पवित्र बाइबिल : Pavitr Bible ( The Holy Bible )

नया विधान : Naya Vidhan ( New Testament )

कुरिन्थियों के नाम सन्त पौलुस का दूसरा पत्र ( 2 Corinthians )

अध्याय 1

1) कुरिन्थ में ईश्वर की कलीसिया तथा समस्त अख़ैया में रहने वाले सभी सन्तों के नाम पौलुस, जो ईश्वर द्वारा ईसा मसीह का प्रेरित नियुक्त हुआ है, और भाई तिमथी का पत्र।
2) हमारा पिता ईश्वर, और प्रभु ईसा मसीह आप लोगों को अनुग्रह तथा शान्ति प्रदान करें।
3) धन्य है ईश्वर, हमारे प्रभु ईसा मसीह का पिता, परमदयालु पिता और हर प्रकार की सान्त्वना का ईश्वर।
4) वह सारी दुःख तकलीफ़ में हम को सान्त्वना देता रहता है, जिसमें ईश्वर की ओर से हमें जो सान्त्वना मिलती है, उसके द्वारा हम दूसरों को भी, उनकी हर प्रकार की तकलीफ में सान्त्वना देने के लिए समर्थ हो जायें;
5) क्योंकि जिस प्रकार हम प्रचुर मात्रा में मसीह के दुःख-भोग के सहभागी हैं, उसी प्रकार मसीह द्वारा हम को प्रचुर मात्रा में सान्त्वना भी मिलती है।
6) यदि हमें दुःख भोगना पड़ता है, तो आप लोगों की सान्त्वना और मुक्ति के लिए, और यदि हमें सान्त्वना मिलती है, तो इसलिए की हम आप लोगों को सान्त्वना दे सकें, जिससे आप धैर्य के साथ वह दुःख सहने में समर्थ हों, जिसे हम भोगते हैं।
7) आप लोगों के विषय में हमारी आशा सुदृढ़ है; क्योंकि हम जानते हैं कि जिस प्रकार आप हमारे दुःख के भागी हैं, उसी प्रकार आप हमारी सान्त्वना के भी भागी होंगे।
8) भाइयो! हम आप लोगों से यह नहीं छिपाना चाहते कि एशिया में जो कष्ट हमें सहना पड़ा, वह बहुत ही भारी और हमारी सहनशक्ति के परे था- यहाँ तक कि हमने जीवित रहने की आशा भी छोड़ दी थी
9) और हम यह समझ रहे थे कि हमें प्राणदण्ड मिल चुका है। यह इसलिए हुआ कि हम अपने पर नहीं, बल्कि ईश्वर पर भरोसा रखें, जो मृतकों को पुनर्जीवित करता है।
10) उसने हमें उस महान् संकट से बचाया और वह ऐसा ही करता रहेगा। उस पर हमारी यह आशा आधारित है कि वह भविष्य में भी हमें बचायेगा।
11) आप लोग प्रार्थना द्वारा हमारी सहायता करें। इस प्रकार हमें जो वरदान मिलता है, उसके लिए बहुत-से लोग ईश्वर से प्रार्थना भी करेंगे और उसे धन्यवाद भी देंगे।
12) हमें एक बात का गर्व है - हमारा अन्तःकरण हमें विश्वास दिलाता है कि हम ने मनुष्यों के साथ और विशेष कर आप लोगों के साथ जो व्यवहार किया है, वह संसार की बुद्धिमानी के अनुसार नहीं, बल्कि उस सच्चाई और ईमानदारी के अनुसार था, जो ईश्वर की कृपा का वरदान है।
13) (१३-१४) हम आपके नाम जो पत्र लिखते हैं, उन में ऐसी कोई बात नहीं है, जिसे पढ़ कर आप नहीं समझ सकते। मुझे आशा है कि आप जो बात अब आंशिक रूप में समझते हैं, उसे बाद में पूर्ण रूप में समझेंगे और वह बात यह है कि जिस तरह आप प्रभु ईसा के आगमन के दिन हम पर गर्व करेंगे, उसी तरह हम भी आप लोगों पर।
15) मुझे इसका पूरा भरोसा है, इसलिए मैंने आप लोगों को दो बार आध्यात्मिक लाभ का अवसर देने के विचार से पहले आपके पास आने का निश्चय किया था।
16) मैं आप के यहाँ हो कर मकेदूनिया जाना और वहाँ से आपके पास लौटना चाहता था जिससे आप मेरी यहूदिया-यात्रा का प्रबन्ध करें।
17) मेरा निश्चय यही था तो, क्या मैंने अकारण ही अपना विचार बदल लिया? क्या मैं सांसारिक मनुष्यों की तरह निश्चय करता हूँ? क्या मुझ में कभी 'हाँ' और कभी 'नहीं'-जैसी बात है?
18) ईश्वर की सच्चाई की शपथ! मैंने आप लोगों को जो सन्देश दिया, उस में कभी 'हाँ' और कभी 'नहीं'-जैसी बात नहीं है;
19) क्योंकि सिल्वानुस, तिमथी और मैंने आपके बीच जिनका प्रचार किया, उन ईश्वर के पुत्र ईसा मसीह में कभी 'हाँ' और कभी 'नहीं'-जैसी बात नहीं - उन में मात्र 'हाँ' है।
20) उन्हीं में ईश्वर की समस्त प्रतिज्ञाओं की 'हाँ' विद्यमान है, इसलिए हम ईश्वर की महिमा के लिए उन्हीं के द्वारा 'आमेन' कहते हैं।
21) ईश्वर आप लोगों के साथ हम को मसीह में सुदृढ़ बनाये रखता है और उसी ने हमारा अभिषेक किया है।
22) उसी ने हम पर अपनी मुहर लगायी और अग्रिम के रूप में हमारे हृदयों को पवित्र आत्मा प्रदान किया है।
23) मैं ईश्वर को साक्षी बना कर अपने जीवन की शपथ खा कर कहता हूँ- मैं इसलिए अब तक कुरिन्थ नहीं आया कि मैं आप लोगों को दुःख देना नहीं चाहता था।
24) आपके विश्वास पर मनमाना अधिकार जताना हमारा उद्देश्य नहीं है। हम आप लोगों की सुख-शान्ति के लिए आपके सहयोगी हैं और आप लोग तो यों भी विश्वास में दृढ़ हैं।

अध्याय 2

1) इसलिए मैंने निश्चय किया कि मैं फिर अप्रिय परिस्थिति में आपके यहाँ नहीं आऊँगा।
2) यदि मैं आप को दुःख देता हूँ, तो कौन मुझे प्रसन्न कर सकता है? जिसे मैंने दुःख दिया है, वही ऐसा कर सकता है।
3) मैंने वह पत्र इसलिए लिखा कि मेरे आगमन पर कहीं ऐसा न हो कि जिन लोगों से मुझे आनन्द मिलना चाहिए, वे मुझे दुःखी बनायें; क्योंकि आप सबों के विषय में मेरा दृढ़ विश्वास है कि मेरा आनन्द आप सबों का भी पसन्द है।
4) मैंने बड़े कष्ट में, हृदय की गहरी वेदना सहते हुए और आँसू बहा-बहा कर वह पत्र लिखा। मैंने आप लोगों को दुःख देने के लिए नहीं लिखा बल्कि इसलिए कि आप यह जान जायें कि मैं आप लोगों को कितना अधिक प्यार करता हूँ।
5) यदि किसी ने दुःख दिया है, तो उसने मुझे नहीं, बल्कि एक प्रकार से आप सबों को दुःख दिया है, हालाँकि हमें इस बात को अधिक महत्व नहीं देना चाहिए।
6) आप लोगों के समुदाय ने उस व्यक्ति को जो दण्ड दिया है, वह पर्याप्त है।
7) अब आप को उसे क्षमा और सान्त्वना देनी चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि वह दुःख में डूब जाये।
8) इसलिए मैं आप से निवेदन करता हूँ कि आप उसके प्रति प्रेम दिखाने का निर्णय करें।
9) मैंने आपकी परीक्षा लेने के उद्देश्य से भी लिखा था। मैं यह जानना चाहता था कि आप सभी बातों में आज्ञाकारी हैं या नहीं।
10) जिसे आप क्षमा करते हैं, उसे मैं भी क्षमा करता हूँ। जहाँ तक मुझे क्षमा करनी थी, मैंने आप लोगों के कारण मसीह के प्रतिनिधि के रूप में क्षमा प्रदान की है;
11) क्योंकि हम शैतन के फन्दे में नहीं पड़ना चाहते हैं। हम उसकी चाले अच्छी तरह जानते हैं।
12) मैं मसीह के सुसमाचार का प्रचार करते त्रोआस पहुँचा और वहाँ प्रभु के कार्य के लिए द्वार खुला हुआ था।
13) फिर भी मेरे मन को शान्ति नहीं मिली, क्योंकि मैंने वहाँ अपने भाई तीतुस को नहीं पाया। इसलिए मैंने वहाँ के लोगों से विदा ले कर मकेदूनिया के लिए प्रस्थान किया।
14) ईश्वर को धन्यवाद, जो हमें निरन्तर मसीह की विजय-यात्रा में ले चलता और हमारे द्वारा सर्वत्र अपने नाम के ज्ञान की सुगन्ध फैलाता है!
15) क्योंकि लोग चाहे मुक्ति प्राप्त करें या विनष्ट हो जायें, हम उनके बीच ईश्वर के लिए मसीह की सुगन्ध है।
16) विनष्ट होने वालों के लिए वह गन्ध घातक हो कर मृत्यु की ओर ले जाती है और मुक्ति प्राप्त करने वालों के लिए वह जीवनदायक हो कर जीवन की ओर ले जाती है। इस कार्य को योग्य रीति से कौन उत्पन्न कर सकता है?
17) हम उन बहुसंख्यक लोगों के समान नहीं हैं, जो ईश्वर के वचन का सौदा करते हैं, बल्कि हम ईश्वर से प्रेरित हो कर और मसीह से संयुक्त रह कर, ईश्वर की आँखों के सामने, सच्चाई से वचन का प्रचार करते हैं।

अध्याय 3

1) क्या हम फिर अपनी प्रशंसा करने लगे? क्या कुछ अन्य लोगों की तरह यह हमारे लिए आवश्यक है कि हम आप को सिफारिशी पत्र दिखायें या आप से माँगे?
2) आप लोग तो हैं- हमारा पत्र, जो हमारे हृदय पर अंकित रहता है और जिसे सब लोग देख और पढ़ सकते हैं।
3) आप लोग निश्चय ही मसीह का वह पत्र हैं, जिसे उन्होंने हम से लिखवाया है। वह पत्र स्याही से नहीं, बल्कि जीवन्त ईश्वर के आत्मा से, पत्थर की पाटियों पर नहीं, बल्कि मानव हृदय की पाटियों पर लिखा हुआ है।
4) हम यह दावा इसलिए कर सकते हैं कि हमें मसीह के कारण ईश्वर पर भरोसा है।
5) इसका अर्थ यह नहीं कि हमारी कोई अपनी योग्यता है। हम अपने को किसी बात का श्रेय नहीं दे सकते। हमारी योग्यता का स्त्रोत ईश्वर है। उसने हमें एक नये विधान के सेवक होने के योग्य बनाया है
6) और यह विधान अक्षरों का नहीं, बल्कि आत्मा का है; क्योंकि अक्षर तो घातक हैं, किन्तु आत्मा जीवनदायक हैं।
7) उस विधान के अक्षर पत्थर पर अंकित थे और उसके द्वारा प्राणदण्ड दिया जाता था। फिर भी उसकी महिमामय घोषणा के फलस्वरूप मूसा का मुखमण्डल इतना दीप्तिमय हो गया था कि इस्राएली उस पर आँख जमाने में असमर्थ थे, यद्यपि मूसा के मुखमण्डल की दीप्ति अस्थायी थी।
8) यदि पुराना विधान इतना महिमामय था, तो आत्मा का विधान कहीं अधिक महिमामय होगा।
9) यदि दोषी ठहराने वाले विधान का सेवा-कार्य इतना महिमामय था, तो दोषमुक्त करने वाले विधान का सेवा-कार्य कहीं अधिक महिमामय होगा।
10) इस वर्तमान परमश्रेष्ठ महिमा के सामने वह पूर्ववर्ती महिमा अब निस्तेज हो गयी है।
11) यदि अस्थायी विधान इतना महिमामय था, तो चिरस्थायी विधान कहीं अधिक महिमामय होगा।
12) अपनी इस आशा के कारण हम बड़ी निर्भीकता से बोलते हैं।
13) हम मूसा के सदृश नहीं हैं। वह अपने मुख पर परदा रखा करते थे, जिससे इस्राएली उनके मुखमण्डल की मन्द हो जाने वाली नश्वर महिमा न देख पायें।
14) इस्राएलियों की बुद्धि कुण्ठित हो गयी थी और आज भी जब प्राचीन विधान पढ़ कर सुनाया जाता है, तो वही परदा लगा रहता है। वह लगा रहता है, क्योंकि उसे मसीह ही हटा सकते हैं।
15) जब मूसा का ग्रन्थ पढ़ कर सुनाया जाता है, तो उनके मन पर आज भी वह परदा पड़ा रहता है।
16) किन्तु जब कोई प्रभु की ओर अभिमुख हो जाता है, तो वह परदा हटा दिया जाता है;
17) क्योंकि प्रभु तो आत्मा है, और जहाँ प्रभु का आत्मा है, वहाँ स्वतन्त्रता है।
18) जहाँ तक हम सबों का प्रश्न है, हमारे मुख पर परदा नहीं है और हम सब दर्पण की तरह प्रभु की महिमा प्रतिबिम्बित करते हैं। इस प्रकार हम धीरे-धीरे उसके महिमामय प्रतिरूप में रूपान्तरित हो जाते हैं और वह रूपान्तरण प्रभु अर्थात् आत्मा का कार्य है।

अध्याय 4

1) ईश्वर की दया ने हमें यह सेवा-कार्य सौंपा है, इसलिए हम कभी हार नहीं मानते।
2) हम लोकलज्जावश कुछ बातें छिपाना नहीं चाहते। हम न तो छल-कपट करते और न ईश्वर का वचन विकृत करते हैं। हम प्रकट रूप से सत्य का प्रचार करते हैं। यही उन सब मनुष्यों के पास हमारी सिफ़ारिश है, जो ईश्वर के सामने हमारे विषय में निर्णय करना चाहते हैं।
3) यदि हमारा सुसमाचार किसी तरह गुप्त या अस्पष्ट है, तो उन लोगों के लिए, जो विनाश के मार्ग पर चलते हैं।
4) इस संसार के देवता ने अविश्वासियों का मन इतना अन्धा कर दिया है कि वे ईश्वर के प्रतिरूप, मसीह के महिमामय सुसमाचार की ज्योति को देखने में असमर्थ हैं।
5) हम अपना नहीं, बल्कि प्रभु ईसा मसीह का प्रचार करते हैं। हम ईसा के कारण अपने को आप लोगों का दास समझते हैं।
6) ईश्वर ने आदेश दिया था कि अन्धकार में प्रकाश हो जाये। उसी ने हमारे हृदयों को अपनी ज्योति से आलोकित कर दिया है, जिससे हम ईश्वर की वह महिमा जान जायें, जो मसीह के मुखमण्डल पर चमकती है।
7) यह अमूल्य निधि हम में-मिट्टी के पात्रों में रखी रहती है, जिससे यह स्पष्ट हो जाये कि यह अलौकिक सामर्थ्य हमारा अपना नहीं, बल्कि ईश्वर का है।
8) हम कष्टों से घिरे रहते हैं, परन्तु कभी हार नहीं मानते, हम परेशान होते हैं, परन्तु कभी निराश नहीं होते।
9) हम पर अत्याचार किया जाता है, परन्तु हम अपने को परित्यक्त नहीं पाते। हम को पछाड़ दिया जाता है, परन्तु हम नष्ट नहीं होते।
10) हम हर समय अपने शरीर में ईसा के दुःखभोग तथा मृत्यु का अनुभव करते हैं, जिससे ईसा का जीवन भी हमारे शरीर में प्रत्यक्ष हो जाये।
11) हमें जीवित रहते हुए ईसा के कारण निरन्तर मृत्यु का सामना करना पड़ता है, जिससे ईसा का जीवन भी हमारे नश्वर शरीर में प्रत्यक्ष हो जाये।
12) इस प्रकार हम में मृत्यु क्रियाशील है और आप लोगों में जीवन।
13) धर्मग्रन्थ कहता है- मैंने विश्वास किया और इसलिए मैं बोला। हम विश्वास के उसी मनोभाव से प्रेरित हैं। हम विश्वास करते हैं और इसलिए हम बोलते हैं।
14) हम जानते हैं कि जिसने प्रभु ईसा को पुनर्जीवित किया, वही ईसा के साथ हम को भी पुनर्जीवित कर देगा और आप लागों के साथ हम को भी अपने पास रख लेगा।
15) सब कुछ आप लोगों के लिए हो रहा है, ताकि जिस प्रकार बहुतों में कृपा बढ़ती जाती है, उसी प्रकार ईश्वर की महिमा के लिए धन्यवाद की प्रार्थना करने वालों की संख्या बढ़ती जाये।
16) यही कारण है कि हम हिम्मत नहीं हारते। हमारे शरीर की शक्ति भले ही क्षीण होती जा रही हो, किन्तु हमारे आभ्यान्तर में दिन-प्रतिदिन नये जीवन का संचार होता रहता है;
17) क्योंकि हमारी क्षण भर की हलकी-सी मुसीबत हमें हमेशा के लिए अपार महिमा दिलाती है।
18) इसलिए हमारी आँखें दृश्य पर नहीं, बल्कि अदृश्य चीजों पर टिकी हुई हैं, क्योंकि हम जो चीजें देखते हैं, वे अल्पकालिक हैं। अनदेखी चीजें अनन्त काल तक बनी रहती है।

अध्याय 5

1) हम जानते हैं कि जब यह तम्बू, पृथ्वी पर हमारा यह घर, गिरा दिया जायेगा, तो हमें ईश्वर द्वारा निर्मित एक निवास मिलेगा। वह एक ऐसा घर है, जो हाथ का बना नहीं है और अनन्त काल तक स्वर्ग में बना रहेगा।
2) इसलिए हम इस शरीर में कराहते रहते और उसके ऊपर अपना स्वर्गिक निवास धारण करने की तीव्र अभिलाषा करते हैं,
3) बशर्ते हम नंगे नहीं, बल्कि वस्त्र पहने पाये जायें।
4) हम इस तम्बू में रहते समय भार से दबते हुए कराहते रहते हैं; क्योंकि हम बिना पुराना उतारे नया धारण करना चाहते हैं, जिससे जो मरणशील है, वह अमर जीवन में विलीन हो जाये।
5) ईश्वर ने स्वयं उस उद्देश्य के लिए हमें गढ़ा है और अग्रिम के रूप में पवित्र आत्मा प्रदान किया है।
6) इसलिए हम सदा ईश्वर का भरोसा रखते हैं। हम यह जानते हैं, कि हम जब तक इस शरीर में हैं, तब तक हम प्रभु से दूर, परदेश में निवास करते हैं;
7) क्योंकि हम आँखों-देखी बातों पर नहीं, बल्कि विश्वास पर चलते हैं। हमें तो ईश्वर पर पूरा भरोसा है।
8) हम शरीर का घर छोड़ कर प्रभु के यहाँ बसना अधिक पसन्द करते हैं।
9) इसलिए हम चाहे घर में हों चाहे परदेश में, हमारी एकमात्र अभिलाषा यह है कि हम प्रभु को अच्छे लगे;
10) क्योंकि हम सबों को मसीह के न्यायासन के सामने पेश किया जायेगा। प्रत्येक व्यक्ति ने शरीर में रहते समय जो कुछ किया है, चाहे वह भलाई हो या बुराई, उसे उसका बदला चुकाया जायेगा।
11) इस कारण प्रभु का भय हम में बना रहता है। हम मनुष्यों को समझाने का प्रयत्न करते हैं। हमारा सारा जीवन ईश्वर के लिए प्रकट है और मैं आशा करता हूँ कि वह आप लोगों के अन्तःकरण के लिए भी प्रकट होगा।
12) हम फिर आप लोगों के सामने अपनी प्रशंसा नहीं करेंगे। हम चाहते हैं कि आप को हम पर गर्व करने का अवसर मिले और आप उन लोगों का मुँह बन्द कर सकें, जो हृदय की बातों पर गर्व करते हैं,
13) यदि हमें अपनी सुध-बुध नहीं रह गयी थी, तो यह ईश्वर के लिए था और यदि हम अब सन्तुलित हैं, तो यह आप लोगों के कल्याण के लिए है;
14) क्योंकि मसीह का प्रेम हमें प्रेरित करता है। हम यह समझ गये हैं, कि जब एक सबों के लिए मर गया, तो सभी मर गये हैं।
15) मसीह सबों के लिए मरे, जिससे जो जीवित है, वे अब से अपने लिए नहीं, बल्कि उनके लिए जीवन बितायें, जो उनके लिए मर गये और जी उठे हैं।
16) इसलिए हम अब से किसी को भी दुनिया की दृष्टि से नहीं देखते। हमने मसीह को पहले दुनिया की दृष्टि से देखा, किन्तु अब हम ऐसा नहीं करते।
17) इसका अर्थ यह है कि यदि कोई मसीह के साथ एक हो गया है, तो वह नयी सृष्टि बन गया है। पुरानी बातें समाप्त हो गयी हैं और सब कुछ नया हो गया है।
18) यह सब ईश्वर ने किया है- उसने मसीह के द्वारा अपने से हमारा मेल कराया और इस मेल-मिलाप का सेवा-कार्य हम प्रेरितों को सौंपा है।
19) इसका अर्थ यह है कि ईश्वर ने मनुष्यों के अपराध उनके ख़र्चे में न लिख कर मसीह के द्वारा अपने साथ संसार का मेल कराया और हमें इस मेल-मिलाप के सन्देश का प्रचार सौंपा है।
20) इसलिए हम मसीह के राजदूत हैं, मानों ईश्वर हमारे द्वारा आप लोगों से अनुरोध कर रहा हो। हम मसीह के नाम पर आप से यह विनती करते हैं कि आप लोग ईश्वर से मेल कर लें।
21) मसीह का कोई पाप नहीं था। फिर भी ईश्वर ने हमारे कल्याण के लिए उन्हें पाप का भागी बनाया, जिससे हम उनके द्वारा ईश्वर की पवित्रता के भागी बन सकें।

अध्याय 6

1) ईश्वर के सहयोगी होने के नाते हम आप लोगों से यह अनुरोध करते हैं कि आप को ईश्वर की जो कृपा मिली है, उसे व्यर्थ न होने दे;
2) क्योंकि वह कहता है - उपयुक्त समय में मैंने तुम्हारी ुसुनी; कल्याण के दिन मैंने तुम्हारी सहायता की। और देखिए, अभी उपयुक्त समय है, अभी कल्याण का दिन है।
3) हम हर बात में इसका ध्यान रखते हैं कि किसी को हमारी ओर उंगली उठाने का अवसर न मिले। कहीं ऐसा न हो कि हमारे सेवा-कार्य पर कलंक लगे।
4) (४-५) हम कष्ट, अभाव, संकट, कोड़ों की मार, कैद और उपद्रव में धीर बने हुए हैं और अथक परिश्रम, जागरण तथा उपवास करते हुए, हर परिस्थिति में, ईश्वर के योग्य सेवक की तरह आचरण करने का प्रयत्न करते हैं।
6) (६-७) हमारी सिफ़ारिश है- निर्दोष, जीवन, अन्तर्दृष्टि, सहनशीलता, मिलनसारी, पवित्र आत्मा के वरदान, निष्कपट प्रेम, सत्य का प्रचार, ईश्वर का सामर्थ्य। हम दाहिने और बायें हाथ में धार्मिकता के शस्त्र लिये संघर्ष करते रहते हैं।
8) सम्मान और अपमान, प्रशंसा और निन्दा- यह सब हमारे भाग्य में है। हम कपटी समझे जाते हैं, किन्तु हम सत्य बोलते हैं।
9) हम नगण्य हैं, किन्तु सब लोग हमें मानते हैं। हम मरने-मरने को हैं, किन्तु हम जीवित हैं। हम मार खाते हैं, किन्तु हमारा वध नहीं होता।
10) हम दुःखी हैं, फिर भी आप हर समय आनन्दित हैं। हम दरिद्र हैं, फिर भी हम बहुतों को सम्पन्न बनाते हैं। हमारे पास कुछ नहीं है; फिर सब कुछ हमारा है।
11) कुरिन्थियो! हमने आप लोगों से खुल कर बातें की हैं। हमने आपके सामने अपना हृदय खोल कर रख दिया है।
12) आप लोगों के प्रति हम में कोई संकीर्णता नहीं है, बल्कि आपके हृदयों में संकीर्णता है।
13) इसके बदले आप भी उदार बनें- यह मैं पिता की तरह अपने बच्चों से कह रहा हूँ।
14) आप लोग अविश्वासियों के साथ बेमेल जूए में मत जुतें। धार्मिकता का अधर्म से क्या सम्बन्ध? ज्योति का अन्धकार से क्या संबंध?
15) मसीह की बेलियार से क्या संगति? विश्वासी की अविश्वासी से क्या सहभागिता?
16) ईश्वर के मन्दिर का देवमूर्तियों से क्या समझौता? क्योंकि हम जीवन्त ईश्वर के मन्दिर हैं, जैसा कि ईश्वर ने कहा है- मैं उनके बीच निवास करूँगा और उनके साथ चलूँगा।
17) मैं उनका ईश्वर होऊँगा और वे मेरी प्रजा होंगे। इसलिए दूसरों के बीच से निकल कर अलग हो जाओ और किसी अपवित्र वस्तु का स्पर्श मत करो- यह प्रभु का कहना है।
18) तब मैं तुम्हें अपनाऊँगा; मैं तुम्हारे लिए पिता-जैसा होऊँगा और तुम मेरे लिए पुत्र-पुत्रियों-जैसे होगे-यह सर्वशक्तिमान प्रभु का कहना है।

अध्याय 7

1) प्रिय भाइयो! हमें इस प्रकार की प्रतिज्ञाएँ मिली हैं। इसलिए हम शरीर और मन के हर प्रकार के दूषण से अपने को शुद्ध करें और ईश्वर पर श्रद्धा रखते हुए पवित्रता की परिपूर्णता तक पहुँचने का प्रयत्न करते रहें।
2) आप हमारे प्रति उदार बनें। हमने किसी के साथ अन्याय नहीं किया, किसी को आर्थिक हानि नहीं पहुँचायी और किसी से अनुचित लाभ नहीं उठाया है।
3) मैं आप लोगों के दोष देने के लिए यह नहीं कह रहा हूँ। मैं तो आप से कह चुका हूँ कि आप हमारे हृदय में घर कर गये हैं- हम जीवन- मरण के साथी हैं।
4) मैं आप लोगों से खुल कर बातें करता हूँ। मैं आप लोगों पर बड़ा गर्व करता हूँ। इस से मुझे भरपूर सान्त्वना मिलती है और मेरे सब कष्टों में आनन्द उमड़ता रहता है।
5) जब हम मकेदूनिया पहुँचे, तो हमें कोई शान्ति नहीं मिल रही थी। हम हर तरह के कष्टों से घिर रहे थे। हमारे चारों ओर संघर्ष थे और हमारे अन्दर आशंकाएँ थीं।
6) किन्तु दीन-हीन लोगों को सान्त्वना देने वाले ईश्वर ने हम को तीतुस के आगमन द्वारा ढारस बँधाया
7) और उनके आगमन द्वारा ही नहीं, बल्कि उस सान्त्वना द्वारा भी, जो उन्हें आप लोगों की ओर से मिली थी। मुझे मिलने की आपकी उत्सुकता, आपका पश्चाताप और मेरे प्रति आपकी चिन्ता-इसके विषय में उन्होंने हम को बताया और इस से मेरा आनन्द और भी बढ़ गया।
8) यद्यपि मैंने अप लोगों को उस पत्र द्वारा दुःख दिया, फिर भी मुझे उस पर खेद नहीं है। मुझे यह देख कर खेद हुआ था कि उस पत्र ने आप को थोड़े समय के लिए दुःखी बना दिया था,
9) किन्तु अब मुझे प्रसन्नता है मुझे इसलिए प्रसन्नता नहीं कि आप लोगों को दुःख हुआ, बल्कि इसलिए कि उस दुःख के कारण आपका हृदय-परिवर्तन हुआ। आप लोगों ने उस दुःख को ईश्वर की इच्छानुसार स्वीकार किया और इस तरह आप को मेरी ओर से कोई हानि नहीं हुई;
10) क्योंकि जो दुःख ईश्वर की इच्छानुसार स्वीकार किया जाता है, उस से ऐसा कल्याणकारी हृदय-परिवर्तन होता है कि खेद का प्रश्न ही नहीं उठता। संसार के दुःख से मृत्यु उत्पन्न होती है।
11) आप देखते हैं कि आपने जो दुःख ईश्वर की इच्छानुसार स्वीकार किया, उस से आप में कितनी चिन्ता उत्पन्न हुई, अपनी सफ़ाई देने की कितनी तत्परता, कितना क्रोध, कितनी आशंका, कितनी अभिलाषा, न्याय करने के लिए कितना उत्साह! इस प्रकार आपने इस मामले में हर तरह से निर्दोष होने का प्रमाण दिया है।
12) वास्तव में मैंने वह पत्र इसलिए नहीं लिखा था कि मुझे अन्याय करने वाले अथवा अन्याय सहने वाले व्यक्ति की अधिक चिन्ता थी, बल्कि इसलिए कि अधिक चिन्ता थी, बल्कि इसलिए कि आप लोग ईश्वर के सामने यह अच्छी तरह समझ लें कि आप लोगों को मेरी कितनी चिन्ता है।
13) इस से हमें सान्त्वना मिली। इस सान्त्वना के अतिरिक्त हम तीतुस आ आनन्द देख कर और भी आनन्दित हो उठे। आप सबों ने उनका मन हरा कर दिया।
14) मैंने उनके सामने आप लोगों पर जो गर्व प्रकट किया था, उसके लिए हम को लज्जित नहीं होना पड़ा। मैंने आप लोगों से जो भी कहा, वह सत्य पर आधारित था। इस प्रकार तीतुस के सामने मैंने आप पर गर्व प्रकट करते हुए जो कहा था, वह सच निकला।
15) जब उन्हें याद आता है कि आप सबों ने उनकी बात मानी और डरते-काँपते हुए उनका स्वागत किया तो, आपके प्रति उनका प्रेम और भी बढ़ जाता है।
16) मैं पूर्ण रूप से आप लोगोें पर भरोसा रखता हूँ -इस से मैं आनन्दित हूँ।

अध्याय 8

1) भाइयो! मैं आप लोगों को उस अनुग्रह के विषय में बताना चाहता हूँ, जिसे ईश्वर ने मकेदूनिया की कलीसियाओं को प्रदान किया है।
2) संकटों की अग्नि-परीक्षा में भी उनका आनन्द अपार रहा और तंगहाली में रहते हुए भी उन्होंने बड़ी उदारता का परिचय दिया है।
3) उन्होंने अपने सामर्थ्य के अनुसार, बल्कि उस से भी अधिक, चन्दा दिया है।
4) उन्होंने स्वयं ही बड़े आग्रह के साथ मुझसे अनुरोध किया कि उन्हें भी सन्तों की सहायता के लिए चन्दा देने का सौभाग्य मिले।
5) वे अपनी उदारता में हमारी आशा से बहुत अधिक आगे बढ़ गये। उन्होंने पहले ईश्वर के प्रति और बाद में, ईश्वर की इच्छा के अनुसार, हमारे प्रति अपने को अर्पित किया।
6) इसलिए हमने तीतुस से अनुरोध किया है कि उन्होंने जिस परोपकार का कार्य प्रवर्तित किया था, वह उस को आप लोगों के बीच पूरा कर दें।
7) आप लोग हर बात में- विश्वास, अभिव्यक्ति, ज्ञान, सब प्रकार की धर्म-सेवा और हमारे प्रति प्रेम में बढ़े-चढ़ें हैं; इसलिए आप लोगों को इस परोपकार में भी बड़ी उदारता दिखानी चाहिए।
8) मैं इस सम्बन्ध में कोई आदेश नहीं दे रहा हूँ, बल्कि दूसरे लोगों की उदारता की चर्चा कर मैं आपके प्रेम की सच्चाई की परीक्षा लेना चाहता हूँ।
9) आप लोग हमारे प्रभु ईसा मसीह की उदारता जानते हैं। वह धनी थे, किन्तु आप लोगों के कारण निर्धन बन गये, जिससे आप उनकी निर्धनता द्वारा धनी बन गये।
10) मैं इस सम्बन्ध में एक सुझाव देता हूँ। आप लोगों ने पिछले वर्ष जो कार्य आरम्भ किया और जिसकी योजना आपने स्वयं बनायी थी, अब उसे पूरा करने में ही आपका कल्याण है।
11) आपने जिस तत्परता से उसका निर्णय किया उसी तत्परता से उसे पूरा करें और अपने सामर्थ्य के अनुसार चन्दा दें।
12) यदि दान देने की उत्सुकता है, तो सामर्थ्य के अनुसार जो कुछ भी दिया जाये, वह ईश्वर को ग्राहय हैं। किसी से यह आशा नहीं की जाती हैं कि वह अपने सामर्थ्य के अधिक चन्दा दे।
13) मैं यह नहीं चाहता कि दूसरों को आराम देने से आप लोगों को कष्ट हो। यह बराबरी की बात है।
14) इस समय आप लोगों की समृद्धि उनकी तंगी दूर करेगी, जिससे किसी दिन उन की समृद्धि आपकी तंगी दूर कर दे और इस तरह बराबरी हो जाये।
15) जैसा कि लिखा है-जिसने बहुत बटोरा था, उसके पास अधिक नहीं निकला और जिसने थोड़ा बटोरा था, उसके पास कम नहीं निकला।
16) ईश्वर को धन्यवाद, जिसने तीतुस के हृदय में आप लोगों के प्रति मेरे-जैसा उत्साह उत्पन्न किया है।
17) उन्होंने मेरा प्रस्ताव स्वीकार किया और अब वह स्वयं बड़ी उत्सुकता से आपके पास आ रहे हैं।
18) हम उनके साथ उस भाई को भेज रहे हैं, जो सुसमाचार के प्रचार के कारण सभी कलीसियाओं में प्रशंसा का पात्र है।
19) इसके अतिरिक्त, प्रभु की महिमा के लिए और अपनी सहानुभूति दिखाने के लिए हम परोपकार का जो सेवा-कार्य कर रहे है, उसके लिए कलीसियाओं ने उसे हमारी यात्रा का साथी नियुक्त किया।
20) इस प्रकार हम इस उदार दान के प्रबन्ध में आलोचना से बच कर रहना चाहते हैं;
21) क्योंकि हम न केवल प्रभु की दृष्टि में, बल्कि मनुष्यों की दृष्टि में भी अच्छा आचरण करने का ध्यान रखते हैं।
22) इन दोनों के साथ हम अपने एक और भाई को भेज रहे हैं। हमने बारम्बार अनेक मामलों में उसके धर्मोत्साह की परीक्षा ली है। इस कार्य के लिए उसका उत्साह और भी बढ़ गया है, क्योंकि उसे आप लोगों पर पूरा भरोसा है।
23) जहाँ तक तीतुस का प्रश्न है, वह आप लोगों के बीच मेरी धर्मसेवा के साथी और सहयोगी हैं। हमारे अन्य भाई कलीसियाओं के प्रतिनिधि और मसीह के गौरव हैं।
24) इसलिए आप कलीसियाओं की जानकारी में उन्हें अपने भ्रातृप्रेम का प्रमाण दें और इस बात का भी प्रमाण दें कि हम आप पर जो गर्व करते हैं, वह उचित ही है।

अध्याय 9

1) सन्तों की सहायता के विषय में मुझे आप लोगों को लिखने की कोई जरूरत नहीं है।
2) मैं इसके विषय में आपकी उत्सुकता जानता हूँ और मकेदूनिया से यह कहते हुए गर्व प्रकट करता हूँ कि अखैया एक साल से तैयार है। आपके उत्साह से बहुतों को प्रेरणा मिली है।
3) मैं इन भाइयो को इसलिए भेज रहा हूँ कि हमने आप पर जो गर्व प्रकट किया है, वह निराधार न निकले। मैं चाहता हूँ कि आप तैयार हों, जैसा कि मैंने कहा।
4) कहीं ऐसा न हो कि कुछ मकेदूनी मेरे साथ आ कर यह देखें कि आप तैयार नहीं हैं और हम को - और आप को भी - लज्जित होना पड़े, जब कि हमने इस विषय में आप पर इतना भरोसा दिखलाया है।
5) इसलिए मैंने भाइयो से यह अनुरोध करना आवश्यक समझा कि वे पहले आपके यहाँ आयें और ऐसा प्रबन्ध करें कि आपने जो दान देने की प्रतिज्ञा की है, वह मेरे पहुँचने से पहले तैयार हो और वह आपकी कृपणता का नहीं, बल्कि आपकी उदारता का प्रमाण हो।
6) इस बात का ध्यान रखें कि जो कम बोता है, वह कम लुनता है और जो अधिक बोता है, वह अधिक लुनता है।
7) हर एक ने अपने मन में जिनता निश्चित किया है, उतना ही दे। वह अनिच्छा से अथवा लाचारी से ऐसा न करे, क्योंकि ÷÷ईश्वर प्रसन्नता से देने वाले को प्यार करता है''।
8) ईश्वर आप लोगों को प्रचुर मात्रा में हर प्रकार का वरदान देने में समर्थ है, जिससे आप को कभी किसी तरह की कोई कमी नहीं हो, बल्कि हर भले काम के लिए चन्दा देने के लिए भी बहुत कुछ बच जाये।
9) धर्मग्रन्थ में लिखा है- उसने उदारतापूर्वक दरिद्रों को दान दिया है, उसकी धार्मिकता सदा बनी रहती है।
10) जो बोने वाले को बीज और खाने वाले को भोजन देता है, वह आप को बोने के लिए बीज देगा, उसे बढ़ायेगा और आपकी उदारता की अच्छी फसल उत्पन्न करेगा।
11) इस तरह आप लोग हर प्रकार के धन से सम्पन्न हो कर उदारता दिखाने में समर्थ होंगे।
12) आपका दान, मेरे द्वारा वितरित हो कर, ईश्वर के प्रति धन्यवाद का कारण बनेगा; क्योंकि यह सेवा -कार्य न केवल सन्तों की आवश्यकताओं को पूरा करता है, बल्कि ईश्वर को धन्यवाद देने के लिए बहुत-से लोगों को प्रेरित भी करता है।
13) आपका यह सेवा-कार्य देख कर वे ईश्वर की महिमा करेंगे, क्योंकि आप लोग मसीह के सुसमाचार के अनुसार चलते हैं और उनके तथा सबों के प्रति उदार हैं।
14) वे आपके लिए ईश्वर से प्रार्थना करेंगे। वे आप को प्यार करते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि ईश्वर ने आप लोगों पर कितना अनुग्रह किया है।
15) ईश्वर को उसके अनिर्वचनीय अनुग्रह के लिए धन्यवाद!

अध्याय 10

1) मैं- पौलुस मसीह की नम्रता और दयालुता के नाम पर आप लोगों से यह निवेदन कर रहा हँू। कुछ लोग कहते हैं कि मैं आप लोगों के सामने दीनहीन हूँ किन्तु दूर रहने पर निर्भीक।
2) मैं आप लोगों से विनयपूर्वक अनुरोध कर रहा हूँ- आप ऐसा करें कि आप लोगों के साथ रहते समय मुझे निर्भीकता न दिखलानी पड़े, क्योंकि जो लोग समझते हैं कि हम दुर्बल मनुष्य की तरह आचरण करते हैं, मैंने उनके साथ कठोर व्यवहार करने का संकल्प किया है।
3) हम दुर्बल मनुष्य हैं, किन्तु हम दुर्बल मनुष्य की तरह संघर्ष नहीं करते।
4) (४-५) हमारे संघर्ष के अस्त्र-शस्त्र दुर्बल नहीं हैं, बल्कि उन में ईश्वर का सामर्थ्य विद्यमान है, जिससे वे हर प्रकार के क़िले नष्ट कर सकते हैं। हम कुतर्कों और घमण्ड से उत्पन्न उन सब बातों का खण्डन करते हैं, जो ईश्वर को स्वीकार करने में बाधक हैं। हम प्रत्येक विवेकशील मनुष्य को मसीह की अधीनता स्वीकार करने का बाध्य करते हैं
6) और जब आप लोगों ने उस अधीनता को स्वीकार किया, तो हम किसी भी अवज्ञाकारी को दण्ड देने के लिए तैयार हैं।
7) जो बात आँखों के सामने स्पष्ट है, उसे आप लोग देख लें। यदि कोई समझता है कि वह मसीह का है, तो वह फिर विचार करने पर यह समझ लेगा कि जिस तरह वह मसीह का है, उसी तरह हम भी मसीह के हैं।
8) आपके विनाश के लिए नहीं, बल्कि आपके आध्यात्मिक निर्माण के लिए मुझे मसीह से जो अधिकार मिला है, यदि मैं उस पर कुछ अधिक गर्व कर रहा हूँ, तो मुझे इस बात की कोई लज्जा नहीं है।
9) आप यह न समझे कि मैं अपने पत्रों द्वारा आप को भय दिखाना चाहता हूँ।
10) कुछ लोगों का कहना है- उसके पत्र कठोर और प्रभावशाली हैं, किन्तु जब वह स्वयं आता है, तो उसका शरीर दुर्बल लगता है और उसकी बोलने की शक्ति नहीं के बराबर है।
11) जो लोग यह कहते हैं, वे इस पर विचार करें कि हम दूर रहते हुए पत्रों में जो बातें लिखते हैं उन्हें आपके यहाँ विद्यमान रहते हुए कार्य में कर दिखायेंगे।
12) जो लोग अपनी ही सिफारिश करते हैं, हम उनके बराबर होने या उन से अपनी तुलना करने का साहस नहीं करते। वे अपने ही मापदण्ड से अपना मूल्यांकन करते और अपने से अपनी तुलना करते हैं। इस प्रकार वे अपनी मूर्खता का परिचय देते हैं।
13) हम अपनी सीमा का उल्लंघन करते हुए गर्व से नहीं करेंगे। ईश्वर ने हमारे लिए जो क्षेत्र निर्धारित किया और जिस में आप लोग भी सम्मिलित हैं, हम उसके भीतर रहेंगे।
14) हम अपने क्षेत्र का उल्लंघन नहीं करते। आप लोग हमारे क्षेत्र के भीतर हैं, क्योंकि हमने पहले पहल आपके यहाँ मसीह के सुसमाचार का प्रचार किया।
15) हम अपनी सीमा का उल्लंघन करते हुए दूसरे के परिश्रम पर गर्व नहीं करते, बल्कि हम आशा करते हैं कि ज्यों-ज्यों आप लोगों का विश्वास बढ़ता जायेगा, हमारे कार्य-क्षेत्र का भी विस्तार होगा
16) और हम अन्य दूरवर्त्ती क्षेत्रों में सुसमाचार का प्रचार करेंगे। इस तरह दूसरों के क्षेत्र में जो कार्य हो चुका है, हमें उस पर गर्व करने की जरूरत नहीं होगी।
17) यदि कोई गर्व करना चाहे, तो वह प्रभु पर गर्व करे।
18) जो अपनी सिफारिश करता है, वह नहीं, बल्कि जिसे प्रभु की सिफारिश प्राप्त है, वही सुयोग्य है।

अध्याय 11

1) ओह, यदि आप लोग मेरी थोड़ी-सी नादानी सह लेते! खैर, आप मुझ को अवश्य सहेंगे।
2) मैं जितनी तत्परता से आप लोगों की चिन्ता करता हूँ वह ईश्वर की चिन्ता जैसी है। मैंने आपके एकमात्र दुलहे मसीह के साथ आपका वाग्दान सम्पन्न किया, जिससे मैं आप को पवित्र कुँवारी की तरह उनके सामने प्रस्तुत कर सकूँ।
3) मुझे डर है कि जिस प्रकार साँप ने अपनी धूर्तता से हेवा को धोखा दिया था, उसी प्रकार आप लोगों का मन भी न बहका दिया जाये और आप मसीह के प्रति अपनी निष्कपट भक्ति न खो बैठें ;
4) क्योंकि जब कोई आप लोगों के पास एक ऐसे ईसा का प्रचार करने आता है, जो हमारे द्वारा प्रचारित ईसा से भिन्न हैं, या एक ऐसा आत्मा अथवा सुसमाचार ग्रहण करने को कहता है, जो आपके द्वारा स्वीकृत आत्मा अथवा सुसमाचार से भिन्न है, तो आप लोग उस व्यक्ति का स्वागत करते हैं।
5) ऐसे महान् प्रचारकों से मैं अपने को किसी तरह कम नहीं समझता।
6) मैं अच्छा वक्ता नहीं हूँ, किन्तु मुझ में ज्ञान का अभाव नहीं। इसका प्रमाण मैं सब तरह से और हर प्रकार की बातों में आप लोगों को दे चुका हूँ।
7) आप लोगों को ऊपर उठाने के लिए मैंने अपने को दीनहीन बनाया और बिना कुछ लिए आप लोगों के बीच ईश्वर के सुसमाचार का प्रचार किया। क्या इस में मेरा कोई दोष था?
8) आप लोगों की सेवा करने के लिए मैंने दूसरी कलीसियाओं से चन्दा माँगा।
9) आप लोगों के यहाँ रहते समय मैं आर्थिक संकट में पड़ने पर भी किसी के लिए भी भार नहीं बनता था। मकेदूनिया से आने वाले भाइयो ने मेरी आवश्यकताओं को पूरा किया। मैं आपके लिए भार नहीं बना और कभी नहीं बनूँगा।
10) मुझ में विद्यमान मसीह की सच्चाई की शपथ! अखैया भर में कोई या कुछ भी मुझे इस गौरव से वंचित नहीं कर सकेगा।
11) ऐसा क्यों? क्या इसलिए कि मैं आप को प्यार नहीं करता? ईश्वर जानता हैं कि मैं आप लोगों को प्यार करता हूँ।
12) मैं जो करता आ रहा हॅँू वही करता जाऊँगा, जिससे उन लोगों को इस बात पर गर्व करने का मौका न मिले कि वे प्रचार-कार्य में मेरे बराबर हैं;
13) क्योंकि वे झूठे प्रचारक और कपटपूर्ण कार्यकर्ता है, जो मसीह के सन्देशवाहकों का स्वाँग रचते हैं।
14) यह आश्चर्य की बात नहीं, क्योंकि स्वयं शैतान ज्योतिर्मय स्वर्गदूत का स्वाँग रचता है।
15) इसलिए उसके कार्यकर्ता भी सहज ही धर्म के सेवकों का स्वाँग रचते हैं, किन्तु उनकी अन्तगति उनके आचरण के अनुरूप होगी।
16) मै फिर कहता हूँ कोई मुझे नासमझ नहीं समझे और यदि आप मुझे ऐसा समझते हों, तो मुझे थोड़ी-सी डींग मारने की छूट भी दें।
17) इस संबंध में मैं जो कहने वाला हॅँू, वह तो प्रभु के मनोभाव के अनुकूल नहीं, बल्कि नासमझी मात्र है।
18) जब बहुत से लोग उन बातों की डींग मारते हैं, जो संसार की दृष्टि में महत्व रखती है, तो मैं भी वही करूँगा।
19) समझदार होने के नाते आप लोग नासमझ लोगों का व्यवहार खुशी से सहते हैं।
20) जब कोई आप की स्वतंत्रता छीनता, आपकी धन-सम्पत्ति खा जाता, आपका शोषण करता, आपके प्रति तिरस्कारपूर्ण व्यवहार करता अथवा आप को थप्पड़ करता है, तो आप यह सब सह लेते हैं।
21) मैं संकोच के साथ स्वीकार करता हूँ कि आप लोगों के साथ इस प्रकार का व्यवहार करने का मुझे साहस नहीं हुआ। आप इसे मेरी नादानी समझें, किन्तु जिन बातों के विषय में वे लोग डींग मारने का साहस करते हैं, मैं भी उन बातों के विषय में वही कर सकता हूँ।
22) वे इब्रानी हैं? मैं भी हूँ! वे इस्राएली हैं? मैं भी हूँ! वे इब्राहीम की सन्तान हैं? मैं भी हूँ!
23) मैं नादानी की झोंक में कहता हूँ कि मैं इस में उन से बढ़ कर हूँ। मैंने उन से अधिक परिश्रम किया, अधिक समय बन्दीगृह में बिताया और अधिक बार कोड़े खाये। मैं बारम्बार प्राण संकट में पड़ा।
24) यहूदियों ने मुझ पाँच बार एक कम चालीस कोड़े लगाये।
25) मैं तीन बार बेंतों से पीटा और एक बार पत्थरों से मारा गया। तीन बार ऐसा हुआ कि जिस नाव पर मैं यात्रा कर कर रहा था, वह टूट गयी और एक बार वह पूरे चौबीस घण्टे खुले समुद्र पर इधर-उधर बहती रही।
26) मैं बारम्बार यात्रा करता रहा। मुझे नदियों के खतरे का सामना करना पड़ा, डाकुओं के खतरे, समुद्र के खतरे और कपटी भाइयो के खतरे का।
27) मैंने कठोर परिश्रम किया और बहुत-सी रातें जागते हुए बितायीं। मुझे अक्सर भोजन नहीं मिला। भूख-प्यास, ठण्ड और कपड़ों के अभाव-यह सब मैं सहता रहा
28) और इन बातों के अतिरिक्त सब कलीसियाओं के विषय में मेरी चिन्ता हर समय बनी रहती है।
29) जब कोई दुर्बल है, तो क्या मैं उसकी दुर्बलता से प्रभावित नहीं? जब किसी का पतन होता है, तो क्या मैं इसका तीखा अनुभव नहीं करता?
30) यदि किसी बात पर गर्व करना है, तो मैं अपनी दुर्बलताओं पर गर्व करूँगा।
31) ईश्वर, हमारे प्रभु ईसा मसीह का पिता, युगानुयुग धन्य है। वह जानता है कि मैं झूठ नहीं बोल रहा हूँ।
32) जब मैं दमिश्क में था, तो राजा अरेतास के राज्यपाल ने मुझे गिरफ्तार करने के लिए नगर पर पहरा बैठा दिया।
33) मैं चारदीवारी की खिड़की से टोकरे में नीचे उतार दिया गया अैार इस प्रकार उसके हाथ से निकल भागा।

अध्याय 12

1) डींग मारने से कोई लाभ नहीं, फिर भी मुझे ऐसा ही करना पड़ रहा है। इसलिए दिव्य दर्शनों और प्रभु द्वारा प्रकट किये हुए रहस्यों की चर्चा करूँगा।
2) मैं मसीह के एक भक्त को जानता हूँ, जो चौदह वर्ष पहले तीसरे स्वर्ग तक ऊपर आरोहित कर लिया गया- सशरीर या दूसरे प्रकार से, यह मैं नहीं जानता, ईश्वर ही जानता है।
3) मैं उस मनुष्य के विषय में जानता हूँ कि वह स्वर्ग में आरोहित कर लिया गया-सशरीर या दूसरे प्रकार से, यह मैं नहीं जानता, ईश्वर ही जानता है।
4) उस मनुष्य ने ऐसी बातों की चर्चा सुनी, जो अनिर्वचनीय है और जिन्हें प्रकट करने की किसी मनुष्य को अनुमति नहीं है।
5) मैं ऐसे व्यक्ति पर गर्व करना चाहूँगा। अपनी दुर्बलताओं के अतिरिक्त मैं अपने विषय में किसी और बात पर गर्व नहीं करूँगा।
6) यदि मैं गर्व करता, तो यह नादानी नहीं होती, क्योंकि मैं सत्य ही बोलता। किन्तु मैं यह नहीं करूँगा। लोग जैसा मुझे देखते और सुनते हैं, उस से बढ़ कर मुझे कुछ भी नहीं समझें।
7) मुझ पर बहुत-सी असाधारण बातों का रहस्य प्रकट किया गया है। मैं इस पर घमण्ड न करूँ, इसलिए मेरे शरीर में एक काँटा चुभा दिया गया है। मुझे शैतान का दूत मिला है, ताकि वह मुझे घूंसे मारता रहे और मैं घमण्ड न करूँ।
8) मैंने तीन बार प्रभु से निवेदन किया कि यह मुझ से दूर हो;
9) किन्तु प्रभु ने कहा-मेरी कृपा तुम्हारे लिए पर्याप्त है, क्योंकि हमारी दुर्बलता में मेरा सामर्थ्य पूर्ण रूप से प्रकट होता है।
10) इसलिए मैं बड़ी खुशी से अपनी दुर्बलताओं पर गौरव करूँगा, जिससे मसीह की सामर्थ्य मुझ पर छाया रहे। मैं मसीह के कारण अपनी दुर्बलताओं पर, अपमानों, कष्टों, अत्याचारों और संकटों पर गर्व करता हूँ; क्योंकि मैं जब दुर्बल हूँ, तभी बलवान् हूँ।
11) मैं मूर्खतापूर्ण बातें कर रहा हूँ- आप लोगों ने मुझे इसके लिए बाध्य किया। आप को मेरी, सिफ़ारिश करनी चाहिए थी, क्योंकि यद्यपि मैं कुछ भी नहीं हूँ, फिर भी मैं उन महान् प्रचारकों से किसी भी तरह कम नहीं हूँ।
12) आपके यहाँ रहते समय मैंने प्रेरित के सच्चे लक्षण प्रदर्शित किये, अर्थात् अचल धैर्य, चिन्ह, चमत्कार तथा सामर्थ्य के कार्य।
13) अन्य कलीसियाओं की तुलना में आप लोगों में किस बात की कमी रह गयी है? हाँ, मैं आप लोगों के लिए भार नहीं बना। आप मुझे इस अन्याय के लिए क्षमा प्रदान करें।
14) अब मैं तीसरी बार आप लोगों के यहाँ आने की तैयारियाँ कर रहा हूँ, और आप के लिए भार नहीं बनूँगा; क्योंकि मुझे आपकी सम्पत्ति की नहीं, बल्कि आप लोगों की चिन्ता है। बच्चों को अपने माता-पिता के लिए धन एकत्र करना नहीं चाहिए, बल्कि माता-पिता को अपने बच्चों के लिए।
15) मैं आप लोगों के लिए अपना सबकुछ खर्च करूँगा और अपने को भी अर्पित करूँगा और यदि मैं आप लोगों को इतना प्यार करता हूँ, तो क्या आप मुझे कम प्यार करेंगे?
16) आप लोग शायद यह कहेंगे - वास्तव में वह हमारे लिए भार नहीं बना, किन्तु वह धूर्त है और उसने हमें छल-कपट से फँसा लिया।
17) मैंने जिन व्यक्तियों को आप लोगों के पास भेजा, क्या मैंने उन में किसी के द्वारा आप से लाभ उठाया?
18) मैंने तीतुस से आपके यहाँ जाने के लिए निवेदन किया और उस भाई को उसके साथ भेजा। क्या तीतुस ने आप लोगों से लाभ उठाया? क्या हम दोनों एक ही आत्मा से प्रेरित हो कर एक ही पथ पर नहीं चले?
19) आप लोग यह समझते होंगे कि मैं यह सब लिखते हुए आपके सामने अपनी सफाई दे रहा हूँ। बात ऐसी नहीं है। हम यह सब मसीह से संयुक्त हो कर ईश्वर को साक्ष्य बना कर कह रहे हैं। प्रिय भाइयो! सब कुछ आपके आध्यात्मिक निर्माण के लिए हो रहा है।
20) मुझे आशंका है - कहीं ऐसा न हो कि आने पर मैं आप लोगों को जैसा पाना चाहता हूँ, वैसा नहीं पाऊँ और आप मुझे जैसा नहीं चाहते, वैसा ही पायें। कहीं ऐसा न हो कि मैं आपके यहाँ फूट, ईर्ष्या, बैर, स्वार्थपरता, परनिन्दा, चुगलखोरी, अहंकार और उपद्रव पाऊँ।
21) कहीं ऐसा न हो कि मेरे आपके यहाँ पहुँचने पर ईश्वर मुझे फिर आपके सामने नीचा दिखाये और मुझे उन बहुसंख्यक लोगों के लिए शोक मनाना पड़े, जिन्होंने पहले पाप किया और अपनी अशुद्धता, व्यभिचार और लम्पटता के लिए पश्चाताप नहीं किया है।

अध्याय 13

1) अब मैं तीसरी बार आप लोगों के यहाँ आने वाला हूँ। दो या तीन गवाहों के साक्ष्य द्वारा सब कुछ प्रमाणित किया जायेगा।
2) जब मैं दूसरी बार आप के यहाँ आया, तो उन लोगों से, जिन्होंने पहले पाप किया था, और अन्य सभी लोगों से भी मैंने जो बात कही थी, वही पहुँचने से पहले दुहरा रहा हूँ, कि मैं लौटने पर किसी पर दया नहीं करूँगा;
3) क्योंकि आप इसका प्रमाण चाहते हैं कि मसीह मेरे माध्यम से बोलते हैं और मसीह आपके प्रति दुर्बल नहीं हैं; वह आप लोगों में अपना सामर्थ्य प्रदर्शित करते हैं।
4) यह सच है कि वह दुर्बलता में क्रूस पर आरोपित किये गये, किन्तु वह ईश्वर के सामर्थ्य द्वारा जीवित हैं। हम उनकी तरह दुर्बल हैं, किन्तु आप देखेंगे कि हम ईश्वर के सामर्थ्य द्वारा उनके साथ जीवित हैं।
5) आप लोग अपनी ही परीक्षा ले कर देखें कि आप विश्वास के अनुरूप जीवन बिताते हैं या नहीं। आप लोग अपनी ही जाँच करें। क्या आप यह अनुभव नहीं करते कि ईसा मसीह आप लोगों में क्रियाशील हैं? यदि नहीं करते, तो आप खोटे हैं।
6) मैं आशा करता हूँ कि आप मानेंगे कि हम खोटे नहीं हैं।
7) हम ईश्वर से यह प्रार्थना करते हैं कि आप कोई बुराई नहीं करें-इसलिए नहीं कि हम खरे प्रमाणित हों, बल्कि इसलिए कि आप भलाई करें, चाहे हम खोटे ही क्यों न दीख पड़े।
8) कारण, हम सत्य के विरुद्ध कुछ नहीं कर सकते, हम सत्य का समर्थन ही कर सकते हैं।
9) जब आप लोग समर्थ हैं, तो हम दुर्बल होना सहर्ष स्वीकार करते हैं।
10) हम इसके लिए भी प्रार्थना करते हैं कि आप लोगों का सुधार हो। मैं दूर रहते हुए ये बातें इसलिए लिख रहा हूँ कि आपके यहाँ रहते हुए मुझे, प्रभु द्वारा प्रदत्त अधिकार के अनुसार, आप लोगों के साथ कठोर व्यवहार न करना पड़े; क्योंकि मुझे यह अधिकार आपके विनाश के लिए नहीं, बल्कि आपके आध्यात्मिक निर्माण के लिए मिला है।
11) भाइयो, अलविदा! आप पूर्ण बनें, हमारा उपदेश हृदयंगम करें, एकमत रहें, शान्ति बनाये रखें, और प्रेम तथा शान्ति का ईश्वर आपके साथ होगा।
12) शान्ति के चुम्बन से एक दूसरे का अभिवादन करें। सब ईश्वर-भक्त आप लोगों को नमस्कार कहते हैं।
13) प्रभु ईसा मसीह का अनुग्रह, ईश्वर का प्रेम तथा पवित्र आत्मा की सहभागिता आप सब को प्राप्त हो!