पवित्र बाइबिल : Pavitr Bible ( The Holy Bible )

पुराना विधान : Purana Vidhan ( Old Testament )

बारूक का ग्रन्थ ( Baruch )

अध्याय 1

1) यह वह ग्रन्थ है, जिसे बारूक ने बाबुल में लिखा था। बारूक नेरीया का पुत्र था, नेरीया महसेया का, महसेया सिदकीया का, सिदकीया हसद्या का और हसद्या लिकीया का।
2) येरुसालेम के खल्दैयियों के अधिकार में आने और उनके द्वारा भस्म किये जाने के पाँचवें वर्ष, महीने के सातवें दिन, उसने यह ग्रन्थ लिखा था।
3) उसने उसे यहोयाकीम के पुत्र, यूदा के राजा यकोन्या के सामने पढ़ कर सुनाया और उन सब लोगों के सामने, जो इस ग्रन्थ का पाठ सुनने आये थे।
4) वे ये थेः पदाधिकारी, राजकुमार, नेता और छोटों से बड़ों तक अन्य सब लोग, जो सदू नदी के तट पर बाबुल में बसे थे।
5) उन लोगों ने शोक मनाया, उपवास किया और प्रभु से प्रार्थना की।
6) फिर उन्होंने अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार चन्दा एकत्र किया
7) और उसे शल्लूम के पौत्र, हिलकीया के पुत्र, याजक यहोयाकीम तथा अन्य याजकों और सारे लोगों के पास येरुसालेम भेजा, जो उसके साथ वहाँ थे।
8) इस से पूर्व बारूक ने प्रभु के मन्दिर से चुरायी हुई सामग्रियाँ ग्रहरण की थीं और इन्हें सीवान मास के दसवें दिन यूदा प्रदेश को लौटना चाहता था। वे चाँदी के पात्र थीं, जिन्हें यूदा के राजा, योशीया के पुत्र, सिदकीया ने उस समय बनवाया था,
9) जब बाबुल का राजा नबूकदनेजर यहोयाकीम को पदाधिकारियों, कारीगरों, नेताओं और प्रजा के साथ येरुसालेम से ले कर बाबुल चला गया था।
10) बाबुल के लोगों ने यह सन्देश भेजाः देखिए, हम आप को यह चन्दा भेज रहे हैं। इस द्रव्य से होम-बलियाँ, प्रायश्चित-बलियाँ, लोबान और अन्न-बलियाँ तैयार कर अपने प्रभु-ईश्वर की वेदी पर चढायें।
11) बाबुल के राजा नबूकदनेजर और उसके पुत्र बलतासार के लिए प्रार्थना करें कि वे तब तक जीते रहें, जब तक आकाश पृथ्वी के ऊपर स्थित रहे।
12) आप प्रार्थना करें कि प्रभु हमें शक्ति और विवेक प्रदान करे, जिससे हम बाबुल के राजा नबूकदनेजर और उसके पुत्र बलतासार की छाया में सुरक्षित रह सकें, दीर्घ काल तक उनकी सेवा करते हुए उनके कृपापात्र बने रहें।
13) आप हमारे लिए भी प्रभु-ईश्वर से प्रार्थना करें, क्योंकि हमने उसके विरुद्ध पाप किये और आज तक प्रभु का प्रकोप और क्रोध हम पर से दूर नहीं हुआ है।
14) जो ग्रन्थ हम आपके पास भेज रहे हैं, आप उसे पर्व के दिन और अन्य उचित दिनों के अवसर पर प्रभु के मन्दिर में पढ़ कर सुनायें।
15) (१५-१६) आप लोग यह कहें: हमरा प्रभु-ईश्वर न्यायी है और हम, यहूदिया के लोग, येरुसालेम के निवासी, हमारे राजा और शासक, हमारे याजक और नबी, हमारे पूर्वज- हम सब-के-सब कलंकित हैं;
17) क्योंकि हमने प्रभु के विरुद्ध पाप किया है।
18) हमने उसके आदेशों का पालन नहीं किया और हमने अपने प्रभु-ईश्वर की वाणी पर ध्यान नहीं दिया, जिससे हम उसकी आज्ञाओं के अनुसार आचरण कर सकें, जो प्रभु ने हमें दी थीं।
19) जिस दिन प्रभु हमारे पूर्वजों को मिस्र से निकाल लाया, उस दिन से आज तक हम उसकी आज्ञाएँ भंग करते और उसकी वाणी का तिरस्कार करते आ रहे हैं।
20) इसलिए आज वे विपत्तियाँ और अभिशाप हम पर आ पड़े हैं, जिन्हें प्रभु ने अपने सेवक मूसा द्वारा घोषित किया था, जब वे हमारे पूर्वजों को मिस्र से निकाल कर उस देश में जा रहे थे, जहाँ पहले की तरह आज भी दूध और मधु की नदियाँ बहती हैं।
21) हमने प्रभु द्वारा भेजे हुए नबियों की वाणी पर ध्यान नहीं दिया।
22) हम दुष्टतापूर्वक अपनी राह चलते रहे, पराये देवताओं की उपासना और ऐसे कार्य करते रहे, जो हमारे प्रभु-ईश्वर की दृष्टि में बुरे हैं।

अध्याय 2

1) इसीलिए प्रभु ने अपनी चेतावनी पूरी की, जो उसने हमें और इस्राएल पर शासन करने वाले हमारे न्यायकर्ताओं, हमारे राजाओं, हमारे नेताओं और इस्राएल तथा यूदा के लोगों को दी थी,
2) अर्थात् यह कि वह हम पर ऐसी भयंकर विपत्तियाँ ढाह देगा, जैसी आज तक पृथ्वी पर कभी नहीं हुई, जैसी मूसा की संहिता के अनुसार येरुसालेम में हुई थी।
3) हम में कोई अपने पुत्र का माँस खायेगा और अपनी पुत्री का।
4) उसने उन्हें हमारे आसपास के सब राष्ट्रों के अधिकार में दे दिया और उन्हें आसपास के सब राष्ट्रों के बीच बिखेर कर अपमान और आतंक का पात्र बनाया।
5) हम शासक नहीं, बल्कि दास बन गये; क्योंकि हमने उसकी वाणी का तिरस्कार किया और अपने प्रभु-ईश्वर के विरुद्ध पाप किया।
6) प्रभु, हमारे ईश्वर के यहाँ न्याय है, किन्तु हम और हमारे पूर्वज आज तक लज्जा के साथ उसके सामने खडे हैं।
7) जैसे प्रभु ने हमारे विरुद्ध कहा था, वैसे ही वे सारी विपत्तियाँ हमारे ऊपर आ पड़ी हैं।
8) हमने अपना कुमार्ग त्याग कर उस से प्रार्थना नहीं की।
9) इसलिए प्रभु ने उन विपत्तियों के ऊपर दृष्टि दौड़ायी और उसने उन्हें हम पर आने दिया। उसने हमारे साथ जो भी किया, वह न्याय के अनुसार ही है।
10) हमने उसकी वाणी पर ध्यान नहीं दिया और उसके दिये हुए आदेशों का पालन नहीं किया।
11) प्रभु! इस्राएल के ईश्वर! तू चिन्ह एवं चमत्कार दिखा कर और हाथ उठा कर अपने महान् सामर्थ्य से अपनी प्रजा को मिस्र देश से निकाल लाया था। इस प्रकार तूने अपने नाम का गौरव बढ़ाया।
12) हमारे प्रभु-ईश्वर! तेरे सब आदेशों के बावजूद हमने पाप किया, हमने दुष्टता और अन्याय किया।
13) तेरा क्रोध हम से दूर हो, क्योंकि हम में केवल कुछ ही उन राष्ट्रों के बीच बच गये हैं, जिन में तूने हमें बिखेर दिया है।
14) प्रभु! हमारी प्रार्थना और हमारे निवेदन पर ध्यान दे और अपने नाम को कारण हमारी रक्षा कर। ऐसा कर कि हम उन लोगों के कृपापात्र बनें, जिन्होंने हमें निर्वासित किया।
15) इसी से सारा संसार जान जाये कि तू ही हमारा प्रभु-ईश्वर है; क्योंकि इस्राएल और उसका राष्ट्र तेरा कहलाता है।
16) पभु! अपने पवित्र निवासस्थान से नीचे देख और हमारी सुधि ले। प्रभु! कान लगा कर हमारी सुन।
17) प्रभु! अपनी आँखें खोल और देख। अधोलोक के मृतक, जिनके प्राण छीन लिये गये हैं, प्रभु की महिमा और न्याय का गुणगान नहीं करते,
18) बल्कि वही तेरी महिमा और न्याय का गुणगान करता है, जिसकी आत्मा अत्यन्त दुःखी है, जो दीन-हीन और दुर्बल है, जिसकी आँखें क्षीण हो गयी हैं, जिसका हृदय भूखा है।
19) ेहमारे प्रभु-ईश्वर! हम अपने पूर्वजों और राजाओं की धर्मिकता के भरोसे तेरे सामने प्रार्थना नहीं करते।
20) जैसा तूने अपने सेवक, नबियों द्वारा घोषित किया था, तूने हमारे विरुद्ध अपना क्रोध और प्रकोप यह कहते हुए भेजा-
21) प्रभु यह कहता हैः बाबुल के राजा के सामने अपने सिर झुका कर उसके अधीन हो जाओ। तभी तुम उस देश में रह सकोगे, जिसे मैंने तुम्हारे पूर्वजों को दिया है।
22) किन्तु यदि तुम प्रभु की वाणी का तिरस्कार कर बाबुल राजा के अधीन नहीं होंगे,
23) तो यूदा के नगरों और येरुसालेम की गलियों में प्रसन्नता एवं आनन्द की ध्वनि और वर-वधु के गीत समाप्त कर दूँगा और सारा देश अपने निवासियों से वंचित हो कर उजड़ जायेगा।
24) किन्तु हमने तेरी वाणी पर ध्यान नहीं दिया, जिसके अनुसार हमें बाबुल के राजा के अधीन रहना चाहिए था। इसलिए तूने अपने सेवक, नबियों द्वारा घोषित अपने इन शब्दों को चरितार्थ किया कि हमारे राजाओं और हमारे पूर्वजों की हाड्डियाँ उनकी कब्रों से निकाल ली जायेंगी।
25) अब वे दिन में ताप और रात में शीत में बिखरी पड़ी हैं। वे अकाल, तलवार और महामारी के कारण घोर कष्ट सह कर मर गये।
26) इस्र्राएल के घराने और यूदा के घराने की दुष्टता के कारण तूने उस मन्दिर की वर्तमान दशा कर दी, जो तेरे नाम से प्रसिद्ध है।
27) प्रभु! तूने अपने धैर्य और अपनी दया के अनुरूप हमारे साथ व्यवहार किया,
28) जिस तरह तूने उस दिन अपने सेवक मूसा के माध्यम से घोषित किया था, जब तूने यह कहते हुए उन्हें इस्राएलियों के सामने संहिता को लिपिबद्ध करने का आदेश दिया थाः
29) ''यदि तुम मेरी बात पर ध्यान नहीं दोगे, तो मैं तुम्हें तितर-बितर कर दूँगा और तुम्हारी यह बड़ी और विशाल जनसंख्या छोटे-छोटे दलों में बँट जायेगी।
30) मैं जानता हूँ कि वे मेरी बात नहीं मानेंगे, क्योंकि वे लोग हठीले हैं। किन्तु वे उस देश में, जहाँ निर्वासित हो कर जायेंगे, पश्चात्ताप करेंगे।
31) वहाँ वे जान जायेंगे, कि मैं ही प्रभु, उनका ईश्वर हूँ। मैं उन्हें एक नया हृदय प्र्रदान करूँगा और ऐसे कान, जो मेरी बात सुनेंगे।
32) तब वे अपने निर्वासन के देशा में मेरी स्तुति और मेरे नाम को याद करेंगे।
33) वे प्रभु के विरुद्ध पाप करने वाले अपने पूर्वजों के मार्ग का स्मरण करते हुए अपनी हठधर्मी और अपने पापाचरण का परित्याग करेंगे।
34) तब मैं उन्हें उस देश में वापस ले चलूँगा, जिसे मैंने शपथ खा कर उनके पूर्वज इब्राहीम, इसहाक और याकूब को देने का वचन दिया था और वे उसे अपने अधिकार में करेंगे। मैं उनकी संख्या बढ़ाऊँगा, उन्हें घटने नहीं दूँगा।
35) मैं उनके लिए एक चिरस्थायी विधान निर्धारित करूँगा; मैं उनका ईश्वर होऊँगा और वे मेरी प्रजा होंगे। तब में कभी भी अपनी प्रजा इस्राएल को उस देश से नहीं निकालूँगा, जिसे मैंने उसे दिया था।''

अध्याय 3

1) सर्वशक्तिमान् प्रभु! इस्राएल के ईश्वर! हम अत्यन्त दुःखी और सन्त्रस्त हैं।
2) प्रभु! ध्यान दे और दया कर, क्योंकि हमने तेरे विरुद्ध पाप किया है।
3) तू तो सदा बना रहता है और हम सदा के लिए नष्ट होते जा रहे हैं।
4) सर्वशक्तिमान् प्रभु! इस्राएल के ईश्वर! मृत्यु के पंजे में पड़े इस्राएलियों की प्रार्थना सुन- उन लोगों के पुत्रों की, जिन्होंने तेरे विरुद्ध पाप किया। उन्होंने अपने प्रभु-ईश्वर की वाणी का तिरस्कार किया और इसलिए हम विपत्तियों के शिकार बने।
5) हमारे पूर्वजों के कुकर्म भुला दे, किन्तु अब अपना सामर्थ्य और अपना नाम याद कर।
6) तू ही हमारा प्रभु-ईश्वर है। प्रभु! हम तेरा सतुतिगान करेंगे।
7) तूने हमारे मन में अपने प्रति श्रद्धा उत्पन्न की, जिससे हम तेरे नाम की दुहाई दें। हम अपने निर्वासन के देश में तेरा स्तुतिगान करेंगे; क्योंकि हमने तेरे विरुद्ध पाप करने वाले अपने पूर्वजों के सब कुकर्म अपने हृदय से निकाल दिये।
8) यदि हम आज निर्वासन के देश में, जहाँ तूने हमें बिखेरा है, अपमान, अभिशाप और दण्डाज्ञा के पात्र हैं, तो इसका कारण यह है कि हमारे पूर्वजों ने अपने प्रभु-ईश्वर का परित्याग कर दिया था।
9) इस्राएल! जीवन देने वाली आज्ञाएँ सुनो। कान लगा कर कर सच्चा ज्ञान प्राप्त करो।
10) इस्राएल! तुम क्यों अपने शत्रुओं के देश में हो? तुम क्यों विदेश में बूढे हो गये हो? तुम विदेश में दुःख के दिन काटते हो।
11) तुम मृतकों द्वारा अशुद्ध बन गये हो। अधोलोक जाने वालों में तुम्हारी गिनती हो गयी है।
12) यह इसलिए हो रहा है कि तुमने प्रज्ञा का स्रोत त्याग दिया है।
13) यदि तुम ईश्वर के मार्ग पर चले होते, तो तुम सदा के लिए शान्ति में जीवन बिताते।
14) यह समझ लो कि ज्ञान कहाँ है; सामर्थ्य कहाँ है, बुद्धिमानी कहाँ है, जिससे तुम जान जाओ कि लम्बी आयु और जीवन कहाँ है, आँखों की ज्योति और शान्ति कहाँ है।
15) कौन प्रज्ञा के निवासस्थान तक पहुँचा है? किसने उसके खजाने में प्रवेश किया है?
16) राष्ट्रों के वे शासक कहाँ हैं, जो पृथ्वी के जंगली पशु अपने वश में रखते
17) और आकाश के पक्षियों का खेल दिखाते हैं? जो चाँदी और सोने में संचय करते हैं, जिस पर मनुष्य भरोसा रखते हैं? कहाँ हैं वे मनुष्य मनुष्य जिनकी सम्पत्ति अपार है?
18) कहाँ हैं वे चाँदी के शिल्पकार, जो चाँदी की ही चिन्ता करते और जिनकी कला कल्पनातीत है?
19) वे सब-के-सब नष्ट हो कर अधोलोक में उतर चुके हैं और दूसरे लोगों ने उनका स्थान ले लिया है।
20) एक नयी पीढ़ि का उदय हुआ और वह पृथ्वी पर बस गयी, किन्तु उसने ज्ञान का मार्ग नहीं पहचाना।
21) उसने उसके मागोर्ं का अध्ययन नहीं किया और उस पर एकदम ध्यान नहीं दिया। उसके पुत्र और भी दूर भटक गये।
22) कनान देश में प्रज्ञा की चर्चा नहीं सुनाई पड़ी और वह तेमान में भी नहीं देखी गयी।
23) हागार के पुत्र, जो पृथ्वी पर ज्ञान की खोज करते थे, मेर्रान और तेमान के व्यापारी कथावाचक और ज्ञान के पिपासु- उन में कोई प्रज्ञा का मार्ग नहीं जान सका, उन में कोई प्रज्ञा के पथ याद नही रख सका।
24) इस्राएल! तेरे ईश्वर का निवास कितना महान् है! कितना विस्तृत है उसके सामर्थ्य का क्षेत्र!
25) वह महान् है और असीम, वह ऊँचा है और अपरिमेय!
26) वहाँ प्राचीन काल में एक ऐसी जाति उत्पन्न हुई, जो भीमकाय और युद्धकुशल थी।
27) किन्तु ईश्वर ने उसे नहीं अपनाया उसे ज्ञान का मार्ग नहीं बताया।
28) उसका विनाश हुआ, क्योंकि वह स्वयं नासमझ थी। वह अपनी मूर्खता के कारण नष्ट हो गयी।
29) कौन प्रज्ञा लाने के लिए स्वर्ग गया? किसने उसे बादलों के ऊपर से नीचे उतारा?
30) किसने समुद्र पार कर उसका पता लगाया? किसने शुद्ध सोने से उसे खरीदा?
31) कोई उसके यहाँ का मार्ग नहीं जानता, कोई उसके मार्ग की चिन्ता नहीं करता।
32) सर्वज्ञ ही उसका मार्ग जानता है, उसने अपनी बुद्धि से उसका पता लगाया है। उसने सदा के लिए पृथ्वी की नींव डाली है और उसे जीव-जन्तुओं से भर दिया है।
33) वह प्रकाश भेज देता है और वह फैल जाता है। वह उसे वापस बुलाता है और वह काँपते हुए उसकी आज्ञा मानता है।
34) तारे अपने-अपने स्थान पर आनन्दपूर्वक जगमगाते रहते हैं;
35) जब वह उन्हें बुलाता है, तो वे उत्तर देते, ''हम प्रस्तुत हैं''; और वे अपने निर्माता के लिए आनन्द पूर्वक चमकते हैं।
36) वही हमारा ईश्वर है। उसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता।
37) उसने ज्ञान के सभी मागोर्ं का पता लगाया है और उसे अपने सेवक याकूब को, अपने परमप्रिय इस्राएल को बता दिया है।
38) इस पर प्रज्ञा पृथ्वी पर प्रकट हुई और उसने मनुष्यों के बीच निवास किया।

अध्याय 4

1) प्रज्ञा यह है- ईश्वर की आज्ञाओं का ग्रन्थ, वह संहिता, जो सदा बनी रहेगी। जो उसका पालन करेगा, वह जीता रहेगा; जो उसे छोड़ देगा, वह मर जायेगा।
2) याकूब! लौट कर उसे ग्रहण करो, उसके प्रकाश में महिमा की ओर आगे बढ़ो।
3) न तो दूसरों को अपना गौरव दो और न विदेशियों को अपना विशेष अधिकार।
4) इस्राएल! हम कितने सौभाग्यशाली है! ईश्वर की इच्छा हम पर प्रकट की गयी है।
5) मेरी प्रजा! ढारस रखो। तुम इस्राएल का नाम बनाये रखती हो।
6) तुम विनाश के लिए गैर-यहूदियों के हाथ नहीं बिकी हो। तुमने ईश्वर का क्रोध भड़काया था, इसलिए तुम अपने शत्रुओं के हवाले कर दी गयी।
7) तुमने अपने सृष्टिकर्ता को अप्रसन्न किया; क्योंकि तुमने ईश्वर को नहीं बल्कि देवताओं को बलि चढ़ायी थी।
8) तुमने शाश्वत ईश्वर को भुला दिया, जो तुम्हें भोजन दिया करता था। तुमने येरुसालेम को दुःख पहुँचाया, जिसने तुम्हारा पालन किया है।
9) येरुसालेम ने ईश्वर का क्रोध तुम पर आते देखा और कहा, ''सियोन की पड़ोसिनो! मेरी बात सुनो! ईश्वर ने मुझ पर बड़ा शोक भेजा।
10) मैंने देखा कि शाश्वत ईश्वर ने मेरे पुत्र-पुत्रियों को बन्दी बना कर निर्वासित किया है।
11) मैंने आनन्दित हो कर उनका पालन-पोषण किया, किन्तु मैंने उन को आँसू बहाते हुए और दुःखी हो कर जाते हुए देखा।
12) मैं विधवा तथा सब से परित्यक्ता हूँ- कोई मेरा उपहास न करे। मैं अपनी प्रजा के पापों के कारण अकेली रह गयी हूँ, क्योंकि उसने ईश्वर की संहिता का मार्ग छोड़ दिया है।
13) उसने उसके आदेशों का तिरस्कार किया, वह प्रभु की आज्ञाओं के मार्ग पर नहीं चली और वह उसकी धार्मिकता के अनुरूप उसकी शिक्षा के मार्ग पर नहीं चली।
14) ''सियोन की पड़ोसिनो! आओ। उस निर्वासन को याद रखो, जिसके द्वारा शाश्वत ईश्वर ने मेरे पुत्र-पुत्रियों को दण्डित किया।
15) उसने एक दूरवर्ती राष्ट्र को उसके विरुद्ध भेजा, एक दुष्ट राष्ट्र को, जिसकी भाषा अबोधगम्य थी; एक ऐसे राष्ट्र को, जिसे न तो बूढ़ों के प्रति श्रद्धा थी और न बच्चों के प्रति कोई दया।
16) वह विधवा के प्रिय पुत्रों को ले गया, उसने उसे उसकी पुत्रियों से वंचित कर उसे अकेली ही छोड़ दिया।
17) ''मैं कैसे तुम्हारी सहायता कर सकती थी?
18) जिसने तुम पर ये विपत्तियाँ ढाहीं, वही तुम को अपने शत्रुओं के हाथ से छुड़ायेगा।
19) तुम जाओ, मेरे बच्चो! जाओ! मैं परित्यक्ता अकेली ही रह गयी हूँ।
20) मैंने शान्ति का वस्त्र उतार कर प्रायश्चित और प्रार्थना का टाट पहन लिया। मैं जीवन भर शाश्वत प्रभु को पुकारती रहूँगी।
21) ''मेरे बच्चों! ढारस रखो, ईश्वर की दुहाई दो; वह तुम को ंिहंसा से, शत्रु के हाथ से छुड़ायेगा।
22) मुझे शाश्वत ईश्वर से तुम्हारे उद्धार का भरोसा है। परमपावन ईश्वर ने मुझे आनन्द प्रदान किया। तुम्हारा उद्धारक, शाश्वत ईश्वर शीघ्र ही तुम पर दया करेगा।
23) जब मैंने तुम को जाते हुए देखा, तो मैं दुःखी हो कर रोती थी; किन्तु ईश्वर तुम को मेरे पास लौटायेगा और मैं सदा के लिए आनन्दित और उल्लसित होऊँगी।
24) सियोन की पडोसिनें अब तुम्हारा निर्वासन देखती हैं, किन्तु वे शीघ्र ही तुम्हारे ईश्वर का भेजा हुआ उद्धार देखेंगी। वह उद्धार तुम को शाश्वत ईश्वर की महिमा और गौरव के साथ प्राप्त होगा।
25) ''मेरे बच्चों! ईश्वर का भेजा हुआ प्रकोप धैर्य के साथ सहन करो। जिन्होंने तुम पर अत्याचार किया, तुम शीघ्र उनका विनाश देखोगे और तुम उनकी गर्दन पर पैर रखोगे।
26) मेरे बिगड़े हुए बच्चों को ऊबड़-खाबड़ मागोर्ं पर भटकना पड़ा। वे शत्रुओं द्वारा लूटे रेवड़ की तरह ले जाये गये।
27) मेरे बच्चों! ढारस रखो। ईश्वर की दुहाई दो; क्योंकि जिसने यह सब तुम पर आने दिया, वही तुमहारी सुध लेगा।
28) तुमने पहले ईश्वर से दूर हो जाने की बात सोची थी। अब दस गुने उत्साह से उसके पास लौटने की चेष्टा करो;
29) क्योंकि जिसने तुम पर इन विपत्तियों को आने दिया, वही तुमहारा उद्धार कर तुम्हें अनन्त आनन्द प्रदान करेगा।''
30) येरुसालेम! ढारस रख। जिसने तेरा नाम रखा, वह तुझे सान्त्वना देगा।
31) उन लोगों पर शोक, जिन्होंने तुम पर अत्याचार किया और मेरे पतन पर आनन्द मनाया!
32) उन नगरों पर शोक, जहाँ तेरी सन्तति दास थी! उस नगर पर शोक, जिसने तेरे पुत्रों को कैद में रखा!
33) उसने तेर पतन पर आनन्द मनाया, वह तेरे विनाश पर प्रसन्न हुआ, किन्तु वह अपने उजाड़ पर शोक मनायेगा।
34) मैं उसके बहुसंख्यक निवासियों का उल्लास मिटा दूँगा। उसका घमण्ड दुःख में बदल जायेगा;
35) क्योंकि शाश्वत ईश्वर बहुत दिनों तक उस पर आग बरसायेगा और वह बहुत समय तक भूतों का डेरा बना रहेगा।
36) येरुसालेम! पूर्व की ओर दृष्टि डाल और वह आनन्द देख, जो ईश्वर की ओर से तेरे पास आ रहा है!
37) तेरे पुत्र, जिन को तूने जाने दिया, अब आ रहे हैं। तेरे पुत्र ईश्वर की महिमा पर आनन्द मनाते हुए परमपावन के वचन पर पूर्व और पश्चिम से तेरे पास आ रहे हैं।

अध्याय 5

1) येरुसालेम! अपने शोक और सन्ताप के वस्त्र उतार और सदा के लिए ईश्वर की महिमा का सौंदर्य धारण कर।
2) तू ईश्वरीय न्यास का लबादा पहन कर अपने सिर पर प्रभु का दिया हुआ गौरव का मुकुट रख ले;
3) क्योंकि ईश्वर पृथ्वी भर के लोगों पर तेरी महिमा प्रकट करेगा
4) और सदा के लिए तेरा यह नाम रखेगा- न्याय की शान्ति और धार्मिकता की महिमा।
5) येरुसालेम! उठ खड़ा हो जा, पर्वत पर चढ़ कर पूर्व की ओर दृष्टि लगा। देख, प्रभु की आज्ञा से तरे पुत्र पश्चिम और पूर्व से एकत्र हो गये हैं। वे आनन्द मना रहे हैं, क्योंकि ईश्वर ने उनकी सुध ली है।
6) शत्रुओं ने उन्हें बाध्य किया था कि वे तुझ को छोड़ कर पैदल ही चले जायें, परन्तु ईश्वर उन्हें राजसी पालकी में ेबैठा कर तेरे पास वापस ले आ रहा है।
7) ईश्वर का आदेश है कि हर एक ऊँचा पहाड़ और सभी चिरस्थायी पहाडियाँ समतल की जायें और हर एक घाटी पाट कर भर दी जाये, जिससे इस्राएली महिमामय प्रभु की रक्षा में सुरक्षित आगे बढ़ सके।
8) ईश्वर के आदेश पर सभी वन और सुगन्धित वृक्ष इस्राएल पर छाया करेंगे;
9) क्योंकि दयामय तथा न्यायी ईश्वर इस्राएल को आनद प्रदान करेगा और अपनी महिमा के प्रकाश से उसका पथप्रदर्शन करेगा।

अध्याय 6

1) यह उन पत्र की प्रतिलिपि है, जिसे यिरमियाह ने उन बन्दियों के पास भेजा था, जो बाबुल-निवासियों के राजा द्वारा बाबुल ले जाये जा रहे थे, जिससे वह उन्हें ईश्वर का दिया हुआ सन्देश सुनाये। १- तुमने प्रभु के विरुद्ध पाप किये, इस कारण बाबुल-निवासियों के राजा नबुकदनेजर द्वारा तुम बन्दी बना कर बाबुल ले जाये जाओगे।
2) बाबुल पहुँच कर तुम्हें वहाँ बहुत वषोर्ं तक, दीर्घ काल तक, सात पीढियों तक रहना पडेगा। इसके बाद मैं तुम्हें वहाँ से सकुशल लौटाऊँगा।
3) अब तुम बाबुल में चाँदी, सोने और लकड़ी के बनाये हुए देवताओं को देखोगे, जो कन्धों पर उठा कर ले जाये जाते हैं और जिन पर गैर-यहूदी राष्ट्र श्रद्धा रखते हैं।
4) तुम सावधान रहो। कहीं ऐसा न हो कि तुम गैर-यहूदियों-जैसे हो जाओ और उन देवताओं पर श्रद्धा रखो।
5) जब तुम भीड़ को उन देवताओं की आराधना करते और उन्हें जुलूस में ले जाते देखोगे, तो मन में यह कहो, ''प्रभु! तेरी ही आराधना करनी चाहिए'';
6) क्योंकि मेरा दूत तुम्हारे साथ है और वह तुम्हारे जीवन की चिन्ता करेगा।
7) उन देवताओं की जिह्वा शिल्पी द्वारा गढ़ी हुई है। उनका शरीर चाँदी और सोने से मढ़ा हुआ है। वे मिथ्या हैं और बोल नहीं सकते।
8) वे लोग अपने देवताओं के लिए सोने के मुकुट बनवाते हैं, मानो वे अलंकरणप्रिय कन्याएँ हो।
9) पुजारी कभी-कभी वह सोना और चाँदी अपने लिए काम में लाते और छज्जे पर की देवदासियों को भी उपहार के रूप में देते हैं।
10) चाँदी, सोने और लकड़ी के उन देवताओं को मनुष्यों की तरह वस्त्र पहनाये जाते हैं, किन्तु उन वस्त्रों पर जंग लगता हैं और वे कीडों का आहार बन जाते हैं।
11) वे देवता बैंगनी वस्त्रों से सुसज्जित हैं, किन्तु मन्दिर की धूल की मोटी परत उनके चेहरों पर से पोंछनी पड़ती है।
12) कोई देवता क्षेत्रीय दण्डाधिकारी की तरह हाथ में राजदण्ड धारण किये हैं, यद्यपि वह अपने प्रति अपराध करने वाले को मृत्युदण्ड देने में असमर्थ है।
13) कोई दाहिने हाथ में तलवार और फरसा धारण किये हैं, यद्यपि वह न तो युद्ध से और न डाकुओं से अपनी रक्षा कर सकता है।
14) इस से पता चलता है कि देवता नहीं हैं। इसलिए उन से मत डरो।
15) जैसे किसी आदमी का घड़ा टूट जाने पर बेकार हो जाता है, वैसे ही बेकार उनके देवता है, जिनकी प्रतिष्ठा उन्होंने उनके मन्दिरों में की है।
16) उनकी आँखें दर्शन करने वालों के पैरों से उड़ने वाली धूल से ढक जाती हैं।
17) जिस प्रकार राजा के प्रति अपराध करने वाले व्यक्ति के चारों ओर सब दरवाजे बन्द कर दिये जाते हैं, क्योंकि उसे प्राणदण्ड मिला है, उसी प्रकार पूजारी फाटकों, अर्गलाओं और सिटकिनियों से मन्दिर को सुदृढ़ बना देते हैं, जिससे कहीं डाकू देवमूर्तियों की चोरी न कर लें।
18) पुजारी अपने लिए कम, मूर्तियों के लिए अधिक दीपक जलाते हैं, यद्यपि वे उन में एक भी नहीं देख सकती।
19) उनकी दशा उनके मन्दिरों की धरन-जैसी है, जिसके विषय मे यह कहा जाता है कि वह भीतर से खायी हुई है। उन्हें पता भी नहीं चलता कि उन्हें और उनके वस्त्र कीड़े खया करते है।
20) मन्दिर में धुएँ से उनके चेहरे काले हो जाते हैं।
21) चमगादड़ अबाबीलें और अन्य पक्षी उनके शरीर और सिर के ऊपर मँडराते हैं; बिल्लियाँ भी उन पर बैठ जाती हैं।
22) इस से तुम जान जाओगे कि वे देवता नहीं हैं। इसलिए उन से मत डरो।
23) यदि कोई व्यक्ति उन पर मढ़ा हुआ सोना साफ़ नही करें, तो स्वयं उसे नहीं चमका सकतीं। जब वे मूर्तियाँ ढाली गयी तो उन्हें उसका पता नहीं चला।
24) निष्प्राण होने पर भी वे मूर्तियाँ भारी दामों से खरीदी जाती हैं।
25) उनके पैर नहीं होते, इसलिए वे मनुष्यों के कन्धों पर उठायी जाती हैं और सबों को उनकी असमर्थता का पता चलता है। उनके उपासकों को भी इस पर लज्जा होती है कि जब कोई मूर्ति गिर जाती है, तो उन्हें उसे उठाना पड़ता है।
26) यदि वे उन्हें खड़ा कर देते हैं, तो वे हिल नहीं सकती; यदि वे झुकती है, तो वे स्वयं खड़ी नहीं हो सकती। फिर भी उन्हें मृतकों की तरह भेंट चढ़ायी जाती है।
27) पुजारी उन पर चढ़ाये हुए बलि-पशु बेचते और उन से लाभ उठाते हैं। उनकी पत्नियाँ कुछ अंश खरे पानी में डाल कर बिगड़ने से बचाती, किन्तु भिखारी या असहाय को कुछ नहीं देतीं। रजस्वला और अशुद्ध स्त्रियाँ उन को अर्पित चढ़ावे छूती हैं।
28) इस से तुम जान जाते हो कि वे देवता नहीं; उन से मत डरो।
29) स्त्रियाँ उन चाँदी, सोने और लकड़ी के देवताओं की सेवा करती हैं, तो उन मूर्तियों को देवता क्यों माना जाये?
30) पुजारी फटे कपड़े पहने, सिर और दाढी मूँड़े नंगे सिर उनके मंदिरों में बैठते हैं।
31) वे मृतक-भोजों में सम्मिलित अतिथियों की तरह अपने देवताओं के सामने चिल्लाते और शोर मचाते हैं।
32) पुजारी उनके वस्त्र चुरा कर ले जाते हैं और उन्हें अपनी पत्नियों और बच्चों को पहनाते हैं।
33) यदि कोई उन देवताओं के साथ अच्छा या बुरा व्यवहार करे, तो वे उनके विषय में कुछ नहीं कर सकते। वे न तो किसी को राजा बना सकते और न किसी को सिंहासन से उतार सकते।
34) वे न तो धन दे सकते और न कोई सिक्का। यदि कोई व्यक्ति उनके लिए मन्नत माने और उसे पूरी न करे, तो वे उस से लेखा नहीं माँगेंगे।
35) वे न तो मृत्यु से किसी मनुष्य की रक्षा कर सकते और न बलवान् के हाथ से दुर्बल को छुड़ा सकते।
36) वे न तो अन्धे को दृष्टि प्रदान कर सकते और न निस्साहय को सहारा दे सकते।
37) वे विधवाओं पर दया नहीं करते और अनाथों की सुधि नहीं लेते।
38) वे पर्वत के पत्थरों के सदृश हैं, लकड़ी के ऐसे टुकड़े हैं, जो सोने और चाँदी से मढ़ दिये गये हैं। जो लोग उनकी उपासना करते हैं, उन्हें लज्जित होना पडेगा।
39) इसलिए लोग यह कैसे सोच या कह सकते हैं कि वे देवता हैं?
40) इसके अतिरिक्त खल्दैयी भी उनका अपमान करते हैं। जब वे किसी गूँगे को देखते, जो बोल नहीं सकता, तो वे उसे बेल के सामने ले जा कर प्रार्थना करते हैं कि वह उसे बोलने की शक्ति दे, मानो बेल उनकी प्रार्थना सुन सकता है।
41) वे इस पर विचार-विमर्श और इन देवताओं का परित्याग नहीं कर पाते, क्योंकि उन में समझ नहीं है।
42) वहाँ की स्त्रियाँ सिर पर डोरियाँ लपेट कर सड़क पर बैठी हुई भूसी जलाती हैं।
43) जब उन में किसी को कोई पथिक ले जाता और उस से प्रसंग करता है, तो वह लौट कर अपनी पड़ोसिन की हँसी उड़ाती है, जो नहीं चुनी गयी और जिसकी डोरियाँ सिर पर से नहीं उतारी गयीं।
44) उन देवताओं से जो कुछ सम्बन्धित है, वह सब धोखा है। तो लोग यह कैसे सोच या कह सकते हैं कि वे देवता हैं?
45) बढ़इयों और सुनारों ने उन्हें जैसा बनाना चाहा, उस से भिन्न वे और कुछ नहीं हो सकतीं।
46) उन मूर्तियों के रचयिता बहुत समय तक जीवित नहीं रहते; इसलिए उनके द्वारा बनायी वस्तुएँ देवता कैसे हो सकती हैं?
47) इस प्रकार वे लोग अपने बाद की पीढ़ियों के लिए धोखा और कलंक छोड़ जाते हैं।
48) जब उन देवताओं को युद्ध या विपत्तियों का सामना करना पड़ता है, तो पुजारी आपस मे यह परामर्श करते हैं कि हम उन्हें ले जा कर कहाँ छिपायें।
49) वे क्यों नहीं समझते कि जो मूर्तियाँ युद्ध या विपत्तियों से अपनी रक्षा करने में असमर्थ हैं वे देवता नहीं हो सकती?
50) वे सोने और चाँदी से मढ़ी हुई वस्तुएँ हैं; इसलिए बाद में यह मानना होगा कि वे धोखा मात्र हैं। सभी राष्ट्रों और राजाओं के लिए यह स्पष्ट होगा कि वे देवता नहीं, बल्कि मनुष्यों के हाथों की कृतियाँ हैं, जिन में कोई दिव्य शक्ति विद्यमान नहीं।
51) कौन और प्रमाण चाहता है कि वे देवता नहीं हैं?
52) वे न तो देश पर किसी राजा को नियुक्त करतीं और न मनुष्यों को वर्षा प्रदान करती।
53) वे न तो किसी को न्याय दिलातीं और न अन्याय रोकती हैं। वे आकाश और पृथ्वी के बीच उडने वाले कौओं की तरह असमर्थ हैं।
54) यदि सोने और चाँदी से मढ़ी हुई लकड़ी की उन देवमूर्तियों के मन्दिर में आंग लग जाती है, तो उनके पुजारी भाग कर बच जाते हैं, किंतु वे स्वयं धरनों के समान भस्म हो जाती हैं।
55) वे राजा या शत्रु का विरोध करने में असमर्थ हैं।
56) तो लोग यह कैसे सोच या कह सकते हैं कि वे देवता हैं?
57) सोने और चाँदी से मढ़ी हुई लकड़ी की वे देवमूर्तियाँ न तो चोरों और न लुटेरों से बच सकती हैं। ये लोग, जो उन से अधिक बलवान् हैं, सोना, चाँदी और उन्हें ढकने वाले वस्त्र उतार कर चले जाते हैं और वे उन से अपनी रक्षा नहीं कर पाती।
58) वह राजा, जो अपने अधिकार की रक्षा करने में समर्थ हैं; या घर का वह कलश, जो मालिक के काम आता है; या वह द्वार, जिस से घर का सामान सुरक्षित रहता है; या राजमहल में लकड़ी का खम्भा- ये सब उन झूठी देवमूर्तियों से श्रेष्ठ हैं।
59) सूर्य, चन्द्रमा और तारे चमकते हैं और प्रभु के आदेश के अनुसार मनुष्यों की सेवा करते हैं।
60) कौंधती हुई बिजली भी, जो देखने में सुन्दर है और हवा भी, जो हर प्रदेश में बहती है।
61) जब ईश्वर बादलों को समस्त पृथ्वी पर मँडराने का आदेश देता है, तो वे उसका पालन करते हैं। जो आग ऊपर से आ कर पहाड़ और वन जालाती है, वह भी वही काम करती है, जो उसे सौंपा गया है।
62) सौन्दर्य या सामर्थ्य की दृष्टि से वू मूर्तियाँ इन में से किसी का मुक़ाबला नहीं कर सकती।
63) वे न तो न्याय दिला सकतीं और न किसी का उपकार कर सकतीं। इस से पता चलता है कि उनके विषय में न तो माना या न कहा जा सकता है कि वे देवता हैं।
64) इसलिए तुम जानते हो वे देवता नहीं हैं; उन से मत डरो।
65) वे किसी राजा को न तो अभिशाप दे सकतीं और न आशीर्वाद।
66) वे न तो राष्ट्रों को आकाश में चिन्ह दिखा सकती, न सूर्य की तरह चमक सकतीं और न चन्द्रमा की तरह प्रकाश दे सकती हैं।
67) जंगली पशु उन से श्रेष्ठ हैं; क्यों कि वे कहीं भाग कर अपनी रक्षा करने में समर्थ हैं।
68) इन सब बातों से किसी भी तरह ज्ञात नहीं होता है कि देवता हैं। इसलिए उन से मत डरो।
69) जैसे ककड़ी के खेत का चंचा-पुरुष किसी की रक्षा नहीं कर सकता, वैसे ही सोने और चाँदी से मढी हुई लकड़ी की उनकी वे देव-मूर्तियाँ भी।
70) सोने और चाँदी से मढ़ी हुई उन लोगों की लडकी की देवमूर्तियाँ बगीचे की उस कँटीली झाड़ी के सदृश हैं, जिस पर पक्षी बैठ जाते हैं, या उस शव के समान, जो अंँधेरी कब्र्र में रखा हआ है।
71) यदि तुम देखोगी कि बैंगनी और मलमल के उनके वस्त्र सड़ जाते हैं, तो समझोगे कि वे देवता नहीं हैं। अन्त में वे कीड़ों का आहार बन जायेंगी और देश के लिए कलंक का कारण।
72) धार्मिक मनुष्य के लिए यही अच्छा है कि उसके कोई देवमूर्तियाँ नहीं होः उसे लज्जित नहीं होना पड़ेगा।