पवित्र बाइबिल : Pavitr Bible ( The Holy Bible )

पुराना विधान : Purana Vidhan ( Old Testament )

दानिएल का ग्रन्थ ( Daniel )

अध्याय 1

1) यूदा के राजा यहोयाकीम के राज्यकाल के तीसरे वर्ष बाबुल के राजा नबूकदनेजर ने येरुसालेम आ कर उसके चारों ओर घेरा डाला।
2) प्रभु ने यूदा के राजा यहोयाकीम को और ईश्वर के मन्दिर के कुछ पात्रों को नबूकदनेजर के हाथ जाने दिया। उसने उन्हें शिनआर देश भिजवाया और पात्रों को अपने देवताओं के कोष में रखवा दिया।
3) राजा ने खोजों के अध्यक्ष अशपनज को कुछ ऐसे इस्राएली नवयुवकों को ले आने का आदेश दिया, जो राजवंशी अथवा कुलीन हों,
4) शारीरिक दोषरहित, सुन्दर, समझदार, सुशिक्षित, प्रतिभाशाली और राज-दरबार में रहने योग्य हों। अशपनज ने उन्हें खल्दैयियों का साहित्य और भाषा पढायी।
5) राजा ने राजकीय भोजन और अंगूरी में से उनके लिए खाने-पीने का दैनिक प्रबंध किया। उन्हें तीन वर्ष का प्रशिक्षण दिया जाने वाला था और उसके बाद वे राजा की सेवा में नियुक्त किये जाने वाले थे।
6) उन में यूदावंशी दानिएल, हनन्या, मीशाएल और अजर्या थे।
7) खोजों के अध्यक्ष ने उन्हें ये नये नाम दिये : उसने दानिएल को बेल्ट शस्सर, हनन्या को शद्रक, मीशाएल को मेशक और अजर्या को अबेदनगो कहा।
8) दनिएल ने निश्चय किया कि वह राजकीय भोजन और अंगूरी खा-पी कर अपने को अशुद्ध नहीं करेगा और उसने खोजों के अध्यक्ष से निवेदन किया कि वह उसे उस दूषण से बचाये रखें।
9) ईश्वर की कृपा से खोजों का अध्यक्ष दानिएल के साथ अच्छा और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करता था।
10) उसने दानिएल से कहा, ''मैं राजा, अपने स्वामी से डरता हूँ। उन्होंने तुम्हारा खानपान निश्चित किया है। यदि वह देखेंगे कि समवयस्क नवयुवकों की तुलना में तुम्हारा चेहरा उतरा हुआ है, तो मेरा जीवन जोखिम में पड़ जायेगा।''
11) उसके बाद दानिएल ने भोजन के प्रबन्धक से, जिसे खोजों के अध्यक्ष ने दानिएल, हनन्या, मीशाएल और अजर्या पर नियुक्त किया था, कहा,
12) ''आप कृपया दस दिन तक अपने सेवकों की परीक्षा ले- हमें खाने के लिए तरकारी और पीने के लिए पानी दिलायें।
13) इसके बाद आप हमारा और राजकीय भोजन का सेवन करने वाले युवकों का चेहरा देख लें और जो आप को उचित जान पड़े, वही हमारे साथ करें।''
14) उसने उनका निवेदन स्वीकार कर लिया और दस दिन तक उनकी परीक्षा ली।
15) दस दिन बाद के राजकीय भोजन खाने वाले युवकों की तुलना में अधिक स्वस्थ और हष्ट-पुष्ट दीख पड़े।
16) उस समय से प्रबन्धक उनके लिए निर्धारित किया हुआ खान-पान हटा कर उन्हें तरकारी देता रहा।
17) ईश्वर ने उन चार नवयुवकों को ज्ञान, समस्त साहित्य की जानकारी और प्रज्ञा प्रदान की। दानिएल को दिव्य दृश्यों और हर प्रकार के स्वप्नों की व्याख्या करने का वरदान प्र्राप्त था।
18) राजा द्वारा निर्धारित अवधि की समाप्ति पर खाजों के अध्यक्ष ने नवयुवकों को नबूकदनेजर के सामने प्रस्तुत किया।
19) राजा ने उनके साथ वार्तालाप किया और उन में कोई भी दानिएल, हनन्य, मीशाएल और अजर्या की बराबरी नहीं कर सका। वे राजा की सेवा में नियुक्त हो गये।
20) जब जब राजा ने किसी समस्या पर उन से परामर्श लिया, तो उसने पाया कि समस्त राज्य के किसी भी ज्योतिषी अथवा ओझा से उनकी प्रज्ञा और विवेक दसगुना श्रेष्ठ था।
21) दानिएल राजा सीरूस के प्रथम वर्ष तक वहाँ रहा।

अध्याय 2

1) अपने शासनकाल के दूसरे वर्ष नबूकदनेजर ने स्वप्न देखे, जिनके कारण वह इतना घबरा उठा कि उसकी नींद जाती रही।
2) तब राजा ने अपने स्वप्नों का अर्थ बतलाने लिए जादूगरों, ओझाओं, तांत्रिकों एवं खल्दैयियों को बुला भेजा। वे आ कर राजा के सामने उपस्थित हो गये।
3) राजा ने उन से कहा, ''मैंने स्वप्न देखा है। और मैं उसे समझने को बहुत व्याकुल हूँ।''
4) खल्दैयियों ने राजा से कहा, ''महाराज चिरायु हों! अपने दासों से अपना स्वप्न कहें, जिससे हम उसका अर्थ लगा सकें।
5) राजा ने खल्दैयियों को उत्तर दिया, ''मेरा वचन अटल है : यदि तुम लोग मेरा स्वप्न और उसका अर्थ नहीं बताओगे, तो तुम्हारे अंग-अंग काट दिये जायेंगे और तुम्हारे घर तबाह कर दिये जायेंगे।
6) किन्तु स्वप्न और उसका अर्थ बतला दोगे, तो मैं तुम लोगों को उपहार, पुरस्कार तथा भारी सम्मान दूँगा। इसलिए मुझे स्वप्न और उसका अर्थ बताओ।''
7) उन लोगों ने फिर निवेदन किया, ''महाराज ! अपने दासों को यह बतायें कि स्वप्न क्या था, तो हम लोग उसका अर्थ लगायेंगे''
8) राजा ने उत्तर दिया, 'यह स्पष्ट है कि तुम लोग टाल-मटोल कर रहे हो, क्योंकि तुम जानते हो कि मेरा वचन अलट है। यदि तुम मेरे स्वप्न का अर्थ मुझे नहीं बताओगे तो तुम्हारा प्राणदण्ड निश्चित है।
9) तुम लोगों ने तब तक के लिए मुझ से झूठ और मिथ्या बातें कहने का समझौता कर लिया है, जब तक कि समय न बदल जाये। इसलिए पहले मुझे स्वप्न बताओ, जिससे मैं यह जान जाऊँगा, कि तुम उसका अर्थ बता सकोगे।''
10) खल्दैयियों ने राजा को उत्तर दिया, ''संसार में ऐसा कोई नहीं है, जो राजा की यह माँग पूरी कर सके। किसी भी महाप्रतापी राजा ने किसी जादूगर, ओझा या खल्दैयी से कभी ऐसी माँग नहीं की है।
11) आप कठिन से कठिन बात पूछ रहे हैं। राजा की यह बात उन देवताओं के सिवा, जो शरीरधारियों के लोक में नहीं रहते, और कोई नहीं बता सकता।''
12) यह सुन कर राजा बहुत क्रोधित हुआ और उसने बाबुल के सभी विद्वानों को मार डालने की आज्ञा निकाली।
13) अतः जब यह आज्ञा निकली कि सभी विद्वानों का वध कर दिया जाये, उन्होंने वध करने के लिए दानिएल और उसके साथियों को ढँढ़ निकाला।
14) जब राजा के अंगरक्षकों का नायक अर्योक विद्वानों को मार डालने के लिए तैयारी कर रहा था, तब दानिएल नायक के पास आया और बड़ी सूझ-बूझ से परामर्श करके बोला,
15) ''राजा ने ऐसी कठोर आज्ञा क्यों निकाली है?'' इस पर अर्योक ने दानिएल को सारी बातें बता दी।
16) तब राजा के पास जा कर दानिएल ने यह प्रार्थना की कि मुझे समय दीजिए और मैं स्वप्न और उसका अर्थ बता दूँगा।
17) इसके बाद दानिएल ने अपने घर जा कर यह बात अपने साथी हनन्या, मीशाएल और अजर्या से बतायी।
18) उसने यह भी कहा कि यह भेद जानने के लिए स्वर्ग में विराजमान ईश्वर से दया की प्रार्थना करें, जिससे बाबुल के अन्य विद्वानों के साथ हम भी नष्ट न हो जायें।
19) जब रात के समय दिव्य दर्शन के द्वारा दानिएल के सामने से भेद खुल गया।
20) और वह इस प्रकार स्वर्ग में विराजमान ईश्वार का गुणगान करने लगाः ईश्वर का नाम सदा-सर्वदा धन्य है, प्रज्ञा और शक्ति उसी की है;
21) काल और ऋतु उसी के हाथ में हैं; वही राजाओं की प्रतिष्ठा करता और उनके सिंहासन उलटता है। वही विद्वानों को प्रज्ञा देता है और समझदारों को समझ।
22) वही गूढ़ रहस्यों को प्रकट करता है, वही अंधकार में छिपे भेद जानता है, क्योंकि उस में ज्योति का निवास है।
23) हमारे पूर्वजों के ईश्वर! मैं तरा धन्यवाद करता हूँ, मैं तरा यश गाता हूँ, क्योंकि तूने मुझे प्रज्ञा और शक्ति प्रदान की है; जो हमने मांगा है, तूने उसे प्रकट किया है और राजा का भेद हमें बता दिया है।
24) तब दानिएल अयोर्ंक के पास गया, जिस को राजा ने बाबुल के विद्वानों को मार डालने का आदेश दिया था। दानिएल उस से बोला, ''बाबुल के विद्वानों का वध नहीं कीजिए; मुझे राजा के पास ले चालिए; मैं राजा को स्वप्न का अर्थ बतला दूँगा''।
25) अतः दानिएल को शीघ्र ही राजा के पास ले जा कर अर्योक ने उस से कहा, ''मुझे यूदा के निर्वासितों में एक मनुष्य मिला है, जो राजा के स्वप्न अर्थ बता सकता है।''
26) दानिएल से (जिसका नाम बेल्टशस्सर हो गया था) राजा ने पूछा, ''मैंने स्वप्न देखा है, क्या तुम मुझे उसे बता कर उसका अर्थ भी लगा सकते हो?''
27) दानिएल ने राजा को उत्तर दिया, 'जो भेद राजा पूछ रहे हैं उसका न कोई विद्वान, न कोई ओझा, न कोई जादूगर और न ही कोई ज्योतिषी उद्घाटन कर सकता है।
28) किन्तु स्वर्ग में विराजमान ईश्वर रहस्यमय दर्शन देता है और उसी ने राजा नबूकदनेजर पर इस युग के अंत में होने वाली घटनाएँ प्रकट की हैं। आपका स्वप्न और नींद में देखे गये दर्शन इस प्रकार हैं :
29) राजा! जब आप शय्या पर पड़े हुए थे, तो आपके मन में यह विचार आया कि भविष्य में क्या होगा और जो रहस्यों को प्रकट करता है, उसने आप पर भविष्य प्रकट किया है।
30) मुझ पर यह रहस्य इसलिए नहीं प्रकट किया गया है कि मैं अन्य प्राणियों से अधिक बुद्धिमान हूँ, बल्कि इसलिए कि मैं राजा को उसका अर्थ बतला कर आपके मन के विचारों को समझा दूँ।
31) राजा! आपने यह दिव्य दृश्य देखा। एक विशाल, देदीप्यमान और भीषण मूर्ति आपके सामने खड़ी थी।
32) उस मूर्ति का सिर सोने का था, उसकी छाती और भुजाएँ चाँदी की थी, उसका पेट और कमर पीतल की,
33) उसकी जाँघें लोहे की और उसके पैर अंशतः लोहे के और अंशतः मिट्टी के थे।
34) आप उसे देख ही रहे थे कि एक पत्थर अचानक अपने आप गिरा, उस मूर्ति के लोहे और मिट्टी के पैरों पर लगा गया और उसने उनके टूकडे-टुकड़े कर डाले।
35) उसी समय लोहा, मिट्टी, पीतल, चाँदी और सोना सब चूर-चूर हो क्रर हो कर ग्रीष्म-ऋतु की भूसी की तरह पवन द्वारा उड़ा लिया गया और उसका कुछ भी शेष नहीं रहा। जो पत्थर मूर्ति पर लग गया था, वह समस्त पृथ्वी को ढकने वाला विशाल पर्वत बन गया।
36) यह था आपका स्वप्न। अब मैं आप को उसका अर्थ बताऊँगा।
37) राजा! आप राजाओं को राजा हैं।
38) स्वर्ग के ईश्वर ने आप को राजत्व, अधिकार, सामर्थ्य और सम्मान प्रदान किया। उसने मनुष्यों, मैदान के पशुओं और आकाश के पक्षियों को- वे चाहें कहीं भी निवास करें- आपके हाथों सौंपा और आप को सब का अधिपति बना दिया। मूर्ति के सोने का सिर आप ही हैं।
39) आपके बाद का दूसरा राज्य आयेगा। वह आपके राज्य से कम वैभवशाली होगा और इसके बाद एक तीसरा राज्य, जो पीतल का होगा और समस्त पृथ्वी पर शासन करेगा।
40) चौथा राज्य लोहे की तरह मजबूत होगा। जिस प्रकार लोहा सब कुछ पीस कर चूर कर सकता है, उसी प्रकार वह राज्य पहले के राज्यों को चूर-चूर कर नष्ट कर देगा।
41) आपने देखा है कि वे पैर अंशतः मिट्टी के और अशंतः लोहे के थे- इसका अर्थ है कि उस राज्य में फूट होगी।
42) उस में लोहे की शक्ति होगी, क्योंकि आपने देखा है कि मिट्टी में लोहा मिला हुआ था।
43) उसके पैर अशंतः लाहेे और अशंत : मिट्टी के थे- इसका अर्थ यह है कि उस राज्य का एक भाग शक्तिशाली और एक भाग दुर्बल होगा। आपने देखा है कि लोहा मिट्टी से मिला हुआ था- इसका अर्थ है कि विवाह-सम्बन्ध द्वारा राज्य के भागों को मिलाने का प्रयत्न किया जायेगा, किन्तु वे एक नहीं हो जायेंगे जिस तरह लोहा मिट्टी से एक नहीं हो सकता है।
44) ''इन राज्यों के समय स्वर्ग का ईश्वर एक ऐसे राज्य की स्थापना करेगा, जो अनंत काल तक नष्ट नहीं होगा और जो दूसरे राष्ट्र के हाथ नहीं जायेगा। वह इन राज्यों को चूर-चूर कर नष्ट कर देगा और सदा बना रहेगा।
45) आपने देखा है कि अपने आप पर्वत पर से एक पत्थर गिर गया और उसने लोहा, पीतल, मिट्टी चाँदी और सोने को चूर-चूर कर दिया है, महान् ईश्वर ने राजा को सूचित किया कि भविष्य में क्या होने वाला है। यह स्वप्न सच्चा है और इसकी व्याख्या विश्वसनीय है।''
46) यह सुन कर राजा नबूकदनेजर ने मुँह के बल गिर कर दानिएल की पूजा की और आदेश दिया कि उनके सामने नैवेद्य और धूप चढ़ायी जाये।
47) राजा ने दानिएल से कहा, ''तुम्हारा ईश्वर सचमुच सभी देवताओं का प्रभु और सभी राजाओं का स्वामी है। वही सब रहस्यों को प्रकट करता है, क्येंकि यह रहस्य केवल तुम पर प्रकट कर सके। ''
48) तब राजा ने उच्च पद पर दानिएल को नियुक्त कर उसे अनेक बहुमूल्य उपहार दिये और उसे बाबुल के समस्त प्रान्त का शासक बना दिया तथा बाबुल के विद्वानों का अध्यक्ष नियुक्त किया।
49) यह नहीं, दानिएल के अनुरोध पर राजा के बाबुल प्रांत के प्रशासनिक कायोर्ं की देखरेख के लिए शद्रक, मेशक और अबेदनगो को नियुक्त किया। दानिएल राजदरवार में ही रह गया।

अध्याय 3

1) राजा नबूकदनेजर ने आठ हाथ ऊँची बौर छः हाथ चौड़ी एक सोने की मूर्ति बनवायी। उसने उसे बाबुल प्रांत के दूरा नामक मैदान में स्थापित किया।
2) तब राजा नबूकदनेजर ने क्षत्रपों, अध्यक्षें, राज्यपालों, मांत्रियों, कोषाध्यक्षों, न्यायधीशों, दण्डाधिकारियों और प्रान्त के सभी अधिकारियों को बुला भेजा, जिससे वे आ कर नबूकदनेजर द्वारा स्थापित मूर्ति की प्रतिष्ठा में उपस्थित हों।
3) अतः क्षत्रप, अध्यक्ष, राज्यपाल, मंत्री, कोषाध्यक्ष, न्यायाधीश, दण्डाधिकारी और प्रान्त के सभी अधिकारी नबूकदनेजर द्वारा स्थापित मूर्ति की प्रतिष्ठा के लिए इकट्ठे हो कर राजा नबूकदनेजर द्वारा स्थापित मूर्ति के सामने खड़े हो गये।
4) तब उद्घोषक ने उच्च स्वर में घोषण की, ''विभिन्न भाषा-भाषी जातियों और राष्ट्रों!
5) आदेश है कि ज्यों ही नरसिंघा, बाँसरी, वीणा, सारंगी, शहनाई और अन्य प्रकार के बाजे सुनाई पड़े, तुम मुँह के बल गिर जाओगे और राजा नबूकदनेजर द्वारा स्थापित सोने की मूर्ति की आराधना करोगे।
6) जो कोई मुँह के बल गिरने और आराधना करने से इंकार करेगा, वह तत्काल धधकती हुई भट्टी में झोंक दिया जायेगा।''
7) अतः ज्यों ही सब लोगों ने नरसिंघा, बाँसुरी, वीणा, सारंगी, सितार, शहनाई और अन्य प्रकार के बाजों की आवाज सुनी, त्यों ही विभिन्न भाषा-भाषी जातियाँ और राष्ट्र मुँह के बल गिर कर नबूकदनेजर द्वारा स्थापित सोने की मूर्ति की आराधना करने लगे।
8) उसी समय कुछ खल्दैयियों ने राजा के पास आ कर यहूदियों पर आरोप लगाया।
9) उन्होंने राजा नबूकदनेजर से कहा,
10) ''महाराज चिरायु हों! महाराज! आपने तो आज्ञा दी थी कि ज्यों ही नरसिंघा, बाँसुरी, वीणा, सारंगी, सितार, शहनाई और अन्य प्रकार के बाजों की आवाज सुनाई पड़े, त्यों ही सभी मुँह के बल गिर कर सोने की मूर्ति की आराधना करें।
11) और जो कोई मुँह के बल गिर कर आराधना न करे, वह धधकती भट्ठी में डाल दिया जाये।
12) शद्रक, मेशक, अबेदनगो नामक यहूदी हैं, जिन को आपने बाबुल प्रान्त के प्रशासनिक कायोर्ं का अधिकारी नियुक्त किया था। महाराज! ये लोग आपकी आज्ञा की उपेक्षा कर रहे हैं। वे आपके देवता की सेवा नहीं करते और उस सोने की मूर्ति की आराधना करते, जिसे आपने स्थापित किया था''
13) इस पर नबूकदनेजर का क्रोध भड़क उठा और उसने शद्रक, मेशक और अबेदनगो को अपने सामने उपस्थित करने की आज्ञा दी। उन्हें राजा के सामने उपस्थित किया गया।
14) नबूकदनेजर ने कहा, ''शद्र्रक, मेशक और अबेदनगो! क्या यह बात सच है कि तुम लोग न तो मेरे देवताओं की सेवा करते और न मेरे द्वारा संस्थापित स्वर्ण-मूर्ति की आराधना करते हो?
15) क्या तुम लोग अब तुरही, वंशी, सितार, सारंगी, वीणा और सब प्रकार के वाद्यों की आवाज सुनते ही मेरी बनायी मूर्ति को दण्डवत कर उसकी आराधना करने तैयार हो? यदि तुम उसकी आराधना नहीं करोग, तो उसी समय प्रज्वलित भट्टी में डाल दिये जाओगे। तब कौन देवता तुम लोगों को मेरे हाथों से बचा सकेगा?''
16) शद्रक, मेशक और अबेदनगो ने राजा नबूकदनेजर को यह उत्तर दिया, ''राजा! इसके सम्बन्ध में हमें आप से कुछ नहीं कहना है।
17) यदि कोई ईश्वर है, जो ऐसा कर सकता है, तो वह हमारा ही ईश्वर है, जिसकी हम सेवा करते हैं। वह हमें प्रज्वलित भट्टी से बचाने में समर्थ है और हमें आपके हाथों से छुडायेगा।
18) यदि वह ऐसा नहीं करेगा, तो राजा! यह जान लें कि हम न तो आपके देवताओं की सेवा करेंगे और न आपके द्वारा संस्थापित स्वर्ण-मूर्ति की आराधना ही।''
19) यह सुन कर नबूकदनेजर शद्रक, मेशक और अबेदनगो पर बहुत क्रुद्ध हो गया और उसके चेहरे का रंग बदल गया। उसने भट्टी का ताप सामान्य से सात गुना अधिक तेज करने की आज्ञा दी
20) और अपनी सेना से कुछ बलिष्ठ जवानों को आदेश दिया कि वे शद्रक, मेशक और अबेदनगो को बाँध कर प्रज्वलित भट्टी में डाल दें।
21) तब अपने पायजामे, अंगरखें, टोप और अन्य वस्त्र पहने ही ये लोग बाँधे और धधकती भट्टी में डाल दिये गये।
22) राजा के दुराग्रह के कारण भट्टी की आग इतने जोर से धधक रही थी कि जिन आदमियों ने शद्रक, मेशक और अबेदनगो को उठाया था, वे भस्म हो गये।
23) और शद्रक, मेशक और अबेदनगो, तीनों बँधे-बँधाये धधकती भट्टी में गिर पडे।
24) ईश्वर की स्तुति गाते हुए और प्रभु का गुणगान करते हुए वे लपटों के बीच टहलने लगे।
25) अजर्या खड़ा हो कर प्रार्थना करने लगा और उसने आग की लपटों के बीच यह कहना आरंभ किया :
26) हमारे पूर्वजों के प्रभु-ईश्वर! तू धन्य है, सदा-सर्वदा प्रशंसनीय, महिमामय और सर्वोच्च।
27) तूने हमारे साथ जो कुछ किया, उसे तूने न्याय के अनुसार किया; तेरी प्रतिज्ञाएँ पूरी हो जाती हैं, तेरे मार्ग सीधे और तेरे विचार उचित होते हैं।
28) हमारे पूर्वजों के पावन नगर येरुसालेम पर और हम पर जो विपत्तियाँ तूने पहुँचायी हैं, वे न्यायसंगत हैं, क्योंकि हमने पाप किया हैं हमारे अपने पापों के अनुसार तूने हमारे साथ उचित व्यवहार किया है :
29) क्योंकि हमने पाप किया, तुझे त्याग कर कुकर्म किया और हर तरह के अपराध किये।
30) हमने तेरी आज्ञाओं पर ध्यान नहीं दिया, न उनका पालन ही किया, और न तेरे आदेशनुसार अपने हित के ही काम किये।
31) हम पर जो घोर विपदा तूने ढा दी है, और हमारे साथ जो कुछ किया है, यह सही और न्यायसंगत है।
32) तूने हमें ऐसे शत्रुओं के हाथों में सौंप दिया है, जो अन्यायी और अधर्मी हैं, ऐसे दुष्ट राजा के हाथों, जो सब से अन्यायी है।
33) अब हम अपना मुँह तक खोलने का साहस नहीं कर सकते; तेरे भक्त सेवकों को लज्जा और अपमान सहने पड़ते हैं।
34) तू अपने नाम का ध्यान रख कर हमें सदा के लिए न त्याग; हमारे लिए अपना विधान रद्द न कर।
35) अपने मित्र इब्राहीम, अपने सेवक इसहाक और अपने भक्त इस्राएल का स्मरण कर। अपनी कृपादृष्टि हम पर से न हटा।
36) तूने उन से यह प्रतिज्ञा की थी कि आकाश के तारों की तरह और समुद्रतट के रेतकणों की तरह तुम्हारे वंशजों को असंख्या बना दूँगा।
37) प्रभु! संख्या की दृष्टि से, हम सब राष्ट्रों से छोटे हो गये हैं
38) और हमारे पापों के कारण पृथ्वी भर में हमारा अपमान हो रहा है। अब तो न राजा है, न नबी, न नेता, न होम, न यज्ञ, न बलि, न धूपदान।
39) कोई स्थान ऐसा नहीं, जहां तेरी कृपादृष्टि प्राप्त करने के लिए हम तुझे प्रथम फल अर्पित करें।
40) हमारा पश्चात्तापी हृदय और हमारा विनम्र मन मेढ़ों, साँडो ंऔर हजारों पुष्ट भेड़ो की बलि-जैसे तुझे ग्राह्य हों। आज तेरे लिए यही हमारा बलिदान हो। ऐसा कर कि हम पूर्ण रूप से तेरे मार्ग पर चलें, क्योंकि तुझ पर भरोसा रखने वाले कभी निराश नहीं होते।
41) अब हम यह दृढ संकल्प करते हैं कि हम तेरे मार्ग पर चलेंगे, तुझ पर श्रद्धा रखेंगे, और तेरे दर्शनों की कामना करते रहेंगे।
42) हमें निराश न होने दे, बल्कि हम पर अपनी सहनशीलता तथा महती दया प्रदर्शित कर।
43) प्रभु! अपने अपूर्व कायोर्ं द्वारा हमारी रक्षा कर और अपने नाम को महिमान्वित कर।
44) जो तेरे सेवकों का बुरा करते हैं, वे सब लज्जित हों। वे कितने ही शक्तिशाली क्यों न हो, वे निराश हो जायें और उनकी शक्ति टूट जाये।
45) वे जान जाये कि प्रभु, तू ही एक अनन्य ईश्वर है, और तेरी महिमा सारी पृथ्वी पर व्याप्त है
46) इस बीच राजा के नौकर, जिन्होंने उन्हें भट्टी में डाल दिया था, भट्टी में तेल, डामर, सन के रेशे और ईंधन झोंक रहे थे।
47) आग की लपटे भट्टी से उनचास हाथ ऊपर उठ रही थी।
48) और उन्होंने फैल कर आसपास खड़े खल्दैयियों को भस्म कर दिया।
49) किंतु अजर्या और उसके साथियों के साथ प्रभु का दूत भी भट्टी में उतार आया।
50) उसने आग की लपटें बाहर की ओर चला दी और भट्टी के बीचोंबींच ऐसी ठण्डी हवा भर दी, जैसी ओसभरी भोर में चलती है। इसलिए आग उन्हें छू तक नहीं पायी, न ही उन्हें कोई हानि या कष्ट हुआ।
51) तब वे तीनों एक स्वर से, भट्टी में ही, ईश्वर की महिमा और स्तुति इस प्रकार गाने लगेः
52) हमारे पूर्वजों के प्रभु-ईश्वर! तू धन्य है, सदा-सर्वदा प्रशंसनीय, महिमामय और सर्वोच्च। तेरी महिमान्वित पवित्र नाम धन्य है, सदा-सर्वदा प्रशंसनीय, महिमामय और सर्वोच्च।
53) तू अपने महिमान्वित पवित्र मंन्दिर में धन्य हैं सदा-सर्वदा प्रशंसनीय, महिमामय और सर्वोच्च।
54) तू अपने राज्य के सिंहासन पर धन्य है, सदा-सर्वदा प्रशंसनीय, महिमामय और सर्वोच्च।
55) तू महागर्त्त की थाह लेता और केरूबों पर विराजमान है, तू धन्य है, सदा-सर्वदा प्रशंसनीय, महिमामय और सर्वोच्च।
56) स्वर्ग में विराजमान प्रभु! तू धन्य है, सदा-सर्वदा प्रशंसनीय महिमामय और सर्वोच्च।
57) प्रभु की समस्त कृतियों! प्रभु को धन्य कहो। उसकी स्तुति करो और सदा-सर्वदा उसकी महिमा गाओ।
58) प्रभु के दूतों! प्रभु को धन्य कहो।
59) आकाश! प्रभु को धन्य कहो।
60) आकाश के ऊपर के जल! प्रभु को धन्य कहो।
61) विश्वमण्डल! प्रभु को धन्य कहो।
62) सूर्य और चंद्रमा! प्रभु को धन्य कहो।
63) आकाश के तारामण्डल प्रभु को धन्य कहो।
64) वर्षा और ओस! तुम दोनों प्रभु को धन्य कहो।
65) पवनो! तुम सब प्रभु को धन्य कहो।
66) अग्नि और ताप! प्रभु को धन्य कहो।
67) शीत और ग्रीष्म! प्रभु को धन्य कहो।
68) ओस और तुषार! प्रभु को धन्य कहो।
69) ठण्ड और पाले! प्रभु को धन्य कहो।
70) बर्फ और हिमपात! प्रभु को धन्य कहो।
71) रात और दिन! प्रभु को धन्य कहो।
72) प्रकाश और अन्धकार! प्रभु को धन्य कहो।
73) बिजली और बादलों! प्रभु की स्तुति करो
74) पृथ्वी प्रभु को धन्य कहे, उसकी स्तुति करे और सदा-सर्वदा उसकी महिमा गाये।
75) पर्वतों और पहाड़ियों! प्रभु को धन्य कहो।
76) पृथ्वी के सब वनस्पतियो! प्रभु को धन्य कहो।
77) झरनो! प्रभु को धन्य कहो।
78) समुद्रों और नदियों! प्रभु को धन्य कहो।
79) मकर और जलचरगण! प्रभु को धन्य कहो।
80) आकाश के समस्त पक्षियो! प्रभु को धन्य कहो।
81) सब बनैले और पालतू पशुओं! प्रभु को धन्य कहो।
82) मनुष्य की सन्तति! प्रभु को धन्य कहो।
83) इस्राएल! प्रभु को धन्य कहो। उसकी स्तुति करो और सदा-सर्वदा उसकी महिमा गाओ।
84) प्रभु के याजको! प्रभु को धन्य कहो।
85) प्रभु के सेवको! प्रभु को धन्य कहो।
86) ृधर्मियों की आत्मोओं! प्रभु को धन्य कहो।
87) संतो और हृदय के दीन लोगों! प्रभु को धन्य कहो।
88) हनन्या, अजर्या और मीशाएल! प्रभु को धन्य कहो, उसकी स्तुति करो और सदा-सर्वदा उसकी महिमा गाओ। उसने तो हमें अधोलोक से छुडाया है और मृत्यु के गर्त से बचाया है; उसने धधकती हुई भट्टी में हमें सुरक्षित रखा, अग्निकुण्ड में हम निरापद रहे।
89) प्रभु की स्तुति करो; क्योंकि वह भला है। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
90) प्रभु के सब भक्तों! सर्वोच्य प्रभु को धन्य कहो; उसका स्तुतिगान और गुणगान किया करो, क्योंकि उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
91) राजा नबूकदनेजर बड़े अचम्भे में पड गया। वह घबरा कर उठ खड़ा हुआ और अपने दरबारियों से बोला, ''क्या हमने तीन व्यक्तियों को बाँध कर आग में नहीं डलवाया?'' उन्होंने उत्तर दिया, ''राजा! आप ठीक कहते हैं''।
92) इस पर उसने कहा, ''मैं तो चार व्यक्तियों को मुक्त हो कर आग में सकुशल टहलते देख रहा हूँ। चौथा स्वर्गदूत-जैसा दिखता है।
93) नबूकदनेजर ने धधकती भट्ठी के द्वार के पास जा कर पुकारा, ''शद्रक, मेशक और अबेदनगो! सर्वोच्च ईश्वर के सेवकों! बाहर निकल आओ। इस पर शद्रक, मेशक और अबेदनगो आग से बाहर निकल आये।
94) क्षत्रप, अध्यक्ष, राज्यपाल और मन्त्रीगण तीनों को देखने के लिए एकत्र हुए। उनके शरीरों पर आग को कोई लक्षण नहीं दिखाई दे रहा था, उनका बाल तक बाँका नहीं हुआ था। उनके पायजामे झुलसे नहीं थे, न ही कहीं जलने की गन्ध तक लग पायी।
95) तब नबूकदनेजर बोल उठा, ''धन्य है शद्रक, मेशक और अबेदनगो का ईश्वर! उसने अपने दूत को भेजा है, जिससे वह उसके उन सेवकों की रक्षा करे, जिन्होंने ईश्वर पर भरोसा रख कर राजाज्ञा का उल्लंघन किया और अपने शरीर अर्पित कर दिये; क्योंकि वे अपने ईश्वर को छोड़ कर किसी अन्य देवता की सेवा या आराधना नहीं करना चाहते थे।
96) इसलिए मैं यह आदेश देता हूँ: सभी भाषा-भाषी जातियों एवं राष्ट्रों! यदि कोई शद्रक, मेशक और अबेदनगो के ईश्वर के विरुद्ध कुछ कहे, तो वह टुकड़े-टुकड़े किया जायेगा और उसका घर नष्ट कर दिया जायेगा; क्योंकि उस ईश्वर के सिवा अन्य कोई देवता इस प्रकार रक्षा नहीं कर सकता।''
97) तब राजा ने बाबुल प्रान्त में शद्रक, मेशक और अबेदनगो का बहुत अधिक सम्मानित किया।
98) पृथ्वी पर की सभी भाषा-भाषी जातियों और रष्ट्रों को राजा नबूकदनेजर की ओर से सम्पूर्ण शान्ति!
99) सर्वोच्च ईश्वर ने मेरे लिए जो चिन्ह और चमत्कार कर दिखयें हैं, मैं उनका वर्णन करना चाहता हूँ।
100) कितने महान् हैं उसके चिन्ह; कितने अपार हैं उसके चमत्कार! उसकी प्रभुसत्ता चिरन्तन है और उसका राज्य युगानुयुग रहेगा।

अध्याय 4

1) मै, नबूकदनेजर, अपने निवास में सुखपूर्वक रहता था और राजभवन में फल-फूल रहा था।
2) तब मैंने एक भयावह स्वप्न देखा और शय्या पर लेटे हुए मुझे डरावनी कल्पनाएँ और दृश्य भयभीत करने लगे।
3) अतः मैंने बाबुल के सभी विद्वानों को उपस्थित होने की आज्ञा दी, जिससे वे स्वप्न का अर्थ बता दें।
4) तब जादूगर, ओझा, खल्दैयी और ज्योतिषी आये। मैं अपना स्वप्न उन्हें बताया, परंतु वे उसका अर्थ नहीं बता सके।
5) अंत में मेरे सामने आया दानिएल, जिसका नाम, अपने देवता के नाम के अनुसार, मैंने बेल्टशस्सर रखा था और जिस में ईश्वर की शक्ति निवास करती थी। उस को अपना स्वप्न बताने के पहले मैंने उस से कहा,
6) ''जादूगरों के सिरताज बेल्टशस्सर! मैं जानता हूँ कि तुम में ईश्वर की शक्ति निवास करती हैं और तुम सभी रहस्य समझते हो। तुम मेरा स्वप्न सुनो और उसका अर्थ बताओ।
7) जब मैं शय्या पर था, तो मुझे यह स्वप्न दिखाई पड़ाः पृथ्वी के बीचोंबीच एक विशाल वृक्ष खड़ा था।
8) वृक्ष बढ़ता और सबल होता गयाः उसकी चोटी आकाश छू रही थी और वह पृथ्वी के छोर तक दिखाई दे रहा था।
9) उसकी पत्तियाँ सुन्दर थीं और उस में प्रचुर फल थे। सब प्राणी उसका फल खाकर तृप्त हो जाते थे। वन के पशु उसकी छाया में विश्राम करने आते। पक्षी उसकी डालियों में निवास करते थे। उस से सभी प्राणियों का भरण-पोषण होता था।
10) शय्या पर लेटे-लेटे मैंने और भी दिव्य दृश्य देखे। मेरे देखते-देखते एक रक्षक, एक स्वर्गिक प्राणी, स्वर्ग से उतरा।
11) वह चिल्ला उठा, 'वृक्ष काट डालो और उसकी डालें छाँट दो, उसकी पत्तियाँ झाड़ दो और उसके फल बिखेर दो। उसके नीचे से पशुओं और उसकी डालों से पक्षियों को भाग जाने दो।
12) तना हो, तो जड़-सहित रहने दो। तने पर लोहे और काँसे की जंजीर बाँधो और खेत की हरी घास के बीच रहने दो। वह ओस से भीग जाये और उसे पशुओं के साथ घास का हिस्सा मिले।
13) उसका मानव मन नष्ट हो जाये और उसे पशु का मन प्राप्त हो। सात वषोर्ं तक ऐसा ही रहे।
14) यह दण्ड रक्षको ने निश्चित किया है, यह पवित्र प्रहरियों का वचन हैं। यह इसलिए है कि जीव-लोक के प्राणी जान जायें कि मनुष्यों के राज्य पर सर्वोच्च ईश्वर का अधिकार है और जिसे वह चाहे, उसे देता है; वह उसे दीन से दीन को दे सकता है।'
15) मैं, नबूकदनेजर, ने यह स्वप्न देखा। बेल्टशस्सर! अब तुम उसका अर्थ बताओ, क्योंकि मेरे राज्य के सभी विद्वानों में एक भी मुझे उसका अर्थ नहीं बता सका। किन्तु तुम में ईश्वर की शक्ति निवास करती है; तुम उसे बताने में समर्थ हो।''
16) यह सुन कर दानिएल, जो बेल्टशस्सर कहलाता था, कुछ देर तक स्तब्ध रह गया और मन में भयभीत हो उठा। तब राजा ने कहा, ''बेल्टशस्सर! तुम स्वप्न और उसके अर्थ से न डरो''। बेल्टशस्तर ने उत्तर दिया, ''काश! यह स्वप्न आपके शत्रुओं के लिए होता और इसका अर्थ आपके बैरियों पर लागू होता !
17) आपने एक ऐसा वृक्ष देखा, जो बढ़ता और सबल होता गया और जिसका सिरा आकाश छू रहा था और जो पृृथ्वी के छोर से दिखाई दे रहा था,
18) जिसकी मनोहर पत्तियाँ और प्रचुर फल थे और जिसे सब लोग खा सकते थे; जिसकी छाया में वन से पशु शरण लेते थे और जिसकी डालियों में पक्षी बसते थे।
19) यह वृक्ष आप ही हैं, महाराज! आपकी शक्ति बढ़ती गयी है और आकाश तक छूती है और आपकी प्रभुसत्ता पृथ्वी के छोर तक फैल गयी है।
20) महाराज! आपने साथ ही स्वर्ग से उतरे हुए एक स्वर्गिक प्राणी, एक पवित्र रक्षक को देखा, जिसने यह कहा, 'वृक्ष काट कर नष्ट करो, किंतु जड-सहित तने को भूमि में छोड़ो; उसे लोहे और काँसे के पगहे से बाँध कर हरी घास चरने दो। उसे ओस से भीगने दो और सात वषोर्ं तक उसके पशु की तरह घास में से हिस्सा मिले।'
21) राजा! इसका अर्थ यह हैः सर्वोच्च ईश्वर का महाराज के लिए निर्णय है
22) कि आप मनुष्यों के समाज से बहिष्कृत किये जायेंगे और आप को वन के पशुओं के साथ रहना पडेगा; आप को बैल की तरह घास चना पड़ेगा और आप ओस से भीगेंगे और यह स्थिति सात वषोर्ं तक बनी रहेगी, जब तक आप यह न जान जायें कि सर्वोच्च ईश्वर का ही मनुष्यों के राज्य पर अधिकार है और वह जिसे चाहे, उसे देता है।
23) यह भी आदेश दिया गया था कि जड़-सहित तने को छोड़ दो। आप इस से यह समझिए कि जिस समय से आप सर्वोच्च ईश्वर का आधिपत्य मान लेंगे, उसे समय से आप को पुनः राज्य प्राप्त होगा।
24) राजा! आप मेरा परामर्श स्वीकार करें: आप सदाचार के द्वारा पापों से मुक्ति पा जाइए और दयाधर्म के द्वारा कुकमोर्ं का प्रायश्चित्त कीजिए। तभी आपके अच्छे दिन लौटेंगे।
25) राजा नबूकदनेजर पर यह सब बीती।
26) बारह महीने बाद राजा बाबुल में राजमहल की छत पर टलहते ही बोल उठा,
27) ''कितना विशाल है यह बाबुल, जिसे मैंने अपनी अपार शक्ति से अपनी राजधानी बनाया है, जिससे वह मेरा एश्वर्य बढाये!''
28) राजा के ये शब्द पूरे भी नहीं हुए कि स्वर्ग से यह वाणी सुनाई पड़ी, ''राजा नबूकदनेजर! तुम्हारे लिए यह सन्देश है : तुम्हारे हाथ से राज्य छिन गया है।
29) तुम मानव समाज से बहिष्कृत हो और तुम पशुओं के बीच रहोगे। तुम बैल की तरह घास खाओगे और तुम जब तक यह समझोगे कि मनुष्यों के राज्यों पर सर्वोच्च ईश्वर का अधिकार है और वह जिस चाहे, उसे दे सकता है, तब तक सात वर्ष बीत जायेंगे।''
30) यह वचन तुरन्त ही नबूकदनेजर में पूरा हो गया। वह मानव समाज से बहिष्कृत हो गया और बैल की तरह घास खाने लगा। वह ओस से भीगा रहता था। उसके रोयें बकरे के बाल की तरह लम्बे और नाखून पक्षी के चंगुलों की तरह बड़े-बड़े हो गये थे।
31) ''इस अवधि के बाद मैं, नबूकदनेजर ने, स्वर्ग की ओर दृष्टि उठायी और मुझे होश हुआ। मैं शाश्वत, सर्वोच्च ईश्वर को धन्यवाद दे कर उसकी स्तुति करने लगाः उसकी प्रभुसत्ता चिरन्तन है, उसका शासन युगानुयुग बना रहता है।
32) इस लोक के सब प्राणी नगण्य हैं; स्वर्ग के देवता उसके आधीन हैं। उसकी शक्ति का कोई नहीं सामना कर सकता और उस से पूछ सकता है, 'तू क्या करता है?''
33) ''उसी समय मुझे होश आया तथा अपने राज्य के ऐश्वर्य की वृद्धि के लिए मुझे अपना वैभव और ठाठ-बाट पुनः प्राप्त हो गया। मेरे मंत्री और दरबारी मुझे पुनः ढूँढने लगे, मेरा राज्य मेरे आधीन हो गया और मेरी महिमा बढने लगी।
34) अतः अब मैं, नबूकदनेजर, सर्वोच्य ईश्वर की स्तुति करता हूँ, उसकी महिमा गाता हूँ और उसका जयजयकार करता हूँ, क्योंकि उसके सभी कार्य सच्चे और हमारे साथ उसका व्यवहार न्यायसंगत है तथा वह घमण्डियों को नीच दिखाता है।''

अध्याय 5

1) राजा बेलशस्सर ने अपने एक हजार सामन्तों को एक बड़ा भोज दिया।
2) वह उन हजार अतिथियों के साथ अंगूरी पी रहा था और उसकी अंगूरी के नशे में सोने और चांदी के वे पात्र ले आने का आदेश दिया, जिन्हें उसके पिता नबूकदनेजर ने येरुसालेम के मंदिर से चुरा लिया था। वह अपने सामन्तों, आपनी पत्नियों और उपपत्नियों के साथ उन में पीना चाहता था।
3) इसलिए येरुसालेम के मंदिर से चुराये हुए सोने और चाँदी के पात्र लाये गये और राजा अपने सामन्तों, अपनी पत्नियों और उपपत्नियों के साथ उन में पीने लगा।
4) अंगूरी पीते समय वे सोने, चाँदी, पीतल, लोहे, लकड़ी और पत्थर के देवताओं की प्रशंसा करते जाते थे।
5) उस समय एक मनुष्य के हाथ की ऊँगलियाँ दिखाई पड़ी और वे दीपाधार के सामने, राजभवन की पुती हुई दीवार पर कुछ लिखने लगी। राजा ने लिखने वाला हाथ देखा।
6) उसका रंग उड़ गया, वह बहुत घबराया, उसके पैर काँपने और उसके घुटने एक दूसरे से टकराने लगे।
7) राजा तान्त्रिकों, खल्दैयियों और ज्योतिषियों को बुला लाने के लिए जोर से चिल्ला उठा। बाबुल के विद्वानों को सम्बोधिक करते हुुए कहा उसने कहा, ''जो यह लेख पढ़ लेगा और उसका अर्थ बता सकेगा, मैं उसे राजसी वस्त्रों से सम्मानित करूँगा, उसके गले में सोने का हार पहनाऊँगा और राज्य में तृतीय स्थान प्रदान करूँगा।''
8) तब राज्य के सभी विद्वान उपस्थित हुए, किन्तु वे न तो लेख पढ़ सके और न उसका अर्थ बता सके।
9) इस पर राजा बेलशस्सर और अधिक घबरा गया और उसका चेहरा पीला पड़ गया। उसके सामन्त भी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये।
10) राजा और सामन्त आपस में बातचीत कर ही रहे थे राजमाता भोजन-कक्ष में पहुँची। वह बोली, 'महाराज चिरायु हो! आप क्यों घबरा रहे हैं? आपके चेहरे का रंग इतना फीका क्यों है?
11) आपके राज्य में एक मनुष्य ऐसा है, जिस में सर्वोच्य ईश्वर का आत्मा विद्यमान है। आपके पिता के समय वह अपनी प्रखर बुद्धि और देवताओं-जैसी विवेक-शक्ति के कारण प्रसिद्ध था। आपके पिता, राजा नबूकदनेजर ने उसे जादूगरों, ओझाओं, खल्दैयियों और ज्योतिषियों का अध्यक्ष बना दिया था।
12) आपके पिता ने उसके दिव्य ज्ञान के कारण उसे बेल्टशस्सर नाम दे दिया था। उसे विद्या और विवेक, स्वप्नों का अर्थ बताने की कला, पहेलियों को समझने की शक्ति और समस्याओं का समाधान करने का सामर्थ्य प्राप्त हैं। दानिएल को बुलाया जाये, जिससे वह लेख का अर्थ बताये।''
13) जब दानिएल राजा के सामने लाया गया, तो राजा ने उस से कहा, ''क्या तुम दानिएल हो, यूदा के उस निर्वासितों में से एक, जिन्हें राजा, मेरे पिता, यूदा से ले आये थे?
14) मैंने तुम्हारे विषय में सुना है कि देवताओं का आत्मा तुम में विद्यमान है और यह कि तुम अंर्तज्योति, विवेक और असाधारण प्रज्ञा से सम्पन्न हो।
15) देखो, विद्वान, ओझा यह लेख पढ़ने और इसका अर्थ बताने के लिए मेरे सामने बुलाये गये हैं, किन्तु वे उसकी विषय-वस्तु का अर्थ बताने में असफल रहे।
16) लोगों ने तुम्हारे विषय में मुझे बताया है कि तुम स्वप्नों की व्याख्या कर सकते और समस्याओं को सुलझा सकते हो। यदि तुम यह लेख पढ़ कर इसका अर्थ समझाा सकते हो, तो तुम बैंगनी वस्त्र पहनोगे, गले में सोने का हार धारण करोगे और राज्य के तीसरे स्थान पर विराजमान होगे।''
17) दानिएल ने राजा को यह उत्तर दिया, ''आप अपने उपहार अपने ही पास रखें और दूसरों को अपने पुरस्कार प्रदान करें। फिर भी मैं राजा के लिए यह लेख पढूँगा और उन्हें इसका अर्थ समझाऊँगा।
18) राजा! सर्वोच्य ईश्वर ने आपके पिता नबूकदनेजर को राजत्व, महानता, कीर्ति और वैभव प्रदान किये थे।
19) ईश्वरप्रदत्त महानता के कारण सब भाषा-भाषी जातियाँ और राष्ट्र उस से थरथर काँपते और डरते थे। वह जिसे चाहता उसका वध करता और जिसे चाहता, उसे जीवित रहने देता। वह जिसे चाहता, उसे ऊपर उठाता और जिसे चाहता, उसे नीचे गिराता।
20) किन्तु उसका मन अहंकार से फूल उठा और उसका हृदय कठोर हो गया तथा उसका व्यवहार उद्धत हो गया। तब वह राजसिंहासन से उतार दिया गया और उसका ऐश्वर्य उस से छीन लिया गया।
21) वह मानव-समाज से बहिष्कृत हो कर पशु की तरह व्यवहार करने लगा। वह जंगली गधों के साथ रहता और बैल की तरह घास खाता तथा उसका शरीर ओस से भीगा रहता था। यह सब तब तक होता रहा, जब तक उसे अनुभव नहीं हुआ कि सर्वोच्य ईश्वर का मनुष्यों के राज्य पर अधिकार है और वह जिसे चाहे उस पर नियुक्त कर सकता है।
22) किंतु आप, उसके पुत्र बेलशस्सर ने यह सब जानते हुए भी अपना हृदय विनम्र नहीं बनाया,
23) बल्कि आपने स्वर्ग के प्रभु का विरोध किया। आपने उसके मंदिर के पात्र लाने का आदेश दिया; आपने अपने सामन्तों, अपनी पत्नियों और उपपत्नियों के साथ उन में अंगूरी का पान किया; आपने सोने, चांदी, पीतल, लोहे, लकड़ी और पत्थर के उन देवताओं की प्रशंसा की, जो न तो देखते हैं, न सुनते और न समझते हैं'। आपने इस ईश्वर की स्तुति नहीं की, जिसके हाथ में आपके प्राण और समस्त जीवन निहित हैं।
24) इसलिए उसने यह हाथ भेज कर यह लेख लिखवाया।
25) यह लेख इस प्रकार है- मने, मने, तकेल, और फरसीन।
26) इन शब्दों का अर्थ इस प्रकार है। मनेः ईश्वर ने आपके राज्य के दिनों की गिनती की और उसे सामप्त कर दिया।
27) तकेलः आप तराजू प तौले गये और आपका वजन कम पाया गया।
28) फरसीनः आपका राज्य विभाजित हो कर मेदियों और फारसियों को दे दिया गया है।''
29) तब बेलशस्सर की आज्ञा से दानिएल पर राजसी वस्त्री पहनाये गये, उसके गले में सोने का हार डाला गया और उसके विषय में यह घोषणा करायी गयी कि उसका पद राज्य में तीसरे शासक का होगा।
30) (३०-३१) उसी राज को खल्दैयियों के राजा बेलशस्सर की हत्या हो गयी

अध्याय 6

1) और मेदी राजा दारा को राज्य मिल गया, जो तब बासठ वर्ष का था।
2) दारा ने अपने सम्पूर्ण राज्य पर एक सौ बीस क्षत्रपों को नियुक्त किया
3) और उन पर तीन अध्यक्षों को, जिन में स्वयं दानिएल भी था, जिन को क्षत्रप उत्तरदायी हों, जिससे राजा को कोई क्षति न पहुँचे।
4) अपनी अद्भूत प्रतिभा के कारण दानिएल अन्य क्षत्रपों और मन्त्रियों की अपेक्षा अधिक प्रतिष्ठित होने लगा, तथा राजा उसे समस्त राज्य के ऊपर नियुक्त करने की सोचने लगा।
5) तब क्षत्रप और अध्यक्ष दानिएल के प्रशासनिक कायर्ोें को ठुकराने का बहाना ढूँढ़ने लगे, किन्तु उस से शिकायत का कोई आधार या कोई दोष नहीं मिला। दानिएल ईमानदार था; उस में कोई त्रुटि या दोष नहीं मिला।
6) अतः उन्होंने आपस में परामर्श कर लिया, ‘‘सिवा उसके धर्माचरण के हम दानिएल के व्यवहार में उस पर कोई आरोप नहीं कर पायेंगे।''
7) ये अध्यक्ष और क्षत्रप राजा से मिलने का अच्छा मौका ढूँढ़ कर उस से बोले, ‘‘राजा दारा चिरायु हों!
8) आपके राज्य के मन्त्री, अध्यक्ष, और क्षत्रप, दरबारी और राज्यपाल इस पर एकमत हैं कि आप एक आदेश और निषेधाज्ञा लागू करें कि अगले तीस दिनों के अन्दर यदि कोई महाराज के अतिरिक्त किसी अन्य देवता अथवा मनुष्य से प्रार्थना करे, तो महाराजा! आप उसे सिंहों के खंड्ड में डाल देंगे।
9) राजा! यह निषेधाज्ञा तुरन्त लागू कर उसके प्रलेख पर हस्ताक्षर कर दें, जिससे कि वह अटल बने। मेदियों और फारसियों की विधियों की तरह जो रद्द नहीं की जा सकती, उसे भी नहीं बदला जा सकता।''
10) अतः राजा दारा ने प्रलेख और निषेधाज्ञा पर हस्ताक्षर कर उसे जारी कर दिया।
11) जब दानिएल को पता चला कि निषेधाज्ञा पर हस्ताक्षर हो चुके हैं, तो वह अपने घर चला गया। वहाँ अपने कोठे में येरुसालेम की ओर खुलने वाली खिड़कियाँ थीं। वहाँ अपने रिवाज के अनुसार वह प्रतिदिन तीन बार घुटनों के बल अपने ईश्वर की धन्यवाद की प्रार्थना पढ़ता था।
12) कुछ लोगों ने दानिएल के यहाँ पहुँचने पर उसे अपने ईश्वर से प्रार्थना और अनुनय-विनय करते पाया।
13) वे राजा से मिलने गये और उसे राजकीय निषेधाज्ञा का स्मरण दिलाते हुए बोले, ‘‘राजा! क्या आपने यह निषेधाज्ञा नहीं निकाली कि तीस दिनों तक जो कोई आप को छोड़ कर किसी भी देवता अथवा मनुष्य से प्रार्थना करेगा, वह सिंहों के खड्ड में डाल दिया जायेगा?'' राजा ने उत्तर दिया, ‘‘यह मेदियों और फारसियों के अपरिवर्तनीय कानून के अनुसार सुनिश्चित है।''
14) इस पर उन्होंने राजा से कहा, ‘‘दानिएल- यूदा के निर्वासितों में से एक- आपके द्वारा घोषित निषेधाज्ञा की परवाह नहीं करता। वह दिन में तीन बार अपने ईश्वर से प्रार्थना करता है।''
15) राजा को यह सुन कर बहुत दुःख हुुआ। उसने दानिएल को बचाने को निश्चत किया और सूर्यास्त तक कोई रास्ता खोज निकालने का प्रयत्न किया।
16) किन्तु उन लोगों ने यह कहते हुए राजा से अनुरोध किया, ‘‘राजा! स्मरण रखिए कि मेदियों और फारसियों के कानून के अनुसार राजा द्वारा घोषित कोई भी निषेधाज्ञा अथवा आदेश अपरिवर्तनीय है''॥
17) इस पर राजा ने दानिएल को ले आने और सिंहों के खड्ड में डालने का आदेश दिया। उसने दानिएल से कहा, ‘‘तुम्हारा ईश्वर, जिसकी तुम निरन्तर सेवा करते हो, तुम्हारी रक्षा करे''।
18) एक पत्थर खड्ड के द्वार पर रखा गया और राजा ने उस पर अपनी अंगूठी और अपने सामन्तों की अंगूठी की मुहर लगायी, जिससे कोई भी दानिएल के पक्ष में हस्तक्षेप न कर सके।
19) इसके बाद राजा अपने महल चला गया; उसने उस रात को अनशन किया और अपनी उपपत्नियों को नहीं बुलाया। उसे नींद नहीं आयी और वह सबेरे,
20) पौ फटते ही उठा, और सिंहों के खड्ड की ओर जल्दी-जल्दी चल पड़ा।
21) खड्ड के निकट आ कर उसने दुःख भरी आवाज में दानिएल को पुकार कर कहा, ‘‘दानिएल! जीवन्त ईश्वर के सेवक! तुम जिस ईश्वर की निरन्तर सेवा करते हो, क्या वह तुम को सिंहों से बचा सका?''
22) दानिएल ने राजा को उत्तर दिया, ‘‘राजा! आप सदा जीते रहें!
23) मेरे ईश्वर ने अपना दूत भेज कर सिंहों के मुुँह बन्द कर दिये। उन्होंने मेरी कोई हानि नहीं की, क्योंकि मैं ईश्वर की दृष्टि में निर्दोष था।
24) राजा! मैंने आपके विरुद्ध भी कोई अपराध नहीं किया।'' राजा आनन्दित हो उठा और उसने दानिएल को खड्ड से बाहर निकालने का आदेश दिया। इस पर दानिएल को खड्ड से बाहर निकाला गया; उसके शरीर पर कोई घाव नहीं था क्योंकि उसने अपने ईश्वर पर भरोसा रखा था।
25) जिन लोगों ने दानिएल पर अभियोग लगाया था, राजा ने उन्हें बुला भेजा और उन को अपने पुत्रों तथा पत्नियों के साथ सिंहों के खड्ड में डाल देने का आदेश दिया। वे खड्ड के फर्श तक भी नहीं पहुँचे थे कि सिंहों न उन पर टूट कर उनकी सब हाड्डियाँ तोड़ डालीं।
26) इसके बाद राजा ने पृथ्वी भर के लोगों, राष्ट्रों और भाषा-भाषियों को लिखा,
27) ''आप लोगों को शांति मिले! मेरी राजाज्ञा यह है कि मेरे राज्य क्षेत्र समस्त क्षेत्र के लोग दानिएल के ईश्वर पर श्रद्धा रखें और उससे डरें: क्योंकि वह सदा बना रहने वाला जीवन्त ईश्वर है, उसका राज्य कभी नष्ट नहीं किया जायेगा और उसके प्रभुत्व का कभी अंत नहीं होगा।
28) वह रक्षा करता और बचाता है, वह स्वर्ग और पृथ्वी पर चिन्ह और चमत्कार दिखाता है, उसने दानिएल को सिंहों के पंजों से छुडाया है।''
29) इस प्रकार दानिएल दारा और सीरूस के शासनकाल में फलता-फूलता रहा।

अध्याय 7

1) बाबुल के राजा बेलशस्सर के पहले वर्ष, जब दानिएल शय्या पर पड़ा हुआ था, उसे एक स्वप्न और मन में कई दृश्य दिखाई दिये। वर्णन के रूप में उसने संक्षेप में यह स्वप्न लिख लिया। दानिएल ने इस प्रकार वर्णन कियाः
2) मैंने रात्रि के समय यह दिव्य दृश्य देखाः आकाश की चारों दिशाओं की हवाएँ महासमुद्र को उद्वेलित कर रही थीं
3) और उस में से चार विशालकाय पशु निकलते थे, जो एक दूसरे से भिन्न थे।
4) पहला सिहं-जैसा था, किन्तु उसके गरूड़ के जैसे पख थे। मैं देख ही रहा था कि उसके पंख उखाड़ गये, उसे उठा कर दो पांँवों पर मनुष्य की तरह खड़ा कर दिया गया और उसे मनुष्य-जैसा हृदय दिया गया।
5) दूसरा भालू-जैसा था। वह आधा ही खड़ा था और वह अपने मुँह में दाँतों के बीच तीन पसलियाँ लिये था। उसे यह आदेश दिया गया, ''उठो और बहुत-सा मांस खाओ''।
6) इसके बाद मैंने चीते-जैसा एक और पशु देखा।
7) उसकी पीठ पर पक्षियों के चार डैने थे और उसके चार सिर थे। उसे राजाधिकार दिया गया। अंत में मैंने रात्रि के दृश्य में एक चौथा पशु देखा। वह विभीषण, डरावना और उत्यन्त बलवान् था। उसके दाँत लोहे के थे। वह चबाता और खाता जाता था और जो कुछ रह जाता, उसे पैरों तले रौंद देता था।
8) वह पहले के सभी पशुओं से भिन्न था और उसके दस सींग थे। मैं वे सींग देख ही रहा था कि उनके बीच में से एक और छोटा-सा सींग निकला और उसके लिए जगह बनाने के लिए पहले सींगों में से तीन उखाड़े गये। उस सींग की मनुष्य-जैसी आँखें थी और उसका एक डींग मारता हुआ मुँह भी था।
9) मैं देख ही रहा था कि सिंहासन रख दिये गये और एक वयोवृद्ध व्यक्ति बैठ गया। उसके वस्त्र हिम की तरह उज्जवल थे और उसके सिर के केश निर्मल ऊन की तरह।
10) उसका सिंहासन ज्वालाओं का समूह था और सिहांसन के पहिये धधकती अग्नि। उसके सामने से आग की धारा बह रही थी। सहस्रों उसकी सेवा कर रहे थे। लाखों उसके सामने खड़े थे। न्याय की कार्यवाही प्रारंभ हो रही थी। और पुस्तकें खोल दी गयीं।
11) मैंने देखा कि सींग के डींग मारने के कारण चौथा पशु मारा गया। उसकी लाश आग में डाली और जलायी गयी।
12) दूसरे पशुओं से भी उनके अधिकार छीन लिये गये, किन्तु उन्हें कुछ और समय तक जीवित ही छोड दिया गया।
13) तब मैंने रात्रि के दृश्य में देखा कि आकाश के बादलों पर मानवपुत्र-जैसा कोई आया। वह वयोवृद्ध के यहाँ पहुँचा और उसके सामने लाया गया।
14) उसे प्रभुत्व, सम्मान तथा राजत्व दिया गया। सभी देश, राष्ट्र और भिन्न-भिन्न भाषा-भाषी उसकी सेवा करेंगे। उसका प्रभुत्व अनन्त है। वह सदा ही बना रहेगा। उसके राज्य का कभी विनाश नहीं होगा।
15) मैं बहुत व्याकुल हो उठा और अपने मन के दृश्यों के कारण विस्मित हो गया।
16) मैंने वहाँ उपस्थित लोगों में से एक के पास जा कर पूछा कि इन सब बातों का अर्थ क्या है और उसने मुझे समझाते हुए कहा,
17) ''ये चार विशालकय पशु चार राज्य हैं, जो पृथ्वी पर प्रकट होंगे,
18) किन्तु सर्वोच्य प्रभु के संतों को जो राजत्व दिया जायेगा, वह अनन्त काल तक बना रहेगा।''
19) तब मैंने जानना चाहा कि उस चौथे पशु का अर्थ क्या है, जो सभी पहले पशुओं से भिन्न था, जो बहुत डरावना था, जो चबाता और खाता जाता था और जो कुछ रह जाता, उसे पैरों तले रौंदता था।
20) मैंने उसके सिर के दस सींगों के विषय में जानना चाहा और उस अन्य सींग के विषय में भी, जिसके निकलने पर तीन सींग उखड़ गये- उस सींग के विषय में, जिसकी आंखे थी, जिसका एक डींग मारने वाला मुँह था और जो दूसरे सींगों से अधिक बडा दिखता था।
21) मैं देख ही रहा था कि वह सींग संतों से युद्ध कर रहा था और वयोवृद्ध व्यक्ति के आने तक उन पर प्रबल हो रहा था।
22) उसने सर्वोच्य प्रभु के संतों को न्याय दिलाया और वह समय आया, जब संतों ने राज्य पर अधिकार प्राप्त कर लिया।
23) उसने मुझे यह उत्तर दिया, ''चौथा पशु पृथ्वी पर प्रकट होने वाला चौथा राज्य है। वह अन्य सब राज्यों से भिन्न होगा। वह समस्त पृृथ्वी को खा जायेगा और पैरों तले रौंद कर चूर-चूर कर देगा।
24) वे दस सींग इस राज्य के दस राजा हैं। उनके बाद एक ऐसे राजा का उदय होगा, जो पहले के राजाओं से भिन्न होगा और तीन राजाओं को परास्त कर देगा।
25) वह सर्वोच्य प्रभु के विरुद्ध बोलेगा, सर्वोच्य प्रभु के संतों पर अत्याचार करेगा और पवोर्ं और प्रथाओं में परिवर्तन लाने की योजना तैयार करेगा। संत साढे तीन वर्ष तक उसके हाथ में दिये जायेंगे।
26) इसके बाद न्याय की कार्यवाही प्रारंभ होगी। राजत्व उस से छीन लिया जायेगा और सदा के लिए उसका सर्वनाश किया जायेगा।
27) तब पृथ्वी भर के सब राज्यों का अधिकार, प्रभुत्व और वैभाव सर्वोच्च प्रभु के संतों की प्रजा को प्रदान किया जायेगा। उसका राज्य सदा बना रहेगा और सभी राष्ट्र उसकी सेवा करेंगे और उसके अधीन रहेंगे।''
28) यह वर्णन यहाँ समाप्त होता है। मेरे तो विचारों ने मुझे आतंकित किया और मेरे मुह का रंग उड गया। फिर भी मैं इन सब बातों को अपने मन में संचित रखा।

अध्याय 8

1) राजा बेलशस्सर के शासन के तीसरे वर्ष मुझ दानिएल को पहले दिव्य दृश्य के समान एक दूसरा दिव्य दृश्य दिखाई पड़ा। उस समय मैं एलाम प्रांत की राजधानी सूसा में था।
2) इस दिव्य दृश्य में ऊलय नदी के तट पर खड़ा था
3) कि आंखें उठाने पर मुझे अपने और पानी के बीच एक दो सींग वाला मेढा दिखाई दिया। दोनों सींग ऊँचे थे, किन्तु एक की ऊँचाई दूसरे से अधिक थी और जो अधिक ऊँचा था, वह दूसरे के पीछे था।
4) मैंने मेढे को पश्चिम, उत्तर और दक्षिण की ओर टक्कर मारते देखा। उसका सामना कोई जानवर नहीं कर सका, न ही उसकी शक्ति से कोई भी बच सका। वह जो चाहता, वही करता और बल का प्रदर्शन करता।
5) मैं इस पर सोच ही रहा था कि सारी धरती की सतह पर से होता हुआ पश्चिम से एक बकरा आ पहुँचा। बकरे की आखों के बीचोंबीच एक बहुत लम्बा सींग था।
6) मैंने जो दो सींग वाला मेढा नदी के तट पर देखा था,
7) वह उसके पास आ कर भारी क्रोध से उस पर झपटा। मैंने उसे मेढे पर आक्रमण करते देखा। उसने बड़े क्रोध से मेढे पर टक्कर मारी, जिससे मेढे के दोनों सींग टूट गये। मेढ़े में उसका सामना करने की शक्ति नहीं रह गयी। बकरे ने उसे जमीन पर पटक दिया और उसे रौंद डाला। मेढ़े को बचाने वाला कोई नहीं था।
8) इसके बाद बकरे ने अपनी शक्ति का विस्मयजनक प्रदर्शन किया। किन्तु जब वह अपनी शक्ति की चरमसीमा पर पहुँचा, उसका बडा सींग टूट गया और उसके स्थान पर चार दिशाओं की ओर सकेंत करने वाले चार विचित्र सींग उग गये।
9) एक सींग से एक छोटा सींग निकला, जो दक्षिण और पूर्व तथा महिमामय भूमि की ओर संकेत करते हुए बल प्रदर्शित करने लगा।
10) उसने आगे बढते हुए स्वर्ग की सेना पर चढाई की और उसका एक बड़ा भाग पटक कर तारामण्डल के बड़े भाग को भी गिराया और उसे पददलित किया।
11) उसने स्वार्गिक सेना के प्रभु पर भी चढाई की, दैनिक होम-बलियाँ छीन ली और पवित्र मंदिर को ढहाया।
12) स्वर्ग की सेना भी परास्त हो गयी और साथ ही अधर्म ने होम-बलि का स्थान ले लिया और इस तरह सत्य धूल में मिल गया। यही सींग की विजय थी।
13) तब मैंने न जाने किस स्वार्गिक प्राणी को दूसरे से बोलते सुना, ''यह कब तक रहेगा? दैनिक होम-बलि कब तक बन्द होगी? यह विध्वंसकारी अधर्म कब तक बना रहेगा? स्वार्गिक सेना और पवित्र मन्दिर और महिमा-मय भूमि कब तक पददलित रहेंगे?'' उत्तर मिला,
14) ''जब तक दो हजार तीन सौ साँझ और भोर न बीत जायें। उसके बाद पवित्र स्थान की पुनः प्रतिष्ठा होगी।
15) यह दिव्य दृश्य देखकर मैं उसका अर्थ समझने का प्रयत्न कर ही रहा था कि एकाएक कोई, जिसकी आकृति मनुष्य-जैसी थी, मेरे सामने आ कर खड़ा हो गया।
16) उसी समय ऊलय नदी के उस पार से मनुष्य का स्वर सुनाई पड़ा ''गाब्रिएल! इस मनुष्य को दिव्य दृश्य का अर्थ बताइए''।
17) वह पास आया और उसके पहुँंचते ही मैं भयभीत हो कर मुँह के बल गिर पड़ा। उसने मुझ से कहा, ''मानवपुत्र! समझ लो कि यह दिव्य दृश्य अंतिम युग के विषय में है''।
18) वह मुझ से बोल ही रथा था कि मैं बेहोश हो कर जमीन पर गिर पड़ा; परन्तु उसने मुझे उठा कर खड़ा कर दिया।
19) उसने मुझ से कहा, ''देखो, मैं तुम को विपत्ति काल के अंत के विषय में बताऊँगा। ईश्वर ने उसका अंत निर्धारित किया है।
20) जो दो सींग वाला मेढा तुमने देखा था, उसके सींग मेदिया और फ़ारस के राजा हैं।
21) बकरा यूनान का राज्य और आंखों के बीच का सींग उसका पहला राजा है।
22) रहा वह सींग जो टूट गया और जिसके स्थान पर चार अन्य सींग निकले; उस राज्य में से चार अन्य राज्य उभरेंगे, किन्तु वे कम शक्तिशाली होंगे।
23) इन राज्यों के अंतिम दिनों में, जब अधर्म की विजय हो गयी है, एक राजा का उदय होगा, कठोर मुँह एवं तीक्ष्ण बुद्धि वाला।
24) वह महाप्रतापी राजा होगा और घोर विनाश करेगा; वह अपने हर काम में विजयी होगा। वह शक्तिशाली नेताओं को परास्त करेगा और पवित्र प्रजा को सतायेगा।
25) वह अपनी धूर्तता से सब कपटपूर्ण कायोर्ं में सफल होगा; उसका हृदय घमण्डी हो जायेगा और वह बहुतों का अचानक विनाश कर डालेगा। वह स्वर्ग के प्रभु पर भी धावा बोल देगा, किन्तु वह अन्त में बिना किसी के हाथ लगाये ही टूट जायेगा।
26) भोरों और साँझों का जो तुमने दिव्य दृश्य देखा है और जिसका अर्थ मैं बता चुका हूँ, वह सत्य है। किन्तु तुम उसे गुप्त रखोगे, क्योंकि वह बहुत दिनों के बाद घटित होगा।
27) मैं, दानिएल तो बहुत दुर्बल हो कर कुछ दिनों तक बीमार पड़ा रहा। तब स्वस्थ होने पर मैं पुनः राजकाज में व्यस्त हो गया। किन्तु इस दिव्य दृश्य के कारण मैं अचम्भे में पडा रहा, क्योंकि यह मेरी समझ में नहीं आया।

अध्याय 9

1) मेदी वंश के अहशवेरोश के पुत्र दारा का जो खल्दैयियों का राजा नियुक्त हुआ था, पहला वर्ष था।
2) मैं, दानिएल, धर्मग्रंथों में उन सत्तर वषोर्ं का उल्लेख पढ रहा था, जिसके दौरान, नबी यिरमियाह के अनुसार, येरुसालेम उजाड़ पडा रहेगा।
3) तब प्रभु-ईश्वर पर ध्यान लगा कर मैंने टाट ओढ़ और शरीर पर भस्म रमा कर उपवासव्रत लिया। मैंने अपनी प्रार्थनाएँ प्रस्तुत करके इस प्रकार पापों की स्वीकारोक्ति कीः
4) ''प्रभु! महान् एवं भीषण ईश्वर! तू अपना विधान बनाये रखता है। तू उन लोगों पर दयादृष्टि करता है, जो तुझे प्यार करते और तेरी आज्ञाओं का पालन करते हैं। हम लोगों ने पाप किया है, हमने अधर्म और बुराई की है, हमने तेरे विरुद्ध विद्रोह किया है।
5) हमने तरी आज्ञाओं तथा नियमों का मार्ग त्याग दिया है।
6) नबी तेरे सेवक, हमारे राजाओं, नेताओं, पुरखों और समस्त देश के लोगों को उपदेश देते थे। हमने उनकी शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया है।
7) ''प्रभु! तू न्यायी है और यहूदिया के लोग, येरुसालेम के निवासी, समस्त इस्राएली, चाहे वे निकट रहते हों, चाहे उन दूर देशों में बिखेर दिया है, हम सब-के-सब कलंकित हैं।
8) प्रभु! हम सब कलांकित हैं- हमारे राजा, हमारे शासक और हमारे पुरखे, क्योंकि हमने तेरे विरुद्ध पाप किया है।
9) ''हमारा प्रभु-ईश्वर हम पर दयादृष्टि करे और हमें क्षमा प्रदान करे, क्योंकि हमने उसके विरुद्ध विद्रोह किया
10) और अपने प्रभु-ईश्वर की वाणी अनसुनी कर दी है। उसने अपने सेवकों, अपने नबियों द्वारा जो नियम हमारे सामने रखे थे हमने उनका पालन नहीं किया।
11) समसत इस्राएल जाति ने तेरी विधि भंग की और तेरी वाणी न सुन कर तुझ से विमुख हो गयी है। अतः जो शाप और शपथ तेरे सेवक मूसा के विधान में लिखे हैं, वे हम पर सार्थक हुए हैं, क्योंकि हमने उसके विरुद्ध पाप किया है।
12) हमारे और हमारे शासकों के विरुद्ध जो वचन उसने कहे थे, वे अब पूरे हो गये हैं, क्योंकि जैसी विपत्तियाँ उसने हम पर और येरुसालेम पर ढाही हैं, वैसी सारी पृथ्वी पर कभी देखने को नहीं मिली हैं।
13) अब हम पर यह विपत्ति आ पड़ी, जैसा कि मूसा के विधान में लिखा हुआ है; तब भी हमने न तो हमारे प्रभु-ईश्वर से दया की याचना की, न ही यह जानते हुए भी कि तू सत्यप्रतिज्ञ है, हमने अपने कुकमोर्ं पर पश्चात्ताप किया।
14) ईश्वर सदैव सजग है और ठीक समय पर उसने हम पर यह विपत्ति ढाही है। अपने सब कायोर्ं में प्रभु-ईश्वर ने जो कुछ किया है, वह उचित है; फिर भी हमने उसकी वाणी पर ध्यान नहीं दिया है।
15) ''प्रभु-ईश्वर! तू ही अपने महान् बाहुबल द्वारा अपनी प्रजा को मिस्र से निकाल लाया और इस प्रकार अपने नाम की महिमा बढायी, जो आज तक बनी हुई है। हमने पाप किया है; हमने कुकर्म किये हैं।
16) प्रभु! हम तेरे मुक्तिप्रद कायोर्ं को स्मरण कर प्रार्थना करते हैं कि तू रुष्ट न हो कर अपने निजी नगर येरुसालेम, अपने पवित्र पर्वत पर से अपना कोप हटा ले। हमारे अपने पापों के कारण और हमारे पूर्वजों के अपराधों के कारण येरुसालेम और तेरी पवित्र प्रजा सब पडोसी देशों के उपहास के पात्र बन गये हैं।
17) अतः, हमारे ईश्वर! अपने इस दास की प्रार्थना और उसकी विनय पर ध्यान दे। स्वामी! अपने नाम के कारण उजाड़ पडे हुए पवित्र-स्थान पर कृपादृष्टि डाल।
18) ईश्वर! कान लगाकर सुन और दृष्टि फेर कर हमारी विपत्तियों पर और तेरे अपने नगर पर दया कर। यह नगर तो तेरे ही नाम से पुकारा जाता है। हम अपनी धार्मिकता के कारण नहीं, बल्कि तेरी महान् दया पर भरोसा रख कर तुझ से निवेदन करते हैं।
19) प्रभु! कान दे। प्रभु! क्षमा कर! प्रभु! सुन कर कुछ कर दे। ईश्वर! तेरा नगर और तेरी प्रजा तेरे नाम से पुकारे जाते हैं; इसलिए अपने नाम के लिए विलम्ब न कर।''
20) मैं इस प्रकार बोल रहा था और प्रार्थना कर रहा था, और अपनी प्रजा इस्राएल के पाप स्वीकार कर रहा था तथा ईश्वर अपने प्रभु के सम्मुख उसके अपने पवित्र पर्वत के लिए विनती कर रहा था।
21) इसी बीच संध्या बलि के समय जिस गाब्रिएल नामक मनुष्य को मैं पहले देख चुका था, वह शीघ्र ही उड़ कर मेरे समीप आया। उसने मुझे समझाते हुए कहा,
22) ''दानिएल! मैं तुम को विद्या और बुद्धि प्रदान करने के लिए आया हूँ।
23) जब तुमहारी प्रार्थना आरंभ हुई थी, उसी समय मुझे आदेश मिला था और मैं उसे बताने आया हूँ। तुम ईश्वर को अति प्रिय हो; अतः मेरा वचन ग्रहण कर दिव्य दृश्य का अर्थ समझोः
24) तुम्हारी जाति और तुम्हारे पवित्र नगर के लिए वषोर्ं के सत्तर सप्ताह नियत किये गये हैं। उस अवधि के अंत में दुष्कर्म समाप्त किये जायेंगे, पाप मिट जायेगा, अपराधों का प्रायश्चित किया जायेगा, धर्म स्थायी हो जायेगा, दिव्य दृश्य और भविष्यवाणियाँ सत्य सिद्ध होंगी और परमपावन मन्दिर-गर्भ की पुनः प्रतिष्ठा की जायेगी।
25) अतः जान कर यह समझ लोः येरुसालेम के पुनर्निर्माण के विषय में आदेश प्रसारित होने से ले कर अभ्यंजित नेता के आगमन तक सात सप्ताह बीत जायेंगे; फिर बासठ सप्ताह तक चौकों और खाई-सहित उसका निर्माण - वह भी आपत्ति के दिनों में - पूरा होगा।
26) फिर बासठ सप्ताह बाद अभ्यंजित नेता की मृत्यु होगी और उसके स्थान पर कोई नहीं रहेगा। एक अन्य नेता अपनी सेना से नगर और पवित्र-स्थान का विनाश करेगा। इस नेता का भी भारी विपत्ति में नाश होगा; यथा, अन्त तक युद्ध चलते रहेंगे और निर्र्धारित विध्वंस पूरा हो जायेगा।
27) वह एक सप्ताह तक कई व्यक्तियों के साथ सन्धियाँ करेगा और आधे सप्ताह तक वह होम-बलियाँ और नैवद्य बन्द करा देगा। मन्दिर के छज्जे पर घोर बीभत्स मूर्ति की प्रतिष्ठा होगी। वह निर्धारित समय तक विनाश करता रहेगा।''

अध्याय 10

1) फ़ारस के राजा सीरूस के तीसरे वर्ष दानिएल को, जो बेल्टशस्सर कहलाता था, एक वाणी प्राप्त हुई। यह एक बहुत बड़े संघर्ष की सच्ची वाणी थी। उसे एक दिव्य दृश्य के द्वारा वाणी का अर्थ समझ में आ गया।
2) उन दिनों में, दानिएल, तीन सप्ताह का व्रत रख रहा था।
3) इन तीन सप्ताहों में मैंने सात्त्िवक भोजन किया, मांस और अंगूरी से परहेज रखा और बदन पर तेल नहीं लगाया।
4) पहले महीने के चौबीसवें दिन महानदी दजला के तट पर
5) मैंने आँखें उठा कर यह देखाः एक पुरुष खड़ा था; वह छालटी का वस्त्र और कमर में ऊपाज के सोने की मेखला पहने था;
6) उसका शरीर स्वर्णमणि की तरह था; उसके चेहरे पर बिजली का तेज था; उसकी आँखें जलती मशालें-जैसी थी; उसकी भुजाएँ और उसके पैर काँसे की चमक-जैसे थे; उसका स्वर भीड़ के कोलाहल की तरह था।
7) मैं, दानिएल, ने अकेले ही यह दृश्य देखा। मेरे साथियों ने यह दिव्य दृश्य नहीं देखा, किन्तु वे भय के मारे काँपने लगे और भाग कर छिप गये।
8) मैं अकेला ही यह दृश्य देखता रह गया; मेरी शक्ति क्षीण हो गयी और भय से मेरे चेहरे का रंग उड़ गया; मैं लाचार हो गया।
9) जब मैंने उसके शब्दों की गूँज सुनी तो मैं अचेत हो कर भूमि पर गिर पड़ा।
10) अचानक एक हाथ ने मुझे उठाया, पर मैं कँपकँपी के कारण घुटनों के बल पड़ा रहा।
11) उसने मुझ से कहा, ''दानिएल! तुम ईश्वर को बहुत प्रिय हो; मेरे शब्दों पर ध्यान दो और खड़े हो जाओ, क्योंकि मैं अभी तुम्हारे पास भेजा गया हूँ''। जब वह यह बोला, तो मैं काँपते-काँपते खड़ा हो गया।
12) उसने फिर मुझ से कहा, ''दानिएल! डरो मत, क्योंकि जब से तुम ईश्वर पर ध्यान दे कर विनम्रतापूर्वक समझने का प्रयत्न करने लगे, तब से तुम्हारी प्रार्थनाएँ सुनी गयीं और उत्तर के रूप में मैं आ गया हूँ।
13) फ़ारस राज्य का प्रधान स्वर्गदूत इक्कीस दिन तक मुझे रोके रहा, किन्तु स्वर्गदूतों का मीकाएल नामक प्रधान मेरी सहायता के लिए आया।
14) इसलिए उसे वहाँ फ़ारस राज्य के प्रधान के यहाँ छोड़ कर मैं तुम्हें यह अताने आया हूँ कि तुम्हारी जाति का इस अन्तिम समय में क्या होगा। यह दिव्य दृश्य तो भविष्य के विषय में है।''
15) जब यह मुझ से बोल रहा था, तो मैं सिर झुका कर चुपचाप खड़ा था।
16) अचानक किसी मनुष्य-जैसे ने मेरे होंठों का स्पर्श किया। तब मेरी जीभ खुल गयी और मैं इस प्रकार बोलने लगा। जो मेरे सामने खड़ा था, उस से मैंने कहा, ''मेरे स्वामी! इस दिव्य दृश्य ने मुझे दुःख दिया है और मेरी शक्ति जाती रही है।
17) अपने स्वामी से यह दास कैसे बोले? मुझ में कुछ शक्ति नहीं है और मेरे प्राण निकलने ही वाले हैं।''
18) उसने, जो मनुष्य-जैसा दिखता था, मुझे फिर छुआ और बल प्रदान किया।
19) तब उसने कहा, ''ईश्वर के परमप्रिय, मत डरो, तुम्हें शान्ति मिले; दृढ़ हो कर धीरज धरो''। और उसके बोलने से मुझ में शक्ति का संचार हुआ और मैं बोला, ''स्वामी! अब बोलिए, आपने मुझे शक्ति दे दी है''।
20) फिर उसने कहा, ''क्या तुम जानते हो कि मैं किस लिए तुम्हारे पास आया हूँ? अब फ़ारस के प्रधान दूत से लडने के लिए मुझे लौट जाना है। जब मैं उस से निपट चुकूँगा, तब यूनान का प्रधान देवदूत आयेगा;
21) किन्तु अब मैं उन बातों को बता दूँगा, जो ÷सत्य ग्रन्थ' में लिखी हुई है। इस संघर्ष में तुम्हारे प्रधान, मीकाएल के अतिरिक्त कोई दूसरा सहायक नहीं है।

अध्याय 11

1) और मेदिया के राजा दारा के पहले वर्ष से मैं उसके पक्ष में लड़ता और उसकी रक्षा करता रहा।''
2) ''फ़ारस में तीन और राजाओं का उदय होगा तथा चौथा दूसरों से बहुत अधिक धनवान् होगा। जब वह अपनी धन-सम्पत्ति के द्वारा अपने राज्य का विस्तार करेगा, तब वह यूनान राज्य के विरुद्ध सब को भड़कायेगा।
3) उसके बाद एक महापराक्रमी राजा का उदय होगा। वह एक विशाल राज्य की स्थापना कर अपनी इच्छा के अनुसार उस पर शासन करेगा।
4) किन्तु ज्यों ही उस राज्य की स्थापना की जायेगी, वह चारों दिशाओं में छिन्न-भिन्न हो जायेगा। किन्तु वह उसके वंशजों को नहीं मिलेगा। वे उतने शक्तिशाली नहीं होंगे, जितना वह था; क्योंकि उसका राज्य नष्ट हो जायेगा और अपनों के साथ ही दूसरों के बीच बँट जायेगा।
5) ''इसके बाद दक्षिण का राजा शक्तिशाली हो उठेगा; किन्तु उसके सामन्तों में एक उस से भी अधिक शक्तिशाली बन जायेगा और उस से भी महान् राज्य प्राप्त करेगा।
6) कुछ वर्षों के बाद दोनों में सन्धि हो जायेगी और शान्ति स्थापित करने के लिए उत्तर के राजा के घर में दक्षिण के राजा की पुत्री का विवाह हो जायेगा, परन्तु पुत्री का प्रभाव बहुत दिन बना नहीं रहेगा और उत्तर का राजवंश नहीं टिक पायेगा। पुत्री, उसकी सेविकाएँ, उसका पुत्र और उसका पति, सब मौत के घाट उतार दिये जायेंगे।
7) ''कुछ समय बाद उसके मूल में से उत्तर के राजा के स्थान में एक टहनी फूटेगी। वह सेना पर हमला कर उत्तर के राजा के गढ़ में प्रवेश करेगा और विजयी हो कर उस पर अधिकार कर लेगा।
8) वह उसकी ढाली मूर्तियाँ और उसके बहुमूल्य सोने और चाँदी के पात्र लूट कर मिस्र ले जायेगा। इसके बाद वह कुछ वर्षों तक उत्तर के राजा पर आक्रमण करना छोड़ देगा।
9) तब उत्तर का राजा दक्षिण के राज्य को पारास्त करेगा, किन्तु अन्त में अपने प्रदेश की ओर लौट जायेगा।
10) फिर उसी के पुत्र युद्ध करेंगे और बड़ी भारी सेना एकत्रित कर बाढ़ की तरह आगे बढ़ेंगे और उत्तर के राजा के गढ़ तक युद्ध करते चले जायेंगे।
11) इस पर क्रोधित हो कर दक्षिण का राजा आगे बढ़ कर उत्तर के राजा से लड़ेगा। वह भी एक बहुत बड़ी सेना इकट्ठी कर उसका सामना करेगा, किन्तु निष्फल रहेगा।
12) जब उत्तर की सेना दक्षिण के राजा के अधिकार में आयेगी, तो वह घमण्ड से फूल उठेगा और लाखों की संख्या में उनका वध करेगा। फिर भी उसकी विजय स्थायी नहीं रहेगी।
13) उत्तर का राजा एक बार और, पहले से भी अधिक बड़ी सेना एकत्रित करेगा और कुछ वषोर्ं के बाद एक विशाल सेना और अपार युद्ध-सामग्री ले कर आगे बढेगा।
14) ''उस समय दक्षिण के राजा के विरुद्ध अनेकानेक लोक विद्रोह करेंगे और तुम्हारी जाति के कुछ हिंसक लोक एक दिव्य दृश्य को पूरा करने के लिए सिर उठायेंगे, किंतु वे भी निष्फल रहेंगे।
15) इसके बाद उत्तर का राजा आगे बढेगा और सुदृढ़ नगर के चारों ओर घेरा डाल कर उसे जीत लेगा। दक्षिण की सेना, उसके सर्वोत्तम योद्धा भी उसके सामने नहीं टिक सकेंगे।
16) इसलिए आक्रमण करने वाला जो चाहेगा, वह कर लेगा। उसे कोई नहीं रोक सकेगा। वह सम्पन्न देश में सुस्थिर हो कर सब कुछ अपने अधिकार में कर लेगा।
17) उसके बाद वह समस्त दक्षिण के राज्य को अधीन कर लेने का विचार करेगा, किन्तु वह उस से संधि स्थापित करेगा और दक्षिण के राज्य को पराधीन बनाने के विचार से उसकी पुत्री से विवाह कर लेगा। परंतु इस से भी कोई सफलता नहीं मिलगी और न उसे कुछ लाभ होगा।
18) इसके बाद वह तटवर्ती प्रान्तों पर आक्रमण करेगा; उन में वह बहुतों को जीत लेगा, किन्तु एक सेनाध्यक्ष उसके घमण्ड को चूर कर देगा, क्योंकि वह उसे मांगी हुई क्षतिपूर्ति देने में असमर्थ होगा।
19) इसके पश्चात् वह फिर अपने प्रदेश के गढ़ों की ओर मुडेगा, लेकिन वह ठोकर खा कर इस तरह गिर जायेगा कि उसका नामोनिशान नहीं रहेगा।
20) उसके स्थान पर फिर एक और राजा आयेगा, जो देश का वैभव लूटने के विचार से कर उगाहने के लिए एक धूर्त व्यक्ति भेज देगा। किन्तु कुछ ही दिन उसका विनाश हो जायेगा , परन्तु न तो लोगों के सामने और न युद्ध में।
21) ''उसके स्थान पर एक ऐसे क्षुद्र व्यक्ति का उदय होगा, जो राजकीय पद के योग्य नहीं होगा। वह अचानक षड्यंत्र और कुटिलता के द्वारा राज्य प्राप्त करेगा।
22) वह आगे बढ़ते-बढ़ते सब सैनिक शक्तियाँ छिन्न-भिन्न कर देगा और विधान का प्रधान भी परास्त हो जायेगा।
23) वह कपटपूर्ण सन्धियाँ करेगा और थोड़े ही लोगों की सहायता से ही विजयी हो जायेगा।
24) वह बिना किसी पूर्वसूचना के सब से संपन्न क्षेत्रों में प्रवेश कर ऐसे दुष्कर्म करेगा, जो उसके पूर्वजों ने भी कभी न किये थे। वह लूट का माल, धन और भूमि अपने अनुयायियों के बीच बांट देगा और कुछ समय तक गढ़ो के विरुद्ध षडयंत्र रचेगा।
25) ''वह अपना समस्त बल और साहस बटोर कर दक्षिण के राजा पर विशाल सेना के साथ आक्रमण कर देगा। दक्षिण का राजा बहुत विशाल और शक्तिशाली सेना के साथ युद्ध करेगा, किन्तु वह विजय नहीं हागा, क्योंकि उसके विरुद्ध षडयंत्र रचे जायेंगे।
26) वे लोग भी, जो उसके सहभोजी हैं, उसके पतन के कारण बन जायेंगे। उसकी सेना तितर-बितर हो जायेगी और बहुत से लोगों की हत्या की जायेगी।
27) दोनों राजा समान रूप से ही कुकर्म करने पर उतारू हो जायेंगे, एक ही मेज पर भोजन करते हुए भी दोनों झूठ बोलेंगे; किन्तु यह सब निष्फल हो जायेगा, क्योंकि तब तक निर्धारित अवधि पूरी नहीं होगी।
28) वह बहुत युद्ध-सामग्री के साथ अपने देश लौटेगा, किन्तु उसका मन पवित्र विधान के विरुद्ध होगा। अपनी इच्छा के अनुसार काम कर लेने पर वह अपने देश लौट जायेगा।
29) ''निर्धारित समय पर वह फिर दक्षिण की ओर लौट कर उसके विरुद्ध मोरचाबन्दी करेगा, किन्तु वह पहले की तरह सफल नहीं होगा;
30) क्योंकि कितीम से आये जहाज उस पर आक्रमण करेंगे और वह डर कर लौट जायेगा। लौटते समय वह पवित्र विधान पर क्रोध बरसायेगा। लौटने पर उन लोगों पर विशेष ध्यान देगा, जिन्होंने पवित्र विधान को त्याग दिया है।
31) उसके द्वारा भेजे गये सैनिक दल पवित्र मंदिर को और गढ़ को दूषित कर देंगे और दैनिक होम-बलियाँ बन्द कर देंगे। वे वीभत्स मूर्तियाँ स्थापित करेंगे औरे उसे उजाड़ बना डालेंगे।
32) वह विधान भंग करने वाले लोगों को फुसला कर अपने साथ कर लेगा, किन्तु जो तुम अपने ईश्वर के अटल भक्त बने रहेंगे, वे प्रतिकार करेंगे।
33) देश के बुद्धिमान व्यक्ति बहुत-से लोगों को अच्छा परामर्श देंगे, यद्यपि उन को कुछ समय तक तलवार, आग, बन्दीगृह और लूट का शिकार होना पडेगा।
34) अपनी गिरी हुई दशा में उन को कुछ सहायता मिल जायेगी, यद्यपि षड्यंत्र रचने वाले बहुत-से लोग उन से जा मिलेंगे।
35) इन नेताओं में से कुछ को बहुत कष्ट सहना पडेगा, जिससे वे शुद्ध हो कर अग्नि-परीक्षा में खरे उतरें क्योंकि अब तक निर्धारित अवधि पूरी नहीं हुई है।
36) ''वह राजा मनमाना आचरण करेगा और प्रत्येक देवता से अपने आप को ऊपर समझते हुए प्रभु-ईश्वर के विरुद्ध बड़ी-बड़ी बातें बोलेगा। जब तक कोप का घड़ा भर न जाये, तब तक वह फलता-फूलता रहेगा; क्योंकि जो पूर्वनिर्धारित है, वह हो कर रहेगा।
37) वह अपने पूर्वजों के देवताओं की और अपनी स्त्रियों के इष्टदेवता की भी उपेक्षा करेगा। वह किसी अन्य देवता की भी परवाह नहीं करेगा, क्योंकि वह अपने को सब से ऊपर समझेगा।
38) इनके बदले वह गढ़ों के देवता की पूजा करेगा, जिसे उसके पूर्वज नहीं जानते थे और जिसकी पूजा वह सोने, चाँदी, रत्नों और बहुमूल्य उपहारों द्वारा करेगा।
39) पराये देवता की सहयता द्वारा वह शक्तिशाली गढ़ों को जीत लेगा और जो उसे मान्यता देंगे, उन्हें सम्मानित करेगा। वह उन्हें बहुत-से लोगों का शासक बनायेगा और उन्हें पुरस्कार के रूप में भूमि प्रदान करेगा।
40) अंतिम समय में दक्षिण का राजा उसके सामने शक्तिशाली हो उठेगा और उत्तर का राजा रथों, घुडसवारों और बहुत-से जहाजों के साथ उस पर तूफान ही तरह टूट पडेगा। वह राष्ट्रों पर आक्रमण कर उन पर हावी हो जायेगा
41) और वैभावशाली देश में आयेगा। लाखों आदमी मौत के घाट उतारे जायेंगे, किन्तु उसके अधिकार से एदोम और मोआब और अम्मोनियों का मुख्य भाग मुक्त रहेंगे।
42) वह राष्ट्रों के विरुद्ध अपने हाथ बढायेगा और मिस्र देश भी उस से नहीं बच पायेगा।
43) वह सोने-चाँदी के कोषों और मिस्र की धन-सम्पति पर अधिकार कर लेगा। लीबियायी और कूशी भी उसके साथ हो जायेंगे।
44) किन्तु पूर्व और उत्तर से प्राप्त अफवाहों से वह भय-भीत हो उठेगा। तब वह आगबबूला हो कर बहुत-से लोगों का विनाश करने और उन को मिटा दने के लिए वहाँ जायेगा।
45) वह समुद्र और महिमामय पवित्र पर्वत के बीच अपने राजकीय तम्बू गाडेगा। तब भी उसका अन्त हो जायेगा और उसकी सहायता कोई नहीं करेगा।

अध्याय 12

1) ''उस समय स्वर्गदूतों का प्रधान और तुम्हारी प्रजा की रक्षा करने वाला मिकाएल उठ खड़ा होगा। जैसा कि राष्ट्रों की उत्पत्ति से अब तक कभी नहीं हुआ है। किन्तु उस समय तुम्हारी प्रजा बच जायेगी- वे सब, जिनका नाम पुस्तक में लिखा रहेगा।
2) जो लोग पृथ्वी की मिट्टी में सोये हुए थे, वे बड़ी संख्या में जाग जायेंगे, कुुछ अनन्त जीवन के लिए और कुछ अनन्त काल तक तिरस्कृत और।कलंकित होने के लिए। धर्मी आकाश की ज्योति की तरह प्रकाशमान होंगे
3) और जिन्होंने बहुतों को धार्मिकता की शिक्षा दी है, वे अनन्त काल तक तारों की तरह चमकते रहेंगे।
4) ''किन्तु दानिएल! तुम इन शब्दों को गुप्त रखोगे और अन्तिम समय तक पुस्तक मुहरबन्द रखोगे। बहुत से लोग यहाँ-वहाँ दौड़ धूप करेंगे और अधर्म बढ़ जायेगा।''
5) मैं, दानिएल, ने दृष्टि डाली, तो दो अन्य व्यक्यिों को खडा देखा : एक को नदी के इस ओर दूसरे को नदी के उस ओर।
6) मैंने छालटी के वस्त्र पहने उस व्यक्ति से, जो उजान खड़ा था, पूछा, ''इन अद्भुत बातों के पूरा हाने में अब कितनी देर है?''
7) छालटी के वस्त्र पहने व्यक्ति ने, जो उजान खड़ा था, आकाश की ओर अपना दहिना और बायाँ हाथ ऊपर उठाया। मैंने उसे ईश्वर की शपथ खा कर यह कहते सुना, ''एक युग, दो युगों और आधे युेग में ही यह हो जायेगा, तथा उस समय तक, जब पवित्र प्रजा की शक्ति बिखर जायेगी, ये सारी बातें पूरी होंगी''।
8) मैंने सुना, पर समझा नहीं। तब मैंने कहा, ''मेरे स्वामी! इन बातों का अन्तिम परिणाम क्या होगा?''
9) उसने उत्तर दिया, ''दानिएल, अब तुम जाओ, क्योंकि अन्त काल तक ये वाणियाँ गुप्त और मुहरबन्द रहेंगी।
10) बहुत से लोग परीक्षा में खरे उतरेंगे, किन्तु कुकर्मी कुकर्म करते रहेंगे; एक भी कुकर्मीं नहीं समझ पायेगा। प्रज्ञावान् ही समझ सकेंगे।
11) दैनिक होम-बलियों के बंद होने और उजाड़ कर देने वाली वीभत्स मूर्तियों की स्थापना के समय से एक हजार दो सौ नब्बे दिन लगेंगे।
12) धन्य है वह, जो एक हजार तीन सौ पैतालीस दिन पूरा होने तक प्रतीक्षा करेगा!
13) किन्तु तुम अन्त तक अपने मार्ग पर चलते रहो; तभी तुम विश्राम करोगे; युगान्त में तुम अपना निर्धारित स्थान प्राप्त करने के लिए उठ खडे होगे।''

अध्याय 13

1) योआकिम नामक व्यक्ति बाबुल का निवासी था।
2) उसका विवाह हिलकीया की पुत्री सुसन्ना से हुआ था।
3) वह अत्यन्त सुन्दर और प्रभु-भक्त थी, क्योंकि उसके माता-पिता धार्मिक थे और उन्होंने अपनी पुत्री को मूसा की संहिता के अनुसार पढाया-लिखाया था।
4) योआकिम बहुत धनी था और उसके घर से लगी हुई एक सुन्दर वाटिका थी। यहूदी उसके यहाँ आया-जाया करते थे, क्योंकि वह उन में सब से अधिक प्रतिष्ठित था।
5) उस वर्ष लोगों ने जनता में से दो नेताओं को न्यायकर्ताओं के रूप में नियुक्त किया था। उनके विषय में प्रभु ने कहा था, ''बाबुल में अधर्म उन नेताओं से प्रारभ हुआ, जो न्यायकर्ता थे और जनता का शासन करने का ढोंग रचते थे''।
6) वे योआकिम के यहाँ आया करते थे और जिनका कोई मुकदमा रहता, वे सब उनके पास आते थे।
7) जब दोपहर के समय लोग चले जाते, तो सुसन्ना अपने पति की वाटिका में टहलने आया करती थीं।
8) दोनों नेता उसे प्रतिदिन वाटिका में जाते और टहलते देखते थे और उन में सुसन्ना के लिए प्रबल काम-वासना उत्पन्न हुई।
9) उनका मन इतना विकृत हो गया कि उन्होंने स्वर्ग की ओर नहीं देखा और नैतिकता के नियम भुला दिये।
10) उसके प्रति काम-वासना तो दोंनों में थी, किन्तु वे लज्जा के कारण एक दूसरे पर यह प्रकट नहीं कर सके।
11) दोनों उसके पास जाने के इच्छुक थे।
12) अतः वे प्रतिदिन बड़ी उत्सुकता से उसे देखने का अवसर ढूँढते थे।
13) एक दिन उन्होंने एक दूसरे से कहा, ''भोजन का समय हो गया; हम घर चलें''।
14) वे चल दिये और अपने-अपने रास्ते गये, किन्तु जल्द ही घूम कर वहीं आमने सामने हो गये। एक दूसरे से पूछने पर उन्होंने उसके प्रति अपनी-अपनी काम-पीड़ा स्वीकार की। तब वे इस पर सहमत हो गये कि हम किसी समय उसे अकेला पा सकें।
15) वे उपयुक्त अवसर की ताक में ही थे कि सुसन्ना दो नौकनारियों के साथ अपनी आदत के अनुसार वाटिका में घुस गयी।
16) उस दिन बहुत गरमी थी, इसलिए वह स्नान करना चाहती थी। उन दोनों नेताओं को छोड़कर, जो छिप कर उसे ताक रहे थे, वहाँ कोई नहीं था।
17) उसने अपनी नौकरानियों से कहा, ''जा कर तेल और महरम ले आओ और वाटिका का फाटक बन्द कर दो, जिससे मैं स्नान कर सकूँ''।
18) उन्होंने ऐसा ही किया और वाटिका के फाटक बन्द कर वे आज्ञानुसार चीजें लाने के लिए पार्श्व फाटक से हो कर बाहर निकलीं। वे उन नेताओं को नहीं देख पायीं, क्योंकि वे छिपे थे।
19) नौकरानियाँ बाहर गयी ही थी कि दोनों नेता उठ कर सुसन्ना के पास दौडते हुए आये और उस से बोले,
20) ''देखो, वाटिका का फाटक बन्द है, कोई भी हमें नहीं देखता। हम तुम पर आसक्त हैं।
21) हमारे साथ रमण करना स्वीकार करो, नहीं तो हम तुम्हारे विरुद्ध यह साक्ष्य देंगे कि कोई युवक तुम्हारे साथ था और इसलिए तुमने अपनी नौकरानियों को बाहर भेज दिया।''
22) सुसन्ना ने आह भर कर, ''मुझे कोई रास्ता नहीं दिखता। यदि मैं ऐसा करूँगी, तो प्राणदण्ड के योग्य हो जाऊँगी। यदि मैं ऐसा नहीं करूँगी, तो आपके हाथों से नहीं बच पाऊँगी।
23) फिर भी प्रभु के सामने पाप करने की उपेक्षा निर्दोष ही आपके हाथ पड जाना मेरे लिए अच्छा है।''
24) इस पर सुसन्ना ऊँचे स्वर से चिल्लाने लगी;
25) किन्तु दोनों नेता उसके विरुद्ध चिल्लाने लगे और उन में से एक ने दौड कर वाटिका का फाटक खोल दिया।
26) जब घर के लोगों ने वाटिका में चिल्लाने की आवाज सुनी, तो यह देखने के लिए कि सुसन्ना को क्या हुआ, वे दौडते हुए आये और पार्श्व फाटक से वाटिका में प्रवेश कर गये।
27) जब नेताओं ने अपना बयान दिया, तो नौकरों को बडा धक्का लग गया; क्योंकि सुसन्ना पर इस प्रकार का अभियोग कभी नहीं लगाया गया था।
28) दूसरे दिन, जब जनता उसके पति योआकिम के यहाँ एकत्र हो गयी थी, तो वे दुष्ट नेता सुसन्ना को प्राणदण्ड दिलाने का षड्यंत्र रच कर आ पहुँचे।
29) उन्होंने जनता के सामने कहा, 'हिलकीया की पुत्री, योआकिम की पत्नी, सुसन्ना को बुला भेजो''। लोगों ने उसे बुला भेजा।
30) वह अपने माता-पिता, अपने बच्चों और अपने सब कुटुम्बियों के साथ आयी।
31) सुसन्ना अत्यंत सुडौल और रूपवती थी। वह घूँघट निकाले थ्ी,
32) आतः उन्होंने इसका सौन्दर्य देखने और आँखें को तृप्त करने के लिए घूँघट हटाने को कहा।
33) उसके सन्बन्धी और जितने भी लोग उसे देखते थे, वे सब-के-सब के रोते थे।
34) उन दो नेताओं ने सभा में खडे हो कर उसके सिर पर अपने हाथ रख दिये।
35) वह रोती हुई स्वर्ग की और देखती रही; क्योंकि उसका हृदय ईश्वर पर भरोसा रखता था।
36) नेताओं ने यह कहा, ''जब हम अकेले वाटिका में टहल रह थे, तो यह दो नौकरानियों के साथ वाटिका में आयी। इसने वाटिका को फाटक बन्द करा दिया और नौकरानियों को बाहर भेजा।
37) तब एक युवक, जो छिपा हुआ था, पास आ कर इसके साथ लेट गया।
38) हम वाटिका के एक कोने से यह पाप देखकर दौडते हुए उनके पास आये और हमने दोंनों को रमण करते देखा।
39) हम उस युवक को नहीं पकड़ पाये; क्योंकि वह हम से बलवान था और वाटिका का फाटक खोल कर भाग गया।
40) हमने इसे पकड़ लिया और पूछा कि वह कौन है, किन्तु इसने उसका नाम बताना अस्वीकार किया।
41) हम इन बातों के साक्षी हैं।'' सभा ने उन पर विश्वास किया, क्योंकि वे नेता और न्यायकर्ता थे। लोगों ने सुसन्ना को प्राणदण्ड की आज्ञा दी।
42) इस पर सुसन्ना ने ऊँचे स्वर से पुकार कर कहा,
43) ''शाश्वत ईश्वर! तू सब रहस्य और भविष्य में होने वाली घटनाएँ जानता है। तू जानता है कि इन्होंने मेरे विरुद्ध झूठी गवहाी दी है। इन्होंने जिन बुरी बातों का अभियोग मुझ पर लगाया है, मैंने उन में से एक भी नहीं किया- फिर भी मुझे मरना होगा।''
44) ईश्वन ने उसकी सुन ली। जब लोग उसे प्राणदण्ड के लिए ले जा रहे थे,
45) तो ईश्वर ने दानिएल नामक युवक में एक दिव्य प्रेरणा उत्पन्न की।
46) वह पुकार कर कहने लगा, ''मैं इसके रक्त का दोषी नहीं हूँ''।
47) इस पर सब लोग उसकी ओर देखने लगा और बोले, ''तुमहारे कहने का अभिप्राय क्या है?''
48) उसने उन में खडा हो कर कहा, '' इस्राएलियों! आप लोगों की बुद्धि कहाँ है, जो आप जाँच और पूरी जानकारी के बिना इस्राएल की पुत्री को प्राणदण्ड देते हैं?
49) आप न्यायालय लौट जायें, क्योंकि इन्होंने इसके विरुद्ध झूठी गवाही दी है।''
50) इस पर लोग तुरन्त लौट गये और नेताओं ने दानिएल से कहा, ''आइए, हमारे बीच बैठिए और हमें अपनी बात बताइए; क्योंकि ईश्वर ने आप को नेताओं-जैसा अधिकार प्रदान किया है''।
51) दानिएल ने उन से कहा, ''इन दोनों को एक दूसरे से अलग कर दीजिए और मैं इन से पूछताछ करूँगा''।
52) जब दोनों को अलग कर दिया गया, तो दानिएल ने एक को बुला कर उस से कहा,
53) ''अधर्र्म करते-करते तेरे बाल पक गये हैं। अब तुझे अपने पुराने पापों का दण्ड मिलने वाला है। तू निर्दोषों को दण्ड दे कर और दोषियों को निर्दोष ठहरा कर अन्यायपूर्वक विचार किया करता था, जब कि प्रभु ने कहा है- तुम निर्दोष और धर्मी को प्राणदण्ड नहीं दोंगे। अब यदि तूने इसे देखाा
54) तो हमें बता कि तूने किस वृक्ष के नीचे दोनों को एक साथ देखा''। उसने उत्तर दिया, ''बाबुल के नीचे''।
55) दानिएल ने कहा, ''इतना बडा झूठ बोल कर तूने अपना सिर गँवा दिया है! ईश्वर के दूत को ईश्वर से यह आदेश मिल चुका है कि वत तुझे दो टुकड़े कर दे''।
56) दानिएल ने उसे ले जाने की आज्ञा दे कर दूसरे को बुला भेजा और उस से कहा,
57) ''तू यूदा का नहीं, कनान की सन्तान है। सौदर्य ने तुझे पथभ्रष्ट किया आर वासना ने तरा हृदय दूषित कर दिया है। तुम लोग इस्राएल की पुत्रियों के साथ इस प्रकार का व्यवहार करते थे और वे डर के मारे तुम्हारा अनुरोध स्वीकार करती थी। किन्तु यह यूदा की पुत्री है, जो तुम्हारे अधर्म के सामने नहीं झुकी है।
58) तो, मुझे बता- तूने किस वृक्ष के नीचे दोनों को साथ देखा?'' उसने उत्तर दिया, ''बलूत के नीचे''।
59) इस पर दानिएल ने कहा, ''तूने भी इतना बडा झूठ बोलकर अपना जीवन गँवा दिया है! ईश्वर का दूत हाथ में तलवार लिये, प्रतीक्षा कर रहा है। वह तुझे दो-टुकडे कर देगा और तुम दोंनों का सर्वनाश करेगा।''
60) तब समस्त सभा ऊँचे स्वर से जयकार करते हुए ईश्वर की स्तुति करने लगी, जो अपने पर भरोसा रखने वालों की रक्षा करता है।
61) दानिएल ने उनके अपने शब्दों द्वारा दोनों नेताओं की गवाही असत्य प्रमाणित की थी, इसलिए लोग उन पर टूट पड़े और
62) उन्हौंने मूसा की संहिता के अनुसार उन दुष्टों को वह दण्ड दिया, जिसे वे अपने पड़ोसी को दिलाना चाहते थे और लोगों ने दोनों का वध कर डाला। इस प्रकार उस दिन एक निर्दोष महिला की जीवन-रक्षा हुई।
63) हिलकीया और उसकी पत्नी ने अपनी पुत्री सुसन्ना के लिए ईश्वर का स्तुतिगान किया और ऐसा ही उसके पति योआकिम और उसके सब सम्बन्धियों ने किया; क्योंकि उस में कोई अनौचित्य नहीं पाया गया था।
64) उस दिन के बाद दानिएल लोगों के बीच बड़े सम्मान का पात्र बन गया।

अध्याय 14

1) राजा अस्तयागेस अपने पितरों से जा मिला और फारसी सीरूस उसके राज्य का उत्तराधिकारी हुआ।
2) दानिएल उस समय राजा का मंत्री और उसके सब मित्रों में अधिक प्रतिष्ठित था।
3) बाबुलवासी एक बेलदेवता नामक मूर्ति की पूजा करते और उसे प्रतिदिन बारह मन मैदा, चालीस भेडे और छः मटके अंगूरी चढाया करते थे।
4) राज की भी उस में आस्था थी और प्रतिदिन उसकी पूजा करने जाया करता था। किन्तु दानिएल अपने ही ईश्वर की पूजा करता था।
5) एक दिन राजा ने उस से पूछा, ''तुम बेलदेवता की पूजा क्यों नहीं करते?'' उसने उत्तर दिया, ''मैं हाथ की बनायी मूर्तियों की पूजा नहीं करता। मैं तो जीवन्त ईश्वर, स्वर्ग और पृथ्वी से स्रष्टा और जिसका अधिकार सारे शरीरधारियों पर है, उसकी पूजा करता हूँ।''
6) राजा ने उस से पूछा, ''क्या तुम बेलदेवता को जीवन्त ईश्वर नहीं मानते? क्या तुम यह नहीं देखते कि वह प्रतिदिन कितना खाता-पीता है?''
7) तब दानिएल ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया ''राजा! धोखा मत खाइए। वह तो भीतर से मिट्टी और बाहर से कांसा है; उसने न तो कभी कुछ खाया और न पिया।''
8) इस पर राजा ने क्रोधित हो कर अपने पुजारियों को बुला कर उन से कहा, ''यदि तुम मुझे यह नहीं बताओगे कि यह भोजन कौन खाता है, तो तुम्हें मरना होगा।
9) और यदि तुम यह प्रमाणित कर दोगे कि स्वयं बेलदेवता उसे खाता है, तो दानिएल को मरना होगा; क्योंकि उसने बेलदेवता का उपहास किया है।'' तब दानिएल ने राजा से कहा, ''जैसा आप कहते हैं, वैसा ही हो''।
10) अपनी पत्नियों और बच्चों के अतिरिक्त बेलदेवता के पुजारियों की संख्या सत्तर थी। इसके बाद राजा दानिएल के साथ बेलदेवता के मन्दिर पहुँचा।
11) बेलदेवता के पुजारियों ने कहा, ''देखिए, जब हम लोग बाहर चले जायें, तब राजा! आप भोजन मेज पर रखें, अंगूरी को मिला कर रख दे और फिर दरवाजा लगा कर उस पर अपनी मुहर वाली अंगूठी की मुद्रा लगा दे।
12) और सबेरे जब आप वापस आयें और यह न पाये कि बेलदेवता सब कुछ खा गया है, ते हमें मार डाले, नहीं तो दानिएल को, जो हमारी निद्रा कर रहा है।''
13) वे निश्चिन्त थे, क्योंकि उन्होंने मेज के नीचे गुप्त द्वार बना रखा था उस में से वे अन्दर चले जाया करते और चढायी सामग्री ले कर खा लिया करते थे।
14) उनके बाहर निकलने पर राजा ने भोज्य-सामग्री बेलदेवता के सामने रख दी। इसके बाद दानिएल ने अपने सेवकों के द्वारा राख मँगवा कर केवल राजा की ही उपस्थिति में, उसे सारे मंदिर में छितरा दिया। बाहर निकल कर उन्होंनें दरवाजा बन्द कर लिया, उस पर राजा की मुहर वाली अंगूठी की मुद्रा लगा दी और चले गये।
15) रात में पुजारी अपनी पत्नियों और बच्चों के साथ हमेशा की तरह आये और सब कुछ खा-पी गये।
16) दूसरे दिन राजा बडे सबेरे जग कर आया। दानिएल भी उसके साथ था।
17) राजा ने पूछाा, ''दानिएल! मुहरें टूटी तो नहीं?'' उसने उत्तर दिया, ''नहीं, टूटी नहीं है राजन्!
18) किवाड खुले तो राजा ने मेज की ओर देखा और उच्च स्वर में बोल उठा, ''बेलदेवता! तू महान् है! तेरे सम्बन्ध में कोई धोखे की बात नहीं, बिल्कुल नहीं!''
19) किन्तु दानिएल हँसा और उसने यह कहते हुए राजा को अन्दर जाने से रोक लिया, ''जरा फर्श की ओर तो ध्यान दीजिएः देखिए कि ये पदचिन्ह किनके हैं।''
20) राजा ने कहा, ''हाँ मैं पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों के पदचिन्ह देख रहा हूँ''।
21) इस पर राजा बहुत कुपित हुआ और उसने उनकी पत्नियों और बच्चों-सहित पुजारियों को गिरफ्तार करवाया। उन्हें उन गुप्त द्वारों को बतलाना पड़ा, जिन में से आ कर वे मेज पर रखी चीजें खाते थे।
22) इस पर राजा ने उन्हें मरवा डाला और बेलदेवता की मूर्ति दानिएल को सौंप दी। दानिएल ने उसे तथा उसका मन्दिर नष्ट करा डाला।
23) वहाँ एक बड़ा पंखदार सर्प भी था, जिसकी बाबुल के निवासी पूजा करते थे।
24) राजा ने दानिएल से कहा, ''तुम इसके विषय में यह नहीं कह सकते हो कि यह देवता जीवन्त नहीं है। इसलिए इसकी पूजा करो।''
25) पर दानिएल ने कहा, ''मैं अपने प्रभु-ईश्वर की ही पूजा करता हँ, क्योंकि वही जीवन्त-ईश्वर है।
26) राजन्! आप मुझे अनुमति दें, तो मैं इस सर्प को बिना तलवार या डण्डे के ही मार डालूँ।'' राजा ने कहा, ''मैं तुम्हें अनुमति देता हूँ''।
27) इस पर दानिएल ने डामर, चरबी और केशों को एक साथ उबाला और उनके लड्डू बना कर उन्हें सर्प के मुँह में डाल दिया। उन्हें खा कर सर्प फूल कर फट गया। तब उसने कहा, ''देखिए आप किसकी पूजा करते रहे हैं!''
28) जब बाबुल-निवासियों ने ये बातें सुनी, तो वे क्रोध से उबल पडे औश्र राजा का विरोध कर कहने लगे, ''राजा यहूदी बन गया है। उसने बेलदेवता को नष्ट कर डाला, सर्प को मरवा दिया और पुजारियों का वध कराया।''
29) इसलिए वे राजा के पास जा कर कहने लगे, ''दानिएल को हमारे हवाले कर दीजिए, नहीं तो हम परिवार-सहित आप को मार डालेंगे''।
30) जब राजा ने उनका आग्रह सुना, तो उसने विवश हो कर दानिएल को उनके हवाले कर दिया।
31) उन्होंने उसे सिंहों के खड्ड में डाल दिया, जहाँ वह छः दिन पडा रहा।
32) उस खड्ड में सात सिंह थे। रोज उन्हें दो आदमी और दो भेडे दी जाती थी; किन्तु इस बीच वे नहीं दी गयी, जिससे वे दानिएल को ही फाड खायें।
33) उसी समय यहूदिया देश में हबक्कूक नाम का एक नबी रहता था। उसने एक बरतन में शोरबा और रोटी का चुरमा बना लिया था और उसे लुनेरों के पास खेत में ले जा रहा था।
34) तभी प्रभु के एक दूत ने हबक्कूक से कहा, ''अपने पास का यह भोजन बाबुल के सिंहों के खड्ड में दानिएल के पास ले जाओ''।
35) हबक्कूक ने हा, ''स्वामी! मैंने तो कभी बाबुल देखा ही नहीं और न उस खड्ड का मुझे पता है''।
36) तब प्रभु के दूत ने उसके सिर की चोटी पकड ली और उसके सिर के केश पकड कर उसे अपनी पावन शक्ति के झोंकों से ले जा कर बाबुल में खड्ड के पास छोड दिया।
37) हबक्कूक ने पुकारा, ''दानिएल, दानिएल! यह भोजन लो, जिसे ईश्वर ने तुम्हारे लिए भेजा है''।
38) दानिएल ने कहा, ''ईश्वर! तूने मेरी ओर ध्यान दिया। तू अपने भक्तों को नहीं त्यागता''।
39) दानिएल उठ कर खाने लगा। ईश्वर के दूत ने हबक्कूक को फिर उसके स्थान पर पहुँचा दिया।
40) सातवें दिन राजा दानिएल के लिए शोक मनाने वहाँ पहुँचा। किन्तु जब उसने खड्ड के पास जा कर अन्दर दृष्टि डाली, तो देखा कि दानिएल बैठा है।
41) इस पर वह जोर से चिल्ला उठा, ''दानिएल के प्रभु-ईश्वर! तू महान् है और तेरे सिवा कोई दूसरा नहीं है''।
42) फिर उसने उसे बाहर निकालने की आज्ञा दी आर उन लागों को, जो उसे मिटा डालना चाहते थे, उसी खड्ड में डलवा दिया। उसकी आँखों के सामने ही वे तुरन्त निगल लिये गये।