पवित्र बाइबिल : Pavitr Bible ( The Holy Bible )

नया विधान : Naya Vidhan ( New Testament )

प्रेरित-चरित ( Acts of the Apostles )

अध्याय 1

1) थेओफिलुस! मैंने अपनी पहली पुस्तक में उन सब बातों का वर्णन किया,
2) जिन्हें ईसा उस दिन तक करते और सिखाते रहे जिस दिन वह स्वर्ग में आरोहित कर लिये गये। उस से पहले ईसा ने अपने प्रेरितों को, जिन्हें उन्होंने स्वयं चुना था, पवित्र आत्मा द्वारा अपना कार्य सौंप दिया।
3) ईसा ने अपने दुःख भोग के बाद उन प्रेरितों को बहुत से प्रमाण दिये कि वह जीवित हैं। वह चालीस दिन तक उन्हें दिखाई देते रहे और उनके साथ ईश्वर के राज्य के विषय में बात करते रहे।
4) ईसा ने प्रेरितों के साथ भोजन करते समय उन्हें आदेश दिया कि वे येरुसालेम नहीं छोड़े, बल्कि पिता ने जो प्रतिज्ञा की, उसकी प्रतीक्षा करते रहें। उन्होंने कहा, ‘‘मैंने तुम लोगों को उस प्रतिज्ञा के विषय में बता दिया है।
5) योहन जल का बपतिस्मा देता था, परन्तु थोड़े ही दिनों बाद तुम लोगों को पवित्र आत्मा का बपतिस्मा दिया जायेगा''।
6) जब वे ईसा के साथ एकत्र थे, तो उन्होंने यह प्रश्न किया- ‘‘प्रभु! क्या आप इस समय इस्राएल का राज्य पुनः स्थापित करेंगे ?''
7) ईसा ने उत्तर दिया, ‘‘पिता ने जो काल और मुहूर्त अपने निजी अधिकार से निश्चित किये हैं, तुम लोगों को उन्हें जानने का अधिकार नहीं है।
8) किन्तु पवित्र आत्मा तुम लोगों पर उतरेगा और तुम्हें सामर्थ्य प्रदान करेगा और तुम लोग येरुसालेम, सारी यहूदिया और सामरिया में तथा पृथ्वी के अन्तिम छोर तक मेरे साक्षी होंगे।''
9) इतना कहने के बाद ईसा उनके देखते-देखते आरोहित कर लिये गये और एक बादल ने उन्हें शिष्यों की आँखों से ओझल कर दिया।
10) ईसा के चले जाते समय प्रेरित आकाश की ओर एकटक देख ही रहे थे कि उज्ज्वल वस्त्र पहने दो पुरुष उनके पास अचानक आ खड़े हुए और
11) बोले, ‘‘गलीलियो! आप लोग आकाश की ओर क्यों देखते रहते हैं? वही ईसा, जो आप लोगों के बीच से स्वर्ग में आरोहित कर दिये गये हैं, उसी तरह लौटेंगे, जिस तरह आप लोगों ने उन्हें जाते देखा है।''
12) प्रेरित जैतून नामक पहाड़ से येरुसालेम लौटे। यह पहाड़ येरुसालेम के निकट, विश्राम-दिवस की यात्रा की दूरी पर है।
13) वहाँ पहुँच कर वे अटारी पर चढ़े, जहाँ वे ठहरे हुए थे। वे थे-पेत्रुस तथा योहन, याकूब तथा सिमोन, जो उत्साही कहलाता था और याकूब का पुत्र यूदस।
14) ये सब एकहृदय हो कर नारियों, ईसा की माता मरियम तथा उनके भाइयों के साथ प्रार्थना में लगे रहते थे।
15) उन दिनों पेत्रुस भाइयों के बीच खड़े हो गये। वहाँ लगभग एक सौ बीस व्यक्ति एकत्र थे। पेत्रुस ने कहा,
16) ''भाइयो! यह अनिवार्य था कि धर्मग्रन्थ की वह भविष्यवाणी पूरी हो जाये, जो पवित्र आत्मा ने दाऊद के मुख से यूदस के विषय में की थी। यूदस ईसा को गिरफ्तार करने वालों का अगुआ बन गया था।
17) वह हम लोगों में एक और धर्मसेवा में हमारा साथी था।
18) उसने अपने अधर्म की कमाई से एक खेत ख़रीदा। वह उस में मुँुह के बल गिरा, उसका पेट फट गया और उसकी सारी अँतड़ियाँ बाहर निकल आयीं।
19) यह बात येरुसालेम के सब निवासियों को मालूम हो गयी और वह खेत उनकी भाषा में 'हकेलदमा' अर्थात् 'रक्त का खेत', कहलाता है।
20) स्त्रोत-संहिता मे यह लिखा है-उसकी जमीन उजड़ जाये; उस पर कोई भी निवास नहीं करे और-कोई दूसरा उसका पद ग्रहण करे।
21) इसलिए उचित है कि जितने समय तक प्रभु ईसा हमारे बीच रहे,
22) अर्थात् योहन के बपतिस्मा से ले कर प्रभु के स्वर्गारोहण तक जो लोग बराबर हमारे साथ थे, उन में से एक हमारे साथ प्रभु के पुनरुत्थान का साक्षी बनें''।
23) इस पर इन्होंने दो व्यक्तियों को प्रस्तुत किया-यूसुफ को, जो बरसब्बास कहलाता था और जिसका दूसरा नाम युस्तुस था, और मथियस को।
24) तब उन्होंने इस प्रकार प्रार्थना की, ''प्रभु! तू सब का हृदय जानता है। यह प्रकट कर कि तूने इन दोनों में से किस को चुना है,
25) ताकि वह धर्मसेवा तथा प्रेरितत्व में वह पद ग्रहण करे, जिस से पतित हो कर यूदस अपने स्थान गया।
26) उन्होंने चिट्ठी डाली। चिट्ठी मथियस के नाम निकली और उसकी गिनती ग्यारह प्रेरितों में हो गयी।

अध्याय 2

1) जब पेंतेकोस्त का दिन आया और सब शिष्य एक स्थान पर इकट्ठे थे,
2) तो अचानक आँधी-जैसी आवाज आकाश से सुनाई पड़ी और सारा घर, जहाँ वे बैठे हुए थे, गूँज उठा।
3) उन्हें एक प्रकार की आग दिखाई पड़ी जो जीभों में विभाजित होकर उन में से हर एक के ऊपर आ कर ठहर गयी।
4) वे सब पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो गये और पवित्र आत्मा द्वारा प्रदत्त वरदान के अनुसार भिन्न-भिन्न भाषाएं बोलने लगे।
5) पृथ्वी भर के सब राष्ट्रों से आये हुए धर्मी यहूदी उस समय येरुसालेम में रहते थे।
6) बहुत-से लोग वह आवाज सुन कर एकत्र हो गये। वे विस्मित थे, क्योंकि हर एक अपनी-अपनी भाषा में शिष्यों को बोलते सुन रहा था।
7) वे बड़े अचम्भे में पड़ गये और चकित हो कर बोल उठे, ''क्या ये बोलने वाले सब-के-सब गलीली नहीं है?
8) तो कि हम में हर एक अपनी-अपनी जन्मभूमि की भाषा कैसे सुन रहा है?
9) पारथी, मेदी और एलामीती; मेसोपोतामिया, यहूदिया और कम्पादुनिया, पोंतुस और एशिया,
10) फ्रुगिया और पप्फुलिया, मिश्र और कुरेने के निकवर्ती लिबिया के निवासी, रोम के यहूदी तथा दीक्षार्थी प्रवासी,
11) क्रेत और अरब के निवासी-हम सब अपनी-अपनी भाषा में इन्हें ईश्वर के महान् कार्यों का बख़ान करते सुन रहे हैं।''
12) सब-के-सब बड़े अचम्भे में पड़ कर चकित रह गये और एक दूसरे से कहते थे, ''यह क्या बात है?''
13) कुछ लोग उपहास करते हुए कहते थे, ''ये तो नयी अंगूरी पी कर मतवाले हैं''।
14) पेत्रुस ने ग्यारहो के साथ खड़े हो कर लोगों को सम्बोधित करते हुए ऊँचे स्वर से कहा, ''यहूदी भाइयो और येरुसालेम के सब निवासियो! आप मेरी बात ध्यान से सुनें और यह जान लें कि
15) ये लोग मतवाले नहीं हैं, जैसा कि आप समझते हैं। अभी तो दिन के नौ ही बजे हैं।
16) यह वह बात है, जिसके विषय में नबी योएल ने कहा है,
17) प्रभु यह कहता है- मैं अन्तिम दिनों सब शरीरधारियों पर अपना आत्मा उतारूँगा। तुम्हारे पुत्र और पुत्रियाँ भविष्यवाणी करेंगे, तुम्हारे नवयुवकों को दिव्य दर्शन होंगे और तुम्हारे बड़े-बूढ़े स्वप्न देखेंगे।
18) मैं उन दिनों अपने दास-दासियों पर अपना आत्मा उतारूँगा और वे भविष्यवाणी करेंगे।
19) मैं ऊपर आकाश में चक्कर दिखाऊँगा और नीचे पृथ्वी पर चिन्ह प्रकट करूँगा, अर्थात् रक्त, अग्नि और उड़ता हुआ धुआँ।
20) प्रभु के महान् तथा प्रकाशमान दिन के आगमन से पहले सूर्य अन्धकारमय और चन्द्रमा रक्तमय हो जायेगा।
21) जो प्रभु के नाम की दुहाई देगा, वही बचेगा।'
22) इस्राएली भाइयो! मेरी बातें ध्यान से सुनें! आप लोग स्वयं जानते हैं कि ईश्वर ने ईसा नाजरी के द्वारा आप लोगों के बीच कितने महान् कार्य, चमत्कार एवं चिन्ह दिखाये हैं। इस से यह प्रमाणित हुआ कि ईसा ईश्वर की ओर से आप लोगों के पास भेजे गये थे।
23) वह ईश्वर के विधान तथा पूर्वज्ञान के अनुसार पकड़वाये गये और आप लोगों ने विधर्मियों के हाथों उन्हें क्रूस पर चढ़वाया और मरवा डाला है।
24) किन्तु ईश्वर ने मृत्यु के बन्धन खोल कर उन्हें पुनर्जीवित किया। यह असम्भव था कि वह मृत्यु के वश में रह जायें,
25) क्योंकि उनके विषय में दाऊद यह कहते हैं - प्रभु सदा मेरी आँखों के सामने रहता है। वह मेरे दाहिने विराजमान है, इसलिए मैं दृढ़ बना रहता हूँ।
26) मेरा हृदय आनन्दित है, मेरी आत्मा प्रफुल्लित है और मेरा शरीर भी सुरक्षित रहेगा;
27) क्योंकि तू मेरी आत्मा को अधोलोक में नहीं छोड़ेगा, तू अपने भक्त को क़ब्र में गलने नहीं देगा।
28) तूने मुझे जीवन का मार्ग दिखाया है। तेरे पास रह कर मुझे परिपूर्ण आनन्द प्राप्त होगा।
29) भाइयो! मैं कुलपति दाऊद के विषय में। आप लोगों से निस्संकोच यह कह सकता हूँ कि वह मर गये और कब्र में रखे गये। उनकी कब्र आज तक हमारे बीच विद्यमान है।
30) दाऊद जानते थे कि ईश्वर ने शपथ खा कर उन से यह कहा था कि मैं तुम्हारे वंशजों में एक व्यक्ति को तुम्हारे सिंहासन पर बैठाऊँगा;
31) इसलिये नबी होने के नाते भविष्य में होने वाला मसीह का पुनरुत्थान देखा और इनके विषय में कहा कि वह अधोलोक में नहीं छोड़े गये और उनका शरीर गलने नहीं दिया गया।
32) ईश्वर ने इन्हीं ईसा नामक मनुष्य को पुनर्जीवित किया है-हम इस बात के साक्षी हैं।
33) अब वह ईश्वर के दाहिने विराजमान हैं। उन्हें प्रतिज्ञात आत्मा पिता से प्राप्त हुआ और उन्होंने उसे हम लोगों को प्रदान किया, जैसा कि आप देख और सुन रहे हैं।
34) दाऊद स्वयं स्वर्ग नहीं गये; किन्तु वे कहते हैं- प्रभु ने मेरे प्रभु से कहा, तुम तब तक मेरे दाहिने बैठे रहो,
35) जब तब तक मैं तुम्हारे शत्रुओं को तुम्हारा पावदान न बना दूँ।
36) इस्राएल का सारा घराना यह निश्चित रूप से जान ले कि जिन्हें आप लोगों ने क्रूस पर चढ़ाया ईश्वर ने उन्हीं ईसा को प्रभु भी बना दिया है और मसीह भी।''
37) यह सुन कर वे मर्माहत हो गये और उन्होंने पेत्रुस तथा अन्य प्रेरितों से कहा, ''भाइयों! हमें क्या करना चाहिए?''
38) पेत्रुस ने उन्हें यह उत्तर दिया, ''आप लोग पश्चाताप करें। आप लोगों में प्रत्येक अपने-अपने पापों की क्षमा के लिए ईसा के नाम पर बपतिस्मा ग्रहण करे। इस प्रकार आप पवित्र आत्मा का वरदान प्राप्त करेंगे;
39) क्योंकि वह प्रतिज्ञा आपके तथा आपकी सन्तान के लिए है, और उन सबों के लिए, जो भी दूर हैं और जिन्हें हमारा प्रभु-ईश्वर बुलाने वाला है।''
40) पेत्रुस ने और बहुत-सी बातों द्वारा साक्ष्य दिया और यह कहते हुए उन से अनुरोध किया कि आप लोग अपने को इस विधर्मी पीढ़ी से बचाये रखें।
41) जिन्होंने पेत्रुस की बातों पर विश्वास किया, उन्होंने बपतिस्मा ग्रहण किया। उस दिन लगभग तीन हजार लोग शिष्यों में सम्मिलित हो गये।
42) नये विश्वासी दत्तचित्त होकर प्रेरितों की शिक्षा सुना करते थे, भ्रातृत्व के निर्वाह में ईमानदार थे और प्रभु -भोज तथा सामूहिक प्रार्थनाओं में नियमित रूप से शामिल हुआ करते थे।
43) सबों पर विस्मय छाया रहता था, क्योंकि प्रेरित बहुत-से चमत्कार एवं चिन्ह दिखाते थे।
44) सब विश्वासी एक हृदय थे। उनके पास जो कुछ था, उसमें सबों का साझा था।
45) वे अपनी चल-अचल सम्पत्ति बेचते थे और उसकी कीमत हर एक की जरूरत के अनुसार सब में बाँटते थे।
46) वे सब मिलकर प्रतिदिन मन्दिर जाया करते थे और निजी घरों में प्रभु-भोज में सम्मिलित होकर निष्कपट हृदय से आनन्दपूर्वक एक साथ भोजन करते थे।
47) वे ईश्वर की स्तुति किया करते थे और सारी जनता उन्हें बहुत मानती थी। प्रभु प्रतिदिन उनके समुदाय में ऐसे लोगों को मिला देता था, जो मुक्ति प्राप्त करने वाले थे।

अध्याय 3

1) पेत्रुस और योहन तीसरे पहर की प्रार्थना के समय मन्दिर जा रहे थे।
2) लोग एक मनुष्य को ले जा रहे थे, जो जन्म से लँगड़ा था। वे उसे प्रतिदिन ला कर मन्दिर के ÷सुन्दर' नामक फाटक के पास रखा करते थे, जिससे वह मन्दिर के अन्दर जाने वालों से भीख माँग सके।
3) जब उसने पेत्रुस और योहन को मन्दिर में प्रवेश करते देखा, तो उन से भीख माँगी।
4) पेत्रुस और योहन ने उसे ध्यान से देखा। पेत्रुस ने कहा, ‘‘हमारी ओर देखो''
5) और वह कुछ पाने की आशा से उनकी ओर देखता रहा।
6) किन्तु पेत्रुस ने कहा, ÷मेरे पास न तो चाँदी है और न सोना; बल्कि मेरे पास जो, वही तुम्हें देखा हूँ- ईसा मसीह नाजरी के नाम पर चलो''
7) और उनसे उसका दाहिना हाथ पकड़ कर उसे उठाया। उसी क्षण लँगड़े के पैरों और टखनों में बल आ गया।
8) वह उछल कर खड़ा हो गया और चलने-फिरने लगा। वह चलते, उछलते तथा ईश्वर की स्तुति करते हुए उनके साथ मन्दिर आया।
9) सारी जनता ने उस को चलते-फिरते तथा ईश्वर की स्तुति करते हुए देखा।
10) लोग उसे पहचानते थे। यह वही था, जो मन्दिर के ÷सुन्दर' फाटक के पास बैठ कर भीख माँगा करता था और यह देख कर कि उसे क्या हुआ है, वे अचम्भे में पड़ कर चकित थे।
11) वह मनुष्य पेत्रुस और योहन के साथ लगा हुआ था, इसलिए सब लोग आश्चर्यचकित हो कर सुलेमान नामक मण्डप में उनके पास दौड़े आये।
12) पेत्रुस ने यह देख कर उन से कहा, ‘‘इस्राएली भाइयो! आप लोग इस पर आश्चर्य क्यों कर रहे हैं और हमारी ओर से इस प्रकार क्यों ताक रहे हैं, मानों हमने अपने सामर्थ्य या सिद्धि से इस मनुष्य को चलने-फिरने योग्य बना दिया है?
13) इब्राहीम, इसहाक और याकूब के ईश्वर ने, हमारे पूर्वजों के ईश्वर ने अपने सेवक ईसा को महिमान्वित किया है। आप लोगों ने उन्हें पिलातुस के हवाले कर दिया और जब पिलातुस उन्हें छोड़ कर देने का निर्णय कर चुका था, तो आप लोगों ने उन्हें अस्वीकार किया।
14) आप लोगों ने सन्त तथा धर्मात्मा को अस्वीकार कर हत्यारे की रिहाई की माँग की।
15) जीवन के अधिपति को आप लोगों ने मार डाला; किन्तु ईश्वर ने उन्हें मृतकों में से जिलाया। हम इस बात के साक्षी हैं।
16) ईसा के नाम में विश्वास के कारण उसी नाम ने इस मनुष्य को, जिसे आप देखते और जानते हैं, बल प्रदान किया है। उसी विश्वास ने इसे आप सबों के सामने पूर्ण रूप से स्वस्थ किया है।
17) भाइयो! मैं जानता हूँ कि आप लोग, और आपके शासक भी, यह नहीं जानते थे कि वे क्या कर रहे हैं।
18) ईश्वर ने इस प्रकार अपना वह कथन पूरा किया जिसके अनुसार उसके मसीह को दुःख भोगना था और जिसे उसने सब नबियों के मुख से घोषित किया था।
19) आप लोग पश्चात्ताप करें और ईश्वर के पास लौट आयें, जिससे आपके पाप मिट जायें
20) और प्रभु आप को विश्रान्ति का समय प्रदान करे। तब वह पूर्वनिर्धारित मसीह को, अर्थात् ईसा को आप लोगों के पास भेजेगा।
21) यह आवश्यक है कि वह उस विश्वव्यापी पुनरूद्वार के समय तक स्वर्ग में रहें, जिसके विषय में ईश्वर प्राचीन काल से अपने पवित्र नबियों के मुख से बोला।
22) मूसा ने तो कहा, प्रभु-ईश्वर तुम्हारे भाइयों में से तुम्हारे लिए मुझ-जैसा एक नबी उत्पन्न करेगा वह जो कुछ तुम लोगों से कहेगा तुम उस पर ध्यान देना।
23) जो उस नबी की बात नहीं सुनेगा, वह प्रजा में से निकाल दिया जायेगा।
24) समूएल और सभी परवर्ती नबियों ने इन दिनों की भविष्यवाणी की है।
25) ’‘आप लोग नबियों की सन्तति और उस विधान के भागीदार हैं, जिसे ईश्वर ने आपके पूर्वजों के लिए उस समय निर्धारित किया, जब उसने इब्राहिम से कहा, तुम्हारी सन्तति द्वारा पृथ्वी भर के वंश आशीर्वाद प्राप्त करेंगे।
26) ईश्वर ने सब से पहले आप लोगों के लिए अपने पुत्र ईसा को पुनर्जीवित किया और आपके पास भेजा, जिससे वह आप लोगों में हर एक को कुमार्ग से विमुख कर आशीर्वाद प्रदान करें।''

अध्याय 4

1) पेत्रुस और योहन लोगों से बोल ही रहे थे कि याजक, मन्दिर-आरक्षी का नायक और सदूकी उनके पास आ धमके।
2) वे क्रुद्ध थे, क्योंकि प्रेरित जनता को शिक्षा दे रहे थे और ईसा का उदाहरण दे कर मृतकों के पुनरूत्थान का प्रचार कर रहे थे।
3) सन्ध्या हो चली थी, इसलिए उन्होंने उन को गिरफ्तार कर रात भर के लिए बन्दीगृह में डाल दिया।
4) जिन्होंने उनका प्रवचन सुना था, उन में बहुतों ने विश्वास किया। पुरुषों की संख्या अब लगभग पाँच हजार तक पहुँच गयी।
5) दूसरे दिन येरुसालेम में शासकों, नेताओं और शास्त्रियों की सभा हुई।
6) प्रधान याजन अन्नस, कैफस, योहन, सिकन्दर और महायाजक-वर्ग के सभी सदस्य वहाँ उपस्थित थे।
7) वे पेत्रुस तथा योहन को बीच में खड़ा कर इस प्रकार उन से पूछताछ करने लगे, ‘‘तुम लोगों ने किस सामर्थ्य से या किसके नाम पर यह काम किया है?''
8) पेत्रुस ने पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो कर उन से कहा, ‘‘जनता के शासकों और नेताओ’‘!
9) हमने एक लँगड़े मनुष्य का उपकार किया है और आज हम से पूछताछ की जा रही है कि यह किस तरह भला-चंगा हो गया है।
10) आप लोग और इस्राइल की सारी प्रजा यह जान ले कि ईसा मसीह नाजरी के नाम के सामर्थ्य से यह मनुष्य भला-चंगा हो कर आप लोगों के सामने खड़ा है। आप लोगों ने उन्हें क्रूस पर चढ़ा दिया, किन्तु ईश्वर ने उन्हें मृतकों में से पुनर्जीवित किया।
11) वह वही पत्थर है, जिसे आप, कारीगरों ने निकाल दिया था और जो कोने का पत्थर बन गया है।
12) किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा मुक्ति नहीं मिल सकती; क्योंकि समस्त संसार में ईसा नाम के सिवा मनुष्यों को कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया है, जिसके द्वारा हमें मुक्ति मिल सकती है।''
13) पेत्रुस और योहन का आत्मविश्वास देखकर और इन्हें अशिक्षित तथा अज्ञानी जान कर, महासभा के सदस्य अचम्भे में पड़ गये। फिर, वे पहचान गये कि ये ईसा के साथ रह चुके हैं,
14) किन्तु स्वस्थ किये गये मनुष्य को इनके साथ खड़ा देखकर, वे उत्तर में कुछ नहीं बोल सके।
15) उन्होंने पेत्रुस और योहन को सभा से बाहर जाने का आदेश दिया और यह कहते हुए आपस में परामर्श किया,
16) ''हम इन लोगों के साथ क्या करें? येरुसालेम में रहने वाले सभी लोगों को यह मालूम हो गया कि इन्होंने एक अपूर्व चमत्कार दिखाया है। हम यह अस्वीकार नहीं कर सकते।
17) फिर भी जनता में इसका और अधिक प्रचार न हो, इसलिए हम इन्हें कड़ी चेतावनी दें कि अब से ईसा के नाम पर किसी से कुछ नहीं कहोगे।''
18) उन्होंने पेत्रुस तथा योहन को फिर बुला भेजा और उन्हें आदेश दिया कि वे न तो जनता को सम्बोधित करें और न ईसा का नाम ले कर शिक्षा दें।
19) इस पर पेत्रुस और योहन ने उन्हें यह उत्तर दिया, ''आप लोग स्वयं निर्णय करें-क्या ईश्वर की दृष्टि में यह उचित होगा कि हम ईश्वर की नहीं, बल्कि आप लोगों की बात मानें?
20) क्योंकि हमने जो देखा और सुना है, उसके विषय में नहीं बोलना हमारे लिए सम्भव नहीं।''
21) इस पर उन्होंने पेत्रुस और योहन को फिर धमकाने के बाद जाने दिया। वे नहीं समझ पा रहे थे कि उन्हें किस प्रकार दण्ड दिया जाये, क्योंकि उस घटना के कारण सारी जनता ईश्वर की स्तुति करती थी।
22) उस चमत्कार द्वारा जिस मनुष्य को स्वास्थ्य लाभ हुआ था, उसकी उम्र चालीस वर्ष से अधिक थी।
23) रिहा होने के बाद पेत्रुस और योहन अपने लोगों के पास लौटे और महायाजकों तथा नेताओं ने उन से जो कुछ कहा था, वह सब बतलाया।
24) वे उनकी बातें सुन कर एक स्वर से ईश्वर को सम्बोधित करते हुए बोले, ''प्रभु! तूने स्वर्ग और पृथ्वी बनायी, समुद्र भी, और जो कुछ उन में है।
25) तूने पवित्र आत्मा द्वारा हमारे पिता, अपने सेवक दाऊद के मुख से यह कहाः
26) राष्ट्रों में खलबली क्यों मची हुई? देश-देश के लोग व्यर्थ की बातें क्यों करते हैं? पृथ्वी के राजा विद्रोह करते हैं। वे प्रभु तथा उसके मसीह के विरुद्ध षड्यन्त्र रचते हैं।
27) वास्तव में हेरोद और पिलातुस, गैर-यहूदियों तथा इस्राएल के वंशों ने मिल कर इस शहर में तेरे परमपावन सेवक ईसा के विरुद्ध, जिनका तूने अभिषेक किया, षड्यन्त्र रचा था।
28) उन्होंने इस प्रकार वह सब पूरा किया, जिसे तू, शक्तिशाली विधाता, ने पहले से निर्धारित किया था।
29) प्रभु! तू उनकी धमकियों पर ध्यान दे और अपने सेवकों को यह कृपा प्रदान कर कि वे निर्भीकता से तेरा वचन सुनायें।
30) तू अपना हाथ बढ़ा कर अपने परमपावन सेवक ईसा के नाम पर स्वास्थ्यलाभ, चिन्ह तथा चमत्कार प्रकट होने दे।''
31) उनकी प्रार्थना समाप्त होने पर वह भवन, जहाँ वे एकत्र थे, हिल गया। सब पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो गये और निर्भीकता के साथ ईश्वर का वचन सुनाते रहे।
32) विश्वासियों का समुदाय एक हृदय और एकप्राण था। कोई भी अपनी सम्पत्ति अपनी ही नहीं समझता था। जो कुछ उनके पास था, उस में सबों का साझा था।
33) प्रेरित बड़े सामर्थ्य से प्रभु ईसा के पुनरुत्थान का साक्ष्य देते रहते थे और उन सबों पर बड़ी कृपा बनी रहती थी।
34) उन में कोई कंगाल नहीं था; क्योंकि जिनके पास खेत या मकान थे, वे उन्हें बेच देते और कीमत ला कर
35) प्रेरितों के चरणों में अर्पित करते थे। प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार बाँटा जाता था।
36) यूसुफ नामक लेवी-वंशी का जन्म कुप्रुस में हुआ था। प्रेरितों ने उसका उपनाम बरनाबस अर्थात् सान्त्वना-पुत्र रखा था।
37) उसकी एक जमीन थी। उसने उसे बेच दिया और उसकी कीमत ला कर प्रेरितों के चरणों मं अर्पित कर दी।

अध्याय 5

1) अनानीयस नामक व्यक्ति ने अपनी पत्नी सफीरा के साथ परामर्श करने के बाद एक खेत बेच दिया।
2) उसने अपनी पत्नी के जानते उसकी कीमत का एक अंश अपने पास रखा और दूसरा अंश ला कर प्रेरितों के चरणों में रख दिया।
3) इस पर पेत्रुस ने कहा, ''अनानीयस! शैतान ने क्यों तुम्हारे हृदय पर इस प्रकार अधिकार कर लिया है कि तुम पवित्र आत्मा से झूठ बोल कर खेत की कीमत का कुछ अंश दबा ले रहे हो?
4) बेचे जाने से पहले क्या वह खेत तुम्हारा अपना नहीं था? और इसके बाद भी क्या उसकी कीमत तुम्हारे अधिकार में नहीं थी? तुमने ऐसा काम करने का विचार अपने हृदय में क्यों पाला? तुम मनुष्यों से नहीं, बल्कि ईश्वर से झूठ बोले हो।
5) अनानीयस ये बातें सुन कर गिर पड़ा और उसके प्राण निकल गये। सब सुनने वालों पर बड़ा भय छा गया।
6) कुछ नवयुवकों ने उठ कर उसे कफन में लपेटा और बाहर ले जा कर दफना दिया।
7) लगभग तीन घण्टे बाद उसकी पत्नी भीतर आयी। वह इस घटना के बारे में कुछ नहीं जानती थी।
8) पेत्रुस ने उस से यह प्रश्न किया, ''मुझे बताओ, क्या तुमने वह खेत इतने में ही बेचा था?'' उसने उत्तर दिया, ''जी हाँ, इतने में ही''।
9) इस पर पेत्रुस ने उस से कहा, ''तुम दोनों पवित्र आत्मा की परीक्षा लेने के लिए क्यों सहमत हुए? सुनो! जो लोग तुम्हारे पति को दफ़नाने गये थे, वे द्वार पर आ रहे हैं और अब तुम को भी ले जायेंगे।''
10) वह उसी क्षण उसके चरणों पर गिर गयी और उसके प्राण निकल गये। नवयुवकों ने भीतर आ कर उसे मरा हुआ पाया और उसे ले जा कर उसके पति की बगल में दफ़ना दिया।
11) सारी कलीसिया पर और जितने लोगों ने इन बातों की चर्चा सुनी, उन सबों पर बड़ा भय छा गया।
12) प्रेरितों द्वारा जनता के बीच बहुत-से चिन्ह तथा चमत्कार हो रहे थे। सब विश्वासी एकहृदय हो कर सुलेमान के मण्डप में एकत्र हो जाया करते थे।
13) दूसरे लोगों में किसी को भी उन में सम्मिलित होने का साहस नहीं होता था, हालांकि जनता उनकी बड़ी प्रशंसा करती थी।
14) विश्वास करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही थी : पुरुषों तथा स्त्रियों का एक बड़ा समुदाय प्रभु की कलीसिया का सदस्य बन गया।
15) लोग रोगियों को सड़कों पर ले जा कर खटोलों तथा चारपाइयों पर लिटा देते थे, ताकि जब पेत्रुस उधर गुजरे, तो उसकी छाया उन में से किसी पर पड़ जाये।
16) येरुसालेम के आसपास के नगरों से भी लोग बड़ी संख्या में एकत्र हो जाया करते थे। वे अपने साथ रोगियों तथा अशुद्ध आत्माओं से पीड़ित व्यक्तियों को ले आते थे और वे सब चंगे कर दिये जाते थे।
17) यह सब देख कर प्रधानयाजक और उसके सब संगी-साथी, अर्थात् सदूकी सम्प्रदाय के सदस्य, ईर्ष्या से जलने लगे।
18) उन्होंने प्रेरितों को गिरफ्तार कर सरकारी बन्दीगृह में डाल दिया।
19) परन्तु ईश्वर के दूत ने रात को बन्दीगृह के द्वार खोल दिये और प्रेरितों को बाहर ले जा कर यह कहा,
20) ''जाइए और निडर हो कर मन्दिर में जनता को इस नव-जीवन की पूरी-पूरी शिक्षा सुनाइए''। उन्होंने यह बात मान ली और भोर होते ही वे मन्दिर जा कर शिक्षा देने लगे।
21) जब प्रधानायाजक और उसके संगी-साथी आये, तो उन्होंने महासभा अर्थात् इस्राएली नेताओं की सर्वोच्च परिषद् बुलायी और प्रेरितों को ले आने के लिए प्यादों को बन्दी-गृह भेजा।
22) जब प्यादे वहाँ पहुँचे, तो उन्होंने प्रेरितों को बन्दीगृह में नहीं पाया। उन्होंने लौट कर यह समाचार दिया,
23) ''हमने देखा कि बन्दीगृह बड़ी सावधानी से बन्द किया हुआ है और पहरेदार फाटकों पर तैनात हैं, किन्तु खोलने पर हमें भीतर कोई नहीं मिला।
24) यह सुन कर मन्दिर-आरक्षी के नायक और महायाजक यह नहीं समझ पा रहे थे कि प्रेरितों का क्या हुआ है।
25) इतने में किसी ने आ कर उन्हें यह समाचार दिया, ''देखिए, आप लोगों ने जिन व्यक्तियों को बन्दीगृह में डाल दिया, वे मन्दिर में जनता को शिक्षा दे रहे हैं''।
26) इस पर मन्दिर का नायक अपने प्यादों के साथ जा कर प्रेरितों को ले आया। वे प्रेरितो को बलपूर्वक नहीं लाये, क्योंकि वे लोगों से डरते थे कि कहीं हम पर पथराव न करें।
27) उन्होंने प्रेरितों को ला कर महासभा के सामने पेश किया। प्रधानयाजक ने उन से कहा,
28) हमने तुम लोगों को कड़ा आदेश दिया था कि वह नाम ले कर शिक्षा मत दिया करो, परन्तु तुम लोगों ने येरुसालेम के कोने-कोने में अपनी शिक्षा का प्रचार किया है और उस मनुष्य के रक्त की जिम्मेवारी हमारे सिर पर मढ़ना चाहते हो''।
29) इस पर पेत्रुस और अन्य प्रेरितों ने यह उत्तर दिया, ''मनुष्यों की अपेक्षा ईश्वर की आज्ञा का पालन करना कहीं अधिक उचित है।
30) आप लोगों ने ईसा को क्रूस के काठ पर लटका कर मार डाला था, किन्तु हमारे पूर्वजों के ईश्वर ने उन्हें पुनर्जीवित किया।
31) ईश्वर ने उन्हें शासक तथा मुक्तिदाता का उच्च पद दे कर अपने दाहिने बैठा दिया है, जिससे वह उनके द्वारा इस्राइल को पश्चाताप और पापक्षमा प्रदान करे।
32) इन बातों के साक्षी हम हैं और पवित्र आत्मा भी, जिसे ईश्वर ने उन लोगों को प्रदान किया है, जो उसकी आज्ञा का पालन करते हैं।''
33) यह सुन कर वे अत्यन्त क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने प्रेरितों को मार डालने का निश्चय किया।
34) उस समय गमालिएल नामक फ़रीसी, जो संहिता का शास्त्री और सारी जनता में सम्मानित था, महासभा में उठ खड़ा हुआ। उसने प्रेरितों को थोड़ी देर के लिए बाहर ले जाने का आदेश दिया
35) और महासभा के सदस्यों से यह कहा, ‘‘इस्राइली भाइयों! आप सावधानी से विचार करें कि इन लोगों के साथ क्या करने जा रहे हैं।
36) कुछ समय पहले थेउदस प्रकट हुआ। वह दावा करता था कि मैं भी कुछ हूँ और लगभग चार सौ लोग उसके अनुयायी बन गये। वह मारा गया, उसके सभी अनुयारी बिखर गये और उनका नाम-निशान भी नहीं रहा।
37) उसके बाद, जनगणना के समय, यूदस गलीली प्रकट हुआ। उसने बहुत-से लोगों को बहका कर अपने विद्रोह में सम्मिलित कर लिया। वह भी नष्ट हो गया और उसके सभी अनुयायी बिखर गये।
38) इसलिए इस मामले के सम्बन्ध में मैं आप लोगों से यह कहना चाहता हूँ कि आप इनके काम में दखल न दें और इन्हें अपनी राह चलने दें। यदि यह योजना या आन्दोलन मनुष्यों का है, तो यह अपने आप नष्ट हो जायेगा।
39) परन्तु यदि यह ईश्वर का है, तो आप इन्हें नहीं मिटा सकेंगे और ईश्वर के विरोधी प्रमाणित होंगे।''
40) वे उसकी बात मान गये। उन्होंने प्रेरितों को बुला भेजा, उन्हें कोड़े लगवाये और यह कड़ा आदेश दे कर छोड़ दिया कि तुम लोग ईसा का नाम ले कर उपदेश मत दिया करो।
41) प्रेरित इसलिए आनन्दित हो कर महासभा के भवन से निकले कि वे ईसा के नाम के कारण अपमानित होने योग्य समझे गये।
42) वे प्रतिदिन मन्दिर में और घर-घर जा कर शिक्षा देते रहे और ईसा मसीह का सुसमाचार सुनाते रहे।

अध्याय 6

1) उन दिनों जब शिष्यों की संख्या बढ़ती जा रही थी, तो यूनानी-भाषियों ने इब्रानी-भाषियों के विरुद्ध यह शिकायत की कि रसद के दैनिक वितरण में उनकी विधवाओं की उपेक्षा हो रही है।
2) इसलिए बारहों ने शिष्यों की सभा बुला कर कहा, ‘‘यह उचित नहीं है कि हम भोजन परोसने के लिए ईश्वर का वचन छोड़ दे।
3) आप लोग अपने बीच से पवित्र आत्मा से परिपूर्ण सात बुद्धिमान् तथा ईमानदार व्यक्तियों का चुनाव कीजिए। हम उन्हें इस कार्य के लिए नियुक्त करेंगे,
4) और हम लोग प्रार्थना और वचन की सेवा में लगे रहेंगे।''
5) यह बात सबों को अच्छी लगी। उन्होंने विश्वास तथा पवित्र आत्मा से परिपूर्ण स्तेफनुस के अतिरिक्त फिलिप, प्रोख़ोरुस, निकानोर, तिमोन, परमेनास और यहूदी धर्म में नवदीक्षित अन्ताखिया-निवासी निकोलास को चुना
6) और उन्हें प्रेरितों के सामने उपस्थित किया। प्रेरितों ने प्रार्थना करने के बाद उन पर अपने हाथ रखे।
7) ईश्वर का वचन फैलता गया, येरुसालेम में शिष्यों की संख्या बहुत अधिक बढ़ने लगी और बहुत-से याजकों ने विश्वास की अधीनता स्वीकार की।
8) स्तेफनुस अनुग्रह तथा सामर्थ्य से परिपूर्ण हो कर जनता के सामने बहुत-से चमत्मकार तथा चिन्ह दिखाता था।
9) उस समय ‘‘दास्यमुक्त'' नामक सभागृह के कुछ सदस्य और कुरेने, सिकन्दरिया, किलिकया तथा एशिया के कुछ लोग स्तेफनुस से विवाद करने आये।
10) किन्तु वे स्तेफ़नुस के ज्ञान का सामना करने में असमर्थ थे, क्योंकि वह आत्मा से प्रेरित हो कर बोलता था।
11) तब उन्होंने घूस दे कर कुछ व्यक्तियों से यह झूठी गवाही दिलवायी कि हमने स्तेफनुस को मूसा तथा ईश्वर की निन्दा करते सुना।
12) इस प्रकार जनता, नेताओं तथा शास्त्रियों को भड़काने के बाद वे अचानक स्तेफनुस के पास आ धमके और उसे पकड़ कर महासभा के सामने ले गये।
13) वहाँ उन्होंने झूठे गवाहों को खड़ा किया, जो बोले, ''यह व्यक्ति निरन्तर मन्दिर तथा मूसा की निन्दा करता है।
14) हमने इसे यह कहते सुना कि ईसा नाजरी यह स्थान नष्ट करेगा और मूसा के समय से चले आ रहे हमारे रिवाजों को बदल देगा।''
15) महासभा के सब सदस्य स्थिर दृष्टि से स्तेफ़नुस की ओर देख रहे थे। उसका मुखमण्डल उन्हें स्वर्गदूत के जैसा दीख पड़ा।

अध्याय 7

1) प्रधानयाजक ने पूछा, ''क्या ये बातें सही हैं?''
2) उसने उत्तर दिया, ''भाइयो और गुरुजनों! मेरी बात सुनिए। जब हमारे पिता इब्राहीम हर्रान में बसने से पहले मेसोपोतामिया में रहते थे, तो उस समय महिमामय ईश्वर ने उन्हें दर्शन दिये
3) और कहा, 'अपना देश तथा अपना कुटुम्ब छोड़ दो और उस देश जाओ, जिसे मैं तुम्हें दिखाऊँगा'।
4) इस पर वह ख़लदियों का छोड़ कर हर्रान में बस गये। उनके पिता के देहान्त के बाद, ईश्वर उन्हें वहाँ से हटा कर इस देश में लाया, जहाँ आप आजकल रहते हैं।
5) इस देश में ईश्वर उन्हें विरासत के रूप में कोई जमीन, यहाँ तक कि पैर रखने को भी जगह नहीं दी; किन्तु उसने प्रतिज्ञा की कि मैं यह देश तुम्हें और बाद में तुम्हारे वंशजों को प्रदान करूँगा, हालांकि उस समय इब्राहीम की कोई सन्तान नहीं थी।
6) ईश्वर ने यह कहा, 'इब्राहीम के वंशज पराये देश में परदेशी की तरह निवास करेंगे। वे लोग उन्हें दास बनायेंगे और चार सौ वर्ष तक उन पर अत्याचार करते रहेंगे।'
7) ईश्वर ने फिर कहा, 'मैं उस राष्ट्र का न्याय करूँगा, जिसके वे दास होंगे'। इसके बाद वे वहाँ से प्रस्थान करेंगे और यहाँ मेरी उपासना करेंगे।'
8) तब ईश्वर ने इब्राहीम के लिए खतने का विधान निर्धारित किया। इब्राहीम ने इसहाक को उत्पन्न किया और आठवें दिन उनका खतना किया। इसहाक से याकूब और याकूब से बारह कुलपति उत्पन्न हुए।
9) ''कुलपतियों ने ईर्ष्या के कारण यूसुफ को बेच दिया और वह मिस्र देश पहुँचे, किन्तु ईश्वर उनके साथ रहा।
10) उसने सब विपत्तियों से उनका उद्धार किया और ऐसा किया कि वह मिश्र देश के राजा फिराउन की दृष्टि में प्रिय तथा बुद्धिमान् जान पड़े। राजा ने उन्हें मिस्र का राज्यपाल तथा अपने समस्त राजभवन का अधिकारी बनाया।
11) उस समय सारे मिस्र तथा कनान देश में अकाल और घोर संकट पड़ा। इस कारण हमारे पूर्वजों को खाना नहीं मिल रहा था।
12) जब याकूब ने यह सुना कि मिस्र देश में अनाज मिलता है, तो उन्होंने हमारे पूर्वजों को वहाँ पहली बार भेजा।
13) दूसरी यात्रा के अवसर पर यूसुफ ने अपने भाइयों को अपना परिचय दिया और फिराउन को भी यूसुफ के वंश का पता चला।
14) तब यूसुफ ने अपने पिता याकूब और उनके सारे परिवार को बुला भेजा। कुल मिलाकर वे पचहत्तर व्यक्ति थे।
15) याकूब मिस्र देश गये। वहाँ वह, और हमारे पूर्वज भी, चल बसे।
16) बाद में उनके अवशेष शेखेम लाये गये और उस मक़बरे में रखे गये, जिसे इब्राहीम ने शेखेम में एम्मोर के पुत्रों से चाँदी दे कर खरीदा था।
17) ईश्वर ने इब्राहीम से जो प्रतिज्ञा की थी, जब उसके पूरा हो जाने का समय निकट आ रहा था, तो हमारे लोगों की संख्या मिस्र देश में बहुत अधिक बढ़ रही थी।
18) बाद में एक नये राजा का उदय हुआ, जो यूसुफ के विषय में कुछ नहीं जानता था।
19) उसने हमारे लोगों के साथ कपटपूर्ण व्यवहार करते हुए उन पर अत्याचार किया। उसने हमारे पूर्वजों को बाध्य किया कि वे अपने नवजात शिशुओं को बाहर फेंक दिया करें, जिससे वे जीवित न रह सकें।
20) उस समय मूसा का जन्म हुआ। वह अत्यन्त सुन्दर थे और तीन महीने तक अपने पिता के घर में पाले गये।
21) इसके बाद जब वह फेंक दिये गये, तो फिराउन की पुत्री ने उन्हें गोद ले लिया और अपने पुत्र की तरह उनका पालन-पोषण किया।
22) मूसा को मिस्रियों की सब विद्याओं का प्रशिक्षण मिला। वह शक्तिशाली वक्ता और कर्मवीर बने।
23) जब वह चालीस वर्ष के हो चुके थे, तो उन्होंने अपने इस्राएली भाइयों से भेंट करने जाने का निश्चय किया।
24) उन में से एक के साथ दुर्व्यवहार होते देख कर, मूसा ने उसका पक्ष लिया और मिस्री को मार कर अत्याचार का बदला चुकाया।
25) मूसा का विचार यह था कि मेरे भाई समझ जायेंगे कि ईश्वर मेरे द्वारा उनका उद्धार करेगा; किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं समझा।
26) दूसरे दिन मूसा ने दो इस्राएलियों को लड़ते देखा। उन्होंने यह कह कर उन में मेल कराने का प्रयास किया, 'मित्रो! आप लोग भाई हैं। आप क्यों एक दूसरे को चोट पहुँचाना चाहते हैं?'
27) जो व्यक्ति अपने पड़ोसी के साथ अन्याय कर रहा था, उसने मूसा को ढकेल दिया और कहा, 'किसने तुम को हमारा शासक और न्यायकर्ता नियुक्त किया?
28) कल तुमने उस मिस्री का वध किया। क्या तुम उसी तरह मुझ को भी मार डालना चाहते हो?'
29) इस पर मूसा वहाँ से भाग निकले और मदियाम में परदेशी के रूप में रहने लगे। वहाँ उनके दो पुत्र उन्पन्न हुए।
30) चालीस वर्ष बाद सीनई पर्वत के उजाड़ प्रदेश में मूसा को जलती कंटीली झाड़ी की ज्वाला में एक स्वर्गदूत दिखाई पड़ा।
31) यह देख कर मूसा अचम्भे में पड़ गये। जब वह इसका निरीक्षण करने के लिए निकट आये, तो उन्हें प्रभु की वाणी यह कहते हुए सुनाई पड़ी,
32) 'मैं तुम्हारे पूर्वजों का ईश्वर हूँ-इब्राहीम, इसहाक तथा याकूब का ईश्वर'। मूसा डर के मारे काँप उठे। उन्हें फिर देखने का साहस नहीं हुआ।
33) तब ईश्वर ने कहा, ''पैरों से जूते उतार लो, क्योंकि तुम जहाँ खड़े हो, वह पवित्र भूमि है।
34) मैंने मिस्र देश में रहने वाली अपनी प्रजा पर हो रहा अत्याचार अच्छी तरह देखा और उसकी कराह सुनी है। मैं उसका उद्धार करने उतरा हूँ। अब तैयार हो जाओ! मैं तुम्हें मिस्र देश भेजूँगा।
35) लोगों ने यह कहते हुए मूसा को अस्वीकार किया था, 'किसने तुम को शासक तथा न्यायकर्ता नियुक्त किया?' ईश्वर ने कंटीली झाड़ी में दिखाई पड़ने वाले स्वर्गदूत के माध्यम से उन्हीं मूसा को शासक तथा मुक्तिदाता के रूप में उनके पास भेजा।
36) वही मूसा उन्हें बाहर निकाल लाये और मिस्र देश में, लाल समुद्र के तट पर तथा मरुभूमि में चालीस वर्ष तक चमत्कार और चिन्ह दिखाते रहे।
37) उन्होंने इस्राएलियों से कहा, ''ईश्वर तुम्हारे भाइयों में से तुम्हारे लिए मुझ-जैसा एक नबी उत्पन्न करेगा।
38) मूसा मरुभूमि के समुदाय के लिए हमारे पूर्वजों तथा उस स्वर्गदूत के बीच मध्यस्थ बने, जिसने सीनई पर्वत पर उन से वार्तालाप किया। उन को जीवन्त दिव्यवाणी प्राप्त हुई, जिससे वह उसे हम लोगों को सुनायें।
39) किन्तु हमारे पूर्वजों ने उनकी बात मानना नहीं चाहा। उन्होंने मूसा को ठुकरा दिया। वे मिस्र देश लौटना चाहते थे।
40) उन्होंने हारून से कहा, 'हमारे लिए ऐसे देवता बनाइए, जो हमारे आगे-आगे चलें; क्योंकि हम नहीं जानते कि उस मूसा का क्या हुआ, जो हमें मिस्र देश से निकाल लाया'।
41) उन दिनों उन्होंने बछड़े की देवमूर्ति बना कर उसे बलि चढ़ायी और अपने हाथों की बनाई हुई मूर्ति का उत्सव मनाया।
42) तब ईश्वर उन से विमुख हो गया और उसने उन्हें आकाश के नक्षत्रों की उपासना करने के लिए छोड़ दिया, जैसा कि नबियों के ग्रन्थों में लिखा है- इस्राएलियो! चालीस वर्ष तक मरुभूमि में रहते समय तुम लोगों ने मुझे बलि तथा होम नहीं चढ़ाया।
43) तुम लोग मोलोख का तम्बू और रैफान देवता का तारा अपने कन्धों पर उठा कर ले जाते रहे-उन मूर्तियों को, जिन्हें तुमने आराधना के निमित्त बनाया था। इसलिए मैं तुम लोगों को बाबुल में निर्वासित करूँगा।
44) ''मरुभूमि में हमारे पूर्वजों के पास साक्ष्य का तम्बू था। ईश्वर ने मूसा को इसके विषय में यह आदेश दिया था, 'तुमने जो नमूना देखा है, उसी के अनुसार उसे बनवाओ'।
45) वह तम्बू अगली पीढ़ी के पूर्वजों को मिला और वे उसे योशुआ के नेतृत्व में इस देश में ले आये। यह देश गैर-यहूदियों के हाथ में था, किन्तु ईश्वर ने उन्हें हमारे ेपूर्वजों के सामने निकाल दिया। वह तम्बू दाऊद के समय तक यहाँ रहा।
46) दाऊद को ईश्वर की कृपादृष्टि प्राप्त थी और उसने याकूब के घराने के लिए एक मन्दिर बनवाने की अनुमति माँगी,
47) किन्तु सुलेमान ने मन्दिर बनवाया।
48) फिर भी सर्वोच्च ईश्वर मनुष्यों द्वारा बनाये हुए भवनों में निवास नहीं करता, जैसा कि नबी ने कहा है-
49) आकश मेरा सिंहासन है और पृथ्वी मेरा पाँवदान। प्रभु कहता है, तुम मेरे लिए कौन-सा मन्दिर बनाओगे? मेरा निवासस्थान कहाँ होगा?
50) क्या यह सब मेरा बनाया हुआ नहीं?
51) ''हठधर्मियो! आप लोग न तो सुनना चाहते हैं और न समझना। आप सदा ही पवित्र आत्मा का विरोध करते हैं, जैसा कि आपके पूर्वज किया करते थे।
52) आपके पूर्वजों ने किस नबी पर अत्याचार नहीं किया? उन्होंने उन लोगों का वध किया, जो धर्मात्मा के आगमन की भविष्यवाणी करते थे।
53) आप लोगों को स्वर्गदूतों के माध्यम से संहिता प्राप्त हुई, किन्तु आपने इसका पालन नहीं किया और अब आप उस धर्मात्मा के विश्वासघाती तथा हत्यारे बन गये हैं।''
54) वे स्तेफ़नुस की बातें सुन कर आगबबूला हो गये और दाँत पीसते रहे।
55) स्तेफ़नुस ने, पवित्र आत्मा से पूर्ण हो कर, स्वर्ग की ओर दृष्टि की और ईश्वर की महिमा को तथा ईश्वर के दाहिने विराजमान ईसा को देखा।
56) वह बोल उठा, ''मैं स्वर्ग को खुला और ईश्वर के दाहिने विराजमान मानव पुत्र को देख रहा हूँ''।
57) इस पर उन्होंने ऊँचे स्वर से चिल्ला कर अपने कान बन्द कर लिये। वे सब मिल कर उस पर टूट पड़े
58) और उसे शहर के बाहर निकाल कर उस पर पत्थर मारते रहे। गवाहों ने अपने कपड़े साऊल नामक नवयुवक के पैरों पर रख दिये।
59) जब लोग स्तेफ़नुस पर पत्थर मार रहे थे, तो उसने यह प्रार्थना की, ''प्रभु ईसा! मेरी आत्मा को ग्रहण कर!''
60) तब वह घुटने टेक कर ऊँचे स्वर से बोला, ''प्रभु! यह पाप इन पर मत लगा!'' और यह कह कर उसने प्राण त्याग दिये।

अध्याय 8

1) साऊल इस हत्या का समर्थन करता था। उसी दिन येरुसालेम में कलीसिया पर घोर अत्याचार प्रारम्भ हुआ। प्रेरितों को छोड़ सब-के-सब यहूदिया तथा समारिया के देहातों में बिखर गये।
2) भक्तों ने, स्तेफ़नुस पर करुण विलाप करते हुए, उसे कब्र में रख दिया।
3) साऊल उस समय कलीसिया को सता रहा था। वह घर-घर घुस जाया करता और स्त्री-पुरुषों को घसीट कर बन्दीगृह में डाल दिया करता था।
4) जो लोग बिखर गये थे, वे घूम-घूम कर सुसमाचार का प्रचार करते रहे।
5) फ़िलिप समारिया के एक नगर जा कर वहाँ मसीह का प्रचार करता था।
6) लोग उसकी शिक्षा पर अच्छी तरह ध्यान देते थे, क्योंकि सब उसके द्वारा दिखाये हुए चमत्कारों की चर्चा सुनते या उन्हें स्वयं देखते थे।
7) दुष्ट आत्मा ऊँचे स्वर से चिल्लाते हुए बहुत-से अपदूतग्रस्त लोगों से निकलते थे और अनेक अर्द्धांगरोगी तथा लंगड़े भी चंगे किये जाते थे;
8) इसलिए उस नगर में आनन्द छा गया।
9) सिमोन नामक व्यक्ति उसके पहले ही उस नगर में आ गया था। वह जादू के खेल दिखा कर समारियों को चकित करता और महान् होने का दावा करता था।
10) छोटों से ले कर बड़ों तक, सभी लोग उसकी बात मानते थे और कहते थे, ''यह ईश्वर का वह सामर्थ्य है, जिसे महान् कहते हैं''।
11) उसने बहुत दिनों से अपनी जादूगरी द्वारा लोगों को चकित कर रखा खा, इसलिए वे उसकी बात मानते थे;
12) किन्तु तब वे फिलिप पर विश्वास करने लगे, जो ईश्वर के राज्य तथा ईसा मसीह के नाम के सुसमाचार का प्रचार करता था, तो चाहे पुरुष हों या स्त्रियाँ, सबों ने बपतिस्मा ग्रहण किया।
13) सिमोन ने भी विश्वास किया। बपतिस्मा ग्रहण करने के बाद वह फिलिप का साथ नहीं छोड़ता और चिन्ह तथा महान् चमत्कार होते देख कर बड़े अचम्भे में पड़ जाता था।
14) जब येरुसालेम में रहने वाले प्रेरितों ने यह सुना कि समारियों ने ईश्वर का वचन स्वीकार कर लिया तो उन्होंने पेत्रुस और योहन को उनके पास भेजा।
15) वे दोनों वहाँ गये और उन्होंने समारियों के लिए यह प्रार्थना की कि उन्हें पवित्र आत्मा प्राप्त हो।
16) पवित्र आत्मा अब तक उन में से किसी पर नहीं उतरा था। उन्हें केवल प्रभु ईसा के नाम पर बपतिस्मा दिया गया था।
17) इसलिए पेत्रुस और योहन ने उन पर हाथ रखे और उन्हें पवित्र आत्मा प्राप्त हो गया।
18) सिमोन ने यह देखा कि प्रेरितों के हाथ रखने से लोगों को पवित्र आत्मा प्राप्त हो जाता है। इसलिए उसने उनके पास रुपया ला कर
19) कहा, ''मुझे भी यह सामर्थ्य दीजिए कि मैं जिस पर हाथ रखूँ, उसे पवित्र आत्मा प्राप्त हो जाये''।
20) किन्तु पेत्रुस ने उत्तर दिया, ''नरक में जाये तुम्हारा रुपया! और तुम भी! क्योंकि तुमने ईश्वर का वरदान रुपये से प्राप्त करने का विचार किया।
21) इस बात में तुम्हारा न तो कोई भाग है और न कोई अधिकार; क्योंकि तुम्हारा हृदय ईश्वर के प्रति निष्कपट नहीं है।
22) तुम अपने इस पाप पर पश्चाताप करो और ईश्वर से प्रार्थना करो, जिससे वह तुम्हारा यह विचार क्षमा कर दे।
23) मैं देख रहा हूँ कि तुम पित्ता की कड़वाहट से कूट-कूट कर भरे हो और अधर्म की बेड़ियों से जकड़े हुए हो।''
24) सिमोन ने उत्तर दिया, ''ईश्वर से मेरे लिए प्रार्थना कीजिए, जिससे आपने जो बातें कही हैं, उन में एक भी मुझ पर न बीते''।
25) प्रेरित प्रभु की शिक्षा का साक्ष्य देने तथा उसका प्रचार करने के बाद येरुसालेम लौटे और उन्होंने इस यात्रा में समारियों के बहुत-से गाँवो में सुसमाचार सुनाया।
26) ईश्वर के दूत ने फ़िलिप से कहा, ''उठिए, येरुसालेम से गाजा जाने वाले मार्ग पर दक्षिण की ओर जाइए''। यह मार्ग निर्जन है।
27) वह उठ कर चल पड़ा। उस समय एक इथोपियाई ख़ोजा, येरुसालेम की तीर्थयात्रा से लौट रहा था। वह इथोपिया की महारानी कन्दाके का उच्चाधिकारी तथा प्रधान कोषाध्यक्ष था।
28) वह अपने रथ पर बैठा हुआ नबी इसायस का ग्रन्थ पढ़ रहा था।
29) आत्मा ने फ़िलिप से कहा, ''आगे बढ़िए और रथ के साथ चलिए''।
30) फ़िलिप दौड़ कर उसके पास पहुँचा और उसे नबी इसायस का ग्रन्थ पढ़ते सुन कर पूछा, ''आप जो पढ़ रहे हैं, क्या उसे समझते हैं?''
31) उसने उत्तर दिया, ''जब तक कोई मुझे न समझाये, तो मैं कैसे समझूँगा?'' उसने फ़िलिप से निवेदन किया कि वह चढ़ कर उसके पास बैठ जाये।
32) वह धर्मग्रन्थ का यह प्रसंग पढ़ रहा था-
33) वह मेमने की तरह वध के लिए ले जाया गया। ऊन करतने वाले के सामने चुप रहने वाली भेड़ की तरह उसने अपना मुख नहीं खोला। उसे अपमान सहना पड़ा, उसके साथ न्याय नहीं किया गया। उसकी वंशावली की चर्चा कौन कर सकेगा? उसका जीवन पृथ्वी पर से उठा लिया गया है।
34) खोजे ने फ़िलिप से कहा, ''आप कृपया मुझे बताइए, नबी किसके विषय में यह कह रहे हैं? अपने विषय में या किसी दूसरे के विषय में?''
35) आत्मा ने फ़िलिप से कहा, ''आगे बढ़िए और रथ के साथ चलिए''।
36) (३६-३७) यात्रा करते-करते वे एक जलाशय के पास पहुँँचे। खोजे ने कहा, ''यहाँ पानी है। मेरे बपतिस्मा में क्या बाधा है?''
38) उसने रथ रोकने का आदेश दिया। तब फिलिप और खोजा, दोनों जल में उतरे और फ़िलिप ने उसे बपतिस्मा दिया।
39) जब वे जल से बाहर आये, तो ईश्वर का आत्मा फ़िलिप को उठा ले गया। खोजे ने उसे फिर नहीं देखा; फिर भी वह आनन्द के साथ अपने रास्ते चल पड़ा।
40) फ़िलिप ने अपने को आजोतस में पाया और वह कैसरिया पहुँचने तक सब नगरों में सुसमाचार का प्रचार करता रहा।

अध्याय 9

1) साऊल पर अब भी प्रभु के शिष्यों को धमकाने तथा मार डालने की धुन सवार थी।
2) उसने प्रधानयाजक के पास जा कर दमिश्क के सभागृहों के नाम पत्र माँगे, जिन में उसे यह अधिकार दिया गया कि यदि वह वहाँ नवीन पन्थ के अनुयायियों का पता लगाये, तो वह उन्हें-चाहे वे पुरुष हों या स्त्रियाँ-बाँध कर येरुसालेम ले आये।
3) जब वह यात्रा करते-करते दमिश्क के पास पहुँचा, तो एकाएक आकाश से एक ज्योति उसके चारों और चमक उठी।
4) वह भूमि पर गिर पड़ा और उसे एक वाणी यह कहती हुई सुनाई दी, ''साऊल! साऊल! तुम मुझ पर क्यों अत्याचार करते हो?''
5) उसने कहा, ''प्रभु! आप कौन हैं?'' उत्तर मिला, ''मैं ईसा हूँ, जिस पर तुम अत्याचार करते हो।
6) उठो और शहर जाओ। तुम्हें जो करना है, वह तुम्हें बताया जायेगा।
7) उसके साथ यात्रा करने वाले दंग रह गये। वे वाणी तो सुन रहे थे, किन्तु किसी को नहीं देख पा रहे थे।
8) साऊल भूमि से उठा, किन्तु आँखें खोलने पर वह कुछ नहीं देख सका। इसलिए वे हाथ पकड़ कर उसे दमिश्क ले चले।
9) वह तीन दिनों तक अन्धा बना रहा और वह न तो खाता था न पीता था।
10) दमिश्क में अनानीयस नामक शिष्य रहता था। प्रभु ने उसे दर्शन दे कर कहा, ''अनानीयस!'' उसने उत्तर दिया, ''प्रभु! प्रस्तुत हूँ''।
11) प्रभु ने उस से कहा, ''तुरन्त 'सीधी' नामक गली जाओ और यूदस के घर में साऊल तारसी का पता लगाओ। वह प्रार्थना कर रहा है।
12) उसने दर्शन में देखा कि अनानीयस नामक मनुष्य उसके पास आ कर उस पर हाथ रख रहा है, जिससे उसे दृष्टि प्राप्त हो जाये।''
13) अनानीयस ने आपत्ति करते हुए कहा, ''प्रभु! मैंने अनेक लोगों से सुना है कि इस व्यक्ति ने येरुसालेम में आपके सन्तों पर कितना अत्याचार किया है।
14) उसे महायाजकों से यह अधिकार मिला है कि वह यहाँ उन सबों को गिरफ्तार कर ले, जो आपके नाम की दुहाई देते हैं।''
15) प्रभु ने अनानीयस से कहा, ''जाओ। वह मेरा कृपापात्र है। वह गैर-यहूदियों, राजाओं तथा इस्राएलियों के बीच मेरे नाम का प्रचार करेगा।
16) मैं स्वयं उसे बताऊँगा कि उसे मेरे नाम के कारण कितना कष्ट भोगना होगा।''
17) तब अनानीयास चला गया और उस घर के अन्दर आया। उसने साऊल पर हाथ रख दिये और कहा, ''भाई साऊल! प्रभु ईसा आप को आते समय रास्ते में दिखाई दिये थे। उन्होंने मुझे भेजा है, जिससे आपको दृष्टि प्राप्त हो और आप पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो जायें।''
18) उस क्षण ऐसा लग रहा था कि उसकी आँखों से छिलके गिर रहे हैं। उसे दृष्टि प्राप्त हो गयी और उसने तुरन्त बपतिस्मा ग्रहण किया।
19) उसने भोजन किया और उसके शरीर में बल आ गया। साऊल कुछ समय तक दमिश्क के शिष्यों के साथ रहा।
20) वह शीघ्र ही सभागृहों में ईसा के विषय में प्रचार करने लगा कि वह ईश्वर के पुत्र हैं।
21) सब सुनने वाले अचम्भे में पड़ कर कहते थे, ''क्या यह वही नहीं है, जो येरुसालेम में इस नाम की दुहाई देने वालों को मिटाने का प्रयास करता था? क्या यह यहाँ इसलिए नहीं आया कि यह उन्हें बाँध कर महायाजकों के पास ले जाये?''
22) किन्तु साऊल का सामर्थ्य बढ़ता जा रहा था और वह इस बात का प्रमाण दे कर कि ईसा ही मसीह हैं, दमिश्क में रहने वाले यहूदियों को असमंजस में डाल देता था।
23) इस प्रकार बहुत समय बीत गया। तब यहूदिों ने उसे समाप्त करने का षड्यन्त्र रचा,
24) किन्तु साऊल को उसका पता चल गया। वे उसे समाप्त करने के उद्देश्य से दिन-रात शहर के फाटकों पर कड़ा पहरा दे रहे थे;
25) परन्तु साऊल के शिष्य उसे रात को ले गये और उन्होंने उसे टोकरे में बैठा कर चारदीवारी पर से नीचे उतार दिया।
26) जब साऊल येरुसालेम पहुँचा, तो वह शिष्यों के समुदाय में सम्मिलित हो जाने की कोशिश करता रहा, किन्तु वे सब उसे से डरते थे, क्योंकि उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि वह सचमुच ईसा का शिष्य बन गया है।
27) तब बरनाबस ने उसे प्रेरितों के पास ले जा कर उन्हें बताया कि साऊल ने मार्ग में प्रभु के दर्शन किये थे और प्रभु ने उस से बात की थी और यह भी बताया कि साऊल ने दमिश्क में निर्भीकता से ईसा के नाम का प्रचार किया था।
28) इसके बाद साऊल येरुसालेम में प्रेरितों के साथ आता-जाता रहा
29) और निर्भीकता से ईसा के नाम का प्रचार करता रहा। वह यूनानी-भाषी यहूदियों से बातचीत और बहस किया करता था, किन्तु वे लोग उसे मार डालना चाहते थे।
30) जब भाइयों को इसका पता चला, तो उन्होंने साऊल को कैसरिया ले जा कर तरसुस भेजा।
31) उस समय समस्त यहूदिया, गलीलिया तथा समारिया में कलीसिया को शान्ति मिली। उसका विकास होता जा रहा था और वह, प्रभु पर श्रद्धा रखती हुई और पवित्र आत्मा की सान्त्वना द्वारा बल प्राप्त करती हुई, बराबर बढ़ती जाती थी।
32) पेत्रुस, चारों ओर दौरा करते हुए, किसी दिन लुद्दा में रहने वाली ईश्वर की प्रजा के यहाँ भी पहुँचा।
33) वहाँ उसे ऐनेयस नामक अर्द्धांगरोगी मिला, जो आठ वर्षों से बिस्तर पर पड़ा हुआ था।
34) पेत्रुस ने उस से कहा, ''ऐनेयस! ईसा मसीह तुम को स्वस्थ करते हैं। उठो और अपना बिस्तर स्वयं ठीक करो।'' और वह उसी क्षण उठ खड़ा हुआ।
35) लुद्दा और सरोन के सब निवासियों ने उसे देखा और वे प्रभु की ओर अभिमुख हो गये।
36) योप्पे में तबिया नामक शिष्या रहती थी। तबिथा का यूनानी अनुवाद दोरकास (अर्थात् हरिणी) है। वह बहुत अधिक परोपकारी और दानी थी।
37) उन्हीं दिनों वह बीमार पड़ी और चल बसी। लोगों ने उसे नहला कर अटारी पर लिटा दिया।
38) लुद्दा योप्पे से दूर नहीं है और शिष्यों ने सुना था कि पेत्रुस वहाँ है। इसलिए उन्होंने दो आदमियों को भेज कर उस से यह अनुरोध किया कि आप तुरन्त हमारे यहाँ आइए।
39) पेत्रुस उसी समय उनके साथ चल दिया। जब वह योप्पे पहुँचा, तो लोग उसे उस अटारी पर ले गये। वहाँ सब विधवाएं रोती हुई उसके चारों ओर आ खड़ी हुई और वे कुरते और कपड़े दिखाने लगीं, जिन्हें दोरकास ने उनके साथ रहते समय बनाया था।
40) पेत्रुस ने सबों को बाहर किया और घुटने टेक कर प्रार्थना की। इसके बाद वह शव की ओर मुड़ कर बोला, ''तबिथा, उठो! उसने आँखे खोल दीं और पेत्रुस को देख कर वह उठ बैठी।
41) पेत्रुस ने हाथ बढ़ा कर उसे उठाया और विश्वासियों तथा विधवाओं को बुला कर उसे जीता-जागता उनके सामने उपस्थित कर दिया।
42) यह बात योप्पे में फैल गयी और बहुत-से लोगों ने प्रभु में विश्वास किया।
43) पेत्रुस कुछ दिनों तक योप्पे में सिमोन नामक चर्मकार के यहाँ रहा।

अध्याय 10

1) कैसरिया में इटालियन पलटन का शतपति करनेलियुस नामक मनुष्य रहता था।
2) वह, और उसका समस्त परिवार भी, धर्मपरायण तथा ईश्वर-भक्त था। वह यहूदियों को बहुत-सा भिक्षादान दिया करता और हर समय ईश्वर की प्रार्थना में लगा रहता था।
3) उसने किसी दिन तीसरे पहर के लगभग एक दिव्य दर्शन में यह साफ़-साफ़ देखा कि ईश्वर का दूत उसके यहाँ आ कर कह रहा है, 'करनेलियस!'
4) करनेलियुस ने उस पर आँखें गड़ा कर तथा भयभीत हो कर कहा, ''महोदय! बात क्या है?'' और स्वर्ग दूत ने उत्तर दिया, ''आपकी प्रार्थनाएं और आपके भिक्षादान ऊपर चढ़ कर ईश्वर के सामने पहुँचे और उसने आप को याद किया।
5) अब आप आदमियों को योप्पे भेजिए और सिमोन को, जो पेत्रुस कहलाते हैं, बुला लीजिए।
6) वह चर्मकार सिमोन के यहाँ ठहरे हुए हैं। उसका घर समुद्र के किनारे है।''
7) जब वह स्वर्गदूत, जो उस से बात कर रहा था, चला गया, तो करनेलियुस ने अपने दो नौकरों और एक धर्मपरायण सैनिक को बुलाया
8) और उन्हें सारी बातें समझा कर योप्पे भेजा।
9) दूसरे दिन जब वे यात्रा करते-करते नगर के निकट आ रहे थे, तो पेत्रुस दोपहर के लगभग छत पर प्रार्थना करने लगा।
10) तब उसे भूख लगी और उसने भोजन करने की इच्छा प्रकट की। लोग खाना बना ही रहे थे कि पेत्रुस आत्मा से आविष्ट हो गया।
11) उसने देखा कि स्वर्ग खुल गया है और लम्बी-चौड़ी चादर-जैसी कोई चीज उतर रही है और उसके चारों कोने पृथ्वी पर रखे जा रहे हैं;
12) उस में सब प्रकार के चौपाये, पृथ्वी पर रेंगने वाले जीव-जन्तु और आकाश के पक्षी है।
13) उसे एक वाणी यह कहते हुए सुनाई पड़ी, ''पेत्रुस! उठो, मारो और खाओ''।
14) किन्तु पेत्रृस ने कहा, ‘‘प्रभु! कभी नहीं! मैंने कभी कोई अपवित्र अथवा अशुद्ध वस्तु नहीं खायी।''
15) फिर वह वाणी दूसरी बार उसे सुनाई पड़ी, ‘‘ईश्वर ने जिसे शुद्ध घोषित किया, तुम उसे अशुद्ध मत कहो''।
16) तीन बार ऐसा ही हुआ और इसके बाद वह चीज फिर स्वर्ग में ऊपर उठा ली गयी।
17) पेत्रुस यह नहीं समझ पा रहा था कि मैंने जो दृश्य देखा है, उसका अर्थ क्या हो सकता हैं। इतने में करनेलियुस द्वारा भेजे गये आदमी सिमोन के घर का पता लगा कर फाटक के सामने आ पहुँचे।
18) वे ऊँचे स्वर मे यह पूछ रह थे, ''क्या सिमोन, जो पेत्रुस कहलाते हैं, इसी घर में ठहरे हुए हैं।?''
19) पेत्रुस अब भी उस दर्शन के विषय में विचार कर रहा था कि आत्मा ने उस से कहा, ''देखो! दो आदमी तुम को ढूँढ रहे हैं।
20) तुम जल्दी नीचे उतरो और बेखटके उनके साथ चले जाओ, क्योंकि उन्हें मैंने भेजा है।
21) पेत्रुस ने उतर कर उन आदमियों से कहा, ''आप जिसे ढूँढते हैं, मैं वही हूँ। आप लोग यहाँ कैसे आये?''
22) उन्होंने यह उत्तर दिया, ''शतपति करनेलियुस धार्मिक तथा ईश्वर-भक्त हैं। समस्त यहूदी जनता उनका सम्मान करती हैं। उन्हें एक पवित्र स्वर्गदूत से यह आज्ञा मिली है कि वह आप को अपने घर बुला भेंजे और आपकी शिक्षा सुनें।''
23) पेत्रुस ने उन्हें अंदर बुलाया और उनका आतिथ्य-सत्कार किया।
24) दूसरे दिन वह उनके साथ चल दिया और योप्पे के कुछ भाई भी उनके साथ हो लिये। वह अगले दिन कैसरिया पहुँचा। करनेलियुुस अपने संबंधियों और घनिष्ठ मित्रों को बुला कर उन लोगों की प्रतीक्षा कर रहा था।
25) जब पेत्रुस उनके यहाँ आया, तो करनेलियुस उस से मिला और उसने पेत्रुस के चरणों पर गिर कर उसे प्रणाम किया।
26) किंतु पेत्रुस ने उसे यह कहते हुए उठाया, ''खड़े हो जाइए, मैं भी तो मनुष्य हूँ''
27) और उसके साथ बातचीत करते हुए घर में प्रवेश किया। वहाँ बहुत-से लोगों को एकत्र देखकर
28) पेत्रुस ने उन से यह कहा, ''आप जानते है कि गैर-यहूदी से संपर्क रखना या उसके घर में प्रवेश करना यहूदी के लिए सख्त मना है; किंतु ईश्वर ने मुझ पर यह प्रकट किया हैं कि किसी भी मनुष्य को अशुद्ध अथवा अपवित्र नहीं कहना चाहिए।
29) इसलिए आपके बुलाने पर मैं बेखटके यहाँ आया हूँ। अब मैं पूछना चाहता हूँ कि आपने मुझे क्यों बुलाया?''
30) करनेलियुस ने उत्तर दिया, ''चार दिन पहले इसी समय मैं अपने घर में सन्ध्या की प्रार्थना कर रहा था कि उजले वस्त्र पहने एक पुरुष मेरे सामने आ खड़ा हुआ।
31) उसने यह कहा, 'करनेलियुस! आपकी प्रार्थनाएँ सुनी गयी हैं और ईश्वर ने आपके भिक्षा-दानों को याद किया।
32) आप आदमियों को योप्पे भेजिए और सिमोन को, जो पेत्रुस कहलाते हैं, बुलाइए। वह चर्मकार सिमोन के यहाँ, समुद्र के किनारे, ठहरे हुए हैं।
33) मैंने आप को तुरंत बुला भेजा और आपने पधारने की कृपा की हैं। ईश्वर ने आप को जो-जो आदेश दिये हैं, उन्हें सुनने के लिए हम सब यहाँ आपके सामने उपस्थित हैं।''
34) पेत्रुस ने कहा, ''मैं अब अच्छी तरह समझ गया हूँ कि ईश्वर किसी के साथ पक्ष-पात नहीं करता।
35) मनुष्य किसी भी राष्ट्र का क्यों न हो, यदि वह ईश्वर पर श्रद्धा रख कर धर्माचरण करता है, तो वह ईश्वर का कृपापात्र बन जाता हैं।
36) ईश्वर ने इस्राएलियों को अपना संदेश भेजा और हमें ईसा मसीह द्वारा, जो सबों के प्रभु हैं, शांति का सुसमाचार सुनाया।
37) नाजरेत के ईसा के विषय में यहूदिया भर में जो हुआ हैं, उसे आप लोग जानते हैं। वह सब गलीलिया में प्रारंभ हुआ-उस बपतिस्मा के बाद, जिसका प्रचार योहन किया था।
38) ईश्वर ने ईसा को पवित्र आत्मा और सामर्थ्य से विभूषित किया और वह चारों ओर घूम-घूम कर भलाई करते रहें और शैतान के वश में आये हुए लोगों को चंगा करते रहें, क्योंकि ईश्वर उनके साथ था
39) उन्होंने जो कुछ यहूदिया देश और येरुसालेम में किया, उसके साक्षी हम हैं। उन को लोगों ने क्रूस के काठ पर चढ़ा कर मार डाला;
40) परंतु ईश्वर ने उन्हें तीसरे दिन जिलाया और प्रकट होने दिया-
41) सारी जनता के सामने नहीं, बल्कि उन साक्षियों के सामने, जिन्हें ईश्वर ने पहले ही से चुन लिया था। वे साक्षी हम हैं। मृतकों में से उनके जी उठने के बाद हम लोगों ने उनके साथ खाया-पिया
42) और उन्होंने हमें आदेश दिया कि हम जनता को उपदेश दे कर घोषित करें कि ईश्वर ने उन्हें जीवितों और मृतकों का न्यायकर्ता नियुक्त किया हैं।
43) उन्हीं के विषय में सब नबी घोषित करते है कि जो उन में विश्वास करेगा, उसे उनके नाम द्वारा पापों की क्षमा मिलेगी।''
44) पेत्रुस बोल ही रहा था कि पवित्र आत्मा सब सुनने वालों पर उतरा।
45) पेत्रुस के साथ आये हुए यहूदी विश्वासी यह देख कर चकित रह गये कि गैर-यहूदियों को भी पवित्र आत्मा का वरदान मिला है;
46) क्योंकि वे गैर-यहूदियों को भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलते और ईश्वर की स्तुति करते सुन रहे थे। तब पेत्रुस ने कहा,
47) ''इन लोगों को हमारे ही समान पवित्र आत्मा का वरदान मिला है, तो क्या कोई इन्हें बपतिस्मा का जल देने से इंकार कर सकता है?
48) और उसने उन्हें ईसा मसीह के नाम पर बपतिस्मा देने का आदेश दिया। तब उन्होंने पेत्रुस से यह कहते अनुरोध किया, ''आप कुछ दिन हमारे यहाँ रहिए''।

अध्याय 11

1) प्रेरितों तथा यहूदिया के भाइयों को यह पता चला कि गैर-यदूदियों ने भी ईश्वर का वचन स्वीकार किया हैं।
2) जब पेत्रुस येरुसालेम पहँुचा, तो यहूदी विश्वासियों ने उसकी आलोचना करते हुए कहा,
3) ''आपने गैर-यहूदियों के घर में प्रवेश किया और उनके साथ भोजन किया''।
4) इस पर पेत्रुस ने क्रम से सारी बातें समझाते हुए कहा,
5) ''मैं योप्पे नगर में प्रार्थना करते समय आत्मा से आविष्ट हो गया। मैंने देखा कि लंबी-चौड़ी चादर-जैसी कोई चीज स्वर्ग से उतर रही है और उनके चारों कोने मेरे पास पृथ्वी पर रखे जा रहे हैं।
6) मैने उस पर दृष्टि गड़ा कर देखा कि उस में पृथ्वी के चौपाले, जंगली जानवर, रेंगने वाले जीव-जंतु और आकाश के पक्षी हैं।
7) मुझे एक वाणी यह कहते हुए सुनाई पड़ी 'पेत्रुस! उठो, मारो और खाओ।
8) मैंने कहा, 'प्रभु! कभी नहीं! मेरे मुँह में कभी कोई अपवित्र अथवा अशुद्ध वस्तु नहीं पड़ी।'
9) उत्तर में स्वर्ग से दूसरी बार यह वाणी सुनाई पड़ी, 'ईश्वर ने जिसे शुद्ध घोषित किया, तुम उसे अशुद्ध मत कहो'।
10) तीन बार ऐसा ही हुआ और इसके बाद वह चीज फिर स्वर्ग में ऊपर उठा ली गयी।
11) उसी समय कैसरिया से मेरे पास भेजे हुए तीन आदमी उस घर के सामने आ पहुँचे, जहाँ में ठहरा हुआ था
12) आत्मा ने मुझे आदेश दिया कि मैं बेखटके उनके साथ जाऊँ। ये छः भाई मेरे साथ हो लिये और हमने उस मनुष्य के घर में प्रवेश किया।
13) उसने हमें बताया कि उसने अपने यहाँ एक स्वर्गदूत को देखा, जिसमें उस से यह कहा, 'आदमियों को योप्पे भेजिए और सिमोन को, जो पेत्रुस कहलाते हैं, बुलाइए।
14) वह जो शिक्षा सुनायेगें उसके द्वारा आप को और आपके सारे परिवार को मुक्ति प्राप्त होगी।'
15) ''मैंने बोलना आरंभ किया ही था कि पवित्र आत्मा उन लोगों पर उतरा जैसे की वह प्रारंभ में हम पर उतरा था
16) उस समय मुझे प्रभु का वह कथन याद आया- योहन जल का बपतिस्मा देता था, परंतु तुम लोगों को पवित्र आत्मा का बपतिस्मा दिया जायेगा।
17) जब ईश्वर ने उन्हें वही वरदान दिया, जो हमें, प्रभु ईसा मसीह में विश्वास करने वालों को, मिला है, तो मैं कौन था जो ईश्वर के विधान में बाधा डालता?''
18) ये बातें सुनकर वे शांत हो गये और उन्होंने यह कहते हुए ईश्वर की स्तुति की, ''ईश्वर ने गैर-यहूदियों को भी यह वरदान दिया कि वे उसकी ओर अभिमुख हो कर जीवन प्राप्त करें''।
19) स्तेफ़नुस को ले कर येरुसालेम में अत्याचार प्रारंभ हुआ था। जो लोग इसके कारण बिखर गये थे, वे फेनिसिया, कुप्रस तथा अंताखिया तक पहुँच गये। वे यहूदियों के अतिरिक्त किसी को सुसमाचार नहीं सुनाते थे।
20) किंतु उन में से कुछ कुप्रुस तथा कुराने के निवासी थे और वे अंताखिया पहुँच कर यूनानियों को भी प्रभु ईसा का सुसमाचार सुनाते थे।
21) प्रभु उनकी सहायता करता था। बहुत से लोग विश्वासी बन कर प्रभु की ओर अभिमुख हो गये।
22) येरुसालेम की कलीसिया ने उन बातों की चर्चा सुनी और उसने बरनाबस को अंताखिया भेजा।
23) जब बरनाबस ने वहाँ पहुँच कर ईश्वरीय अनुग्रह का प्रभाव देखा, तो वह आनन्दित हो उठा। उसने सबों से अनुरोध किया कि वे सारे हृदय से प्रभु के प्रति ईमानदार बने रहें
24) क्योंकि वह भला मनुष्य था और पवित्र आत्मा तथा विश्वास से परिपूर्ण था। इस प्रकार बहुत-से लोग प्रभु के शिष्यों मे सम्मिलित हो गये।
25) इसके बाद बरनाबस साऊल की खोज में तरसुस चला गया
26) और उसका पता लगा कर उसे अंतखिया ले आया। दोनों एक पूरे वर्ष तक वहाँ की कलीसिया के यहाँ रह कर बहत-से लोगों को शिक्षा देते रहे। अंताखिया में शिष्यों को पहेले पहल 'मसीही' नाम मिला।
27) उन दिनों कुछ नबी येरुसालेम से अंताखिया आये।
28) उन में एक, जिसका नाम अगाबुस था, उठ खडा हुआ और आत्मा की प्रेरणा से बोला कि सारी पृथ्वी पर घोर अकाल पड़ने वाला हैं यह अकाल वास्तव में सम्राट् क्लौदियसु के राज्यकाल में पड़ा।
29) शिष्यों ने निश्चित किया कि यहूदिया के भाईयों की सहायता के लिए उन में प्रत्येक अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार चंदा भेज देगा।
30) तदनुसार उन्होंने बरनाबस तथा साऊल के हाथ अध्यक्षों को चन्दा भेजा।

अध्याय 12

1) उस समय राजा हेरोद ने कलीसिया के कुछ सदस्यों पर अत्याचार किया।
2) उसने योहन के भाई याकूब को तलवार के घाट उतार दिया
3) और जब उसने देखा कि इस से यहूदी प्रसन्न हुए, तो उसने पेत्रुस को भी गिरफ्तार कर लिया। उन दिनों बेख़मीर रोटियों का पर्व था।
4) उसने पेत्रुस को पकड़वा कर बंदीग्रह में डलवाया और उसे चार-चार सैनिकों के चार दलों के पहरे में रख दिया। वह पास्का पर्व के बाद उसे लोगों के सामने पेश करना चाहता था
5) जब पेत्रुस पर इस प्रकार बंदीगृह में पहरा बैठा हुआ था, तो कलीसिया उसके लिए आग्रह के साथ ईश्वर से प्रार्थना करती रही।
6) जिस दिन हेरोद उसे पेश करने वाला था, उसके पहले की रात को पेत्रुस, दो हथकड़ियों से बँधा हुआ, दो सैनिकों के बीच सो रहा था और द्वार के सामने भी संतरी पहरा दे रहे थे।
7) प्रभु का दूत अचानक उसके पास आ खड़ा हो गया और कोठरी में ज्योति चमक उठी। उसने पेत्रुस की बगल थपथपा कर उसे जगाया और कहा, ''जल्दी उठिए!'' इस पर पेत्रुस की हाथकड़ियाँ गिर पड़ी।
8) तब दूत ने उस से कहा, ''कमर बाँधिए और चप्पल पहन लीजिए''। उसने यही किया। दूत ने फिर कहा ''चादर ओढ़ कर मेरे पीछे चले आइए''।
9) पेत्रुस उसके पीछे-पीछे बाहर निकल गया। उसे पता नहीं था कि जो कुछ दूत द्वारा हो रहा है, वह सच ही हैं। वह समझ रहा था कि मैं स्वप्न देख रहा हूँ।
10) वे पहला पहरा और फिर दूसरा पहरापार कर उस लोहे के फाटक तक पहुँचे, जो शहर की ओर ले जाता हैं। वह उनके लिए अपने आप खुल गया। वे बाहर निकल कर गली के छोर तक आये कि दूत अचानक उसे छोड़ कर चला गया।
11) तब पेत्रुस होश में आ कर बोल उठा, ''अब मुझे निश्चय हो गया कि प्रभु ने अपने दूत को भेज कर मुझे हेरोद के पंजे से छुड़ाया और यहूदियों की सारी आशाओं पर पानी फेर दिया है।''
12) जब वह अपनी परिस्थिति अच्छी तरह समझ गया, तो वह मरियम के घर चला। मरियम मारकुस कहलाने वाले योहन की माता थी। वहाँ बहुत-से लोग एकत्र हो कर प्रार्थना कर रहे थे।
13) पेत्रुस ने बाहरी फाटक पर दस्तक दी और रोदे नामक नौकरानी पता लगाने आयी कि कौन हैं।
14) वह पेत्रुस की आवाज पहचान कर आनन्द के मारे फाटक खोलना भूल गयी और यह सूचना देने दौड़ते हुए अंदर आयी कि पेत्रुस फाटक पर खड़े हैं।
15) लोगों ने उस से कहा ''तुम प्रलाप कर रही हो''। किंतु जब वह दृढ़ता से कहती रही कि बात ऐसी ही है, तो वे बोले, ''वह उनका दूत होगा''।
16) इस बीच पेत्रुस दस्तक देता रहा। जब उन्होंने फाटक खोला और पेत्रुस को देखा तो बड़े अचम्भे में पड़ गये।
17) उसने हाथ से चुप रहने का संकेत किया और उन्हें बताया कि किस प्रकार ईश्वर उसे बंदीगृह से बाहर निकाल लाया हैं। फिर उसने कहा, ''याकूब और भाइयों को इन बातों की खबर दोगे'' और वह घर छोड़ कर किसी दूसरी जगह चला गया।
18) जब दिन निकला, तो इस बात पर सैनिकों को बड़ी घबराहट हो गयी कि आखिर पेत्रुस का क्या हुआ।
19) हेरोद ने उसकी बड़ी खोज करायी और जब उसका कहीं भी पता नहीं चला, तो उसने पहरेदारों से पूछताछ करने के बाद उन्हें प्राणदण्ड के लिए ले जाने का आदेश दिया। तब वह यहूदिया छोड़ कर कैसरिया गया और वहीं रहने लगा।
20) हेरोद कुछ समय से तीरूस और सीदोन के निवासियों पर अत्यंत क्रुद्ध था। वे अब सर्वसम्मति से हेरोद के दरबार आये। वे राजा के कंचुकी ब्लास्तुस को मना कर संधि करना चाहते थे; क्योंकि उनके देश का सम्भरण राजा हेरोद के क्षेत्र पर निर्भर था।
21) निश्चित किये हुए दिन, हेरोद राजसी वस्त्र पहने सिंहासन पर बैठा और लोगों को संबोधित करता रहा।
22) जनता चिल्ला उठी, ''वह मनुष्य ही नहीं, किसी देवता की वाणी हैं!''
23) उसी क्षण र्ईश्वर के दूत ने उसे मारा, क्योंकि उसने ईश्वर की महिमा अपनानी चाही। उसके शरीर में कीड़े पड़ गये और वह मर गया।
24) ईश्वर का वचन बढ़ता और फैलता गया।
25) बनाराबस और साऊल अपना सेवा-कार्य पूरा कर येरुसालेम से लौटे और अपने साथ योहन को ले आये, जो मारकुस कहलाता था।

अध्याय 13

1) अंताखिया की कलीसिया में कई नबी और शिक्षक थे- जैसे बरनाबस, सिमेयोन, जो नीगेर कहलाता था, लुकियुस कुरेनी, राजा हेरोद का दूध-भाई मनाहेन और साऊल।
2) वे किसी दिन उपवास करते हुए प्रभु की उपासना कर ही रहे थे कि पवित्र आत्मा ने कहा, ''मैंने बरनाबस तथा साऊल को एक विशेष कार्य के लिए निर्दिष्ट किया हैं। उन्हें मेरे लिए अलग कर दो।''
3) इसलिए उपवास तथा प्रार्थना समाप्त करने के बाद उन्होंने बरनाबस तथा साऊल पर हाथ रखे और उन्हें जाने की अनुमति दे देी।
4) पवित्र आत्मा द्वारा भेजे हुए बरनाबस और साऊल सिलूकिया गये और वहाँ से वे नाव पर क्रुप्रुस चले।
5) सलमिस पहुँच कर वे यहूदियों के सभागृहों में ईश्वर के वचन का प्रचार करते रहे। योहन भी उनके साथ रह कर उनकी सहयता करता था।
6) (६-७) वे पूरे टापू का दौरा करने के बाद पाफोस आये! वहाँ बरयेसु नामक एक यहूदी जादूगर और झूठे नबी से उनकी भेंट हुई, जो राज्यपाल सरजियुस पौलुस के साथ रहता था। राज्यपाल बुद्धिमान था और बरनाबस तथा साऊल को बुला कर ईश्वर का वचन सुनना चाहता था।
8) बरयेसु, जिसका उपनाम एलमस (अर्थात्- जादूगर) था, उनका विरोध करता था और राज्यपाल को विश्वास से विमुख करना चाहता था।
9) किंतु साऊल ने, जो पौलुस भी कहलाता था, पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो कर उस पर दृष्टि गड़ायी।
10) और कहा, ''तू शैतान का बच्चा, धूर्तता और कपट से कूट-कूट कर भरा हुआ और हर प्रकार की धार्मिकता का शत्रु है! क्या तू प्रभु के सीधे मार्ग टेढ़े बनाने से बाज नहीं आयेगा?
11) अब देख, प्रभु का हाथ तुझे मार रहा हैं। तू अंधा हो कर कुछ समय तक दिन का प्रकाश नहीं देखेगा।'' उसी क्षण उस पर एक गहरा अँधेरा छा गया और वह लड़खड़ते हुए इधर-उधर ढूँढ़ने लगा कि कोई हाथ पकड़ कर उसे ले चले।
12) यह घटना देख कर और प्रभु की शिक्षा से चकित हो कर राज्यपाल ने विश्वास किया।
13) पौलुस और उसके साथी नाव से चल कर पाफ़ोस से पम्फुलिया के पेरगे पहुँचे। वहाँ योहन उन्हें छोड़ कर येरुसालेम लौट गया।
14) पौलुस और बरनाबस पेरगे से आगे बढ़ कर पिसिदिया के अंताखिया पहुँचे। वे विश्राम के दिन सभागृह में जा कर बैठ गये।
15) संहिता तथा नबियों का पाठ समाप्त हो जाने पर सभागृह के अधिकारियों ने उन्हें यह कहला भेजा, ''भाइयों! यदि आप प्रवचन के रूप में जनता से कुछ कहना चाहें, तो कहिए''।
16) इस पर पौलुस खड़ा हो गया और हाथ से उन्हें चुप रहने का संकेत कर बोलाः ''इस्राएली भाइयो और ईश्वर-भक्त सज्जनो! सुनिए।
17) इस्राएली प्रजा के ईश्वर ने हमारे पूर्वजों को चुना, उन्हें मिस्र देश में प्रवास के समय महान बनाया और वह अपने बाहुबल से उन्हें वहाँ से निकाल लाया।
18) उसने चालीस बरस तक मरूभूमि में उनकी देखभाल की।
19) इसके बाद उसने कनान देश में सात राष्ट्रों को नष्ट किया और उनकी भूमि हमारे पूर्वजों के अधिकार में दे दी।
20) लगभग साढ़े चार सौ वर्ष बाद वह उनके लिए न्यायकर्ताओं को नियुक्त करने लगा और नबी समूएल के समय तक ऐसा करता रहा।
21) तब उन्होंने अपने लिए एक राजा की माँग की और ईश्वर ने उन्हें बेनयामीनवंशी कीस के पुत्र साऊल को प्रदान किया, जो चालीस वर्ष तक राज्य करता रहा
22) इसके बाद ईश्वर ने दाऊद को उनका राजा बनाया और उनके विषय में यह साक्ष्य दिया- मुझे अपने मन के अनुकूल एक मनुष्य, येस्से का पुत्र दाऊद मिल गया है। वह मेरी सभी इच्छाएँ पूरी करेगा।
23) ईश्वर ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार उन्हीं दाऊद के वंश में इस्राएल के लिए एक मुक्तिदाता अर्थात् ईसा को उत्पन्न किया हैं।
24) उनके आगमन से पहले अग्रदूत योहन ने इस्राएल की सारी प्रजा को पश्चाताप के बपतिस्मा का उपदेश दिया था।
25) अपना जीवन-कार्य पूरा करते समय योहन ने कहा, 'तुम लोग मुझे जो समझते हो, मैं वह नहीं हूँ। किंतु देखो, मेरे बाद वह आने वाले हैं, जिनके चरणों के जूते खोलने योग्य भी मैं नहीं हूँ।'
26) ''भाइयों! इब्राहीम के वंशजों और यहाँ उपस्थित ईश्वर के भक्तों! मुक्ति का यह संदेश हम सबों के पास भेजा गया है।
27) येरुसालेम के निवासियों तथा उनके शासकों ने ईसा को नहीं पहचाना। उन्हें दण्डाज्ञा दिला कर उन्होंने अनजाने ही नबियों के वे कथन पूरे कर दिये, जो प्रत्येक विश्राम-दिवस को पढ़ कर सुनाये जाते हैं।
28) उन्हें प्राणदण्ड के योग्य कोई दोष उन में नहीं मिला, फिर भी उन्होंने पिलातुस से अनुरोध किया कि उनका वध किया जाये।
29) उन्होंने उनके विषय में जो कुछ लिखा है, वह सब पूरा करने के बाद उन्हें क्रूस के काठ से उतारा और कब्र में रख दिया।
30) ईश्वर ने उन्हें तीसरे दिन मृतकों में से पुनर्जीवित किया
31) और वह बहुत दिनों तक उन लोगों को दर्शन देते रहे, जो उनके साथ गलीलिया से येरुसालेम आये थे। अब वे ही जनता के सामने उनके साक्षी हैं।
32) हम आप लोगों का यह सुसमाचार सुनाते हैं कि ईश्वर ने हमारे पूर्वजों से जो प्रतिज्ञा की थी।
33) उसे उनकी संतति के लिए अर्थात् हमारे लिए पूरा किया है। उसने ईसा को पुनर्जीवित किया है, जैसा कि द्वितीय स्तोत्र में लिखा है, तुम मेरे पुत्र हो। आज मैंने तुम को उत्पन्न किया हैं।
34) ईश्वर ने उन्हें मृतकों में से पुनजीर्तित किया और अब फिर कभी उनकी विकृति नहीं होगी। इस बात के प्रमाण में ईश्वर ने यह कहा था, मैंने दाऊद से जो पवित्र और अटल प्रतिज्ञा की थी, उसे तुम्हारे लिए पूरा करूँगा।
35) इसलिए वह एक दूसरे स्थान पर कहता है, तू अपने भक्त को कब्र में गलने नहीं देगा।
36) दाऊद तो अपने जीवन-काल में ईश्वर की इच्छा पूरी करने के बाद चल बसे। वह अपने पूर्वजों के पास कब्र में रखे गये और उनकी विकृति हो गयी;
37) किंतु ईश्वर ने जिन्हें पुनर्जीवित किया, उनकी विकृति नहीं हुई।
38) ''भाईयो! आप अच्छी तरह समझ ले कि जो संदेश आप को सुनाया जा रहा हैं वह यह है कि ईसा के द्वारा आप लोगों को पापों की क्षमा प्राप्त होगी।
39) जो उन में विश्वास करता है, उसे वह पूर्ण पापमुक्ति प्राप्त होगी, जो आप लोगों को मूसा-संहिता द्वारा नहीं मिल सकती थी।
40) ''सावधान रहें, कहीं ऐसा न हो कि नबियों का यह कथन आप लोगों में चरितार्थ हो जाये-
41) निन्दकों! आश्चर्य करो और दूर हटो! मैं इन दिनों वह कार्य सम्पन्न करने वाला हूँ, जिसके विषय में यदि कोई तुम्हें बताता, तो तुम उस पर कभी विश्वास नहीं करते।''
42) जब वे सभागृह से निकल रहे थे, तो लोगों ने उन से निवेदन किया कि वे अगले विश्राम-दिवस इसी विषय पर बोलें।
43) सभा के विसर्जन के बाद बहुत-से यहूदी और भक्त नवदीक्षित पौलुस और बरनाबस के पीछे हो लिये। पौलुस और बरनाबस ने उन से बात की और आग्रह किया कि वे ईश्वर की कृपा में दृढ़ बने रहें।
44) अगले विश्राम-दिवस नगर के प्रायः सब लोग ईश्वर का वचन सुनने के लिए इकट्ठे हो गये।
45) यहूदी इतनी बड़ी भीड़ देख कर ईर्ष्या से जल रहे थे और पौलुस की निंदा करते हुए उसकी बातों का खण्डन करते रहे।
46) पौलुस और बरनाबस ने निडर हो कर कहा, ''यह आवश्यक था कि पहले आप लोगों को ईश्वर का वचन सुनाया जाये, परंतु आप लोग इसे अस्वीकार करते हैं और अपने को अनंत जीवन के योग्य नहीं समझते; इसलिए हम अब गैर-यहूदियों के पास जाते हैं।
47) प्रभु ने हमें यह आदेश दिया है, मैंने तुम्हें राष्ट्रों की ज्योति बना दिया हैं, जिससे तुम्हारे द्वारा मुक्ति का संदेश पृथ्वी के सीमांतों तक फैल जाये।''
48) गैर-यहूदी यह सुन कर आनन्दित हो गये और ईश्वर के वचन की स्तृति करते रहे। जितने लोग अनंत जीवन के लिए चुने गये थे, उन्होंने विश्वास किया
49) और सारे प्रदेश में प्रभु का वचन फैल गया।
50) किंतु यहूदियों ने प्रतिष्ठित भक्त महिलाओं तथा नगर के नेताओ को उभाड़ा, पौलुस तथा बरनाबस के विरुद्ध उपद्रव खड़ा कर दिया और उन्हें अपने इलाके से निकाल दिया।
51) पौलुस और बरनाबस उन्हें चेतावनी देने के लिए अपने पैरों की धूल झाड़ कर इकोनियुम चले गये।
52) शिष्य आनन्द और पवित्र आत्मा से परिपूर्ण थे।

अध्याय 14

1) इकोनियुम में भी उन्होंने सभागृह में प्रवेश किया और ऐसा भाषण दिया कि यहूदी तथा यूनानी, दोनों बड़ी संख्या में विश्वासी बन गये।
2) किंतु जिन यहूदियों ने विश्वास करना अस्वीकार किया था, उन्होंने गैर-यहूदियों को उभाड़ा और उनके मन में भाइयों के प्रति द्वेष भर दिया।
3) पौलुस तथा बरनाबस कुछ समय तक वहाँ रहे और प्रभु पर भरोसा रख कर निर्भीकता पूर्वक प्रचार करते रहे। प्रभु भी उनके हाथों द्वारा चिन्ह तथा चमत्कार दिखा कर अपने अनुग्रह का संदेश प्रमाणित करते थे।
4) इसका परिणाम यह हुआ कि नगर की जनता में फूट पड़ गयी। कुछ लोगों ने यहूदियों का और कुछ लोगों ने प्रेरितों का पक्ष लिया।
5) तब नगर के शासकों के सहयोग से गैर-यहूदियों तथा यहूदियों ने प्रेरितों पर अत्याचार तथा पथराव के लिए आंदोलन आरंभ किया।
6) प्रेरितों को इसका पता चला और वे लुकाओनिया के लुस्त्रा तथा देरबे नामक नगरों और उनके आसपास के प्रदेश की ओर भाग निकले
7) और वहाँ सुसमाचार का प्रचार करते रहें।
8) लुस्त्रा में एक ऐसा व्यक्ति बैठा हुआ था, जिसके पैरों में शक्ति नहीं थी। वह जन्म से ही लंगड़ा था और कभी चल-फिर नहीं सका था।
9) वह पौलुस का प्रवचन सुन ही रहा था कि पौलुस ने उस पर दृष्टि गड़ायी और उस में स्वस्थ हो जाने योग्य विश्वास देख कर
10) ऊँचे स्वर में कहा, ''उठो और अपने पैरों पर खड़े हो जाओ''। वह उछल पड़ा और चलने-फिरने लगा।
11) जब लोगों ने देखा कि पौलुस ने क्या किया हैं, तो वे लुकाओनियाई भाषा में बोल उठे, ''देवता मनुष्यों का रूप धारण कर हमारे पास उतरे हैं''।
12) उन्होंने बरनाबस का नाम ज्यूस रखा और पौलुस का हेरमेस, क्योंकि वह प्रमुख वक्ता था।
13) नगर के बाहर ज्यूस का मंदिर था। वहाँ का पुजारी माला पहने सांड़ों के साथ फाटक के पास आ पहुँचा और वह जनता के साथ प्रेरितों के आदर में बलि चढ़ाना चाहता था।
14) जब बरनाबस और पौलुस ने यह सुना, तो वे अपने वस्त्र फाड़ कर यह पुकारते हुए भीड़ में कूद पड़े,
15) भाइयो! आप यह क्या कर रहे हैं? हम भी तो आप लोगों के समान सुख-दुःख भोगने वाले मनुष्य हैं। हम यह शुभ संदेश देने आये हैं कि इस निःसार देवताओं को छोड़ कर आप लोगों को उस जीवंत र्ईश्वर की ओर अभिमुख हो जाना चाहिए, जिसने आकाश, पृथ्वी, समुद्र और उन में जो कुछ है, वह सब बनाया।
16) उसने पिछले युगों में सब राष्ट्रों को अपनी-अपनी राह चलने दिया।
17) फिर भी वह अपने वरदानों द्वारा अपने विषय में साक्ष्य देता रहता है - वह आकाश से पानी बरसाता और अच्छी फसलें उगाता है। वह भरूपूर अन्न प्रदान कर हमारा मन आनंद से भरता हैं।''
18) इन शब्दों द्वारा उन्होंने भीड़ को कठिनाई से अपने आदर में बलि चढ़ाने से रोका।
19) इसके बाद कुछ यहूदियों ने अन्ताखिया तथा इकोनियुम से आ कर लोगों को अपने पक्ष में मिला लिया। वे पौलुस को पत्थरों से मार कर और मरा समझ कर नगर के बाहर घसीट ले गये;
20) किन्तु जब शिष्य पौलुस के चारों ओर एकत्र हो गये, तो वह उठ खड़ा हुआ और नगर लौट आया। दूसरे दिन वह बरनाबस के साथ देरबे चल दिया।
21) उन्होंने उस नगर में सुसमाचार का प्रचार किया और बहुत शिष्य बनाये। इसके बाद वे लुस्त्रा और इकोनियुम हो कर अन्ताखिया लौटे।
22) वे शिष्यों को ढारस बँधाते और यह कहते हुए विश्वास में दृढ़ रहने के लिए अनुरोध करते कि हमें बहुत से कष्ट सह कर ईश्वर के राज्य में प्रवेश करना है।
23) उन्होंने हर एक कलीसिया में अध्यक्षों को नियुक्त किया और प्रार्थना तथा उपवास करने के बाद उन लोगों को प्रभु के हाथों सौंप दिया, जिस में वे लोग विश्वास कर चुके थे।
24) वे पिसिदिया पार कर पम्फुलिया पहुँचे
25) और पेरगे में सुसमाचार का प्रचार करने के बाद अत्तालिया आये।
26) वहाँ से वे नाव पर सवार हो कर अन्ताखिया चल दिये, जहाँ से वे चले गये थे और जहाँ लोगों ने उस कार्य के लिए ईश्वर की कृपा माँगी थी, जिसे उन्होंने अब पूरा किया था।
27) वहाँ पहुँचकर और कलसिया की सभा बुला कर वे बताते रहे कि ईश्वर ने उनके द्वारा क्या-क्या किया और कैसे गैर-यहूदियों के लिए विश्वास का द्वार खोला।
28) वे बहुत समय तक वहाँ शिष्यों के साथ रहे।

अध्याय 15

1) कुछ लोग यहूदिया से अन्ताख़िया आये और भाइयों को यह शिक्षा देते रहे कि यदि मूसा से चली आयी हुई प्रथा के अनुसार आप लोगों का ख़तना नहीं होगा, तो आप को मुक्ति नहीं मिलेगी।
2) इस विषय पर पौलुस और बरनाबस तथा उन लोगों के बीच तीव्र मतभेद और वाद-विवाद छिड़ गया, और यह निश्चय किया गया कि पौलुस तथा बरनाबस अन्ताख़िया के कुछ लोगों के साथ येरुसालेम जायेंगे और इस समस्या पर प्रेरितों तथा अध्यक्षों से परामर्श करेंगे।
3) अन्ताख़िया की कलीसिया ने उन्हें विदा किया। वे फ़ेनिसिया तथा समरिया हो कर यात्रा करते हुए वहाँ के सब भाइयों को ग़ैर-यहूदियों के धर्म-परिवर्तन के विषय में बता कर बड़ा आनन्द प्रदान करते थे।
4) जब वे येरुसालेम पहुँचे, तो कलीसिया, प्रेरितों तथा अध्यक्षों ने उनका स्वागत किया और उन्होंने बताया कि ईश्वर ने उनके द्वारा क्या-क्या कर दिखाया है।
5) फ़रीसी सम्प्रदाय के कुछ सदस्य, जो विश्वासी हो गये थे, यह कहते हुए उठ खड़े हुए कि ऐसे लोगों का ख़तना करना चाहिए और उन्हें आदेश देना चाहिए कि वे मूसा-संहिता का पालन करें।
6) प्रेरित और अध्यक्ष इस समस्या पर विचार करने के लिए एकत्र हुए।
7) जब बहुत वाद-विवाद हो चुका था, तो पेत्रुस ने उठ कर यह कहा : ''भाइयो! आप जानते हैं कि ईश्वर ने प्रारम्भ से ही आप लोगों में से मुझे चुन कर निश्चय किया कि गैर-यहूदी मेरे मुख से सुसमाचार का वचन सुनें और विश्वास करें।
8) ईश्वर मनुष्य का हृदय जानता है। उसने उन लोगों को हमारे ही समान पवित्र आत्मा प्रदान किया।
9) इस प्रकार उसने उनके पक्ष में साक्ष्य दिया और विश्वास द्वारा उसका हृदय शुद्ध कर हम में और उन में कोई भेद नहीं किया।
10) जो जूआ न तो हमारे पूर्वज ढोने में समर्थ थे और न हम, उसे शिष्यों के कन्धों पर लाद कर आप लोग अब ईश्वर की परीक्षा क्यों लेते हैं?
11) हमारा विश्वास तो यह है कि हम, और वे भी, प्रभु ईसा की कृपा द्वारा ही मुक्ति प्राप्त करेंगे।''
12) सब चुप हो गये और वे बरनाबास तथा पौलुस की बातें सुनते रहे, जो उन चिन्हों तथा चमत्कारों के विषय में बता रहे थे, जिन्हें ईश्वर ने उनके द्वारा ग़ैर-यहूदियों के बीच दिखाया था।
13) जब वे बोल चुके थे, तो याकूब ने कहा, ''भाइयो! मेरी बात सुनिए।
14) सिमोन ने हमें बताया कि प्रारम्भ से ही ईश्वर ने किस प्रकार ग़ैर-यहूदियों में अपने लिए एक प्रजा चुनने की कृपा की।
15) यह नबियों की शिक्षा के अनुसार ही है; क्योंकि लिखा है :
16) इसके बाद में लौट कर दाऊद का गिरा हुआ घर फिर ऊपर उठाऊँगा। मैं उसके खँड़हरों का पुननिर्माण करूँगा और उसे फिर खडा करूँगा,
17) जिससे मानव जाति के अन्य लोग- अर्थात् सभी राष्ट्र, जिन्हें मैंने अपनाया है- प्रभु की खोज में लगे रहें। यह कथन उस प्रभु का है, जो ये कार्य सम्पन्न करता है।
18) ये कार्य प्राचीन काल से ज्ञात हैं।
19) ''इसलिए मेरा विचार यह है कि जो ग़ैर-यहूदी ईश्वर की ओर अभिमुख होते हैं, उन पर अनावश्यक भार न डाला जाये,
20) बल्कि पत्र लिख कर उन्हें आदेश दिया जाये कि वे देवमूर्तियों पर चढ़ाये हुए माँस से, व्यभिचार, गला घोंटे हुए पशुओं के माँस और रक्त से परहेज करें;
21) क्योंकि प्राचीनकाल से नगर-नगर में मूसा के प्रचारक विद्यमान हैं और उनकी संहिता प्रत्येक विश्राम-दिवस को सभागृहों में पढ़ कर सुनायी जाती है।
22) तब सारी कलीसिया की सहमति से प्रेरितों तथा अध्यक्षों ने निश्चय किया कि हम में कुछ लोगों को चुन कर पौलुस तथा बरनाबस के साथ अन्ताख़िया भेजा जाये। उन्होंने दो व्यक्तियों को चुना, जो भाइयों में प्रमुख थे, अर्थात् यूदस को, जो बरसब्बास कहलाता था, तथा सीलस को,
23) और उनके हाथ यह पत्र भेजा : ''प्रेरित तथा अध्यक्ष, आप लोगों के भाई, अन्ताख़िया, सीरिया तथा किलिकिया के ग़ैर-यहूदी भाइयों को नमस्कार करते हैं।
24) हमने सुना है कि हमारे यहाँ के कुछ लोगों ने, जिन्हें हमने कोई अधिकार नहीं दिया था, अपनी बातों से आप लोगों में घबराहट उत्पन्न की और आपके मन को उलझन में डाल दिया है।
25) इसलिए हमने सर्वसम्मति से निर्णय किया है कि प्रतिनिधियों का चुनाव करें और उन को अपने प्रिय भाई बरनाबस और पौलुस के साथ,
26) जिन्होंने हमारे प्रभु ईसा मसीह के नाम पर अपना जीवन अर्पित किया है, आप लोगों के पास भेजें।
27) इसलिए हम यूदस तथा सीलस को भेज रहे हैं। वे भी आप लोगों को यह सब मौखिक रूप से बता देंगे।
28) पवित्र आत्मा को और हमें यह उचित जान पड़ा कि इन आवश्यक बातों के सिवा आप लोगों पर कोई और भार न डाला जाये।
29) आप लोग देवमूर्तियों पर चढ़ाये हुए मांस से, रक्त, गला घोंटे हुए पशुओं के मांस और व्यभिचार से परहेज करें। इन से अपने को बचाये रखने में आप लोगों का कल्याण है। अलविदा!''
30) वे विदा हो कर अन्ताख़िया चल दिये और वहाँ पहुँच कर उन्होंने भाइयों को एकत्र कर वह पत्र दिया।
31) पत्र की सान्त्वनापूर्ण बातें पढ़ने के बाद लोगों को बड़ा आनन्द हुआ।
32) यूदस और सीलस स्वयं नबी थे। उन्होंने भाइयों को देर तक सम्बोधित कर सान्त्वना दी और उन को ढ़ारस बँधाया।
33) (३३-३४) वे कुछ समय वहाँ रहे और इसके बाद वे भाइयों की मंगलकामनाएँ ले कर विदा हुए और उन लोगों के पास लौटे, जिन्होंने उन्हें भेजा था।
35) पौलुस और बरनाबस अन्ताख़िया में ही रह गये और बहुत-से अन्य लोगों के साथ वे शिक्षा देते और प्रभु के ेवचन का प्रचार करते रहे।
36) कुछ समय बाद पौलुस ने बरनाबस से कहा, ''आइए, हमने जिन-जिन नगरों में प्रभु के वचन का प्रचार किया, वहाँ फिर चल कर भाइयों से मिलें और यह देखें कि वे कैसे हैं''।
37) बरनाबस चाहता था कि वे योहन को भी, जो मारकुस कहलाता था, अपने साथ ले जायें।
38) पौलुस का विचार यह था कि जिस व्यक्ति ने पम्फ़लिया में उन से अलग हो कर उनके काम में हाथ नहीं बँटाया था, उसे अपने साथ ले जाना उचित नहीं है।
39) इस पर दोनों में इतना तीव्र मतभेद हो गया कि वे एक दूसरे से अलग हो गये। बरनाबस मारकुस को अपने साथ लेकर नाव से कुप्रुस चल दिया।
40) पौलुस ने सीलस को चुना। भाइयों ने उसके लिए प्रभु की कृपा माँगी और वह चल पड़ा।
41) उसने सीरिया तथा किलिकिया का भ्रमण किया और कलीसियाओं को ढ़ारस बँधाया।

अध्याय 16

1) इसके बाद वह देरबे और लुस्त्रा पहुँचा। वहाँ तिमथी नामक एक शिष्य था, जो ईसाई यहूदी माता तथा यूनानी पिता का पुत्र था।
2) लुस्त्रा और इकोनियुम के भाइयों में उसका अच्छा नाम था।
3) पौलुस चाहता था कि वह यात्रा में उसका साथी बने। उस प्रदेश में रहने वाले यहूदियों के कारण उसने तिमथी का ख़तना कराया, क्योंकि सब जानते थे कि उसका पिता यूनानी है।
4) वे नगर-नगर जा कर येरुसालेम में प्रेरितों तथा उनके पालन का आदेश देते थे।
5) इस प्रकार कलीसियाओं का विश्वास दृढ़ होता जा रहा था और उनकी संख्या दिन-दिन बढ़ रही थी।
6) जब पवित्र आत्मा ने उन्हें एशिया में वचन का प्रचार करने से मना किया, तो उन्होंने फ्रुगिया तथा गलातिया का दौरा किया।
7) मुसिया के सीमान्तों पर पहुँच कर वे बिथुनिया जाने की तैयारी कर रहे थे कि ईसा के आत्मा ने उन्हें अनुमति नहीं दी।
8) इसलिए वे मुसिया पार कर त्रोआस आये।
9) वहाँ पौलुस ने रात को एक दिव्य दर्शन देखा। एक मकेदूनी उसके सामने खड़ा हो कर यह अनुरोध कर रहा था, ''आप समुद्र पार कर मकेदूनिया आइए और हमारी सहायता कीजिए''।
10) इस दर्शन के बाद हमने यह समझ कर तुरन्त मकेदूनिया जाने का प्रयत्न किया कि ईश्वर ने वहाँ सुसमाचार का प्रचार करने के लिए हमें बुलाया है।
11) त्रोआस से चल कर हम नाव पर सीधे समाथ्राके, दूसरे दिन नेआपोलिस
12) और वहाँ से फिलिप्पी पहुँचे। फिलिप्पी मकेदूनिया प्रान्त का मुख्य नगर और रोमन उपनिवेश है। हम कुछ दिन वहाँ रहे।
13) विश्राम के दिन हम यह समझ कर शहर के बाहर नदी के तट आये कि वहाँ कोई प्रार्थनागृह होगा। हम बैठ गये और वहाँ एकत्र स्त्रियों से बातचीत करते रहे।
14) सुनने वाली महिलाओं में एक का नाम लुदिया था और वह थुआतिरा नगर की रहने वाली थी। वह बैंगनी कपड़ों का व्यापार करती और ईश्वर पर श्रद्धा रखती थी। प्रभु ने उसके हृदय का द्वार खोल दिया और उसने पौलुस की शिक्षा स्वीकार कर ली।
15) सपरिवार बपतिस्मा ग्रहण करने के बाद लुदिया ने हम से यह अनुरोध किया, ''आप लोगों ने माना है कि मैं सचमुच प्रभु में विश्वास करती हूँ, तो आइए, मेरे यहाँ ठहरिए''। और उसने इसके लिए बहुत आग्रह किया।
16) हम किसी दिन प्रार्थना-गृह जा रहे थे कि एक कम उम्र वाली दासी से हमारी भेंट हो गयी। वह एक भविष्यवक्ता अपदूत के वश में थी और भविष्य बता-बता कर अपने मालिकों के लिए बहुत कमाती थी।
17) वह पौलुस और हम लोगों के पीछे-पीछे चल कर चिल्लाती रहती थी, ''ये लोग सर्वोच्च ईश्वर के सेवक हैं और आप लोगों को मुुक्ति का मार्ग बताते हैं''।
18) वह बहुत दिनों तक ऐसा ही करती रही। अन्त में पौलुस तंग आ गया ओर उसने मुड़ कर उस आत्मा से कहा, ''मैं तुझे ईसा मसीह के नाम पर इस से निकल जाने का आदेश देता हूँ'', और वह उसी क्षण उस से निकल गया।
19) जब उसके मालिकों ने देखा कि उनकी आमदनी की आशा चली गयी, तो वे पौलुस तथा सीलस को पकड़ कर चौक में अधिकारियों के पास खींच ले गये।
20) उन्होंने पौलुस और सीलस को न्यायकर्ताओं के सामने पेश किया और कहा, ''ये व्यक्ति हमारे शहर में बड़ी अशान्ति फैलाते हैं। ये यहूदी हैं
21) और ऐसी प्रथाओं का प्रचार करते हैं, जिन्हें अपनाना या जिन पर चलना हम रोमियों के लिए उचित नहीं है।''
22) उनके विरोध में भीड़ भी एकत्र हो गयी। तब न्यायकर्ताओं ने कपड़े उतरवा कर उन्हें कोड़े लगाने का आदेश दिया।
23) उन्होंने पौलुस और सीलस को खूब पिटवाया और कारापाल को बड़ी सावधानी से उनकी रखवाली करने का आदेश दे कर उन्हें बन्दीगृह में डलवा दिया।
24) कारापाल ने ऐसा आदेश पा कर उन्हें भीतरी बन्दीगृह में रखा और उनके पैर काठ में जकड़ दिये।
25) आधी रात के समय जब पौलुस तथा सीलस प्रार्थना करते हुए ईश्वर की स्तुति गा रहे थे और कैदी उन्हें सुन रहे थे,
26) तो एकाएक इतना भारी भूकम्प हुुआ कि बन्दीगृह की नींव हिल गयी। उसी क्षण सब द्वार खुल गये और सब कैदियों की बेड़ियाँ ढ़ीली पड़ गयीं।
27) कारापाल जाग उठा और बन्दीगृह के द्वार खुले देख कर समझ गया कि क़ैदी भाग गये हैं। इसलिए उसने तलवार खींच कर आत्महत्या करनी चाही,
28) किन्तु पौलुस ने ऊँचे स्वर से पुकार कर कहा, ''अपनी हानि मत कीजिए। हम सब यहीं हैं।''
29) तब कारापाल चिराग मँगा कर भीतर दौड़ा और काँपते हुए पौलुस तथा सीलस के चरणों पर गिर पड़ा।
30) उसने उन्हें बाहर ले जा कर कहा, ''सज्जनों, मुक्ति प्राप्त करने के लिए मुझे क्या करना चाहिए?''
31) उन्होंने उत्तर दिया, ''आप प्रभु ईसा में विश्वास कीजिए, तो आप को और आपके परिवार को मुक्ति प्राप्त होगी''।
32) इसके बाद उन्होंने करापाल और उसके सब घरवालों को ईश्वर का वचन सुनाया।
33) उसने रात को उसी घड़ी उन्हें ले जा कर उनके घाव धोये। इसके तुरन्त बाद उसने और उसके सारे परिवार ने बपतिस्मा ग्रहण किया।
34) तब उसने पौलुस और सीलस को अपने यहाँ ले जा कर भोजन कराया और अपने सारे परिवार के साथ आनन्द मनाया; क्योंकि उन्होंने ईश्वर में विश्वास किया था।
35) दिन हो जाने पर न्यायकर्ताओं ने परिचरों द्वारा कहला भेजा कि उन व्यक्तियों को छोड़ दो।
36) कारापाल ने पौलुस को यह सन्देश सुनाया, ''न्यायकर्ताओं ने कहला भेजा है कि आप लोगों को छोड़ दिया जाये। अब आप बाहर आ कर कुशलपूर्वक बाहर जा सकते हैं।''
37) किन्तु पौलुस ने परिचरों से कहा, ''हम रोमी नागरिक हैं। फिर भी हम पर लगाये हुए अभियोग की जाँच किये बिना उन्होंने हमें सबों के सामने कोड़े लगवा कर बन्दीगृह में डाल दिया और अब वे हमें चुपके से निकाल रहे हैं। ऐसा नहीं होगा। वे खुद आ कर हमें बाहर ले जायें।''
38) परिचरों ने न्यायकर्ताओं को ये बातें सुनायीं। न्यायकर्ता यह सुन कर डर गये कि पौलुस और सीलस रोमन नागरिक हैं।
39) उन्होंने आ कर क्षमा माँगी और उन्हें बन्दीगृह से बाहर ले जा कर अनुरोध किया कि वे नगर छोड़ कर चले जायें।
40) पौलुस और सीलस बन्दीगृह ने निकल कर लुदिया के यहाँ गये। वे भाइयों से मिले और उन्हें सान्त्वना देने के बाद वहाँ से चल पड़े।

अध्याय 17

1) वे अम्फिपोलिस तथा अपोलोनिया पार कर थेसलनीके पहुँचे, जहाँ यहूदियों का एक सभागृह था।
2) पौलुस अपनी आदत के अनुसार वहाँ उन से मिलने गया। उसने तीन विश्राम-दिवसों को उनके साथ तर्क-वितर्क किया और धर्मग्रन्थ की व्याख्या करते हुए यह प्रमाणित किया कि
3) मसीह के लिए दुःख भोगना और मृतकों में से जी उठना आवश्यक था। उसने यह भी कहा, ''यही ईसा मसीह हैं, जिनका मैं आप लोगों के बीच प्रचार करता हूँ।
4) उन में कुुछ लोगों ने विश्वास किया और वे पौलुस तथा सीलस से मिल गये। बहुत-से ईश्वर-भक्त यूनानियों और अनेक प्रतिष्ठित महिलाओं ने भी यही किया।
5) इस से यहूदी ईर्ष्या से जलने लगे और उन्होंने बाजार के कुछ गुण्डों की सहायता से भीड़ एकत्र की और नगर में दंगा खड़ा कर दिया। वे पौलुस और सीलस को नगर-सभा के सामने पेश करने के उद्देश्य से यासोन के घर आ धमके।
6) उन्हें न पा कर वे यासोन और कई भाईयों को यह चिल्लाते हुए नगर-अधिकारियों के पास खींच ले गये, ''वे लोग सारी दुनिया में अशान्ति फैला चुके हैं और अब वहाँ पहुँचे हैं।
7) यासोन ने उन्हें अपने यहाँ ठहराया। वे सब कैसर के आदेशों का विरोध करते हुए कहते हैं कि ईसा नामक कोई और राजा है।''
8) यह सुन कर भीड़ और अधिकारी उत्तेजित हो गये।
9) उन्होंने यासोन और दूसरों से जमानत ली और उन्हें जाने दिया।
10) भाइयों ने उसी रात पौलुस और सीलस को बेरैया भेजा। वहाँ पहुँचने पर ये यहूदियों के सभागृह गये।
11) ये यहूदी थेसलनीके के यहूदियों से अधिक उदार थे। वे बड़ी उत्सुकता से सुसमाचार सुनते थे और इसकी सच्चाई की जांच करने प्रतिदिन धर्मग्रन्थ का परिशीलन करते थे।
12) उन में बहुत लोग विश्वास बन गये। इसके अतिरिक्त बहुसंख्यक प्रतिष्ठित ग़ैर-यहूदी महिलाओं और पुरुषों ने भी ऐसा ही किया।
13) जब थेसलनीके के यहूदियों को यह पता चला कि पौलुस बेरैया में ईश्वर के वचन का प्रचार कर रहा है, तो वे भी वहाँ लोगों को उभाड़ने और उत्तेजित करने आये।
14) इसलिए भाइयों ने पौलुस को तुरन्त समुद्र के तट भेजने का प्रबन्ध किया। सीलस और तिमथी वहीं रह गये।
15) पौलुस के साथी उसे आथेंस ले चले और उसका यह सन्देश ले कर लौटे कि जितनी जल्दी हो सके, सीलस और तिमथी मेरे पास चले आयें।
16) जब पौलुस आथेंस में उनकी प्रतीक्षा कर रहा था, तो उसे शहर में देवमूर्तियों की भरमार देख कर बहुत क्षोभ हुआ।
17) इसलिए वह न केवल सभागृह में यहूदियों तथा ईश्वर-भक्तों के साथ, बल्कि प्रतिदिन चौक में आने-जाने वाले लोगों के साथ भी तर्क-वितर्क करता था।
18) वहाँ कुछ एपिकूरी तथा स्तोइकी दार्शनिकों से भी उसका सम्पर्क हुआ। कुछ लोग कहते थे, ''यह बकवादी हम से क्या कहना चाहता है?'' कुछ लोग कहते थे, ''यह विदेशी देवताओं का प्रचारक जान पड़ता है'', क्योंकि वह ईसा तथा पुनरुत्थान के विषय में बोलता था।
19) इसलिए वे उसे पकड़ कर परिषद् ले गये। उन्होंने कहा, ''क्या हम यह जान सकते हैं कि आप कौन-सी नयी शिक्षा देते हैं?
20) आप हमें अनोखी बातें सुनाते हैं। हम जानना चाहते हैं कि उनका अर्थ क्या है।''
21) क्योंकि आथेंस के सब निवासी और वहाँ के रहने वाले विदेशी नयी-नयी बातें सुनाने अथवा सुनने के अतिरिक्त और कोई काम नहीं करते थे।
22) परिषद् के सामने खड़ा हो कर पौलुस ने यह कहा, ''आथेंस के सज्जनों! मैं देख रहा हूँ कि आप लोग देवताओं पर बहुत अधिक श्रद्धा रखते हैं।
23) आपके मन्दिरों का परिभ्रमण करते समय मुझे एक वेदी पर यह अभिलेख मिला- 'अज्ञात देवता को'। आप लोग अनजाने जिसकी पूजा करते हैं, मैं उसी के विषय में आप को बताने आया हूँ।
24) जिस ईश्वर ने विश्व तथा उस में जो कुछ है, वह सब बनाया है, और जो स्वर्ग और पृथ्वी का प्रभु है, वह हाथ से बनाये हुए मन्दिरों में निवास नहीं करता।
25) वह इसलिए मनुष्यों की पूजा स्वीकार नहीं करता कि उसे किसी वस्तु का अभाव है। वह तो सभी को जीवन, प्राण और सब कुछ प्रदान करता है।
26) उसने एक ही मूलपुरुष से मानव जाति के सब राष्ट्रों की सृष्टि की और उन्हें सारी पृथ्वी पर बसाया। उसने उनके इतिहास के युग और उनके क्षेत्रों के सीमान्त निर्धारित किये।
27) यह इसलिए हुआ कि मनुष्य ईश्वर का अनुसन्धान सकें और उसे खोजते हुए सम्भवतः उसे प्राप्त सकें, यद्यपि वास्तव में वह हम में से किसी से भी दूर नहीं है;
28) क्योंकि उसी में हमारा जीवन, हमारी गति तथा हमारा अस्तित्व निहित है। जैसा कि आपके कुछ कवियों ने कहा है, हम भी उसके वंशज हैं।
29) यदि हम ईश्वर के वंशज हैं, तो हमें यह नहीं समझना चाहिए कि परमात्मा सोने, चाँदी या पत्थर की मूर्ति के सादृश्य रखता है, जो मनुष्य की कला तथा कल्पना की उपज है।
30) ईश्वर ने अज्ञान के युगों का लेखा लेना नहीं चाहा, परन्तु अब उसकी आज्ञा यह है कि सर्वत्र सभी मनुष्य पश्चात्ताप करें;
31) क्योंकि उसने वह दिन निश्चित किया है, जिस में वह एक पूर्व निर्धारित व्यक्ति द्वारा समस्त संसार का न्यायपूर्वक विचार करेगा। ईश्वर ने उस व्यक्ति को मृतकों में से पुनर्जीवित कर सबों को अपने इस निश्चय का प्रमाण दिया है।''
32) मृतकों के पुनरुत्थान की चर्चा सुनते ही कुछ लोगों ने उपहास किया और कुछ लोगों ने यह कहा, ''इस विषय पर हम फिर कभी आपकी बात सुनेंगे''।
33) इसलिए पौलुस उन्हें छोड़ कर चला गया।
34) फिर भी कई व्यक्ति उसकेे साथ हो लिये और विश्वासी बन गये : जैसे परिषद् का सदस्य दियोनिसियुस, दामरिस नामक महिला और अन्य लोग भी।

अध्याय 18

1) इसके बाद पौलुस आथेंस छोड़ कर कुरिन्थ आया,
2) जहाँ आक्विला नामक यहूदी से उसकी भेंट हुई। आक्विला का जन्म पोन्तुस में हुआ था। वह अपनी पत्नी प्रिसिल्ला के साथ इटली से आया था, क्योंकि क्लौदियुस ने यह आदेश निकला था कि सब यहूदी रोम से चले जायें। पौलुस उन से मिलने गया
3) और उनके यहाँ रहने तथा काम करने लगा; क्योंकि वह एक ही व्यवसाय करता था- वे तम्बू बनाने वाले थे।
4) पौलुस प्रत्येक विश्राम के दिन सभागृह में बोलता और यहूदियों तथा यूनानियों को समझाने का प्रयत्न करता था।
5) जब सीलस और तिमथी मकेदूनिया से पहुँचे, तो पौलुस वचन के प्रचार के लिए अपना पूरा समय देने लगा और यहूदियों को यह साक्ष्य देता रहा कि ईसा ही मसीह हैं।
6) किन्तु जब वे लोग पौलुस का विरोध और अपमान कर रहे थे, तो उसने अपने वस्त्र की धूल झाड़ कर उन से यह कहा, ''तुम्हारा रक्त तुम्हारे सिर पड़े! मेरा अन्तःकरण शुद्ध है। मैं अब से ग़ैर-यहूदियों के पास जाऊँगा।''
7) वह उन्हें छोड़ कर चला गया और तितियुस युस्तुस नामक ईश्वर-भक्त के यहाँ आया, जिसका घर सभागृह से लगा हुआ था।
8) सभागृह के अध्यक्ष क्रिस्पुस ने अपने सारे परिवार के साथ प्रभु में विश्वास किया। बहुत-से कुरिन्थी भी पौलुस की बातें सुन कर विश्वास करते और बपतिस्मा ग्रहण करते थे।
9) प्रभु ने किसी रात को दर्शन दे कर पौलुस से यह कहा, ''डरो मत, बल्कि बोलते जाओ और चुप मत रहो।
10) मैं तुम्हारे साथ हूँ। कोई भी तुम पर हाथ डाल कर तुम्हारी हानि नहीं कर पायेगा; क्योंकि इस नगर में बहुत-से लोग मेरे अपने हैं।''
11) पौलुस लोगों को ईश्वर के वचन की शिक्षा देते हुए वहाँ ड़ेढ़ बरस रहा।
12) जिस समय गल्लियो अख़ैया का प्रान्तपति था, सब यहूदी मिल कर पौलुस को पकड़ने आये और उसे न्यायालय ले जाकर
13) उन्होंने यह कहा, ''यह व्यक्ति ईश्वर की ऐसी पूजा-पद्धति सिखलाता है, जो संहिता से भिन्न हैं''।
14) पौलुस अपनी सफाई में बोलने ही वाला था कि गल्लियों ने यहूदियों से यह कहा, ''यहूदियों! यदि यह अन्याय या अपराध का मामला होता, तो मैं अवश्य धैयपूर्वक तुम लोगों की बात सुनता।
15) परन्तु यह वाद-विवाद शिक्षा, नामों और तुम्हारी संहिता से सम्बन्ध रखता है। यह मामला तो तुम लोगों का है। मैं ऐसी बातों का न्याय करना नहीं चाहता।''
16) और उसने उन्हें न्यायालय से बाहर निकलवा दिया।
17) तब सब यहूदियों ने सभागृह के अध्यक्ष सोस्थेनेस को पकड़ कर न्यायालय क सामने पीटा, किन्तु गल्लियों ने इसकी कोई परवाह नहीं की।
18) पौलुस कुछ समय तक कुरिन्थ में रहा और इसके बाद वह भाइयों से विदा ले कर प्रिसिल्ला तथा आक्विला के साथ, नाव से सीरिया चला गया। उसने किसी व्रत के कारण केंखयै में सिर मुंड़ाया।
19) जब वे एफेसुस पहुँचे, तो पौलुस ने उन्हें वहाँ छोड़ दिया और सभागृह जा कर यहूदियों के साथ विचार-विमर्श किया।
20) उन्होंने पौलुस से निवेदन किया कि वह कुछ समय और वहां ठहरे, किन्तु उसने स्वीकार नहीं किया
21) और उन से विदा लेकर कहा, ''यदि ईश्वर ने चाहा, तो मैं आप लोगों के पास फिर आऊँगा''। वह एफ़ेसुस छोड़ कर नाव से
22) कैसरिया पहुंँचा। वह कलीसिया का अभिवादन करने येरुसालेम गया, और इसके बाद अन्ताखिया चल दिया।
23) पौलुस कुछ समय वहाँ रहा। तब फिर विदा हो कर उसने गलातिया और इसके बाद फ्रुगिया का भ्रमण करते हुए सब शिष्यों को ढारस बँधाया।
24) उस समय अपोल्लोस नामक यहूदी एफेसुस पहुँचा। उसका जन्म सिकन्दरिया में हुआ था। वह शक्तिशाली वक्ता और धर्मग्रन्थ का पण्डित था।
25) उसे प्रभु के मार्ग की शिक्षा मिली थी। वह उत्साह के साथा बोलता और ईसा के विषय में सही बातें सिखलाता था, यद्यपि वह केवल योहन के बपतिस्मा से परिचित था।
26) वह सभागृह में निस्संकोच बोलने लगा। प्रिसिल्ला और आक्विला उसकी शिक्षा सुनने के बाद उसे अपने साथ ले गये और उन्होंने अधिक विस्तार के साथ उसे ईश्वर का मार्ग समझाया।
27) जब अपोल्लोस ने अखैया जाना चाहा, तो भाइयों ने उसकी सहायता की और शिष्यों के नाम पत्र दे कर निवेदन किया कि वे उसका स्वागत करें। अपोल्लोस के वहाँ पहुंचने के बाद उस से विश्वासियों को ईश्वर की कृपा से बहुत लाभ हुआ;
28) क्योंकि वह अकाट्य तकोर्ं से यहूदियों का खण्ड़न करता और सब के सामने धर्मग्रन्थ के आधार पर यह प्रमाणित करता था ही ईसा ही मसीह हैं।

अध्याय 19

1) जिस समय अपोल्लोस कुरिन्थ में था, पौलुस भीतरी प्रदेशों का दौरा समाप्त कर एफेसुस पहुँचा। वहाँ उसे कुछ शिष्य मिले।
2) उसने उन से पूछा, ''क्या विश्वासी बनते समय आप लोगों को पवित्र आत्मा प्राप्त हुआ था?'' उन्होंने उत्तर दिया, ''हमने यह भी नहीं सुना है कि पवित्र आत्मा होता है''।
3) इस पर उसने पूछा, ''तो, आप को किसका बपतिस्मा मिला?'' उन्होंने उत्तर दिया, ''योहन का बपतिस्मा''।
4) पौलुस ने कहा, ''योहन पश्चात्ताप का बपतिस्मा देते थे। वह लोगों से कहते थे कि आप को मेरे बाद आने वाले में-अर्थात् ईसा में- विश्वास करना चाहिए।''
5) उन्होंने यह सुन कर प्रभु ईसा के नाम पर बपतिस्मा ग्रहण किया।
6) जब पौलुस ने उन पर हाथ रखा, तो पवित्र आत्मा उन पर उतरा और वे भाषाएँ बोलते और भविष्यवाणी करते रहे।
7) वे कुल मिला कर लगभग बारह पुरुष थे।
8) पौलुस तीन महीनों तक सभागृह जाता रहा। वह ईश्वर के राज्य के विषय में निस्संकोच बोलता और यहूदियों को समझाता था
9) किन्तु उन में कुछ लोग हठधर्मी थे और वे न केवल अविश्वासी बने रहे, बल्कि सब के सामने पन्थ की निन्दा करते रहे। इसलिए पौलुस ने उन से सम्बन्ध तोड़ लिया और अपने शिष्यों को वहाँ से हटाया। वह प्रतिदिन तुरन्नुस की पाठशाला में धर्मशिक्षा देता था।
10) यह क्रम दो वर्षों तक चलता रहा और इस तरह एशिया के निवासियों ने- चाहे वे यहूदी हों या यूनानी, सबों ने ईश्वर का वचन सुना।
11) ईश्वर पौलुस द्वारा असाधारण चमत्कार दिखता था।
12) जब लोग उसके शरीर पर के रूमाल और अंगोछे रोगियों के पाल ले जाते थे, तो उनकी बीमारियाँ दूर हो जाती थीं और दुष्ट आत्मा निकल जाते थे।
13) कुछ परिभ्रामी यहूदी अपदूत-निरासकों ने भी अपदूतग्रस्तों पर प्रभु ईसा के नाम-उच्चारण का प्रयास किया। वे यह कहते थे, ''पौलुस जिनका प्रचार करते हैं, तुम को उन्हीं ईसा की शपथ! ''
14) महायाजक स्केवा के सात पुत्र भी यही करते थे।
15) किसी अवसर पर अपदूत ने उन्हें उत्तर दिया, ''मैं ईसा को जानता हूँ। पौलुस कौन है, यह भी जानता हूँ; परन्तु तुम लोग कौन हो?''
16) जो मनुष्य अपदूत के वश में था, उसने झपट कर सब को पछाड़ा और उनकी ऐसी दुर्गति की कि वे नंगे और घायल हो कर उस घर से निकल भागे।
17) एफ़ेसुस के निवासियों को-चाहे वे यहूदी हों या यूनानी, सब को, यह बात मालूम हो गयी। सबों पर भय छा गया और प्रभु ईसा के नाम पर श्रद्धा बहुत अधिक बढ़ गयी।
18) विश्वासियों में भी बहुत-से लोगों ने आ कर सब के सामने स्वीकार किया कि उन्होंने मन्त्र-तन्त्र का प्रयोग किया है।
19) अनेक जादू-टोना करने वालों ने अपनी किताबों को समेट कर सबों को देखते जला दिया। जब लोगों ने हिसाब लगाया, तो पता चला कि उन किताबों का मूल्य पचास हजार रुपये था।
20) इस प्रकार प्रभु के सामर्थ्य से वचन फैलता गया और उसका प्रभाव बढ़ता रहा।
21) इन घटनाओं के बाद पौलुस ने मकेदूनिया तथा अख़ैया का दौरा करते हुए येरुसालेम जाने का निश्चय किया। उसने कहा, ''वहाँ पहुँचने के पश्चात् मुझे रोम भी देखना है''।
22) उसने अपने सहयोगियों में दो अर्थात् तिमथी और एरस्तुस को मकेदूनिया भेजा, किन्तु वह स्वयं कुछ और समय एशिया में रहा।
23) उस समय पन्थ को ले कर एक भारी दंगा हुआ।
24) देमेत्रियुस नामक सुनार आरतेमिस देवी के मन्दिर की रुपहली प्रतिमाएँ बनवा कर कारीगरों को बहुत काम दिलाता था।
25) उसने इन कारीगरों तथा इस व्यवसाय के अन्य मजदूरों को एकत्र कर कहा, ''भाइयों! आप लोग जानते हैं कि इस व्यवसाय पर हमारी अच्छी स्थिति निर्भर रहती है।
26) लेकिन आप देखते और सुनते हैं कि उस पौलुस ने न केवल एफ़ेसुस में, बल्कि प्रायः समस्त एशिया में बहुत-से लोगों को समझा-बुझा कर बहका दिया है। उसका कहना है कि हाथ के बनाये हुए देवता, देवता नहीं हैं।
27) इस से यह आशंका उत्पन्न हो गयी है कि न केवल हमारे व्यवसाय की प्रतिष्ठा समाप्त हो जायेगी, बल्कि महती देवी आरतेमिस के मन्दिर का महत्व भी कुछ नहीं रह जायेगा। जिस देवी की पूजा सारा एशिया तथा समस्त संसार करता है, उसका ऐश्वर्य शीघ्र ही नष्ट हो जायेगा।''
28) वे यह सुन कर क्रुद्ध हो उठे और चिल्लाते रहे-''एफ़ेसियों की आरतेमिस की जय!''
29) समस्त नगर में खलबली मच गयी। वे गायुस और आरिस्तार्खुस को, जो मकेदूनिया के निवासी और पौलुस के सहयात्री थे, घसीट कर ले गये और सब मिल कर नाट्यशाला की ओर दौड़ पड़े।
30) पौलुस उस सभा में जाना चाहता था, किन्तु शिष्यों ने उसे जाने कहीं दिया।
31) प्रान्त के कुछ अधिकारी पौलुस के मित्र थे। उन्होंने भी सन्देश भेज कर अनुरोध किया कि वह नाट्यशाला नहीं जाये।
32) सभा में कोलाहल मचा हुआ था। कोई कुछ कहता था, तो कोई कुछ; क्योंकि अधिकांश लोग यह भी नहीं जानते थे कि वे क्यों एकत्र हुए हैं।
33) भीड़ में कुछ यहूदियों ने सिकन्दर को समझा कर आगे ढकेल दिया। सिकन्दर ने हाथ से संकेत किया कि वह लोगों को स्पष्टीकरण देना चाहता है;
34) किन्तु जब उन्हें पता चला कि वह यहूदी है, तो वे सब-के-सब एक स्वर से दो घण्टों तक चिल्लाते रहे- ''एफ़ेसियों की आरतेमिस की जय!''
35) नगर के प्रशासक ने भीड़ को शान्त करने के बाद कहा, ''एफेसुस के सज्जनो! कौन मनुष्य यह नहीं जानता कि एफेसियों का नगर महती देवी आरतेमिस का और आकाश से गिरी हुई उनकी मूर्ति का संरक्षक है।
36) यह बात निर्विवाद है, इसलिए आप लोगों को शान्त हो जाना चाहिए और सोच-विचार किये बिना कुछ नहीं करना चाहिए।
37) आप लोग जिन व्यक्तियों को यहाँ ले आये हैं, उन्होंने न तो मन्दिर को अपवित्र किया और न आपकी देवी की निन्दा की।
38) यदि देमेत्रियुस और उनके कारीगरों को किसी से कोई शिकायत है, तो अदालत खुली है और प्रान्तपति भी विद्यमान हैं। दोनों पक्ष एक-दूसरे पर अभियोग लगायें
39) और यदि आप लोग और कुछ चाहें, तो वैध सभा में उस पर विचार किया जायेगा।
40) यों भी आज के दंगे के कारण हम पर अभियोग लगाया जा सकता है, क्योंकि हम इस हंगामें का कोई उचित कारण नहीं बता पायेंगे।'' उसने इतना कह कर सभा विसर्र्जित कर दी।

अध्याय 20

1) दंगा शान्त होने पर पौलुस ने शिष्यों को बुला भेजा और उन को ढारस बँधाया। तब वह उन से विदा ले कर मकेदूनिया चल दिया।
2) उस ने समस्त प्रान्त का दौरा किया और वह बहुत-से उपदेशों द्वारा विश्वासियों को ढारस बँधाते हुए यूनान देश पहुँचा।
3) वहाँ तीन महीने बिताने के बाद वह नाव से सीरिया जाना चाहता था, किन्तु उस समय कुछ यहूदी उसके विरुद्ध षड्यन्त्र रच रहे थे। इसलिए उसने मकेदूनिया हो कर लौटने का निश्चय किया।
4) पुर्रुस का पुत्र सोपत्रुस, जो बेरैया का निवासी था; थेसलनीके के आरिस्तार्खुस तथा सेकुन्दुस; देरबे का गायुस; तिमथी, और एशिया के तुखिकुस और त्रोफिमुस-ये पौलुस के साथ एशिया जाने वाले थे।
5) वे हमसे पहले चल कर त्रोआस में हमारी प्रतीक्षा में थे।
6) ज्यों ही बेख़मीर रोटियों का पर्व समाप्त हुआ, हम नाव द्वारा फिलिप्पी से चले गये और पाँच दिन बाद त्रोआस में। उनके पास पहुँचे, जहाँ हम सात दिन रहे।
7) हम सप्ताह के प्रथम दिन प्रभु-भोज के लिए एकत्र हुए। पौलुस, जो दूसरे दिन जाने वाला था, भाइयों का उपदेश दे रहा था। वह आधी रात तक बोलता रहा।
8) हम ऊपरी मंजिल के कमरे में एकत्र थे और वहाँ बहुत-से दीपक जल रहे थे।
9) युतुखुस नामक युवक खिड़की की चौखट पर बैठा हुआ था। तब पौलुस बहुत देर तक उपदेश देता रहा, तो उसे नींद आ गयी। वह नींद के झोंके में तीसरी मंजिल पर से नीचे गिर गया। वह उठाया गया, तो मरा हुआ था।
10) पौलुस उतरा, उस पर लेट गया और उसे गले लगा कर बोला, ''आप लोग घबरायें नहीं। यह अब भी जीवित है।''
11) फिर ऊपर जाकर उसने प्रभु-भोज की रोटी तोड़ी और भोजन किया। तब वह देर तक दिन निकलने तक-बातचीत करता रहा और इसके बाद चल दिया।
12) वे उस नवयुवक को जीवित ही ले आये। इस से लोगों को बड़ी सान्त्वना मिली।
13) हम लोग पहले ही नाव से अस्सोस के लिए चल दिये थे। वहाँ हमें पौलुस को भी चढ़ा लेना था। उसने इसलिए ऐसा प्रबन्ध किया था कि वह स्थल मार्ग से जाना चाहता था।
14) पौलुस अस्सोस में हम से मिला और हम उसे चढ़ा कर मितुलेने आये।
15) वहाँ से हम नाव से चले और दूसरे दिन खियुस के सामने पहुँचे। हम अगले दिन समुद्र पार कर सामोस उसके दूसरे दिन मिलेतुस आये;
16) क्योंकि पौलुस ने एफेसुस के सामने से हो कर आगे बढ़ने का निश्चय किया था, जिससे एशिया में समय बिताना न पड़े। वह इसलिए जल्दी में था कि यदि किसी प्रकार हो सके, तो वह पेंतेकोस्त पर्व से पहले येरुसालेम पहुँच जाये।
17) पौलुस ने मिलेतुस से एफ़ेसुस की कलीसिया के अध्यक्षों को बुला भेजा
18) और उनके पर उन से यह कहा, ''आप लोग जानते हैं कि जब मैं पहले एहल एशिया पहुँचा, तो उस दिन से मेरा आचरण आपके बीच कैसा था।
19) यहूदियों के षड्यन्त्रों के कारण मुझ पर अनेक संकट आये, किन्तु मैं आँसू बहा कर बड़ी विनम्रता से प्रभु की करता रहा।
20) जो बातें आप लोगों के लिए हितकर थीं, उन्हें बताने में मैंने कभी संकोच नहीं किया, बल्कि मैं सब के सामने और घर-घर जा कर उनके सम्बन्ध में शिक्षा देता रहा।
21) मैं यहूदियों तथा यूनानियों, दोनों से अनुरोध करता रहा है कि वे ईश्वर की ओर अभिमुख हो जायें और हमारे प्रभु ईसा में विश्वास करें।
22) अब में आत्मा की प्रेरणा से विवश हो कर येरुसालेम जा रहा हूँ। वहाँ मुझ पर क्या बीतेगी, मैं यह नहीं जानता;
23) किन्तु पवित्र आत्मा नगर-नगर में मुझे विश्वास दिलाता है कि वहाँ बेड़ियाँ और कष्ट मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
24) किन्तु मेरी दृष्टि में मेरे जीवन का कोई मूल्य नहीं। मैं तो केवल अपनी दौड़ समाप्त करना और ईश्वर की कृपा का सुसमाचार सुनाने का वह कार्य पूरा करना चाहता हूँ, जिसे प्रभु ईसा ने मुझे सौंपा।
25) ''मैं आप लोगों के बीच राज्य का सन्देश सुनाता रहा। अब, मैं जानता हूँ कि आप में कोई भी मुझे फिर कभी नहीं देख पायेगा।
26) इसलिए मैं आज आप लोगों को विश्वास दिलाता हूँ कि मैं किसी के दुर्भाग्य का उत्तरदायी नहीं हूँ;
27) क्योंकि मैंने आप लोगों के लिए ईश्वर का विधान पूर्ण रूप से स्पष्ट करने में कुछ भी उठा नहीं रखा।
28) आप लोग अपने लिए और अपने सारे झुण्ड के लिए सावधान रहें। पवित्र आत्मा ने आप को झुण्ड की रखवाली का भार सौंपा है। आप प्रभु की कलीसिया के सच्चे चरवाहे बने रहें, जिसे उन्होंने अपना रक्त दे कर प्राप्त किया।
29) मैं जानता हूँ कि मेरे चले जाने के बाद खूंखार भेड़िये आप लागों के बीच घुस आयेंगे, जो झुण्ड पर दया नहीं करेंगे।
30) आप लोगों में भी ऐसे लोग निकल आयेंगे, जो शिष्यों को भटका कर अपने अनुयायी बनाने के लिए भ्रान्तिपूर्ण बातों का प्रचार करेंगे।
31) इसलिए जागते रहें और याद रखें कि मैं आँसू बहा-बहा कर तीन वर्षों तक दिन-रात आप लागों में हर एक को सावधान करता रहा।
32) अब मैं आप लोगों को ईश्वर को सौंपता हूँ तथा उसकी अनुग्रहपूर्ण शिक्षा को, जो आपका निर्माण करने तथा सब सन्तों के साथ आप को विरासत दिलाने में समर्थ है।
33) मैंने कभी किसी की चाँदी, सोना अथवा वस्त्र नहीं चाहा।
34) आप लोग जानते हैं कि मैंने अपनी और अपने साथियों की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए अपने इन हाथों से काम किया।
35) मैंने आप को दिखाया कि इस प्रकार परिश्रम करते हुए, हमें दुर्बलों की सहायता करनी और प्रभु ईसा का कथन स्मरण रखना चाहिए कि लेने की उपेक्षा देना अधिक सुखद है।''
36) इतना कह कर पौलुस ने उन सबों के साथ घुटने टेक कर प्रार्थना की।
37) सब फूट-फूट कर रोते और पौलुस को गले लगा कर चुम्बन करते थे।
38) उसने उन से यह कहा था कि वे फिर कभी उसे नहीं देखेंगे। इस से उन्हें सब से अधिक दुःख हुआ। इसके बाद वे उसे नाव तक छोड़ने आये।

अध्याय 21

1) उन से विदा लेने के बाद हम लंगर उठा कर सीधे कोस पहुँचे। दूसरे दिन हम रोदस आये और वहाँ से पतारा चले गये।
2) पतारा में हमें एक जहाज मिला, जो फेनिसिया जाने वाला था; इसलिए हम उस पर सवार हो कर चल दिये।
3) हमें कुप्रुस दिखाई पड़ा, किन्तु उसे बायें हाथ छोड़ कर सीरिया की ओर बागे बढे और तीरस पहुँचे, जहाँ जहाज से माल उतारना था।
4) हम शिष्यों का पता लगा कर सात दिन वहाँ रहे। वे आत्मा से प्रेरित हो कर अनुरोध करते थे कि पौलुस येरुसालेम जाने का विचार छोड़ दे,
5) किन्तु समय पूरा हो जाने पर हम चले गये। वे सब अपनी पत्नियों तथा बच्चों-सहित शहर के बाहर तक हमारे साथ आये। हमने समुद्र तट पर घुटने टेक कर प्रार्थना की
6) और उन से विदा ले कर हम नाव पर सवार हो गये और वे अपने यहाँ लौटे।
7) जब हम तीरस से प्तोलेमाइस पहुँचे, तो हमारी यह समुद्र-यात्रा समाप्त हुई। वहाँ हम भाइयों का अभिवादन करने गये और एक दिन उनके यहाँ रहे।
8) वहाँ से चल कर हम दूसरे दिन कैसरिया पहुँचे। हम सुसमाचार-प्रचारक फ़िलिप के घर गये और उसके यहाँ ठहरे। वह सातों में एक था।
9) उसके चार कुँवारी लड़कियाँ थीं, जिन्हें भविष्यवाणी का वरदान प्राप्त था।
10) हमें वहाँ रहते कई दिन हो गये थे, तो अगाबुस नामक नबी यहूदिया से आ पहुँचा।
11) उसने हमारे पास आकर पौलुस का कमरबन्द ले लिया और उस से अपने हाथ-पैर बाँध कर कहा, ''पवित्र आत्मा यह कहता है- जिस व्यक्ति का यह कमरबन्द है, यहूदी लोग उसे येरुसालेम में इसी तरह बाँधेंगे और गैर-यहूदियों के हवाले कर देंगे''।
12) यह सुन कर हम वहाँ के लोगों के साथ पौलुस से अनुरोध करते रहे कि वह येरुसालेम नहीं जाये।
13) इस पर पौलुस ने कहा, ''आप लोग क्या कर रहे हूँ? आप रो-रो कर मेरा मन तोड़ने की चेष्टा क्यों कर रहे हैं? मैं प्रभु ईसा के नाम के कारण येरुसालेम में न केवल बँधने, बल्कि मरने को भी तैयार हूँ।''
14) वह हमारी बात मानने के लिए तैयार नहीं था, इसलिए हम यह कह कर चुप हो गये, ''प्रभु की इच्छा पूरी हो!''
15) जब हमारा वहाँ रहने का समय पूरा हो गया, तो हम अपना सामान बाँध कर येरुसालेम चल दिये।
16) कैसरिया के कुछ शिष्य हमारे साथ आये और हमें कुप्रुस के मनासोन के घर ले गये। मनासोन आरम्भ के दिनों का शिष्य था और हम उसके यहाँ ठहरने वाले थे।
17) जब हम येरुसालेम पहुँचे, तो भाइयों ने आनन्दित हो कर हमारा स्वागत किया।
18) दूसरे दिन पौलुस हमारे साथ याकूब के यहाँ गया। वहाँ सब अध्यक्ष एकत्र हो गये थे।
19) पौलुस ने उनका अभिवादन किया और इसके बाद उसने विस्तार के साथ यह बताया कि ईश्वर ने उसके सेवा-कार्य द्वारा गैर-यहूदियों के बीच क्या-क्या किया है।
20) उन्होंने यह सुन कर ईश्वर की स्तुति की और पौलुस से कहा, ''भाई! आप दखेत हैं कि हजारों यहूदी विश्वासी बन गये हैं और वे सब संहिता के कट्टर समर्थक भी हैं।
21) उन्होंने आपके विषय में सुना है कि आप ग़ैर-यहूदियों के बीच रहने वाले यहूदियों को यह शिक्षा देते हैं कि वे मूसा को त्याग दें; क्योंकि आप उन से कहते हैं कि वे न तो अपने बच्चों का खतना करें और न पुरानी प्रथाओं का पालन करें।
22) अब क्या किया जाये? वे अवश्य सुनेंगे कि आप आ गये हैं।
23) इसलिए आप हमारा कहना मानिए। यहाँ चार व्यक्ति हैं, जिन्होंने व्रत लिया है।
24) इनके साथ मन्दिर जा कर शुद्धीकरण की रीति पूरी कीजिए और इनके मुण्डन का शुल्क दीजिए। इस प्रकार सब यह जान जायेंगे कि उन्होंने आपके विषय में जो सुना है, वह मिथ्या है, और आप संहिता का पालन करते तथा उसके अनुसार चलते हैं।
25) जहाँ तक विश्वासी गैर-यहूदियों का प्रश्न है, हमने पत्र लिख कर अपना यह निर्णय दिया है कि वे देवमूर्तियों पर चढ़ाये हुए मांस से, रक्त, गला घोंटे हुए पशुओं के मांस और व्यभिचार से परहेज करें!''
26) दूसरे दिन पौलुस उन व्यक्तियों को ले गया। उनके साथ शुद्धीकरण की रीति पूरी करने के बाद उसने मन्दिर में प्रवेश किया तथा यह सूचित किया कि किस तिथि को शुद्धीकरण की अवधि पूरी होगी और उन में प्रत्येक के लिए भेंट चढ़ायी जायेगी।
27) सात दिन की अवधि पूरी होने पर थी कि एशिया के यहूदियों ने पौलुस को मन्दिर में देख कर उन लोगों को उकसाया। वे उसे पकड़ कर
28) चिल्लाते रहे, ‘‘इस्राएली भाइयो! दौड़िए-आइए! यह वही व्यक्ति है, जो सब जगह सब लोगों में ऐसी शिक्षा का प्रचार करता है, जो हमारे राष्ट्र, हमारी संहिता और इस मंदिर के विरुद्ध है। यही नहीं, इसने यूनानियों को मंदिर मेे ले आ कर इस पवित्र स्थान को भ्रष्ट कर दिया।''
29) वे एफ़ेसी त्रोफ़िमुस को पौलुस के साथ नगर में देख चुके थे और यह समझ रहे थे कि पौलुस उसे मंदिर ले आया था।
30) सारे शहर में खलबली मच गयी और लोग चारों ओर से दौड़ते हुए एकत्र हो गये। वे पौलुस को पकड़ कर मंदिर के बाहर खींच लाये और मंदिर के फाटक तुरन्त बन्द कर दिये गये।
31) वे पौलुस का वध करना चाहते ही थे कि पलटन के कप्तान को सूचना मिली की समस्त येरुसालेम में उपद्रव मचा हुआ है।
32) वह तुरन्त सैनिकों तथा शतपतियों को ले कर भीड़ में दौड़ पड़ा। जब लोगों ने कप्तान तथा सैनिकों को देखा, तो उन्होंने पौलुस को पीटना बन्द कर दिया।
33) कप्तान ने निकट आ कर पौलुस को गिरफ्तार कर लिया। और उसे दो बेड़ियों से बाँधने का आदेश दिया। तब उसने पूछा कि यह कौन है और इसने क्या किया है।
34) भीड़ में कोई कुछ चिल्ला रहा था, तो कोई कुछ। शोरगुल के मारे कप्तान निश्चित रूप से कुछ नहीं जान सका, इसलिए उसने पौलुस को छानवी ले जाने का आदेश दिया।
35) जब पौलुस सीढ़ियों तक आ गया था, तो भीड़ की रेल-पेल के कारण सैनिकों को उसे उठा कर ले जाना पड़ा।
36) भीड़-की-भीड़ ‘‘मारो! मारो! चिल्लाते हुए पीछे-पीछे आ रही थी।
37) जब सैनिक पौलुस को छावनी के अन्दर ले जा रहे थे, तो उसने कप्तान से कहा, ''क्या आप से कुछ कहने की आज्ञा है? उसने उत्तर दिया, ‘‘क्या तुम यूनानी भाषा जानते हो?''
38) तो, तुम वह मिस्री नहीं हो, जिसने कुछ समय पहले विद्रोह किया और जो चार हजार हत्यारों को मरुभूमि ले गया था?''
39) पौलुस ने कहा, ‘‘मैं यहूदी और तरसुस का नागरिक हूँ। तरसुस किलिकिया प्रान्त का प्रसिद्ध नगर है। मेरा निवेदन यह है कि आप मुझे भीड़ को सम्बोधित करने की अनुमति दें।''
40) अनुमति मिलने पर पौलुस ने सीढ़ियों पर खड़ा हो कर हाथ से लोगों को चुप रहने के लिए संकेत किया। जब सब चुप हो गये, तो पौलुस ने उन्हें इब्रानी भाषा में सम्बोधित किया।

अध्याय 22

1) ’‘भाइयों और गुरूजनों! अब सुनिए कि अपनी सफाई में मुझे क्या करना है''।
2) जब लोगों ने सुना कि वह उन्हें इब्रानी भाषा में सम्बोधित कर रहा है, तो वे और भी शान्त हो गये। पौलुस ने यह कहा,
3) ’‘मैं यहूदी हँू। मेरा जन्म तो किलिकिया के तरसुस नगर में हुआ था, किन्तु मेरा पालन-पोषण यहाँ इस शहर में हुआ। गमालिएल के चरणों में बैठ कर मुझे पूर्वजों की संहिता की कट्टर व्याख्या के अनुसार शिक्षा-दीक्षा मिली। मैं ईश्वर का वैसा ही उत्साही उपासक था, जैसे आज आप सब हैं।
4) मैंने इस पन्थ को समाप्त करने के लिए इस पर घोर अत्याचार किया और इसके स्त्री-पुरुषों को बाँध-बाँध कर बन्दीगृह में डाल दिया।
5) प्रधानयाजक तथा समस्त महासभा मेरी इस बात के साक्षी हैं। उन्हीं से पत्र ले कर मैं दमिश्क के भाइयों के पास जा रहा था, जिससे वहाँ के लोगों को भी बाँध कर येरुसालेम ले आऊँ और दण्ड दिलाऊँ।
6) जब मैं यात्रा करते-करते दमिश्क के पास पहँुचा, तो दोपहर के लगभग एकाएक आकाश से एक प्रचण्ड ज्योति मेरे चारों ओर चमक उठी।
7) मैं भूमि पर गिर पड़ा और मुझे एक वाणी यह कहते हुए सुनाई दी, ÷साऊल! साऊल! तुम मुझ पर क्यों अत्याचार करते हो?'
8) मैंने उत्तर दिया ÷प्रभु! आप कौन हैं!' उन्होंने मुझ से कहा, ÷मैं ईसा नाजरी हूँू, जिस पर तुम अत्याचार करते हो'।
9) मेरे साथियों ने ज्योति तो देखी, किन्तु मुझ से बात करने वाले की आवाज नहीं सुनी।
10) मैने कहा, ÷प्रभु! मुझे क्या करना चाहिए?' प्रभु ने उत्तर दिया, ÷उठो और दमिश्क जाओ। तुम्हें जो कुछ करना है, वह सब तुम्हें वहाँ बताया जायेगा।'
11) उस ज्योति के तेज के कारण मैं देखने में असमर्थ हो गया था, इसलिए मेरे साथी मुझे हाथ पकड़ कर ले चले और इस प्रकार मैं दमिश्क पहुँचा।
12) ’‘वहाँ अनानीयस नामक सज्जन मुझ से मिलने आये। वे संहिता पर चलने वाले भक्त और वहाँ रहने वाले यहूदियों में प्रतिष्ठित थे।
13) उन्होंने मेरे पास खड़ा हो कर कहा, ‘‘भाई साऊल! दृष्टि प्राप्त कीजिए'। उसी क्षण मेरी आँखों की ज्योति लौट आयी और मैंने उन्हें देखा।
14) तब उन्होंने कहा, ÷हमारे पूर्वजों के ईश्वर ने आप को इसलिए चुना कि आप उसकी इच्छा जान लें, धर्मात्मा के दर्शन करें और उनके मुख की वाणी सुनें;
15) क्योंकि आपको ईश्वर की ओर से सब मनुष्यों के सामने उन सब बातों का साक्ष्य देना है, जिन्हें आपने देखा और सुना है।
16) अब आप देर क्यों करें? उठ कर बपतिस्मा ग्रहण करें और उनके नाम की दुहाई दे कर अपने पापों से मुक्त हो जायें'।
17) ’‘येरुसालेम लौटने के बाद मैं किसी दिन मन्दिर में प्रार्थना कर रहा था कि आत्मा से आविष्ट हो गया।
18) मैंने प्रभु को देखा और वह मुझ से यह कह रहे थे, ÷जल्दी करो। तुम येरुसालेम से शीघ्र ही चले जाओं, क्योंकि वे मेरे विषय में तुम्हारा साक्ष्य स्वीकार नहीं करेंगे।
19) मैंने कहा ÷प्रभु! वे जानते हैं कि मैं आप में विश्वास करने वालों को गिरफ्तार करता था, हर सभागृह में उन्हें कोड़े लगवाता था
20) और जब आपके शहीद स्तेफ़नुस का रक्त बहाया जा रहा था, तो मैं उसका समर्थन करता हुआ वहाँ खड़ा था। जो लोग उनका वध कर रहे थे, मैं उनके वस्त्रों की रखवाली कर रहा था।'
21) इस पर प्रभु ने मुझ से कहा, ÷जाओ। मैं तुम्हें गैर-यहूदियों के पास दूर-दूर भेजूँगा'।''
22) लोग पौलुस के इस कथन तक सुनते रहे; किन्तु अब वे चिल्ला उठे, ‘‘पृथ्वी पर से इसे मिटा दो। यह जीवित रहने योग्य नहीं।''
23) जब वे चिल्लाते, अपने कपड़े उछालते और हवा में धूल उड़ाते रहे,
24) तो कप्तान ने उसे छावनी ले आने और कोड़े लगा कर उसकी जाँच करने का आदेश दिया, जिससे यह पता चले कि लोग पौलुस के विरुद्ध इस प्रकार क्यों चिल्ला रहे हैं।
25) जब वे कोड़े लगाने के लिये उसे बाँध रहे थे, तो पौलुस ने पास खड़े शतपति से पूछा, ''क्या आप कानून के अनुसार ऐसे व्यक्ति को कोड़े लगा सकते हैं, जो रोमन नागरिक है और दोषी भी प्रमाणित नहीं हुआ है?''
26) यह सुनकर शतपति कप्तान को इसकी सूचना देने गया और बोला; ‘‘आप यह क्या करना चाहते हैं? यह व्यक्ति रोमन नागरिक है।''
27) कप्तान ने पौलुस के पास आ कर पूछा, ‘‘मुझे यह बता दो- क्या तुम रोमन नागरिक हो?'' उसने कहा, ‘‘जी हाँ''।
28) इस पर कप्तान ने कहा, ''तुम को यह नागरिकता मोटी रकम देने पर प्राप्त हुई''। पौलुस ने उत्तर दिया, ''मैं तो जन्म से ही रोमन नागरिक हूँ।
29) इसलिए जो लोग पौलुस की जाँच करने वाले थे, वे तुरन्त हट गये और कप्तान भी यह जान कर डर गया कि मैंने एक रोमन नागरिक को बेड़ियों से बँधवाया है।
30) दूसरे दिन कप्तान ने पौलुस के बन्धन खोल दिये और महायाजकों तथा समस्त महासभा को एकत्र हो जाने का आदेश दिया; क्योंकि वह यह निश्चित रूप से जानना चाहता था कि यहूदी पौलुस पर कौन-सा अभियोग लगाते हैं। तब उसने पौलुस को ले जाकर महासभा के सामने खड़ा कर दिया।

अध्याय 23

1) पौलुस महासभा पर दृष्टि दौड़ा कर बोला, ''भाइयो! मैं इस दिन तक ईश्वर की दृष्टि में शुद्ध अन्तःकरण से जीवन व्यतीत करता रहा''।
2) किन्तु प्रधान-याजक अनानीयस ने पास खड़े लोगों को आदेश दिया कि वे पौलुस को थप्पड़ मारें।
3) पौलुस ने उस से कहा, ''ईश्वर तुम को मारेगा! तुम पुती हुई दीवार हो! तुम संहिता के अनुसार मेरा न्याय करने बैठे हो और तुम संहिता का उल्लंघन कर मुझे मारने का आदेश देते हो।''
4) पास खड़े लोग पौलुस से बोले, ''तुम ईश्वर के प्रधानयाजक के आपमान का साहस करते हो?''
5) पौलुस ने उत्तर दिया, ''भाइयो! मैं नहीं जानता था कि वह प्रधानयाजक हैं। धर्मग्रन्थ में लिखा है- अपने राष्ट्र के शासक की निन्दा मत करो।''
6) पौलुस यह जानता था कि महासभा में दो दल हैं-एक सदूकियों का और दूसरा फ़रीसियों का। इसलिए उसने पुकार कर कहा, ''भाइयो! मैं हूँ फ़रीसी और फ़रीसियों की सन्तान! मृतकों के पुनरुत्थान की आशा के कारण मुझ पर मुकदमा चल रहा है।''
7) पौलुस के इन शब्दों पर फ़रीसियों तथा सदूकियों में विवाद उत्पन्न हुआ और उन में फूट पड़ गयी;
8) क्योंकि सदूकियों की धारणा है कि न तो पुनरुत्थान है, न स्वर्गदूत और न आत्मा। परन्तु फ़रीसी इन पर विश्वास करते हैं।
9) इस प्रकार बड़ा कोलाहल मच गया। फ़रीसी दल के कुछ शास्त्री खड़े हो गये और पुकार कर कहते रहे, ''हम इस मनुष्य में कोई दोष नहीं पाते। यदि कोई आत्मा अथवा स्वर्गदूत उस से कुछ बोला हो, तो .....।''
10) विवाद बढ़ता जा रहा था और कप्तान डर रहा था कि कहीं वे पौलुस के टुकड़े-टुकड़े न कर दें; इसलिए उसने सैनिकों को आदेश दिया कि वे सभा में जा कर पौलुस को उनके बीच से निकाल लें और छावनी ले जायें।
11) उसी रात प्रभु पौलुस को दिखाई दिये और बोले, ''धीर बने रहो। तुमने येरुसालेम में जिस तरह मेरे विषय में साक्ष्य दिया है, तुम को उसी तरह रोम में भी साक्ष्य देना है।''
12) दिन हो जाने पर कुछ यहूदी एकत्र हो गये और उन्होंने यह शपथ ली कि वे तब तक न तो खायेंगे और न पियेंगे, तब तक वे पौलुस का वध न कर दें।
13) इस षड्यन्त्र में चालीस से अधिक व्यक्ति सम्मिलित थे।
14) वे महायाजकों तथा नेताओं के पास जा कर बोले, ''हमने शपथ ली है कि हम तब तक कुछ नहीं खायेंगे, जब तक हम पौलुस का वध न कर दें।
15) आप लोग महासभा की सहमति से कप्तान को सूचित करें कि वह पौलुस को इस बहाने आप लोगों के पास भेजें कि आप और अच्छी तरह उसके मामले की जाँच करना चाहते हैं। उसके वहाँ पहुँचने से पहले ही हम उसे मार देने के लिए तैयार हैं।''
16) पौलुस के भानजे को इस षड्यन्त्र का पता चला और उसने छावनी जा कर पौलुस को इसकी सूचना दी।
17) पौलुस ने एक शतपति को बुला भेजा और उस से कहा, ''इस लड़के को कप्तान के पास ले जाइए। इसे उन को एक सूचना देनी है।''
18) उसने लड़के को कप्तान के पास ले जा कर कहा, ''बन्दी पौलुस ने मुझे बुला भेजा और इस लड़के का आपके पास ले जाने का निवेदन किया। इस को आप से कुछ कहना है।''
19) कप्तान ने उसका हाथ पकड़ा और उसे एकान्त में ले जा कर पूछा, ''तुम्हें मुझ को कौन-सी सूचना देनी है?''
20) उसने कहा, ''यहूदियों ने षड्यन्त्र रचा है। वे आप से यह निवेदन करेंगे कि आप कल पौलुस को इस बहाने सभा में ले चलें कि वे और अच्छी तरह उसके मामले की जाँच करें।
21) आप उनकी बात नहीं मानिएगा। उन में चालीस से अधिक व्यक्ति पौलुस की घात में बैठे हुए हैं। उन्होंने शपथ ली है कि वे तब तक न तो खायेंगे और न पियेंगे, जब तक वे पौलुस का वध न कर दें। वे अभी तैयार हैं और आपकी अनुमति की प्रतीक्षा में हैं।''
22) कप्तान ने यह आदेश दे कर लड़के को जाने दिया कि तुम किसी को भी यह नहीं बताओगे कि तुमने मुझे यह सूचना दी है।
23) तब कप्तान ने दो शतपतियों कों बुलाया और कहा, ''रात के पहले पहर तक कैसरिया जाने के लिए दो सौ सैनिक, सत्तर घुड़वार और दो सौ भाला-बरदार तैयार रहें।
24) पौलुस के लिए भी घोड़ों का प्रबन्ध करो, जिससे वे उसे सकुशल राज्यपाल फेलिक्स के पास पहुँचा सकें।''
25) उसने यह पत्र भी लिख दिया,
26) महामहिम राज्यपाल फ़ेलिक्स को क्लौदियुस लुसियस का अभिवादन।
27) यहूदियों ने इस व्यक्ति को पकड़ लिया था और वे इसे मार डालना चाहते थे; परन्तु मैंने अपने सैनिकों के साथ वहाँ पहुँच कर इसे छुड़ा लिया, क्योंकि मुझे पता चला कि यह रोमन नागरिक है।
28) मैं यह जानना चाहता था कि वे इस पर कौन-सा अभियोग लगाते हैं। इसलिए मैं इसे उनकी महासभा ले गया।
29) मैं समझ गया कि अभियोग उनकी संहिता के विवादास्पद प्रश्नों से सम्बन्ध रखता है और इस पर ऐसा कोई आरोप नहीं लगाया जा रहा है, जो मृत्यु या कैद के योग्य हो।
30) मुझे यह सूचना मिल गयी है कि इसे मारने का षड्यन्त्र रचा जा रहा है, इसलिए मैं इसे तुरन्त आपके पास भेज रहा हूँ। मैंने इसके अभियोगियों को भी अनुदेश दिया है कि वे आपके सामने इसके विरुद्ध अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करें। अलविदा!''
31) आदेश के अनुसार सैनिक पौलुस को ले गये और उस को उसी रात अन्तिपत्रिस पहुँचा दिया।
32) दूसरे दिन उन्होंने घुड़सवारों को पौलुस के साथ जाने दिया और वे छावनी लौट आये।
33) घुड़सवारों ने कैसरिया पहुँच पर राज्यपाल को वह पत्र दिया और पौलुस को उसके हवाले किया।
34) राज्यपाल ने पत्र पढ़ कर पौलुस से पूछा कि वह किस प्रान्त का है। यह जान कर कि वह किलिकिया का है,
35) उसने कहा, ‘‘जब तुम्हारें अभियोगी भी पहुँचेंगे, तब तुम्हारी सुनवाई होगी''। और उसने पौलुस को हेरोद के किले में कैद करने का आदेश दिया।

अध्याय 24

1) पाँच दिन बाद प्रधानयाजक अनानीयस कुछ नेताओं और तेरतुल्लुस नामक वकील के साथ कैसरिया और पहुँचा। उन्होंने राज्यपाल के सामने पौलुस के विरुद्ध निवेदन पत्र प्रस्तुत किया।
2) पौलुस को बुलाया गया और तेरतुल्लुस यह कहते हुए उस पर अभियोग लगाने लगा,
3) ृ''महामहिम फेलिक्स महोदय! हम हार्दिक कृतज्ञता के साथ यह स्वीकार हैं कि हम आप के कारण अपार शान्ति में जीवन बिताते हैं और आपकी दूरदर्शिता से हमारे प्रान्त में हर तरह की और हर जगह उन्नति हो रही है।
4) मैं आपका अधिक समय नहीं लेना चाहता। मेरा नम्र निवेदन है कि आप हमारे दो शब्द सुनने की कृपा करें।
5) हमारा अनुभव है कि यह व्यक्ति उपद्रवी हैं। यह दुनिया भर के सब यहूदियों में फूट डालता और नाजरी सम्प्रदाय का एक नेता है।
6) यह मन्दिर अपवित्र करने की चेष्टा भी कर ही रहा था कि हमने इसे गिरफ्तार किया।
7) आप इस से पूछताछ कर उन सब बातों की सच्चाई का पता लगा सकते हैं, जिनके विषय में हम उस पर अभियोग लगाते हैं।''
8) यहूदियों ने यह कहते हुए तेरतुल्लुस के अभियोग का समर्थन किया कि ये बातें सही हैं।
9) राज्यपाल ने पौलुस को बोलने का संकेत किया और उसने यह उत्तर दियाः
10) मैं यह जान कर आत्मविश्वास के साथ अपनी सफाई दे रहा हूँ कि
11) आप बहुत वर्षों से इस राष्ट्र के न्यायाधीश हैं और परिस्थिति पूर्ण रूप से समझ सकते हैं। बारह दिन से अधिक नहीं हुए कि मैं आराधना करने येरुसालेम गया।
12) किसी ने न तो मन्दिर में, न सभागृह में और न कहीं शहर में मुझे किसी से विवाद करते या लोगों को उकसाते देखा है।
13) जिन बातों के विषय में ये अब मुझ पर अभियोग लगाते हैं, ये आप को उनका कोई प्रमाण नहीं दे सकते।
14) मैं आपके सामने इतना अवश्य स्वीकार करूँगा कि ये जिसे 'सम्प्रदाय' कहते हैं, मैं उसी नवीन पन्थ के अनुसार अपने पूर्वजों के ईश्वर की उपासना करता हूँ, क्योंकि जो कुछ संहिता तथा नबियों में लिखा है, मैं उस पर विश्वास करता हूँ
15) और ईश्वर पर भरोसा रखते हुए उनकी तरह आशा करता हूँ कि धर्मियों तथा अधर्मियों का पुनरुत्थान होगा।
16) इसलिए मैं ईश्वर तथा मनुष्यों की दृष्टि में अपना अन्तःकरण निर्दोष बनाये रखने का निरन्तर प्रयत्न करता रहता हूँ।
17) कई वषोर्ं तक विदेश में रहने के बाद मैं अपने लोगों को दान पहुँचाने और मन्दिर में भेंट चढ़ाने आया।
18) एशिया के कुछ यहूदियों ने मुझे मेरे शुद्धीकरण के बाद मन्दिर में ऐसा करते पाया। मेरे साथ न तो कोई भीड़ थी और न वहाँ कोई उपद्रव ही।
19) यदि उन्हें मेरे विरुद्ध कुछ कहना था, तो उन को यहाँ उपस्थित हो कर मुझ पर अभियोग लगाना चाहिए था।
20) नहीं तो ये ही बतायें कि जब मैं महासभा के सामने खड़ा था, तो उन्होंने मुझ में कौन-सा दोष पाया था।
21) हाँ, मैंने उनके बीच खड़ा हो कर उँचे स्वर से यह कहा था- मृतकों के पुनरुत्थान के कारण आज आप लोगों के सामने मुझ पर मुक़दमा चल रहा है।''
22) फेलिक्स नवीन पन्थ के विषय में पूरी जानकारी रखता था। उसने सुनवाई स्थगित कर दी और यहूदियों से कहा, ''कप्तान लुसियस के आने पर मैं आप लोगों के मुक़दमें का फैसला करूँगा''।
23) उसने शतपति को आदेश दिया कि वह पौलुस को बन्दीगृह में रख ले, उसे कुछ सीमा तक स्वतन्त्रता दे और उसके अपने लोगों में किसी को भी उसकी सेवा-परिचर्या करने से नहीं रोके।
24) कुछ दिनों के बाद फेलिक्स अपनी यहूदी पत्नी द्रुसिल्ला के साथ आया। उसने पौलुस को बुला भेजा और ईसा मसीह में विश्वास का विवरण सुना।
25) जब पौलुस न्याय, आत्मसंयम तथा भावी विचार के विषय में बोलने लगा, तो फेलिक्स पर भय छा गया और उसने कहा, ''तुम इस समय जा सकते हो। अवकाश मिलने पर मैं तुम को फिर बुलाऊँगा।''
26) उसे पौलुस की ओर से रुपया मिलने की आशा भी थी; इसलिए वह उसे बारम्बार बुला भेजता और उसके साथ बातचीत करता था।
27) दो वषोर्ं के बाद पोर्सियुस फ़ेस्तुस फेलिक्स का उत्तराधिकारी नियुक्त हुआ। फ़ेलिक्स ने यहूदियों को प्रसन्न करने के लिए पौलुस को बन्दीगृह में ही छोड़ दिया।

अध्याय 25

1) प्रान्त में पहुँचने के तीन दिन बाद फ़ेस्तुुस कैसरिया से येरुसालेम पहुँचा।
2) महायाजक तथा यहूदी नेता पौलुस पर अभियोग लगाने उसके पास आये।
3) उन्होंने फ़ेस्तुस से यह अनुरोध किया कि वह पौलुस को येरुसालेम बुलाने की कृपा करे, क्योंकि वे रास्ते में पौलुस को मारने का षड्यन्त्र कर रहे थे।
4) किन्तु फ़ेस्तुस ने यह उत्तर दिया, ''पौलुस कैसरिया के बन्दीगृह में रहेगा। मैं स्वयं शीघ्र ही येरुसालेम से चला जाना चाहता हूँ,
5) इसलिए आप लोगों के मुख्य अधिकारी मेरे साथ चलें। यदि उस व्यक्ति ने कोई अपराध किया है, तो वे उस पर अभियोग लगायें।''
6) फ़ेस्तुस अधिक-से-अधिक आठ-दस दिन उनके बीच रह कर कैसरिया गया और दूसरे दिन अदालत में बैठ कर उसने पौलुस को बुला भेजा।
7) जब पौलुस आया, तो येरुसालेम से आये हुए यहूदी अनेक गम्भीर अभियोग लगाते हुए उसके चारों ओर खड़े हो गये, किन्तु उन्हें प्रमाणित करने में असमर्थ रहे।
8) पौलुस ने उत्तर दिया, ''मैंने न तो यहूदियों की संहिता के विरुद्ध कोई अपराध किया है, न मन्दिर और कैसर के विरुद्ध''।
9) किन्तु फ़ेस्तुस ने यहूदियों को प्रसन्न करने के लिए पौलुस से पूछा, ''क्या तुम येरुसालेम जाने को तैयार हो, जिससे वहाँ मेरे सामने इन बातों के विषय में तुम्हारा न्याय किया जाये?''
10) पौलुस ने उत्तर दिया, ''मैं कैसर की अदालत में खड़ा हूँ। मेरा न्याय यही होना चाहिए। आप अच्छी तरह जानते हैं कि मैंने यहूदियों के विरुद्ध कोई अपराध नहीं किया है।
11) यदि मैंने प्राणदण्ड के योग्य कोई अपराध किया, तो मुझे मरण अस्वीकार नहीं है। किन्तु यदि इनके अभियोगों में कोई सच्चाई नहीं है, तो कोई मुझे इनके हवाले नहीं कर सकता। मैं कैसर से अपील करता हूँ।''
12) फ़ेस्तुस ने परिषद् से परामर्श करने के बाद यह उत्तर दिया, ''तुमने कैसर से अपील की, तो कैसर के पास जाओगे''।
13) कुछ दिनों बाद राजा अग्रिप्पा और बेरनिस कैसरिया पहुँचे और फेस्तुस का अभिवादन करने आये।
14) वे वहाँ कई दिन रहे और इस बीच फ़ेस्तुस ने पौलुस का मामला राजा के सामने प्रस्तुत करते हुए कहा, ''फेलिक्स यहाँ एक व्यक्ति को बन्दीगृह में छोड़ गया है।
15) जब मैं येरुसालेम में था, तो महायाजकों तथा नेताओं ने उस पर अभियोग लगाया और अनुरोध किया कि उसे दण्डाज्ञा दी जाये।
16) मैंने उत्तर दिया, जब तक अभियुक्त को अभियोगियों के आमने-सामने न खड़ा किया जाये और उसे अभियोग के विषय में सफाई देने का अवसर न मिले, तब तक किसी को प्रसन्न करने के लिए अभियुक्त को उसके हवाले करना रोमियों की प्रथा नहीं है'।
17) इसलिए वे यहाँ आये और मैंने दूसरे ही दिन अदालत में बैठ कर उस व्यक्ति को बुला भेजा।
18) किंतु जिन अपराधों का मुझे अनुमान था, उनके विषय में उन्होंने उस पर कोई अभियोग नहीं लगाया।
19) उन्हें केवल अपने धर्म से सम्बन्धित कुछ बातों में उस से मतभेद था और ईसा नामक व्यक्ति के विषय में, जो मर चुका है, किन्तु पौलुस जिसके जीवित होने का दावा करता है।
20) मैं यह वाद-विवाद सुन कर असमंजस में पड़ गया। इसलिए मैंने पौलुस से पूछा कि क्या तुम येरुसालेम जाने को तैयार हो, जिससे वहाँ इन बातों के विषय में तुम्हारा न्याय किया जाये।
21) किन्तु पौलुस ने आवेदन किया कि सम्राट् का फैसला हो जाने तक उसे बन्दीगृह में रहने दिया जाये। इसलिए मैंने आदेश दिया कि जब तक मैं उसे कैसर के पास न भेजूँ, तब तक वह बन्दीगृह में रहे।''
22) अग्रिप्पा ने फेस्तुस से कहा, ''मैं भी उस व्यक्ति की बातें सुनना चाहता हूँ''। फ़ेस्तुस ने कहा, ''आप कल सुन लीजिए''।
23) दूसरे दिन अग्रिप्पा और बेरनिस ने, बड़ी धूमधाम के साथ आ कर, सेनानायकों तथा प्रतिष्ठित नागरिकों के साथ सभाभवन में प्रवेश किया। फ़ेस्तुस के आदेशानुसार पौलुस को प्रस्तुत किया गया।
24) फेस्तुस ने कहा, ''महाराजा अग्रिप्पा और यहाँ उपस्थित सज्जनों! आप लोग इस व्यक्ति को देखिए, जिसके सम्बन्ध में येरुसालेम में भी और यहाँ भी समस्त यहूदी समुदाय मुझ से मिलने आया और ऊँचे स्वर से चिल्लाता रहा कि यह व्यक्ति अब जीवित रहने योग्य नहीं है।
25) किन्तु मैंने इस में प्राणदण्ड के योग्य कोई अपराध नहीं पाया और जब इसने सम्राट् से अपील की, तो मैंने इसे भेजने का निश्चय किया।
26) सम्राट् को इसके विषय में कुछ लिखने की कोई निश्चित सामग्री मेरे पास नहीं है, इसलिए मैंने इस आशा से आप लोगों के सामने, और महाराज अग्रिप्पा! विशेष रूप से आपके सामने इसे उपस्थित किया है, जिससे जाँच के बाद मुझे कुछ लिखने का आधार मिल जाये।
27) किसी बन्दी को भेजना और उस पर लगाये अभियोगों का उल्लेख नहीं करना मुझे असंगत लगता है।''

अध्याय 26

1) अग्रिप्पा ने पौलुस से कहा, ''तुम्हें अपनी सफाई देने की अनुमति है''। इसपर पौलुस हाथ फैला कर अपनी सफ़ाई देने लगाः
2) ''महाराज अग्रिप्पा! यहूदियों ने मुझ पर बहुत-से अभियोग लगाये हैं। इस सम्बन्ध में मैं आज आपके सामने अपनी सफ़ाई दे सकता हूँ- यह मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ,
3) विशेष रूप से इसलिए कि आप यहूदियों की प्रथाओं तथा विवादों से पूरी तरह परिचित हैं। मेरी प्रार्थना है कि आप धैर्य से मेरी बात सुनें।
4) मेरा जीवन युवावस्था से अपने राष्ट्र के लोगों के बीच, और येरुसालेम में ही बीता, इसलिए सब यहूदी मानते हैं कि प्रारम्भ से ही मेरा आचरण कैसा था।
5) वे मुझे बहुत समय से जानते हैं और यदि चाहें, तो साक्ष्य दे सकते हैं कि मैंने फ़रीसी के रूप में अपने धर्म के सब से कट्टर सम्प्रदाय के अनुरूप जीवन बिताया है।
6) ईश्वर ने हमारे पूर्वजों से जो प्रतिज्ञा की है, उसी की आशा के कारण मुझ पर मुक़दमा चल रहा है।
7) हमारे बारह वंश दिन-रात ईश्वर की उपासना में दृढ़ बने रहते हुए उस प्रतिज्ञा की पूर्ति देखने की आशा करते हैं। महाराज! उस आशा के सम्बन्ध में यहूदी मुझ पर अभियोग लगाते हैं।
8) मैं यहूदियों से यह पूछना चाहता हूँ कि आप को यह बात क्यों अविश्वसनीय लगती है कि ईश्वर मृतकों को पुनर्जीवित करता है?
9) ''मैं भी हर तरह ईसा नाजरी के नाम का विरोध करना अपना कर्तव्य समझता था।
10) मैंने येरुसालेम में वहीं किया। मैंने महायाजकों से अधिकार प्राप्त कर बहुत-से सन्तों को बन्दीगृह में डाल दिया और जब उन्हें प्राणदण्ड दिया जा रहा था, तो मैंने इसके लिए अपनी सहमति दी थी।
11) मैं उन्हें सभी सभागृहों में बारम्बार दण्ड दिला कर ईश-निन्दा के लिए बाध्य करने का प्रयत्न करता था। मेरा प्रकोप इतना बढ़ गया था कि मैं विदेशी नगरों में भी जा कर उन को सताता था।
12) इस अभिप्राय से मैं किसी समय महायाजकों के अधिकार और अनुमति से दमिश्क की यात्रा कर रहा था।
13) महाराज! मैंने दिन की दोपहर को रास्ते में देखा कि सूर्य से भी अधिक देदीप्यमान आकाश की एक ज्योति मेरे और मेरे साथियों के चारों ओर चमक उठी।
14) हम सब भूमि पर गिर पड़े और मुझे इब्रानी भाषा में एक वाणी यह कहती हुई सुनाई दी, 'साऊल! साऊल! तुम मुझ पर क्यों अत्याचार करते हो? अंकुश पर लात चलाना तुम्हारे कठिन है?'
15) मैने कहा, 'प्रभु! आप कौन हैं?' प्रभु ने उत्तर दिया, 'मैं ईसा हूँ, जिस पर तुम अत्याचार करते हो।
16) उठो और अपने पैरों पर खड़े हो जाओ। मैं तुुम्हें इसलिए दिखाई पड़ा कि तुम्हें अपना सेवक और साक्षी नियुक्त करूँ। तुम मेरे विषय में जो देख चुके हो और बाद में जो देखोगे, उसके सम्बन्ध में साक्ष्य दोगे।
17) मैं इस राष्ट्र से और ग़ैर-यहूदियों से तुम्हारी रक्षा करूँगा।
18) मैं उनकी आँखे खोलने के लिए, उन्हें अन्धकार से ज्योति की आरे और शैतान की अधीनता से ईश्वर की ओर अभिमुख करने के लिए तुम्हें उनके पास भेजूँगा, जिससे वे मुझ में विश्वास करने के कारण अपने पापों की क्षमा और संतों के बीच स्थान प्राप्त कर सकें।'
19) ''महाराज अग्रिप्पा! मैंने उस दिव्य दर्शन की आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया।
20) मैंने पहले दमिश्क तथा येरुसालेम के लोगों में, और उसके बाद सारी यहूदिया तथा गैर-यहूदियों में भी प्रचार किया और लोगों से अनुरोध किया कि वे पश्चाताप करें, ईश्वर की ओर अभिमुख हो जायें और पश्चाताप के अनुरूप आचरण करें।
21) यही कारण है कि यहूदी मुझे मन्दिर में गिरफ्तार कर मार डालना चाहते थे
22) मैं ईश्वर की सहायता से आज तक दृढ़ रहा और छोटे-बड़े, सब के सामने साक्ष्य देता रहा।
23) जिन बातों के विषय में नबियों ने और मूसा ने भविष्यवाणी की है, उन से अधिक मैं कुछ नहीं कहता, अर्थात्, यह कि मसीह दुःख भोगेंगे और मृतकों में सब से पहले पुनर्जीवित हो कर हमारी जानता को तथा ग़ैर-यहूदियों को ज्योति का सन्देश देंगे।''
24) पौलुस इस प्रकार अपनी सफाई दे ही रहा था कि फेस्तुस ऊँचे स्वर से बोल उठा, ''पौलुस! तुम प्रलाप कर रहे है। तुम्हारा प्रकाण्ड पाण्डित्य तुम को बावला बना रहा है।''
25) पौलुस ने उत्तर दिया, माननीय फ़ेस्तुत! मैं प्रलाप नहीं, बल्कि सच्ची तथा विवेकपर्ण बातें कर रहा हूँ।
26) राजा को इन बातों की पूरी जानकारी है, इसलिए मैं उनके सामने निस्संकोच बोल रहा हूँ। मुझे विश्वास है कि इन बातों में एक भी इन से छिपी हुई नहीं है; क्योंकि यह सब किसी अंधेरी कोठरी में घटित नहीं हुआ है।
27) महाराज अग्रिप्पा! क्या आप नबियों पर विश्वास करते हैं? मैं जानता हूँ कि आप विश्वास करते हैं।''
28) अग्रिप्पा ने पौलुस से कहा, ‘‘तुम तो अपने तर्कों द्वारा मुझे सरलता से मसीही बनाना चाहते हो!''
29) पौलुस ने उत्तर दिया, ‘‘सरलता से हो या कठिनाई से, ईश्वर से मेरी यह प्रार्थना है कि न केवल आप, बल्कि जो लोग आज मेरी बातें सुन रहे हैं, वे सब-के-सब इन बेड़ियों को छोड़ कर मेरे सदृश बन जायें''।
30) तब राजा, राज्यपाल, बेरनिस और उनके साथ बैठे हुए लोग उठ खड़े हो गये।
31) वे जाते समय आपस में यह कहते थे, ‘‘यह व्यक्ति प्राणदण्ड या कैद के योग्य कोई अपराध नहीं करता''।
32) अग्रिप्पा ने फेस्तुस से कहा, ‘‘यदि इस व्यक्ति ने कैसर से अपील न की होती, तो यह रिहा कर दिया जा सकता था''।

अध्याय 27

1) जब यह निश्चित हुुआ कि हम लोग जलमार्ग से इटली जायेंगे, तो पौलुस और कुछ अन्य बन्दियों को ओगुस्ता पलटन के यूलियुस नाम के शतपति के हवाले कर दिया गया।
2) हम एशिया के बन्दरगाहों को जाने वाले अद्रामुत्तियुम के एक जहाज पर सवार हो कर रवाना हो गये। थेसलनीके का आरिस्तार्खुस नामक मकेदूनी हमारे साथ था।
3) दूसरे दिन हम सिदोन पहुँचे। यूलियुस पौलुस के साथ अच्छा व्यवहार करता था, इसलिए उसने पौलस को मित्रों से मिलने तथा उनका सेवा-सत्कार ग्रहण करने की अनुमति दी।
4) हम वहाँ से कुप्रुस के किनारे-किनारे हो कर चले, क्योंकि हवा प्रतिकूल थी।
5) इसके बाद हम किलिकिया तथा पम्फुलिया के तटवर्ती सागर से हो कर लुकिया के मुरा नामक नगर पहुँचे।
6) वहाँ शतपति को सिकन्दरिया का एक जहाज मिला, जो इटली जाने वाला था और उसने हम को उस पर चढ़ा दिया।
7) हम कई दिनों तक धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए कठिनाई से क्नीदुस पहुँचे। हवा प्रतिकूल थी, इसलिए हम सलमोने के सामने से गुजर कर क्रेत के दक्षिण में किनारे-किनारे चलते हुए
8) कठिनाई से लसैया नगर के निकट ÷सुन्दर बन्दरगाह' नामक जगह पहुँचे।
9) बहुत समय निकल चुका था और समुद्री यात्रा अब खतरनाक हो गयी थी। उपवास का दिन भी बीत चुका था, इसलिए पौलुस ने उन लोगों को यह कहते हुए सावधान किया,
10) ’‘सज्जनो! मुझे लग रहा है कि यह यात्रा संकटमय होगी। हमें न केवल माल और जहाज की हानि उठानी पड़ेगी, बल्कि अपने प्राणों की भी।''
11) किन्तु शतपति को पौलुस की बातों की अपेक्षा कप्तान और जहाज के मालिक पर अधिक विश्वास था।
12) वह बन्दरगाह जाड़ा बिताने के लिए बहुत उपयुक्त भी नहीं था, इसलिए अधिकांश लोग वहाँ से चल देने के पक्ष में थे। उन्हें किसी-न-किसी तरह फेनिक्स तक पहुँचने और वहाँ जाड़ा बिताने की आशा थी। फेनिक्स क्रेत का बन्दरगाह है, जो दक्षिण-पश्चिम और उत्तर-पश्चिम की ओर खुला हुआ है।
13) जब एक मन्द दक्षिणी हवा बहने लगी, तो वे समझे कि हमारा काम बन गया हे और लंगर उठा कर क्रेत के किनारे-किनारे आगे बढ़े।
14) परन्तु शीघ्र ही स्थल की ओर से ÷उत्तरपूर्वी' नामक तूफानी हवा बहने लगी।
15) जहाज तूफान की चपेट में आ कर हवा का सामना करने में असमर्थ हो गया, इसलिए हम विवश हो कर बहते चले जा रहे थे।
16) कौदा नामक छोटे टापू की आड़ में पहुँच कर हम किसी तरह जहाज की डोंगी पर नियन्त्रण कर पाये।
17) उन्होंने उसे ऊपर खींचा और जहाज को नीचे से ले कर ऊपर तक रस्सों से कस कर बाँध दिया। सुरतीस के उथले जल में फँस जाने के भय से उन्होंने पाल उतार कर जहाज को धारा के साथ बहने दिया।
18) दूसरे दिन तूफान हमें जोरों से झकझोरता रहा, इसलिए वे जहाज का माल समुद्र में फेंकने लगे
19) और तीसरे दिन उन्होंने अपने हाथों से जहाज का साज-सामान भी फेंक दिया।
20) जब कई दिन तक न तो सूरज दिखाई पड़ा और न ही तारे ही, और तूफानी हवा बढ़ती रही, तो हमारे बच जाने की आशा भी समाप्त हो गयी।
21) वे बहुत समय से कुछ भी नहीं खा रहे थे, इसलिए पौलुस ने उनके बीच खड़ा हो कर कहा, ‘‘सज्जनों! आप लोगों को मेरी बात मान कर क्रेत से प्रस्थान नहीं करना चाहिए था। तब आप को यह संकट और यह हानि नहीं सहनी पड़ती।
22) अब भी मैं आप लोगों से ढारस बनाये रखने का अनुरोध करता हूँ। आप में से किसी का जीवन नहीं, बल्कि जहाज नष्ट होगा;
23) क्योंकि मैं जिस ईश्वर का सेवक तथा उपासक हूँ, उसका दूत आज रात मुझे दिखाई पड़ा
24) और उसने मुझ से कहा, पौलुस! डरिए नहीं। आप को कैसर के सामने उपस्थित होना है, इसलिए ईश्वर ने आप को यह वरदन दिया है कि आपके साथ यात्रा करने वाले सब-के-सब बच जायेंगे।'
25) इसलिए सज्जनों! ढारस बनाये रखिए। मुझे ईश्वर पर विश्वास है कि जैसा मुझ से कहा गया है, वैसा ही होगा,
26) यद्यपि हमारा जहाज अवश्य ही किसी टापू से टकरा कर टूट जायेगा।''
27) तूफान की चौदहवीं रात आयी और हम अब तक अद्रिया समुद्र पर इधर-उधर बह रहे थे। लगभग आधी रात को मल्लाहों को अनुभव होने लगा कि हम स्थल के निकट पहुँच रहे हैं।
28) उन्होंने थाह ले कर बीस पुरसा जल पाया और थोड़ा आगे बढ़ने पर फिर थाह ले कर पन्द्रह पुरसा पाया।
29) उन्हें भय था कि कहीं हम चट्टानों से न टकरा जायें; इसलिए वे दुम्बाल से चार लंगर लटका कर उत्सुकता से भोर की प्रतीक्षा करने लगे।
30) मल्लाह जहाज से भागना चाह रहे थे, इसलिए उन्होंने गलही से लंगर डालने के बहाने डोंगी पानी में उतार दी।
31) इस पर पौलुस ने शतपति और सैनिकों से कहा, ''यदि ये जहाज पर नहीं रहेंगे, तो आप लोग बच नहीं सकते''।
32) इस पर सैनिकों ने डोंगी के रस्से काट कर उसे समुद्र में छोड़ दिया।
33) जब पौ फटने लगी, तो पौलुस ने सब से अनुरोध किया कि वे भोजन करें। उसने कहा, ''आप लोगों को चिन्ता करते-करते और निराहार रहते चौदह दिन हो गये हैं। आप लोगों ने कुछ भी नहीं खाया।
34) इसलिए मैं आप लोगों से भोजन करने का अनुरोध करता हूँ। इसी में आपका कल्याण है। आप लोगों में किसी का बाल भी बाँका नहीं होगा।''
35) पौलुस ने यह कह कर रोटी ली, सबों के सामने ईश्वर को धन्यवाद दिया और वह उसे तोड़ कर खाने लगा।
36) तब सब की जान में जान आयी और उन्होंने भी खाना खाया।
37) जहाज में हम कुल मिला कर दो सौ छिहत्तर प्राणी थे।
38) जब सब खा कर तृप्त हो गये, तो वे अनाज समुद्र में फेंक-फेंक जहाज हल्का करने लगे।
39) दिन निकलने पर वे उस देश को नहीं पहचान सके, किन्तु एक समतल बालू-तट वाली खाड़ी को देख कर वे परामर्श करने लगे कि यदि हो सके, तो जहाज को उसी तट पर लगा दिया जाये।
40) इसलिए उन्होंने लंगर काट कर समुद्र में छोड़ दिये साथ ही पतवारों की रस्सियाँ खोल दीं और अगला पाल हवा में तान कर तट की ओर चले।
41) वे रेती से जा लगे और जहाज उसे में अटक गया। गलही भूमि से टकरा कर उस में गड़ गयी और दुम्बाल लहरों के थपेड़ों से टूट गया।
42) कहीं ऐसा न हो कि बन्दी तैरते हुए भाग जायें, इसलिए सैनिक उन्हें मार डालना चाहत थे;
43) किन्तु शतपति ने पौलुस को बचाने के विचार से उन्हें रोका और आदेश दिया कि जो तैर सकते हैं वे पहले समुद्र में कूद कर तट पर चलें
44) और शेष लोग तख्तों या जहाज की दूसरी चीजों के सहारे पीछे आ जायें। इस प्रकार सब-के-सब सकुशल तट पर पहुँच गये।

अध्याय 28

1) बच जाने के बाद ही हमें पता चला कि टापू का नाम मेलीता है।
2) वहाँ के निवासियों ने हमारे साथ बड़ा अच्छा व्यवहार किया। पानी बरसने लगा था और ठण्ड पड़ रही थी, इसलिए उन्होंने आग जला कर हम सबों का स्वागत किया।
3) पौलुस लकड़ियों का गट्ठा बटोर कर आग पर रख ही रहा था कि एक साँप ताप के कारण उस में से निकल कर उसके हाथ से लिपट गया।
4) टापू के निवासी उसके हाथ में साँप लिपटा देख कर आपस में कहते थे, ''निश्चय ही वह व्यक्ति हत्यारा है। यह समुद्र से तो बच गया है, किन्तु न्याय देवता ने उसे जीवित नहीं रहने दिया।''
5) पौलुस ने साँप को आग में झटका दिया और उसे कोई हानि नहीं हुई।
6) वे समझ रहे थे कि वह सूज जायेगा या अचानक ढेर हो जायेगा। जब देर तक प्रतीक्षा करने के बाद वे यह देख रहे थे कि इसे कोई हानि नहीं हो रही है, तो वे अपना मन बदल कर कहने लगे कि यह देवता है।
7) उस स्थान के पास टापू के मुखिया पुब्लियुस की भूमि थी। उसने हमारा स्वागत किया और तीन दिन तक अपने यहाँ हमारा आतिथ्य-सत्कार किया।
8) उसी समय पुब्लियुस का पिता बुख़ार और पेचिश से पीड़ित हो कर पलंग पर पड़ा हुआ था। पौलुस ने उसके पास जा कर प्रार्थना की और उस पर हाथ रख कर उस को अच्छा कर दिया।
9) इसके बाद टापू के अन्य रोगी भी आये और अच्छे हो गये।
10) इसलिए लोगों ने हमारा बहुत सम्मान किया और जब हम वहाँ से चलने लगे, तो जो कुछ हमें जरूरी था, उन्होंने वह सब जहाज पर रख दिया।
11) हम तीन महीने बाद सिकन्दरिया के मिथुन नामक जहाज पर सवार हो कर चल पड़े। वह जहाज जाड़े भर टापू में रूका रहा।
12) हम सुरकूसा में लंगर डाल कर तीन दिन वहाँ रहे।
13) हम वहाँ से किनारे-किनारे चल कर रेजियम आये। दूसरे दिन दक्षिणी हवा चलने लगी, इसलिए हम एक दिन बाद पुतिओली पहुँचे।
14) वहाँ भाइयों से भेंट हुई और हम उनके अनुरोध पर सात दिन उसके साथ रहे। इसके बाद हम रोम की ओर चल पड़े।
15) वहाँ के भाई, हमारे आगमन का समाचार सुन कर, अप्पियुस के चौक और 'तीन सराय' नामक स्थान तक हमारा स्वागत करने आये। उन्हें देख कर पौलुस ने ईश्वर को धन्यवाद दिया और उसकी हिम्मत बँध गयी।
16) जब हम रोम पहुँचे, तो पौलुस को यह अनुमति मिली की वह पहरा देने वाले सैनिक के साथ जहाँ चाहे, रह सकता है।
17) तीन दिन बाद पौलुस ने प्रमुख यहूदियों को अपने पास बुलाया और उनके एकत्र हो जाने पर उन से कहा, भाइयो! मैंने न तो राष्ट्र के विरुद्ध कोई अपराध किया और न पूर्वजों की प्रथाओं के विरुद्ध, फिर भी मुझे बन्दी बनाया और येरुसालेम में रोमियों के हवाले कर दिया गया है।
18) वे सुनवाई के बाद मुझे रिहा करना चाहते थे, क्योंकि मैंने प्राणदण्ड के योग्य कोई अपराध नहीं किया था।
19) किंतु जब यहूदी इसका विरोध करने लगे, तो मुझे कैसर से अपील करनी पड़ी, यद्यपि मुझे अपने राष्ट्र पर कोई अभियोग नहीं लगाना था।
20) इसलिए मैंने आप लोगों से मिलने और बातें करने का निवेदन किया, क्योंकि इस्राएल की आशा के कारण मैं जंजीर पहने हूँ।''
21) उन्होंने पौलुस से कहा, ''हम लोगों को यहूदियों से आपके विषय में कोई पत्र नहीं मिला और न वहाँ से आये हुए किसी भाई ने आपका कोई परिचय दिया या आपकी बुराई की।
22) किन्तु हम आप से आपके विचार सुनना चाहते हैं, क्योंकि हमें मालूम है कि इस सम्प्रदाय का सर्वत्र विरोध होता है।
23) इसलिए वे, पौलुस के साथ एक दिन निश्चित कर, और बड़ी संख्या में उसके यहाँ एकत्र हुए। पौलुस सुबह से शाम तक उन्हें समझाता तथा ईश्वर के राज्य के विषय में साक्ष्य देता रहा और मूसा-संहिता तथा नबियों के आधार पर उन में ईसा के प्रति विश्वास उत्पन्न करने का प्रयत्न करता रहा।
24) उन में कुछ पौलुस के तर्क मान गये और कुछ अविश्वासी बन रहे।
25) जब वे आपस में सहमत नहीं हुए और विदा होने लगे तो पौलुस ने उन से यह अन्तिम बात कही, ''पवित्र आत्मा ने नबी इसायस के मुख से आप लोगों के पूर्वजों से ठीक ही कहा :
26) इन लोगों के पास जा कर यह कहो- तुम सुनते रहोगे, परन्तु नहीं समझोगे। तुम देखते रहोगे, परन्तु तुम्हें नही दीखेगा;
27) क्योंकि इन लोगों की बुद्धि मारी गयी है। ये कानों से सुनना नहीं चाहते। इन्होंने अपनी आँखे बन्द कर ली हैं। कहीं ऐसा न हो कि ये आँखों से देख ले, कानों से सुन लें, बुद्धि से समझ लें, मेरी ओर लौट आयें और मैं इन्हें भला-चंगा कर दूँ।
28) इसलिए आप सबों को मालूम हो कि ईश्वर का यह मुक्ति-विधान गैर-यहूदियों को सुनाया जा रहा है।
29) वे अवश्य ध्यान से सुनेंगे।''
30) पौलुस पूरे दो वर्षों तक अपने किराये के मकान में रहा। वह सभी मिलने वालों का स्वागत करता था।
31) और आत्मविश्वास के साथ निर्विन रूप से ईश्वर के राज्य का सन्देश सुनाता और प्रभु ईसा मसीह के विषय में शिक्षा देता था।