पवित्र बाइबिल : Pavitr Bible ( The Holy Bible )

नया विधान : Naya Vidhan ( New Testament )

रोमियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र ( Romans )

अध्याय 1

1) यह पत्र र्ईसा मसीह के सेवक पौलुस की ओर से है, जो ईश्वर द्वारा प्रेरित चुना गया और उसके सुसमाचार के प्रचार के लिए नियुक्त किया गया है।
2) जैसा कि धर्मग्रन्थ में लिखा है, ईश्वर ने बहुत पहले अपने नबियों द्वारा इस सुसमाचार की प्रतिज्ञा की थी।
3) यह सुसमाचार ईश्वर के पुत्र, हमारे प्रभु ईसा मसीह के विषय में है।
4) वह मनुष्य के रूप में दाऊद के वंश में उत्पन्न हुए और मृतकों में से जी उठने के कारण पवित्र आत्मा द्वारा सामर्थ्य के साथ ईश्वर के पुत्र प्रमाणित हुए।
5) उन से मुझे प्रेरित बनने का वरदान मिला है, जिससे मैं उनके नाम पर ग़ैर-यहूदियों में प्रचार करूँ और वे लोग विश्वास की अधीनता स्वीकार करें।
6) उन में आप लोग भी हैं, जो ईसा मसीह के समुदाय के लिए चुने गये हैं।
7) मैं उन सबों के नाम यह पत्र लिख रहा हँू, जो रोम में ईश्वर के कृपापात्र और उसकी प्रजा के सदस्य हैं। हमारा पिता ईश्वर और प्रभु मसीह आप लोगों को अनुग्रह तथा शान्ति प्रदान करें!
8) सर्वप्रथम मैं आप सबों के लिए ईसा मसीह द्वारा अपने ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ; क्योंकि संसार भर में आप लोगों के विश्वास की चर्चा फैल गयी है।
9) जिस ईश्वर की उपासना मैं उसके पुत्र के सुसमाचार द्वारा सारे हृदय से करता हूँ वही मेरा साक्षी है कि मैं अपनी प्रार्थनाओं में आप लोगों को निरन्तर स्मरण करता हूँ
10) और सदा यह निवेदन करता हूँ कि ईश्वर की इच्छा से किसी-न-किसी तरह मुझे अन्त में आप लोगों के पास आने का सुअवसर मिले।
11) क्योंकि मुझे आप से मिलने की बड़ी इच्छा है; मैं आप को विश्वास में सुदृढ़ बनाने के लिए आध्यात्मिक वरदान देना चाहता हूँ;
12) या यों कहें- मैं चाहता हँू कि मैं आप लोगों के यहाँ रह कर आपके विश्वास से सान्त्वना प्राप्त करूँ और आप मेरे विश्वास से।
13) भाइयो! मैं आप लोगों को बताना चाहता हूँ कि मैंने बार-बार आपके यहाँ आने की योजना बनायी, किन्तु अब तक इस में कोई-न-कोई बाधा आती रही। जैसे अन्य राष्ट्रों में, वैसे आप के बीच भी मैं सफल कार्य करना चाहता हूँ।
14) मैं अपने को यूनानियों और गैर-यूनानियों, ज्ञानियों और अज्ञानियों के प्रति उत्तरदायी समझता हूँ;
15) इसलिए मैं रोम में आप लोगों के बीच सुसमाचार का प्रचार करने के लिए उत्सुक हूँ।
16) मुझे सुसमाचार से लज्जा नहीं। यह ईश्वर का सामर्थ्य है, जो प्रत्येक विश्वासी के लिए-पहले यहूदी और फिर यूनानी के लिए-मुक्ति का स्त्रोत है।
17) सुसमाचार में ईश्वर की सत्यप्रतिज्ञता प्रकट होती है, जो विश्वास द्वारा मनुष्य को धार्मिक बनाता है। जैसा कि लिखा है : धार्मिक मनुष्य अपने विश्वास द्वारा जीवन प्राप्त करेगा।
18) ईश्वर का क्रोध स्वर्ग से उन लोगों के सब प्रकार के अधर्म और अन्याय पर प्रकट होता है, जो अन्याय द्वारा सत्य को दबाये रखते हैं।
19) ईश्वर का ज्ञान उन लोगों को स्पष्ट रूप से मिल गया है, क्योंकि ईश्वर ने उसे उन पर प्रकट कर दिया है।
20) संसार की सृष्टि के समय से ही ईश्वर के अदृश्य स्वरूप को, उसकी शाश्वत शक्तिमत्ता और उसके ईश्वरत्व को बुद्धि की आँखों द्वारा उसके कार्यों में देखा जा सकता है। इसलिए वे अपने आचरण की सफाई देने में असमर्थ है;
21) क्योंकि उन्होंने ईश्वर को जानते हुए भी उसे समुचित आदर और धन्यवाद नहीं दिया। उनका समस्त चिन्तन व्यर्थ चला गया और उनका विवेकहीन मन अन्धकारमय हो गया।
22) वे अपने को बुद्धिमान समझते हैं, किन्तु वे मूर्ख बन गये हैं।
23) उन्होंने अनश्वर ईश्वर की महिमा के बदले नश्वर मनुष्य, पक्षियों, पशुओं तथा सर्पों की अनुकृतियों की शरण ली।
24) इसलिए ईश्वर ने उन्हें उनकी घृणित वासनाओं का शिकार होने दिया और वे एक दूसरे के शरीर को अपवित्र करते हैं।
25) उन्होंने ईश्वर के सत्य के स्थान पर झूठ को अपनाया और सृष्ट वस्तुओं की उपासना और आराधना की, किन्तु उस सृष्टिकर्ता की नहीं, जो युगों-युगों तक धन्य है। आमेन!
26) यही कारण है कि ईश्वर ने उन्हें उनकी घृणित वासनाओं का शिकार होने दिया। उनकी स्त्रियाँ प्राकृतिक संसर्ग छोड़कर अप्राकृतिक संसर्ग करने लगीं।
27) इसी प्रकार उनके पुरुष भी स्त्रियों का प्राकृतिक संसर्ग छोड़कर एक दूसरे के लिए वासना से जलने लगे। पुरुष पुरुषों के साथ व्यभिचार करते हैं और इस प्रकार वे अपने भ्रष्टाचार का उचित फल अपने शरीर में भोग रहे हैं।
28) उन्होंने ईश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त करना उचित नहीं समझा, इसलिए ईवर ने उन्हें उनकी भ्रष्ट बुद्धि पर छोड़ दिया, जिससे वे अनुचित आचरण करने लगे।
29) वे हर प्रकार के अन्याय, व्यभिचार, लोभ और बुराई से भर गये। वे ईर्ष्या, हत्या, बैर, छल-कपट और दुर्भाव से परिपूर्ण हैं।
30) वे चुगलखोर, परनिन्दक, ईश्वर के बैरी धृष्ट, घमण्डी और डींग मारने वाले हैं। वे बुराई करने में चतुर हैं, अपने माता-पिताओं की आज्ञा नहीं मानते।
31) और विवेकहीन तथा अविश्वासी है। उन में प्रेम और दया का अभाव है।
32) वे ईश्वर का यह निर्णय जानते हैं कि इस प्रकार के कर्म करने वाले प्राणदण्ड के योग्य हैं। फिर भी वे न केवल स्वयं यही कुकर्म करते हैं, बल्कि ऐसे कुकर्म करने वालों की प्रशंसा भी करते हैं।

अध्याय 2

1) इसलिए दूसरों पर दोष लगाने वाले! तुुम चाहे जो भी हो, अक्षम्य हो। तुम दूसरों पर दोष लगाने के कारण अपने को दोषी ठहराते हो; क्योंकि तुम, जो दूसरों पर दोष लगाते हो, यही कुकर्म करते हो।
2) हम जानते है कि ईश्वर ऐसे कुकर्म करने वालों को न्यायानुसार दण्डाज्ञा देता है।
3) तुम ऐसे कुकर्म करने वालों पर दोष लगाते हो और स्वयं यही कुकर्म करते हो, तो क्या तुम समझते हो कि ईश्वर की दण्डाज्ञा से बच जाओगे?
4) अथवा क्या तुम ईश्वर की असीम दयालुता, सहनशीलता और धैर्य का तिरस्कार करते और यह नहीं समझते कि ईश्वर की दयालुता तुम्हें पश्चाताप की ओर ले जाना चाहती है?
5) तुम अपने इस हठ और अपने हृदय के अपश्चाताप के कारण कोप के दिन के लिए अपने विरुद्ध कोप का संचय कर रहे हो, जब ईश्वर का न्यायसंगत निर्णय प्रकट हो जायेगा
6) और वह प्रत्येक मनुष्य को उसके कर्मों का फल देगा।
7) जो लोग धैर्यपूर्वक भलाई करते हुए महिमा, सम्मान और अमरत्व की खोज में लगे रहते हैं, ईश्वर उन्हें अनन्त जीवन प्रदान करेगा।
8) और जो लोग स्वार्थी हैं और सत्य से विद्रोह करते हुए अधर्म पर चलते हैं, वे ईश्वर के क्रोध और प्रकोप के पात्र होंगे।
9) बुराई करने वाले प्रत्येक मनुष्य को-पहले यहूदी और फिर यूनानी को-कष्ट और संकट सहना पड़ेगा।
10) और भलाई करने वाले प्रत्येक मनुष्य को -पहले यहूदी और फिर यूनानी को- महिमा, सम्मान और शान्ति मिलेगी;
11) क्योंकि ईश्वर किसी के साथ पक्षपात नहीं करता।
12) जो संहिता के अधीन नहीं थे, यदि उन्होंने पाप किया होगा, तो वे बिना संहिता के नष्ट हो जायेंगे और जिन्होंने संहिता के अधीन रहकर पाप किया होगा, उनका संहिता के अनुसार न्याय किया जायेगा।
13) क्योंकि संहिता सुनने वाले ईश्वर की दृष्टि में धार्मिक नहीं है, वरन् संहिता का पालन करने वाले धार्मिक माने जायेंगे।
14) जब गैर-यहूदी, जिन्हें संहिता नहीं मिली, अपने आप उसकी आज्ञाओं का पालन करते हैं, तो वे संहिता के बाहर रहते हुए भी स्वयं अपने लिए संहिता है;
15) क्योंकि वे इसका प्रमाण देते हैं कि संहिता की आज्ञाएँ उनके हृदय पर अंकित हैं। उनका अंतःकरण भी इसके सम्बन्ध में साक्ष्य देता है। उनके विचार उन्हें कभी दोषी, तो कभी निर्दोष ठहराते हैं।
16) यह सब उस दिन प्रकट किया जायेगा, जब ईश्वर, मेरे सुसमाचार के अनुसार, ईसा मसीह द्वारा मनुष्यों के गुप्त विचारों का न्याय करेगा।
17) तुम, जो यहूदी, कहलाते हो, संहिता पर निर्भर रहते हुए ईश्वर पर गर्व करते हो,
18) उसकी इच्छा जानते हो और संहिता द्वारा शिक्षित होने के कारण नैतिक मूल्य पहचानते हो।
19) तुम्हें संहिता द्वारा ज्ञान और सत्य का स्वरूप प्राप्त हो गया है, इसलिए तुम अपने को अन्धों का पथप्रदर्शक, अन्धकार में रहने वालों का प्रकाश,
20) अज्ञानियों का शिक्षक और भोले-भाले लोगों का गुरु समझते हो।
21) क्या तुम, जो दूसरों को शिक्षा देते हो, अपने को शिक्षा नहीं देते? तुम घोषित करते हो - चोरी मत करो, और स्वयं चोरी करते हो!
22) तुम कहते हो-व्यभिचार मत करो, और स्वयं व्यभिचार करते हो! तुम देवमूर्तियों से घृणा करते हो और मन्दिरों को लूटते हो!
23) तुम संहिता पर गर्व करते हो और संहिता के उल्लंघन द्वारा ईश्वर का अनादर करते हो!
24) क्योंकि जैसा कि धर्मग्रन्थ में लिखा है, तुम लोगों के कारण राष्ट्रों में ईश्वर के नाम की निन्दा हो रही है।
25) खतने से अवश्य लाभ होता है, बशर्ते तुम संहिता का पालन करते हो, किन्तु यदि तुम संहिता का उल्लंघन करते हो, तो तुम्हारा खतना निरर्थक है।
26) इसी प्रकार, यदि कोई बेखतना व्यक्ति संहिता का पालन करता है, तो क्या उसका बेखतनापन ख़तना नहीं माना जायेगा?
27) जो शरीर का खतना कराये बिना संहिता का पालन करता है, वह तुम्हारा न्याय करेगा; क्योंकि तुम संहिता और खतने से सम्पन्न होते हुए भी संहिता का उल्लंघन करते हो।
28) असली यहूदी वह नहीं, जो प्रत्यक्ष रूप से यहूदी दिखता है और असली खतना वह नहीं, जो शरीर में प्रत्यक्ष रूप से दिखता है।
29) असली यहूदी वह है, जो अपने अभ्यतन्तर में यहूदी है और असली खतना वह है, जो हृदय का है और संहिता के अनुसार नहीं, बल्कि आध्यात्मिक है। ऐसे व्यक्ति को मनुष्यों की नहीं, बल्कि ईश्वर की प्रशंसा प्राप्त है।

अध्याय 3

1) तो दूसरों की अपेक्षा यहूदी को अधिक क्या मिला? और खतने से क्या लाभ?
2) हर प्रकार से बहुत कुछ! सर्वप्रथम यहूदियों को ईश्वर की वाणी सुनायी गयी है।
3) यदि यहूदियों में कुछ अविश्वासी निकले, तो क्या हुआ? क्या उनका अविश्वास ईश्वर की सत्य प्रतिज्ञता नष्ट कर देगा?
4) कभी नहीं! भले ही प्रत्येक मनुष्य झूठा निकल जाये, किन्तु ईश्वर सत्यप्रतिज्ञ है। जैसा कि लिखा है- तेरे निर्णय सही प्रमाणित होंगे और इनकी जाँच होने पर तू विजयी होगा।
5) यदि हमारा अन्याय ईश्वर की न्यायप्रियता प्रदर्शित करता है, तो मैं यह मानवीय तर्क के अनुसार कह रहा हूँ- क्या ईश्वर अन्याय नहीं करता, जब वह हमें दण्ड देता है?
6) कभी नहीं! यदि ईश्वर अन्यायी होता, तो वह संसार का न्याय कैसे कर सकता?
7) यदि मेरी असत्यवादिता ईश्वर की सत्यप्रियता और उसकी महिमा को बढ़ावा देती है, तो पापी की तरह मेरा न्याय क्यों किया जाता है?
8) यदि ऐसी बात है, तो हम बुराई क्यों न करें, जिससे भलाई उत्पन्न हो? कुछ लोगों के अनुसार, जो मुझे बदनाम करना चाहते हैं, मेरी शिक्षा यही है। ऐसे लोग दण्डाज्ञा के योग्य हैं।
9) तो, क्या हम यहूदियों की कोई श्रेष्ठता नहीं? एकदम नहीं! हम इसका उल्लेख कर चुके हैं कि सब, चाहे यहूदी हों या यूनानी, पाप के अधीन हैं,
10) जैसा कि लिखा है-कोई भी धार्मिक नहीं रहा- एक भी नहीं;
11) कोई भी समझदार नहीं; ईश्वर की खोज में लगा रहने वाला कोई नहीं!
12) सभी भटक गये, सब समान रूप से भ्रष्ट हो गये हैं। कोई भी भलाई नहीं करता-एक भी नहीं।
13) उनका गला खुली हुई कब्र है; उनकी वाणी में छल-कपट और उनके होंठो के तले साँप का विष है।
14) उनका मुँह अभिशाप और कटुता से भरा है।
15) उनके पैर रक्तपात करने दौड़ते हैं,
16) उनके मार्ग में विनाश है और विपत्ति।
17) वे शान्ति का मार्ग नहीं जानते
18) और ईश्वर की श्रद्धा उनकी आँखों के सामने नहीं रहती।
19) हम जानते हैं कि संहिता जो कुछ कहती है, वह उन लोगों से कहती है, जो संहिता के अधीन हैं। इस प्रकार कोई कुछ नहीं कह सकता और ईश्वर के सामने समस्त संसार दण्ड के योग्य माना जाता है;
20) क्योंकि संहिता के कर्मकाण्ड द्वारा कोई भी मनुष्य ईश्वर के सामने धार्मिक नहीं माना जायगा : संहिता केवल पाप का ज्ञान कराती है।
21) ईश्वर का मुक्ति-विधान, जिसके विषय में मूसा की संहिता और नबियों ने साक्ष्य दिया था, अब संहिता के स्वतन्त्र रूप में प्रकट किया गया है।
22) यह मुक्ति ईसा मसीह में विश्वास करने से प्राप्त होती है। अब भेदभाव नहीं रहा। यह मुक्ति उन सबों के लिए है, जो विश्वास करते है;
23) क्योंकि सबों ने पाप किया और सब ईश्वर की महिमा से वंचित किये गये।
24) ईश्वर की कृपा से सबों को मुफ्त में पापमुक्ति का वरदान मिला है; क्योंकि ईसा मसीह ने सबों का उद्धार किया है।
25) ईश्वर ने चाहा कि ईसा अपना रक्त बहा कर पाप का प्रायश्चित्त करें और हम विश्वास द्वारा उसका फल प्राप्त करें। ईश्वर ने इस प्रकार अपनी न्यायप्रियता का प्रमाण दिया; क्योंकि उसने अपनी सहनशीलता के अनुरूप पिछले युगों के पापों को अनदेखा कर दिया था।
26) उसने युग में अपनी न्यायप्रियता का प्रमाण देना चाहा, जिससे यह स्पष्ट हो जाये कि वह स्वयं पवित्र है और उन सबों को पापमुक्त करता है, जो ईसा में विश्वास करते हैं।
27) इसलिए किसी को अपने पर गर्व करने का अधिकार नहीं रहा। किस विधान के कारण यह अधिकार जाता रहा? यह कर्मकाण्ड के विधान के कारण नहीं, बल्कि विश्वास के विधान के कारण हुआ।
28) क्योंकि हम मानते हैं कि मनुष्य संहिता के कर्मकाण्ड द्वारा नहीं, बल्कि विश्वास द्वारा पापमुक्त होता है।
29) क्या ईश्वर केवल यहूदियों का ईश्वर है? क्या वह गैर-यहूदियों का ईश्वर नहीं? वह निश्चय ही गैर-यहूदियों का भी ईश्वर है।
30) क्योंकि केवल एक ही ईश्वर है, जो खतने वालों को विश्वास द्वारा पापमुक्त करेगा और उसी विश्वास द्वारा बेखतने लोगों को भी।
31) तो, क्या हम अपने विश्वास द्वारा संहिता को रद्द करते हैं? उल्टे, हम संहिता की पुष्टि करते हैं।

अध्याय 4

1) अब हम अपने कुलपति इब्राहीम के विषय में क्या कहें?
2) यदि इब्राहीम अपने कर्मों के कारण धार्मिक माने गये, तो वह अपने कर्मों के कारण धार्मिक माने गये, तो वह अपने पर गर्व कर सकते हैं। किन्तु वह ईश्वर के सामने ऐसा नहीं कर सकते;
3) क्योंकि धर्मग्रन्थ क्या कहता है? इब्राहीम ने ईश्वर में विश्वास किया और इसी से वह धार्मिक माने गये।
4) जो कर्म करता है, उसे मजदूरी अनुग्रह के रूप में नहीं, बल्कि अधिकार के रूप में मिलती है।
5) जो कर्म नहीं करता, किन्तु उस में विश्वास करता है, जो अधर्मी को धार्मिक बनाता है, तो वह अपने विश्वास के कारण धार्मिक माना जाता है।
6) इसी तरह दाऊद उस मनुष्य को धन्य कहते हैं, जिसे ईश्वर कर्मों के अभाव में भी धार्मिक मानता है-
7) धन्य हैं वे, जिनके अपराध क्षमा हुए हैं, जिनके पाप ढक दिये गये हैं!
8) धन्य है वह मनुष्य, जिसके पाप का लेखा प्रभु नहीं रखता!
9) क्या वह धन्यता खतने वालों से ही सम्बन्ध रखती है, या बेखतने लोगों से भी? देखिए, हम कहते हैं- इब्राहीम का विश्वास उनके लिए धार्मिक माना गया है।
10) उनका विश्वास कैसे धार्मिकता माना गया? क्या उस समय तक उनका खतना हुआ था या नहीं? उस समय तक उनका ख़तना नहीं हुआ था, वह बेख़तने ही थे।
11) बेख़तने रहते समय उन को विश्वास द्वारा जो धार्मिकता प्राप्त हुई थी, उस पर मुहर की तरह खतने का चिन्ह लगाया गया। इस प्रकार वह उन सबों के भी पिता बने, जो ख़तना कराये बिना विश्वास करते हैं, जिससे उनका भी विश्वास उनके लिए धार्मिकता माना जाये।
12) इब्राहीम उन ख़तने वालों के भी पिता बने, जो न केवल ख़तने पर निर्भर रहते हैं, बल्कि हमारे पिता इब्राहीम के उस विश्वास के पथ पर चलते हैं, जो उन्हें ख़तने से पहले प्राप्त था।
13) ईश्वर ने इब्राहीम और उनके वंश से प्रतिज्ञा की कि वे पृथ्वी के उत्तराधिकारी होंगे। यह इसलिए नहीं हुआ कि इब्राहीम ने संहिता का पालन किया, बल्कि इसलिए कि उन्होंने विश्वास किया और ईश्वर ने उन्हें धार्मिक माना है।
14) यदि संहिता के अधीन रहने वाले ही उत्तराधिकारी बनते हैं, तो विश्वास व्यर्थ है और प्रतिज्ञा रद्द हो जाती है;
15) क्योंकि संहिता का परिणाम प्रकोप है, जबकि संहिता के अभाव में किसी आज्ञा का उल्लंघन नहीं होता।
16) सब कुछ विश्वास पर और इसलिए कृपा पर भी, निर्भर रहता है। वह प्रतिज्ञा न केवल उन लोगों पर, जो संहिता का पालन करते हैं, बल्कि समस्त वंश पर लागू होती है- उन सबों पर, जो इब्राहीम की तरह विश्वास करते हैं।
17) इब्राहीम हम सबों के पिता हैं। जैसा कि लिखा है-मैंने तुम को बहुत-से राष्ट्रों का पिता नियुक्त किया है। ईश्वर की दृष्टि में इब्राहीम हमारे पिता हैं। उन्होंने उस ईश्वर में विश्वास किया, जो मृतकों को पुनर्जीवित करता है और जो नहीं है, उसे भी अस्तित्व में लाता है।
18) इब्राहीम ने निराशाजनक परिस्थिति में भी आशा रख कर विश्वास किया और वह बहुत-से राष्ट्रों के पिता बन गये, जैसा कि उन से कहा गया था- तुम्हारे असंख्य वंशज होंगे।
19) यद्यपि वह जानते थे कि मेरा शरीर अशक्त हो गया है- उनकी अवस्था लगभग एक सौ वर्ष की थी- और सारा बाँझ है,
20) तो भी उनका विश्वास विचलित नहीं हुआ, उन्हें ईश्वर की प्रतिज्ञा पर सन्देह नहीं हुआ, बल्कि उन्होंने अपने विश्वास की दृढ़ता द्वारा ईश्वर का सम्मान किया।
21) उन्हें पक्का विश्वास था कि ईश्वर ने जिस बात की प्रतिज्ञा की है, वह उसे पूरा करने में समर्थ है।
22) इस विश्वास के कारण ईश्वर ने उन्हें धार्मिक माना है।
23) धर्मग्रन्थ का यह कथन न केवल इब्राहीम से,
24) बल्कि हम से भी सम्बन्ध रखता है। यदि हम ईश्वर में विश्वास करेंगे, जिसने हमारे प्रभु ईसा को मृतकों में से जिलाया, तो हम भी विश्वास के कारण धार्मिक माने जायेंगे।
25) वही ईसा हमारे अपराधों के कारण पकड़वाये गये और हमारी पापमुक्ति के लिए जी उठे।

अध्याय 5

1) ईश्वर ने हमारे विश्वास के कारण हमें धार्मिक माना है। हम अपने प्रभु ईसा मसीह द्वारा ईश्वर से मेल बनाये रखें।
2) मसीह ने हमारे लिए उस अनुग्रह का द्वार खोला है, जो हमें प्राप्त हो गया है। हम इस बात पर गौरव करें कि हमें ईश्वर की महिमा के भागी बनने की आशा है।
3) इतना ही नहीं, हम दुःख-तकलीफ पर भी गौरव करें, क्योंकि हम जानते हैं कि दुःख-तकलीफ से धैर्य,
4) धैर्य से दृढ़ता, और दृढ़ता से आशा उत्पन्न होती है।
5) आशा व्यर्थ नहीं होती, क्योंकि ईश्वर ने हमें पवित्र आत्मा प्रदान किया है और उसके द्वारा ही ईश्वर का प्रेम हमारे हृदयों में उमड़ पड़ा है।
6) हम निस्सहाय ही थे, जब मसीह निर्धारित समय पर विधर्मियों के लिए मर गये।
7) धार्मिक मनुष्य के लिए शायद ही कोई अपने प्राण अर्पित करे। फिर भी हो सकता है कि भले मनुष्य के लिए कोई मरने को तैयार हो जाये,
8) किन्तु हम पापी ही थे, जब मसीह हमारे लिए मर गये थे। इस से ईश्वर ने हमारे प्रति अपने प्रेम का प्रमाण दिया है।
9) जब हम मसीह के रक्त के कारण धार्मिक माने गये, तो हम निश्चिय ही मसीह द्वारा ईश्वर के दण्ड से बच जायेंगे।
10) हम शत्रु ही थे, जब ईश्वर के साथ हमारा मेल उसके पुत्र की मृत्यु द्वारा हो गया था और उसके साथ मेल हो जाने के बाद उसके पुत्र के जीवन द्वारा निश्चय ही हमारा उद्धार होगा।
11) इतना ही नहीं, अब तो हमारे प्रभु ईसा मसीह द्वारा ईश्वर से हमारा मेल हो गया है; इसलिए हम उन्हीं के द्वारा ईश्वर पर भरोसा रख कर आनन्दित हैं।
12) एक ही मनुष्य द्वारा संसार में पाप का प्रवेश हुआ और पाप द्वारा मृत्यु का। इस प्रकार मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गयी, क्योंकि सब पापी है।
13) मूसा की संहिता से पहले संसार में पाप था, किन्तु संहिता के अभाव में पाप का लेखा नहीं रखा जाता हैं।
14) फिर भी आदम से ले कर मूसा तक मृत्यु उन लोगों पर भी राज्य करती रही, जिन्होंने आदम की तरह किसी आज्ञा के उल्लंघन द्वारा पाप नहीं किया था। आदम आने वाले मुक्तिदाता का प्रतीक था।
15) फिर भी आदम के अपराध तथा ईश्वर के वरदान में कोई तुलना नहीं हैं। यह सच है कि एक ही मनुष्य के अपराध के कारण बहुत-से लोग मर गये; किंतु इस परिणाम से कहीं अधिक महान् है ईश्वर का अनुग्रह और वह वरदान, जो एक ही मनुष्य-ईसा मसीह-द्वारा सबों को मिला है।
16) एक ही मनुष्य के अपराध तथा ईश्वर के वरदान में कोई तुलना नहीं हैं। एक के अपराध के फलस्वरूप दण्डाज्ञा तो दी गयी, किंतु बहुत-से अपराधों के बाद जो वरदान दिया गया, उसके द्वारा पाप से मुक्ति मिल गयी हैं।
17) यह सच है कि मृत्यु का राज्य एक मनुष्य के अपराध के फलस्वरूप-एक ही के द्वारा- प्रारंभ हुआ, किंतु जिन्हें ईश्वर की कृपा तथा पापमुक्ति का वरदान प्रचुर मात्रा मे मिलेगा, वे एक ही मनुष्य-ईसा मसीह-के द्वारा जीवन का राज्य प्राप्त करेंगे।
18) इस प्रकार हम देखते हैं कि जिस तरह एक ही मनुष्य के अपराध के फलस्वरूप सबों को दण्डाज्ञा मिली, उसी तरह एक ही मनुष्य के प्रायश्चित्त के फलस्वरूप सबों को पापमुक्ति और जीवन मिला।
19) जिस तरह एक ही मनुष्य के आज्ञाभंग के कारण सब पापी ठहराये गये, उसी तरह एक ही मनुष्य के आज्ञापालन के कारण सब पापमुकत ठहराये जायेंगे।
20) बाद में संहिता दी गयी और इस से अपराधों की संख्या बढ़ गयी। किंतु जहाँ पाप की वृद्धि हुई, वहाँ अनुग्रह की उस से कहीं अधिक वृद्धि हुई।
21) इस प्रकार पाप मृत्यु के माध्यम से राज्य करता रहा, किंतु हमारे प्रभु ईसा मसीह द्वारा अनुग्र्रह, धार्मिकता के माध्यम से, अपना राज्य स्थापित करेगा और हमें अनन्त जीवन तक ले जायेगा।

अध्याय 6

1) क्या इसका अर्थ यह है कि हमें पाप करते रहना चाहिए, ताकि अनुग्रह की वृद्धि हो?
2) एकदम नहीं! हम सब-के-सब पाप की ओर से मर चुके हैं, तो हम अब कैसे पाप में जीते रहेंगे?
3) क्या आप लोग यह नहीं जानते कि ईसा मसीह का तो बपतिस्मा हम सबों को मिला है, वह उनकी मृत्यु का बपतिस्मा हैं?
4) हम उनकी मृत्यु का बपतिस्मा ग्रहण कर उनके साथ इसलिए दफनाये गये हैं कि जिस तरह मसीह पिता के सामर्थ्य से मृतकों में से जी उठे हैं, उसी तरह हम भी एक नया जीवन जीयें।
5) यदि हम इस प्रकार उनके साथ मर कर उनके साथ एक हो गये हैं, तो हमें भी उन्हीं की तरह जी उठना चाहिए।
6) हमें कभी नहीं भूलना चाहिए कि हमारा पुराना स्वभाव उन्हीं के साथ क्रूस पर चढ़ाया जा चुका हैं, जिससे पाप का शरीर मर जाये और हम फिर पाप के दास न बने;
7) क्योंकि जो मर चुका है, वह पाप की गुलामी से मुक्त हो गया हैं।
8) हमें विश्वास है कि यदि हम मसीह के साथ मर गये हैं, तो हम उन्ही के जीवन के भी भागी होंगे;
9) क्योंकि हम जानते हैं कि मसीह मृतको में से जी उठने के बाद फिर कभी नहीं मरेंगे। अब मृत्यु का उन पर कोई वश नहीं।
10) वह पाप का हिसाब चुकाने के लिए एक बार मर गये और अब वह ईश्वर के लिए ही जीते हैं।
11) आप लोग भी अपने को ऐसा ही समझें-पाप के लिए मरा हुआ और ईसा मसीह में ईश्वर के लिए जीवित।
12) अब आप लोग अपने मरणशील शरीर में पाप का राज्य स्वीकार नहीं करें और उनकी वासनाओं के अधीन नहीं रहें।
13) आप अपने अंगों को अधर्म के साधन बनने के लिए पाप को अर्पित नहीं करें। आप अपने को मृतकों में से पुनर्जीवित समझकर ईश्वर के प्रति अर्पित करें और अपने अंगों को धार्मिकता के साधन बनने के लिए ईश्वर को सौंप दें।
14) आप लोगों पर पाप का कोई अधिकार नहीं रहेगा। अब आप संहिता के नहीं, बल्कि अनुग्रह के अधीन हैं।
15) तो क्या, हम इसलिए पाप करें कि हम संहिता के नहीं, बल्कि अनुग्रह के अधीन है? कभी नहीं!
16) क्या आप यह नहीं समझते कि आप अपने को आज्ञाकारी दास के रूप में जिसके प्रति अर्पित करते हैं और जिसकी आज्ञा का पालन करते हैं, आप उसी के दास बन जाते हैैंं? यह दासता चाहे पाप की हो, जिसका परिणाम मृत्यु है; चाहे ईश्वर की हो, जिसके आज्ञापालन का परिणाम धार्मिकता है।
17) ईश्वर को धन्यवाद कि आप लोग, जो पहले पाप के दास थे, अब सारे हृदय से उस शिक्षा के मार्ग पर चलने लगे, जो आप को प्रदान की गयी हैं।
18) आप पाप से मुक्त हो कर धार्मिकता के दास बन गये हैं।
19) मैं आपकी मानवीय दुर्बलता के कारण साधारण मानव जीवन का उदाहरण दे रहा हूँ। आप लोगों ने जिस तरह पहले अपने शरीर को अशुद्धता और अधर्म के अधीन किया था, जिससे वह दूषित हो गया था, उसी तरह अब आप को अपने शरीर को धार्मिकता के अधीन करना चाहिए, जिससे वह पवित्र हो जाये।
20) क्योंकि जब आप पाप के दास थे, तो धार्मिकता के नियंत्रण से मुक्त थे।
21) उस समय आप को उन कमोर्ं से क्या लाभ हुआ? अब उनके कारण आप को लज्जा होती हैं; क्योंकि उनका परिणाम मृत्यु हैं।
22) किंतु अब पाप से मुक्त हो कर आप ईश्वर के दास बन गये और पवित्रता का फल उत्पन्न कर रहे हैं जिसका परिणाम है अनन्त जीवन;
23) क्योंकि पाप का वेतन मृत्यु है, किंतु ईश्वर का वरदान है- हमारे प्रभु ईसा मसीह में अनन्त जीवन।

अध्याय 7

1) भाइयो! क्या आप लोग यह नहीं जानते- मैं विधि जानने वालों से बोला रहा हूँ- कि मनुष्य पर विधि का अधिकार तभी तक है, जब तक वह जीवित हैं?
2) विवाहित स्त्री तब तक विधि द्वारा अपने पति से बँधी रहती है, जब तक वह जीवित रहता हैं। यदि पति मर जाता है, तो वह अपने पति के बंधन से मुक्त हो जाती हैं।
3) यदि वह अपने पति के जीवन-काल में किसी दूसरे की पत्नी बन जाती है, तो वह व्यभिचारिणी कहलायेगी। किंतु यदि पति पर जाता हैं और यदि वह किसी दूसरे की पत्नी बन जाती हैं, तो वह व्यभिचार नहीं करती हैं।
4) मेरे भाइयो! आप लोग भी मसीह के शरीर से संयुक्त होने के कारण संहिता की दृष्टि में मर गये और अब किसी दूसरे के अर्थात् उसके हो गये हैं, जो मृतकों में से जी उठे। यह इसलिए हुआ कि हम ईश्वर के लिए फल उत्पन्न करें।
5) जब हम अपने दैहिक स्वभाव के अधीन थे, तो संहिता से प्रेरित पापमय वासनाएँ हमारे अंगों में क्रियाशील थीं और मृत्यु के फल उत्पन्न करती थीं।
6) किन्तु अब हम उन बातें के लिए मर गये हैं, जो हमें बन्धन में जकड़ती थीं, इसलिए हम संहिता से मुक्त हो गये हैं। इस प्रकार हम पुरानी लिखित संहिता के अनुसार नहीं, बल्कि आत्मा के नवीन विधान के अनुसार ईश्वर की सेवा करते हैं।
7) क्या इसका अर्थ यह है कि संहिता पाप है? एकदम नहीं! फिर भी संहिता के द्वारा ही पाप का पता चला। यदि संहिता ने नहीं कहा होता : लालच मत करो, तो मैं यह नहीं जानता कि लालच क्या है।
8) इस आज्ञा से लाभ उठा कर पाप ने मुझ में हर प्रकार का लालच उत्पन्न किया। संहिता के अभाव में पाप निर्जीव है।
9) एक समय था, जब संहिता नहीं थी और मैं जीवित था। किन्तु आज्ञा के आने से पाप का जन्म हुआ।
10) और मैं मर गया। इस प्रकार वह आज्ञा, जिसे जीवन की ओर ले जाना चाहिए था, मेरे लिए मृत्यु का कारण बनी;
11) क्योंकि पाप ने, आज्ञा से लाभ उठा कर, मुझे धोखा दिया और आज्ञा के द्वारा मुझे मार दिया।
12) इस प्रकार हम देखते हैं कि संहिता पवित्र है और आज्ञा पवित्र, उचित कल्याणकारी।
13) तो, जो बात कल्याणकारी थी, क्या वह मेरे लिए मृत्यु का कारण बनी? एकदम नहीं! किन्तु जो बात कल्याणकारी थी, उसी के द्वारा पाप मेरे लिए मृत्यु का कारण बना। इस प्रकार पाप का वास्तविक स्वरूप प्रकट हो गया और वह आज्ञा के माध्यम से बहुत अधिक पापमय प्रमाणित हुआ।
14) हम जानते हैं कि संहिता आध्यात्मिक है, किन्तु मैं प्राकृतिक और पाप का दास हूँ,
15) मैं अपना ही आचरण नहीं समझता हूँ, क्योंकि मैं जो करना चाहता हूँ, वह नहीं बल्कि वही करता हूँ, जिससे मैं घृणा करता हूँ।
16) यदि मैं वही करता हूँ, जो मैं नहीं करना चाहता, तो मैं संहिता से सहमत हूँ और उसे कल्याणकारी समझता हूँ;
17) किन्तु मैं कर्ता नहीं रहा, बल्कि कर्ता है- मुझे में निवास करने वाला पाप।
18) मैं जानता हूँ कि मुझ में, अर्थात मेरे दैहिक स्वभाव में थोड़ी भी भलाई नहीं; क्योंकि भलाई करने की इच्छा तो मुझ में विद्यमान है, किन्तु उसे कार्र्यान्वित करने की शक्ति नहीं है।
19) मैं जो भलाई चाहता हूँ, वह नहीं कर पाता, बल्कि मैं जो बुराई नहीं चाहता, वही कर डालता हूँ।
20) किन्तु यदि मैं वही करता हूँ जिस मैं नहीं चाहता, तो कर्ता मैं नहीं हूँ, बल्कि कर्ता है-मुझ में निवास करने वाला पाप।
21) इस प्रकार, मेरा अनुभव यह है कि जब मैं भलाई की इच्छा करता हूँ, तो बुराई ही कर पाता हूँ।
22) मेरा अन्तरतम ईश्वर के नियम पर मुग्ध है,
23) किन्तु मैं अपने शरीर में एक अन्य नियम का अनुभव करता हूँ, जो मेरे आध्यात्मिक स्वभाव से संघर्ष करता है और मुझे पाप के उस नियम के अधीन करता है, जो मेरे शरीर में विद्यमान है।
24) मैं कितना अभागा मनुष्य हूँ! इस मृत्यु के अधीन रहने वाले शरीर से मुझे कौन मुक्त करेगा?
25) ईश्वर ही! हमारे प्रभु ईसा मसीह के द्वारा। ईश्वर को धन्यवाद! इसलिए मैं अपनी बुद्धि से ईश्वर के नियम का, किन्तु अपने शरीर से पाप के नियम का पालन करता हूँ।

अध्याय 8

1) जो लोग ईसा मसीह से संयुक्त हैं, उनके लिए अब कोई दण्डाज्ञा नहीं रह गयी है;
2) क्योंकि आत्मा के विधान ने, जो ईसा मसीह द्वारा जीवन प्रदान करता है, मुझ को पाप तथा मृत्यु की अधीनता से मुक्त कर दिया है।
3) मानव स्वभाव की दुर्बलता के कारण मूसा की संहिता जो कार्य करने में असमर्थ थी, वह कार्य ईश्वर ने कर दिया है। उसने पाप के प्रायश्चित के लिए अपने पुत्र को भेजा, जिसने पापी मनुष्य के सदृश शरीर धारण किया। इस प्रकार ईश्वर ने मानव शरीर में पाप को दण्डित किया है;
4) जिससे हम में- जो कि शरीर के अनुसार नहीं, बल्कि आत्मा के अनुसार आचरण करते हैं- संहिता की धार्मिकता पूर्णता एक पहुँच जाये।
5) (५-६) क्योंकि जो शरीर की वासनाओं सें संचालित हैं, वे शरीर की बातों की चिन्ता करते हैं और इसका परिणाम मृत्यु है : जो आत्मा से संचालित हैं, वे आत्मा की बातों की चिन्ता करते हैं और इसका परिणाम जीवन और शान्ति है।
7) क्योंकि शरीर की वासना र्ईश्वर के प्रतिकूल है। वह ईश्वर के नियम के अधीन नहीं होती और हो भी नहीं सकती।
8) जो लोग शरीर की वासनाओं से संचालित हैं, उन पर ईश्वर प्रसन्न नहीं होता।
9) यदि ईश्वर का आत्मा सचमुच आप लोगों में निवास करता है, तो आप शरीर की वासनाओं से नहीं, बल्कि आत्मा से संचालित हैं। जिस मनुष्य में मसीह का आत्मा निवास नहीं करता, वह मसीह का नहीं।
10) यदि मसीह आप में निवास करते हैं, तो पाप के फलस्वरूप शरीर भले ही मर जाये, किन्तु पापमुक्ति के फलस्वरूप आत्मा को जीवन प्राप्त है।
11) जिसने ईसा को मृतकों में से जिलाया, यदि उनका आत्मा आप लोगों में निवास करता है, तो जिसने ईसा मसीह को मृतकों में से जिलाया वह अपने आत्मा द्वारा, जो आप में निवास करता है, आपके नश्वर शरीरों को भी जीवन प्रदान करेगा।
12) इसलिए, भाइयो! शरीर की वासनओं का हम पर कोई अधिकर नहीं। हम उनके अधीन रह कर जीवन नहीं बितायें।
13) यदि आप शरीर की वासनाओं के अधीन रह कर जीवन बितायेंगे, तो अवश्य मर जायेंगे।
14) लेकिन यदि आप आत्मा की प्रेरणा से शरीर की वासनाओं का दमन करेंगे, तो आप को जीवन प्राप्त होगा।
15) जो लोग ईश्वर के आत्मा से संचालित हैं, वे सब ईश्वर के पुत्र हैं- आप लोगों को दासों का मनोभाव नहीं मिला, जिस से प्रेरित हो कर आप फिर डरने लगें। आप लोगों को गोद लिये पुत्रों का मनोभाव मिला, जिस से प्रेरित हो कर हम पुकार कर कहते हैं, ''अब्बा, हे पिता!
16) आत्मा स्वयं हमें आश्वासन देता है कि हम सचमुच ईश्वर की सन्तान हैं।
17) यदि हम उसकी सन्तान हैं, तो हम उसकी विरासत के भागी हैं-हम मसीह के साथ ईश्वर की विरासत के भागी हैं। यदि हम उनके साथ दुःख भोगते हैं, तो हम उनके साथ महिमान्वित होंगे।
18) मैं समझता हूँ कि हम में जो महिमा प्रकट होने को है, उसकी तुलना में इस समय का दुःख नगण्य है;
19) क्योंकि समस्त सृष्टि उत्कण्ठा से उस दिन की प्रतीक्षा कर रही है, सब ईश्वर के पुत्र प्रकट हो जायेंगे।
20) यह सृष्टि तो इस संसार की असारता के अधीन हो गयी है-अपनी इच्छा से नहीं, बल्कि उसकी इच्छा से, जिसने उसे अधीन बनाया है- किन्तु यह आशा भी बनी रही
21) कि वह असारता की दासता से मुक्त हो जायेगी और ईश्वर की सन्तान की महिमामय स्वतन्त्रता की सहभागी बनेगी।
22) हम जानते हैं कि समस्त सृष्टि अब तक मानो प्रसव-पीड़ा में कराहती रही है और सृष्टि ही नहीं, हम भी भीतर-ही-भीतर कराहते हैं।
23) हमें तो पवित्र आत्मा के पहले कृपा-दान मिल चुके हैं, लेकिन इस ईश्वर की सन्तान बनने की और अपने शरीर की मुक्ति की राह देख रहे हैं।
24) हमारी मुक्ति अब तक आशा का ही विषय है। यदि कोई वह बात देखता है, जिसकी वह आशा करता है, तो यह आशा नहीं कही जा सकती।
25) हम उसकी आशा करते हैं, जिसे हम अब तक नहीं देख सके हैं। इसलिए हमें धैर्य के साथ उसकी प्रतीक्षा करनी पड़ती है।
26) आत्मा भी हमारी दुर्बलता में हमारी सहायता करता है। हम यह नहीं जानते कि हमें कैसे प्रार्थना करनी चाहिए, किन्तु हमारी अस्पष्ट आहों द्वारा आत्मा स्वयं हमारे लिए विनती करता है।
27) ईश्वर हमारे हृदय का रहस्य जानता है। वह समझाता है कि आत्मा क्या कहता है, क्योंकि आत्मा ईश्वर के इच्छानुसार सन्तों के लिए विनती करता है।
28) हम जानते हैं कि जो लोग ईश्वर को प्यार करते हैं और उसके विधान के अनुसार बुलाये गये हैं, ईश्वर उनके कल्याण के लिए सभी बातों में उनकी सहायता करता है;
29) क्योंकि ईश्पर ने निश्चित किया कि जिन्हें उसने पहले से अपना समझा, वे उसके पुत्र के प्रतिरूप बनाये जायेंगे, जिससे उसका पुत्र इस प्रकार बहुत-से भाइयों का पहलौठा हो।
30) उसने जिन्हें पहले से निश्चित किया, उन्हें बुलाया भी है : जिन्हें बुलाया, उन्हें पाप से मुक्त भी किया है और जिन्हें पाप से मुक्त किया, उन्हें महिमान्वित भी किया है।
31) और कहना ही क्या है? यदि ईश्वर हमारे साथ है, तो कौन हमारे विरुद्ध होगा?
32) उसने अपने निजी पुत्र को भी नहीं बचाया, उसने हम सबों के लिए उसे समर्पित कर दिया। तो, इतना देने के बाद क्या वह हमें सब कुछ नहीं देगा?
33) जिन्हें ईश्वर ने चुना है, उन पर कौन अभियोग लगा सकेगा? जिन्हें ईश्वर ने दोषमुक्त कर दिया है,
34) उन्हें कौन दोषी ठहरायेगा? क्या ईसा मसीह ऐसा करेंगे? वह तो मर गये, बल्कि जी उठे और ईश्वर के दाहिने विराजमान हो कर हमारे लिए प्रार्थना करते रहते हैं।
35) कौन हम को मसीह के प्रेम से वंचित कर सकता है? क्या विपत्ति या संकट? क्या अत्याचार, भूख, नग्नता, जोखिम या तलवार?
36) जैसा कि धर्मग्रन्थ में लिखा है- तेरे कारण दिन भर हमारा वध किया जाता है। वध होने वाली भेड़ों में हमारी गिनती हुई।
37) किन्तु इन सब बातों पर हम उन्हीं के द्वारा सहज ही विजय प्राप्त करते है, जिन्होंने हमें प्यार किया।
38) मुझे दृढ़ विश्वास है कि न तो मरण या जीवन, न स्वर्गदूत या नरकदूत, न वर्तमान या भविष्य,
39) न आकश या पाताल की कोई शक्ति और न समस्त सृष्टि में कोई या कुछ हमें ईश्वर के उस प्रेम से वंचित कर सकता है, जो हमें हमारे प्रभु ईसा मसीह द्वारा मिला है।

अध्याय 9

1) मैं मसीह के नाम पर सच कहता हूँ और मेरा अन्तःकरण पवित्र आत्मा से प्रेरित हो कर मुझे विश्वास दिलाता है कि मैं झूठ नहीं बोलता-
2) मेरे हृदय में बड़ी उदासी तथा निरन्तर दुःख होता है।
3) मैं अपने रक्त-सम्बन्धी भाइयों के कल्याण के लिए मसीह से वंचित हो जाने के लिए तैयार हूँ।
4) वे इस्राएली हैं। ईश्वर ने उन्हें गोद लिया था। उन्हें ईश्वर के सान्निध्य की महिमा, विधान, संहिता, उपासना तथा प्रतिज्ञाएं मिली है।
5) कुलपति उन्हीं के हैं और मसीह उन्हीं में उत्पन्न हुए हैं। मसीह सर्वश्रेष्ठ हैं तथा युगयुगों तक परमधन्य ईश्वर हैं। आमेन।
6) फिर भी यह नहीं समझना चाहिए कि ईश्वर का वचन रद्द हो गया है, क्योंकि इस्राएल के वंश में उत्पन्न सभी लोग सच्चे इस्राएली नहीं हैं
7) और इब्राहीम के वंश में जन्म लेने से ही सभी उनकी सच्ची सन्तान नहीं हो जाते; क्योंकि धर्मग्रन्थ कहता है- जो इसहाक के वंश में जन्म लेते हैं, वही तुुम्हारे वंशज माने जायेंगे।
8) इसका अर्थ यह है कि जो प्रकृति के अनुसार जन्म लेते हैं, वे ईश्वर की सन्तान नहीं हैं, बल्कि जिनका जन्म प्रतिज्ञा के अनुसार हुआ, वही वंशज माने जाते हैं;
9) क्योंकि प्रतिज्ञा इस प्रकार थी- मैं अगले वर्ष फिर आऊँगा और तब सारा के एक पुत्र होगा।
10) इतना ही नहीं-रेबेक्का एक ही पुरुष, हमारे पूर्वज इसहाक से गर्भवती हुई।
11) (११-१२) बच्चों का जन्म भी नहीं हुआ था और उन्होंने उस समय तक कोई पाप या पुण्य का काम नहीं किया था, जब रेबेक्का से यह कहा गया-अग्रज अपने अनुज के अधीन रहेगा। यह इसलिए हुआ कि ईश्वर का निर्णय बना रहे और यह निर्णय मनुष्य के कर्मों पर नहीं, बल्कि बुलाने वाले के स्वतन्त्र चुनाव पर निर्भर है।
13) इसलिए धर्मग्रन्थ में लिखा है-मैंने याकूब से प्रेम किया और एसाव से बैर।
14) इस सम्बन्ध में हम क्या कहें? क्या ईश्वर अन्याय करता है? एकदम नहीं!
15) उसने मूसा से कहा, ''मैं जिस पर दया करना चाहूँगा, उसी पर दया करूँगा और जिस पर तरस खाना चाहूँगा, उसी पर तरस खाऊँगा''।
16) इसलिए यह मनुष्य की इच्छा या उसके परिश्रम पर नहीं, बल्कि दया करने वाले ईश्वर पर निर्भर रहता है।
17) धर्मग्रन्थ फिराउन से कहता है, ''मैंने तुमको इसलिए ऊपर उठाया है कि तुम में अपना सामर्थ्य प्रदर्शित करूँ और सारी पृथ्वी पर अपने नाम का प्रचार करूँ।
18) इसलिए ईश्वर जिस पर चाहे, दया करता है और जिसे चाहे, हठधर्मी बना देता है।
19) तुम मुझ से कहोगे, ''तो, ईश्वर मनुष्य को क्यों दोष देता है? ईश्वर की इच्छा का विरोध कौन कर सकता है?''
20) अरे भई! तुम कौन हो, जो ईश्वर से विवाद करते हो? क्या प्रतिमा अपने गढ़ने वाले से कहती है, 'तुमने मुझे ऐसा क्यों बनाया?'
21) क्या कुम्हार को यह अधिकार नहीं कि वह मिट्टी के एक ही लौंदे से एक पात्र ऊँचे प्रयोजन के लिए बनाये और दूसरा पात्र साधारण प्रयोजन के लिए?
22) यदि ईश्वर ने अपना क्रोध प्रदर्शित करने तथा अपना सामर्थ्य प्रकट करने के उद्देश्य से बहुत समय तक कोप के उन पात्रों को सहन किया, जो विनाश के लिए तैयार थे, तो कौन आपत्ति कर सकता है?
23) उसने ऐसा इसलिए किया कि वह दया के उन पात्रों पर अपनी महिमा का वैभव प्रकट करना चाहता है, जिन्हें अपने प्रारम्भ से ही उस महिमा के लिए तैयार किया था।
24) वे दया के पात्र हम हैं, जिन्हें उसने न केवल यहूदियों में से बुलाया है, बल्कि गैर-यहूदियों में से भी।
25) जैसा कि वह होशेआ के ग्रन्थ में कहता है- जो लोग मेरी प्रजा नहीं थे, मैं उन्हें अपनी प्रजा कहूँगा और जो मुझे प्रिय नहीं थे, मैं उन्हें प्रिय कहूँगा।
26) और जिस जगह उसने उन से यह कहा था, 'तुम मेरी प्रजा नहीं हो' उसी जगह वे जीवन्त ईश्वर के पुत्र कहलायेंगे।
27) इसायस इस्राएल के विषय में पुकार कर कहते हैं, ''इस्राएलियों की संख्या समुद्र के बालू-कणों के सदृश क्यों न हो, फिर भी उन में अवशेष मात्र मुक्ति पायेगा,
28) क्योंकि प्रभु पूर्ण रूप से एवं शीघ्र ही पृथ्वी पर अपना निर्णय पूरा करेगा।
29) इसायस ने पहले भी कहा था, ''यदि विश्वमण्डल के प्रभु ने हमारे लिए राष्ट्र का बीज मात्र नहीं छोड़ा होता, तो हम सोदोम और गोमोरा के सदृश बन गये होते''।
30) हम क्या कहें? इसका निष्कर्ष यह है कि गैर-यहूदियों ने, जो धार्मिकता की खोज में नहीं लगे हुए थे, धार्मिकता, अर्थात् विश्वास पर आधारित धार्मिकता प्राप्त की।
31) परन्तु इस्राएल, जो धार्मिकता की संहिता के प्रति उत्साह दिखलाता था, संहिता की परिपूर्णता तक नहीं पहुँच सका।
32) ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि इस्राएली विश्वास पर नहीं, बल्कि कर्मकाण्ड पर निर्भर रहते थे। उनके पैर 'ठोकर के पत्थर' से लग गये और वे गिर पड़े।
33) जैसा कि लिखा है- देखो, मैं सियोन में ठोकर का पत्थर, लोगों को गिराने वाली शिला रख देता हूँ। जो उस पर विश्वास करता है, उसे लज्जित नहीं होना पड़ेगा।

अध्याय 10

1) भाइयो! मेरी हार्दिक अभिलाषा और ईश्वर से मेरी प्रार्थना यह है कि इस्राएली मुक्ति प्राप्त करें।
2) मैं उनके विषय में यह साक्ष्य दे सकता हूँ कि उन में ईश्वर के प्रति उत्साह है, किन्तु यह उत्साह विवेकपूर्ण नहीं है।
3) वे वह धार्मिकता नहीं जानते, जिसे ईश्वर चाहता है, और अपनी धार्मिकता की स्थापना करने में लगे रहते हैं, इसलिए उन्होंने ईश्वर द्वारा निर्धारित धार्मिकता के अधीन रहना अस्वीकार किया;
4) क्योंकि मसीह संहिता को परिपूर्णता तक पहुँचाते हैं और प्रत्येक विश्वास करने वाले को धार्मिकता प्रदान करते है।
5) मूसा संहिता की धार्मिकता के विषय में लिखते हैं- जो इन बातों का पालन करेगा, उसे इनके द्वारा जीवन प्राप्त होगा।
6) किन्तु जो धार्मिकता विश्वास पर आधारित है, उसके विषय में वह कहते हैं-तुम अपने मन में यह मत कहो कि 'कौन स्वर्ग जायेगा?', अर्थात् मसीह को नीचे ले आने के लिए,
7) अथवा ''कौन अधोलोक में उतरेगा?'', अर्थात मसीह को मृतकों से ऊपर ले आने के लिए।
8) किन्तु धर्मग्रन्थ क्या कहता है?- वचन तुम्हारे पास ही हैं, वह तुम्हारे मुख में और तुम्हारे हृदय में है। यह विश्वास का वह वचन है जिसका हम प्रचार करते हैं।
9) क्योंकि यदि आप लोग मुख से स्वीकार करते हैं कि ईसा प्रभु हैं और हृदय से विश्वास करते हैं कि ईश्वर ने उन्हें मृतकों में से जिलाया, तो आप को मुक्ति प्राप्त होगी।
10) हृदय से विश्वास करने पर मनुष्य धर्मी बनता है और मुख से स्वीकार करने पर उसे मुक्ति प्राप्त होती है।
11) धर्मग्रन्थ कहता है, ‘‘जो उस पर विश्वास करता है, उसे लज्जित नहीं होना पड़ेगा''।
12) इसलिए यहूदी और यूनानी और यूनानी में कोई भेद नहीं है- सबों का प्रभु एक ही है। वह उन सबों के प्रति उदार है, जो उसकी दुहाई देते है;
13) क्योंकि जो प्रभु के नाम की दुहाई देगा, उसे मुक्ति प्राप्त होगी।
14) परन्तु यदि लोगों को उस में विश्वास नहीं, तो वे उसकी दुहाई कैसे दे सकते हैं? यदि उन्होंने उसके विषय में कभी सुना नहीं, तो उस में विश्वास कैसे कर सकते हैं? यदि कोई प्रचारक न हो, तो वे उसके विषय में कैसे सुन सकते है?
15) और यदि वह भेजा नहीं जाये, तो कोई प्रचारक कैसे बन सकता है? धर्मग्रन्थ में लिखा है - शुभ सन्देश सुनाने वालों के चरण कितने सुन्दर लगते हैं !
16) किन्तु सबों ने सुसमाचार का स्वागत नहीं किया। इसायस कहते हैं- प्रभु! किसने हमारे सन्देश पर विश्वास किया है?
17) इस प्रकार हम देखते हैं कि सुनने से विश्वास उत्पन्न होता है और जो सुना जाता है, वह मसीह का वचन है।
18) अब मैं यह पूछता हूँ - ‘‘क्या उन्होंने सुना नहीं?'' उन्होंने सुना है, क्योंकि उनकी वाणी समस्त संसार में फैल गयी है और उनके शब्द पृथ्वी के सीमान्तों तक।
19) मैं फिर पूछता हूँ - क्या इस्राएल ने वह सन्देश नहीं समझा? मैं पहले मूसा के ये शब्द दोहराता हूँ- मैं एक ऐसे राष्ट्र के प्रति, जो राष्ट्र नहीं है, तुम में ईर्ष्या उत्पन्न करूँगा और एक मूर्ख राष्ट्र के प्रति तुम में क्रोध उत्पन्न करूँगा।
20) इसायस निर्भीकता से यह कहते हैं - जो मुझे नहीं खोजते थे, उन्होंने मुझे पाया और जो मेरे विषय में प्रश्न नहीं पूछते थे, उन पर मैंने अपने को प्रकट किया।
21) और वह इस्राएल से यह कहते हैं- आज्ञा न मानने वाली एवं विद्रोही प्रजा की ओर मैं दिन भर अपने हाथ फैलाये रहा।

अध्याय 11

1) इसलिए मन में यह प्रश्न उठता है, ‘‘क्या ईश्वर ने अपनी प्रजा को त्याग दिया है?'' निश्चय ही नहीं! मैं भी तो इस्राएली, इब्राहीम की सन्तान और बेनयामीन-वंशी हूँ
2) ईश्वर ने अपनी उस प्रजा को, जिसे उसने अपनाया, नहीं त्यागा है। क्या आप नहीं जानते कि धर्मग्रन्थ एलियस के विषय में क्या कहता है, जब वह ईश्वर के सामने इस्राइल पर यह अभियोग लगाते हैं?
3) प्रभु! उन्होंने तेरे नबियों का वध किया है। उन्होंने तेरी वेदियों को नष्ट कर डाला है। मैं अकेला बच गया हूँ और वे मेरे प्राण लेना चाहते हैं।
4) इस पर दिव्य वाणी ने उन से क्या कहा? मैंने सात हजार लोगों को बचा रखा है, जिन्होंने बाल के सामने घुटना नहीं टेका है।
5) इस प्रकार इस समय भी ईश्वर की कृपा ने एक ÷अवशेष' चुना।
6) यदि यह चुनाव कृपा द्वारा हुआ, तो यह कर्मकाण्ड के बल पर नहीं हुआ। नहीं तो कृपा, कृपा नहीं रह जाती। तो इसका निष्कर्ष क्या हैं?
7) इस्राएल जिस बात की खोज में था, उसे नहीं पा सका, किन्तु चुने हुए लोगों ने उसे पा लिया और शेष लोगों का हृदय कठोर बन गया।
8) जैसा कि धर्मग्रन्थ में लिखा है - ईश्वर ने उनकी बुद्धि को जड़ बना दिया। उसने उन्हें ऐसी आँखें दे दीं, जो देखती नहीं और ऐसे कान, जो सुनते नहीं और उनकी यह दशा आज तक बनी हुई है।
9) और दाऊद कहते हैं- उनका भोजन उनके लिए फन्दा और जाल बने; वह उनके लिए पतन और दण्ड का कारण हो।
10) उनकी आँखे धुँधली पड़ जायें, जिससे वे देख न सकें। तू उनकी कमर सदा झुकाये रख।
11) इसलिए मन में यह प्रश्न उठता है, क्या वे अपराध के कारण सदा के लिए पतित हो गये हैं? निश्चय ही नहीं! उनके अपराध के कारण ही गैर-यहूदियों को मुक्ति मिली है, जिससे वे गैर-यहूदियों की स्पर्धा करें।
12) जब उनके अपराध तथा उनकी अपूर्णता से समस्त गैर-यहूदी संसार की समृद्धि हो गयी है, तो उनकी परिपूर्णता से कहीं अधिक लाभ होगा!
13) मैं आप गैर-यहूदियों से यह कहता हूँ- 'मैं तो गैर-यहूदियों में प्रचार करने भेजा गया और इस धर्मसेवा पर गर्व भी करता हूँ।
14) किन्तु मैं अपने रक्त-भाइयों में प्रतिस्पर्धा उत्पन्न करने की और इस प्रकार उन में कुछ लोगों का उद्धार करने की आशा भी रखता हूँ;
15) क्योंकि यदि उनके परित्याग के फलस्वरूप ईश्वर के साथ संसार का मेल हो गया है, तो उनके अंगीकार का परिणाम मृतकों में से पुनरूत्थान होगा।
16) यदि गुँधे हुए आटे का पहला पेड़ा पवित्र है, तो सारा गुँधा हुआ आटा पवित्र है और यदि जड़ पवित्र है, तो डालियाँ भी पवित्र हैं।
17) यदि कुछ डालियाँ तोड़ कर अलग कर दी गयी हैं और आप, जो जंगली जैतून है, उनकी जगह पर कलम लगाये गये और जैतून के रस के भागीदार बने, तो आप अपने को डालियों से बढ़ कर न समझें।
18) यदि आप गर्व करना चाहते हैं, तो याद रखें कि आप जड़ को नहीं सँभालते, बल्कि जड़ आपको सँभालती है।
19) आप कहेंगे -'डालियाँ इसलिए काट कर अलग कर दी गयीं कि मुझे कलम लगाया जाये'।
20) ठीक है, वे अविश्वास के कारण काट कर अलग कर दिये गये और आप विश्वास के बल पर अपने स्थान पर बने हुए हैं। आप घमंड न करें, बल्कि सावधान रहें।
21) यदि ईश्वर ने मूल डालियों पर दया नहीं की तो वह आप पर भी दया नहीं करेगा।
22) ईश्वर की दयालुता और कठोरता, दोनों पर विचार करें -पतित लोगों के प्रति उसकी ईश्वरीय दयालुता पर बशर्ते आप उसकी दयालुता के योग्य बने रहें। नहीं तो आप भी काट कर अलग कर दिये जायेंगे।
23) दूसरी ओर, यदि वे अपने अविश्वास में बने नहीं रहेंगे, तो वे भी कलम लगाये जायेंगे; क्योंकि ईश्वर उन्हें फिर कलम लगाने में समर्थ है।
24) यदि आप प्रकृति से जंगली जैतून की डालियाँ हैं और उस से कट कर अपनी प्रकृति के विरुद्ध असली जैतून में कलम लगाये गये हैं, तो वे कहीं अधिक सुगमता से अपनी प्रकृति के अनुकूल अपने निजी जैतून में कलम लगाये जा सकेंगे।
25) भाइयो! आप घमण्डी न बनें। इसलिए मैं आप लोगों पर यह रहस्य प्रकट करना चाहता हूँ -इस्राएल का एक भाग तब तक अन्धा बना रहेगा, जब तक गैर यहूदियों की पूर्ण संख्या का प्रवेश न हो जाये।
26) ऐसा हो जाने पर समस्त इस्राएल को मुक्ति प्राप्त होगी। जैसा कि लिखा है- सियोन में मुक्तिदाता उत्पन्न होगा और वह याकूब से अधर्म को दूर कर देगा।
27) जब मैं उनके पाप हर लूँगा, तो यह उनके लिए मेरा विधान होगा।
28) सुसमाचार के विचार से, वे तो आप लोगों के कारण ईश्वर के शत्रु हैं; किन्तु चुनी हुई प्रजा के विचार से, वे पूर्वजों के कारण ईश्वर के कृपापात्र हैं;
29) क्योंकि ईश्वर न तो अपने वरदान वापस लेता और न अपना बुलावा रद्द करता है।
30) जिस तरह आप लोग पहले ईश्वर की अवज्ञा करते थे और अब, जब कि वे अवज्ञा करते हैं, आप ईश्वर के कृपापात्र बन गये हैं,
31) उसी तरह अब, जब कि आप ईश्वर के कृपापात्र बन गये हैं, वे ईश्वर की अवज्ञा करते हैं, किन्तु बाद में वे भी दया प्राप्त करेंगे।
32) ईश्वर ने सबों को अवज्ञा के पाप में फंसने दिया, क्योंकि वह सबों पर दया दिखाना चाहता था।
33) कितना अगाध है ईश्वर का वैभव, प्रज्ञा और ज्ञान! कितने दुर्बोध हैं उसके निर्णय! कितने रहस्यमय हैं उसके मार्ग!
34) प्रभु का मन कौन जान सका? उसका परामर्शदाता कौन हुआ?
35) किसने ईश्वर को कभी कुछ दिया है जो वह बदले में कुछ पाने का दावा कर सके?
36) ईश्वर सब कुछ का मूल कारण, प्रेरणा-स्रोत तथा लक्ष्य है - उसी को अनन्त काल तक महिमा! आमेन!

अध्याय 12

1) अतः भाइयो! मैं ईश्वर की दया के नाम पर अनुरोध करता हूँ कि आप मन तथा हृदय से उसकी उपासना करें और एक जीवन्त, पवित्र तथा सुग्राह्य बलि के रूप में अपने को ईश्वर के प्रति अर्पित करें।
2) आप इस संसार के अनुकूल न बनें, बल्कि सब कुछ नयी दृष्टि से देखें और अपना स्वभाव बदल लें। इस प्रकार आप जान जायेंगे कि ईश्वर क्या चाहता है और उसकी दृष्टि में क्या भला, सुग्राह्य तथा सर्वोत्तम है।
3) उस वरदान के अधिकार से, जो मुझे प्राप्त हो गया है, मैं आप लोगों में हर एक से यह कहता हूँ- अपने को औचित्य से अधिक महत्व मत दीजिए। ईश्वर द्वारा प्रदत्त विश्वास की मात्रा के अनुरूप हर एक को अपने विषय में सन्तुलित विचार रखना चाहिए।
4) जिस प्रकार हमारे एक शरीर में अनेक अंग होते हैं और सब लोगों का कार्य एक नहीं होता,
5) उसी प्रकार हम अनेक होते हुए भी मसीह में एक ही शरीर और एक दूसरे के अंग होते हैं।
6) हम को प्राप्त अनुग्रह के अनुसार हमारे वरदान भी भिन्न-भिन्न होते हैं। हमें भविष्यवाणी का वरदान मिला, तो विश्वास के अनुरूप उसका उपयोग करें;
7) सेवा-कार्य का वरदान मिला, तो सेवा-कार्य में लगे रहें। शिक्षक शिक्षा देने में और
8) उपदेशक उपदेश देने में लगे रहें। दान देने वाला उदार हो, अध्यक्ष कर्मठ हो और परोपकारक प्रसन्नचित हो।
9) आप लोगों का प्रेम निष्कपट हो। आप बुराई से घृणा तथा भलाई से प्र्रेम करें।
10) आप सच्चे भाइयों की तरह एक दूसरे को सारे हृदय से प्यार करें। हर एक दूसरों को अपने से श्रेष्ठ माने।
11) आप लोग अथक परिश्रम तथा आध्यात्मिक उत्साह से प्रभु की सेवा करें।
12) आशा आप को आनन्दित बनाये रखे। आप संकट में धैर्य रखें तथा प्रार्थना में लगे रहें,
13) सन्तों की आवश्यकताओं के लिए चन्दा दिया करें और अतिथियों की सेवा करें।
14) अपने अत्याचारियों के लिए आशीर्वाद माँगें- हाँ, आशीर्वाद, न कि अभिशाप!
15) आनन्द मनाने वालों के साथ आनन्द मनायें, रोने वालों के साथ रोयें।
16) आपस में मेल-मिलाप का भाव बनाये रखें। घमण्डी न बनें, बल्कि दीन-दुःखियों से मिलते-जुलते रहें। अपने आप को बुद्धिमान् न समझें।
17) बुराई के बदले बुराई नहीं करें। दुनिया की दृष्टि में अच्छा आचरण करने का ध्यान रखें।
18) जहाँ तक हो सके, अपनी ओर से सबों के साथ मेल-मिलाप बनाये रखें।
19) प्रिय भाइयों! आप स्वयं बदला न चुकायें, बल्कि उसे ईश्वर के प्रकोप पर छोड़ दें; क्योंकि लिखा है- प्रभु कहता है : प्रतिशोध मेरा अधिकार है, मैं ही बदला चुकाऊँगा।
20) इसलिए, यदि आपका शत्रु भूखा है, तो उसे खिलायें और यदि वह प्यासा है, तो उसे पिलायें क्योंकि ऐसा करने से आप उसके सिर पर जलते अंगारों का ढेर लगायेंगे।
21) आप लोग बुराई से हार न मानें, बल्कि भलाई द्वारा बुराई पर विजय प्राप्त करें।

अध्याय 13

1) प्रत्येक व्यक्ति अधिकारियों के अधीन रहे, क्योंकि ऐसा कोई अधिकार नहीं, जो ईश्वर का दिया हुआ न हो। वर्तमान अधिकारियों की व्यवस्था ईश्वर द्वारा की गयी है।
2) इसलिए जो अधिकारियों का विरोध करता है, वह ईश्वर के विधान के विरुद्ध विद्रोह करता है और विद्रोही अपने सिर पर दण्डाज्ञा बुलाते हैं।
3) शासक सत्कर्म करने वालो में नहीं, बल्कि कुकर्म करने वालों मे भय उत्पन्न करते हैं। क्या आप अधिकारियों के भय से मुक्त रहना चाहते हैं? तो सत्कर्म करते रहे और वे आपकी प्रशंसा करेंगे,
4) क्योंकि वे आपकी भलाई के लिए ईश्वर के सेवक हैं। किन्तु यदि आप कुकर्म करते हैं, तो उन से अवश्य डरें; क्योंकि वे व्यर्थ ही तलवार नहीं बांधते -वे ईश्वर की ओर से दण्ड देते हैं और कुकर्मी से बदला लेते हैं।
5) इसलिए न केवल दण्ड से बचने के लिए, बल्कि अन्तःकरण के कारण भी अधिकारियों के अधीन रहना चाहिए।
6) आप इसीलिए राजकर चुकाते हैं। अधिकारीगण ईश्वर के सेवक हैं और वे अपने कर्तव्य में लगे रहते हैं।
7) आप सबों के प्रति अपना कर्तव्य पूरा करें। जिसे राजकर देना चाहिए, उसे राजकर दिया करें। जिसें चुंगी देनी चाहिए, उसे चुंगी दिया करें। जिस पर श्रद्धा रखनी चाहिए, उस पर श्रद्धा रखें और जिसे सम्मान देना चाहिए, उसे सम्मान दें।
8) भातृप्रेम का ऋण छोड़कर और किसी बात में किसी के ऋणी न बनें। जो दूसरों को प्यार करता है, उसने संहिता के सभी नियमों का पालन किया है।
9) 'व्यभिचार मत करो, हत्या मत करो, चोरी मत करो, लालच मत करो' -इनका तथा अन्य सभी दूसरी आज्ञाओं का सारांश यह है- अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो।
10) प्रेम पड़ोसी के साथ अन्याय नहीं करता। इसलिए जो प्यार करता है, वह संहिता के सभी नियमों का पालन करता है।
11) आप लोग जानते हैं कि नींद से जागने की घड़ी आ गयी है। जिस समय हमने विश्वास किया था, उस समय की अपेक्षा अब हमारी मुक्ति अधिक निकट है।
12) रात प्रायः बीत चुकी है, दिन निकलने को है, इसलिए हम, अन्धकार के कर्मों को त्याग कर, ज्योति के शस्त्र धारण कर लें।
13) हम दिन के योग्य सदाचरण करें। हम रंगरलियों और नशेबाजी, व्यभिचार और भोगविलास, झगड़े और ईर्ष्या से दूर रहें।
14) आप लोग प्रभु ईसा मसीह को धारण करें और शरीर की वासनाएं तृप्त करने का विचार छोड़ दें।

अध्याय 14

1) यदि कोई विश्वास में दुर्बल हो, तो आप उसकी पापशंकाओं पर विवाद किये बिना उसका स्वागत करें।
2) कोई मानता है कि उसे हर प्रकार का भोजन करने की अनुमति है, जब कि जिसका विश्वास दुर्बल है, वह साग-सब्जी ही खाता है।
3) खाने वाला शाकाहारी को तुच्छ न समझे और शाकाहारी खाने वाले को दोषी नहीं माने, क्योंकि ईश्वर ने उसे अपनाया है।
4) दूसरे नौकर पर दोष लगाने वाले आप कौन होते हैं? उसका दृढ़ बना रहना या पतित हो जाना उसके अपने स्वामी से सम्बन्ध रखता है और वह अवश्य दृढ़ बना रहेगा; क्योंकि उसका स्वामी उसे दृढ़ बनाये रखने में समर्थ है।
5) कोई एक दिन को दूसरे दिन से श्रेष्ठ मानता है, जब कि कोई सब दिनों को बराबर समझता है। हर व्यक्ति इसके सम्बन्ध में अपनी-अपनी धारणा बना ले।
6) जो किसी दिन को शुभ मानता है, वह उसे प्रभु के नाम पर शुभ मानता है और जो खाता है, वह प्रभु के नाम पर खाता है; क्योंकि वह प्रभु को धन्यवाद देता है और जो परहेज करता है, वह प्रभु के नाम पर परहेज करता है, और वह भी ईश्वर को धन्यवाद देता है।
7) कारण, हम में कोई न तो अपने लिए जीता है और न अपने लिए मरता है।
8) यदि हम जीते रहते हैं, तो प्रभु के लिए जीते हैं और यदि मरते हैं, तो प्रभु के लिए मरते हैं। इस प्रकार हम चाहे जीते रहें या मर जायें, हम प्रभु के ही हैं।
9) मसीह इसलिए मर गये और जी उठे कि वह मृतकों तथा जीवितों, दोनों के प्रभु हो जायें।
10) तो, आप क्यों अपने भाई का न्याय करते हैं? आप क्यों अपने भाई को तुच्छ समझते हैं? हम सब ईश्वर के न्यायासन के सामने खड़े होंगे,
11) क्योंकि धर्मग्रन्थ में लिखा है-प्रभु यह कहता है, अपनी अमरता की सौगन्ध! हर घुटना मेरे सामने झुकेगा और हर कण्ठ ईश्वर को स्वीकार करेगा।
12) इस से स्पष्ट है कि हम में हर एक को अपने-अपने कर्मों का लेखा ईश्वर को देना पड़ेगा।
13) इसलिए हम आगे चल कर एक दूसरे का न्याय नहीं करें, बल्कि यह निश्चय कर लें कि हम अपने भाई के मार्ग में न तो रोड़ा अटकायेंगे और न ठोकर लगायेंगे।
14) मैं जानता हूँ और प्रभु ईसा का शिष्य होने के नाते मेरा विश्वास है कि कोई भी वस्तु अपने में अशुद्ध नहीं है किन्तु यदि कोई यह समझता है कि अमुक वस्तु अशुद्ध है, तो वह उसके लिए अशुद्ध हो जाती है।
15) यदि आप अपने भोजन के कारण अपने भाई को दुःख देते हैं, तो आप भ्रातृप्रेम के अनुसार नहीं चलते। जिस मनुष्य के लिए मसीह मर गये हैं, आप अपने भोजन के कारण उसके विनाश का कारण न बनें।
16) आप अपनी स्वतन्त्रता को निन्दा का विषय न बनने दें;
17) क्योंकि ईश्वर का राज्य खाने पीने का नहीं, बल्कि वह न्याय, शान्ति और पवित्र आत्मा द्वारा प्रदत्त आनन्द का विषय हैं।
18) जो इन बातों द्धारा मसीह की सेवा करता है, वह ईश्वर को प्रिय और मनुष्यों द्वारा सम्मानित है।
19) हम ऐसी बातों में लगे रहें, जिन से शान्ति को बढ़ावा मिलता है और जिनके द्वारा हम एक दूसरे का निर्माण कर सकें।
20) भोजन के कारण ईश्वर की कृति का विनाश नहीं करें। यह सच है कि सब कुछ अपने में शुद्ध है, किन्तु यदि उसके द्वारा किसी का पतन होता है, तो वह खाने वाले के लिए अशुद्ध हो जाता है।
21) यदि मांस, मदिरा या कोई भी चीज आपके भाई के लिए पाप का कारण बन जाती है, तो उस से परहेज करना अच्छा है।
22) आप ईश्वर के सामने अपनी धारणा अपने तक सीमित रखें। धन्य है वह, जिसका अन्तःकरण उसे दोषी नहीं मानता, जब वह अपनी धारणा के अनुसार आचरण करता है!
23) किन्तु जो खाने के विषय में सन्देह करता है और तब भी खाता है, वह दोषी है; क्योंकि वह अपने अन्तःकरण के अनुसार नहीं चलता और जो कुछ अन्तःकरण के अनुसार नहीं है, वह पाप है।

अध्याय 15

1) हम लोगों को, जो समर्थ हैं, अपनी सुख-सुविधा का नहीं, बल्कि दुर्बलों की कमजोरियों का ध्यान रखना चाहिए।
2) हम में प्रत्येक को अपने पड़ोसी की भलाई तथा चरित्र-निर्माण के लिए उसे प्रसन्न करने का ध्यान रखना चाहिए।
3) मसीह ने भी अपने सुख का ध्यान नहीं रखा। जैसा कि लिखा है -तेरी निन्दा करने वालों ने मेरी निन्दा की है।
4) धर्म-ग्रन्थ में जो कुछ पहले लिखा गया था, वह हमारी शिक्षा के लिए लिखा गया था, जिससे हमें उस से धैर्य तथा सान्त्वना मिलती रहे और इस प्रकार हम अपनी आशा बनाये रख सकें।
5) ईश्वर ही धैर्य तथा सान्त्वना का स्रोत है। वह आप लोगों को यह वरदान दे कि आप मसीह की शिक्षा के अनुसार आपस में मेल-मिलाप बनाये रखें,
6) जिससे आप लोग एकचित्त हो कर एक स्वर से हमारे प्रभु ईसा मसीह के ईश्वर तथा पिता की स्तुति करते रहें।
7) जिस प्रकार मसीह ने हमें ईश्वर की महिमा के लिए अपनाया, उसी प्रकार आप एक दूसरे को भ्रातृभाव से अपनायें।
8) मैं यह कहना चाहता हूँ कि मसीह यहूदियों के सेवक इसलिए बने कि वह पूर्वजों की दी गयी प्रतिज्ञाएं पूरी कर ईश्वर की सत्यप्रतिज्ञता प्रमाणित करें
9) और इसलिए भी कि गैर-यहूदी, ईश्वर की दया प्राप्त करें, उसकी स्तुति करें। जैसा कि धर्मग्रन्थ में लिखा है- इस कारण मैं ग़ैर-यहूदियों के बीच तेरी स्तुति करूँगा और तेरे नाम की महिमा का गीत गाऊँगा।
10) धर्म-ग्रन्थ यह भी कहता है-गैर-यहूदियों! ईश्वर की प्रजा के साथ आनन्द मनाओ।
11) और फिर यह- सभी राष्ट्रो! प्रभु की स्तुति करो। सभी जातियाँ प्रभु की स्तुति करें।
12) और इसायस भी यह कहते हैं- येस्से का वंशज प्रकट हो जायेगा, वह ग़ैर-यहूदियों का शासन करने के लिए उठ खड़ा होगा और ग़ैर-यहूदी उसी पर भरोसा रखेंगे।
13) आशा का स्त्रोत, ईश्वर आप लोगों को विश्वास द्वारा प्रचुर आनन्द और शान्ति प्रदान करे, जिससे पवित्र आत्मा के सामर्थ्य से आप लोगों की आशा परिपूर्ण हो।
14) भाइयो! मुझे दृढ़ विश्वास है कि आप लोग सद्भाव और हर प्रकार के ज्ञान से परिपूर्ण हो कर एक दूसरे को सत्परामर्श देने योग्य हैं।
15) (१५-१६) फिर भी कुछ बातों का स्मरण दिलाने के लिए मैंने आप को निस्संकोच हो कर लिखा है; क्योंकि ईश्वर ने मुझे गैर-यहूदियों के बीच ईसा मसीह का सेवक तथा ईश्वर के सुसमाचार का पुरोहित होने का वरदान दिया है, जिससे ग़ैर-यहूदी, पवित्र आत्मा द्वारा पवित्र किये जाने के बाद ईश्वर को अर्पित और सुग्राह्य हो जायें।
17) इसलिए मैं ईसा मसीह द्वारा ईश्वर की सेवा पर गौरव कर सकता हूँ।
18) मैं केवल उन बातों की चर्चा करने का साहस करूँगा, जिन्हें मसीह ने गैर-यहूदियों को विश्वास के अधीन करने के लिए मेरे द्वारा वचन और कर्म से,
19) शक्तिशाली चिन्हों और चमत्कारों से और आत्मा के सामर्थ्य से सम्पन्न किया है। मैंने येरुसालेम और उसके आसपास के प्रदेश से लेकर इल्लुरिकुम तक मसीह के सुसमाचार का कार्य पूरा किया है।
20) इस में मैंने एक बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा। मैंने कभी वहाँ सुसमाचार का प्रचार नहीं किया, जहाँ मसीह का नाम सुनाया जा चुका था; क्योंकि मैं दूसरों द्वारा डाली हुई नींव पर निर्माण करना नहीं चाहता था,
21) बल्कि धर्मग्रन्थ का यह कथन पूरा करना चाहता था-जिन्हें कभी उसका सन्देश नहीं मिला था, वे उसके दर्शन करेंगे और जिन्होंने कभी उसके विषय में नहीं सुना, वे समझेंगे।
22) यही कारण है कि अब तक आप लोगों के यहाँ मेरे आगमन में बराबर बाधा पड़ी है।
23) अब तो इधर के प्रान्तों में मेरा कोई कार्यक्षेत्र नहीं रहा और मैं कई वर्षों से चाह रहा हूँ कि स्पेन जाते समय आप लोगों के यहाँ आऊँ।
24) मुझे आशा है कि मैं उस यात्रा में आप लोगों के दर्शन करूँगा और कुछ समय तक आपकी संगति का लाभ उठाने के बाद आप लोगों की सहायता से स्पेन की यात्रा कर सकूँगा।
25) (२५-२६) मैं अब सन्तों की सेवा में येरुसालेम जा रहा हूँ। येरुसालेम में रहने वाली कलीसिया के दरिद्रों की सहायता के लिए मकेदूनिया और अखैया के लोगों ने चन्दा एकत्र करने का निश्चय किया है।
27) उनका निश्चय उचित ही है- वास्तव में वे उनके आभारी हैं; क्योंकि यदि गैर-यहूदी उनकी आध्यात्मिक सम्पत्ति के भागी बने, तो गैर-यहूदियों को अपनी भौतिक सम्पत्ति से उनकी सेवा करनी चाहिए :
28) यह कार्य समाप्त कर और यह चन्दा विधिवत् उनके हाथों में सौंपने के बाद मैं आप लोगों के यहाँ हो कर स्पेन जाऊँगा।
29) मुझे विश्वास है कि जब मैं आपके यहाँ आऊँगा तो मसीह का परिपूर्ण आशीर्वाद लिये आऊँगा।
30) भाइयों! हमारे प्रभु ईसा मसीह और आत्मा के प्रेम के नाम पर मैं आप लोगों से अनुरोध करता हूँ कि आप संघर्ष में मेरा साथ देते रहें और मेरे लिए ईश्वर से प्रार्थना करें।
31) आप प्रार्थना करें, जिससे मैं यहूदिया के अविश्वासियों से बचा रहूँ और जिस सेवा-कार्य के लिए मैं येरुसालेम जा रहा हूँ, वह वहाँ की कलीसिया को सुग्राह्य हो
32) और मैं आनन्द के साथ आप लोगों के यहाँ पहुँच कर ईश्वर के इच्छानुसार आप लोगों के बीच विश्राम कर सकूँ।
33) शान्ति का ईश्वर आप सबों के साथ रहे। आमेन !

अध्याय 16

1) प्रभु में अपने प्रिय अमप्लिआतुस्को नमस्कार।
1) मैं केंखेयै की कलीसिया की धर्मसेविका, अपनी बहन फ़ेबे के लिए आप लोगों से निवेदन करता हूँ।
2) आप प्रभु में उनका सन्तों के योग्य स्वागत करें, और यदि उन्हें आपकी आवश्यकता हो, तो हर प्रकार से उनकी सहायता करें; क्योंकि उन्होंने बुतों की और मेरी भी बड़ी सहायता की है।
3) ईसा मसीह में अपने सहयोगी प्रिस्का और आक्विला को नमस्कार,
4) जिन्होंने मेरे प्राण बचाने के लिए अपना सिर दाँव पर रख दिया। मैं ही नहीं, बल्कि गैर-यहूदियों की सब कलीसियाएं उनका आभार मानती हैं।
5) उनके घर में एकत्र होने वाली कलीसिया को नमस्कार। एशिया में मसीह के प्रथम शिष्य अपने प्रिय एपैनेतुस को नमस्कार
6) और मरियम को भी जिसने आप लोगों के लिए इतना कठिन परिश्रम किया।
7) अपने सम्बन्धियों और बन्दीगृह में अपने साथियों अन्द्रोनिकुसा और यूनियास को नमस्कार। ये धर्मप्रचारकों में प्रतिष्ठित हैं और मुझ से पहले मसीह के शिष्य बने थे।
9) मसीह में अपने सहयोगी उर्बानुस और अपने प्रिय स्ताखुस को नमस्कार।
10) मसीह के सुयोग्य सेवक अपेल्लेस को और अरिस्तोबूलुस के परिवार को नमस्कार।
11) अपने सम्बन्धी हेरोदियोन को और नरकिस्सुस के परिवार के मसीही सदस्यों को नमस्कार।
12) प्रभु की सेवा में परिश्रम करने वाली त्रुफैना और त्रुफ़ोसा को नमस्कार। अपनी प्रिय पेरसिस को नमस्कार, जिसने प्रभु की सेवा में बहुत परिश्रम किया है।
13) प्रभु के कृपापात्र रूफुस और उसकी माता को, जो मेरी भी माता है, नमस्कार।
14) असुनऋितुम, फ्लेगोन, हेरमेस, पत्रोबास, हेरमास और उनके साथ रहने वाले भाइयों को नमस्कार।
15) फिलोलोगुस और युलिया, नेरउस और उनकी बहन, ओलुम्पास और उनके साथ रहने वाले सभी सन्तों को नमस्कार।
16) शान्ति के चुम्बन से एक दूसरे का अभिवादन करें। मसीह की सब कलीसियाएँ आप लोगों को नमस्कार कहती हैं।
17) भाइयो! मैं आप लोगों से अनुरोध करता हूँ कि आप उन लोगों से सावधान रहें जो फूट डालते और दूसरों के लिए पाप का कारण बनते हैं।
18) इस प्रकार का व्यवहार उस शिक्षा से मेल नहीं खाता, जो आप को मिली है। आप ऐसे लोगों से दूर रहें। वे हमारे प्रभु मसीह की सेवा नहीं बल्कि अपने पेट की पूजा करते हैं। वे चिकनी-चुपड़ी और खुशामद-भरी बातों से भोले लोगों को भुलावे में डालते हैं।
19) आप लोगों की आज्ञाकारिता की चरचा सर्वत्र फैल गयी है - यह मेरे लिए आनन्द का विषय है। मैं चाहता हूँ कि आप भलाई में निपुण और बुराई के विषय में अनजान रहें।
20) शान्ति का ईश्वर शीघ्र ही शैतान को आपके पैरों तले कुचल देगा। हमारे प्रभु ईसा की कृपा आप लोगों पर बनी रहे।
21) मेरा सहयोगी तिमथी और मेरे सम्बन्धी लूकियुस, यासोन और सोसिपत्रुस आप को नमस्कार कहते हैं।
22) मैं, तेरतियुस, जिसने यह पत्र लिपिबद्ध किया, प्रभु मैं आप लोगों को नमस्कार करता हूँ
23) मेरा और समस्त कलीसिया का आतिथ्य-सत्कार करने वाला गायुस, इस नगर का कोषाध्यक्ष एरास्तुस और भाई क्वार्तस आप लोगों को नमस्कार कहते हैं।
25) (२५-२६) सभी राष्ट्र विश्वास की अधीनता स्वीकार करें - उसी उद्देश्य से शाश्वत ईश्वर ने चाहा कि शताब्दियों से गुप्त रखा हुआ रहस्य प्रकट किया जाये और उसने आदेश दिया कि वह रहस्य नबियों के लेखों द्वारा सबों को बता दिया जाये। उसके अनुसार मैं ईसा मसीह का सुसमाचार सुनाता हूँ। ईश्वर ही आप लोगों को उस सुसमाचार में सुदृढ़ बना सकता है।
27) उसी एकमात्र सर्वज्ञ ईश्वर की, अनन्त काल तक, ईसा मसीह द्वारा महिमा हो! आमेन!