1) कुरिन्थ में ईश्वर की कलीसिया के नाम पौलुस, जो ईश्वर द्वारा ईसा मसीह का प्रेरित नियुक्त हुआ है, और भाई सोस्थेनेस का पत्र। | ||||||||||||||||||
2) आप लोग ईसा मसीह द्वारा पवित्र किये गये हैं और उन सबों के साथ सन्त बनने के लिए बुलाये गये हैं, जो कहीं भी हमारे प्रभु ईसा मसीह अर्थात् अपने तथा हमारे प्रभु का नाम लेते हैं। | ||||||||||||||||||
3) हमारा पिता ईश्वर और प्रभु ईसा मसीह आप लोगों को अनुग्रह तथा शान्ति प्रदान करें। | ||||||||||||||||||
4) आप लोगों को ईसा मसीह द्वारा ईश्वर का अनुग्रह प्राप्त हुआ है। इसके लिए मैं ईश्वर को निरन्तर धन्यवाद देता हूँ। | ||||||||||||||||||
5) (५-६) मसीह का सन्देश आप लोगों के बीच इस प्रकार दृढ़ हो गया है कि आप लोग मसीह से संयुक्त होकर अभिव्यक्ति और ज्ञान के सब प्रकार के वरदानों से सम्पन्न हो गये हैं। | ||||||||||||||||||
7) आप लोगों में किसी कृपादान की कमी नहीं है और सब आप हमारे प्रभु ईसा मसीह के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। | ||||||||||||||||||
8) ईश्वर अन्त तक आप लोगों को विश्वास में सुदृढ़ बनाये रखेगा, जिससे आप हमारे प्रभु ईसा मसीह के दिन निर्दोष पाये जायें। | ||||||||||||||||||
9) ईश्वर सत्यप्रतिज्ञ है। उसने ने आप लोगों को अपने पुत्र हमारे प्रभु ईसा मसीह के सहभागी बनने के लिए बुलाया। | ||||||||||||||||||
10) भाइयो! हमारे प्रभु ईसा मसीह के नाम पर मैं आप लोगों से यह अनुरोध करता हूँ - आप लोग एकमत होकर दलबन्दी से दूर रहें। आप एक दूसरे से मेल-मिलाप करें और हृदय तथा मन से पूर्ण रूप से एक हो जायें। | ||||||||||||||||||
11) ख्लोए के घर वालों से मुझे पता चला कि आप लोगों में फूट पड़ गयी है। | ||||||||||||||||||
12) मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि आप लोगों में प्रत्येक अपना-अपना राग अलापता है : ''मैं पौलुस का हूँ'' : ''मैं अपोल्लोस का हूँ''; ''मैं केफस का हूँ'' और ''मैं मसीह का हूँ'';। | ||||||||||||||||||
13) क्या मसीह खण्ड-खण्ड हो गये हैं? क्या पौलुस आप लोगों के लिए क्रूस पर मर गये हैं? क्या आप लोगों को पौलुस के नाम पर बपतिस्मा मिला है?
14) ईश्वर को धन्यवाद कि मैंने क्रिस्पुस और गायुस को छोड़ कर आप लोगों में किसी को बपतिस्मा नहीं दिया!
| 15) इसलिए कोई यह नहीं कह सकता कि आप को पौलुस के नाम पर बपतिस्मा मिला है।
| 16) हाँ! मैंने स्तेफनुस के परिवार को भी बपतिस्मा दिया। जहाँ तक मुझे पता है, मैंने इनके अतिरिक्त किसी और को बपतिस्मा नहीं दिया;
| 17) क्योंकि मसीह ने मुझे बपतिस्मा देने नहीं; बल्कि सुसमाचार का प्रचार करने भेजा। मैंने इस कार्य के लिए अलंकृत भाषा का व्यवहार नहीं किया, जिससे मसीह के क्रूस के सन्देश का प्रभाव फीका न पड़े।
| 18) जो विनाश के मार्ग पर चलते हैं, वे क्रूस की शिक्षा को ''मूर्खता'' समझते हैं। किन्तु हम लोगों के लिए, जो मुक्ति के मार्ग पर चलते हैं, वह ईश्वर का सामर्थ्य है;
| 19) क्योंकि लिखा है-मैं ज्ञानियों का ज्ञान नष्ट करूँगा और समझदारों की चतुराई व्यर्थ कर दूँगा।
| 20) हम में ज्ञानी, शास्त्री और इस संसार के दार्शनिक कहाँ हैं? क्या ईश्वर ने इस संसार के ज्ञान को मूर्खता-पूर्ण नहीं प्रमाणित किया है?
| 21) ईश्वर की प्रज्ञा का विधान ऐसा था कि संसार अपने ज्ञान द्वारा ईश्वर को नहीं पहचान सका। इसलिए ईश्वर ने सुसमाचार की ''मूर्खता'' द्वारा विश्वासियों को बचाना चाहा।
| 22) यहूदी चमत्कार माँगते और यूनानी ज्ञान चाहते हैं,
| 23) किन्तु हम क्रूस पर आरोपित मसीह का प्रचार करते हैं। यह यहूदियों के विश्वास में बाधा है और गैर-यहूदियों के लिए 'मूर्खता'।
| 24) किन्तु मसीह चुने हुए लोगों के लिए, चाहे वे यहूदी हों या यूनानी, ईश्वर का सामर्थ्य और ईश्वर की प्रज्ञा है;
| 25) क्योंकि ईश्वर की 'मूर्खता' मनुष्यों से अधिक विवेकपूर्ण और ईश्वर की 'दुर्बलता' मनुष्यों से अधिक शक्तिशाली है।
| 26) इस बात पर विचार कीजिए कि बुलाये जाते समय दुनिया की दृष्टि में आप लोगों में बहुत कम लोग ज्ञानी, शक्तिशाली अथवा कुलीन थे।
| 27) ज्ञानियों को लज्जित करने के लिए ईश्वर ने उन लोगों को चुना है, जो दुनिया की दृष्टि में मूर्ख हैं। शक्तिशालियों को लज्जित करने के लिए उसने उन लोगों को चुना है, जो दुनिया की दृष्टि में दुर्बल हैं।
| 28) गण्य-मान्य लोगों का घमण्ड चूर करने के लिए उसने उन लोगों को चुना है, जो दुनिया की दृष्टि में तुच्छ और नगण्य हैं,
| 29) जिससे कोई भी मनुष्य ईश्वर के सामने गर्व न करे।
| 30) उसी ईश्वर के वरदान से आप लोग ईसा मसीह के अंग बन गये है। ईश्वर ने मसीह के अंग बन गये है। ईश्वर ने मसीह को हमारा ज्ञान, धार्मिकता, पवित्रता और उद्धार बना दिया है।
| 31) इसलिए, जैसा कि धर्मग्रन्थ में लिखा है- यदि कोई गर्व करना चाहे, तो वह प्रभु पर गर्व करे।
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1) भाइयो! जब मैं ईश्वर का सन्देश सुनाने आप लोगों के यहाँ आया, तो मैंने शब्दाडम्बर अथवा पाण्डित्य का प्रदर्शन नहीं किया। |
2) मैंने निश्चय किया था कि मैं आप लोगों से ईसा मसीह और क्रूस पर उनके मरण के अतिरिक्त किसी और विषय पर बात नहीं करूँगा। |
3) वास्तव में मैं आप लोगों के बीच रहते समय दुर्बल, संकोची और भीरू था। |
4) मेरे प्रवचन तथा मेरे संदेश में विद्वतापूर्ण शब्दों का आकर्षण नहीं, बल्कि आत्मा का सामर्थ्य था, |
5) जिससे आप लोगों का विश्वास मानवीय प्रज्ञा पर नहीं, बल्कि ईश्वर के सामर्थ्य पर आधारित हो। |
6) हम उन लोगों के बीच प्रज्ञा की बातें करते हैं, जो परिपक्व हो गये हैं। यह प्रज्ञा न तो इस संसार की है और न इस संसार के अधिपतियों की, जो समाप्त होने को हैं। |
7) हम ईश्वर की उस रहस्यमय प्रज्ञा और उद्देश्य की घोषणा करते हैं, जो अब तक गुप्त रहे, जिन्हें ईश्वर ने संसार की सृष्टि से पहले ही हमारी महिमा के लिए निश्चित किया था, |
8) और जिन को संसार के अधिपतियों में किसी ने नहीं जाना। यदि वे लोग उन्हें जानते, तो महिमामय प्रभु को क्रूस पर नहीं चढ़ाते। |
9) हम उन बातों के विषय में बोलते हैं, जिनके सम्बन्ध में धर्मग्रन्थ यह कहता है - ईश्वर ने अपने भक्तों के लिए जो तैयार किया है, उस को किसी ने कभी देखा नहीं, किसी ने सुना नहीं और न कोई उसकी कल्पना ही कर पाया। |
10) ईश्वर ने अपने आत्मा द्वारा हम पर वही प्रकट किया है, क्योंकि आत्मा सब कुछ की, ईश्वर के रहस्य की भी, थाह लेता है। |
11) मनुष्य के निजी आत्मा के अतिरिक्त कौन किसी का अन्तरतम जानता है? इसी तरह ईश्वर के आत्मा के अतिरिक्त कोई ईश्वर का अन्तरतम नहीं जानता। |
12) हमें संसार का नहीं, बल्कि ईश्वर का आत्मा मिला है, जिससे हम ईश्वर के वरदान पहचान सकें। |
13) हम उन वरदानों की व्याख्या करते समय मानवीय प्रज्ञा के शब्दों का नहीं, बल्कि आत्मा द्वारा प्रदत्त शब्दों का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार हम आध्यात्मिक शब्दावली में आध्यात्मिक तथ्यों की विवेचना करते है॥ |
14) प्राकृत मनुष्य ईश्वर के आत्मा की शिक्षा स्वीकार नहीं करता। वह उसे मूर्खता मानता और उसे समझने में असमर्थ है, क्योंकि आत्मा की सहायता से ही उस शिक्षा की परख हो सकती है। |
15) आध्यात्मिक मनुष्य सब बातों की परख करता है, किन्तु कोई भी उस मनुष्य की परख नहीं करता है, किन्तु कोई भी उस मनुष्य की परख नहीं कर पाता; |
16) क्योंकि (लिखा है) - प्रभु का मन कौन जानता है? कौन उसे शिक्षा दे सकता है? हम में तो मसीह का मनोभाव विद्यमान है। |
1) भाइयो! मैं उस समय आप लोगों से उस तरह बातें नहीं कर सका, जिस तरह आध्यात्मिक व्यक्तियों से की जाती हैं। मुझे आप लोगों से उस तरह बातें करनी पड़ी, जिस तरह प्राकृत मनुष्यों से, मसीह में मेरे निरे बच्चों से, की जाती हैं। |
2) मैंने आप को दूध पिलाया। मैंने आप को ठोस भोजन इसलिए नहीं दिया कि आप उसे नहीं पचा सकते थे। |
3) आप इस समय भी उसे पचा नहीं सकते, क्योंकि आप अब तक प्राकृत हैं। आप लोगों में ईर्ष्या और झगड़ा होता है। क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं कि आप प्राकृत हैं और निरे मनुष्यों-जैसा आचरण करते हैं? |
4) जब कोई कहता है, ''मैं पौलुस का हूँ'' और कोई कहता है, ''मैं अपोल्लोस का हूँ'', तो क्या यह निरे मनुष्यों-जैसा आचरण नहीं है? |
5) अपोल्लोस क्या है? पौलुस क्या है? हम तो धर्मसेवक मात्र हैं, जिनके माध्यम से आप विश्वासी बने। हम में प्रत्येक ने वही कार्य किया, जिसे प्रभु ने उस को सौंपा। |
6) मैंने पौधा रोपा, अपोल्लोस ने उसे सींचा, किन्तु ईश्वर ने उसे बड़ा किया। |
7) न तो रोपने वाले का महत्व है और न सींचने वाले का, बल्कि वृद्धि करने वाले अर्थात् ईश्वर का ही महत्व है। |
8) रोपने वाला और सींचने वाला एक ही काम करते हैं और प्रत्येक अपने-अपने परिश्रम के अनुरूप अपनी मजदूरी पायेगा। |
9) हम ईश्वर के सहयोगी हैं और आप लोग हैं-ईश्वर की खेती, ईश्वर का भवन। |
10) ईश्वर से प्राप्त अनुग्रह के अनुसार मैंने कुशल वास्तुपति की तरह नींव डाली है। कोई दूसरा ही इसके ऊपर भवन का निर्माण कर रहा है। हर एक को सावधान रहना है कि वह किस तरह निर्माण करता है। |
11) जो नींव डाली गयी है, उसे छोड़ कर कोई दूसरी नहीं डाल सकता, और वह नींव है ईसा मसीह। |
12) यदि इस नींव पर लोग निर्माण में सोना, चाँदी, रत्न, लकड़ी, घास अथवा भूसा काम में लायेंगे, |
13) तो हरएक का काम प्रकट किया जायेगा। प्रभु का दिन, जो आग के साथ आयेगा, उसे प्रकट कर देगा और उस आग द्वारा हर एक के काम की परीक्षा ली जायेगी। |
14) जिसका भवन कायम रहेगा, उसे पुरस्कार मिलेगा। |
15) जिसका भवन जल जायेगा, उसे पुरस्कार नहीं मिलेगा। फिर भी वह बच जायेगा, जैसे कोई आग पार कर बच जाता है। |
16) क्या आप यह नहीं जानते कि आप ईश्वर के मन्दिर हैं और ईश्वर का आत्मा आप में निवास करता है? |
17) यदि कोई ईश्वर का मन्दिर नष्ट करेगा, तो ईश्वर उसे नष्ट करेगा; क्योंकि ईश्वर का मन्दिर पवित्र है और वह मन्दिर आप लोग हैं। |
18) कोई अपने को धोखा न दे। यदि आप लोगों में कोई अपने को संसार की दृष्टि से ज्ञानी समझता हो, तो वह सचमुच ज्ञानी बनने के लिए अपने को मूर्ख बना ले; |
19) क्योंकि इस संसार का ज्ञान इ्रश्वर की दृष्टि में 'मूर्खता' है। धर्मग्रन्थ में यह लिखा है- वह ज्ञानियों को उनकी चतुराई से ही फँसाता है |
20) और प्रभु जानता है कि ज्ञानियों के तर्क-वितर्क निस्सार हैं। |
21) इसलिए कोई मनुष्यों पर गर्व न करे सब कुछ आपका है। |
22) चाहे वह पौलुस, अपोल्लोस अथवा कैफ़स हो, संसार हो, जीवन अथवा मरण हो, भूत अथवा भविष्य हो-वह सब आपका है। |
23) परन्तु आप मसीह के और मसीह ईश्वर के हैं। |
1) लोग हमें मसीह के सेवक और ईश्वर के रहस्यों के कारिन्दा समझे। |
2) अब कारिन्दा से यह आशा की जाती है कि वह ईमानदार निकले। |
3) मेरे लिए इस बात का कोई महत्व नहीं कि आप लोग अथवा मनुष्यों का कोई न्यायालय मुझे योग्य समझे। मैं स्वयं भी अपना न्याय नहीं करता। |
4) मैं अपने में कोई दोष नहीं पाता, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि मैं निर्दोष हूँ। प्रभु ही मेरे न्यायकर्ता हैं। |
5) इसलिए प्रभु के आने तक कोई किसी का न्याय नहीं करे। वह अन्धकार के रहस्य प्रकाश में लायेंगे और हृदयों के गुप्त अभिप्राय प्रकट करेंगे। उस समय हर एक को ईश्वर की ओर से यथायोग्य श्रेय दिया जायेगा। |
6) भाइयो! मैंने आप लोगों के लिए अपने और अपोल्लोस के विषय में यह स्पष्टीकरण दिया है, जिससे आप हमारे उदाहरण से यह शिक्षा ग्रहण करें कि कोई भी धर्मग्रन्थ की मर्यादा का उल्लंघन न करे' और आप एक का पक्ष लेते हुए और दूसरे का तिरस्कार करते हुए घमण्डी न बनें। |
7) कौन आप को दूसरों की अपेक्षा अधिक महत्व देता है? आपके पास क्या है? और यदि आप को सब कुछ दान में मिला है, तो इस पर गर्व क्यों करते हैं, मानो यह आप को न दिया गया हो? |
8) अब तो आप लोग तृप्त हो गये हैं। आप धनी हो गये हैं। हमारे बिना ही आप को राज्य मिल चुका है। कितना अच्छा होता यदि आप को सचमुच राज्य मिला होता! तब हम भी शायद आपके राज्य के सहभागी बन जाते! |
9) मुझे ऐसा लगता है कि ईश्वर ने हम प्रेरितों को मनुष्यों में सब से नीचा रखा है। हम रंगभूमि में प्राणदण्ड भोगने वाले मनुष्यों की तरह हैं। हम विश्व के लिए-स्वर्गदूतों और मनुष्यों, दोनों के लिए-तमाशा बन गये हैं। |
10) हम मसीह के समझदार अनुयायी हैं। हम दुर्बल हैं और आप बलवान हैं। आप लोगों को सम्मान मिल रहा है और हमें तिरस्कार। |
11) हम इस समय भी भूखे और प्यासे हैं, फटे-पुराने कपड़े पहनते हैं, मार खाते हैं, भटकते-फिरते हैं |
12) और अपने हाथों से परिश्रम करते-करते थक जाते हैं। लोग हमारा अपमान करते हैं और हम आशीर्वाद देते हैं। वे हम पर अत्याचार करते हैं और हम सहते जाते हैं। |
13) वे हमारी निन्दा करते हैं और हम नम्रतापूर्वक अनुनय-विनय करते हैं। लोग अब भी हमारे साथ ऐसा व्यवहार करते हैं, मानो हम पृथ्वी के कचरे और समाज के कूड़ा-करकट हों। |
14) मैं आप लोगों को लज्जित करने के लिए यह नहीं लिख रहा हूँ, बल्कि आप को अपनी प्यारी सन्तान मान कर समझा रहा हूँ; |
15) क्योंकि हो सकता है कि मसीह में आपके हजार शिक्षक हों, किन्तु आपके अनेक पिता नहीं हैं। मैंने सुसमाचार द्वारा ईसा मसीह में आप लोगों को उत्पन्न किया है। |
16) इसलिए मैं आप लोगों से यह अनुरोध करता हूँ कि आप मेरा अनुसरण करें। |
17) इसी से मैंने प्रभु में अपने प्रिय एवं विश्वासी पुत्र तिमथी को आपके यहाँ भेजा है। वह आप को मसीह के विषय में मेरी शिक्षा का स्मरण दिलायेंगे, जिसका मैं सब जगह हर कलीसिया में प्रचार करता हूँ। |
18) कुछ लोग यह समझ कर घमण्डी बन गये हैं कि मैं आपके यहाँ नहीं आऊँगा। |
19) यदि प्रभु की इच्छा हो, तो मैं शीघ्र ही आप लोगों के यहाँ आऊँगा और उनकी बातों से नहीं, बल्कि उनके कार्यों से उन घमण्डियों को परखना चाहूँगा; |
20) क्योंकि ईश्वर का राज्य बातों में नहीं, बल्कि कार्यों में है। |
21) आप लोग क्या चाहते हैं? क्या मैं लाठी लिये आपके पास आऊँ या प्रेम और कोमलता का भाव लेकर? |
1) आप लोगों के बीच हो रहे व्यभिचार की चरचा चारों और फैल गयी है- ऐसा व्यभिचार जो गैर-यहूदियों में भी नहीं होता। किसी ने अपने पिता की पत्नी को रख लिया है। |
2) तब भी आप घमण्ड में फूले हुए हैं! आप को शोक मनाना और जिसने यह काम किया, उसका बहिष्कार करना चाहिए था। |
3) मैं शरीर से अनुपस्थित होते हुए भी आत्मा से आप लोगों के बीच हूँ। जिसने यह काम किया है, मैं उसका न्याय कर चुका हूँ, मानों मैं वास्तव में वहाँ उपस्थित हूँ। |
4) और मेरा निर्णय यह है : प्रभु ईसा के नाम पर हम-अर्थात् आप लोग और मैं आत्मा से - एकत्र हो जायेंगे |
5) और अपने प्रभु ईसा के अधिकार से उस व्यक्ति को शैतान के हवाले कर देंगे, जिससे उसके शरीर का विनाश हो, किन्तु प्रभु के दिन उसकी आत्मा का उद्धार हो। |
6) आप लोगों का आत्मसन्तोष आप को शोभा नहीं देता। क्या आप यह नहीं जानते कि थोड़ा-सा ख़मीर सारे सने हुए आटे को ख़मीर बना देता है? |
7) आप पुराना ख़मीर निकाल कर शुद्ध हो जायें, जिससे आप नया सना हुआ आटा बन जायें। आप को बेख़मीर रोटी-जैसा बनना चाहिए क्योंकि हमारा पास्का का मेमना अर्थात् मसीह बलि चढ़ाये जा चुके हैं। |
8) इसलिए हमें न तो पुराने खमीर से और न बुराई और दुष्टता के खमीर से बल्कि शुद्धता और सच्चाई की बेख़मीर रोटी से पर्व मनाना चाहिए। |
9) मैंने आप लोगों को अपने पत्र में लिखा कि व्यभिचारियों से मेल-जोल न रखें। |
10) मेरा अभिप्राय यह नहीं था कि आप इस संसार के व्यभिचारियों, लोभियों, धोखेबाजों, या मूतिपूजकों से कोई भी सम्बन्ध नहीं रखें। ऐसा करने के लिए आप को संसार को ही छोड़ देना होता, |
11) बल्कि मैंने लिखा यदि 'भाई' कहलाने वाला कोई व्यक्ति व्यभिचारी, लोभी, मूर्तिपूजक, निन्दक, शराबी या धोखेबाज हैं, तो उसके साथ भोजन तक नहीं करे। |
12) (१२-१३) बाहर वालों का न्याय करना मेरा काम नहीं। ईश्वर बाहर वालों का न्याय करेगा। घर वालों का न्याय करना आपका काम है - अपने बीच से दुष्ट को निकाल दो। |
1) यदि आप लोगों में कोई आपसी झगड़ा हो, तो आप न्याय के लिए सन्तों के पास नहीं, बल्कि अविश्वासियों के पास जाने का साहस कैसे कर सकते हैं? |
2) क्या आप नहीं जानते कि सन्त संसार का न्याय करेंगे, यदि आप को संसार का न्याय करना है, तो क्या आप छोटे-से मामलों का फैसला करने योग्य नहीं? |
3) क्या आप नहीं जानते कि हम स्वर्गदूतों का न्याय करेंगे? तो फिर साधारण जीवन के मामलों की बात ही क्या! |
4) यदि आप लोगों में साधारण जीवन के मामलों के बारे में कोई झगड़ा हो तो आप क्यों ऐसे लोगों को पंच बनाते हैं, जो कलीसिया की दृष्टि में नगण्य हैं? |
5) यह मैं आप को लज्जित करने के लिए कह कह रहा हूँ। क्या आप लोगों में एक भी समझदार व्यक्ति विद्यमान नहीं है, जो अपने भाइयों का न्याय कर सकता है? |
6) इसकी क्या जरूरत है कि भाई अपने भाई पर अविश्वासियों की अदालत में मुक़दमा चलाये? |
7) वास्तव में पहला दोष यह है कि आप एक दूसरे पर मुकदमा चलाते हैं। इसकी अपेक्षा आप अन्याय क्यों नहीं सह लेते? अपनी हानि क्यों नहीं होने देते? |
8) उलटे, आप स्वयं अन्याय करते और दूसरों को हानि पहुँचाते हैं और वे आपके भाई हैं! |
9) क्या आप यह नहीं जानते कि अन्याय करने वाले ईश्वर के राज्य के अधिकारी नहीं होंगे? धोखें में न रहें! व्यभिचारी, मूर्तिपूजक, परस्त्रीगामी, लौण्डे और पुरुषगामी, |
10) चोर, लोभी, शराबी, निन्दक और धोखेबाज ईश्वर के राज्य के अधिकारी नहीं होंगे। |
11) आप लोगों में कुछ ऐसे ही थे। किन्तु आप लोगों ने स्नान किया है, आप पवित्र किये गये और प्रभु ईसा मसीह के नाम पर और हमारे ईश्वर के आत्मा द्वारा आप पापमुक्त किये गये हैं। |
12) मुझे सब कुछ करने की अनुमति है, किन्तु सब कुछ हितकर नहीं। मुझे सब कुछ करने की अनुमति है, किन्तु मैं किसी भी चीज का गुलाम नहीं बनूँगा। |
13) भोजन पेट के लिए है और पेट भोजन के लिए। ईश्वर दोनों का अन्त कर देगा, किन्तु शरीर व्यभिचार के लिए नहीं, बल्कि प्रभु के लिए है और प्रभु शरीर के लिए। |
14) ईश्वर ने जिस तरह प्रभु को पुनर्जीवित किया, उसी तरह वह हम लोगों को भी अपने सामर्थ्य से पुनर्जीवित करेगा। |
15) क्या आप लोग यह नहीं जानते कि आपके शरीर मसीह के अंग है? तो क्या मैं मसीह के अंग ले कर उन्हें वेश्या के अंग बना दूँ? कभी नहीं ! |
16) क्या आप लोग यह जानते कि जिसका मिलन वेश्या से होता है, वह उसके साथ एक शरीर हो जाता है? क्योंकि धर्मग्रन्थ कहता है- वे दोनों एक शरीर हो जायेंगे। |
17) किन्तु जिसका मिलन प्रभु से होता है, वह उसके साथ एक आत्मा बन जाता है। |
18) व्यभिचार से दूर रहें। मनुष्य के दूसरे सभी पाप उसके शरीर से बाहर हैं, किन्तु व्यभिचार करने वाला अपने ही शरीर के विरुद्ध पाप करता है। |
19) क्या आप लोग यह नहीं जानते कि आपका शरीर पवित्र आत्मा का मन्दिर है? वह आप में निवास करता है और आप को ईश्वर से प्राप्त हुआ है। आपका अपने पर अधिकार नहीं है; |
20) क्योंकि आप लोग कीमत पर खरीदे गये हैं। इसलिए आप लोग अपने शरीर में ईश्वर की महिमा प्रकट करें। |
1) जिन बातों के विषय में आप लोगों ने लिखा है, उन पर मेरा विचार यह है। स्त्री से संबंध नहीं रखना पुरुष के लिए उत्तम है, |
2) किन्तु व्यभिचार की आशंका के कारण हर पुरुष की अपनी पत्नी हो और हर स्त्री का अपना पति। |
3) पति अपनी पत्नी के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करे और स्त्री अपने पति के प्रति। |
4) पत्नी का अपने शरीर पर अधिकार नहीं, वह पति का है और उसी प्रकार पति का भी अपने शरीर पर अधिकार नहीं, वह पत्नी का है। |
5) आप लोग एक दूसरे को उस अधिकार से वंचित नहीं करें और यदि ऐसा करें, तो दोनों की सहमति से और कुछ समय के लिए जिससे प्रार्थना का अवकाश मिले और इसके बाद पहले-जैसे रहें। कहीं ऐसा न हो कि शैतान असंयम के कारण आप को प्रलोभन में डाल दे। |
6) मैं यह आदेश के रूप में नहीं, बल्कि अनुमति के रूप में कह रहा हूँ। |
7) मैं तो चाहता हूँ कि सब मनुष्य मुझ-जैसे हो, किन्तु ईश्वर की ओर से हर एक को अपना-अपना वरदान मिला है- एक को यह, दूसरे को वह। |
8) मैं अविवाहितों और विधवाओं से यह कहता हूँ - यदि वे मुझ-जैसे रहें, तो यह उनके लिए उत्तम है। |
9) यदि वे आत्म संयम नहीं रख सकते, तो विवाह करें; क्योंकि वासना से जलने की अपेक्षा विवाह करना अच्छा है। |
10) विवाहितों को मेरा नहीं, बल्कि प्रभु का यह आदेश है कि पत्नी अपने पति से अलग न हो |
11) और यदि वह अलग हो जाये, तो उसे या तो अविवाहित रहना चाहिए या अपने पति से मेल करना चाहिए। पति भी अपनी पत्नी का परित्याग नहीं करे। |
12) दूसरे लोगों से प्रभु का नहीं, बल्कि मेरा कहना यह है- यदि किसी भाई की पत्नी हमारे धर्म में विश्वास नहीं करती और अपने पति के साथ रहने को राजी हैं, तो वह भाई उसका परित्याग नहीं करे |
13) और यदि किसी स्त्री का पति हमारे धर्म में विश्वास नहीं करता और वह अपनी पत्नी के साथ रहने का राजी है, तो वह स्त्री अपने पति का परित्याग नहीं करे; |
14) क्योंकि विश्वास नहीं करने वाला पति अपनी पत्नी द्वारा पवित्र किया गया है और विश्वास नहीं करने वाली पत्नी अपने मसीही पति द्वारा पवित्र की गयी है। नहीं तो आपकी सन्तति दूषित होती, किन्तु अब वह पवित्र ही है। |
15) यदि विश्वास नहीं करने वाला साथी अलग हो जाना चाहे, तो वह अलग हो जाये। ऐसी स्थिति में विश्वास करने वाला भाई या बहन बाध्य नहीं है। ईश्वर ने आप को शान्ति का जीवन बिताने के लिए बुलाया है। |
16) क्या जाने, हो सकता है कि पत्नी अपने पति की मुक्ति का कारण बन जाये और पति अपनी पत्नी की मुक्ति का कारण। |
17) सामान्य नियम यह है कि हर एक व्यक्ति जिस स्थिति में ईश्वर द्वारा बुलाया गया है, उसी में बना रहे और उसे प्रभु से जो वरदान मिला है, उसी के अनुरूप जीवन बिताये। मैं सभी कलीसियाओं के लिए यही नियम निर्धारित करता हूँ। |
18) यदि बुलाये जाने के समय किसी का ख़तना हो चुका हो, तो वह इस बात को छिपाने की चेष्टा न करे और यदि बुलाये जाने के समय उसका ख़तना नहीं हुआ तो, वह अपना ख़तना नहीं कराये। |
19) न तो ख़तने का कोई महत्व है और न उसके अभाव का। महत्व ईश्वर की आज्ञाओं के पालन का है। |
20) हर एक व्यक्ति जिस स्थिति में बुलाया गया था, वह उसी में रहे। |
21) आप बुलाये जाने के समय दास थे? तो इसकी चिन्ता न करें, और यदि आप स्वतन्त्र हो सकें, तो दास ही बना रहना अधिक उचित समझें;, |
22) क्योंकि प्रभु द्वारा बुलाये जाने के समय जो दास था, वह प्रभु द्वारा दास्यमुक्त है और उसी प्रकार प्रभु द्वारा बुलाये जाने के समय जो स्वतंत्र था, वह मसीह का दास है। |
23) आप लोग कीमत पर खरीदे गये हैं, अब मनुष्यों के दास न बने। |
24) भाइयो! हर एक व्यक्ति जिस स्थिति में बुलाया गया था, वह उसी में ईश्वर के सामने रहे। |
25) कुँवारियों के विषय में मुझे प्रभु की ओर से कोई आदेश नहीं मिला है, किन्तु प्रभु की दया से विश्वास के योग्य होने के नाते मैं अपनी सम्मति दे रहा हूँ। |
26) मैं समझता हूँ कि वर्तमान संकट में यही अच्छा है कि मनुष्य जिस स्थिति में है, उसी स्थिति में रहे। |
27) आपने किसी स्त्री से विवाह किया है? तो उस से मुक्त होने का प्रयत्न न करें। आपकी पत्नी का देहान्त हुआ है? तो दूसरी की खोज न करें। |
28) यदि आप विवाह करते हैं, तो इस में कोई पाप नहीं और यदि कुँवारी विवाह करती है, तो वह पाप नहीं करती। किन्तु ऐसे लोग अवश्य ही विवाहित जीवन की झंझटें मोल लेते हैं- इन से मैं आप लोगों को बचाना चाहता हूँ। |
29) भाइयो! मैं आप लोगों से यह कहता हूँ - समय थोड़ा ही रह गया है। अब से जो विवाहित हैं, वे इस तरह रहे मानो विवाहित नहीं हों; |
30) जो रोते है, मानो रोते नहीं हो; जो आनन्द मनाते हैं, मानो आनन्द नहीं मनाते हों; जो खरीद लेते हैं, मानो उनके पास कुछ नहीं हो; |
31) जो इस दुनिया की चीजों का उपभोग करते है, मानो उनका उपभोग नहीं करते हों; क्योंकि जो दुनिया हम देखते हैं, वह समाप्त हो जाती है। |
32) मैं तो चाहता हूँ कि आप लोगों को कोई चिन्ता न हो। जो अविवाहित है, वह प्रभु की बातों की चिन्ता करता है। वह प्रभु को प्रसन्न करना चाहता है। |
33) जो विवाहित है, वह दुनिया की बातों की चिन्ता करता है। वह अपनी पत्नी को प्रसन्न करना चाहता है। |
34) उस में परस्पर-विरोधी भावों का संघर्ष है जिसका पति नहीं रह गया और जो कुँवारी है, वे प्रभु की बातों की चिन्ता करती है। तो विवाहित है, वह दुनिया की बातों की चिन्ता करती हैं, और अपने पति को प्रसन्न करना चाहती है। |
35) मैं आप लोगों की भलाई के लिए यह कह रहा हूँ। मैं आपकी स्वतन्त्रता पर रोक लगाना नहीं चाहता। मैं तो आप लोगों के सामने प्रभु की अनन्य भक्ति का आदर्श रख रहा हूँ। |
36) यदि कोई समझता है कि उसे अपनी प्रबल प्रवृत्तियों के कारण अपनी मँगेतर युवती के साथ अशोभनीय व्यवहार करने का डर है और उसे इसके सम्बन्ध में कुछ करना आवश्यक मालूम पड़ता है, तो वह जो चाहता है, कर सकता है। वे विवाह करें- इस में कोई पाप नहीं। |
37) किन्तु जिसका मन सुदृढ़ है, जो किसी भी तरह बाध्य नहीं है और अपनी इच्छा के अनुसार चलने का अधिकारी है, यदि उसने अपने मन में यह संकल्प किया है कि वह अपनी मँगेतर युवती का कुँवारापन सुरक्षित रखेगा, तो वह अच्छा करता है। |
38) इस प्रकार जो अपनी मँगेतर युवती से विवाह करता है, वह अच्छा करता है और जो विवाह नहीं करता, वह और भी अच्छा करता है। |
39) जब तक किसी स्त्री का पति जीवित है, वह तब तक उस से बँधी रहती है। यदि पति मर जाता है, तो वह मुक्त हो जाती और जिसके साथ चाहे, विवाह कर सकती हैं- परन्तु केवल किसी मसीही से। |
40) फिर भी यदि वह वैसी ही रह जाये, तो यह और अच्छा करती है। यह मेरा विचार है और मुझे विश्वास है कि ईश्वर का मनोभाव मुझ में विद्यमान है। |
1) अब देवताओं को अर्पित मांस के विषय में। हम सबों को ज्ञान प्राप्त है- यह मानी हुई बात है; किन्तु ज्ञान घमण्डी बनाता है, जब कि प्रेम निर्माण करता है। |
2) यदि कोई समझता है कि वह कुछ जानता है, तो वह अब तक यह नहीं जानता कि किस प्रकार जानना चाहिए। |
3) किन्तु यदि कोई ईश्वर को प्यार करता है, तो वह ईश्वर द्वारा अपनाया गया है। |
4) देवताओं को अर्पित मांस खाने के विषय में हम जानते हैं कि विश्व भर में वास्तव में किसी देवी-देवता का अस्तित्व नहीं है-एक मात्र ईश्वर के अतिरिक्त कोई ईश्वर नहीं है। |
5) यद्यपि भले ही आकाश में या पृथ्वी पर तथाकथित देवता हों, और सच पूछिए तो इस प्रकार के बहुत-से देवता और प्रभु हैं; |
6) फिर भी हमारे लिए तो एक ही ईश्वर है- वह पिता, जिस से सब कुछ उत्पन्न होता है और जिसके पास हमें जाना है- और एक ही प्रभु है, अर्थात ईसा मसीह, जिनके द्वारा सब कुछ बना है और हम भी उन्हीं के द्वारा। |
7) परन्तु यह ज्ञान सबों को प्राप्त नहीं है। कुछ लोग हाल में मूर्तिपूजक थे। वे वह मांस देवता को अर्पित समझ कर खाते हैं और उनका अन्तःकरण दुर्बल होने के कारण दूषित हो जाता है। |
8) भोजन हमें ईश्वर के निकट नहीं पहुँचा सकता। यदि हम उसे नहीं खाते, तो उस से हमें कोई हानि नहीं और यदि हम उसे खाते है, तो उस से हमें कोई लाभ नहीं। |
9) किन्तु इसका ध्यान रखें कि आपकी स्वतंत्रता दुर्बल लोगों के लिए पाप का कारण न बने। |
10) मान लें कि आप को 'ज्ञान' प्राप्त हो और आप किसी देवमन्दिर में भोजन करने जायें। यदि ऐसा कोई व्यक्ति आप को यह करते देख ले, जिसका अन्तःकरण दुर्बल है, तो क्या उसे देवताओं को अर्पित मांस खाने के लिए प्रोत्साहन नहीं मिलेगा? |
11) इस तरह आपके 'ज्ञान' के कारण उस दुर्बल भाई का विनाश होता है, जिसके लिए मसीह मरे। |
12) भाइयो के विरुद्ध इस प्रकार पाप करने और उनके दुर्बल अन्तकरण को आघात पहुँचाने से आप मसीह के विरुद्ध पाप करते हैं। |
13) इसलिए यदि मेरा भोजन मेरे भाई के लिए पाप का कारण बनता है, तो मैं फिर कभी मांस नहीं खाऊँगा। कहीं ऐसा न हो कि मैं अपने भाई के लिए पाप का कारण बन जाऊँ। |
1) क्या मैं स्वतंत्र व्यक्ति नहीं? क्या मैं प्रेरित नहीं? क्या मैंने हमारे प्रभु ईसा को नहीं देखा? क्या आप लोग प्रभु में मेरे परिश्रम के परिणाम नहीं? |
2) मैं दूसरों की दृष्टि में भले ही प्रेरित न होऊँ, किन्तु आपके लिए अवश्य हूँ; क्योंकि आप लोग प्रभु में मेरे प्रेरितत्व के प्रमाण हैं। |
3) जो लोग मुझ पर अभियोग लगाते हैं, उन से मेरा कहना यह है- |
4) क्या हमें खाने-पीने का अधिकार नहीं? |
5) क्या अन्य प्रेरितों, प्रभु के भाइयों और केफ़स की तरह में किसी मसीही महिला को अपने साथ ले चलने का अधिकार नहीं? |
6) क्या मैं और बरनाबस ही अपने जीवन-निर्वाह के लिए काम करने को बाध्य हैं? |
7) क्या यह कभी सुनने में आया कि कोई अपने खर्च से सेना में सेवा करता है? कौन दाख़बारी लगा कर उसका फल नहीं खाता? कौन झुण्ड चरा कर उस झुण्ड का दूध नहीं पीता? |
8) यह मैं साधारण जीवन के उदाहरणों के आधार पर ही नहीं कह रहा हूँ। संहिता भी यही कहती है; |
9) तुम दँवरी करते बैल के मुँह में मोहरा मत लगाओ। क्या ईश्वर को बैलों की चिन्ता है |
10) या वह हमारे लिए यह कहता है? यह निश्चय ही हमारे लिए लिखा हुआ है; क्योंकि यह उचित है कि उपज का हिस्सा पाने की आशा से जोतने वाला हल चलाये और दाँवने वाला दँवरी करे। |
11) यदि हमने आप लोगों के लिए आध्यात्मिक बीज बोये हैं, तो क्या आप से भौतिक फ़सल की आशा करना कोई बड़ी बात है? |
12) यदि दूसरे लोगों का आप पर यह अधिकार है, तो क्या उनकी अपेक्षा हमारा अधिक अधिकार नहीं? फिर भी हमने इस अधिकार का उपयोग नहीं किया है। उलटे, हम मसीह के सुसमाचार के प्रचार में कोई बाधा न डालें, इसलिए हम हर प्रकार का कष्ट सहते हैं। |
13) क्या आप लोग यह नहीं जानते कि मन्दिर में धर्मसेवा करने वालों को मन्दिर से भोजन मिलता है और वेदी की सेवा करने वाले वेदी के चढ़ावे के भागीदार हैं? |
14) इसी तरह प्रभु ने आदेश दिया कि सुसमाचार के प्रचारक सुसमाचार से जीविका चलायें। |
15) परन्तु मैंने इन अधिकारों का उपयोग नहीं किया और यह मैं इसलिए नहीं लिख रहा हूँ कि अब मेरे लिए ऐसा किया जाये। मैं भले ही मर जाऊँ, किन्तु मैं अपने को इस गौरव से वंचित नहीं होने दूँगा। |
16) मैं इस पर गौरव नहीं करता कि मैं सुसमाचार का प्रचार करता हूँ। मुझे तो ऐसा करने का आदेश दिया गया है। धिक्कार मुझे, यदि मैं सुसमाचार का प्रचार न करूँ! |
17) यदि मैं अपनी इच्छा से यह करता, तो मुझे पुरस्कार का अधिकार होता। किन्तु मैं अपनी इच्छा से यह नहीं करता। मुझे जो कार्य सौंपा गया है, मैं उसे पूरा करता हूँ। |
18) तो, पुरस्कार पर मेरा कौन-सा दावा है? वह यह है कि मैं कुछ लिये बिना सुसमाचार का प्रचार करता हूँ और सुसमाचार-सम्बन्धी अपने अधिकारों का पूरा उपयोग नहीं करता। |
19) सब लोगों से स्वतन्त्र होने पर भी मैंने अपने को सबों का दास बना लिया है, जिससे मैं अधिक -से-अधिक लोगों का उद्धार कर सकूँ। |
20) मैं यहूदियों के लिए यहूदी-जैसा बना, जिससे मैं यहूदियों का उद्धार कर सकँू। जो लोग संहिता के अधीन हैं, उनका उद्धार करने के लिए मेैं संहिता के अधीन-जैसा बना, यद्यपि मैं वास्तव में संहिता के अधीन नहीं हूँ। |
21) जो लोग संहिता के अधीन नहीं है, उनका उद्धार करने के लिए मैं उनके जैसा बना, यद्यपि मैं मसीह की संहिता के अधीन होने के कारण मैं वास्तव में ईश्वर की संहिता से स्वतन्त्र नहीं हूँ। |
22) मैं दुर्बलों के लिए दुर्बल-जैसा बना, जिससे मैं उनका उद्धार कर सकूँ। मैं सब के लिए सब कुछ बन गया हूँ, जिससे किसी-न-किसी तरह कुछ लोगों का उद्धार कर सकूँ। |
23) मैं यह सब सुसमाचार के कारण कर रहा हूँ, जिससे मैं भी उसके कृपादानों का भागी बन जाऊँ। |
24) क्या आप लोग यह नहीं जानते कि रंगभूमि में तो सभी प्रतियोगी दौड़ते हैं, किन्तु पुरस्कार एक को ही मिलता है? आप इस प्रकार दौड़ें कि पुरस्कार प्राप्त करें। |
25) सब प्रतियोगी हर बात में संयम रखते हैं। वे नश्वर मुकुट प्राप्त करने के लिए ऐसा करते हैं, जब कि हम अनश्वर मुकुट के लिए। |
26) इसलिए मैं एक निश्चित लक्ष्य सामने रख कर दौड़ता हूँ। मैं ऐसा मुक्केबाज हूँ, जो हवा में मुक्का नहीं मारता। |
27) मैं अपने शरीर को कष्ट देता हूँ और उसे वश में रखता हूँ। कहीं ऐसा न हो कि दूसरों को प्रवचन देने के बाद स्वयं मैं ही ठुकरा दिया जाऊँ। |
1) भाइयो! मैं आप लोगों को याद दिलाना चाहता हूँ कि हमारे सभी बाप-दादे बादल की छाया में चले, सबों ने समुद्र पार किया, |
2) और इस प्रकार बादल और समुद्र का बपतिस्मा ग्रहण कर सब-के-सब मूसा के सहभागी बने। |
3) सबों ने एक ही आध्यात्मिक भोजन ग्रहण किया |
4) और एक ही आध्यामिक पेय का पान किया; क्योंकि वे एक आध्यात्मिक चट्टान का जल पीते थे, जो उनके साथ-साथ चलती थी और वह चट्टान थी - मसीह। |
5) फिर भी उन में अधिकांश लोग ईश्वर के कृपा पात्र नहीं बन सके और मरुभूमि में ढेर हो गये। |
6) ये घटनाएँ हम को यह शिक्षा देती हैं कि हमें उनके समान बुरी चीजों का लालच नहीं करना चाहिए। |
7) उन में कुछ लोगों के समान आप मूतिपूजक न बनें, जिन के विषय में यह लिखा है- वे खाने-पीने के लिए बैठे और खेलने कूदने के लिए उठे। |
8) हम व्यभिचार नहीं करें, जैसा कि उन में कुछ लोगों ने व्यभिचार किया और एक ही दिन में तेईस हजार मर गये। |
9) हम प्रभु की परीक्षा नहीं लें, जैसा कि उन में कुछ लोगों ने किया और साँपों ने उन्हें नष्ट कर दिया। |
10) आप लोग नहीं भुनभुनायें, जैसा कि उन में कुछ भुनभुनाये और विनाशक दूत ने उन्हें नष्ट कर दिया। |
11) यह सब दृष्टान्त के रूप में उन पर बीता और हमें चेतावनी देने के लिए लिखा गया है, जो युग के अन्त में विद्यमान है। |
12) इसलिए जो यह समझता है कि मैं दृढ़ हँू, वह सावधान रहे। कहीं ऐसा न हो कि वह विचलित हो जाये। |
13) आप लोगों को अब तक ऐसा प्रलोभन नहीं दिया गया है, जो मनुष्य की शक्ति से परे हो। ईश्वर सत्यप्रतिज्ञ है। वह आप को ऐसे प्रलोभन में पड़ने नहीं देगा, जो आपकी शक्ति से परे हो। वह प्रलोभन के समय आप को उससे निकलने का मार्ग दिखायेगा और इस प्रकार आप उस में दृढ़ बने रह सकेंगे। |
14) प्रिय भाइयो! आप मूर्तिपूजा से दूर रहें। |
15) मैं आप लोगों को समझदार जान कर यह कह रहा हूँ। आप स्वयं मेरी बातों पर विचार करें। |
16) क्या आशिष का प्याला, जिस पर हम आशिष की प्रार्थना पढ़ते हैं, हमें मसीह के रक्त का सहभागी नहीं बनाता? क्या वह रोटी, जिसे हम तोड़ते हैं, हमें मसीह के शरीर का सहभागी नहीं बनाती? |
17) रोटी तो एक ही है, इसलिए अनेक होने पर भी हम एक हैं; क्योंकि हम सब एक ही रोटी के सहभागी हैं। |
18) इस्राएलियों को देखिए! क्या बलि खाने वाले वेदी के सहभागी नहीं हैं? |
19) मैं यह नहीं कहता कि देवता को चढ़ाये हुए मांस की कोई विशेषता है अथवा यह कि देवमूर्तियों का कुछ महत्व है। |
20) किन्तु-धर्मग्रन्थ के अनुसार- गैर-यहूदियों के बलिदान ईश्वर को नहीं, बल्कि अपदूतों को चढ़ाये जाते हैं। मैं यह नहीं चाहता कि आप लोग अपदूतों के सहभागी बनें। |
21) आप प्रभु का प्याला और अपदूतों का प्याला, दोनों नहीं पी सकते। आप प्रभु की मेज और अपदूतों की मेज, दोनों के सहभागी नहीं बन सकते। |
22) क्या हम प्रभु को चुनौती देना चाहते हैं? क्या हम उस से बलवान् हैं? |
23) सब कुछ करने की अनुमति है, किन्तु सब कुछ हितकर नहीं। सब कुछ करने की अनुमति है, किन्तु सब कुछ लाभदायक नहीं। |
24) सब कोई अपना नहीं, बल्कि दूसरों के हित का ध्यान रखें। |
25) बाजार में जो मांस बिकता है, उसे आप, अन्तःकरण की शान्ति के लिए पूछताछ किये बिना, खा सकते हैं; |
26) क्योंकि पृथ्वी और उस में जो कुछ है- सब प्रभु का है। |
27) जब अविश्वासियों में कोई आप को निमन्त्रण देता है और आप जाना चाहते हैं, तो कुछ परोसा जाता है उसे आप, अन्तःकरण की शान्ति के लिए पूछताछ किये बिना, खा सकते हैं। |
28) परन्तु यदि कोई आप से कहे- यह देवता की चढ़ाया हुआ मांस है, तो बतलाने वाले और अन्तःकरण के कारण उसे न खायें। |
29) मेरा अभिप्राय आपके अन्तःकरण से है; क्योंकि मेरी स्वतन्त्रता दूसरे के अन्तःकरण के कारण बाधित नहीं है। |
30) यदि मैं धन्यवाद की प्रार्थना पढ़ने के बाद भोजन के लिए मैं ईश्वर को ही धन्यवाद देता हूँ, उसके कारण किसी को मेरी निन्दा करने का अधिकार नहीं। |
31) इसलिए आप लोग चाहे खायें या पियें, या जो कुछ भी करें, सब ईश्वर की महिमा के लिए करें। |
32) आप किसी के लिए पाप का कारण न बनें- न यहूदियों के लिए, न यूनानियों और न ईश्वर की कलीसिया के लिए। |
33) मैं भी अपने हित का नहीं, बल्कि दूसरों के हित का ध्यान रख सब बातों में सब को प्रसन्न करने का प्रयत्न करता हूँ, जिससे वे मुक्ति प्राप्त कर सकें। |
1) आप लोग मेरा अनुसरण करें, जिस तरह मैं मसीह का अनुसरण करता हूँ। |
2) आप लोग हर बात में मुझे याद करते हैं और मुझसे जो शिक्षा मिलती है, उसमें दृढ़ बने रहते हैं। इसलिए मैं आप लोगों की प्रशंसा करता हूँ। |
3) फिर भी मैं आप को यह बताना चाहता हूँ कि मसीह प्रत्येक पुरुष के शीर्ष हैं, पुरुष स्त्री का शीर्ष है और ईश्वर मसीह का शीर्ष। |
4) जो पुरुष सिर ढक कर प्रार्थना या भविष्यवाणी करता है, वह अपने सिर का अपमान करता है |
5) और जो स्त्री बिना सिर ढ़के प्रार्थना या भविष्यवाणी करती है, वह अपने सिर का अपमान करती है; क्योंकि वह उस स्त्री-जैसी है, जिसका सिर मूँड़ा हुआ है। |
6) यदि कोई स्त्री अपना सिर नहीं ढकती, तो सिर मुँड़वा ले। यदि कटे हुए केश या मूँड़ा हुआ सिर स्त्री के लिए लज्जा की बात है, तो वह अपना सिर ढ़क ले। |
7) पुरुष को अपना सिर नहीं ढकना चाहिए; क्योंकि वह ईश्वर का प्रतिरूप और उसकी महिमा का प्रतिबिम्ब है। जब कि स्त्री पुरुष की महिमा का प्रतिबिम्ब है। |
8) पुरुष स्त्री से नहीं बना, बल्कि स्त्री पुरुष से बनी |
9) और पुरुष की सृष्टि स्त्री के लिए नहीं हुई, बल्कि पुरुष के लिए स्त्री की सृष्टि हुई। |
10) इसलिए स्वर्गदूतों के कारण स्त्री को अधीनता का चिन्ह अपने सिर पर पहनना चाहिए। |
11) फिर भी प्रभु के विधान के अनुसार स्त्री के बिना पुरुष कुछ नहीं है और पुरुष के बिना स्त्री कुछ नहीं। |
12) यदि पुरुष से स्त्री की सृष्टि हुई, तो पुरुष का जन्म स्त्री से होता है और सब कुछ का मूलस्त्रोत ईश्वर है। |
13) आप लोग स्वयं विचार करें- क्या यह उचित है कि स्त्री बिना सिर ढके ईश्वर से प्रार्थना करे? |
14) क्या प्रकृति स्वयं आप को यह शिक्षा नहीं देती कि लम्बे केश रखना पुरुष के लिए लज्जा की बात है, |
15) जब कि स्त्री के लिए यह गौरव की बात है, क्योंकि उसे आवरण के रूप में लम्बे केश मिले हैं? |
16) यदि कोई इसके विषय में विवाद करना चाहे, तो वह यह जान ले कि न तो हमारे यहाँ कोई दूसरी प्रथा प्रचलित है और न ईश्वर की कलीसियाओं में ही। |
17) मैं ये आदेश देते हुए इस पर अपना असन्तोष प्रकट करना चाहता हूँ कि आपकी सभाओं से आप को लाभ से अधिक हानि होती है। |
18) पहली बात तो यह है कि मेरे सुनने में आया कि जब आपके यहाँ धर्मसभा होती है, तो दलबन्दी स्पष्ट हो जाती है और मैं एक सीमा तक उस पर विश्वास भी करता हूँ। |
19) आप लोगों में फूट होना एक प्रकार से अनिवार्य है, जिससे यह स्पष्ट हो जाये कि आप में कौन से लोग खरे हैं। |
20) आप लोग जिस तरह सभा के लिए एकत्र होते हैं, वह प्रभु-भोज कहलाने योग्य नहीं; |
21) क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति झटपट अपना-अपना भोजन खाने में लग जाता है। इस तरह कोई भूखा रह जाता है और कोई जरूरत से ज्यादा पीता है। |
22) क्या खाने पीने के लिए आपके अपने घर नहीं हैं? या क्या आप ईश्वर की कलीसिया का तिरस्कार करना और दरिद्रों को नीचा दिखाना चाहते हैं? मैं आप लोगों से क्या कहँू? क्या मैं आपकी प्रशंसा करूँ? मैं इस बात के ेलिए आपकी प्रशंसा नहीं कर सकता। |
23) मैंने प्रभु से सुना और आप लोगों को भी यही बताया कि जिस रात प्रभु ईसा पकड़वाये गये, उन्होंने रोटी ले कर |
24) धन्यवाद की प्रार्थना पढ़ी और उसे तोड़ कर कहा-यह मेरा शरीर है, यह तुम्हारे लिए है। यह मेरी स्मृति में किया करो। |
25) इसी प्रकार, ब्यारी के बाद उन्होंने प्याला ले कर कहा- यह प्याला मेरे रक्त का नूतन विधान है। जब-जब तुम उस में से पियो, तो यह मेरी स्मृति में किया करो। |
26) इस प्रकार जब-जब आप लोग यह रोटी खाते और वह प्याला पीते हैं, तो प्रभु के आने तक उनकी मृत्यु की घोषणा करते हैं। |
27) इसलिए जो अयोग्य रीति से वह रोटी खाता या प्रभु का प्याला पीता है, वह प्रभु के शरीर और रक्त के विरुद्ध अपराध करता है। |
28) अपने अन्तःकरण की परीक्षा करने के बाद ही मनुष्य वह रोटी खाये और वह प्याला पिये। |
29) जो प्रभु का शरीर पहचाने बिना खाता और पीता है, वह अपनी ही दण्डाज्ञा खाता और पीता है। |
30) यही कारण है कि आप में बहुत-से लोग रोगी और दुर्बल हैं और कुछ लोग मर गये हैं। |
31) यदि हम अपने अन्तःकरण की परीक्षा करते, तो हमें दण्ड नहीं दिया जाता; |
32) किन्तु जब हमें प्रभु का दण्ड मिलता ही है, तो यह हमारे सुधार के लिए है, जिससे हम संसार के दण्ड के भागी नहीं बनें। |
33) इसलिए, भाइयों! जब आप प्रभु-भोज के लिए एकत्र हों, तो एक दूसरे की प्रतीक्षा करें। |
34) यदि किसी को भूख लगे, तो वह अपने यहाँ खाये, जिससे आपकी सभा आपके दण्ड का कारण न बने। आपके यहाँ आने पर मैं दूसरी बातों का निपटारा करूँगा। |
1) भाइयो! हम चाहते हैं कि आप लोगों को आध्यात्मिक वरदानों के विषय में निश्चित जानकारी हो। |
2) आप जानते हैं कि जब आप मूर्तिपूजक थे, तो आप विवश हो कर उन गूँगी मूर्तियों की ओर खिंच जाते थे। |
3) इसलिए मैं आप लोगों को बता देता हूँ कि कोई ईश्वर के आत्मा से प्रेरित हो कर यह नहीं कहता, ''ईसा शापित हो'' और कोई पवित्र आत्मा की प्रेरणा के बिना यह नहीं कह सकता, ''ईसा की प्रभु है''। |
4) कृपादान तो नाना प्रकार के होते हैं, किन्तु आत्मा एक ही है। |
5) सेवाएँ तो नाना प्रकार की होती हैं, किन्तु प्रभु एक ही हैं। |
6) प्रभावशाली कार्य तो नाना प्रकार के होते हैं, किन्तु एक ही ईश्वर द्वारा सबों में सब कार्य सम्पन्न होते हैं। |
7) वह प्रत्येक को वरदान देता है, जिससे वह सबों के हित के लिए पवित्र आत्मा को प्रकट करे। |
8) किसी को आत्मा द्वारा प्रज्ञा के शब्द मिलते हैं, किसी को उसी आत्मा द्वारा ज्ञान के शब्द मिलते हैं |
9) और किसी को उसी आत्मा द्वारा विश्वास मिलता है। वही आत्मा किसी को रोगियों को चंगा करने का, |
10) किसी को चमत्कार दिखाने का, किसी को भविष्यवाणी करने का, किसी को आत्माओं की परख करने का, किसी को भाषाएँ बोलने का और किसी को भाषाओं की व्याख्या करने का वरदान देता है। |
11) एक ही और वही आत्मा यह सब करता है; वह अपनी इच्छा के अनुसार प्रत्येक को अलग-अलग वरदान देता है। |
12) मनुष्य का शरीर एक है, यद्यपि उसके बहुत-से अंग होते हैं और सभी अंग, अनेक होते हुए भी, एक ही शरीर बन जाते हैं। मसीह के विषय में भी यही बात है। |
13) हम यहूदी हों या यूनानी, दास हों या स्वतन्त्र, हम सब-के-सब एक ही आत्मा का बपतिस्मा ग्रहण कर एक ही शरीर बन गये हैं। हम सबों को एक ही आत्मा का पान कराया गया है। |
14) शरीर में भी तो एक नहीं, बल्कि बहुत-से अंग हैं। |
15) यदि पैर कहे, ''मैं हाथ नहीं हूँ, इसलिए शरीर का नहीं हूँ, तो क्या वह इस कारण शरीर का अंग नहीं? |
16) यदि कान कहे, 'मैं आँख नहीं हूँ, इसलिए शरीर का नहीं हूँ', तो क्या वह इस कारण शरीर का अंग नहीं? |
17) यदि सारा शरीर आँख ही होता, तो वह कैसे सुन सकता? यदि सारा शरीर कान ही होता, तो वह कैसे सूँघ सकता? |
18) वास्तव में ईश्वर ने अपनी इच्छानुसर शरीर में एक-एक अंग को अपनी-अपनी जगह रचा। |
19) यदि सब-के-सब एक ही अंग होते, तो शरीर कहाँ होता? |
20) वास्तव में बहुत-से अंग होने पर भी शरीर एक ही होता है। |
21) आँख हाथ से नहीं कह सकती, 'मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं', और सिर पैरों से नहीं कह सकता, 'मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं'। |
22) उल्टे, शरीर के जो अंग सब से दुर्बल समझे जाते हैं, वे अधिक आवश्यक हैं। |
23) शरीर के जिन अंगों को हम कम आदणीय समझते है।, उनका अधिक आदर करते हैं और अपने अशोभनीय अंगों की लज्जा का अधिक ध्यान रखते हैं। |
24) हमारे शोभनीय अंगों को इसकी जरूरत नहीं होती। तो, जो अंग कम आदरणीय हैं, ईश्वर ने उन्हें अधिक आदर दिलाते हुए शरीर का संगठन किया है। |
25) यह इसलिए हुआ कि शरीर में फूट उत्पन्न न हो, बल्कि उसके सभी अंग एक दूसरे का ध्यान रखें। |
26) यदि एक अंग को पीड़ा होती है, तो उसके साथ सभी अंगों को पीड़ा होती हैं और यदि एक अंग का सम्मान किया जाता है, तो उसके साथ सभी अंग आनन्द मनाते हैं। |
27) इसी तरह आप सब मिल कर मसीह का शरीर हैं और आप में से प्रत्येक उसका एक अंग है। |
28) ईश्वर ने कलीसिया में भिन्न-भिन्न लोगों को नियुक्त किया है- पहले प्रेरितों को, दूसरे भविष्यवक्ताओं को, तीसरे शिक्षकों और तब चमत्कार दिखाने वालों को। इसके बाद स्वस्थ करने वालों, परोपकारकों, प्रशासकों, अनेक भाषाएँ बोलने वालों को। |
29) क्या सब प्रेरित हैं? सब भविष्यवक्ता हैं? सब शिक्षक हैं? सब चमत्कार दिखने वाले हैं? सब भाषाएँ बोलने वाले हैं? सब व्याख्या करने वाले हैं? |
30) सब स्वस्थ करने वाले हैं? सब भाषाएँ बोलने वाले हैं? सब व्याख्या करने वाले हैं? |
31) आप लोग उच्चतर वरदानों की अभिलाषा किया करें। मैं अब आप लोगों को सर्वोत्तम मार्ग दिखाता चाहता हूँ। |
1) मैं भले ही मनुष्यों तथा स्वर्गदूतों की सब भाषाएँ बोलूं; किन्तु यदि मुझ में प्रेम का अभाव है, तो मैं खनखनाता घड़ियाल या झनझनाती झाँझ मात्र हूँ। |
2) मुझे भले ही भविष्यवाणी का वरदान मिला हो, मैं सभी रहस्य जानता होऊँ, मुझे समस्त ज्ञान प्राप्त हो गया हो, मेरा विश्वास इतना परिपूर्ण हो कि मैं पहाड़ों को हटा सकूँ; किन्तु यदि मुझ में प्रेम का अभाव हैं, तो मैं कुछ भी नहीं हूँ। |
3) मैं भले ही अपनी सारी सम्पत्ति दान कर दूँ और अपना शरीर भस्म होने के लिए अर्पित करूँ; किन्तु यदि मुझ में प्रेम का अभाव है, तो इस से मुझे कुछ भी लाभ नहीं। |
4) प्रेम सहनशील और दयालु है। प्रेम न तो ईर्ष्या करता है, न डींग मारता, न घमण्ड, करता है। |
5) प्रेम अशोभनीय व्यवहार नहीं करता। वह अपना स्वार्थ नहीं खोजता। प्रेम न तो झुंझलाता है और न बुराई का लेखा रखता है। |
6) वह दूसरों के पाप से नहीं, बल्कि उनके सदाचरण से प्रसन्न होता है। |
7) वह सब-कुछ ढाँक देता है, सब-कुछ पर विश्वास करता है, सब-कुछ की आशा करता है और सब-कुछ सह लेता है। |
8) भविष्यवाणियाँ जाती रहेंगी, भाषाएँ मौन हो जायेंगी और ज्ञान मिट जायेगा, किन्तु प्रेम का कभी अन्त नहीं होगा; |
9) क्योंकि हमारा ज्ञान तथा हमारी भविष्यवाणियाँ अपूर्ण हैं |
10) और जब पूर्णता आ जायेगी, तो जो अपूर्ण है, वह जाता रहेगा। |
11) मैं जब बच्चा था, तो बच्चों की तरह बोलता, सोचता और समझता था; किन्तु सयाना हो जाने पर मैंने बचकानी बातें छोड़ दीं। |
12) अभी तो हमें आईने में धुँधला-सा दिखाई देता है, परन्तु तब हम आमने-सामने देखेंगे। अभी तो मेरा ज्ञान अपूर्ण है; परन्तु तब मैं उसी तरह पूर्ण रूप से जान जाऊँगा, जिस तरह ईश्वर मुझे जान गया है। |
13) अभी तो विश्वास, भरोसा और प्रेम-ये तीनों बने हुए हैं। किन्तु उनमें प्रेम ही सब से महान् हैं। |
1) आप सब से पहले भ्रातृप्रेम की साधना करें। आप आध्यात्मिक वरदानों की, विशेष रूप से भविष्यवाणी के वरदान की अभिलाषा किया करें; |
2) क्योंकि जो अपरिचित भाषा में बोलता है, वह मनुष्यों से नहीं, बल्कि ईश्वर से बोलता है। उसे कोई नहीं समझता : वह आत्मा से प्रेरित हो कर रहस्यमय बातें करता है। |
3) किन्तु जो भविष्यवाणी करता है, वह मनुष्यों से आध्यात्मिक निर्माण, प्रोत्साहन और सान्त्वना की बातें करना है। |
4) जो अपरिचित भाषा में बोलता है, वह अपना ही आध्यात्मिक निर्माण करता है; किन्तु जो भविष्यवाणी करता है, वह कलीसिया का आध्यात्मिक निमार्ण करता है। |
5) मैं तो चाहता हूँ कि आप सबों को भाषाओं का वरदान मिले, किन्तु इस से अधिक यह चाहता हूँ कि आप को भविष्यवाणी का वरदान मिले। यदि भाषाएँ बोलने वाला कलीसिया के आध्यात्मिक निर्माण के लिए उनकी व्याख्या नहीं करता, तो इसकी अपेक्षा भविष्यवाणी करने वाले का महत्व अधिक है। |
6) भाइयो! मान लीजिए कि मैं आप लोगों के यहाँ भाषाएँ बोलने आऊँ और मेरी वाणी में न तो कोई नया सत्य हो, न ज्ञान की बात, न भविष्यवाणी और न कोई शिक्षा, तो उस से आप को क्या लाभ होगा? |
7) बाँसुरी या वीणा-जैसे निर्जीव वाद्यों के विषय में भी यही बात है। यदि उन से उत्पन्न स्वरों में कोई भेद नहीं है, तो यह कैसे पता चलेगा कि बाँसुरी या वीणा पर क्या बजाया जा रहा है? |
8) यदि तुरही का स्वर अस्पष्ट है, तो कौन अपने को युद्ध के लिए तैयार करेगा? |
9) आपके विषय में भी यही बात है। यदि आप सुबोधगम्य शब्द नहीं बोलते, तो यह कैसे पता चलेगा कि आप क्या कह रहे हैं? आप केवल हवा से बातें करेंगे। |
10) संसार में न जाने कितनी भाषाएँ हैं और उन में एक भी निरर्थक नहीं। |
11) यदि मैं किसी भाषा का अर्थ नहीं जानता, तो मैं बोलने वाले के लिए परदेशी हूँ और बोलने वाला मेरे लिए परदेशी है। |
12) आपके विषय में भी यही बात हैं। आप लोग आध्यात्मिक वरदानों की अभिलाषा करते हैं, इसलिए ऐसे वरदानों से सम्पन्न होने का प्रयत्न करें, जो कलीसिया के आध्यात्मिक निर्माण में सहायक हों। |
13) अपरिचित भाषा बोलने वाला प्रार्थना करे, जिससे उस को व्याख्या करने का वरदान भी मिल जाये; |
14) क्योंकि यदि मैं किसी अपरिचित भाषा में प्रार्थना करता हूँ, तो मेरी आत्मा प्रार्थना करती है, किन्तु मेरी बुद्धि निष्क्रिय है। |
15) तो, क्या करना चाहिए? मैं अपनी आत्मा से प्रार्थना करूँगा और अपनी बुद्धि से भी। मैं अपनी आत्मा से गीत गाऊँगा और अपनी बुद्धि से भी। |
16) यदि आप आत्मा से आविष्ट हो कर ईश्वर की स्तुति करते हैं, तो वहाँ उपस्थित साधारण व्यक्ति आपका धन्यवाद सुन कर कैसे 'आमेन' कह सकता है? वह यह भी नहीं जानता कि आप क्या कह रहे हैं। |
17) आपका धन्यवाद भले ही सुन्दर हो, किन्तु इस से दूसरे व्यक्ति का आध्यात्मिक निर्माण नहीं होता। |
18) ईश्वर को धन्यवाद! मुझे आप सबों से अधिक भाषाएँ बोलने का वरदान मिला है; |
19) किन्तु अपरिचित भाषा में दस हजार शब्द बोलने की अपेक्षा मैं दूसरों को शिक्षा देने के लिए धर्मसभा में अपनी बुद्धि से पाँच शब्द बोलना ज्यादा पसन्द करूँगा। |
20) भाइयो! सोच-विचार में बच्चे मत बनें। बुराई में बच्चे बने रहें, किन्तु सोच-विचार में सयाने बनें, |
21) संहिता में लिखा है- प्रभु कहता है : मैं अन्य-भाषा-भाषियों द्वारा विदेशी भाषा में इस प्रजा से बोलूँगा और वह मेरी बात पर ध्यान नहीं देगी। |
22) इस से स्पष्ट है कि अपरिचित भाषाएँ विश्वासियों के लिए नहीं, बल्कि अविश्वासियों के लिए चिन्ह स्वरूप हैं, और भविष्यवाणी अविश्वासियों के लिए नहीं, बल्कि विश्वासियों के लिए है। |
23) जब सारी कलीसिया इकट्ठी हो जाती है, तब यदि सब लोग भाषाएँ बोलने लगें और उस समय कोई अदीक्षित या अविश्वासी व्यक्ति भीतर आ जाये, तो क्या वे यह नहीं कहेंगे कि आप प्रलाप कर रहे हैं? |
24) परन्तु यदि सब भविष्यवाणी करें और कोई अविश्वासी या अदीक्षित व्यक्ति भीतर आ जाये, तो वह उनकी बातों से प्रभावित हो कर अपने को पापी समझेगा और अपने अन्तःकरण की जाँच करेगा। |
25) उसके हृदय के रहस्य प्रकट हो जायेंगे। वह मुँह के बल गिर कर ईश्वर की आराधना करेगा और यह स्वीकार करेगा कि ईश्वर वास्तव में आप लोगों के बीच विद्यमान है। |
26) भाइयो! इसका निष्कर्ष क्या है? जब-जब आप लोग सभा करते हैं, तो कोई भजन सुनाता है, कोई शिक्षा देता है, कोई अपने पर प्रकट किया हुआ सत्य बताता है, कोई अपरिचित भाषा बोलता है और कोई इसकी व्याख्या करता है; किन्तु यह सब आध्यात्मिक निर्माण के लिए होना चाहिए। |
27) जहाँ तक भाषाएँ बोलने का प्रश्न है, दो या अधिक-से-अधिक तीन व्यक्ति बारी-बारी से ऐसा करें और कोई दूसरा व्यक्ति इसकी व्याख्या प्रस्तुत करे। |
28) यदि कोई व्याख्या करने वाला नहीं हो, तो अपरिचित भाषा बोलने वाला धर्मसभा में चुप रहे। वह अपने से और ईश्वर से बोले। |
29) भविष्यवाणी करने वालों में दो या तीन बोलें और दूसरे लोग उनकी वाणी की परीक्षा करें। |
30) यदि बैठे हुए लोगों में किसी पर कोई सत्य प्रकट किया जात हो, तो पहला वक्ता चुप रहे। |
31) आप सभी लोग भविष्यवाणी कर सकते हैं, किंतु आप एक-एक कर बोलें, जिससे सबों को शिक्षा और प्रोत्साहन मिले। |
32) भविष्यवक्ता अपनी भविष्यवाणी पर नियन्त्रण रख सकता है; |
33) क्योंकि ईश्वर कोलाहल का नहीं, वरन् शान्ति का ईश्वर है। सन्तों की सभी कलीसियाओं की तरह |
34) आपकी धर्मसभाओं में भी स्त्रियाँ मौन रहें। उन्हें बोलने की अनुमति नहीं है। वे अपनी अधीनता स्वीकार करें, जैसा कि संहिता कहती है। |
35) यदि वे किसी बात की जानकारी प्राप्त करना चाहती हैं, तो वे घर में अपने पतियों से पूछें। धर्मसभा में बोलना स्त्री के लिए लज्जा की बात है। |
36) क्या ईश्वर का वचन आप लोगों के यहाँ से फैला, या केवल आप लोगों तक पहुँचा है? |
37) यदि कोई समझता है कि वह भविष्यवाणी या अन्य आध्यात्मिक वरदानों से सम्पन्न है, तो वह यह अच्छी तरह जान ले कि मैं जो कुछ आप लोगों को लिख रहा हूँ, वह प्रभु का आदेश है। |
38) यदि कोई यह अस्वीकार करता है, तो वह प्रभु द्वारा अस्वीकार किया जाता है। |
39) भाइयो! निष्कर्ष यह है- आप भविष्यवाणी के वरदान की अभिलाषा करें, किन्तु किसी को भाषाएँ बोलने से न रोकें। |
40) सब कुछ उचित और व्यवस्थित रूप से किया जाये। |
1) भाइयो! मैं आप लोगों को उस सुसमाचार का स्मरण दिलाना चाहता हूँ, जिसका प्रचार मैंने आपके बीच किया, जिसे आपने ग्रहण किया, जिस में आप दृढ बने हुये हैं, |
2) और यदि आप उसे उसी रूप में बनाये रखेंगे, जिस रूप में मैंने उसे आप को सुनाया, तो उसके द्वारा आप को मुक्ति मिलेगी। नहीं तो आपका विश्वाश व्यर्थ होगा। |
3) मैंने आप लोगों को मुख्य रूप से वही शिक्षा सुनायी, जो मुझे मिली थी और वह इस प्रकार है- मसीह हमारे पापों के प्रायश्चित के लिए मरे, जैसा कि धर्मग्रन्थ में लिखा है। |
4) वह कब्र में रखे गये और तीसरे दिन जी उठे, जैसा कि धर्मग्रन्थ में लिखा है। |
5) वह कैफ़स को और बाद में बारहों में दिखाई दिये। |
6) फिर वही एक ही समय पाँच सौ से अधिक भाइयों को दिखाई दिये। उन में से अधिकांश आज भी जीवित हैं, यद्यपि कुछ मर गये हैं। |
7) बाद में वह याकूब को और फिर सब प्रेरितों को दिखाई दिये। |
8) सब के बाद वह मुझे भी, मानों ठीक समय से पीछे जन्में को दिखाई दिये। |
9) मैं प्रेरितों में सब से छोटा हूँ। सच पूछिए, तो मैं प्रेरित कहलाने योग्य भी नहीं; क्योंकि मैंने ईश्वर की कलीसिया पर अत्याचार किया है। |
10) मैं जो कुछ भी हूँ, ईश्वर की कृपा से हूँ और मुझे उस से जो कृपा मिली, वह व्यर्थ नहीं हुई। मैंने उन सब से अधिक परिश्रम किया है- मैंने नहीं, बल्कि ईश्वर की कृपा ने, जो मुझ में विद्यमान है। |
11) ख़ैर, चाहे मैं होऊँ, चाहे वे हों - हम वही शिक्षा देते हैं और उसी पर आप लोगों ने विश्वास किया। |
12) यदि हमारी शिक्षा यह है कि मसीह मृतकों में से जी उठे, तो आप लोगों में कुछ यह कैसे कहते हैं कि मृतकों का पुनरूत्थान नहीं होता? |
13) यदि मृतकों का पुनरूत्थान नहीं होता, तो मसीह भी नहीं जी उठे। |
14) यदि मसीह नहीं जी उठे, तो हमारा धर्मप्रचार व्यर्थ है और आप लोगों का विश्वास भी व्यर्थ है। |
15) तब हम ने ईश्वर के विषय में मिथ्या साक्ष्य दिया; क्योंकि हमने ईश्वर के विषय में यह साक्ष्य दिया कि उसने मसीह को पुनर्जीवित किया और यदि मृतकों का पुनरूत्थान नहीं होता, तो उसने ऐसा नहीं किया। |
16) कारण, यदि मृतकों का पुनरुत्थान नहीं होता, तो मसीह भी नहीं जी उठे। |
17) यदि मसीह नहीं जी उठे, तो आप लोगों का विश्वास व्यर्थ है और आप अब तक अपने पापों में फंसे हैं। |
18) इतना ही नहीं, जो लोग मसीह में विश्वास करते हुए मरे हैं, उनका भी विनाश हुआ है। |
19) यदि मसीह पर हमारा भरोसा इस जीवन तक ही सीमित है, तो हम सब मनुष्यों में सब से अधिक दयनीय हैं। |
20) किन्तु मसीह सचमुच मृतकों में से जी उठे। जो लोग मृत्यु में सो गये हैं, उन में वह सब से पहले जी उठे। |
21) चूँकि मृत्यु मनुष्य द्वारा आयी थी, इसलिए मनुष्य द्वारा ही मृतकों का पुनरूत्थान हुआ है। |
22) जिस तरह सब मनुष्य आदम (से सम्बन्ध) के कारण मरते हैं, उसी तरह सब मसीह (से सम्बन्ध) के कारण पुनर्जीवित किये जायेंगे- |
23) सब अपने क्रम के अनुसार, सब से पहले मसीह और बाद में उनके पुनरागमन के समय वे जो मसीह के बन गये हैं। |
24) जब मसीह बुराई की सब शक्तियों को नष्ट करने के बाद अपना राज्य पिता-परमेश्वर को सौंप देंगे, तब अन्त आ जायेगा; |
25) क्योंकि वह तब तक राज्य करेंगे, जब तक वह अपने सब शत्रुओं को अपने पैरों तले न डाल दें। |
26) सबों के अन्त में नष्ट किया जाने वाला शत्रु है- मृत्यु। |
27) धर्मग्रन्थ कहता है कि उसने सब कुछ उसके अधीन कर दिया है; किन्तु जब वह कहता है कि ''सब कुछ उसके अधीन हैं'', तो यह स्पष्ट है कि ईश्वर, जिसने सब कुछ मसीह के अधीन किया है, इस 'सब कुछ' में सम्मिलित नहीं हैं। |
28) जब सब कुछ पुत्र के अधीन कर दिया जायेगा, तब पुत्र स्वयं उस ईश्वर के अधीन हो जायेगा, जिसने सब कुछ उसके अधीन कर दिया और इस प्रकार ईश्वर सब पर पूर्ण शासन करेगा। |
29) यदि ऐसा नहीं है, तो उन लोगों का क्या, जो मृतकों के लिए बपतिस्मा ग्रहण करते हैं? यदि मृतकों का पुनरूत्थान बिलकुल नहीं होता, तो वे मृतकों के लिए बपतिस्मा क्यों ग्रहण करते हैं? |
30) और हम स्वयं-हम क्यों हर समय संकटों का सामना करते रहते हैं? |
31) आप हमारे प्रभु ईसा में मेरे गौरव हैं। मैं आपकी शपथ खा कर कहता हूँ कि मुझे प्रतिदिन मृत्यु का सामना करना पड़ता है। |
32) यदि मुझे, लोकोक्ति की भाषा में, 'एफेसुम में 'हिंस्र पशुओं से लड़ना' पड़ा, तो इस से मुझे क्या लाभ? यदि मृतकों का पुनरूत्थान नहीं होता, तो हम खायें और पियें; क्योंकि कल हमें मरना ही है। |
33) धोखे में न रहें! बुरी संगति से अच्छा चरित्र भ्रष्ट होता है। |
34) होश में आयें, जैसा कि उचित है और पाप करना छोड़ दें। आप में कुछ लोग ईश्वर के सम्बन्ध में कुछ नहीं जानते -मैं आप को लज्जित करने के लिए यह कह रहा हूँ। |
35) अब कोई प्रश्न पूछ सकता है, ''मृतक कैसे जी उठते हैं? वे कौन-सा शरीर ले कर आते हैं?'' |
36) अरे मूर्ख! तू जो बोता है, वह जब तक नहीं मरता तब तक उस में जीवन नहीं आ जाता। |
37) तू जो बोता है, वह बाद में उगने वाला पौधा नहीं, बल्कि निरा दाना है, चाहे वह गेहँू का हो या दूसरे प्रकार का। |
38) ईश्वर अपनी इच्छा के अनुसार उसे शरीर प्रदान करता है- प्रत्येक दाने को उसका अपना शरीर। |
39) प्रत्येक देह एक-जैसी नहीं होती। मनुष्यों, पशुओं, पक्षियों और मछलियों की देह अपने-अपने प्रकार की होती है। |
40) आकाशीय देह-पिण्ड होते हैं और पार्थिव देह-पिण्ड, किन्तु आकाशीय देह-पिण्डों का तेज एक प्रकार का है और पार्थिव देह-पिण्डों का दूसरे प्रकार का। |
41) सूर्य, चन्द्रमा और नक्षत्रों का तेज अपने-अपने प्रकार का होता है, क्योंकि एक नक्षत्र का तेज दूसरे नक्षत्र के तेज से भिन्न है। |
42) मृतकों के पुनरुत्थान के विषय में भी यही बात है। जो बोया जाता है, वह नश्वर है। जो जी उठता है, वह अनश्वर है। |
43) जो बोया जाता है, वह दीन-हीन है। जो जी उठता है, वह महिमान्वित है। जो बोया जाता है, वह दुर्बल है। जो जी उठता है, वह शक्तिशाली है। |
44) एक प्राकृत शरीर बोया जाता है और एक आध्यात्मिक शरीर जी उठता है। प्राकृत शरीर भी होता है और आध्यात्मिक शरीर भी। |
45) धर्मग्रन्थ में लिखा है कि प्रथम मनुष्य आदम जीवन्त प्राणी बन गया और अन्तिम आदम जीवन्तदायक आत्मा। |
46) जो पहला है, वह आध्यात्मिक नहीं, बल्कि प्राकृत है। इसके बाद ही आध्यात्मिक आता है। |
47) पहला मनुष्य मिट्टी का बना है और पृथ्वी का है, दूसरा स्वर्ग का है। |
48) मिट्टी का बना मनुष्य जैसा था, वैसे ही मिट्टी के बने मनुष्य हैं और स्वर्ग का मनुष्य जैसा है, वैसे ही सभी स्वर्गी होंगे; |
49) जिस तरह हमने मिट्टी के बने मनुष्य का रूप धारण किया है, उसी तरह हम स्वर्ग के मनुष्य का भी रूप धारण करेंगे। |
50) भाइयो! मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि निरा मनुष्य ईश्वर के राज्य का अधिकारी नहीं हो सकता और नश्वरता अनश्वरता की अधिकरी नहीं होती। |
51) (५१-५२) मैं आप लोगों को एक रहस्य बता रहा हूँ। हम सब नहीं मरेंगे, बल्कि क्षण भर में, पलक मारते, अन्तिम तुरही बजते ही हम सब-के-सब रूपान्तरित हो जायेंगे; तुरही बजेगी, मृतक अनश्वर बन कर पुनर्जीवित होंगे और हम रूपान्तरित हो जायेंगे; |
53) क्योंकि यह आवश्यक है कि यह नश्वर शरीर अनश्वरता को और यह मरणशील शरीर अमरता को धारण करे। |
54) जब यह नश्वर शरीर अनश्वरता को धारण करेगा, जब यह मरणशील शरीर अमरता को धारण करेगा, तब धर्मग्रन्थ का यह कथन पूरा हो जायेगा : मृत्यु का विनाश हुआ। विजय प्राप्त हुई। |
55) मृत्यु! कहाँ है तेरी विजय? मृत्यु! कहाँ है तेरा दंश? |
56) मृत्यु का दंश तो पाप है और पाप को संहिता से बल मिलता है। |
57) ईश्वर को धन्यवाद, जो हमारे प्रभु ईसा मसीह द्वारा हमें विजय प्रदान करता है! |
58) प्यारे भाइयो! आप दृढ़ तथा अटल बने रहें और यह जान कर कि प्रभु के लिए आपका परिश्रम व्यर्थ नहीं है, आप निरन्तर उनका कार्य करते रहें। |
1) सन्तों के लिए जो चन्दा एकत्र किया जा रहा है, उसके विषय में आप लोग उस निर्देश का पालन करें, जिसे मैंने गलातिया की कलीसियाओं के लिए निर्धारित किया है। | ||
2) आप लोगों में हर एक प्रति इतवार को अपनी आय के अनुसार कुछ अलग कर दे और अपने यहाँ सुरक्षित रखें। इस तरह मेरे पहुँचने के बाद ही चन्दा जमा करने की जरूरत नहीं होगी। | ||
3) जिन लोगों को आप उपयुक्त समझेंगे, आने पर मैं उन्हें पत्र दूँगा और वे आपका दान येरुसालेम पहुँचा देंगे, | ||
4) और यदि यही उचित जान पड़े कि मैं स्वयं जाऊँ, तो वे मेरे साथे चलेंगे। | ||
5) मैं मकेदूनिया का दौरा समाप्त कर आप लोगों के यहाँ आऊँगा, क्योंकि मैं मकेदूनिया जाने वाला हूँ। | ||
6) यदि हो सका, तो मैं आपके यहाँ कुछ समय तक रहूँगा और शायद जाड़ा भी बिताऊँगा जिससे इसके बाद मुझे जहाँ भी जाना होगा, आप मेरे लिए वहाँ जाने का प्रबन्ध करें। | ||
7) मैं इस बार यात्रा करते हुए आप से मिलना नहीं चाहता। प्रभु की इच्छा होने पर मैं कुछ समय तक आप लोगों के यहाँ रहने की आशा करता हूँ। | ||
8) मैं पेन्तेकोस्त तक एफ़ेसुस में रहूँगा, | ||
9) क्योंकि यहाँ मेरे कार्य के लिए एक विशाल द्वार खुला है और बहुत-से विरोधी भी हैं। | ||
10) जब तिमथी आयेंगे, तो इसका ध्यान रखियेगा कि उन्हें आपके यहाँ कोई चिन्ता न हो, क्योंकि वह मेरी तरह प्रभु के कार्य में लगे रहते हैं। | ||
11) उनकी उपेक्षा कोई नहीं करें। आप लोग मेरे पास उनके सकुशल वापस आने का प्रबन्ध करें, क्योंकि मैं भाइयों के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। | ||
12) भाई अपोल्लोस के विषय में मुझे यह कहना है कि मैंने उन से बहुत अनुरोध किया कि वह आपके यहाँ जायें, किन्तु वह अभी एकदम जाना नहीं चाहते। अवकाश मिलने पर वह आयेंगे। | ||
13) आप लोग जागते रहें, विश्वास में दृढ़ रहें और साहसी तथा समर्थ बनें। | ||
14) आप जो कुछ भी करें, भ्रातृभेम से प्रेरित हो कर करें। | ||
15) भाइयो! आप लोगों से मेरा एक अनुरोध है। आप स्तेफ़नुस के परिवार को जानते हैं। वे लोग अखैया में सब से पहले धर्म में सम्मिलित हुए और सन्तों की सेवा में लगे रहते हैं। | ||
16) आप ऐसे लोगों का नेतृत्व स्वीकार करें और उन सबों का भी, जो उनके साथ परिश्रम करते हैं। | ||
17) स्तेफ़नुस, फ़ोरतुनातुस और अखैकुस के आगमन से मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने आप लोगों की कमी पूरी कर दी | ||
18) और मेरे तथा आपके मन की चिन्ता को दूर कर दिया। आप ऐसे लोगों का सम्मान करें। | ||
19) एशिया की कलीसियाएँ आप लोगों को नमस्कार कहती हैं। आक्विला, प्रिस्का और उनके घर में सभा करने वाली कलीसिया आप को प्रभु में हार्दिक नमस्कार कहती है। | ||
20) सब भाई आप लोगों को नमस्कार कहते हैं। शान्ति के चुम्बन से एक दूसरे का अभिवादन करें। | ||
21) यह नमस्कार मेरे हाथ का लिखा हुआ है- पौलुस। | ||
22) जो प्रभु को प्यार नहीं करता, वह अभिशप्त हो। मराना था (प्रभु! आइए)। | ||
23) प्रभु ईसा की कृपा आप लोगों पर बनी रहे! | ||
24) मैं ईसा मसीह में आप सबों को प्यार करता हूँ। | ||
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of
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