पवित्र बाइबिल : Pavitr Bible ( The Holy Bible )

नया विधान : Naya Vidhan ( New Testament )

सन्त योहन ( John )

अध्याय 1

1) आदि में शब्द था, शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ईश्वर था।
2) वह आदि में ईश्वर के साथ था।
3) उसके द्वारा सब कुछ उत्पन्न हुआ। और उसके बिना कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ।
4) उस में जीवन था, और वह जीवन मनुष्यों की ज्योति था।
5) वह ज्योति अन्धकार में चमकती रहती है- अन्धकार ने उसे नहीं बुझाया।
6) ईश्वर को भेजा हुआ योहन नामक मनुष्य प्रकट हुआ।
7) वह साक्षी के रूप में आया, जिससे वह ज्योति के विषय में साक्ष्य दे और सब लोग उसके द्वारा विश्वास करें।
8) वह स्वयं ज्यांति नहीं था; उसे ज्योति के विषय में साक्ष्य देना था।
9) शब्द वह सच्च ज्योति था, जो प्रत्येक मनुष्य का अन्धकार दूर करती है। वह संसार में आ रहा था।
10) वह संसार में था, संसार उसके द्वारा उत्पन्न हुआ; किन्तु संसार ने उसे नहीं पहचाना।
11) वह अपने यहाँ आया और उसके अपने लोगों ने उसे नहीं अपनाया।
12) जितनों ने उसे अपनाया, और जो उसके नाम में विश्वास करते हैं, उन सब को उसने ईश्वर की सन्तति बनने का अधिकार दिया।
13) वे न तो रक्त से, न शरीर की वासना से, और न मनुष्य की इच्छा से, बल्कि ईश्वर से उत्पन्न हुए हैं।
14) शब्द ने शरीर धारण कर हमारे बीच निवास किया। हमने उसकी महिमा देखी। वह पिता के एकलौते की महिमा-जैसी है- अनुग्रह और सत्य से परिपूर्ण।
15) योहन ने पुकार-पुकार कर उनके विषय में यह साक्ष्य दिया, ‘‘यह वहीं हैं, जिनके विषय में मैंने कहा- जो मेरे बाद आने वाले हैं, वह मुझ से बढ़ कर हैं; क्योंकि वह मुझ से पहले विद्यमान थे।''
16) उनकी परिपूर्णता से हम सब को अनुग्रह पर अनुग्रह मिला है।
17) संहिता तो मूसा द्वारा दी गयी है, किन्तु अनुग्रह और सत्य ईसा मसीह द्वारा मिला है।
18) किसी ने कभी ईश्वर को नहीं देखा; पिता की गोद में रहने वाले एकलौते, ईश्वर, ने उसे प्रकट किया है।
19) जब यहूदियों ने येरुसालेम से याजकों और लेवियों को योहन के पास यह पूछने भेजा कि आप कोन हैं,
20) तो उसने यह साक्ष्य दिया- उसने स्पष्ट शब्दों में यह स्वीकार किया कि मैं मसीह नहीं हूँ।
21) उन्होंने उस से पूछा, ‘‘तो क्या? क्या आप एलियस हैं?'' उसने कहा, ‘‘में एलियस नहीं हँू''। ‘‘क्या आप वह नबी हैं?'' उसने उत्तर दिया, ‘‘नहीं''।
22) तब उन्होंने उस से कहा, ‘‘तो आप कौन हैं? जिन्होंने हमें भेजा, हम उन्हें कौनसा उत्तर दें? आप अपने विषय में क्या कहते हैं?''
23) उसने उत्तर दिया, ‘‘मैं हूँ- जैसा कि नबी इसायस ने कहा हैं- निर्जन प्रदेश में पुकारने वाले की आवाज: प्रभु का मार्ग सीधा करो''।
24) जो लोग भेजे गये है, वे फ़रीसी थे।
25) उन्होंने उस से पूछा, ‘‘यदि आप न तो मसीह हैं, न एलियस और न वह नबी, तो बपतिस्मा क्यों देते हैं?''
26) योहन ने उन्हें उत्तर दिया, ‘‘मैं तो जल में बपतिस्मा देता हूँ। तुम्हारे बीच एक हैं, जिन्हें तुम नहीं पहचानते।
27) वह मेरे बाद आने वाले हैं। मैं उनके जूते का फीता खोलने योग्य भी नहीं हूँ।''
28) यह सब यर्दन के पास बेथानिया में घटित हुआ, जहाँ योहन बपतिस्मा देता था।
29) दूसरे दिन योहन ने ईसा को अपनी ओर आते देखा और कहा, ‘‘देखो-ईश्वर का मेमना, जो संसार का पाप हरता है।
30) यह वहीं हैं, जिनके विषय में मैंने कहा, मेरे बाद एक पुरुष आने वाले हैं। वह मुझ से बढ़ कर हैं, क्योंकि वह मुझ से पहले विद्यमान थे।
31) मैं भी उन्हें नहीं जानता था, परन्तु मैं इसलिए जल से बपतिस्मा देने आया हूँ कि वह इस्राएल पर प्रकट हो जायें।''
32) फिर योहन ने यह साक्ष्य दिया, ‘‘मैंने आत्मा को कपोत के रूप में स्वर्ग से उतरते और उन पर ठहरते देखा।
33) मैं भी उन्हें नहीं जानता था; परन्तु जिसने मुझे जल से बपतिस्मा देने भेजा, उसने मुझ से कहा था, ÷तुम जिन पर आत्मा को उतरते और ठहरते देखोगे, वही पवित्र आत्मा से बपतिस्मा देते हैं'।
34) मैंने देखा और साक्ष्य दिया कि यह ईश्वर के पुत्र हैं।''
35) दूसरे दिन योहन फिर अपने दो शिष्यों के साथ वहीं था।
36) उसने ईसा को गुजरते देखा और कहा, ‘‘देखो- ईश्वर का मेमना!'
37) दोनों शिष्य उसकी यह बात सुन कर ईसा के पीछे हो लिये।
38) ईसा ने मुड़ कर उन्हें अपने पीछे आते देखा और कहा, ‘‘क्या चाहते हो?'' उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘रब्बी! '' (अर्थात गुरुवर) आप कहाँ रहते हैं?''
39) ईसा ने उन से कहा, ‘‘आओ और देखो''। उन्होंने जा कर देखा कि वे कहाँ रहते हैं और उस दिन वे उनके साथ रहे। उस समय शाम के लगभग चार बजे थे।
40) जो योहन की बात सुन कर ईसा के पीछे हो लिय थे, उन दोनों में एक सिमोन पेत्रुस का भाई अन्द्रेयस था।
41) उसने प्रातः अपने भाई सिमोन से मिल कर कहा, ‘‘हमें मसीह (अर्थात् खीस्त) मिल गये हैं''
42) और वह उसे ईसा के पास ले गया। ईसा ने उसे देख कर कहा, ‘‘तुम योहन के पुत्र सिमोन हो। तुम केफस (अर्थात् पेत्रुस) कहलाओगे।''
43) दूसरे दिन ईसा ने गलीलिया जाने का निश्चय किया। उनकी भेंट फिलिप से हुई और उन्होंने उस से कहा, ‘‘मेरे पीछे चले आओ''।
44) फिलिप बेथसाइदा का, अन्द्रेयस और पेत्रुस के नगर का निवासी था।
45) फिलिप नथानाएल से मिला और बोला, ‘‘मूसा ने संहिता में और नबियों ने जिनके विषय में लिखा है, वही हमें मिल गये हैं। वह नाजरेत-निवासी, यूसुफ के पुत्र ईसा हैं।''
46) नथानाएल ने उत्तर दिया, ‘‘क्या नाजरेत से भी कोई अच्छी चीज आ सकती है?'' फिलिप ने कहा, ‘‘आओ और स्वयं देख लो''।
47) ईसा ने नथानाएल को अपने पास आते देखा और उसके विषय में कहा, ‘‘देखो, यह एक सच्चा इस्राएली है। इस में कोई कपट नहीं।''
48) नथानाएल ने उन से कहा, ‘‘आप मुझे कैसे जानते हैं?'' ईसा ने उत्तर दिया, ‘‘फिलिप द्वारा तुम्हारे बुलाये जाने से पहले ही मैंने तुम को अंजीर के पेड़ के नीचे देखा''।
49) नथानाएल ने उन से कहा, ‘‘गुरुवर! आप ईश्वर के पुत्र हैं, आप इस्राएल के राजा हैं''।
50) ईसा ने उत्तर दिया, ‘‘मैंने तुम से कहा, मैंने तुम्हें अंजीर के पेड़ के नीचे देखा, इसीलिए तुम विश्वास करते हो। तुम इस से भी महान् चमत्कार देखोगे।''
51) ईसा ने उस से यह भी कहा, ‘‘मैं तुम से यह कहता हूँ- तुम स्वर्ग को खुला हुआ और ईश्वर के दूतों को मानव पुत्र के ऊपर उतरते-चढ़ते हुए देखोगे''।

अध्याय 2

1) तीसरे दिन गलीलिया के काना में एक विवाह था। ईसा की माता वहीं थी।
2) ईसा और उनके शिष्य भी विवाह में निमन्त्रित थे।
3) अंगूरी समाप्त हो जाने पर ईसा की माता ने उन से कहा, ‘‘उन लोगो के पास अंगूरी नहीं रह गयी है''।
4) ईसा ने उत्तर दिया, ‘‘भदे! इस से मुझ को और आप को क्या, अभी तक मेरा समय नहीं आया है।''
5) उनकी माता ने सेवकों से कहा, ‘‘वे तुम लोगों से जो कुछ कहें वही करना''।
6) वहाँ यहूदियों के शुद्धीकरण के लिए पत्थर के छः मटके रखे थे। उन में दो-दो तीन तीन मन समाता था।
7) ईसा ने सेवकों से कहा, ''मटकों में पानी भर दो''। सेवकों ने उन्हें लबालब भर दिया।
8) फिर ईसा ने उन से कहा, ‘‘अब निकाल कर भोज के प्रबन्धक के पास ले जाओ''। उन्होंने ऐसा ही किया।
9) प्रबन्धक ने वह पानी चखा, जो अंगूरी बन गया था। उसे मालूम नहीं था कि यह अंगूरी कहाँ से आयी है। जिन सेवकों ने पानी निकाला था, वे जानते थे। इसलिए प्रबन्धक ने दुल्हे को बुला कर
10) कहा, ‘‘सब कोई पहले बढ़िया अंगूरी परोसते हैं, और लोगों के नशे में आ जाने पर घटिया। आपने बढ़िया अंगूरी अब तक रख छोड़ी है।''
11) ईसा ने अपना यह पहला चमत्कार गलीलिया के काना में दिखाया। उन्होंने अपनी महिमा प्रकट की और उनके शिष्यों ने उन में विश्वास किया।
12) इसके बाद ईसा अपनी माता, अपने भाइयों और अपने शिष्यों के साथ कफरनाहूम गये, परन्तु वे वहाँ थोड़े ही दिन रहे।
13) यहूदियों का पास्का पर्व निकट आने पर ईसा येरुसालेम गये।
14) उन्होंने मन्दिर में बैल, भेड़ें और कबूतर बेचने वालों को तथ अपनी मेंजों के सामने बैठे हुए सराफों को देखा।
15) उन्होंने रस्सियों का कोड़ा बना कर भेड़ों और बेलों-सहित सब को मन्दिर से बाहर निकाल दिया, सराफों के सिक्के छितरा दिये, उनकी मेजें उलट दीं
16) और कबूतर बेचने वालों से कहा, ‘‘यह सब यहाँ से हटा ले जाओ। मेरे पिता के घर को बाजार मत बनाओ।''
17) उनके शिष्यों को धर्मग्रन्थ का यह कथन याद आया- तेरे घर का उत्साह मुझे खा जायेगा।
18) यहूदियों ने ईसा से कहा, ‘‘आप हमें कौन-सा चमत्कार दिखा सकते हैं, जिससे हम यह जानें कि आप को ऐसा करने का अधिकार है?''
19) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ‘‘इस मन्दिर को ढा दो और मैं इसे तीन दिनों के अन्दर फिर खड़ा कर दूँगा''।
20) इस पर यहूदियों ने कहा, ‘‘इस मंदिर के निर्माण में छियालीस वर्ष लगे, और आप इसे तीन दिनों के अन्दर खड़ा कर देंगे?''
21) ईसा तो अपने शरीर के मन्दिर के विषय में कह रहे थे।
22) जब वह मृतकों में से जी उठे, तो उनके शिष्यों को याद आया कि उन्होंने यह कहा था; इसलिए उन्होंने धर्मग्रन्ध और ईसा के इस कथन पर विश्वास किया।
23) जब ईसा पास्का पर्व के दिनों में येरुसालेम में थे, तो बहुत-से लोगों ने उनके किये हुए चमत्कार देख कर उनके नाम में विश्वास किया।
24) परन्तु ईसा को उन पर कोई विश्वास नहीं था, क्योंकि वे सब को जानते थे।
25) इसकी जरूरत नहीं थी कि कोई उन्हें मनुष्य के विषय में बताये। वे तो स्वयं मनुष्य का स्वभाव जानते थे।

अध्याय 3

1) निकोदेमुस नामक फरीसी यहूदियों की महासभा का सदस्य था।
2) वह रात को ईसा के पास आया और बोला, ‘‘रब्बी! हम जानते हैं कि आप ईश्वर की ओर से आये हुए गुरु हैं। आप जो चमत्कार दिखाते हैं, उन्हें कोई तब तक नहीं दिखा सकता, जब तक कि ईश्वर उसके साथ न हो।''
3) ईसा ने उसे उत्तर दिया, ‘‘मैं आप से यह कहता हूँ- जब तक कोई दुबारा जन्म न ले, तब तक वह स्वर्ग का राज्य नहीं देख सकता''।
4) निकोदेमुस ने उन से पूछा, ‘‘मनुष्य केसे बूढ़ा हो जाने पर दुबारा जन्म ले सकता है? क्या वह अपनी माता के गर्भ में दूसरी बार प्रवेश कर जन्म ले सकता है?''
5) ईसा ने उत्तर दिया, ‘‘मैं आप से कहता हूँ- जब तक कोई जल और पवित्र आत्मा से जन्म न ले, तब तक वह ईश्वर के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकता।
6) जो देह से उत्पन्न होता है, वह देह है और जो आत्मा से उत्पन्न होता है, वह आत्मा है।
7) आश्चर्य न कीजिए कि मैंने यह कहा- आप को दुबारा जन्म लेना है।
8) पवन जिधर चाहता, उधर बहता है। आप उसकी आवाज सुनते हैं, किन्तु यह नहीं जानते कि वह किधर से आता और किधर जाता है। जो आत्मा से जन्मा है, वह ऐसा ही है।''
9) निकोदेमुस ने उन से पूछा, ‘‘यह कैसे हो सकता है?''
10) ईसा ने उसे उत्तर दिया, ‘‘आप इस्राएल के गुरु हैं और ये बातें भी नहीं समझते!
11) मैं आप से यह कहता हँू- हम जो जानते हैं, वही कहते हैं और हमने जो देखा है, उसी का साक्ष्य देते हैं; किन्तु आप लोग हमारा साक्ष्य स्वीकार नहीं करते।
12) मैंने आप को पृथ्वी की बातें बतायीं और आप विश्वास नहीं करते। यदि मैं आप को स्वर्ग की बातें बताऊँ, तो आप कैसे विश्वास करेंगे?
13) मानव पुत्र स्वर्ग से उतरा है। उसके सिवा कोई भी स्वर्ग नहीं पहुँचा।
14) जिस तरह मूसा ने मरुभूमि में साँप को ऊपर उठाया था, उसी तरह मानव पुत्र को भी ऊपर उठाया जाना है,
15) जिससे जो उस में विश्वास करता है, वह अनन्त जीवन प्राप्त करे।''
16) ईश्वर ने संसार को इतना प्यार किया कि उसने इसके लिए अपने एकलौते पुत्र को अर्पित कर दिया, जिससे जो उस में विश्वास करता हे, उसका सर्वनाश न हो, बल्कि अनन्त जीवन प्राप्त करे।
17) ईश्वर ने अपने पुत्र को संसार मं इसलिए नहीं भेजा कि वह संसार को दोषी ठहराये। उसने उसे इसलिए भेजा कि संसार उसके द्वारा मुक्ति प्राप्त करे।
18) जो पुत्र में विश्वास करता है, वह दोषी नहीं ठहराया जाता है। जो विश्वास नहीं करता, वह दोषी ठहराया जा चुका है; क्योंकि वह ईश्वर के एकलौते पुत्र के नाम में विश्वास नहीं करता।
19) दण्डाज्ञा का कारण यह है कि ज्योति संसार में आयी है और मनुष्यों ने ज्योति की अपेक्षा अन्धकार को अधिक पसन्द किया, क्योंकि उनके कर्म बुरे थे।
20) जो बुराई करता है, वह ज्योंति से बैर करता है और ज्योति के पास इसलिए नहीं आता कि कहीं उसके कर्म प्रकट न हो जायें।
21) किन्तु जो सत्य पर चलता है, वह ज्योति के पास आता है, जिससे यह प्रकट हो कि उसके कर्म ईश्वर की प्रेरणा से हुए हैं।
22) इसके बाद ईसा अपने शिष्यों के साथ यहूदिया प्रदेश आये और वहाँ उनके साथ रहे। वे बपतिस्मा देते थे।
23) योहन भी सलीम के निकट एनोन में बपतिस्मा दे रहा था, क्योंकि वहाँ बहुत पानी था। लोग वहाँ आ कर बपतिस्मा ग्रहण करते थे।
24) योहन उस समय तक गिरफ्तार नहीं हुआ था।
25) योहन के शिष्यों और यहूदियों में शुद्धीकरण के विषय में विवाद छिड़ गया।
26) उन्होंने योहन के पास जा कर कहा, ‘‘गुरुवर! देखिए, जो यर्दन के उस पार आपके साथ थे और जिनके विषय में आपने साक्ष्य दिया, वह बपतिस्मा देते हैं और सब लोग उनके पास जाते हैं''।
27) योहन ने उत्तर दिया, ‘‘मनुष्य को वही प्राप्त हो सकता हे, जो उसे स्वर्ग की ओर से दिया जाये।
28) तुम लोग स्वयं साक्षी हो कि मैंने यह कहा, ÷मैं मसीह नहीं हूँ'। मैं तो उनका अग्रदूत हूँ।
29) वधू वर की ही होती है; परन्तु वर का मित्र, जो साथ रह कर वर को सुनता है, उसकी वाणी पर आनन्दित हो उठता है। मेरा आनन्द ऐसा ही है और अब वह परिपूर्ण है।
30) यह उचित है कि वे बढ़ते जायें और मैं घटता जाऊँ।''
31) जो ऊपर से आता है, वह सर्वोपरि है। जो पृथ्वी से आता है, वह पृथ्वी का है और पृथ्वी की बातें बोलता है। जो स्वर्ग से आता है, वह सवर्ोेपरि है।
32) उसने जो कुछ देखा और सुना है, वह उसी का साक्ष्य देता है; किन्तु उसका साक्ष्य कोई स्वीकार नहीं करता।
33) जो उसका साक्ष्य स्वीकार करता है, वह ईश्वर की सत्यता प्रमाणित करता हे। जिसे ईश्वर ने भेजा है, वह ईश्वर के ही शब्द बोलता है;
34) क्योंकि ईश्वर उसे प्रचुर मात्रा में पवित्र आत्मा प्रदान करता है।
35) पिता पुत्र को प्यार करता है और उसने उसके हाथ सब कुछ दे दिया है।
36) जो पुत्र में विश्वास करता है, उसे अनन्त जीवन प्राप्त है। परन्तु जो पुत्र में विश्वास करने से इनकार करता है, उसे जीवन प्राप्त नहीं होगा। ईश्वर का क्रोध उस पर बना रहेगा।

अध्याय 4

1) फरीसियों को यह सूचना मिली कि ईसा योहन की अपेक्षा अधिक शिष्य बनाते और बपतिस्मा देते हैं-
2) यद्यपि ईसा स्वयं नहीं, बल्कि उनके शिष्य बपतिस्मा देते थे। जब ईसा को इसका पता चला,
3) तो वह यहूदिया छोड़ कर फिर गलीलिया गये ।
4) उन्हें समारिया हो कर जाना था।
5) वह समारिया के सुख़ार नामक नगर पहुँचे। यह उस भूमि के निकट है, जिसे याकूब ने अपने पुत्र यूसुफ को दिया था।
6) वहाँ याकूब का झरना है। ईसा यात्रा से थक गये थे, इसलिए वह झरने के पास बैठ गये। उस समय दोपहर हो चला था।
7) एक समारी स्त्री पानी भरने आयी। ईसा ने उस से कहा, ‘‘मुझे पानी पिला दो'',
8) क्योंकि उनके शिष्य नगर में भोजन खरीदने गये थे। यहूदी लोग समारियों से कोई सम्बन्ध नहीं रखते।
9) इसलिए समारी स्त्री ने उन से कहा, ‘‘यह क्या कि आप यहूदी हो कर भी मुझ समारी स्त्री से पीने के लिए पानी माँगते हैं?''
10) ईसा ने उत्तर दिया, ‘‘यदि तुम ईश्वर का वरदान पहचानती और यह जानती कि वह कौन है, जो तुम से कहता है- मुझे पानी पिला दो, तो तुम उस से माँगती और और वह तुम्हें संजीवन जल देता''।
11) स्त्री ने उन से कहा, ‘‘महोदय! पानी खींचने के लिए आपके पास कुछ भी नहीं है और कुआँ गहरा है; तो आप को वह संजीवन जल कहाँ से मिलेगा?
12) क्या आप हमारे पिता याकूब से भी महान् हैं? उन्होंने हमें यह कुआँ दिया। वह स्वयं, उनके पुत्र और उनके पशु भी उस से पानी पीते थे।''
13) ईसा ने कहा, ‘‘जो यह पानी पीता है, उसे फिर प्यास लगेगी,
14) किन्तु जो मेरा दिया हुआ जल पीता है, उसे फिर कभी प्यास नहीं लगेगी। जो जल मैं उसे प्रदान करूँगा, वह उस में वह स्रोत बन जायेगा, जो अनन्त जीवन के लिए उमड़ता रहता है।''
15) इस पर स्त्री ने कहा, ‘‘महोदय! मुझे वह जल दीजिए, जिससे मुझे फिर प्यास न लगे और मुझे यहाँ पानी भरने नहीं आना पड़े''।
16) ईसा ने उस से कहा, ‘‘जा कर अपने पति को यहाँ बुला लाओ''।
17) स्त्री ने उत्तर दिया, ‘‘मेरा कोई पति नहीं नहीं है''। ईसा ने उस से कहा, ‘‘तुमने ठीक ही कहा कि मेरा कोई पति नहीं है।
18) तुम्हारे पाँच पति रह चुके हैं और जिसके साथ अभी रहती हो, वह तुम्हारा पति नहीं है। यह तुमने ठीक ही कहा।''
19) स्त्री ने उन से कहा, ‘‘महोदय! मैं समझ गयी- आप नबी हैं।
20) हमारे पुरखे इस पहाड़ पर आराधना करते थे और आप लोग कहते हैं कि येरुसालेम में आराधना करनी चाहिए।''
21) ईसा ने उस से कहा, ‘‘नारी ! मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि वह समय आ रहा है, जब तुम लोग न तो इस पहाड़ पर पिता की आराधना करोगे और न येरूसोलेम में ही।
22) तुम लोग जिसकी आराधना करते हो, उसे नहीं जानते। हम लोग जिसकी आराधना करते हैं, उसे जानते हैं, क्योंकि मुक्ति यहूदियों से ही प्रारम्भ होती हैं
23) परन्तु वह समय आ रहा है, आ ही गया है, जब सच्चे आराधक आत्मा और सच्चाई से पिता की आराधना करेंगे। पिता ऐसे ही आराधकों को चाहता है।
24) ईश्वर आत्मा है। उसके आराधकों को चाहिए कि वे आत्मा और सच्चाई से उसकी आराधना करें।''
25) स्त्री ने कहा, ‘‘मैं जानती हूँ कि मसीह, जो खीस्त कहलाते हैं, आने वाले हैं। जब वे आयेंगे, तो हमें सब कुछ बता देंगे।''
26) ईसा ने उस से कहा, ‘‘मैं, जो तुम से बोल रहा हूँ, वहीं हूँ''।
27) उसी समय शिष्य आ गये और उन्हें एक स्त्री के साथ बातें करते देख कर अचम्भे में पड़ गये; फिर भी किसी ने यह नहीं कहा, ÷इस से आप को क्या?' अथवा ÷आप इस से क्यों बातें करते हैं?'
28) उस स्त्री ने अपना घड़ा वहीं छोड़ दिया और नगर जा कर लोगों से कहा,
29) ’‘चलिए, एक मनुष्य को देखिए, जिसने मुझे वह सब जो मैंने किया, बता दिया है। कहीं वह मसीह तो नहीं हैं?''
30) इसलिए वे लोग नगर से निकल कर ईसा से मिलने आये।
31) इस बीच उनके शिष्य उन से यह कहते हुए अनुरोध करते रहे, ‘‘गुरुवर! खा लीखिए''।
32) उन्होंने उन से कहा, ‘‘खाने के लिए मेरे पास वह भोजन है, जिसके विषय में तुम लोग कुछ नहीं जानते''।
33) इस पर शिष्य आपस में बोले, ‘‘क्या कोई उनके लिए खाने को कुछ ले आया है?''
34) इस पर ईसा ने उन से कहा, ‘‘जिसने मुझे भेजा, उसकी इच्छा पर चलना और उसका कार्य पूरा करना, यही भेरा भोजन है।
35) ''क्या तुम यह नहीं कहते कि अब कटनी के चार महीने रह गये हैं? परन्तु मैं तुम लोगों से कहता हूँ- आँखें उठा कर खेतों को देखो। वे कटनी के लिए पक चुके हैं।
36) अब तक लुनने वाला मजदूरी पाता और अनन्त जीवन के लिए फसल जमा करता है, जिससे बोने वाला और लुनने वाला, दोनों मिल कर आनन्द मनायें;
37) क्योंकि यहाँ यह कहावत ठीक उतरती है- एक बोता है और दूसरा लुनता है।
38) मैंने तुम लोगों को वह खेत लुनने भेजा, जिस में तुमने परिश्रम नहीं किया है- दूसरों ने परिश्रम किया और तुम्हें उनके परिश्रम का फल मिल रहा है।''
39) उस स्त्री ने कहा था- ÷उन्होंने मुझे वह सब, जो मैंने किया, बता दिया है-। इस कारण उस नगर के बहुत-से समारियों ने ईसा में विश्वास किया।
40) इसलिए जब वे उनके पास आये, तो उन्होंने अनुरोध किया कि आप हमारे यहाँ रहिए। वह दो दिन वहीं रहे।
41) बहुत-से अन्य लोगों ने उनका उपदेश सुन कर उन में विश्वास किया
42) और उस स्त्री से कहा, ‘‘अब हम तुम्हारे कहने के कारण ही विश्वास नहीं करते। हमने स्वयं सुन लिया है और हम जान गये है कि वह सचमुच संसार के मुक्तिदाता हैं।''
43) उन दो दिनों के बाद वह वहाँ से विदा हो कर गलीलिया गये।
44) ईसा ने स्वयं यह कहा था कि अपने देश में नबी का आदर नहीं होता।
45) जब वह गलीलिया पहुँचे, तो लोगों ने उनका स्वागत किया; क्योंकि ईसा ने पर्व के दिनों येरुसालेम में जो कुछ किया था, वह सब उन्होंने देखा था। पर्व के लिए वे भी वहाँ गये थे।
46) वे फिर गलीलिया के काना नगर आये, जहाँ उन्होंने पानी को अंगूरी बना दिया था। कफरनाहूम में राज्य के किसी पदाधिकारी का पुत्र बीमार था।
47) जब उस पदाधिकारी ने सुना कि ईसा यहूदिया से गलीलिया आ गये हैं, तो वह उनके पास आया। उसने उन से यह प्रार्थना की कि वह चल कर उसके पुत्र को चंगा कर दें, क्यांकि वह मरने-मरने को था।
48) ईसा ने उस से कहा, ‘‘आप लोग चिन्ह तथा चमत्कार देखे बिना विश्वास नहीं करेंगे''।
49) इस पर पदाधिकारी न ेउन से कहा, ‘‘महोदय! कृपया चलिए, कहीं मेरा बच्चा न मर जाये''।
50) ईसा ने उत्तर दिया, ‘‘जाइए, आपका पुत्र अच्छा हो गया है''। वह मनुष्य ईसा के वचन पर विश्वास कर चला गया।
51) वह रास्ते में ही था कि उसके नौकर मिल गये और उस से बोले, ‘‘आपका पुत्र अच्छा हो गया है''।
52) उसने उन से पूछा कि वह किस समय अच्छा होने लगा था। उन्होंने कहा कि कल दिन के एक बजे उसका बुख़ार उतर गया।
53) तब पिता समझ गया कि ठीक उसी समय ईसा ने उस से कहा था, ÷आपका पुत्र अच्छा हो गया है' और उसने अपने सारे परिवार के साथ विश्वास किया।
54) यह ईसा का दूसरा चमत्कार था, जो उन्होंने यहूदिया से गलीलिया आने के बाद दिखाया।

अध्याय 5

1) इसके कुछ समय बाद ईसा यहूदियों के किसी पर्व के अवसर पर येरुसालेम गये।
2) येरुसालेम में भेड़-फाटक के पास एक कुण्ड है, जो इब्रानी भाषा में बेथेस्दा कहलाता है। उसके पाँच मण्डप हैं।
3) उन में बहुत-से रोगी-अन्धे, लँगड़े और अर्द्धांगरोगी-पड़े हुए थे। (वे पानी के लहराने की राह देख रहे थे,
4) क्योंकि प्रभु का दूत समय-समय पर कुण्ड में उतर कर पानी हिला देता था। पानी के लहराने के बाद जो सब से पहले कुण्ड में उतरता था- चाहे वह किसी भी रोग से पीड़ित क्यों न हो- अच्छा हो जाता था।)
5) वहाँ एक मनुष्य था, जो अड़तीस वर्षों से बीमार था।
6) ईसा ने उसे पड़ा हुआ देखा और, यह जान कर कि वह बहुत समय से इसी तरह पड़ा हुआ है, उस से कहा, ‘‘क्या तुम अच्छा हो जाना चाहते हो''
7) रोगी ने उत्तर दिया, ‘‘महोदय; मेरा कोई नहीं है, जो पानी के लहराते ही मुझे कुण्ड में उतार दे। मेरे पहुँचने से पहले ही उस में कोई और उतर पड़ता है।''
8) ईसा ने उस से कहा, ‘‘उठ कर खड़े हो जाओ; अपनी चारपाई उठाओ और चलो''।
9) उसी क्षण वह मनुष्य अच्छा हो गया और अपनी चारपाई उठा कर चलने-फिरने लगा।
10) वह विश्राम का दिन था। इसलिए यहूदियों ने उस से, जो अच्छा हो गया था, कहा, ‘‘आज विश्राम का दिन है। चारपाई उठाना तुम्हारे लिए उचित नहीं है।''
11) उसने उत्तर दिया, ‘‘जिसने मुझे अच्छा किया, उसी ने मुझ से कहा- अपनी चार पाई उठाओ और चलो''।
12) उन्होंने उस से पूछा, ‘‘कौन है वह, जिसने तुम से कहा- अपनी चारपाई उठाओ और चलो?''
13) चंगा किया हुआ मनुष्य नहीं जानता था कि वह कौन है, क्योंकि उस जगह बहुत भीड़ थी और ईसा वहाँ से निकल गये थे।
14) बाद में मंदिर में मिलने पर ईसा ने उस से कहा, ‘‘देखो, तुम चंगे हो गये हो। फिर पाप नहीं करो। कहीं ऐसा न हो कि तुम पर और भी भारी संकट आ पड़े।''
15) उस मनुष्य ने जा कर यहूदियों को बताया कि जिन्होंने मुझे चंगा किया है, वह ईसा हैं।
16) यहूदी ईसा को इसलिए सताते थे कि वे विश्राम के दिन ऐसे काम किया करते थे।
17) ईसा ने उन्हें यह उत्तर दिया, ‘‘मेरा पिता अब तक काम कर रहा है और मैं भी काम कर रहा हूँ।
18) अब यहूदियों का उन्हें मार डालने का निश्चय और भी दृढ़ हो गया, क्योंकि वे न केवल विश्राम-दिवस का नियम तोड़ते थे, बल्कि ईश्वर को अपना निजी पिता कह कर ईश्वर के बराबर होने का दावा करते थे।
19) ईसा ने उन से कहा, ‘‘मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- पुत्र स्वयं अपने से कुछ नहीं कर सकता। वह केवल वही कर सकता है, जो पिता को करते देखता है। जो कुछ पिता करता है, वह पुत्र भी करता है;
20) क्योंकि पिता पुत्र को प्यार करता है, और वह स्वयं जो कुछ करता है, उसे पुत्र को दिखाता है। वह उसे और महान् कार्य दिखायेगा, जिन्हें देख कर तुम लोग अचम्भे में पड़ जाओगे।
21) जिस तरह पिता मृतकों को उठाता और जिलाता है, उसी तरह पुत्र भी जिसे चाहता, उसे जीवन प्रदान करता है;
22) क्योंकि पिता किसी का न्याय नहीं करता। उसने न्याय करने का पूरा अधिकार पुत्र को दे दिया है,
23) जिससे सब लोग जिस प्रकार पिता का आदर करते हैं, उसी प्रकार पुत्र का भी आदर करें। जो पुत्र का आदर नहीं करता, वह पिता का, जिसने पुत्र को भेजा, आदर नहीं करता।
24) ’‘मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- जो मेरी शिक्षा सुनता और जिसने मुझे भेजा, उस में विश्वास करता है, उसे अनन्त जीवन प्राप्त है। वह दोषी नहीं ठहराया जायेगा। वह तो मृत्यु को पार कर जीवन में प्रवेश कर चुका है।
25) ’‘मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- वह समय आ रहा है, आ ही गया है, जब मृतक ईश्वर के पुत्र की वाणी सुनेंगे, और जो सुनेंगे, उन्हें जीवन प्राप्त होगा।
26) जिस तरह पिता स्वयं जीवन का स्रोत है, उसी तरह उसने पुत्र को भी जीवन का स्रोत बना दिया
27) और उसे न्याय करने का भी अधिकार दिया है, क्योंकि वह मानव पुत्र है।
28) इस पर आश्चर्य न करो। वह समय आ रहा है, जब वे सब, जो कब्रों में है, उसकी वाणी सुन कर निकल आयेंगे।
29) सत्कर्मी जीवन के लिए पुनर्जीवित हो जायेंगे और कुकर्मी नरकदण्ड के लिए।
30) मैं स्वयं अपने से कुछ भी नहीं कर सकता। मैं जो सुनता, उसी के अनुसार निर्णय देता हूँ और मेरा निर्णय न्यायसंगत है; क्योंकि मैं अपनी इच्छा नहीं, बल्कि जिसने मुझे भेजा, उसकी इच्छा पूरी करना चाहता हूँ।''
31) ’‘यदि मैं अपने विषय में साक्ष्य देता हूँ, तो मेरा साक्ष्य मान्य नहीं है।
32) कोई दूसरा मेरे विषय में साक्ष्य देता है और मैं जानता हूँ कि वह मेरे विषय में जो साक्ष्य देता है, वह मान्य है।
33) तुम लोगों ने योहन से पुछवाया और उसने सत्य के सम्बन्ध में साक्ष्य दिया।
34) मुझे किसी मनुष्य के साक्ष्य की आवश्यकता नहीं। मैं यह इसलिए कहता हूँ कि तुम लोग मुक्ति पा सको।
35) योहन एक जलता और चमकता हुआ दीपक था। उसकी ज्योति में थोड़ी देर तक आनन्द मनाना तुम लोगों को अच्छा लगा।
36) परन्तु मुझे जो साक्ष्य प्राप्त है, वह योहन के साक्ष्य से भी महान् है। पिता ने जो कार्य मुझे पूरा करने को सौंपे हैं, जो कार्य मैं करता हूँ, वही मेरे विषय में यह साक्ष्य देते हैं कि मुझे पिता ने भेजा है।
37) पिता ने भी, जिसने मुझे भेजा, मेरे विषय में साक्ष्य दिया है। तुम लोगों ने न तो कभी उसकी वाणी सुनी और न उसका रूप ही देखा।
38) उसकी शिक्षा तुम लोगों के हृदय में घर नहीं कर सकी, क्योंकि तुम उस में विश्वास नहीं करते, जिसे उसने भेजा।
39) तुम लोग यह समझ कर धम्रग्रन्थ का अनुशीलन करते हो कि उस में तुम्हें अनन्त जीवन का मार्ग मिलेगा। वही धर्मग्रन्ध मेरे विषय में साक्ष्य देता है,
40) फिर भी तुम लोग जीवन प्राप्त करने के लिए मेरे पास आना नहीं चाहते।
41) मैं मनुष्यों की ओर से सम्मान नहीं चाहता।
42) ’‘मैं तुम लोगों के विषय में जानता हूँ कि तुम ईश्वर से प्रेम नहीं करते।
43) मैं अपने पिता के नाम पर आया हूँ, फिर भी तुम लोग मुझे स्वीकार नहीं करतें यदि कोई अपने ही नाम पर आये, तो तुम लोग उस को स्वीकार करोगे।
44) तुम लोग एक दूसरे से सम्मान चाहते हो और वह सम्मान नहीं चाहते, जो एक मात्र ईश्वर की ओर से आता है? तो तुम लोग कैसे विश्वास कर सकते हो?
45) यह न समझो कि मैं पिता के सामने तुम लोगों पर अभियोग लगाऊँगा। तुम पर अभियोग लगाने वाले तो मूसा हैं, जिन पर तुम भरोसा रखते हो।
46) यदि तुम लोग मूसा पर विश्वास करते, तो मुझ पर भी विश्वास करते; क्योंकि उन्होंने मेरे विषय में लिखा है।
47) यदि तुम लोग उनके लेखों पर विश्वास नहीं करते, तो मेरी शिक्षा पर कैसे विश्वास करोगे?''

अध्याय 6

1) इसके बाद ईसा गलीलिया अर्थात् तिबेरियस के समुद्र के उस पर गये।
2) एक विशाल जनसमूह उनके पीछे हो लिया, क्योंकि लोगों ने वे चमत्कार देखे थे, जो ईसा बीमारों के लिए करते थे।
3) ईसा पहाड़ी पर चढ़े और वहाँ अपने शिष्यों के साथ बैठ गये।
4) यहूदियों का पास्का पर्व निकट था।
5) ईसा ने अपनी आँखें ऊपर उठायीं और देखा कि एक विशाल जनसमूह उनकी ओर आ रहा है। उन्होंने फिलिप से यह कहा, ‘‘हम इन्हें खिलाने के लिए कहाँ से रोटियाँ खरीदें?''
6) उन्होंने फिलिप की परीक्षा लेने के लिए यह कहा। वे तो जानते ही थे कि वे क्या करेंगे।
7) फिलिप ने उन्हें उत्तर दिया, ‘‘दो सौ दीनार की रोटियाँ भी इतनी नहीं होंगी कि हर एक को थोड़ी-थोड़ी मिल सके''।
8) उनके शिष्यों में एक, सिमोन पेत्रुस के भाई अन्द्रेयस ने कहा,
9) ’‘यहाँ एक लड़के के पास जौ की पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ हैं, पर यह अतने लोगों के लिए क्या है,''
10) ईसा ने कहा, ‘‘लोगों को बैठा दो''। उस जगह बहुत घास थी। लोग बैठ गये। पुरुषों की संख्या लगभग पाँच हजार थी।
11) ईसा ने रोटियाँ ले लीं, धन्यवाद की प्रार्थना पढ़ी और बैठे हुए लोगों में उन्हें उनकी इच्छा भर बँटवाया। उन्होंने मछलियाँ भी इसी तरह बँटवायीं।
12) जब लोग खा कर तृत्त हो गये, तो ईसा ने अपने शिष्यों से कहा, ‘‘बचे हुए टुकड़े बटोर लो, जिससे कुछ भी बरबाद न हो''।
13) इस लिए शिष्यों ने उन्हें बटोर लिया और उन टुकड़ों से बारह टोकरे भरे, जो लोगों के खाने के बाद जौ की पाँच रोटियों से बच गये थे।
14) लोग र्ईसा का यह चमत्कार देख कर बोल उठे, ‘‘निश्चय ही यह वे नबी हैं, जो संसार में आने वाले हैं''।
15) ईसा समझ गये कि वे आ कर मुझे राजा बनाने के लिए पकड़ ले जायेंगे, इसलिए वे फिर अकेले ही पहाड़ी पर चले गये।
16) सन्ध्या हो जाने पर शिष्य समुद्र के तट पर आये।
17) वे नाव पर सवार हो कर कफरनाहूम की ओर समुद्र पार कर रहे थे। रात हो चली थी और ईसा अब तक उनके पास नहीं आये थे।
18) इस बीच समुद्र में लहरें उठ रही थी, क्योंकि हवा जोरों से चल रही थी।
19) कोई तीन-चार मील तक नाव खेने के बाद शिष्यों ने देखा कि ईसा समुद्र पर चलते हुए, नाव की ओर आगे बढ़ रहे हैं। वे डर गये,
20) किन्तु ईसा ने उन से कहा, ‘‘मैं ही हूँ। डरो मत।''
21) वे उन्हें चढ़ाना चाहते ही थे कि नाव तुरन्त उस किनारे, जहाँ वे जा रहे थे, लग गयी।
22) जो लोग समुद्र के उस पास रह गये थे, उन्होंने देखा था कि वहाँ केवल एक ही नाव थी और ईसा अपने शिष्यों के साथ उस नाव पर सवार नहीं हुए थे- उनके शिष्य अकेले ही चले गये थे।
23) दूसरे दिन तिबेरियस से कुछ नावें उस स्थान के समीप आ गयीं, जहाँ ईसा की धन्यवाद की प्रार्थना के बाद लोगों ने रोटी खायी थी।
24) जब उन्होंने देखा कि वहाँ न तो ईसा हैं और न उनके शिष्य ही, तो वे नावों पर सवार हुए और ईसा की खोज में कफरनाहूम चले गये।
25) उन्होंने समुद्र पार किया और ईसा को वहाँ पा कर उन से कहा, ‘‘गुरुवर! आप यहाँ कब आये?''
26) ईसा ने उत्तर दिया, ‘‘मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- तुम चमत्कार देखने के कारण मुझे नहीं खोजते, बल्कि इसलिए कि तुम रोटियाँ खा कर तृप्त हो गये हो।
27) नश्वर भोजन के लिए नहीं, बल्कि उस भोजन के लिए परिश्रम करो, जो अनन्त जीवन तक बना रहता है और जिसे मानव पुत्र तुन्हें देगा ; क्योंकि पिता परमेश्वर ने मानव पुत्र को यह अधिकार दिया है।''
28) लोगों ने उन से कहा, ‘‘ईश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए हमें क्या करना चाहए?''
29) ईसा ने उत्तर दिया, ‘‘ईश्वर की इच्छा यह है- उसने जिसे भेजा है, उस में विश्वास करो''।
30) लोगों ने उन से कहा, ‘‘आप हमें कौन सा चमत्कार दिखा सकते हैं, जिसे देख कर हम आप में विश्वास करें? आप क्या कर सकते हैं?
31) हमारे पुरखों ने मरुभूमि में मन्ना खाया था, जैसा कि लिखा है- उसने खाने के लिए उन्हें स्वर्ग से रोटी दी।''
32) ईसा ने उत्तर दिया, ‘‘मै तुम लोगों से यह कहता हूँ- मूसा ने तुम्हें जो दिया था, वह स्वर्ग की रोटी नहीं थी। मेरा पिता तुम्हें स्वर्ग की सच्ची रोटी देता है।
33) ईश्वर की रोटी तो वह है, जो स्वर्ग से उतर कर संसार को जीवन प्रदान करती है।''
34) लोगों ने ईसा से कहा, ‘‘प्रभु! आप हमें सदा वही रोटी दिया करें''।
35) उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘जीवन की रोटी मैं हूँ। जो मेरे पास आता है, उसे कभी भूख नहीं लगेगी और जो मुझ में विश्वास करता है, उसे कभी प्यास नहीं लगेगी।
36) फिर भी, जैसा कि मैंने तुम लोगों से कहा, तुम मुझे देख कर भी विश्वास नहीं करते।
37) पिता जिन्हें मुझ को सौंप देता है, वे सब मेरे पास आयेंगे और जो मेरे पास आता है, मैं उसे कभी नहीं ठुकराऊँगा ;
38) क्योंकि मैं अपनी इच्छा नहीं, बल्कि जिसने मुझे भेजा, उसकी इच्छा पूरी करने के लिए स्वर्ग से उतरा हूँ।
39) जिसने मुझे भेजा, उसकी इच्छा यह है कि जिन्हें उसने मुझे सौंपा है, मैं उन में से एक का भी सर्वनाश न होने दूँ, बल्कि उन सब को अन्तिम दिन पुनर्जीवित कर दूँ।
40) मेरे पिता की इच्छा यह है कि जो पुत्र को पहचान कर उस में विश्वास करता है, उसे अनन्द जीवन प्राप्त हो। मैं उसे अन्तिम दिन पुनर्जीवित कर दूँगा।''
41) ईसा ने कहा था, ‘‘स्वर्ग से उतरी हुई रोटी मैं हूँ''। इस पर यहूदी यह कहते हुए भुनभुनाते थे,
42) ’‘क्या वह यूसुफ का बेटा ईसा नहीं है? हम इसके माँ-बाप को जानते हैं। तो यह कैसे कह सकता है- मैं स्वर्ग से उतरा हूँ?''
43) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ‘‘आपस में मत भुनभुनाओ।
44) कोई मेरे पास तब तक नहीं आ सकता, जब तक कि पिता, जिसने मुझे भेजा, उसे आकर्षित नहीं करता। मैं उसे अन्तिम दिन पुनर्जीवित कर दूंगा।
45) नबियों ने लिखा है, वे सब-के-सब ईश्वर के शिक्षा पायेंगे। जो ईश्वर की शिक्षा सुनता और ग्रहण करता है, वह मेरे पास आता है।
46) ’‘यह न समझो कि किसी ने पिता को देखा है; जो ईश्वर की ओर से आया है, उसी ने पिता को देखा है
47) मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- जो विश्वास करता है, उसे अनन्त जीवन प्राप्त है।
48) जीवन की रोटी मैं हूँ।
49) तुम्हारे पूर्वजों ने मरुभूमि में मन्ना खाया, फिर भी वे मर गये।
50) मैं जिस रोटी के विषय में कहता हूँ, वह स्वर्ग से उतरती है और जो उसे खाता है, वह नहीं मरता।
51) स्वर्ग से उतरी हुई वह जीवन्त रोटी मैं हूँ। यदि कोई वह रोटी खायेगा, तो वह सदा जीवित रहेगा। जो रोटी में दूँगा, वह संसार के लिए अर्पित मेरा मांस है।''
52) यहूदी आपस में यह कहते हुए वाद विवाद कर रहे थे, ‘‘यह हमें खाने के लिए अपना मांस कैसे दे सकता है?''
53) इस लिए ईसा ने उन से कहा, ‘‘मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- यदि तुम मानव पुत्र का मांस नहीं खाओगे और उसका रक्त नहीं पियोगे, तो तुम्हें जीवन प्राप्त नहीं होगा।
54) जो मेरा मांस खाता और मेरा रक्त पीता है, उसे अनन्त जीवन प्राप्त है और मैं उसे अन्तिम दिन पुनर्जीवित कर दूँगा;
55) क्योंकि मेरा मांस सच्चा भोजन है और मेरा रक्त सच्चा पेय।
56) जो मेरा मांस खाता और मेरा रक्त पीता है, वह मुझ में निवास करता है और मैं उस में।
57) जिस तरह जीवन्त पिता ने मुझे भेजा है और मुझे पिता से जीवन मिलता है, उसी तरह जो मुझे खाता है, उसको मुझ से जीवन मिलेगा। यही वह रोटी है, जो स्वर्ग से उतरी है।
58) यह उस रोटी के सदृश नहीं है, जिसे तुम्हारे पूर्वजों ने खायी थी। वे तो मर गये, किन्तु जो यह रोटी खायेगा, वह अनन्त काल तक जीवित रहेगा।''
59) ईसा ने कफरनाहूम के सभागृह में शिक्षा देते समय यह सब कहा।
60) उनके बहुत-से शिष्यों ने सुना और कहा, ‘‘यह तो कठोर शिक्षा है। इसे कौन मान सकता है?''
61) यह जान कर कि मेरे शिष्य इस पर भुनभुना रहे हैं, ईसा ने उन से कहा, ‘‘क्या तुम इसी से विचलित हो रहे हो?
62) जब तुम मानव पूत्र को वहाँ आरोहण करते देखोगे, जहाँ वह पहले था, तो क्या कहोगे?
63) आत्मा ही जीवन प्रदान करता है, मांस से कुछ लाभ नहीं होता। मैंने तुम्हे जो शिक्षा दी है, वह आत्मा और जीवन है।
64) फिर भी तुम लोगों में से अनेक विश्वास नहीं करते।'' ईसा तो प्रारम्भ से ही यह जानते थे कि कौन विश्वास नहीं करते और कौन मेरे साथ विश्वासघात करेगा।
65) उन्होंने कहा, ‘‘इसलिए मैंने तुम लोगों से यह कहा कि कोई मेरे पास तब तक नहीं आ सकता, जब तक उसे पिता से यह बरदान न मिला हो''।
66) इसके बाद बहुत-से शिष्य अलग हो गये और उन्होंने उनका साथ छोड़ दिया।
67) इसलिए ईसा ने बारहों से कहा, ‘‘कया तुम लोग भी चले जाना चाहते हो?''
68) सिमोन पेत्रुस ने उन्हें उत्तर दिया, ‘‘प्रभु! हम किसके पास जायें! आपके ही शब्दों में अनन्त जीवन का सन्देश है।
69) हम विश्वास करते और जानते हैं कि आप ईश्वर के भेजे हुए परमपावन पुरुष हैं।''
70) ईसा ने उन से कहा, ‘‘क्या मैंने तुम बारहों को नहीं चुना? तब भी तुम में से एक शैतान है।''
71) यह उन्होंने सिमान इसकारियोती के पुत्र यूदस के विषय में कहा। वही उनके साथ विश्वासघात करने वाला था और वह बारहों में से एक था।

अध्याय 7

1) इसके बाद ईसा गलीलिया में ही घूमते रहे। वह यहूदिया में घूमना नहीं चाहते थे, क्योंकि यहूदी उन्हें मार डालने की ताक में रहते थे।
2) यहूदियों का शिविर-पर्व निकट था।
3) इसलिए ईसा के भाइयों ने उन से कहा ‘‘यह प्रदेश छोड़ कर यहूदिया जाइए, जिससे आप जो महान्् कार्य करते हैं, उन्हें आपके वहाँ के शिष्य भी देख सकें।
4) जो नाम कमाना चाहता है; वह छिप कर काम नहीं करता। जब आप ऐसे कार्य करते ही हैं, तो अपने को दुनिया के सामने प्रकट कर दीजिए।''
5) क्योंकि उनके भाई भी उनमें विश्वास नहीं करते थे।
6) ईसा ने उन से कहा, ‘‘अब तक मेरा समय नहीं आया है। तुम लोगों का समय तो सदा उपस्थित है।
7) संसार तुम से बैर नहीं कर सकता; किन्तु वह मुझ से बैर करता है, क्योंकि मैं उसके विषय में यह साक्ष्य देता हूँ कि उसके काम बुरे हैं।
8) तुम पर्व के लिए जाओ। मैं अभी इस पर्व के लिए नहीं जाऊँगा, क्योंकि मेरा समय अब तक पूरा नहीं हुआ है।''
10) बाद में, जब उनके भाई पर्व के लिए जा चुके थे, तो ईसा भी प्रकट रूप में नहीं, बल्कि जैसे गुप्त रूप में पर्व के लिए चल पड़े।
11) यहूदी लोग पर्व में ईसा को ढूँढ़ते हुए कहते थे, ‘‘वह कहाँ है?''
12) जनता में उनके विषय में चोरी-छिपे बड़ी चरचा चल रही थीं कुछ लोग कहते थे, ‘‘वह भला मनुष्य है''। कुछ कहते थे, ‘‘नहीं, वह लोगों को बहकाता है''।
13) फिर भी यहूदियों के भय के कारण कोई उनके विषय में खुल कर बातें नहीं करता था।
14) पर्व के आधे दिन बीत जाने पर ईसा मंदिर जा कर शिक्षा देते थे।
15) यहूदी अचम्भे में पड़ कर कहते थे, ‘‘इसने कभी पढ़ा नहीं। इसे यह ज्ञान कहाँ से प्राप्त हुआ?''
16) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ‘‘मेरी शिक्षा मेरी नहीं है। यह उसकी है, जिसने मुझे भेजा।
17) यदि कोई उसकी इच्छा पूरी करने का संकल्प करेगा, तो वह यह जान जायेगा कि मेरी शिक्षा ईश्वर की ओर से है अथवा मैं अपनी ओर से बोलता हूँ।
18) जो अपनी ओर से बोलता है वह अपने लिए सम्मान चाहता है; किन्तु जो उसके लिए सम्मान चाहता, जिसने उसे भेजा, वह सच्चा है और उस में कोई कपट नहीं है।÷
19) ÷क्या मूसा ने तुम्हें संहिता नहीं दी? फिर भी तुम लोगों में कोई संहिता का पालन नहीं करता। तुम लोग मुझे मार डालने की ताक में क्यों रहते हो?''
20) लोगों ने उत्तर दिया, ‘‘आप को शैतान लगा है। कौन आप को मार डालने की ताक में रहता है!''
21) ईसा ने उत्तर दिय, ‘‘मैंने एक काम किया है, और तुम सब आश्चर्य करते हो।
22) मूसा ने तुम्हें खतने का नियम दिया- हालाँकि वह मूसा से नहीं, बल्कि पूरखों से चला आ रहा है- और तुम विश्राम के दिन मनुष्य का खतना करते हो।
23) यदि विश्राम के दिन मनुष्य का खतना इसलिए किया जाता है कि मूसा का नियम भेंग न हो, तो तुम लोग मुझ से इस बात पर क्यों रुष्ट हो कि मैंने विश्राम के दिन किसी को पूर्ण रूप से स्वस्थ किया?
24) जैसे-तैसे न्याय मत करो, सच्चाई से न्याय करो।''
25) कुछ येरुसालेम-निवासी यह कहते थे, ‘‘क्या यह वही नहीं है, जिसे हमारे नेता मार डालने की ताक में रहते हैं?
26) देखो तो, यह प्रकट रूप से बोल रहा है और वे इस से कुछ नहीं कहते। क्या उन्होंने सचमुच मान लिया कि यह मसीह है?
27) फिर भी हम जानते हैं कि यह कहाँ का है; परन्तु जब मसीह प्रकट हो जायेंगे, तो किसी को यह पता नहीं चलेगा कि वह कहाँ के हैं।''
28) ईसा ने मंदिर में शिक्षा देते हुए पुकार कर कहा, ‘‘तुम लाग मुझे भी जानते हो और यह भी जानते हो कि मैं कहाँ का हूँ। मैं अपनी इच्छा से नहीं आया हूँ। जिसने मुझे भेजा है, वह सच्चा है। तुम लोग उसे नहीं जानते।
29) मैं उसे जानता हूँ, क्योंकि मैं उसके यहाँ से आया हूँ और उसीने मुझे भेजा है।''
30) इस पर वे उन्हें गिरफ्तार करना चाहते थे, किन्तु किसी ने उन पर हाथ नहीं डाला; क्योंकि अब तक उनका समय नहीं आया था।
31) जनता में बहुतों ने ईसा में विश्वास किया। वे कहते थे, ‘‘जब मसीह आयेंगे, तो क्या वह इन से भी अधिक चमत्कार दिखायेंगे?''
32) जब फरीसियों ने यह सुना कि जनता में ईसा के विषय में चोरी-छिपे इस प्रकार की चर्चा चल रही है, तो फरीसियों और महायाजकों ने ईसा को गिरफ्तार करने के लिए प्यादों को भेजा।
33) उस समय ईसा ने कहा, ‘‘अब मैं कुछ ही समय तक तुम्हारे साथ रहूँगा। इसके बाद मैं उसके पास चला जाऊँगा, जिसने मुझे भेजा।
34) तुम मुझे ढूँढ़ोगे, किन्तु नहीं पाओगे। मैं जहाँ हूँ, तुम लोग वहाँ नहीं आ सकते।''
35) इस पर यहूदियों ने आपस में कहा, ‘‘इन्हें कहाँ जाना है, जो हम इन को नहीं पा सकेंगे? क्या यह यूनानियों के बीच बसे हुए यहूदियों के पास जायेंगे और यूनानियों को शिक्षा देंगे?
36) इनके इस कथन का क्या अर्थ है- तुम लोग मुझे ढूँढोगे, किन्तु नहीं पाओगे। मैं जहाँ हूँ, तुम वहाँ नहीं आ सकते?''
37) पर्व के अन्तिम और मुख्य दिन ईसा उठ खड़े हुए और उन्होंने पुकार कर कहा, ‘‘यदि कोई प्यासा हो, तो वह मेरे पास आये।
38) जो मुझ में विश्वास करता है, वह अपनी प्यास बुझाये।'' जैसा कि धर्म-ग्रन्थ में लिखा है- उसके अन्तस्तल से संजीवन जल की नदियाँ बह निकलेंगी।
39) उन्होंने यह बात उस आत्मा के विषय में कही, जो उन में विश्वास करने वालों को प्राप्त होगा। उस समय तक आत्मा प्रदान नहीं किया गया था, क्योंकि ईसा महिमान्वित नहीं हुए थे।
40) ये शब्द सुन कर जनता में कुछ लोगों ने कहा, ‘‘यह सचमुच वही नबी है''।
41) कुछ ने कहा, ‘‘यह मसीह हैं''। किन्तु कुछ लोगों ने कहा, ‘‘क्या मसीह गलीलिया से आने वाले हैं?
42) क्या धर्मग्रन्थ यह नहीं कहता कि दाऊद के वंश से और दाऊद के गाँव बेथलेहेम से मसीह को आना है?''
43) इस प्रकार ईसा के विषय में लोगों में मत भेद हो गया।
44) कुछ लोग ईसा को गिरफ्तार करना चाहते थे, किन्तु किसी ने उन पर हाथ नहीं डाला।
45) जब प्यादे महायाजकों और फरीसियों के पास लौटे, तो उन्होंने उन से पूछा, ‘‘उसे क्यों नहीं लाये?''
46) प्यादों ने उत्तर दिया, ‘‘जैसा वह मनुष्य बोलता है, वैसा कभी कोई नहीं बोला''।
47) इस पर फरीसियों ने कहा, ‘‘क्या तुम भी उसके बहकावे में आ गये हो?
48) क्या नेताओं अथवा फरीसियों में किसी ने उस में विश्वास किया है?
49) भीड़ की बात दूसरी है। वह संहिता की परवाह नहीं करती और शापित है।''
50) निकोदेमुस, जो पहले ईसा से मिलने आया था, उन में एक था। उसने उन से कहा,
51) ’‘जब तक किसी की सुनवाई नहीं हुई और यह पता नहीं लगा कि उसने क्या किया है, तब तक क्या यह हमारी संहिता के अनुसार उचित है कि किसी को दोषी ठहराया जाये?''
52) उन्होंने उसे उत्तर दिया, ‘‘कहीं आप भी तो गलीली नहीं हैं? पता लगा कर देख लीजिए कि गलीलिया में नबी नहीं उत्पन्न होता।''
53) इसके बाद सब अपने-अपने घर चले गए।

अध्याय 8

1) और ईसा जैतून पहाड़ गये।
2) वे बड़े सबेरे फिर मंदिर आये। सारी जनता उनके पास इकट्ठी हो गयी थी और वे बैठ कर लोगों को शिक्षा दे रहे थे।
3) उस समय शास्त्री और फरीसी व्यभिचार में पकड़ी गयी एक स्त्री को ले आये और उसे बीच में खड़ा कर,
4) उन्होंने ईसा से कहा, ‘‘गुरुवर! यह स्त्री व्यभिचार करते हुए पकड़ी गयी है।
5) संहिता में मूसा ने हमें ऐसी स्त्रियों को पत्थरों से मार डालने का आदेश दिया है। आप इसके विषय में क्या कहते हैं?''
6) उन्होंने ईसा की और परीक्षा लेते हुए यह कहा, जिससे उन्हें उन पर दोष लगाने का काई आधार मिले। ईसा झुक कर उँगली से भूमि पर लिखते रहे।
7) जब वे उन से उत्तर देने के लिए आग्रह करते रहे, तो ईसा ने सिर उठा कर उन से कहा, ‘‘तुम में जो निष्पाप हो, वह इसे सब से पहले पत्थर मारे''।
8) और वे फिर झुक कर भूमि पर लिखने लगे।
9) यह सुन कर बड़ों से ले कर छोटों तक, सब-के-सब , एक-एक कर खिसक ईसा अकेले रह गये और वह स्त्री सामने खड़ी रही।
10) तब ईसा ने सिर उठा कर उस से कहा, ‘‘नारी! वे लोग कहाँ हैं? क्या एक ने भी तुम्हें दण्ड नहीं दिया?''
11) उसने उत्तर दिया, ‘‘महोदय! एक ने भी नहीं''। इस पर ईसा ने उस से कहा, ‘‘मैं भी तुम्हें दण्ड नहीं दूँगा। जाओ और अब से फिर पाप नहीं करना।''
12) ईसा ने फिर लोगों से कहा, ‘‘संसार की ज्योति मैं हूँ। जो मेरा अनुसरण करता है, वह अन्धकार में भटकता नहीं रहेगा। उसे जीवन की ज्योति प्राप्त होगी।''
13) फरीसियों ने उन से कहा, ‘‘आप अपने विषय में साक्ष्य देते हैं। आपका साक्ष्य मान्य नहीं है।''
14) ईसा ने उत्तर दिया, ‘‘मैं अपने विषय में साक्ष्य देता हूँ। फिर भी मेरा साक्ष्य मान्य है, क्योंकि मैं जानता हूँ कि मैं कहाँ से आया और कहाँ जा रहा हूँ।
15) तुम मनुष्य की दृष्टि से न्याय करते हो।
16) मैं किसी का न्याय नहीं करता और यदि न्याय भी करूँ, तो मेरा निर्णय सही होगा; क्योंकि मैं अकेला नहीं हूँ। जिसने मुझे भेजा, वह मेरे साथ है।
17) तुम लोगों की संहिता में लिखा है कि दो व्यक्तियों का साक्ष्य मान्य है।
18) मैं अपने विषय में साक्ष्य देता हूँ और पिता भी, जिसने मुझे भेजा, मेरे विषय में साक्ष्य देता है''
19) इस पर उन्होंने ईसा से कहा, ‘‘कहाँ है आपका वह पिता?'' उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘तुम लोग न तो मुझे जानते हो और न मेरे पिता को। यदि तुम मुझे जानते, तो मेरे पिता को भी जान जाते।''
20) ईसा ने मंदिर में शिक्षा देते हुए यह सब खजाने के पास कहा। किसी ने उन्हें गिरफ्तार नहीं किया, क्योंकि तब तक उनका समय नहीं आया था।
21) ईसा ने फिर लोगों से कहा, ‘‘मैं ज रहा हूँ। तमु लोग मुझे ढूँढोगे, किन्तु तुम पाप की स्थिति में मर जाओगे। मैं जहाँ जा रहा हूँ, तुम वहाँ नहीं आ सकते।''
22) इस पर यहूदियों ने कहा, ‘‘कहीं यह आत्महत्या तो नहीं करेगा? यह तो कहता है- ÷मैं जहाँ जा रहा हूँ, तुम वहाँ नहीं आ सकते'।''
23) ईसा ने उन से कहा, ‘‘तुम लोग नीचे के हो, मैं ऊपर का हूँ। तुम इस संसार के हो, मैं इस संसार का नहीं हूँ।
24) इसलिए मैंने तुम से कहा कि तुम पाप की स्थिति में मर जाओगे। यदि तुम विश्वास नहीं करते कि मैं वही हूँ, तो तुम पाप की स्थिति में मर जाओगे।'
25) तब लोगों ने उन से पूछा, ‘‘आप कौन हैं?'' ईसा ने उत्तर दिया, ‘‘इसके विषय में तुम लोगों से और क्या कहूँ?
26) मैं तुम लोगों को बहुत सी बातों में दोषी ठहरा सकता हूँ। किन्तु मैं संसार को वही बताता हूँ, जो मैंने उस से सुना है, जिसने मुझे भेजा; क्योंकि वह सच्चा है।''
27) वे नहीं समझ रहे थे कि वे उन से पिता के विषय में कह रहे हैं।
28) इसलिए ईसा ने कहा, ‘‘जब तुम लोग मानव पुत्र को ऊपर उठाओगे, तो यह जान जाओगे कि मैं वही हूँ और मैं अपनी ओर से कुछ नहीं करता। मैं जो कुछ कहता हूँ, वैसे ही कहता हूँ, जैसे पिता ने मुझे सिखाया है।
29) जिसने मुझ को भेजा, वह मेरे साथ है। उसने मुझे अकेला नहीं छोड़ा; क्योंकि मैं सदा वही करता हूँ, जो उसे अच्छा लगता है।''
30) बहुतों ने उन्हें यह सब कहते सुना और उन में विश्वास किया।
31) जिन यहूदियों ने उन में विश्वास किया, उन से ईसा ने कहा, ‘‘यदि तुम मेरी शिक्षा पर दृढ़ रहोगे, तो सचमुच मेरे शिष्य सिद्ध होगे।
32) तुम सत्य को पहचान जाओगे और सत्य तुम्हें स्वतन्त्र बना देगा।''
33) उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘हम इब्राहीम की सन्तान हैं, हम कभी किसी के दास नहीं रहे। आप यह क्या कहते हैं- तुम स्वतन्त्र हो जाओगे?''
34) ईसा ने उन से कहा, ‘‘मै तुम से यह कहता हूँ- जो पाप करता है, वह पाप का दास है।
35) दास सदा घर में नहीं रहता, पुत्र सदा रहता है।
36) इसलिए यदि पुत्र तुम्हें स्वतन्त्र बना देगा, तो तुम सचमुच स्वतन्त्र होगे।
37) ’‘मैं जानता हूँ कि तुम लोग इब्राहीम की सन्तान हो। फिर भी तुम मुझे मार डालने की ताक में रहते हो, क्योंकि मेरी शिक्षा तुम्हारे हृदय में घर नहीं कर सकी।
38) मैंने अपने पिता के यहाँ जो देखा है, वही कहता हूँ और तुम लोगों ने अपने पिता के यहाँ जो सीखा है, वही करते हो।'' उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘इब्राहीम हमारे पिता हैं''।
39) इस पर ईसा ने उन से कहा, ‘‘यदि तुम इब्राहीम की सन्तान हो, तो इब्राहीम-जैसा आचरण करो।
40) अब तो तुम मुझे इसलिए मार डालने की ताक में रहते हो कि मैंने जो सत्य ईश्वर से सुना, वह तुम लोगों को बता दिया। यह इब्राहीम-जैसा आचरण नहीं है।
41) तुम लोग तो अपने ही पिता-जैसा आचरण करते हो।'' उन्होंने ईसा से कहा, ‘‘हम व्यभिचार से पैदा नहीं हुए। हमारा एक ही पिता है और वह ईश्वर है।''
42) ईसा ने यहूदियों से कहा, ‘‘यदि ईश्वर तुम्हारा पिता होता, तो तुम मुझे प्यार करते, क्योंकि मैं ईश्वर से उत्पन्न हुआ हूँ और उसके यहाँ से आया हूँ। मैं अपनी इच्छा से नहीं आया हूँ, मुझे उसी ने भेजा है।
43) तुम मेरी बातें कयों नहीं समझते? कारण यह है कि तुम मेरी शिक्षा सुन नहीं सकते।
44) ’‘तुम अपने पिता शैतान की सन्तान हो और अपने पिता की इच्छा पूरी करना चाहते हो। वह तो प्रारम्भ से ही हत्यारा था। उसने कभी सत्य का साथ नहीं दिया, क्योंकि उस में कोई सत्य नहीं है। जब वह झूठ बोलता है, तो अपने ही स्वभाव के अनुसार बोलता है; क्योंकि वह झूठा हे और झूठ का पिता है।
45) मैं सत्य बोलता हूँ, इसलिए तुम लोग मुझ में विश्वास नहीं करते।
46) तुम में से कौन मुझ पर पाप का दोष लगा सकता है? यदि मैं सत्य बोलता हूँ, तो तुम मुझ में विश्वास क्यों नहीं करते?
47) जो ईश्वर का है, वह ईश्वर का सन्देश सुनता है। तुम लोग इसलिए नहीं सुनते कि तुम ईश्वर की सन्तान नहीं हो।''
48) यहूदियों ने ईसा से कहा, ‘‘हम सच कहते हैं कि तुम समारी हो और तुम को अपदूत लगा है''।
49) ईसा ने उत्तर दिया, ‘‘मुझे अपदूत नहीं लगा है। मैं अपने पिता का आदर करता हूँ, तुम लोग तो मेरा अनादर करते हो।
50) मुझे अपनी महिमा की चिन्ता नहीं। उसकी चिन्ता किसी दूसरे को है, वही निर्णय करता है।
51) मैं तुम लोगो से यह कहता हूँ- यदि कोई मेरी शिक्षा पर चलेगा, तो वह कभी नहीं मरेगा।''
52) यहूदियों ने कहा, ‘‘अब हमें पक्का विश्वास हो गया है कि तुम को अपदूत लगा है। इब्राहीम और नबी मर गये, किन्तु तुम कहते हो- ÷यदि कोई मेरी शिक्षा पर चलेगा, तो वह कभी नहीं मरेगा'।
53) क्या तुम हमारे पिता इब्राहीम से ही महान् हो? वह मर गये और नबी भी मर गये। तुम अपने को समझते क्या हो?''
54) ईसा ने उत्तर दिया,’‘यदि मैं अपने को महिमा देता, तो उस महिमा का कोई महत्व नहीं होता। मेरा पिता मुझे महिमान्वित करता है।
55) उसे तुम लोग अपना ईश्वर कहते हो, यद्यपि तुम उसे नहीं जानते। मैं उसे जानता हूँ। यदि मैं कहता कि उसे नहीं जानता, तो मैं तुम्हारी तरह झूठा बन जाता। किन्तु मैं उसे जानता हूँ और उसकी शिक्षा पर चलता हूँ।
56) तुम्हारे पिता इब्राहीम यह जान कर उल्लसित हुए कि वह मेरा आगमन देखेंगे और वह उसे देख कर आनन्दविभोर हुए।''
57) यहूदियों ने उन से कहा, ‘‘अब तक तुम्हारी उम्र पचास भी नहीं, तो तुमने कैसे इब्राहीम को देखा है?''
58) ईसा ने उन से कहा, ‘‘मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- इब्राहीम के जन्म लेने के पहले से ही मैं विद्यमान हूँ''।
59) इस पर लोगों ने ईसा को मारने के लिए पत्थर उठाये, किन्तु वह चुपके से मन्दिर से निकल गये।

अध्याय 9

1) रास्ते में ईसा ने एक मनुष्य को देखा, जो जन्म से अन्धा था।
2) उनके शिष्यों ने उन से पूछा, ‘‘गुरुवर! किसने पाप किया था, इसने अथवा इसके माँ-बाप ने, जो यह मनुष्य जन्म से अन्धा है?''
3) ईसा ने उत्तर दिया, ‘‘न तो इस मनुष्य ने पाप किया और न इसके माँ-बाप ने। यह इसलिए जन्म से अन्धा है कि इसे चंगा करने से ईश्वर का सामर्थ्य प्रकट हो जाये।
4) जिसने मुझे भेजा, हमें उसका कार्य दिन बीतने से पहले ही पूरा कर देना है। रात आ रही है, जब कोई भी काम नहीं कर सकता।
5) मैं जब तक संसार में हूँ, तब तक संसार की ज्योति हूँ।''
6) उन्होंने यह कह कर भूमि पर थूका, थूक से मिट्टी सानी और वह मिट्टी अन्धे की आँखों पर लगा कर
7) उस से कहा, ‘‘जाओ, सिलोआम के कुण्ड में नहा लो''। सिलोआम का अर्थ है ÷प्रेषित'। वह मनुष्य गया और नहा कर वहाँ से देखता हुआ लौटा।
8) उसके पड़ोसी और वे लोग, जो उसे पहले भीख माँगते देखा करते थे, बोले, ‘‘क्या यह वही नहीं है, जो बैठे हुए भीख माँगा करता था?''
9) कुछ लोगों ने कहा, ‘‘हाँ, यह वही है''। कुछ ने कहा, ‘‘नहीं, यह उस-जैसा कोई और होगा''। उसने कहा, मैं वही हूँ''।
10) इस पर लोगों ने उस से पूछा, ‘‘तो, तुम कैसे देखने लगे?''
11) उसने उत्तर दिया, ‘‘जो मनुष्य ईसा कहलाते हैं, उन्होंने मिट्टी सानी और उसे मेरी आँखों पर लगा कर कहा- सिलोआम जाओ और नहा लो। मैं गया और नहाने के बाद देखने लगा।''
12) उन्होंने उस से पूछा, ‘‘वह कहाँ है?'' और उसने उत्तर दिया, ‘‘मैं नहीं जानता''।
13) लोग उस मनुष्य को, जो पहले अन्धा था, फरीसियों के पास ले गये।
14) जिस दिन ईसा ने मिट्टी सान कर उसकी आँखें अच्छी की थीं, वह विश्राम का दिन था।
15) फिरीसियों ने भी उस से पूछा कि वह कैसे देखने लगा। उसने उन से कहा, ‘‘उन्होंने मेरी आँखों पर मिट्टी लगा दी, मैंने नहाया और अब मैं देखता हूँ''।
16) इस पर कुछ फरीसियों ने कहा, ‘‘वह मनुष्य ईश्वर के यहाँ से नहीं आया है; क्योंकि वह विश्राम-दिवस के नियम का पालन नहीं करता''। कुछ लोगों ने कहा, ‘‘पापी मनुष्य ऐसे चमत्कार कैसे दिखा सकता है?'' इस तरह उन में मतभेद हो गया।
17) उन्होंने फिर अन्धे से पूछा, ‘‘जिस मनुष्य ने तुम्हारी आँखें अच्छी की हैं, उसके विषय में तुम क्या कहते हो?'' उसने उत्तर दिया, ‘‘वह नबी है''।
18) यहूदियों को विश्वास नहीं हो रहा था कि वह अन्धा था और अब देखने लगा है। इसलिए उन्होंने उसके माता-पिता को बुला भेजा
19) और पूछा, ‘‘क्या यह तुम्हारा बेटा है, जिसके विषय में तुम यह कहते हो कि यह जन्म से अन्धा था? तो अब यह कैसे देखता है?''
20) उसके माता-पिता ने उत्तर दिया, ‘‘हम जानते हैं कि यह हमारा बेटा है और यह जन्म से अन्धा था;
21) किन्तु अब यह कैसे देखता है- हम यह नहीं जानते। हम यह भी नहीं जानते कि किसने इसकी आँखें अच्छी की हैं। यह सयाना है, इसी से पूछ लीजिए। यह अपनी बात आप ही बोलगा।''
22) उसके माता-पिता ने यह इसलिए कहा कि वे यहूदियों से डरते थे। यहूदी यह निर्णय कर चूके थे कि यदि कोई ईसा को मसीह मानेगा, तो वह सभागृह से बहिष्कृत कर दिया जायेगा।
23) इसलिए उसके माता-पिता ने कहा-’‘यह सयाना है, इसी से पूछ लीजिए'।
24) उन्होंने उस मनुष्य को, जो पहले अन्धा था, फिर बुला भेजा और उसे शपथ दिला कर कहा, ‘‘हम जानते हैं कि वह मनुष्य पापी है''।
25) उसने उत्तर दिया, ‘‘वह पापी है या नहीं, इसके बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता। मैं यही जानता हूँ कि मैं अन्धा था और अब देखता हूँ।''
26) इस पर उन्होंने उस से फिर पूछा, ‘‘उसने तुम्हारे साथ क्या किया? उसने तुम्हारी आँखे कैसे अच्छी कीं?
27) उसने उत्तर दिया, ‘‘मैं आप लोगों को बता चुका हूँ, लेकिन आपने उस पर ध्यान नहीं दिया। अब फिर क्यों सुनना चाहते हैं? क्या आप लोग भी उनके शिष्य बनना चाहते हैं?''
28) वे उसे बुरा-भला कहते हुए बोले, ‘‘तू ही उसका शिष्य बन जा। हम तो मूसा के शिष्य हैं।
29) हम जानते हैं कि ईश्वर ने मूसा से बात की है, किन्तु उस मनुष्य के विषय में हम नहीं जानते कि वह कहाँ का है।''
30) उसने उन्हें उत्तर दिया, ‘‘यही तो आश्चर्य की बात है। उन्होंने मुझे आँखे दी हैं और आप लोग यह भी नहीं जानते कि वह कहाँ के हैं।
31) हम जानते हैं कि ईश्वर पापियों की नहीं सुनता। वह उन लोगों की सुनता है, जो भक्त हैं और उसकी इच्छा पूरी करते हैं।
32) यह कभी सुनने में नही आया कि किसी ने जन्मान्ध को आँखें दी हैं।
33) यदि वह मनुष्य ईश्वर के यहाँ से नहीं आया होता, तो वह कुछ भी नहीं कर सकता।''
34) उन्होंने उस से कहा, ‘‘तू तो बिलकुल पाप में ही जन्मा है। तू हमें सिखाने चला है?'' और उन्होंने उसे बाहर निकाल दिया।
35) ईसा ने सुना कि फरीसियों ने उसे बाहर निकाल दिया है; इसलिए मिलने पर उन्होंने उस से कहा, ‘‘क्या तुम मानव पूत्र में विश्वास करते हो?''
36) उसने उत्तर दिया, ‘‘महोदय! मुझे बता दीजिए कि वह कौन है, जिससे मैं उस में विश्वास कर सकूँ।
37) ईसा ने उस से कहा, ‘‘तुमने उसे देखा है। वह तो तुम से बातें कर रहा है।''
38) उसने उन्हें दण्डवत् करते हुए कहा ‘‘प्र्रभु! मैं विश्वास करता हूँ''।
39) ईसा ने कहा, ‘‘मैं लोगों के प्रथक्करण का निमित्त बन कर संसार में आया हूँ, जिससे जो अन्धे हैं, वे देखने लगें और जो देखते हैं, वे अन्धे हो जायें''।
40) जो फरीसी उनके साथ थे, वे यह सुन कर बोले, ‘‘क्या हम भी अन्धे हैं?''
41) ईसा ने उन से कहा, ‘‘यदि तुम लोग अन्धे होते, तो तुम्हें पाप नहीं लगता, परन्तु तुम तो कहते हो कि हम देखते हैं; इसलिए तुम्हारा पाप बना रहता है।

अध्याय 10

1) ’‘मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- जो फाटक से भेड़शाला में प्रवेश नहीं करता, बल्कि दूसरे रास्ते से चढ़ कर आता है, वह चोर और डाकू है।
2) जो फाटक से प्रवेश करता है, वही भेड़ों का गड़ेरिया है
3) और उसके लिए दरवान फाटक खोल देता है। भेड़ें उसकी आवाज पहचानती हैं। वह नाम ले-ले कर अपनी भेड़ों को बुलाता और बाहर ले जाता है।
4) अपनी भेड़ों को बाहर निकाल लेने के बाद वह उनके आगे-आगे चलता है और वे उसके पीछे-पीछे आती हैं, क्योंकि वे उसकी आवाज पहचानती हैं।
5) वे अपरिचित के पीछे-पीछे नहीं चलेंगी, बल्कि उस से भाग जायेंगी; क्योंकि वे अपरिचितों की आवाज नहीं पहचानतीं।''
6) ईसा ने उन्हें यह दृष्टान्त सुनाया, किन्तु वे नहीं समझे कि वे उन से क्या कह रहे हैं।
7) ईसा ने फिर उन से कहा, ‘‘मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- भेड़शाला का द्वार मैं हूँ।
8) जो मुझ से पहले आये, वे सब चोर और डाकू हैं; किन्तु भेड़ों ने उनकी नहीं सुनी।
9) मैं ही द्वार हूँ। यदि कोई मुझ से हो कर प्रवेश करेगा, तो उसे मुक्ति प्राप्त होगी। वह भीतर-बाहर आया-जाया करेगा और उसे चरागाह मिलेगा।
10) ’‘चोर केवल चुराने, मारने और नष्ट करने आता है। मैं इसलिए आया हूँ कि वे जीवन प्राप्त करें- बल्कि परिपूर्ण जीवन प्राप्त करें।
11) ’‘भला गड़ेरिया मैं हूँ। भला गड़ेरिया अपनी भेड़ों के लिए अपने प्राण दे देता है।
12) मजदूर, जो न गड़ेरिया है और न भेड़ों का मालिक, भेड़िये को आते देख भेड़ों को छोड़ कर भाग जाता है और भेड़िया उन्हें लूट ले जाता है और तितर-बितर कर देता है।
13) मजदूर भाग जाता है, क्योंकि वह तो मजदूर है और उसे भेड़ों की कोई चिन्ता नहीं।
14) ’‘भला गडेरिया मैं हूँ। जिस तरह पिता मुझे जानता है और मैं पिता को जानता हूँ, उसी तरह मैं अपनी भेड़ों को जानता हूँ और मेरी भेड़ें मुझे जानती हैं।
15) मैं भेड़ों के लिए अपना जीवन अर्पित करता हूँ।
16) मैरी और भी भेड़ें हैं, जो इस भेड़शाला की नहीं हैं। मुझे उन्हें भी ले आना है। वे भी मेरी आवाज सुनेंगी। तब एक ही झुण्ड होगा और एक ही गड़ेरिया।
17) पिता मुझे इसलिए प्यार करता है कि मैं अपना जीवन अर्पित करता हूँ; बाद में मैं उसे फिर ग्रहण करूँगा।
18) कोई मुझ से मेरा जीवन नहीं हर सकता; मैं स्वयं उसे अर्पित करता हूँ। मुझे अपना जीवन अर्पित करने और उसे फिर ग्रहण करने का अधिकार है। मुझे अपने पिता की ओर से यह आदेश मिला है।''
19) ईसा के इन बचनों के कारण यहूदियों में फिर मतभेद हो गया।
20) बहुत-से लोग कहते थे, ‘‘उसे अपदूत लगा है, वह प्रलाप करता है। तुम उसकी क्यों सुनते हो?''
21) कुछ लोग कहते थे, ‘‘ये वचन अपदूतग्रस्त के नहीं हैं। क्या अपदूत अन्धों को आँखें दे सकता है?''
22) उन दिनों येरुसालेम में प्रतिष्ठान पर्व मनाया जा रहा था। जाडे का समय था।
23) ईसा मंदिर में सुलेमान के मण्डप में टहल रहे थे।
24) यहूदियों ने उन्हें घेर लिया और कहा आप हमें कब तक असमंजस में रखे रहेंगे? यदि आप मसीह हैं, तो हमें स्पष्ट शब्दों में बता दीजिये।
25) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, मैंने तुम लोगों को बताया और तुम विश्वास नहीं करते। जो कार्य मैं अपने पिता के नाम पर करता हूँ, वे ही मेरे विषय में साक्ष्य देते हैं।
26) किंतु तुम विश्वास नहीं करते, क्योंकि तुम मेरी भेडें नहीं हो।
27) मेरी भेडें मेरी आवाज पहचानती है। मै उन्हें जानता हँँ और वे मेरा अनुसरण करती हैं।
28) मै उन्हें अनंत जीवन प्रदान करता हूँँ। उनका कभी सर्वनाश नहीं होगा और उन्हें मुझ से कोई नहीं छीन सकेगा।
29) उन्हें मेरे पिता ने मुझे दिया है वह सब से महान है। उन्हें पिता से कोई नहीं छीन सकता।
30) मैं और पिता एक हैं।
31) यहँदियों ने ईसा को मार डालने के लिये फिर पत्थर उठाये।
32) ईसा ने उन से कहा, मैनें अपने पिता के सामर्थ्य से तुम लोगों के सामने बहुत से अच्छे कार्य किये हैं। उन में किस कार्य के लिये मुझे पत्थरों से मार डालना चाहते हो?
33) यहूदियों ने उत्तर दिया, किसी अच्छे कार्य के लिये नहीं, बल्कि ईश-निन्दा के लिये हम तुम को पत्थरों से मार डालना चाहते हैं क्योंकि तुम मनुष्य होकर अपने को ईश्वर मानते हो।
34) ईसा ने कहा, ''क्या तुम लोगो की संहिता में यह नहीं लिखा है, मैने कहा तुम देवता हो?
35) जिन को ईश्वर का संदेश दिया गया था, यदि संहिता ने उन को देवता कहा- और धर्मग्रंथ की बात टल नहीं सकती-
36) तो जिसे पिता ने अधिकार प्रदान कर संसार में भेजा है, उस से तुम लोग यह कैसे कहते हो- तुम ईश-निन्दा करते हो; क्योंकि मैने कहा, मैं ईश्वर का पुत्र हूँँँ?
37) यदि मैं अपने पिता के कार्य नहीं करता, तो मुझ पर विष्वास न करो।
38) किन्तु यदि मैं उन्हें करता हूँँ, तो मुझ पर विष्वास नहीं करने पर भी तुम कार्यों पर ही विष्वास करो, जिससे तुम यह जान जाओ और समझ लो कि पिता मुझ में है और मैं पिता में हँूँ।''
39) इस पर उन्होंने फिर ईसा को गिरफ्तार करने का प्रयत्न किया, परन्तु वे उनके हाथ से निकल गये।
40) ईसा यर्दन के पार उस जगह लौट गये, जहाँ पहले योहन बपतिस्मा दिया करता था, और वहीं रहने लगे।
41) बहुत-से लोग उनके पास आये। वे कहते थे, योहन ने तो कोई चमत्कार नहीं दिखाया, परंतु उसने इनके विषय में जो कुछ कहा, वह सब सच निकला।
42) और वहॉ बहुत से लोगों ने उन में विश्वास किया।

अध्याय 11

1) बेथानिया का निवासी लाजरुस नामक व्यक्ति बीमार पड गया।
2) वेथानिया मरियम और उसकी बहन मरथा का गाँव था। यह वही मरियम थी, जिसने इत्र से प्रभु का विलेपन किया और अपने केशों से उनके चरण पोंछे। उसका भाई लाजरुस बीमार था।
3) इसलिये बहनों ने ईसा को कहला भेजा, प्रभु! देखिये, जिसे आप प्यार करते हैं, वह बीमार है।
4) ईसा ने यह सुनकर कहा, ''यह बीमारी मृत्यु के लिये नहीं, बल्कि ईश्वर की महिमा के लिये आयी है। इसके द्वारा ईश्वर का पुत्र महिमान्वित होगा।''
5) ईसा मरथा, उसकी बहन मरियम और लाजरुस को प्यार करते थे।
6) यह सुनकर कि लाजरुस बीमार है, वे जहाँ थे, वहाँ और दो दिन रह गये।
7) किन्तु इसके बाद उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, ''आओ! हम फिर यहूदिया चलें''।
8) शिष्य बोले, ''गुरुवर! कुछ ही दिन पहले तो यहूदी लोग आप को पत्थरों से मार डालना चाहते थे और आप फिर वहीं जा रहे हैं।''
9) ईसा ने उत्तर दिया, क्या दिन के बारह घण्टें नहीं होते? जो दिन में चलता है, वह ठोकर नहीं खाता, क्योंकि वह इस दुनिया का प्रकाश देखता है।
10) परन्तु जो रात में चलता है, वह ठोकर खाता है, क्योंकि उसे प्रकाश नहीं मिलता।''
11) इतना कहने के बाद वे फिर उन से बोले, ''हमारा मित्र लाजरुस सो रहा है। मैं उसे जगाने जा रहा हूँ।''
12) शिष्यों ने कहा, ''प्रभु! यदि वह सो रहा है तो अच्छा हो जायेगा।''
13) ईसा ने यह उसकी मृत्यु के विषय में कहा था, लेकिन उनके शिष्यों ने समझा कि वह नींद के विश्राम के विषय में कह रहे हैं।
14) इसलिये ईसा ने उन से स्पष्ट शब्दों में कहा, ''लाजरुस मर गया है।
15) मैं तुम्हारे कारण प्रसन्न हूँ कि मैं वहाँ नहीं था, जिससे तुम लोग विश्वास कर सको। आओ, हम उसके पास चलें।''
16) इस पर थोमस ने, जो यमल कहलाता था, अपने सहशिष्यों से कहा, ''हम भी चलें और इनके साथ मर जायें।''
17) वहाँ पहुँचने पर ईसा को पता चला कि लाजरुस चार दिनों से कब्र में है।
18) बेथानिया येरुसालेम से दो मील से भी कम दूर था,
19) इसलिये भाई की मृत्यु पर संवेदना प्रकट करने के लिये बहुत से यहूदी मरथा और मरियम से मिलने आये थे।
20) ज्यों ही मरथा ने यह सुना कि ईसा आ रहे हैं, वह उन से मिलने गयी। मरियम घर में ही बैठी रहीं।
21) मरथा ने ईसा से कहा, ''प्रभु! यदि आप यहाँ होते, तो मेरा भाई नही मरता
22) और मैं जानती हँू कि आप अब भी ईश्वर से जो माँगेंगे, ईश्वर आप को वही प्रदान करेगा।''
23) ईसा ने उसी से कहा ''तुम्हारा भाई जी उठेगा''।
24) मरथा ने उत्तर दिया, ''मैं जानती हूँ कि वह अंतिम दिन के पुनरुथान के समय जी उठेगा''।
25) ईसा ने कहा, ''पुनरुथान और जीवन में हँू। जो मुझ में विश्वास करता है वह मरने पर भी जीवित रहेगा
26) और जो मुझ में विश्वास करते हुये जीता है वह कभी नहीं मरेगा। क्या तुम इस बात पर विश्वास करती हो?''
27) उसने उत्तर दिया, ''हाँ प्रभु! मैं दृढ़ विश्वास करती हँू कि आप वह मसीह, ईश्वर के पुत्र हैं, जो संसार में आने वाले थे।''
28) वह यह कह कर चली गयी और अपनी बहन मरियम को बुला कर उसने चुपके से उस से कहा, ''गुरुवर आ गये हैं, तुम को बुलाते हैं।''
29) यह सुनते ही वह उठ खडी हुई और ईसा से मिलने गयी।
30) ईसा अब तक गाँव नहीं पहूँचें थे। वह उसी स्थान पर थे, जहाँ मरथा उन से मिली थी।
31) जो यहूदी लोग संवेदना प्रकट करने के लिये मरियम के साथ घर में थे, वे यह देख कर कि वह अचानक उठकर बाहर चली गयी उसके पीछे हो लिये क्योंकि वे समझते थे कि वह कब्र पर रोने जा रही है।
32) मरियम उस जगह पहूँची, जहाँ ईसा थे। उन्हें देखते ही वह उनके चरणों पर गिर पडी और बोली, ''प्रभु! यदि आप यहाँ होते, तो मेरा भाई नहीं मरता।''
33) ईसा उसे और उसके साथ आये हुये यहूदियों को रोते देखकर, बहुत व्याकुल हो उठे और आह भर कर
34) बोले तुम लोगों ने उसे कहाँ रखा हैं? उन्होनें कहा, ''प्रभु! आइये और देखिये।''
35) ईसा रो पडे।
36) इस पर यहूदियों ने कहा, ''देखो! वे उसे कितना प्यार करते थे'';
37) किन्तु कुछ लोगो ने कहा, ''इन्होंने तो अन्धे को आंॅखें दी। क्या वे उस को मृत्यु से नही बचा सकते थे।''
38) कब्र के पास पहुँचने पर ईसा फिर बहुत व्याकुल हो उठे। वह कब्र एक गुफा थी जिसके मुँह पर एक बडा पत्थर रखा हुआ था।
39) ईसा ने कहा, पत्थर हटा दो। मृतक की बहन मरथा ने उन से कहा, ''प्रभु! अब तो दुर्गन्ध आती होगी। आज चौथा दिन है।''
40) ईसा ने उसे उत्तर दिया, ''क्या मैंने तुम से यह नहीं कहा कि यदि तुम विश्वास करोगी तो ईश्वर की महिमा देखोगी?''
41) इस पर लोगों ने पत्थर हटा दिया। ईसा ने आँखें उपर उठाकर कहा, ''पिता! मैं तुझे धन्यवाद देता हूँ; तूने मेरी सुन ली है।
42) मैं जानता था कि तू सदा मेरी सुनता है। मैंने आसपास खडे लोगो के कारण ही ऐसा कहा, जिससे वे विश्वास करें कि तूने मुझे भेजा है।''
43) इतना कहने के बाद ईसा ने ऊँचें स्वर से पुकारा, ''लाजरुस! बाहर निकल आओ!''
44) मृतक बाहर निकला। उसके हाथ और पैर पटिटयों से बँधे हुये थे और उसके मुख पर अँगोछा लपेटा हुआ था। ईसा ने लोगो से कहा, इसके बन्धन खोल दो और चलने-फिरने दो।
45) जो यहूदी मरियम से मिलने आये थे और जिन्होंने ईसा का यह चमत्कार देखा, उन में से बहुतों ने उन में विश्वास किया।
46) पंरतु उन में से कुछ लोगों ने फरीसियों के पास जाकर बताया कि ईसा ने क्या किया था।
47) तब महायाजकों और फरीसियों ने महासभा बुलाकर कहा ''हम क्या करें? वह मनुष्य बहुत से चमत्कार दिखा रहा है।
48) यदि हम उसे ऐसा करते रहने देंगे, तो सभी उस में विश्वास करेंगे ओर रोमन लोग आकर हमारा मन्दिर और हमारा राष्ट्र नष्ट कर देंगे।''
49) उन में से एक ने जिसका नाम केफस था और जो उस वर्ष प्रधान याजक था उन से कहा, ''आप लोगो की बुद्वि कहाँ हैं?
50) आप यह नही समझते कि हमारा कल्याण इस में है कि जनता के लिये एक ही मनुष्य मरे और समस्त राष्ट्र का सर्वनाश न हो।
51) उसने यह बात अपनी ओर से नहीं कही। उसने उस वर्ष के प्रधानयाजक के रूप में भविष्यवाणी की कि ईसा राष्ट्र के लिये मरेंगे
52) और न केवल राष्ट्र के लिये बल्कि इसलिये भी कि वे ईश्वर की बिखरी हुई संतान को एकत्र कर लें।
53) उसी दिन उन्होनें ईसा को मार डालने का निश्चय किया।
54) इसलिये ईसा ने उस समय से यहूदियों के बीच प्रकट रूप से आना-जाना बन्द कर दिया। वे निर्जन प्रदेश के निकटवर्ती प्रांत के एफ्राइम नामक नगर गये और वहाँ अपने शिष्यों के साथ रहने लगे।
55) यहूदियों का पास्का पर्व निकट था। बहुत से लोग पास्का से पहले शुद्वीकरण के लिये देहात से येरुसालेम आये।
56) वे ईसा को ढूढ़ते थे और मन्दिर में आपस में कहते थे ''आपका क्या विचार है? क्या वह पर्व के लिये नहीं आ रहे हैं?''
57) महायाजकों और फरीसियों ने ईसा को गिरफतार करने के उद्देश्य से यह आदेश दिया था कि यदि किसी व्यक्ति को ईसा का ठिकाना मालूम हो जाये तो वह इसकी सूचना दे।

अध्याय 12

1) पास्का के छः दिन पहले ईसा वेथानिया आये। वहाँ लाजरुस रहता था, जिसे उन्होंने मृतकों में से पुनर्जीवित किया था।
2) लोगों ने वहाँ ईसा के सम्मान में एक भोज का आयोजन किया। मरथा परोसती थी और ईसा के साथ भोजन करने वालों में लाजरुस भी था।
3) मरियम ने आधा सेर असली जटामांसी का बहुमूल्य इत्र ले कर ईसा के चरणों का विलेपन किया और अपने केशों से उनके चरण पोछे। इत्र की सुगन्ध से सारा घर महक उठा।
4) इस पर ईसा का एक शिष्य यूदस इसकारियोती जो उनके साथ विश्वासघात करने वाला था, यह बोला,
5) ''तीन सौ दीनार में बेचकर इस इत्र की कीमत गरीबों में क्यों नही बाँटी गयी?''
6) उसने यह इसलिये नहीं कहा कि उसे गरीबों की चिंता थी, बल्कि इसलिये कि वह चोर था। उसके पास थैली रहती थी और उस में जो डाला जाता था, वह उसे निकाल लेता था।
7) ईसा ने कहा, ''इसे छोड दो। इसने मेरे दफ़न के दिन की तैयारी में यह काम किया।
8) गरीब तो बराबर तुम्हारे साथ रहेंगे, किन्तु मैं हमेशा तुम्हारे साथ नहीं रहूँगा।
9) बहुत-से यहूदियों को पता चला कि ईसा वहाँ हैं। वे ईसा के कारण ही नहीं बल्कि उस लाजरुस को भी देखने आये, जिसे ईसा ने मृतकों में से पुनर्जीवित किया था।
10) इसलिये महायाजकों ने लाजरुस को भी मार डालने का निश्चय किया,
11) क्योंकि उसी के कारण बहुत-से लोग उन से अलग हो रहे थे और ईसा में विश्वास करते थे।
12) दूसरे दिन पर्व के लिये आये हुये विशाल जनसमूह को पता चला कि ईसा येरुसालेम आ रहे हैं।
13) इसलिये वे लोग खजूर की डालियाँ लिये उनकी अगवानी करने निकले और यह नारा लगाते रहे- होसन्ना! धन्य हैं वह जो प्रभु के नाम पर आते हैं! धन्य हैं, इस्राएल के राजा!
14) ईसा को गदही का बछेडा मिला और वह उस पर सवार हो गये जैसा कि धर्मग्रंथ में लिखा है -
15) सिओन की पुत्री! नहीं डरना! तेरे राजा, गदही के बछेडे पर सवार होकर, तेरे पास आ रहे हैं।
16) ईसा के शिष्य पहले यह नहीं समझते थे, परन्तु ईसा के महिमान्वित हो जाने के बाद उन्हें याद आया कि यह उनके विषय में लिखा हुआ था और लोगों ने उनके साथ ऐसा ही किया था।
17) जब ईसा ने लाजरुस को कब्र से बाहर बुलाकर मृतकों में से जिलाया था, उस समय जो लोग उनके साथ थे वे उस घटना को चर्चा करते रहे थे।
18) इसलिये बहुत-से लोग ईसा की अगवानी करने निकले थे। उन्होंने सुना था कि ईसा ने यह चमत्कार दिखाया था।
19) यह सब देखकर फ़रीसियों ने एक दूसरे से कहा, ''तुम्हारी तो एक भी नहीं चलती। देखो, सारी दुनिया उसी के पीछे चल पडी है।''
20) जो लोग पर्व के अवसर पर आराधना करने आये थे, उन में कुछ यूनानी थे।
21) उन्होने फ़िलिप के पास आ कर यह निवेदन किया महाशय! हम ईसा से मिलना चाहते हैं। फ़िलिप गलीलिया के बेथसाइदा का निवासी था।
22) उसने जाकर अन्द्रेयस को यह बताया और अन्द्रेयस ने फ़िलिप को साथ ले जा कर ईसा को इसकी सूचना दी।
23) ईसा ने उन से कहा, ''वह समय आ गया है, जब मानव पुत्र महिमान्वित किया जायेगा।''
24) मैं तुम लोगो से यह कहता हँू- जब तक गेंहँू का दाना मिटटी में गिर कर नहीं मर जाता, तब तक वह अकेला ही रहता है; परंतु यदि वह मर जाता है, तो बहुत फल देता है।
25) जो अपने जीवन को प्यार करता है, वह उसका सर्वनाश करता है और जो इस संसार में अपने जीवन से बैर करता है, वह उसे अनंत जीवन के लिये सुरक्षित रखता है।
26) यदि कोई मेरी सेवा करना चाहता है तो वह मेरा अनुसरण करे। जहाँ मैं हूँ वहीं मेरा सेवक भी होगा। जो मेरी सेवा करेगा, मेरा पिता उस को सम्मान प्रदान करेगा।
27) ''अब मेरी आत्मा व्याकुल है। क्या मैं यह कहँू - 'पिता ! इस घडी के संकट से मुझे बचा'? किन्तु इसलिये तो मैं इस घडी तक आया हँू।
28) पिता! अपनी महिमा प्रकट कर। उसी समय यह स्वर्गवाणी सुनाई पडी, ''मैने उसे प्रकट किया है और उसे फिर प्रकट करूँगा।'' आसपास खडे लोग यह सुनकर बोले, ''बादल गरजा''।
29) कुछ लोगो ने कहा, ''एक स्वर्गदूत ने उन से कुछ कहा''।
30) ईसा ने उत्तर दिया, ''यह वाणी मेरे लिये नहीं बल्कि तुम लोगो के लिये आयी।
31) अब इस संसार का न्याय हो रहा है। अब इस संसार का नायक निकाल दिया जायेगा।
32) और मैं, जब पृथ्वी के ऊँपर उठाया जाऊँगा तो सब मनुष्यों को अपनी ओर आकर्षित करूँगा।
33) इन शब्दों के द्वारा उन्होने संकेत किया कि उनकी मृत्यु किस प्रकार की होगी।
34) लोगो ने उन्हें उत्तर दिया, ''संहिता हमें यह शिक्षा देती है कि मसीह सदा रहेगें। फिर आप यह क्या कहते हैं कि मानव पुत्र को ऊँपर उठाया जाना है? वह मानव पुत्र कौन है?
35) इस पर ईसा ने उन से कहा, ''अब थोडे ही समय तक ज्योति तुम्हारे बीच रहेगी। जब तक ज्याति तुम्हारे पास है, आगे बढते रहो। कहीं ऐसा न हो कि अन्धकार तुम को घेर ले। जो अन्धकार में चलता है वह नहीं जानता कि वह कहाँ जा रहा है।
36) जब तक ज्योति तुम्हारे पास है, ज्योति में विश्वास करो, जिससे तुम ज्योति की संतति बन जाओ।'' ईसा यह कहकर चले गये और उनकी आँखों से ओझल हो गये।
37) यद्यपि ईसा ने उनके सामने इतने चमत्कार दिखाये थे, किन्तु उन्होंने उन में विश्वास नहीं किया।
38) यह अनिवार्य था कि नबी इसायस का यह कथन पूरा हो जाये - प्रभु! किसने हमारे संदेश पर विश्वास किया है? किस पर प्रभु का सामर्थ्य प्रकट हुआ है?
39) वे विश्वास नहीं कर सके, क्योंकि इसायस का एक दूसरा कथन इस प्रकार है -
40) उसने उनकी आँखों को अन्धा कर दिया और उनकी बुद्वि कुण्ठित कर दी है। कहीं ऐसा न हो कि वे आँखों से देखें, बुद्वि से समझ लें, मेरी ओर लौट आयें और मैं उन्हें भला चंगा कर दूँ।
41) इसायस ने यह इसलिये कहा कि उसने उनकी महिमा देखी थी। उसने उनके विषय में भविष्यवाणी की।
42) फिर भी नेताओं में बहुतों ने उन में विश्वास किया। परन्तु वे फ़रीसियों के कारण ईसा को प्रकट रूप से इसलिये स्वीकार नहीं करते थे कि कहीं सभागृह से उनका बहिष्कार न कर दिया जाये।
43) उन्हें ईश्वर के सम्मान की अपेक्षा मनुष्य का सम्मान अधिक प्रिय था।
44) ईसा ने पुकार कर कहा जो मुझ में विश्वास करता है, वह मुझ में नहीं बल्कि जिसने मुझे भेजा, उसमें विश्वास करता है
45) और जो मुझे देखता है, वह उस को देखता है जिसने मुझे भेजा।
46) मैं ज्योति बन कर संसार में आया हूँ, जिससे जो मुझ में विश्वास करता हैं वह अन्धकार में नहीं रहे।
47) यदि कोई मेरी शिक्षा सुनकर उस पर नहीं चलता, तो मैं उसे दोषी नही ठहराता हूँ क्योंकि मैं संसार को दोषी ठहराने नहीं, संसार का उद्वार करने आया हूँ।
48) जो मेरा तिरस्कार करता और मेरी शिक्षा ग्रहण करने से इंकार करता है, वह अवश्य ही दोषी ठहराया जायेगा। जो शिक्षा मैंने दी है, वही उसे अंतिम दिन दोषी ठहरा देगी।
49) मैनें अपनी ओर से कुछ नहीं कहा। पिता ने जिसने मुझे भेजा, आदेश दिया है कि मुझे क्या कहना और कैसे बोलना है।
50) मैं जानता हूँ कि उसका आदेश अनंत जीवन है। इसलिये मैं जो कुछ कहता हँू, उसे वैसे ही कहता हँू जैसे पिता ने मुझ से कहा है।

अध्याय 13

1) पास्का पर्व का पूर्व दिन था। ईसा जानते थे कि मेरी घडी आ गयी है और मुझे यह संसार छोडकर पिता के पास जाना है। वे अपनों को, जो इस संसार में थे, प्यार करते आये थे और अब अपने प्रेम का सब से बडा प्रमाण देने वाले थे।
2) शैतान व्यारी के समय तक सिमोन इसकारियोती के पुत्र यूदस के मन में ईसा को पकडवाने का विचार उत्पन्न कर चुका था।
3) ईसा जानते थे कि पिता ने मेरे हाथों में सब कुछ दे दिया है, मैं ईश्वर के यहाँ से आया हँू और ईश्वर के पास जा रहा हँू।
4) उन्होनें भोजन पर से उठकर अपने कपडे उतारे और कमर में अंगोछा बाँध लिया।
5) तब वे परात में पानी भरकर अपने शिष्यों के पैर धोने और कमर में बँधें अँगोछे से उन्हें पोछने लगे।
6) जब वे सिमोन पेत्रुस के पास पहुचे तो पेत्रुस ने उन से कहा, ''प्रभु! आप मेंरे पैर धोते हैं?''
7) ईसा ने उत्तर दिया, ''तुम अभी नहीं समझते कि मैं क्या कर रहा हँू। बाद में समझोगे।''
8) पेत्रुस ने कहा, ''मैं आप को अपने पैर कभी नहीं धोने दूूँगा''। ईसा ने उस से कहा, ''यदि मैं तुम्हारे पैर नहीं धोऊँगा, तो तुम्हारा मेरे साथ कोई सम्बन्ध नहीं रह जायेगा।
9) इस पर सिमोन पेत्रुस ने उन से कहा, ''प्रभु! तो मेरे पैर ही नहीं, मेरे हाथ और सिर भी धोइए''।
10) ईसा ने उत्तर दिया, ''जो स्नान कर चुका है, उसे पैर के सिवा और कुछ धोने की जरूरत नहीं। वह पूर्ण रूप से शुद्व है। तुम लोग शुद्ध हो, किन्तु सब के सब नहीं।''
11) वे जानते थे कि कौन मेरे साथ विश्वास घात करेगा। इसलिये उन्होने कहा- तुम सब के सब शुद्ध नहीं हो।
12) उनके पैर धोने के बाद वे अपने कपडे पहनकर फिर बैठ गये और उन से बोले, ''क्या तुम लोग समझते हो कि मैंने तुम्हारे साथ क्या किया है?
13) तुम मुझे गुरु और प्रभु कहते हो और ठीक ही कहते हो, क्योंकि मैं वही हँू।
14) इसलिये यदि मैं- तुम्हारे प्रभु और गुरु- ने तुम्हारे पैर धोये है तो तुम्हें भी एक दूसरे के पैर धोने चाहिये।
15) मैंने तुम्हें उदाहरण दिया है, जिससे जैसा मैंने तुम्हारे साथ किया वैसा ही तुम भी किया करो।
16) मैं तुम से यह कहता हूँ- सेवक अपने स्वामी से बड़ा नहीं होता और न भेजा हुआ उस से, जिसने उसे भेजा।
17) यदि तुम ये बातें समझकर उनके अनुसार आचरण करोगे, तो धन्य होंगे।
18) मैं तुम सबों के विषय में यह नहीं कह रहा हँू। मैं जानता हँू कि मैंने किन-किन लोगों को चुना है; परन्तु यह इसलिये हुआ कि धर्मग्रंथ का यह कथन पूरा हो जाये : जो मेरी रोटी खाता है, उसने मुझे लंगी मारी हैं।
19) अब मैं तुम्हें पहले ही यह बताता हँू जिससे ऐसा हो जाने पर तुम विश्वास करो कि मैं वही हँू।
20) मैं तुम से यह कहता हँू- जो मेरे भेजे हुये का स्वागत करता है, वह मेरा स्वागत करता है और जो मेरा स्वागत करता है, वह उसका स्वागत करता है जिसने मुझे भेजा।
21) यह कहते-कहते ईसा का मन व्याकुल हो उठा और उन्होंने कहा, मैं तुम लोगो से यह कहता हँू तुम में से ही एक मुझे पकडवा देगा।
22) शिष्य एक दूसरे को देखते रहे। वे समझ नहीं पा रहे थे कि वे किसके विषय में कह रहे हैं।
23) ईसा का एक शिष्य, जिसे वे प्यार करते थे, उनकी छाती के सामने लेटा हुआ था।
24) सिमोन पेत्रुस ने उस से इशारे से यह कहा, ''पूछो तो, वे किसके विषय में कह रहे हैं?''
25) इसलिये वह ईसा की छाती पर झुककर उन से बोला, ''प्रभु! वह कौन है?''
26) ईसा ने उत्तर दिया, ''मैं जिसे रोटी का टुकडा थाली में डुबो कर दूँगा वही है''। और उन्होंने रोटी डुबो कर सिमोन इसकारियोती के पुत्र यूदस को दी।
27) यूदस ने उसे ले लिया और शैतान उस में घुस गया। तब ईसा ने उस से कहा, ''तुम्हे जो करना है, वह जल्द ही करो''।
28) भोजन करने वालों में कोई नहीं समझ पाया कि ईसा ने उस से यह क्यों कहा।
29) यूदस के पास थैली थी, इसलिये कुछ लोग यह समझते थे कि ईसा ने उस से यह कहा होगा कि हमें पर्व के लिये जो कुछ जो कुछ चाहिए, वह खरीदना या गरीबों को कुछ दान देना।
30) टुकड़ा लेकर यूदस तुरन्त बाहर चला गया। उस समय रात हो चली थी।
31) यूदस के चले जाने के बाद ईसा ने कहा, "अब मानव पुत्र महिमान्वित हुआ और उसके द्वारा ईश्वर की महिमा प्रकट हुई।
32) यदि उसके द्वारा ईष्वर की महिमा प्रकट हुई, तो ईश्वर भी उसे अपने यहाँ महिमान्वित करेगा और वह शीघ्र ही उसे महिमान्वित करेगा।
33) बच्चों! मैं और थोडे ही समय तक तुम्हारे साथ हूँ। तुम मुझे ढूँढोगे और मैंने यहूदियों से जो कहा था, अब तुम से भी वही कहता हूँ - मैं जहाँ जा रहा हूँ, वहाँ तुम नहीं आ सकते।''
34) ''मैं तुम लोगों को एक नयी आज्ञा देता हूँ- तुम एक दूसरे को प्यार करो। जिस प्रकार मैंने तुम लोगों को प्यार किया, उसी प्रकार तुम एक दूसरे को प्यार करो।
35) यदि तुम एक दूसरे को प्यार करोगे, तो उसी से सब लोग जान जायेंगे कि तुम मेरे शिष्य हो।
36) सिमोन पेत्रुस ने उन से कहा, ''प्रभु! आप कहाँ जा रहे हैं''? ईसा ने उसे उत्तर दिया, ''मैं जहाँ जा रहा हूँ, वहाँ तुम इस समय मेरे पीछे नहीं आ सकते। तुम वहाँ बाद में आओगे।
37) पेत्रुस ने उन से कहा, ''प्रभु! मैं इस समय आपके पीछे क्यों नही आ सकता? मैं आपके लिये अपने प्राण दे दूँगा।''
38) ईसा ने उत्तर दिया, ''तुम मेरे लिये अपने प्राण दोगे? मैं तुम से यह कहता हँू मुर्गे के बाँग देने से पहले ही तुम मुझे तीन बार अस्वीकार करोगे।

अध्याय 14

1) तुम्हारा जी घबराये नहीं। ईश्वर में विश्वास करो और मुझ में भी विश्वास करो!
2) मेरे पिता के यहाँ बहुत से निवास स्थान हैं। यदि ऐसा नहीं होता, तो मैं तुम्हें बता देता क्योंकि मैं तुम्हारे लिये स्थान का प्रबंध करने जाता हूँ।
3) मैं वहाँ जाकर तुम्हारे लिये स्थान का प्रबन्ध करने के बाद फिर आऊँगा और तुम्हें अपने यहाँ ले जाउँगा, जिससे जहाँ मैं हूँँ, वहाँ तुम भी रहो।
4) मैं जहाँ जा रहा हँू, तुम वहाँ का मार्ग जानते हो।
5) थोमस ने उन से कहा, ''प्रभु! हम यह भी नहीं जानते कि आप कहाँ जा रहे हैं, तो वहाँ का मार्ग कैसे जान सकते हैं?''
6) ईसा ने उस से कहा, ''मार्ग सत्य और जीवन मैं हूँ। मुझ से हो कर गये बिना कोई पिता के पास नहीं आ सकता।''
7) यदि तुम मुझे पहचानते हो, तो मेरे पिता को भी पहचानोगे। अब तो तुम लोगों ने उसे पहचाना भी है और देखा भी है।''
8) फिलिप ने उन से कहा, ''प्रभु! हमें पिता के दर्शन कराइये। हमारे लिये इतना ही बहुत है।''
9) ईसा ने कहा, ''फिलिप! मैं इतने समय तक तुम लोगों के साथ रहा, फिर भी तुमने मुझे नहीं पहचाना? जिसने मुझे देखा है उसने पिता को भी देखा है। फिर तुम यह क्या कहते हो- हमें पिता के दर्शन कराइये?''
10) क्या तुम विश्वास नहीं करते कि मैं पिता में हूँ और पिता मुझ में हैं? मैं जो शिक्षा देता हँू वह मेरी अपनी शिक्षा नहीं है। मुझ में निवास करने वाला पिता मेरे द्वारा अपने महान कार्य संपन्न करता है।
11) मेरी इस बात पर विश्वास करो कि मैं पिता में हँू और पिता मुझ में हैं, नहीं तो उन महान कार्यों के कारण ही इस बात पर विश्वास करो।
12) मैं तुम लोगो से यह कहता हूँ जो मुझ में सिवश्वास करता है, वह स्वयं वे कार्य करेगा, जिन्हें मैं करता हँू। वह उन से भी महान कार्य करेगा। क्योंकि मैं पिता के पास जा रहा हँू।
13) तुम मेरा नाम ले कर जो कुछ माँगोगे, मैं तुम्हें वही प्रदान करूँगा, जिससे पुत्र के द्वारा पिता की महिमा प्रकट हो।
14) यदि तुम मेरा नाम लेकर मुझ से कुछ भी माँगोगें, तो मैं तुम्हें वही प्रदान करूँगा।
15) यदि तुम मुझे प्यार करोगे तो मेरी आज्ञाओं का पालन करोगे।
16) मैं पिता से प्रार्थना करूँगा और वह तुम्हें एक दूसरा सहायक प्रदान करेगा, जो सदा तुम्हारे साथ रहेगा।
17) वह सत्य का आत्मा है जिसे संसार ग्रहण नहीं कर सकता, क्योंकि वह उसे न तो देखता और न पहचानता है। तुम उसे पहचानते हो, क्योंकि वह तुम्हारे साथ रहता और तुम में निवास करता है।
18) मैं तुम लोगो को अनाथ छोडकर नहीं जाऊँगा, मैं तुम्हारे पास आऊँगा।
19) थोडे ही समय बाद संसार मुझे फिर नहीं देखेगा। तुम मुझे देखोगे क्योंकि मैं जीवित रहूँगा और तुम भी जीवित रहोगे।
20) उस दिन तुम जान जाओगे कि मैं पिता में हँू, तुम मुझ में हो और मैं तुम में।
21) जो मेरी आज्ञायें जानता और उनका पालन करता है, वही मुझे प्यार करता है और जो मुझे प्यार करता है, उसे मेरा पिता प्यार करेगा और उसे मैं भी प्यार करूँगा और उस पर अपने को प्रकट करूँगा।
22) यूदस ने उन से कहा, ''प्रभु! आप हम पर अपने को प्रकट करेगें, संसार पर नहीं- इसका कारण क्या है?
23) ईसा ने उसे उत्तर दिया यदि कोई मुझे प्यार करेगा तो वह मेरी शिक्षा पर चलेगा। मेरा पिता उसे प्यार करेगा और हम उसके पास आकर उस में निवास करेंगे।
24) जो मुझे प्यार नहीं करता, वह मेरी शिक्षा पर नहीं चलता। जो शिक्षा तुम सुनते हो, वह मेरी नहीं बल्कि उस पिता की है, जिसने मुझे भेजा।
25) तुम्हारे साथ रहते समय मैंने तुम लोगों को इतना ही बताया है।
26) परन्तु वह सहायक, वह पवित्र आत्मा, जिसे पिता मेरे नाम पर भेजेगा तुम्हें सब कुछ समझा देगा। मैंने तुम्हें जो कुछ बताया, वह उसका स्मरण दिलायेगा।
27) मैं तुम्हारे लिये शांति छोड जाता हूँ। अपनी शांति तुम्हें प्रदान करता हूँ। वह संसार की शांति-जैसी नहीं है। तुम्हारा जी घबराये नहीं। भीरु मत बनो।
28) तुमने मुझ को यह कहते सुना- मैं जा रहा हूँ और फिर तुम्हारे पास आऊँगा। यदि तुम मुझे प्यार करते, तो आनन्दित होते कि मैं पिता के पास जा रहा हूँ, क्योंकि पिता मुझ से महान है।
29) मैंने पहले ही तुम लोगों को यह बताया, जिससे ऐसा हो जाने पर तुम विश्वास करो।
30) अब मैं तुम लोगों से अधिक बातें नहीं करूँगा क्योंकि इस संसार का नायक आ रहा है। वह मेरा कुछ नहीं बिगाड सकता,
31) किन्तु यह आवश्यक है कि संसार जान जाये कि मैं पिता को प्यार करता हँू और पिता ने मुझे जैसा आदेश दिया है मैं वैसा ही करता हँू। उठो! हम यहाँ से चलें।''

अध्याय 15

1) मैं सच्ची दाखलता हँॅू और मेरा पिता बागवान है।
2) वह उस डाली को, जो मुझ में नहीं फलती, काट देता है और उस डाली को जो फलती है, छाँटता है। जिससे वह और भी अधिक फल उत्पन्न करें।
3) मैंने तुम लोगो को जो शिक्षा दी है, उसके कारण तुम शुद्ध हो गये हो।
4) तुम मुझ में रहो और मैं तुम में रहँूगा। जिस तरह दाखलता में रहे बिना डाली स्वयं नहीं फल सकती, उसी तरह मुझ में रहे बिना तुम भी नहीं फल सकते।
5) मैं दाखलता हँू और तुम डालियाँ हो। जो मुझ में रहता है और मैं जिसमें रहता हँू वही फलता है क्योंकि मुझ से अलग रहकर तुम कुछ भी नहीे कर सकते।
6) यदि कोई मुझ में नहीं रहता तो वह सूखी डाली की तरह फेंक दिया जाता है। लोग ऐसी डालियाँ बटोर लेते हैं और आग में झोंक कर जला देते हैं।
7) यदि तुम मुझ में रहो और तुम में मेरी शिक्षा बनी रहती है तो चाहे जो माँगो, वह तुम्हें दिया जायेगा।
8) मेरे पिता की महिमा इस से प्रकट होगी कि तुम लोग बहुत फल उत्पन्न करो और मेरे शिष्य बने रहो।
9) जिस प्रकार पिता ने मुझ को प्यार किया है, उसी प्रकार मैंने भी तुम लोगों को प्यार किया है। तुम मेरे प्रेम से दृढ बने रहो।
10) यदि तुम मेरी आज्ञओं का पालन करोगे तो मेरे प्रेम में दृढ बने रहोगे। मैंने भी अपने पिता की आज्ञाओं का पालन किया है और उसके प्रेम में दृढ बना रहता हँू।
11) मैंने तुम लोगों से यह इसलिये कहा है कि तुम मेरे आनंद के भागी बनो और तुम्हारा आनंद परिपूर्ण हो।
12) मेरी आज्ञाा यह है जिस प्रकार मैंने तुम लोगो को प्यार किया, उसी प्रकार तुम भी एक दूसरे को प्यार करो।
13) इस से बडा प्रेम किसी का नहीं कि कोई अपने मित्रों के लिये अपने प्राण अर्पित कर दे।
14) यदि तुम लोग मेरी आज्ञाओं का पालन करते हो, तो तुम मेरे मित्र हो।
15) अब से मैं तुम्हें सेवक नहीं कहँूगा। सेवक नहीं जानता कि उसका स्वामी क्या करने वाला है। मैंने तुम्हें मित्र कहा है क्योंकि मैने अपने पिता से जो कुछ सुना वह सब तुम्हें बता दिया है।
16) तुमने मुझे नहीं चुना बल्कि मैंने तुम्हें इसलिये चुना और नियुक्त किया कि तुम जा कर फल उत्पन्न करो, तुम्हारा फल बना रहे और तुम मेरा नाम लेकर पिता से जो कुछ माँगो, वह तुम्हें वही प्रदान करे।
17) मैं तुम लोगों को यह आज्ञा देता हँू एक दूसरे को प्यार करो।
18) यदि संसार तुम लोगों से बैर करे, तो याद रखो कि तुम से पहले उसने मुझ से बैर किया।
19) यदि तुम संसार के होते, तो संसार तुम्हें अपना समझ कर प्यार करता। परन्तु तुम संसार के नहीं हो, क्योंकि मैंने तुम्हें संसार में से चुन लिया हैं। इसीलिये संसार तुम से बैर करता है।
20) मैंनें तुम से जो बात कही, उसे याद रखो- सेवक अपने स्वामी से बडा नहीं होता। यदि उन्होंने मुझे सताया, तो वे तुम्हें भी सतायेंगे। यदि उन्होंने मेरी शिक्षा का पालन किया तो वे तुम्हारी शिक्षा का भी पालन करेंगे।
21) वे यह सब मेरे नाम के कारण तुम लोगो के साथ करेंगे क्योंकि जिसने मुझे भेजा, उसे वे नहीं जानते।
22) यदि मैं नहीं आता और उन्हें शिक्षा नहीं देता तो उन्हें पाप नहीं लगता, परन्तु अब तो उनके पास अपने पाप का कोई बहाना नहीं।
23) जो मुझ से बैर करता है, वो मेरे पिता से भी बैर करता है।
24) यदि मैंने उनके सामने वे महान कार्य नहीं किये होते, जिन्हें किसी और ने कभी नहीं किया, तो उन्हें पाप नहीं लगता। पंरतु अब तो उन्होंने देख कर भी मुझ से और मेरे पिता से बैर किया है।
25) यह इसलिये हुआ कि उनकी संहिता का यह कथन पूरा हो जाये उन्होंने अकारण ही मुझ से बैर किया।
26) जब वह सहायक, पिता के यहाँ से आने वाला वह सत्य का आत्मा आयेगा, जिसे मैं पिता के यहाँ से तुम लोगो के पास भेजूगाँ तो वह मेरे विषय में साक्ष्य देगा।
27) और तुम लोग भी साक्ष्य दोगे, क्योंकि तुम प्रारंभ से मेरे साथ रहे हो।

अध्याय 16

1) मैंने तुम लोगो से यह इसीलिये कहा है कि तुम विचलित नहीं हो।
2) वे तुम्हें सभागृहों से निकाल देंगे। इतना ही नहीं, वह समय आ रहा है, जब तुम्हारी हत्या करने वाला यह समझेगा कि वह ईश्वर की सेवा कर रहा है।
3) वे यह सब इसीलिये करेंगे कि उन्होंने न तो पिता को पहचाना है और न मुझ को।
4) मैंने तुम लोगों से यह इसलिये कहा है कि समय आने पर तुम्हें यह स्मरण रहे कि मैंने तुम्हें पहले ही सचेत किया था। मैंने प्रारंभ से ही तुम लोगों से यह नहीं कहा, क्योंकि मैं तुम्हारे साथ था।
5) अब मैं उसके पास जा रहा हूँ, जिसने मुझे भेजा और तुम लोगो में कोई मुझ से यह नहीं पूछता कि आप कहाँ जा रहे हैं।
6) मैंने तुम से यह कहा है, इसलिये तुम्हारे हृदय शोक से भर गये हैं।
7) फिर भी मैं तुम लोगों से सच कहता हँू तुम्हारा कल्याण इस में है कि मै चला जाऊँ। यदि मैं नहीं जाऊँगा, तो सहायक तुम्हारे पास नहीं आयेगा। यदि मैं जाऊँगा, तो मैं उसे तुम्हारे पास भेजूँगा।
8) जब वह आयेगा, तो पाप, धार्मिकता और दंण्डाज्ञा के विषय में संसार का भ्रम प्रमाणित कर देगा-
9) पाप के विषय में, क्योंकि वे मुझ में विश्वास नहीं करते
10) घार्मिकता के विषय में, क्योंकि मैं पिता के पास जा रहा हूँ और तुम मुझे और नहीं देखोगे;
11) दण्डाज्ञा के विषय में, क्योंकि इस संसार का नायक दोषी ठहराया जा चुका है।
12) मुझे तुम लोगों से और बहुत कुछ कहना है परन्तु अभी तुम वह नहीं सह सकते।
13) जब वह सत्य का आत्मा आयेगा, तो वह तुम्हें पूर्ण सत्य तक ले जायेगा; क्योंकि वह अपनी ओर से नहीं कहेगा, बल्कि वह जो कुछ सुनेगा, वही कहेगा और तुम्हें आने वाली बातों के विषय में बतायेगा।
14) वह मुझे महिमान्वित करेगा, क्योंकि उसे मेरी ओर से जो मिला है, वह तुम्हें वही बतायेगा।
15) जो कुछ पिता का है, वह मेरा है। इसलिये मैंने कहा कि उसे मेरी ओर से जो मिला है, वह तुम्हें वही बतायेगा।
16) थोडे ही समय बाद तुम लोग मुझे नहीं देखोगे और फिर थोडे ही समय बाद मुझे देखोगे।
17) इस उनके कुछ शिष्यों ने आपस में यह कहा, ''वह हम से यह क्या कहते हैं- थोडे ही समय बाद तुम मुझे नहीं देखोग और फिर थोडे ही समय बाद तुम मुझे देखोगे, और क्योंकि मैं पिता के पास जा रहा हँू?''
18) इसलिये वे कहते थे, ''वह जो 'थोडा समय' कहते हैं इस का अर्थ क्या है? हम उनकी बात नहीं समझ पा रहे हैं।''
19) ईसा ने यह जानकर कि वे मुझ से प्रश्न पूछना चाहते हैं, उन से कहा, ''तुम आपस में मेरे इस कथन के अर्थ पर विचार विमर्श कर रहे हो कि 'थोडे ही समय बाद तुम मुझे नहीं देखोगे और फिर थोड़े ही समय बाद मुझे देखोगे।
20) मैं तुम लोगों से यह कहता हँू ''तुम रोओगे और विलाप करोगे, परंतु संसार आनंद मनायेगा। तुम शोक करोगे किन्तु तुम्हारा शोक आनन्द बन जायेगा।
21) प्रसव निकट आने पर स्त्री को दुख होता है, क्योंकि उसका समय आ गया है; किन्तु बालक को जन्म देने के बाद वह अपनी वेदना भूल जाती है, क्योंकि उसे आनन्द होता है कि संसार में एक मनुष्य का जन्म हुआ है।
22) इसी तरह तुम लोग अभी दुखी हो, किन्तु मैं तुम्हे फिर देखूँगा और तुम आनन्द मनाओगे। तुम से तुम्हारा आनन्द कोई नहीं छीन सकेगा।
23) उस दिन तुम मुझ से कोई प्रश्न नहीं करोगे। मैं तुम लोगों से यह कहता हँू- तुम पिता से जो कुछ माँगोगे वह तुम्हें मेरे नाम पर वही प्रदान करेगा।
24) अब तक तुमने मेरा नाम ले कर कुछ भी नहीं माँगा है। माँगो और तुम्हें मिल जायेगा, जिससे तुम्हारा आनन्द परिपूर्ण हो।
25) मैंने तुम लोगो से यह सब दृष्टांतो में कहा है। वह समय आ रहा है, जब मैं फिर तुम लोगों से दृष्टांतो में कुछ नहीं कहँूगा, बल्कि तुम्हें स्पष्ट शब्दों में पिता के विषय में बताऊँगा।
26) तुम उस दिन मेरा नाम लेकर प्रार्थना करोग। मैं नहीं कहता कि तुम्हारे लिये पिता से प्रार्थना करूँगा।
27) पिता तो स्वयं तुम्हें प्यार करता है, क्योंकि तुम मुझे प्यार करते और यह विश्वास करते हो कि मैं ईश्वर के यहाँ से आया हँू।
28) मैं पिता के यहाँ से संसार में आया हँू। अब मैं संसार को छोड कर पिता के पास जा रहा हँू।''
29) उनके शिष्यों ने उन से कहा, ''देखिये, अब आप दृष्टांतो में नहीं, बल्ेिक स्पष्ट शब्दों में बोल रहे हैं।
30) अब हम समझ गये है कि आप सब कुछ जानते हैं- प्रश्नों की कोई जरूरत नहीं रह गयी है। इसलिये हम विश्वास करते हैं कि आप ईश्वर के यहाँ से आये हैं।
31) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ''क्या तुम अब विश्वास करते हो?
32) देखो! वह घडी आ रही है, आ ही गयी है। जब तुम सब तितर-बितर हो जाओगे और अपना-अपना रास्ता ले कर मुझे अकेला छोड दोगे। फिर भी मैं अकेला नहीं हूँ, क्योंकि पिता मेरे साथ है।
33) मैंने तुम लोगों से यह सब इसलिये कहा है कि तुम मुझ में शांति प्राप्त कर सको। संसार में तुम्हें क्लेश सहना पडेगा। परन्तु ढारस रखो- मैंने संसार पर विजय पायी है।

अध्याय 17

1) यह सब कहने के बाद ईसा अपनी आँखें उपर उठाकर बोले, ''पिता! वह घडी आ गयी है। अपने पुत्र को महिमान्वित कर, जिससे पुत्र तेरी महिमा प्रकट करे।
2) तूने उसे समस्त मानव जाति पर अधिकार दिया है, जिससे वह उन सबों को अनन्त जीवन प्रदान करे, जिन्हें तूने उसे सौंपा है।
3) वे तुझे, एक ही सच्चे ईश्वर को और ईसा मसीह को, जिसे तूने भेजा है जान लें- यही अनन्त जीवन है।
4) जो कार्य तूने मुझे करने को दिया था वह मैंने पूरा किया है। इस तरह मैंने पृथ्वी पर तेरी महिमा प्रकट की है।
5) पिता! संसार की सृष्टि से पहले मुझे तेरे यहाँ जो महिमा प्राप्त थी, अब उस से मुझे विभूषित कर।
6) तूने जिन लोगो को संसार में से चुनकर मुझे सौंपा, उन पर मैने तेरा नाम प्रकट किया है। वे तेरे ही थे। तूने उन्हें मुझे सौंपा और उन्होंने तेरी शिक्षा का पालन किया है।
7) अब वे जान गये हैं कि तूने मुझे जो कुछ दिया है वह सब तुझ से आता है।
8) तूने जो संदेश मुझे दिया, मैने वह सन्देश उन्हें दे दिया। वे उसे ग्रहण कर यह जान गये है कि मैं तेरे यहाँ से आया हँू और उन्होंने यह विश्वास किया कि तूने मुझे भेजा।
9) मैं उनके लिये विनती करता हँू। मैं ससार के लिये नहीं, बल्कि उनके लिये विनती करता हँू, जिन्हें तूने मुझे सौंपा है; क्योंकि वे तेरे ही हैं।
10) जो कुछ मेरा है वह तेरा है और जो तेरा, वह मेरा है। मैं उनके द्वारा महिमान्वित हुआ।
11) अब मैं संसार में नहीं रहूँगा; परन्तु वे संसार में रहेंगे और मैं तेरे पास आ रहा हँू। परमपावन पिता! तूने जिन्हें मुझे सौंपा है, उन्हें अपने नाम के सामर्थ्य से सुरक्षित रख, जिससे वे हमारी ही तरह एक बने रहें।
12) तूने जिन्हें मुझे सौंपा है, जब तक मैं उनके साथ रहा, मैंने उन्हें तेरे नाम के सामर्थ्य से सुरक्षित रखा। मैंने उनकी रक्षा की। उनमें किसी का भी सर्वनाश नहीं हुआ है। विनाश का पुत्र इसका एक मात्र अपवाद है, क्योंकि धर्मग्रन्थ का पूरा हो जाना अनिवार्य था।
13) अब मैं तेरे पास आ रहा हँू। जब तक मैं संसार में हँू, यह सब कह रहा हँू जिससे उन्हें मेरा आनन्द पूर्ण रूप से प्राप्त हो।
14) मैंने उन्हें तेरी शिक्षा प्रदान की है। संसार ने उन से बैर किया, क्योंकि जिस तरह मैं संसार का नहीं हूँ उसी तरह वे भी संसार के नहीं हैं।
15) मैं यह नहीं माँगता कि तू उन्हें संसार से उठा ले, बल्कि यह कि तू उन्हें बुराई से बचा।
16) वे संसार के नहीं है जिस तरह मैं भी संसार का नहीं हँू।
17) तू सत्य की सेवा में उन्हें समर्पित कर। तेरी शिक्षा ही सत्य है।
18) जिस तरह तूने मुझे संसार में भेजा है, उसी तरह मैंने भी उन्हें संसार में भेजा है।
19) मैं उनके लिये अपने को समर्पित करता हँू, जिससे वे भी सत्य की सेवा में समर्पित हो जायें।
20) मैं न केवल उनके लिये विनती करता हँू, बल्कि उनके लिये भी जो, उनकी शिक्षा सुनकर मुझ में विश्वास करेंगे।
21) सब-के-सब एक हो जायें। पिता! जिस तरह तू मुझ में है और मैं तुझ में, उसी तरह वे भी हम में एक हो जायें, जिससे संसार यह विश्वास करे कि तूने मुझे भेजा।
22) तूने मुझे जो महिमा प्रदान की, वह मैंने उन्हें दे दी है, जिससे वे हमारी ही तरह एक हो जायें-
23) मैं उनमें रहूँ और तू मुझ में, जिससे वे पूर्ण रूप से एक हो जायें और संसार यह जान ले कि तूने मुझे भेजा और जिस प्रकार तूने मुझे प्यार किया, उसी प्रकार उन्हें भी प्यार किया।
24) पिता! मैं चाहता हँू कि तूने जिन्हें मुझे सौंपा है, वे जहाँ मैं हँू, मेरे साथ रहें जिससे वे मेरी महिमा देख सकें, जिसे तूने मुझे प्रदान किया है; क्योंकि तूने संसार की सृष्टि से पहले मुझे प्यार किया।
25) न्यायी पिता! संसार ने तुझे नहीं जाना। परन्तु मैंने तुझे जाना है और वे जान गये कि तूने मुझे भेजा।
26) मैंने उन पर तेरा नाम प्रकट किया है और प्रकट करता रहूँगा, जिससे तूने जो प्रेम मुझे दिया, वह प्रेम उन में बना रहे और मैं भी उन में बना रहूँ।

अध्याय 18

1) यह सब कहने के बाद ईसा अपने शिष्यों के साथ केद्रोन नाले के उस पार गये। वहाँ एक बारी थी। उन्होंने अपने शिष्यों के साथ उस में प्रवेश किया।
2) उनके विश्वासघाती यूूदस को भी वह जगह मालूम थी, क्योंकि ईसा अक्सर अपने शिष्यों के साथ वहाँ गये थे।
3) इसलिये यूदस पलटन और महायाजकों तथा फ़रीसियों के भेजे हुये प्यादों के साथ वहाँ आ पहुँचा। वे लोग लालटेनें मशालें और हथियार लिये थे।
4) ईसा, यह जान कर कि मुझ पर क्या-क्या बीतेगी आगे बढे और उन से बोले, ''किसे ढूढतें हो?''
5) उन्होंने उत्तर दिया, ''ईसा नाजरी को''। ईसा ने उन से कहा, ''मैं वही हूँ''। वहाँ उनका विश्वासघाती यूदस भी उन लोगों के साथ खडा था।
6) जब ईसा ने उन से कहा, 'मैं वही हँू' तो वे पीछे हटकर भूमि पर गिर पडे।
7) ईसा ने उन से फ़िर पूछा, ''किसे ढूढते हो?'' वे बोले, ''ईसा नाजरी को''।
8) इस पर ईसा ने कहा, ''मैं तुम लोगों से कह चुका हँू कि मैं वही हँू। यदि तुम मुझे ढूँढ़ते हो तो इन्हें जाने दो।''
9) यह इसलिये हुआ कि उनका यह कथन पूरा हो जाये- तूने मुझ को जिन्हें सौंपा, मैंने उन में से एक का भी सर्वनाश नहीं होने दिया।
10) उस समय सिमोन पेत्रुस ने अपनी तलवार खींच ली और प्रधानयाजक के नौकर पर चलाकर उसका दाहिना कान उडा दिया। उस नौकर का नाम मलखुस था।
11) ईसा ने पेत्रुस से कहा, ''तलवार म्यान में कर लो। जो प्याला पिता ने मुझे दिया है क्या मैं उसे नहीं पिऊँ?''
12) तब पलटन, कप्तान और यहूदियों के प्यादों ने ईसा को पकड कर बाँध लिया।
13) वे उन्हें पहले अन्नस के यहाँ ले गये; क्योंकि वह उस वर्ष के प्रधानयाजक कैफस का ससुर था।
14) यह वही कैफस था जिसने यहूदियों को यह परामर्श दिया था- अच्छा यही है कि राष्ट्र के लिये एक ही मनुष्य मरे।
15) सिमोन पेत्रुस और एक दूसरा शिष्य ईसा के पीछे-पीछे चले। यह शिष्य प्रधानयाजक का परिचित था और ईसा के साथ प्रधानयाजक के प्रांगण में गया,
16) किन्तु पेत्रुस फाटक के पास बाहर खडा रहा। इसलिये वह दूसरा शिष्य जो प्रधानयाजक का परिचित था, फ़िर बाहर गया और द्वारपाली से कहकर पेत्रुस को भीतर ले आया।
17) द्वारपाली ने पेत्रुस से कहा, ''कहीं तुम भी तो उस मनुष्य के शिष्य नहीं हो?'' उसने उत्तर दिया, ''नहीं हँू''।
18) जाड़े के कारण नौकर और प्यादे आग सुलगा कर ताप रहे थे। पेत्रुस भी उनके साथ आग तापता रहा।
19) प्रधानयाजक ने ईसा से उनके शिष्यों और उनकी शिक्षा के विषय में पूछा।
20) ईसा ने उत्तर दिया, ''मैं संसार के सामने प्रकट रूप से बोला हँू। मैंने सदा सभागृह और मन्दिर में जहाँ सब यहूदी एकत्र हुआ करते हैं, शिक्षा दी है। मैंने गुप्त रूप से कुछ नहीं कहा।
21) यह आप मुझ से क्यों पूछते हैं? उन से पूछिये जिन्होंने मेरी शिक्षा सुनी है। वे जानते हैं कि मैंने क्या-क्या कहा।''
22) इस पर पास खडे प्यादों में से एक ने ईसा को थप्पड मार कर कहा, ''तुम प्रधानयाजक को इस तरह जवाब देते हो?''
23) ईसा ने उस से कहा, ''यदि मैंने गलत कहा, तो गलती बता दो और यदि ठीक कहा तो, मुझे क्यों मारते हो?''
24) इसके बाद अन्नस ने बाँधें हुये ईसा को प्रधानयाजक कैफस के पास भेजा।
25) सिमोन पेत्रुस उस समय आग ताप रहा था। कुछ लोगों ने उस से कहा, ''कहीं तुम भी तो उसके शिष्य नहीं हो?'' उसने अस्वीकार करते हुये कहा, ''नहीं हूँ''।
26) प्रधानयाजक का एक नौकर उस व्यक्ति का सम्बन्धी था जिसका कान पेत्रुस ने उडा दिया था। उसने कहा, ''क्या मैंने तुम को उसके साथ बारी में नहीं देखा था?
27) पेत्रुस ने फिर अस्वीकार किया और उसी क्षण मुर्गे ने बाँग दी।
28) तब वे ईसा को कैफस के यहाँ से राज्य पाल के भवन ले गये। अब भोर हो गया था। वे भवन के अन्दर इसलिये नहीं गये कि अशुद्व न हो जायें, बल्कि पास्का का मेमना खा सकें।
29) पिलातुस बाहर आकर उन से मिला और बोला, ''आप लोग इस मनुष्य पर कौन सा अभियोग लगाते हैं?''
30) उन्होने उत्तर दिया, ''यदि यह कुकर्मी नहीं होता, तो हमने इसे आपके हवाले नहीं किया होता''।
31) पिलातुस ने उन से कहा, ''आप लोग इसे ले जाइए और अपनी संहिता के अनुसार इसका न्याय कीजिये।'' यहूदियों ने उत्तर दिया, ''हमें किसी को प्राणदंण्ड देने का अधिकार नहीं है''।
32) यह इसलिये हुआ कि ईसा का वह कथन पूरा हो जाये, जिसके द्वारा उन्होने संकेत किया था कि उनकी मृत्यु किस प्रकार की होगी।
33) तब पिलातुस ने फिर भवन में जा कर ईसा को बुला भेजा और उन से कहा, ''क्या तुम यहूदियों के राजा हो?''
34) ईसा ने उत्तर दिया, ''क्या आप यह अपनी ओर से कहते हैं या दूसरों ने आप से मेरे विषय में यह कहा है?''
35) पिलातुस ने कहा, ''क्या मैं यहूदी हँू? तुम्हारे ही लोगों और महायाजकों ने तुम्हें मेरे हवाले किया। तुमने क्या किया है।''
36) ईसा ने उत्तर दिया, ''मेरा राज्य इस संसार का नहीं है। यदि मेरा राज्य इस संसार का होता तो मेरे अनुयायी लडते और मैं यहूदियों के हवाले नहीं किया जाता। परन्तु मेरा राज्य यहाँ का नहीं है।''
37) इस पर पिलातुस ने उन से कहा, ''तो तुम राजा हो?'' ईसा ने उत्तर दिया, ''आप ठीक ही कहते हैं। मैं राजा हँू। मैं इसलिये जन्मा और इसलिये संसार में आया हँू कि सत्य के विषय में साक्ष्य पेश कर सकूँ। जो सत्य के पक्ष में है, वह मेरी सुनता है।''
38) पिलातुस ने उन से कहा, ''सत्य क्या है?'' वह यह कहकर फिर बाहर गया और यहूदियों के पास आ कर बोला, ''मैं तो उस में कोई दोष नहीं पाता हँू,
39) लेकिन तुम्हारे लिये पास्का के अवसर पर एक बन्दी को रिहा करने का रिवाज है। क्या तुम लोग चाहते हो कि मैं तुम्हारे लिये यहूदियों के राजा को रिहा कर दँू?''
40) इस पर वे चिल्ला उठे, ''इसे नहीं, बराब्बस को''। बराब्बस डाकू था।

अध्याय 19

1) तब पिलातुस ने ईसा को ले जा कर कोडे लगाने का आदेश दिया।
2) सैनिकों ने काँटों का मुकुट गँूथ कर उनके सिर पर रख दिया और उन्हें बैंगनी कपडा पहनाया।
3) फिर वे उनके पास आ-आ कर कहते थे, ''यहूदियों के राजा प्रणाम!'' और वे उन्हें थप्पड मारते जाते थे।
4) पिलातुस ने फिर बाहर जा कर लोगों से कहा, ''देखो मैं उसे तुम लोगों के सामने बाहर ले आता हँू, जिससे तुम यह जान लो कि मैं उस में कोई दोष नहीं पाता''।
5) तब ईसा काँटों का मुकुट और बैगनी कपडा पहने बाहर आये। पिलातुस ने लोगों से कहा, ''यही है वह मनुष्य!''
6) महायाजक और प्यादे उन्हें देखते ही चिल्ला उठे, ''इसे क्रूस दीजिये! इसे क्रूस दीजिये!'' पिलातुस ने उन से कहा, ''इसे तुम्हीं ले जाओ और क्रूस पर चढाओ। मैं तो इस में कोई दोष नहीं पाता।''
7) यहूदियों ने उत्तर दिया, ''हमारी एक संहिता है और उस संहिता के अनुसार यह प्राणदंण्ड के योग्य है, क्योंकि इसने ईश्वर का पुत्र होने का दावा किया है।''
8) पिलातुस यह सुनकर और भी डर गया।
9) उसने फिर भवन के अन्दर जा कर ईसा से पूछा, ''तुम कहाँ के हो?'' किन्तु ईसा ने उसे उत्तर नहीं दिया।
10) इस पर पिलातुस ने उन से कहा, ''तुम मुझ से क्यों नहीं बोलते? क्या तुम यह नहीं जानते कि मुझे तुम को रिहा करने का भी अधिकार है और तुम को क्रूस पर चढ़वाने का भी?
11) ईसा ने उत्तर दिया, ''यदि आप को ऊपर से अधिकार न दिया गया होता तो आपका मुझ पर कोई अधिकार नहीं होता। इसलिये जिसने मुझे आपके हवाले किया, वह अधिक दोषी है।''
12) इसके बाद पिलातुस ईसा को मुक्त करने का उपाय ढूँढ़ता रहा, परन्तु यहूदी यह कहते हुये चिल्लाते रहे, ''यदि आप इसे रिहा करते हैं, तो आप कैसर के हितेषी नहीं हैं। जो अपने को राजा कहता है वह कैसर का विरोध करता है।''
13) यह सुनकर पिलातुस ने ईसा को बाहर ले आने का आदेश दिया। वह अपने न्यायासन पर उस जगह, जो लिथोस-त्रोतोस, और इब्रानी में गबूबथा, कहलाती है, बैठ गया।
14) पास्का की तैयारी का दिन था। लगभग दोपहर का समय था। पिलातुस ने यहूदियों से कहा, ''यही ही तुम्हारा राजा!''
15) इस पर वे चिल्ला उठे, ''ले जाइये! ले जाइए! इसे क्रूस दीजिये!'' पिलातुस ने उन से कहा क्या, ''मैं तुम्हारे राजा को क्रूस पर चढवा दूँ?'' महायाजकों ने उत्तर दिया, ''कैसर के सिवा हमारा कोई राजा नहीं''।
16) तब पिलातुस ने ईसा को कू्रस पर चढाने के लिये उनके हवाले कर दिया।
17) वे ईसा को ले गये और वह अपना कू्रस ढोते हुये खोपडी की जगह नामक स्थान गये। इब्रानी में उसका नाम गोलगोथा है।
18) वहाँ उन्होंने ईसा को और उनके साथ और दो व्यक्तियों को कू्रस पर चढाया- एक को इस ओर, दूसरे को उस ओर और बीच में ईसा को।
19) पिलातुस ने एक दोषपत्र भी लिखवा कर कु्रस पर लगवा दिया। वह इस प्रकार था- ''ईसा नाजरी यहूदियों का राजा।''
20) बहुत-से यहूदियों ने यह दोषपत्र पढा क्योंकि वह स्थान जहाँ ईसा कू्रस पर चढाये गय थे, शहर के पास ही था और दोष पत्र इब्रानी, लातीनी और यूनानी भाषा में लिखा हुआ था।
21) इसलिये यहूदियों के महायाजकों ने पिलातुस से कहा, ''आप यह नहीं लिखिये- यहूदियों का राजा; बल्कि- इसने कहा कि मैं यहूदियों का राजा हँू''।
22) पिलातुस ने उत्तर दिया, ''मैंने जो लिख दिया, सो लिख दिया।''
23) ईसा को कू्रस पर चढाने के बाद सैनिकों न उनके कपडे ले लिये और कुरते के सिवा उन कपडों के चार भाग कर दिये- हर सैनिक के लिये एक-एक भाग। उस कुरते में सीवन नहीं था, वह ऊपर से नीचे तक पूरा-का-पूरा बुना हुआ था।
24) उन्होंने आपस में कहा, ''हम इसे नहीं फाडें। चिट्ठी डालकर देख लें कि यह किसे मिलता है। यह इसलिये हुआ कि धर्मग्रंथ का यह कथन पूरा हो जाये- उन्होंने मेरे कपडे आपस में बाऊट लिये और मेरे वस्त्र पर चिट्ठी डाली। सैनिकों ने ऐसा ही किया।
25) ईसा की माता, उसकी बहिन, क्लोपस की पत्नि मरियम और मरियम मगदलेना उनके कू्रस के पास खडी थीं।
26) ईसा ने अपनी माता को और उनके पास अपने उस शिष्य को, जिसे वह प्यार करते थे देखा। उन्होंने अपनी माता से कहा, ''भद्रे! यह आपका पुत्र है''।
27) इसके बाद उन्होंने उस शिष्य से कहा, ''यह तुम्हारी माता है''। उस समय से उस शिष्य ने उसे अपने यहाँ आश्रय दिया।
28) तब ईसा ने यह जान कर कि अब सब कुछ पूरा हो चुका है, धर्मग्रन्थ का लेख पूरा करने के उद्देश्य से कहा, ''मैं प्यासा हँू''।
29) वहाँ खट्ठी अंगूरी से भरा एक पात्र रखा हुआ था। लोगों ने उस में एक पनसोख्ता डुबाया और उसे जूफ़े की डण्डी पर रख कर ईसा के मुख से लगा दिया।
30) ईसा ने खट्ठी अंगूरी चखकर कहा, ''सब पूरा हो चुका है''। और सिर झुकाकर प्राण त्याग दिये।
31) वह तैयारी का दिन था। यहूदी यह नहीं चाहते थे कि शव विश्राम के दिन कू्रस पर रह जाये क्योंकि उस विश्राम के दिन बड़ा त्यौहार पडता था। उन्होंने पिलातुस से निवेदन किया कि उनकी टाँगें तोड दी जाये और शव हटा दिये जायें।
32) इसलिये सैनिकों ने आकर ईसा के साथ क्रूस पर चढाये हुये पहले व्यक्ति की टाँगें तोड दी, फिर दूसरे की।
33) जब उन्होंने ईसा के पास आकर देखा कि वह मर चुके हैं तो उन्होंने उनकी टाँगें नहीं तोडी;
34) लेकिन एक सैनिक ने उनकी बगल में भाला मारा और उस में से तुरन्त रक्त और जल बह निकला।
35) जिसने यह देखा है, वही इसका साक्ष्य देता है, और उसका साक्ष्य सच्चा है। वह जानता है कि वह सच बोलता है, जिससे आप लोग भी विश्वास करें।
36) यह इसलिये हुआ कि धर्मग्रंथ का यह कथन पूरा हो जाये- उसकी एक भी हड्डी नहीं तोडी जायेगी;
37) फिर धर्मग्रन्थ का एक दूसरा कथन इस प्रकार है- उन्होंने जिसे छेदा, वे उसी की ओर देखेगें।
38) इसके बाद अरिमथिया के यूसुफ ने जो यहूदियों के भय के कारण ईसा का गुप्त शिष्य था, पिलातुस से ईसा का शब ले जाने की अनुमति माँगी। पिलातुस ने अनुमति दे दी। इसलिये यूसुफ आ कर ईसा का शव ले गया।
39) निकोदेमुस भी पहूँचा, जो पहले रात को ईसा से मिलने आया था। वह लगभग पचास सेर का गंधरस और अगरू का सम्मिश्रण लाया।
40) उन्होंने दफन की प्रथा के अनुसार उसे सुगंधित द्रव्यों के साथ छालटी की पट्टियों में लपेटा।
41) जहाँ ईसा कू्रस पर चढाये गये थे, वहाँ एक बारी थी और उस बारी में एक नयी कब्र, जिस में अब तक कोई नहीं रखा गया था।
42) उन्होंने ईसा को वहीं रख दिया, क्योंकि वह यहूदियों के लिये तेयारी का दिन था और वह कब्र निकट ही थी।

अध्याय 20

1) मरियम मगदलेना सप्ताह के प्रथम दिन, तडके मुँह अँधेरे ही कब्र के पास पहुँची। उसने देखा कि कब्र पर से पत्थर हटा दिया गया है।
2) उसने सिमोन पेत्रुस तथा उस दूसरे शिष्य के पास, जिसे ईसा प्यार करते थे, दौडती हुई आकर कहा, ''वे प्रभु को कब्र में से उठा ले गये हैं और हमें पता नहीं कि उन्होंने उन को कहाँ रखा है।''
3) पेत्रुस और वह दूसरा शिष्य कब्र की ओर चल पडे।
4) वे दोनों साथ-साथ दौडे। दूसरा शिष्य पेत्रुस को पिछेल कर पहले कब्र पर पहुँचा।
5) उसने झुककर यह देखा कि छालटी की पट्टियाँ पडी हुई हैं, किन्तु वह भीतर नहीं गया।
6) सिमोन पेत्रुस उसके पीछे-पीछे चलकर आया और कब्र के अन्दर गया। उसने देखा कि पट्टियाँ पडी हुई हैं।
7) और ईसा के सिर पर जो अँगोछा बँधा था वह पट्टियों के साथ नहीं बल्कि दूसरी जगह तह किया हुआ अलग पडा हुआ है।
8) तब वह दूसरा शिष्य भी जो कब्र के पास पहले आया था भीतर गया। उसने देखा और विश्वास किया,
9) क्योंकि वे अब तक धर्मग्रन्थ का वह लेख नहीं समझ पाये थे कि जिसके अनुसार उनका जी उठना अनिवार्य था।
10) इसके बाद शिष्य अपने घर लौट गये।
11) मरियम कब्र के पास, बाहर रोती रही। उसने रोते रोते झुककर कब्र के भीतर दृष्टि डाली
12) और जहाँ ईसा का शव रखा हुआ था वहाँ उजले वस्त्र पहने दो स्वर्गदूतों को बैठा हुआ देखा- एक को सिरहाने और दूसरे को पैताने।
13) दूतों ने उस से कहा, ''भद्रे! आप क्यों रोती हैं?'' उसने उत्तर दिया, ''वे मेरे प्रभु को उठा ले गये हैं और मैं नहीं जानती थी कि उन्होंने उन को कहाँ रखा है''।
14) वह यह कहकर मुड़ी और उसने ईसा को वहाँ खडा देखा, किन्तु उन्हें पहचान नहीं सकी।
15) ईसा ने उस से कहा, ''भद्रे! आप क्यों रोती हैं। किसे ढूँढ़ती हैं? मरियम ने उन्हें माली समझकर कहा, ''महोदय! यदि आप उन्हें उठा ले गये, तो मुझे बता दीजिये कि आपने उन्हें कहाँ रखा है और मैं उन्हें ले जाऊँॅगी''।
16) इस पर ईसा ने उस से कहा, ''मरियम!'' उसने मुड कर इब्रानी में उन से कहा, ''रब्बोनी'' अर्थात गुरुवर।
17) ईसा ने उस से कहा, ''चरणों से लिपटकर मुझे मत रोको। मैं अब तक पिता के पास ऊपर नहीं गया हँू। मेरे भाइयों के पास जाकर उन से यह कहो कि मैं अपने पिता और तुम्हारे पिता, अपने ईश्वर और तुम्हारे ईश्वर के पास ऊपर जा रहा हँू।''
18) मरियम मगदलेना ने जाकर शिष्यों से कहा कि मैंने प्रभु को देखा है और उन्होंने मुझे यह सन्देश दिया।
19) उसी दिन, अर्थात सप्ताह के प्रथम दिन, संध्या समय जब शिष्य यहूदियों के भय से द्वार बंद किये एकत्र थे, ईसा उनके बीच आकर खडे हो गये। उन्होंने शिष्यों से कहा, ''तुम्हें शांति मिले!''
20) और इसके बाद उन्हें अपने हाथ और अपनी बगल दिखायी। प्रभु को देखकर शिष्य आनन्दित हो उठे। ईसा ने उन से फिर कहा, ''तुम्हें शांति मिले!
21) जिस प्रकार पिता ने मुझे भेजा, उसी प्रकार मैं तुम्हें भेजता हूँ।''
22) इन शब्दों के बाद ईसा ने उन पर फूँक कर कहा, ''पवित्र आत्मा को ग्रहण करो!
23) तुम जिन लोगों के पाप क्षमा करोगे, वे अपने पापों से मुक्त हो जायेंगे और जिन लोगों के पाप क्षमा नहीं करोगे, वे अपने पापों से बँधे रहेंगे।
24) ईसा के आने के समय बारहों में से एक थोमस जो यमल कहलाता था, उनके साथ नहीं था।
25) दूसरे शिष्यों ने उस से कहा, ''हमने प्रभु को देखा है''। उसने उत्तर दिया, ''जब तक मैं उनके हाथों में कीलों का निशान न देख लूँ, कीलों की जगह पर अपनी उँगली न रख दूँ और उनकी बगल में अपना हाथ न डाल दूँ, तब तक मैं विश्वास नहीं करूँगा।
26) आठ दिन बाद उनके शिष्य फिर घर के भीतर थे और थोमस उनके साथ था। द्वार बन्द होने पर भी ईसा उनके बीच आ कर खडे हो गये और बोले, ''तुम्हें शांति मिले!''
27) तब उन्होने थोमस से कहा, ''अपनी उँगली यहाँ रखो। देखो- ये मेरे हाथ हैं। अपना हाथ बढ़ाकर मेरी बगल में डालो और अविश्वासी नही,ं बल्कि विश्वासी बनो।''
28) थोमस ने उत्तर दिया, ''मेरे प्रभु! मेरे ईश्वर!''
29) ईसा ने उस से कहा, ''क्या तुम इसलिये विश्वास करते हो कि तुमने मुझे देखा है? धन्य हैं वे जो बिना देखे ही विश्वास करते हैं।''
30) ईसा ने अपने शिष्यों के सामने और बहुत से चमत्कार दिखाये जिनका विवरण इस पुस्तक में नहीं दिया गया है।
31) इनका ही विवरण दिया गया है जिससे तुम विश्वास करो कि ईसा ही मसीह, ईश्वर के पुत्र हैं और विश्वास करने से उनके नाम द्वारा जीवन प्राप्त करो।

अध्याय 21

1) बाद में ईसा तिबेरियस के समुद्र के पास, अपने शिष्यों को फिर दिखाई दिये। यह इस प्रकार हुआ।
2) सिमोन पेत्रुस, थोमस जो यमल कहलाता था, नथनाएल, जो गलीलिया के काना का निवासी था, जेबेदी के पुत्र और ईसा के दो अन्य शिष्य साथ थे।
3) सिमोन पेत्रुस ने उन से कहा, ''मैं मछली मारने जा रहा हँू''। वे उस से बोले, ''हम भी तुम्हारे साथ चलते हैं''। वे चल पडे और नाव पर सवार हुये, किन्तु उस रात उन्हें कुछ नहीं मिला।
4) सबेरा हो ही रहा था कि ईसा तट पर दिखाई दिये; किन्तु शिष्य उन्हें नही पहचान सके।
5) ईसा ने उन से कहा, ''बच्चों! खाने को कुछ मिला?'' उन्होने उत्तर दिया, ''जी नहीं''।
6) इस पर ईसा ने उन से कहा, ''नाव की दाहिनी ओर जाल डाल दो और तुम्हें मिलेगा''। उन्होंने जाल डाला और इतनी मछलियाँ फस गयीं कि वे जाल नहीं निकाल सके।
7) तब उस शिष्य ने, जिसे ईसा प्यार करते थे, पेत्रुस से कहा, ''यह तो प्रभु ही हैं''। जब पेत्रुस ने सुना कि यह प्रभु हैं, तो वह अपना कपड़ा पहन कर- क्योंकि वह नंगा था- समुद्र में कूद पडा।
8) दूसरे शिष्य मछलियों से भरा जाल खीचतें हुये डोंगी पर आये। वे किनारे से केवल लगभग दो सौ हाथ दूर थे।
9) उन्होंने तट पर उतरकर वहाँ कोयले की आग पर रखी हुई मछली देखी और रोटी भी।
10) ईसा ने उन से कहा, ''तुमने अभी-अभी जो मछलियाँ पकडी हैं, उन में से कुछ ले आओ।
11) सिमोन पेत्रुस गया और जाल किनारे खीचं लाया। उस में एक सौ तिरपन बड़ी बड़ी मछलियाँ थी और इतनी मछलियाँ होने पर भी जाल नहीं फटा था।
12) ईसा ने उन से कहा, ''आओ जलपान कर लो''। शिष्यों में किसी को भी ईसा से यह पूछने का साहस नहीं हुआ कि आप कौन हैं। वे जानते थे कि वह प्रभु हैं।
13) ईसा अब पास आये। उन्होंने रोटी ले कर उन्हें दी और इसी तरह मछली भी।
14) इस प्रकार ईसा मृतकों में से जी उठने के बाद तीसरी बार अपने शिष्यों के सामने प्रकट हुये।
15) जलपान के बाद ईसा ने सिमोन पेत्रुस से कहा, ''सिमोन योहन के पुत्र! क्या इनकी अपेक्षा तुम मुझे अधिक प्यार करते हो?'' उसने उन्हें उत्तर दिया, ''जी हाँ प्रभु! आप जानते हैं कि मैं आप को प्यार करता हँू''। उन्होंने पेत्रुस से कहा, ''मेरे मेमनों को चराओ''।
16) ईसा ने दूसरी बार उस से कहा, ''सिमोन, योहन के पुत्र! क्या तुम मुझे प्यार करते हो?'' उसने उत्तर दिया, ''जी हाँ प्रभु! आप जानते हैं कि मैं आप को प्यार करता हूँ''। उन्होंने पेत्रुस से कहा, ''मेरी भेडों को चराओ''।
17) ईसा ने तीसरी बार उस से कहा, ''सिमोन योहन के पुत्र! क्या तुम मुझे प्यार करते हो?'' पेत्रुस को इस से दुःख हुआ कि उन्होंने तीसरी बार उस से यह पूछा, 'क्या तुम मुझे प्यार करते हो' और उसने ईसा से कहा, ''प्रभु! आप को तो सब कुछ मालूम है। आप जानते हैं कि मैं आप को प्यार करता हँू।'' ईसा ने उस से कहा मेरी भेडों को चराओ।
18) ''मैं तुम से यह कहता हँू- जवानी में तुम स्वयं अपनी कमर कस कर जहाँ चाहते थे, वहाँ घूमते फिरते थे; लेकिन बुढ़ापे में तुम अपने हाथ फैलाओगे और दूसरा व्यक्ति तुम्हारी कमर कस कर तुम्हें वहाँ ले जायेगा। जहाँ तुम जाना नहीं चाहते।''
19) इन शब्दों से ईसा ने संकेत किया कि किस प्रकार की मृृत्यु से पेत्रुस द्वारा ईश्वर की महिमा का विस्तार होगा। ईसा ने अंत में पेत्रुस से कहा, ''मेरा अनुसरण करो''।
20) पेत्रुस ने मुड़ कर उस शिष्य को पीछे पीछे आते देखा जिसे ईसा प्यार करते थे और जिसने व्यारी के समय उनकी छाती पर झुक कर पूछा था, 'प्रभु! वह कौन है, जो आप को पकड़वायेगा?'
21) पेत्रुस ने उसे देखकर ईसा से पूछा, ''प्रभ! इनका क्या होगा?''
22) ईसा ने उसे उत्तर दिया, ''यदि मैं चाहता हूँ कि यह मेरे आने तक रह जाये तो इस से तुम्हें क्या? तुम मेरा अनुसरण करो।''
23) इन शब्दों के कारण भाइयों में यह अफ़वाह फैल गयी कि वह शिष्य नहीं मरेगा। परन्तु ईसा ने यह नहीं कहा कि यह नहीं मरेगा; बल्कि यह कि 'यदि मैं चाहता हूँ कि यह मेरे आने तक रह जाये, तो इस से तुम्हें क्या?'
24) यह वही शिष्य है, जो इन बातों का साक्ष्य देता है और जिसने यह लिखा है। हम जानते हैं कि उसका साक्ष्य सत्य है।
25) ईसा ने और भी बहुत से कार्य किये। यदि एक-एक कर उनका वर्णन किया जाता तो मैं समझता हँू कि जो पुस्तकें लिखी जाती, वे संसार भर में भी नहीं समा पातीं।