पवित्र बाइबिल : Pavitr Bible ( The Holy Bible )

नया विधान : Naya Vidhan ( New Testament )

सन्त मत्ती ( Matthew )

अध्याय 1

1) इब्राहीम की सन्तान, दाऊद के पुत्र, ईसा मसीह की वंशावली।
2) इब्राहीम से इसहाक उत्पन्न हुआ, इसहाक से याकूब, याकूब से यूदस और उसके भाई,
3) यूदस और थामर से फ़’ारेस और ज’’ारा उत्पन्न हुए। फ़’ारेस से एस्रोम, एस्रोम से अराम,
4) अराम से अमीनदाब, अमीनदाब से नास्सोन, नास्सोन से सलमोन,
5) सलमोन और रखाब से बोज’’, बोज’’’’ और रूथ से ओबेद, ओबेद से येस्से,
6) येस्से से राजा दाऊद उत्पन्न हुआ। दाऊद और उरियस की विधवा से सुलेमान उत्पन्न हुआ।
7) सुलेमान से रोबोआम, रोबोआम से अबीया, अबीया से आसफ़’,
8) आसफ़’ से योसफ़’ात, योसफ़’ात से योराम, योराम से ओजि’यस,
9) ओजि’’यस से योअथाम, योअथाम से अख़’ाज’’, अख़’ाज’’ से एजि’’कीअस,
10) एजि’कीअस, से मनस्सेस, मनस्सेस से आमोस, आमोस से योसियस
11) और बाबुल - निर्वासन के समय योसिअस से येख़’ोनिअस और उसके भाई उत्पन्न हुए।
12) बाबुल - निर्वासन के बाद येख़’ोनिअस से सलाथिएल उत्पन्न हुआ। सलाथिएल से ज’’ोरोबबेल,
13) ज’ोरोबबेल से अबियुद, अबियुद से एलियाकिम, एलियाकिम से आज’’ोर,
14) आज’’ोर से सादोक, सादोक से आख़ि’म, आख़ि’म से एलियुद,
15) एलियुद से एलियाज’’ार, एलियाज’’ार से मत्थान, मत्थान से याकूब,
16) याकूब से मरियम का पति यूसुफ़’, और मरियम से ईसा उत्पन्न हुए, जो मसीह कहलाते हैं।
17) इस प्रकार इब्राहीम से दाऊद तक कुल चौदह पीढ़ियॉं हैं, दाउद से बाबुल- निर्वाचन तक चौदह पीढ़ियॉं और बाबुल -निर्वासन से मसीह तक चौदह पीढ़ियॉं।
18) ईसा मसीह का जन्म इस प्रकार हुआ। उनकी माता मरियम की मँगनी यूसुफ से हुई थी, परंतु ऐसा हुआ कि उनके एक साथ रहने से पहले ही मरियम पवित्र आत्मा से गर्भवती हो गयी।
19) उसका पति यूसुफ चुपके से उसका परित्याग करने की सोच रहा था, क्योंकि वह धर्मी था और मरियम को बदनाम नहीं करना चाहता था।
20) वह इस पर विचार कर ही रहा था कि उसे स्वप्न में प्रभु का दूत यह कहते दिखाई दिया, ''यूसुफ! दाऊद की संतान! अपनी पत्नी मरियम को अपने यहॉ लाने में नहीं डरे,क्योंकि उनके जो गर्भ है, वह पवित्र आत्मा से है।
21) वे पुत्र प्रसव करेंगी और आप उसका नाम ईसा रखेंगें, क्योंकि वे अपने लोगों को उनके पापों से मुक्त करेगा।''
22) यह सब इसलिए हुआ कि नबी के मुख से प्रभु ने जो कहा था, वह पूरा हो जाये -
23) देखो, एक कुँवारी गर्भवती होगी और पुत्र प्रसव करेगी, और उसका नाम एम्मानुएल रखा जायेगा, जिसका अर्थ हैः ईश्वर हमारे साथ है।
24) यूसुफ नींद से उठ कर प्रभु के दूत की आज्ञानुसार अपनी पत्नी को अपने यहाँ ले आया।
25) यूसुफ का उस से तब तक संसर्ग नहीं हुआ, जब तक उसने पुत्र प्रसव नहीं किया और यूसुफ ने उसका नाम ईसा रखा।

अध्याय 2

1) ईसा का जन्म यहूदिया के बेथलेहेम में राजा हेरोद के समय हुआ था। इसके बाद ज्योतिषी पूर्व से येरुसालेम आये।
2) और यह बोले, '' यहूदियों के नवजात राजा कहाँ हैं? हमने उनका तारा उदित होते देखा। हम उन्हें दण्डवत् करने आये हैं।''
3) यह सुन कर राजा हेरोद और सारा येरुसालेम घबरा गया।
4) राजा ने सब महायाजकों और यहूदी जाति के शास्त्रियों की सभा बुला कर उन से पूछा, '' मसीह कहाँ जन्म लेंगें?''
5) उन्होंने उत्तर दिया, ''यहूदिया के बेथलेहेम में, क्योंकि नबी ने इसके विषय में लिखा है-
6) ''बेथलेहेम यूदा की भूमि! तू यूदा के प्रमुख नगरों में किसी से कम नहीं है; क्योंकि तुझ में एक नेता उत्पन्न होगा, जो मेरी प्रजा इस्राइल का चरवाहा बनेगा।''
7) हेरोद ने बाद में ज्योतिषियों को चुपके से बुलाया और उन से पूछताछ कर यह पता कर लिया कि वह तारा ठीक किस समय उन्हें दिखाई दिया था।
8) फिर उसने उन्हें बेथलेहेम भेजते हुए कहा, जाइए, बालक का ठीक-ठीक पता लगाइए और उसे पाने पर मुझे खबर दीजिए, जिससे मैं भी जा कर दण्डवत् करूँ।
9) वे राजा की बात मानकर चल दिए। उन्होंने जिस तारे को उदित होते देखा था, वह उनके आगे आगे चलता रहा, और जहाँ बालक था उस जगह के ऊपर पहुँचने पर ठहर गया।
10) वे तारा देख कर बहुंत आनन्दित हुए।
11) घर में प्रवेश कर उन्होंने बालक को उसकी माता मरियम के साथ देखा और उसे साष्टांग प्रणाम किया। फिर अपना-अपना सन्दूक खोलकर उन्होंने उसे सोना, लोबान और गंधरस की भेट चढ़ायी।
12) उन्हें स्वप्न में यह चेतावनी मिली के वे हेरोद के पास नहीं लौटें, इसलिए वे दूसरे रास्ते से अपने देश चले गये।
13) उनके जाने के बाद प्रभु का दूत युसुफ़ को स्वप्न में दिखाई दिया और यह बोला ''उठिए! बालक और उसकी माता को लेकर मिस्र देश भाग जाइए। जब तक में आप से न कहूँ वहीं रहिए क्योंकि हेरोद मरवा डालने के लिए बालक को ढूँढ़ने वाला है।
14) यूसुफ उठा और उसी रात बालक और उसकी माता को ले कर मिस्र देश चल दिया।
15) वह हेरोद की मृत्यु तक वहीं रहा जिससे नबी के मुख से प्रभु ने जो कहा था, वह पूरा हो जाये - मैंने मिस्र देश से अपने पुत्र को बुलाया।
16) हेरोद को यह देख कर बहुत क्रोध आया कि ज्योतिषियों ने मुझे धोखा दिया है। उसने प्यादों को भेजा और ज्योतिषियों से ज्ञात समय के अनुसार बेथलेहेम और आसपास के उन सभी बालकों को मरवा डाला, जो दो बरस के या और भी छोटे थे।
17) तब नबी येरेमियस का यह कथन पूरा हुआ-
18) रामा में रूदन और दारुण विलाप सुनाई दिया, राखेल अपने बच्चों के लिए रो रही है, और अपने आँसू किसी को पोंछने नहीं देती क्योंकि वे अब नहीं रहे।
19) हेरोद की मृत्यु के बाद प्रभु का दूत मिस्र देश में यूसुफ को स्वप्न में दिखाई दिया और
20) यह बोला, ''उठिए! बालक और उसकी माता को ले कर इस्राएल देश चले जाइए, क्योंकि वे जो बालक के प्राण लेना चाहते थे मर चुके हैं।''
21) यूसुफ उठा और बालक तथा उसकी माता को ले कर इस्राइल देश चला आया।
22) उसने सूना कि अरखेलौस अपने पिता के स्थान पर यहूदिया में राज्य करता है; इसलिए उसे वहाँ जानेे मेंं डर लगा और स्वप्न में वह चेतावनी पा कर गलीलिया चला गया।
23) वहाँ वह नाज’रेत नामक नगर में जा बसा। इस प्रकार नबियों का यह कथन पूरा हुआ - यह नाज’री कहलायेगा।

अध्याय 3

1) उन दिनों योहन बपतिस्ता प्रकट हुआ, जो यहूदिया के निर्जन प्रदेश में यह उपदेश देता था,
2) ''पश्चात्ताप करो। स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है।''
3) यह वही था जिसके विषय में नबी इसायस ने कहा था निर्जन प्रदेश में पुकारने वाले की आवाज-प्रभु का मार्ग तैयार करो; उसके पथ सीधे कर दो।
4) योहन ऊँट के रोओं का कपड़ा पहने और कमर में चमडे’ का पट्टा बाँधे रहता था। उसका भोजन टिड्डियाँ और वन का मधु था।
5) येरुसालेम, सारी यहूदिया और समस्त प्रान्त के लोग योहन के पास आते थे।
6) और अपने पाप स्वीकार करते हुए यर्दन नदी में उस से बपतिस्मा ग्रहण करते थे।
7) बहुत-से फ़रीसियों और सदूकियों को बपतिस्मा के लिए आते देख कर योहन ने उन से कहा, ''सॉप के बच्चों! किसने तुम लोगों को आगामी कोप से भागने के लिए सचेत किया ?
8) पश्चाताप का उचित फल उत्पन्न करो।
9) और यह न सोचा करो- हम इब्राहीम की संतान हैं, मैं तुम लोगों से कहता हूँ- ईश्वर इन पत्थरों से इब्राहीम के लिए संतान उत्पन्न कर सकता है।
10) अब पेड़ों की जड़ में कुल्हाड़ा लग चुका है। जो पेड़ अच्छा फल नहीं देता, वह काटा और आग में झोंक दिया जायेगा।
11) मैं तुम लोगों को जल से पश्चात्ताप का बपतिस्मा देता हूँ ; किन्तु जो मेरे बाद आने वाले हैं, वे मुझ से अधिक शक्तिशाली हैं। मैं उनके जूते उठाने योग्य भी नहीं हूँ। वे तुम्हें पवित्र आत्मा और आग से बपतिस्मा देंगे।
12) वे हाथ में सूप ले चुके हैं, जिससे वे अपना खलिहान ओसा कर साफ करें। वे अपना गेहूँ बखार में जमा करेंगे। वे भूसी को न बुझने वाली आग में जला देंगे।
13) उस समय, ईसा योहन से बपतिस्मा लेने के लिए गलीलिया में यर्दन के तट पहुँचे।
14) योहन ने यह कहते हुए उन्हें रोकना चाहा, ''मुझे तो आप से बपतिस्मा लेने की ज’रूरत है और आप मेरे पास आते हैं?
15) परन्तु ईसा ने उसे उत्तर दिया, ''अभी ऐसा ही होने दीजिए। यह हमारे लिए उचित हैं कि हम इस तरह धर्म विधि पूरी करें।'' इस पर योहन ने ईसा कि बात मान ली।
16) बपतिस्मा के बाद ईसा तुरन्त जल से बाहर निकले। उसी समय स्वर्ग खुल गया और उन्होंने ईश्वर के आत्मा को कपोत के रूप में उतरते और अपने ऊपर ठहरते देखा।
17) और स्वर्ग से यह वाणी सुनाई दी, ''यह मेरा प्रिय पुत्र है। मैं इस पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ।''

अध्याय 4

1) उस समय आत्मा ईसा को निर्जन प्रदेश ले चला, जिससे शैतान उनकी परीक्षा ले ले।
2) ईसा चालीस दिन और चालीस रात उपवास करते रहे। इसके बाद उन्हें भूख लगी
3) और परीक्षक ने पास आ कर उन से कहा, ''यदि आप ईश्वर के पुत्र हैं, तो कह दीजिए कि ये पत्थर रोटियाँ बन जायें''।
4) ईसा ने उत्तर दिया, ''लिखा है- मनुष्य रोटी से ही नहीं जीता है। वह ईश्वर के मुख से निकलने वाले हर एक शब्द से जीता है।''
5) तब शैतान ने उन्हें पवित्र नगर ले जाकर मंदिर के शिखर पर खड़ा कर दिया।
6) और कहा, यदि आप ईश्वर के पुत्र हैं तो नीचे कूद जाइए; क्योंकि लिखा है- तुम्हारे विषय में वह अपने दूतों को आदेश देगा। वे तुम्हें अपने हाथों पर सॅभाल लेंगे कि कहीं तुम्हारे पैरों को पत्थर से चोट न लगे।''
7) ईसा ने उस से कहा, ''यह भी लिखा है- अपने प्रभु-ईश्वर की परीक्षा मत लो''।
8) फिर शैतान उन्हें एक अत्यन्त ऊँचे पहाड़ पर ले गया और संसार के सभी राज्य और उनका वैभव दिखला कर
9) बोला, ''यदि आप दण्डवत् कर मेरी आराधना करें, तो मैं आपको यह सब दे दूॅंगा''!
10) ईसा ने उत्तर दिया हट जा शैतान! लिखा है अपने प्रभु- ईश्वर की आराधना करो, और केवल उसी की सेवा करो।''
11) इस पर शैतान उन्हें छोड़ कर चला गया, और र्स्वगदूत आ कर उनकी सेवा-परिचर्या करते रहे।
12) ईसा ने जब यह सुना कि योहन गिरफ्तार हो गया है, तो वे गलीलिया चले गये।
13) वे नाज’रेत नगर छोड कर, ज’बुलोन और नफ्ताली के प्रान्त में, समुद्र के किनारे बसे हुए कफ़रनाहूम नगर में रहने लगे।
14) इस तरह नबी इसायस का यह कथन पूरा हुआ-
15) ज’बुलोन प्रान्त! नफ्ताली प्रान्त! समुद्र के पथ पर, यर्दन के उस पार, ग़ैर-यहूदियों की गलीलिया! अंधकार में रहने
16) वाले लोगों ने एक महती ज्योति देखी; मृत्यु के अन्धकारमय प्रदेश में रहने वालों पर ज्योति का उदय हुआ।
17) उस समय से ईसा उपदेश देने और यह कहने लगे, ''पश्चात्ताप करो। स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है।''
18) गलीलिया के समुद्र के किनारे टहलते हुए ईसा ने दो भाइयों को देखा-सिमोन, जो पेत्रुस कहलाता है, और उसके भाई अन्द्रेयस को। वे समुद्र में जाल डाल रहे थे, क्योंकि वे मछुए थे।
19) ईसा ने उन से कहा, ''मेरे पीछे चले आओ। मैं तुम्हें मनुष्यों के मछुए बनाऊँगा।''
20) वे तुरंत अपने जाल छोड़ कर उनके पीछे हो लिए।
21) वहाँ से आगे बढ़ने पर ईसा ने और दो भाइयों को देखा- जे’बेदी के पुत्र याकूब और उसके भाई योहन को। वे अपने पिता जे’बेदी के साथ नाव में अपने जाल मरम्मत कर रहे थे।
22) ईसा ने उन्हें बुलाया। वे तुरंत नाव और अपने पिता को छोड़ कर उनके पीछे हो लिये।
23) ईसा उनके सभागृहों में शिक्षा देते, राज्य के सुसमाचार का प्रचाार करते और लोगों की हर तरह की बीमारी और निर्बलता दूर करते हुए, सारी गलीलिया में घूमते रहते थे।
24) उनका नाम सारी सीरिया में फैल गया। लोग मिर्गी, लक़वा आदि नाना प्रकार की बीमारियों और कष्टों से पीड़ित सब रोगियों को और अपदूतग्रस्तों को ईसा के पास ले आते और वे उन्हें चंगा करते थे।
25) गलीलिया, देकापोलिस, येरुसालेम, यहूदिया और यर्दन के उस पार से आया हुआ एक विशाल जनसमूह उनके पीछे-पीछे चलता था।

अध्याय 5

1) ईसा यह विशाल जनसमूह देखकर पहाड़ी पर चढ़े और बैठ गए उनके शिष्य उनके पास आये।
2) और वे यह कहते हुए उन्हें शिक्षा देने लगेः
3) ''धन्य हैं वे, जो अपने को दीन-हीन समझते हैं! स्वर्गराज्य उन्हीं का है।
4) धन्य हैं वे जो नम्र हैं! उन्हें प्रतिज्ञात देश प्राप्त होगा।
5) धन्य हैं वे, जो शोक करते हैं! उन्हें सान्त्वना मिलेगी।
6) घन्य हैं, व,े जो धार्मिकता के भूखे और प्यासे हैं! वे तृप्त किये जायेंगे।
7) धन्य हैं वे, जो दयालू हैं! उन पर दया की जायेगी।
8) धन्य हैं वे, जिनका हृदय निर्मल हैं! वे ईश्वर के दर्शन करेंगे।
9) धन्य हैं वे, जो मेल कराते हैं! वे ईश्वर के पुत्र कहलायेंगे।
10) धन्य हैं वे, जो धार्मिकता के कारण अत्याचार सहते हैं! स्वर्गराज्य उन्हीं का है।
11) र््रेंधन्य हो तुम जब लोग मेरे कारण तुम्हारा अपमान करते हैं, तुम पर अत्याचार करते हैं और तरह-तरह के झूठे दोष लगाते हैं।
12) खुश हो और आनन्द मनाओ स्वर्ग में तुम्हें महान् पुरस्कार प्राप्त होगा। तुम्हारे पहले के नबियों पर भी उन्होंने इसी तरह अत्याचार किया।
13) ''तुम पृथ्वी के नमक हो। यदि नमक फीका पड़ जाये, तो वह किस से नमकीन किया जायेगा? वह किसी काम का नहीं रह जाता। वह बाहर फेंका और मनुष्यों के पैरों तले रौंदा जाता है।
14) ''तुम संसार की ज्योति हो। पहाड़ पर बसा हुआ नगर छिप नहीं सकता।
15) लोग दीपक जला कर पैमाने के नीचे नहीं, बल्कि दीवट पर रखते हैं, जहाँ से वह घर के सब लोगों को प्रकाश देता है।
16) उसी प्रकार तुम्हारी ज्योति मनुष्यों के सामने चमकती रहे, जिससे वे तुम्हारे भले कामों को देख कर तुम्हारे स्वर्गिक पिता की महिमा करें।
17) ''यह न समझो कि मैं संहिता अथवा नबियों के लेखों को रद्द करने आया हूँ। उन्हें रद्द करने नहीं, बल्कि पूरा करने आया हूँ।
18) मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- आकाश और पृथ्वी भले ही टल जाये, किन्तु संहिता की एक मात्रा अथवा एक बिन्दु भी पूरा हुए बिना नहीं टलेगा।
19) इसलिए जो उन छोटी-से-छोटी आज्ञाओं में एक को भी भंग करता और दूसरों को ऐसा करना सिखाता है, वह र्स्वगराज्य में छोटा समझा जायेगा। जो उनका पालन करता और उन्हें सिखाता है, वह स्वर्गराज्य में बड़ा समझा जायेगा।
20) मैं तुम लोगों से कहता हूँ-यदि तुम्हारी धार्मिकता शास्त्रियों और फ़रीसियों की धार्मिकता से गहरी नहीं हुई, तो तुम स्वर्गराज्य में प्रवेश नहीं करोगे।
21) ''तुम लोगों ने सुना है कि पूर्वजों से कहा गया है- हत्या मत करो। यदि कोई हत्या करे, तो वह कचहरी में दण्ड के योग्य ठहराया जायेगा।
22) परन्तु मैं तुम से यह कहता हूँ-जो अपने भाई पर क्रोध करता है, वह कचहरी में दण्ड के योग्य ठहराया जायेगा। यदि वह अपने भाई से कहे, 'रे मूर्ख! तो वह महासभा में दण्ड के योग्य ठहराया जायेगा और यदि वह कहे, 'रे नास्तिक! तो वह नरक की आग के योग्य ठहराया जायेगा।
23) ''जब तुम वेदी पर अपनी भेंट चढ़ा रहे हो और तुम्हें वहॉंं याद आये कि मेरे भाई को मुझ से कोई शिकायत है,
24) तो अपनी भेंट वहीं वेदी के सामने छोड़ कर पहले अपने भाई से मेल करने जाओ और तब आ कर अपनी भेंट चढ़ाओ।
25) ''कचहरी जाते समय रास्ते में ही अपने मुद्दई से समझौता कर लो। कहीं ऐसा न हो कि वह तुम्हें न्यायाकर्ता के हवाले कर दे, न्यायाकर्ता तुम्हें प्यादे के हवाले कर दे और प्यादा तुम्हें बन्दीग्रह में डाल दे।
26) मैं तुम से यह कहता हूँ- जब तक कौड़ी-कौड़ी न चुका दोगे, तब तक वहाँ से नहीं निकल पाओगे।
27) तुम लोगों ने सुना है कि कहा गया है - व्यभिचार मत करो।
28) परन्तु मैं तुम से कहता हूँ-जो बुरी इच्छा से किसी स्त्री पर दृष्टि डालता है वह अपने मन में उसके साथ व्यभिचार कर चुका है।
29) ''यदि तुम्हारी दाहिनी आँख तुम्हारे लिए पाप का कारण बनती है, जो उसे निकाल कर फेंक दो। अच्छा यही है कि तुम्हारे अंगों में से एक नष्ट हो जाये, किन्तु तुम्हारा सारा शरीर नरक में न डाला जाये।
30) और यदि तुम्हारा दाहिना हाथ तुम्हारे लिए पाप का कारण बनता है, तो उसे काट कर फेंक दो। अच्छा यही है कि तुम्हारे अंगों में से एक नष्ट हो जाये, किन्तु तुम्हारा सारा शरीर नरक में न जाये।
31) ''यह भी कहा गया है- जो अपनी पत्नी का परित्याग करता है, वह उसे त्याग पत्र दे दे।
32) परंतु मैं तुम से कहता हूँ- व्यभिचार को छोड़ किसी अन्य कारण से जो अपनी पत्नी का परित्याग करता है, वह उस से व्यभिचार कराता है और जो परित्यक्ता से विवाह करता है, वह व्यभिचार करता है।
33) तुम लोगों ने यह भी सुना है कि पूर्वजों से कहा गया है -झूठी शपथ मत खाओ। प्रभु के सामने खायी हुई शपथ पूरी करो।
34) परतु मैं तुम से कहता हूँ: शपथ कभी नहीं खाना चाहिए- न तो स्वर्ग की, क्योंकि वह ईश्वर का सिंहासन है; न पृथ्वी की, क्योंकि वह उसका पाव दान है; न येरुसालेम की, क्योंकि वह राजाधिराज का नगर है।
35) न पृथवी की, क्योंकि वह उसका पावदान है और न येरुसालेम की, क्योंकि वह राजाधिराज का नगर है।
36) और न अपने सिर की, क्योंकि तुम इसका एक भी बाल सफेद या काला नहीं कर सकते।
37) तुमहारी बात इतनी हो-हाँ की हाँ, नहीं की नहीं। जो इससे अधिक है, वह बुराई से उत्पन्न होता है।
38) तुम लोगों ने सुना है कि कहा गया है- आँख के बदले आँख, दाँत के बदले दाँत।
39) परंतु मैं तुम से कहता हूँ दुष्ट का सामना नहीं करो। यदि कोई तुम्हारे दाहिने गाल पर थप्पड मारे, तो दूसरा भी उसके सामने कर दो।
40) जो मुक़दमा लड़ कर तुम्हारा कुरता लेना चाहता है, उसे अपनी चादर भी ले लेने दो।
41) और यदि कोई तुम्हें आधा कोस बेगार में ले जाये, तो उसके साथ कोस भर चले जाओ।
42) जो तुम से माँगता है, उसे दे दो जो तुम से उधार लेना चाहता है, उस से मुँह न मोड़ो।
43) ''तुम लोगों ने सुना है कि कहा गया है- अपने पड़ोसी से प्रेम करो और अपने बैरी से बैर।
44) परन्तु में तुम से कहता हूँ- अपने शत्रुओं से प्रेम करों और जो तुम पर अत्याचार करते हैं, उनके लिए प्रार्थना करो।
45) इस से तुम अपने स्वर्गिक पिता की संतान बन जाओगे; क्योंकि वह भले और बुरे, दोनों पर अपना सूर्य उगाता तथा धर्मी और अधर्मी, दोनों पर पानी बरसाता है।
46) यदि तुम उन्हीं से प्रेम करत हो, जो तुम से प्रेम करते हैं, तो पुरस्कार का दावा कैसे कर सकते हो? क्या नाकेदार भी ऐसा नहीं करते ?
47) और यदि तुम अपने भाइयों को ही नमस्कार करते हो, तो क्या बडा काम करते हो? क्या गै’र -यहूदी भी ऐसा नहीं करते?
48) इसलिए तुम पूर्ण बनो, जैसा तुम्हारा स्वर्गिक पिता पूर्ण है।

अध्याय 6

1) ''सावधान रहो। लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए अपने धर्मकार्यो का प्रदर्शन न करो, नहीं तो तुम अपने स्वर्गिक पिता के पुरस्कार से वंचित रह जाओगे।
2) जब तुम दान देते हो, तो इसका ढिंढोरा नहीं पिटवाओ। ढोंगी सभागृहों और गलियों में ऐसा ही किया करते हैं, जिससे लोग उनकी प्रशंसा करें। मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- वे अपना पुरस्कार पा चुके हैं।
3) जब तुम दान देते हो, तो तुम्हारा बायाँ हाथ यह न जानने पाये कि तुम्हारा दायाँ हाथ क्या कर रहा है।
4) तुम्हारा दान गुप्त रहे और तुम्हारा पिता, जो सब कुछ देखता है, तुम्हें पुरस्कार देगा।
5) ''ढोगियों की तरह प्रार्थना नहीं करो। वे सभागृहों में और चौकों पर खड़ा हो कर प्रार्थना करना पंसद करते हैं, जिससे लोग उन्हें देखें। मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- वे अपना पुरस्कार पा चुके हैं।
6) जब तुम प्रार्थना करते हो, तो अपने कमरें में जा कर द्वार बंद कर लो और एकान्त में अपने पिता से प्रार्थना करो। तुम्हारा पिता, जो एकांत को भी देखता है, तुम्हें पुरस्कार देगा।
7) ''प्रार्थना करते समय ग़ैर-यहूदियों की तरह रट नहीं लगाओ। वे समझते हैं कि लम्बी-लम्बी प्रार्थनाएँ करने से हमारी सुनवाई होती है।
8) उनके समान नहीं बनो, क्योंकि तुम्हारे माँगने से पहले ही तुम्हारा पिता जानता है कि तुम्हें किन किन चीज’ों की ज’रूरत है।
9) तो इस प्रकार प्रार्थना किया करो- स्वर्ग में विराजमान हमारे पिता! तेरा नाम पवित्र माना जाये।
10) तेरा राज्य आये। तेरी इच्छा जैसे स्वर्ग में, वैसे पृथ्वी पर भी पूरी हो।
11) आज हमारा प्रतिदिन का आहार हमें दे।
12) हमारे अपराध क्षमा कर, जैसे हमने भी अपने अपराधियों को क्षमा किया है।
13) और हमें परीक्षा में न डाल, बल्कि बुराई से हमें बचा।
14) यदि तुम दूसरों के अपराध क्षमा करोगे, तो तुम्हरा स्वर्गिक पिता भी तुम्हें क्षमा करेगा।
15) परन्तु यदि तुुम दूसरों को क्षमा नहीं करोगे, तो तुम्हारा पिता भी तुम्हारे अपराध क्षमा नहीं करेगा।
16) ढोंगियों की तरह मुँह उदास बना कर उपवास नहीं करो। वे अपना मुँह मलिन बना लेते हैं, जिससे लोग यह समझें कि वे उपवास कर रहें हैं। मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- वे अपना पुरस्कार पा चुके हैं।
17) जब तुम उपवास करते हो, तो अपने सिर में तेल लगाओ और अपना मुँह धो लो,
18) जिससे लोगों को नहीं, केवल तुम्हारे पिता को, जो अदृश्य है, यह पता चले कि तुम उपवास कर रहे हो। तुम्हारा पिता, जो अदृश्य को भी देखता है, तुम्हें पुरस्कार देगा।
19) पृथ्वी पर अपने लिए पूँजी जमा नहीं करो, जहाँ मोरचा लगता है, कीडे’ खाते हैं और चोर सेंध लगा कर चुराते हैं।
20) स्वर्ग में अपने लिए पूँजी जमा करो, जहाँ न तो मोरचा लगता है, न कीड़े खाते हैं और न चोर सेंध लगा कर चुराते हैं।
21) क्योंकि जहाँ तुम्हारी पूँजी है, वही तुम्हारा हृद्य भी होगा।
22) आँख शरीर का दीपक है। यदि तुम्हारी आँख अच्छी है, तो तुम्हारा सारा शरीर प्रकाशमान होगा;
23) किन्तु यदि तुम्हारी आँख बीमार है, तो तुम्हारा सारा शरीर अंधकारमय होगा। इसलिए जो ज्योति तुम में है, यदि वही अंधकार है, तो यह कितना घोर अंधकार होगा!
24) ''कोई भी दो स्वामियों की सेवा नहीं कर सकता। वह या तो एक से बैर और दूसरे से प्रेम करेगा, या एक का आदर और दूसरे का तिरस्कार करेगा। तुम ईश्वर और धन-दोनों की सेवा नहीं कर सकते।
25) मैं तुम लोगों से कहता हूँ, चिन्ता मत करो- न अपने जीवन-निर्वाह की, कि हम क्या खायें और न अपने शरीर की, कि हम क्या पहनें। क्या जीवन भोजन से बढ कर नहीं ? और क्या शरीर कपडे से बढ़ कर नहीं?
26) आकाश के पक्षियों को देखो। वे न तो बोते हैं, न लुनते हैं और न बखारों में जमा करते हैं। फिर भी तुम्हारा स्वर्गिक पिता उन्हें खिलाता है, क्या तुम उन से बढ़ कर नहीं हो?
27) चिंता करने से तुम में से कौन अपनी आयु घड़ी भर भी बढा सकता है?
28) और कपडों की चिन्ता क्यों करते हो? खेत के फूलों को देखो। वे कैसे बढ़ते हैं! वे न तो श्रम करते हैं और न कातते हैं।
29) फिर भी मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि सुलेमान अपने पूरे ठाट-बाट में उन में से एक की भी बराबरी नहीं कर सकता था।
30) रे अल्पविश्वासियों! खेत की घास आज भर है और कल चूल्हे में झोंक दी जायेगी। यदि उसे भी ईश्वर इस प्रकार सजाता है, तो वह तुम्हें क्यों नहीं पहनायेगा?
31) इसलिए यह कहते हुए चिंता मत करो- हम क्या खायें, क्या पियें, क्या पहनें।
32) इन सब चीजों की खोज में गैर-यहूदी लगे रहते हैं। तुम्हारा स्वर्गिक पिता जानता है कि तुम्हें इन सभी चीजों की ज’रूरत है।
33) तुम सब से पहले ईश्वर के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज में लगे रहो और ये सब चीजें, तुम्हें यों ही मिल जायेंगी।
34) कल की चिन्ता मत करो। कल अपनी चिन्ता स्वयं कर लेगा। आज की मुसीबत आज के लिए बहुत है।

अध्याय 7

1) ''दोष नहीं लगाओ, जिससे तुम पर भी दोष न लगाया जाये;
2) क्योंकि जिस प्रकार तुम दोष लगाते हो, उसी प्रकार तुम पर भी दोष लगाया जायेगा और जिस नाप से तुम नापते हो, उसी से तुम्हारे लिए भी नापा जायेगा।
3) जब तुम्हें अपनी ही आँख की धरन का पता नहीं, तो तुम अपने भाई की आँख का तिनका क्यों देखते हो?
4) जब तुम्हारी ही आँख में धरन है, तो तुम अपने भाई से कैसे कह सकते हो, 'मैं तुम्हारी आँख का तिनका निकाल दूँ?'
5) रे ढोंगी! पहले अपनी ही आँख की धरन निकालो। तभी अपने भाई की आँख का तिनका निकालने के लिए अच्छी तरह देख सकोगे।
6) ''पवित्र वस्तु कुत्तों को मत दो और अपने मोती सूअरों के सामने मत फेंको। कहीं ऐसा न हो कि वे उन्हें अपने पैरों तले कुचल दें और पलट की तुम्हें फाड़ डालें।
7) ''माँगो और तुम्हें दिया जायेगा; ढूँढ़ों और तुम्हें मिल जायेगा; खटखटाओं और तुम्हारे लिए खोला जायेगा।
8) क्योकि जो माँगता है, उसे दिया जाता है; जो ढूॅढता है, उसे मिल जाता है और जो खटखटता है, उसके लिए खोला जाता है।
9) ''यदि तुम्हारा पुत्र तुम से रोटी माँगे, तो तुम में ऐसा कौन है जो उसे पत्थर देगा?
10) अथवा मछली मँागे, तो उसे सँाप देगा?
11) बुरे होने पर भी यदि तुम लोग अपने बच्चों को सहज ही अच्छी चीजें देते हो, तो तुम्हारा स्वर्गिक पिता माँगने वालों को अच्छी चीजें क्यों नहीं देगा?
12) ''दूसरों से अपने प्रति जैसा व्यवहार चाहते हो, तुम भी उनके प्रति वैसा ही किया करो। यही संहिता और नबियों की शिक्षा है।
13) ''सॅकरे द्वार से प्रवेश करो। चौड़ा है वह फाटक और विस्तृत है वह मार्ग, जो विनाश की ओर ले जाता है। उस पर चलने वालों की संख्या बड़ी है।
14) किन्तु सॅकरा है वह द्वार और संकीर्ण है वह मागर्, जो जीवन की ओर ले जाता है। जो उसे पाते है,ं उनकी संख्या थोड़ी है।
15) ''झूठे नबियों से सावधान रहो। वे भेड़ों के वेश में तुम्हारे पास आते हैं, किन्तु वे भीतर से खूँखार भेड़िये हैं।
16) उनके फलों से तुम उन्हें पहचान जाओगे। क्या लोग कँटीली झाड़ियों से अंगूर या ऊँट-कटारों से अंजीर तोड़ते हैं?।
17) इस तरह हर अच्छा पेड़ अच्छे फल देता है और बुरा पेड़ बुरे फल देता है।
18) अच्छा पेड़ बुरे फल नहीं दे सकता और न बुरा पेड़ अच्छे फल।
19) जो पेड़ अच्छा फल नहीं देता, उसे काटा और आग में झोंक दिया जाता है।
20) इसलिए उनके फलों से तुम उन्हें पहचान जाओगे।
21) ''जो लोग मुझे 'प्रभु ! प्रभु ! कह कर पुकारते हैं, उन में सब-के-सब स्वर्ग-राज्य में प्रवेश नहीं करोगे। जो मेरे स्वर्गिक पिता की इच्छा पूरी करता है, वही स्वर्गराज्य में प्रवेश करेगा।
22) उस दिन बहुत-से लोग मुझ से कहेंगे, 'प्रभु ! क्या हमने आपका नाम ले कर भविष्यवाणी नहीं की? आपका नाम ले कर अपदूतों को नहीं निकला? आपका नाम ले कर बहुत-से चमत्कार नहीं दिखाये?'
23) तब मैं उन्हें साफ-साफ बता दूँगा, 'मैंने तुम लोगों को कभी नहीं जाना। कुकर्मियों! मुझ से दूर हटो।'
24) ''जो मेरी ये बातें सुनता और उन पर चलता है, वह उस समझदार मनुष्य के सदृश है, जिसने चट्टान पर अपना घर बनवाया था।
25) पानी बरसा, नदियों में बाढ आयी, आँधियाँ चलीं और उस घर से टकरायीं। तब भी वह घर नहीं ढहा; क्योंकि उसकी नींव चट्टान पर डाली गयी थी।
26) ''जो मेरी ये बातें सुनता है, किन्तु उन पर नहीं चलता, वह उस मूर्ख के सदृश है, जिसने बालू पर अपना घर बनवाया।
27) पानी बरसा, नदियों में बाढ आयी, आँधियाँ चलीं और उस घर से टकरायीं। वह घर ढह गया और उसका सर्वनाश हो गया।''
28) जब ईसा का यह उपदेश समाप्त हुआ, तो लोग उनकी शिक्षा पर आश्चर्यचकित थे;
29) क्योंकि वे उनके शास्त्रियों की तरह नहीं बल्कि अधिकार के साथ शिक्षा देते थे।

अध्याय 8

1) ईसा पहाडी से उतरे। एक विशाल जनसमूह उनके पीछे हो लिया।
2) उस समय एक कोढ़ी उनके पास आया और उसने यह कहते हुए उन्हें दण्डवत् किया, ''प्रभु! आप चाह,ें तो मुझे शुद्ध कर सकते हैं''।
3) ईसा ने हाथ बढा कर यह कहते हुए उसका स्पर्श किया, ''मैं यही चाहता हूँ- शुद्ध हो जाओ''। उसी क्षण उसका कोढ़ दूर हो गया।
4) ईसा ने उस से कहा, ''सावधान! किसी से कुछ मत कहो। जा कर अपने को याजक को दिखाओ और मूसा द्वारा निर्धारित भेंट चढ़ाओ जिससे तुम्हारा स्वास्थ्यलाभ प्रमाणित हो जाये।''
5) ईसा कफरनाहूम में प्रवेश कर ही रहे थे कि एक शतपति उनके पास आया और उसने उन से यह निवेदन किया,
6) ''प्रभु! मेरा नौकर घर में पड़ा हुआ है। उसे लक़वा हो गया है और वह घोर पीड़ा सह रहा है।''
7) ईसा ने उस से कहा, ''मैं आ कर उसे चंगा कर दूँगा''।
8) शतपति नें उत्तर दिया, ''प्रभु! मैं इस योग्य नहीं हूँ कि आप मेरे यहाँ आयें। आप एक ही शब्द कह दीजिए और मेरा नौकर चंगा हो जायेगा।
9) मैं एक छोटा-सा अधिकारी हूँ। मेरे अधीन सिपाही रहते हैं। जब मैं एक से कहता हूँ- 'जाओ', तो वह जाता है और दूसरे से- 'आओ', तो वह आता है और अपने नौकर से-'यह करो', तो वह यह करता है।''
10) ईसा यह सुन कर चकित हो गये और उन्होंने अपने पीछे आने वालों से कहा, ''मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ-इस्राएल में भी मैंने किसी में इतना दृढ़ विश्वास नहीं पाया''।
11) ''मैं तुम से कहता हूँ- बहुत से लोग पूर्व और पश्चिम से आ कर इब्राहीम, इसहाक और याकूब के साथ स्वर्गराज्य के भोज में सम्मिलित होंगे,
12) परन्तु राज्य की प्रजा को बाहर, अन्धकार में फेंक दिया जायेगा। वहाँ वे लोग रोयेंगे और दाँत पीसते रहेंगे।''
13) शतपति से ईसा ने कहा, ''जाइए आपने जैसा विश्वास किया, वैसा ही हो जाये।'' और उस घड़ी उसका नौकर चंगा हो गया।
14) पेत्रुस के घर पहुँचने पर ईसा को पता चला कि पेत्रुस की सास बुखार में पड़ी हुई है।
15) उन्होंने उसका हाथ स्पर्श किया और उसका बुखार जाता रहा और वह उठ कर उनके सेवा-सत्कार में लग गयी।
16) संध्या होने पर लोग बहुत-से अपदूतग्रस्तों को ईसा के पास ले आये। ईसा ने शब्द मात्र से अपदूतों को निकाला और सब रोगियों को चंगा किया।
17) इस प्रकार नबी इसायस का यह कथन पूरा हुआ- उसने हमारी दुर्बलताओं को दूर कर दिया और हमारे रोगों को अपने ऊपर ले लिया।
18) अपने को भीड़ से घिरा देख कर ईसा ने समुद्र के उस पार चलने का आदेश दिया।
19) उसी समय एक शास्त्री आ कर ईसा से बोला, ''गुरुवर! आप जहाँ कहीं भी जायेंगे, मैं आपके पीछे-पीछे चलूँगा''।
20) ईसा ने उस से कहा, ''लोमडियों की अपनी माँदें हैं और आकाश के पक्षियों के अपने घोसलें, परन्तु मानव पुत्र के लिए सिर रखने को भी अपनी जगह नहीं है''।
21) शिष्यों में किसी ने उन से कहा, ''प्रभु! मुझे पहले अपने पिता को दफनाने के लिए जाने दीजिए''।
22) परन्तु ईसा ने उस से कहा, ''मेरे पीछे चले आओ; मुरदों को अपने मुरदे दफनाने दो'।
23) ईसा नाव पर सवार हो गये और उनके शिष्य उनके साथ हो लिये।
24) उस समय समुद्र में एकाएक इतनी भारी ऍाधी उठी कि नाव लहरों से ढकी जा रही थी। परन्तु ईसा तो सो रहे थे।
25) शिष्यों ने पास आ कर उन्हें जगाया और कहा, प्रभु! हमें बचाइए! हम सब डूब रहे हैं!
26) ईसा ने उन से कहा, अल्पविश्वासियों! डरते क्यों हो? तब उन्होंने उठ कर वायु और समुद्र को डाँटा और पूर्ण शाति छा गयी।
27) इस प्रर वे लोग अचम्भे में पड कर, बोल उठे, ''आखिर यह कौन है, वायु और समुद्र भी इनकी आज्ञा मानते है।''
28) जब ईसा समुद्र के उस पार गदरेनियों के प्रदेश पहुँचे, तो दो अपदूत ग्रस्त मनुष्य मक़बरों से निकल कर उनके पास आये। वे इतने उग्र थे कि उस रास्ते से कोई भी आ-जा नहीं सकता था।
29) वे चिल्ला उठे, ''ईश्वर के पुत्र! हम से आपको क्या ? क्या आप यहाँ समय से पहले हमें सताने आये हैं?''
30) वहाँ कुछ दूरी पर सुअरों का एक वड़ा झुण्ड चर रहा था।
31) अपदूत यह कहते हुए अनुनय-विनय करते रहे, ''यदि आप हम को निकाल ही रहे हैं, तो हमें सूअरों के झुण्ड में भेज दीजिए''।
32) ईसा ने उन से कहा, ''जाओ''। तब अपदूत उन मनुष्यों से निकल कर सूअरों में जा घुसे और सारा झुण्ड तेज’ी से ढाल पर से समुद्र में कूद पड़ा और पानी में डूब कर मर गया।
33) सूअर चराने वाले भाग गये और जा कर पूरा समाचार और अपदूत ग्रस्तों के साथ जो कुछ हुआ, यह सब उन्होंने नगर में सुनाया।
34) इस पर सारा नगर ईसा से मिलने निकला और उन्हें देखकर लोगों ने निवेदन किया कि वह उनके प्रदेश से चले जायें।

अध्याय 9

1) ईसा नाव पर बैठ गये और समुद्र पार कर अपने नगर आये।
2) उस समय कुछ लोग खाट पर पडे’ हुए एक अर्द्धांगरोगी को उनके पास ले आये। उनका विश्वास देखकर ईसा ने अर्द्धांगरोगी से कहा, ''बेटा ढारस रखो! तुम्हारे पाप क्षमा हो गये हैं।''
3) कुछ शास्त्रियों ने मन में सोचा- यह ईश-निन्दा करता है।
4) उनके ये विचार जान कर ईसा ने कहा, ''तुम लोग मन में बुरे विचार क्यों लाते हो ?
5) अधिक सहज क्या है यह कहना, 'तुम्हारे पाप क्षमा हो गये हैं अथवा यह कहना, 'उठो और चलो-फिरो'?
6) किन्तु इसलिए कि तुम लोग यह जान लो कि मानव पुत्र को पृथ्वी पर पाप क्षमा करने का अधिकार मिला है'' तब वे अर्द्धांगरोगी से बोले ''उठो और अपनी खाट उठा कर घर जाओ''।
7) और वह उठ कर अपने घर चला गया।
8) यह देखकर लोगों पर भय छा गया और उन्होंने ईश्वर की स्तुति की, जिसने मनुष्यों को ऐसा अधिकार प्रदान किया था।
9) ईसा वहाँ से आगे बढ़े। उन्होंने मत्ती नामक व्यक्ति को चुंगी-घर में बैठा हुआ देखा और उस से कहा, ''मेरे पीछे चले आओ'', और वह उठकर उनके पीछे हो लिया।
10) एक दिन ईसा अपने शिष्यों के साथ मत्ती के घर भोजन पर बैठे और बहुत-से नाकेदार और पापी आ कर उनके साथ भोजन करने लगे।
11) यह देखकर फरीसियों ने उनके शिष्यों से कहा, ''तुम्हारे गुरु नाकेदारों और पापियों के साथ क्यों भोजन करते हैं?''
12) ईसा ने यह सुन कर उन से कहा, ''नीरोगों को नहीं, रोगियों को वैद्य की ज’रूरत होती है।
13) जा कर सीख लो कि इसका क्या अर्थ है- मैं बलिदान नहीं, बल्कि दया चाहता हूँ। मैं धर्मियों को नहीं, पापियों को बुलाने आया हूँ।''
14) इसके बाद योहन के शिष्य आये और यह बोले, ''हम और फरीसी उपवास किया करते हैं। आपके शिष्य ऐसा क्यों नहीं करते?''
15) ईसा ने उन से कहा, ''जब तक दूल्हा साथ है, क्या बाराती शोक मना सकते हैं? किन्तु वे दिन आयेंगे, जब दुल्हा उन से बिछुड़ जायेगा। उन दिनों वे उपवास करेंगे।
16) ''कोई पुराने कपडे’ पर कोरे कपडे’ का पैबंद पहीं लगाता, क्योंकि वह पैबंद सिकुड़ कर पुराना कपड़ा फाड़ देता है और चीर बढ़ जाता है।
17) और लोग पुरानी मशकों में नयी अंगूरी नहीं भरते। नहीं तो मशकें फट जाती हैं, अंगूरी बह जाती है और मशकें बरबाद हो जाती हैं। लोग नयी अंगूरी नयी मशकों में भरते हैं। इस तरह दोनों ही बची रहती हैं।''
18) ईसा उन से ये बातें कह ही रहे थे कि एक अधिकारी आया। उसने यह कहते हुए उन्हें दण्डवत् किया, ''मेरी बेटी अभी-अभी मर गयी है। आइए, उस पर हाथ रखिए और वह जी जायेगी।''
19) ईसा उठ कर अपने शिष्यों के साथ उसके पीछे हो लिये।
20) उस समय एक स्त्री ने, जो बारह बरस से रक्तस्राव से पीड़ित थी, पीछे से आ कर ईसा के कपडे’ का पल्ला छू लिया;
21) क्योंकि वह मन-ही-मन कहती थी- यदि मैं उनका कपड़ा भर छूने पाऊँ, तो चंगी हो जाऊॅंगी।
22) ईसा ने मुड़ कर उसे देख लिया और कहा ''बेटी, ढारस रखो। तुम्हारे विश्वास ने तुम्हें चंगा कर दिया है।'' और वह स्त्री उसी क्षण चंगी हो गई।
23) ईसा ने अधिकारी के घर पहुँच कर बाँसुरी बजाने वालों और लोगों को रोते-पीटते देखा और
24) कहा, ''हट जाओ। लड़की नहीं मरी है, सो रही है।'' इस पर वे उनकी हॅंसी उड़ाते रहे।
25) भीड़ बाहर कर दी गयी। तब ईसा ने भीतर जा कर लड़की का हाथ पकड़ा और वह उठ खड़ी हुई।
26) इस बात की चरचा उस इलाक़े के कोने-कोने में फैल गयी।
27) ईसा वहॉं से आगे बढ़े और दो अन्धे यह पुकारते हुये उनके पीछे हो लिए, ''दाऊद के पुत्र! हम पर दया कीजिये''।
28) जब ईसा घर पहुँचे, तो ये अन्धे उनके पास आये। ईसा ने उन से पूछा, ''क्या तुम्हें विश्वास है कि मैं यह कर सकता हूँ ? उन्होने कहा, ''जी हॉं, प्रभु!
29) तब ईसा ने यह कहते हुए उनकी आँखों का स्पर्श किया, ''जैसा तुमने विश्वास किया, वैसा ही हो जाये''।
30) उनकी आँखें अच्छी हो गयीं और ईसा ने यह कहते हुये उन्हें कड़ी चेतावनी दी, ''सावधान! यह बात कोई न जानने पाये''।
31) परन्तु घर से निकलने पर उन्होंने उस पूरे इलाक़े में ईसा का नाम फैला दिया।
32) वे बाहर निकल ही रहे थे कि कुछ लोग एक गॅूगे अपदूत ग्रस्त मनुष्य को ईसा के पास ले आये।
33) ईसा ने अपदूत को निकला और वह गूॅंगा बोलने लगा। लोग अचम्भे में पड़ कर बोल उठे, ''इस्राएल में ऐसा चमत्कार कभी नहीं देखा गया है''।
34) परन्तु फ़रीसी कहते थे, ''यह नरकदूतों के नायक की सहायता से अपदूतों को निकलता है''।
35) ईसा सभागृहों में शिक्षा देते, राज्य के सुसमाचार का प्रचार करते, हर तरह की बीमारी और दुबर्लता दूर करते हुए, सब नगरों और गाँवों में घूमते थे।
36) लोगों को देखकर ईसा को उन पर तरस आया, क्योंकि वे बिना चरवाहे की भेड़ों की तरह थके माँदे पड़े हुए थे।
37) उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, ''फसल तो बहुत है, परन्तु मज’दूर थोड़े हैं।
38) इसलिए फ़सल के स्वामी से विनती करो कि वह अपनी फ़सल काटने के लिए मज’दूरों को भेजे।''

अध्याय 10

1) ईसा ने अपने बारह शिष्यों को अपने पास बुला कर उन्हें अशुद्ध आत्माओं को निकालने तथा हर तरह की बीमारी और दुर्बलता दूर करने का अधिकार प्रदान किया।
2) बारह प्रेरितों के नाम इस प्रकार हैं- पहला, सिमोन, जो पेत्रुस कहलाता है, और उसका भाई अन्द्रेयस; जेबेदी का पुत्र याकूब और उसका भाई योहन;
3) फिलिप और बरथोलोमी; थोमस और नाकेदार मत्ती; अलफ़ाई का पुत्र याकुब और थद्देयुस;
4) सिमोन कनानी और यूदस इसकारियोती, जिसने ईसा को पकड़वाया।
5) ईसा ने इन बारहों को यह अनुदेश दे कर भेजा, ''अन्य राष्ट्रों के यहाँ मत जाओ और समारियों के नगरों में प्रवेश मत करो,
6) बल्कि इस्राएल के घराने की खोयी हुई भेड़ों के यहाँ जाओ।
7) राह चलते यह उपदेश दिया करो- स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है।
8) रोगियों को चंगा करो, मुरदों को जिलाआ,े कोढ़ियों को शुद्ध करो, नरकदूतों को निकालो। तुम्हें मुफ्’त में मिला है, मुफ्’त में दे दो।
9) अपने फेंटे में सोना, चाँदी या पैसा नहीं रखो।
10) रास्ते के लिए न झोली, न दो कुरते, न जूते, न लाठी ले जाओ; क्योंकि मज’दूर को भोजन का अधिकार है।
11) ''किसी नगर या गाँव में पहुँचने पर एक सम्मानित व्यक्ति का पता लगा लो और नगर से विदा होने तक उसी के यहाँ ठहरो।
12) उस घर में प्रवेश करते समय उसे शांति की आशिष दो।
13) यदि वह घर योग्य होगा, तो तुम्हारी शान्ति उस पर उतरेगी। यदि वह घर योग्य नहीं होगा, तो तुम्हारी शान्ति तुम्हारे पास लौट आयेगी।
14) यदि कोई तुम्हारा स्वागत न करे और तुम्हारी बातें न सुने तो उस घर या उस नगर से निकलने पर अपने पैरों की धूल झाड़ दो।
15) मैं तुम से यह कहता हूँ- न्याय के दिन उस नगर की दशा की अपेक्षा सोदोम और गोमोरा की दशा कहीं अधिक सहनीय होगी।
16) ''देखो, मैं तुम्हें भेड़ियों के बीच भेड़ों क़ी तरह भेजता हूँ। इसलिए साँप की तरह चतुर और कपोत की तरह निष्कपट बनो।
17) ''मनुष्यों से सावधान रहो। वे तुम्हें अदालतों के हवाले कर देंगे और अपने सभागृहों में तुम्हें कोडे’ लगायेंगे।
18) तुम मेरे कारण शासकों और राजाओं के सामने पेश किये जाओगे, जिससे मेरे विषय में तुम उन्हें और गै’र-यहूदियों को साक्ष्य दे सको।
19) ''जब वे तुम्हें अदालत के हवाले कर रहे हों, तो यह चिन्ता नहीं करोगे कि हम कैसे बोलेंगे और क्या कहेंगे। समय आने पर तुम्हें बोलने को शब्द दिये जायेंगे,
20) क्योंकि बोलने वाले तुम नहीं हो, बल्कि पिता का आत्मा है, जो तुम्हारे द्वारा बोलता है।
21) भाई अपने भाई को मृत्यु के हवाले कर देगा और पिता अपने पुत्र को। संतान अपने माता पिता के विरुद्ध उठ खड़ी होगी और उन्हें मरवा डालेगी।
22) मेरे नाम के कारण सब लोग तुम से बैर करेंगे, किन्तु जो अन्त तक धीर बना रहेगा, उसे मुक्ति मिलेगी।
23) ''यदि वे तुम्हें एक नगर से निकाल देते हैं, तो दूसरे नगर भाग जाओ। मैं तुम से कहता हूँ तुम इस्रालय के नगरों का चक्कर पूरा भी नहीं कर पाओगे कि मानव पुत्र आ जायेगा।
24) ''न शिष्य गुरू से बड़ा होता है और न सेवक अपने स्वामी से।
25) शिष्य के लिए अपने गुरू जैसा और सेवक के लिए अपने स्वामी जैसा बन जाना ही बहुत है। यदि लोगों ने घर के स्वामी को बेलज’ेबुल कहा है, तो वे उसके घर वालों को क्या नहीं कहेंगे?
26) ''इसलिए उन से नहीं डरो। ऐसा कुछ भी गुप्त नहीं है, जो प्रकाश में नहीं लाया जायेगा और ऐसा कुछ भी छिपा हुआ नहीं है, जो प्रकट नहीं किया जावेगा।
27) मैं जो तुम से अंधेरे में कहता हूँ, उसे तुम उजाले में सुनाओ। जो तुम्हें फुस-फुसाहटों में कहा जाता है, उसे तुम पुकार-पुकार कर कह दो।
28) उन से नहीं डरो, जो शरीर को मार डालते हैं, किन्तु आत्मा को नहीं मार सकते, बल्कि उससे डरो, जो शरीर और आत्मा दोनों का नरक में सर्वनाश कर सकता है।
29) ''क्या एक पैसे में दो गौरैयॉं नहीं बिकतीं? फिर भी तुम्हारे पिता के अनजाने में उन में से एक भी धरती पर नहीं गिरती।
30) हाँ, तुम्हारे सिर का बाल बाल गिना हुआ है।
31) इसलिए नहीं डरो। तुम बहुतेरी गौरैयों से बढ़ कर हो।
32) ''जो मुझे मनुष्यों के सामने स्वीकार करेगा, उसे मैं भी अपने स्वर्गिक पिता के सामने स्वीकार करूँगा।
33) जो मुझे मनुष्यों के सामने अस्वीकार करेगा, उसे मैं भी अपने स्वर्गिक पिता के सामने अस्वीकार करूँगा।
34) ''यह न समझो कि मैं पृथ्वी पर शांति लेकर आया हूँ। मैं शान्ति नहीं, बल्कि तलवार लेकर आया हूँ।
35) मैं पुत्र और पिता में, पुत्री और माता में, बहू और सास में फूट डालने आया हूँ।
36) मनुष्य के घर वाले ही उसके शत्रु बन जायेंगे।
37) जो अपने पिता या अपनी माता को मुझ से अधिक प्यार करता है, वह मेरे योग्य नहीं है। जो अपने पुत्र या अपनी पुत्री को मुझ से अधिक प्यार करता है, वह मेरे योग्य नहीं।
38) जो अपना क्रूस उठा कर मेरा अनुसरण नहीं करता, वह मेरे योग्य नहीं।
39) जिसने अपना जीवन सुरक्षित रखा है, वह उसे खो देगा और जिसने मेरे कारण अपना जीवन खो दिया है, वह उसे सुरक्षित रख सकेगा।
40) ''जो तुम्हारा स्वागत करता है, वह मेरा स्वागत करता है और जो मेरा स्वागत करता है वह उसका स्वागत करता है, जिसने मुझे भेजा है।
41) जो नबी का इसलिए स्वागत करता है कि वह नबी है, वह नबी का पुरस्कार पायेगा और जो धर्मी का इसलिए स्वागत करता है कि वह धर्मी है, वह धर्मी का पुरस्कार पायेगा।
42) ''जो इन छोटों में से किसी को एक प्याला ठंडा पानी भी इसलिए पिलायेगा कि वह मेरा शिष्य है, तो मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि वह अपने पुरस्कार से वंचित नहीं रहेगा।

अध्याय 11

1) अपने बारह शिष्यों को ये उपदेश देने के बाद ईसा यहूदियों के नगरों में शिक्षा देने और सुसमाचार का प्रचार करने वहाँ से चल दिये।
2) योहन ने, बन्दीगृह में मसीह के कार्यों की चरचा सुन कर, अपने शिष्यों को उनके पास यह पूछने भेजा,
3) ''क्या आप वही हैं, जो आने वाले हैं या हम किसी और की प्रतीक्षा करें?''
4) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ''जाओ, तुम जो सुनते और देखते हो, उसे योहन को बता दो -
5) अंधे देखते हैं, लँगड़े चलते हैं, कोढ़ी शुद्ध किये जाते हैं, बहरे सुनते हैं, मुरदे जिलाये जाते हैं, दरिद्रों को सुसमाचार सुनाया जाता है,
6) और धन्य है वह, जिसक़ा विश्वास मुझ पर से नहीं उठता!''
7) वे विदा हो ही रहे थे कि ईसा जनसमूह से योहन के विषय में कहने लगे, ''तुम लोग निर्जन प्रदेश में क्या देखने गये थे? हवा से हिलते हुए सरकण्डे को? नहीं!
8) तो, तुम क्या देखने गये थे? बढ़िया कपड़े पहने मनुष्य को? बढ़िया कपड़े पहनने वाले राजमहलों में रहते हैं।
9) आखिर क्यों निकले थे? नबी को देखने के लिए? निश्चय ही! मैं तुम से कहता हूँ, नबी से भी महान् व्यक्ति को।
10) यह वही है, जिसके विषय में लिखा है- देखो, मैं अपने दूत को तुम्हारे आगे भेजता हूँ। वह तुम्हारे आगे तुम्हारा मार्ग तैयार करेगा।
11) मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ - मनुष्यों में योहन बपतिस्ता से बड़ा कोई पैदा नहीं हुआ। फिर भी, स्वर्ग राज्य में जो सबसे छोटा है, वह योहन से बड़ा है।
12) ''योहन बपतिस्ता के समय से आज तक लोग स्वर्गराज्य के लिए बहुत प्रयत्न कर रहे हैं और जिन में उत्साह है, वे उस पर अधिकार प्राप्त करते हैं।
13) ''योहन तक के नबी, और संहिता भी, सब-के-सब राज्य के विषय में केवल भविष्य वाणी कर सके।
14) तुम चाहो, तो मेरी बात मान लो कि योहन वही एलियस है, जो आने वाला था।
15) जिसके कान हों, वह सुन ले।
16) ''मैं इस पीढ़ी की तुलना किस से करूँ? वे बाजार में बैठे हुए छोकरों के सदृश हैं, जो अपने साथियों को पुकार कर कहते हैं-
17) हमने तुम्हारे लिए बाँसुरी बजायी और तुम नहीं नाचे, हमने विलाप किया और तुमने छाती नहीं पीटी;
18) क्योंकि योहन बपतिस्ता आया, जो न खाता और न पीता है और वे कहते हैं- उसे अपदूत लगा है।
19) मानव पुत्र आया, जो खाता-पीता है और वे कहते हैं- देखो, यह आदमी पेटू और पियक्कड़ है, नाकेदारों और पापियों का मित्र है। किन्तु ईश्वर की प्रज्ञा परिणामों द्वारा सही प्रमाणित हुई है।''
20) तब ईसा उन नगरों को धिक्कारने लगे, जिन्होंने उनके अधिकांश चमत्कार देख कर भी पश्चाताप नहीं किया था,
21) ''धिक्कार तुझे, खोंराजि’न! धिक्कार तुझे, बेथसाइदा! जो चमत्कार तुम में किये गये हैं, यदि वे तीरूस और सिदोन में किये गये होते, तो उन्होंने न जाने कब से टाट ओढ़ कर और भस्म रमा कर पश्चाताप किया होता।
22) इसलिए मैं तुम से कहता हूँ, न्याय के दिन तेरी दशा की अपेक्षा तीरूस और सिदोन की दशा कहीं अधिक सहनीय होगी।
23) ''और तू, कफ़रनाहूम! क्या तू स्वर्ग तक ऊँचा उठाया जायेगा? नहीं! तू अधोलोक तक नीचे गिरा दिया जायेगा; क्योंकि जो चमत्कार तुझ में किये गये हैं, यदि वे सोदोम में किये गये होते, तो वह आज तक बना रहता।
24) इसलिए मैं तुझ से कहता हूँ, न्याय के दिन तेरी दशा की अपेक्षा सोदोम की दशा कहीं अधिक सहनीय होगी।''
25) उस समय ईसा ने कहा, ''पिता! स्वर्ग और पृथ्वी के प्रभु! मैं तेरी स्तुति करता हूँ; क्योंकि तूने इन सब बातों को ज्ञानियों और समझदारों से छिपा कर निरे बच्चों पर प्रकट किया है।
26) हाँ, पिता! यही तुझे अच्छा लगा।
27) मेरे पिता ने मुझे सब कुछ सौंपा है। पिता को छोड़ कर कोई भी पुत्र को नहीं जानता। इसी तरह पिता को कोई भी नहीं जानता, केवल पुत्र जानता है और वही, जिस पर पुत्र उसे प्रकट करने की कृपा करे।
28) ''थके-मँादे और बोझ से दबे हुए लोगो! तुम सभी मेरे पास आओ। मैं तुम्हें विश्राम दूँगा।
29) मेरा जूआ अपने ऊपर ले लो और मुझ से सीखो। मैं स्वभाव से नम्र और विनीत हूँ। इस तरह तुम अपनी आत्मा के लिए शान्ति पाओगे,
30) क्योंकि मेरा जूआ सहज है और मेरा बोझ हल्का।''

अध्याय 12

1) ईसा किसी विश्राम के दिन गेहूँ के खेतों से हो कर जा रहे थे। उनके शिष्यों को भूख लगी और वे बालें तोड़-तोड़ कर खाने लगे।
2) यह देख कर फ़रीसियों ने ईसा से कहा, ''देखिए, जो काम विश्राम के दिन मना है, आपके शिष्य वही कर रहे हैं''।
3) ईसा ने उन से कहा, ''क्या तुम लोगों ने यह नहीं पढ़ा कि जब दाऊद और उनके साथियों को भूख लगी, तो दाऊद ने क्या किया था?
4) उन्होंने ईश-मन्दिर में जा कर भेंट की रोटियाँ खायीं। याजकों को छोड़ न तो उन को उन्हें खाने की आज्ञा थी और न उनके साथियों को।
5) अथवा क्या तुम लोगों ने संहिता में यह नहीं पढ़ा कि याजक विश्राम के दिन का नियम तोड़ते तो हैं, पर दोषी नहीं होते?
6) मैं तुम से कहता हूँ- यहाँ वह है, जो मन्दिर से भी महान् है।
7) मैं बलिदान नहीं, बल्कि दया चाहता हूँ- यदि तुम लोगों ने इसका अर्थ समझ लिया होता, तो निर्दोषों को दोषी नहीं ठहराया होता;
8) क्योंकि मानव पुत्र विश्राम के दिन का स्वामी है।''
9) वहाँ से आगे बढ़ने पर ईसा उनके सभाग्रह गये।
10) वहाँ एक मनुष्य था, जिसका हाथ सूख गया था। ईसा पर दोष लगाने के लिए लोगों ने उन से यह पूछा, ''क्या विश्राम के दिन चंगा करने की आज्ञा है?''
11) ईसा ने उन से कहा, ''यदि तुम्हारे एक ही भेड़ हो और वह विश्राम के दिन गड्ढे में गिर जाये, तो तुम लोगों में ऐसा कौन होगा, जो उसे पकड़ कर निकाल नहीं लेगा?
12) मनुष्य तो भेड़ से कहीं बढ़ कर हैं। इसलिए विश्राम के दिन भलाई करने की आज्ञा है।''
13) तब उन्होंने उस मनुष्य से कहा, ''अपना हाथ बढ़ाओ''। उसने अपना हाथ बढ़ाया और वह दूसरे हाथ की तरह अच्छा हो गया।
14) इस पर फ़रीसियों ने बाहर निकल कर ईसा के विरुद्ध यह परामर्श किया कि हम किस तरह उनका सर्वनाश करें।
15) ईसा यह जान कर वहाँ से चले गये। बहुत-से लोग ईसा के पीछे हो लिये। वे सबों को चंगा करते थे,
16) किन्तु साथ-साथ यह चेतावनी देते थे कि तुम लोग मेरा नाम नहीं फैलाओ।
17) इस प्रकार नबी इसायस का यह कथन पूरा हुआ-
18) यह मेरा सेवक है, इसे मैने चुना है; मेरा परमप्रिय है, मैं इस पर अति प्रसन्न हूँ। मैं इसे अपना आत्मा प्रदान करूँगा और यह गैर-यहूदियों में सच्चे धर्म का प्रचार करेगा।
19) यह न तो विवाद करेगा और न चिल्लायेगा, और न बाज’ारों में कोई इसकी आवाज सुनेगा।
20) यह न तो कुचला हुआ सरकण्डा ही तोडे’गा, और न धुँआती हुई बत्ती ही बुझायेगा, जब तक वह सच्चे धर्म को विजय तक न ले जाये।
21) इसके नाम पर गैर-यहूदी भरोसा रखेंगे।
22) लोग किसी एक दिन एक अन्धे-गूँगे अपदूतग्रस्त मनुष्य को ईसा के पास ले आये। ईसा ने उसे चंगा किया और वह बोलने और देखने लगा।
23) सब लोग अचम्भे में पड़ कर यह कहते रहे, ''कही यह तो दाऊद का पुत्र नहीं है?''
24) यह सुन कर फ़रीसियों ने कहा, ''यह नरकदूतों के नायक बेलजेबुल की सहायता से नरकदूतों को निकालता हैं''।
25) ईसा ने उनके विचार जान कर उन से कहा, ''जिस राज्य में फूट पड़ गयी है, वह उजड़ जाता है और जिस नगर या घर में फूट पड़ गयी है, वह टिक नहीं सकता।
26) यदि शैतान ही शैतान को निकालता है, तो उसके यहाँ फूट पड़ गयी है। तब उसका राज्य कैसे टिका रहेगा?
27) और यदि मैं बेलज’ेबुल की सहायता से नरकदूतों को निकालता हूँ, तो तुम्हारे बेटे किसकी सहायता से उन्हें निकालते हैं? इसलिए वे तुम लोगों का न्याय करेंगे।
28) पंरतु यदि मैं ईश्वर के आत्मा की सहायता से नरकदूतों को निकालता हूँ, तो निस्सन्देह ईश्वर का राज्य तुम्हारे बीच आ गया है।
29) ''फिर, कौन किसी बलबान् के घर में घुस कर उसका सामान लूट सकता है, जब तक वह उस बलबान् को न बाँध ले? उसके बाद ही वह उसका घर लूट सकता है।
30) ''जो मेरे साथ नहीं है, वह मेरा विरोधी है और जो मेरे साथ नहीं बटोरता, वह बिखेरता है।
31) ''इसलिए मैं तुम लोगों से कहता हूँ- मनुष्यों को हर तरह के पाप और ईश निंदा की भी क्षमा मिल जायेगी, परंतु पवित्र आत्मा की निंदा की क्षमा नहीं मिलेगी।
32) जो मानव पुत्र के विरुद्ध कुछ कहेगा, उसे क्षमा मिल जायेगी, परंतु जो पवित्र आत्मा के विरुद्ध बोलेगा, उसे क्षमा नहीं मिलेगी- न इहलोक में न और न परलोक में।
33) ''या तो पेड़ को अच्छा मानो और उसके फल को भी, या पेड़ को बुरा मानो और उसके फल को भी। पेड़ तो अपने फल से पहचाना जाता है।
34) साँप के बच्चों! तुम बुरे हो कर अच्छी बातें कैसे कह सकते हो? जो हृदय में भरा है, वही तो मुँह से बाहर आता है।
35) अच्छा मनुष्य अपने अच्छे भण्डार से अच्छी चीजें निकालता है और बुरा मनुष्य अपने बुरे भण्डार से बुरी चीजें।
36) ''मैं तुम लोगों से कहता हूँ- न्याय के दिन मनुष्यों को अपनी निकम्मी बात का लेखा देना पड़ेगा,
37) क्योंकि तुम अपनी ही बातों से निर्दोष या दोषी ठहराये जाओगे।''
38) उस समय कुछ शास्त्री और फ़रीसी ईसा से बोले, ''गुरुवर! हम आपके द्वारा प्रस्तुत कोई चिन्ह देखना चाहते हैं''।
39) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ''यह दुष्ट और विधर्मी पीढ़ी एक चिन्ह मॉँगती है, परंतु नबी योनस के चिन्ह को छोड़ कर कोई चिन्ह नहीं दिया जायेगा।
40) जिस प्रकार योनस तीन दिन और तीन रात मच्छ के पेट में रहा, उसी प्रकार मानव पुत्र भी तीन दिन और तीन रात पृथ्वी के गर्भ में रहेगा।
41) न्याय के दिन निनिवे के लोग इस पीढ़ी के साथ जी उठेंगे और इसे दोषी ठहरायेंगे, क्योंकि उन्होंने योनस का उपदेश सुन कर पश्चात्ताप किया था, और देखो यहाँ वह है, जो योनस से भी महान् हैं।
42) न्याय के दिन दक्षिण की रानी इस पीढ़ी के साथ जी उठेगी और इसे दोषी ठहरायेगी; क्योंकि वह सुलेमान की प्रज्ञा सुनने के लिए पृथ्वी के सीमान्तों से आयी थी, और देखो-यहाँ वह है, जो सुलेमान से भी महान् है।
43) जब अशुद्ध आत्मा किसी मनुष्य से निकलता है, तो वह विश्राम की खोज में निर्जल स्थानों में भटकता फिरता है ; किन्तु उसे विश्राम नहीं मिलता।
44) तब वह कहता है- जहाँ से निकला हूँ, अपने उसी घर वापस जाऊँगा। लौटने पर वह उस घर को ख़ाली, झाड़ा-बुहारा और सजाया हुआ पाता है।
45) तब वह जा कर अपने से बुरे सात आत्माओं को ले आता है और वे उस घर में घुस कर वहीं बस जाते हैं। इस तरह उस मनुष्य की यह पिछली दशा पहली से भी बुरी हो जाती है। यही दशा इस दुष्ट पीढ़ी की भी होगी।''
46) ईसा लोगों को उपदेश दे रहे थे कि उनकी माता और भाई आये। वे घर के बाहर थे और उन से मिलना चाहते थे।
47) किसी ने ईसा से कहा, ''देखिए, आपकी माता और आपके भाई बाहर हैं। वे आप से मिलना चाहते हैं।''
48) ईसा ने उस से कहा, ''कौन है मेरी माता? कौन है मेरे भाई?
49) और हाथ से अपने शिष्यों की ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा, ''देखो, ये हैं मेरी माता और मेरे भाई!
50) क्योंकि जो मेरे स्वर्गिक पिता की इच्छा पूरी करता है, वही मेरा भाई है, मेरी बहन और मरी माता।''

अध्याय 13

1) ईसा किसी दिन घर से निकल कर समुद्र के किनारे जा बैठे।
2) उनके पास इतनी बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गयी कि वे नाव पर चढ़ कर बैठ गये और सारी भीड़ तट पर बनी रही।
3) उन्होंने दृष्टान्तों द्वारा उन्हें बहुत-सी बातों की शिक्षा दी। उन्होंने कहा, ''सुनो! कोई बोने वाला बीज बोने निकला।
4) बोते-बोते कुछ बीज रास्ते के किनारे गिरे और आकाश के पक्षियों ने आ कर उन्हें चुग लिया।
5) कुछ बीज पथरीली भूमि पर गिरे, जहाँ उन्हें अधिक मिट्टी नहीं मिली। वे जल्दी ही उग गये, क्योंकि उनकी मिट्टी गहरी नहीं थी।
6) सूरज चढने पर वे झुलस गये और जड़ न होने के कारण सूख गये।
7) कुछ बीज काँटों में गिरे और काँटों ने बढ़ कर उन्हें दबा दिया।
8) कुछ बीज अच्छी भूमि पर गिरे और फल लाये- कुछ सौ गुना, कुछ साठ गुना और कुछ तीस गुना।
9) जिसके कान हों, वह सुन ले।÷÷
10) ईसा के शिष्यों ने आ कर उन से कहा, ''आप क्यों लोगों को दृष्टान्तों में शिक्षा देते हैं?÷÷
11) उन्होंने उत्तर दिया, ''यह इसलिए है कि स्वर्गराज्य का भेद जानने का वरदान तुम्हें दिया गया है, उन लोगों को नहीं;
12) क्योंकि जिसके पास कुछ है, उसी को और दिया जायेगा और उसके पास बहुत हो जायेगा। लेकिन जिसके पास कुछ नहीं है, उससे वह भी ले लिया जायेगा, जो उसके पास है।
13) मैं उन्हें दृष्टान्तों में शिक्षा देता हूँ, क्योंकि वे देखते हुए भी नहीं देखते और सुनते हुए भी न सुनते और न समझते हैं।
14) इसायस की यह भविष्यवाणी उन लोगों पर पूरी उतरती है- तुम सुनते रहोगे, परन्तु नहीं समझोगे। तुम देखते रहोगे, परन्तु तुम्हें नहीं दिखेगा;
15) क्योंकि इन लोगों की बुद्धि मारी गई है। ये कानों से सुनना नहीं चाहते; इन्होंने अपनी आँख बंद कर ली हैं। कहीं ऐसा न हो कि ये आँखों से देख ले, कानों से सुन लें, बुद्धि से समझ लें, मेरी ओर लौट आयें और मैं इन्हें भला चंगा कर दूँ।
16) परन्तु धन्य हैं तुम्हारी आँखें, क्योंकि वे देखती हैं और धन्य हैं तुम्हारे कान, क्योंकि वे सुनते हैं!
17) मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- तुम जो बातें देख रहे हो, उन्हें कितने ही नबी और धर्मात्मा देखना चाहते थे; परन्तु उन्होंने उन्हें नहीं देखा और तुम जो बातें सुन रहो, वे उन्हें सुनना चाहते थे, परन्तु उन्होंने उन्हें नहीं सुना।
18) ''अब तुम लोग बोने वाले का दृष्टान्त सुनो।
19) यदि कोई राज्य का वचन सुनता है, लेकिन समझता नहीं, तब उसके मन में जो बोया गया है, उसे शैतान आ कर ले जाता हैः यह वह है, जो रास्ते के किनारे बोया गया है।
20) जो पथरीली भूमि मे बोया गया है, यह वह है, जो वचन सुनते ही प्रसन्नता से ग्रहण करता है;
21) परन्तु उस में जड़ नहीं है, और वह थोड़े ही दिन दृढ़ रहता है। वचन के कारण संकट या अत्याचार आ पड़ने पर वह तुरन्त विचलित हो जाता है।
22) जो काँटों में बोया गया हैः यह वह है, जो वचन सुनता है; परन्तु संसार की चिन्ता और धन का मोह वचन को दबा देता है और वह फल नहीं लाता।
23) जो अच्छी भूमि में बोया गया हैः यह वह है, जो वचन सुनता और समझता है और फल लाता है, कोई सौ गुना, कोई साठ गुना, और कोई तीस गुना।''
24) ईसा ने उनके सामने एक और दृष्टान्त प्रस्तुत किया, स्वर्ग का राज्य उस मनुष्य के सदृश है, जिसने अपने खेत में अच्छा बीज बोया था।
25) परन्तु जब लोग सो रहे थे, तो उसका बैरी आया और गेहूँ में जंगली बीज बो कर चला गया।
26) जब अंकुर फूटा और बालें लगीं, तब जंगली बीज भी दिखाई पड़ा।
27) इस पर नौकरों ने आकर स्वामी से कहा, 'मालिक, क्या आपने अपने खेत में अच्छा बीज नहीं बोया था? उस में जंगली बीज कहाँ से आ पड़ा?
28) स्वामी ने उस से कहा, 'यह किसी बैरी का काम है'। तब नौकरों ने उससे पूछा, 'क्या आप चाहते हैं कि हम जाकर जंगली बीज बटोर लें'?
29) स्वामी ने उत्तर दिया, 'नहीं, कहीं ऐसा न हो कि जंगली बीज बटोरते समय तुम गेहूँ भी उखाड़ डालो। कटनी तक दोनों को साथ-साथ बढ़ने दो।
30) कटनी के समय मैं लुनने वालों से कहूँगा- पहले जंगली बीज बटोर लो और जलाने के लिए उनके गटठे बाँधो। तब गेहूँ मेरे बखार में जमा करो।''
31) ईसा ने उनके सामने एक और दृष्टान्त प्रस्तुत किया, ''स्वर्ग का राज्य राई के दाने के सदृश है, जिसे ले कर किसी मनुष्य ने अपने खेत में बोया।
32) वह तो सब बीजों से छोटा है, परन्तु बढ़ कर सब पोधों से बड़ा हो जाता है और ऐसा पेड़ बनता है कि आकाश के पंछी आ कर उसकी डालियों में बसेरा करते हैं।''
33) ईसा ने उन्हें एक दृष्टान्त सुनाया,''स्वर्ग का राज्य उस ख़मीर के सदृश है, जिसे लेकर किसी स्त्री ने तीन पंसेरी आटे में मिलाया और सारा आटा खमीर हो गया''।
34) ईसा दृष्टान्तों में ही ये सब बातें लोगों को समझाते थे। वह बिना दृष्टान्त के उन से कुछ नहीं कहते थे,
35) जिससे नबी का यह कथन पूरा हो जाये- मैं दृष्टान्तों में बोलूँगा। पृथ्वी के आरम्भ से जो गुप्त रहा, उसे मैं प्रकट करूँगा।
36) ईसा लोगों को विदा कर घर लौटे। उनके शिष्यों ने उनके पास आ कर कहा, ''खेत में जंगली बीज का दृष्टान्त हमें समझा दीजिए''।
37) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ''अच्छा बीज बोने बाला मानव पुत्र हैं;
38) खेत संसार है; अच्छा बीज राज्य की प्रजा है; जंगली बीज दृष्ट आत्मा की प्रजा है;
39) बोने बाला बैरी शैतान है; कटनी संसार का अंत है; लुनने वाले स्वर्गदूत हैं।
40) जिस तरह लोग जंगली बीज बटोर कर आग में जला देते हैं, वैसा ही संसार के अंत में होगा।
41) मानव पुत्र अपने स्वर्गदूतों को भेजेगा और वे उसके राज्य क़’ी सब बाधाओं और कुकर्मियों को बटोर कर आग के कुण्ड में झोंक देंगें।
42) वहाँ वे लोग रोयेंगे और दाँत पीसते रहेंगे।
43) तब धर्मी अपने पिता के राज्य में सूर्य की तरह चमकेंगे। जिसके कान हों, वह सुन ले।
44) ''स्वर्ग का राज्य खेत में छिपे हुए ख़ज’ाने के सदृश है, जिसे कोई मनुष्य पाता है और दुबारा छिपा देता है। तब वह उमंग में जाता और सब कुछ बेच कर उस खेत को ख़रीद लेता है।
45) ''फिर, स्वर्ग का राज्य उत्तम मोती खोजने वाले व्यापारी के सदृश है।
46) एक बहुमूल्य मोती मिल जाने पर वह जाता और अपना सब कुछ बेच कर उस मोती को मोल ले लेता है।
47) ''फिर, स्वर्ग का राज्य समुद्र में डाले हुए जाल के सदृश है, जो हर तरह की मछलियाँ बटोर लाता है।
48) जाल के भर जाने पर मछुए उसे किनारे खींच लेते हैं। तब वे बैठ कर अच्छी मछलियाँ चुन-चुन कर बरतनों में जमा करते हैं और रद्दी मछलियाँ फेंक देते हैं।
49) संसार के अन्त में ऐसा ही होगा। स्वर्गदूत जा कर धर्मियों में से दुष्टों को अलग करेंगे।
50) और उन्हें आग के कुण्ड में झोंक देंगे। वहाँ वे लोग रोयेंगे और दाँत पीसते रहेंगे।
51) ''क्या तुम लोग यह सब बातें समझ गये?'' शिष्यों ने उत्तर दिया, ''जी हाँ''।
52) ईसा ने उन से कहा, ''प्रत्येक शास्त्री, जो स्वर्ग के राज्य के विषय में शिक्षा पा चुका है, उस ग्रहस्थ के सदृश है, जो अपने ख़जाने से नयी और पुरानी चीजें’ निकालता है''।
53) इन दृष्टान्तों के समाप्त होने पर ईसा वहाँ से चले गये।
54) वे अपने नगर आये, जहाँ वे लोगों को उनके सभाग्रह में शिक्षा देते थे। वे अचम्भे में पड़ कर कहते थे, ''इसे यह ज्ञान और यह सामर्थ्य कहँा से मिला?
55) क्या यह बढ़ई का बेटा नहीं है? क्या मरियम इसकी माँ नहीं? क्या याकूब, यूसुफ, सिमोन और यूदस इसके भाई नहीं?
56) क्या इसके सब बहनें हमारे बीच नहीं रहतीं? तो यह सब इसे कहाँ से मिला?''
57) पर वे ईसा में विश्वास नहीं कर सके। ईसा ने उन से कहा, ''अपने नगर और अपने घर में नबी का आदर नहीं होता।''
58) लोगों के अविश्वास के कारण उन्होंने वहाँ बहुत कम चमत्कार दिखाये।

अध्याय 14

1) उस समय राजा हेरोद ने ईसा की चर्चा सुनी।
2) और अपने दरबारियों से कहा, ''यह योहन बपतिस्ता है। वह जी उठा है, इसलिए वह महान् चमत्कार दिखा रहा है।''
3) हेरोद ने अपने भाई फ़िलिप की पत्नी हेरोदियस के कारण योहन को गिरफ्’तार किया और बाँध कर बंदीगृह में डाल दिया था;
4) क्योंकि योहन ने उस से कहा था, ''उसे रखना आपके लिए उचित नहीं है''।
5) हेरोद योहन को मार डालना चाहता था; किन्तु वह जनता से डरता था, जो योहन को नबी मानती थी।
6) हेरोद के जन्मदिवस के अवसर पर हेरोदियस की बेटी ने अतिथियों के सामने नृत्य किया और हेरोद को मुग्ध कर दिया।
7) इसलिए उसने शपथ खा कर वचन दिया कि वह जो भी माँगेगी, उसे दे देगा।
8) उसकी माँ ने उसे पहले से सिखा दिया था। इसलिए वह बोली, ''मुझे इसी समय थाली में योहन बपतिस्ता का सिर दीजिए''।
9) हेरोद को धक्का लगा, परन्तु अपनी शपथ और अतिथियों के कारण उसने आदेश दिया कि उसे सिर दे दिया जाये।
10) और प्यादों को भेज कर उसने बंदीगृह में योहन का सिर कटवा दिया।
11) उसका सिर थाली में लाया गया और लड़की को दिया गया और वह उसे अपनी माँ के पास ले गयी।
12) योहन के शिष्य आ कर उसका शव ले गये। उन्होंने उसे दफ़नाया और जा कर ईसा को इसकी सूचना दी।
13) ईसा यह समाचार सुन कर वहँा से हट गये और नाव पर चढ़ कर एक निर्जन स्थान की ओर चल दिऐ। जब लोगों को इसका पता चला, तो वे नगर-नगर से निकल कर पैदल ही उनकी खोज में चल पड़े।
14) नाव से उतर कर ईसा ने एक विशाल जनसमूह देखा। उन्हें उन लोगों पर तरस आया और उन्होंने उनके रोगियों को अच्छा किया।
15) सन्ध्या होने पर शिष्य उनके पास आ कर बोले, ''यह स्थान निर्जन है और दिन ढल चुका है। लोगों को विदा कीजिए, जिससे वे गाँवों में जा कर अपने लिए खाना खरीद लें।÷÷
16) ईसा ने उत्तर दिया, ''उन्हें जाने की ज’रूरत नहीं। तुम लोग ही उन्हें खाना दे दो।÷÷
17) इस पर शिष्यों ने कहा ''पाँच रोटियों और दो मछलियों के सिवा यहाँ हमारे पास कुछ नहीं है÷÷।
18) ईसा ने कहा, उन्हें यहाँ मेरे पास ले आओ''।
19) ईसा ने लोगों को घास पर बैठा देने का आदेश दे कर, वे पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ ले ली’। उन्होंने स्वर्ग की और आँखें उठा कर आशिष की प्रार्थना पढ़ी और रोटियाँ तोड़-तोड़ कर शिष्यों को दीं और शिष्यों ने लोगों को।
20) सबों ने खाया और खा कर तृप्त हो गये, और बचे हुए टुकड़ों से बारह टोकरे भर गये।
21) भोजन करने वालों में स्त्रिीयों और बच्चों के अतिरिक्त लगभग पाँच हज’ार पुरुष थे।
22) इसके तुरन्त बाद ईसा ने अपने शिष्यों को इसके लिए बाध्य किया कि वे नाव पर चढ़ कर उन से पहले उस पार चले जायें; इतने में वे स्वयं लोगों को विदा कर देंगे।
23) ईसा लोगों को विदा कर एकान्त में प्रार्थना करने पहाड़ी पर चढे’। सन्ध्या होने पर वे वहाँ अकेले थे।
24) नाव उस समय तट से दूर जा चुकी थी। वह लहरों से डगमगा रही थी, क्योंकि वायु प्रतिकूल थी।
25) रात के चौथे पहर ईसा समुद्र पर चलते हुए शिष्यों की ओर आये।
26) जब उन्होंने ईसा को समुद्र पर चलते हुए देखा, तो वे बहुत घबरा गये और यह कहते हुए, ''यह कोई प्रेत है÷÷, डर के मारे चिल्ला उठे।
27) ईसा ने तुरन्त उन से कहा, ''ढारस रखो; मैं ही हूँ। डरो मत।÷÷
28) पेत्रुस ने उत्तर दिया, ''प्रभु! यदि आप ही हैं, तो मुझे पानी पर अपने पास आने की अज्ञा दीजिए÷÷।
29) ईसा ने कहा, ''आ जाओ÷÷। पेत्रुस नाव से उतरा और पानी पर चलते हुए ईसा की ओर बढ़ा;
30) किन्तु वह प्रचण्ड वायु देख कर डर गया और जब डूबने लगा तो चिल्ला उठा, ''प्रभु! मुझे बचाइए''।
31) ईसा ने तुरन्त हाथ बढ़ा कर उसे थाम लिया और कहा, ''अल्’पविश्वासी! तुम्हें संदेह क्यों हुआ?''
32) वे नाव पर चढे और वायु थम गयी।
33) जो नाव में थे, उन्होंने यह कहते हुए ईसा को दण्डवत् किया ''आप सचमुच ईश्वर के पुत्र हैं''।
34) वे पार उतर कर गेनेसरेत पहूँचे।
35) वहाँ के लोगों ने ईसा को पहचान लिया और आसपास के गाँवों में इसकी ख़बर फैला दी। वे सब रोगियों को ईसा के पास ले आ कर
36) उन से अनुनय-विनय करते थे कि वे उन्हें अपने कपड़े का पल्ला भर छूने दें। जितनों ने उसका स्पर्श किया, वे सब-के-सब अच्छे हो गये।

अध्याय 15

1) येरुसालेम के कुछ फ़रीसी और शास्त्री किसी दिन ईसा के पास आये।
2) और यह बोले, ''आपके शिष्य पुरखों की परम्परा क्यों तोड़ते हैं? वे तो बिना हाथ धोये रोटी खाते हैं।''
3) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ''और तुम लोग अपनी ही पराम्परा के नाम के पर ईश्वर की अज्ञा क्यों भंग करते हो?
4) ईश्वर ने कहा- अपने पिता और अपनी माता का आदर करो, और जो अपने पिता या अपनी माता को शाप दे, उसे प्राण दण्ड दिया जाये।
5) परन्तु तुम लोग कहते हो कि यदि कोई अपने पिता या अपनी माता से कहे- आप को मुझ से जो लाभ हो सकता था, वह ईश्वर को आर्पित है,
6) तो वह फिर अपने पिता या अपनी माता को कुछ नहीं दे सकता है। इस प्रकार तुम लोगों ने अपनी परम्परा के नाम पर ईश्वर का वचन रद्द कर दिया है।
7) ढोंगियों! इसायम ने यह कह कर तुम्हारे विषय में ठीक ही भविष्यवाणी की है-
8) ये लोग मुख से मेरा आदर करते हैं, परन्तु इनका हृदय मुझ से दूर है।
9) ये व्यर्थ ही मेरी पूजा करते हैं; और ये जो शिक्षा देते हैं, वह है मनुष्यों के बनाए हुए नियम मात्र।''
10) इसके बाद ईसा ने लोगों को पास बुला कर कहा, ''तुम लोग मेरी बात सुनो और समझो।
11) जो मुहँ में आता है, वह मनुष्य को अशुद्ध करता है; बल्कि जो मुँह से निकालता है, वही मनुष्य को अशुद्ध करता है;
12) बाद में शिष्य आ कर ईसा से बोले, ''क्या आप जानते हैं कि फ़रीसी आपकी बात सुन कर बहुत बुरा मान गये हैं?''
13) ईसा ने उत्तर दिया, ''जो पौधा मेरे स्वर्गिक पिता ने नहीं रोपा है, वह उखाड़ा जायेगा।
14) उन्हें रहने दो; वे अन्धों के अंधे पथप्रदर्शक हैं। यदि अन्धा अन्धे को ले चले, तो दोनों ही गड््ढे में गिर जायेंगे।''
15) इस पर पेत्रुस ने कहा, ''वह दृष्टान्त हमें समझा दीजिए''।
16) ईसा ने उत्तर दिया, ''क्या तुम लोग भी अब तक नासमझ हो?
17) क्या तुम यह नहीं समझते की जो मुँह में पड़ता है, वह पेट में चला जाता है और शौचघर में निकलता है?
18) परन्तु जो मुँह से निकलता है, वह मन से आता है और वही मनुष्य को अशुद्ध करता हैं।
19) क्योंकि बुरे विचार, हत्या, परगमन, व्याभिचार, चोरी, झूठी गवाही और निन्दा- ये सब मन से निकलते हैं।
20) ये ही बातें मनुष्य को अशुद्ध करती है, बिना हाथ धोये भोजन करना, मनुष्य को अशुद्ध नहीं करता।''
21) ईसा ने वहाँ से बिदा होकर तीरूस और सिदोन प्रान्तों के लिए प्रस्थान किया।
22) उस प्रदेश की एक कनानी स्त्री आयी और पुकार-पुकार कर कहती रही, ''प्रभु दाऊद के पुत्र! मुझ पर दया कीजिए। मेरी बेटी एक अपदूत द्वारा बुरी तरह सतायी जा रही है।''
23) ईसा ने उसे उत्तर नहीं दिया। उनके शिष्यों ने पास आ कर उनसे यह निवेदन किया, ''उसकी बात मानकर उसे विदा कर दीजिए, क्योंकि वह हमारे पीछे-पीछे चिल्लाती आ रही है''।
24) ईसा ने उत्तर दिया, ''मैं केवल इस्राएल के घराने की खोई हुई भेड़ों के पास भेजा गया हूँ।
25) इतने में उस स्त्री ने आ कर ईसा को दण्डवत् किया और कहा, ''प्रभु! मेरी सहायता कीजिए''।
26) ईसा ने उत्तर दिया, ''बच्चों की रोटी ले कर पिल्लों के सामने डालना ठीक नहीं है''।
27) उसने कहा, ''जी हाँ, प्रभु! फिर भी स्वामी की मेज’ से गिरा हुआ चूर पिल्ले खाते ही हैं''।
28) इस पर ईसा ने उत्तर दिया ''नारी! तुम्हारा विश्वास महान् है। तुम्हारी इच्छा पूरी हो।'' और उसी क्षण उसकी बेटी अच्छी हो गयी।
29) ईसा वहाँ से चले गये और गलीलिया के समुद्र के तट पर पहुँच कर एक पहाड़ी पर चढे’ और वहाँ बैठ गये।
30) भीड़-की-भीड़ उनके पास आने लगी। वे लँगडे’, लूले, अन्धे, गूँगे और बहुत से दूसरे रोगियों को भी अपने पास ला कर ईसा के चरणों में रख देते और ईसा उन्हें चंगा करते थे।
31) गूँगे बोलते हैं, लूले भले-चंगे हो रहे हैं, लँगड़े चलते और अन्धे देखते हैं- लोग यह देखकर बड़े अचम्भे में पड़ गये और उन्होंने इस्राएल के ईश्वर की स्तुति की।
32) ईसा ने अपने शिष्यों को अपने पास बुला कर कहा, ''मुझे इन लोगों पर तरस आता है। ये तीन दिनों से मेरे साथ रह रहें हैं और इनके पास खाने के लिए कुछ भी नहीं है मैं इन्हें भूखा ही विदा करना नहीं चाहता। कहीं ऐसा न हो कि ये रास्ते में मूर्च्छित हो जायें।''
33) शिष्यों ने उन से कहा, ''इस निर्जन स्थान में हमें इतनी रोटियाँ कहॉ से मिलेंगी कि इतनी बड़ी भीड़ को खिला सकें?''
34) ईसा ने उन से पूछा, ''तुम्हारे पास कितनी रोटियाँ हैं? उन्होंने कहा, ''सात और थोड़ी-सी छोटी मछलियाँ''।
35) ईसा ने लोगों को भूमि पर बैठ जाने का आदेश दिया
36) और वे सात रोटियाँ और मछलियाँ ले कर उन्होंने धन्यवाद की प्रार्थना पढ़ी, और वे रोटियाँ तोड़-तोड़ कर शिष्यों को देते गये और शिष्य लोगों को।
37) सबों ने खाया और खा कर तृप्त हो गये और बचे हुए टुकड़ों से सात टोकरे भर गये।
38) भोजन करने वालों में स्त्रियों और बच्चों के अतिरिक्त चार हज’ार पुरुष थे।
39) ईसा ने लोगों को विदा किया और वे नाव पर चढ़ कर मगादान प्रान्त पहूँचे।

अध्याय 16

1) फ़रीसी और सदूकी ईसा के पास आये और उनकी परीक्षा लेने के लिए उन्होंने स्वर्ग की और का कोई चिन्ह माँगा।
2) ईसा ने उत्तर दिया, ''शाम को तुम लोग कहते हो- मौसम अच्छा रहेगा क्योकि आकाश लाल है।
3) सुबह कहते हो- आज आँधी-पानी होगा, क्योंकि आकाश लाल और बदलों से घिरा हुआ है। यदि तुम लोग आकाश की सूरत पहचान सकते हो, तो समय के लक्षण क्यों नहीं पहचानते?
4) यह दुष्ट और विधर्मी पीढ़ी एक चिन्ह माँगती है, परन्तु नबी योनस के चिन्ह को छोड़ कर इसे और कोई चिन्ह नहीं जायेगा।'' इस पर ईसा उन्हें छोड़ कर चले गये।
5) समुद्र के उस पार जाते समय शिष्य अपने साथ रोटियाँ लेना भूल गये थे।
6) इसलिए जब ईसा ने उन से कहा, ''सावधान रहो। फ़रीसियों और सदूकियों के ख़मीर से बचते रहो'',
7) तो वे आपस में कहने लगे, ''हम रोटियाँ नहीं लाये, इसलिए यह ऐसा कहते हैं''।
8) यह जान कर ईसा ने उन से कहा, अल्पविश्वासियों! तुम लोग यह क्यों सोचते हो कि हमारे पास रोटियाँ नहीं हैं, इसलिए यह ऐसा कहते हैं?
9) क्या तुम अब तक नहीं समझते? क्या उन पाँच हजार लोगों के लिए पाँच रोटियाँ तुम्हें याद नहीं हैं? और तुमने कितने टोकरे भरे थे?
10) और उन चार हजार लोगों के लिए सात रोटियाँ, और तुमने कितने टोकरे भरे थे?
11) तुम लोग क्यों नहीं समझते कि मैंने रोटियों के बारे में यह नहीं कहा कि फ़रीसियों और सदूकियों के ख़मीर से सावधान रहो?
12) तब शिष्य समझ गये कि ईसा ने रोटी के ख़मीर से नहीं, बल्कि फ़रीसियों और सदूकियों की शिक्षा से सावधान रहने को कहा था।
13) ईसा ने कैसरिया फ़िलिपी प्रदेश पहुँच कर अपने शिष्यों से पूछा, ''मानव पुत्र कौन है, इस विषय में लोग क्या कहते हैं?''
14) उन्होंने उत्तर दिया, ''कुछ लोग कहते हैं- योहन बपतिस्ता; कुछ कहते हैं- एलियस; और कुछ लोग कहते हैं- येरेमियस अथवा नबियों में से कोई''।
15) ईस पर ईसा ने कहा, ''और तुम क्सा कहते हो कि मैं कौन हूँ?
16) सिमोन पुत्रुस ने उत्तर दिया, ''आप मसीह हैं, आप जीवन्त ईश्वर के पुत्र हैं''।
17) इस पर ईसा ने उस से कहा, ''सिमोन, योनस के पुत्र, तुम धन्य हो, क्योंकि किसी निरे मनुष्य ने नहीं, बल्कि मेरे स्वर्गिक पिता ने तुम पर यह प्रकट किया है।
18) मैं तुम से कहता हूँ कि तुम पेत्रुस अर्थात् चट्टान हो और इस चट्टान पर मैं अपनी कलीसिया बनाऊँगा और अधोलोक के फाटक इसके सामने टिक नहीं पायेंगे।
19) मैं तुम्हें स्वर्गराज्य की कुंजिया प्रदान करूँगा। तुम पृथ्वी पर जिसका निषेध करोगे, स्वर्ग में भी उसका निषेध रहेगा और पृथ्वी पर जिसकी अनुमति दोगे, स्वर्ग में भी उसकी अनुमति रहेगी।''
20) इसके बाद ईसा ने अपने शिष्यों को कड़ी चेतावनी दी कि तुम लोग किसी को भी यह नहीं बताओ कि मैं मसीह हूँ।
21) उस समय से ईसा अपने शिष्यों को यह समझाने लगे कि मुझे येरुसालेम जाना होगा; नेताओं, महायाजकों और शास्त्रियों की ओर से बहुत दुःख उठाना, मार डाला जाना और तीसरे दिन जी उठना होगा।
22) पेत्रुस ईसा को अलग ले गया और उन्हें यह कहते हुए फटकारने लगा, ''ईश्वर ऐसा न करे। प्रभु! यह आप पर कभी नहीं बीतेगी।''
23) इस पर ईसा ने मुड़ कर, पेत्रुस से कहा ''हट जाओ, शैतान! तुम मेरे रास्ते में बाधा बन रहो हो। तुम ईश्वर की बातें नहीं, बल्कि मनुष्यों की बातें सोचते हो।''
24) इसके बाद ईसा ने अपने शिष्यों से कहा, ''जो मेरा अनुसरण करना चाहता है, वह आत्मत्याग करे और अपना क्रूस उठा कर मेरे पीछे हो ले;
25) क्योंकि जो अपना जीवन सुरक्षित रखना चाहता है, वह उसे खो देगा और जो मेरे कारण अपना जीवन खो देता है, वह उसे सुरक्षित रखेगा।
26) मनुष्य को इस से क्या लाभ यदि वह सारा संसार प्राप्त कर ले, लेकिन अपना जीवन गँवा दे? अपने जीवन के बदले मनुष्य दे ही क्या सकता है?
27) क्योंकि मानव पुत्र अपने स्वर्गदूतों के साथ अपने पिता की महिमा-सहित आयेगा और वह प्रत्येक मनुष्य को उसके कर्म का फल देगा।
28) मैं तुम से कहता हूँ- यहाँ कुछ ऐसे लोग विद्यमान हैं, जो तब तक नहीं मरेंगे, जब तक वे मानव पुत्र को राजकीय प्रताप के साथ आता हुआ न देख लें।''

अध्याय 17

1) छः दिन बाद ईसा ने पेत्रुस, याकूब और उसके भाई योहन को अपने साथ ले लिया और वह उन्हें एक ऊँचे पहाड़ पर एकान्त में ले चले।
2) उनके सामने ही ईसा का रूपान्तरण हो गया। उनका मुखमण्डल सूर्य की तरह दमक उठा और उनके वस्त्र प्रकाश के समान उज्ज्वल हो गये।
3) शिष्यों को मूसा और एलियस उनके साथ बातचीत करते हुए दिखाई दिये।
4) तब पेत्रुस ने ईसा से कहा, ''प्रभु! यहाँ होना हमारे लिए कितना अच्छा है! आप चाहें, तो मैं यहाँ तीन तम्बू खड़ा कर दूगाँ- एक आपके लिए, एक मूसा और एक एलियस के लिए।''
5) वह बोल ही रहा था कि उन पर एक चमकीला बादल छा गया और उस बादल में से यह वाणी सुनाई पड़ी, ''यह मेरा प्रिय पुत्र है। मैं इस पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ; इसकी सुनो।''
6) यह वाणी सुनकर वे मुँह के बल गिर पडे’ और बहुत डर गये।
7) तब ईसा ने पास आ कर उनका स्पर्श किया और कहा, ''उठो, डरो मत''।
8) उन्होंने आँखें ऊपर उठायी, तो उन्हें ईसा के सिवा और कोई नहीं दिखाई पड़ा।
9) ईसा ने पहाड़ से उतरते समय उन्हें यह आदेश दिया, ''जब तक मानव पुत्र मृतकों मे से न जी उठे, तब तक तुम लोग किसी से भी इस दर्शन की चरचा नहीं करोगे''।
10) इस पर उनके शिष्यों ने उन से पूछा, ''शास्त्री यह क्यों कहते हैं कि पहले एलियस को आना है?''
11) ईसा ने उत्तर दिया, ''एलियस अवश्य सब कुछ ठीक करने आयेगा।
12) परन्तु मैं तुम लोगों से कहता हूँ- एलियस आ चुका है। उन्होंने उसे नहीं पहचाना और उसके साथ मनमाना व्यवहार किया। उसी तरह मानव पुत्र भी उनके हाथों दुःख उठायेगा।''
13) तब वे समझ गये कि ईसा योहन बपतिस्ता के विषय में कह रहे हैं।
14) जब वे जनसमूह के पास पहँुचे, तो एक मनुष्य आया और ईसा के सामने घुटने टेक कर बोला,
15) प्रभु! मेरे बेटे पर दया कीजिए। उसे मिरगी का दौरा पड़ा करता है। उसकी हालत बहुत ख़राब है और वह अक्सर आग या पानी में गिर जाता है।
16) मैं उसे आपके शिष्यों के पास लाया, किन्तु वे उसे चंगा नहीं कर सके।''
17) ईसा ने कहा, ''अविश्वासी और दुष्ट पीढ़ी! मैं कब तक तुम्हारे साथ रहूँ? कब तक तुम्हें सहता रहूँ? उस लड़के को यहाँ ले आओ।''
18) ईसा ने अपदूत को डांटा और वह लड़के से निकल गया। वह लड़का उसी घड़ी चंगा हो गया।
19) बाद में शिष्यों ने एकान्त में ईसा के पास आ कर पूछा, ''हम लोग उसे क्यों नहीं निकाल सके?
20) ईसा ने उन से कहा, ''अपने विश्वास की कमी के कारण। मैं तुम से यह कहता हूँ- यदि तुम्हारा विश्वास राई के दाने के बराबर भी हो और तुम इस पहाड़ से यह कहो, 'यहाँ से वहाँ तक हट जा, तो यह हट जायेगा; और तुम्हारे लिए कुछ भी असम्भव नहीं होगा।
21) परन्तु प्रार्थना तथा उपवास के सिवा किसी और उपाय से अपदूतों की यह जाति नहीं निकाली जा सकती।''
22) जब वे गलीलियों में साथ-साथ धूमते थे; तो ईसा ने अपने शिष्यों से कहा, ''मानव पुत्र मनुष्यों के हवाले कर दिया जावेगा।
23) वे उसे मार डालेंगे और वह तीसरे दिन जी उठेगा। यह सुनकर शिष्यों को बहुत दुःख हुआ।
24) जब वे कफ़रनाहूम आये थे, तो मंदिर का कर उगाहने वालों ने पेत्रुस के पास आ कर पूछा, ''क्या तुम्हारे गुरू मंदिर का कर नहीं देते?''
25) उसने उत्तर दिया, ''देते हैं''। जब पेत्रुस घर पहँुचा, तो उसके कुछ कहने से पहले ही ईसा ने पूछा, ''सिमोन! तुम्हारा क्या विचार है? दुनिया के राजा किन लोगों से चुंगी या कर लेते हैं- अपने ही पुत्रों से या परायों से?''
26) पेत्रुस ने उत्तर दिया, ''परायों से''। इस पर ईसा ने उस से कहा, ''तब तो पुत्र कर से मुक्त हैं।
27) फिर भी हम उन लोगों को बुरा उदाहरण न दें; इसलिए तुम समुद्र के किनारे जा कर बंसी डालो। जो मछली पहले फॅसेगी, उसे पकड़ लेना और उसका मुँह खोल देना। उस में तुम्हें एक सिक्का मिलेगा। उस ले लेना और मेरे तथा अपने लिए उन को दे देना।''

अध्याय 18

1) उस समय शिष्य ईसा के पास आ कर बोले, ''स्वर्ग के राज्य में सबसे बड़ा कौन है?''
2) ईसा ने एक बालक को बुलाया और उसे उनके बीच खड़ा कर
3) कहा, ''मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- यदि तुम फिर छोटे बालकों-जैसे नहीं बन जाओगे, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं करोगे।
4) इसलिए जो अपने को इस बालक-जैसा छोटा समझता है, वह स्वर्ग के राज्य में सबसे बड़ा है।
5) और जो मेरे नाम पर ऐसे बालक का स्वागत करता है, वह मेरा स्वागत करता है।
6) ''जो मुझ पर विश्वास करने वाले उन नन्हों में एक के लिए भी पाप का कारण बनता है, उसके लिए अच्छा यही होता कि उसके गले में चक्की का पाट बाँधा जाता और वह समुद्र में डुबा दिया जाता।
7) प्रलोभनों के कारण संसार को धिक्कार! प्रलोभन अनिवार्य है, किन्तु धिक्कार उस मनुष्य को, जो प्रलोभन का कारण बनता है!
8) ''यदि तुम्हारा हाथ अथवा तुम्हारा पैर तुम्हारे लिए पाप का कारण बनता है, तो उसे काट कर फेंक दो। अच्छा यही है कि तुम लूले अथवा लँगडे’ हो कर ही जीवन में प्रवेश करो, किन्तु दोनों हाथों अथवा दोनों पैरों के रहते न बुझने वाली आग में न डाले जाओ।
9) और यदि तुम्हारी आँख तुम्हारे लिए पाप का कारण बनती है, तो उसे निकाल कर फेंक दो। अच्छा यही है कि तुम काने हो कर ही जीवन में प्रवेश करो, किन्तु दोनों आँखों के रहते आग के नरक में न डाले जाओ।
10) ''सावधान रहो, उन नन्हों में एक को भी तुच्छ न समझो। मैं तुम से कहता हूँ- उनके दूत स्वर्ग में निरन्तर मेरे स्वर्गिक पिता के दर्शन करते हैं।
11) ''जो खो गया था उसी को बचाने के लिए मानव पुत्र आया है।
12) तुम्हारा क्या विचार है - यदि किसी के एक सौ भेड़ें हों और उन में से एक भी भटक जाये, तो क्या वह उन निन्यानबे भेड़ों को पहाड़ी पर छोड़ कर उस भटकी हुई को खोजने नहीं जायेगा?
13) और यदि वह उसे पाये, तो मैं विश्वास दिलाता हूँ कि उसे उन निन्यानबे की अपेक्षा, जो भटकी नहीं थी, उस भेड़ के कारण अधिक आनंद होगा।
14) इसी तरह मेरा स्वर्गिक पिता नहीं चाहता कि उन नन्हों में से एक भी खो जाये।
15) ''यदि तुम्हारा भाई कोई अपराध करता है, तो जा कर उसे अकेले में समझाओ। यदि वह तुम्हारी बात मान जाता है, तो तुमने अपनी भाई को बचा लिया।
16) यदि वह तुम्हारी बात नहीं मानता, तो और दो-एक व्यक्तियों को साथ ले जाओ ताकि दो या तीन गवाहों के सहारे सब कुछ प्रमाणित हो जाये।
17) यदि वह उनकी भी नहीं सुनता, तो कलीसिया को बता दो और यदि वह कलीसिया की भी नहीं सुनता, तो उसे गैर-यहूदी और नाकेदार जैसा समझो।
18) मैं तुम से कहता हूँ- तुम लोग पृथ्वी पर जिसका निषेध करोगे, स्वर्ग में भी उसका निषेध रहेगा और पृथ्वी पर जिसकी अनुमति दोगे, स्वर्ग में भी उसकी अनुमति रहेगी।
19) ''मैं तुम से यह भी कहता हूँ- यदि पृथ्वी पर तुम लोगों में दो व्यक्ति एकमत हो कर कुछ भी माँगेगे, तो वह उन्हें मेरे स्वर्गिक पिता की और से निश्चय ही मिलेगा;
20) क्योंकि जहाँ दो या तीन मेरे नाम इकट्टे होते हैं, वहाँ में उनके बीच उपस्थित रहता हूँ।''
21) तब पेत्रुस ने पास आ कर ईसा से कहा, ''प्रभु! यदि मेरा भाई मेरे विरुद्ध अपराध करता जाये, तो मैं कितनी बार उसे क्षमा करूँ? सात बार तक?''
22) ईसा ने उत्तर दिया, ''मैं तुम से नहीं कहता 'सात बार तक', बल्कि सत्तर गुना सात बार तक।
23) ''यही कारण है कि स्वर्ग का राज्य उस राजा के सदृश है, जो अपने सेवकों से लेखा लेना चाहता था।
24) जब वह लेखा लेने लगा, तो उसका लाखों रुपये का एक कर्ज’दार उसके सामने पेश किया गया।
25) अदा करने के लिए उसके पास कुछ भी नहीं था, इसलिए स्वामी ने आदेश दिया कि उसे, उसकी पत्नी, उसके बच्चों और उसकी सारी जायदाद को बेच दिया जाये और ऋण अदा कर लिया जाये।
26) इस पर वह सेवक उसके पैरों पर गिर कर यह कहते हुए अनुनय-विनय करता रहा, 'मुझे समय दीजिए, और मैं आपको सब चुका दूँगा।
27) उस सेवक के स्वामी को तरस हो आया और उसने उसे जाने दिया और उसका कजर्’ माफ़ कर दिया।
28) जब वह सेवक बाहर निकला, तो वह अपने एक सह- सेवक से मिला, जो उसका लगभग एक सौ दीनार का कर्ज’दार था। उसने उसे पकड़ लिया और उसका गला घोंट कर कहा, 'अपना कर्ज’ चुका दो'।
29) सह-सेवक उसके पैरों पर गिर पड़ा और यह कहते हुए अनुनय-विनय करता रहा, 'मुझे समय दीजिए और मैं आपको चुका दूँगा'।
30) परन्तु उसने नहीं माना और जा कर उसे तब तक के लिये बन्दीगृृह में डलवा दिया, जब तक वह अपना कर्ज’ न चुका दे!
31) यह सब देख कर उसके दूसरे सह-सेवक बहुत दुःखी हो गये और उन्होंने स्वामी के पास जा कर सारी बातें बता दीं।
32) तब स्वामी ने उस सेवक को बुला कर कहा, 'दृष्ट सेवक! तुम्हारी अनुनय-विनय पर मैंने तुम्हारा वह सारा कजर्’ माफ़ कर दिया था,
33) तो जिस प्रकार मैंने तुम पर दया की थी, क्या उसी प्रकार तुम्हें भी अपने सह-सेवक पर दया नहीं करनी चाहिए थी?'
34) और स्वामी ने क्रुद्ध होकर उसे तब तक के लिए जल्लादों के हवाले कर दिया, जब तक वह कौड़ी-कौड़ी न चुका दे।
35) यदि तुम में हर एक अपने भाई को पूरे हृदय से क्षमा नहीं करेगा, तो मेरा स्वर्गिक पिता भी तुम्हारे साथ ऐसा ही करेगा।''

अध्याय 19

1) अपना यह उपदेश समाप्त कर ईसा गलीलिया से चले गये और यर्दन के पार यहूदिया प्रदेश पहूँचे।
2) एक विशाल जनसमूह उनके पीछे हो लिया और ईसा ने वहाँ लोगों को चंगा किया।
3) फ़रीसी ईसा के पास आये और उनकी परीक्षा लेते हुए यह प्रश्न किया, ''क्या किसी भी कारण से अपनी पत्नी का परित्याग करना उचित है?
4) ईसा ने उत्तर दिया, ''क्या तुम लोगों ने यह नहीं पढ़ा कि सृष्टिकर्ता ने प्रारंभ से ही उन्हें नर-नारी बनाया।
5) और कहा कि इस कारण पुरुष अपने माता-पिता को छोडे’गा और अपनी पत्नी के साथ रहेगा, और वे दोनों एक शरीर हो जायेंगे?
6) इस तरह अब वे दो नहीं, बल्कि एक शरीर है। इसलिए जिसे ईश्वर ने जोड़ा है, उसे मनुष्य अलग नहीं करे।''
7) उन्होंने ईसा से कहा, ''तब मूसा ने पत्नी का परित्याग करते समय त्यागपत्र देने का आदेश क्यों दिया?
8) ईसा ने उत्तर दिया, ''मूसा ने तुम्हारे हृदय की कठोरता के कारण ही तुम्हें पत्नी का परित्याग करने की अनुमति दी, किन्तु प्रारम्भ से ऐसा नहीं था।
9) मैं तुम लोगों से कहता हूँ कि व्यभिचार के सिवा किसी अन्य कारण से जो अपनी पत्नी का परित्याग करता और किसी दूसरी स्त्री से विवाह करता है, वह भी व्यभिचार करता है।''
10) शिष्यों ने ईसा से कहा, ''यदि पति और पत्नी का सम्बन्ध ऐसा है, तो विवाह नहीं करना अच्छा ही है''।
11) ईसा ने उन से कहा ''सब यह बात नहीं समझते, केवल वे ही समझते हैं जिन्हें यह वरदान मिला है;
12) क्योंकि कुछ लोग माता के गर्भ से नपुंसक उत्पन्न हुए हैं, कुछ लोगों को मनुष्यों ने नपुंसक बना दिया है और कुछ लोगों ने स्वर्गराज्य के निमित्त अपने को नपुंसक बना लिया है। जो समझ सकता है, वह समझ ले।''
13) उस समय लोग ईसा के पास बच्चों को लाते थे, जिससे वे उन पर हाथ रख कर प्रार्थना करें। शिष्य लोगों को डॉटते थे,
14) परन्तु ईसा ने कहा, ''बच्चों को आने दो और उन्हें मेरे पास आने से मत रोको, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन-जैसे लोगों का है''।
15) और वह बच्चों पर हाथ रख कर वहाँ से चले गये।
16) एक व्यक्ति ईसा के पास आ कर बोला, ''गुरुवर! अनन्त जीवन प्राप्त करने के लिए मैं कौन-सा भला कार्य करूँ?''
17) ईसा ने उत्तर दिया, ''भले के विषय में मुझ से क्यों पूछते हो? एक ही तो भला है। यदि तुम जीवन में प्रवेश करना चाहते हो, तो आज्ञाओं का पालन करो।''
18) उसने पूछा, ''कौन-सी आज्ञाएं?'' ईसा ने कहा, ''हत्या मत करो; व्यभिचार मत करो; चोरी मत करो; झूठी गवाही मत दो;
19) अपने माता पिता का आदर करो; और अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो''।
20) नवयुवक ने उन से कहा, ''मैने इन सब का पालन किया है। मुझ में किस बात की कमी है?''
21) ईसा ने उसे उत्तर दिया, ''यदि तुम पूर्ण होना चाहते हो, तो जाओ, अपनी सारी सम्पत्ति बेच कर गरीबों को दे दो और स्वर्ग में तुम्हारे लिए पूँजी रखी रहेगी, तब आकर मेरा अनुसरण करो।''
22) यह सुन कर वह नव-युवक बहुत उदास हो कर चला गया, क्योंकि वह बहुत धनी था।
23) तब ईसा ने अपने शिष्यों से कहा, ''मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- धनी के लिए स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना कठिन होगा।
24) मैं यह भी कहता हूँ कि सूई के नाके से हो कर ऊँट का निकलना अधिक सहज है, किन्तु धनी का ईश्वर के राज्य में प्रवेश करना कठिन है।''
25) यह सुनकर शिष्य बहुत अधिक विस्मित हो गये और बोले, ''तो फिर कौन बच सकता है।''
26) उन्हें स्थिर दृष्टि से देखते हुए ईसा ने कहा, ''मनुष्यों के लिए तो यह असम्भव है। ईश्वर के लिए सब कुछ सम्भव है।''
27) तब पेत्रुस ने ईसा से कहा, ''देखिए, हम लोग अपना सब कुछ छोड़ कर आपके अनुयायी बन गये हैं। तो, हमें क्या मिलेगा?''
28) ईसा ने अपने शिष्यों से कहा, ''मैं तुम, अपने अनुयायियों से यह कहता हूँ- मानव पुत्र जब पुनरुत्थान में अपने महिमामय सिहांसन पर विराजमान होगा, तब तुम लोग भी बारह सिंहासनों पर बैठ कर इस्राएल के बारह वंशों का न्याय करोगे।
29) और जिसने मेरे लिए घर, भाई-बहनों, माता-पिता, पत्नी, बाल-बच्चों अथवा खेतों को छोड दिया है, वह सौ गुना पायेगा और अनन्त जीवन का अधिकारी होगा।
30) बहुत-से लोग, जो अगलें हैं, पिछले हो जायेंगे और जो पिछले हैं, अगले हो जायेंगे।

अध्याय 20

1) ''स्वर्ग का राज्य उस भूमिधर के सदृश है, जो अपनी दाखबारी में मज’दूरों को लगाने के लिए बहुत सबेरे घर से निकला।
2) उसने मज’दूरों के साथ एक दीनार का रोज’ाना तय किया और उन्हें अपनी दाखबारी भेजा।
3) लगभग पहले पहर वह बाहर निकला और उसने दूसरों को चौक में बेकार खड़ा देख कर
4) कहा, 'तुम लोग भी मेरी दाखबारी जाओ, मैं तुम्हें उचित मज’दूरी दे दूँगा' और वे वहाँ गये।
5) लगभग दूसरे और तीसरे पहर भी उसने बाहर निकल कर ऐसा ही किया।
6) वह एक घण्टा दिन रहे फिर बाहर निकला और वहाँ दूसरों को खड़ा देख कर उन से बोला, 'तुम लोग यहाँ दिन भर क्यों बेकार खड़े हो'
7) उन्होंने उत्तर दिया, 'इसलिए कि किसी ने हमें मज’दूरी में नहीं लगाया' उसने उन से कहा, 'तुम लोग भी मेरी दाखबारी जाओ।
8) ''सन्ध्या होने पर दाखबारी के मालिक ने अपने कारिन्दों से कहा, 'मज’दूरों को बुलाओ। बाद में आने वालों से ले कर पहले आने वालों तक, सब को मज’दूरी दे दो'।
9) जब वे मज’दूर आये, जो एक घण्टा दिन रहे काम पर लगाये गये थे, तो उन्हें एक एक दीनार मिला।
10) जब पहले मज’दूर आये, तो वे समझ रहे थे कि हमें अधिक मिलेगा; लेकिन उन्हें भी एक-एक दीनार ही मिला।
11) उसे पाकर वे यह कहते हुए भूमिधर के विरुद्ध भुनभुनाते थे,
12) इन पिछले मज’दूरों ने केवल घण्टे भर काम किया। तब भी आपने इन्हें हमारे बराबर बना दिया, जो दिन भर कठोर परिश्रम करते और धूप सहते रहे।'
13) उसने उन में से एक को यह कहते हुए उत्तर दिया, 'भई! मैं तुम्हारे साथ अन्याय नहीं कर रहा हूँ। क्या तुमने मेरे साथ एक दीनार नहीं तय किया था?
14) अपनी मजदूरी लो और जाओ। मैं इस पिछले मजदूर को भी तुम्हारे जितना देना चाहता हूँ।
15) क्या मैं अपनी इच्छा के अनुसार अपनी सम्पत्ति का उपयोग नहीं कर सकता? तुम मेरी उदारता पर क्यों जलते हो?
16) इस प्रकार जो पिछले हैं, अगले हो जायेंगे और जो अगले है, पिछले हो जायेंगे।''
17) ईसा येरुसालेम के मार्ग पर आगे बढ रहे थे। बारहों को अलग ले जा कर उन्होंने रास्ते में उन से कहा,
18) ''देखो, हम येरुसालेम जा रहे हैं। मानव पुत्र महायाजकों और शास्त्रियों के हवाले कर दिया जायेगा।
19) वे उसे प्राणदण्ड की आज्ञा सुना कर गैर-यहूदियों के हवाले कर देंगे, जिससे वे उसका उपहास करें, उसे कोडे’ लगायें और क्रूस पर चढायें; लेकिन तीसरे दिन वह जी उठेगा।''
20) उस समय जेबेदी के पुत्रों की माता अपने पुत्रों के साथ ईसा के पास आयी और उसने दण्डवत् कर उन से एक निवेदन करना चाहा।
21) ईसा ने उस से कहा, ''क्या चाहती हो?'' उसने उत्तर दिया, ''ये मेरे दो बेटे हैं। आप आज्ञा दीजिए कि आपके राज्य में एक आपके दायें बैठे और एक आपके बायें।''
22) ईसा ने उन से कहा, ''तुम नहीं जानते कि क्या माँग रहे हो। जो प्याला मैं पीने वाला हूँ, क्या तुम उसे पी सकते हो?'' उन्होंने उत्तर दिया, ''हम पी सकते हैं।''
23) इस पर ईसा ने उन से कहा, ''मेरा प्याला तुम पिओगे, किन्तु तुम्हें अपने दायें या बायें बैठने का अधिकार मेरा नहीं है। वे स्थान उन लोगों के लिए हैं, जिनके लिए मेरे पिता ने उन्हें तैयार किया है।''
24) जब दस प्रेरितों को यह मालूम हुआ, तो वे दोनों भाइयों पर क्रुद्ध हो गये।
25) ईसा ने अपने शिष्यों को अपने पास बुला कर कहा, ''तुम जानते हो कि संसार के अधिपति अपनी प्रजा पर निरंकुश शासन करते हैं और सत्ताधारी लोगों पर अधिकार जताते हैं।
26) तुम में ऐसी बात नहीं होगी। जो तुम लोगों में बडा होना चाहता है, वह तुम्हारा सेवक बने
27) और जो तुम में प्रधान होना चाहता है, वह तुम्हारा दास बने;
28) क्योंकि मानव पुत्र भी अपनी सेवा कराने नहीं, बल्कि सेवा करने तथा बहुतों के उद्धार के लिए अपने प्राण देने आया है।''
29) जब वे येरीखो से निकल रहे थे; तो एक विशाल जनसमूह ईसा के पीछे-पीछे चल रहा था।
30) सड़क के किनारे दो अन्धे बैठे हुए थे। जब उन्होंने यह सुना कि ईसा सामने से गुजर रहें हैं, तो वे पुकार-पुकार कर कहने लगे, ''प्रभु! दाउद के पुत्र! हम पर दया कीजिए''।
31) लोग उन्हें चुप करने के लिए डाँटते थे, किन्तु वे और भी जोर से पुकारते रहे, ''प्रभु! दाउद के पुत्र ! हम पर दया कीजिए''।
32) ईसा ने रुक कर उन्हें बुलाया और कहा, ''तुम क्या चाहते हो? मैं तुम्हारे लिए क्या करूँ?''
33) उन्होंने उत्तर दिया, ''प्रभु! हमारी आँखें अच्छी हो जायें''।
34) ईसा को तरस हो आया और उन्होंने उनकी आँखों का स्पर्श किया। उसी क्षण उनकी दृष्टि लौट आयी और वे ईसा के पीछे हो लिये।

अध्याय 21

1) जब वे येरुसालेम के निकट पहुँचे और जैतून पहाड़ के समीप बेथफगे आ गये, तो ईसा ने दो शिष्यों को यह कहते हुए भेजा,
2) ''सामने के गॉव जाओ। वहाँ पहुँचते ही तुम्हें बँधी हुई गदही मिलेगी और उसके साथ एक बछेड़ा। उन्हें खोल कर मेरे पास ले आओ।
3) यदि कोई कुछ बोले, तो कह देना- प्रभु को इनकी ज’रूरत है, वह इन्हें शीघ्र ही वापस भेज देंगे।''
4) यह इसलिए हुआ कि नबी का यह कथन पूरा हो जाये।
5) सियोन की पुत्री से कहोः देख! तेरे राजा तेरे पास आते
6) शिष्य चल पड़े। ईसा ने जैसा आदेश दिया, उन्होंने वैसा ही किया।
7) गदही और बछेडा ले आ कर उन्होंने उन पर अपने कपड़े बिछा दिये और ईसा सवार हो गये।
8) भीड़ में से बहुत-से लोगों ने अपने कपडे’ रास्ते में बिछा दिये। कुछ लोगों ने पेड़ों की डालियाँ काट कर रास्ते में फैला दी।
9) ईसा के आगे-आगे जाते हुए और पीछे -पीछे आते हुए लोग यह नारा लगा रहे थे, ''दाऊद के पुत्र को होसन्ना! धन्य हैं वह जो प्रभु के नाम पर आते हैं! सर्वोच्च स्वर्ग में होसन्ना!÷
10) जब ईसा येरुसालेम आये, तो सारे शहर में हलचल मच गयी। लोग पूछते थे, ''यह कौन है?''
11) और जनता उत्तर देती थी ''यह गलीलिया के नाज’रेत के नबी ईसा हैं''।
12) ईसा ने मन्दिर में प्रवेश किया और वहाँ से सब बेचने और ख़रीदने वालों को बाहर निकाल दिया। उन्होंने सराफ़ों की मेजें’ और कबूतर बेचने वालों की चौकियाँ उलट दीं
13) और उन से कहा, ''लिखा है- मेरा घर प्रार्थना का घर कहलायेगा, परन्तु तुम लोग उसे लुटेरों का अड्डा बनाते हो''।
14) मन्दिर में अन्धे और लँगड़े ईसा के पास आये और उन्होंने उन को चंगा किया।
15) जब महायाजकों और शास्त्रियों ने उनके चमत्कार देखे और बालकों को मंदिर में यह नारा लगाते सुना- 'दाऊद के पुत्र को होन्न!', तो वे क्रुद्ध हो कर
16) ईसा से बोले, ''क्या तुम सुनते हो कि ये क्या कह रहे हैं?'' ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ''सुनता तो हूँ। क्या तुम लोगों ने कभी यह नहीं पढ़ा- बालकों और दुधमुँहे बच्चों के मुख से तूने अपना गुणगान कराया है?''
17) इतना कह कर ईसा ने उन्हें छोड़ दिया और शहर से निकल कर वह बेथनिया गये और रात को वहीं रहे।
18) सबेरे शहर लौटते समय ईसा को भूख लगी।
19) वे रास्ते के किनारे अंजीर का पेड़ देख कर उसके पास आये। उन्होंने उस में पत्तों के सिवा और कुछ नहीं पाया और कहा, ''तुझ में फिर कभी फल न लगे'' और उसी क्षण अंजीर का वह पेड़ सूख गया।
20) यह देख कर शिष्य अचम्भे में पड़ गये और बोले, अंजीर का यह पेड़ तुरन्त कैसे सूख गया?''
21) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ''मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- यदि तुम्हें विश्वास हो और तुम संदेह न करो, तो तुम न केवल वह करोगे, जो मैं अंजीर के पेड़ के साथ कर चुका हूँ, बल्कि यदि तुम इस पहाड़ से यह कहो - 'उठ, समुद्र में गिर जा', तो वैसा ही हो जायेगा।
22) और जो कुछ तुम विश्वास के साथ प्रार्थना में माँगोगे, वह तुम्हें मिल जायेगा।''
23) जब ईसा मंदिर पहुँच गये थे और शिक्षा दे रहे थे, तो महायाजक और जनता के नेता उनके पास आ कर बोले, ''आप किस अधिकार से यह सब कर रहें हैं? किसने आप को यह अधिकार दिया ?''
24) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ''मैं भी आप लोगों से एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ। यदि आप मुझे इसका उत्तर देंगे, तो मैं भी आपको बता दूँगा कि मैं किस अधिकार से यह सब कर रहा हूँ।
25) योहन का बपतिस्मा कहाँ का था? स्वर्ग का अथवा मनुष्यों का?'' वे यह कहते हुए आपस में परामर्श करते थे - ''यदि हम कहें : 'स्वर्ग का', तो यह हम से कहेंगे, 'तब आप लोगों ने उस पर विश्वास क्यों नहीं किया?'
26) यदि हम कहें : 'मनुष्यों का' ‘, तो जनता से डर है! क्योंकि सब योहन को नबी मानते हैं।''
27) इसलिए उन्होंने ईसा को उत्तर दिया, ''हम नहीं जानते''। इस पर ईसा ने उन से कहा, ''तब मैं भी आप लोगों को नहीं बताऊँगा कि मैं किस अधिकार से यह सब कर रहा हँू।
28) ''तुम लोगों का क्या विचार है? किसी मनुष्य के दो पुत्र
29) उसने उत्तर दिया, 'मैं नहीं जाऊँगा', किन्तु बाद में उसे पश्चात्ताप हुआ और वह गया।
30) पिता ने दूसरे पुत्र के पास जा कर यही कहा। उसने उत्तर दिया, 'जी हा,ँ पिताजी! किन्तु वह नहीं गया।
31) दोनों में से किसने अपने पिता की इच्छा पूरी की?'' उन्होंने ईसा को उत्तर दिया, ''पहले ने''। इस पर ईसा ने उन से कहा, ''मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- नाकेदार और वैश्याएँ तुम लोगों से पहले ईश्वर के राज्य में प्रवेश करेंगे।
32) योहन तुम्हें धार्मिकिता का मार्ग दिखाने आया और तुम लोगों ने उस पर विश्वास नहीं किया, परंतु नाकेदारों और वेश्यायों ने उस पर विश्वास किया। यह देख कर तुम्हें बाद में भी पश्चात्ताप नहीं हुआ और तुम लोगों ने उस पर विश्वास नहीं किया।
33) ''एक दूसरा दृष्टान्त सुनो। किसी भूमिधर ने दाख की बारी लगवायी, उसके चारों ओर घेरा बनवाया, उस में रस का कुण्ड खुदवाया और पक्का मचान बनवाया। तब उसे असामियों को पट्ठे पर दे कर वह परदेश चला गया।
34) फसल का समय आने पर उसने फसल का हिस्सा वसूल करने के लिए असामियों के पास अपने नौकरों को भेजा।
35) किन्तु असामियों ने उसके नौकरों को पकड़ कर उन में से किसी को मारा-पीटा, किसी की हत्या कर दी और किसी को पत्थरों से मार डाला।
36) इसके बाद उसने पहले से अधिक नौकरों को भेजा और असामियों ने उनके साथ भी वैसा ही किया।
37) अन्त में उसने यह सोच कर अपने पुत्र को उनके पास भेजा कि वे मेरे पूत्र का आदर करेंगे।
38) किन्तु पुत्र को देख कर असामियों ने एक दूसरे से कहा, 'यह तो उत्तराधिकारी है। चला,े हम इसे मार डालें और इसकी विरासत पर कब्जा कर लें।'
39) उन्होंने उसे पकड़ लिया और दाखबारी से बाहर निकाल कर मार डाला।
40) जब दाखबारी का स्वामी लौटेगा, तो वह उन असामियों का क्या करेगा?''
41) उन्होंने ईसा से कहा, ''वह उन दृष्टों का सर्वनाश करेगा और अपनी दाखबारी का पट्ठा दूसरे असामियों को देगा, जो समय पर फसल का हिस्सा देते रहेंगे''।
42) ईसा ने उन से कहा, ''क्या तुम लोगों ने धर्मग्रन्थ में कभी यह नहीं पढा? करीगरों ने जिस पत्थर को बेकार समझ कर निकाल दिया था, वही कोने का पत्थर बन गया है। यह प्रभु का कार्य है। यह हमारी दृष्टि में अपूर्व है।
43) इसलिए मैं तुम लोगों से कहता हूँ- स्वर्ग का राज्य तुम से ले लिया जायेगा और ऐसे राष्ट्रों को दिया जायेगा, जो इसका उचित फल उत्पन्न करेगा।
44) ''जो इस पत्थर पर गिरेगा, वह चूर-चूर हो जायेगा और जिस पर वह पत्थर गिरेगा, उस को पीस डालेगा।''
45) महायाजक और फरीसी उनके दृष्टान्त सुन कर समझ गये कि वह हमारे विषय में कह रहे हैं।
46) वे उन्हें गिरफ्तार करना चाहते थे, किन्तु वे जनता से डरते थे; क्योंकि वह ईसा को नबी मानती थी।

अध्याय 22

1) ईसा उन्हें फिर दृष्टान्त सुनाने लगे। उन्होंने कहा,
2) ''स्वर्ग का राज्य उस राजा के सदृश है, जिसने अपने पुत्र के विवाह में भोज दिया।
3) उसने आमन्त्रित लोगों को बुला लाने के लिए अपने सेवकों को भेजा, लेकिन वे आना नहीं चाहते थे।
4) राजा ने फिर दूसरे सेवकों को यह कहते हुए भेजा, 'अतिथियों से कह दो- देखिए! मैंने अपने भोज की तैयारी कर ली है। मेरे बैल और मोटे-मोटे जानवर मारे जा चुके हैं। सब कुछ तैयार है; विवाह-भोज में पधारिये।'
5) अतिथियों ने इस की परवाहा नहीं की। कोई अपने खेत की और चला गया, तो कोई अपना व्यापार देखने।
6) दूसरे अतिथियों ने राजा के सेवकों को पकड़ कर उनका अपमान किया और उन्हें मार डाला।
7) राजा को बहुत क्रोध आया। उसने अपनी सेना भेज कर उन हत्यारों का सर्वनाश किया और उनका नगर जला दिया।
8) ''तब राजा ने अपने सेवकों से कहा, 'विवाह-भोज की तैयारी तो हो चुकी है, किन्तु अतिथि इसके योग्य नहीं ठहरे।
9) इसलिए चौराहों पर जाओ और जितने भी लोग मिल जायें, सब को विवाह-भोज में बुला लाओ।'
10) सेवक सड़कों पर गये और भले-बुरे जो भी मिले, सब को बटोर कर ले आये और विवाह-मण्डप अतिथियों से भर गया।
11) ''राजा अतिथियों को देखने आया, तो वहाँ उसकी दृष्टि एक ऐसे मनुष्य पर पड़ी, जो विवाहोत्सव के वस्त्र नहीं पहने था।
12) उसने उस से कहा, 'भई विवाहोत्सव के वस्त्र पहने बिना तुम यहाँ कैसे आ गये?' वह मनुष्य चुप रहा।
13) तब राजा ने अपने सेवकों से कहा, 'इसके हाथ-पैर बाँध कर इसे बाहर, अन्धकार में फेंक दो। वहाँ वे लोग रोयेंगे और दाँत पीसते रहेंगे।'
14) क्योंकि बुलाये हुए तो बहुत हैं, लेकिन चुने हुए थोडे’ हैं।''
15) उस समय फरीसियों ने जा कर आपस में परामर्श किया कि हम किस प्रकार ईसा को उनकी अपनी बात के फन्दे में फँसायें।
16) इन्होंने ईसा के पास हेरोदियों के साथ अपने शिष्यों को यह प्रश्न पूछने भेजा, ''गुरुवर! हम यह जानते हैं कि आप सत्य बोलते हैं और सच्चाई से ईश्वर के मार्ग कि शिक्षा देते हैं। आप को किसी की परवाह नहीं। आप मुँह-देखी बात नहीं करते।
17) इसलिए हमें बताइए, आपका क्या विचार है- कैसर को कर देना उचित है या नहीं''
18) उनकी धूर्त्तता भाँप कर ईसा ने कहा, ''ढ़ोगियों! मेरी परीक्षा क्यों लेते हो?
19) कर का सिक्का मुझे दिखलाओ।'' जब उन्होंने एक दीनार प्रस्तुत किया,
20) तो ईसा ने उन से कहा, ''यह किसका चेहरा और किसका लेख है?''
21) उन्होंने उत्तर दिया, ''कैसर का''। इस पर ईसा ने उन से कहा, ''तो, जो कैसर का है, उसे कैसर को दो और जो ईश्वर का है, उसे ईश्वर को''।
22) यह सुन कर वे अचम्भे में पड़ गये और ईसा को छोड़ कर चले गये।
23) उसी दिन सदूकी ईसा के पास आये। उनकी धारणा है कि पुनरुत्थान नहीं होता।
24) उन्होने ईसा के सामने यह प्रश्न रखा, ''गुरुवर! मूसा ने कहा- यदि कोई निस्सन्तान मर जाये, तो उसका भाई उसकी विधवा को ब्याह कर अपने भाई के लिए संतान उत्पन्न करे।
25) अब, हमारे यहाँ सात भाई थे। पहले ने विवाह किया और निस्सन्तान मर कर अपनी पत्नी को अपने भाई के लिये छोड़ दिया।
26) दूसरे और तीसरे आदि सातों भाइयों के साथ वही हुआ।
27) सबों के बाद वह स्त्री मर गई।
28) अब पुनरुत्थान में वह सातों में से किसकी पत्नी होगी? वह तो सबों की पत्नी रह चुकी है।''
29) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ''तुम लोग न तो धर्मग्रन्थ जानते हो और न र्ईश्वर का सामर्थ्य, इसलिए भ्रम में पडे’ हुए हो।
30) पुनरुत्थान में न तो पुरुष विवाह करते और न स्त्रियाँ विवाह में दी जाती हैं, बल्कि वे स्वर्गदूतों के सदृश होते हैं।
31) ''जहाँ तक मृतकों के पुनरुत्थान का प्रश्न है, क्या तुम लोगों ने कभी यह नहीं पढा कि ईश्वर ने तुम से कहा -
32) मैं इब्राहीम का ईश्वर, इसहाक का ईश्वर और याकूब का ईश्वर हूँ? वह मुतकों का नहीं, जीवतों का ईश्वर है।''
33) यह सुन कर लोग उनकी शिक्षा पर बडे’ अचम्भे में पड़ गये।
34) जब फरीसियों ने यह सुना कि ईसा ने सदूकियों का मुँह बन्द कर दिया था, तो वे इकट्ठे हो गये।
35) और उन में से एक शास्त्री ने ईसा की परीक्षा लेने के लिए उन से पूछा,
36) गुरुवर! संहिता में सब से बड़ी आज्ञा कौन-सी है?''
37) ईसा ने उस से कहा, ''अपने प्रभु-ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा और अपनी सारी बुद्धि से प्यार करो।
38) यह सब से बड़ी और पहली आज्ञा है।
39) दूसरी आज्ञा इसी के सदृश है- अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो।
40) इन्हीं दो आज्ञायों पर समस्त संहिता और नबियों की शिक्षा अवलम्बित हैं।''
41) ईसा ने इकट्ठे हुए फरीसियों से पूछा,
42) ''मसीह के बारे में तुम लोगों का क्या विचार है- वे किसके पुत्र हैं?'' उन्होंने उत्तर दिया, ''दाऊद के''।
43) इस पर ईसा ने उन से कहा, ''तब दाऊद आत्मा की प्रेरणा से उन्हें प्रभु क्यों कहते हैं? उन्होंने तो लिखा है-
44) प्रभु ने मेरे प्रभु से कहा, तुम तब तक मेरे दाहिने बैठे रहो, जब तक मैं तुम्हारे शत्रुओं को तुम्हारे पैरों तले न डाल दूँ।
45) ''यदि दाऊद उन्हें प्रभु कहते हैं, तो वह उनके पुत्र कैसे हो सकते हैं?''
46) इसके उत्तर में कोई ईसा से एक शब्द भी नहीं बोल सका और उस दिन से किसी को उन से और प्रश्न करने का साहस नहीं हुआ।

अध्याय 23

1) उस समय ईसा ने जनसमूह तथा अपने शिष्यों से कहा,
2) ''शास्त्री और फरीसी मूसा की गद्दी पर बैठे हैं,
3) इसलिए वे तुम लोगों से जो कुछ कहें, वह करते और मानते रहो; परंतु उनके कर्मों का अनुसरण न करो,
4) क्योंकि वे कहते तो हैं, पर करते नहीं। वे बहुत-से भारी बोझ बाँध कर लोगों के कन्धों पर लाद देते हैं, परंतु स्वंय उँगली से भी उन्हें उठाना नहीं चाहते।
5) वे हर काम लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए करते हैं। वे अपने तावीज चौडे’ और अपने कपड़ों के झब्बे लम्बे कर देते हैं।
6) भोजों में प्रमुख स्थानों पर और सभागृहों में प्रथम आसनों पर विराजमान होना,
7) बाज’ारों में प्रणाम-प्रणाम सुनना और जनता द्वारा गुरुवर कहलाना- यह सब उन्हें बहुत पसन्द है।
8) ''तुम लोग 'गुरुवर' कहलाना स्वीकार न करो, क्योंकि एक ही गुरू है और तुम सब-के-सब भाई हो।
9) पृथ्वी पर किसी को अपना 'पिता' न कहो, क्योंकि तुम्हारा एक ही पिता है, जो स्वर्ग में है।
10) 'आचार्य' कहलाना भी स्वीकार न करो, क्योंकि तुम्हारा एक ही आचार्य है अर्थात् मसीह।
11) जो तुम लोगों में से सब से बड़ा है, वह तुम्हारा सेवक बने।
12) जो अपने को बडा मानता है, वह छोटा बनाया जायेगा। और जो अपने को छोटा मानता है, वह बडा बनाया जायेगा।
13) ''ढोंगी शास्त्रियों और फरीसियों! धिक्कार तुम लोगों को! तुम मनुष्यों के लिए स्वर्ग का राज्य बन्द कर देते हो।
14) तुम स्वय प्रवेश नहीं करते और जो प्रवेश करना चाहते हैं, उन्हें रोक देते हो।
15) ''ढोंगी शास्त्रियों और फरीसियों! धिक्कार तुम लोगों को! एक चेला बनाने के लिए तुम जल और थल लाँघ जाते हो और जब वह चेला बन जाता है, तो उसे अपने से दुगुना नारकी बना देते हो।
16) ''अन्धे नेताओं! धिक्कार तुम लोगों को! तुम कहते हो- यदि कोई मन्दिर की शपथ खाता है, तो इसका कोई महत्व नही; परन्तु यदि कोई मन्दिर के सोने की शपथ खाता है, तो वह बँध जाता है।
17) मूर्खों और अन्धों! कौन बडा है- सोना अथवा मन्दिर, जिस से वह सोना पवित्र हो जाता है?
18) तुम यह भी कहते हो- यदि कोई वेदी की शपथ खाता है, तो इसका कोई महत्व नही; परन्तु यदि कोई वेदी पर रखे हुए दान की शपथ खाता है, तो वह बँध जाता है?
19) अन्धा ! कौन बडा है- दान अथवा वेदी, जिस से वह दान पवित्र हो जाता है?
20) इसलिय जो वेदी की शपथ खाता है, वह उसकी और उस पर रखी हुई चीजों की शपथ खाता है।
21) जो मन्दिर की शपथ खता है, वह उसकी और उस में निवास करने वाले की शपथ खाता है।
22) और जो स्वर्ग की शपथ खाता है, वह ईश्वर के सिंहासन और उस पर बैठने वाले की शपत खाता है।
23) ''ढोंगी शास्त्रियों और फरीसियों! धिक्कार तुम लोगों को! तुम पुदीने, सौंप और जीरे का दशमांश तो देते हो, किन्तु न्याय, दया और ईमानदारी, संहिता की मुख्य बातों की उपेक्षा करते हो। इन्हें करते रहना और उनकी भी उपेक्षा नहीं करना तुम्हारे लिए उचित था।
24) अन्धे नेताओ! तुम मच्छर छानते हो, किन्तु ऊँट निगल जाते हो।
25) ''ढोंगी शास्त्रियों और फरीसियों! धिक्कार तुम लोगों को! तुम प्याले और थाली को बाहर से मँाजते हो, किन्तु भीतर वे लूट और असंयम से भरे हुए हैं।
26) अन्धे फ़रीसी! पहले भीतर से प्याले को साफ़ कर लो, जिससे वह बाहर से भी साफ़ हो जाये।
27) ''ढोंगी शास्त्रियों ओर फ़रीसियों! धिक्कार तुम लोगों को! तुम पुती हुई कब्रों के सदृश हो, जो बाहर से तो सुन्दर दीख पड़ती हैं, किन्तु भीतर से मुरदों की हड्डियों और हर तरह की गन्दगी से भरी हुई हैं।
28) इसी तरह तुम भी बाहर से लागों को धार्मिक दीख पड़ते हो, किन्तु भीतर से तुम पाखण्ड और अधर्म से भरे हुए हो।
29) ''ढोंगी शास्त्रियों और फ़रीसियों! धिक्कार तुम लोगों को! तुम नबियों के मकबरे बनवा कर और धर्मात्माओं के स्मारक सँवार कर
30) कहते हो, ''यदि हम अपने पुरखों के समय जीवित होते, तो हम नबियों की हत्या करने में उनका साथ नहीं देते'।
31) इस तरह तुम लोग अपने विरुद्ध यह गवाही देते हो कि तुम नबियों के हत्यारों की संतान हो।
32) तो, अपने पुरखों की कसर पूरी कर लो।
33) ''साँपों! करैतों के बच्चों! तुम लोग नरक के दण्ड से कैसे बचोगे?
34) देखो! मैं तुम्हारे पास नबियों, धर्म-पण्डितों और शास्त्रियों को भेजता हूँ। तुम उन में से कितनों को मार डालोगे और क्रूस पर चढ़ाओगे, कितनों को अपने सभाग्रहों में कोड़े लगाओगे और नगर-नगर में सताते रहोगे,
35) जिससे पृथ्वी पर धर्मात्माओं का जितना रक्त बहाया गया - धर्मी हाबिल के रक्त से ले कर बरख़ीयस के पुत्र ज’करियस के रक्त तक, जिसे तुम लोगों ने मंदिरगर्भ और वेदी के बीच मार डाला था- वह सब तुम्हारे सिर पडे।
36) मैं तुम लोग़ों से यह कहता हूँ, यह सब इस पीढ़ी के सिर पड़ेगा।
37) ''येरुसालेम! येरुसालेम! तू नबियों की हत्या करता है और अपने पास भेजे हुए लोगों को पत्थरों से मार देता है। मैंने कितनी बार चाहा कि तेरी सन्तान को वैसे ही एकत्र कर लूँ, जैसे मुर्गी अपने चूज’ों को अपने डैनों के नीचे एकत्र कर लेती है, परन्तु तुम लोगों ने इन्कार कर दिया।
38) देखो, तुम्हारा घर उजाड़ छोड़ दिया जायेगा।
39) मैं तुम से कहता हूँ, अब से तुम मुझे नहीं देखोगे, जब तक तुम यह न कहोगे- धन्य हैं वह, प्रभु के नाम पर आते हैं।''

अध्याय 24

1) ईसा, मन्दिर से निकल कर, चले जा रहे थे कि उनके शिष्य उनके पास आये और उन्होंने मन्दिर की इमारतों की ओर उनका ध्यान अकर्षित किया।
2) ईसा ने उन से कहा, ''तुम ऐसा देख रहे हो न? मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ, यहाँ एक पत्थर पर दूसरा पत्थर पड़ा नहीं रहेगा- सब ढ़ा दिया जायेगा।''
3) जब ईसा जैतून पहाड़ पर पहुँच कर बैठ गये, तो शिष्य एकान्त में उनके पास आये और बोले, ''हमें बताइए, यह कब होगा? आपके आगमन और युग के अन्त का चिन्ह क्या होगा?''
4) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ''सावधान रहो। तुम्हें कोई नहीं बहकाये,
5) क्योंकि बहुत-से लोग मेरा नाम ले कर आयेंगे और कहेंगे- मैं मसीह हूँ, और वे बहुतों को बहका देंगे।
6) तुम युद्धों की चरचा सुनोगे और युद्धों के बारे में अफवाहें सुनोगे। इस से नहीं घबराओगे क्योंकि ऐसा हो जाना अनिवार्य है। परन्तु यही अन्त नहीं है
7) राष्ट्र के विरुद्ध राष्ट्र उठ खड़ा होगा और राज्य के विरुद्ध राज्य। जहाँ-तहाँ अकाल, महामारियाँ और भूकम्प होते रहेंगे।
8) यह सब बिपात्तियों का आरम्भ मात्र होगा।
9) ''उस समय लोग तुम्हें पकड़वा कर घोर यन्त्रणा देंगे और मार डालेंगे। मेरे नाम के कारण सब राष्ट्र तुम से बैर करेंगे।
10) ''तब बहुत-से लोग विचलित हो जायेंगे। वे एक दूसरे को पकड़वायेंगे और एक दूस’रे से बैर करेंगे।
11) बहुत-से झूठे नबी प्रकट होंगे और बहुतों कों बहकायेंगे।
12) अधर्म बढ़ने से लोगों में प्रेम-भाव घट जायेगा,
13) किन्तु जो अन्त तक धीर बना रहेगा, उसी को मुक्ति मिलेगी।
14) सारे संसार में राज्य के इस सुसमाचार का प्रचार किया जायेगा, जिससे सब राष्ट्रों को इसका साक्ष्य मिले और तब अन्त आ जायेगा।
15) ''जब तुम लोग मन्दिर में उजाड़ का वह वीभत्स दृश्य देखोगे, जिसकी चरचा नबी दानिएल ने की- पढ़ने वाला समझ ले -
16) तो, जो लोग यहूदिया में हो,ं वे पहाड़ों पर भाग जायें;
17) जो छत पर हो, वह अपने घर का समान लेने नीचे न उतरे;
18) जो खेत में हो, वह अपनी चादर ले आने के लिए न लौटे।
19) उनके लिए शोक, जो उन दिनों गर्भवती या दूध पिलाती होंगी!
20) प्रार्थना करो कि तुम लोगों को जाड़े के समय अथवा विश्राम के दिन को भागना न पडे;
21) क्योंकि उन दिनों ऐसा घोर संकट होगा, जैसा संसार के आंरभ से अब तक न कभी हुआ है और न कभी होगा।
22) यदि वे दिन घटाये न जाते, तो कोई प्राणी नहीं बचता; किन्तु चुने हुए लोगों के कारण वे दिन घटा दिये जायेंगे।
23) ''यदि उस समय कोई तुम लोगों से कहें, 'देखो! मसीह यहाँ हैं अथवा 'वह वहाँ हैं, तो विश्वास नहीं करोगे;
24) क्योंकि झूठे मसीह तथा झूठे नबी प्रकट होंगे और ऐसे महान् चिन्ह तथा चमत्कार दिखायेंगे कि यदि सम्भव होता, तो वे चुने हुए लोगों को भी बहकाते।
25) देखो, मैने तुम्हें पहले ही सचेत किया है।
26) ''यदि वे तुम लोगों से कहें, 'देखो, वह निर्जन प्रदेश में है, तो वहाँ नहीं जाओगे; अथवा, 'वह यहाँ कोठरी में है,, तो विश्वास नहीं करोगे; क्योंकि
27) जैसे बिजली पूर्व से निकल कर पश्चिम तक चमकती है, वैसे ही मानव पुत्र का आगमन होगा।
28) ''जहाँ कहीं लाश होगी, वहाँ गीध इकट्ठे हो जायेंगे।
29) ''उन दिनों के संकट के तुरन्त बाद सूर्य अन्धकारमय हो जायेगा, चन्द्रमा प्रकाश नहीं देगा, तारे आकाश से गिर जायेंगे और आकाश की शक्तियाँ विचलित हो जायेंगी।
30) तब आकाश में मानव पुत्र का चिन्ह दिखाई देगा। पृथ्वी के समस्त राष्ट्र छाती पीटेंगे और मानव पुत्र को अपार सामर्थ्य और महिमा के साथ आकाश के बादलों पर आते हुए देखेंगे।
31) वह तुरही की तुमुल ध्वनि के साथ अपने दूतों को भेजेगा और वे चारों दिशाओं से, आकाश के कोने-कोन से, उसके चुने हुए लोगों को एकत्र करेंगे।
32) ''अंजीर के पेड़ से शिक्षा लो। जब उसकी टहनियाँ बन जाती हैं और उन में अंकुर फूटने लगते हैं, तो तुम जान जाते हो कि गरमी आ रही है।
33) इसी तरह जब तुम लोग यह सब देखोगे, तो जान लो कि वह निकट है, द्वार पर ही है।
34) मैं तुम से यह कहता हूँ कि इस पीढ़ी का अंत हो जाने के पूर्व ही ये सब बातें घटित हो जायेंगी।
35) आकाश और पृथ्वी टल जायें, तो टल जायें, परन्तु मेरे शब्द नहीं टल सकते।
36) ''उस दिन और उस घड़ी के विषय में कोई नहीं जानता- न तो स्वर्ग के दूत और न पुत्र। केवल पिता ही जानता है।
37) ''जो नूह के दिनों में हुआ था, वही मानव पुत्र के आगमन के समय होगा।
38) जलप्रलय के पहले, नूह के जहाज’ पर चढ़ने के दिन तक, लोग खाते-पीते और शादी-ब्याह करते रहे।
39) जब तक जलप्रलय नहीं आया और उसने सबको बहा नहीं दिया, तब तक किसी को इसका कुछ भी पता नहीं था। मानव पुत्र के आगमन के समय वैसा ही होगा।
40) उस समय दो पुरुष खेत में होंगे- एक उठा लिया जायेगा और दूसरा छोड़ दिया जायेगा।
41) दो स्त्रियाँ चक्की पीसती होंगी- एक उठा ली जायेगी और दूसरी छोड़ दी जायेगी।
42) ''इसलिए जागते रहो, क्योकि तुम नहीं जानते कि तुम्हारे प्रभु किस दिन आयेंगे।
43) यह अच्छी तरह समझ लो- यदि घर के स्वामी को मालूम होता कि चोर रात के किस पहर आयेगा, तो वह जागता रहता और अपने घर में सेंध लगने नहीं देता।
44) इसलिए तुम लोग भी तैयार रहो, क्योंकि जिस घड़ी तुम उसके आने की नहीं सोचते, उसी घड़ी मानव पुत्र आयेगा।
45) ''कौन ऐसा ईमानदार और बुद्धिमान् सेवक है, जिसे उसके स्वामी ने अपने नौकर-चाकरों पर नियुक्त किया है, ताकि वह समय पर उन्हें रसद बाँटा करे?
46) धन्य है वह सेवक, जिसका स्वामी आने पर उसे ऐसा करता हुआ पायेगा!
47) मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- वह उसे अपनी सारी सम्पत्ति पर नियुक्त करेगा।
48) ''परन्तु यदि वह बेईमान सेवक अपने मन में कहे, मेरा स्वामी आने में देर करता है,
49) और वह दूसरे नौकरों को पीटने और शराबियों के साथ खाने-पीने लगे,
50) तो उस सेवक का स्वामी ऐसे दिन आयेगा, जब वह उसकी प्रतिक्षा नहीं कर रहा होगा और ऐसी घड़ी, जिसे वह नहीं जान पायेगा।
51) तब वह स्वामी उसे कोड़े लगवायेगा और ढोंगियों का दण्ड देगा। वहाँ वे लोग रोयेंगे और दाँत पीसते रहेंगे।

अध्याय 25

1) उस समय स्वर्ग का राज्य उन दस कुँआरियों के सदृश होगा, जो अपनी-अपनी मशाल ले कर दुलहे की अगवानी करने निकलीं।
2) उन में से पाँच नासमझ थीं और पाँच समझदार।
3) नासमझ अपनी मशाल के साथ तेल नहीं लायीं।
4) समझदार अपनी मशाल के साथ-साथ कुप्पियों में तेल भी लायीं।
5) दूल्हे के आने में देर हो जाने पर ऊँघने लगीं और सो गयीं।
6) आधी रात को आवाज’ आयी, 'देखो, दूल्हा आ रहा है। उसकी अगवानी करने जाओ।'
7) तब सब कुँवारियाँ उठीं और अपनी-अपनी मशाल सँवारने लगीं।
8) नासमझ कुँवारियों ने समझदारों से कहा, 'अपने तेल में से थोड़ा हमें दे दो, क्योंकि हमारी मशालें बुझ रही हैं'।
9) समझदारों ने उत्तर दिया, 'क्या जाने, कहीं हमारे और तुम्हारे लिए तेल पूरा न हो। अच्छा हो, तुम लोग दुकान जा कर अपने लिए ख़रीद लो।'
10) वे तेल ख़रीदने गयी ही थीं कि दूलहा आ पहुँचा। जो तैयार थीं, उन्होंने उसके साथ विवाह-भवन में प्रवेश किया और द्वार बन्द हो गया।
11) बाद में शेष कुँवारियाँ भी आ कर बोली, प्रभु! प्रभु! हमारे लिए द्वार खोल दीजिए'।
12) इस पर उसने उत्तर दिया, 'मैं तुम से यह कहता हूँ- मैं तुम्हें नहीं जानता'।
13) इसलिए जागते रहो, क्योंकि तुम न तो वह दिन जानते हो और न वह घड़ी।
14) ''स्वर्ग का राज्य उस मनुष्य के सदृश है, जिसने विदेश जाते समय अपने सेवकों को बुलाया और उन्हें अपनी सम्पत्ति सौंप दी।
15) उसने प्रत्येक की योग्यता का ध्यान रख कर एक सेवक को पाँच हज’ार, दूसरे को दो हज’ार और तीसरे को एक हज’ार अशर्फियॉ दीं। इसके बाद वह विदेश चला गया।
16) जिसे पाँच हज’ार अशर्फ़ियां मिली थीं, उसने तुरन्त जा कर उनके साथ लेन-देन किया तथा और पाँच हज’ार अशर्फियाँ कमा लीं।
17) इसी तरह जिसे दो हजार अशर्फ़ियाँ मिली थी, उसने और दो हज’ार कमा ली।
18) लेकिन जिसे एक हज’ार अशर्फि’याँ मिली थी, वह गया और उसने भूमि खोद कर अपने स्वामी का धन छिपा दिया।
19) ''बहुत समय बाद उन सेवकों के स्वामी ने लौट कर उन से लेखा लिया।
20) जिसे पाँच हजार असर्फियाँ मिली थीं, उसने और पाँच हजार ला कर कहा, 'स्वामी! आपने मुझे पाँच हजार असर्फियाँ सांैंपी थीं। देखिए, मैंने और पाँच हजार कमायीं।'
21) उसके स्वामी ने उस से कहा, 'शाबाश, भले और ईमानदार सेवक! तुम थोड़े में ईमानदार रहे, मैं तुम्हें बहुत पर नियुक्त करूँगा। अपने स्वामी के आनन्द के सहभागी बनो।'
22) इसके बाद वह आया, जिसे दो हजार अशर्फ़ियाँ मिली थीं। उसने कहा, 'स्वामी! आपने मुझे दो हज’ार अशर्फ़ियाँ सौंपी थीं। देखिए, मैंने और दो हज’ार कमायीं।'
23) उसके स्वामी ने उस से कहा, 'शाबाश, भले और ईमानदार सेवक! तुम थोड़े में ईमानदार रहे, मैं तुम्हें बहुत पर नियुक्त करूँगाा। अपने स्वामी के आन्नद के सहभागी बनो।'
24) अन्त में वह आया, जिसे एक हज’ार अशर्फियाँ मिली थीं, उसने कहा, 'स्वामी! मुझे मालूम था कि आप कठोर हैं। आपने जहाँ नहीं बोया, वहाँ लुनते हैं और जहाँ नहीं बिखेरा, वहाँ बटोरते हैं।
25) इसलिए मैं डर गया और मैंने जा कर अपना धन भूमि में छिपा दिया। देखिए, यह आपका है, इस लौटाता हूँ।'
26) स्वामी ने उसे उत्तर दिया, 'दुष्ट! तुझे मालूम था कि मैंने जहाँ नहीं बोया, वहाँ लुनता हूँ और जहाँ नहीं बिखेरा, वहाँ बटोरता हूँ,
27) तो तुझे मेरा धन महाजनों के यहाँ जमा करना चाहिए था। तब मैं लौटने पर उसे सूद के साथ वसूल कर लेता।
28) इसलिए ये हज’ार अशर्फियाँ इस से ले लो और जिसके पास दस हज’ार हैं, उसी को दे दो;
29) क्योंकि जिसके पास कुछ है, उसी को और दिया जायेगा और उसके पास बहुत हो जायेगा; लेकिन जिसके पास कुछ नहीं है, उस से वह भी ले लिया जायेगा, जो उसके पास है।
30) और इस निकम्मे सेवक को बाहर, अन्धकार में फेंक दो। वहाँ वे लोग रोयेंगे और दाँत पीसते रहेंगे।
31) ''जब मानव पुत्र सब स्वर्गदुतों के साथ अपनी महिमा-सहित आयेगा, तो वह अपने महिमामय सिंहासन पर विराजमान होगा
32) और सभी राष्ट्र उसके सम्मुख एकत्र किये जायेंगे। जिस तरह चरवाहा भेड़ों को बकरियों से अलग करता है, उसी तरह वह लोगों को एक दूसरे से अलग कर देगा।
33) वह भेड़ों को अपने दायें और बकरियों को अपने बायें खड़ा कर देखा।
34) ''तब राजा अपने दायें के लोगों से कहेंगे, 'मेरे पिता के कृपापात्रों! आओ और उस राज्य के अधिकारी बनो, जो संसार के प्रारम्भ से तुम लोगों के लिए तैयार किया गया है;
35) क्योंकि मैं भूखा था और तुमने मुझे खिलाया; मैं प्यासा था तुमने मुझे पिलाया; मैं परदेशी था और तुमने मुझको अपने यहाँ ठहराया;
36) मैं नंगा था तुमने मुझे पहनाया; मैं बीमार था और तुम मुझ से भेंट करने आये; मैं बन्दी था और तुम मुझ से मिलने आये।'
37) इस पर धर्मी उन कहेंगे, 'प्रभु! हमने कब आप को भूखा देखा और खिलाया? कब प्यासा देखा और पिलाया?
38) हमने कब आपको परदेशी देखा और अपने यहाँ ठहराया? कब नंगा देखा और पहनाया ?
39) कब आप को बीमार या बन्दी देखा और आप से मिलने आये?''
40) राजा उन्हें यह उत्तर देंगे, 'मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- तुमने मेरे भाइयों में से किसी एक के लिए, चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो, जो कुछ किया, वह तुमने मेरे लिए ही किया'।
41) ''तब वे अपने बायें के लोगों से कहेंगे, 'शापितों! मुझ से दूर हट जाओ। उस अनन्त आग में जाओ, जो शैतान और उसके दूतों के लिए तैयार की गई है;
42) क्योंकि मैं भूखा था और तुम लोगों ने मुझे नहीं खिलाया; मैं प्यासा था और तुमने मुझे नहीं पिलाया;
43) मैं परदेशी था और तुमने मुझे अपने यहाँ नहीं ठहराया; मैं नंगा था और तुमने मुझे नहीं पहनाया; मैं बीमार और बन्दी था और तुम मुझ से नहीं मिलने आये'।
44) इस पर वे भी उन से पूछेंगे, 'प्रभु! हमने कब आप को भूखा, प्यासा, परदेशी, नंगा, बीमार या बन्दी देखा और आपकी सेवा नहीं की?''
45) तब राजा उन्हें उत्तर देंगे, 'मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ - जो कुछ तुमने मेरे छोटे-से-छोटे भाइयों में से किसी एक के लिए नहीं किया, वह तुमने मेरे लिए भी नहीं किया'।
46) और ये अनन्त दण्ड भोगने जायेंगे, परन्तु धर्मी अनन्त जीवन में प्रवेश करेंगे।''

अध्याय 26

1) इन सब उपदेशों के समाप्त होने पर ईसा ने अपने शिष्यों से कहा,
2) ''तुम जानते हो कि दो दिन बाद पास्का पर्व है। तब मानव पुत्र क्रूस पर चढ़ाये जाने के लिए पकड़वाया जायेगा।''
3) उस समय कैफस नामक प्रधानयाजक के महल में महायाजक और जनता के नेता एकत्र हो गये
4) और उन्होंने आपस में यह परामर्श किया कि हम किस प्रकार ईसा को छल से गिरफ्तार कर लें और मरवा दें।
5) फिर वे कहते थे, ''पर्व के दिनों में नहीं। कहीं ऐसा न हो कि जनता में हंगामा हो जाये।''
6) जब ईसा बेथानिया में सिमोन कोढ़ी के यहाँ थे ,
7) तो एक महिला संगमरमर के पात्र में बहुमूल्य इत्र ले कर आयी। ईसा भोजन कर ही रहे थे कि उनके सिर पर इत्र उँढे’ल दिया।
8) शिष्य यह देखकर झुँझला उठे और बोले, ''यह अपव्यय क्यों?
9) यह इत्र ऊँचे दामों पर बिक सकता था और इसकी कीमत गरीबों में बाँटी जा सकती थी।''
10) ईसा को इसका पता चला और उन्होंने उन से कहा, ''तुम इस महिला को क्यों तंग करते हो? इसने मेरे लिए भला काम किया है।
11) गरीब तो बराबर तुम लोगों के साथ रहेंगे, किन्तु मैं हमेशा तुम्हारे साथ नहीं रहूँगा।
12) इसने मेरे दफ़न की तैयारी में मेरे शरीर पर इत्र लगाया।
13) मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- सारे संसार में जहाँ कहीं इस सुसमाचार का प्रचार किया जायेगा, वहाँ इसकी स्मृति में इसके इस कार्य की चरचा होगी।''
14) तब बारहों में से एक, यूदस इसकारियोती नामक व्यक्ति ने महायाजकों के पास जा कर
15) कहा, ''यदि मैं ईसा को आप लोगों के हवाले कर दूँ, तो आप मुझे क्या देने को तैयार हैं?'' उन्होंने उसे चाँदी के तीस सिक्के दिये।
16) उस समय से यूदस ईसा को पकड़वाने का अवसर ढूँढ़ता रहा।
17) बेख़मीर रोटी के पहले दिन शिष्य ईसा के पास आकर बोले, ''आप क्या चाहते हैं? हम कहाँ आपके लिए पास्का-भोज की तैयारी करें?''
18) ईसा ने उत्तर दिया, ''शहर में अमुक के पास जाओ और उस से कहो, 'गुरुवर कहते हैं- मेरा समय निकट आ गया है, मैं अपने शिष्यों के साथ तुम्हारे यहाँ पास्का का भोजन करूँगा'।''
19) ईसा ने जैसा आदेश दिया, शिष्यों ने वैसा ही किया और पास्का-भोज की तैयारी कर ली।
20) सन्ध्या हो जाने पर ईसा बारहों शिष्यों के साथ भोजन करने बैठे।
21) उनके भोजन करते समय ईसा ने कहा, ''मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- तुम में से ही एक मुझे पकड़वा देगा''।
22) वे बहुत उदास हो गये और एक-एक कर उन से पूछने लगे, ''प्रभु! कहीं वह मैं तो नहीं हूँ?''
23) ईसा ने उत्तर दिया, ''जो मेरे साथ थाली में खाता है, वह मुझे पकड़वा देगा।
24) मानव पुत्र तो चला जाता है, जैसा कि उसके विषय में लिखा है; परन्तु धिक्कार उस मनुष्य को, जो मानव पुत्र को पकड़वाता है! उस मनुष्य के लिए कहीं अच्छा यही होता कि वह पैदा ही नहीं हुआ होता।''
25) ईसा के विश्वासघाती यूदस ने भी उन से पूछा, ''गुरुवर! कहीं वह मैं तो नहीं हूँ? ईसा ने उत्तर दिया, तुमने ठीक ही कहा''।
26) उनके भोजन करते समय ईसा ने रोटी ले ली और धन्यवाद की प्राथना पढ़ने के बाद उसे तोड़ा और यह कहते हुए शिष्यों को दिया, ''ले लो और खाओ, यह मेरा शरीर है।''
27) तब उन्होंने प्याला ले कर धन्यवाद की प्रार्थना पढ़ी और यह कहते हुये उसे शिष्यों को दिया, ''तुम सब इस में से पियो;
28) क्योंकि यह मेरा रक्त है, विधान का रक्त, जो बहुतों की पापक्षमा के लिये बहाया जा रहा है।
29) मैं तुम लोगों से कहता हूॅ- जब तक मैं अपने पिता के राज्य में तुम्हारे साथ नवीन रस न पी लूँ, तब तक मैं दाख का यह रस फिर नही पिऊँगा।''
30) भजन गाने के बाद वे जैतून पहाड़ चल दिये।
31) उस समय ईसा ने उन से कहा, ''इसी रात को तुम सब मेरे कारण विचलित हो जाओगे, क्योकि यह लिखा है- मैं चरवाहे को मारूॅगा और झुण्ड की भेडं’े तितर-बितर हो जायेंगी;
32) किन्तु अपने पुनरुत्थान के बाद मैं तुम लोगों से पहले गलीलिया जाऊँगा।''
33) इस पर पेत्रुस ने ईसा से कहा, ''आपके कारण चाहे सभी विचलित हो जाये, किन्तु मैं कभी विचलित नहीं होऊँगा''।
34) ईसा ने उसे उत्तर दिया, ''मैं तुम से यह कहता हूँ- इसी रात को, मुर्गे के बाँग देने से पहले ही, तुम मुझे तीन बार अस्वीकार करोगे''।
35) पेत्रुस ने उन से कहा, ''मुझे आपके साथ चाहे मरना ही क्यों न पड़े, मैं आप को कभी अस्वीकार नहीं करूँगा''। और सभी शिष्यों ने यही कहा।
36) जब ईसा अपने शिष्यों के साथ गेथसेमनी नामक बारी पहॅँचे, तो वे उन से बोले, ''तुम लोग यहाँ बैठे रहो। मैं तब तक वहाँ प्रार्थना करने जाता हँू।''
37) वे पेत्रुस और जे’बेदी के दो पुत्रों को अपने साथ ले गये।
38) वे उदास तथा व्याकुल होने लगे और उन से बोले, ''मेरी आत्मा इतनी उदास है कि मैं मरने-मरने को हूँ। यहाँ ठहर जाओ और मेरे साथ जागते रहो।''
39) वे कुछ आगे बढ़ कर मुहँ के बल गिर पडे’ और उन्होंने यह कहते हुए प्रार्थना की, ''मेरे पिता! यदि हो सके, तो यह प्याला मुझ से टल जाये। फिर भी मेरी नही, बल्कि तेरी ही इच्छा पूरी हो।''
40) तब वे अपने श्ष्यिों के पास गये और उन्हें सोया हुआ देखकर पेत्रुस से बोले, ''क्या तुम लोग घण्टे-भर भी मेरे साथ नहीं जाग सके?
41) जागते रहो और प्रार्थना करते रहो, जिससे तुम परीक्षा में न पड़ो। आत्मा तो तत्पर है, परन्तु शरीर दुर्बल''।
42) वे फिर दूसरी बार गये और उन्होंने यह कहते हुए प्रार्थना की, ''मेरे पिता! यदि यह प्याला मेरे पिये बिना नहीं टल सकता, तो तेरी ही इच्छा पूरी हो''।
43) लौटने पर उन्होंने अपने शिष्यों को फिर सोया हुआ पाया, क्योंकि उनकी आँखें भारी थीं।
44) वे उन्हें छोड़ कर फिर गये और उन्हीं शब्दों को दोहराते हुए उन्होंने तीसरी बार प्रार्थना की।
45) इसके बाद उन्होंने अपने शिष्यों के पास आ कर उन से कहा, ''अब तक सो रहे हो? अब तक आराम कर रहो हो, देखो! वह घड़ी आ गयी है, जब मानव पुत्र पापियों के हवाले कर दिया जायेगा।
46) उठो! हम चलें। मेरा विश्वासघाती निकट आ गया है।''
47) ईसा यह कह ही रहे थे कि बारहों में से एक, यूदस आ गया। उसके साथ तलवारें और लाठियाँ लिये एक बड़ी भीड़ थी, जिसे महायाजकों और जनता के नेताओ ने भेजा था।
48) विश्वासघाती ने उन्हें यह कहते हुये संकेत दिया था, ''में जिसका चुम्बन करूॅगा, वही है। उसी को पकड़ना।''
49) उसने सीधे ईसा के पास आ कर कहा, ''गुरुवर! प्रणाम!' और उनका चुम्बन किया।
50) ईसा ने उस से कहा, ''मित्र! जो करने आये हो, कर लो''। तब लोग आगे बढ़ आये और उन्होंने ईसा को पकड़ कर गिरफ्’तार कर लिया।
51) इस’ पर ईसा के साथियों में एक ने अपनी तलवार खींच ली और प्रधानयाजक के नौकर पर चला कर उसका कान उड़ा दिया।
52) ईसा ने उस से कहा, ''तलवार म्यान में कर लो, क्योंकि जो तलवार उठाते हैं, वे तलवार से मरते हैं।
53) क्या तुम यह समझते हो कि मैं अपने पिता से सहायता नहीं माँग सकता? तब क्या वह अभी मेरे लिए स्वर्गदूूतों की बारह से भी अधिक सेनाएॅँ नहीं भेज देगा?
54) लेकिन तब धर्मग्रन्थ कैसे पूरा होगा? उस में तो लिखा है कि ऐसा ही होना आवश्यक है।''
55) इसके बाद ईसा ने भीड़ से कहा, ''क्या तुम लोग मुझे डाकू समझते हो, तलवारें और लाठियाँ ले कर मुझे पकड़ने आये हो? मैं तो प्रतिदिन मंदिर में बैठ कर शिक्षा दिया करता था, फिर भी तुमने मुझे नहीं गिरफ्’तार किया।''
56) यह सब इसलिए हुआ कि नबियों ने जो लिखा है, वह पूरा हो जाये। तब सभी शिष्य को छोड़ कर भाग गये।
57) जिन्होंने ईसा को गिरफ्’तार कर लिया था, वे उन्हें प्रधानयाजक कैफ़स के यहाँ ले गये, जहाँ शास्त्री और नेता इकट्ठे हो गये थे।
58) पेत्रुस कुछ दूरी पर ईसा के पीछे-पीछे चला। वह प्रधानयाजक के महल तक पहुँच कर अन्दर गया और परिणाम देखने के लिए नौकरों के साथ बैठ गया।
59) महायाजक और सारी महासभा ईसा को मरवा डालने के उद्देश्य से उनके विरुद्ध झूठी गवाही खोज रही थी,
60) परन्तु वह मिली नहीं, यद्यपि बहुत-से झूठे गवाह सामने आये। अन्त में दो गवाह आ कर
61) बोले, ''इस व्यक्ति ने कहा- मैं ईश्वर का मन्दिर ढा सकता हूँ और तीन दिनों के अन्दर उसे फिर से बना सकता हूँ।
62) इस प्रकार प्रधानयाजक ने खड़े हो कर ईसा से कहा, ''ये लोग तुम्हारे विरुद्ध जो गवाही दे रहें हैं, क्या इसका कोई उत्तर तुम्हारे पास नहीं है?''
63) परन्तु ईसा मौन रहे। तब प्रधानयाजक ने उन से कहा, ''तुम्हें जीवन्त ईश्वर की शपथ! यदि तुम मसीह, ईश्वर के पुत्र हो, तो हमें बता दो''।
64) ईसा ने उत्तर दिया, ''आपने ठीक कहा। मैं आप लोगों से यह भी कहता हँू- भविष्य में आप मानव पुत्र को सर्वशक्तिमान् ईश्वर के दाहिने बैठा हुआ और आकाश के बादलों पर आता हुआ देखेंगे।''
65) इस पर प्रधानयाजक ने अपने वस्त्र फाड़ कर कहा, ''इसने ईश-निन्दा की है। तो अब हमें गवाहों की ज’रूरत ही क्या है? अभी-अभी आप लोगों ने ईश-निन्दा सुनी है।
66) आप लोगों का क्या विचार है?'' उन्होने उत्तर दिया, ''यह प्राणदण्ड के योग्य है''।
67) तब उन्होंने उनके मुँह पर थूका और उन्हें घूँसे मारे। कुछ लोगों ने उन्हें थप्पड़ मारते हुए
68) यह कहा, ''मसीह! यदि तू नबी है, तो हमें बता- तुझे किसने मारा है?''
69) पेत्रुस उस समय बाहर प्रांगण में बैठा हुआ था। एक नौकरानी ने पास आ कर उस उसे कहा, ''तुम भी ईसा गलीली के साथ थे'';
70) किन्तु उसने सब के सामने अस्वीकार करते हुये कहा, ''मैं नहीं समझता कि तुम क्या कह रही हो''।
71) इसके बाद पेत्रुस फाटक की ओर निकल गया, किन्तु एक दूसरी नौकरानी ने उसे देख लिया और वहाँ के लोगों से कहा, ''यह व्यक्ति ईसा नाज’री के साथ था''।
72) उसने शपथ खा कर फिर अस्वीकार किया और कहा, ''मैं उस मनुष्य को नहीं जानता''।
73) इसके थोड़ी देर बाद आसपास खडे’ लोग पेत्रुस के पास आये और बोले, ''निश्चय ही तुम भी उन्हीं लोगों में से एक हो। यह तो तुम्हारी बोली से सपष्ट है।''
74) तब पेत्रुस कोसने शपथ खा कर कहने लगा कि मैं उस मनुष्य को जानता ही नहीं। ठीक उसी समय मुर्गे ने बाँग दी।
75) पेत्रुस को ईसा का यह कहना याद आया- मुर्गे के बाँग देने से पहले ही तुम मुझे तीन बार अस्वीकार करोगे, और वह बाहर निकल कर फूट-फूट कर रोया।

अध्याय 27

1) भोर को सब महायाजकों और जनता के नेताओं ने ईसा को मरवा डालने के लिए परामर्श किया।
2) उन्होंने ईसा को बाँधा और उन्हें ले जा कर राज्यपाल पिलातुस के हवाले कर दिया।
3) जब ईसा के विश्वासघाती यूदस ने देखा कि उन्हें दण्डाज्ञा मिली है, तो उसे पश्चात्ताप हुआ और महायाजकों और नेताओं के पास चाँदी के वे तीस सिक्के यह कहते हुए वापस ले आया,
4) ''मैंने निर्दोष रक्त का सौदा कर पाप किया है''। उन्होंने उत्तर दिया, ''हमें इस से क्या! तुम जानो''।
5) इस पर यूदस ने चाँदी के सिक्के मन्दिर में फेंक दिये और जा कर फाँसी लगा ली।
6) महायाजकों ने चाँदी के सिक्के उठा कर कहा, ''इन्हें खजाने में जमा करना उचित नहीं है, यह तो रक्त की कीमत है''।
7) इसलिए परामर्श करने के बाद उन्होंने परदेशियों को दफनाने के लिये उन सिक्कों से कुम्हार की ज’मीन खर’ीद ली।
8) यही कारण है कि वह जमीन आज तक रक्त की ज’मीन कहलाती है।
9) इस प्रकार नबी येरेमियस का कथन पूरा हो गया, उन्होंने चाँदी के तीस सिक्के लिए- वही दाम इस्राइल के पुत्रों ने उनके लिये निर्धारित किया था-
10) और कुम्हार की ज’मीन के लिए दे दिये, जैसा की प्रभु ने मुझे आदेश दिया था।
11) ईसा अब राज्यपाल के सामने खडे’ थे। राज्यपाल ने उन से पूछा, ''क्या तुम यहूदियों के राजा हो?'' ईसा ने उत्तर दिया, ''आप ठीक कहते हैं''।
12) महायाजक और नेता उन पर अभियोग लगाते रहे, परन्तु ईसा ने कोई उत्तर नहीं दिया।
13) इस पर पिलातुस ने उन से कहा, ''क्या तुम नहीं सुनते कि ये तुम पर कितने अभियोग लगा रहे हैं?''
14) फिर भी ईसा ने उत्तर में एक भी शब्द नहीं कहा। इस पर राज्यपाल को बहुत आश्चर्य हुआ।
15) पर्व के अवसर पर राज्यपाल लोगों की इच्छानुसार एक बन्दी को रिहा किया करता था।
16) उस समय बराब्बस नामक एक कुख्यात व्यक्ति बन्दीगृह में था।
17) इसलिए पिलातुस ने इकट्ठे हुए लोगों से कहा, ''तुम लोग क्या चाहते हो? मैं तुम्हारे लिए किसे को रिहा करूँ-बराब्बस को अथवा मसीह कहलाने वाले ईसा को?''
18) वह जानता था कि उन्होंने ईसा को ईर्ष्या से पकड़वाया है।
19) पिलातुल न्यायासन पर बैठा हुआ ही था कि उसकी पत्नी कहला भेजा, ''उस धर्मात्मा के मामले में हाथ नहीं डालना, क्योंकि उसी के कारण मुझे आज स्वप्न में बहुत कष्ट हुआ''।
20) इसी बीच महायाजकों और नेताओं ने लोगों को यह समझाया कि वे बराब्बस को छुड़ायें और ईसा का सर्वनाश करें।
21) राज्यपाल ने फिर उन से पूछा, ''तुम लोग क्या चाहते हो? दोनों में किसे तुम्हारे लिये रिहा करूँ?'' उन्होंने उत्तर दिया, ''बराब्बस को''।
22) इस पर पिलातुस ने उन से कहा, ''तो, मैं ईसा का क्या करूँ, जो मसीह कहलाते हैं?'' सबों ने उत्तर दिया, ''इसे क्रूस दिया जाये''।
23) पिलातुस ने पूछा, ''क्यों? इसने कौन-सा अपराध किया है?'' किन्तु वे और भी जारे से चिल्ला उठे, ''इसे क्रूस दिया जाये!
24) जब पिलातुस ने देखा कि मेरी एक भी नहीं चलती, उलटे हंगामा होता जा रहा है, तो उसने पानी मँगा कर लोगों के सामने हाथ धोये और कहा, ''मैं इस धर्मात्मा के रक्त का दोषी नहीं हूँ। तुम लोग जानो।''
25) और सारी जनता ने उत्तर दिया, ''इसका रक्त हम पर और हमारी सन्तान पर!''
26) इस पर पिलातुस ने उनके लिए बराब्बस को मुक्त कर दिया और ईसा को कोडे’ लगवा कर क्रूस पर चढ़ाने सैनिकों के हवाले कर दिया।
27) इसके बाद राज्यपाल के सैनिकों ने ईसा को भवन के अन्दर ले जा कर उनके पास सारी पलटन एकत्र कर ली।
28) उन्होंने उनके कपडे’ उतार कर उन्हें लाल चोंग़ा पहनाया,
29) काँटों का मुकुट गूँथ कर उनके सिर पर रखा और उनके दाहिने हाथ में सरकण्डा थमा दिया। तब उनके सामने घुटने टेक कर उन्होंने यह कहते हुए उनका उपहास किया, ''यहूदियों के राजा, प्रणाम।''
30) वे उन पर थूकते और सरकण्डा छीन कर उनके सिर पर मारते थे।
31) इस प्रकार उनका उपवास करने के बाद, वे चोंग़ा उतार कर और उन्हें उनके निजी कपड़े पहना कर, क्रूस पर चढ़ाने ले चले।
32) शहर से निकलते समय उन्हें कुरेने निवासी सिमोन मिला और उन्होंने उसे ईसा का क्रूस उठा ले चलने के लिए बाध्य किया।
33) वे उस जगह पहुँचे, जो गोलगोथा अर्थात खोपड़ी की जगह कहलाती है।
34) वहाँ लोगों ने ईसा को पित्त मिली हुई अंगूरी पीने को दी। उन्होंने उसे चख तो लिया, लेकिन उसे पीना अस्वीकार किया।
35) उन्होंने ईसा को क्रूस पर चढ़ाया और चिट्ठी डाल कर उनके कपडे’ बाँट लिये।
36) इसके बाद वे उन पर पहरा बैठे।
37) ईसा के सिर के ऊपर दोषपत्र लटका दिया गया। वह इस प्रकार था- यह यहूदियों का राजा ईसा है।
38) ईसा के साथ ही उन्होंने दो डाकुओं को क्रूस पर चढ़ाया- एक को उनके दायें और दूसरे को उनके बायें।
39) उधर से आने-जाने वाले लोग ईसा की निन्दा करते और सिर हिलाते हुए
40) यह कहते थे, ''ऐ मन्दिर ढाने वाले और तीन दिनों के अन्दर उसे फिर बना देने वाले! यदि तू ईश्वर का पुत्र है, तो क्रूस से उतर आ''।
41) इसी तरह शास्त्रियों और नेताओं के साथ महायाजक भी यह कहते हुए उनका उपहास करते थे,
42) ''इसने दूसरों को बचाया, किन्तु यह अपने को नहीं बचा सकता। यह तो इस्राएल का राजा है। अब यह क्रूस से उतरे, तो हम इस में विश्वास करेंगे।
43) इसे ईश्वर का भरोसा था। यदि ईश्वर इस पर प्रसन्न हो, तो इसे छुड़ाये। इसने तो कहा है- मैं ईश्वर का पुत्र हूँ।''
44) जो डाकू ईसा के साथ क्रूस पर चढ़ाये गये थे, वे भी इसी तरह उनका उपहास करते थे।
45) दोपहर से तीसरे पहर तक पूरे प्रदेश पर अँधेरा छाया रहा।
46) लगभग तीसरे पहर ईसा ने ऊँचे स्वर से पुकारा, ''एली! एली! लेमा सबाखतानी?'' इसका अर्थ है- मेरे ईश्वर! मेरे ईश्वर! तूने मुझे क्यों त्याग दिया है?
47) यह सुन कर पास खडे’ लोगों में से कुछ कहते थे, ''यह एलीयस को बुला रहा है।''
48) उन में से एक तुरन्त दौड़ कर पनसोख्ता ले आया और उसे खट्टी अंगूरी में डूबा कर सरकण्डे में लगा कर उसने ईसा को पीने को दिया।
49) कछ लोगों ने कहा, ''रहने दो! देखें, एलीयस इसे बचाने आता है या नहीं''।
50) तब ईसा ने फिर ऊँचे स्वर से पुकार कर प्राण त्याग दिये।
51) उसी समय मन्दिर का परदा ऊपर से नीचे तक फट कर दो टुकडे’ हो गया, पृथ्वी काँप उठी, चट्टानें फट गयीं,
52) कबें्र खुल गयीं और बहुत-से मृत सन्तों के शरीर पुन-जीवित हो गये।
53) वे ईसा के पुनरुत्थान के बाद कब्रों से निकले और पवित्र नगर जा कर बहुतों को दिखाई दिये।
54) शतपति और उसके साथ ईसा पर पहरा देने वाले सैनिक भूकम्प और इन सब घटनाओं को देख कर अत्यन्त भयभीत हो गये और बोल उठे, ''निश्चय ही, यह ईश्वर का पुत्र था''।
55) वहाँ बहुत-सी नारियाँ भी दूर से देख रही थीं। वे ईसा की सेवा-परिचर्या करते हुए गलीलिया से उनके साथ-साथ आयी थीं।
56) उन में मरियम मगदलेना, याकूब और यूसुफ की माता मरियम और जेबेदी के पुत्रों की माता थीं।
57) संध्या हो जाने पर अरिमथिया का एक धनी सज्जन आया। उसका नाम यूसूफ था और वह भी ईसा का शिष्य बन गया था।
58) उसने पिलातुस के पास जा कर ईसा का शव माँगा और पिलातुस ने आदेश दिया कि शव उसे सौंप दिया जाये।
59) यूसुफ ने शव ले जा कर उसे स्वच्छ छालटी के कफ़न में लपेटा
60) और अपनी कब्र में रख दिया, जिसे उसने हाल में चट्टान में खुदवाया था और वह कब्र के द्वार पर बड़ा पत्थर लुढ़का कर चला गया।
61) मरियम मगदलेना और दूसरी मरियम वहाँ कब्र के सामने बैठी हुइ थीं।
62) उस शुक्रवार के दूसरे दिन महायाजक और फ़रीसी एक साथ पिलातुस के यहाँ गये
63) और बोले, ''श्रीमान्! हमें याद है कि उस धोखेबाज ने अपने जीवनकाल में कहा है कि मैं तीन दिन बाद जी उठूँगा।
64) इसलिए तीन दिन तक क़ब्र की सुरक्षा का आदेश दिया जाये। कहीं ऐसा न हो कि उसके शिष्य उसे चुरा कर ले जायें और जनता से कहें कि वह मृतकों में से जी उठा है यह पिछला धोखा तो पहले से भी बुरा होगा।'
65) पिलातुस ने कहा, ''पहरा ले जाइए और जैसा उचित समझें, सुरक्षा का प्रबन्ध कीजिए''।
66) वे चले गये और उन्होंने पत्थर पर मुहर लगायी और पहरा बैठा कर कब्र को सुरक्षित कर दिया।

अध्याय 28

1) विश्राम-दिवस के बाद, सप्ताह के प्रथम दिन, पौ फटते ही, मरियम मगदलेना और दूसरी मरियम कब्र देखने आयीं।
2) एकाएक भारी भुकम्प हुआ। प्रभु का एक दूत स्वर्ग से उतरा, कब्र के पास आया और पत्थर अलग लुढ़का कर उस पर बैठ गया।
3) उसका मुखमण्डल बिजली की तरह चमक रहा था और उसके वस्त्र हिम के सामान उज्ज्वल थे।
4) दूत को देख कर पहरेदार थर-थर कॉपने लगे और मृतक -जैसे हो गये।
5) स्वर्गदूत ने स्त्रियों से कहा, ''डरिए नहीं। मैं जानता हूँ कि आप लोग ईसा को ढूँढ़ रही हैं, जो कू्रस पर चढ़ाये गये थे।
6) वे यहाँ नहीं हैं। वे जी उठे हैं, जैसा कि उन्होंने कहा था। आइए और वह जगह देख लीजिए, जहाँ वे रखे गये थे।
7) अब सीधे उनके शिष्यों के पास जा कर कहिए, 'वे मृतकों में से जी उठे हैं। वह आप लोगों से पहले गलीलिया जायेंगे, वहाँ आप लोग उनके दर्शन करेंगे'। यही आप लोगों के लिए मेरा सन्देश है।''
8) स्त्रियाँ शीघ्र ही कब्र के पास से चली गयीं और विस्मय तथा आनन्द के साथ उनके शिष्यों को यह समाचार सुनाने दौड़ीं।
9) ईसा एकाएक मार्ग में स्त्रियों के सामने आ कर खड़े हो गये और उन्हें नमस्कार किया। वे आगे बढ़ आयीं और उन्हें दण्डवत् कर उनके चरणों से लिपट’ गयीं।
10) ईसा ने उनसे कहा, ''डरो नहीं। जाओ और मेरे भाइयों को यह सन्देश दो कि वे गलीलिया जायें। वहाँ वे मेरे दर्शन करेंगे।''
11) स्त्रियाँ जा ही रही थीं कि कुछ पहरेदार नगर आये। उन्होंने महायाजकों को सारा हाल कह सुनाया।
12) महायाजकों ने नेताओं से मिल कर परामर्श किया और सैनिकों को एक मोटी रकम दे कर
13) इस प्रकार समझाया, ''तम लोग यही कहो कि रात को जब हम लोग सोये हुये थे, तो ईसा के शिष्य आये और उसे चुरा ले गये।
14) यदि यह बात राज्यपाल के कान में पड़ गयी, तो हम उन्हें समझा कर तुम लोगों को बचा लेंगे।''
15) पहरेदारों ने रुपया ले लिया और वैसा ही किया, जैसा उन्हें सिखाया गया था। यही कहानी फैल गयी और अब तक यहूदियों में प्रचलित है।
16) तब ग्यारह शिष्य गलीलिया की उस पहाड़ी के पास गये , जहाँ ईसा ने उन्हें बुलाया था।
17) उन्होंने ईसा को देख कर दण्डवत् किया, किन्तु किसी-किसी को सन्देह भी हुआ।
18) तब ईसा ने उनके पास आ कर कहा, ''मुझे स्वर्ग में और पृथ्वी पर पूरा अधिकार मिला है।
19) इसलिए तुम लोग जा कर सब राष्ट्रों को शिष्य बनाओ और उन्हें पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम पर बपतिस्मा दो।
20) मैंने तुम्हें जो-जो आदेश दिये हैं, तुम-लोग उनका पालन करना उन्हें सिखलाओ और याद रखो- मैं संसार के अन्त तक सदा तुम्हारे साथ हूँ।''