जो जन्म से यहूदी हैं, यहूदी रिवाज के अनुसार नहीं, बल्कि गैर-यहूदी रिवाज के अनुसार जीते है, तो आप गैर-यहूदियों को यहूदी रिवाज अपनाने के लिए कैसे बाध्य कर सकते हैं?'' |
15) हम लोग ग़ैर-यहूदी के पापी वंशज नहीं, बल्कि जन्म से यहूदी हैं। |
16) फिर भी, हम जानते हैं कि मनुष्य संहिता के कर्मकाण्ड द्वारा नहीं, बल्कि ईसा मसीह में विश्वास द्वारा पापमुक्त होता है। इसलिए हमने ईसा मसीह में विश्वास किया है, जिससे हमें संहिता के कर्मकाण्ड द्वारा नहीं, बल्कि मसीह में विश्वास द्वारा पाप से मुक्ति मिले; क्योंकि संहिता के कर्मकाण्ड द्वारा किसी को पापमुक्ति नहीं मिलती। |
17) यदि हम, जो मसीह द्वारा पापमुक्ति चाहते हैं, (संहिता की अवज्ञा के कारण) पापी प्रमाणित होते हैं, तो क्या इसका निष्कर्ष यह है कि मसीह पाप को बढ़ावा देते हैं? कभी नहीं! |
18) मैंने जिन चीजों का विनाश किया है, यदि मैं उनका पुनर्निर्माण करूँगा, तो अपने को अवश्य अपराधी प्रमाणित करूँगा; |
19) क्योंकि संहिता के अनुसार मैं संहिता की दृष्टि में मर गया हूँ, जिससे मैं ईश्वर के लिए जी सकूँ। मैं मसीह के साथ क्रूस पर मर गया हूँ। |
20) मैं अब जीवित नहीं रहा, बल्कि मसीह मुझ में जीवित हैं। अब मैं अपने शरीर में जो जीवन जीता हूँ, उसका एकमात्र प्रेरणा-स्रोत है-ईश्वर के पुत्र में विश्वास, जिसने मुझे प्यार किया और मेरे लिए अपने को अर्पित किया। |
21) मैं ईश्वर के अनुग्रह का तिरस्कार नहीं कर सकता। यदि संहिता द्वारा पापमुक्ति मिल सकती है, तो मसीह व्यर्थ ही मरे। |
1) नासमझ गलातियों! किसने आप लोगों पर जादू डाला है? आप लोगों को तो सुस्पष्ट रूप से यह दिखलाया गया कि ईसा मसीह क्रूस पर आरोपित किये गये थे। |
2) मैं आप लोगों से इतना ही जानना चाहता हूँ - आप को संहिता के कर्मकाण्ड के कारण आत्मा का वरदान मिला या सुसमाचार के सन्देश पर विश्वास करने के कारण? |
3) क्या आप लोग इतने नासमझ हैं कि आपने जो कार्य आत्मा द्वारा प्रारम्भ किया, उसे अब शरीर द्वारा पूर्ण करना चाहते हैं? |
4) क्या आप लोगों को व्यर्थ ही इतने वरदान प्राप्त हुए? मुझे ऐसा विश्वास नहीं है। |
5) जब ईश्वर आप लोगों को आत्मा का वरदान देता है और आपके बीच चमत्कार दिखाता है, तो क्या वह संहिता के कर्मकाण्ड के कारण ऐसा करता है या इसलिए कि आप सुसमाचार के सन्देश पर विश्वास करते है? |
6) इब्राहीम ने ईश्वर में विश्वास किया और इसी से वह धार्मिक माने गये, |
7) इसलिए आप लोग यह निश्चित रूप से जान लें कि जो लोग विश्वास करते हैं, वे ही इब्राहीम की सन्तान हैं। |
8) धर्मग्रन्थ पहले से यह जानता था कि ईश्वर विश्वास द्वारा गैर-यहूदियों को पापमुक्त करेगा, इसलिए उसने पहले से इब्राहीम को यह सुसमाचार सुनाया कि तुम्हारे द्वारा पृथ्वी भर के राष्ट्र आशीर्वाद प्राप्त करेंगे। |
9) इसलिए जो विश्वास पर निर्भर रहते हैं, विश्वास करने वाले इब्राहीम के साथ ही आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। |
10) परन्तु जो संहिता के कर्मकाण्ड पर निर्भर रहते है, वे शाप के अधीन हैं; क्योंकि लिखा है- जो व्यक्ति संहिता-ग्रन्थ में लिखी हुई सभी बातों का पालन नहीं करता रहता है, वह शापित है। |
11) यह तो स्पष्ट है कि कोई संहिता के कारण ईश्वर की दृष्टि में धार्मिक नहीं होता; क्योंकि लिखा है- धार्मिक मनुष्य अपने विश्वास के द्वारा जीवन प्राप्त करेगा। |
12) और संहिता का विश्वास से कोई सम्बन्ध नहीं है; क्योंकि उस में लिखा है-जो इन बातों का पालन करेगा, उसे इन्हीं के द्वारा जीवन प्राप्त होगा। |
13) मसीह हमारे लिए शापित बने और इस तरह उन्होंने हम को संहिता के अभिशाप से मुक्त किया; क्योंकि लिखा है- जो काठ पर लटकाया जाता है, वह शापित है। |
14) यह इसलिए हुआ कि ईसा मसीह के द्वारा इब्राहीम का आशीर्वाद ग़ैर-यहूदियों को भी प्राप्त हो और हमें विश्वास द्वारा वह आत्मा मिले, जिसकी प्रतिज्ञा की गयी थी। |
15) भाइयो! मैं आप लोगों को साधारण जीवन का उदाहरण दे रहा हूँ। कोई व्यक्ति किसी मनुष्य का प्रामाणिक वसीयतनामा न तो रद्द कर सकता और न उस में कुछ जोड़ सकता है। |
16) अब प्रतिज्ञाएँ इब्राहीम और उनके वंशज को दी गयी हैं। धर्मग्रन्थ नहीं कहता- उनके वंशजों को, मानो बहुतों को, बल्कि उनके वशंज को, मानो एक को ही, और वह वंशज मसीह हैं। |
17) मेरे कहने का अभिप्राय यह है- जो वसीयतनामा ईश्वर द्वारा प्रमाणित किया जा चुका है, उसे चार सौ वर्ष बाद की संहिता न तो रद्द कर सकती और न उसकी प्रतिज्ञाएँ उठा सकती हैं। |
18) यदि संहिता के माध्यम से वसीयत प्राप्त होती है, तो प्रतिज्ञा से उसका कोई सम्बन्ध नहीं; किन्तु प्रतिज्ञा द्वारा ही ईश्वर ने उसे इब्राहीम को दिया। |
19) तब संहिता का प्रयोजन क्या है? जिस वंशज को प्रतिज्ञा दी गयी थी, उसके आने के समय तक संहिता अपराधों के कारण जोड़ दी गयी थी। वह स्वर्गदूतों द्वारा एक मध्यस्थ के माध्यम से घोषित की गयी है। |
20) वह मध्यस्थ एक की ओर से नहीं, अनेकों की ओर से मध्यस्थता करता थाः किन्तु ईश्वर एक है। |
21) तो क्या संहिता और प्रतिज्ञाओं में विरोध है? कभी नहीं! यदि ऐसी संहिता की घोषणा हुई होती, जो जीवन प्रदान करने में समर्थ थी, तो संहिता के पालन द्वारा ही पापमुक्ति मिलती। |
22) परन्तु धर्मग्रन्थ ने सब कुछ पाप के अधीन कर दिया है, जिससे ईसा मसीह में विश्वास के द्वारा विश्वास करने वालों के लिए प्रतिज्ञा पूरी की जाये। |
23) विश्वास के आगमन से पहले हम को उसके प्रकट होने के समय तक संहिता के निरीक्षण में बन्दी बना दिया गया था। |
24) इस प्रकार जब तक मसीह नहीं आये और हम विश्वास के द्वारा धार्मिक नहीं बने, तब तक संहिता हमारी निरीक्षक रही। |
25) किन्तु अब विश्वास आया है और हम निरीक्षक के अधीन नहीं रहे। |
26) क्योंकि आप लोग सब-के-सब ईसा मसीह में विश्वास करने के कारण ईश्वर की सन्तति हैं; |
27) क्योंकि जितने लोगों ने मसीह का बपतिस्मा ग्रहण किया, उन्होंने मसीह को धारण किया है। |
28) अब न तो कोई यहूदी और न यूनानी, न तो कोई दास है और न स्वतन्त्र, न तो कोई पुरुष है और न स्त्री-आप सब ईसा मसीह में एक हो गये हैं। |
29) यदि आप लोग मसीह के है, तो इब्राहीम की सन्तान है और प्रतिज्ञा के अनुसार उनके उत्तराधिकारी। |
1) मेरे कहने का अभिप्राय यह है -जब उत्तराधिकारी अवयस्क है, वह सारी सम्पत्ति का स्वामी होते हुए भी दास से किसी तरह भिन्न नहीं। |
2) वह पिता द्वार निर्धारित समय तक अभिभावकों और कारिन्दों के अधीन है। |
3) इसी तरह, जब तक हम अवयस्क थे, तब तक संसार के तत्वों के अधीन थे; |
4) किन्तु समय पूरा हो जाने पर ईश्वर ने अपने पुत्र को भेजा। वह एक नारी से उत्पन्न हुए और संहिता के अधीन रहे, |
5) जिससे वह संहिता क अधीन रहने वालों को छुड़ा सकें और हम ईश्वर के दत्तक पुत्र बन जायें। |
6) आप लोग पुत्र ही हैं। इसका प्रमाण यह है कि ईश्वर ने हमारे हृदयों में अपने पुत्र का आत्मा भेजा है, जो यह पुकार कर कहता है -''अब्बा! पिता!'' इसलिए अब आप दास नहीं, पुत्र हैं और पुत्र होने के नाते आप ईश्वर की कृपा से विरासत के अधिकारी भी हैं। |
7) इसलिए अब आप दास नहीं, पुत्र हैं और पुत्र होने के नाते आप ईश्वर की कृपा से विरासत के अधिकारी भी हैं। |
8) आप लोग पहले, जब आप को ईश्वर का ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ था, ऐसे देवताओं की दासता स्वीकार करते थे, जो वास्तव में देवता नहीं है। |
9) किन्तु अब आप ईश्वर को पहचान चुके हैं या यों कहें कि ईश्वर ने आप को अपनाया है, तो आप कैसे फिर उन अशक्त एवं असार तत्वों की शरण ले सकते हैं? क्या आप फिर उनकी दासता स्वीकार करना चाहते हैं? |
10) आप लोग विशेष दिन, महीने, ऋतुएँ और वर्ष मनाते रहते हैं। |
11) मुझे आशंका है- कहीं ऐसा न हो कि मैंने आप लोगों के बीच व्यर्थ परिश्रम किया हो। |
12) भाइयो! आप मुझ-जैसे बनें, जिस तरह मैं आप लोगों-जैसा बन गया हूँ- यही आप से मेरा अनुरोध है। आप लोगों ने मेरे साथ कोई अन्याय नहीं किया। |
13) आप जानते है। कि अस्वस्थ होने के कारण मुझे आप को पहली बार सुसमाचार सुनाने का अवसर मिला। |
14) यद्यपि मैं अपने शरीर की दुर्बलता के कारण आप लोगों के लिए भार बना, फिर भी आपने न तो मेरा तिरस्कार किया और न मेरे प्रति घृणा प्रकट की, बल्कि आपने मेरा ऐसा स्वागत किया, मानो मैं ईश्वर का दूत या स्वयं ईसा मसीह था। |
15) उस समय आप लोग अपने को धन्य समझते थे। अब आप लोगों का वह मनोभाव कहाँ गया? मैं आपके विषय में यह कह सकता हूँ कि यदि सम्भव होता, तो आप अपनी आँखें निकल कर मुझे दे देते। |
16) क्या मैं अब आपका शत्रु इसलिए बन गया हूँ कि मैं सत्य बोलता हूँ? |
17) जो लोग आपकी कृपा प्राप्त करने में लगे हुए हैं, वे अच्छे उद्देश्य से ऐसा नहीं कर रहे हैं। वे आप को मसीह से अलग करना चाहते हैं, जिससे आप उनके अनुयायी बनें। |
18) चाहे मैं आपके साथ विद्यमान होऊँ या दूर होऊँ, यह अच्छी बात है कि लोग हर समय आपकी कृपा चाहते हैं, बशर्ते वे किसी अच्छे उद्देश्य से प्रेरित हों। |
19) मेरे प्रिय बच्चों! जब तक तुम में मसीह का स्वरूप नहीं बन पाया है, तब तक मैं तुम्हारे लिए फिर प्रसवपीड़ा सहता हूँ। |
20) मैं कितना चाहता हूँ कि मैं अभी तुम्हारे बीच विद्यमान होता, जिससे मैं उपयुक्त भाषा का व्यवहार कर सकूँ; क्योंकि समझ में नहीं आता कि मैं तुम से क्या कहूँ। |
21) तुम, जो संहिता के अधीन रहना चाहते हो, मुझे यह बताओ - क्या तुम यह नहीं सुनते कि संहिता क्या कहती है? |
22) उस में लिखा है कि इब्राहीम के दो पुत्र थे - एक दासी से और एक स्वतन्त्र पत्नी से। |
23) दासी के पुत्र का जन्म प्रकृति के अनुसार हुआ, किन्तु स्वतन्त्र पत्नी के पुत्र का जन्म प्रतिज्ञा के अनुसार। |
24) इन बातों का एक लाक्षणिक अर्थ है। वे दो स्त्रियाँ दो विधानों की प्रतीक हैं। एक अर्थात् सीनई पर्वत का विधान दासता के लिए सन्तति उत्पन्न करता है - यह हागार है, |
25) क्योंकि सीनई अरब में है। हागार वर्तमान येरुसालेम की प्रतीक है, क्योंकि येरुसालेम अपनी सन्तति के साथ दासता के अधीन है। |
26) किन्तु दिव्य येरुसालेम स्वतन्त्र है। वही हमारी माता है; |
27) क्योंकि लिखा है - वन्ध्या! तुमने कभी पुत्र नहीं जना, अब आनन्द मनाओ। तुमने प्रसव-पीड़ा का अनुभव नहीं किया, उल्लास के गीत गाओ; क्योंकि विवाहिता की अपेक्षा परित्यक्ता के अधिक पुत्र होंगे। |
28) भाइयो! इसहाक की तरह आप लोगों का जन्म भी प्रतिज्ञा के अनुसार हुआ है। |
29) किन्तु जिसका जन्म प्रकृति के अनुसार हुआ, वह उस पर अत्याचार करता था, जिसका जन्म आत्मा के अनुसार हुआ था। अब भी ऐसा ही होता है; |
30) किन्तु धर्मग्रन्थ क्या कहता है? - दासी और उसके पुत्र को घर से निकाल दीजिए। दासी का पुत्र स्वतन्त्र पत्नी के पुत्र के साथ विरासत का अधिकारी नहीं होगा। |
31) इसलिए भाइयो! हम दासी की नहीं, बल्कि स्वतन्त्र पत्नी की सन्तति हैं। |
1) मसीह ने स्वतन्त्र बने रहने के लिए ही हमें स्वतन्त्र बनाया, इसलिए आप लोग दृढ़ रहें और फिर दासता के जुए में नहीं जुतें। |
2) मैं, पौलुस, आप लोगों से यह कहता हूँ- यदि आप ख़तना करायेंगे, तो आप को मसीह से कोई लाभ नहीं होगा। |
3) मैं ,खतना कराने वाले हर एक व्यक्ति से फिर कहता हूँ कि उसे समस्त संहिता का पालन करना है। |
4) यदि आप अपनी धार्मिकता के लिए संहिता पर निर्भर रहना चाहते हैं, तो आपने मसीह से अपना सम्बन्ध तोड़ लिया और ईश्वर की कृपा को खो दिया है। |
5) हम तो उस धार्मिकता की तीव्र अभिलाषा करते हैं; जो विश्वास पर आधारित हैं और आत्मा द्वारा प्राप्त होती है। |
6) यदि हम ईसा मसीह से संयुक्त हैं तो न ख़तने का कोई महत्व है और न उसके अभाव का। महत्व विश्वास का है, जो प्रेम से अनुप्रेरित है। |
7) आप लोग अच्छी प्रगति कर रहे थे। आप को किसने सत्य के मार्ग पर आगे बढ़ने से रोका? उस व्यक्ति ने जो भी तर्क दिया हो, |
8) वह तर्क ईश्वर की ओर से नहीं आया, जो आप लोगों को बुलाता है। |
9) याद रखें, थोड़ा सा ख़मीर सारे सने हुए आटे को ख़मीर बना देता है। |
10) मुझे प्रभु में आप लोगों पर यह भरोसा है कि आप विचलित नहीं होंगे। जो व्यक्ति आप लोगों में अशान्ति उत्पन्न करता है, वह, चाहे जो भी हो, ईश्वर का दण्ड भोगेगा। |
11) भाइयो! यदि मैं अब तक खतने का प्रचार करता, तो मुझ पर अब तक अत्याचार क्यों किया जा रहा है? यदि मैं ऐसा करता, तो क्रूस के कारण जो बाधा होती है, वह समाप्त हो जाती। |
12) अच्छा यही होता है कि जो लोग आप में अशान्ति उत्पन्न करते हैं, वे अपने को नपुंसक बना लेते! |
13) भाइयो! आप जानते हैं कि आप लोग स्वतन्त्र होने के लिए बुलाये गये हैं। आप सावधान रहें, नहीं तो यह स्वतन्त्रता भोग-विलास का कारण बन जायेगी। |
14) आप लोग प्रेम से एक दूसरे की सेवा करें, क्योंकि एक ही आज्ञा में समस्त संहिता निहित है, और वह यह है- अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो। |
15) यदि आप लोग एक दूसरे को काटने और फाड़ डालने की चेष्टा करेंगे, तो सावधान रहें। कहीं ऐसा न हो कि आप एक दूसरे का सर्वनाश करें। |
16) मैं यह कहना चाहता हूँ- आप लोग आत्मा की प्रेरणा के अनुसार चलेंगे, तो शरीर की वासनाओं को तृप्त नहीं करेंगे। |
17) शरीर तो आत्मा शरीर के विरुद्ध। ये दोनों एक दूसरे के विराधेी हैं। इसलिए आप जो चाहते हैं, वही नहीं कर पाते हैं। |
18) यदि आप आत्मा की प्रेरणा के अनुसार चलते है, तो संहिता के अधीन नहीं हैं। |
19) शरीर के कुकर्म प्रत्यक्ष हैं, अर्थात् व्यभिचार, अशुद्धता, लम्पटता, |
20) मूर्तिपूजा, जादू-टोना, बैर, फूट, ईर्ष्या, क्रोध, स्वार्थ-परता, मनमुटाव, दलबन्दी, |
21) द्वेष, मतवालापन, रंगरलियाँ और इस प्रकार की और बातें। मैं आप लोगों से कहता हूँ जैसा कि मैंने पहले भी कहा- जो इस प्रकार का आचरण करते हैं, वे ईश्वर के राज्य के अधिकारी नहीं होंगे। |
22) परन्तु आत्मा का फल है-प्रेम, आनन्द, शान्ति, सहनशीलता, मिलनसारी, दयालुता ईमानदारी, |
23) सौम्यता और संयम। इनके विरुद्ध कोई विधि नहीं है। |
24) जो लोग ईसा मसीह के हैं, उन्होंने वासनाओं तथा कामनाओं-सहित अपने शरीर को क्रूस पर चढ़ा दिया है। |
25) यदि हमें आत्मा द्वारा जीवन प्राप्त हो गया है, तो हम आत्मा के अनुरूप जीवन बितायें। |
26) हम मिथ्याभिमानी न बनें, एक दूसरे को न छेडंे और एक दूसरे से ईर्ष्या न करें। |
1) भाइयो! यदि यह पता चले कि किसी ने कोई अपराध किया है, तो आप लोग, जो आध्यात्मिक हैं, उसे नम्रतापूर्वक सुधारें। आप स्वयं सावधान रहें : कहीं ऐसा न हो कि आप भी प्रलोभन में पड़ जाये। | ||
2) ऐसे भारी बोझ ढोने में एक दूसरे की सहायता करें और इस प्रकार मसीह की विधि पूरी करें। | ||
3) क्योंकि यदि कोई समझता है कि मैं कुछ हूँ, जब कि वह कुछ नहीं है, तो वह अपने को धोखा देता है। | ||
4) हर एक अपने आचरण की जाँच करे। यदि वह इस पर गर्व कर सकता है, तो वह किसी दूसरे के कार्य पर नहीं, बल्कि अपने पर गर्व कर सकेगा; | ||
5) क्योंकि हर एक को अपना बोझ ढोना पड़ता है। | ||
6) जो वचन की शिक्षा पा रहा है, वह अपनी सम्पत्ति का कुछ भाग अपने शिक्षक को अर्पित करे। | ||
7) धोखे में न रहें! ईश्वर का उपहास नहीं किया जा सकता। मनुष्य जो बोता हे वही लुनता है। | ||
8) जो अपने शरीर की भूमि में बोता है, वह अपने शरीर की भूमि में विनाश की फसल लुनेगा; किन्तु जो आत्मा की भूमि में बोता है, वह आत्मा की भूमि में अनन्त जीवन की फसल लुनेगा। | ||
9) हम भलाई करते-करते हिम्मत न हार बैठें; क्योंकि यदि हम दृढ़ बनें रहेंगे, तो समय आने पर अवश्य फसल लुनेंगे। | ||
10) इसलिए जब तक हमें अवसर मिल रहा है, हम सबों की भलाई करते रहें, विशेष रूप से उन लोगों की, जो विश्वास के कारण हमारे सम्बन्धी हैं। | ||
11) इन बड़े-बड़े अक्षरों को देखिए- मैं अपने हाथ से लिख रहा हूँ। | ||
12) जो लोग खतने के लिये आप को बाध्य करते हैं, वे संसार की लोकप्रियता प्राप्त करना चाहते हैं; कहीं ऐसा न हो कि मसीह के क्रूस के कारण उन पर अत्याचार किया जाये। | ||
13) क्योंकि जो लोग अपना खतना कराते हैं, वे स्वयं संहिता का पालन नहीं करते; बल्कि वे आपका खतना कराना चाहते हैं, जिससे वे इस बात पर गर्व कर सकें कि आपने अपने शरीर में इस धर्मविधि को स्वीकार किया है। | ||
14) मैं केवल हमारे प्रभु ईसा मसीह के क्रूस पर गर्व करता हूँ। उन्हीं के कारण संसार मेरी दृष्टि में मर गया है और मैं संसार की दृष्टि में। | ||
15) किसी का खतना हुआ हो या नहीं, इसका कोई महत्व नहीं। महत्व इस बात का है कि हम पूर्ण रूप से नयी सृष्टि बन जाये। | ||
16) इस सिद्धान्त के अनुसार चलने वालों को और ईश्वर के इस्राएल को शान्ति और दया मिले! | ||
17) अब से कोई मुझे तंग न करें। ईसा के चिन्ह मेरे शरीर पर अंकित हैं। | ||
18) भाइयो! हमारे प्रभु ईसा मसीह की कृपा आप लोगों पर बनी रहे! आमेन। | ||
An endeavour by Bible Mitr under the patronage
of
Bhopal Archdiocese |