पवित्र बाइबिल : Pavitr Bible ( The Holy Bible )

नया विधान : Naya Vidhan ( New Testament )

सन्त मारकुस ( Mark )

अध्याय 1

1) ईश्वर के पुत्र ईसा मसीह के सुसमाचार का प्रारम्भ।
2) नबी इसायस के ग्रन्थों में लिखा है- मैं अपने दूत को तुम्हारे आगे भेजता हूँ। वह तुम्हारा मार्ग तैयार करेगा।
3) निर्जन प्रदेश में पुकारने वाले की आवाज’- प्रभु का मार्ग तैयार करो; उसके पथ सीधे कर दो।
4) इसी के अनुसार योहन बपतिस्ता निर्जन प्रदेश में प्रकट हुआ, जो पापक्षमा के लिए पश्चाताप के बपतिस्मा का उपदेश देता था।
5) सारी यहूदिया और येरुसालेम के लोग योहन के पास आते और अपने पाप स्वीकार करते हुए यर्दन नदी में उस से बपतिस्मा ग्रहण करते थे।
6) योहन ऊँट के रोओं का कपड़ा पहने और कमर में चमड़े का पट्टा बाँधे रहता था। उसका भोजन टिड्डियाँ और वन का मधु था।
7) वह अपने उपदेश में कहा करता था, ''जो मेरे बाद आने वाले हैं, वह मुझ से अधिक शक्तिशाली हैं। मैं तो झुक कर उनके जूते का फ़ीता खोलने योग्य भी नहीं हूँ।
8) मैंने तुम लोगों को जल से बपतिस्मा दिया है। वह तुम्हें पवित्र आत्मा से बपतिस्मा देंगे।''
9) उन दिनों ईसा गलीलिया के नाज’रेत से आये। उन्होंने यर्दन नदी में योहन से बपतिस्मा ग्रहण किया।
10) वे पानी से निकल ही रहे थे कि उन्होंने स्वर्ग को खुलते और आत्मा को कपोत के रूप में अपने ऊपर आते देखा।
11) और स्वर्ग से यह वाणी सुनाई दी, ''तू मेरा प्रिय पुत्र है। मैं तुझ पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ।''
12) इसके बाद आत्मा ईसा को निर्जन प्रदेश ले चला।
13) वे चालीस दिन वहाँ रहे और शैतान ने उनकी परीक्षा ली। वे बनैले पशुओं के साथ रहते थे और स्वर्गदूत उनकी सेवा-परिचर्या करते थे।
14) योहन के गिरफ्’तार हो जाने के बाद ईसा गलीलिया आये और यह कहते हुए ईश्वर के सुसमाचार का प्रचार करते रहे,
15) ''समय पूरा हो चुका है। ईश्वर का राज्य निकट आ गया है। पश्चाताप करो और सुसमाचार में विश्वास करो।''
16) गलीलिया के समुद्र के किनारे से हो कर जाते हुए ईसा ने सिमोन और उसके भाई अन्द्रेयस को देखा। वे समुद्र में जाल डाले रहे थे, क्योंकि वे मछुए थे।
17) ईसा ने उन से कहा, ''मेरे पीछे चले आओ। मैं तुम्हें मनुष्यों के मछुए बनाऊँगा।''
18) और वे तुरन्त अपने जाल छोड़ कर उनके पीछे हो लिये।
19) कुछ आगे बढ़ने पर ईसा ने जेबेदी के पुत्र याकूब और उसके भाई योहन को देखा। वे भी नाव में अपने जाल मरम्मत कर रहे थे।
20) ईसा ने उन्हें उसी समय बुलाया। वे अपने पिता ज’ेबेदी को मज’दूरों के साथ नाव में छोड़ कर उनके पीछे हो लिये।
21) वे कफ़नाहूम आये। जब विश्राम दिवस आया, तो ईसा सभागृह गये और शिक्षा देते रहे।
22) लोग उनकी शिक्षा सुनकर अचम्भे में पड़ जाते थे; क्योंकि वे शास्त्रियों की तरह नहीं, बल्कि अधिकार के साथ शिक्षा देते थे।
23) सभागृह में एक मनुष्य था, जो अशुद्ध आत्मा के वश में था। वह ऊँचे स्वर से चिल्लाया,
24) ''ईसा नाज’री! हम से आप को क्या? क्या आप हमारा सर्वनाश करने आये हैं? मैं जानता हूँ कि आप कौन हैं- ईश्वर के भेजे हुए परमपावन पुरुष।''
25) ईसा ने यह कहते हुए उसे डाँटा, ''चुप रह! इस मनुष्य से बाहर निकल जा''।
26) अपदूत उस मनुष्य को झकझोर कर ऊँचे स्वर से चिल्लाते हुए उस से निकल गया।
27) सब चकित रह गये और आपस में कहते रहे, ''यह क्या है? यह तो नये प्रकार की शिक्षा है। वे अधिकार के साथ बोलते हैं। वे अशुद्ध आत्माओं को भी आदेश देते हैं और वे उनकी आज्ञा मानते हैं।''
28) ईसा की चर्चा शीघ्र ही गलीलिया प्रान्त के कोने-कोने में फैल गयी।
29) वे सभागृह से निकल कर याकूब और योहन के साथ सीधे सिमोन और अन्द्रेयस के घर गये।
30) सिमोन की सास बुख़ार में पड़ी हुई थी। लोगों ने तुरन्त उसके विषय में उन्हें बताया।
31) ईसा उसके पास आये और उन्होंने हाथ पकड़ कर उसे उठाया। उसका बुख़ार जाता रहा और वह उन लोगों के सेवा-सत्कार में लग गयी।
32) सन्ध्या समय, सूरज डूबने के बाद, लोग सभी रोगियों और अपदूतग्रस्तों को उनके पास ले आये।
33) सारा नगर द्वार पर एकत्र हो गया।
34) ईसा ने नाना प्रकार की बीमारियों से पीड़ित बहुत-से रोगियों को चंगा किया और बहुत-से अपदूतों को निकाला। वे अपदूतों को बोलने से रोकते थे, क्योंकि वे जानते थे कि वह कौन हैं।
35) दूसरे दिन ईसा बहुत सबेरे उठ कर घर से निकले और किसी एकान्त स्थान जा कर प्रार्थना करते रहे।
36) सिमोन और उसके साथी उनकी खोज में निकले
37) और उन्हें पाते ही यह बोले, ''सब लोग आप को खोज रहे हैं''।
38) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ''हम आसपास के कस्बों में चलें। मुझे वहाँ भी उपदेश देना है- इसीलिए तो आया हूँ।''
39) और वे उनके सभागृहों में उपदेश देते और अपदूतों को निकलाते हुए सारी गलीलिया में घूमते रहते थे।
40) एक कोढ़ी ईसा के पास आया और घुटने टेक कर उन से अनुनय-विनय करते हुए बोला, ''आप चाहें तो मुझे शुद्ध कर सकते हैं''।
41) ईसा को तरस हो आया। उन्होंने हाथ बढ़ाकर यह कहते हुए उसका स्पर्श किया, ''मैं यही चाहता हूँ- शुद्ध हो जाओ''।
42) उसी क्षण उसका कोढ़ दूर हुआ और वह शुद्ध हो गया।
43) ईसा ने उसे यह कड़ी चेतावनी देते हुए तुरन्त विदा किया,
44) ''सावधान! किसी से कुछ न कहो। जा कर अपने को याजकों को दिखाओ और अपने शुद्धीकरण के लिए मूसा द्वारा निर्धारित भेंट चढ़ाओ, जिससे तुम्हारा स्वास्थ्यलाभ प्रमाणित हो जाये''।
45) परन्तु वह वहाँ से विदा हो कर चारों ओर खुल कर इसकी चर्चा करने लगा। इस से ईसा के लिए प्रकट रूप से नगरों में जाना असम्भव हो गया; इसलिए वह निर्जन स्थानों में रहते थे फिर भी लोग चारों ओर से उनके पास आते थे।

अध्याय 2

1) जब कुछ दिनों बाद ईसा कफ़रनाहूम लौटे, तो यह खबर फैल गयी कि वे घर पर हैं
2) और इतने लोग इकट्ठे हो गये कि द्वार के सामने जगह नहीं रही। ईसा उन्हें सुसमाचार सुना ही रहे थे कि
3) कुछ लोग एक अर्द्धांगरोगी को चार आदमियों से उठवा कर उनके पास ले आये।
4) भीड़ के कारण वे उसे ईसा के सामने नहीं ला सके; इसलिए जहाँ ईसा थे, उसके ऊपर की छत उन्होंने खोल दी और छेद से अर्द्धांगरोगी की चारपाई नीचे उतार दी।
5) ईसा ने उन लोगों का विश्वास देख कर अर्द्धांगरोगी से कहा, ''बेटा! तुम्हारे पाप क्षमा हो गये हैं''।
6) वहाँ कुछ शास्त्री बैठे हुए थे। वे सोचते थे- यह क्या कहता है?
7) यह ईश-निन्दा करता है। ईश्वर के सिवा कौन पाप क्षमा कर सकता है?
8) ईसा को मालूम था कि वे मन-ही-मन क्या सोच रहे हैं। उन्होंने शास्त्रियों से कहा, ''मन-ही-मन क्या सोच रहे हो?
9) अधिक सहज क्या है- अर्द्धांगरोगी से यह कहना, 'तुम्हारे पाप क्षमा हो गये हैं', अथवा यह कहना, 'उठो, अपनी चारपाई उठा कर चलो-फिरो'?
10) परन्तु इसलिए कि तुम लोग यह जान लो कि मानव पुत्र को पृथ्वी पर पाप क्षमा करने का अधिकार मिला है''- वे अर्द्धांगरोगी से बोले-
11) ''मैं तुम से कहता हूँ, उठो और अपनी चारपाई उठा कर घर जाओ''।
12) वह उठ खड़ा हुआ और चारपाई उठा कर तुरन्त सब के देखते-देखते बाहर चला गया। सब-के-सब बड़े अचम्भे में पड़ गये और उन्होंने यह कहते हुए ईश्वर की स्तुति की- हमने ऐसा चमत्कार कभी नहीं देखा।
13) ईसा फिर निकल कर समुद्र के तट गये। सब लोग उनके पास आ गये और ईसा ने उन्हें शिक्षा दी।
14) रास्ते में ईसा ने अलफ़ाई के पुत्र लेवी को चुंगीघर में बैठा हुआ देखा और उस से कहा, ''मेरे पीछे चले आओ'', और वह उठ कर उनके पीछे हो लिया।
15) एक दिन ईसा अपने शिष्यों के साथ लेवी के घर भोजन पर बैठे। बहुत-से नाकेदार और पापी उनके साथ भोजन कर रहे थे, क्योंकि वे बड़ी संख्या में ईसा के अनुयायी बन गये थे।
16) जब फ़रीसी दल के शास्त्रियों ने देखा कि ईसा पापियों और नाकेदारों के साथ भोजन कर रहे हैं, तो उन्होंने उनके शिष्यों से कहा, '' वे नाकेदारों और पापियों के साथ क्यों भोजन करते हैं?''
17) ईसा ने यह सुन कर उन से कहा, ''निरोगियों को नहीं, रोगियों को वैद्य की ज’रूरत होती है। मैं धर्मियों को नहीं, पापियों को बुलाने आया हूँ।''
18) योहन के शिष्य और फ़रीसी किसी दिन उपवास कर रहे थे। कुछ लोग आ कर ईसा से बोले, ''योहन के शिष्य और फ़रीसी उपवास कर रहे हैं। आपके शिष्य उपवास क्यों नहीं करते?''
19) ईसा ने उत्तर दिया, ''जब तक दुल्हा साथ है, क्या बाराती शोक मना सकते हैं? जब तक तक दुल्हा उनके साथ हैं, वे उपवास नहीं कर सकते हैं।
20) किन्तु वे दिन आयेंगे, जब दुल्हा उनसे बिछुड़ जायेगा। उन दिनों वे उपवास करेंगे।
21) ''कोई पुराने कपड़े पर कोरे कपड़े का पैबन्द नहीं लगाता। नहीं तो नया पैबन्द सिकुड़ कर पुराना कपड़ा फाड़ देता है और चीर बढ़ जाती है।
22) कोई पुरानी मशकों में नयी अंगूरी नहीं भरता। नहीं तो अंगूरी मशकों फाड़ देती है और अंगूरी तथा मशकें, बरबाद हो जाती हैं। नयी अंगूरी को नयी मशको में भरना चाहिए।''
23) ईसा किसी विश्राम के दिन गेहूँ के खे’तों से हो कर जा रहे थे। उनके शिष्य राह चलते बालें तोड़ने लगे।
24) फ़रीसियों ने ईसा से कहा, ''देखिए, जो काम विश्राम के दिन मना है, ये क्यों वही कर रहे हैं?''
25) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ''क्या तुम लोगों ने कभी यह नहीं पढ़ा कि जब दाऊद और उनके साथी भूखे थे और खाने को उनके पास कुछ नहीं था, तो दाऊद ने क्या किया था?
26) उन्होंने महायाजक अबियाथार के समय ईश-मन्दिर में प्रवेश कर भेंट की रोटियाँ खायीं और अपने साथियों को भी खिलायीं। याजकों को छोड़ किसी और को उन्हें खाने की आज्ञा तो नहीं थी।''
27) ईसा ने उन से कहा, ''विश्राम-दिवस मनुष्य के लिए बना है, न कि मनुष्य विश्राम-दिवस के लिए।
28) इसलिए मानव पुत्र विश्राम-दिवस का भी स्वामी है।''

अध्याय 3

1) ईसा फिर सभागृह गये। वहाँ एक मनुष्य था, जिसका हाथ सूख गया था।
2) वे इस बात की ताक में थे कि ईसा कहीं विश्राम के दिन उसे चंगा करें, और वे उन पर दोष लगायें।
3) ईसा ने सूखे हाथ वाले से कहा, ''बीच में खड़े हो जाओ''।
4) तब ईसा ने उन से पूछा, ''विश्राम के दिन भलाई करना उचित है या बुराई, जान बचाना या मार डालना?'' वे मौन रहे।
5) उनके हृदय की कठोरता देख कर ईसा को दुःख हुआ और वह उन पर क्रोधभरी दृष्टि दौड़ा कर उस मनुष्य से बोले, ''अपना हाथ बढ़ाओ''। उसने ऐसा किया और उसका हाथ अच्छा हो गया।
6) इस पर फ़रीसी बाहर निकल कर तुरन्त हेरोदियों के साथ ईसा के विरुद्ध परामर्श करने लगे कि हम किस तरह उनका सर्वनाश करें।
7) ईसा अपने शिष्यों के साथ समुद्र के तट गये। गलीलिया का एक विशाल जनसमूह उनके पीछे-पीछे हो लिया। यहूदिया,
8) येरुसालेम, इदूमैया, यर्दन के उस पार, और तीरूस तथा सीदोन के आस-पास से भी बहुत-से लोग उनके पास इकट्ठे हो गये; क्योंकि उन्होंने उनके कार्यों की चर्चा सुनी थी।
9) भीड़ के दबाव से बचने के लिए ईसा ने अपने शिष्यों से कहा कि वे एक नाव तैयार रखें;
10) क्योंकि उन्होंने बहुत-से लोगों को चंगा किया था और रोगी उनका स्पर्श करने के लिए उन पर गिरे पड़ते थे।
11) अशुद्ध आत्मा ईसा को देखते ही दण्डवत् करते और चिल्लाते थे-''आप ईश्वर के पुत्र हैं'';
12) किन्तु वह उन्हें यह चेतावनी देते थे कि तुम मुझे व्यक्त मत करो।
13) ईसा पहाड़ी पर चढ़े। वे जिन को चाहते थे, उन को उन्होंने अपने पास बुला लिया। वे उनके पास आये
14) (१४-१५) और ईसा ने उन में से बारह को नियुक्त किया, जिससे वे लोग उनके साथ रहें और वह उन्हें अपदूतों को निकालने का अधिकार दे कर सुसमाचार का प्रचार करने भेज सकें।
16) ईसा ने इन बारहों को नियुक्त किया- सिमोन को, जिसका नाम उन्होंने पेत्रुस रखा;
17) ज’ेबेदी के पुत्र याकूब और उसके भाई योहन को, जिनका नाम उन्होंने बोआनेर्गेस अर्थात् गर्जन के पुत्र रखा;
18) अन्दे्रयस, फिलिप, बरथोलोमी, मत्ती, थोमस, अलफ़ाई के पुत्र याकूब, थद्देयुस और सिमोन को, जो उत्साही कहलाता है;
19) और यदूस इसकारियोती को, जिसने ईसा को पकड़वाया।
20) वे घर लौटे और फिर इतनी भीड़ एकत्र हो गयी कि उन लोगों को भोजन करने की भी फुरसत नहीं रही।
21) जब ईसा के सम्बन्धियों ने यह सुना, तो वे उन को बलपूर्वक ले जाने निकले; क्योंकि कहा जाता था कि उन्हें अपनी सुध-बुध नहीं रह गयी है।
22) येरुसालेम से आये हुए शास्त्री कहते थे, ''उसे बेलजे’बुल सिद्ध है'' और ''वह नरकदूतों के नायक की सहायता से नरकदूतों को निकालता है''।
23) ईसा ने उन्हें अपने पास बुला कर यह दृष्टान्त सुनाया, ''शैतान शैतान को कैसे निकाल सकता है?
24) यदि किसी राज्य में फूट पड़ गयी हो, तो वह राज्य टिक नहीं सकता।
25) यदि किसी घर में फूट पड़ गयी हो, तो वह घर टिक नहीं सकता।
26) और यदि शैतान अपने ही विरुद्ध विद्रोह करे और उसके यहाँ फूट पड़ गयी हो, तो वह टिक नहीं सकता, और उसका सर्वनाश हो गया है।
27) ''कोई किसी बलवान् के घर में घुस कर उसका सामान तब तक नहीं लूट सकता, जब तक कि वह उस बलवान् को न बाँध ले। इसके बाद ही वह उसका घर लूट सकता है।
28) ''मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- मनुष्य चाहे जो भी पाप या ईश-निन्दा करें, उन्हें सब की क्षमा मिल जायेगी;
29) परन्तु पवित्र आत्मा की निन्दा करने वाले को कभी भी क्षमा नहीं मिलेगी। वह अनन्त पाप का भागी है।''
30) उन्होंने यह इसीलिए कहा कि कुछ लोग कहते थे, ''उसे अपदूत सिद्ध है''।
31) उस समय ईसा की माता और भाई आये। उन्होंने घर के बाहर से उन्हें बुला भेजा।
32) लोग ईसा के चारों ओर बैठे हुए थे। उन्होंने उन से कहा, ''देखिए, आपकी माता और आपके भाई-बहनें, बाहर हैं। वे आप को खोज रहे हैं।''
33) ईसा ने उत्तर दिया, 'कौन है मेरी माता, कौन हैं मेरे भाई?''
34) उन्होंने अपने चारों ओर बैठे हुए लोगों पर दृष्टि दौड़ायी और कहा, ''ये हैं मेरी माता और मेरे भाई।
35) जो ईश्वर की इच्छा पूरी करता है, वही है मेरा भाई, मेरी बहन और मेरी माता।''

अध्याय 4

1) ईसा किसी दिन समुद्र के किनारे शिक्षा देने लगे और उनके पास इतनी भीड़ इकट्ठी हो गयी कि वह समुद्र में एक नाव पर जा बैठे और सारी भीड़ समुद्र के तट पर बनी रही।
2) उन्होंने दृष्टान्तों में उन्हें बहुत-सी बातों की शिक्षा दी। शिक्षा देते हुए उन्होंने कहा-
3) ''सुनो! कोई बोने वाला बीज बोने निकला।
4) बोते-बोते कुछ बीज रास्ते के किनारे गिरे और आकाश के पक्षियों ने आ कर उन्हें चुग लिया।
5) कुछ बीज पथरीली भूमि पर गिरे, जहाँ उन्हें अधिक मिट्टी नहीं मिली। वे जल्दी ही उग गये, क्योंकि उनकी मिट्टी गहरी नहीं थी।
6) सूरज चढ़ने पर वे झुलस गये और जड़ न होने के कारण सूख गये।
7) कुछ बीज काँटों में गिरे और काँटों ने बढ़ कर उन्हें दबा दिया, इसलिए वे फल नहीं लाये।
8) कुछ बीज अच्छी भूमि पर गिरे। वे उग कर फले-फूले और तीस गुना या साठ गुना या सौ गुना फल लाये।''
9) अन्त में उन्होंने कहा, ''जिसके सुनने के कान हों, वह सुन ले !
10) ईसा के अनुयायियों और बारहों ने एकान्त में उन से दृष्टान्तों का अर्थ पूछा।
11) ईसा ने उत्तर दिया, ''तुम लोगों को ईश्वर के राज्य का भेद जानने का वरदान दिया गया है। बाहर वालों को दृष्टान्त ही मिलते हैं,
12) जिससे वे देखते हुए भी नहीं देख़ें और सुनते हुए भी नहीं समझें। कहीं ऐसा न हो कि वे मेरी ओर लौट आयें और मैं उन्हें क्षमा प्रदान कर दूँ।''
13) ईसा ने उन से कहा, ''क्या तुम लोग यह दृष्टान्त नहीं समझते? तो सब दृष्टान्तों को कैसे समझोगे?
14) बोने वाला वचन बोता है।
15) जो रास्ते के किनारे हैं, जहाँ वचन बोया जाता हैः ये वे लोग हैं जिन्होंने सुना है, परन्तु शैतान तुरन्त ही आ कर यह वचन ले जाता है, जो उनके हृदय में बोया गया है।
16) इस प्रकार, जो पथरीली भूमि में बोये जाते हैं: ये वे लोग हैं, जो वचन सुनते ही उसे प्रसन्नता से ग्रहण करते हैं;
17) किन्तु उन में जड़ नहीं है और वे थोड़े ही दिन दृढ़ रहते हैं। वचन के कारण संकट या अत्याचार आ पड़ने पर, वे तुरन्त विचलित हो जाते हैं।
18) दूसरे बीज काँटों में बोये जाते हैं: ये वे लोग हैं, जो वचन सुनते हैं,
19) परन्तु संसार की चिन्ताएँ, धन का मोह और अन्य वासनाएँ उन में प्रवेश कर वचन को दबा देती हैं और वह फल नहीं लाता।
20) जो अच्छी भूमि में बोये गये हैं: ये वे लोग हैं, जो वचन सुनते हैं- उसे ग्रहण करते हैं और फल लाते हैं -कोई तीस गुना, कोई साठ गुना, कोई सौ गुना।''
21) ईसा ने उन से कहा, ''क्या लोग इसलिए दीपक जलाते हैं कि उसे पैमाने अथवा पलंग के नीचे रखें? क्या वे उसे दीवट पर नहीं रखते?
22) ऐसा कुछ भी छिपा हुआ नहीं है, जो प्रकट नहीं किया जायेगा और कुछ भी गुप्त नहीं है, जो प्रकाश में नहीं लाया जायेगा।
23) जिसके सुनने के कान हों, वह सुन ले!'
24) ईसा ने उन से कहा, ''ध्यान से मेरी बात सुनो। जिस नाप से तुम नापते हो, उसी से तुम्हारे लिए भी नापा जायेगा और सच पूछो तो तुम्हें उस से भी अधिक दिया जायेगा;
25) क्योंकि जिसके पास कुछ है, उसी को और दिया जायेगा और जिसके पास कुछ नहीं है, उस से वह भी ले लिया जायेगा, जो उसके पास है।''
26) ईसा ने उन से कहा, ''ईश्वर का राज्य उस मनुष्य के सदृश है, जो भूमि में बीज बोता है।
27) वह रात को सोने जाता और सुबह उठता है। बीज उगता है और बढ़ता जाता है हालाँकि उसे यह पता नहीं कि यह कैसे हो रहा है।
28) भूमि अपने आप फसल पैदा करती है- पहले अंकुर, फिर बाल और बाद में पूरा दाना।
29) फ़सल तैयार होते ही वह हँसिया चलाने लगता है, क्योंकि कटनी का समय आ गया है।''
30) ईसा ने कहा, ''हम ईश्वर के राज्य की तुलना किस से करें? हम किस दृष्टान्त द्वारा उसका निरूपण करें?
31) वह राई के दाने के सदृश है। मिट्टी में बोये जाते समय वह दुनिया भर का सब से छोटा दाना है;
32) परन्तु बाद में बढ़ते-बढ़ते वह सब पौधों से बड़ा हो जाता है और उस में इतनी बड़ी-बड़ी डालियाँ निकल आती हैं कि आकाश के पंछी उसकी छाया में बसेरा कर सकते हैं।
33) वह इस प्रकार के बहुत-से दृष्टान्तों द्वारा लोगों को उनकी समझ के अनुसार सुसमाचार सुनाते थे।
34) वह बिना दृष्टान्त के लोगों से कुछ नहीं कहते थे, लेकिन एकान्त में अपने शिष्यों को सब बातें समझाते थे।
35) उसी दिन, सन्ध्या हो जाने पर, ईसा ने अपने शिष्यों से कहा, ''हम उस पार चलें''।
36) लोगों को विदा करने के बाद शिष्य ईसा को उसी नाव पर ले गये, जिस पर वे बैठे हुए थे। दूसरी नावें भी उनके साथ चलीं।
37) उस समय एकाएक झंझावात उठा। लहरें इतने ज’ोर से नाव से टकरा नहीं थीं कि वह पानी से भरी जा रही थी।
38) ईसा दुम्बाल में तकिया लगाये सो रहे थे। शिष्यों ने उन्हें जगा कर कहा, ''गुरुवर! हम डूब रहे हैं! क्या आप को इसकी कोई चिन्ता नहीं?''
39) वे जाग गये और उन्होंने वायु को डाँटा और समुद्र से कहा, ''शान्त हो! थम जा!'' वायु मन्द हो गयी और पूर्ण शान्ति छा गयी।
40) उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, ''तुम लोग इस प्रकार क्यों डरते हो ? क्या तुम्हें अब तक विश्वास नहीं हैं?''
41) उन पर भय छा गया और वे आपस में यह कहते रहे, ''आखिर यह कौन है? वायु और समुद्र भी इनकी आज्ञा मानते हैं।''

अध्याय 5

1) वे समुद्र के उस पार गेरासेनियों के प्रदेश पहुँचे।
2) ईसा ज्यों ही नाव से उतरे, एक अपदूतग्रस्त मनुष्य मक़बरों से निकल कर उनके पास आया।
3) वह मक़बरों में रहा करता था। अब कोई उसे जंजीर से भी नहीं बाँध पाता था;
4) क्योंकि वह बारम्बार बेड़ियों और जं’जीरों से बाँधा गया था, किन्तु उसने ज’ंजीरों को तोड़ डाला और बेड़ियों को टुकड़े-टुकड़े कर दिया था। उसे कोई भी वश में नहीं रख पाता था।
5) वह दिन रात निरन्तर मक़बरों में और पहाड़ों पर चिल्लाता और पत्थरों से अपने को घायल करता था।
6) वह ईसा को दूर से देख कर दौड़ता हुआ आया और उन्हें दण्डवत् कर
7) ऊँचें स्वर से चिल्लाया, ''ईसा! सर्वोच्च ईश्वर के पुत्र! मुझ से आप को क्या? ईश्वर के नाम पर प्रार्थना है- मुझे न सताइए।''
8) क्योंकि ईसा उस से कह रहे थे, ''अशुद्ध आत्मा! इस मनुष्य से निकल जा''।
9) ईसा ने उस से पूछा, ''तेरा नाम क्या है?'' उसने उत्तर दिया, ''मेरा नाम सेना है, क्योंकि हम बहुत हैं'',
10) और वह ईसा से बहुत अनुनय-विनय करता रहा कि हमें इस प्रदेश से नहीं निकालिए।
11) वहाँ पहाड़ी पर सूअरों का एक बड़ा झुण्ड चर रहा था।
12) अपदूतों ने यह कहते हुए ईसा से प्रार्थना की, ''हमें सूअरों में भेज दीजिए। हमें उन में घुसने दीजिए।''
13) ईसा ने अनुमति दे दी। तब अपदूत उस मनुष्य से निकल कर सुअरों में जा घुसे और लगभग दो हज’ार का वह झुण्ड तेज’ी से ढाल पर से समुद्र में कूद पड़ा और उस में डूब कर मर गया।
14) सूअर चराने वाले भाग गये। उन्होंने नगर और बस्तियों में इसकी ख़बर फैला दी। लोग यह सब देखने निकले।
15) वे ईसा के पास आये और यह देख कर भयभीत हो गये कि वह अपदूतग्रस्त, जिस में पहले अपदूतों की सेना थी, कपड़े पहने शान्त भाव से बैठा हुआ है।
16) जिन्होंने यह सब अपनी आँखों से देखा था, उन्होंन लोगों को बताया कि अपदूतग्रस्त के साथ क्या हुआ और सूअरों पर क्या-क्या बीती।
17) तब गेरासेनी ईसा से निवेदन करने लगे कि वे उनके प्रदेश से चले जायें।
18) ईसा नाव पर चढ़ ही रहे थे कि अपदूतग्रस्त ने बड़े आग्रह के साथ यह प्रार्थना की- ''मुझे अपने पास रहने दीजिए''।
19) उसकी प्रार्थना अस्वीकार करते हुए ईसा ने कहा, ''अपने लोगों के पास अपने घर जाओ और उन्हें बता दो कि प्रभु ने तुम्हारे लिए क्या-क्या किया है और तुम पर किस तरह कृपा की है''।
20) वह चला गया और सारे देकापोलिस में यह सुनाता फिरता कि ईसा ने उसके लिए क्या-क्या किया था और सब लोग अचम्भे में पड़ जाते थे।
21) जब ईसा नाव से उस पार पहॅूचे, तो समुद्र के तट पर उनके पास एक विशाल जनसमूह एकत्र हो गया।
22) उस समय सभागृह का जैरूस नाम एक अधिकारी आया। ईसा को देख कर वह उनके चरणों पर गिर पड़ा
23) और यह कहते हुए अनुनय-विनय करता रहा, ''मेरी बेटी मरने पर है। आइए और उस पर हाथ रखिए, जिससे वह अच्छी हो जाये और जीवित रह सके।''
24) ईसा उसके साथ चले। एक बड़ी भीड़ उनके पीछे हो ली और लोग चारों ओर से उन पर गिरे पड़ते थे।
25) एक स्त्री बारह बरस से रक्तस्राव से पीड़ित थी।
26) अनेकानेक वैद्यों के इलाज के कारण उसे बहुत कष्ट सहना पड़ा था और सब कुछ ख़र्च करने पर भी उसे कोई लाभ नहीं हुआ था।
27) उसने ईसा के विषय में सुना था और भीड़ में पीछे से आ कर उनका कपड़ा छू लिया,
28) क्योंकि वह मन-ही-मन कहती थी, 'यदि मैं उनका कपड़ा भर छूने पाऊॅ, तो अच्छी हो जाऊँगी'।
29) उसका रक्तस्राव उसी क्षण सूख गया और उसने अपने शरीर में अनुभव किया कि मेरा रोग दूर हो गया है।
30) ईसा उसी समय जान गये कि उन से शक्ति निकली है। भीड़ में मुड़ कर उन्होंने पूछा, ''किसने मेरा कपड़ा छुआ?''
31) उनके शिष्यों ने उन से कहा, ''आप देखते ही है कि भीड़ आप पर गिरी पड़ती है। तब भी आप पूछते हैं- किसने मेरा स्पर्श किया?''
32) जिसने ऐसा किया था, उसका पता लगाने के लिए ईसा ने चारों ओर दृष्टि दौड़ायी।
33) वह स्त्री, यह जान कर कि उसे क्या हो गया है, डरती- काँपती हुई आयी और उन्हें दण्डवत् कर सारा हाल बता दिया।
34) ईसा ने उस से कहा, ''बेटी! तुम्हारे विश्वास ने तुम्हें चंगा कर दिया है। शान्ति प्राप्त कर जाओ और अपने रोग से मुक्त रहो।''
35) ईसा यह कह ही रहे थे कि सभागृह के अधिकारी के यहाँ से लोग आये और बोले, ''आपकी बेटी मर गयी है। अब गुरुवर को कष्ट देने की ज’रूरत ही क्या है?''
36) ईसा ने उनकी बात सुन कर सभागृह के अधिकारी से कहा, ''डरिए नहीं। बस, विश्वास कीजिए।''
37) ईसा ने पेत्रुस, याकूब और याकूब के भाई योहन के सिवा किसी को भी अपने साथ आने नहीं दिया।
38) जब वे सभागृह के अधिकारी के यहाँ पहूँचे, तो ईसा ने देखा कि कोलाहल मचा हुआ है और लोग विलाप कर रहे हैं।
39) उन्होंने भीतर जा कर लोगों से कहा, ''यह कोलाहल, यह विलाप क्यों? लड़की मरी नहीं, सो रही है।''
40) इस पर वे उनकी हँसी उड़ाते रहे। ईसा ने सब को बाहर कर दिया और वह लड़की के माता-पिता और अपने साथियों के साथ उस जगह आये, जहाँ लड़की पड़ी हुई थी।
41) लड़की का हाथ पकड़ कर उस से कहा, 'तालिथा कुम''। इसका अर्थ है- ओ लड़की! मैं तुम से कहता हॅँूः उठो।
42) लड़की उसी क्षण उठ खड़ी हुई और चलने-फिरने लगी, क्योंकि वह बारह बरस की थी। लोग बड़े अचम्भे में पड़ गये।
43) ईसा ने उन्हें बहुत समझा कर आदेश दिया कि यह बात कोई न जान पाये और कहा कि लड़की को कुछ खाने को दो।

अध्याय 6

1) वहाँ से विदा हो कर ईसा अपने शिष्यों के साथ अपने नगर आये।
2) जब विश्राम-दिवस आया, तो वे सभागृह में शिक्षा देने लगे। बहुत-से लोग सुन रहे थे और अचम्भे में पड़ कर कहते थे, ''यह सब इसे कहाँ से मिला? यह कौन-सा ज्ञान है, जो इसे दिया गया है? यह जो महान् चमत्कार दिखाता है, वे क्या हैं?
3) क्या यह वही बढ़ई नहीं है- मरियम का बेटा, याकूब, यूसुफ़, यूदस और सिमोन का भाई? क्या इसकी बहनें हमारे ही बीच नहीं रहती?'' और वे ईसा में विश्वास नहीं कर सके।
4) ईसा ने उन से कहा, ''अपने नगर, अपने कुटुम्ब और अपने घर में नबी का आदर नहीं होता'।
5) वे वहाँ कोई चमत्कार नहीं कर सके। उन्होंने केवल थोड़े-से रोगियों पर हाथ रख कर उन्हें अच्छा किया।
6) उन लोगों के अविश्वास पर ईसा को बड़ा आश्चर्य हुआ।
7) ईसा शिक्षा देते हुए गाँव-गाँव घूमते थे। वे बारहों को अपने पास बुला कर और उन्हें अपदूतों पर अधिकार दे कर, दो-दो करके, भेजने लगे।
8) ईसा ने आदेश दिया कि वे लाठी के सिवा रास्ते के लिए कुछ भी नहीं ले जायें- न रोटी, न झोली, न फेंटे में पैसा।
9) वे पैरों में चप्पल बाँधें और दो कुरते नहीं पहनें
10) उन्होंने उन से कहा, ''जिस घर में ठहरने जाओ, नगर से विदा होने तक वहीं रहो!
11) यदि किसी स्थान पर लोग तुम्हारा स्वागत न करें और तुम्हारी बातें न सुनें, तो वहाँ से निकलने पर उन्हें चेतावनी देने के लिए अपने पैरों की धूल झाड़ दो।''
12) वे चले गये। उन्होंने लोगों को पश्चात्ताप का उपदेश दिया,
13) बहुत-से अपदूतों को निकाला और बहुत-से रोगियों पर तेल लगा कर उन्हें चंगा किया।
14) हेरोद ने ईसा की चर्चा सुनी, क्योंकि उनका नाम प्रसिद्ध हो गया था। लोग कहते थे-योहन बपतिस्ता मृतकों में से जी उठा है, इसलिए वह ये महान् चमत्कार दिखा रहा है।
15) कुछ लोग कहते थे- यह एलियस है। कुछ लोग कहते थे- यह पुराने नबियों की तरह कोई नबी है।
16) हेरोद ने यह सब सुन कर कहा, '' यह योहन ही है, जिसका सिर मैंने कटवाया है और जो जी उठा है''
17) हेरोद ने अपने भाई फ़िलिप की पत्नी हेरोदियस के कारण योहन को गिरफ्’त्तार किया और बन्दीगृह में बाँध रखा था; क्योंकि हेरोद ने हेरोदियस से विवाह किया था
18) और योहन ने हेरोद से कहा था, ''अपने भाई की पत्नी को रखना आपके लिए उचित नहीं है''।
19) इसी से हेरोदियस योहन से बैर करती थी और उसे मार डालना चाहती थी; किन्तु वह ऐसा नहीं कर पाती थी,
20) क्योंकि हेरोद योहन को धर्मात्मा और सन्त जान कर उस पर श्रद्धा रखता और उसकी रक्षा करता था। हेरोद उसके उपदेश सुन कर बड़े असमंजस में पड़ जाता था। फिर भी, वह उसकी बातें सुनना पसन्द करता था।
21) हेरोद के जन्मदिवस पर हेरोदियस को एक सुअवसर मिला। उस उत्सव के उपलक्ष में हेरोद ने अपने दरबारियों, सेनापतियों और गलीलिया के रईसों को भोज दिया।
22) उस अवसर पर हेरोदियस की बेटी ने अन्दर आ कर नृत्य किया और हेरोद तथा उसके अतिथियों को मुग्ध कर लिया। राजा ने लड़की से कहा, ''जो भी चाहो, मुझ से माँगो। मैं तुम्हें दे दॅूंँगा'',
23) और उसने शपथ खा कर कहा, ''जो भी माँगो, चाहे मेरा आधा राज्य ही क्यों न हो, मैं तुम्हें दे दूँगा''।
24) लड़की ने बाहर जा कर अपनी माँ से पूछा, ''मैं क्या माँगूं?'' उसने कहा, ''योहन बपतिस्ता का सिर''।
25) वह तुरन्त राजा के पास दौड़ती हुई आयी और बोली, ''मैं चाहती हूँ कि आप मुझे इसी समय थाली में योहन बपतिस्ता का सिर दे दें''
26) राजा को धक्का लगा, परन्तु अपनी शपथ और अतिथियों के कारण वह उसकी माँग अस्वीकार करना नहीं चाहता था।
27) राजा ने तुरन्त जल्लाद को भेज कर योहन का सिर ले आने का आदेश दिया। जल्लाद ने जा कर बन्दीगृह में उसका सिर काट डाला
28) और उसे थाली में ला कर लड़की को दिया और लड़की ने उसे अपनी माँ को दे दिया।
29) जब योहन के शिष्यों को इसका पता चला, तो वे आ कर उसका शव ले गये और उन्होंने उसे क़ब्र में रख दिया।
30) प्रेरितो ने ईसा के पास लौट कर उन्हें बताया कि हम लोगों ने क्या-क्या किया और क्या-क्या सिखलाया है।
31) तब ईसा ने उन से कहा, ''तुम लोग अकेले ही मेरे साथ निर्जन स्थान चले आओ और थोड़ा विश्राम कर लो''; क्योंकि इतने लोग आया-जाया करते थे कि उन्हें भोजन करने की भी फुरसत नही रहती थी।
32) इस लिए वे नाव पर चढ़ कर अकेले ही निर्जन स्थान की ओर चल दिये।
33) उन्हें जाते देख कर बहुत-से लोग समझ गये कि वह कहाँ जा रहे हैं। वे नगर-नगर से निकल कर पैदल ही उधर दौड़ पड़े और उन से पहले ही वहाँ पहँुच गये।
34) ईसा ने नाव से उतर कर एक विशाल जनसमूह देखा। उन्हें उन लोगों पर तरस आया, क्योंकि वे बिना चरवाहे की भेड़ों की तरह थे और वह उन्हें बहुत-सी बातों की शिक्षा देने लगे।
35) जब दिन ढलने लगा, तो उनके शिष्यों ने उनके पास आ कर कहा, ''यह स्थान निर्जन है और दिन ढल चुका है।
36) लोगों को विदा कीजिए, जिससे वे आसपास की बस्तियों और गाँवों में जा कर खाने के लिए कुछ खरीद लें।''
37) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ''तुम लोग ही उन्हें खाना दे दो''। शिष्यों ने कहा, ''क्या हम जा कर दो सौ दीनार की रोटियाँ ख़रीद लें और उन्हें लोगों को खिला दें?''
38) ईसा ने पूछा, ''तुम्हारे पास कितनी रोटियाँ है? जा कर देखो।'' उन्होंने पता लगा कर कहा, ''पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ''।
39) इस पर ईसा ने सब को अलग-अलग टोलियों में हरी घास पर बैठाने का आदेश दिया।
40) लोग सौ-सौ और पचास-पचास की टोलियों में बैठ गये।
41) ईसा ने वे पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ ले ली और स्वर्ग की ओर आँखें उठा कर आशिष की प्रार्थना पढ़ी। वे रोटियाँ तोड-तोड कर अपने शिष्यों को देते गये, ताकि वे लोगों को परोसते जायें। उन्होंने उन दो मछलियों को भी सब में बाँट दिया।
42) सबों ने खाया और खा कर तृप्त हो गये।
43) रोटियों और मछलियों के बचे हुए टुकड़ों से बारह टोकरे भर गये।
44) रोटी खाने वाले पुरुषों की संख्या पाँच हज’ार थी।
45) इसके तुरन्त बाद ईसा ने अपने शिष्यों को इसके लिए बाध्य किया कि वे नाव पर चढ़ कर उन से पहले उस पार, बेथसाइदा चले जायें; इतने में वे स्वयं लोगों को विदा कर देंगे।
46) ईसा लोगों को विदा कर पहाड़ी पर प्रार्थना करने गये।
47) सन्ध्या हो गयी थी। नाव समुद्र के बीच में थी और ईसा अकेले स्थल पर थे।
48) ईसा ने देखा कि शिष्य बड़े परिश्रम से नाव खे रहे हैं, क्योंकि वायु प्रतिकूल थी; इसलिए वे रात के लगभग चौथे पहर समुद्र पर चलते हुए उनकी ओर आये और उन से कतरा कर आगे बढ़ना चाहते थे।
49) शिष्यों ने उन्हें समुद्र पर चलते देखा। वे उन्हें प्रेत समझ कर चिल्ला उठे,
50) क्योंकि सब-के-सब उन्हें देख कर घबरा गये। ईसा ने तुरन्त उन से कहा, ''ढ़ारस रखो, मैं ही हूँ। डरो मत।''
51) तब वे उनके पास आ कर नाव पर चढ़े और वायु थम गयी। शिष्य आश्चर्यचकित रह गये,
52) क्योंकि वे अपनी बुद्धि की जड़ता के कारण रोटियों के चमत्कार का अर्थ नहीं समझ पाये थे।
53) समुद्र के उस पार गेनेसरेत पहुँच कर उन्होंने नाव किनारे लगा दी।
54) ज्यों ही वे भूमि पर उतरे, लोगों ने ईसा को पहचान लिया और वे उस सारे प्रदेश से दौड़ते हुए आये।
55) जहाँ कहीं ईसा का पता चलता था, वहाँ वे चारपाइयों पर पड़े रोगियों को उनके पास ले आते थे।
56) गाँव, नगर या बस्ती, जहाँ कहीं भी ईसा आते थे, वहाँ लोग रोगियों को चौकों पर रख कर अनुनय-विनय करते थे कि वे उन्हें अपने कपड़े का पल्ला भर छूने दें। जितनों ने उनका स्पर्श किया, वे सब-के-सब अच्छे हो गये।

अध्याय 7

1) फ़रीसी और येरुसालेम से आये हुए कई शास्त्री ईसा के पास इकट्ठे हो गये।
2) वे यह देख रहे थे कि उनके शिष्य अशुद्ध यानी बिना धोये हाथों से रोटी खा रहे हैं।
3) पुरखों की परम्परा के अनुसार फ़रीसी और सभी यहूदी बिना हाथ धोये भोजन नहीं करते।
4) बाज’ार से लौट कर वे अपने ऊपर पानी छिड़के बिना भोजन नहीं करते और अन्य बहुत-से परम्परागत रिवाज’ों का पालन करते हैं- जैसे प्यालों, सुराहियों और काँसे के बरतनों का शुद्धीकरण।
5) इसलिए फ़रीसियों और शास्त्रियों ने ईसा से पूछा, ''आपके शिष्य पुरखों की परम्परा के अनुसार क्यों नहीं चलते? वे क्यों अशुद्ध हाथों से रोटी खाते हैं?
6) ईसा ने उत्तर दिया, ''इसायस ने तुम ढोंगियों के विषय में ठीक ही भविष्यवाणी की है। जैसा कि लिखा है- ये लोग मुख से मेरा आदर करते हैं, परन्तु इनका हृदय मुझ से दूर है।
7) ये व्यर्थ ही मेरी पूजा करते हैं; और ये जो शिक्षा देते हैं, वे हैं मनुष्यों के बनाये हुए नियम मात्र।
8) तुम लोग मनुष्यों की चलायी हुई परम्परा बनाये रखने के लिए ईश्वर की आज्ञा टालते हो।''
9) ईसा ने उनसे कहा, ''तुम लोग अपनी ही परम्परा का पालन करने के लिए ईश्वर की आज्ञा रद्द करते हो;
10) क्योंकि मूसा ने कहा, अपने पिता और अपनी माता का आदर करो; और जो अपने पिता या अपनी माता को शाप दे, उसे प्राणदण्ड दिया जाय।
11) परन्तु तुम लोग यह मानते हो कि यदि कोई अपने पिता या अपनी माता से कहे- आप को मुझ से जो लाभ हो सकता था, वह कुरबान (अर्थात् ईश्वर को अर्पित) है,
12) तो उस समय से वह अपने पिता या अपनी माता के लिए कुछ नहीं कर सकता है।
13) इस तरह तुम लोग अपनी परम्परा के नाम पर, जिसे तुम बनाये रखते हो, ईश्वर का वचन रद्द करते हो और इस प्रकार के और भी बहुत-से काम करते रहते हो।''
14) ईसा ने बाद में लोगों को फिर अपने पास बुलाया और कहा, ''तुम लोग, सब-के-सब, मेरी बात सुनो और समझो।
15) ऐसा कुछ भी नहीं है, जो बाहर से मनुष्य में प्रवेश कर उसे अशुद्ध कर सके; बल्कि जो मनुष्य में से निकलता है, वही उसे अशुद्ध करता है।
16) जिसके सुनने के कान हों, वह सुन ले!
17) जब ईसा लोगों को छोड़ कर घर आ गये थे, तो उनके शिष्यों ने इस दृष्टान्त का अर्थ पूछा
18) ईसा ने कहा, ''क्या तुम लोग भी इतने नासमझ हो? क्या तुम यह नहीं समझते कि जो कुछ बाहर से मनुष्य में प्रवेश करता है, वह उसे अशुद्ध नहीं कर सकता?
19) क्योंकि वह तो उसके मन में नहीं, बल्कि उसके पेट में चला जाता है और शौचघर में निकलता है।'' इस तरह वह सब खाद्य पदार्थ शुद्ध ठहराते थे।
20) ईसा ने फिर कहा, ''जो मनुष्य में से निकलता है, वही उसे अशुद्ध करता है।
21) क्योंकि बुरे विचार भीतर से, अर्थात् मनुष्य के मन से निकलते हैं। व्यभिचार, चोरी, हत्या,
22) परगमन, लोभ, विद्वेष, छल-कपट, लम्पटता, ईर्ष्या, झूठी निन्दा, अहंकार और मूर्खता-
23) ये सब बुराइयाँ भीतर से निकलती है और मनुष्य को अशुद्ध करती हैं।
24) ईसा वहाँ से विदा हो कर तीरूस और सिदोन प्रान्त गये। वहाँ वे किसी घर में ठहरे और वे चाहते थे कि किसी को इसका पता न चले, किन्तु वे अज्ञात नहीं रह सके।
25) एक स्त्री ने, जिसकी छोटी लड़की एक अशुद्ध आत्मा के वश में थी, तुरन्त ही इसकी चर्चा सुनी और वह उनके पास आ कर उनके चरणों पर गिर पड़ी।
26) वह स्त्री ग़ैर-यहूदी थी; वह तो जन्म से सूरुफ़िनीकी थी। उसने ईसा से विनती की कि वे उसकी बेटी से अपदूत को निकाल दें।
27) ईसा ने उस से कहा, ''पहले बच्चों को तृप्त हो जाने दो। बच्चों की रोटी ले कर पिल्लों के सामने डालना ठीक नहीं है।''
28) उसने उत्तर दिया, ''जी हाँ, प्रभु! फिर भी पिल्ले मेज’ के नीचे बच्चों की रोटी का चूर खाते ही हैं''।
29) इस पर ईसा ने कहा, ''जाओ। तुम्हारे ऐसा कहने के कारण अपदूत तुम्हारी बेटी से निकल गया है।''
30) अपने घर लौट कर उसने देखा कि बच्ची खाट पर पड़ी हुई है और अपदूत उस से निकल चुका है।
31) ईसा तीरूस प्रान्त से चले गये। वे सिदोन हो कर और देकापोलिस प्रान्त पार कर गलीलिया के समुद्र के पास पहूँचे।
32) लोग एक बहरे-गूँगे को उनके पास ले आये और उन्होंने यह प्रार्थना की कि आप उस पर हाथ रख दीजिए।
33) ईसा ने उसे भीड़ से अलग एकान्त में ले जा कर उसके कानों में अपनी उँगलियाँ डाल दीं और उसकी जीभ पर अपना थूक लगाया।
34) फिर आकाश की ओर आँखें उठा कर उन्होंने आह भरी और उससे कहा, ''एफ़ेता'', अर्थात् ''खुल जा''।
35) उसी क्षण उसके कान खुल गये और उसकी जीभ का बन्धन छूट गया, जिससे वह अच्छी तरह बोला।
36) ईसा ने लोगों को आदेश दिया कि वे यह बात किसी से नहीं कहें, परन्तु वे जितना ही मना करते थे, लोग उतना ही इसका प्रचार करते थे।
37) लोगों के आश्चर्य की सीमा न रही। वे कहते थे, ''वे जो कुछ करते हैं, अच्छा ही करते है। वे बहरों को कान और गूँगों को वाणी देते हैं।''

अध्याय 8

1) उस समय फिर एक विशाल जन-समूह एकत्र हो गया था और लोगों के पास खाने को कुछ भी नहीं था। ईसा ने अपने शिष्यों को अपने पास बुला कर कहा,
2) ''मुझे इन लोगों पर तरस आता है। ये तीन दिनों से मेरे साथ रह रहे हैं और इनके पास खाने को कुछ भी नहीं है।
3) यदि मैं इन्हें भूखा ही घर भेजूँ, तो ये रास्ते में मूर्च्छित हो जायेंगे। इन में कुछ लोग दूर से आये हैं।''
4) उनके शिष्यों ने उत्तर दिया, ''इस निर्जन स्थान में इन लोगों को खिलाने के लिए कहाँ से रोटियाँ मिलेंगी?''
5) ईसा ने उन से पूछा, ''तुम्हारे पास कितनी रोटियाँ हैं?'' उन्होंने कहा, ''सात''।
6) ईसा ने लोगों को भूमि पर बैठ जाने का आदेश दिया और वे सात रोटियाँ ले कर धन्यवाद की प्रार्थना पढ़ी, और वे रोटियाँ तोड़-तोड़ कर शिष्यों को देते गये, ताकि वे लोगों को परोसते जायें। शिष्यों ने ऐसा ही किया।
7) उनके पास कुछ छोटी मछलियाँ भी थीं। ईसा ने उन पर आशिष की प्रार्थना पढ़ी और उन्हें भी बाँटने का आदेश दिया।
8) लोगों ने खाया और खा कर तृप्त हो गये और बचे हुए टुकड़ों से सात टोकरे भर गये।
9) खाने वालों की संख्या लगभग चार हज’ार थी। ईसा ने लोगों को विदा कर दिया।
10) वे तुरन्त अपने शिष्यों के साथ नाव पर चढ़े और दलमनूथा प्रान्त पहॅुँचे।
11) फ़रीसी आ कर ईसा से विवाद करने लगे। उनकी परीक्षा लेने के लिए वे स्वर्ग की ओर का कोई चिन्ह माँगते थे।
12) ईसा ने गहरी आह भर कर कहा, ''यह पीढ़ी चिन्ह क्यों माँगती है? मैं तुम लोगों से यह कहता हॅू- इस पीढ़ी को कोई भी चिन्ह नहीं दिया जायेगा।''
13) इस पर ईसा उन्हें छोड़ कर नाव पर चढ़े और उस पार चले गये।
14) शिष्य रोटियाँ लेना भूल गये थे, और नाव में उनके पास एक ही रोटी थी।
15) उस समय ईसा ने उन्हें यह चेतावनी दी, ''सावधान रहो। फ़रीसियों के ख़मीर और हेरोद के ख़मीर से बचते रहो''।
16) इस पर वे आपस में कहने लगे, ''हमारे पास रोटियाँ नहीं है, इसलिए यह ऐसा कहते हैं''।
17) ईसा ने यह जान कर उन से कहा, ''तुम लोग यह क्यों सोचते हो कि हमारे पास रोटियाँ नहीं है, इसलिए यह ऐसा कहते है? क्या तुम अब तक नहीं जान सके हो? नही समझ गये हो? क्या तुम्हारी बुद्धि मारी गयी है?
18) क्या आँखें रहते भी तुम देखते नहीं? और कान रहते भी तुम सुनते नहीं? क्या तुम्हें याद नही है-
19) जब मैने उन पाँच हज’ार लोगों के लिए पाँच रोटियाँ तोड़ीं, तो तुमने टूकड़ों के कितने टोकरे भरे थे?'' शिष्यों ने उत्तर दिया, ''बारह''।
20) ''और जब मैंने चार हज’ार लोगों के लिए सात रोटियाँ तोड़ीं, तो तुमने टुकड़ों के कितने टोकरे भरे थे?'' उन्होंने उत्तर दिया, ''सात''।
21) इस पर ईसा ने उन से कहा, ''क्या तुम लोग अब भी नहीं समझ सके?''
22) वे बेथसाइदा पहुँचे। लोग एक अन्धे को ईसा के पास ले आये और उन से यह प्रार्थना की कि आप उस पर हाथ रख दीजिए।
23) वे अन्धे का हाथ पकड़ कर उसे गाँव के बाहर ले गये। वहाँ उन्होंने उसकी आँखों पर अपना थूक लगा कर और उस पर हाथ रख कर उस से पूछा, ''क्या तुम्हें कुछ दिखाई दे रहा है?''
24) अन्धा कुछ-कुछ देखने लगा था, इसलिए उसने उत्तर दिया, ''मैं लोगों को देखता हूँ। वे पेड़ों-जैसे लगते, लेकिन चलते हैं।''
25) तब उन्होंने फिर अन्धे को आँखों पर हाथ रख दिये और वह अच्छी तरह देखने लगा। वह चंगा हो गया और दूर तक सब कुछ साफ़-साफ़ देख सकता था।
26) ईसा ने यह कहते हुए उसे घर भेजा, ''इस गाँव में पैर मत रखना''।
27) ईसा अपने शिष्यों के साथ कैसरिया फ़िलिपी के गाँवों की ओर गये। रास्ते में उन्होंने अपने शिष्यों से पूछा, ''मैं कौन हँू, इस विषय में लोग क्या कहते हैं?''
28) उन्होंने उत्तर दिया, ''योहन बपतिस्ता; कुछ लोग कहते हैं- एलियस, और कुछ लोग कहते हैं- नबियों में से कोई''।
29) इस पर ईसा ने पूछा, ''और तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हँू?'' पेत्रुस ने उत्तर दिया, ''आप मसीह हैं''।
30) इस पर उन्होंने अपने शिष्यों को कड़ी चेतावनी दी कि तुम लोग मेरे विषय में किसी को भी नहीं बताना।
31) उस समय से ईसा अपने शिष्यों को स्पष्ट शब्दों में यह समझाने लगे कि मानव पुत्र को बहुत दुःख उठाना होगा; नेताओं, महायाजकों और शास्त्रियों द्वारा ठुकराया जाना, मार डाला जाना और तीन दिन के बाद जी उठना होगा।
32) पेत्रुस ईसा को अलग ले जा कर फटकारने लगा,
33) किन्तु ईसा ने मुड़ कर अपने शिष्यों की ओर देखा, और पेत्रुस को डाँटते हुए कहा, ''हट जाओ, शैतान! तुम ईश्वर की बातें नहीं, बल्कि मनुष्यों की बातें सोचते हो''।
34) ईसा ने अपने शिष्यों के अतिरिक्त अन्य लोगों को भी अपने पास बुला कर कहा, ''जो मेरा अनुसरण करना चाहता है, वह आत्मत्याग करे और अपना क्रूस उठा कर मेरे पीछे हो ले।
35) क्योंकि जो अपना जीवन सुरक्षित रखना चाहता है, वह उसे खो देगा और जो मेरे तथा सुसमाचार के कारण अपना जीवन खो देता है, वह उसे सुरक्षित रखेगा।
36) मनुष्य को इससे क्या लाभ यदि वह सारा संसार तो प्राप्त कर ले, लेकिन अपना जीवन ही गँवा दे?
37) अपने जीवन के बदले मनुष्य दे ही क्या सकता है?
38) जो इस अधर्मी और पापी पीढ़ी के सामने मुझे तथा मेरी शिक्षा को स्वीकार करने में लज्जा अनुभव करेगा, मानव पुत्र भी उसे स्वीकार करने में लज्जा अनुभव करेगा, जब वह स्वर्गदूतों के साथ अपने पिता की महिमा-सहित आयेगा।''

अध्याय 9

1) ईसा ने यह भी कहा, ''मैं तुम से यह कहता हँू-यहाँ कुछ ऐसे लोग विद्यमान हैं, जो तब तक नहीं मरेंगे, जब तक वे ईश्वर का राज्य सामर्थ्य के साथ आया हुआ न देख लें''।
2) छः दिन बाद ईसा ने पेत्रुस, याकूब और योहन को अपने साथ ले लिया और वह उन्हें एक ऊँचे पहाड़ पर एकान्त में ले चले। उनके सामने ही ईसा का रूपान्तरण हो गया।
3) उनके वस्त्र ऐसे चमकीले और उजले हो गये कि दुनिया का कोई भी धोबी उन्हें उतना उजला नहीं कर सकता।
4) शिष्यों को एलियस और मूसा दिखाई दिये-वे ईसा के साथ बातचीत कर रहे थे।
5) उस समय पेत्रुस ने ईसा से कहा, ''गुरुवर! यहाँ होना हमारे लिए कितना अच्छा है! हम तीन तम्बू खड़े कर दें- एक आपके लिए, एक मूसा और एक एलियस के लिए।''
6) उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे, क्योंकि वे सब बहुत डर गये थे।
7) तब एक बादल आ कर उन पर छा गया और उस बादल में से यह वाणी सुनाई दी, ''यह मेरा प्रिय पुत्र है। इसकी सुनो।''
8) इसके तुरन्त बाद जब शिष्यों ने अपने चारों ओर दृष्टि दौड़ायी, तो उन्हें ईसा के सिवा और कोई नहीं दिखाई पड़ा।
9) ईसा ने पहाड़ से उतरते समय उन्हें आदेश दिया कि जब तक मानव पुत्र मृतकों में से न जी उठे, तब तक तुम लोगों ने जो देखा है, उसकी चर्चा किसी से नहीं करोगे।
10) उन्होंने ईसा की यह बात मान ली, परन्तु वे आपस में विचार-विमर्श करते थे कि 'मृतकों में से जी उठने' का अर्थ क्या हो सकता है।
11) उन्होंने ईसा से पूछा, ''शास्त्री यह क्यों कहते हैं कि पहले एलियस को आना है?''
12) ईसा ने उत्तर दिया, ''एलियस अवश्य पहले सब ठीक करने आता है। फिर मानव पुत्र के विषय में यह क्यों लिखा है कि वह बहुत दुःख उठायेगा और तिरस्कृत किया जायेगा?
13) मैं तुम से कहता हँू- एलियस आ चुका है और उसके विषय में जैसे लिखा है, उन्होंने उसके साथ वैसा ही मनमाना व्यवहार किया है।''
14) जब वे शिष्यों के पास लौटे, तो उन्होंने देखा कि बहुत-से लोग उनके चारों और इकट्ठे हो गये हैं और कुछ शास्त्री उन स विवाद कर रहे हैं।
15) ईसा को देखते ही लोग अचम्भे में पड़ गये और दौड़ते हुए उन्हें प्रणाम करने आये।
16) ईसा ने उन से पूछा, ''तुम लोग इनके साथ क्या विवाद कर रहे हो?''
17) भीड़ में से एक ने उत्तर दिया, ''गुरुवर! मैं अपने बेटे को, जो एक गूँगे अपदूत के वश में है, आपके पास ले आया हँू।
18) वह जहाँ कहीं उसे लगता है, उसे वहीं पटक देता है और लड़का फेन उगलता है, दाँत पीसता है और उसके अंग अकड़ जाते हैं। मैंने आपके शिष्यों से उसे निकालने को कहा, परन्तु वे ऐसा नहीं कर सके।''
19) ईसा ने उत्तर दिया, ''अविश्वासी पीढ़ी! मैं कब तक तुम्हारे साथ रहूँ? कब तक तुम्हें सहता रहँू? उस लड़के को मेरे पास ले आओ।''
20) वे उसे ईसा के पास ले आये। ईसा को देखते ही अपदूत ने लड़के को मरोड़ दिया। लड़का गिर गया और फेन उगलता हुआ भूमि पर लोटता रहा।
21) ईसा ने उसके पिता से पूछा, ''इसे कब से ऐसा हो जाया करता है?'' उसने उत्तर दिया, ''बचपन से ही।
22) अपदूत ने इसका विनाश करने के लिए इसे बार-बार आग अथवा पानी में डाल दिया है। यदि आप कुछ कर सकें, तो हम पर तरस खा कर हमारी सहायता कीजिए।''
23) ईसा ने उस से कहा, ''यदि आप कुछ कर सकें!....... विश्वास करने वाले के लिए सब कुछ सम्भव है।''
24) इस पर लड़के के पिता ने पुकार कर कहा, ''मैं विश्वास करता हँू, मेरे अल्प विश्वास की कमी पूरी कीजिए''।
25) ईसा ने देखा कि भीड़ बढ़ती जा रही है, इसलिए उन्होंने अशुद्ध आत्मा को यह कहते हुए डाँटा, ''बहरे-गूूँगे आत्मा! मैं तुझे आदेश देता हँू- इस से निकल जा और इस में फिर कभी नहीं घुसना''।
26) अपदूत चिल्ला कर और लड़के को मरोड़ कर उस से निकल गया। लड़का मुरदा-सा पड़ा रहा, इसलिए बहुत-से लोग कहते थे, ''यह मर गया है''।
27) परन्तु ईसा ने उसका हाथ पकड़ कर उसे उठाया और वह खड़ा हो गया।
28) जब ईसा घर पहुँचे, तो उनके शिष्यों ने एकान्त में उन से पूछा, ''हम लोग उसे क्यों नहीं निकाल सके?''
29) उन्होंने उत्तर दिया, ''प्रार्थना और उपवास के सिवा और किसी उपाय से यह जाति नहीं निकाली जा सकती।''
30) वे वहाँ से चल कर गलीलिया पार कर रहे थे। ईसा नहीं चाहते थे कि किसी को इसका पता चले,
31) क्योंकि वे अपने शिष्यों को शिक्षा दे रहे थे। ईसा ने उन से कहा, ''मानव पुत्र मनुष्यों के हवाले कर दिया जायेगा। वे उसे मार डालेंगे और मार डाले जाने के बाद वह तीसरे दिन जी उठेगा।''
32) शिष्य यह बात नहीं समझ पाते थे, किन्तु ईसा से प्रश्न करने में उन्हें संकोच होता था।
33) वे कफ़रनाहूम आये। घर पहुँच कर ईसा ने शिष्यों से पूछा, ''तुम लोग रास्ते में किस विषय पर विवाद कर रहे थे?''
34) वे चुप रह गये, क्योंकि उन्होंने रास्ते में इस पर वाद-विवाद किया था कि हम में सब से बड़ा कौन है।
35) ईसा बैठ गये और बारहों को बुला कर उन्होंने उन से कहा, ''जो पहला होना चाहता है, वह सब से पिछला और सब का सेवक बने''।
36) उन्होंने एक बालक को शिष्यों के बीच खड़ा कर दिया और उसे गले लगा कर उन से कहा,
37) ''जो मेरे नाम पर इन बालकों में किसी एक का भी स्वागत करता है, वह मेरा स्वागत करता है और जो मेरा स्वागत करता है, वह मेरा नहीं, बल्कि उसका स्वागत करता है, जिसने मुझे भेजा है।''
38) योहन ने उन से कहा, ''गुरुवर! हमने किसी को आपका नाम ले कर अपदूतों को निकालते देखा और हमने उसे रोकने की चेष्टा की, क्योंकि वह हमारे साथ नहीं चलता''।
39) परन्तु ईसा ने उत्तर दिया, ''उसे मत रोको; क्योंकि कोई ऐसा नहीं, जो मेरा नाम ले कर चमत्कार दिखाये और बाद में मेरी निन्दा करें।
40) जो हमारे विरुद्ध नहीं है, वह हमारे साथ ही है।
41) ''जो तुम्हें एक प्याला पानी इसलिए पिलायेगा कि तुम मसीह के शिष्य हो, तो मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हँू कि वह अपने पुरस्कार से वंचित नहीं रहेगा।
42) ''जो इन विश्वास करने वाले नन्हों में किसी एक के लिए भी पाप का कारण बनता है, उसके लिए अच्छा यही होता कि उसके गले में चक्की का पाट बाँधा जाता और वह समुद्र में फेंक दिया जाता।
43) (४३-४४) और यदि तुम्हारा हाथ तुम्हारे लिए पाप का कारण बनता है, तो उसे काट डालो। अच्छा यही है कि तुम लुले हो कर ही जीवन में प्रवेश करो, किन्तु दोनों हाथों के रहते नरक की न बुझने वाली आग में न डाले जाओ।
45) (४५-४६) और यदि तुम्हारा पैर तुम्हारे लिए पाप का कारण बनता है, तो उसे काट डालो। अच्छा यही है कि तुम लँगड़े हो कर ही जीवन में प्रवेश करो, किन्तु दोनों पैरों के रहते नरक में न डाले जाओ।
47) और यदि तुम्हारी आँख तुम्हारे लिए पाप का कारण बनती है, तो उसे निकाल दो। अच्छा यही है कि तुम काने हो कर ही ईश्वर के राज्य में प्रवेश करो, किन्तु दोनों आँखों के रहते नरक में न डाले जाओ,
48) जहाँ उन में पड़ा हुआ कीड़ा नहीं मरता और आग नहीं बुझती।
49) ''क्योंकि हर व्यक्ति आग-रूपी नमक द्वारा रक्षित किया जायेगा।
50) ''नमक अच्छी चीज’ है; किन्तु यदि वह फीका पड़ जाये, तो तुम उसे किस से छौंकोगे? ''अपने में नमक बनाये रखो और आपस में मेल रखो।''

अध्याय 10

1) वहाँ से विदा हो कर ईसा यहूदिया और यर्दन के पार के प्रदेश पहुँचे। एक विशाल जनसमूह फिर उनके पास एकत्र हो गया और वे अपनी आदत के अनुसार लोगों को शिक्षा देते रहे।
2) फ़रीसी ईसा के पास आये और उनकी परीक्षा लेते हुए उन्होंने प्रश्न किया, ''क्या अपनी पत्नी का परित्याग करना पुरुष के लिए उचित है?''
3) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया? ''मूसा ने तुम्हें क्या आदेश दिया?''
4) उन्होंने कहा, ''मूसा ने तो त्यागपत्र लिख कर पत्नी का परित्याग करने की अनुमति दी''।
5) ईसा ने उन से कहा, ''उन्होंने तुम्हारे हृदय की कठोरता के कारण ही यह आदेश लिखा।
6) किन्तु सृष्टि के प्रारम्भ ही से ईश्वर ने उन्हें नर-नारी बनाया;
7) इस कारण पुरुष अपने माता-पिता को छोड़ेगा और दोनों एक शरीर हो जायेंगे।
8) इस तरह अब वे दो नहीं, बल्कि एक शरीर हैं।
9) इसलिए जिसे ईश्वर ने जोड़ा है, उसे मनुष्य अलग नहीं करे।''
10) शिष्यों ने, घर पहुँच कर, इस सम्बन्ध में ईसा से फिर प्रश्न किया
11) और उन्होंने यह उत्तर दिया, ''जो अपनी पत्नी का परित्याग करता और किसी दूसरी स्त्री से विवाह करता है, वह पहली के विरुद्ध व्यभिचार करता है
12) और यदि पत्नी अपने पति का त्याग करती और किसी दूसरे पुरुष से विवाह करती है, तो वह व्यभिचार करती है''।
13) लोग ईसा के पास बच्चों को लाते थे, जिससे वे उन पर हाथ रख दें; परन्तु शिष्य लोगों को डाँटते थे।
14) ईसा यह देख कर बहुत अप्रसन्न हुए और उन्होंने कहा, ''बच्चों को मेरे पास आने दो। उन्हें मत रोको, क्योंकि ईश्वर का राज्य उन-जैसे लोगों का है।
15) मैं तुम से यह कहता हूँ- जो छोटे बालक की तरह ईश्वर का राज्य ग्रहण नहीं करता, वह उस में प्रवेश नहीं करेगा।''
16) तब ईसा ने बच्चों को छाती से लगा लिया और उन पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया।
17) ईसा किसी दिन प्रस्थान कर ही रहे थे कि एक व्यक्ति दौड़ता हुआ आया और उनके सामने घुटने टेक कर उसने यह पूछा, ''भले गुरु! अनन्त जीवन प्राप्त करने के लिए मुझे क्या करना चाहिए?''
18) ईसा ने उस से कहा, ''मुझे भला क्यों कहते हो? ईश्वर को छोड़ कोई भला नहीं।
19) तुम आज्ञाओं को जानते हो, हत्या मत करो, व्यभिचार मत करो, चोरी मत करो, झूठी गवाही मत दो, किसी को मत ठगो, अपने माता-पिता का आदर करो।''
20) उसने उत्तर दिया, ''गुरुवर! इन सब का पालन तो मैं अपने बचपन से करता आया हूँ''।
21) ईसा ने उसे ध्यानपूर्वक देखा और उनके हृदय में प्रेम उमड़ पड़ा। उन्होंने उस से कहा, ''तुम में एक बात की कमी है। जाओ, अपना सब कुछ बेच कर ग़रीबों को दे दो और स्वर्ग में तुम्हारे लिए पूँजी रखी रहेगी। तब आ कर मेरा अनुसरण करों।''
22) यह सुनकर उसका चेहरा उतर गया और वह बहुत उदास हो कर चला गया, क्योंकि वह बहुत धनी था।
23) ईसा ने चारों और दृष्टि दौड़ायी और अपने शिष्यों से कहा, ''धनियों के लिए ईश्वर के राज्य में प्रवेश करना कितना कठिन होगा!
24) शिष्य यह बात सुन कर चकित रह गये। ईसा ने उन से फिर कहा, ''बच्चों! ईश्वर के राज्य में प्रवेश करना कितना कठिन है!
25) सूई के नाके से हो कर ऊँट निकलना अधिक सहज है, किन्तु धनी का ईश्वर के राज्य में प्रवेश्’ा करना कठिन है?''
26) शिष्य और भी विस्मित हो गये और एक दूसरे से बोले, ''तो फिर कौन बच सकता है?''
27) उन्हें स्थिर दृष्टि से देखते हुए ईसा ने कहा, ''मनुष्यों के लिए तो यह असम्भव है, ईश्वर के लिए नहीं; क्योंकि ईश्वर के लिए सब कुछ सम्भव है''।
28) तब पेत्रुस ने यह कहा, ''देखिए, हम लोग अपना सब कुछ छोड़ कर आपके अनुयायी बन गये हैं।''
29) ईसा ने कहा, ''मैं तुम से यह कहता हूँ- ऐसा कोई नहीं, जिसने मेरे और सुसमाचार के लिए घर, भाई-बहनों, माता-पिता, बाल-बच्चों अथवा खेतों को छोड़ दिया हो
30) और जो अब, इस लोक में, सौ गुना न पाये- घर, भाई-बहनें, माताएँ, बाल-बच्चे और खेत, साथ-ही-साथ अत्याचार और परलोक में अनन्त जीवन।
31) बहुत-से लोग जो अगले हैं, पिछले हो जायेंगे और जो पिछले हैं, अगले हो जायेंगे।''
32) वे येरुसालेम के मार्ग पर आगे बढ़ रहे थे। ईसा शिष्यों के आगे-आगे चलते थे। शिष्य बहुत घबराये हुए थे और पीछे आने वाले लोग भयभीत थे। ईसा बारहों को फिर अलग ले जा कर उन्हें बताने लगे कि मुझ पर क्या-क्या बीतेगी,
33) ''देखो, हम येरुसालेम जा रहे हैं। मानव पुत्र महायाजकों और शास्त्रियों के हवाले कर दिया जायेगा। वे उसे प्राणदण्ड की आज्ञा सुना कर गै’र-यहूदियों के हवाले कर देंगे,
34) उसका उपहास करेंगे, उस पर थूकेंगे, उसे कोड़े लगायेंगे और मार डालेंगे; लेकिन तीसरे दिन वह जी उठेगा।''
35) ज’ेबेदी के पुत्र याकूब और योहन ईसा के पास आ कर बोले, ''गुरुवर ! हमारी एक प्रार्थना है। आप उसे पूरा करें।''
36) ईसा ने उत्तर दिया, ''क्या चाहते हो? मैं तुम्हारे लिए क्या करूँ?''
37) उन्होंने कहा, ''अपने राज्य की महिमा में हम दोनों को अपने साथ बैठने दीजिए- एक को अपने दायें और एक को अपने बायें''।
38) ईसा ने उन से कहा, ''तुम नहीं जानते कि क्या माँग रहे हो। जो प्याला मुझे पीना है, क्या तुम उसे पी सकते हो और जो बपतिस्मा मुझे लेना है, क्या तुम उसे ले सकते हो?''
39) उन्होंने उत्तर दिया, ''हम यह कर सकते हैं''। इस पर ईसा ने कहा, ''जो प्याला मुझे पीना है, उसे तुम पियोगे और जो बपतिस्मा मुझे लेना है, उसे तुम लोगे;
40) किन्तु तुम्हें अपने दायें या बायें बैठने देने का अधिकार मेरा नहीं हैं। वे स्थान उन लोगों के लिए हैं, जिनके लिए वे तैयार किये गये हैं।''
41) जब दस प्रेरितों को यह मालूम हुआ, तो वे याकूब और योहन पर क्रुद्ध हो गये।
42) ईसा ने उन्हें अपने पास बुला कर कहा, ''तुम जानते हो कि जो संसार के अधिपति माने जाते हैं, वे अपनी प्रजा पर निरंकुश शासन करते हैं और सत्ताधारी लोगों पर अधिकार जताते हैं।
43) तुम में ऐसी बात नहीं होगी। जो तुम लोगों में बड़ा होना चाहता है, वह तुम्हारा सेवक बने
44) और जो तुम में प्रधान होना चाहता है, वह सब का दास बने;
45) क्योंकि मानव पुत्र भी अपनी सेवा कराने नहीं, बल्कि सेवा करने और बहुतों के उद्धार के लिए अपने प्राण देने आया है।''
46) वे येरीख़ो पहुँचे। जब ईसा अपने शिष्यों तथा एक विशाल जनसमूह के साथ येरीख़ो से निकल रहे थे, तो तिमेउस का बेटा बरतिमेउस, एक अन्धा भिखारी, सड़क के किनारे बैठा हुआ था।
47) जब उसे पता चला कि यह ईसा नाज’री हैं, तो वह पुकार-पुकार कर कहने लगा, ''ईसा, दाऊद के पुत्र! मुझ पर दया कीजिए''!
48) बहुत-से लोग उसे चुप करने के लिए डाँटते थे; किन्तु वह और भी जोर से पुकारता रहा, ''दाऊद के पुत्र! मुझ पर दया कीजिए''।
49) ईसा ने रूक कर कहा, ''उसे बुलाओ''। लोगों ने यह कहते हुए अन्धे को बुलाया, ''ढ़ारस रखो। उठो! वे तुम्हें बुला रहे हैं।''
50) वह अपनी चादर फेंक कर उछल पड़ा और ईसा के पास आया।
51) ईसा ने उस से पूछा, ''क्या चाहते हो? मैं तुम्हारे लिए क्या करूँ?'' अन्धे ने उत्तर दिया, ''गुरुवर! मैं फिर देख सकूँ''।
52) ईसा ने कहा, ''जाओ, तुम्हारे विश्वास ने तुम्हारा उद्धार किया है''। उसी क्षण उसकी दृष्टि लौट आयी और वह मार्ग में ईसा के पीछे हो लिया।

अध्याय 11

1) जब वे येरुसालेम के निकट, जैतून पहाड़ के समीप बेथफ़गे और बेथानिया पहुँचे, तो ईसा ने अपने दो शिष्यों को यह कहते हुए भेजा,
2) ''सामने के गाँव जाओ। वहाँ पहुँचते ही तुम्हें बँधा हुआ एक बछेड़ा मिलेगा, जिस पर अब तक कोई नहीं सवार हुआ है। उसे खोल कर ले आओ।
3) यदि कोई तुम से कहे- यह क्या कर रहे हो, तो कह देना, प्रभु को इसकी ज’रूरत है, वह इसे शीघ्र ही वापस भेज देंगे।''
4) शिष्य चले गये और बछेड़े को बाहर सड़क के किनारे एक फाटक पर बँधा हुआ पा कर उन्होंने उसे खोल दिया।
5) वहाँ खड़े लोगों में कुछ ने कहा, ''यह क्या कर रहे हो? बछेड़ा क्यों खोलते हो?''
6) ईसा ने जैसा बताया था, शिष्यों ने वैसा ही कहा और लोगों ने उन्हें जाने दिया।
7) उन्होंने, बछेड़े को ईसा के पास ले आ कर, उस पर अपने कपड़े बिछा दिये और ईसा सवार हो गये।
8) बहुत-से लोगों ने अपने कपड़े रास्ते में बिछा दिये। कुछ लोगों ने खेतों में हरी-भरी डालियाँ काट कर फैला दीं।
9) र्र्र्र्र््रईसा के आगे-आगे जाते हुए और पीछे-पीछे आते हुए लोग यह नारा लगा रहे थे, ''होसन्ना! धन्य हैं वह, जो प्रभु के नाम पर आते हैं!
10) धन्य हैं हमारे पिता दाऊद का आने वाला राज्य! सर्वोच्च स्वर्ग में होसन्ना!''
11) ईसा ने येरुसालेम पहुँच कर मन्दिर में प्रवेश किया। वहाँ सब कुछ अच्छी तरह देख कर वह अपने शिष्यों के साथ बेथानिया चले गये, क्योंकि सन्ध्या हो चली थी।
12) दूसरे दिन जब वे बेथानिया से आ रहे थे, तो ईसा को भूख लगी।
13) वे कुछ दूरी पर एक पत्तेदार अंजीर का पेड़ देख कर उसके पास गये कि शायद उस पर कुछ फल मिलें; किन्तु पास आने पर उन्होंने पत्तों के सिवा और कुछ नहीं पाया, क्योंकि वह अंजीर का मौसम नहीं था।
14) ईसा ने पेड़ से कहा, ''फिर कभी कोई तेरे फल न खाये''। उनके शिष्यों ने उन्हें यह कहते सुना।
15) वे येरुसालेम पहुँचे। मन्दिर में प्रवेश कर ईसा वहाँ से बेचने और ख़रीदने वालों को बाहर निकालने लगे। उन्होंने सराफ़ों की मेज’ें और कबूतर बेचने वालों की चौकियाँ उलट दीं
16) और वे किसी को भी घड़ा लिये मन्दिर से हो कर आने-जाने नहीं देते थे।
17) उन्होंने, लोगों को शिक्षा देते हुए कहा, ''क्या यह नहीं लिखा है- मेरा घर सब राष्ट्रों के लिए प्रार्थना का घर कहलायेगा; परन्तु तुम लोगों ने उसे लुटेरों का अड्डा बनाया है''।
18) महायाजकों तथा शास्त्रियों को इसका पता चला और वे ईसा के सर्वनाश का उपाय ढूँढ़ते रहे। वे उन से डरते थे, क्योंकि लोग मन्त्रमुग्ध हो कर उनकी शिक्षा सुनते थे।
19) सन्ध्या हो जाने पर वे शहर के बाहर चले जाते थे।
20) प्रातः जब वे उधर से आ रहे थे, तो शिष्यों ने देखा कि अंजीर का वह पेड़ जड़ से सूख गया है।
21) पेत्रुस को वह बात याद आयी और उसने कहा, ''गुरुवर! देखिए, अंजीर का वह पेड़, जिसे आपने शाप दिया था, सूख गया है''।
22) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ''ईश्वर में विश्वास करो।
23) मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- यदि कोई इस पहाड़ से यह कहे, 'उठ, समुद्र में गिर जा' , और मन में सन्देह न करे, बल्कि यह विश्वास करे कि मैं जो कह रहा हूँ, वह पूरा होगा, तो उसके लिए वैसा ही हो जायेगा।
24) इसलिए मैं तुम से कहता हूँ- तुम जो कुछ प्रार्थना में माँगते हो, विश्वास करो कि वह तुम्हें मिल गया है और वह तुम्हें दिया जायेगा।
25) ''जब तुम प्रार्थना के लिए खड़े हो और तुम्हें किसी से कोई शिकायत हो, तो क्षमा कर दो,
26) जिससे तुम्हारा स्वर्गिक पिता भी तुम्हारे अपराध क्षमा कर दे।''
27) वे फिर येरुसालेम आये। जब ईसा मन्दिर में टहल रहे थे, तो महायाजक, शास्त्री और नेता उनेक पास आ कर बोले,
28) ''आप किस अधिकार से यह सब कर रहे हैं? किसने आप को यह सब करने का अधिकार दिया?''
29) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ''मैं भी आप लोगों से एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ। यदि आप मुझे इसका उत्तर देंगे, तो मैं भी आप को बता दूँगा कि मैं किस अधिकार से यह सब कर रहा हूँ।
30) बताइए, योहन का बपतिस्मा स्वर्ग का था अथवा मनुष्यों का?''
31) वे यह कहते हुए आपस में परामर्श करते थे- ''यदि हम कहें, 'स्वर्ग का', तो वह कहेंगे, 'तब आप लोगों ने उस पर विश्वास क्यों नहीं किया'।
32) यदि हम कहें, ''मनुष्यों का, तो....।'' वे जनता से डरते थे। क्योंकि सब योहन को नबी मानते थे।
33) इसलिए उन्होंने ईसा को उत्तर दिया, ''हम नहीं जानते''। इस पर ईसा ने उन से कहा,'' तब मैं भी आप लोगों को नहीं बताऊँगा कि मैं किस अधिकार से यह सब कर रहा हूँ''।

अध्याय 12

1) वह लोगों को दुष्तान्तों में शिक्षा देने लगे- ÷÷किसी मनुष्य ने दाख की बारी लगवायी, उसके चारों ओर घेरा बनवाया, उस में उस का कुण्ड खुदवाया और पक्का मचान बनवाया। तब उसे असामियों को पट्टे पर दे कर वह परदेश चला गया।
2) समय आने पर उसने दाखबारी की फ़सल का हिस्सा वसूल करने के लिए असामियों के पास एक नौकर को भेजा।
3) असामियों ने नौकर को पकड़ कर मारा-पीटा और खाली हाथ लौटा दिया।
4) उसने एक दूसरे नौकर को भेजा। उन्होंने उसका सिर फोड़ दिया और उसे अपमानित किया।
5) उसने एक और नौकर को भेजा और उन्होंने उसे मार डाला। इसके बाद उसने और बहुत -से नौकरों को भेजा। उन्होंने उन में से कुछ लोगों को पीटा और कुछ को मार डाला।
6) अब उसके पास एक ही बच गया- उसका परममित्र पुत्र। अन्त में उसने यह सोच कर उसे उनके पास भेजा कि वे मेरे पुत्र का आदर करेंगे।
7) किन्तु उन असामियों ने आपस में कहा, ÷यह तो उत्तराधिकारी है। चलो, हम इसे मार डालें और इसकी विरासत हमारी हो जायेगी।'
8) उन्होंने इसे पकड़ कर मार डाला और दाखबारी के बाहर फेंक दिया।
9) दाखबारी का स्वामी क्या करेगा? वह आ कर उन असामियों का सर्वनाश करेगा और अपनी दाखबारी दूसरों को सौंप देगा।
10) ÷÷क्या तुम लोगों ने धर्मग्रन्थ में यह नहीं पढ़ा?- कारीगरों ने जिस पत्थर को बेकार समझ कर निकाल दिया था, वही कोने का पत्थर बन गया है।''
11) यह प्रभु का कार्य है। यह हमारी दृष्टि में अपूर्व है।''
12) वे समझ गये कि ईसा का यह दृष्टान्त हमारे ही विषय में है और उन्हें गिरफ्’तार करने का उपाय ढूँढ़ने लगे। किन्तु वे जनता से डरते थे और उन्हें छोड़ कर चले गये।
13) उन्होंने ईसा के पास कुछ फरीसियों और हेरोदियों को भेजा, जिससे वे उन्हें उनकी अपनी बात के फन्दे में फँसाये।
14) वे आ कर उन से बोले, ''गुरुवर! हम यह जानते हैं कि आप सत्य बोलते हैं और किसी की परवाह नहीं करते। आप मुँह-देखी बात नहीं करते, बल्कि सच्चाई से ईश्वर के मार्ग की शिक्षा देते हैं। कैसर को कर देना उचित है या नहीं?''
15) हम दें या नहीं दें?'' उनकी धूर्तता भाँप कर ईसा ने कहा, ''मेरी परीक्षा क्यों लेते हो? एक दीनार ला कर मुझे दिखलाओ।''
16) वे दीनार लाये और ईसा ने उन से पूछा, ''यह किसका चेहरा और किसका लेख है?'' उन्होंने उत्तर दिया, ''कैसर का''।
17) इस पर ईसा ने उन से कहा, ''जो कैसर का है, उसे कैसर को दो और जो ईश्वर का है, उस ईश्वर को''। यह सुन कर वे बड़े अचम्भे में पड़ गये।
18) इसके बाद सदूकी उनके पास आये। उनकी धारणा है कि पुनरुत्थान नहीं होता। उन्होंने ईसा के सामने यह प्रश्न रखा,
19) ''गुरुवर! मूसा ने हमारे लिए यह नियम बनाया- यदि किसी का भाई, अपनी पत्नी के रहते निस्सन्तान मर जाये, तो वह उसकी विधवा को ब्याह कर अपने भाई के लिए सन्तान उत्पन्न करे।
20) सात भाई थे। पहले ने विवाह किया और वह निस्सन्तान मर गया।
21) दूसरा उसकी विधवा को ब्याह कर निस्सन्तान मर गया। तीसरे के साथ भी वही हुआ,
22) और सातों भाई निस्सन्तान मर गये। सब के बाद वह स्त्री भी मर गयी।
23) जब वे पुनरुत्थान में जी उठेंगे, तो वह किसी पत्नी होगी? वह तो सातों की पत्नी रह चुकी है।''
24) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ''कहीं तुम लोग इसीलिए तो भ्रम में नहीं पड़े हुए हो कि तुम न तो धर्मग्रन्थ जानते हो और न ईश्वर का सामर्थ्य?
25) क्योंकि जब वे मृतकों में से जी उठते हैं, तब न तो पुरुष विवाह करते और न स्त्रियाँ विवाह में दी जाती है; बल्कि वे स्वर्गदूतों के सदृश होते हैं।
26) ''जहाँ तक पुनरुत्थान का प्रश्न है, क्या तुम लोगों ने मूसा के ग्रन्थ में, झाड़ी की कथा में, यह नहीं पढ़ा कि ईश्वर ने मूसा से कहा- मैं इब्राहीम का ईश्वर, इसहाक का ईश्वर और याकूब का ईश्वर हूँ?
27) वह मृतकों का नहीं, जीवितों का ईश्वर है। यह तुम लोगों का भारी भ्रम है।''
28) तब एक शास्त्री ईसा के पास आया। उसने यह विवाद सुना था और यह देख कर कि ईसा ने सदूकियों को ठीक उत्तर दिया था, उन से पूछा, ''सबसे पहली आज्ञा कौन सी है?''
29) ईसा ने उत्तर दिया, ''पहली आज्ञा यह है- इस्राएल, सुनो! हमारा प्रभु-ईश्वर एकमात्र प्रभु है।
30) अपने प्रभु-ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा, अपनी सारी बुद्धि और सारी शक्ति से प्यार करो।
31) दूसरी आज्ञा यह है- अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो। इनसे बड़ी कोई आज्ञा नहीं।''
32) शास्त्री ने उन से कहा, ''ठीक है, गुरुवर! आपने सच कहा है। एक ही ईश्वर है, उसके सिवा और कोई नहीं है।
33) उसे अपने सारे हृदय, अपनी सारी बुद्धि और अपने सारी शक्ति से प्यार करना और अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करना, यह हर प्रकार के होम और बलिदान से बढ़ कर है।''
34) ईसा ने उसका विवेकपूर्ण उत्तर सुन कर उस से कहा, ''तुम ईश्वर के राज्य से दूर नहीं हो''। इसके बाद किसी को ईसा से और प्रश्न करने का साहस नहीं हुआ।
35) ईसा ने, मन्दिर में शिक्षा देते समय, यह प्रश्न उठाया, ''शास्त्री लोग कैसे कह सकते हैं कि मसीह दाऊद के पुत्र हैं?
36) दाऊद ने स्वयं पवित्र आत्मा की प्रेरणा से कहा- प्रभु ने मेरे प्रभु से कहा, तुम तब तक मेरे दाहिने बैठे रहो, जब तक मैं तुम्हारे शत्रुओं को तुम्हारे पैरों तले न डाल दूँ।
37) दाऊद स्वयं उन्हें प्रभु कहते हैं, तो वह उनके पुत्र कैसे हो सकते हैं?'' एक विशाल जन समूह बड़ी रुचि से ईसा की बातें सुन रहा था।
38) ईसा ने शिक्षा देते समय कहा, ''शास्त्रियों से सावधान रहो। लम्बे लबादे पहन कर टहलने जाना, बाज’ारों में प्रणाम-प्रणाम सुनना,
39) सभागृहों में प्रथम आसनों पर और भोजों में प्रथम स्थानों पर विराजमान होना- यह सब उन्हें बहुत पसन्द है।
40) वे विधवाओं की सम्पत्ति चट कर जाते और दिखावे के लिए लम्बी-लम्बी प्रार्थनाएँ करते हैं। उन लोगों को बड़ी कठोर दण्डाज्ञा मिलेगी।''
41) ईसा ख़जाने के सामने बैठ कर लोगों को उस में सिक्के डालते हुए देख रहे थे। बहुत-से धनी बहुत दे रहे थे।
42) एक कंगाल विधवा आयी और उसने दो अधेले अर्थात् एक पैसा डाल दिया।
43) इस पर ईसा ने अपने शिष्यों को बुला कर कहा, ''मैं तुम से यह कहता हूँ- ख़जाने में पैसे डालने वालों में से इस विधवा ने सब से अधिक डाला है;
44) क्योंकि सब ने अपनी समृद्धि से कुछ डाला, परन्तु इसने तंगी में रहते हुए भी जीविका के लिए अपने पास जो कुछ था, वह सब दे डाला।''

अध्याय 13

1) ईसा मन्दिर से निकल रहे थे कि उनके शिष्यों में एक ने उन से कहा, ''गुरुवर! देखिए- ये बड़े-बड़े पत्थर! ये बड़ी-बड़ी इमारतें!'
2) ईसा ने उसे उत्तर दिया, ''तुम ये बड़ी-बड़ी इमारतें देख रहे हो न? यहाँ एक पत्थर पर दूसरा पत्थर पड़ा नहीं रहेगा- सब ढा दिया जायेगा।''
3) जब ईसा जैतून पहाड़ पर पहुँच कर मन्दिर के सामने बैठ गये तो पेत्रुस, याकूब, योहन और अन्द्रेयस ने एकान्त में उन से पूछा,
4) ''हमें बताइए, यह कब होगा और किस चिन्ह से पता चलेगा कि यह सब पूरा होने को है?''
5) ईसा अपने शिष्यों से यह कहने लगे, ''सावधान रहो, तुम्हें कोई नहीं बहकायेगा;
6) क्योंकि बहुत-से लोग मेरा नाम ले कर आयेंगे और कहेंगे, 'मैं वही हूँ, और वे बहुतों को बहका देंगे।
7) ''जब तुम युद्धों की चर्चा सुनोगे और युद्धों के बारे में अफवाहें सुनोगे, तो नहीं घबराओगे; क्योंकि ऐसा हो जाना अनिवार्य है। परन्तु यही अन्त नहीं है।
8) राष्ट्र के विरुद्ध राष्ट्र खड़ा होगा और राज्य के विरुद्ध राज्य। जहाँ-तहाँ भूकम्प और अकाल होते रहेंगे। यह सब विपत्तियों का आरम्भ मात्र होगा।
9) ''सावधान रहो। लोग तुम्हें अदालतों के हवाले कर देंगे, तुम्हें सभागृहों में कोड़े लगायेंगे। तुम मेरे कारण शासकों और राजाओं के सामने पेश किये जाओग, जिससे तुम मेरे विषय में उन्हें साक्ष्य दे सको;
10) क्योंकि यह आवश्यक है कि पहले सभी राष्ट्रों में सुसमाचार का प्रचार किया जाये।
11) ''जब वे तुम्हें अदालत के हवाले करने ले जा रहे हैं, तो यह चिन्ता न करो कि हम क्या कहेंगे। समय आने पर जो शब्द दिये जायेंगे, उन्हें कह दो; क्योंकि बोलने वाले तुम नहीं हो, बल्कि पवित्र आत्मा है।
12) भाई अपने भाई को मृत्यु के हवाले कर देगा और पिता अपनी सन्तान को। सन्तान अपने माता-पिता के विरुद्ध उठ खड़ी होगी और उन्हें मरवा डालेगी।
13) मेरे नाम के कारण सब लोग तुम से बैर करेंगे, किन्तु जो अन्त तक धीर बना रहेगा, उसे मुक्ति मिलेगी।
14) ''जब तुम लोग वहाँ उजाड़ का बीभत्स दृश्य देखोगे, जहाँ उसका होना उचित नहीं है- पढ़ने वाला समझ ले- तो, जो लोग यहूदिया में हों, वे पहाड़ों पर भाग जायें।
15) जो छत पर हो, वह अपना समान लेने नीचे उतर कर घर के अन्दर न जाये।
16) जो खेत में हो, वह अपनी चादर ले आने के लिए न लौटे।
17) उनके लिए शोक, जो उन दिनों गर्भवती या दूध पिलाती होंगी!
18) प्रार्थना करो कि यह सब जाड़े के समय घटित न हो;
19) क्योंकि उन दिनों वैसा घोर संकट होगा, जैसा ईश्वर की सृष्टि में, इस संसार के प्रारम्भ से अब तक न कभी हुआ है और न कभी होगा।
20) यदि ईश्वर ने उन दिनों को घटाया न होता, तो कोई प्राणी नहीं बचता; किन्तु अपने चुने हुए कृपापात्रों के कारण उसने उन दिनों को घटा दिया है।
21) ''यदि उस समय कोई तुम लोगों से कहे 'देखो, मसीह यहाँ हैं' अथवा 'वे वहाँ हैं' तो विश्वास नहीं करोगे;
22) क्योंकि झूठे मसीह तथा झूठे नबी प्रकट होंगे और ऐसे चिन्ह तथा चमत्कार दिखायेंगे कि यदि सम्भव होता, तो वे चुने हुए लोगों को भी बहकाते।
23) तुम लोग सावधान रहो। मैंने तुम्हें पहले ही सचेत किया है।
24) ''उन दिनों के संकट के बाद सूर्य अन्धकारमय हो जायेगा, चन्द्रमा प्रकाश नहीं देगा,
25) तारे आकाश से गिर जायेंगे और आकाश की शक्तियाँ विचलित हो जायेंगी।
26) तब लोग मानव पुत्र को अपार सामर्थ्य और महिमा के साथ बादलों पर आते हुए देखेंगे।
27) वह अपने दूतों को भेजेगा और वे चारों दिशाओं से, आकाश के कोने-कोने से, उसके चुने हुए लोगों को एकत्र करेंगे।
28) ''अंजीर के पेड़ से शिक्षा लो। जब उसकी टहनियाँ कोमल बन जाती हैं और उन में अंकुर फूटने लगते हैं, तो तुम जान जाते हो कि गरमी आ रही है।
29) इसी तरह, जब तुम लोग यह सब देखोगे, तो जान लो कि वह निकट है, द्वार पर ही है।
30) मैं तुम से यह कहता हूँ कि इस पीढ़ी का अन्त हो जाने के पूर्व ही ये सब बातें घटित हो जायेंगी।
31) आकाश और पृथ्वी टल जायें, तो टल जायें, परन्तु मेरे शब्द नहीं टल सकते।
32) ''उस दिन और उस घड़ी के विषय में कोई नहीं जानता- न तो स्वर्ग के दूत और न पुत्र। केवल पिता ही जानता है।
33) ''सावधान रहो। जागते रहो, क्योंकि तुम नहीं जानते कि वह समय कब आयेगा।
34) यह कुछ ऐसा है, जैसे कोई मनुष्य विदेश चला गया हो। उसने अपना घर छोड़ कर उसका भार अपने नौकरों को सौंप दिया हो, हर एक को उसका काम बता दिया हो और द्वारपाल को जागते रहने का आदेश दिया हो।
35) तुम नहीं जानते कि घर का स्वामी कब आयेगा- शाम को, आधी रात को, मुर्गे के बाँग देते समय या भोर को। इसलिए जागते रहो।
36) कहीं ऐसा न हो कि वह अचानक पहुँच कर, तुम्हें सोता हुआ पाये।
37) जो बात मैं तुम लोगों से कहता हूँ, वही सब से कहता हूँ-जागते रहो।''

अध्याय 14

1) पास्का तथा बेख़मीर रोटी के पर्व में दो दिन रह गये थे। महायाजक और शास्त्री ईसा को छल से गिरफ्’तार करने और मरवा देने का उपाय ढूँढ़ रहे थे।
2) फिर भी वे कहते थे, ''पर्व के दिनों में नहीं। कहीं ऐसा न हो कि जनता में हंगामा हो जाये।''
3) जब ईसा बेथानिया में सिमाने कोढ़ी के यहाँ भोजन कर रहे थे, तो एक महिला संगमरमर के पात्र में असली जटामांसी का बहुमूल्य इत्र ले कर आयी। उसने पात्र तोड़ कर ईसा के सिर पर इत्र ऊँढ़ेल दिया।
4) इस पर कुछ लोग झुंझला कर एक दूसरे से बोले, ''इत्र का यह अपव्यय क्यों?
5) यह इत्र तीन सौ दीनार से अधिक में बिक सकता था और इसकी कीमत ग़रीबों में बाँटी जा सकती थी'' और वे उसे झिड़कते रहे।
6) ईसा ने कहा, ''इसको छोड़ दो। इसे क्यों तंग करते हो? इसने मेरे लिए भला काम किया।
7) ग़रीब तो बराबर तुम लोगों के साथ रहेंगे। तुम जब चाहो, उनका उपकार कर सकते हो; किन्तु मैं हमेशा तुम्हारे साथ नहीं रहूँगा।
8) यह जो कुछ कर सकती थी, इसने कर दिया। इसने दफ़न की तैयारी में पहले ही से मेरे शरीर पर इत्र लगाया।
9) मैं तुम लोंगों से यह कहता हूँ- सारे संसार में जहाँ कहीं सुसमाचार का प्रचार किया जायेगा, वहाँ इसकी स्मृति में इसके इस कार्य की भी चर्चा होगी।''
10) बारहों में से एक, यूदस इसकारियोती, महायाजकों के पास गया और उसने ईसा को उनके हवाले करने का प्रस्ताव किया।
11) वे यह सुन कर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे रुपया देने का वादा किया और यूदस ईसा को पकड़वाने का अवसर ढूँढ़ता रहा।
12) बेख़मीर रोटी के पहले दिन, जब पास्का के मेमने की बलि चढ़ायी जाती है, शिष्यों ने ईसा से कहा, ''आप क्या चाहते हैं? हम कहाँ जा कर आपके लिए पास्का भोज की तैयारी करें?''
13) ईसा ने दो शिष्यों को यह कहते हुए भेजा, ''शहर जाओ। तुम्हें पानी का घड़ा लिये एक पुरुष मिलेगा। उसके पीछे-पीछे चलो।
14) और जिस घर में वह प्रवेश करे, उस घर के स्वामी से यह कहो, 'गुरुवर कहते हैं- मेरे लिए अतिथिशाला कहाँ हैं, जहाँ मैं अपने शिष्यों के साथ पास्का का भोजन करूँ?'
15) और वह तुम्हें ऊपर सजा-सजाया बड़ा कमरा दिखा देगा वहीं हम लोगों के लिए तैयार करो।''
16) शिष्य चल पड़े। ईसा ने जैसा कहा था, उन्होंने शहर पहुँच कर सब कुछ वैसा ही पाया और पास्का-भोज की तैयारी कर ली।
17) सन्ध्या हो जाने पर ईसा बारहों के साथ आये।
18) जब वे बैठ कर भोजन कर रहे थे, तो ईसा ने कहा, ''मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- तुम में से ही एक, जो मेरे साथ भोजन कर रहा है, मुझे पकड़वा देगा''।
19) वे बहुत उदास हो गये और एक-एक कर उन से पूछने लगे, ''कहीं वह मैं तो नहीं हूँ?''
20) ईसा ने उत्तर दिया, ''वह बारहों में से ही एक है, जो मेरे साथ थाली में खा रहा है।
21) मानव पुत्र तो चला जाता है, जैसा कि उसके विषय में लिखा है; परन्तु धिक्कार उस मनुष्य को, जो मानव पुत्र को पकड़वाता है! उस मनुष्य के लिए अच्छा यही होता कि वह पैदा ही नहीं हुआ होता।''
22) उनके भोजन करते समय ईसा ने रोटी ले ली, और आशिष की प्रार्थना पढ़ने के बाद उसे तोड़ा और यह कहते हुए शिष्यों को दिया, ''ले लो, यह मेरा शरीर है''।
23) तब उन्होंने प्याला ले कर धन्यवाद की प्रार्थना पढ़ी और उसे शिष्यों को दिया और सब ने उस में से पीया।
24) ईसा ने उन से कहा, ''यह मेरा रक्त है, विधान का रक्त, जो बहुतों के लिए बहाया जा रहा है।
25) मैं तुम से यह कहता हूँ- जब तक मैं ईश्वर के राज्य में नवीन रस न पी लूँ, तब तक मैं दाख का रस फिर नहीं पिऊँगा।''
26) भजन गाने के बाद वे जैतून पहाड़ चल दिये।
27) ईसा ने उन से कहा, ''तुम सब विचलित हो जाओगे; क्योंकि यह लिखा है- मैं चरवाहे को मारूँगा और भेडें’ तितर-बितर हो जायेंगी।
28) किन्तु अपने पुनरुत्थान के बाद मैं तुम लोगों से पहले गलीलिया जाऊँगा।''
29) इस पर पेत्रुस ने कहा, ''चाहे सभी विचलित हो जायें, किन्तु मैं विचलित नहीं होऊँगा''।
30) ईसा ने उत्तर दिया, ''मैं तुम से यह कहता हूँ- आज, इसी रात को, मुर्गे के दो बार बाँग देने से पहले ही तुम मुझे तीन बार अस्वीकार करोगे''।
31) किन्तु वह और भी ज’ोर से यह कहता जाता था, ''मुझे आपके साथ चाहे मरना ही क्यों न पड़े, मैं आप को कभी अस्वीकार नहीं करूँगा'' और सभी शिष्य यही कहते थे।
32) वे गेथसेमनी नामक बारी पहुँचे। ईसा ने अपने शिष्यों से कहा ''तुम लोग यहाँ बैठे रहो। मैं तब तक प्रार्थना करूँगा।''
33) वे पेत्रुस, याकूब और योहन को अपने साथ ले गये। वे भयभीत तथा व्याकुल होने लगे
34) और उनसे बोले, ''मेरी आत्मा इतनी उदास है कि मैं मरने-मरने को हूँ। यहाँ ठहर जाओ और जागते रहो।''
35) वे कुछ आगे बढ़ कर मुँह के बल गिर पड़े और यह प्रार्थना करते रहे कि यदि हो सके, तो यह घड़ी उन से टल जाये।
36) उन्होंने कहा, ''अब्बा! पिता! तेरे लिए सब कुछ सम्भव है। यह प्याला मुझ से हटा ले। फिर भी मेरी नहीं, बल्कि तेरी ही इच्छा पूरी हो।''
37) तब वे अपने शिष्यों के पास गये और उन्हें सोया हुआ देख कर पेत्रुस से बोले, ''सिमोन! सोते हो? क्या तुम घण्टे भर भी मेरे साथ नहीं जाग सके?
38) जागते रहो और प्रार्थना करते रहो, जिससे तुम परीक्षा में न पड़ो। आत्मा तो तत्पर है, परन्तु शरीर दुर्बल''
39) और उन्होंने फिर जा कर उन्हीं शब्दों को दुहराते हुए प्रार्थना की।
40) लौटने पर उन्होंने अपने शिष्यों को फिर सोया हुआ पाया, क्योंकि उनकी आंखें भारी थीं। वे नहीं जानते थे कि क्या उत्तर दें।
41) ईसा जब तीसरी बार अपने शिष्यों के पास आये, तो उन्होंने उन से कहा, ''अब तक सो रहे हो? अब तक आराम कर रहे हो? बस! वह घड़ी आ गयी है। देखो! मानव पुत्र पापियों के हवाले कर दिया जायेगा।
42) उठो! हम चलें। मेरा विश्वासघाती निकट आ गया है।''
43) ईसा यह कह ही रहे थे कि बारहों में से एक यूदस आ गया। उसके साथ तलवारें और लाठियाँ लिये एक बड़ी भीड़ थीं, जिसे महायाजकों, शास्त्रियाँ और नेताओं ने भेजा था।
44) विश्वासघाती ने उन्हें यह कहते हुए संकेत दिया था, ''मैं जिसका चुम्बन करूँगा, वही हैं। उसी को पकड़ना और सावधानी से ले जाना।''
45) उसने सीधे ईसा के पास आ कर कहा, ''गुरुवर!'' और उनका चुम्बन किया।
46) तब लोगों ने ईसा को पकड़ कर गिरफ्’तार कर लिया।
47) इस पर ईसा के साथियों में एक ने अपनी तलवार खींच ली और प्रधानयाजक के नौकर पर चला कर उसका कान उड़ा दिया।
48) ईसा ने भीड़ से कहा, ''क्या तुम लोग मुझे डाकू समझते हो, जो तलवारें और लाठियाँ ले कर मुझे पकड़ने आये हो?
49) मैं तो प्रतिदिन तुम्हारे सामने मन्दिर में शिक्षा दिया करता था, फिर भी तुमने मुझे गिरफ्’तार नहीं किया। यह इसलिए हो रहा है कि धर्मग्रन्थ में जो लिखा है, वह पूरा हो जाये।''
50) तब सभी शिष्य ईसा को छोड़ कर भाग गये।
51) एक युवक, अपने नंगे बदन पर चादर ओढ़े, ईसा के पीछे हो लिया। भीड़ ने उसे पकड़ लिया,
52) किन्तु वह चादर छोड़ कर नंगा ही भाग गया।
53) वे ईसा को प्रधानयाजक के यहाँ ले गये। सभी महायाजक नेता और शास्त्री इकट्ठे हो गये थे।
54) पेत्रुस कुछ दूरी पर ईसा के पीछे-पीछे चला। वह प्रधानयाजक के महल पहुँच कर अन्दर गया और नौकरों के साथ बैठा हुआ आग तापता रहा।
55) महायाजक और सारी महासभा ईसा को मरवा डालने के उद्देश्य से उनके विरुद्ध गवाही खोज रही थी, परन्तु वह मिली नहीं।
56) बहुत-से लोगों ने तो उनके विरुद्ध झूठी गवाही खोज दी, किन्तु उनके बयान मेल नहीं खाते थे।
57) तब कुछ लोग उठ खड़े हो गये और उन्होंने यह कहते हुए उनके विरुद्ध झूठी गवाही दी,
58) ''हमने इस व्यक्ति को ऐसा कहते सुना- मैं हाथ का बनाया हुआ यह मन्दिर ढ़ा दूँगा और तीन दिनों के अन्दर एक दूसरा खड़ा करूँगा, जो हाथ का बनाया हुआ नहीं होगा''।
59) किन्तु इसके विषय में भी उनके बयान मेल नहीं खाते थे।
60) तब प्रधानयाजक ने सभा के बीच में खड़ा हो कर ईसा से पूछा, ''ये लोग तुम्हारे विरुद्ध जो गवाही दे रहे हैं, क्या इसका कोई उत्तर तुम्हारे पास नहीं है''
61) परन्तु ईसा मौन रहे और उत्तर में एक शब्द भी नहीं बोले। इसके बाद प्रधानयाजक ने ईसा से पूछा, ''क्या तुम मसीह, परमस्तुत्य के पुत्र हो?''
62) ईसा ने उत्तर दिया, ''मैं वही हूँ। आप लोग मानव पुत्र को सर्वशक्तिमान् ईश्वर के दाहिने बैठा हुआ और आकाश के बादलों पर आता हुआ देखेंगे।''
63) इस पर महायाजक ने अपने वस्त्र फाड़ कर कहा, ''अब हमें गवाहों की ज’रूरत ही क्या है?
64) आप लोगों ने तो ईश-निन्छा सुनी है। आप लोगों का क्या विचार है?'' और सब का निर्णय यह हुआ कि ईसा प्राणदण्ड के योग्य हैं।
65) तब कुछ लोग उन पर थूकने लगे और उनकी आंखों पर पट्टी बाँध कर यह कहते हुए उन्हें घूँसे मारने लगे, ''यदि तू नबी है, तो बता- तुझे किसने मारा?'' नौकर भी उन्हें थप्पड़ मारते थे।
66) ''पेत्रुस उस समय नीचे प्रांगण में था। प्रधानयाजक की एक नौकरानी ने पास आ कर
67) पेत्रुस को आग तापते हुए देखा और उस पर दृष्टि गड़ा कर कहा, ''तुम भी ईसा नाज’री के साथ थे''
68) किन्तु उसने अस्वीकार करते हुए कहा, ''मैं न तो जानता हूँ और न समझता ही कि तुम क्या कह रही हो''। इसके बाद पेत्रुस फाटक की ओर निकल गया और मुर्गे ने बाँग दी।
69) नौकरानी उसे देख कर पास खड़े लोगों से फिर कहने लगी, ''यह व्यक्ति उन्हीं लोगों में एक है''।
70) किन्तु उसने फिर अस्वीकार किया। इसके थोड़ी देर बाद वहाँ खड़े हुए लोग बोले, ''निश्चय ही तुम उन्हीं लोगों में एक हो- तुम तो गलीली हो''।
71) इस पर पेत्रुस कोसने और शपथ खा कर कहने लगा कि तुम जिस मनुष्य की चर्चा कर रहे हो, मैं उसे जानता भी नहीं।
72) ठीक उसी समय मुर्गे ने दूसरी बार बाँग दी और पेत्रुस को ईसा का यह कहना याद आया- मुर्गे के दो बार बाँग देने से पहले ही तुम मुझे तीन बार अस्वीकार करोगे, और वह फूट-फूट कर रोता रहा।

अध्याय 15

1) दिन निकलते ही महायाजकों, नेताओं और शास्त्रियों अर्थात् समस्त महासभा ने परामर्श किया। इसके बाद उन्होंने ईसा को बाँधा और उन्हें ले जा कर पिलातुस के हवाले कर दिया।
2) पिलातुस ने ईसा से यह पूछा, ''क्या तुम यहूदियों के राजा हो?'' ईसा ने उत्तर दिया, ''आप ठीक ही कहते हैं''।
3) तब महायाजक उन पर बहुत-से अभियोग लगाते रहे।
4) पिलातुस ने फिर ईसा से पूछा, ''देखो, ये तुम पर कितने अभियोग लगा रहे हैं। क्या इनका कोई उत्तर तुम्हारे पास नहीं है?''
5) फिर भी ईसा ने उत्तर में एक शब्द भी नहीं कहा। इस पर पिलातुस को बहुत आश्चर्य हुआ।
6) पर्व के अवसर पर राज्यपाल लोगों की इच्छानुसार एक बन्दी को रिहा किया करता था।
7) उस समय बराबब्स नामक व्यक्ति बन्दीगृह में था। वह उन विद्रोहियों के साथ गिरफ्’तार हुआ था, जिन्होंने राजद्रोह के समय हत्या की थी।
8) जब भीड़ आ कर राज्यपाल से निवेदन करने लगी कि आप जैसा करते आये हैं, वैसा सा ही हमारे लिए करें,
9) तो पिलातुस ने उन से कहा, ''क्या तुम लोग चाहते हो कि मैं तुम्हारे लिए यहूदियों के राजा को रिहा करूँ?''
10) वह जानता था कि महायाजकों ने ईर्ष्या से ईसा को पकड़वाया है।
11) किन्तु महायाजकों ने लोगों को उभाड़ा कि वे बराब्बस की ही रिहाई की माँग करें।
12) पिलातुस ने फिर भीड़ से पूछा, ''तो, मैं इस मनुष्य का क्या करूँ, जिसे तुम यहूदियों का राजा कहते हो?''
13) लोगों ने उत्तर दिया, ''इसे क्रूस दिया जावे''।
14) पिलातुस ने कहा, ''क्यों? इसने कौन-सा अपराध किया?'' किन्तु वे और भी जोर से चिल्ला उठे, ''इसे क्रूस दिया जाये''।
15) तब पिलातुस ने भीड़ की माँग पूरी करने का निश्चय किया। उसने उन लोगों के लिए बराब्बस को मुक्त किया और इसा को कोड़े लगवा कर क्रूस पर चढ़ाने सैनिकों के हवाले कर दिया।
16) इसके बाद सैनिकों ने ईसा को राज्यपाल के भवन के अन्दर ले जा कर उनके पास सारी पलटन एकत्र कर ली।
17) उन्होंने ईसा को लाल चोंगा पहनाया और काँटों का मुकुट गूँथ कर उनके सिर पर रख दिया।
18) तब वे यह कहते हुए उनका अभिवादन करने लगे, ''यहूदियों के राजा, प्रणाम!''
19) वे उनके सिर पर सरकण्डा मारते थे, उन पर थूकते और उनके सामने घुटने टेकते हुए उन्हें प्रणाम करते थे।
20) उनका उपहास करने के बाद उन्होंने चोंगा उतार कर उन्हें उनके निजी कपड़े पहना दिये।
21) वे ईसा को क्रूस पर चढ़ाने के लिए शहर के बाहर ले चले। उन्होंने कुरेने-निवासी सिमोन, सिकन्दर और रूफुस के पिता को, जो खेत से लौट रहा था, ईसा का क्रूस उठा कर चलने के लिए बाध्य किया।
22) वे ईसा को गोलगोथा, अर्थात् खोपड़ी की जगह, ले गये।
23) वहाँ लोग ईसा को गन्धरस मिली अंगूरी पिलाना चाहते थे, किन्तु उन्होंने उसे अस्वीकार किया।
24) उन्होंने ईसा को क्रूस पर चढ़ाया और किसे क्या मिले- इसके लिए चिट्टी डाल कर उनके कपड़े बाँट लिये।
25) जब उन्होंने ईसा को क्रूस पर चढ़ाया उस समय पहला पहर बीत चुका था।
26) दोषपत्र इस प्रकार था-'यहूदियों का राजा'।
27) ईसा के साथ ही उन्होंने दो डाकुओं को क्रूस पर चढ़ाया- एक को उनके दायें और दूसरे को उनके बायें।
28) इस प्रकार धर्मग्रन्थ का यह कथन पूरा हो गया- उसकी गिनती कुकर्मियों में हुई।
29) उधर से आने-जाने वाले लोग ईसा की निन्दा करते और सिर हिलाते हुए यह कहते थे, ''ऐ मन्दिर ढ़ाने वाले और तीन दिनों के अन्दर उसे फिर बना देने वाले!
30) क्रूस से उतर कर अपने को बचा''।
31) महायाजक और शास्’त्री भी उनका उपहास करते हुए आपस में यह कहते थे, ''इसने दूसरों को बचाया, किन्तु यह अपने को नहीं बचा सकता।
32) यह तो मसीह, इस्राएल का राजा है। अब यह क्रूस से उतरे, जिससे हम देख कर विश्वास करें।'' जो ईसा के साथ क्रूस पर चढ़ाये गये थे, वे भी उनका उपहास करते थे।
33) दोहपर से तीसरे पहर तक पूरे प्रदेश पर अँधेरा छाया रहा।
34) तीसरे पहर ईसा ने ऊँचे स्वर से पुकारा, ''एलोई! एलोई! लामा सबाखतानी?'' इसका अर्थ है- मेरे ईश्वर! मेरे ईश्वर! तूने मुझे क्यों त्याग दिया है?
35) यह सुन कर पास खड़े लोगों में से कुछ ने कहा, ''देखो! यह एलियस को बुला रहा है''।
36) उन में से एक ने दौड़ कर पनसोख्ता खट्टी अंगूरी में डुबाया, उसे सरकण्डे में लगाया और यह कहते हुए ईसा को पीने को दिया, ''रहने दो! देखें, एलियस इसे उतारने आता है यहा नहीं''।
37) तब ईसा ने ऊँचे स्वर से पुकार कर प्राण त्याग दिये।
38) मन्दिर का परदा ऊपर से नीचे तक फट कर दो टुकड़े हो गया।
39) शतपति ईसा के सामने खड़ा था। वह उन्हें इस प्रकार प्राण त्यागते देख कर बोल उठा, ''निश्चय ही, यह मनुष्य ईश्वर का पुत्र था''।
40) वहाँ कुछ नारियाँ भी दूर से देख रही थीं। उन मं मरियम मगदलेना, छोटे याकूब और यूसुफ की माता मरियम और सलोमी थीं।
41) जब ईसा गलीलिया में थे, वे उनके साथ रह कर उनकी सेवा-परिचर्या करती थीं। बहुत-सी अन्य नारियाँ भी थीं, जो उनके साथ येरुसालेम आयी थीं।
42) अब सन्ध्या हो गयी थीं। उस दिन शुक्रवार था, अर्थात विश्राम-दिवस के पहले दिन।
43) इसलिए अरिमथिया का यूसुफ़, महासभा का एक सम्मानित सदस्य, जो ईश्वर के राज्य की प्रतीक्षा में था, आया। वह निर्भय हो कर पिलातुस के यहाँ गया और उसने ईसा का शव माँगा।
44) पिलातुस को आश्चर्य हुए कि वह इतने शीघ्र मर गये हैं।
45) उसने शतपति को बुला कर पूछा कि क्या वे मर चुके हैं और शतपित से इसकी सूचना पा कर यूसुफ को शव दिलवाया।
46) यूसुफ ने छालटी का कफ़न खरीदा और ईसा को क्रूस से उतारा। उसने उन्हें कफन में लपेट कर चट्टान में खोदी हुई कब्र में रख दिया और कब्र के द्वार पर एक पत्थर लुढ़का दिया।
47) मरियम मगदलेना और यूसुफ की माता मरियम यह देख रही थीं कि ईसा कहाँ रखे गये हैं।

अध्याय 16

1) विश्राम-दिवस के बाद मरियम और सलोमी ने सुगन्धित द्रव्य खरीदा, ताकि जा कर ईसा के शरीर का विलोपन करें।
2) वे सप्ताह के प्रथम दिन बहुत सबेरे, सूर्योदय होते ही, कब्र पर पहुंचीं।
3) वे आपस में यह कह रही थीं, ''कौन हमारे लिए कब्र के द्वार पर से पत्थर लुढ़का कर हटा देगा?''
4) किन्तु जब उन्होंनं आंखें ऊपर उठा कर देखा, तो पता चला कि वह पत्थर, जो बहुत बड़ा था, अलग लुढ़काया हुआ है।
5) वे कब्र में अन्दर गयीं और यह देख कर चकित-सी रह गयीं कि लम्बा श्वेत वस्त्र पहने एक नवयुवक दाहिने बैठा हुआ है।
6) उसने उन से कहा, ''डरिए नहीं। आप लोग ईसा नाज’री को ढूँढ़ रहीं हैं, जो क्रूस पर चढ़ाये गये थे। वे जी उठे हैं- वे यहाँ नहीं हैं। देखिए, यही जगह है, जहाँ उन्होंने उन को रखा था।
7) जा कर उनके शिष्यों और पेत्रुस से कहिए कि वे आप लोगों से पहले गलीलिया जायेंगे। वहां आप लोग उनके दर्शन करेंगे, जैसा कि उन्होंने आप लोगों से कहा था।''
8) वे आश्चर्यचकित हो कर कांपती हुई कब्र से निकल कर भाग गयीं और उन्होंने डर के मारे किसी से कुछ नहीं कहा।
9) ईसा सप्ताह के प्रथम दिन प्रातः जी उठे। वे पहले मरियम मगदलेना को, जिस से उन्होंने सात अपदूतों को निकाला था, दिखाई दिये।
10) उसने जा कर उनके शोक मनाते और विलाप करते हुए अनुयायियों को यह समाचार सुनाया।
11) किन्तु जब उन्होंने यह सुना कि ईसा जीवित हैं और उसने उन्हें देखा है, तो उन्हें इस पर विश्वास नहीं हुआ।
12) इसके बाद ईसा दूसरे वेश में उन में दो को दिखाई दिये, जो पैदल देहात जा रहे थे।
13) उन्होंने लौट कर शेष शिष्यों को यह समाचार सुनाया, किन्तु शिष्यों को उन दोनों पर भी विश्वास नहीं हुआ।
14) बाद में ईसा ग्यारहों को उनके भोजन करते समय दिखाई दिये और उन्होंने उनके अविश्वास और उनकी हठधर्मी की निन्दा की; क्योंकि उन्होंने उन लागों पर विश्वास नहीं किया था, जिन्होंने ईसा को पुनर्जीवित देखा था।
15) इसके बाद ईसा ने उन से कहा, ''संसार के कोने-कोने में जाकर सारी सृष्टि को सुसमाचार सुनाओ।
16) जो विश्वास करेगा और बपतिस्मा ग्रहण करेगा, उसे मुक्ति मिलेगी। जो विश्वास नहीं करेगा, वह दोषी ठहराया जायेगा।
17) विश्वास करने वाले ये चमत्कार दिखाया करेंगे। वे मेरा नाम ले कर अपदूतों को निकालेंगे, नवीन भाषाएं बोलेंगे
18) और सांपों को उठा लेंगे। यदि वे विष पियेंगे, तो उस से उन्हें कोई हानि नहीं होगी। वे रोगियों पर हाथ रखेंगे और रोगी स्वस्थ हो जायेंगे।''
19) प्रभु ईसा अपने शिष्यों से बातें करने के बाद स्वर्ग में आरोहित कर लिये गये और ईश्वर के दाहिने विराजमान हो गये।
20) शिष्यों ने जा कर सर्वत्र सुसमाचार का प्रचार किया। प्रभु उनकी सहायता करते रहे और साथ-साथ घटित होने वाले चमत्कारों द्वारा उनकी शिक्षा को प्रमाणित करते रहे।