पवित्र बाइबिल : Pavitr Bible ( The Holy Bible )

पुराना विधान : Purana Vidhan ( Old Testament )

शोक गीत ( Lamentations )

अध्याय 1

1) वह नगरी अब कैसी वीरान हो गयी है, जो कभी लोगों से भरी रहती थी! वह किस तरह विधवा-जैसी हो गयी है, वह, जो राष्ट्रों में महान्् थी! वह, जो कभी नगरों की राजकुमारी थी, दासी-जैसी हो गयी है।
2) वह रात में फूट-फूट कर रोती है, उसके कपोलों पर आँसू बहते रहते हैं। उसके इतने सारे प्रेमियों में कोई भी उसे सान्त्वना नहीं देता। उसके सभी मित्रों ने उसके साथ विश्वासघात किया है। वे उसके शत्रु हो गये हैं।
3) विपत्ति और असहनीय दासता से ग्र्रस्त हो कर यूदा निर्वासित हो गया है। वह राष्ट्रों में निवास कर रहा है। उसे कहीं ठहराव नहीं मिल रहा है। बन्द गलियों में उसका पीछा करने वालों ने उसे पकड़ लिया है।
4) सियोन की सड़कें विलाप करती हैं, क्योंकि पर्व मनाने कोई नहीं आता। उसके सब फाटक उजाड़ पड़े हैं। उसके याजक कराह रहे हें। उसकी कन्याएँ आह भरती हैं। वह स्वयं बहुत दुःख झेल रही है।
5) उसके शत्रु उसकी स्वामी हो गये हैं, उसके बैरी आनन्द मना रहे हैं; क्योंकि उसके अनेकानेक अपराधों के कारण उसके प्रभु ने उसे दण्डित किया है। उसके शत्रुओं के सामने बंदी बन कर उसके बच्चे चले गये हैं।
6) सियोन की पुुत्री का प्रताप उस से विदा हो गया है। उसके राज्याधिकारी उन हरिणों-जैसे हो गये हैं, जिनका कोई चरागाह नहीं रहा। अपना पीछा करने वालों के सामने बलहीन हो कर वे भाग रहे थे।
7) अपनी विपत्ति और कड़वाहट के दिनों में येरुसालेम को याद आता है वह समस्त वैभव, जो प्राचीन काल से ही उसका था। जब उसके लोग शत्रुओं के हाथ पड़ गये और उसका कोई सहायक नहीं रहा, तो उसेके शत्रुओं ने उसे देखा और वे उसके पतन पर हँस पड़े।
8) येरुसालेम ने भयानक पाप किये, इसलिए वह अपवित्र हो गया। जो सब उसका सम्मान करते थे, वे उसका तिरस्कार करते हैं, क्योंकि उन्होंने उसकी नग्नता देखी है। वह स्वयं भी कराहता रहता है और अपना मुँह छिपा रहा है।
9) उसका कलंक उसके वस्त्रों में लग गया है। उसने अपने विनाश की चिन्ता नहीं की। उसका पतन इतना भयावह है; उसे कोई ढारस तक नहीं बँधाता। ''प्रभु मेरे कष्टों पर ध्यान दे, क्योंकि शत्रु विजयी हो गये हैं!''
10) उसके धन-कोषों की ओर शत्रुओं ने अपने हाथ बढ़ा दिये हैं। उसने उन राष्ट्रों को अपने पवित्र-मन्दिर में प्रवेश करते देखा है, जिन्हें तुमने अपनी सभा में आने से मना किया था।
11) उसके सभी लोग रोटी की खोज में भटकते हुए रोते हैं। अपने प्राणों की रक्षा के लिए वे अपने धन-कोष दे कर भोजन ख़रीदते हैं। ''प्रभु! देख और ध्यान दे कि मेरा कितना तिरस्कार हो रहा है!''
12) ''इस पथ से हो कर जाने वालो! आओ, देखो कि क्या मेरे-जैसा दुःख किसी और ने भोगा है, जो दुःख मुझ पर पड़ा है, जो अपने महाकोप के दिन प्रभु ने मुझे दिया है?
13) ''उसने ऊपर से मुझ पर आग बरसायी, उसने मेरी हड्डियों ेमें उसे डाल दिया। उसने मेरे पैरों के लिए जाल फैलाया और मुझे चित्त कर दिया। उसने मुझे उदास कर दिया; मैं सारा दिन पीड़ित रही।
14) ''मेरे पाप एक जूआ बन गये- उसके हाथों ने उन को जोड़ दिया; वे मेरी गर्दन पर रख दिये गये। उसने मुझे शक्तिहीन कर दिया। प्रभु ने मुझे उन लोगों के हाथ कर दिया, जिनके सामने मैं टिक नहीं सकती।
15) ''प्रभु ने मेरे यहाँ के सभी बलवानों का तिरस्तकार कर दिया। उसने मेरे युवकों को कुचलने मेरे विरुद्ध एक जनसमूह बुला भेजा। प्रभु ने यूदा की कुमारी पुत्री को जैसे रसकुण्ड में रौंद डाला।
16) ''मैं इन्ही बातों पर रो रही हूँ : मेरी आँखें आसू बहाती हैं। वे सभी मुझ से दूर हैं, जो मुझे सान्त्वता देते, जो मुझे में उत्साह भरते। मेरे बच्चे उजड़ गये हैं, क्योंकि शत्रुओं की विजय हो गयी है।''
17) सियोन अपने हाथ फैलाती है, लेकिन उसे कोई सान्त्वना नहीं देता। प्रभु ने याकूब के शत्रुओं को आदेश दिया कि वे उसे चारों ओर से घेर लें। येरुसालेम उनके बीच घृणित बन गया है।
18) ''प्रभु ने न्याय किया है; क्योंकि मैंने उसके आदेश का पालन नहीं किया है। किन्तु समस्त राष्ट्रों! सुनो, मेरे दुःख पर ध्यान दो। मेरी युवतियों और मेरे युवकों को बन्दी बनाकर ले जाया गया है।
19) ''मैंने अपने प्रेमियों को पुकारा, किन्तु उन्होंने मुझे धोखा दिया। मेरे याजक और नेता, जब वे अपने को जीवित रखने के लिए भोजन की खोज में भटक रहे थे, नगर में मर गये।
20) ''प्रभु! देख, मैं कितनी वेदना में हूँ! मेरे प्राण व्याकुल हैं। मेरा हृदय मेरे भीतर छटपटाता है; क्योंकि मैं बराबर विद्रोही रही। बाहर तलवार मेरी सन्तान को मारती है। घर में मृत्यु नाचती है।
21) ''सुन, मैं कैसे कराहती हूँ! मुझे कोई सान्त्वना नहीं देता। मेरे सभी शत्रुओं ने मेरी विपत्ति के विषय में सुना है। उन्हें प्रसन्नता है कि यह तूने किया है। तूने जिस दिन की घोषणा की है, उसे ला और उन को भी मुझ-जैसा बना दे।
22) ''उनके सभी कुकमोर्ं पर ध्यान दे और मेरे सभी अपराधों के कारण तूने मेरे साथ जो किया है, वही उनके साथ कर; क्योंकि मेरी आहें असंख्य हैं मेरा हृदय खिन्न है।''

अध्याय 2

1) अपने क्रोध के आवेश में प्रभु ने सियोन की पुत्री को मेघाच्छन्न कर दिया है। उसने इस्राएल के वैभव को आकाश से पृथ्वी पर गिरा दिया है। उसने अपने क्रोध के दिन अपने पावदान का भी ध्यान नहीं रखा है।
2) प्रभु ने निर्दयतापूर्वक याकूब के सब घरों नो नष्ट कर दिया है। उसने क्रोध के आवेश में आ कर यूदा की पुत्री के सब गढ़ों को ढा दिया है। उसने उसके राज्य और उसके शासकों को अपमानित किया और मिट्टी में मिला दिया है।
3) उसने अपने भारी क्रोध में इस्राएल की समस्त शक्ति नष्ट कर दी है। उसने शत्रुओं के सामने उन से अपना दाहिना हाथ खींच लिया है। यह याकूब के भीतर एक ऐसा आग बन कर भड़का है, जिसने चारों ओर सब कुछ भस्म कर दिया है।
4) उसने शत्रु की तरह अपना धनुष चढ़ा लिया है, उसने बैरी की तरह अपना दाहिना हाथ उठा लिया है। उसने सियोन की पुत्री के तम्बू में उन सबों को, जिन पर आँखों को गर्व था, नष्ट कर दिया है। उसने आग की तरह अपना क्रोध उँढ़ेल दिया है।
5) प्रभु शत्रु-जैसा हो गया है, उसने इस्राएल का विनाश कर दिया है। उसने उसके सभी महलों का विनाश कर डाला है; उसके गढ़ नष्ट कर दिये हैं। उसने यूदा की पुत्री का शोक और विलाप और भी बढ़ा दिया है।
6) उसने अपना मन्दिर उद्यान की तरह तोड़ दिया है, उसने अपने निवास को नष्ट कर दिया है। प्रभु ने सियोन में अपने पर्व और विश्राम दिवस को विस्मृत करा दिया है। उसने अपने भयानक क्रोध में राजा और याजक को त्याग दिया है।
7) प्रभु ने अपनी वेदी का तिरस्कर, अपने पवित्र स्थान को अस्वीकार कर दिया है। उसने अपने भवनों की दीवारें शत्रु के हाथ कर दी है। प्रभु के निवास में पर्व के दिन-जैसा कोलाहल हो रहा है।
8) प्रभु ने सियोन की दीवार को धूल में मिलाने का निश्चय किया। उसने डोरी से माप कर उस पर निशान लगा दिये। उसने अपने हाथ को विनाश करने से नहीं रोका। उसने परकोटे और दीवार को विलाप करने दिया और वे दुःख में पडे हुए हैं।
9) उसके फाटक जमीन में धँस गये हैं। उसने उसकी अर्गलाओं को तोड़ कर चूर कर दिया है। उसके राजा और पदाधिकारी राष्ट्रों के यहाँ हैं। विधान समाप्त हो गया है। और उसके याजकों को प्रभु की ओर से कोई दृश्य नहीं प्राप्त होता।
10) सियोन के नेता मौन हो कर धरती पर बैठे हैं- अपने सिर पर धूल डाले, टाट के कपड़े ओढे। येरुसालेम की कुमारियाँ सिर झुकाये बैठी रहती हैं।
11) मेरी आँखें आँसू बहाते-बहाते बुझ गयी हैं। अपनी प्रजा की पुत्री के घाव के कारण मेरी अँतडियाँ ऐंठ रही हैं। मेरा हृदय पिघलता है, जब बालक और दुधमुँहे बच्चे नगर की गलियों में मूर्च्छित हो जाते हैं।
12) वे अपनी माताओं से पूछते हैं, ''रोटी कहाँ है?'' वे घायलों की तरह नगर की गलियों में बेहोश हो जाते हैं और अपनी माता की गोद में प्राण त्याग देते हैं।
13) येरुसालेम की पुत्री! मैं तुम्हारी तुलना किस से करूँ? तुम किसके सदृश हो? सियोन की पुत्री! तुम्हें कौन बचा सकता और सान्त्वना दे सकता है, क्योंकि तुम्हारी विपत्ति समुद्र की तरह अपार हैं? तुम्हें कौन स्वस्थ करेगा?
14) तुमहारे नबियों ने तुम्हें असत्य और भड़कीले दृश्य दिखाये। उन्होंने तुम्हारा भाग्य बदलने के लिए तुम्हारा पाप प्रकट नहीं किया। उन्होंने तुम्हें व्यर्थ और भ्रामक भविष्यवाणियाँ सुनायीं।
15) रास्ते से गुजरने वाले सभी लोग तुम पर तालियाँ बजाते हैं। वे येरुसालेम की पुत्री का उपहास करते और सिर हिलाते है - ''क्या यह वही नगरी है, जौ सौन्दर्य की परिपूर्णता और समस्त पृथ्वी का आनन्द कही जाती थी?''
16) तुम्हारे सभी शत्रु तुम्हारे विरुद्ध अपशब्द कहते हैं। वे फुफकारते और दाँत पीस कर यह कहते हैं, ''हमने उसका सर्वनाश कर दिया हैं। हम इसी दिन की कामना करते थे और वह आ गया है, हम उसे देख रहे हैं।''
17) प्रभु ने जो निश्चय किया, पूरा किया। उसने अपना वह वचन पूरा किया, जिसकी घोषणा उसने प्राचीन काल से की थी। उसने निर्दयता से सर्वनाश किया। उसने तुम्हारे शत्रुओं को तुम्हें हानि पुहुँचा कर तुम्हारा उपहास करने दिया। और तुम्हारे विरोधियों की शक्ति बढ़ायी।
18) तुम सारे हृदय से प्रभु, सियोन के रक्षक, की दुहाई दो। तुम्हारे आँसू दिन-रात नदी की तरह बहते रहें। तुम नहीं रुको, निरन्तर रोते रहो।
19) उठो, रात में चिल्लाओ। पहले पहर में अपना हृदय पानी की तरह बहा दो। अपने बच्चों के प्राण बचाने के लिए प्रभु के सामने हाथ उठा कर प्रार्थना करो। वे गलियों के नुक्कड़ों पर भूख के कारण बेहोश पड़े हैं।
20) ''प्रभु, ध्यान से देख कि तूने ऐसा व्यवहार किसके साथ है। क्या स्त्रियाँ अपनी ही सन्तानों, अपने ही पाले हुए बच्चों को अपना आहार बनायें? क्या प्रभु के ही पवित्र स्थान में याजकों और नबियों का वध किया जाये?
21) ''बच्चे और बूढे मर कर सड़को की धूल में पड़े हैं। मेरी कुमारियाँ और नवयुवक तलवार के घाट उतारे गये हैं। तूने अपने कोप के दिन उनका वध कर दिया है, उन्हें निर्दयता से मार दिया है।
22) तूने जैसी किसी उत्सव के दिन की तरह मुझे आंतकित करने वालों को चारों ओर से आमन्त्रित किया। प्रभु के कोप के दिन कोई भी बच कर भाग नहीं सका और जीवित नहीं रहा। मैंने जिन को दुलराया और पाला, मेरे शत्रुओं ने उनका विनाश कर दिया।''

अध्याय 3

1) मैं वह व्यक्ति हूँ, जिसने उसके क्रोध के डण्डे की पीड़ा झेली है।
2) वह मुझ को ढकेल कर अँधेरे में ले आया है, जहाँ कोई प्रकाश नहीं।
3) वह दिन भर बारम्बार अपना हाथ अकेले मुझ पर उठाता है।
4) उसने मेरे मांस और मेरी चमड़ी को क्षीण कर दिया है और मेरी हड्डियाँ तोड़ डाली हैं।
5) उसने चारों ओर से मुझे बाधित किया है और कटुता तथा संकट से ढक दिया है।
6) उसने मुझे को बहुत पहले के मुरदों की तरह अन्धकार में निवास करने के लिए छोड़ दिया है।
7) उसने मुझे दीवारों से इस तरह घेर दिया है कि मैं नहीं भाग सकता।
8) उसने मुझे भारी जंजीरों से जकड़ दिया है। मैं पुकारता और दुहाई देता हूँ, लेकिन वह मेरी प्रार्थना नहीं सुनता।
9) उसने तराशे हुए पत्थरों से मेरे रास्ते बन्द कर दिये हैं; उसने मेरे मार्ग टेढ़े-मेढ़े कर दिये हैं।
10) वह मेरे लिए घात में बैठे हुए रीछ, छिप कर बैठे हुए सिंह के सदृश है।
11) उसने मुझ को अपने मार्ग से भटका कर मुझे टुकडे-टुकड़े कर दिया है; उसने मुझ को विषादमग्न कर दिया है।
12) उसने अपना धनुष चढ़ा कर मुझ को अपने तीर का निशाना बना लिया है।
13) उसने अपने तरकश के तीरों से मेरा हृदय छेद डाला।
14) मैं अपने राष्ट्र के उपहास का पात्र, सारे दिन उनके गीतों की टेक बन गया हूँ।
15) उसने मुझे कटुता से भर दिया है; उसने मुझ को अफ़संतीन पिलाया है।
16) उसने मेरे दाँतों से कंकड़ियाँ चबवायीं। उसने मुझ को राख खाने को विवश किया।
17) मेरी आत्मा शान्ति से वंचित है; सुख क्या है? मैं यह भूल गया हूँ।
18) मैंने कहा, ''मेरा आत्मविश्वास नष्ट हो गया और मुझे प्रभु पर भरोसा नहीं रहा।''
19) अपने कष्टों और भटकते रहने की याद मुझे पित्त तथा चिरायते-सी कड़वी लगती है।
20) मेरी आत्मा यह सब याद करती और बिसूरती रहती है।
21) किन्तु मैं आशा बाँधने के लिए यह भी याद करूँगा
22) कि प्रभु की कृपा बनी हुई है, उसकी अनुकम्पा समाप्त नहीं हुई है-
23) वह हर सबेरे नयी हो जाती है। उसकी सत्यप्रतिज्ञा अपूर्व है।
24) मेरी आत्मा कहती है- ''प्रभु मेरा भाग्य है। मैं उस पर भरोसा रखूँगी।''
25) जो प्रभु पर भरोसा रखता है, जो प्रभु की खोज में लगा रहता है, उसके लिए प्रभु दयालु है।
26) मौन रह कर प्रभु की मुक्ति की प्रतीक्षा करना- यही सब से उत्तम है।
27) अपनी जवानी के समय से जुए का भार उठाना मनुष्य के लिए उत्तम है।
28) जब वह उस पर इसे डाल दे, तो वह मौन हो कर अलग बैठ जाये।
29) वह अपना मुख धूल में डाल ले- सम्भव है, अब भी कोई आशा हो।
30) वह अपना गाल थप्पड़ मारने वाले की ओर कर दे और अपमान से अघा जाये;
31) क्योंकि प्रभु सदा के लिए नहीं त्यागेगा,
32) बल्कि वह भले ही पीड़ित करे, वह अपनी अपार अनुकम्पा के अनुसार दया दिखलाता है;
33) क्योंकि वह मानव सन्तानों को सहर्ष विपत्ति और दुःख में नहीं डालता।
34) जब कोई व्यक्ति किसी देश के सभी बन्दियों को पैरों से कुचलता है,
35) जब वह उस सर्वोच्य की आँखों के सामने किसी को अपने अधिकार से वंचित करता है,
36) जब वह किसी का मामला बिगाड़ता है, तो क्या प्रभु इसे नहीं देखता?
37) यदि प्रभु ने निश्चित न किया हो, तो ऐसा कौन है, जो आदेश दे और वह पूरा हो जाये?
38) क्या शुभ और अशुभ सर्वोच्च की वाणी से उत्पन्न नहीं हैं?
39) मनुष्य क्यों शिकायत करे? इस से कहीं अच्छा है कि वह अपने पापों पर नियन्त्रण रखे।
40) हम अपने आचरण की जाँच और परीक्षा करें और प्रभु की ओर अभिमुख हो जायें।
41) हम अपने हृदय और हाथ स्वर्ग के ईश्वर की ओर कर लें।
42) ''हमने पाप और विद्रोह किया है और तूने हमें क्षमा नहीं किया।
43) ''तूने क्रोध धारण कर हमारा पीछा किया और निर्दयता से हमारा वध किया।
44) तूने अपने को बादल में छिपा लिया, जिससे तेरे पास कोई दुहाई न पहुँचे।
45) तूने हमें राष्ट्रों के बीच कूड़ा-कचरा और रद्दी बना दिया।
46) ''हमारे सभी शत्रु हमें अपशब्द कहते हैं।
47) हम पर आतंक और गर्त्त, विनाश और संहार हमारी नियति बन गये हैं।
48) अपने राष्ट्र की पुत्री की विनाश देख कर मेरी आँखों से आसुओं की नदी बहती है।
49) ''मेरी आँखें अविराम बहती रहती हैं। वे तब तक नहीं रुकेंगी,
50) जब तक प्रभु स्वर्ग से अपनी दृष्टि नीचे की ओर नहीं फेरता।
51) अपने नगर की सभी कुमारियों के कारण मेरी आँखें मुझे दुःखी बनाती है।
52) ''जो लोग अकारण ही मेरे शत्रु हैं, उन्होंने पक्षी की तरह मेरा शिकार किया।
53) उन्होंने मुझे जीवित ही गर्त्त में फेंक दिया और तुझ पर पत्थर डाल दिये;
54) मेरा सिर पानी में डूब गया और मैं बोल उठा, 'लो, मैं गया!
55) ''प्रभु! गहरे गर्त से मैंने तेरे नाम की दुहाई दी।
56) तूने मेरी यह विनती सुन ली, 'मेरी सहायता की पुकार अनसुनी न कर!
57) मैंने तुझे पुकारा, तो तू पास आ गया। तूने कहा, 'भयभीत मत हो।'
58) ''प्रभु! तूने मेरा पक्ष ग्रहण किया है, तूने मेरे प्राणों का उद्धार किया है।
59) प्रभु! तूने मेरे साथ किया गया अन्याय देखा है, तू मेरे साथ न्याय कर।
60) तूने उनके प्रतिशोध की प्यास, मेरे विरुद्ध उनके सभी षड्यन्त्र देखे हैं।
61) ''प्रभु! तूने उनके अपमान, मेरे विरुद्ध उनके सभी षड्यन्त्र सुने हैं
62) मरे शत्रुओं के वे वचन और विचार, जिन्हें वे सारा दिन कानों में फुसफुसाते हैं।
63) देख, चाहे बैठे हों, चाहे खड़े, मैं उनके गीतों का विषय बना रहता हूँ।
64) ''प्रभु! तू उनके कमोर्ं के अनुसार उन को प्रतिफल देगा;
65) तू उनके हृदय को कठोर बना देगा; उन पर तेरा अभिशाप पड़ेगा;
66) प्रभु! अपने क्रोध के आवेश में तू उनका पीछा करेगा और अपने आकाश के नीचे से उन को मिटा देगा।''

अध्याय 4

1) कैसे सोना मलिन हो गया, कैसे शुद्ध सोना परिवर्तित हो गया! पवित्र पत्थर हर रास्ते के नुक्कड़ पर बिखरे पड़े हैं।
2) सियोन के लाड़ले, जिनका वजन शुद्ध सोने के बराबर था, कैसे कुम्हार द्वारा बनाये मिट्टी के बरतनों-जैसे समझे जा रहे हैं!
3) सियारिनें भी अपनी छाती खोलकर अपने बच्चों को दूध पिलाती हैं, लेकिन हमारे देश की पुत्री मरुभूमि की शुतुरमुर्गियों-जैसी निर्दय हो गयी हैं।
4) दुधमुँहे बच्चे की जीभ प्यास के कारण उसके तालू में चिपक जाती है। बच्चे रोटी माँगते हैं, लेकिन उन्हें कोई कुछ नहीं देता।
5) जो लोग कभी स्वादिष्ट भोजन करते थे, वे अब सडकों पर मर रहे हैं। जिनका पालन बैंगनी वस्त्रों में होता था, वे अब घूरे पर पडे हैं।
6) हमारे देश की पुत्री का दण्ड सोदोम के दण्ड से भी भारी था, जो किसी के हाथ लगाये बिना ही क्षण भर में नष्ट कर दिया गया था।
7) उसके युवक हिम से भी अधिक उज्जवल, दुग्ध से भी अधिक श्वेत थे। उनके शरीर मूँगे से भी अधिक लाल थे, उनका रूप नीलम-जैसा सुन्दर था।
8) अब उनका मुख कालिख से भी अधिक काला हो गया है, वे अब सड़कों पर पहचान में नहीं आते। उनकी चमड़ी उनकी हड्डियों से चिपक गयी है, वह लकड़ी की तरह सूख गयी है।
9) तलवार से मरने वाले भूख से मरने वालों से कहीं अच्छे थे, जो खेत की उपज के अभाव में छीजते-घुलते गये।
10) करुणामयी नारियों ने अपने ही हाथ से अपने बच्चों को उबाला। हमारे देश की पुत्री के विनाश के समय वे उनका आहार बन गये।
11) प्रभु ने अपना कोप अच्छी तरह उतारा; उसने अपना जलता हुआ क्रोध बरसाया और उसने सियोन में ऐसी आग लगायी, जिसने उसकी नींव जला डाली।
12) पृथ्वी के राजाओं को यह विश्वास नहीं था, न ही संसार के किसी निवासी को कि अत्याचारी और बैरी येरुसालेम के फाटकों में प्रवेश कर पायेंगें।
13) यह उसके नबियों के पापों और उसके याजकों के अपराधों के कारण हुआ, जिन्होंने उसके बीच धर्मियों का रक्त बहाया!
14) वे रक्त से अपवित्र हो कर सड़कों पर अन्धों की तरह भटकते थे और कोई व्यक्ति उनके वस्त्र तक नहीं छूता था
15) लोग चिल्ला कर उन से कहते थे, ''दूर हो, अशुद्ध! हटो-हटो, मत छुओ!' जब वे भगोड़े और घुमन्तू बन गये, तो राष्ट्रों के लोग कहते थे, ''वे हमारे यहाँ कभी नहीं रह सकते।''
16) स्वयं प्रभु ने उन्हें छितरा दिया है। अब वह उनकी चिन्ता कभी नहीं करेगा। न तो याजकों के प्रति कोई सम्मान दिखाया गया और न वृद्धजनों पर कोई दया की गयी।
17) व्यर्थ ही सहायता की राह देखते-देखते हमारी आँखें धुँधला गयी, हम एक ऐसे राष्ट्र की प्रतीक्षा करते रहे, जो हमारी रक्षा नहीं कर सका।
18) लोग हमारे कदमों का पीछा करते थे, जिससे हम अपने चौकों पर भी नहीं चल सकते थे। हमारा अन्त समीप आ गया, हमारे दिन पूरे हो गये; क्योंकि हमारा अन्त आ गया था।
19) हमारा पीछा करने वाले आकाश के गरुड़ों से भी तेज थे। वे पर्वतों पर हमारा पीछा करते थे; वे मरुभूमि में हमारे घात में रहते थे।
20) हमारी प्राणवायु- प्रभु की अभ्यंजित उनके फन्दे में पड़ गयी थी- वह, जिसके विषय में हमने कहा था, ''हम उसकी छाया में राष्ट्रों के बीच जीवित रहेंगे।''
21) आनन्द मनाओ और प्रसन्न हो, एदोम की पुत्री! ऊस देश-निवासिनी! वह प्याला तुम्हारी ओर भी बढ़ाया जायेगा! मतवाली हो कर तुम अपने वस्त्र उतार दोगी।
22) सियोन की पुत्री! तुम्हारी दुष्टता का दण्ड पूरा हो गया है, वह तुम्हें अब और निर्वासन में नही रखेगा। किन्तु एदोम की पुत्री! तुम्हारी दुष्टता के लिए वह तुम्हें दण्ड देगा, वह तुम्हारे पाप प्रकट करेगा।

अध्याय 5

1) प्रभु! यह स्मरण कर कि हम पर क्या बीती है। देख, हमारे अपमान पर ध्यान देने की कृपा कर।
2) हमारा दायभाग अपरिचितों के हाथ चला गया है, हमारे घर विदेशियों के हाथ।
3) हम अनाथ और पितृहीन हो गये हैं; हमारी माताएँ विधवाओं-जैसी हैं।
4) हमें अपने पीने के पानी का मूल्य देना पड़ता है; अपनी लकडी का भी दाम चुकाना पड़ता है।
5) हमारी गर्दनों पर जूआ रख कर हमें निर्दयता से हाँका जाता है। हम थक गये हैं, हमें विश्राम करने नहीं दिया जाता।
6) हमने भरपूर रोटी पाने के लिए अपने को मिस्र और अस्सूर के हवाले कर दिया है।
7) हमारे पूर्वजों ने पाप किया और वे मर चुके हैं और उनके अपराधों का फल हम भोग रहे हैं।
8) दास हम पर शासन करते हैं। ऐसा कोई नहीं, जो हमें उनके हाथ से छुड़ाता है।
9) उजाड़खण्ड की तलवार की आशंका के बावजूद हम अपने जीवन का संकट झेल कर रोटी ले आते हैं।
10) अकाल के जलते ताप से हमारी चमड़ी भट्टी की तरह गर्म हो गयी है।
11) सियोन में स्त्रियों का शीलभंग किया जाता है, यूदा के नगरों में कुमारी कन्याओं का।
12) राज्याधिकारी उनके हाथ से फाँसी पर लटका दिये गये है; वृद्धजनों को कोई आदर नहीं दिया जाता।
13) नवयुवकों को चक्की चलाने को बाध्य किया गया है और लकड़ी के गट्ठरों के भार से लड़के लड़खड़ाते हैं।
14) वृद्ध लोगों ने नगर का द्वार, युवा लोगों ने अपना गाना-बजाना छोड़ दिया है।
15) हमारे हृदय का उल्लास समाप्त हो गया है; हमारा नृत्य शोक में बदल गया है।
16) हमारे मस्तक से मुकुट गिर गया है। हम को धिक्कार, क्योंकि हमने पाप किया है!
17) इसलिए हमारा हृदय दुःखी हो गया है; इसलिए हमारी आँखें धुँधली हो गयी है;
18) क्योंकि सियोन पर्वत वीरान हो गया है; उस पर सियार विचरण करते हैं।
19) किन्तु प्रभु! तू सदा राज्य करता है। तेरा सिंहासन पीढ़ी-दर-पीढ़ी बना रहता हैं।
20) तू हमें सदा के लिए क्यों भूल जायेगा, क्या तू हमारा परित्याग इतने लंबे समय तक करेगा?
21) प्रभु! तू हमें अपनी ओर अभिमुख कर और हम लौट आयेंगे। हमारे पहले-जैसे दिन हमें फिर प्रदान कर।
22) क्या तूने हमें सदा के लिए त्याग दिया है? क्या तू हम पर इतना अधिक क्रुद्ध है?