पवित्र बाइबिल : Pavitr Bible ( The Holy Bible )

नया विधान : Naya Vidhan ( New Testament )

सन्त लूकस ( Luke )

अध्याय 1

1) जो प्रारम्भ से प्रत्यक्षदर्शी और सुसमाचार के सेवक थे, उन से हमें जो परम्परा मिली, उसके आधार पर
2) बहुतों ने हमारे बीच हुई घटनाओं का वर्णन करने का प्रयास किया है।
3) मैंने भी प्रारम्भ से सब बातों का सावधानी से अनुसन्धान किया है; इसलिए श्रीमान् थेओफ़िलुस, मुझे आपके लिए उनका क्रमबद्ध विवरण लिखना उचित जान पड़ा,
4) जिससे आप यह जान लें कि जो शिक्षा आप को मिली है, वह सत्य है।
5) यहूदिया के राजा हेरोद के समय अबियस के दल का जकरियस नामक एक याजक था। उसकी पत्नी हारून वंश की थी और उसका नाम एलीज’बेथ था।
6) वे दोनों ईश्वर की दृष्टि में धार्मिक थे-वे प्रभु की सब आज्ञाओं और नियमों का निर्दोष अनुसरण करते थे।
7) उनके कोई सन्तान नहीं थी, क्योंकि एलीज’बेथ बाँझ थी और दोनों बूढ़े हो चले थे।
8) जकरियस नियुक्ति के क्रम से अपने दल के साथ याजक का कार्य कर रहा था।
9) किसी दिन याजकों की प्रथा के अनुसार उसके नाम
10) चिट्टी निकली कि वह प्रभु के मन्दिर में प्रवेश कर धूप जलाये।
11) धूप जलाने के समय सारी जनता बाहर प्रार्थना कर रही थी। उस समय प्रभु का दूत उसे धूप की वेदी की दायीं और दिखाई दिया।
12) जकरियस स्वर्गदूत को देख कर घबरा गया और भयभीत हो उठा;
13) परन्तु स्वर्गदूत ने उस से कहा, ''जकरियस! डरिए नहीं। आपकी प्रार्थना सुनी गयी है-आपकी पत्नी एलीज’बेथ के एक पुत्र उत्पन्न होगा, आप उसका नाम योहन रखेंगे।
14) आप आनन्दित और उल्लसित हो उठेंगे और उसके जन्म पर बहुत-से लोग आनन्द मनायेंगे।
15) वह प्रभु की दृष्टि में महान् होगा, अंगूरी और मदिरा नहीं पियेगा, वह अपनी माता के गर्भ में ही पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो जायेगा
16) और इस्राएल के बहुत-से लोगों का मन उनके प्रभु-ईश्वर की ओर अभिमुख करेगा।
17) वह पिता और पुत्र का मेल कराने, स्वेच्छाचारियों को धर्मियों की सद्बुद्धि प्रदान करने और प्रभु के लिए एक सुयोग्य प्रजा तैयार करने के लिए एलियस के मनोभाव और सामर्थ्य से सम्पन्न प्रभु का अग्रदूत बनेगा।''
18) जक़रियस ने स्वर्गदूत से कहा, ''इस पर मैं कैसे विश्वास करूँ? क्योंकि मैं तो बूढ़ा हूँ और मेरी पत्नी बूढ़ी हो चली है।''
19) स्वर्गदूत ने उसे उत्तर दिया, ''मैं गब्रिएल हूँ-ईश्वर के सामने उपस्थित रहता हूँ। मैं आप से बातें करने और आप को यह शुभ समाचार सुनाने भेजा गया हूँ।
20) देखिए, जिस दिन तक ये बातें पूरी नहीं होंगी, उस दिन तक आप मौन रहेंगे और बोल नहीं सकेंगे; क्योंकि आपने मेरी बातों पर, जो अपने समय पर पूरी होंगी, विश्वास नहीं किया।''
21) जनता जकरियस की बाट जोह रही थी और आश्चर्य कर रही थी कि वह मन्दिर में इतनी देर क्यों लगा रहा है।
22) बाहर निकलने पर जब वह उन से बोल नहीं सका, तो वे समझ गये कि उसे मन्दिर में कोई दिव्य दर्शन हुआ है। वह उन से इशारा करता जाता था, और गूंगा ही रह गया।
23) अपनी सेवा के दिन पूरे हो जाने पर वह अपने घर चला गया।
24) कुछ समय बाद उसकी पत्नी एलीज’बेथ गर्भवती हो गयी। उसने पाँच महीने तक अपने को यह कहते हुए छिपाये रखा,
25) ''यह प्रभु का वरदान है। उसने समाज में मेरा कलंक दूर करने की कृपा की है।''
26) छठे महीने स्वर्गदूत गब्रिएल, ईश्वर की ओर से, गलीलिया के नाजरेत नामक नगर में एक कुँवारी के पास भेजा गया,
27) जिसकी मँगनी दाऊद के घराने के यूसुफ नामक पुरुष से हुई थी, और उस कुँवारी का नाम था मरियम।
29) वह इन शब्दों से घबरा गयी और मन में सोचती रही कि इस प्रणाम का अभिप्राय क्या है।
30) तब स्वर्गदूत ने उस से कहा, ''मरियम! डरिए नहीं। आप को ईश्वर की कृपा प्राप्त है।
31) देखिए, आप गर्भवती होंगी, पुत्र प्रसव करेंगी और उनका नाम ईसा रखेंगी।
32) वे महान् होंगे और सर्वोच्च प्रभु के पुत्र कहलायेंगे। प्रभु-ईश्वर उन्हें उनके पिता दाऊद का सिंहासन प्रदान करेगा,
33) वे याकूब के घराने पर सदा-सर्वदा राज्य करेंगे और उनके राज्य का अन्त नहीं होगा।''
34) पर मरियम ने स्वर्गदूत से कहा, ''यह कैसे हो सकता है? मेरा तो पुरुष से संसर्ग नहीं है।''
35) स्वर्गदूत ने उत्तर दिया, ''पवित्र आत्मा आप पर उतरेगा और सर्वोच्च प्रभु की शक्ति की छाया आप पर पड़ेगी। इसलिए जो आप से उत्पन्न होंगे, वे पवित्र होंगे और ईश्वर के पुत्र कहलायेंगे।
36) देखिए, बुढ़ापे में आपकी कुटुम्बिनी एलीज’बेथ के भी पुत्र होने वाला है। अब उसका, जो बाँझ कहलाती थी, छठा महीना हो रहा है;
37) क्योंकि ईश्वर के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है।''
38) मरियम ने कहा, ''देखिए, मैं प्रभु की दासी हूँ। आपका कथन मुझ में पूरा हो जाये।'' और स्वर्गदूत उसके पास से चला गया।
39) उन दिनों मरियम पहाड़ी प्रदेश में यूदा के एक नगर के लिए शीघ्रता से चल पड़ी।
40) उसने ज’करियस के घर में प्रवेश कर एलीज’बेथ का अभिवादन किया।
41) ज्यों ही एलीज’बेथ ने मरियम का अभिवादन सुना, बच्चा उसके गर्भ में उछल पड़ा और एलीज’बेथ पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो गयी।
42) वह ऊँचे स्वर से बोली उठी, ''आप नारियों में धन्य हैं और धन्य है आपके गर्भ का फल!
43) मुझे यह सौभाग्य कैसे प्राप्त हुआ कि मेरे प्रभु की माता मेरे पास आयीं?
44) क्योंकि देखिए, ज्यों ही आपका प्रणाम मेरे कानों में पड़ा, बच्चा मेरे गर्भ में आनन्द के मारे उछल पड़ा।
45) और धन्य हैं आप, जिन्होंने यह विश्वास किया कि प्रभु ने आप से जो कहा, वह पूरा हो जायेगा!''
46) तब मरियम बोल उठी, ''मेरी आत्मा प्रभु का गुणगान करती है,
47) मेरा मन अपने मुक्तिदाता ईश्वर में आनन्द मनाता है;
48) क्योंकि उसने अपनी दीन दासी पर कृपादृष्टि की है। अब से सब पीढ़ियॉ मुझे धन्य कहेंगी;
49) क्योंकि सर्वशक्तिमान् ने मेरे लिए महान् कार्य किये हैं। पवित्र है उसका नाम!
50) उसकी कृपा उसके श्रद्धालु भक्तों पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनी रहती है।
51) उसने अपना बाहुबल प्रदर्शित किया है, उसने घमण्डियों को तितर-बितर कर दिया है।
52) उसने शक्तिशालियों को उनके आसनों से गिरा दिया और दीनों को महान् बना दिया है।
53) उसने दरिंद्रों को सम्पन्न किया और धनियों को ख़ाली हाथ लौटा दिया है।
54) इब्राहीम और उनके वंश के प्रति अपनी चिरस्थायी दया को स्मरण कर,
55) उसने हमारे पूर्वजों के प्रति अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अपने दास इस्राएल की सुध ली है।''
56) लगभग तीन महीने एलीज’बेथ के साथ रह कर मरियम अपने घर लौट गयी।
57) एलीज’बेथ के प्रसव का समय पूरा हो गया और उसने एक पुत्र को जन्म दिया।
58) उसके पड़ोसियों और सम्बन्धियों ने सुना कि प्रभु ने उस पर इतनी बड़ी दया की है और उन्होंने उसके साथ आनन्द मनाया।
59) आठवें दिन वे बच्चे का ख़तना करने आये। वे उसका नाम उसके पिता के नाम पर ज’करियस रखना चाहते थे,
60) परन्तु उसकी माँ ने कहा, ''जी नहीं, इसका नाम योहन रखा जायेगा।''
61) उन्होंने उस से कहा, ''तुम्हारे कुटुम्ब में यह नाम तो किसी का भी नहीं है''।
62) तब उन्होंने उसके पिता से इशारे से पूछा कि वह उसका नाम क्या रखना चाहता है।
63) उसने पाटी मँगा कर लिखा, ''इसका नाम योहन है''। सब अचम्भे में पड़ गये।
64) उसी क्षण ज’करियस के मुख और जीभ के बन्धन खुल गये और वह ईश्वर की स्तुति करते हुए बोलने लगा।
65) सभी पड़ोसी विस्मित हो गये और यहूदिया के पहाड़ी प्रदेश में ये सब बातें चारों ओर फैल गयीं।
66) सभी सुनने वालों ने उन पर मन-ही-मन विचार कर कहा, ''पता नहीं, यह बालक क्या होगा?'' वास्तव में बालक पर प्रभु का अनुग्रह बना रहा।
67) उसका पिता पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो गया और उसने यह कहते हुए भविष्यवाणी कीः
68) धन्य है प्रभु, इस्राएल का ईश्वर! उसने अपनी प्रजा की सुध ली है और उसका उद्धार किया है।
69) उसने अपने दास दाऊद के वंश में हमारे लिए एक शक्तिशाली मुक्तिदाता उत्पन्न किया है।
70) वह अपने पवित्र नबियों के मुख से प्राचीन काल से यह कहता आया है
71) कि वह शत्रुओं और सब बैरियों के हाथ से हमें छुड़ायेगा
72) और अपने पवित्र विधान को स्मरण कर हमारे पूर्वजों पर दया करेगा।
73) उसने शपथ खा कर हमारे पिता इब्राहीम से कहा था
74) कि वह हम को शत्रुओं के हाथ से मुक्त करेगा,
75) जिससे हम निर्भयता, पवित्रता और धार्मिकता से जीवन भर उसके सम्मुख उसकी सेवा कर सकें।
76) बालक! तू सर्वोच्च ईश्वर का नबी कहलायेगा, क्योंकि प्रभु का मार्ग तैयार करने
77) और उसकी प्रजा को उस मुक्ति का ज्ञान कराने के लिए, जो पापों की क्षमा द्वारा उसे मिलने वाली है, तू प्रभु का अग्रदूत बनेगा।
78) हमारे ईश्वर की प्रेमपूर्ण दया से हमें स्वर्ग से प्रकाश प्राप्त हुआ है,
79) जिससे वह अन्धकार और मृत्यु की छाया में बैठने वालों को ज्योति प्रदान करे और हमारे चरणों को शान्ति-पथ पर अग्रसर करे।''
80) बालक बढ़ता गया और उसकी आत्मिक शक्ति विकसित होती गयी। वह इस्राएल के सामने प्रकट होने के दिन तक निर्जन प्रदेश में रहा।

अध्याय 2

1) उन दिनों कैसर अगस्तस ने समस्त जगत की जनगणना की राजाज्ञा निकाली।
2) यह पहली जनगणना थी और उस समय क्विरिनियुस सीरिया का राज्यपाल था।
3) सब लोग नाम लिखवाने के लिए अपने-अपने नगर जाते थे।
4) यूसुफ़ दाऊद के घराने और वंश का था; इसलिए वह गलीलिया के नाज’रेत से यहूदिया में दाऊद के नगर बेथलेहेम गया,
5) जिससे वह अपनी गर्भवती पत्नी मरियम के साथ नाम लिखवाये।
6) वे वहीं थे जब मरियम के गर्भ के दिन पूरे हो गये,
7) और उसने अपने पहलौठे पुत्र को जन्म दिया और उसे कपड़ों में लपेट कर चरनी में लिटा दिया; क्योंकि उनके लिए सराय में जगह नहीं थी।
8) उस प्रान्त में चरवाहे खेतों में रहा करते थे। वे रात को अपने झुण्ड पर पहरा देते थे।
9) प्रभु का दूत उनके पास आ कर खड़ा हो गया। ईश्वर की महिमा उनके चारों ओर चमक उठी और वे बहुत अधिक डर गये।
10) स्वर्गदूत ने उन से कहा, ''डरिए नहीं। देखिए, मैं आप को सभी लोगों के लिए बड़े आनन्द का सुसमाचार सुनाता हूँ।
11) आज दाऊद के नगर में आपके मुक्तिदाता, प्रभु मसीह का जन्म हुआ है।
12) यह आप लोगों के लिए पहचान होगी-आप एक बालक को कपड़ों में लपेटा और चरनी में लिटाया हुआ पायेंगे।''
13) एकाएक उस स्वर्गदूत के साथ स्वर्गीय सेना का विशाल समूह दिखाई दिया, जो यह कहते हुए ईश्वर की स्तुति करता था,
14) ''सर्वोच्च स्वर्ग में ईश्वर की महिमा प्रकट हो और पृथ्वी पर उसके कृपापात्रों को शान्ति मिले!''
15) जब स्वर्गदूत उन से विदा हो कर स्वर्ग चले गये, तो चरवाहों ने एक दूसरे से यह कहा, ''चलो, हम बेथलेहेम जा कर वह घटना देखें, जिसे प्रभु ने हम पर प्रकट किया है''।
16) वे शीघ्र ही चल पड़े और उन्होंने मरियम, यूसुफ़, तथा चरनी में लेटे हुए बालक को पाया।
17) उसे देखने के बाद उन्होंने बताया कि इस बालक के विषय में उन से क्या-क्या कहा गया है।
18) सभी सुनने वाले चरवाहों की बातों पर चकित हो जाते थे।
19) मरियम ने इन सब बातों को अपने हृदय में संचित रखा और वह इन पर विचार किया करती थी।
20) जैसा चरवाहों से कहा गया था, वैसा ही उन्होंने सब कुछ देखा और सुना; इसलिए वे ईश्वर का गुणगान और स्तुति करते हुए लौट गये।
21) आठ दिन बाद बालक के ख़तने का समय आया और उन्होंने उसका नाम ईसा रखा। स्वर्गदूत ने गर्भाधान के पहले ही उसे यही नाम दिया था।
22) जब मूसा की संहिता के अनुसार शुद्धीकरण का दिन आया, तो वे बालक को प्रभु को अर्पित करने के लिए येरुसालेम ले गये;
23) जैसा कि प्रभु की संहिता में लिखा है : हर पहलौठा बेटा प्रभु को अर्पित किया जाये
24) और इसलिए भी कि वे प्रभु की संहिता के अनुसार पण्डुकों का एक जोड़ा या कपोत के दो बच्चे बलिदान में चढ़ायें।
25) उस समय येरुसालेम में सिमेयोन नामक एक धर्मी तथा भक्त पुरुष रहता था। वह इस्राएल की सान्त्वना की प्रतीक्षा में था और पवित्र आत्मा उस पर छाया रहता था।
26) उसे पवित्र आत्मा से यह सूचना मिली थी कि वह प्रभु के मसीह को देखे बिना नहीं मरेगा।
27) वह पवित्र आत्मा की प्रेरणा से मन्दिर आया। माता-पिता शिशु ईसा के लिए संहिता की रीतियाँ पूरी करने जब उसे भीतर लाये,
28) तो सिमेयोन ने ईसा को अपनी गोद में ले लिया और ईश्वर की स्तुति करते हुए कहा,
29) ''प्रभु, अब तू अपने वचन के अनुसार अपने दास को शान्ति के साथ विदा कर;
30) क्योंकि मेरी आँखों ने उस मुक्ति को देखा है,
31) जिसे तूने सब राष्’ट्रों के लिए प्रस्तुत किया है।
32) यह ग़ैर-यहूदियों के प्रबोधन के लिए ज्योति है और तेरी प्रजा इस्राएल का गौरव।''
33) बालक के विषय में ये बातें सुन कर उसके माता-पिता अचम्भे में पड़ गये।
34) सिमेयोन ने उन्हें आशीर्वाद दिया और उसकी माता मरियम से यह कहा, ''देखिए, इस बालक के कारण इस्राएल में बहुतों का पतन और उत्थान होगा। यह एक चिन्ह है जिसका विरोध किया जायेगा।
35) इस प्रकार बहुत-से हृदयों के विचार प्रकट होंगे और एक तलवार आपके हृदय को आर-पार बेधेगी।
36) अन्ना नामक एक नबिया थी, जो असेर-वंशी फ़नुएल की बेटी थी। वह बहुत बूढ़ी हो चली थी। वह विवाह के बाद केवल सात बरस अपने पति के साथ रह कर
37) विधवा हो गयी थी और अब चौरासी बरस की थी। वह मन्दिर से बाहर नहीं जाती थी और उपवास तथा प्रार्थना करते हुए दिन-रात ईश्वर की उपासना में लगी रहती थी।
38) वह उसी घड़ी आ कर प्रभु की स्तुति करने और जो लोग येरुसालेम की मुक्ति की प्रतीक्षा में थे, वह उन सबों को उस बालक के विषय में बताने लगी।
39) प्रभु की संहिता के अनुसार सब कुछ पूरा कर लेने के बाद वे गलीलिया-अपनी नगरी नाज’रेत-लौट गये।
40) बालक बढ़ता गया। उस में बल तथा बुद्धि का विकास होता गया और उसपर ईश्वर का अनुग्रह बना रहा।
41) ईसा के माता-पिता प्रति वर्ष पास्का पर्व के लिए येरुसालेम जाया करते थे।
42) जब बालक बारह बरस का था, तो वे प्रथा के अनुसार पर्व के लिए येरुसालेम गये।
43) पर्व समाप्त हुआ और वे लौट पडे’; परन्तु बालक ईसा अपने माता-पिता के अनजाने में येरुसालेम में रह गया।
44) वे यह समझ रहे थे कि वह यात्रीदल के साथ है; इसलिए वे एक दिन की यात्रा पूरी करने के बाद ही उसे अपने कुटुम्बियों और परिचितों के बीच ढूँढ़ते रहे।
45) उन्होंने उसे नहीं पाया और वे उसे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते येरुसालेम लौटे।
46) तीन दिनों के बाद उन्होंने ईसा को मन्दिर में शास्त्रियों के बीच बैठे, उनकी बातें सुनते और उन से प्रश्न करते पाया।
47) सभी सुनने वाले उसकी बुद्धि और उसके उत्तरों पर चकित रह जाते थे।
48) उसके माता-पिता उसे देख कर अचम्भे में पड़ गये और उसकी माता ने उस से कहा ''बेटा! तुमने हमारे साथ ऐसा क्यों किया? देखो तो, तुम्हारे पिता और मैं दुःखी हो कर तुम को ढूँढते रहे।''
49) उसने अपने माता-पिता से कहा, ''मुझे ढूँढ़ने की ज’रूरत क्या थी? क्या आप यह नहीं जानते थे कि मैं निश्चय ही अपने पिता के घर होऊँगा?''
50) परन्तु ईसा का यह कथन उनकी समझ में नहीं आया।
51) ईसा उनके साथ नाज’रेत गये और उनके अधीन रहे। उनकी माता ने इन सब बातों को अपने हृदय में संचित रखा।
52) ईसा की बुद्धि और शरीर का विकास होता गया। वह ईश्वर तथा मनुष्यों के अनुग्रह में बढ़ते गये।

अध्याय 3

1) जब कैसर तिबेरियुस के शासनकाल के पन्द्रहवें वर्ष में पोंतियुस पिलातुस यहूदिया का राज्यपाल था; हेरोद गलीलिया का राजा, उसका भाई फ़िलिप इतूरैया और त्रखोनितिस का राजा और लुसानियस अबिलेने का राजा था;
2) जब अन्नस तथा कैफ़स प्रधानयाजक थे, उन्हीं दिनों ज’करियस के पुत्र योहन को निर्जन प्रदेश में प्रभु की वाणी सुनाई पड़ी।
3) वह यर्दन के आसपास के समस्त प्रदेश में घूम-घूम कर पापक्षमा के लिए पश्चात्ताप के बपतिस्मा का उपदेश देता था,
4) जैसा कि नबी इसायस की पुस्तक में लिखा है : निर्जन प्रदेश में पुकारने वाले की आवाज’- प्रभु का मार्ग तैयार करो; उसके पथ सीधे कर दो।
5) हर एक घाटी भर दी जायेगी, हर एक पहाड़ और पहाड़ी समतल की जायेगी, टेढ़े रास्ते सीधे और ऊबड़-खाबड़ रास्ते बराबर कर दिये जायेंगे
6) और सब शरीरधारी ईश्वर के मुक्ति-विधान के दर्शन करेंगे।
7) जो लोग योहन से बपतिस्मा ग्रहण करने आते थे, वह उन से कहता था, ''साँप के बच्चो! किसने तुम लोगों को आगामी कोप से भागने के लिए सचेत किया?
8) पश्चात्ताप के उचित फल उत्पन्न करो और यह न सोचा करो-'हम इब्राहीम की सन्तान हैं'। मैं तुम लोगों से कहता हूँ, ईश्वर इन पत्थरों से इब्राहीम के लिए सन्तान उत्पन्न कर सकता है।
9) अब पेड़ों की जड़ में कुल्हाड़ा लग चुका है। जो पेड़ अच्छा फल नहीं देता, वह काटा और आग में झोंक दिया जायेगा।''
10) जनता उस से पूछती थी, ''तो हमें क्या करना चाहिए?''
11) वह उन्हें उत्तर देता था, ''जिसके पास दो कुरते हों, वह एक उसे दे दे, जिसके पास नहीं है और जिसके पास भोजन है, वह भी ऐसा ही करे''।
12) नाकेदार भी बपतिस्मा ग्रहण करते थे और उस से यह पूछते थे, ''गुरुवर! हमें क्या करना चाहिए?''
13) वह उन से कहता था, ''जितना तुम्हारे लिये नियत है, उस से अधिक मत माँगों''।
14) सैनिक भी उस से पूछते थे, ''और हमें क्या करना चाहिए?'' वह उन से कहता था, ''किसी पर अत्याचार मत करो, किसी पर झूठा दोष मत लगाओ और अपने वेतन से सन्तुष्ट रहो''।
15) जनता में उत्सुकता बढ़ती जा रही थी और योहन के विषय में सब मन-ही-मन सोच रहे थे कि कहीं यही तो मसीह नहीं है।
16) इसलिए योहन ने सबों से कहा, ''मैं तो तुम लोगों को जल से बपतिस्मा देता हूँ; परन्तु एक आने वाले हैं, जो मुझ से अधिक शक्तिशाली हैं। मैं उनके जूते का फ़ीता खोलने योग्य नहीं हूँ। वह तुम लोगों को पवित्र आत्मा और आग से बपतिस्मा देंगे।
17) वह हाथ में सूप ले चुके हैं, जिससे वह अपना खलिहान ओसा कर साफ़ करें और अपना गेहूँ अपने बखार में जमा करें। वह भूसी को न बुझने वाली आग में जला देंगें।''
18) इस प्रकार के बहुत-से अन्य उपदेशों द्वारा योहन जनता को सुसमाचार सुनाता था।
19) जब योहन ने राजा हेरोद को उसके भाई की पत्नी हेरोदियस तथा उसके सब अन्य कुकर्मों के कारण धिक्कारा,
20) तब हेरोद ने उसे बन्दीगृह में डलवा कर अपने कुकर्मों की हद कर दी।
21) सारी जनता को बपतिस्मा मिल जाने के बाद ईसा ने भी बपतिस्मा ग्रहण किया। इसे ग्रहण करने के अनन्तर वह प्रार्थना कर ही रहे थे कि स्वर्ग खुल गया।
22) पवित्र आत्मा कपोत-जैसे शरीर के रूप में उन पर उतरा और स्वर्ग से यह वाणी सुनाई दी, ''तू मेरा प्रिय पुत्र है। मैं तुझ पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ।''
23) उस समय ईसा की उमर लगभग तीस वर्ष की थी। लोग उन्हें यूसुफ़ का पुत्र समझते थे।
24) यूसुफ़ एली का पुत्र था, एली मथात का, मथात लेवी का, लेवी मेलखी का, मेलखी यन्नई का, यन्नई यूसुफ़ का,
25) यूसुफ़ मत्ताथियस का, मत्ताथियस आमोस का, आमोस नाहुम का, नाहुम एसली का, एसली नग्गई का,
26) नग्गई मयाथ का, मयाथ मत्ताथियस सेमेई का, सेमेई योसेख का, योसेख यूदा का,
27) यूदा योहन्ना का, योहन्ना रेसा का, रेसा ज’ोरोबाबेल का, ज’ोरोबाबेल सलाथिएल का, सलाथिएल नेरी का,
28) नेरी मेलखी का, मेलखी अद्दी का, अद्दी कोसाम का, कोसाम एलमदाम का, एलमदाम एरका,
29) एरका ईसा का, ईसा एलियाज’ेर का, एलियाज’ेर योरिम का, योरिम मथात का, मथात लेवी का,
30) लेवी सिमेयोन का, सिमेयोन यूदा का, यूदा यूसुफ़ का, यूसुफ़ योनाम का, योनाम एललियाकिम का,
31) एलियाकिम मेलेया का, मेलेया मेन्ना का, मेन्ना मत्ताथा का, मत्ताथा नथान का, नथान दाऊद का,
32) दाऊद येस्से का, येस्से ओबेद का, ओबेद बोज’ का, बोज’ सला का, सला नास्सोन का,
33) नास्सोन अमिनदाब का, अमिनदाब अदमीन का, अदमीन अरनी का, अरनी एसरोन का, एसरोन फारेस का, फारेस यूदा का,
34) यूदा याकूब का, याकूब इसहाक का, इसहाक इब्राहीम का, इब्राहीम थारा का, थारा नाखोर का,
35) नाखोर सेरूख का, सेरूख रगौ का, रगौ फालेख का, फालेख एबेर का, एबेर सला का,
36) सला कैनाम का, कैनाम अरफक्षद का, अरफक्षद सेम का, सेम नूह का, नूह लाखेम का,
37) लाखेम मथूसला का, मथूसला हेनोख का, हेनोख यारेत का, यारेत मालेलेयेल का, मालेलेयेल कैनाम का,
38) कैनाम एनोस का, एनोस सेथ का, सेथ आदम का और आदम ईश्वर का पुत्र था।

अध्याय 4

1) ईसा पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो कर यर्दन के तट से लौटे। उस समय आत्मा उन्हें निर्जन प्रदेश ले चला।
2) वह चालीस दिन वहाँ रहे और शैतान ने उनकी परीक्षा ली। ईसा ने उन दिनों कुछ भी नहीं खाया और इसके बाद उन्हें भूख लगी।
3) तब शैतान ने उन से कहा, ''यदि आप ईश्वर के पुत्र हैं, तो इस पत्थर से कह दीजिए कि यह रोटी बन जाये''।
4) परन्तु ईसा ने उत्तर दिया, ''लिखा है-मनुष्य रोटी से ही नहीं जीता है''।
5) फिर शैतान उन्हें ऊपर उठा ले गया और क्षण भर में संसार के सभी राज्य दिखा कर
6) बोला, ''मैं आप को इन सभी राज्यों का अधिकार और इनका वैभव दे दूँगा। यह सब मुझे दे दिया गया है और मैं जिस को चाहता हूँ, उस को यह देता हूँ।
7) यदि आप मेरी आराधना करें, तो यह सब आप को मिल जायेगा।''
8) पर ईसा ने उसे उत्तर दिया, ''लिखा है-अपने प्रभु-ईश्वर की आराधना करो और केवल उसी की सेवा करो''।
9) तब शैतान ने उन्हें येरुसालेम ले जा कर मन्दिर के शिखर पर खड़ा कर दिया और कहा, ''यदि आप ईश्वर के पुत्र हैं, तो यहाँ से नीचे कूद जाइए;
10) क्योंकि लिखा है-तुम्हारे विषय में वह अपने दूतों को आदेश देगा कि वे तुम्हारी रक्षा करें
11) और वे तुम्हें अपने हाथों पर सँभाल लेंगे कि कहीं तुम्हारे पैरों को पत्थर से चोट न लगे''।
12) ईसा ने उसे उत्तर दिया, ''यह भी कहा है-अपने प्रभु-ईश्वर की परीक्षा मत लो''।
13) इस तरह सब प्रकार की परीक्षा लेने के बाद शैतान, निश्चित समय पर लौटने के लिए, ईसा के पास से चला गया।
14) आत्मा के सामर्थ्य से सम्पन्न हो कर ईसा गलीलिया लौटे और उनकी ख्याति सारे प्रदेश में फैल गयी।
15) वह उनके सभागृहों में शिक्षा दिया करते और सब उनकी प्रशंसा करते थे।
16) ईसा नाज’रेत आये, जहाँ उनका पालन-पोषण हुआ था। विश्राम के दिन वह अपनी आदत के अनुसार सभागृह गये। वह पढ़ने के लिए उठ खड़े हुए
17) और उन्हें नबी इसायस की पुस्तक़ दी गयी। पुस्तक खोल कर ईसा ने वह स्थान निकाला, जहाँ लिखा हैः
18) प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है, क्योंकि उसने मेरा अभिषेक किया है। उसने मुझे भेजा है, जिससे मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊँ, बन्दियों को मुक्ति का और अन्धों को दृष्टिदान का सन्देश दूँ, दलितों को स्वतन्त्र करूँ
19) और प्रभु के अनुग्रह का वर्ष घोषित करूँ।
20) ईसा ने पुस्तक बन्द कर दी और वह उसे सेवक को दे कर बैठ गये। सभागृह के सब लोगों की आँखें उन पर टिकी हुई थीं।
21) तब वह उन से कहने लगे, ''धर्मग्रन्थ का यह कथन आज तुम लोगों के सामने पूरा हो गया है''।
22) सब उनकी प्रशंसा करते रहे। वे उनके मनोहर शब्द सुन कर अचम्भे में पड़ जाते और कहते थे, ''क्या यह युसूफ़ का बेटा नहीं है?''
23) ईसा ने उन से कहा, ''तुम लोग निश्चय ही मुझे यह कहावत सुना दोगे-वैद्य! अपना ही इलाज करो। कफ़रनाहूम में जो कुछ हुआ है, हमने उसके बारे में सुना है। वह सब अपनी मातृभूमि में भी कर दिखाइए।''
24) फिर ईसा ने कहा, ''मैं तुम से यह कहता हूँ-अपनी मातृभूमि में नबी का स्वागत नहीं होता।
25) मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि जब एलियस के दिनों में साढ़े तीन वर्षों तक पानी नहीं बरसा और सारे देश में घोर अकाल पड़ा था, तो उस समय इस्राएल में बहुत-सी विधवाएँ थीं।
26) फिर भी एलियस उन में किसी के पास नहीं भेजा गया-वह सिदोन के सरेप्ता की एक विधवा के पास ही भेजा गया था।
27) और नबी एलिसेयस के दिनों में इस्राएल में बहुत-से कोढ़ी थे। फिर भी उन में कोई नहीं, बल्कि सीरी नामन ही निरोग किया गया था।''
28) यह सुन कर सभागृह के सब लोग बहुत क्रुद्ध हो गये।
29) वे उठ खड़े हुए और उन्होंने ईसा को नगर से बाहर निकाल दिया। उनका नगर जिस पहाड़ी पर बसा था, वे ईसा को उसकी चोटी तक ले गये, ताकि उन्हें नीचे गिरा दें,
30) परन्तु वे उनके बीच से निकल कर चले गये।
31) वे गलीलिया के कफ़रनाहूम नगर आये और विश्राम के दिन लोगों को शिक्षा दिया करते थे।
32) लोग उनकी शिक्षा सुन कर अचम्भे में पड़ जाते थे, क्योंकि वे अधिकार के साथ बोलते थे।
33) सभागृह में एक मनुष्य था, जो अशुद्ध आत्मा के वश में था। वह ऊँचे स्वर से चिल्ला उठा,
34) ''ईसा नाज’री! हम से आप को क्या? क्या आप हमारा सर्वनाश करने आये हैं? मैं जानता हूँ कि आप कौन हैं-ईश्वर के भेजे हुए परमपावन पुरुष।''
35) ईसा ने यह कहते हुए उसे डाँटा, '' चुप रह, इस मनुष्य से बाहर निकल जा''। अपदूत ने सब के देखते-देखते उस मनुष्य को भूमि पर पटक दिया और उसकी कोई हानि किये बिना वह उस से बाहर निकल गया।
36) सब विस्मित हो गये और आपस में यह कहते रहे, ''यह क्या बात है! वे अधिकार तथा सामर्थ्य के साथ अशुद्ध आत्माओं को आदेश देते हैं और वे निकल जाते हैं।''
37) इसके बाद ईसा की चर्चा उस प्रदेश के कोने-कोने में फैल गयी।
38) वे सभागृह से निकल कर सिमोन के घर गये। सिमोन की सास तेज’ बुखार में पड़ी हुई थी और लोगों ने उसके लिए उन से प्रार्थना की।
39) ईसा ने उसके पास जा कर बुख़ार को डाँटा और बुख़ार जाता रहा। वह उसी क्षण उठ कर उन लोगों के सेवा-सत्कार में लग गयी।
40) सूरज डूबने के बाद सब लोग नाना प्रकार की बीमारियों से पीड़ित अपने यहाँ के रोगियों को ईसा के पास ले आये। ईसा एक-एक पर हाथ रख कर उन्हें चंगा करते थे।
41) अपदूत बहुतों में से यह चिल्लाते हुये निकलते थे, ''आप ईश्वर के पुत्र हैं''। परन्तु वह उन को डाँटते और बोलने से रोकते थे, क्योंकि अपदूत जानते थे कि वह मसीह हैं।
42) ईसा प्रातःकाल घर से निकल कर किसी एकान्त स्थान में चले गये। लोग उन को खोजते-खोजते उनके पास आये और अनुरोध करते रहे कि वह उन को छोड़ कर नहीं जायें।
43) किन्तु उन्होंने उत्तर दिया, ''मुझे दूसरे नगरों को भी ईश्वर के राज्य का सुसमाचार सुनाना है-मैं इसीलिए भेजा गया हूँ''
44) और वे यहूदिया के सभागृहों में उपदेश देते रहे।

अध्याय 5

1) एक दिन ईसा गेनेसरेत की झील के पास थे। लोग ईश्वर का वचन सुनने के लिए उन पर गिरे पड़ते थे।
2) उस समय उन्होंने झील के किनारे लगी दो नावों को देखा। मछुए उन पर से उतर कर जाल धो रहे थे।
3) ईसा ने सिमोन की नाव पर सवार हो कर उसे किनारे से कुछ दूर ले चलने के लिये कहा। इसके बाद वे नाव पर बैठे हुए जनता को शिक्षा देते रहे।
4) उपदेश समाप्त करने के बाद उन्होंने सिमोन से कहा, ''नाव गहरे पानी में ले चलो और मछलियाँ पकड़ने के लिए अपने जाल डालो''।
5) सिमोन ने उत्तर दिया, ''गुरूवर! रात भर मेहनत करने पर भी हम कुछ नहीं पकड़ सके, परन्तु आपके कहने पर मैं जाल डालूँगा''।
6) ऐसा करने पर बहुत अधिक मछलियाँ फँस गयीं और उनका जाल फटने को हो गया।
7) उन्होंने दूसरी नाव के अपने साथियों को इशारा किया कि आ कर हमारी मदद करो। वे आये और उन्होंने दोनों नावों को मछलियों से इतना भर लिया कि नावें डूबने को हो गयीं।
8) यह देख कर सिमोन ने ईसा के चरणों पर गिर कर कहा, ''प्रभु! मेरे पास से चले जाइए। मैं तो पापी मनुष्य हूँ।''
9) जाल में मछलियों के फँसने के कारण वह और उसके साथी विस्मित हो गये।
10) यही दशा याकूब और योहन की भी हुई; ये जेबेदी के पुत्र और सिमोन के साझेदार थे। ईसा ने सिमोन से कहा, ''डरो मत। अब से तुम मनुष्यों को पकड़ा करोगे।''
11) वे नावों को किनारे लगा कर और सब कुछ छोड़ कर ईसा के पीछे हो लिये।
12) किसी नगर में ईसा के पास एक मनुष्य आया, जिसका शरीर कोढ़ से भरा हुआ था। वह ईसा को देख कर मुँह के बल गिर पड़ा और विनय करते हुए यह बोला, ''प्रभु! आप चाहें, तो मुझे शुद्ध कर सकते हैं।
13) ईसा ने हाथ बढ़ा कर यह कहते हुए उसका स्पर्श किया, ''मैं यही चाहता हूँ-शुद्ध जो जाओ''। उसी क्षण उसका कोढ़ दूर हो गया।
14) ईसा ने उसे किसी से कुछ न कहने का आदेश दिया और कहा, ''जा कर अपने को याजक को दिखाओ और अपने शुद्धीकरण के लिए मूसा द्वारा निर्धारित भेंट चढ़ाओं, जिससे तुम्हारा स्वास्थ्यलाभ प्रमाणित हो जाये''
15) ईसा की ख्याति बढ़ रहीं थी। भीड़-की-भीड़’ उनका उपदेश सुनने और अपने रोगों से छुटकारा पाने के लिए उनके पास आती थी,
16) और वे अलग जा कर एकान्त स्थानों में प्रार्थना किया करते थे।
17) ईसा किसी दिन शिक्षा दे रहे थे। फरीसी और शास्त्री ईसा किसी दिन शिक्षा दे रहे थे। फ़रीसी और शास्त्री पास ही बैठे हुए थे। वे गलीलिया तथा यहूदिया के हर एक गाँव से और येरुसालेम से भी आये थे। प्रभु के सामर्थ्य से प्रेरित हो कर ईसा लोगों को चंगा करते थे।
18) उसी समय कुछ लोग खाट पर पड़े हुए एक अर्द्धांगरोगी को ले आये। वे उसे अन्दर ले जा कर ईसा के सामने रख देना चाहते थे।
19) भीड़ के कारण अर्द्धागरोगी को भीतर ले जाने का कोई उपाय न देख कर वे छत पर चढ़ गये और उन्होंने खपड़े हटा कर खाट के साथ अर्द्धांगरोगी को लोगों के बीच में ईसा सामने उतार दिया।
20) उनका विश्वास देख कर ईसा ने कहा, ''भाई! तुम्हारे पाप क्षमा हो गये हैं''।
21) इस पर शास्त्री और फ़रीसी सोचने लगे, ''ईश-निन्दा करने वाला यह कौन है? ईश्वर के सिवा कौन पाप क्षमा कर सकता है?''
22) उनके ये विचार जान कर ईसा ने उन से कहा, ''मन-ही-मन क्या सोच रहे हो?
23) अधिक सहज क्या है-यह कहना, 'तुम्हारे पाप क्षमा हो गये हैं; अथवा यह कहना उठो, और चलो फिरो'?;
24) परन्तु इसलिए कि तुम लोग यह जान लो कि मानव पुत्र को पृथ्वी पर पाप क्षमा करने का अधिकार है, वह अर्द्धांगरोगी से बोले मैं तुम से कहता हूँ, उठो और अपनी खाट उठा कर घर जाओ।
25) उसी क्षण वह सब के सामने उठ खड़ा हुआ और अपनी खाट उठा कर ईश्वर की स्तुति करते हुए अपने घर चला गया।
26) सब-के-सब विस्मित हो कर ईश्वर की स्तुति करते रहे। उन पर भय छा गया और वे कहते थे, ''आज हमने अद्भुत कार्य देखे हैं''।
27) इसके बाद ईसा बाहर निकले। उन्होंने लेवी नामक नाकेदार को चुंगीघर में बैठा हुआ देखा और उस से कहा, ''मेरे पीछे चले आओ''।
28) वह उठ खड़ा हुआ और अपना सब कुछ छोड़ कर ईसा के पीछे हो लिया।
29) लेवी ने अपने यहाँ ईसा के सम्मान में एक बड़ा भोज दिया। नाकेदार और अतिथि बड़ी संख्या में उनके साथ भोजन पर बैठे।
30) फरीसी और शास्त्री भुनभुनाते और उनके शिष्यों से यह कहते थे, ''तुम लोग नाकेदारों और पापियों के साथ क्यों खाते-पीते हो?''
31) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ''निरोगियों को नहीं, रोगियों को वैद्य की ज’रूरत होती है।
32) मैं धर्मियों को नहीं, पापियों को पश्चाताप के लिए बुलाने आया हूँ।''
33) उन्होंने ईसा से कहा ''योहन के शिष्य बारम्बार उपवास करते हैं और प्रार्थना में लगे रहते हैं और फरीसियों के शिष्य भी ऐसा ही करते हैं, किन्तु आपके शिष्य खाते-पीते हैं''।
34) ईसा ने उन से कहा, ''जब तक दुलहा उनके साथ हैं, क्या तुम बारातियों से उपवास करा सकते हो?
35) किन्तु वे दिन आयोंगे, जब दुलहा उनके स बिछुड़ जायेगा। उन दिनों वे उपवास करेंगे।''
36) ईसा ने उन्हें यह दृष्टान्त भी सुनाया, ''कोई नया कपड़ा फाड़ कर पुराने कपड़े में पैबंद नहीं लगाता। नहीं तो वह नया कपड़ा फाड़ेगा और नये कपड़े का पैबंद पुराने कपड़े के साथ मेल भी नहीं खायेगा।
37) और कोई पुरानी मशकों में नयी अंगूरी नहीं भरता। नहीं तो नयी अंगूरी पुरानी मशकों को फाड़ देगी, अंगूरी बह जायेगी और मशकें बरबाद हो जायेंगी।
38) नयी अंगूरी को नयी मशकों में ही भरना चाहिए।
39) ''कोई पुरानी अंगूरी पी कर नयी नहीं चाहता। वह तो कहता है, 'पुरानी ही अच्छी है।''

अध्याय 6

1) ईसा किसी विश्राम के दिन गेंहूँ के खेतों से हो कर जा रहे थे। उनके शिष्य बालें तोड़ कर और हाथ से मसल कर खाते थे।
2) कुछ फ़रीसियों ने कहा, ''जो काम विश्राम के दिन मना है, तुम क्यों वही कर रहे हो?''
3) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ''क्या तुम लोगों ने यह नहीं पढ़ा कि जब दाऊद और उनके साथियो ंको भूख लगी, तो दाऊद ने क्या क्या किया था?
4) उन्होंने ईश-मन्दिर में जा कर भेंट की रोटियाँ उठा लीं, उन्हें स्वयं खाया तथा अपने साथियों को भी खिलाया। याजकों को छोड़ किसी और को उन्हें खाने की आज्ञा तो नहीं है।''
5) और ईसा ने उन से कहा, ''मानव पुत्र विश्राम के दिन का स्वामी''।
6) किसी दूसरे विश्राम के दिन ईसा सभागृह जा कर शिक्षा दे रहे थे। वहाँ एक मनुष्य था, जिसका दायाँ हाथ सूख गया था।
7) शास्त्री और फ़रीसी इस बात की ताक में थे कि यदि ईसा विश्राम के दिन किसी को चंगा करें, तो हम उन पर दोष लगायें।
8) ईसा ने उनके विचार जान कर सूखे हाथ वाले से कहा, ''उठो और बीच में खड़े हो जाओ''। वह उठ खड़ा हो गया।
9) ईसा ने उन से कहा, ''मैं तुम से पूछ’ता हूँ-विश्राम के दिन भलाई करना उचित है या बुराई, जान बचाना या नष्ट करना?''
10) तब उन सबों पर दृष्टि दौड़ा कर उन्होंने उस मनुष्य से कहा, ''अपना हाथ बढ़ाओ''। उसने ऐसा किया और उसका हाथ अच्छा हो गया।
11) वे बहुत क्रुद्ध हो गये और आपस में परामर्श करते रहे कि हम ईसा के विरुद्ध क्या करें।
12) उन दिनों ईसा प्रार्थना करने एक पहाड़ी पर चढ़े और वे रात भर ईश्वर की प्रार्थना में लीन रहे।
13) दिन होने पर उन्होंने अपने शिष्यों को पास बुलाया और उन में से बारह को चुन कर उनका नाम 'प्रेरित' रखा-
14) सिमोन जिसे उन्होंने पेत्रुस नाम दिया और उसके भाई अन्द्रेयस को; याकूब और योहन को; फ़िलिप और बरथोलोमी को,
15) मत्ती और थोमस को; अलफाई के पुत्र याकूब और सिमोन को, जो 'उत्साही' कहलाता है;
16) याकूब के पुत्र यूदस और यूदस इसकारियोती को, जो विश्वासघाती निकला।
17) ईसा उनके साथ उतर कर एक मैदान में खड़े हो गये। वहाँ उनके बहुत-से शिष्य थे और समस्त यहूदिया तथा येरुसालेम का और समुद्र के किनारे तीरूस तथा सिदोन का एक विशाल जनसमूह भी था, जो उनका उपदेश सुनने और अपने रोगों से मुक्त होने के लिए आया था।
18) ईसा ने अपदूतग्रस्त लोगों को चंगा किया।
19) सभी लोग ईसा को स्पर्श करने का प्रयत्न कर रहे थे, क्योंकि उन से शक्ति निकलती थी और सब को चंगा करती थी।
20) ईसा ने अपने शिष्यों की ओर देख कर कहा, ''धन्य हो तुम, जो दरिद्र हो! स्वर्गराज्य तुम लोगों का है।
21) धन्य हो तुम, जो अभी भूखे हो! तुम तृप्त किये जाओगे। धन्य हो तुम, जो अभी रोते हो! तुम हँसोगे।
22) धन्य हो तुम, जब मानव पुत्र के कारण लोग तुम से बैर करेंगे, तुम्हारा बहिष्कार और अपमान करेंगे और तुम्हारा नाम घृणित समझ कर निकाल देंगे!
23) उस दिन उल्लसित हो और आनन्द मनाओ, क्योंकि स्वर्ग में तुम्हें महान् पुरस्कार प्राप्त होगा। उनके पूर्वज नबियों के साथ ऐसा ही किया करते थे।
24) ''धिक्कार तुम्हें, जो धनी हो! तुम अपना सुख-चैन पा चुके हो।
25) धिक्कार तुम्हें, जो अभी तृप्त हो! तुम भूखे रहोगे। धिक्कार तुम्हें, जो अभी हँसते हो! तुम शोक मनाओगे और रोओगे।
26) धिक्कार तुम्हें, जब सब लोग तुम्हारी प्रशंसा करते हैं! उनके पूर्वज झूठे नबियों के साथ ऐसा ही किया करते थे।
27) ''मैं तुम लोगों से, जो मेरी बात सुनते हो, कहता हूँ-अपने शत्रुओं से प्रेम करो। जो तुम से बैर करते हैं, उनकी भलाई करो।
28) जो तुम्हें शाप देते है, उन को आशीर्वाद दो। जो तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार करते हैं, उनके लिए प्रार्थना करो।
29) जो तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारता है, दूसरा भी उसके सामने कर दो। जो तुम्हारी चादर छीनता है, उसे अपना कुरता भी ले लेने दो।
30) जो तुम से माँगता है, उसे दे दो और जो तुम से तुम्हारा अपना छीनता है, उसे वापस मत माँगो।
31) दूसरों से अपने प्रति जैसा व्यवहार चाहते हो, तुम भी उनके प्रति वैसा ही किया करो।
32) यदि तुम उन्हीं को प्यार करते हो, जो तुम्हें प्यार करते हैं, तो इस में तुम्हारा पुण्य क्या है? पापी भी अपने प्रेम करने वालों से प्रेम करते हैं।
33) यदि तुम उन्हीं की भलाई करते हो, जो तुम्हारी भलाई करते हैं, तो इस में तुम्हारा पुण्य क्या है? पापी भी ऐसा करते हैं।
34) यदि तुम उन्हीं को उधार देते हो, जिन से वापस पाने की आशा करते हो, तो इस में तुम्हारा पुण्य क्या है? पूरा-पूरा वापस पाने की आशा में पापी भी पापियों को उधार देते हैं।
35) परन्तु अपने शत्रुओं से प्रेम करो, उनकी भलाई करो और वापस पाने की आशा न रख कर उधार दो। तभी तुम्हारा पुरस्कार महान् होगा और तुम सर्वोच्च प्रभु के पुत्र बन जाओगे, क्योंकि वह भी कृतनों और दुष्टों पर दया करता है।
36) ''अपने स्वर्गिक पिता-जैसे दयालु बनो। दोष न लगाओ और तुम पर भी दोष नहीं लगाया जायेगा।
37) किसी के विरुद्ध निर्णय न दो और तुम्हारे विरुद्ध भी निर्णय नहीं दिया जायेगा। क्षमा करो और तुम्हें भी क्षमा मिल जायेगी।
38) दो और तुम्हें भी दिया जायेगा। दबा-दबा कर, हिला-हिला कर भरी हुई, ऊपर उठी हुई, पूरी-की-पूरी नाप तुम्हारी गोद में डाली जायेगी; क्योंकि जिस नाप से तुम नापते हो, उसी से तुम्हारे लिए भी नापा जायेगा।''
39) ईसा ने उन्हें एक दृष्टान्त सुनाया, ''क्या अन्धा अन्धे को राह दिखा सकता है? क्या दोनों ही गड्ढे में नहीं गिर पडेंगे?
40) शिष्य गुरू से बड़ा नहीं होता। पूरी-पूरी शिक्षा प्राप्त करने के बाद वह अपने गुरू-जैसा बन सकता है।
41) ''जब तुम्हें अपनी ही आँख की धरन का पता नहीं, तो तुम अपने भाई की आँख का तिनका क्यों देखते हो?
42) जब तुम अपनी ही आँख की धरन नहीं देखते हो, तो अपने भाई से कैसे कह सकते हो, 'भाई! मैं तुम्हारी आँख का तिनका निकाल दूँ?' ढोंगी! पहले अपनी ही आँख की धरन निकालो। तभी तुम अपने भाई की आँख का तिनका निकालने के लिए अच्छी तरह देख सकोगे।
43) ''कोई अच्छा पेड़ बुरा फल नहीं देता और न कोई बुरा पेड़ अच्छा फल देता है।
44) हर पेड़ अपने फल से पहचाना जाता है। लोग न तो कँटीली झाड़ियों से अंजीर तोड़ते हैं और न ऊँटकटारों से अंगूर।
45) अच्छा मनुष्य अपने हृदय के अच्छे भण्डार से अच्छी चीजे’ं निकालता है और जो बुरा है, वह अपने बुरे भण्डार से बुरी चीजें’ निकालता है; क्योंकि जो हृदय में भरा है, वहीं तो मुँह से बाहर आता है।
46) ''जब तुम मेरा कहना नहीं मानते, तो 'प्रभु! प्रभु! कह कर मुझे क्यों पुकारते हो?
47) जो मेरे पास आ कर मेरी बातें सुनता और उन पर चलता है-जानते हो, वह किसके सदृश है?
48) वह उस मनुष्य के सदृश है, जो घर बनाते समय गहरा खोदता और उसकी नींव चट्टान पर डालता है। बाढ़ आती है, और जलप्रवाह उस मकान से टकराता है, किन्तु वह उसे ढा नहीं पाता; क्योंकि वह घर बहुत मज’बूत बना है।
49) परन्तु जो मेरी बातें सुनता है और उन पर नहीं चलता, वह उस मनुष्य के सदृश है, जो बिना नींव डाले भूमितल पर अपना घर बनाता है। जल-प्रवाह की टक्कर लगते ही वह घर ढह जाता है और उसका सर्वनाश हो जाता है।''

अध्याय 7

1) जनता को अपने ये उपदेश सुनाने के बाद ईसा कफ़रनाहूम आये।
2) वहाँ एक शतपति का अत्यन्त प्रिय नौकर किसी रोग से मर रहा था।
3) शतपति ने ईसा की चर्चा सुनी थी; इसलिए उसने यहूदियों के कुछ प्रतिष्ठित नागरिकों को ईसा के पास यह निवेदन करने के लिए भेजा कि आप आ कर मेरे नौकर को बचायें।
4) वे ईसा के पास आ कर आग्रह के साथ यह कहते हुए उन से विनय करते रहे, ''वह शतपति इस योग्य है कि आप उसके लिए ऐसा करें।
5) वह हमारे राष्ट्र से प्रेम करता है और उसी ने हमारे लिए सभागृह बनवाया।''
6) ईसा उनके साथ चले। वे उसके घर के निकट पहुंँचे ही थे कि शतपति ने मित्रों द्वारा ईसा के पास यह कहला भेजा, ''प्रभु! आप कष्ट न करें, क्योंकि मैं इस योग्य नहीं हूँ कि आप मेरे यहाँ आयें।
7) इसलिए मैने अपने को इस योग्य नहीं समझा कि आपके पास आऊँ। आप एक ही शब्द कह दीजिए और मेरा नौकर चंगा हो जायेगा।
8) मैं एक छोटा-सा अधिकारी हूँ। मेरे अधीन सिपाही रहते हैं। जब मैं एक से कहता हूँ- 'जाओ', तो वह जाता है और दूसरे से- 'आओ', तो वह आता है और अपने नौकर से-'यह करो', तो वह यह करता है।''
9) ईसा यह सुन कर चकित हो गये और उन्होंने पीछे आते हुए लोगों की ओर मुड़ कर कहा, ''मै तुम लोगों से कहता हूँ- इस्राएल में भी मैंने इतना दृढ़ विश्वास नहीं पाया''।
10) और भेजे हुए लोगों ने घर लौट कर रोगी नौकर को भला-चंगा पाया।
11) इसके बाद ईसा नाईन नगर गये। उनके साथ उनके शिष्य और एक विशाल जनसमूह भी चल रहा था।
12) जब वे नगर के फाटक के निकट पहुँचे, तो लोग एक मुर्दे को बाहर ले जा रहे थे। वह अपनी माँ का इकलौता बेटा था और वह विधवा थी। नगर के बहुत-से लोग उसके साथ थे।
13) माँ को देख कर प्रभु को उस पर तरस हो आया और उन्होंने उस से कहा, ''मत रोओ'',
14) और पास आ कर उन्होंने अरथी का स्पर्श किया। इस पर ढोने वाले रूक गये। ईसा ने कहा, ''युवक! मैं तुम से कहता हूँ, उठो''।
15) मुर्दा उठ बैठा और बोलने लगा। ईसा ने उसको उसकी माँ को सौंप दिया।
16) सब लोग विस्मित हो गये और यह कहते हुए ईश्वर की महिमा करते रहे, ''हमारे बीच महान् नबी उत्पन्न हुए हैं और ईश्वर ने अपनी प्रजा की सुध ली है''।
17) ईसा के विषय में यह बात सारी यहूदिया और आसपास के समस्त प्रदेश में फैल गयी।
18) योहन के शिष्यों ने योहन को इन सब बातों की ख़बर सुनायी।
19) योहन ने अपने दो शिष्यों को बुला कर ईसा के पास यह पूछने भेजा, ''क्या आप वही हैं, जो आने वाले हैं या हम किसी और की प्रतीक्षा करें?''
20) इन दो शिष्यों ने ईसा के पास आ कर कहा, ''योहन बपतिस्मा ने हमें आपके पास यह पूछने भेजा है-क्या आप वहीं हैं, जो आने वाले हैं या हम किसी और की प्रतीक्षा करें?''
21) उस समय ईसा बहुतों को बीमारियों, कष्टों और अपदूतों से मुक्त कर रहे थे और बहुत-से अन्धों को दृष्टि प्रदान कर रहे थे।
22) उन्होंने योहन के शिष्यों से कहा, ''जाओ, तुमने जो सुना और देखा है, उसे योहन को बता दो-अन्धे देखते हैं, लंगड़े चलते हैं, कोढ़ी शुद्ध किये जाते हैं, बहरे सुनते हैं, मुर्दे जिलाये जाते हैं, दरिद्रों को सुसमाचार सुनाया जाता है
23) और धन्य है वह, जिसका, विश्वास मुझ पर से नहीं उठता!''
24) योहन द्वारा भेजे हुए शिष्यों के चले जाने के बाद ईसा लोगों से योहन के विषय में कहने लगे, ''तुम निर्जन प्रदेश में क्या देखने गये थे? हवा से हिलते हुए सरकण्डे को? नहीं!
25) तो, तुम क्या देखने गये थे? बढ़िया कपड़े पहने मनुष्य को? नहीं! कीमती वस्त्र पहनने वाले और भोग-विलास में जीवन बिताने वाले महलों में रहते हैं।
26) आख़िर तुम क्या देखने निकले थे? किसी नबी को? निश्चय ही! मैं तुम से कहता हूँ, - नबी से भी महान् व्यक्ति को।
27) यह वही है, जिसके विषय में लिखा है-देखो, मैं अपने दूत को तुम्हारे आगे भेजता हूँ। वह तुम्हारा मार्ग तैेयार करेगा।
28) मैं तुम से कहता हूँ, मनुष्यों में योहन बपतिस्ता से बड़ा कोई नहीं। फिर भी, ईश्वर के राज्य में जो सब से छोटा है, वह योहन से बड़ा है।
29) ''सारी जनता और नाकेदारों ने भी योहन की बात सुन कर और उसका बपतिस्मा ग्रहण कर ईश्वर की इच्छा पूरी की,
30) परन्तु फ़रीसियों और शास्त्रियों ने उसका बपतिस्मा ग्रहण नहीं कर अपने विषय में ईश्वर का आयोजन व्यर्थ कर दिया।
31) मैं इस पीढ़ी के लोगों की तुलना किस से करूँ? वे किसके सदृश हैं?
32) वे बाज’ार में बैठे हुए छोकरों के सदृश हैं, जो एक दूसरे को पुकार कर कहते हैं: हमने तुम्हारे लिए बाँसुरी बजायी और तुम नहीं नाचे, हमने विलाप किया और तुम नहीं रोये;
33) क्योंकि योहन बपतिस्ता आया, जो न रोटी खाता और न अंगूरी पीता है और तुम कहते हो-उसे अपदूत लगा है।
34) मानव पुत्र आया, जो खाता-पीता है और तुम कहते हो-देखो, यह आदमी पेटू और पियक्कड़ है, नाकेदारों और पापियों का मित्र है।
35) किन्तु ईश्वर की प्रज्ञा उसकी प्रजा द्वारा सही प्रमाणित हुई है।''
36) किसी फ़रीसी ने ईसा को अपने यहाँ भोजन करने का निमन्त्रण दिया। वे उस फ़रीसी के घर आ कर भोजन करने बैठे।
37) नगर की एक पापिनी स्त्री को यह पता चला कि ईसा फ़रीसी के यहाँ भोजन कर रहे हैं। वह संगमरमर के पात्र में इत्र ले कर आयी
38) और रोती हुई ईसा के चरणों के पास खड़ी हो गयी। उसके आँसू उनके चरण भिगोने लगे, इसलिए उसने उन्हें अपने केशों से पोंछ लिया और उनके चरणो को चूम-चूम कर उन पर इत्र लगाया।
39) जिस फ़रीसी ने ईसा को निमन्त्रण दिया था, उसने यह देख कर मन-ही-मन कहा, ''यदि वह आदमी नबी होता, तो जरूर जाना जाता कि जो स्त्री इसे छू रही है, वह कौन और कैसी है-वह तो पापिनी है''।
40) इस पर ईसा ने उस से कहा, ''सिमोन, मुझे तुम से कुछ कहना है''। उसने उत्तर दिया, ''गुरूवर! कहिए''।
41) ''किसी महाजन के दो कर्जदार थे। एक पाँच सौ दीनार का ऋणी था और दूसरा, पचास का।
42) उनके पास कर्ज अदा करने के लिए कुछ नहीं था, इसलिए महाजन ने दोनों को माफ़ कर दिया। उन दोनों में से कौन उसे अधिक प्यार करेगा?''
43) सिमोन ने उत्तर दिया, ''मेरी समझ में तो वही, जिसका अधिक ऋण माफ हुआ''। ईसा ने उस से कहा, ''तुम्हारा निर्णय सही है।''।
44) तब उन्होंने उस स्त्री की ओर मुड़ कर सिमोन से कहा, ''इस स्त्री को देखते हो? मैं तुम्हारे घर आया, तुमने मुझे पैर धोने के लिए पानी नहीं दिया; पर इसने मेरे पैर अपने आँसुओं से धोये और अपने केशों से पोंछे।
45) तुमने मेरा चुम्बन नहीं किया, परन्तु यह जब से भीतर आयी है, मेरे पैर चूमती रही है।
46) तुमने मेरे सिर में तेल नहीं लगाया, पर इसने मेरे पैरों पर इत्र लगाया है।
47) इसलिए मैं तुम से कहता हूँ, इसके बहुत-से पाप क्षमा हो गये हैं, क्योंकि इसने बहुत प्यार दिखाया है। पर जिसे कम क्षमा किया गया, वह कम प्यार दिखाता है।''
48) तब ईसा ने उस स्त्री से कहा, ''तुम्हारे पाप क्षमा हो गये हैं''।
49) साथ भोजन करने वाले मन-ही-मन कहने लगे, ''यह कौन है जो पापों को भी क्षमा करता है?''
50) पर ईसा ने उस स्त्री से कहा, ''तुम्हारे विश्वास ने तुम्हारा उद्धार किया है। शान्ति प्राप्त कर जाओ।''

अध्याय 8

1) इसके बाद ईसा नगर-नगर और गाँव-गाँव घूम कर उपदेश देते और ईश्वर के राज्य का सुसमाचार सुनाते रहे। बारह प्रेरित उनके साथ थे
2) और कुछ नारियाँ भी, जो दुष्ट आत्माओं और रोगों से मुक्त की गयी थीं-मरियम, जिसका उपनाम मगदलेना था और जिस से सात अपदूत निकले थे,
3) हेरोद के कारिन्दा खूसा की पत्नी योहन्ना; सुसन्ना और अनेक अन्य नारियाँ भी, जो अपनी सम्पत्ति से ईसा और उनके शिष्यों की सेवा-परिचर्या करती थीं।
4) एक विशाल जनसमूह एकत्र हो रहा था और नगर-नगर से लोग ईसा के पास आ रहे थे। उस समय उन्होंने यह दृष्टान्त सुनाया,
5) ''कोई बोने वाला बीज बोने निकला। बोते-बोते कुछ बीज रास्ते के किनारे गिरे। वे पैरों से रौंदे गये और आकाश के पक्षियों ने उन्हें चुग लिया।
6) कुछ बीज पथरीली भूमि पर गिरे। वे उग कर नमी के अभाव में झुलस गये।
7) कुछ बीज काँटों में गिरे। साथ-साथ बढ़ने वाले काँटों ने उन्हें दबा दिया।
8) कुछ बीज अच्छी भूमि पर गिरे। वे उग कर सौ गुना फल लाये।'' इतना कहने के बाद वह पुकार कर बोले, ''जिसके सुनने के कान हों, वह सुन ले''।
9) शिष्यों ने उन से इस दृष्टान्त का अर्थ पूछा।
10) उन्होंने उन से कहा, ''तुम लोगों को ईश्वर के राज्य का भेद जानने का वरदान मिला है। दूसरों को केवल दृष्टान्त मिले, जिससे वे देखते हुए भी नहीं देखें और सुनते हुए भी नहीं समझें।
11) ''दृष्टान्त का अर्थ इस प्रकार है। ईश्वर का वचन बीज है।
12) रास्ते के किनारे गिरे हुए बीज वे लोग हैं, जो सुनते हैं, परन्तु कहीं ऐसा न हो कि वे विश्वास करें और मुक्ति प्राप्त कर लें, इसलिए शैतान आ कर उनके हृदय से वचन ले जाता है।
13) चट्टान पर गिरे हुए बीज वे लोग हैं, जो वचन सुनते ही प्रसन्नता से ग्रहण करते हैं, किन्तु जिन में जड़ नहीं है। वे कुछ ही समय तक विश्वास करते हैं और संकट के समय विचलित हो जाते हैं।
14) काँटों में गिरे हुए बीज वे लोग हैं, जो सुनते हैं, परन्तु आगे चल कर वे चिन्ता, धन-सम्पत्ति और जीवन का भोग-विलास से दब जाते हैं और परिपक्वता तक नहीं पहुँच पाते।
15) अच्छी भूमि पर गिरे हुए बीज वे लोग हैं, जो सच्चे और निष्कपट हृदय से वचन सुन कर सुरक्षित रखते और अपने धैर्य के कारण फल लाते हैं।
16) ''कोई दीपक जला कर बरतन से नहीं ढकता या पलंग के नीचे नहीं रखता, बल्कि वह उसे दीवट पर रख देता है, जिससे भीतर आने वाले उसका प्रकाश देख सकें।
17) ''ऐसा कुछ भी छिपा हुआ नहीं है, जो प्रकट नहीं होगा और ऐसा कुछ भी गुप्त नहीं है, जो नहीं फैलेगा और प्रकाश में नहीं आयेगा।
18) तो इसके सम्बन्ध में सावधान रहो कि तुम किस तरह सुनते हो; क्योंकि जिसके पास कुछ है, उसी को और दिया जायेगा और जिसके पास कुछ नहीं है, उस से वह भी ले लिया जायेगा, जिसे वह अपना समझता है।
19) ईसा की माता और भाई उन से मिलने आये, किन्तु भीड़ के कारण उनके पास नहीं पहुँच सके।
20) लोगों ने उन से कहा, ''आपकी माता और आपके भाई बाहर हैं। वे आप से मिलना चाहते हैं।''
21) उन्होंने उत्तर दिया, ''मेरी माता और मेरे भाई वहीं हैं, जो ईश्वर का वचन सुनते और उसका पालन करते हैं''।
22) ईसा एक दिन अपने शिष्यों के साथ नाव में बैठ गये और उन से बोले, ''हम झील के उस पार चलें।'' वे चल पड़े।
23) नाव चल रही थी और ईसा सो गये। तब झील में झंझावात उठा, नाव पानी से भरी जा रही थी और वे संकट में पड़ गये।
24) शिष्यों ने ईसा के पास आ कर उन्हें जगाया और कहा, ''गुरूवर! गुरूवर! हम डूब रहे हैं!'' वे जाग गये और उन्होंने वायु तथा लहरों को डाँटा। वे थम गयीं और शान्ति छा गयी।
25) तब उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, ''तुम लोगों का विश्वास कहाँ है?'' उन पर भय छा गया और वे अचम्भे में पड़ कर आपस में यह कहते रहे, ''आखिर यह कौन है?'' ये वायु और लहरों को भी आज्ञा देते हैं और वे इनकी आज्ञा मानती हैं।''
26) वे नाव से उतर कर गेरासेनियों के प्रदेश पहुँचे, जो झील के उस पार गलीलिया के सामने है।
27) ईसा ज्यों ही भूमि पर उतरे, उस नगर का एक अपदूतग्रस्त मनुष्य उनके पास आया। वह बहुत दिनों से कपड़े नहीं पहनता था और घर में नहीं, मक़बरों में रहा करता था।
28) वह ईसा को देख कर चिल्ला उठा और दण्डवत् कर ऊँचे स्वर से बोला, ''ईसा! सर्वोच्च ईश्वर के पुत्र! मुझ से आप को क्या? मैं आप से विनती करता हूँ, मुझे न सताइए'';
29) क्योंकि ईसा अशुद्ध; आत्मा को उस मनुष्य से निकल जाने का आदेश दे रहे थे। अशुद्ध आत्मा उसे बार-बार लग जाता था और वश में रखने के लिए लोग उसे जंजीरों और बेड़ियों से जकड़ देते थे; किन्तु वह अपने बन्धनों को तोड़ देता था और अशुद्ध आत्मा उसे निर्जन स्थानों में ले जाया करता था।
30) ईसा ने अपदूत से पूछा, ''तेरा नाम क्या है?'' उसने कहा, ''सेना,'', क्योंकि उस मनुष्य में बहुत-से अपदूत घुस आये थे।
31) वे ईसा से अनुनय-विनय करते रहे कि वे उन को अथाह गर्त में जाने का आदेश न दें।
32) वहाँ पहाड़ी पर सूअरों का एक बड़ा झुण्ड चर रहा था। उन्होंने ईसा से विनती की कि वह उन्हें सूअरों में घुसने की अनुमति दें। ईसा ने अनुमति दे दी।
33) तब अपदूत उस मनुष्य से निकल कर सूअरों में जा घुसे और वह झुण्ड तेजी से ढाल पर से झील में कूद पड़ा और डूब कर मर गया।
34) यह देख कर सूअर चराने वाले भाग गये और उन्होंने नगर तथा बस्तियों में इसकी ख़बर फैला दी।
35) लोग यह सब देखने निकले। वे ईसा के पास आये और यह देखकर भयभीत हो गये कि वह मनुष्य, जिस से अपदूत निकले थे, कपड़े पहने शान्त भाव से ईसा के चरणों में बैठा हुआ है।
36) जिन्होंने यह सब अपनी आँखों से देखा था, उन्होंने लोगों को बताया कि किस तरह अपदूतग्रस्त का उद्धार हुआ।
37) तब गेरासेनी प्रदेश की सारी जनता ने अत्यन्त भयभीत हो कर ईसा से यह निवेदन किया कि वे उनके यहाँ से चले जायें। ईसा नाव पर चढ़ कर लौट गये।
38) जिस मनुष्य से अपदूत निकले थे, वह ईसा से यह विनती करता रहा कि मुझे अपने साथ रहने दीजिए; पर ईसा ने उसे विदा करते हुए कहा,
39) ''अपने यहाँ लौट जाओ और लोगों को यह बताओं कि ईश्वर ने तुम्हारे लिए क्या-क्या किया है''। वह जा कर सारे नगर में यह सुनाता फिरता रहा कि ईसा ने मेरे लिए क्या-क्या किया है।
40) जब ईसा लौटे, तो लोगों ने उनका स्वागत किया, क्योंकि सभी उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे।
41) उस समय सभागृह का जैरूस नामक अधिकारी आया और ईसा को दण्डवत् कर उन से अनुनय-विनय करता रहा कि वह उसके यहाँ चलने की कृपा करें,
42) क्योंकि उसकी लगभग बारह बरस की इकलौती बेटी मरने पर थी। वे उसके साथ चले। रास्ते में भीड़ चारों ओर से उन पर गिरी पड़ती थी।
43) एक स्त्री बारह बरस से रक्तस्राव से पीड़ित थी। कोई भी उसे स्वस्थ नहीं कर सका था।
44) उसने पीछे से आ कर ईसा की चादर का पल्लू छू लिया और उसका रक्तस्राव उसी क्षण बन्द हो गया।
45) ईसा ने कहा, ''किसने मेरा स्पर्श किया?'' सबों के इनकार करने पर पेत्रुस बोला, ''गुरूवर! चारों ओर से लोग आप को घेर लेते और आप पर गिरे पड़ते हैं''।
46) ईसा ने कहा, ''किसी ने अवश्य मेरा स्पर्श किया। मैंने अनुभव किया कि मुझ से शक्ति निकली है।''
47) यह समझ कर कि मैं छिप नहीं सकती, वह स्त्री डरती-काँपती हुई आयी और उन्हें दण्डवत् कर उसने सबों के सामने बताया कि मैंने क्यों उनका स्पर्श किया और मैं कैसे उसी क्षण स्वस्थ हो गयी।
48) ईसा ने उस से कहा, ''बेटी, तुम्हारे विश्वास ने तुम्हें चंगा कर दिया है। शान्ति प्राप्त कर जाओ।''
49) ईसा यह कह ही रहे थे कि सभागृृह के अधिकारी के यहाँ से कोई यह कहने आया, ''आपकी बेटी मर गयी है। अब आप गुरूवर को कष्ट न दीजिए।''
50) किन्तु यह सुन कर ईसा ने उस से कहा, ''डरिए नहीं। बस, विश्वास कीजिए और वह चंगी हो जायेगी।''
51) उन्होंने घर पहुँच कर पेत्रुस, योहन तथा याकूब और लड़की के माता-पिता के सिवा किसी को अपने साथ अन्दर नहीं जाने दिया।
52) सब रो रहे थे और उसके लिए विलाप कर रहे थे। ईसा ने कहा, ''मत रोओ! वह नहीं मरी सो रही है''।
53) वे उनकी हँसी उड़ाते रहे, क्योंकि वे भली-भाँति यह जानते थे कि वह मर गयी है।
54) ईसा ने उसका हाथ पकड़ कर पुकारा, ''ओ लड़की! उठो!''
55) उसके प्राण लौट आये और वह उसी क्षण उठ खड़ी हो गयी। ईसा ने उसे कुछ खिलाने को कहा।
56) उसके मात-पिता दंग रह गये, किन्तु ईसा ने आदेश दिया कि वे इस घटना की चर्चा किसी से नहीं करें।

अध्याय 9

1) ईसा ने बारहों को बुला कर उन्हें सब अपदूतों पर सामर्थ्य तथा अधिकार दिया और रोगों को दूर करने की शक्ति प्रदान की।
2) तब ईसा ने उन्हें ईश्वर के राज्य का सुसमाचार सुनाने और बीमारों को चंगा करने भेजा।
3) उन्होंने उन से कहा, ''रास्ते के लिए कुछ भी न ले जाओ-न लाठी, न झोली, न रोटी, न रुपया। अपने लिए दो कुरते भी न रखो।
4) जिस घर में ठहरने जाओ, नगर से विदा होने तक वहीं रहो।
5) यदि लोग तुम्हारा स्वागत न करें, तो उनके नगर से निकलने पर उन्हें चेतावनी देने के लिए अपने पैरों की धूल झाड़ दो।''
6) वे चले गये और सुसमाचार सुनाते तथा लोगों को चंगा करते हुए गाँव-गाँव घूमते रहे।
7) राजा हेरोद उन सब बातों की चर्चा सुन कर असमंजस में पड़ गया, क्योंकि कुछ लोग कहते थे कि योहन मृतकों में से जी उठा है।
8) कुछ कहते थे कि एलियस प्रकट हुआ है और कुछ लोग कहते थे कि पुराने नबियों में से कोई जी उठा है।
9) हरोद ने कहा, ''योहन का तो मैंने सिर कटवा दिया। फिर यह कौन है, जिसके विषय में ऐसी बातें सुनता हूँ?'' और वह ईसा को देखने के लिए उत्सुक था।
10) प्रेरितों ने लौट कर ईसा को बताया कि हम लोगों ने क्या-क्या किया है। वे उन्हें अपने साथ ले कर बेथसाइदा नगर की ओर एक निर्जन स्थान गये,
11) किन्तु लोगों को इसका पता चल गया और वे भी उनके पीछे हो लिये। ईसा ने उनका स्वागत किया, ईश्वर के राज्य के विषय में उन को शिक्षा दी और बीमारों को अच्छा किया।
12) अब दिन ढलने लगा था। बारहों ने उनके पास आ कर कहा, ''लोगों को विदा कीजिए, जिससे वे आसपास के गाँवों और बस्तियों में जा कर रहने और खाने का प्रबन्ध कर सकें। यहाँ तो हम लोग निर्जन स्थान में हैं।''
13) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ''तुम लोग ही उन्हें खाना दो''। उन्होंने कहा, ''हमारे पास तो केवल पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ हैं। क्या आप चाहते हैं कि हम स्वयं जा कर उन सब के लिए खाना ख़रीदें?''
14) वहाँ लगभग पाँच हज’ार पुरुष थे। ईसा ने अपने शिष्यों से कहा, ''पचास-पचास कर उन्हें बैठा दो''।
15) उन्होंने ऐसा ही किया और सब को बैठा दिया।
16) तब ईसा ने वे पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ ले लीं, स्वर्ग की ओर आँखें उठा कर उन पर आशिष की प्रार्थना पढ़ी और उन्हें तोड़-तोड़ कर वे अपने शिष्यों को देते गये ताकि वे उन्हें लोगों में बाँट दें।
17) सबों ने खाया और खा कर तृप्त हो गये, और बचे हुए टुकड़ों से बारह टोकरे भर गये।
18) ईसा किसी दिन एकान्त में प्रार्थना कर रहे थे और उनके शिष्य उनके साथ थे। ईसा ने उन से पूछा, ''मैं कौन हूँ, इस विषय में लोग क्या कहते हैं?''
19) उन्होंने उत्तर दिया, ''योहन बपतिस्ता; कुछ लोग कहतें-एलियस; और कुछ लोग कहते हैं-प्राचीन नबियों में से कोई पुनर्जीवित हो गया है''।
20) ईसा ने उन से कहा, ''और तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हूँ?'' पेत्रुस ने उत्तर दिया, ''ईश्वर के मसीह''।
21) उन्होंने अपने शिष्यों को कड़ी चेतावनी दी कि वे यह बात किसी को भी नहीं बतायें।
22) उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, ''मानव पुत्र को बहुत दुःख उठाना होगा; नेताओं, महायाजकों और शास्त्रियों द्वारा ठुकराया जाना, मार डाला जाना और तीसरे दिन जी उठना होगा''।
23) इसके बाद ईसा ने सबों से कहा, ''जो मेरा अनुसरण करना चाहता है, वह आत्मत्याग करे और प्रतिदिन अपना क्रूस उठा कर मेरे पीछे हो ले;
24) क्योंकि जो अपना जीवन सुरक्षित रखना चाहता है, वह उसे खो देता है, और जो मेरे कारण अपना जीवन खो देता है, वह उसे सुरक्षित रखेगा।
25) मनुष्य को इस से क्या लाभ, यदि वह सारा संसार तो प्राप्त कर ले, लेकिन अपना जीवन ही गँवा दे या अपना सर्वनाश कर ले?
26) जो मुझे तथा मेरी शिक्षा को स्वीकार करने में लज्जा अनुभव करेगा, मानव पुत्र भी उसे स्वीकार करने में लज्जा अनुभव करेगा, जब वह अपनी, अपने पिता तथा पवित्र स्वर्गदूतों की महिमा के साथ आयेगा।
27) मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ-यहाँ कुछ ऐसे लोग विद्यमान हैं, जो तब तक नहीं मरेंगे, जब तक वे ईश्वर का राज्य न देख लें।''
28) इन बातों के करीब आठ दिन बाद ईसा पेत्रुस, योहन और याकूब को अपने साथ ले गये और प्रार्थना करने के लिए एक पहाड़ पर चढ़े।
29) प्रार्थना करते समय ईसा के मुखमण्डल का रूपान्तरण हो गया और उनके वस्त्र उज्जवल हो कर जगमगा उठे।
30) दो पुरुष उनके साथ बातचीत कर रहे थे। वे मूसा और एलियस थे,
31) जो महिमा-सहित प्रकट हो कर येरुसालेम में होने वाली उनकी मृत्यु के विषय में बातें कर रहे थे।
32) पेत्रुस और उसके साथी, जो ऊँघ रहे थे, अब पूरी तरह जाग गये। उन्होंने ईसा की महिमा को और उनके साथ उन दो पुरुषों को देखा।
33) वे विदा हो ही रहे थे कि पेत्रुस ने ईसा से कहा, ''गुरूवर! यहाँ होना हमारे लिए कितना अच्छा है! हम तीन तम्बू खड़ा कर दें- एक आपके लिए, एक मूसा और एक एलियस के लिए।'' उसे पता नहीं था कि वह क्या कह रहा है।
34) वह बोल ही रहा था कि बादल आ कर उन पर छा गया और वे बादल से घिर जाने के कारण भयभीत हो गये।
35) बादल में से यह वाणी सुनाई पड़ी, ''यह मेरा परमप्रिय पुत्र है। इसकी सुनो।''
36) वाणी समाप्त होने पर ईसा अकेले ही रह गये। शिष्य इस सम्बन्ध में चुप रहे और उन्होंने जो देखा था, उस विषय पर वे उन दिनों किसी से कुछ नहीं बोले।
37) दूसरे दिन जब वे पहाड़ से उतरे, तो एक विशाल जनसमूह ईसा से मिलने आया।
38) उस में एक मनुष्य ने पुकार कर कहा, ''गुरूवर! आप से मेरी यह प्रार्थना है कि आप मेरे पुत्र पर कृपादृष्टि करें। वह मेरा इकलौता है।
39) उसे अपदूत लग जाया करता है, जिससे वह अचानक चिल्ला उठता और फेन उगलता है, और उसका शरीर ऐंठने लगता है। वह उसकी नस-नस तोड़ कर बड़ी मुश्किल से उस से निकलता है।
40) मैंने आपके शिष्यों से उसे निकालने की प्रार्थना की, परन्तु वे ऐसा नहीं कर सके।''
41) ईसा ने उत्तर दिया, ''अविश्वासी और दुष्ट पीढ़ी! मैं कब तक तुम्हारे साथ रहूँ? कब तक तुम्हें सहता रहूँ? अपने पुत्र को यहाँ ले आओ।''
42) लड़का पास आ ही रहा था कि अपदूत ने उसे भूमि पर पटक कर मरोड़ दिया, किन्तु ईसा ने अशुद्ध आत्मा को डाँटा और लड़के को चंगा कर उसके पिता को सौंप दिया।
43) ईश्वर का यह प्रताप देख कर सब-के-सब विस्मय-विमुग्ध हो गये। सब लोग ईसा के कार्यों को देख कर अचम्भे में पड़ जाते थे; किन्तु उन्होंने अपने शिष्यों से कहा,
44) ''तुम लोग मेरे इस कथन को भली भाँति स्मरण रखो-मानव पुत्र मनुष्यों के हवाले कर दिया जायेगा''।
45) परन्तु यह बात उनकी समझ में नहीं आ सकी। इसका अर्थ उन से छिपा रह गया और वे इसे नहीं समझ पाते थे। इसके विषय में ईसा से प्रश्न करने में उन्हें संकोच होता था।
46) शिष्यों में यह विवाद छिड़ गया कि हम में सब से बड़ा कौन है।
47) ईसा ने उनके विचार जान कर एक बालक को बुलाया और उसे अपने पास खड़ा कर
48) उन से कहा, ''जो मेरे नाम पर इस बालक का स्वागत करता है, वह मेरा स्वागत करता है और जो मेरा स्वागत करता है, वह उसका स्वागत करता है, जिसने मुझे भेजा है; क्योंकि तुम सब में जो छोटा है, वही बड़ा है।''
49) योहन ने कहा, ''गुरूवर! हमने किसी को आपका नाम ले कर अपदूतों को निकालते देखा है और हमने उसे रोकने की चेष्टा की, क्योंकि वह हमारी तरह आपका अनुसरण नहीं करता''।
50) ईसा ने कहा, ''उसे मत रोको। जो तुुम्हारे विरुद्ध नहीं है, वह तुम्हारे साथ हैं।''
51) अपने स्वर्गारोहण का समय निकट आने पर ईसा ने येरुसालेम जाने का निश्चय किया
52) और सन्देश देने वालों को अपने आगे भेजा। वे चले गये और उन्होंने ईसा के रहने का प्रबन्ध करने समारियों के एक गाँव में प्रवेश किया।
53) लोगों ने ईसा का स्वागत करने से इनकार किया, क्योंकि वे येरुसालेम जा रहे थे।
54) उनके शिष्य याकूब और योहन यह सुन कर बोल उठे, ''प्रभु! आप चाहें, तो हम यह कह दें कि आकाश से आग बरसे और उन्हें भस्म कर दे''।
55) पर ईसा ने मुड़ कर उन्हें डाँटा
56) और वे दूसरी बस्ती चले गये।
57) ईसा अपने शिष्यों के साथ यात्रा कर रहे थे कि रास्ते में ही किसी ने उन से कहा, ''आप जहाँ कहीं भी जायेंगे, मैं आपके पीछे-पीछे चलूँगा''।
58) ईसा ने उसे उत्तर दिया, ''लोमड़ियों की अपनी माँदें हैं और आकाश के पक्षियों के अपने घोंसले, परन्तु मानव पुत्र के लिए सिर रखने को भी अपनी जगह नहीं है''।
59) उन्होंने किसी दूसरे से कहा, ''मेरे पीछे चले आओ''। परन्तु उसने उत्तर दिया, ''प्रभु! मुझे पहले अपने पिता को दफ़नाने के लिए जाने दीजिए''।
60) ईसा ने उस से कहा, ''मुरदों को अपने मुरदे दफनाने दो। तुम जा कर ईश्वर के राज्य का प्रचार करो।''
61) फिर कोई दूसरा बोला, ''प्रभु! मैं आपका अनुसरण करूँगा, परन्तु मुझे अपने घर वालों से विदा लेने दीजिए''।
62) ईसा ने उस से कहा, ''हल की मूठ पकड़ने के बाद जो मुड़ कर पीछे देखता है, वह ईश्वर के राज्य के योग्य नहीं''।

अध्याय 10

1) इसके बाद प्रभु ने अन्य बहत्तर शिष्य नियुक्त किये और जिस-जिस नगर और गाँव में वे स्वयं जाने वाले थे, वहाँ दो-दो करके उन्हें अपने आगे भेजा।
2) उन्होंने उन से कहा, ''फ़सल तो बहुत है, परन्तु मज’दूर थोड़े हैं; इसलिए फ़सल के स्वामी से विनती करो कि वह अपनी फ़सल काटने के लिए मज’दूरों को भेजे।
3) जाओ, मैं तुम्हें भेड़ियों के बीच भेड़ों की तरह भेजता हूँ।
4) तुम न थैली, न झोली और न जूते ले जाओ और रास्तें में किसी को नमस्कार मत करो।
5) जिस घर में प्रवेश करते हो, सब से पहले यह कहो, 'इस घर को शान्ति!'
6) यदि वहाँ कोई शान्ति के योग्य होगा, तो उस पर तुम्हारी शान्ति ठहरेगी, नहीं तो वह तुम्हारे पास लौट आयेगी।
7) उसी घर में ठहरे रहो और उनके पास जो हो, वही खाओ-पियो; क्योंकि मज’दूर को मज’दूरी का अधिकार है। घर पर घर बदलते न रहो।
8) जिस नगर में प्रवेश करते हो और लोग तुम्हारा स्वागत करते हैं, तो जो कुछ तुम्हें परोसा जाये, वही खा लो।
9) वहाँ के रोगियों को चंगा करो और उन से कहो, 'ईश्वर का राज्य तुम्हारे निकट आ गया है'।
10) परन्तु यदि किसी नगर में प्रवेश करते हो और लोग तुम्हारा स्वागत नहीं करते, तो वहाँ के बाज’ारों में जा कर कहो,
11) 'अपने पैरों में लगी तुम्हारे नगर की धूल तक हम तुम्हारे सामने झाड़ देते हैं। तब भी यह जान लो कि ईश्वर का राज्य आ गया है।'
12) मैं तुम से यह कहता हूँ- न्याय के दिन उस नगर की दशा की अपेक्षा सोदोम की दशा कहीं अधिक सहनीय होगी।
13) ''धिक्कार तुझे, खोराजि’न! धिक्कार तुझे, बेथसाइदा! जो चमत्कार तुम में किये गये हैं, यदि वे तीरुस और सीदोन में किये गये होते, तो उन्होंने न जाने कब से टाट ओढ़ कर और भस्म रमा कर पश्चात्ताप किया होता।
14) इसलिए न्याय के दिन तुम्हारी दशा की अपेक्षा तीरुस और सिदोन की दशा कहीं अधिक सहनीय होगी।
15) और तू, कफ़रनाहूम! क्या तू स्वर्ग तक ऊँचा उठाया जायेगा? नहीं, तू अधोलोक तक नीचे गिरा दिया जायेगा?
16) ''जो तुम्हारी सुनता है, वह मेरी सुनता है और जो तुम्हारा तिरस्कार करता है, वह मेरा तिरस्कार करता है। जो मेरा तिरस्कार करता है, वह उसका तिरस्कार करता है, जिसने मुुझे भेजा है।''
17) बहत्तर शिष्य सानन्द लौटे और बोले, ''प्रभु! आपके नाम के कारण अपदूत भी हमारे अधीन होते हैं''।
18) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ''मैंने शैतान को बिजली की तरह स्वर्ग से गिरते देखा।
19) मैंने तुम्हें साँपों, बिच्छुओं और बैरी की सारी शक्ति को कुचलने का सामर्थ्य दिया है। कुछ भी तुम्हें हानि नहीं पहुँचा सकेगा।
20) लेकिन, इसलिए आनन्दित न हो कि अपदूत तुम्हारे अधीन हैं, बल्कि इसलिए आनन्दित हो कि तुम्हारे नाम स्वर्ग में लिखे हुए हैं।''
21) उसी घड़ी ईसा ने पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो कर आनन्द के आवेश में कहा, ''पिता! स्वर्ग और पृथ्वी के प्रभु! मैं तेरी स्तुति करता हूँ, क्योंकि तूने इन सब बातों को ज्ञानियों और समझदारों से छिपा कर निरे बच्चों पर प्रकट किया है। हाँ, पिता, यही तुझे अच्छा लगा।
22) मेरे पिता ने मुझे सब कुछ सौंपा है। पिता को छोड़ कर यह कोई भी नहीं जानता कि पुत्र कौन है और पुत्र को छोड़ कर यह कोई नहीं जानता कि पिता कौन है। केवल वही जानता है, जिस पर पुत्र उसे प्रकट करने की कृपा करता है।''
23) तब उन्होंने अपने शिष्यों की ओर मुड़ कर एकान्त में उन से कहा, ''धन्य हैं वे आँखें, जो वह देखती हैं जिसे तुम देख रहे हो!
24) क्योंकि मैं तुम से कहता हूँ-तुम जो बातें देख रहे हो, उन्हें कितने ही नबी और राजा देखना चाहते थे, परन्तु उन्होंने उन्हें नहीं देखा और जो बातें तुम सुन रहे हो, वे उन्हें सुनना चाहते थे, परन्तु उन्होंने उन्हें नहीं सुना।''
25) किसी दिन एक शास्त्री आया और ईसा की परीक्षा करने के लिए उसने यह पूछा, ''गुरूवर! अनन्त जीवन का अधिकारी होने के लिए मुझे क्या करना चाहिए?''
26) ईसा ने उस से कहा, ''संहिता में क्या लिखा है?'' तुम उस में क्या पढ़ते हो?''
27) उसने उत्तर दिया, ''अपने प्रभु-ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा, अपनी सारी शक्ति और अपनी सारी बुद्धि से प्यार करो और अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो''।
28) ईसा ने उस से कहा, ''तुमने ठीक उत्तर दिया। यही करो और तुम जीवन प्राप्त करोगे।''
29) इस पर उसने अपने प्रश्न की सार्थकता दिखलाने के लिए ईसा से कहा, ''लेकिन मेरा पड़ोसी कौन है?''
30) ईसा ने उसे उत्तर दिया, ''एक मनुष्य येरुसालेम से येरीख़ो जा रहा था और वह डाकुओं के हाथों पड़ गया। उन्होंने उसे लूट लिया, घायल किया और अधमरा छोड़ कर चले गये।
31) संयोग से एक याजक उसी राह से जा रहा था और उसे देख कर कतरा कर चला गया।
32) इसी प्रकार वहाँ एक लेवी आया और उसे देख कर वह भी कतरा कर चला गया।
33) इसके बाद वहाँ एक समारी यात्री आया और उसे देख कर उस को तरस हो आया।
34) वह उसके पास गया और उसने उसके घावों पर तेल और अंगूरी डाल कर पट्टी बाँधी। तब वह उसे अपनी ही सवारी पर बैठा कर एक सराय ले गया और उसने उसकी सेवा शुश्रूषा की।
35) दूसरे दिन उसने दो दीनार निकाल कर मालिक को दिये और उस से कहा, 'आप इसकी सेवा-शुश्रूषा करें। यदि कुछ और ख़र्च हो जाये, तो मैं लौटते समय आप को चुका दूँगा।'
36) तुम्हारी राय में उन तीनों में कौन डाकुओं के हाथों पड़े उस मनुष्य का पड़ोसी निकला?''
37) उसने उत्तर दिया, ''वही जिसने उस पर दया की''। ईसा बोले, ''जाओ, तुम भी ऐसा करो''।
38) ईसा यात्रा करते-करते एक गाँव आये और मरथा नामक महिला ने अपने यहाँ उनका स्वागत किया।
39) उसके मरियम नामक एक बहन थी, जो प्रभु के चरणों में बैठ कर उनकी शिक्षा सुनती रही।
40) परन्तु मरथा सेवा-सत्कार के अनेक कार्यों में व्यस्त थी। उसने पास आ कर कहा, ''प्रभु! क्या आप यह ठीक समझते हैं कि मेरी बहन ने सेवा-सत्कार का पूरा भार मुझ पर ही छोड़ दिया है? उस से कहिए कि वह मेरी सहायता करे।''
41) प्रभु ने उसे उत्तर दिया, ''मरथा! मरथा! तुम बहुत-सी बातों के विषय में चिन्तित और व्यस्त हो;
42) फिर भी एक ही बात आवश्यक है। मरियम ने सब से उत्तम भाग चुन लिया है; वह उस से नहीं लिया जायेगा।''

अध्याय 11

1) एक दिन ईसा किसी स्थान पर प्रार्थना कर रहे थे। प्रार्थना समाप्त होने पर उनके एक शिष्य ने उन से कहा, ''प्रभु! हमें प्रार्थना करना सिखाइए, जैसे योहन ने भी अपने शिष्यों को सिखाया''।
2) ईसा ने उन से कहा, ''इस प्रकार प्रार्थना किया करोः पिता! तेरा नाम पवित्र माना जाये। तेरा राज्य आये।
3) हमें प्रतिदिन हमारा दैनिक आहार दिया कर।
4) हमारे पाप क्षमा कर, क्योंकि हम भी अपने सब अपराधियों को क्षमा करते हैं और हमें परीक्षा में न डाल।''
5) फिर ईसा ने उन से कहा, ''मान लो कि तुम में कोई आधी रात को अपने किसी मित्र के पास जा कर कहे, 'दोस्त, मुझे तीन रोटियाँ उधार दो,
6) क्योंकि मेरा एक मित्र सफ़र में मेरे यहाँ पहुँचा है और उसे खिलाने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है'
7) और वह भीतर से उत्तर दे, 'मुझे तंग न करो। अब तो द्वार बन्द हो चुका है। मेरे बाल-बच्चे और मैं, हम सब बिस्तर पर हैं। मैं उठ कर तुम को नहीं दे सकता।'
8) मैं तुम से कहता हूँ-वह मित्रता के नाते भले ही उठ कर उसे कुछ न दे, किन्तु उसके आग्रह के कारण वह उठेगा और उसकी आवश्यकता पूरी कर देगा।
9) ''मैं तुम से कहता हूँ-माँगो और तुम्हें दिया जायेगा; ढूँढ़ो और तुम्हें मिल जायेगा; खटखटाओ और तुम्हारे लिए खोला जायेगा।
10) क्योंकि जो माँगता है, उसे दिया जाता है; जो ढूँढ़ता है, उसे मिल जाता है और जो खटखटाता है, उसके लिए खोला जाता है।
11) ''यदि तुम्हारा पुत्र तुम से रोटी माँगे, तो तुम में ऐसा कौन है, जो उसे पत्थर देगा? अथवा मछली माँगे, तो मछली के बदले उसे साँप देगा?
12) अथवा अण्डा माँगे, तो उसे बिच्छू देगा?
13) बुरे होने पर भी यदि तुम लोग अपने बच्चों को सहज ही अच्छी चीजें’ देते हो, तो तुम्हारा स्वर्गिक पिता माँगने वालों को पवित्र आत्मा क्यों नहीं देगा?''
14) ईसा ने किसी दिन एक अपदूत निकाला, जिसने एक मनुष्य को गूँगा बना दिया था। अपदूत के निकलते ही गँूगा बोलने लगा और लोग अचम्भे में पड़ गये।
15) परन्तु उन में से कुछ ने कहा, ''यह अपदूतों के नायक बेलज’ेबुल की सहायता से अपदूतों को निकालता है''।
16) कुछ लोग ईसा की परीक्षा लेने के लिए उन से स्वर्ग की ओर का कोई चिन्ह माँगते रहे।
17) उनके विचार जान कर ईसा ने उन से कहा, ''जिस राज्य में फूट पड़ जाती है, वह उजड़ जाता है और घर के घर ढह जाते हैं।
18) यदि शैतान अपने ही विरुद्ध विद्रोह करने लगे, तो उसका राज्य कैसे टिका रहेगा? तुम कहते हो कि मैं बेलजे’बुल की सहायता से अपदूतों को निकालता हूँ।
19) यदि मैं बेलजे’बुल की सहायता से अपदूतों को निकालता हूँ, तो तुम्हारे बेटे किसी सहायता से उन्हें निकालते हैं? इसलिए वे तुम लोगों का न्याय करेंगे।
20) परन्तु यदि मैं ईश्वर के सामर्थ्य से अपदूतों को निकालता हूँ, तो निस्सन्देह ईश्वर का राज्य तुम्हारे बीच आ गया है।
21) ''जब बलवान् मनुष्य हथियार बाँधकर अपने घर की रखवाली करता है, तो उसकी धन-सम्पत्ति सुरक्षित रहती है।
22) किन्तु यदि कोई उस से भी बलवान् उस पर टूट पड़े और उसे हरा दे, तो जिन हथियारों पर उसे भरोसा था, वह उन्हें उस से छीन लेता और उसका माल लूट कर बाँट देता है।
23) ''जो मेरे साथ नहीं है, वह मेरा विरोधी है और जो मेरे साथ नहीं बटोरता, वह बिखेरता है।
24) ''जब अशुद्ध आत्मा किसी मनुष्य से निकलता है, तो वह विश्राम की खोज में निर्जन स्थानों में भटकता फिरता है। विश्राम न मिलने पर वह कहता है, 'जहाँ से निकला हूँ, अपने उसी घर वापस जाऊँगा'।
25) लौटने पर वह उस घर को झाड़ा-बुहारा और सजाया हुआ पाता है।
26) तब वह जा कर अपने से भी बुरे सात अपदूतों को ले आता है और वे उस घर में घुस कर वहीं बस जाते हैं और उस मनुष्य की यह पिछली दशा पहली से भी बुरी हो जाती है।''
27) ईसा ये बातें कह ही रहे थे कि भीड़ में से कोई स्त्री उन्हें सम्बोधित करते हुए ऊँचे स्वर में बोल उठी, ''धन्य है वह गर्भ, जिसने आप को धारण किया और धन्य हैं वे स्तन, जिनका आपने पान किया है!
28) परन्तु ईसा ने कहा, ''ठीक है; किन्तु वे कहीं अधिक धन्य हैं, जो ईश्वर का वचन सुनते और उसका पालन करते हैं''।
29) भीड़-की-भीड़ उनके चारों ओर उमड़ रही थी और वे कहने लगे, ''यह एक विधर्मी पीढ़ी है। यह एक चिन्ह माँगती है, परन्तु नबी योनस के चिन्ह को छोड़ इसे और कोई चिन्ह नहीं दिया जायेगा।
30) जिस प्रकार योनस निनिवे-निवासियों के लिए एक चिन्ह बन गया था, उसी प्रकार मानव पुत्र भी इस पीढ़ी के लिए एक चिन्ह बन जायेगा।
31) न्याय के दिन दक्षिण की रानी इस पीढ़ी के लोगों के साथ जी उठेगी और इन्हें दोषी ठहरायेगी, क्योंकि वह सुलेमान की प्रज्ञा सुनने के लिए पृथ्वी के सीमान्तों से आयी थी, और देखो-यहाँ वह है, जो सुलेमान से भी महान् है!
32) न्याय के दिन निनिवे के लोग इस पीढ़ी के साथ जी उठेंगे और इसे दोषी ठहरायेंगे, क्योंकि उन्होंने योनस का उपदेश सुन कर पश्चात्ताप किया था, और देखो-यहाँ वह है, जो योनस से भी महान् है!
33) ''दीपक जला कर कोई उसे तहख़ाने में या पैमाने के नीचे नहीं, बल्कि दीवट पर रख देता है, जिससे भीतर आने वाले उसका प्रकाश देख सकें।
34) तुम्हारी आँख तुम्हारे शरीर का दीपक है। यदि तुम्हारी आँख अच्’छी है, तो तुम्हारा सारा शरीर भी प्रकाशमान् है। किन्तु यदि वह बीमार है, तो तुम्हारा सारा शरीर भी अन्धकारमय है।
35) इसलिए सावधान रहो-जो ज्योति तुम में है, वह कहीं अन्धकार न हो।
36) यदि तुम्हारा सारा शरीर प्रकाश में रहता है और उसका कोई अंश अन्धकार में नहीं रहता, तो वह वैसा ही सर्वथा प्रकाशमान् होगा, जैसा जब दीपक अपनी किरणों से तुम को आलोकित कर देता है।''
37) ईसा के उपदेश के बाद किसी फ़रीसी ने उन से यह निवेदन किया कि आप मेरे यहाँ भोजन करें और वह उसके यहाँ जा कर भोजन करने बैठे।
38) फ़रीसी को यह देख कर आश्चर्य हुआ कि उन्होंने भोजन से पहले हाथ नहीं धोये।
39) प्रभु ने उस से कहा, ''तुम फ़रीसी लोग प्याले और थाली को ऊपर से तो माँजते हो, परन्तु तुम भीतर लालच और दुष्टता से भरे हुए हो।
40) मूर्खों! जिसने बाहर बनाया, क्या उसी ने अन्दर नहीं बनाया?
41) जो अन्दर है, उस में से दान कर दो, और देखो, सब कुछ तुम्हारे लिए शुद्ध हो जायेगा।
42) ''फ़रीसियो! धिक्कार तुम लोगों को! क्योंकि तुम पुदीने, रास्ने और हर प्रकार के साग का दशमांश तो देते हो; लेकिन न्याय और ईश्वर के प्रति प्रेम की उपेक्षा करते हो। इन्हें करते रहना और उनकी भी उपेक्षा नहीं करना, तुम्हारे लिए उचित था।
43) फ़रीसियो! धिक्कार तुम लोगों को! क्योंकि तुम सभागृहों में प्रथम आसन और बाज’ारों में प्रणाम चाहते हो।
44) धिक्कार तुम लोगों को! क्योंकि तुम उन क़ब्रों के समान हो, जो दीख नहीं पड़तीं और जिन पर लोग अनजाने ही चलते-फिरते हैं।''
45) इस पर एक शास्त्री ने ईसा से कहा, ''गुरूवर! आप ऐसी बातें कह कर हमारा भी अपमान करते हैं''।
46) ईसा ने उत्तर दिया, ''शास्त्रियों! धिक्कार तुम लोगों को भी! क्योंकि तुम मनुष्यों पर बहुत-से भारी बोझ लादते हो और स्वयं उन्हें उठाने के लिए अपनी तक उँगली भी नहीं लगाते।
47) धिक्कार तुम लोगों को! क्योंकि तुम नबियों के लिए मक़बरे बनवाते हो, जब कि तुम्हारे पूर्वजों ने उनकी हत्या की।
48) इस प्रकार तुम अपने पूर्वजों के कर्मों की गवाही देते हो और उन से सहमत भी हो, क्योंकि उन्होंने तो उनकी हत्या की और तुम उनके मक़बरे बनवाते हो।
49) ''इसलिए ईश्वर की प्रज्ञा ने यह कहा-मैं उनके पास नबियों और प्रेरितों को भेजूँगा; वे उन में कितनों की हत्या करेंगे और कितनो पर अत्याचार करेंगे।
50) इसलिए संसार के आरम्भ से जितने नबियों का रक्त बहाया गया है-हाबिल के रक्त से ले कर ज’करियस के रक्त तक, जो वेदी और मन्दिरगर्भ के बीच मारा गया था-
51) उसका हिसाब इस पीढ़ी को चुकाना पड़ेगा। मैं तुम से कहता हूँ, उसका हिसाब इसी पीढ़ी को चुकाना पड़ेगा।
52) ''शास्त्रियों, धिक्कार तुम लोगों को! क्योंकि तुमने ज्ञान की कुंजी ले ली। तुमने स्वयं प्रवेश नहीं किया और जो प्रवेश करना चाहते थे, उन्हें रोका।''
53) जब ईसा उस घर से निकले, तो शास्त्री, और फ़रीसी बुरी तरह उनके पीछे पड़ गये और बहुत-सी बातों के सम्बन्ध में उन को छेड़ने लगे।
54) वे इस ताक में थे कि ईसा के किसी-न-किसी कथन में दोष निकाल लें।

अध्याय 12

1) उस समय भीड़’ इतनी बढ़ गयी थी कि लोग एक दूसरे को कुचल रहे थे। ईसा मुख्य रूप से अपने शिष्यों से यह कहने लगे, ''फ़रीसियों के कपटरूपी ख़मीर से सावधान रहो।
2) ऐसा कुछ भी गुप्त नहीं है, जो प्रकाश में नहीं लाया जायेगा और ऐसा कुछ भी छिपा हुआ नहीं है, जो प्रकट नहीं किया जायेगा।
3) तुमने जो अँधेरे में कहा है, वह उजाले में सुना जायेगा और तुमने जो एकान्त में फुसफुसा कर कहा है, वह पुकार-पुकार कर दुहराया जायेगा।
4) ''मैं तुम, अपने मित्रों से कहता हूँ-जो लोग शरीर को मार डालते हैं, परन्तु उसके बाद और कुछ नहीं कर सकते, उन से नहीं डरो।
5) मैं तुम्हें बताता हूँ कि किस से डरना चाहिए। उस से डरो, जिसका मारने के बाद नरक में डालने का अधिकार है। हाँ, मैं तुम से कहता हूँ, उसी से डरो।
6) ''क्या दो पैसे में पाँच गोरैया नहीं बिकतीं? फिर भी ईश्वर उन में एक को भी नहीं भुलाता है।
7) हाँ, तुम्हारे सिर का बाल-बाल गिना हुआ है। इसलिए नहीं डरो। तुम बहुतेरी गौरैयों से बढ़ कर हो।
8) ''मैं तुम से कहता हूँ, जो मुझे मनुष्यों के सामने स्वीकार करेगा, उसे मानव पुत्र भी ईश्वर के दूतों के सामने स्वीकार करेगा।
9) परन्तु जो मुझे मनुष्यों के सामने अस्वीकार करेगा, वह ईश्वर के दूतों के सामने अस्वीकार किया जायेगा।
10) ''जो मानव पुत्र के विरुद्ध कुछ कहेगा, उसे क्षमा मिल जायेगी, परन्तु पवित्र आत्मा की निन्दा करने वाले को क्षमा नहीं मिलेगी।
11) ''जब वे तुम्हें सभागृहों, न्यायाधीशों और शासकों के सामने खींच ले जायेंगे, तो यह चिन्ता न करो कि हम कैसे बोलेंगे और अपनी ओर से क्या कहेंगे;
12) क्योंकि उस घड़ी पवित्र आत्मा तुम्हें सिखायेगा कि तुम्हें क्या-क्या कहना चाहिए।''
13) भीड़ में से किसी ने ईसा से कहा, ''गुरूवर! मेरे भाई से कहिए कि वह मेरे लिए पैतृक सम्पत्ति का बँटवारा कर दें''।
14) उन्होंने उसे उत्तर दिया, ''भाई! किसने मुझे तुम्हारा पंच या बँटवारा करने वाला नियुक्त किया?''
15) तब ईसा ने लोगों से कहा, ''सावधान रहो और हर प्रकार के लोभ से बचे रहो; क्योंकि किसी के पास कितनी ही सम्पत्ति क्यों न हो, उस सम्पत्ति से उसके जीवन की रक्षा नहीं होती''।
16) फिर ईसा ने उन को यह दृष्टान्त सुनाया, ''किसी धनवान् की ज’मीन में बहुत फ़सल हुई थी।
17) वह अपने मन में इस प्रकार विचार करता रहा, 'मैं क्या करूँ? मेरे यहाँ जगह नहीं रही, जहाँ अपनी फ़सल रख दूँ।
18) तब उसने कहा, 'मैं यह करूँगा। अपने भण्डार तोड़ कर उन से और बड़े भण्डार बनवाऊँगा, उन में अपनी सारी उपज और अपना माल इकट्ठा करूँगा
19) और अपनी आत्मा से कहूँगा-भाई! तुम्हारे पास बरसों के लिए बहुत-सा माल इकट्ठा है, इसलिए विश्राम करो, खाओ-पिओ और मौज उड़ाओ।'
20) परन्तु ईश्वर ने उस से कहा, 'मूर्ख! इसी रात तेरे प्राण तुझ से ले लिये जायेंगे और तूने जो इकट्ठा किया है, वह अब किसका ह’ोगा?'
21) यही दशा उसकी होती है जो अपने लिए तो धन एकत्र करता है, किन्तु ईश्वर की दृष्टि में धनी नहीं है।''
22) उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, ''इसलिए मैं तुम लोगों से कहता हूँ, चिन्ता मत करो-न अपने जीवन-निर्वाह की, कि हम क्या खायें और न अपने शरीर की, कि हम क्या पहनें;
23) क्योंकि जीवन भोजन से और शरीर कपड़े से बढ़ कर है।
24) कौओं को देखो। वे न तो बोते हैं, और न लुनते है; उनके न तो भण्डार है, न बखार। फिर भी ईश्वर उन्हें खिलाता है। तुम पक्षियों से कहीं बढ़ कर हो।
25) चिन्ता करने से तुम में कौन अपनी आयु घड़ी भर भी बढ़ा सकता है?
26) यदि तुम इतना भी नहीं कर सकते, तो फिर दूसरी बातों की चिन्ता क्यों करते हो?
27) ''फूलों को देखो। वे कैसे बढ़ते हैं! वे न तो श्रम करते हैं और न कातते हैं। फिर भी मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि सुलेमान अपने पूरे ठाट-बाट में उन में एक की भी बराबरी नहीं कर सकता था।
28) खेतों की घास आज भर है और कल चूल्हे में झोंक दी जायेगी। उसे भी यदि ईश्वर इस प्रकार सजाता है, तो अल्प-विश्वासियो! वह तुम्हें क्यों नहीं पहनायेगा?
29) इसलिए खाने-पीने की खोज में लगे रह कर चिन्ता मत करो।
30) इन सब चीज’ों की खोज में संसार के लोग लगे रहते हैं। तुम्हारा पिता जानता है कि तुम्हें इनकी ज’रूरत है।
31) इसलिए उसके राज्य की खोज में लगे रहो। ये सब चीजें’ तुम्हें यों ही मिल जायेंगी।
32) छोटे झुण्ड! डरो मत, क्योंकि तुम्हारे पिता ने तुम्हें राज्य देने की कृपा की है।
33) ''अपनी सम्पत्ति बेच दो और दान कर दो। अपने लिए ऐसी थैलियाँ तैयार करो, जो कभी छीजती नहीं। स्वर्ग में एक अक्षय पूँजी जमा करो। वहाँ न तो चोर पहुँचता है और न कीड़े खाते हैं;
34) क्योंकि जहाँ तुम्हारी पूँजी है, वहीं तुम्हारा हृदय भी होगा।
35) ''तुम्हारी कमर कसी रहे और तुम्हारे दीपक जलते रहें।
36) तुम उन लोगों के सदृश बन जाओ, जो अपने स्वामी की राह देखते रहते हैं कि वह बारात से कब लौटेगा, ताकि जब स्वामी आ कर द्वार खटखटाये, तो वे तुरन्त ही उसके लिए द्वार खोल दें।
37) धन्य हैं वे सेवक, जिन्हें स्वामी आने पर जागता हुआ पायेगा! मैं तुम से यह कहता हूँ: वह अपनी कमर कसेगा, उन्हें भोजन के लिए बैठायेगा और एक-एक को खाना परोसेगा।
38) और धन्य हैं वे सेवक, जिन्हें स्वामी रात के दूसरे या तीसरे पहर आने पर उसी प्रकार जागता हुआ पायेगा!
39) यह अच्छी तरह समझ लो-यदि घर के स्वामी को मालूम होता कि चोर किस घड़ी आयेगा, तो वह अपने घर में सेंध लगने नहीं देता।
40) तुम भी तैयार रहो, क्योंकि जिस घड़ी तुम उसके आने की नहीं सोचते, उसी घड़ी मानव पुत्र आयेगा।''
41) पेत्रुस ने उन से कहा, ''प्रभु! क्या आप यह दृष्टान्त हमारे लिए कहते हैं या सबों के लिए?''
42) प्रभु ने कहा, ''कौन ऐसा ईमानदार और बुद्धिमान् कारिन्दा है, जिसे उसका स्वामी अपने नौकर-चाकरों पर नियुक्त करेगा ताकि वह समय पर उन्हें रसद बाँटा करे?
43) धन्य हैं वह सेवक, जिसका स्वामी आने पर उसे ऐसा करता हुआ पायेगा!
44) मैं तुम से यह कहता हूँ, वह उसे अपनी सारी सम्पत्ति पर नियुक्त करेगा।
45) परन्तु यदि वह सेवक अपने मन में कहे, 'मेरा स्वामी आने में देर करता है' और वह दासदासियों को पीटने, खाने-पीने और नशेबाजी करने लगे,
46) तो उस सेवक का स्वामी ऐसे दिन आयेगा, जब वह उसकी प्रतीक्षा नहीं कर रहा होगा और ऐसी घड़ी जिसे वह जान नहीं पायेगा। तब स्वामी उसे कोड़े लगवायेगा और विश्वासघातियों का दण्ड देगा।
47) ''अपने स्वामी की इच्छा जान कर भी जिस सेवक ने कुछ तैयार नहीं किया और न उसकी इच्छा के अनुसार काम किया, वह बहुत मार खायेगा।
48) जिसने अनजाने ही मार खाने का काम किया, वह थोड़ी मार खायेगा। जिसे बहुत दिया गया है, उस से बहुत माँगा जायेगा और जिसे बहुत सौंपा गया है, उस से अधिक माँगा जायेगा।
49) ''मैं पृथ्वी पर आग ले कर आया हूँ और मेरी कितनी अभिलाषा है कि यह अभी धधक उठे!
50) मुझे एक बपतिस्मा लेना है और जब तक वह नहीं हो जाता, मैं कितना व्याकुल हूँ!
51) ''क्या तुम लोग समझते हो कि मैं पृथ्वी पर शान्ति ले कर आया हूँ? मैं तुम से कहता हूँ, ऐसा नहीं है। मैं फूट डालने आया हूँ।
52) क्योंकि अब से यदि एक घर में पाँच व्यक्ति होंगे, तो उन में फूट होगी। तीन दो के विरुद्ध होंगे और दो तीन के विरुद्ध।
53) पिता अपने पुत्र के विरुद्ध और पुत्र अपने पिता के विरुद्व। माता अपनी पुत्री के विरुद्ध होगी और पुत्री अपनी माता के विरुद्ध। सास अपनी बहू के विरुद्ध होगी और बहू अपनी सास के विरुद्ध।''
54) ईसा ने लोगों से कहा, ''यदि तुम पश्चिम से बादल उमड़ते देखते हो, तो तुरन्त कहते हो, 'वर्षा आ रही है÷ और ऐसा ही होता है,
55) जब दक्षिण की हवा चलती है, तो कहते हो, 'लू चलेगी' और ऐसा ही होता है।
56) ढोंगियों! यदि तुम आकाश और पृथ्वी की सूरत पहचान सकते हो, तो इस समय के लक्षण क्यों नहीं पहचानते?
57) ''तुम स्वयं क्यों नहीं विचार करते कि उचित क्या है?
58) जब तुम अपने मुद्यई के साथ कचहरी जा रहे हो, तो रास्ते में ही उस से समझौता करने की चेष्टा करो। कहीं ऐसा न हो कि वह तुम्हें न्यायकर्ता के पास खींच ले जाये और न्यायकर्ता तुम्हें प्यादे के हवाले कर दे और प्यादा तुम्हें बन्दीगृह में डाल दे।
59) मैं तुम से कहता हूँ, जब तक कौड़ी-कौड़ी न चुका दोगे, तब तक वहाँ से नहीं निकल पाओगे।''

अध्याय 13

1) उस समय कुछ लोग ईसा को उन गलीलियों के विषय में बताने आये, जिनका रक्त पिलातुस ने उनके बलि-पशुओं के रक्त में मिला दिया था।
2) ईसा ने उन कहा, ''क्या तुम समझते हो कि ये गलीली अन्य सब गलीलियों से अधिक पापी थे, क्योंकि उन पर ही ऐसी विपत्ति पड़ी?
3) मैं तुम से कहता हूँ, ऐसा नहीं है; लेकिन यदि तुम पश्चात्ताप नहीं करोगे, तो सब-के-सब उसी तरह नष्ट हो जाओगे।
4) अथवा क्या तुम समझते हो कि सिल’ोआम की मीनार के गिरने से जो अठारह व्यक्ति दब कर’ मर गये, वे येरुसालेम के सब निवासियों से अधिक अपराधी थे?
5) मैं तुम से कहता हूँ, ऐसा नहीं है; लेकिन यदि तुम पश्चात्ताप नहीं करोगे, तो सब-के-सब उसी तरह नष्ट हो जाओगे।''
6) तब ईसा ने यह दृष्टान्त सुनाया, ''किसी मनुष्य की दाखबारी में एक अंजीर का पेड़ था। वह उस में फल खोजने आया, परन्तु उसे एक भी नहीं मिला।
7) तब उसने दाखबारी के माली से कहा, 'देखो, मैं तीन वर्षों से अंजीर के इस पेड़ में फल खोजने आता हूँ, किन्तु मुझे एक भी नहीं मिलता। इसे काट डालो। यह भूमि को क्यों छेंके हुए हैं?'
8) परन्तु माली ने उत्तर दिया, 'मालिक! इस वर्ष भी इसे रहने दीजिए। मैं इसके चारों ओर खोद कर खाद दूँगा।
9) यदि यह अगले वर्ष फल दे, तो अच्छा, नहीं तो इसे काट डालिएगा'।''
10) ईसा विश्राम के दिन किसी सभागृह में शिक्षा दे रहे थे।
11) वहाँ एक स्त्री आयी, जो अपदूत लग जाने के कारण अठारह वर्षों से बीमार थी। वह एकदम झुक गयी थी और किसी भी तरह सीधी नहीं हो पाती थी।
12) ईसा ने उसे देख कर अपने पास बुलाया और उस से कहा, ''नारी! तुम अपने रोग से मुक्त हो गयी हो''
13) और उन्होंने उस पर हाथ रख दिये। उसी क्षण वह सीधी हो गयी और ईश्वर की स्तुति करती रही।
14) सभागृह का अधिकारी चिढ़ गया, क्योंकि ईसा ने विश्राम के दिन उस स्त्री को चंगा किया था। उसने लोगों से कहा, ''छः दिन हैं, जिन में काम करना उचित है। इसलिए उन्हीं दिनों चंगा होने के लिए आओ, विश्राम के दिन नहीं।''
15) परन्तु प्रभु ने उसे उत्तर दिया, ''ढोंगियो! क्या तुम में से हर एक विश्राम के दिन अपना बैल या गधा थान से खोल कर पानी पिलाने नहीं ले जाता?
16) शैतान ने इस स्त्री, इब्राहीम की इस बेटी को इन अठारह वर्षों से बाँध रखा था, तो क्या इसे विश्राम के दिन उस बन्धन से छुड़ाना उचित नहीं था?''
17) ईसा के इन शब्दों से उनके सब विरोधी लज्जित हो गये; लेकिन सारी जनता उनके चमत्कार देख कर आनन्दित होती थी।
18) ईसा ने कहा, ''ईश्वर का राज्य किसके सदृश है? मैं इसकी तुलना किस से करूँ?
19) वह उस राई के दाने के सदृश है, जिसे ले कर किसी मनुष्य ने अपनी बारी में बोया। वह बढ़ते-बढ़ते पेड़ हो गया और आकाश के पंछी उसकी डालियों में बसेरा करने आये।''
20) उन्होंने फिर कहा, ''मैं ईश्वर के राज्य की तुलना किस से करूँ?
21) वह उस ख़मीर के सदृश है, जिसे ले कर किसी स्त्री ने तीन पंसेरी आटे में मिलाया और सारा आटा ख़मीर हो गया।''
22) ईसा नगर-नगर, गाँव-गाँव, उपदेश देते हुए येरुसालेम के मार्ग पर आगे बढ़ रहे थे।
23) किसी ने उन से पूछा, ''प्रभु! क्या थोड़े ही लोग मुक्ति पाते हैं?' इस पर ईसा ने उन से कहा,
24) ''सँकरे द्वार से प्रवेश करने का पूरा-पूरा प्रयत्न करो, क्योंकि मैं तुम से कहता हूँ-प्रयत्न करने पर भी बहुत-से लोग प्रवेश नहीं कर पायेंगे।
25) जब घर का स्वामी उठ कर द्वार बन्द कर चुका होगा और तुम बाहर रह कर द्वार खटखटाने और कहने लगोगे, 'प्रभु! हमारे लिए खोल दीजिए', तो वह तुम्हें उत्तर देगा, 'मैं नहीं जानता कि तुम कहाँ के हो'।
26) तब तुम कहने लगोगे, 'हमने आपके सामने खाया-पीया और आपने हमारे बाज’ारों में उपदेश दिया'।
27) परन्तु वह तुम से कहेगा, 'मैं नहीं जानता कि तुम कहाँ के ेहो। कुकर्मियो! तुम सब मुझ से दूर हटो।'
28) जब तुम इब्राहीम, इसहाक, याकूब और सभी नबियों को ईश्वर के राज्य में देखोगे, परन्तु अपने को बहिष्कृत पाओगे, तो तुम रोओगे और दाँत पीसते रहोगे।
29) पूर्व तथा पश्चिम से और उत्तर तथा दक्षिण से लोग आयेंगे और ईश्वर के राज्य में भोज में सम्मिलित होंगे।
30) देखो, कुछ जो पिछले हैं, अगले हो जायेंगे और कुछ जो अगले हैं, पिछले हो जायेंगे।''
31) उसी समय कुछ फ़रीसियों ने आ कर उन से कहा, ''विदा लीजिए और यहाँ से चले जाइए, क्योंकि हेरोद आप को मार डालना चाहता है''।
32) ईसा ने उन से कहा, ''जा कर उस लोमड़ी से कहो-मैं आज और कल नरकदूतों को निकालता और रोगियों को चंगा करता हूँ और तीसरे दिन मेरा कार्य समापन तक पहुँचा दिया जायेगा।
33) आज, कल और परसों मुझे यात्रा करनी है, क्योंकि यह हो नहीं सकता कि कोई नबी येरुसालेम के बाहर मरे।
34) ''येरुसालेम! येरुसालेम! तू नबियों की हत्या करता और अपने पास भेजे हुए लोगों को पत्थरों से मार देता है। मैंने कितनी बार चाहा कि तेरी सन्तान को एकत्र कर लँू, जैसे मुर्गी अपने चूज’ों को अपने डैनों के नीचे एकत्र कर लेती है, परन्तु तुम लोगों ने इनकार कर दिया।
35) देखो, तुम्हारा घर उजाड़ छोड़ दिया जायेगा। मैं तुम से कहता हूँ, तुम मुझे तब तक नहीं देखोगे, जब तक तुम यह न कहोगे, 'धन्य हैं वह, जो प्रभु के नाम पर आते हैं'!''

अध्याय 14

1) ईसा किसी विश्राम के दिन एक प्रमुख फ़रीसी के यहाँ भोजन करने गये। वे लोग उनकी निगरानी कर रहे थे।
2) ईसा ने अपने सामने जलोदर से पीड़ित एक मनुष्य को देख कर
3) शास्त्रियों तथा फ़रीसियों से यह कहा, ''विश्राम के दिन चंगा करना उचित है या नहीं?''
4) वे चुप रहे। इस पर ईसा ने जलोदर-पीड़ित का हाथ पकड़ कर उसे अच्छा कर दिया और विदा किया।
5) तब ईसा ने उन से कहा, ''यदि तुम्हारा पुत्र या बैल कुएँ में गिर पड़े, तो तुम लोगों में ऐसा कौन है, जो उसे विश्राम के दिन ही तुरन्त बाहर निकाल नहीं लेगा?''
6) और वे ईसा को कोई उत्तर नहीं दे सके।
7) ईसा ने अतिथियों को मुख्य-मुख्य स्थान चुनते देख कर उन्हें यह दृष्टान्त सुनाया,
8) ''विवाह में निमन्त्रित होने पर सब से अगले स्थान पर मत बैठो। कहीं ऐसा न हो कि तुम से प्रतिष्ठित कोई अतिथि निमन्त्रित हो
9) और जिसने तुम दोनों को निमन्त्रण दिया है, वह आ कर तुम से कहे, 'इन्हें अपनी जगह दीजिए' और तुम्हें लज्जित हो कर सब से पिछले स्थान पर बैठना पड़े।
10) परन्तु जब तुम्हें निमन्त्रण मिले, तो जा कर सब से पिछले स्थान पर बैठो, जिससे निमन्त्रण देने वाला आ कर तुम से यह कहे, 'बन्धु! आगे बढ़ कर बैठिए'। इस प्रकार सभी अतिथियों के सामने तुम्हारा सम्मान होगा;
11) क्योंकि जो अपने को बड़ा मानता है, वह छोटा बनाया जायेगा और जो अपने को छोटा बनाया जायेगा और जो अपने को छोटा मानता है, वह बड़ा बनाया जायेगा।''
12) फिर ईसा ने अपने निमन्त्रण देने वाले से कहा, ''जब तुम दोपहर या शाम का भोज दो, तो न तो अपने मित्रों को बुलाओ और न अपने भाइयों को, न अपने कुटुम्बियों को और न धनी पड़ोसियों को। कहीं ऐसा न हो कि वे भी तुम्हें निमन्त्रण दे कर बदला चुका दें।
13) पर जब तुम भोज दो, तो कंगालों, लूलों, लँगड़ों और अन्धों को बुलाओ।
14) तुम धन्य होगे कि बदला चुकाने के लिए उनके पास कुछ नहीं है, क्योंकि धर्मियों के पुनरूत्थान के समय तुम्हारा बदला चुका दिया जायेगा।''
15) साथ भोजन करने वालों में किसी ने यह सुन कर ईसा से कहा, ''धन्य है वह, जो ईश्वर के राज्य में भोजन करेगा!''
16) ईसा ने उत्तर दिया, ''किसी मनुष्य ने एक बड़े भोज का आयोजन किया और बहुत-से लोगों को निमन्त्रण दिया।
17) भोजन के समय उसने अपने सेवक द्वारा निमन्त्रित लोगों को यह कहला भेजा कि आइए, क्योंकि अब सब कुछ तैयार है।
18) लेकिन वे सभी बहाना करने लगे। पहले ने कहा, 'मैंने खेत मोल लिया है और मुझे उसे देखने जाना है। तुम से मेरा निवेदन है, मेरी ओर से क्षमा माँग लेना।'
19) दूसरे ने कहा, 'मैंने पाँच जोड़े बैल ख़रीदे हैं और उन्हें परखने जा रहा हूँ। तुम से मेरा निवेदन है, मेरी ओर से क्षमा माँग लेना।'
20) और एक ने कहा, ''मैंने विवाह किया है, इसलिए मैं नहीं आ सकता'।
21) सेवक ने लौट कर यह सब स्वामी को बता दिया। तब घर के स्वामी ने क्रुद्ध हो कर अपने सेवक से कहा, 'शीघ्र ही नगर के बाज’ारों और गलियों में जा कर कंगालों, लूलों, अन्धों और लँगड़ों को यहाँ बुला लाओ'।
22) जब सेवक ने कहा, 'स्वामी! आपकी आज्ञा का पालन किया गया है; तब भी जगह है',
23) तो स्वामी ने नौकर से कहा, 'सड़कों पर और बाड़ों के आसपास जा कर लोगों को भीतर आने के लिए बाध्य करो, जिससे मेरा घर भर जाये;
24) क्योंकि मैं तुम से कहता हूँ, उन निमन्त्रित लोगों में कोई भी मेरे भोजन का स्वाद नहीं ले पायेगा'।''
25) ईसा के साथ-साथ एक विशाल जन-समूह चल रहा था। उन्होंने मुड़ कर लोगों से कहा,
26) ''यदि कोई मेरे पास आता है और अपने माता-पिता, पत्नी, सन्तान, भाई बहनों और यहाँ तक कि अपने जीवन से बैर नहीं करता, तो वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता।
27) जो अपना क्रूस उठा कर मेरा अनुसरण नहीं करता, वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता।
28) ''तुम में ऐसा कौन होगा, जो मीनार बनवाना चाहे और पहले बैठ कर ख़र्च का हिसाब न लगाये और यह न देखे कि क्या उसे पूरा करने की पूँजी उसके पास है?
29) कहीं ऐसा न हो कि नींव डालने के बाद वह पूरा न कर सके और देखने वाले यह कहते हुए उसकी हँसी उड़ाने लगें,
30) 'इस मनुष्य ने निर्माण-कार्य प्रारम्भ तो किया, किन्तु यह उसे पूरा नहीं कर सका'।
31) ''अथवा कौन ऐसा राजा होगा, जो दूसरे राजा से युद्ध करने जाता हो और पहले बैठ कर यह विचार न करे कि जो बीस हज’ार की फ़ौज के साथ उस पर चढ़ा आ रहा है, क्या वह दस हज’ार की फौज’ से उसका सामना कर सकता है?
32) यदि वह सामना नहीं कर सकता, तो जब तक दूसरा राजा दूर है, वह राजदूतों को भेज कर सन्धि के लिए निवेदन करेगा।
33) ''इसी तरह तुम में जो अपना सब कुछ नहीं त्याग देता, वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता।
34) ''नमक अच्छी चीज है, किन्तु यदि वह स्वयं अपना गुण खो देता है, तो वह किस से छौंका जायेगा?
35) वह न तो जमीन के लिए किसी काम का रह जाता है और न खाद के लिए। लोग उसे बाहर फेंक देते हैं। जिसके सुनने के कान हों, वह सुन ले।''

अध्याय 15

1) ईसा का उपदेश सुनने के लिए नाकेदार और पापी उनके पास आया करते थे।
2) फ़रीसी और शास्त्री यह कहते हुए भुनभुनाते थे, ''यह मनुष्य पापियों का स्वागत करता है और उनके साथ खाता-पीता है''।
3) इस पर ईसा ने उन को यह दृष्टान्त सुनाया,
4) ''यदि तुम्हारे एक सौ भेड़ें हों और उन में एक भी भटक जाये, तो तुम लोगों में कौन ऐसा होगा, जो निन्यानबे भेड़ों को निर्जन प्रदेश में छोड़ कर न जाये और उस भटकी हुई को तब तक न खोजता रहे, जब तक वह उसे नहीं पाये?
5) पाने पर वह आनन्दित हो कर उसे अपने कन्धों पर रख लेता है
6) और घर आ कर अपने मित्रों और पड़ोसियों को बुलाता है और उन से कहता है, 'मेरे साथ आनन्द मनाओ, क्योंकि मैंने अपनी भटकी हुई भेड़’ को पा लिया है'।
7) मैं तुम से कहता हूँ, इसी प्रकार निन्यानबे धर्मियों की अपेक्षा, जिन्हें पश्चात्ताप की आवश्यकता नहीं है, एक पश्चात्तापी पापी के लिए स्वर्ग में अधिक आनन्द मनाया जायेगा।
8) ''अथवा कौन ऐसी स्त्री होगी, जिसके पास दस सिक्के हों और उन में एक भी खो जाये, तो बत्ती जला कर और घर बुहार कर सावधानी से तब तक न खोजती रहे, जब तक वह उसे नहीं पाये?
9) पाने पर वह अपनी सखियों और पड़ोसिनों को बुला कर कहती है, 'मेरे साथ आनन्द मनाओ, क्योंकि मैंने जो सिक्का खोया था, उसे पा लिया है'।
10) मैं तुम से कहता हूँ, इसी प्रकार ईश्वर के दूत एक पश्चात्तापी पापी के लिए आनन्द मनाते हैं।''
11) ईसा ने कहा, ''किसी मनुष्य के दो पुत्र थे।
12) छोटे ने अपने पिता से कहा, 'पिता जी! सम्पत्ति का जो भाग मेरा है, मुझे दे दीजिए', और पिता ने उन में अपनी सम्पत्ति बाँट दी।
13) थोड़े ही दिनों बाद छोटा बेटा अपनी समस्त सम्पत्ति एकत्र कर किसी दूर देश चला गया और वहाँ उसने भोग-विलास में अपनी सम्पत्ति उड़ा दी।
14) जब वह सब कुछ ख़र्च कर चुका, तो उस देश में भारी अकाल पड़ा और उसकी हालत तंग हो गयी।
15) इसलिए वह उस देश के एक निवासी का नौकर बन गया, जिसने उसे अपने खेतों में सूअर चराने भेजा।
16) जो फलियाँ सूअर खाते थे, उन्हीं से वह अपना पेट भरना चाहता था, लेकिन कोई उसे उन में से कुछ नहीं देता था।
17) तब वह होश में आया और यह सोचता रहा-मेरे पिता के घर कितने ही मज’दूरों को ज’रूरत से ज्’यादा रोटी मिलती है और मैं यहाँ भूखों मर रहा हूँ।
18) मैं उठ कर अपने पिता के पास जाऊँगा और उन से कहूँगा, 'पिता जी! मैंने स्वर्ग के विरुद्ध और आपके प्रति पाप किया है।
19) मैं आपका पुत्र कहलाने योग्य नहीं रहा। मुझे अपने मज’दूरों में से एक जैसा रख लीजिए।'
20) तब वह उठ कर अपने पिता के घर की ओर चल पड़ा। वह दूर ही था कि उसके पिता ने उसे देख लिया और दया से द्रवित हो उठा। उसने दौड़ कर उसे गले लगा लिया और उसका चुम्बन किया।
21) तब पुत्र ने उस से कहा, 'पिता जी! मैने स्वर्ग के विरुद्ध और आपके प्रति पाप किया है। मैं आपका पुत्र कहलाने योग्य नहीं रहा।'
22) परन्तु पिता ने अपने नौकरों से कहा, 'जल्दी अच्छे-से-अच्छे कपड़े ला कर इस को पहनाओ और इसकी उँगली में अँगूठी और इसके पैरों में जूते पहना दो।
23) मोटा बछड़ा भी ला कर मारो। हम खायें और आनन्द मनायें;
24) क्योंकि मेरा यह बेटा मर गया था और फिर जी गया है, यह खो गया था और फिर मिल गया है।' और वे आनन्द मनाने लगे।
25) ''उसका जेठा लड़का खेत में था। जब वह लौट कर घर के निकट पहुँचा, तो उसे गाने-बजाने और नाचने की आवाज’ सुनाई पड़ी।
26) उसने एक नौकर को बुलाया और इसके विषय में पूछा।
27) इसने कहा, 'आपका भाई आया है और आपके पिता ने मोटा बछड़ा मारा है, क्योंकि उन्होंने उसे भला-चंगा वापस पाया है'।
28) इस पर वह क्रुद्ध हो गया और उसने घर के अन्दर जाना नहीं चाहा। तब उसका पिता उसे मनाने के लिए बाहर आया।
29) परन्तु उसने अपने पिता को उत्तर दिया, 'देखिए, मैं इतने बरसों से आपकी सेवा करता आया हूँ। मैंने कभी आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया। फिर भी आपने कभी मुझे बकरी का बच्चा तक नहीं दिया, ताकि मैं अपने मित्रों के साथ आनन्द मनाऊँ।
30) पर जैसे ही आपका यह बेटा आया, जिसने वेश्याओं के पीछे आपकी सम्पत्ति उड़ा दी है, आपने उसके लिए मोटा बछड़ा मार डाला है।'
31) इस पर पिता ने उस से कहा, 'बेटा, तुम तो सदा मेरे साथ रहते हो और जो कुछ मेरा है, वह तुम्हारा है।
32) परन्तु आनन्द मनाना और उल्लसित होना उचित ही था; क्योंकि तुम्हारा यह भाई मर गया था और फिर जी गया है, यह खो गया था और मिल गया है'।''

अध्याय 16

1) ईसा ने अपने शिष्यों से यह भी कहा, ''किसी धनवान् का एक कारिन्दा था। लोगों ने उसके पास जा कर कारिन्दा पर यह दोष लगाया कि वह आपकी सम्पत्ति उड़ा रहा है।
2) इस पर स्वामी ने उसे बुला कर कहा, ÷यह मैं तुम्हारे विषय में क्या सुन रहा हूँ? अपनी कारिन्दगरी का हिसाब दो, क्योंकि तुम अब से कारिन्दा नहीं रह सकते।'
3) तब कारिन्दा ने मन-ही-मन यह कहा, ÷मै क्या करूँ? मेरा स्वामी मुझे कारिन्दगरी से हटा रहा है। मिट्टी खोदने का मुझ में बल नहीं; भीख माँगने में मुझे लज्जा आती है।
4) हाँ, अब समझ में आया कि मुझे क्या करना चाहिए, जिससे कारिन्दगरी से हटाये जाने के बाद लोग अपने घरों में मेरा स्वागत करें।'
5) उसने अपने मालिक के कर्ज’दारों को एक-एक कर बुला कर पहले से कहा, 'तुम पर मेरे स्वामी का कितना ऋण है?'
6) उसने उत्तर दिया, ÷सौ मन तेल'। कारिन्दा ने कहा, ÷अपना रुक्का लो और बैठ कर जल्दी पचास लिख दो'।
7) फिर उसने दूसरे से पूछा, ÷तुम पर कितना ऋण है?' उसने कहा, ÷सौ मन गेंहूँ। कारिन्दा ने उस से कहा, ÷अपना रुक्का लो और अस्सी लिख दो'।
8) स्वामी ने बेईमान कारिन्दा को इसलिए सराहा कि उसने चतुराई से काम किया; क्योंकि इस संसार की सन्तान आपसी लेन-देन में ज्योति की सन्तान से अधिक चतुर है।
9) ''और मैं तुम लोगों से कहता हूँ, झूठे धन से अपने लिए मित्र बना लो, जिससे उसके समाप्त हो जाने पर वे परलोक में तुम्हारा स्वागत करें।
10) ''जो छोटी-से-छोटी बातों में ईमानदार है, वह बड़ी बातों में भी ईमानदार है और जो छोटी-से-छोटी बातों बेईमान है, वह बड़ी बातों में भी बेईमान है।
11) यदि तुम झूठे धन में ईमानदार नहीं ठहरे, तो तुम्हें सच्चा धन कौन सौंपेगा?
12) और यदि तुम पराये धन में ईमानदार नहीं ठहरे, तो तुम्हें तुम्हारा अपना धन कौन देगा?
13) ''क़ोई भी सेवक दो स्वामियों की सेवा नहीं कर सकता; क्योंकि वह या तो एक से बैर और दूसरे से प्रेम करेगा, या एक का आदर और दूसरे का तिरस्कार करेगा। तुम ईश्वर और धन-दोनों क़ी सेवा नहीं कर सकते।''
14) फ़रीसी, जो लोभी थे, ये बातें सुन कर ईसा की हँसी उड़ाते थे।
15) इस पर ईसा ने उन से कहा, ''तुम लोग मनुष्यों के सामने तो धर्मी होने का ढोंग रचते हो, परन्तु ईश्वर तुम्हारा हृदय जानता है। जो बात मनुष्यों की दृष्टि में महत्व रखती है, वह ईश्वर की दृष्टि में घृणित है।
16) ''योहन तक संहिता और नबियों का समय था। उसके बाद से ईश्वर के राज्य का सुसमाचार सुनाया जाता है और सब उस में प्रवेश करने का बहुत प्रयत्न कर रहे हैं।
17) ''आकाश और पृथ्वी टल जायें, तो टल जायें, परन्तु संहिता की एक मात्रा भी नहीं टल सकती।
18) ''जो अपनी पत्नी का परित्याग करता और किसी दूसरी स्त्री से विवाह करता है, वह व्यभिचार करता है और जो पति द्वारा परित्यक्ता से विवाह करता है, वह व्यभिचार करता है।
19) ''एक अमीर था, जो बैंगनी वस्त्र और मलमल पहन कर प्रतिदिन दावत उड़ाया करता था।
20) उसके फाटक पर लाज’रूस नामक कंगाल पड़ा रहता था, जिसका शरीर फोड़ों से भरा हुआ था।
21) वह अमीर की मेज’ की जूठन से अपनी भूख मिटाने के लिए तरसता था और कुत्ते आ कर उसके फोड़े चाटा करते थे।
22) वह कंगाल एक दिन मर गया और स्वर्गदूतों ने उसे ले जा कर इब्राहीम की गोद में रख दिया। अमीर भी मरा और दफ़नाया गया।
23) उसने अधोलोक में यन्त्रणाएँ सहते हुए अपनी आँखें ऊपर उठा कर दूर ही से इब्राहीम को देखा और उसकी गोद में लाज’रूस को भी।
24) उसने पुकार कर कहा, ÷पिता इब्राहीम! मुझ पर दया कीजिए और लाज’रुस को भेजिए, जिससे वह अपनी उँगली का सिरा पानी में भिगो कर मेरी जीभ ठंडी करे, क्योंकि मैं इस ज्वाला में तड़प रहा हूँ'।
25) इब्राहीम ने उस से कहा, ÷बेटा, याद करो कि तुम्हें जीवन में सुख-ही-सुख मिला था और लाज’रुस को दुःख-ही-दुःख। अब उसे यहाँ सान्त्वना मिल रही है और तुम्हें यन्त्रणा।
26) इसके अतिरिक्त हमारे और तुम्हारे बीच एक भारी गर्त्त अवस्थित है; इसलिए यदि कोई तुम्हारे पास जाना भी चाहे, तो वह नहीं जा सकता और कोई भ’ी वहाँ से इस पार नहीं आ सकता।'
27) उसने उत्तर दिया, 'पिता! आप से एक निवेदन है। आप लाज’रुस को मेरे पिता के घर भेजिए,
28) क्योंकि मेरे पाँच भाई हैं। लाज’रुस उन्हें चेतावनी दे। कहीं ऐसा न हो कि वे भी यन्त्रणा के इस स्थान में आ जायें।'
29) इब्राहीम ने उस से कहा, ÷मूसा और नबियों की पुस्तकें उनके पास है, वे उनकी सुनें÷।
30) अमीर ने कहा, ÷पिता इब्राहीम! वे कहाँ सुनते हैं! परन्तु यदि मुरदों में से कोई उनके पास जाये, तो वे पश्चात्ताप करेंगे।'
31) पर इब्राहीम ने उस से कहा, ÷जब वे मूसा और नबियों की नहीं सुनते, तब यदि मुरदों में से कोई जी उठे, तो वे उसकी बात भी नहीं मानेंगे'।'

अध्याय 17

1) ईसा ने अपने शिष्यों से कहा, ''प्रलोभन अनिवार्य है, किन्तु धिक्कार उस मनुष्य को, जो प्रलोभन का कारण बनता है!
2) उन नन्हों में एक के लिए भी पाप का कारण बनने की अपेक्षा उस मनुष्य के लिए अच्छा यही होता कि उसके गले में चक्की का पाटा बाँधा जाता और वह समुद्र में फेंक दिया जाता।
3) इसलिए सावधान रहो। ''यदि तुम्हारा भाई कोई अपराध करता है, तो उसे डाँटो और यदि वह पश्चात्ताप करता है, तो उसे क्षमा कर दो।
4) यदि वह दिन में सात बार तुम्हारे विरुद्ध अपराध करता और सात बार आ कर कहता है कि मुझे खेद है, तो तुम उसे क्षमा करते जाओ।''
5) प्रेरितों ने प्रभु से कहा, ''हमारा विश्वास बढ़ाइए''।
6) प्रभु ने उत्तर दिया, ''यदि तुम्हारा विश्वास राई के दाने के बराबर भी होता और तुम शहतूत के इस पेड़ से कहते, ÷उखड़ कर समुद्र में लग जा', तो वह तुम्हारी बात मान लेता।
7) ''यदि तुम्हारा सेवक हल जोत कर या ढोर चरा कर खेत से लौटता है, तो तुम में ऐसा कौन है, जो उससे कहेगा, ''आओ, तुरन्त भोजन करने बैठ जाओ'?
8) क्या वह उस से यह नहीं कहेगा, ÷मेरा भोजन तैयार करो। जब तक मेरा खाना-पीना न हो जाये, कमर कस कर परोसते रहो। बाद में तुम भी खा-पी लेना'?
9) क्या स्वामी को उस नौकर को इसीलिए धन्यवाद देना चाहिए कि उसने उसकी आज्ञा का पालन किया है?
10) तुम भी ऐसे ही हो। सभी आज्ञाओं का पालन करने के बाद तुम को कहना चाहिए, ÷हम अयोग्य सेवक भर हैं, हमने अपना कर्तव्य मात्र पूरा किया है'।''
11) ईसा येरुसालेम की यात्रा करते हुए समारिया और गलीलिया के सीमा-क्षेत्रों से हो कर जा रहे थे।
12) किसी गाँव में प्रवेश करने पर उन्हें दस कोढ़ी मिले,
13) जो दूर खड़े हो गये और ऊँचे स्वर से बोले, ''ईसा! गुरूवर! हम पर दया कीजिए''।
14) ईसा ने उन्हें देख कर कहा, ''जाओ और अपने को याजकों को दिखलाओ'', और ऐसा हुआ कि वे रास्ते में ही नीरोग हो गये।
15) तब उन में से एक यह देख कर कि वह नीरोग हो गया है, ऊँचे स्वर से ईश्वर की स्तुति करते हुए लौटा।
16) वह ईसा को धन्यवाद देते हुए उनके चरणों पर मुँह के बल गिर पड़ा, और वह समारी था।
17) ईसा ने कहा, ''क्या दसों नीरोग नहीं हुए? तो बाक़ी नौ कहाँ हैं?
18) क्या इस परदेशी को छोड़ और कोई नहीं मिला, जो लौट कर ईश्वर की स्तुति करे?''
19) तब उन्होंने उस से कहा, ''उठो, जाओ। तुम्हारे विश्वास ने तुम्हारा उद्धार किया है।''
20) जब फ़रीसियों ने उन से पूछा कि ईश्वर का राज्य कब आयेगा, तो ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ''ईश्वर का राज्य प्रकट रूप से नहीं आता।
21) लोग नहीं कह सकेंगे, ÷देखो-वह यहाँ है' अथवा, ÷देखो-वह वहाँ है'; क्योंकि ईश्वर का राज्य तुम्हारे ही बीच है।''
22) ईसा ने अपने शिष्यों से कहा, ''ऐसा समय आयेगा, जब तुम मानव पुत्र का एक दिन भी देखना चाहोगे, किन्तु उसे नहीं देख पाओगे।
23) लोग तुम से कहेंगे, 'देखो-वह यहाँ है', अथवा, ÷देखो-वह वहाँ है', तो तुम उधर नहीं जाओगे, उनके पीछे नहीं दौड़ोगे;
24) क्योंकि जैसे बिजली आकाश के एक छोर से निकल कर दूसरे छोर तक चमकती है, वैसे ही मानव पुत्र अपने दिन प्रकट होगा।
25) परन्तु पहले उसे बहुत दुःख सहना और इस पीढ़ी द्वारा ठुकराया जाना है।
26) ''जो नूह के दिनों में हुआ था, वही मानव पुत्र के दिनों में भी होगा।
27) नूह के जहाज’ पर चढ़ने के दिन तक लोग खाते-पीते और शादी-ब्याह करते रहे। तब जलप्रलय आया और उसने सब को नष्ट कर दिया।
28) लोट के दिनों में भी यही हुआ था। लोग खाते-पीते, लेन-देन करते, पेड़ लगाते और घर बनाते रहे;
29) परन्तु जिस दिन लोट ने सोदोम छोड़ा, ईश्वर ने आकाश से आग और गंधक बरसायी और सब-के-सब नष्ट हो गये।
30) मानव पुत्र के प्रकट होने के दिन वैसा ही होगा।
31) ''उस दिन जो छत पर हो और उसका सामान घर में हो, वह उसे ले जाने नीचे न उतरे और जो खेत में हो, वह भी घर न लौटे।
32) लोट की पत्नी को याद करो।
33) जो अपना जीवन सुरक्षित रखने का प्रयत्न करेगा, वह उसे खो देगा, और जो उसे खो देगा, वह उसे सुरक्षित रखेगा।
34) ''मैं तुम से कहता हूँ, उस रात दो एक खाट पर होंगे-एक उठा लिया जायेगा और दूसरा छोड़ दिया जायेगा।
35) दो स्त्रियाँ साथ-साथ चक्की पीसती होंगी-एक उठा ली जायेगी और दूसरी छोड़ दी जायेगी।''
36) ''मैं तुम से कहता हूँ, दो खेत में होंगे-एक उठा लिया जायेगा और दूसरा छोड़ दिया जायेगा।
37) इस पर उन्होंने ईसा से पूछा, ''प्र्रभु! यह कहाँ होगा?'' उन्होंने उत्तर दिया, ''जहाँ लाश होगी, वहाँ गीध भी इकट्ठे हो जायेंगे''।

अध्याय 18

1) नित्य प्रार्थना करनी चाहिए और कभी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए-यह समझाने के लिए ईसा ने उन्हें एक दृष्टान्त सुनाया।
2) ''किसी नगर में एक न्यायकर्ता था, जो न तो ईश्वर से डरता और न किसी की परवाह करता था।
3) उसी नगर में एक विधवा थी। वह उसके पास आ कर कहा करती थी, ÷मेरे मुद्दई के विरुद्ध मुझे न्याय दिलाइए'।
4) बहुत समय तक वह अस्वीकार करता रहा। बाद में उसने मन-ही-मन यह कहा, ÷मैं न तो ईश्वर से डरता और न किसी की परवाह करता हूँ,
5) किन्तु वह विधवा मुझे तंग करती है; इसलिए मैं उसके लिए न्याय की व्यवस्था करूँगा, जिससे वह बार-बार आ कर मेरी नाक में दम न करती रहे'।''
6) प्रभु ने कहा, ''सुनते हो कि वह अधर्मी न्यायकर्ता क्या कहता है?
7) क्या ईश्वर अपने चुने हुए लोगों के लिए न्याय की व्यवस्था नहीं करेगा, जो दिन-रात उसकी दुहाई देते रहते हैं? क्या वह उनके विषय में देर करेगा?
8) मैं तुम से कहता हूँ-वह शीघ्र ही उनके लिए न्याय करेगा। परन्तु जब मानव पुत्र आयेगा, तो क्या वह पृथ्वी पर विश्वास बचा हुआ पायेगा?''
9) कुछ लोग बड़े आत्मविश्वास के साथ अपने को धर्मी मानते और दूसरों को तुच्छ समझते थे। ईसा ने ऐसे लोगों के लिए यह दृष्टान्त सुनाया,
10) ''दो मनुष्य प्रार्थना करने मन्दिर गये, एक फ़रीसी और दूसरा नाकेदार।
11) फ़रीसी तन कर खड़ा हो गया और मन-ही-मन इस प्रकार प्रार्थना करता रहा, 'ईश्वर! मैं तुझे धन्यवाद देता हूँ कि मैं दूसरे लोगों की तरह लोभी, अन्यायी, व्यभिचारी नहीं हूँ और न इस नाकेदार की तरह ही।
12) मैं सप्ताह में दो बार उपवास करता हूँ और अपनी सारी आय का दशमांश चुका देता हूँ।'
13) नाकेदार कुछ दूरी पर खड़ा रहा। उसे स्वर्ग की ओर आँख उठाने तक का साहस नहीं हो रहा था। वह अपनी छाती पीट-पीट कर यह कह रहा था, ÷ईश्वर! मुझ पापी पर दया कर'।
14) मैं तुम से कहता हूँ-वह नहीं, बल्कि यही पापमुक्त हो कर अपने घर गया। क्योंकि जो अपने को बड़ा मानता है, वह छोटा बनाया जायेगा; परन्तु जो अपने को छोटा मानता है, वह बड़ा बनाया जायेगा।''
15) लोग ईसा के पास बच्चों को भी लाते थे, जिससे वे उन पर हाथ रख दें। शिष्य यह देख कर लोगों को डाँटते थे।
16) किन्तु ईसा ने बच्चों को अपने पास बुलाया और कहा, ''बच्चों को मेरे पास आने दो, उन्हें मत रोको; क्योंकि ईश्वर का राज्य उन-जैसे लोगों का है।
17) मैं तुम से यह कहता हूँ, जो छोटे बालक की तरह ईश्वर का राज्य ग्रहण नहीं करता, वह उस में प्रवेश नहीं करेगा।''
18) एक कुलीन मनुष्य ने ईसा से यह पूछा, ''भले गुरु! अनन्त जीवन प्राप्त करने के लिए मुझे क्या करना चाहिए?''
19) ईसा ने उस से कहा, ''मुझे भला क्यों कहते हो? ईश्वर को छोड़ कोई भला नहीं।
20) तुम आज्ञाओं को जानते हो, व्यभिचार मत करो, हत्या मत करो, चोरी मत करो, झूठी गवाही मत दो, अपने माता-पिता का आदर करो।''
21) उसने उत्तर दिया, ''इन सब का पालन तो मैं अपने बचपन से करता आया हूँ''।
22) ईसा ने यह सुन कर उस से कहा, ''तुम में एक बात की कमी है। अपना सब कुछ बेच कर ग़रीबों में बाँट दो और स्वर्ग में तुम्हारे लिए पूँजी रखी रहेगी। तब आ कर मेरा अनुसरण करो।''
23) वह यह सुनकर बहुत उदास हो गया, क्योंकि वह बहुत धनी था।
24) ईसा ने यह देख कर कहा, ''धनियों के लिए ईश्वर के राज्य में प्रवेश करना कितना कठिन है!
25) सूई के नाके से हो कर ऊँट का निकलना अधिक सहज है, किन्तु धनी का ईश्वर के राज्य में प्रवेश करना कठिन है।''
26) इस पर सुनने वालों ने कहा, ''तो फिर कौन बच सकता है?''
27) ईसा ने उत्तर दिया, ''जो मनुष्यों के लिए असम्भव है, वह ईश्वर के लिए सम्भव है''।
28) तब पेत्रुस ने कहा, ''देखिए, हम लोग अपना सब कुछ छोड़ कर आपके अनुयायी बन गये हैं''।
29) ईसा ने उत्तर दिया, ''मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ-ऐसा कोई नहीं, जिसने ईश्वर के राज्य के लिए घर, पत्नी, भाइयों, माता-पिता या बाल-बच्चों को छोड़ दिया हो
30) और जो इस लोक में कहीं अधिक और परलोक में अनन्त जीवन न पाये''।
31) बारहों को अलग ले जा कर ईसा ने उन से कहा, ''देखो, हम येरुसालेम जा रहे हैं। मानव पुत्र के विषय में नबियों ने जो कुछ लिखा है, वह सब पूरा होने वाला है।
32) वह गै’र-यहूदियों के हवाले कर दिया जायेगा। वे उसका उपहास करेंगे, उस पर अत्याचार करेंगे और उस पर थूकेंगे,
33) उसे कोड़े लगायेंगे और मार डालेंगे। लेकिन तीसरे दिन वह जी उठेगा।''
34) बारहों ने कुछ भी नहीं समझा। इन शब्दों का अर्थ उन से छिपा ही रहा और वे इन्हें नहीं समझ सके।
35) जब ईसा येरीख़ो के निकट आ रहे थे, तो एक अन्धा सड़क के किनारे बैठा भीख माँग रहा था।
36) उसने भीड़ को गुज’रते सुन कर पूछा कि क्या हो रहा है।
37) लोगों ने उसे बताया कि ईसा नाज’री इधर से आ रहे हैं।
38) इस पर वह यह कहते हुए पुकार उठा, ''ईसा! दाऊद के पुत्र! मुझ पर दया कीजिए''।
39) आगे चलने वाले उसे चुप करने के लिए डाँटते थे, किन्तु वह और भी ज’ोर से पुकारता रहा, ''दाऊद के पुत्र! मुझ पर दया कीजिए''।
40) ईसा ने रुक कर उसे पास ले आने को कहा। जब वह पास आया, तो ईसा ने उस से पूछा,
41) ''क्या चाहते हो? मैं तुम्हारे लिए क्या करूँ?'' उसने उत्तर दिया, ''प्रभु! मैं फिर देख सकूँ''।
42) ईसा ने उस से कहा, ''जाओ, तुम्हारे विश्वास ने तुम्हारा उद्धार किया है''।
43) उसी क्षण उसकी दृष्टि लौट आयी और वह ईश्वर की स्तुति करते हुए ईसा के पीछे हो लिया। सारी जनता ने यह देख कर ईश्वर की स्तुति की।

अध्याय 19

1) ईसा येरीख़ो में प्रवेश कर आगे बढ़ रहे थे।
2) ज’केयुस नामक एक प्रमुख और धनी नाकेदार
3) यह देखना चाहता था कि ईसा कैसे हैं। परन्तु वह छोटे क़द का था, इसलिए वह भीड़ में उन्हें नहीं देख सका।
4) वह आगे दौड़ कर ईसा को देखने के लिए एक गूलर के पेड़ पर चढ़ गया, क्योंकि वह उसी रास्ते से आने वाले थे।
5) जब ईसा उस जगह पहुँचे, तो उन्होंने आँखें ऊपर उठा कर ज’केयुस से कहा, ''ज’केयुस! जल्दी नीचे आओ, क्योंकि आज मुझे तुम्हारे यहाँ ठहरना है''।
6) उसने, तुरन्त उतर कर आनन्द के साथ अपने यहाँ ईसा का स्वागत किया।
7) इस पर सब लोग यह कहते हुए भुनभुनाते रहे, ''वे एक पापी के यहाँ ठहरने गये''।
8) ज’केयुस ने दृढ़ता से प्रभु ने कहा, ''प्रभु! देखिए, मैं अपनी आधी सम्पत्ति ग़रीबों को दूँगा और मैंने जिन लोगों के साथ किसी बात में बेईमानी की है, उन्हें उसका चौगुना लौटा दूँगा''।
9) ईसा ने उस से कहा, ''आज इस घर में मुक्ति का आगमन हुआ है, क्योंकि यह भी इब्राहीम का बेटा है।
10) जो खो गया था, मानव पुत्र उसी को खोजने और बचाने आया है।''
11) जब लोग ये बातें सुन रहे थे, तो ईसा ने एक दृष्टान्त भी सुनाया; क्योंकि ईसा को येरुसालेम के निकट पा कर वे यह समझ रहे थे कि ईश्वर का राज्य तुरन्त प्रकट होने वाला है।
12) उन्होंने कहा, ''एक कुलीन मनुष्य राजपद प्राप्त कर लौटने के विचार से दूर देश चला गया।
13) उसने अपने दस सेवकों को बुलाया और उन्हें एक-एक अशर्फ़ी दे कर कहा, ÷मेरे लौटने तक व्यापार करो'।
14) ''उसके नगर-निवासी उस से बैर करते थे और उन्होंने उसके पीछे एक प्रतिनिधि-मण्डल द्वारा कहला भेजा कि हम नहीं चाहते कि वह मनुष्य हम पर राज्य करे।
15) ''वह राजपद पा कर लौटा और उसने जिन सेवकों को धन दिया था, उन्हें बुला भेजा और यह जानना चाहा कि प्रत्येक ने व्यापार से कितना कमाया है।
16) पहले ने आ कर कहा, ÷स्वामी! आपकी एक अशर्फ़ी ने दस अशर्फ़िय’ाँ कमायी हैं'।
17) स्वामी ने उस से कहा, ÷शाबाश, भले सेवक! तुम छोटी-से-छोटी बातों में ईमानदार निकले, इसलिए तुम्हें दस नगरों पर अधिकार मिलेगा'।
18) दूसरे ने आ कर कहा, ÷स्वामी! आपकी एक अशर्फ़ी ने पाँच अशर्फ़ियाँ कमायी हैं'
19) और स्वामी ने उस से भी कहा, ÷तुम्हें पाँच नगरों पर अधिकार मिलेगा'।
20) अब तीसरे ने आ कर कहा, 'स्वामी! देखिए, यह है आपकी अशर्फ़ी। मैंने इसे अँगोछे में बाँध रखा था।
21) मैं आप से डरता था, क्योंकि आप कठोर हैं। आपने जो जमा नहीं किया, उसे आप निकालते हैं और जो नहीं बोया, उसे लुनते हैं।'
22) स्वामी ने उस से कहा, ÷दुष्ट सेवक! मैं तेरे ही शब्दों से तेरा न्याय करूँगा। तू जानता था कि मैं कठोर हूँ। मैंने जो जमा नहीं किया, मैं उसे निकालता हूँ और जो नहीं बोया, उसे लुनता हूँ।
23) तो, तूने मेरा धन महाजन के यहाँ क्यों नहीं रख दिया? तब मैं लौट कर उसे सूद के साथ वसूल कर लेता।'
24) और स्वामी ने वहाँ उपस्थित लोगों से कहा, ÷इस से वह अशर्फ़ी ले लो और जिसके पास दस अशर्फ़ियाँ हैं, उसी को दे दो'।
25) उन्होंने उस से कहा, ÷स्वामी! उसके पास तो दस अशर्फि’याँ हैं'।
26) ÷मैं तुम से कहता हूँ-जिसके पास कुछ है, उसी को और दिया जायेगा; लेकिन जिसके पास कुछ नहीं है, उस से वह भी ले लिया जायेगा, जो उसके पास है।
27) और मेरे बैरियों को, जो यह नहीं चाहते थे कि मैं उन पर राज्य करूँ, इधर ला कर मेरे सामने मार डालो'।
28) इतना कह कर ईसा येरुसालेम की ओर आगे बढ़े।
29) जब ईसा जैतून नामक पहाड़ के समीप-बेथफ़गे और बेथानिया के निकट पहुँचे, तो उन्होंने दो शिष्यों को यह कहते हुए भेजा,
30) ''सामने के गाँव जाओ। वहाँ पहुँच कर तुम एक बछेड़ा बँधा हुआ पाओगे, जिस पर अब तक कोई नहीं सवार हुआ है।
31) उसे खोल कर यहाँ ले आओ। यदि कोई तुम से पूछे कि तुम उसे क्यों खोल रहे हो, तो उत्तर देना-प्रभु को इसकी जरूरत है।''
32) जो भेजे गये थे, उन्होंने जा कर वैसा ही पाया, जैसा ईसा ने कहा था।
33) जब वे बछेड़ा खोल रहे थे, तो उसके मालिकों ने उन से कहा, ''इस बछेड़े को क्यों खोल रहे हो?''
34) उन्होंने उत्तर दिया, ''प्रभु को इसकी ज’रूरत है''।
35) वे बछेड़ा ईसा के पास ले आये और उस बछेड़े पर अपने कपड़े बिछा कर उन्होंने ईसा को उस पर चढ़ाया।
36) ज्यों-ज्यों ईसा आगे बढ़ते जा रहे थे, लोग रास्ते पर अपने कपड़े बिछाते जा रहे थे।
37) जब वे जैतून पहाड़ की ढाल पर पहुँचे, तो पूरा शिष्य-समुदाय आनंदविभोर हो कर आँखों देखे सब चमत्कारों के लिए ऊँचे स्वर से इस प्रकार ईश्वर की स्तुति करने लगा-
38) धन्य हैं वह राजा, जो प्रभु के नाम पर आते हैं! स्वर्ग में शान्ति! सर्वोच्च स्वर्ग में महिमा!
39) भीड़ में कुछ फ़रीसी थे। उन्होंने ईसा से कहा, ''गुरूवर! अपने शिष्यों को डाँटिए''।
40) परन्तु ईसा ने उत्तर दिया, ''मैं तुम से कहता हूँ, यदि वे चुप रहें, तो पत्थर ही बोल उठेंगे''।
41) निकट पहुँचने पर ईसा ने शहर को देखा। वे उस पर रो पड़े
42) और बोले, ''हाय! कितना अच्छा होता यदि तू भी इस शुभ दिन यह समझ पाता कि किन बातों में तेरी शान्ति है! परन्तु अभी वे बातें तेरी आँखों से छिपी हुई हैं।
43) तुझ पर वे दिन आयेंगे, जब तेरे शत्रु तेरे चारों ओर मोरचा बाँध कर तुझे घेर लेंगे, तुझ पर चारों ओर से दबाव डालेंगे,
44) तुझे और तेरे अन्दर रहने वाली तेरी प्रजा को मटियामेट कर देंगे और तुझ में एक पत्थर पर दूसरा पत्थर पड़ा नहीं रहने देंगे; क्योंकि तूने अपने प्रभु के आगमन की शुभ घड़ी को नहीं पहचाना।''
45) ईसा मन्दिर में प्रवेश कर बिक्री करने वालों को यह कहते हुए बाहर निकालने लगे,
46) ''लिखा है-मेरा घर प्रार्थना का घर होगा, परन्तु तुम लोगों ने उसे लुटेरों का अड्डा बनाया है''।
47) वे प्रतिदिन मन्दिर में शिक्षा देते थे। महायाजक, शास्त्री और जनता के नेता उनके सर्वनाश का उपाय ढूँढ़ रहे थे,
48) परन्तु उन्हें नहीं सूझ रहा था कि क्या करें; क्योंकि सारी जनता बड़ी रुचि से उनकी शिक्षा सुनती थी।

अध्याय 20

1) एक दिन ईसा मन्दिर में जनता को शिक्षा दे रहे थे और सुसमाचार सुना रहे थे कि महायाजक, शास्त्री और नेता उनके पास आ कर
11) उसने एक दूसरे नौकर को भेजा और उन्होंने उसे भी मारा-पीटा, अपमानित किया और ख़ाली हाथ लौटा दिया।
12) उसने एक तीसरे नौकर को भेजा और उन्होंने उसे भी घायल कर दाखबारी के बाहर फेंक दिया।
13) तब दाखबारी के स्वामी ने कहा, 'मैं क्या करूँ? मैं अपने प्रिय पुत्र को भेजँूगा। सम्भव है, वे उसका आदर करें।
14) परन्तु उसे देख कर असामी यह कहते हुए आपस में परामर्श करते रहे, ÷यह तो उत्तराधिकारी है। हम इसे मार डालें, जिससे इसकी विरासत हमारी हो जाये।'
15) उन्होंने उसे दाखबारी के बाहर पटक दिया और मार डाला। अब दाखबारी का स्वामी क्या करेगा?
16) वह आ कर उन असामियों का सर्वनाश करेगा और अपनी दाखबारी दूसरों को सौंप देगा।''
17) उन्होंने यह सुन कर ईसा से कहा, ''ईश्वर करे कि ऐसा न हो''। किन्तु ईसा ने उन पर आँखें गड़ा कर कहा, ''धर्मग्रन्थ के इस कथन का क्या अर्थ है-कारीगरों ने जिस पत्थर को बेकार समझ कर निकाल दिया था, वही कोने का पत्थर बन गया है?
18) जो उस पत्थर पर गिरेगा, वह चूर-चूर हो जायेगा और जिस पर वह पत्थर गिरेगा, उस को पीस डालेगा।''
19) शास्त्री और महायाजक उन को उसी समय पकड़ना चाहते थे, किन्तु वे जनता से डरते थे। वे अच्छी तरह समझ गये थे कि ईसा ने यह दृष्टान्त हमारे ही विषय में कहा।
20) वे ईसा को फँसाने की ताक में रहते थे। उन्होंने उनके पास गुप्तचर भेजे, जिससे वे धर्मी होने का ढोंग रच कर ईसा को उनकी अपनी बात के फन्दे में फँसाये और उन्हें राज्यपाल के कब्जे’ और अधिकार में दे सकें।
21) इन्होंने ईसा से पूछा, ''गुरूवर! हम यह जानते हैं कि आप सत्य बोलते और सत्य ही सिखालते हैं। आप मुँह-देखी बात नहीं करते, बल्कि सच्चाई से ईश्वर के मार्ग की शिक्षा देते हैं।
22) कैसर को कर देना हमारे लिए उचित है या नहीं?''
23) ईसा ने उनकी धूर्तता भाँप कर उन से कहा,
24) ''मुझे एक दीनार दिखलाओ। इस पर किसका चेहरा और किसका लेख है?'' उन्होंने उत्तर दिया, ''कैसर का''।
25) ईसा ने उन से कहा, ''तो, जो कैसर का है, उसे कैसर को दो और जो ईश्वर का है, उसे ईश्वर को''।
26) वे उनके उत्तर पर अचम्भे में पड़ कर चुप हो गये और लोगों के सामने उनके शब्दों में कोई दोष नहीं निकाल सके।
27) इसके बाद सदूकी उनके पास आये। उनकी धारणा है कि मृतकों का पुनरूत्थान नहीं होता। उन्होंने ईसा के सामने यह प्रश्न रखा,
28) ''गुरूवर! मूसा ने हमारे लिए यह नियम बनाया-यदि किसी का भाई अपनी पत्नी के रहते निस्सन्तान मर जाये, तो वह अपने भाई की विधवा को ब्याह कर अपने भाई के लिए सन्तान उत्पन्न करे।
29) सात भाई थे। पहले ने विवाह किया और वह निस्सन्तान मर गया।
30) दूसरा और
31) तीसरा आदि सातों भाई विधवा को ब्याह कर निस्सन्तान मर गये।
32) अन्त में वह स्त्री भी मर गयी।
33) अब पुनरूत्थान में वह किसकी पत्नी होगी? वह तो सातों की पत्नी रह चुकी है।''
34) ईसा ने उन से कहा, ''इस लोक में पुरुष विवाह करते हैं और स्त्रियाँ विवाह में दी जाती हैं;
35) परन्तु जो परलोक तथा मृतकों के पुनरूत्थान के योग्य पाये जाते हैं, उन लोगों में न तो पुरुष विवाह करते और न स्त्रियाँ विवाह में दी जाती हैं।
36) वे फिर कभी नहीं मरते। वे तो स्वर्गदूतों के सदृश होते हैं और पुनरूत्थान की सन्तति होने के कारण वे ईश्वर की सन्तति बन जाते हैं।
37) मृतकों का पुनरूत्थान होता हैं मूसा ने भी झाड़ी की कथा में इसका संकेत किया है, जहाँ वह प्रभु को इब्राहीम का ईश्वर, इसहाक का ईश्वर और याकूब का ईश्वर कहते है।
38) वह मृतकों का नहीं, जीवितों का ईश्वर है, क्योंकि उसके लिये सभी जीवित है।''
39) इस पर कुछ शास्त्रियों ने उन से कहा, ''गुरुवर! आपने ठीक ही कहा''।
40) इसके बाद उन्हें ईसा से और कोई प्रश्न पूछने का साहस नहीं हुआ।
41) ईसा ने उन से कहा, ''मसीह, दाऊद के पुत्र कैसे कहे जा सकते हैं?
42) क्योंकि भजनों के ग्रन्थ में दाऊद स्वयं कहते हैं-प्रभु ने मेरे प्रभु से कहा, तुम तब तक मेरे दाहिने बैठे रहो,
43) जब तक मैं तुम्हारे शत्रुओं को तुम्हारा पावदान न बना दूँ।
44) इस तरह दाऊद उन्हें प्रभु कहते हैं, तो वे उनके पुत्र कैसे हो सकते हैं?''
45) सारी जनता सुन रही थी, जब उन्होंने अपने शिष्यों से कहा,
46) ''शास्त्रियों से सावधान रहो। लम्बे लबादे पहन कर टहलने जाना, बाजारों में प्रणाम-प्रणाम सुनना, सभागृहों में प्रथम आसनों पर और भोजों में प्रथम स्थानों पर विराजमान होना-यह सब उन्हें बहुत पसंद है।
47) वे विधवाओं की सम्पत्ति चट कर जाते और दिखावे के लिए लम्बी-लम्बी प्रार्थनाएँ करते हैं। उन लोगों को बड़ी कठोर दण्डाज्ञा मिलेगी।''

अध्याय 21

1) ईसा ने आँखें ऊपर उठा कर देखा कि धनी लोग ख़ज’ाने में अपना दान डाल रहे हैं।
2) उन्होंने एक कंगाल विधवा को भी दो अधेले डालते हुए देखा
3) और कहा, ''मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ-इस कंगाल विधवा ने उन सबों से अधिक डाला है।
4) उन्होंने तो अपनी समृद्धि से दान दिया, परन्तु इसने तंगी में रहते हुए भी जीविका के लिए अपने पास जो कुछ था, वह सब दे डाला।''
5) कुछ लोग मन्दिर के विषय में कह रहे थे कि वह सुन्दर पत्थरों और मनौती के उपहारों से सजा है। इस पर ईसा ने कहा,
6) ''वे दिन आ रहे हैं, जब जो कुछ तुम देख रहे हो, उसका एक पत्थर भी दूसरे पत्थर पर नहीं पड़ा रहेगा-सब ढा दिया जायेगा''।
7) उन्होंने ईसा से पूछा, ''गुरूवर! यह कब होगा और किस चिन्ह से पता चलेगा कि यह पूरा होने को है?''
8) उन्होंने उत्तर दिया, ''सावधान रहो तुम्हें कोई नहीं बहकाये; क्योंकि बहुत-से लोग मेरा नाम ले कर आयेंगे और कहेंगे, ÷मैं वही हूँ' और ÷वह समय आ गया है'। उसके अनुयायी नहीं बनोगे।
9) जब तुम युद्धों और क्रांतियों की चर्चा सुनोगे, तो मत घबराना। पहले ऐसा हो जाना अनिवार्य है। परन्तु यही अन्त नहीं है।''
10) तब ईसा ने उन से कहा, ''राष्ट्र के विरुद्ध राष्ट्र उठ खड़ा होगा और राज्य के विरुद्ध राज्य।
11) भारी भूकम्प होंगे; जहाँ-तहाँ महामारी तथा अकाल पड़ेगा। आतंकित करने वाले दृश्य दिखाई देंगे और आकाश में महान् चिन्ह प्रकट होंगे।
12) ''यह सब घटित होने के पूर्व लोग मेरे नाम के कारण तुम पर हाथ डालेंगे, तुम पर अत्याचार करेंगे, तुम्हें सभागृहों तथा बन्दीगृहों के हवाले कर देंगे और राजाओं तथा शासकों के सामने खींच ले जायेंगे।
13) यह तुम्हारे लिए साक्ष्य देने का अवसर होगा।
14) अपने मन में निश्चय कर लो कि हम पहले से अपनी सफ़ाई की तैयारी नहीं करेंगे,
15) क्योंकि मैं तुम्हें ऐसी वाणी और बुद्धि प्रदान करूँगा, जिसका सामना अथवा खण्डन तुम्हारा कोई विरोधी नहीं कर सकेगा।
16) तुम्हारे माता-पिता, भाई, कुटुम्बी और मित्र भी तुम्हें पकड़वायेंगे। तुम में से कितनों को मार डाला जायेगा
17) और मेरे नाम के कारण सब लोग तुम से बैर करेंगे।
18) फिर भी तुम्हारे सिर का एक बाल भी बाँका नहीं होगा।
19) अपने धैर्य से तुम अपनी आत्माओं को बचा लोगे।
20) ''जब तुम लोग देखोगे कि येरुसालेम सेनाओं से घिर रहा है, तो जान लो कि उसका सर्वनाश निकट है।
21) उस समय जो लोग यहूदिया में हों, वे पहाड़ों पर भाग जायें; जो येरुसालेम में हों, वे बाहर निकल जायें और जो देहात में हों, वे नगर में न जायें;
22) क्योंकि वे दण्ड के दिन होंगे, जब जो कुछ लिखा है, वह पूरा हो जायेगा।
23) उनके लिए शोक, जो उन दिनों गर्भवती या दूध पिलाती होंगी! क्योंकि देश में घोर संकट और इस प्रजा पर प्रकोप आ पड़ेगा।
24) लोग तलवार की धार से मृत्यु के घाट उतारे जायेंगे। उन को बन्दी बना कर सब राष्ट्रों में ले जाया जायेगा और येरुसालेम ग़ैर-यहूदी राष्ट्रों द्वारा तब तक रौंदा जायेगा, जब तक उन राष्ट्रों का समय पूरा न हो जाये।
25) ''सूर्य, चन्द्रमा और तारों में चिन्ह प्रकट होंगे। समुद्र के गर्जन और बाढ़ से व्याकुल हो कर पृथ्वी के राष्ट्र व्यथित हो उठेंगे।
26) लोग विश्व पर आने वाले संकट की आशंका से आतंकित हो कर निष्प्राण हो जायेंगे, क्योंकि आकाश की शक्तियाँ विचलित हो जायेंगी।
27) तब लोग मानव पुत्र को अपार सामर्थ्य और महिमा के साथ बादल पर आते हुए देखेंगे।
28) ''जब ये बातें होने लगेंगी, तो उठ कर खड़े हो जाओ और सिर ऊपर उठाओ, क्योंकि तुम्हारी मुक्ति निकट है।''
29) ईसा ने उन्हें यह दृष्टान्त सुनाया, ''अंजीर और दूसरे पेड़ों को देखो।
30) जब उन में अंकुर फूटने लगते हैं, तो तुम सहज ही जान जाते हो कि गर्मी आ रही है।
31) इसी तरह जब तुम इन बातों को होते देखोगे, तो यह जान लो कि ईश्वर का राज्य निकट है।
32) ''मैं तुम से यह कहता हूँ, इस पीढ़ी के अन्त हो जाने से पूर्व ही ये सब बातें घटित हो जायेंगी।
33) आकाश और पृथ्वी टल जायें, तो टल जायें, परन्तु मेरे शब्द नहीं टल सकते।
34) ''सावधान रहो। कहीं ऐसा न हो कि भोग-विलास, नशे और इस संसार की चिन्ताओं से तुम्हारा मन कुण्ठित हो जाये और वह दिन फन्दे की तरह अचानक तुम पर आ गिरे;
35) क्योंकि वह दिन समस्त पृथ्वी के सभी निवासियों पर आ पड़ेगा।
36) इसलिए जागते रहो और सब समय प्रार्थना करते रहो, जिससे तुम इन सब आने वाले संकटों से बचने और भरोसे के साथ मानव पुत्र के सामने खड़े होने योग्य बन जाओ।''
37) ईसा दिन में मन्दिर में शिक्षा देते थे, परन्तु वह शहर के बाहर निकल कर जैतून पहाड़ पर रात बिताते थे
38) और सब लोग उनका उपदेश सुनने सबेरे मन्दिर आ जाते थे।

अध्याय 22

1) पास्का, बेख़मीर रोटी का पर्व, निकट था।
2) महायाजक और शास्त्री ईसा के सर्वनाश का उपाय ढूँढ़ रहे थे, परन्तु वे जनता से डरते थे।
3) उस समय शैतान यूदस में घुस गया। यूदस इसकारियोती कहलाता था और बारहों में से एक था।
4) उसने महायाजकों और मन्दिर-आरक्षी के नायकों के पास जा कर उनके साथ यह परामर्श किया कि वह किस प्रकार ईसा को उनके हवाले कर दे।
5) वे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे रूपया देने का वादा किया।
6) यूदस सहमत हो गया और वह जनता के अनजान में ईसा को पकड़वाने का अवसर ढूँढ़ता रहा।
7) बेख़मीर रोटी का दिन आया, जब पास्का के मेमने की बलि चढ़ाना आवश्यक था।
8) ईसा ने पेत्रुस और योहन को यह कहते हुए भेजा, ''जा कर हमारे लिए पास्काभोज की तैयारी करो''।
9) उन्होंने ईसा से पूछा, ''आप क्या चाहते हैं? हम कहाँ उसकी तैयारी करें?''
10) ईसा ने उत्तर दिया, ''शहर में आने पर तुम्हें पानी का घड़ा लिये एक पुरुष मिलेगा। उसके पीछे-पीछे चलना और जिस घर में वह प्रवेश करे,
11) उस घर के स्वामी से कहना, ÷गुरूवर ने आप को कहला भेजा है-अतिथिशाला कहाँ है, जहाँ मैं अपने शिष्यों के साथ पास्का का भोजन करूँ?''
12) और वह तुम्हें ऊपर एक सजा-सजाया बड़ा कमरा दिखा देगा। वहीं तैयार करना।'
13) वे चल पड़े। ईसा ने जैसा कहा था, उन्होंने सब कुछ वैसा ही पाया और पास्का-भोज की तैयारी कर ली।
14) समय आने पर ईसा प्रेरितों के साथ भोजन करने बैठे
15) और उन्होंने उन से कहा, ''मैं कितना चाहता था कि दुःख भोगने से पहले पास्का का यह भोजन तुम्हारे साथ करूँ;
16) क्योंकि मैं तुम लोगों से कहता हूँ, जब तक यह ईश्वर के राज्य में पूर्ण न हो जाये, मैं इसे फिर नहीं खाऊँगा''।
17) इसके बाद ईसा ने प्याला लिया, धन्यवाद की प्रार्थना पढ़ी और कहा, ''इसे ले लो और आपस में बाँट लो;
18) क्योंकि मैं तुम लोगों से कहता हूँ, जब तक ईश्वर का राज्य न आये, मैं दाख का रस फिर नहीं पिऊँगा''।
19) उन्होंने रोटी ली और धन्यवाद की प्रार्थना पढ़ने के बाद उसे तोड़ा और यह कहते हुए शिष्यों को दिया, ''यह मेरा शरीर है, जो तुम्हारे लिए दिया जा रहा है। यह मेरी स्मृति में किया करो''।
20) इसी तरह उन्होंने भोजन के बाद यह कहते हुए प्याला दिया, ''यह प्याला मेरे रक्त का नूतन विधान है। यह तुम्हारे लिए बहाया जा रहा है।
21) ''देखो, मेरे विश्वासघाती का हाथ मेरे साथ मेज’ पर है।
22) मानव पुत्र तो, जैसा लिखा है, चला जाता है; किन्तु धिक्कार उस मनुष्य को, जो उसे पकड़वाता है!'
23) वे एक दूसरे से पूछने लगे कि हम लोगों में कौन यह काम करने वाला है।
24) उन में यह विवाद छिड़ गया कि हम में किस को सब से बड़ा समझा जाना चाहिए।
25) ईसा ने उन से कहा, ''संसार में राजा अपनी प्रजा पर निरंकुश शासन करते हैं और सत्ताधारी संरक्षक कहलाना चाहते हैं।
26) परन्तु तुम लोगों में ऐसा नहीं है। जो तुम में बड़ा है, वह सब से छोटे-जैसा बने और जो अधिकारी है, वह सेवक-जैसा बने।
27) आख़िर बड़ा कौन है-वह, जो मेज’ पर बैठता है अथवा वह, जो परोसता है? वहीं न, जो मेज’ पर बैठता है। परन्तु मैं तुम लोगों में सेवक-जैसा हूँ।
28) ''तुम लोग संकट के समय मेरा साथ देते रहे।
29) मेरे पिता ने मुझे राज्य प्रदान किया है, इसलिए मैं तुम्हें यह वरदान देता हूँ
30) कि तुम मेरे राज्य में मेरी मेज’ पर खाओगे-पियोगे और सिंहासनों पर बैठ कर इस्राएल के बारह वंशों का न्याय करोगे।
31) ''सिमोन! सिमोन! शैतान को तुम लोगों को गेहूँ की तरह फटकने की अनुमति मिली है।
32) परन्तु मैंने तुम्हारे लिए प्रार्थना की है, जिससे तुम्हारा विश्वास नष्ट न हो। जब तुम फिर सही रास्ते पर आ जाओगे, तो अपने भाइयों को भी सँभालोगे।''
33) ''पेत्रुस ने उन से कहा, ''प्रभु! मैं आपके साथ बन्दीगृह जाने और मरने को भी तैयार हूँ''।
34) किन्तु ईसा के कहा, ''पेत्रुस! मैं तुम से कहता हूँ कि आज, मुर्गे के बाँग देने से पहले ही, तुम तीन बार यह अस्वीकार करोगे कि तुम मुझे जानते हो''।
35) ईसा ने उन से कहा, ''जब मैंने तुम्हें थैली, झोली और जूतों के बिना भेजा तो क्या तुम्हें किसी बात की कमी हुई थी?''
36) उन्होंने उत्तर दिया, ''किसी बात की नहीं''। इस पर ईसा ने कहा, ''परन्तु अब जिसके पास थैली है, वह उसे ले ले और अपनी झोली भी और जिसके पास नहीं है, वह अपना कपड़ा बेच कर तलवार ख़रीद ले;
37) क्योंकि मैं तुम से कहता हूँ कि धर्मग्रन्थ का यह कथन मुझ में अवश्य पूरा होगा-उसकी गिनती कुकर्मियों में हुई। और जो कुछ मेरे विषय में लिखा है, वह पूरा होने को है।''
38) शिष्यों ने कहा, ''प्रभु! देखिए, यहाँ दो तलवारें हैं''। परन्तु ईसा ने कहा, ''बस! बस!''
39) ईसा बाहर निकल कर अपनी आदत के अनुसार जैतून पहाड़ गये। उनके शिष्य भी उनके साथ हो लिये।
40) ईसा ने वहाँ पहुँच कर उन से कहा, ''प्रार्थना करो, जिससे तुम परीक्षा में न पड़ो''।
41) तब वे पत्थर फेंकने की दूरी तक उन से अलग हो गये और घुटने टेक कर उन्होंने यह कहते हुए प्रार्थना की,
42) ''पिता! यदि तू ऐसा चाहे, तो यह प्याला मुझ से हटा ले। फिर भी मेरी नहीं, बल्कि तेरी ही इच्छा पूरी हो।''
43) तब उन्हें स्वर्ग का एक दूत दिखाई पड़ा, जिसने उन को ढारस बँधाया।
44) वे प्राणपीड़ा में पड़ने के कारण और भी एकाग्र हो कर प्रार्थना करते रहे और उनका पसीना रक्त की बूँदों की तरह धरती पर टपकता रहा।
45) वे प्रार्थना से उठ कर अपने शिष्यों के पास आये और यह देख कर कि वे उदासी के कारण सो गये हैं,
46) उन्होंने उन से कहा, ''तुम लोग क्यों सो रहे हो? उठो और प्रार्थना करो, जिससे तुम परीक्षा में न पड़ो।''
47) ईसा यह कह ही रहे थे कि एक दल आ पहुँचा। यूदस, बारहों में से एक, उस दल का अगुआ था। उसने ईसा के पास आ कर उनका चुम्बन किया।
48) ईसा ने उस से कहा, ''यूदस! क्या तुम चुम्बन दे कर मानव पुत्र के साथ विश्वासघात कर रहे हो?''
49) ईसा के साथियों ने यह देख कर कि क्या होने वाला है, उन से कहा, ''प्रभु! क्या हम तलवार चलायें?''
50) और उन में एक ने प्रधानयाजक के नौकर पर प्रहार किया और उसका दाहिना कान उड़ा दिया।
51) किन्तु ईसा ने कहा, ''रहने दो, बहुत हुआ'', और उसका कान छू कर उन्होंने उसे अच्छा कर दिया।
52) जो महायाजक, मन्दिर-आरक्षी के नायक और नेता ईसा को पकड़ने आये थे, उन से उन्होंने कहा, ''क्या तुम मुझ को डाकू समझ कर तलवारें और लाठियाँ ले कर निकले हो?
53) मैं प्रतिदिन मन्दिर में तुम्हारे साथ रहा और तुमने मुझ पर हाथ नहीं डाला। परन्तु यह समय तुम्हारा है-अब अन्धकार का बोलबाला है।''
54) तब उन्होंने ईसा को गिरफ्’तार कर लिया और उन्हें ले जा कर प्रधानयाजक के यहाँ पहुँचा दिया। पेत्रुस कुछ दूरी पर उनके पीछे-पीछे चला।
55) लोग प्रांगण के बीच में आग जला कर उसके चारों ओर बैठ रहे थे। पेत्रुस भी उनके साथ बैठ गया।
56) एक नौकरानी ने आग के प्रकाश में पेत्रुस को बैठा हुआ देखा और उस पर दृष्टि गड़ा कर कहा, ''यह भी उसी के साथ था''।
57) किन्तु उसने अस्वीकार करते हुए कहा, ''नहीं भई! मैं उसे नहीं जानता''।
58) थोड़ी देर बाद किसी दूसरे ने पेत्रुस को देख कर कहा, ''तुम भी उन्हीं लोगों में एक हो''। पेत्रुस ने उत्तर दिया, ''नहीं भई! मैं नही हूँ''।
59) क़रीब घण्टे भर बाद किसी दूसरे ने दृढ़तापूर्वक कहा, ''निश्चय ही यह उसी के साथ था। यह भी तो गलीली है।''
60) पेत्रुस ने कहा, ''अरे भई! मैं नहीं समझता कि तुम क्या कह रहे हो''। वह बोल ही रहा था कि उसी क्षण मुर्गे ने बाँग दी
61) और प्रभु ने मुड़ कर पेत्रुस की ओर देखा। तब पेत्रुस को याद आया कि प्रभु ने उस से कहा था कि आज मुर्गे के बाँग देने से पहले ही तुम मुझे तीन बार अस्वीकार करोगे,
62) और वह बाहर निकल कर फूट-फूट कर रोया।
63) ईसा पर पहरा देने वाले प्यादे उनका उपहास और उन पर अत्याचार करते थे।
64) वे उनकी आँखों पर पट्टी बाँध कर उन से पूछते थे, ''यदि तू नबी है, तो हमें बता-तुझे किसने मारा?''
65) वे उनका अपमान करते हुए उन से और बहुत-सी बातें कहते रहे।
66) दिन निकलने पर जनता के नेता, महायाजक और शास्त्री एकत्र हो गये और उन्होंने ईसा को अपनी महासभा में बुला कर उन से कहा,
67) ''यदि तुम मसीह हो, तो हमें बता दो''। उन्होंने उत्तर दिया, यदि मैं आप लोगों से कहूँगा, तो आप विश्वास नहीं करेंगे
68) और यदि मैं प्रश्न करूँगा, तो आप लोग उत्तर नहीं देंगे।
69) परन्तु अब से मानव पुत्र सर्वशक्तिमान् ईश्वर के दाहिने विराजमान होगा।''
70) इस पर सब-के-सब बोल उठे, ''तो क्या तुम ईश्वर के पुत्र हो?' ईसा ने उत्तर दिया, ''आप लोग ठीक ही कहते हैं। मैं वही हूँ।''
71) इस पर उन्होंने कहा, ''हमें और गवाही की ज’रूरत ही क्या है? हमने तो स्वयं इसके मुँह से सुन लिया है।''

अध्याय 23

1) तब सारी सभा उठ खड़ी हो गयी और वे उन्हें पिलातुस के यहाँ ले गये।
2) वे यह कहते हुए ईसा पर अभियोग लगाने लगे, ''हमें पता चला कि यह मनुष्य हमारी जनता में विद्रोह फैलाता है, कैसर को कर देने से लोगों को मना करता और अपने को मसीह, राजा कहता''।
3) पिलातुस ने ईसा से यह प्रश्न किया, ''क्या तुम यहूदियों के राजा हो?'' ईसा ने उत्तर दिया, ''आप ठीक ही कहते हैं''।
4) तब पिलातुस ने महायाजकों और भीड़ से कहा, ''मैं इस मनुष्य में कोई दोष नहीं पाता''।
5) उन्होंने यह कहते हुए आग्रह किया, ''यह गलीलिया से लेकर यहाँ तक, यहूदिया के कोने-कोने में अपनी शिक्षा से जनता को उकसाता है''।
6) पिलातुस ने यह सुन कर पूछा कि क्या वह मनुष्य गलीली है
7) और यह जान कर कि यह हेरोद के राज्य का है, उसने ईसा को हेरोद के पास भेजा। वह भी उन दिनों येरुसालेम में था।
8) हेरोद ईसा को देख कर बहुत प्रसन्न हुआ। वह बहुत समय से उन्हें देखना चाहता था, क्योंकि उसने ईसा की चर्चा सुनी थी और उनका कोई चमत्कार देखने की आशा करता था।
9) वह ईसा से बहुत से प्रश्न करता रहा, परन्तु उन्होंने उसे उत्तर नहीं दिया।
10) इस बीच महायाजक और शास्त्री ज’ोर-ज’ोर से ईसा पर अभियोग लगाते रहे।
11) तब हेरोद ने अपने सैनिकों के साथ ईसा का अपमान तथा उपहास किया और उन्हें भड़कीला वस्त्र पहना कर पिलातुस के पास भेजा।
12) उसी दिन हेरोद और पिलातुस मित्र बन गयें-पहले तो उन दोनों में शत्रुता थी।
13) अब पिलातुस ने महायाजकों, शासकों और जनता को बुला कर
14) उन से कहा, ''आप लोगों ने यह अभियोग लगा कर इस मनुष्य को मेरे सामने पेश किया कि यह जनता में विद्रोह फैलाता है। मैंने आपके सामने इसकी जाँच की; परन्तु आप इस मनुष्य पर जिन बातों का अभियोग लगाते हैं, उनके विषय में मैंने इस में कोई दोष नहीं पाया
15) और हेरोद ने भी दोष नहीं पाया; क्योंकि उन्होंने इसे मेरे पास वापस भेजा है। आप देख रहे हैं कि इसने प्राणदण्ड के योग्य कोई अपराध नहीं किया है।
16) इसलिए मैं इसे पिटवा कर छोड़ दूँगा।''
17) पर्व के अवसर पर पिलातुस को यहूदियों के लिए एक बन्दी रिहा करना था।
18) वे सब-के-सब एक साथ चिल्ला उठे, ''इसे ले जाइए ् हमारे लिए बराब्बस को रिहा कीजिए।''
19) बराब्बस शहर में हुए विद्रोह के कारण तथा हत्या के अपराध में क़ैद किया गया था।
20) पिलातुस ने ईसा को मुक्त करने की इच्छा से लोगों को फिर समझाया,
21) किन्तु वे चिल्लाते रहे, ''इसे क्रूस दीजिए! इसे क्रूस कीजिए!''
22) पिलातुस ने तीसरी बार उन से कहा, ''क्यों? इस मनुष्य ने कौन-सा अपराध किया है? मैं इस में प्राणदण्ड के योग्य कोई दोष नहीं पाता। इसलिए मैं इसे पिटवा कर छोड़ दूँगा।'
23) परन्तु वे चिल्ला-चिल्ला कर आग्रह करते रहे कि इसे क्रूस दिया जाये और उनका कोलाहल बढ़ता जा रहा था।
24) तब पिलातुस ने उनकी माँग पूरी करने का निश्चय किया।
25) जो मनुष्य विद्रोह और हत्या के कारण क़ैद किया गया था और जिसे वे छुड़ाना चाहते थे, उसने उसी को रिहा किया और ईसा को लोगों की इच्छा के अनुसार सैनिकों के हवाले कर दिया।
26) जब वे ईसा को ले जा रहे थे, तो उन्होंने देहात से आते हुए सिमोन नामक कुरेने निवासी को पकड़ा और उस पर क्रूस रख दिया, जिससे वह उसे ईसा के पीछे-पीछे ले जाये।
27) लोगों की भारी भीड़ उनके पीछे-पीछे चल रही थी। उन में नारियाँ भी थीं, जो अपनी छाती पीटते हुए उनके लिए विलाप कर रही थी।
28) ईसा ने उनकी ओर मुड़ कर कहा, ''येरुसालेम की बेटियो ! मेरे लिए मत रोओ। अपने लिए और अपने बच्चों के लिए रोओ,
29) क्योंकि वे दिन आ रहे हैं, जब लोग कहेंगे-धन्य हैं वे स्त्रियाँ, जो बाँझ है; धन्य हैं वे गर्भ, जिन्होंने प्रसव नहीं किया और धन्य है वे स्तन, जिन्होंने दूध नहीं पिलाया!
30) तब लोग पहाड़ों से कहने लगेंगे-हम पर गिर पड़ों, और पहाड़ियों से-हमें ढक लो;
31) क्योंकि यदि हरी लकड़ी का हाल यह है, तो सूखी का क्या होगा?''
32) वे ईसा साथ दो कुकर्मियों को भी प्राणदण्ड के लिए ले जा रहे थे।
33) वे ÷खोपड़ी की जगह' नामक स्थान पहुँचे। वहाँ उन्होंने ईसा को और उन दो कुकर्मियों को भी क्रूस पर चढ़ाया-एक को उनके दायें और एक को उनके बायें।
34) ईसा ने कहा, ''पिता! इन्हें क्षमा कर, क्योंकि ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं''। तब उन्होंने उनके कपड़े के कई भाग किये और उनके लिए चिट्ठी निकाली।
35) जनता खड़ी हो कर यह सब देख ही थी। नेता यह कहते हुए उनका उपहास करते थे, ''इसने दूसरों को बचाया। यदि यह ईश्वर का मसीह और परमप्रिय है, तो अपने को बचाये।''
36) सैनिकों ने भी उनका उपहास किया। वे पास आ कर उन्हें खट्ठी अंगूरी देते हुए बोले,
37) ''यदि तू यहूदियों का राजा है, तो अपने को बचा''।
38) ईसा के ऊपर लिखा हुआ था, ''यह यहूदियों का राजा है''।
39) क्रूस पर चढ़ाये हुए कुकर्मियों में एक इस प्रकार ईसा की निन्दा करता था, ''तू मसीह है न? तो अपने को और हमें भी बचा।''
40) पर दूसरे ने उसे डाँट कर कहा, ''क्या तुझे ईश्वर का भी डर नहीं? तू भी तो वही दण्ड भोग रहा है।
41) हमारा दण्ड न्यायसंगत है, क्योंकि हम अपनी करनी का फल भोग रहे हैं; पर इन्होंने कोई अपराध नहीं किया है।''
42) तब उसने कहा, ''ईसा! जब आप अपने राज्य में आयेंगे, तो मुझे याद कीजिएगा''।
43) उन्होंने उस से कहा, ''मैं तुम से यह कहता हूँ कि तुम आज ही परलोक में मेरे साथ होगे''।
44) अब लगभग दोपहर हो रहा था। सूर्य के छिप जाने से तीसरे पहर तक सारे प्रदेश पर अँधेरा छाया रहा।
45) मन्दिर का परदा बीच से फट कर दो टुकड़े हो गया।
46) ईसा ने ऊँचे स्वर से पुकार कर कहा, ''पिता! मैं अपनी आत्मा को तेरे हाथों सौंपता हूँ'', और यह कह कर उन्होंने प्राण त्याग दिये।
47) शतपति ने यह सब देख कर ईश्वर की स्तुति करते हुए कहा, ''निश्चित ही, यह मनुष्य धर्मात्मा था''।
48) बहुत-से लोग यह’ दृश्य देखने के लिए इकट्ठे हो गये थे। वे सब-के-सब इन घटनाओं को देख कर अपनी छाती पीटते हुए लौट गये।
49) उनके सब परिचित और गलीलिया से उनके साथ आयी हुई नारियाँ कुछ दूरी पर से यह सब देख रहीं थीं।
50) महासभा का यूसुफ़ नामक सदस्य निष्कपट और धार्मिक था।
51) वह सभा की योजना और उसके षड्यन्त्र से सहमत नहीं हुआ था। वह यहूदियों के अरिमथिया नगर का निवासी था और ईश्वर के राज्य की प्रतीक्षा में था।
52) उसने पिलातुस के पास जा कर ईसा का शव माँगा।
53) उसने शव को क्रूस से उतारा और छालटी के कफ़न में लपेट कर एक ऐसी क़ब्र में रख दिया, जो चट्टान में खुदी हुई थी और जिस में कभी किसी को नहीं रखा गया था।
54) उस दिन शुक्रवार था और विश्राम का दिन आरम्भ हो रहा था।
55) जो नारियाँ ईसा के साथ गलीलिया से आयी थीं, उन्होंने यूसुफ़ के पीछे-पीछे चल कर क़ब्र को देखा और यह भी देखा कि ईसा का शव किस तरह रखा गया है।
56) लौट कर उन्होंने सुगन्धित द्रव्य तथा विलेपन तैयार किया और विश्राम के दिन नियम के अनुसार विश्राम किया।

अध्याय 24

1) सप्ताह के प्रथम दिन, पौ फटते ही, वे तैयार किये हुए सुगन्धित द्रव्य ले कर क़ब्र के पास गयीं।
2) उन्होंने पत्थर को क़ब्र से अलग लुढ़काया हुआ पाया,
3) किन्तु भीतर जाने पर उन्हें प्रभु ईसा का शव नहीं मिला।
4) वे इस पर आश्चर्य कर ही रही थीं कि उजले वस्त्र पहने दो पुरुष उनके पास आ कर खड़े हो गये।
5) स्त्रियों ने भयभीत हो कर धरती की ओर सिर झुका लिया। उन पुरुषों ने उन से कहा, ''आप लोग जीवित को मृतकों में क्यों ढूँढ़ती हैं?
6) वे यहाँ नहीं हैं- वे जी उठे हैं। गलीलिया में रहते समय उन्होंने आप लोगों से जो कहा था, वह याद कीजिए।
7) उन्होंने यह कहा था कि मानव पुत्र को पापियों के हवाले कर दिया जाना होगा, क्रूस पर चढ़ाया जाना और तीसरे दिन जी उठना होगा।''
8) तब स्त्रियों को ईसा का यह कथन याद आया।
9) कब्र से लौट कर मरियम मगदलेना, योहन्ना, और याकूब की माता मरियम ने यह सब ग्यारहों और दूसरे शिष्यों को भी बताया।
10) जो अन्य नारियाँ उनके साथ थीं, उन्होंने भी प्रेरितों से यही कहा;
11) परन्तु उन्होंने इन सब बातों को प्रलाप ही समझा और स्त्रियों पर विश्वास नहीं किया।
12) फिर भी पेत्रुस उठ क़र दौड़ते हुए क़ब्र के पास पहुँचा। उसने झुक कर देखा कि पट्टियों के अतिरिक्त वहाँ कुछ भी नहीं है और वह इस पर आश्चर्यचकित हो कर चला गया।
13) उसी दिन दो शिष्य इन सब घटनाओं पर बातें करते हुए एम्माउस नामक गाँव जा रहे थे। वह येरुसालेम से कोई चार कोस दूर है।
14) वे आपस में बातचीत और विचार-विमर्श कर ही रहे थे
15) कि ईसा स्वयं आ कर उनके साथ हो लिये,
16) परन्त शिष्यों की आँखें उन्हें पहचानने में असमर्थ रहीं।
17) ईसा ने उन से कहा, ''आप लोग राह चलते किस विषय पर बातचीत कर रहे हैं?'' वे रूक गये। उनके मुख मलिन थे।
18) उन में एक क्लेओपस-ने उत्तर दिया, ''येरुसालेम में रहने वालों में आप ही एक ऐसे हैं, जो यह नहीं जानते कि वहाँ इन दिनों क्या-क्या हुआ है''''।
19) ईसा ने उन से कहा, ''क्या हुआ है?'' उन्होंने उत्तर दिया, ''बात ईसा नाज’री की है वे ईश्वर और समस्त जनता की दृष्टि में कर्म और वचन के शक्तिशाली नबी थे।
20) हमारे महायाजकों और शासकों ने उन्हें प्राणदण्ड दिलाया और क्रूस पर चढ़वाया।
21) हम तो आशा करते थे कि वही इस्राएल का उद्धार करने वाले थे। यह आज से तीन दिन पहले की बात है।
22) यह सच है कि हम में से कुछ स्त्रियों ने हमें बड़े अचम्भे में डाल दिया है। वे बड़े सबेरे क़ब्र के पास गयीं
23) और उन्हें ईसा का शव नहीं मिला। उन्होंने लौट कर कहा कि उन्हें स्वर्गदूत दिखाई दिये, जिन्होंने यह बताया कि ईसा जीवित हैं।
24) इस पर हमारे कुछ साथी क़ब्र के पास गये और उन्होंने सब कुछ वैसा ही पाया, जैसा स्त्रियों ने कहा था; परन्तु उन्होंने ईसा को नहीं देखा।''
25) तब ईसा ने उन से कहा, ''निर्बुद्धियों! नबियों ने जो कुछ कहा है, तुम उस पर विश्वास करने में कितने मन्दमति हो !
26) क्या यह आवश्यक नहीं था कि मसीह वह सब सहें और इस प्रकार अपनी महिमा में प्रवेश करें?''
27) तब ईसा ने मूसा से ले कर अन्य सब नबियों का हवाला देते हुए, अपने विषय में जो कुछ धर्मग्रन्थ में लिखा है, वह सब उन्हें समझाया।
28) इतने में वे उस गाँव के पास पहुँच गये, जहाँ वे जा रहे थे। लग रहा था, जैसे ईसा आगे बढ़ना चाहते हैं।
29) शिष्यों ने यह कह कर उन से आग्रह किया, ''हमारे साथ रह जाइए। साँझ हो रही है और अब दिन ढल चुका है'' और वह उनके साथ रहने भीतर गये।
30) ईसा ने उनके साथ भोजन पर बैठ कर रोटी ली, आशिष की प्रार्थना पढ़ी और उसे तोड़ कर उन्हें दे दिया।
31) इस पर शिष्यों की आँखे खुल गयीं और उन्होंने ईसा को पहचान लिया ... किन्तु ईसा उनकी दृष्टि से ओझल हो गये।
32) तब शिष्यों ने एक दूसरे से कहा, हमारे हृदय कितने उद्दीप्त हो रहे थे, जब वे रास्ते में हम से बातें कर रहे थे और हमारे लिए धर्मग्रन्थ की व्याख्या कर रहे थे!''
33) वे उसी घड़ी उठ कर येरुसालेम लौट गये। वहाँ उन्होंने ग्यारहों और उनके साथियों को एकत्र पाया,
34) जो यह कह रहे थे, ''प्रभु सचमुच जी उठे हैं और सिमोन को दिखाई दिये हैं''।
35) तब उन्होंने भी बताया कि रास्ते में क्या-क्या हुआ और उन्होंने ईसा को रोटी तोड़ते समय कैसे पहचान लिया।
36) वे इन सब घटनाओं पर बातचीत कर ही रहे थे कि ईसा उनके बीच आ कर खड़े हो गये। उन्होंने उन से कहा, ''तुम्हें शान्ति मिले!''
37) परन्तु वे विस्मित और भयभीत हो कर यह समझ रहे थे कि वे कोई प्रेत देख रहे हैं।
38) ईसा ने उन से कहा, ''तुम लोग घबराते क्यों हो? तुम्हारे मन में सन्देह क्यों होता है?
39) मेरे हाथ और मेरे पैर देखो- मैं ही हूँ। मुझे स्पर्श कर देख लो- प्रेत के मेरे-जैसा हाड़-मांस नहीं होता।''
40) उन्होंने यह कह कर उन को अपने हाथ और पैर दिखाये।
41) जब इस पर भी शिष्यों को आनन्द के मारे विश्वास नहीं हो रहा था और वे आश्चर्यचकित बने हुए थे, तो ईसा ने कहा, ''क्या वहाँ तुम्हारे पास खाने को कुछ है?''
42) उन्होंने ईसा को भुनी मछली का एक टुकड़ा दिया।
43) उन्होंने उसे लिया और उनके सामने खाया।
44) ईसा ने उन से कहा, ''मैंने तुम्हारे साथ रहते समय तुम लोगों से कहा था कि जो कुछ मूसा की संहिता में और नबियों में तथा भजनों में मेरे विषय में लिखा है, सब का पूरा हो जाना आवश्यक है''।
45) तब उन्होंने उनके मन का अन्धकार दूर करते हुए उन्हें धर्मग्रन्थ का मर्म समझाया
46) और उन से कहा, ''ऐसा ही लिखा है कि मसीह दुःख भोगेंगे, तीसरे दिन मृतकों में से जी उठेंगे
47) और उनके नाम पर येरुसालेम से ले कर सभी राष्ट्रों को पापक्षमा के लिए पश्चात्ताप का उपदेश दिया जायेगा।
48) तुम इन बातों के साक्षी हो।
49) देखों, मेरे पिता ने जिस वरदान की प्रतिज्ञा की है, उसे मैं तुम्हारे पास भेजूँगा। इसलिए तुम लोग शहर में तब तक बने रहो, जब तक ऊपर की शक्ति से सम्पन्न न हो ेजाओ।''
50) इसके बाद ईसा उन्हें बेथानिया तक ले गये और उन्होंने अपने हाथ उठा कर उन्हें आशिष दी।
51) आशिष देते-देते वह उनकी आँखों से ओझल हो गये और स्वर्ग में आरोहित कर लिये गये।
52) वे उन्हें दण्डवत् कर बड़े आनन्द के साथ येरुसालेम लौटे
53) और ईश्वर की स्तुति करते हुए सारा समय मन्दिर में बिताते थे।