पवित्र बाइबिल : Pavitr Bible ( The Holy Bible )

पुराना विधान : Purana Vidhan ( Old Testament )

इसायाह का ग्रन्थ ( Isaiah )

अध्याय 1

1) यूदा और येरुसालेम के विषय में यूदा के राजा उज्जीया, योताम, आहाज और हिजकीया के दिनों में आमोस के पुत्र इसायाह का देखा हुआ दिव्य दृश्य।
2) आकाश! सुनो; पृथवी! ध्यान दो; क्योंकि प्रभु बोला हैः ''मैंने पुत्रों का पालन-पोषण किया, किन्तु उन्होंने मेरे विरुद्ध विद्रोह किया है।
3) बैल अपने मालिक को पहचानता है, गधा अपने मालिक की नाँद जानता है; किन्तु इस्राएल नहीं जानता, मेरी प्रजा नहीं समझती।''
4) धिक्कार इस पापी राष्ट्र को, दोष से लदे लोगों को, अपराधियों की सन्तति को, पथभ्रष्ट पुत्रों को! उन्होंने प्रभु का परित्याग किया, इस्राएल के परमपावन ईश्वर का तिरस्कार किया और उसे पीठ दिखायी।
5) तुम विद्रोह करते रहते हो, तुम्हारे किस अंग पर प्रहार किया जाय? तुम्हारा सारा सिर घायल है, तुम्हारा हृदय टूट गया है।
6) सिर से पैर तक कोई स्थान स्वस्थ नहीं रहा - केवल चोट, साँट और रक्त बहते घाव। उनका न तो मवाद पोंछा गया, न उन पर पट्टी बाँधी गयी और न तेल लगाया।
7) तुम्हारा देश उजाड़ पड़ा है। तुम्हारे नगर जलाये गये हैं। विदेशी तुम्हारे सामने ही तुम्हारी फ़सलें खाते हैं। तुम्हारा देश मानो शत्रुओं द्वारा उजाड़ दिया गया है।
8) सियोन की पुत्री रह गयी है - दाखबारी में झोपड़ी की तरह, ककड़ी के खेत में मचान की तरह, सेना से घिरे नगर की तरह।
9) यदि विश्वमण्डल के प्रभु ने हम में कुछ लोगों को नहीं बचाया होता, तो हम सोदोम और गोमोरा की तरह पूर्ण रूप से नष्ट हो गये होते।
10) सोदोम के शासको! प्रभु की वाणी सुनो। गोमारा की प्रजा! ईश्वर की शिक्षा पर ध्यान दो।
11) प्रभु यह कहता है : ''तुम्हारे असंख्य बलिदानों से मुझ को क्या? में तुम्हारे मेढ़ों और बछड़ों की चरबी से ऊब गया हूँ। मैं साँड़ों, मेमनों और बकरों का रक्त नहीं चाहता।
12) जब तुम मेरे दर्शन करते आते हो, तो कौन तुम से यह सब माँगता है? तुम मेरे प्रांगण क्यों रौंदते हो?
13) मेरे पास व्यर्थ का चढ़ावा लिये फिर नहीं आना। तुम्हारे लोबान से मुझे घृणा हो गयी है। अमावस, विश्राम-दिवस और तुम्हारी धर्म-सभाएँ। मैं अन्याय के कारण ये सब समारोह सहन नहीं करता।
14) तुम्हारे अमावस और अन्य पर्वों से मुझे घृणा हो गयी है, ये मेरे लिए असह्य भार बन गये हैं।
15) जब तुम अपने हाथ फैलाते हो, तो मैं तुम्हारी ओर से आँख फेर लेता हूँ। मैं तुम्हारी असंख्य प्रार्थनाओं को अनसुना कर देता हूँ। तुम्हारे हाथ रक्त से रँगे हुए हैं।
16) स्नान करो, शुद्ध हो जाओ। अपने कुकर्म मेरी आँखों के सामने से दूर करो। पाप करना छोड़ दो,
17) भलाई करना सीखो। न्याय के अनुसार आचरण करो, पद्दलितों को सहायता दो, अनाथों को न्याय दिलाओ और विधवाओं की रक्षा करो।''
18) प्रभु कहता है : ''आओ, हम एक साथ विचार करें। तुम्हारे पाप सिंदूर की तरह लाल क्यों न हों, वे हिम की तरह उज्जवल हो जायेंगे; वे किरमिज की तरह मटमैले क्यों न हों, वे ऊन की तरह श्वेत हो जायेंगे।
19) यदि तुम अज्ञापालन स्वीकार करोगे, तो भूमि की उपज खा कर तृप्त हो जाओगे।
20) किन्तु यदि तुम अस्वीकार कर विद्रोह करोगे, तो तलवार के घाट उतार दिये जाओगे।'' यह प्रभु की वाणी है।
21) यह साध्वी नगरी कैसे वेश्या बन गयी है? जहाँ पहले न्याय और धार्मिकता का निवास था, वहाँ आज हत्यारे ही पाये जाते हैं!
22) तेरी चाँदी धातुमल बन गयी है, तेरी अंगूरी पानी से भी पतली हो गयी है।
23) तेरे शासक विद्रोही और चारों के साथी हैं। वे उपहार पसन्द करते और रिश्वत के लोभी हैं। वे अनाथ को न्याय नहीं दिलाते और विधवाओं के मामले नहीं सुनते।
24) इसलिए विश्वमण्डल का प्रभु, इस्राएल का सर्वशक्तिमान् ईश्वर यह कहता हैः ''मैं अपने विरोधियों को पराजित करूँगा, मैं अपने शत्रुओं से बदला चुकाऊँगा।
25) मैं तुझ पर अपना हाथ उठाऊँगा, मैं तुझे घरिया में गला कर तेरी मैल दूर करूँगा।
26) मैं तेरे न्यायकर्ताओं और मन्त्रियों को पहले-जैसा बना दूँगा। तब तेरा यह नाम होगा : धार्मिक एवं विश्वसनीय नगरी।''
27) न्याय से ही सियोन का और धार्मिकता से उसके निवासियों का उद्वार होगा।
28) किन्तु विद्रोही और पापी नष्ट हो जायेंगे। जो प्रभु का परित्याग करते हैं, उनका सर्वनाश किया जायेगा।
29) जो बलूत वृक्ष तुम लोगों को इतने प्रिय हैं, उनके कारण तुम्हें लज्जित होना पड़ेगा। जिन उद्यानों पर तुम को इतना गौरव था, उनके कारण तुम कलंकित हो जाओगे।
30) तुम उस बलूत के सदृश बनोगे, जिसके पत्ते सूख गये हैं, उस उद्यान के सदृश, जिसे कोई नहीं सींचता।
31) शक्तिशाली व्यक्ति सूखा ईंधन बनेगा और उसकी बनायी प्रतिमा चिनगारी : दोनों एक साथ जल उठेंगे और बुझाने वाला कोई नहीं होगा।

अध्याय 2

1) येरुसालेम तथा यूदा के विषय में आमोस के पुत्र इसायाह का देखा हुआ दिव्य दृश्य।
2) अन्तिम दिनों में - ईश्वर के मन्दिर का पर्वत पहाड़ों से ऊपर उठेगा और पहाड़ियों से ऊँचा होगा। सभी राष्ट्र वहाँ इकट्ठे होंगे;
3) असंख्य लोग यह कहते हुए वहाँ जायेंगे, ''आओ! हम प्रभु के पर्वत पर चढ़ें, याकूब के ईश्वर के मन्दिर चलें, जिससे वह हमें अपने मार्ग दिखाये और हम उसके पथ पर चलते रहें''; क्योंकि सियोन से सन्मार्ग की शिक्षा प्रकट होगी और येरुसालेम से प्रभु की वाणी।
4) वह राष्ट्रों के बीच न्याय करेगा और देशों के आपसी झगड़े मिटायेगा। वे अपनी तलवार को पीट-पीट कर फाल और अपने भाले को हँसिया बनायेंगे। राष्ट्र एक दूसरे पर तलवार नहीं चालायेंगे और युद्ध-विद्या की शिक्षा समाप्त हो जायेगी।
5) याकूब के वंश! आओ, हम प्रभु की ज्योति में चलते रहें।
6) तुने अपनी प्रजा, याकूब के घराने का परित्याग किया। वहाँ पूर्व के अन्धविश्वास का बोलबाला है। लोग फ़िलिस्तियों की तरह शकुन विचारते हैं। वहाँ बहुत-से विदेशी बस गये हैं।
7) देश सोने और चाँदी से भरा है, उसकी सम्पत्ति असीम हो गयी हैं। देश घोड़ों से भरा है, युद्ध-रथों की संख्या अगणित है।
8) देश देवमूर्तियों से भरा है। लोग अपने हाथों की कृतियों की, अपनी अँगुलियों की रचना की पूजा करते हैं।
9) मनुष्यों को तेरे सामने झुकना पड़ेगा, वे नीचा दिखाये जायेंगे। तू उन्हें क्षमा नहीं करेगा।
10) प्रभु के आतंक से, उसकी महिमा के प्रताप के सामने तुम चट्टानों की दरारों, पृथ्वी की गुफाओं में छिप जाओ।
11) अहंकारियों को नीचा दिखाया जायेगा। मनुष्यों का घमण्ड चूर-चूर किया जायेगा। उस दिन प्रभु ही महिमान्वित होगा।
12) विश्वमण्डल के प्रभु ने एक दिन निश्चित किया है - उन सब के विरुद्ध, जो घमण्डी, अक्खड़ और महिमान्वित हैं। (सब-के-सब नीचा दिखाये जायेंगे।)
13) लेबानोन के सब ऊँचे, धमण्डी देवदारों और बाशान के बलूत वृक्षों के विरुद्व;
14) सब भव्य पर्वतों और ऊँची पहाड़ियों के विरुद्ध;
15) प्रत्येक ऊँची मीनार और प्रत्येक पक्की चारदीवारी के विरुद्व;
16) तरशीश के सब जहाजों और सब बहुमूल्य जलयानों के विरुद्ध।
17) अहंकारियों को झुकना पड़ेगा। मनुष्यों का घमण्ड़ चूर-चूर किया जायेगा उस दिन प्रभु ही महिमान्वित होगा
18) और सभी देवमूर्तियाँ लुप्त हो जायेंगी।
19) जब प्रभु पृथ्वी को आतंकित करने उठेगा, तो मनुष्य उसकी महिमा के प्रताप से भयभीत हो कर चट्ठानों को गुफाओं और पृथ्वी के गड्ढों में छिप जायेंगे।
20) उस दिन मनुष्य पूजा के लिए बनायी हुई सोने और चाँदी की अपनी देवमूर्तियाँ चूहों और चमगादड़ों के सामने फेंक देंगे।
21) जब प्रभु पृथ्वी को आतंकित करने उठेगा, तो मनुष्य उसकी महिमा के प्रताप से भयभीत होकर चट्टानों की गुफाओं और दरारों में छिप जायेंगे।
22) मनुष्य का भरोसा छोड़ दो। वह नाक की साँस मात्र है। उसका महत्त्व ही क्या है?

अध्याय 3

1) देखो! प्रभु, विश्वमण्डल का प्रभु, येरुसालेम और यूदा से हर प्रकार की सहायता, भोजन और जल की आपूर्ति छीनने जा रहा है।
2) वीर और योद्वा, न्यायाधीश और नबी, शकुन विचारने वाला और नेता,
3) सेनापति पदाधिकारी और सभासद, निपुण ओझा और अभिचारक- सब हटा दिये जायेंगे।
4) मैं युवकों को उनके पदाधिकारी बनाऊँगा- निरे बच्चे उन पर मनमाना शासन करेंगे।
5) लोग एक दूसरे पर अत्याचार करेंगे - हर एक अपने पड़ोसी को लूटेगा। युवक वृद्ध के विरुद्ध खड़ा हो जायेगा और क्षुद्र व्यक्ति प्रतिष्ठित के विरुद्ध।
6) कोई अपने पिता के घर में ही अपने भाइयों में एक को पकड़ कर यह कहेगा, ''तुम्हारे पास एक चादर बच गयी, तुम हमारे नेता बनो और इन खडँहरों के ढेर की रक्षा करें''।
7) किन्तु वह उत्तर देगा, ''मुझ से कुछ नहीं होगा। मेरे यहाँ न तो भोजन है और न वस्त्र, मुझे जनता का नेता मत बनाओ।''
8) येरुसालेम लड़खड़ा रहा है, यूदा प्रदेश गिर रहा है। उनके वचन और उनके कार्य प्रभु से विद्रोह करते हैं; वे उसकी महिमा को चुनौती देते हैं।
9) उनका रूख उनके विरुद्ध साक्ष्य दे रहा है, वे सोदोम की तरह अपने पाप घोषणा करते हैं, वे उसे नहीं छिपाते। धिक्कार उन्हें, वे स्वयं अपनी विपत्ति मोल लेते हैं!
10) देखो, धार्मिक मनुष्य का भला होगा। उसे अपने कर्मों का पुरस्कार मिलेगा।
11) धिक्कार विधर्मी को! उसका बुरा होगा। उसके कर्मों के अनुसार उसके साथ व्यवहार होगा।
12) मेरी प्रजा! युवक तुम पर अत्याचार करते और स्त्रियाँ तुम पर शासन करती हैं। मेरी प्रजा! तुम्हारे पथप्रदर्शक तुम को बहकाते और तुम को सन्मार्ग से भटकाते हैं।
13) प्रभु अपने न्यायासन पर बैठ गया, वह लोगों का न्याय करने जा रहा है।
14) प्रभु अपनी प्रजा के नेताओं और शासकों को अपने न्यायालय में बुलाता है : ''तुम लागों ने मेरी दाख़बारी लूटी और दरिद्रों की सम्पत्ति से अपने घर भर लिये हैं।
15) तुम किस अधिकार से मेरी प्रजा को पद-दलित करते और दरिद्रों को रौंदते हो?'' यह सर्वशक्तिमान प्रभु की वाणी है।
16) प्रभु यह कहता है - ''सियोन की पुत्रियाँ धमण्डी हैं। वे सिर उठाये, आँखें मटकाते और धूँधरू छमछमाते, फुदकते हुए आगे बढ़ती हैं।
17) इसलिए प्रभु सियोन की स्त्रियों के सिर पर खाज भेजेगा, वह उनकी खोपड़ी गंजी बना देगा।''
18) उस दिन प्रभु उनके आभूषण छीन लेगा : नूपुर, बिन्दी, कण्ठी,
19) बाली, कंकण, दुपट्ठा,
20) चूड़ामणि, भुजबन्द, करधनी, इत्र-दान और तावीज;
21) अँगूठी, नथ,
22) कीमती वस्त्र, ओढ़नी, लबादा, बटुआ,
23) दर्पण, छालटी वस्त्र, किरीट और शाल।
24) तब सुगन्ध के बदले दुर्गन्ध होगी, कमरबन्द के बदले रस्सी, गूथे हुए केशों के बदले गंजापन, कीमती वस्त्रों के बदले टाट, सौन्दर्य के बदले गुलामी का दाग।
25) तुम्हारे पुरुष तलवार के घाट उतारे जायेंगे, तुम्हारे सैनिक युद्ध में खेत रहेंगे।
26) सियोन के फाटक आह भर कर विलाप करेंगे और नगर एकाकिनी की तरह जमीन पर बैठा रहेगा।

अध्याय 4

1) उस दिन सात स्त्रियाँ एक पुरुष को पकड़ कर कहेंगी, ''हम अपने भोजन और कपड़ों का प्रबन्ध करेंगी। बस, हमें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर हमारा कलंक दूर करो।''
2) उस दिन प्रभु का लगाया पौधा रमणीय और शोभायमान बन जायेगा और पृथ्वी की उपज बचे हुए इस्राएलियों का गोरव और वैभव होगी।
3) येरुसालेम में रहने वाली सियोन की बची हुई प्रजा और वे लोग, जिनके नाम जीवन-ग्रन्थ में लिखे हुए हैं - वे सब ÷सन्त' कहलायेंगे।
4) प्रभु न्याय तथा विनाश का झंझावात भेज कर सियोन की पुत्रियों का कलंक दूर करेगा और येरुसालेम में बहाया हुआ रक्त धो डालेगा।
5) तब प्रभु समस्त सियोन पर्वत और उसके सब निवासियों पर दिन के समय बादल उत्पन्न करेगा और रात के समय देदीप्यमान अग्नि का प्रकाश। इस प्रकार समस्त पर्वत के ऊपर प्रभु की महिमा वितान की तरह फैली रहेगी।
6) वह दिन में गरमी से रक्षा के लिए छाया प्रदान करेगी और आँधी तथा वर्षा में आश्रय और शरण प्रदान करेगी।

अध्याय 5

1) मैं अपने मित्र की दाखबारी के विषय में अपने मित्र को एक गीत सुनाऊँगा। उपजाऊ ढाल पर मेरे मित्र की दाखबारी थी।
2) उसने इसकी जमीन खुदवायी, इस में से पत्थर निकाल दिये और इस में बढ़िया दाखलता लगवा दी। उसने इसके बीच में मीनार बनवायी और इस में एक कोल्हू भी खुदवाया। उसे अच्छी फ़सल की आशा थी, किन्तु उसे खट्ठे अंगूर ही मिले।
3) ''येरुसालेम के निवासियो! यूदा की प्रजा! अब तुम मेरा तथा मेरी दाख़बारी का न्याय करो।
4) कौन बात ऐसी थी, जो मैं अपने दाखबारी के लिए कर सकता था और जिसे मैंने उसके लिए नहीं किया? मुझे अच्छी फ़सल की आशा थी, उसने खट्ठे अंगूर क्यों पैदा किये?
5) अब, मैं तुम्हें बताऊँगा कि अपनी दाखबारी का क्या करूँगा। मैं उसका बाड़ा हटाऊँगा ओर पशु उस में चरने आयेंगे। मैं उसकी दीवारें ढाऊँगा और लोग उसे पैरों तले रौंदेंगे।
6) वह उजड़ जायेगी; कोई उसे छाँटने या खोदने नहीं आयेगा और उस में झाड़-झंखाड़ उग जायेगा। मैं बादलों को आदेश दूँगा कि वे उस पर पानी नहंी बरसायें।''
7) विश्वमण्डल के प्रभु की यह दाख़बारी इस्राएल का घराना है और इसके प्रिय पौधे यूदा की प्रजा हैं। प्रभु को न्याय की आशा थी और भ्रष्टाचार दिखाई दिया। उसे धर्मिकता की आशा थी और अधर्म के कारण हाहाकार सुनाई पड़ा।
8) धिक्कार तुम लोगों को, जो इस प्रकार घर-पर-घर खरीदते और खेत-पर-खेत अपने अधिकार में करते हो कि अन्त में कोई जमीन नहीं बचती और तुम भूमि के अकेले स्वामी बन बैठते हो!
9) मेरे कानों में सर्वशक्तिमान् की यह शपथ गूँजती है- ''निवासियों के अभाव के कारण बहुसंख्यक बड़े घर उजड़ जायेंगे।
10) बीस बीघे की दाखबारी केवल एक मन अंगूरी उत्पन्न करेगी। दस सेर बीज केवल एक सेर अन्न पैदा करेंगे।''
11) धिक्कार उन लोगों को, जो बड़े सबेरे से मदिरा पीते और सन्ध्या को देर तक अंगूरी पी कर मतवाले हो जाते हैं।
12) वे सितार, सारंगी ,डफ ओर मुरली बजाते हुए दावतें उड़ाते और मदिरा पीते हैं, किन्तु वे प्रभु के कार्यों पर ध्यान नहीं देते और उसके हाथ की कृतियों का आदर नहीं करते।
13) मेरी प्रजा अपनी अवज्ञा के कारण निर्वासित की जायेगी। कुलीन लोग भूखों मरेंगे और जनसाधारण प्यास से सूख जायेगा।
14) तब अधोलोक अपना मँुह फैलायेगा और अपने जबड़े पूर-पूरे खोलेगा। विलासप्रिय कुलीन लोग और जनसाधारण, दोनों उस में उतरेंगे।
15) अहंकारियों को झुकना पड़ेगा, मनुष्यों का धमण्ड चूर-चूर किया जायेगा।
16) सर्वशक्तिमान् प्रभु अपने निर्णय के कारण महिमान्वित होगा; परमपावन ईश्वर अपनी न्यायप्रियता द्वारा अपने को पवित्र प्रमाणित करेगा।
17) नगर के खँडहर चरागाह बनेंगे और उन में भेडें और बकरियाँ चरेंगी।
18) धिक्कार उन लोगों को, जो पाप को मानो कपट की डोरियों से और अपराध को मानो गाड़ी के रस्सों से अपनी ओर खींचते हैं!
19) जो कहते हैं, ''प्रभु जल्दी करे। वह अपना कार्य अविलम्ब पूरा करे, जिससे हम उसे देख सकें। इस्राएल के परमपावन ईश्वर की योजना शीध्र ही कर्यान्वित हो, जिससे हम उसे जान जायें।''
20) धिक्कार उन लागों को, जो बुराई को भलाई और भलाई को बुराई कहते हैं; जो अन्धकार को प्रकाश और प्रकाश को अन्धकार बनाते हैं; जो कटु को मधुर और मधुर को कटु मानते हैं!
21) धिक्कार उन लोगों को, जो अपने को बुद्धिमान् समझते और अपनी दृष्टि में समझदार हैं!
22) धिक्कार उन लागों को, जो अंगूरी पीने में बहादुर और मदिरा का मिश्रण करने में चतुर हैं,
23) जो रिश्वत ले कर दोषी को छोड़ देते और निर्दोष को न्याय नहीं दिलाते!
24) इसलिए, जैसे अग्नि की लपटें भूसी को भस्म कर देती हैं और सूखी धास ज्वाला में राख बनती है, वैसे उन लागों की जड़ सड़ जायेगी और उनका फूल धूल की तरह उड़ जायेगा; क्योंकि उन्होंने सर्वशक्तिमान् पभु की शिक्षा अस्वीकार की और इस्राएल के परमपावन ईश्वर की वाणी का तिरस्कार किया है।
25) इसलिए प्रभु का क्रोध अपनी प्रजा के विरुद्ध भड़कता है, वह उसे मारने के लिए हाथ उठाता है। पर्वत काँप उठते हैं। शव कूड़े-करकट की तरह सड़कों पर पड़े हैं। फिर भी उसका क्रोध शान्त नहीं होता, उसका हाथ उठा रहता है।
26) वह एक दूरवर्ती राष्ट्र के लिए झण्ड़ा फहराता है, वह सीटी दे कर उसे पृथ्वी के सीमान्तों से बुलाता है। वह अविलम्ब शीध्र ही आ पहँुचता है।
27) उसके योद्धाओं में न तो कोई थका-माँदा है और न कोई लड़खड़ाता है। उन में न तो कोई ऊँघता और न कोई सोया हुआ है। उनके कमरबन्ध ढीले नहीं हैं और उनके जूते के बन्धन टूटे हुए नहीं हैं।
28) उनके बाण तीक्ष्ण और उनके धनुष बढ़ाये हुए हैं। उनके घोड़ों की टापें चक़मक़-जैसी और उनके रथों के पहिये बवण्डर-जैसे हैं।
29) वे सिंहनी की तरह गरजते और सिंह-शावकों की तरह दहाड़ते हैं। वे गुर्राते हुए अपना शिकार पकड़ कर ले जाते हैं। और उसे कोई छुड़ा नहीं सकता।
30) उस दिन वे समुद्र के गर्जन की तरह उन पर गुर्रायेंगे। जो देश पर दृष्टि दौड़ायेगा, उसे अन्धकार और विपत्ति दिखाई देगी। प्रकाश घने बादलों से धूमिल किया जायेगा।

अध्याय 6

1) राजा उज्जीया के देहान्त के वर्ष मैंने प्रभु को एक ऊँचे सिंहासन पर बैठा हुआ देखा। उसके वस्त्र का पल्ला मन्दिर का पूरा फ़र्श ढक रहा था।
2) उसके ऊपर सेराफ़म विराजमान थे, उनके छः-छः पंख थेः दो चेहरा ढकने, दो पैर ढकने और उड़ने के लिए
3) और वे एक दूसरे को पुकार-पुकार कर यह कहते थे, ''पवित्र, पवित्र, पवित्र है विश्वमडल का प्रभु! उसकी महिमा समस्त पृथ्वी में व्याप्त है।''
4) पुकारने वाले की आवाज से प्रवेशद्वार की नींव हिल उठी और मन्दिर धुएँ से भर गया।
5) मैंने कहा, ''हाय! हाय! मैं नष्ट हुआ; क्योंकि मैं तो अशुद्ध होंठों वाला मनुष्य हूँ और अशुद्ध होंठों वाले मनुष्यों को बीच रहता हूँ और मैंने विश्वमण्डल के प्रभु, राजाधिराज को अपनी आँखों से देखा''।
6) एक सेराफ़ीम उड़ कर मेरे पास आया। उसके हाथ में एक अंगार था, जिसे उसने चिमटे से वेदी पर से ले लिया था।
7) उस से मेरा मुँह छू कर उसने कहा, ''देखिए, अंगार ने आपके होंठों का स्पर्श किया है। आपका पाप दूर हो गया और आपका अधर्म मिट गया है।''
8) तब मुझे प्रभु की वाणी यह कहते हुए सुनाई पड़ी ''मैं किसे भेजूँ? हमारा सन्देश-वाहक कौन होगा?'' और मैंने उत्तर दिया, ''मैं प्रस्तुत हँू, मुझ को भेज!''
9) उसने कहा, ''जा कर उस प्रजा से यह कहो, ÷तुम सुनते रहो, किन्तु नहीं समझोगे। तुम देखते रहो, किन्तु तुम्हें नहीं दिखाई देगा।÷
10) इस प्रजा की बुद्धि मन्द कर दो। इसके कान बहरे और इसकी आँखें अन्धी बनाओ, जिससे इसकी आँखें नहीं देख सकें, इसके कान नहीं सुन सकें, इसकी बुद्धि नहीं समझे, जिससे यह पश्चात्ताप नहीं करे और भली-चंगी न हो जाये।''
11) इस पर मैंने पूछा, ''प्रभु! ऐसा कब तक?'' उसने यह उत्तर दियाः ''जब तक नगर उजड़ कर निर्जन न हो जाये, जब तक घर व्यक्तियों से खाली न हो जायें और खेत पूरी तरह नष्ट न हो जायें।
12) प्रभु लोगों को दूर-दूर तक ले जायेगा और देहात निर्जनस्थान बनेगा।
13) यदि दसवाँ भाग ही रह जायेगा, तो वह भी भस्म कर दिया जायेगा; किन्तु जिस तरह तारपीन और बलूत के कट जाने पर उनका ठँूठ रह जाता है, उसी तरह उस ठँूठ से एक पवित्र प्रजा उत्पन्न होगी।''

अध्याय 7

1) जब योतान का पुत्र और उज्जीया का पौत्र आहाज यूदा का राजा था, तो उस समय अराम का राजा रसीन और रमल्या का पुत्र इस्राएल का राजा पेकह, दोनों मिल कर येरुसालेम पर आक्रमण करने निकले, किन्तु वे उसे जीतने में असमर्थ रहे।
2) दाऊदवंशी राजा को यह समाचार मिला कि अरामियों ने एफ्रईम में पड़ाव डाला है। यह सुन कर राजा और उसकी प्रजा इस प्रकार काँपने लगे, जिस प्रकार जंगल के पेड़ आँधी में काँपते हैं।
3) किन्तु प्रभु ने इसायाह से कहा, ''तुम अपने पुत्र शआर-याशूब के साथ रंगरेज के खेत की सड़क पर, जहाँ नहर ऊपरी तालाब से निकलती है, आहाज से मिलने जाओ
4) और उस से यह कहो- सावधान रहो! धीरज धर कर मत डरो। अरामी रसीन और रमल्या के पुत्र का क्रोध प्रज्वलित हो उठा है। वे तो दो धँुआते लुआठों के सदृश हैं। उनके कारण मत घबराओ।
5) उन्हें यह कहते हुए षड्यन्त्र रचने दो -
6) हम यूदा पर चढ़ाई करने जा रहे हैं। हम उसे पछाड़ कर पराजित कर देंगे और वहाँ टाबएल के पुत्र को राजा बनायेंगे।
7) प्रभु-ईश्वर यह कहता है- यह नहीं होगा! कभी नहीं होगा!
8) (८-९) जिस तरह अराम की राजधानी दमिश्क है, दमिश्क का राजा रसीन; एफ्रईम की राजधानी समारिया है और समारिया का राजा रमल्या का पुत्र, उसी तरह पैंसठ वर्ष बाद एफ्रईम कुचल दिया जायेगा और वह राष्ट्र नहीं रह जायेगा। यदि तुम्हारा विश्वास दृढ़ नहीं है, तो तुम निश्चय ही विचलित हो जाओगे।''
10) प्रभु ने फिर आहाज से यह कहा,
11) ''चाहे अधोलोक की गहराई से हो, चाहे आकाश की ऊँचाई से, अपने प्रभु-ईश्वर से अपने लिए एक चिन्ह माँगो''।
12) आहाज ने उत्तर दिया, ''जी नहीं! मैं प्रभु की परीक्षा नहंी लूँगा।''
13) इस पर उसने कहा, ''दाऊद के वंश! मेरी बात सुनो। क्या मनुष्यों को तंग करना तुम्हारे लिए पर्याप्त नहीं है, जो तुम ईश्वर के धैर्य की भी परीक्षा लेना चाहते हो?
14) प्रभु स्वयं तुम्हें एक चिन्ह देगा और वह यह है - एक कुँवारी गर्भवती है। वह एक पुत्र को प्रसव करेगी और वह उसका नाम इम्मानूएल रखेगी।
15) जब उसे बुराई को अस्वीकार ओर भलाई को स्वीकार करने का ज्ञान होजायेगा, तो वह दही ओर मधु खाने लगेगा।
16) किन्तु इस से पहले कि उस लड़के को बुराई को अस्वीकार करने और भलाई को स्वीकार करने का ज्ञान हो जाये, उन दो राजाओं का देश उजड़ जायेगा, जिन से तुम डरते हो।
17) प्रभु तुम पर, तुम्हारी प्रजा और तुम्हारे पिता के घराने पर ऐसे बुरे दिन भेजेगा, जैसे उस समय के बाद नहीं आये थे, जब एफ्रईम यूदा से अलग हुआ था। वह अस्सूर के राजा को भेजेगा।''
18) उस दिन प्रभु सीटी दे कर मिस्र की दूरवर्ती नहरों की मक्खियों को और अस्सूर की मधुमक्खियों को बुलायेगा।
19) वे सब आ कर खड़ी घाटियों, चट्ठानों की दरारों, सभी झाड़ियों ओर समस्त चरागाहों पर छा जायेंगी।
20) उस दिन प्रभु अस्सूर के राजा के साथ आयेगा और फ़रात नदी के तट पर एक अस्तरा किराये पर ले कर सिर से पैर तक तुम्हारे बाल और तुम्हारी दाढ़ी काटेगा।
21) उस दिन प्रत्येक एक गाय ओर दो भेड़ें पालेगा।
22) किन्तु इनका इतना दूध होगा कि प्रत्येक व्यक्ति दही खायेगा। जो लोग देश में बचे रहेंगे, वे दही और मधु ही खायेंगे।
23) उस दिन, हर जगह कँटीले झाड़-झंखाड़ ही रह जायेगा, जहाँ पहले एक हजार दाखलताएँ थीं, जिनका दाम चाँदी के हजार सिक्के था।
24) लोग वहाँ तीर-धनुष के साथ आयेंगे, क्योंकि समस्त देश झाड़-झंखाड़ से भरा होगा।
25) जिन पहाड़ियों पर पहले फावड़े से खेती-बारी होती थी, वहाँ तुम झाड़-झंखाड़ के कारण नहीं जा पाआगे। वे गाय-बैलों ओर भेड़ों के चारागाह बनेंगे।

अध्याय 8

1) प्रभु ने मुझ से कहा, ''एक बड़ा चर्मपत्र लो और उस पर बड़े-बड़े अक्षरों में यह लिखो : 'महेर-शालाल-हाशबज' (लूट का माल निकट; लूट शीध्र ही)''।
2) मैंने इन विश्वसनीय व्यक्तियों को साक्षी बनाया : याजक ऊरिया और यबेरेक्या के पुत्र जकर्या को।
3) इसके बाद मेरा नबिया से संसर्ग हुआ; वह गर्भवती हुई और उसके एक पुत्र उत्पन्न हुआ। प्रभु ने मुझ से कहा, ''उसका नाम महेर-शालाल-हाशबज रखो;
4) क्योंकि इस से पहले कि बच्चा ÷बाप' और ÷माँ' कहना सीखे, दमिश्क की सम्पत्ति और समारिया की लूट अस्सूर के राजा के पास ले जायी जायेगी''।
5) प्रभु ने फिर यह कहा,
6) ''यह प्रजा श्लिोअह का शान्त जल अस्वीकार करती और रसीन और रमल्या के पुत्र को पसन्द करती है,
7) इसलिए प्रभु अस्सूर के राजा और उसकी महिमा को - फ़रात की प्रचण्ड धारा को नदी के उस पार भेजेगा। वह अपने तल से उठ कर अपने तट के ऊपर उमड़ पड़ेगी।
8) उसकी बाढ़ यूदा को जलमग्न कर देगी। इम्मानूएल! पानी गले तक पहूँच कर तुम्हारा पूरा प्रदेश ढक देगा।''
9) राष्ट्रों! युद्ध का नारा लगाओ - हार खाओगे! पृथ्वी के, सीमान्तों! ध्यान से सुनो। युद्ध की तैयारी करो-हार खाओगे!
10) योजना बनाओ - वह असफ़ल होगी; विचार - विमर्श करो - वह व्यर्थ होगा; क्योंकि ईश्वर हमारे साथ है।
11) प्रभु ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे इस प्रजा के मार्ग पर चलने से रोका। उसने कहा,
12) ''ये लोग जिसे षड्यन्त्र कहते हैं, उसे तुम षड्यन्त्र नहीं कहोगे। जिस से वे डरते हैं, उस से तुम नहीं डरोगे और उससे नहीं घबराओगे।
13) तुम सर्वशक्तिमान् प्रभु को ही पवित्र मानोगे, उसी पर श्रद्धा रखोगे, उसी से डरोगे।
14) वह एक परमपावन स्थान होगा। वह इस्राएल के दोनों राज्यों के लिए ठोकर का पत्थर होगा, एक चट्टान ,जिस पर वे फिसल कर गिरते हैं। वह येरुसालेम के निवासियों के लिए जाल और फन्दा बनेगा।
15) बहुत-से लोग ठोकर खायेंगे, गिरेंगे और नष्ट हो जायेंगे, वे जाल में फँस कर पकड़े जायेंगे।''
16) यह साक्ष्य सावधानी से सुरक्षित रखो, मेरे शिष्यों के बीच संहिता पर मुहर लगाओ।
17) प्रभु अब याकूब के धराने से अपना मुख छिपाता है। मैं उसकी प्रतीक्षा करता हूँ। मुझे उसका भरोसा है।
18) मैं और मेरे बच्चे, जिन्हें प्रभु ने मुझे दिये हैं - हम सियोन पर्वत पर निवास करने वाले सर्वशक्तिमान् प्रभु की ओर से इस्राएल में चिन्ह और प्रतीक हैं।
19) जब लोग तुम से भूत-प्रेत साधने वालों ओर शकुन विचार करने वालों से परामर्श लेने को कहते हैं, जो फुसफुसाते और गुनगुनाते हैं, तो क्या राष्ट्रों को अपने ईश्वर से परामर्श नहीं लेना चाहिए? जीवितों के लिए मृतकों से क्यों परामर्श लिया जायें?
20) संहिता और साक्ष्य को सुरक्षित रखो! यदि वे उस वाणी के अनुसार नहीं बोलेंगे, तो उन पर ज्ञान का उदय नहीं होगा।
21) वे देश में थके-माँदे और भूखे मारे-मारे फिरेंगे। वे भूख से खीज कर अपने ईश्वर और अपने राजा को कोसेंगे। वे कभी ऊपर की ओर दखेंगे
22) और कभी पृथ्वी की ओर। उन्हें सब जगह यह दिखाई देगा : विपत्ति अन्धकार और निराशाजनक विषाद। किन्तु अन्धकार दूर किया जायेगा।
23) जहाँ पहले विषाद था, वहाँ अन्धकार नहीं होगा। प्रभु ने भूतकाल में जबुलोन तथा नफ्ताली के प्रान्तों को अपमानित होने दिया है, किन्तु भविष्य में यह यर्दन के उस पार, समुद्र के मार्ग को, गैर-यहूदियों की गलीलिया को महिमा प्रदान करेगा।

अध्याय 9

1) अन्धकार में भटकने वाले लोगों ने एक महती ज्योति देखी है, अन्धकारमय प्रदेश में रहने वालों पर ज्योति का उदय हुआ है।
2) तूने उन लोगों का आनन्द और उल्लास प्रदान किया है। जैसे फ़सल लुनते समय या लूट बाँटते समय उल्लास होता है, वे वैसे ही तेरे सामने आनन्द मना रहे हैं।
3) उन पर रखा हुआ भारी जूआ, उनके कन्धों पर लटकने वाली बहँगी, उन पर अत्याचार करने वाले का डण्डा- यह सब तूने तोड़ डाला है, जैसा कि मिदयान के दिन हुआ था।
4) सैनिकों के सभी भारी जूते और समस्त रक्त-रंजित वस्त्र जला दिये गये हैं।
5) यह इस लिए हुआ कि हमारे लिए एक बालक उत्पन्न हुआ है, हम को एक पुत्र मिला है। उसके कन्धों पर राज्याधिकार रखा गया है और उसका नाम होगा- अपूर्व परामर्शदाता, शक्तिशाली ईश्वर, शाश्वत पिता, शान्ति का राजा।
6) वह दऊद के सिंहासन पर विराजमान हो कर सदा के लिए शन्ति, न्याय और धार्मिकता का साम्राज्य स्थापित करेगा। विश्वमण्डल के प्रभु का अनन्य प्रेम यह कार्य सम्पन्न करेगा।
7) प्रभु ने याकूब के विरुद्ध एक सन्देश भेजा है, वह इस्राएल में चरितार्थ होगा।
8) एफ्रईम की सारी जनता और समारिया के सभी निवासी, उनका अनुभव करेंगे, जो अपने घमण्ड और अहंकार में कहते हैं,
9) ''ईंट की दीवारें गिर गयी हैं, हम पत्थरों से उनका पुनर्निर्माण करेंगे; गूलर के पेड़ कट गये हैं, हम उनकी जगह देवदार लगायेंगे''।
10) किन्तु प्रभु ने उनके विरोधियों को भड़काया और उनके शत्रुओं को उनके विरुद्ध खड़ा किया है, जिससे वे इस्राएल को फाड़ कर खा जायें:
11) पूर्व में अरामियों को ओर पश्चिम में फ़िलिस्तयों को। फिर भी उसका क्रोध शान्त नहीं होता, उसका हाथ उठा रहता है।
12) किन्तु ये लोग अपने को मारने वाले की ओर नहीं अभिमुख हुए हैं; उन्होंने सर्वशक्तिमान् प्रभु की शरण नहीं ली।
13) इसलिए प्रभु ने एक ही दिन इस्राएल का सिर और पूँछ, खजूर और सरकण्डा, दोनों को काटा है।
14) नेता और प्रतिष्ठित लोग सिर हैं, झूठी शिक्षा देने वाले नबी पूँछ हैं।
15) इस प्रजा के पथप्रदर्शकों ने उसे भटकाया और भटकायी हुई प्रजा नष्ट हो गयी है।
16) प्रभु उसके युवकों पर प्रसन्न नहीं होगा, वह उसके अनाथों और विधवाओं पर दया नहीं करेगा; क्योंकि सब-के-सब अधर्मी और अपराधी हैं, सभी व्यक्ति मूर्खतापूर्ण बातें करते हैं। फिर भी उसका क्रोध शान्त नहीं होता, उसका हाथ उठा रहता है।
17) दुष्टता उस आग की तरह जलती है, जो कँटीले झाड़-झंखाड़ भस्म कर देती और जंगल की झाडियाँ जला कर घुएँ के बादलों में उड़ा देती है।
18) सर्वशक्तिमान् प्रभु का क्रोध देश को झुलसाता है। प्रजा आग का शिकार बनती है। कोई अपने भाई पर दया नहीं करता ।
19) लोग दाहिनी ओर से छीन कर खाते हैं और तृप्त नहीं होते। सभी अपने पड़ोसी को खाते हैं।
20) मनस्से एफ्रेईम को खाता है और एफ्रेईम मनस्से को। वे मिल कर यूदा पर टूट पड़ते हैं। फिर भी उसका क्रोध शान्त नहीं होता, उसका हाथ उठा रहता है।

अध्याय 10

1) धिक्कार उन लोगों को, जो अन्यायपूर्ण क़ानून पारित करते और अत्याचार को विधि सम्मत बनाते हैं!
2) वे दरिद्रों के अधिकार छीनते और पददलित जनता को न्याय से वंचित करते हैं। वे विधवाओं को अपना शिकार बनाते और अनाथों को लूटते हैं।
3) तुम दण्ड के दिन क्या करोगे? जब विपत्ति दूर से आ पड़ेगी? तुम सहायता के लिए किसके पास दौड़ोगे? तुम अपनी सम्पत्ति कहाँ रखोगे?
4) तुम बन्दी बन कर गरदन झुकाओगे या युद्ध में खेत रहोगे। फिर भी उसका क्रोध शान्त नहीं होता, उसका हाथ उठा रहता है।
5) धिक्कार अस्सूर को! वह मेरे क्रोध की छड़ी है, मेरे कोप का डण्ड़ा है।
6) मैं उसे एक विधर्मी देश के विरुद्ध भेजता हूँ। जिस राष्ट्र पर मेरा क्रोध भड़क उठा था, मैं उसे लूटने और उजाड़ने, उसे कूड़े की तरह रौंदने के लिए अस्सूर को भेजता हूँ।
7) किन्तु वह ऐसा नहीं समझता और मनमानी करता है। वह सर्वनाश करना चाहता और असंख्य राष्ट्रों को मिटा देना चाहता है।
8) वह कहता है, ''क्या मेरे सब सेनापति राजा नहीं?
9) क्या कलनो के साथ वही नहीं हुआ, जो करकमीश को हुआ था? क्या हमात के साथ वही नहीं, जो अर्पाद के साथ और समारिया के साथ वही नहीं हुआ, जो दमिश्क के साथ?
10) मैंने ऐसे राज्यों को अपने अधिकार में किया, जहाँ येरुसालेम और समारिया की अपेक्षा अधिक देवमूर्तियाँ थीं।
11) तो मैंने समारिया और उसकी देवमूर्तियों के साथ जो किया, क्या मैं वही येरुसालेम और उसकी मूर्तियों के साथ नहीं करूँगा?''
12) जब प्रभु ने सियोन के पर्वत पर और येरुसालेम में अपना समस्त कार्य पूरा किया होगा, तो वह यह कहेगा, ''मैं अस्सूर के राजा को उसके अहंकारपूर्ण हृदय और घमण्ड से चढ़ी हुई आँखों के कारण दण्ड दूँगा;
13) क्योंकि उसने कहा, 'मैंने अपनी शक्ति, अपनी बुद्धि और अपनी चतुरता से ऐसा किया है। मैंने राष्ट्रों के सीमान्त मिटाये, उनकी सम्पत्ति लूटी और राजाओं को बलपूर्वक उनके सिंहासनों से गिरा दिया।
14) जिस तरह लोग परित्यक्त नीड़ से अण्डे निकालते हैं, उसी तरह मैंने राष्ट्रों की सम्पत्ति हथिया ली हैं। मैंने सारी पृथ्वी को अपने अधिकार में किया। किसी ने पंख तक नहीं फड़फड़ाया या चोंच खोलकर चीं-चीं तक नहीं की'।''
15) क्या कुल्हाड़ी अपने चलाने वाले के सामने डींग मारती है? क्या आरा अपने को अराकश से बड़ा मानता है? क्या डण्डा अपने चलाने वाले को चला सकता है या लाठी उसे उठा सकती है, जो लकड़ी नहीं है?
16) इसलिए विश्वमण्डल का प्रभु-ईश्वर अस्सूर के हृष्ट-पुष्ट लोगों में रोग भेजेगा और ज्वर, प्रज्वलित अग्नि की तरह, उनका शरीर गलायेगा।
17) इस्राएल का प्रकाश आग और परमपावन प्रभु ज्वाला बनेगा। वह एक ही दिन में उसका कँटीला झाड़-झंखाड़ जला कर भस्म कर देगा।
18) जिस तरह रोगी का शरीर छीजता है, उसी तरह उसके वनों और उपजाऊ भूमि की शोभा पूर्ण रूप से नष्ट हो जायेगी।
19) उसके वनों के इतने कम पेड़ शेष रहेंगे कि बालक भी उनकी संख्या लिख सकेगा।
20) उन दिन इस्राएल और याकूब के बचे हुए लोग उस पर निर्भर नहीं रहेंगे, जो उन को मारता है, बल्कि वे सारे हृदय से प्रभु, इस्राएल के परमपावन ईश्वर की शरण आयेंगे।
21) बचे हुए लोग, याकूब के बचे हुए लोग शक्तिमान् ईश्वर के पास लौटेंगे।
22) इस्राएल! तुम्हारी प्रजा भले ही समुद्रतट के रेतकणों की तरह असंख्य हो, किन्तु मुट्टी भर लोग ही लौटेंगे। विनाश का निर्णय हो गया है, किन्तु वह न्यायसंगत है।
23) विनाश का जो निर्णय हुआ है, उसे सर्वशक्तिमान् प्रभु-ईश्वर समस्त देश में पूरा करेगा।
24) इसलिए सर्वशक्तिमान् प्रभु-ईश्वर यह कहता हैः ''सियोन में निवास करने वाली मेरी प्रजा! अस्सूर से मत डरो, जो तुम को लाठी से मारता है और मिस्र की तरह तुम पर डण्डा उठाता है।
25) बहुत थोड़े समय के बाद तुम पर मेरा क्रोध समाप्त हो जायेगा और तब मेरा क्रोध अस्सूर का विनाश करेगा।''
26) सर्वशक्तिमान् प्रभु उसे कोड़े लगायेगा, जिस तरह उसने ओरेब की चट्टान के पास मिदयान मारा था और वह समुद्र पर अपना डण्डा उठायेगा, जैसा कि उसने मिस्र में किया था।
27) उस दिन अस्सूर का बोझ तुम्हारे कन्धे से उतरेगा और तुम्हारी गरदन जूए से मुक्त होगी।
28) वह अय्यात पहुँचता है, मिग्रोन पर करता और मिकमाश में रसद रखवाता है।
29) वह घाटी पार कर गेबा में रात बिताता है। रामा नगर थरथर काँपता और साऊल का गिबआ भाग जाता है।
30) बत-गल्लीम! दुहाई दो। लयशा! सुनो।
31) अनातोत पर शोक! मदमेना प्राण बचा कर भागता है। गेबीमवासी भाग रहे हैं।
32) आज ही वह नोब पहुँच कर सियोन की पुत्री के पर्वत को, येरुसालेम की पहाड़ी को, घूँसा दिखा कर धमकी देगा।
33) देखो! सर्वशक्तिमान् प्रभु-ईश्वर प्रचण्ड प्रहार से डालियाँ छाँटता और विशाल वृक्ष काटता है। जो सब से ऊँचे हैं, वे गिरा दिये जाते हैं।
34) धना जंगल कुल्हाड़ी से कट रहा है और लेबानोन के विशाल वृक्ष धराशायी हो रहे हैं।

अध्याय 11

1) यिशय के धड़ से एक टहनी निकलेगी, उसकी जड़ से एक अंकुर फूटेगा।
2) प्रभु का आत्मा उस पर छाया रहेगा, प्रज्ञा तथा बुद्धि का आत्मा, सुमति तथा धैर्य का आत्मा, ज्ञान तथा ईश्वर पर श्रद्धा का आत्मा।
3) वह प्रभु पर श्रद्धा रखेगा। वह न तो जैसे-तैसे न्याय करेगा, और न सुनी-सुनायी के अनुसार निर्णय देगा।
4) वह न्यायपूर्वक दीन-दुःखियों के मामलों पर विचार करेगा और निष्पक्ष हो कर देश के दरिद्रों को न्याय दिलायेगा। वह अपने शब्दों के डण्डे से अत्याचारियों को मारेगा और अपने निर्णयों से कुकर्मियों का विनाश करेगा।
5) वह न्याय को वस्त्र की तरह पहनेगा और सच्चाई को कमरबन्द की तरह धारण करेगा।
6) तब भेड़िया मेमने के साथ रहेगा, चीता बकरी की बगल में लेट जायेगा, बछड़ा तथा सिंह-शावक साथ-साथ चरेंगे और बालक उन्हें हाँक कर ले चलेगा।
7) गाय और रीछ में मेल-मिलाप होगा और उनके बच्चे साथ-साथ रहेंगे। सिंह बैल की तरह भूसा खायेगा।
8) दुधमुँहा बच्चा नाग के बिल के पास खेलता रहेगा और बालक करैत की बाँबी में हाथ डालेगा।
9) समस्त पवित्र पर्वत पर न तो कोई बुराई करेगा और न किसी की हानि; क्योंकि जिस तरह समुद्र जल से भरा है, उसी तरह देश प्रभु के ज्ञान से भरा होगा।
10) उस दिन यिशय की सन्तति राष्ट्रों के लिए एक चिन्ह बन जायेगी। सभी लोग उनके पास आयेंगे और उसका निवास महिमामय होगा।
11) उस दिन प्रभु, पत्रोस, कूश, एलाम, शिनआर, हमात और समुद्र के द्वीपों से अपनी प्रजा के अवशेष का उद्धार करने दूसरी बार अपना हाथ बढ़ायेगा।
12) वह राष्ट्रों को संकेत देने एक झण्ड़ा फहरायेगा और इस्राएल के निर्वासितों को एकत्र करेगा। वह यूदा के बिखरे हुए लोगों को पृथ्वी के चार कोनों से एकत्र करेगा।
13) एफ्रईम की ईर्ष्या समाप्त हो जायेगी और यूदा के शत्रु मिटा दिये जायेंगे। न तो एफ्रईम यूदा से फिर ईर्ष्या करेगा और न यूदा एफ्रईम से शत्रुता करेगा।
14) वे पश्चिम में फ़िलिस्तयों पर टूट पडेंगे और मिल कर पूर्व के लोगों को लूटेंगे। वे एदोम एवं मोआब पर अधिकार करेंगे और अम्मोनी उनके अधीन हो जायेंगे।
15) प्रभु मिस्र की खाड़ी सुखायेगा। वह फ़रात नदी पर प्रचण्ड लू भेज कर उसे सात धाराओं में विभाजित कर देगा और लोग उसे सूखे पैर पार करेंगे।
16) इस प्रकार अस्सूर में मेरी शेष प्रजा के लिए एक मार्ग प्रशस्त किया जायेगा, जिस तरह इस्राएल के लिए हुआ था, जब वह मिस्र से निकला था।

अध्याय 12

1) उस दिन तुम यह कहोगे, ''प्रभु! मैं तुझे धन्यवाद देता हूँ; क्योंकि तू मुझ पर क्रुद्व हुआ, किन्तु तेरा क्रोध शान्त हो गया और तू मुझे सान्त्वना देता है।
2) देखो, प्रभु मेरा उद्धरक है, वही मेरा भरोसा है। अब मैं नहीं डरता; क्योंकि प्रभु मेरा बल है और मेरे गीत का विषय। प्रभु ने मेरा उद्धार किया।''
3) तुम आनन्दित हो कर मुक्ति के स्रोत में जल भरोगे।
4) उस दिन तुम यह कहोगे, ''प्रभु का धन्यवाद करो, उसका नाम घोषित करो। राष्ट्रों में उसके महान् कार्यों का बखान करो, उसके नाम की महिमा गाओ।
5) प्रभु की स्तुति करो, उसने चमत्कार दिखाये। पृथ्वी भर में उनका बखान करने जाओ।
6) सियोन की प्रजा! प्रफुल्लित हो कर आनन्द के गीत गाओ। तुम्हारे बीच रहने वाला एस्राएल का परमपावन ईश्वर महान् है।''

अध्याय 13

1) बाबुल के विषय में आमोस के पुत्र इसायाह को प्राप्त दिव्य वाणीः
2) वीरान पहाड़ी पर झण्ड़ा फहराओ, ऊँचे स्वर में पुकार कर उन को बुलाओ, उन्हें कुलीनों के फाटक में प्रवेश करने का संकेत करो।
3) मैंने अपने को अर्पित लोगों को आदेश दिया, मैंने अपने सैनिकों को बुलाया, जो मेरी महिमा पर गौरव करते हैं और मेरे क्रोध की चरितार्थ करने को कहा।
4) पर्वतों पर यह आवाज सुनो, मानो वह अपार भीड़ की हो। राज्यों का कोलाहल सुनो, मानो असंख्य राष्ट्र एकत्र हो रहे हों। सर्वशक्तिमान् प्रभु युद्ध के लिए एक सेना जुटा रहा है।
5) वे सैनिक दूरवर्ती देशों से, आकाश के सीमान्तों से आ रहे हैं। प्रभु और उसके क्रोध के शस्त्र समस्त देश को उजाड़ने आ रहे हैं।
6) विलाप करो, प्रभु का दिन निकट है। वह सर्वशक्तिमान् की ओर से संहार की तरह आयेगा।
7) सब के हाथ ढीले पड़ गये, हर एक का साहस टूट रहा है।
8) उन पर आतंक छा गया, वे प्रसूता की तरह छटपटा रहे हैं। वे आतंकित हो कर एक दूसरे की ओर देख रहे हैं, उनके चेहरे आग की तरह जल रहे हैं।
9) प्रभु का दिन आ रहा है, - कठोर और अदम्य क्रोध से भरा हुआ- वह देश को उजाड़ेगा और पापियों को नष्ट करेगा।
10) तारे और नक्षत्र आकाश में नहीं चमकेंगे। सूर्य उदित हो कर अन्धकारमय होगा और चन्द्रमा प्रकाश नहीं देगा।
11) मैं संसार को उसकी पुष्टता के लिए और अपराधियों को उनके पापों के लिए दण्ड दूँगा। मैं अहंकारियों का गर्व चूर करूँगा और निरंकुश लोगों का धमण्ड़ तोडूँगा।
12) मैं मुनुष्य को शुद्ध सोने से भी दुर्लभ, ओफ़िर के सोने से भी दुष्प्राप्य बनाऊँगा।
13) सर्वशक्तिमान् प्रभु के क्रोध के कारण, उसके प्रचण्ड प्रकोप के दिन, आकाश काँपने लगेगा और पृथ्वी अपने स्थान से टल जायेगी।
14) तब हर व्यक्ति शिकारी से भागती हरिणी की तरह, उन भेड़ों की तरह, जिन्हें कोई एकत्र नहीं करता, अपनी जाति वालों की शरण लेगा, प्रत्येक अपने-अपने देश भाग जायेगा।
15) जो भी नगर में मिलेगा वह भाले से बेधा जायेगा; जो भी पकड़ा जायेगा, वह तलवार के घाट उतारा जायेगा।
16) उनकी आँखों के सामने ही उनके बच्चों को टुकड़े-टुकड़े कर दिया जायेगा। उनके घर लूटे जायेंगे और उनकी पत्नियों के साथ बलात्कार किया जायेगा।
17) मैं मेदियों को उनके व्र्र्र्र्र्र्रिरुद्ध उभाडूँगा, जो चाँदी में रुचि नहीं रखते और सोने की कामना नहीं करते।
18) उनके धनुष युवकों को मार गिरायेंगे, नवजात शिशुओं पर दया नहीं करेंगे और बच्चों पर तरस नहीं खायेंगे
19) बाबुल, राज्यों का शिरोमणि, खल्दैयियों की गरिमा और गौरव, सोदोम और गोमोरा की तरह ईश्वर द्वारा नष्ट किया जायेगा।
20) वह फिर कभी नहीं बसाया जायेगा और वहाँ पीढ़ियों तक एक भी घर नहीं होगा। कोई अरब वहाँ अपना तम्बू नहीं खड़ा करेगा और कोई चरवाहा वहाँ अपनी भेड़ें नहीं चरायेगा।
21) जंगली पशु वहाँ लेटेंगे और उल्लू उनके घरों में रहेंगे। वहाँ शुतुरमुर्ग निवास करेंगे और जंगली बकरे नाचेंगे।
22) उनके किलों में लकड़बग्धे और उनके महलों में गीदड़ चिल्लायेंगे। बाबुल की घड़ी आ गयी है, उसके दिन अब बहुत नहीं।

अध्याय 14

1) प्रभु याकूब पर दया करेगा और इस्राएली प्रजा को फिर अपनायेगा। वह उन्हें उनकी अपनी भूमि पर बसायेगा। विदेशी भी उनके साथ जायेंगे और याकूब के घराने से घुल-मिल कर रहेंगे।
2) राष्ट्र उनका स्वागत करेंगे और उन्हें उनके स्वदेश पहुँचायेंगे ; वे प्रभु की भूमि पर इस्राएलियों के दास और दासियाँ बनेंगे। जो लोग उन्हें बन्दी बना कर ले गये, इस्राएली उन्हें बन्दी बनायेंगे और अपने पर अत्याचार करने वालों को अपने अधीन करेंगे।
3) जिस दिन प्रभु तुम को अपने कष्टों, उत्पीड़न और क्रूर दासता से मुक्त करेगा,
4) तुम बाबुल के राजा के सम्बन्ध में यह व्यंग्यगीत गाओगे : अत्याचारी को अन्त कैसे हुआ? उसका दर्प ठण्डा कैसे पड़ा?
5) प्रभु ने दुष्टों का डण्डा तोड़ डाला, शासकों का वह राजदण्ड भी,
6) जिस से वे क्रोधावेश में लोगों पर निरन्तर प्रहार करते थे, राष्ट्रों को अपने अधीन करते और निर्दयता से उन पर अत्याचार करते थे।
7) अब समस्त पृथ्वी पर शान्ति और सुरक्षा है। लोग आनन्द के गीत गाते हैं।
8) तुम्हारे कारण सनोवर भी आनन्द मनाते हैं और तुम को धराशायी देख कर लेबानोन के देवदार कहते हैं : ''जो हमें काटने आया करता था, वह फिर कभी नहीं आयेगा''।
9) तुम्हारा स्वागत करने के लिए अधोलोक में हलचल मच रही है। प्रेतात्माएँ और पृथ्वी के शासक तुम्हारा अभिनन्दन करने जगाये जा रहे हैं। जो राष्ट्रों के राजा थे, उन्हें अपने आसनों से उठाया जा रहा है।
10) वे सब यह कहते हुए तुम्हारा स्वागत करेंगे, ''अब तुम हमारी तरह शक्तिहीन हो गये हो, तुम हमारे समान बन गये हो''।
11) तुम्हारा वैभव, तुम्हारी सारंगियों का संगीत - यह सब अधोलोक में समाप्त हो गया है। अब कीड़े तुम्हारा बिछौना है और केंचुए तुम्हारा ओढ़ना ।
12) जो प्रभात-तारे! उषा के पुत्र! तुम आकाश से कैसे गिरे? तुम, जो राष्ट्रों को पराजित करते थे, तुम कैसे अधोलोक में पड़े हो?
13) तुुम, जो मन-ही-मन कहते थेः ''मैं आकाश पर चढूँगा, मैं ईश्वर के नाक्षत्रों के ऊपर अपना सिंहासन रखूँगा। मैं उत्तरी दिशा में स्थित देव-सभा के पर्वत पर विराजमान होऊँगा।
14) मैं बादलों के ऊपर चढ़ कर सर्वोच्च प्रभु के सदृश बनूँगा''
15) किन्तु तुम्हें पृथ्वी के नीचे, अधोलोक के गहरे गर्त्त में उतरना पड़ा।
16) जो तुम को देखते हैं, वे आँखें फाड़ कर यह सोचते हुए तुम को ताकते रहते हैं, ''क्या यह वही मनुष्य है, जिसके सामने पृथ्वी काँपती थी और राज्य थरथराते थे?
17) वही मनुष्य, जिसने पृथ्वी को उजाड़ा, उसके नगरों का विनाश किया और बन्दियों को स्वदेश लौटने नहीं दिया?''
18) राष्ट्रों के सभी राजा अपने-अपने मक़बरे में सम्मानपूर्वक विश्राम करते हैं,
19) किन्तु तुम को अपने मक़बरे से निकाल कर घृणित गर्भस्राव की तरह फेंका गया, तलवार के घाट उतारी लाशों के ढेर पर, जो गड्ढ़ों और पत्थरों पर पड़े हैं। पैरों से रौंदे हुए शव की तरह
20) तुम्हारा दफ़न नहीं होगा, क्योंकि तुमने अपने देश का विनाश किया और अपनी प्रजा का वध किया। दुष्टों की सन्तति का नाम तक नहीं रहेगा।
21) उनके पूर्वजों के कुकर्मों के कारण पुत्रों का भी वध किया जायेगा। कहीं ऐसा न हो कि वे उठ कर पृथ्वी को अपने अधिकार में करें और संसार भर में अपने नगर बसायें।
22) सर्वशक्तिमान् प्रभु कहता है, ''मैं उनके विरुद्ध खड़ा होऊँगा। मैं बाबुल की सन्तति और वंशजों के साथ उसका नाम-निशान तक मिटा डालूँगा।'' यह प्रभु की वाणी है।
23) ''मैं बाबुल को उल्लुओं का अड्डा और दलदल बना दूँगा। मैं सत्यानाश के झाडू से उसे बुहार डालूँगा।''
24) सर्वशक्तिमान् प्रभु ने यह शपथ खायी है, ''मैंने जो योजना बनायी है, वह पूरी होगी। मैंने जो निर्णय किया, वह चरितार्थ होगा।
25) मैं अपने देश में अस्सूर को कुचल दूँगा, मैं अपने पर्वतों पर उसे पैरों से रौंदूँगा। मेरी प्रजा से उसका जूआ उठ जायेगा, उसके कन्धों से भार हट जायेगा।''
26) वह निर्णय सारी पृथ्वी पर लागू है। प्रभु का हाथ सब राष्ट्रों के विरुद्ध उठा है।
27) यह सर्वशक्तिमान् का निर्णय है, तो कौन उसे रद्द कर सकता है? उसका हाथ उठा रहता है, तो कौन उसे झुका सकता है?
28) यह दिव्य वाणी उस वर्ष सुनाई पड़ी, जब राजा आहाज की मृत्यु हुई :
29) फ़िलिस्तियों! इसलिए आनन्द मत मनाओ कि वह डण्डा टूट गया, जो तुम्हें मारता था; क्योंकि साँप की जड़ से काला नाग निकलेगा और उस से एक पंखदार सर्प।
30) दयनीय दरिद्रों को चरागाह मिलेगा और निर्धन सुरक्षा में निवास करेंगे; किन्तु मैं भुखमरी द्वारा तुम को समूल नष्ट करूँगा। जो बच जायेंगे, मैं उनका वध करूँगा।
31) फाटक! तू विलाप कर। नगर! दुहाई दे। सारी फ़िलिस्तिया समाप्त होने को है; क्योंकि उत्तर से धुआँ चला आ रहा है, शत्रु की पंक्तिबद्ध सेना निकट है।
32) उस राष्ट्र के दूतों को क्या उत्तर दिया जाये? ''प्रभु ने सियोन की नींव डाली है और उस में उसकी विभम्र प्रजा सुरक्षित रहेगी।''

अध्याय 15

1) मोआब के विषय में दिव्य वाणी। एक ही रात में अर-मोआब उजाड़ा और नष्ट किया गया! एक ही रात में किर-मोआब उजाड़ा और नष्ट किया गया!
2) लोग विलाप करने के लिए पहाड़ पर अवस्थित दीबोन के मन्दिर जाते हैं; नेबों पर और मेदेबा में मोआब शोक मानाता है। सबों के सिर मूँड़े गये, सबों की दाढ़ी कट गयी।
3) सड़कों पर सब शोक के वस्त्र पहने हैं। लोग छतों पर और चौकों में विलाप करते और आँसू बहाते हैं।
4) हेशबोन और एलआले दुहाई देते हैं, उनकी आवाज यहज तक सुनाई पड़ती है। मोआब के सैनिक चिल्लाते हैं, उनका साहस टूट गया है।
5) मेरा हृदय मोआब के लिए रोता है : उसके शरणार्थी सोअर तक, एगलत-शलिशीया तक भागते हैं। वे रोते हुए लूहीत की ओर चढ़ रहे हैं। वे होरोनईम के मार्ग पर अपने विनाश पर विलाप करते हैं।
6) निम्रीम के जलाशय सूख गये हैं। घास जल गयी और पेड़-पौधे कुम्हला गये। कुछ भी हरियाली शेष नहीं।
7) इसलिए वे अपनी बची हुई सम्पत्ति मजनूँ नाले के उस पार ले जा रहे हैं।
8) मोआब भर में उनकी पुकार सुनाई पड़ती है। उनके विलाप की आवाज एगलैम तक, बएर-एलीम तक सुनाई पड़ती है।
9) दीमोन के जलाशय रक्त से भर गये हैं, किन्तु मैं दीमोन पर और विपत्तियाँ भेजूँगा। मैं मोआब के शरणार्थियों पर और देश में बचे हुए लोगों पर एक सिंह छोडूँगा।

अध्याय 16

1) निर्जन प्रदेश के सेला नगर से देश के शासक का मेमना सियोन की पुत्री के पर्वत के पास भेजो।
2) अरनोन नदी के घाटों पर मोआब की स्त्रियाँ नीड़ से भगायी हुई चिड़ियों-जैसी हैं।
3) वे कहती हैं, ''परामर्श के बाद निर्णय कीजिएः दुपहरी में हमें रात-जैसा अँधेरा दीजिए। निराश्रय लोगों को छिपाइए, शराणार्थियों के साथ विश्वासधात न कीजिए।
4) मोआब के शरणार्थियों को अपने साथ रहने दीजिए। विनाश करने वाले से उनकी रक्षा कीजिए।'' जब अत्याचार और विनाश समाप्त होगा और आक्रमणकारी देश से लुप्त हो जायेगा,
5) तो प्रेम के आधार पर दाऊद के तम्बू में एक सिंहासन प्रतिष्ठित किया जायेगा और उस पर एक निष्ठावान् और न्यायप्रिय व्यक्ति विराजमान हागा, जो सब को न्याय दिलायेगा।
6) हमने मोआब के असीम अहंकार, अक्खड़पन, घमण्ड और गर्व के विषय में सुना; किन्तु उसकी डींग व्यर्थ है।
7) अब मोआब मोआब पर विलाप कर रहा है, सभी मोआबी रो रहे हैं। वू पूर्णतः निराश हो कर कीर-हरेसेत की किशमिश टिकियों के लिए आह भर रहे हैं;
8) क्योंकि हेशबोन के खेत और सिबमा की दाखबरियाँ कुम्हला रही हैं। वे यजेर तक, उजाड़खण्ड तक फैली थीं। उनकी दाखलताएँ समुद्र के उस पार बढ़ गयी थीं। उनकी अंगूरी पी कर राष्ट्रों के शासक लड़खड़ा कर गिर जाते थे।
9) इसलिए मैं यजेर की तरह सिबमा की दाखबारियों के लिए रोता हूँ। हेशबोन और एलआले! मैं तुम को अपने आँसुओं से सींचता हूँ; क्योंकि वे आनन्द के गीत अब नहीं सुनाई पड़ते, जो तुम्हारे फलों और फ़सलों के विषय में गाये जाते थे।
10) घाटियों में हर्षध्वनि लुप्त हो गयी है, दाखबारियों में उल्लास और जयकार नहीं सुनाई पड़ता; रसकुण्डों में अंगूर नहीं पेरे जाते हैं, आनन्द के गीत बन्द हो गये हैं।
11) मेरा मन मोआब के लिए, मेरा हृदय किर-हेरेस के लिए वीणा के तारों की तरह काँपता है।
12) मोआब अपने पहाड़ी पूजास्थान की तीर्थयात्रा करेगा और अपने मन्दिर में प्रार्थना करेगा, किन्तु उस से उसे कोई लाभ नहीं होगा।
13) यह मोआब के विषय में प्रभु की पुरानी दिव्य वाणी है।
14) अब प्रभु यह कहता है, ''ठीक तीन वषोर्ं के बाद मोआब का वैभव समाप्त किया जायेगा और उसकी विशाल जनसंख्या का अवशेष नगण्य होगा''।

अध्याय 17

1) दमिश्क के विषय में दिव्य वाणी। ''दमिश्क अब नगर न रह कर खँडहरों का ढेर बन जायेगा।
2) उसके नगर सदा के लिए उजड़ जायेंगे। वहाँ भेड़-बकरियाँ चरेंगी और उन्हें कोई नहीं डरायेगा।
3) न एफ्रईम में गढ़ रहेगा और न दमिश्क में राज्य। अराम के बचे हुए लोग इस्राएलियों पर अत्याचार नहीं करेंगे।'' यह सर्वशक्तिमान् प्रभु की वाणी है।
4) उस दिन याकूब का वजन घटने और उसका शरीर छीजने लगेगा।
5) जब लुनेरा फ़सल काट कर बालें बटोरता है, या जब एफ्रईम की घाटी में कोई सिल्ला बीनता है,
6) तो कुछ बालें रह जाती हैं। जब लोग जैतून के वृक्षों से फल तोड़ते हैं, तो फुनगी में दो-तीन और डालियों में चार-पाँच फल रह जाते हैं। इस्राएल के साथ ऐसा ही होगा।'' यह इस्राएल के ईश्वर की वाणी है।
7) उस दिन लोग अपने सृष्टिकर्ता की ओर अभिमुख हो जायेंगे और अपनी आँखों से इस्राएल के परमपावन ईश्वर की ओर देखेंगे।
8) वे न तो अपनी बनायी हुई वेदियों पर, न अशेरा-देवी के खूँटों पर और न धूप की वेदियों पर ध्यान देंगे।
9) उस दिन उनके क़िलाबन्द नगर, जिन्हें उन्होंने इस्राएलियों के डर से छोड़ दिया था, जंगलों और पहाड़ों की तरह उजड़े पड़े रहेंगें।
10) क्योंकि तुम लोगों ने अपनी त्राणकर्ता ईश्वर को भुला दिया; तुम्हें अपनी चट्टान, अपने आश्रय का स्मरण नहीं रहा। तुमने सुन्दर बगीचे लगाये और देश-विदेश के बीज बोये।
11) रोपने के बाद उन्हें बढ़ने दो और दूसरे दिन उन में अंकुर फूटना देखो, किन्तु फसल के समय तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा; क्योंकि उन में चित्ती लग गयी होगी।
12) सुनो! समुद्र की उद्दाम लहरों की तरह बहुत-से राष्ट्रों का गर्जन! सुनो! प्रचण्ड जलधाराओं की तरह असंख्य जातियों का कोलाहल!
13) किन्तु ईश्वर की धमकी सुन कर सब-के-सब भाग जाते हैं - पवन द्वारा उड़ाये सूखे पत्तों की तरह, बवण्डर द्वारा छितरायी भूसी की तरह।
14) शाम को आतंक छा जाता है और पौ फटने से पहले वे नहीं रहे। यह हमारे घर उजाड़ने वालों की गति है, यह हमें लूटने वालों का भाग्य है।

अध्याय 18

1) धिक्कार टिड्डियों के उस देश को, जो इथोपिया की नदियों के आसपास है,
2) जो पटेर की नावों पर नील नदी के मार्ग से दूतों को भेजता है! द्रुतगामी दूतो! लौट जाओ! उस राष्ट्र के पास जाओ, जिसके निवासी लम्बे और चिकनी चमड़ी वाले हैं, जिस से चारों ओर के लोग डरते हैं; उस शक्तिशाली और अत्याचारी राष्ट्र के पास, जिसके देश में अनेक नदियाँ बहती हैं।
3) पृथ्वी के सभी निवासियों! संसार भर के मनुष्यों! तुम पर्वत पर फहराया झण्ड़ा देखोगे, तुम तुरही की आवाज सुनोगे;
4) क्योंकि प्रभु ने मुझ से यह कहाः ''मैं शान्तिपूर्वक अपना निवासस्थान देखता रहूँगा - ग्रीष्मकाल की चिलचिलाती धूप की तरह, फ़सल की गरमी के कुहरे की तरह''।
5) जब प्रस्फुटन के बाद अंगूर पकने लगेंगे, तो वह फ़सल से पहले कैंची से फैली हुई डालियाँ छाँटेगा।
6) वे सब पहाड़ी शिकारी पक्षियों और जंगली पशुओं के लिए छोड़ दी जायेंगी। शिकारी पक्षी वहाँ ग्रीष्मकाल बितायेंगे और जंगली पक्षी शीतकाल।
7) उस समय लम्बे और चिकनी चमड़ी के लोग, जिनसे चारों ओर के राष्ट्र डरते हैं, वह शक्तिशाली और अत्याचारी जाति, जिसके देश में अनेक नदियाँ बहती हैं, सर्वशक्तिमान् प्रभु के पास उपहार चढ़ाने आयेगी। वे उपहार सियोन पर्वत पर, सर्वशक्तिमान् प्रभु के नाम के स्थान पर चढ़ाये जायेंगे।

अध्याय 19

1) मिस्र के विषय मे दिव्य वाणी। देखो, प्रभु द्रुतगामी मेघ पर सवार हो कर मिस्र देश आ रहा है। मिस्र की देवमूर्तियाँ उसके सामने काँपती हैं। मिस्र का साहस टूट रहा है।
2) ''मैं मिस्रियों को एक दूसरे के विरुद्ध उभाडूँगा। वे एक दूसरे से लड़ेंगेः भाई भाई से, पड़ोसी पड़ोसी से, नगर नगर से, एक राज्य दूसरे राज्य से।
3) मिस्रियों का उत्साह ठण्डा पड़ जायेगा, मैं उनकी योजनाओं को व्यर्थ कर दूँगा। वे देवमूर्तियों, अभिचारकों, भूत-प्रेत साधने वालों और शकुन विचारने वालों से परामर्श करेंगे!
4) मैं मिस्रियों को एक कठोर स्वामी के हाथ सौंप दूँगा, एक निर्दय राजा उन पर शासन करेगा।'' यह सर्वशक्तिमान् प्रभु का कहना है।
5) समुद्र का जल घट जायेगा, नील नदी सूख जायेगी।
6) नहरों से दुर्गन्ध आयेगी और मिस्र की छोटी नदियाँ सूख जायेंगी। नरकट और सरकण्डे कुम्हलायेंगे।
7) नील नदी के आसपास और उसके मुहाने पर की सारी हरियाली सूख कर हवा से उड़ा दी जायेगी। वह पूर्णतया नष्ट हो जायेगी।
8) मछुए रोयेंगे और विलाप करेंगे- जो नील नदी में कँटिया और जाल डालते हैं- वे सब उदास होंगे।
9) तीसी उगाने वाले निराश होंगे, तीसी धुनने वाले और कातने वाले उदास होंगे।
10) बुनने वाले दुःखी होंगे, और सभी मजदूरों का दिल टूट जायेगा।
11) सोअन के शासक मूर्ख हैं और फ़िराउन के मन्त्री निरर्थक परामर्श देते हैं। तुम फ़िराउन से यह कैसे कह सकते हो, ''मैं ज्ञानी हूँ, प्राचीन राजाओं का शिष्य हूँ''?
12) तुम्हारे ज्ञानी अब कहाँ हैं? वे तुम को बतायें और हम जानें कि सर्वशक्तिमान् प्रभु ने मिस्र के लिए क्या निश्चित किया है।
13) सोअन के शासक मूर्ख हैं और मेमफ़िस के मुखिया भ्रम में पड़े हैं। मिस्र के नेताओं ने अपनी प्रजा को भटकाया है।
14) प्रभु ने उनकी बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया। वे मिस्र को उसके सब कार्यों में इस तरह विचलित करते हैं, जिस तरह शराबी अपने वमन में लड़-खडाता है।
15) इसलिए मिस्र में कोई कुछ नहीं कर पायेगा- न उसके नेता और न उसकी प्रजा।
16) उस दिन मिस्री अपने विरुद्ध सर्वशक्तिमान् प्रभु के उठे हाथ से भयभीत हो कर स्त्रियों की तरह काँपने लगेंगे।
17) यूदा प्रेदश मिस्रियों को आतंकित करेगा। जब कोई उन से यूदा की चरचा करेगा, तो वे काँपने लगेंगे; क्योंकि सर्वशक्तिमान् प्रभु उनके विरुद्ध अपनी योजना पूरी करेगा।
18) उस दिन मिस्र में पाँच नगर होंगे जो कनान की भाषा बोलेंगे और जो सर्वशक्तिमान् ईश्वर के प्रति ईमानदार रहने की शपथ करेंगे। उन में एक नाम होगा- विनाश का नगर।
19) उस दिन मिस्र के मध्य में प्रभु की एक वेदी होगी और उसकी सीमा पर प्रभु के नाम एक स्तम्भ।
20) यह मिस्र देश में सर्वशक्तिमान् प्रभु के लिए एक चिन्ह और साक्ष्य होगा। जब वे अपने पर अत्याचार करने वालों के कारण प्रभु की दुहाई देंगे, तो वह उनके यहाँ एक मुक्तिदाता भेजेगा, जो उनकी रक्षा और उनका उद्धार करेगा।
21) प्रभु अपने को मिस्रियों पर प्रकट करेगा और मिस्रि उस दिन प्रभु को जान जायेंगे और उसे होम एवं अन्न-बलियाँ अर्पित करेंगे। वे उसके लिए मन्नतें मानेंगे और उन्हें पूरा करेंगे।
22) प्रभु मिस्रयों को कठोर दण्ड देने के बाद उन्हें चंगा करेगा। वे प्रभु की ओर अभिमुख होंगे। वह उनकी प्रार्थना सुनेगा और उन्हें चंगा करेगा।
23) उस दिन मिस्र से अस्सूर तक एक राजमार्ग होगा। अस्सूरवासी मिस्र जायेंगे और मिस्री अस्सूर जायेंगे। दोनों साथ-साथ ईश्वर की उपासना करेंगे।
24) उस दिन मिस्र और अस्सूर के बाद इस्राएल संसार में तीसरा देश होगा।
25) सर्वशक्तिमान् ईश्वर उन्हें यह कहते हुए आशीर्वाद प्रदान करेगा : ''धन्य है मिस्र, मेरी प्रजा! धन्य है अस्सूर, मेरी कृति और धन्य है इस्राएल, मेरी विरासत!''

अध्याय 20

1) जिस वर्ष अस्सूर के राजा सरगोन के भेजे हुए प्रधान सेनापति ने अशदोद आ कर उस पर आक्रमण किया और उसे अपने अधिकार में किया,
2) उस समय प्रभु ने आमोस के पुत्र इसायाह को यह आदेश दिया : ''अपनी कमर से टाट और अपने पैरों से जूते उतारो''। उसने ऐसा किया और वह नंगे बदन और नंगे पैर चलने लगा।
3) प्रभु ने कहा, ''मेरा सेवक इसायाह तीन वर्ष नंगे बदन और नंगे पैर चलता रहा। यह एक चिन्ह है कि मिस्र और कूश के निवासियों पर क्या बीतेगी :
4) अस्सूर का राजा उन सबों को बन्दी बना कर, युवकों और वृद्धों को नंगे बदन, नंगे पैर और नंगे चूतड़ ले जायेगा। यह मिस्र के लिए लज्जा की बात होगी।
5) जो लोग कूश का भरोसा करते थे और मिस्र पर गौरव करते थे, उन्हें हताश और लज्जित होना पड़ेगा।
6) उस दिन समुद्रतट के निवासी यह कहेंगे, ''देखो, उन लोगों के साथ क्या हो रहा है, जिनका हम भरोसा करते थे और अस्सूर के राजा से मुक्ति पाने के लिए जिनकी शरण जाते थे! तो हम कैसे बचेंगे?''

अध्याय 21

1) समुद्र के निकट के उजाड़खण्ड के विषय में दिव्य वाणी। जिस प्रकार नेगेब में बवण्डर उठते हैं, उसी प्रकार उजाड़खण्ड से- भीषण देश से- आक्रामक आ रहा है।
2) मैंने भयानक दृश्य देखा है- विश्वासघात और संहार का दृश्य। ''एलाम! आक्रमण करो। मेदिया! घेरा डालो। मैं सारा विलाप बन्द करता हँू।''
3) अब मेरी कमर में दर्द है, मुझे प्रसूता की तरह पीड़ा हो रही है। मैं इतना दुःखी हूँ कि सुन नहीं सकता; इतना भयभीत हूँ कि देख नहीं सकता।
4) मैं बहुत घबरा गया हँू, मैं डर से काँप रहा हूँ। जो सन्ध्या मुझे इतनी प्रिय थी, वह मेरे लिए आतंक बन गयी।
5) वे मेजें सजाते, दरियाँ बिछाते और खाते-पीते हैं। सामन्तो! उठ कर ढालों पर तेल लगाओ।
6) प्रभु ने मुझ से यह कहा, ''जाओ, पहरेदार नियुकत करो। वह जो देखेगा, तुम को बता देगा।
7) जब वह एक रथ को देखे, जिस में दो घोड़े जुते हों, या गधे पर या ऊँट पर किसी को सवार देखे, तो वह पूरी तरह सावधान रहे।''
8) पहरेदार चिल्ला उठा, ''प्रभु! मैं दिन भर मीनार पर पहरा देता हूँ, मैं रात को अपनी चौकी पर रहता हूँ।
9) देखो, एक व्यक्ति ऐसे रथ पर आ रहा है, जिस में दो घोड़े जुते हैं। वह मुझे सम्बोधित करते हुए कहता हैः ÷बाबुल का पतन हो गया, पतन हो गया! उसकी सभी देवमूर्तियाँ जमीन पर पटक कर तोड़ डाली गयी हैं÷।''
10) मेरी प्रजा! जिसे गेहँू की तरह खलिहान में दाँवा गया है, मैंने तुम को वही बताया, जो मैंने सर्वशक्तिमान् प्रभु से, इस्राएल के ईश्वर से सुना है।
11) दूमा के विषय में दिव्य वाणी। कोई सेईर से पुकार कर मुझ से पूछ रहा है, ''पहरेदार! रात कितनी शेष है? पहरेदार! रात कितनी शेष है?''
12) पहरेदार यह उत्तर देता है, ''सेबेरा हो रहा है, इसके बाद रात फिर आयेगी। यदि तुम चाहोगे, तो फिर लौट कर पूछोगे।''
13) अरब के विषय में भविष्यवाणी। ददान के काफ़िलो, जो अरब के वन में रात बिताने जाते हो!
14) प्यासों के लिए पानी लाओ! तेमा प्रदेश के निवासियों! शरणार्थियों के लिए रोटी लाओ।
15) वे तलवार से भाग रहे हैं। वे खींची हुई तलवार या धनुष से, युद्ध की मारकाट से भाग रहे हैं।
16) प्रभु ने मुझ से यह कहा, ''ठीक एक वर्ष बाद, केदार का सारा वैभव समाप्त हो जायेगा। केदार के योद्धाओं के बहुत थोड़े धनुष रह जायेंगे।'' यह प्रभु, इस्राएल के ईश्वर का कहना है।

अध्याय 22

1) दर्शन-घाटी के विषय में दिव्य दर्शन। तुम लोगों को क्या हो गया है कि तुम सब-के-सब छतों पर चढ़ गये हो?
2) उत्तेजना से भरे नगर! कोलाहल और रंगरलियों के नगर! तुम्हारे मृतक तलवार से नहीं मारे गये, वे युद्ध में खेत नहीं रहे।
3) तुम्हारे सभी सेनापति भाग गये। वे बिना बाण चलाये बन्दी बना लिये गये। वे कितनी ही दूर क्यों न भागे हों, सबों को पकड़ कर बन्दी बना लिया गया।
4) अब मैं कहता हूँ : ''मुझ से दूर रहो, मुझे फूट-फूट कर रोने दो। मुझे अपने नगर के विनाश पर सान्त्वना देने का कष्ट न करो।''
5) सर्वशक्तिमान् प्रभु-ईश्वर ने भगदड़, विनाश और आंतक का दिन निर्धारित किया। दर्शन-घाटी में दीवारें गिरायी जाती हैं और सियोन पर्वत के विरुद्ध रण के नारे लगाये जाते हैं।
6) युद्धरथों और घोड़ों पर सवार हो कर एलाम अपना तरकश उठा रहा है और किर अपनी ढाल निकाल रहा है।
7) तुम्हारी सुन्दर धाटियाँ रथों से भर गयीं और तुम्हारे नगर-फाटकों पर घुड़सवार तैनात हैं।
8) यूदा नितान्त असुरक्षित है। उस दिन तुमने ÷वन-भवन' के शस्त्रागार पर भरोसा रखा।
9) तुमने देखा कि दाऊद के नगर की दीवारों में अनेक दरारें पड़ गयीं। तुमने निचले जलकुण्ड में पानी का संचय किया।
10) तुमने येरुसालेम के भवनों की गिनती की और चारदीवारी की सुदृढ़ बनाने के लिए घर गिरा दिये।
11) तुमने प्राचीन जलकुण्ड के पानी के लिए दीवारों के बीच एक जलाशय का निर्माण किया। किन्तु तुमने उसकी ओर नहीं देखा, जो यह सब सम्पन्न करता है। तुमने उस पर ध्यान नहीं दिया, जिसने बहुत पहले इसकी योजना बनायी।
12) उस दिन सर्वशक्तिमान् प्रभु-ईश्वर तुम से रोने और विलाप करने का, सिर मूँड़ने और टाट पहनने का अनुरोध करता था।
13) किन्तु तुम आनन्द और उत्सव मनाते, बैलों और भेड़ों का वध करते, मांस खाते और अंगूरी पीते थे। तुम कहते थे, ''हम खायें और पियें, कल तो मरना ही है''।
14) सर्वशक्तिमान् प्रभु ने मुझ पर यह प्रकट किया है : ''मरने के दिन तक तुम्हारा यह पाप क्षमा नहीं किया जायेगा''। सर्वशक्तिमान् प्रभु-ईश्वर ने इसकी शपथ खायी है।
15) सर्वशक्तिमान् प्रभु-ईश्वर ने यह कहाः ''महल-प्रबन्धक शेबना के पास जाओ,
16) जो इस पहाड़ी पर अपनी क़ब्र खुदवाता और चट्टान में अपना मक़बरा बनवाता है। उस से कहोः तुम यह क्या कर रहे हो? क्या यहाँ तुम्हारे सम्बन्धी हैं?
17) ''देखो, शक्तिशाली पुरुष! प्रभु तुम को जकड़ कर पकड़ेगा और दूर-दूर फेंक देगा।
18) वह तुम को धागे के गोले की तरह लपेट कर एक विस्तृत प्रदेश मे फेंक देगा, तुम वहाँ मर जाओगे। वहाँ तुम्हारे रथ रह जायेंगे, जिन पर तुम गोरव करते हो। तुम अपने स्वामी के घर के कलंक होगे।
19) मैं तुम को तुम्हारे पद से हटाऊँगा, मैं तुम को तुम्हारे स्थान से निकालूँगा।
20) ''मैं उस दिन हिजकीया के पुत्र एलियाकीम को बुलाऊँगा।
21) मैं उसे तुम्हारा परिधान और तुम्हारा कमरबन्द पहनाऊँगा। मैं उसे तुम्हारा अधिकार प्रदान करूँगा। वह येरुसालेम के निवासियों का तथा यूदा के घराने का पिता हो जायेगा।
22) मैं दाऊद के घराने की कुंजी उसके कन्धे पर रख दूँगा। यदि वह खोलेगा, तो कोई बन्द नहीं कर सकेगा। यदि वह बन्द करेगा, तो कोई नहीं खोल सकेगा।
23) मैं उसे खूँटे की तरह एक ठोस जगह पर गाड़ दूँगा। वह अपने पिता के घर के लिए एक महिमामय सिंहासन बन जायेगा।
24) ''उसके पिता के घराने का अस्तित्व उस पर निर्भर रहेगा- उसकी शाखाएँ, उसकी डालियाँ, बड़े और छोटे पात्रों के साथ घर पर सारा सामान।
25) सर्वशक्तिमान् प्रभु कहता है- उस दिन ठोस जगह पर गाड़ा हुआ खूँटा ढीला हो जायेगा। वह टूट कर पृथ्वी पर गिर जायेगा और उस पर लटकता हुआ सारा भार नष्ट हो जायेगा।'' यह प्रभु की वाणी है।

अध्याय 23

1) तीरुस के विषय में दिव्य वाणी। तरशीश के जहाजो! विलाप करो। तुम्हारा बन्दरगाह और उसके घरों का पूर्ण रूप से विनाश हो गया है। उन को इस बात का पता कुप्रुस के टापू से चला।
2) समुद्रतट के निवासियों! मौन रहो और तुम सीदोन के व्यापारियो! जिनके प्रतिनिधि समुद्र पार करते थे।
3) शिहोर के अनाज और नील नदी की उपज ने तुम्हें, राष्ट्रों के व्यापार-केन्द्र को, सम्पन्न बना दिया है।
4) समुद्री क़िला सीदोनका पतन हो गया है। महासागर विलाप करते हुए कहता है, ''न तो मैंने प्रसव-पीड़ा सही और न जन्म ही दिया। न तो मैंने युवकों का पालन-पोषण किया और न कन्याओं का।''
5) जब मिस्रियों को इसका पता चलेगा, तो वे तीरुस की दशा पर व्यथित हो उठेंगे।
6) समुद्रतट के निवासियों! तरशीश जा कर विलाप करो।
7) क्या यह तुम्हारा वही उत्सवप्रिय नगर है, जिसकी स्थापना प्राचीन काल में हुई थी, जिसने दूर देशों में अपने उपनिवेश बसाये थे?
8) किसने तीरुस के विरुद्ध यह योजना बनायी? वह तो दूसरों को राजमुकुट पहनाता था, उसके सौदागर सामन्त थे, उसके व्यापारियों को पृथ्वी भर का सम्मान प्राप्त था।
9) सर्वशक्तिमान् प्रभु ने यह योजना बनायी, जिससे वह धमण्डियों का अहंकार चूर करे और पृथ्वी के प्रतिष्ठित लोगों को नीचा दिखाये।
10) तरशीश के निवासियो! नील नदी के आसपास की तरह तुम अपनी भूमि में खेती-बारी करो। अब कोई बन्दरगाह नहीं रहा।
11) प्रभु ने समुद्र के विरुद्ध अपना हाथ बढ़ाया और उसके राज्यों को कँपा दिया। उसने कनान को उसके किलों का विनाश करने का आदेश दे दिया।
12) उसने कहा, ''सीदोन की पुत्री! तुम फिर उत्सव नहीं मनाओगी। तुम्हारा शील भंग किया गया है। तुम उठ कर कुप्रुस जाओ, किन्तु तुम को वहाँ भी शान्ति नहीं मिलेगी।''
13) खल्दैयियों के देश को देखो- वह राष्ट्र अब नहीं रहा। अस्सूर ने उसे जंगली पशुओं को दे दिया। उन्होंने वहाँ बुर्ज बनवाये और क़िलाबन्द नगंरों का निर्माण किया था, किन्तु अस्सूर ने यह सब खँडहर का ढेर बना दिया।
14) तरशीश के जहाजो! विलाप करो; क्योंकि तुम्हारा बन्दरगाह ध्वस्त हो गया है।
15) उसदिन तीरुस सत्तर वषोर्ं तक, एक राजा के जीवनकाल में भुला दिया जायेगा। सत्तर वर्षों बाद तीरुस के साथ वही होगा, जो एक गीत में वेश्या के विषय में कहा गया हैः
16) ''भुला दी गयी वेश्या! तुम सितार ले कर नगर की परिक्रमा करो। शक्ति भर बजाते हुए मधुर गीत सुनाओ। सम्भव है कि कोई तुम को याद करे।''
17) सत्तर वर्ष पूरे हो जाने पर प्रभु तीरूस के विषय में हस्तक्षेप करेगा और वह फिर वेश्या की तरह कमाने लगेगा और पृथ्वी भर के राज्यों के साथ अपनी जीविका चलायेगा।
18) किन्तु उसके व्यापार की कमाई भण्डारों मे जमा या संचित नहीं की जायेगी, बल्कि वह प्रभु को अर्पित होगी। उसकी आय उन लोगों के प्रचुर भोजन ओर सुन्दर वस्त्रों पर व्यय होगी, जो प्रभु के सान्निध्य में जीवन बिताते हैं।

अध्याय 24

1) देखो, प्रभु पृथ्वी को उजाड़ कर उसका सर्वनाश कर रहा है। वह उसका तल उलट कर उस पर निवास करने वालों का तितर-बितर कर देगा।
2) याजकों की वही दशा होगी, जो जनता की; जैसा स्वामी के साथ होगा, वैसा दास के साथ; जैसा स्वामिनी के साथ, वैसा दासी के साथ; जैसा बेचने वाले के साथ, वैसा ख़रीदने वाले के साथ; जैसा उधार देने वाले के साथ, वैसा उधार लेने वाले के साथ; जैसा साहूकार के साथ, वैसा कर्जदार के साथ।
3) समस्त पृथ्वी उजड़ जायेगी, वह पूरी तरह लुट जायेगी; प्रभु ने यह निर्णय किया है।
4) पृथ्वी शोक मनाती हुई कुम्हला रही है, समस्त संसार मुरझा रहा है। आकाश और पृथ्वी नष्ट हो रहे हैं।
5) पृथ्वी के निवासियों ने उसे अपपित्र किया है, उन्होंने प्रभु के नियमों का उल्लंधन किया, उसके आदेश का तिरस्कार किया और प्राचीन विधान को रद्द कर दिया है।
6) इसलिए अभिशाप पृथ्वी का विनाश कर रहा है और उसके निवासियों को पापों का फल भोगना पड़ेगा। इसलिए पृथ्वी के निवासी समाप्त हो रहे हैं- थोड़े ही लोग शेष रहे हैं।
7) नयी अंगूरी सूख रही है, दाखलता कुम्हला रही है। आनन्द मनाने वाले आह भर रहे हैं।
8) डफली की हर्षध्वनि बन्द हो गयी है, उत्सव मनाने वालों को कोलाहल मौन हो गया है, सितार का हर्षनाद नहीं सुनाई देता है।
9) अब वे न तो गाते हैं और न अंगूरी पीते हैं। तीखी मदिरा उन्हें कड़वी लगने लगी है।
10) नगर उजाड़ पड़ा है; हर घर का द्वार बन्द हो गया है।
11) लोग गलियों में अंगूरी के लिए चिल्लाते हैं, हर प्रकार का आनन्द शोक में बदल गया है। पृथ्वी पर सभी आमोद-प्रमोद समाप्त हैं।
12) नगर उजाड़ पड़ा हुआ है, उसका फाटक टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया है।
13) पृथ्वी के रष्ट्रों की वही दशा होगी, जो फ़सल के बाद जैतून के फलों की होती है या अंगूर तोड़ने के बाद दाखबारी की।
14) ये बचे हुए लोग ऊँचे स्वर में प्रभु की महिमा का जयकार करते हैं। वे पश्चिम में उल्लास के गीत गाते हैं:
15) पूर्व में प्रभु का स्तुतिगान करो, समुद्र के द्वीप-समूह में इस्राएल के प्रभु-ईश्वर के नाम की महिमा गाओ।
16) पृथ्वी के सीमांतों से हमें न्यायप्रिय ईश्वर का स्तुतिगान सुनाई पड़ता है। किन्तु मैं कहता हूँ: ''हाय, मैं छीजता जा रहा हूँ। मैं शोक से घुल रहा हूँ। विश्वासधाती सक्रिय हैं- वे विश्वासघात-पर-विश्वासघात करते जाते हैं।''
17) पृथ्वी के निवासियों! तुम्हारे भाग्य में आतंक, गर्त्त और फन्दा है।
18) जो आतंक का स्वर सुनते ही भागेगा, वह गर्त्त में गिरेगा और जो गर्त्त से बाहर निकलेगा, वह फन्दे में फँसेगा; क्योंकि आकाश के बाढ़ वाले द्वार खुल गये और पृथ्वी की नींव हिल रही है।
19) पृथ्वी टूट गयी है, वह पूरी तरह फट गयी है। वह थरथर काँप रही है।
20) धरती शराबी की तरह लड़खड़ा रही है। वह आँधी में झोपड़ी की तरह हिल रही है। उसके पाप का बोझ इतना भारी है कि वह गिर रही है और अब फिर नहीं उठेगी।
21) उस दिन प्रभु आकाश के नक्षत्रों को और पृथ्वी के राजाओं को दण्ड देगा।
22) वे गर्त्त में एकत्रित किये जायेंगे, वे बन्दीगृह में बन्द किये जायेंगे, और उन्हें बहुत समय बाद दण्ड दिया जायेगा।
23) चन्द्रमा को नीचा दिखाया जोयगा और सूर्य को लज्जित होना पड़ेगा। सर्वशक्तिमान् प्रभु सियोन पर्वत पर, येरुसालेम के नेताओं के सामने महिमान्वित हो कर राज्य करेगा।

अध्याय 25

1) प्रभु! तू ही मेरा ईश्वर है। मैं तेरी महिमा और तेरे नाम की स्तुति करूँगा; क्योंकि तूने निष्ठापूर्वक अपनी प्राचीन प्रतिज्ञाओं के अनुसार चमत्कारपूर्ण कार्य सम्पन्न किये हैं।
2) तूने नगर को मलवे का ढेर और किलाबन्द स्थान को खँडहर बना दिया। विदेशियों का क़िला अब नगर नहीं रहा, उसका फिर कभी पुनर्निर्माण नहीं होगा।
3) इसलिए वह शक्तिशाली राज्य तेरी स्तुति करेगा, अत्याचारी राष्ट्रों का नगर तेरा सम्मान करेगा।
4) तू दुर्बल की चारदीवारी है, विपत्ति में दरिद्र का सहारा, आँधी-पानी से रक्षा-स्थान अैर तेज धूप से बचने की छाया; क्योंकि अत्याचारियों का गर्जन दीवार से टकराने वाली आँधी और सूखी भूमि पर तेज धूप-जैसा था।
5) जिस तरह बादल की छाया गरमी को मन्द करती है, उसी तरह तू बर्बर जातियों का कोलाहल शान्त कर देता है। तू निरंकुश शासकों के विजय-गीत पर रोक लगाता है।
6) विश्वमण्डल का प्रभु इस प्रर्वत पर सब राष्ट्रों के लिए एक भोज का प्रबन्ध करेगाः उस में रसदार मांस परोसा जायेगा और पुरानी तथा बढ़िया अंगूरी।
7) वह इस पर्वत पर से सब लोगों तथा सब राष्ट्रों के लिए कफ़न और शोक के वस्त्र हटा देगा,
8) वह सदा के लिए मृत्यु समाप्त करेगा। प्रभु-ईश्वर सबों के मुख से आँसू पोंछ डालेगा। वह समस्त पृथ्वी पर से अपनी प्रजा का कलंक दूर कर देगा। प्रभु ने यह कहा है।
9) उस दिन लोग कहेंगे - ''देखो! यही हमारा ईश्वर है। इसका भरोसा था। यह हमारा उद्धार करता है। यही प्रभु है, इसी पर भरोसा था। हम उल्लसित हो कर आनन्द मनायें, क्योंकि यह हमें मुक्ति प्रदान करता है।''
10) इस पर्वत पर प्रभु का हाथ बना रहेगा, किन्तु जिस तरह तिनके खाद के ढेर में रौंदे जाते हैं, उसी तरह मोआब प्रभु द्वारा रौंदा जायेगा।
11) जिस तरह डूबने वाला हाथ-पैर मारता है, उसी तरह मोआब अपनी बाँहें हिलायेगा, किन्तु प्रभु घमण्डी मोआब को नीचा दिखायेगा। और उसके हर प्रयत्न को निष्फल कर देगा।
12) वह तुम्हारी चारदीवारीके ऊँचे किलों को गिरा कर मिट्टी में मिला देगा।

अध्याय 26

1) उस दिन यूदा देश में यह गीत गाया जायेगाः हमारा नगर सुदृढ़ है। प्रभु ने हमारी रक्षा के लिए प्राचीर और चारदीवारी बनायी है।
2) फाटकों को खोल दो- सद्धर्धी और विश्वासी राष्ट्र प्रवेश करें।
3) तू दृढ़तापूर्वक शान्ति बनाये रखता हैं, क्योंकि इस राष्ट्र को तुझ पर भरोसा है।
4) प्रभु पर सदा भरोसा रखो, क्योंकि वही चिरस्थायी चट्टान है।
5) वह ऊँचाई पर निवास करने वालों को नीचा दिखाता है। वह उनका दुर्गम गढ़ तोड़ कर गिराता और धूल में मिला देता है।
6) अब दीन-हीन और दरिद्र उसे पैरों तले रौंदेंगे।
7) धर्मी का मार्ग समतल है। तू धर्मी का पथ बराबर करता है।
8) प्रभु! हम भी तेरे नियमों के मार्ग पर चलते हुए तुझ पर भरोसा रखते हैं। हम तेरे नाम की स्तुति करना चाहते हैं।
9) मैं रात को तेरे लिए तरसता हूँ। मैं अपनी सारी आत्मा से तुझे खोजता रहता हूँ। जब पृथ्वी पर तेरे नियमों का पालन होता है, तब उसके निवासियों को पता चलता है कि न्याय क्या है।
10) यदि दुष्ट पर दया की जाती है, तो वह धार्मिक नहीं बनता। जहाँ धार्मिकता का राज्य है, वहाँ वह अधर्म करता जाता है और प्रभु की महिमा का ध्यान नहीं रखता।
11) प्रभु! वे तेरा उठा हुआ हाथ नहीं देखते, किन्तु वे तेरी प्रजा के लिए तेरा उत्साह अवश्य देखेंगे और उन्हें लज्जित होना पड़ेगा, जब वे तेरे शत्रुओं के लिए जलायी अग्नि में भस्म हो जायेंगे।
12) प्रभु! तू ही हमें शान्ति प्रदान करता और हमारे सभी कार्यों में हमें सफलता दिलाता है।
13) हमारे प्रभु ईश्वर! तेरे सिवा अन्य राजाओं ने हम पर शासन किया, किन्तु हम तेरे ही नाम का स्मरण करते हैं।
14) जो मर गये हैं, उन्हें फिर जीवन प्राप्त नहीं होगा; जो चले गये हैं, वे फिर नहीं दिखाई देंगे। तूने उनका विनाश किया और उनका नाम तक मिटा दिया है।
15) प्रभु! तूने अपनी प्रजा को महान् बना दिया है, तूने अपने नाम के कारण उसे महान् बना दिया है। तूने उसका अधिकार-क्षेत्र चारों ओर बढ़ा दिया है।
16) प्रभु! तेरी प्रजा संकट में तेरी शरण आती है। जब तू उसे दण्ड देता है, तो वह तेरी दुहाई देती है।
17) प्रभु! हम तेरे सामने उस गर्भवती स्त्री के सदृश थे, जो प्रसव के समय तड़पती है और अपनी पीड़ा में चिल्लाती है।
18) हम गर्भवति की तरह पीड़ा से तड़पते थे, किन्तु हमने वायु प्रसव की। हमने देश का उद्वार नहीं किया और पृथ्वी पर नेय निवासियों का जन्म नहीं हुआ।
19) किन्तु तेरे मृतक फिर जीवित होंगे, उनके शरीर फिर खड़े हो जायेंगे। तुम, जो मिट्टी में सो रहे हो, जाग कर आनन्द के गीत गाओगे; क्योंकि तेरी ओस ज्योतिर्मय है और पृथ्वी मृतकों को पुनर्जीवित कर देगी।
20) मेरी प्रजा! अपने यहाँ जाओ और अपने द्वार के दोनों पल्ले बन्द कर लो। जब तक क्रोध शान्त न हो, थोड़े समय तक छिपे रहो;
21) क्योंकि प्रभु अपने यहाँ से आ रहा है और पृथ्वी के निवासियों को उनके कुकर्मों का दण्ड देगा। पृथ्वी बहाया हुआ रक्त प्रकट करेगी, वह किसी का वध छिपाये नहीं रखेगी।

अध्याय 27

1) उस दिन प्रभु अपनी भीषण, विशाल और शक्तिशाली तलवार से भागने वाले कुण्डलित लिव्यातान को दण्डित करेगा। वह महासागर के पंखदार सर्प का वध करेगा।
2) उस दिन तुम रमणीय दाखबारी का गीत गाओगेः
3) ''मैं प्रभु, उसका रखवाला हूँ। मैं उसे हर समय सींचता हूँ। मैं दिन-रात उसकी रक्षा करता हूँ, जिससे कोई व्यक्ति उसकी हानि न करे।
4) मेरा क्रोध शान्त हो गया है। यदि मुझे उस में झाड़-झंखाड़ मिलेगा, तो मैं उसके विरुद्ध अभियान करूँगा और उसे भस्म कर दूँगा।
5) किन्तु जो मेरी शरण आयेगा, वह मुझ से मेल-मिलाप करेगा, वह मुझ में शन्ति पायेगा।''
6) याकूब भविष्य में जड़ पकड़ेगा, इस्राएल फलेगा-फूलेगा और पृथ्वी को अपने फलों से भर देगा।
7) क्या प्रभु ने इस्राएल को उतना दण्ड दिया, जितना उसने उन लागों को दण्ड दिया, जिन्होंने इस्राएलियों पर अत्याचार किया था? क्या प्रभु ने इस्राएलियों का इस प्रकार वध किया, जिस तरह उसने उन लोगों का वध किया, जिन्होंने इस्राएलियों का वध किया था?
8) उसने इस्राएल के शत्रुओं को हाँक का निकाल दिया; प्रभु ने प्रचण्ड पूर्वी आँधी की तरह अपने श्वास से उन्हें भगा दिया।
9) इस प्रकार याकूब के अपराध का प्रायश्चित किया जायेगा और उसके पाप का परिणाम मिटाया जायेगा। वह चूना बनाने के पत्थरों की तरह उसकी वेदियों के सभी पत्थर चूर-चूर करेगा। न तो अशेरा-देवी का कोई स्तम्भ रहेगा और न कोई धूप-वेदी।
10) किलाबन्द नगर उजाड़ पड़ा रहेगा। निर्जनस्थान की तरह उस में कोई आबादी नहीं होगी। गाय-बैल उस में चरेंगे, विश्राम करेंगे और हरियाली खा जायेंगे।
11) उसकी डालियाँ सूखेंगी और तोड़ ली जायेंगी, तब स्त्रियाँ आ कर उन्हें जलायेंगी। उस राष्ट्र में विवेक नहीं है, इसलिए उसका निर्माता उस पर दया नहीं करता, उसका सृष्टिकर्ता उस पर तरस नहीं खाता।
12) उस दिन प्रभु फ़रात नदी से मिस्र के नाले तक अनाज की दँवरी करेगा और तुम इस्राएलियों! सब-के-सब एकत्र किये जाओगे।
13) उस दिन एक बड़ी तुरही बजायी जायेगीः जो इस्राएली अस्सूर में खो गये और मिस्र में निर्वासित किये गये थे, वे येरुसालेम लौट कर पवित्र पर्वत पर प्रभु की आराधना करेंगे।

अध्याय 28

1) एफ्रईम के शराबियों के गर्वीले मुकुट को धिक्कार और उसके अलंकृत वस्त्रों के मुरझाये हुए फूलों को! तुम उस उपजाऊ घाटी के शिखर पर मदिरा से मत्त होकर लड़खड़ाते हो।
2) देखो! प्रभु का एक बलशाली शूरवीर आ रहा है। वह ओलों की वर्षा, विनाशक तूफ़ान, प्रलय ले आने वाली आँधी - सब कुछ बलपूर्वक भूमि पर पटकेगा।
3) एफ्रईम के शराबियों का गर्वीला मुकुट भूमि पर रौंदा जायेगा।
4) उपजाऊ घाटी के शिखर पर उनके अलंकृत वस्त्रों के मुरझाये हुए फूलों के साथ ऐसा ही होगा, जैसा समय से पहले पके अंगूर के साथ होता है। जो उसे देखता है, वह उसे तोड़ कर खा जाता है।
5) उस दिन सर्वशक्तिमान् प्रभु अपनी अवशिष्ट प्रजा के लिए एक महिमामय किरीट और सुन्दरमाला होगा।
6) वह न्यायकर्ताओं के लिए न्याय का स्रोत होगा और शत्रुओं से नगर की रक्षा करने वालों के लिए वीरता का।
7) याजक और नबी भी अंगूरी पी कर मत्त हैं। वे मद्यपान के कारण झूम रहे हैं। वे सब-के-सब लड़खड़ाते हैं; उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है। वे अद्भुत दृश्य देख कर भटकते हैं और निर्णय सुनाते समय लड़खड़ाते हैं।
8) मेजें घृणित वमन से भरी हैं, कोई जगह गन्दगी से ख़ाली नहीं ।
9) ''वह किस को सिखाने चला? वह किसे अपना सन्देश सुनाना चाहता है? क्या दूध-छुडाये बच्चों को, जिन्होंने अभी-अभी स्तनपान छोड़ा है?
10) क्योंकि वह कहता है : 'आदेश-पर-आदेश, आदेश-पर-आदेश, नियम-पर-नियम, नियम-पर-नियम, इधर कुछ, उधर कुछ'।''
11) प्रभु निश्चय ही विदेशियों की एक अपरिचित भाषा द्वारा इस राष्ट्र को सम्बोधित करेगा।
12) उसने उनसे कहा था, ''यही विश्वास का स्थान है। थके-माँदे लोग यहाँ विश्राम करें। यहाँ शान्ति प्राप्त होगी।'' किन्तु वे सुनना नहीं चाहते थे।
13) इसलिए प्रभु उन से यह कहेगा : ''आदेश-पर-आदेश, आदेश-पर-आदेश, नियम-पर-नियम, नियम-पर-नियम, इधर-कुछ, उधर-कुछ'', जिससे वे पीछे हट कर गिर जायेंगे, घायल हो जायेंगे, जाल मे फँस कर पकड़ लिये जायेंगे।
14) इसलिए निन्दको! जो येरुसालेम में इन लोगों पर शासन करते हो, तुम प्रभु का सन्देश सुनो।
15) तुम कहते हो, ''हमने मृत्यु के साथ समझौता कर लिया और अधोलोक के साथ सन्धि कर ली है। जब-जब महाविपत्ति टूट पड़ेगी, तो वह हम लोगों तक नहीं आ पायेगी; क्योंकि हमने झूठ को अपना आश्रय और कपट को अपना शरणस्थान बना लिया है।''
16) फिर भी प्रभु-ईश्वर यह कहता हैः ''देखो, मैं सियोन में सुदृढ़ नींव के रूप में कसौटी पर कसे हुए बहुमूल्य कोने का पत्थर रखता हूँ। जो इस पर भरोसा रखता है, वह कभी निराश नहीं होगा।
17) न्याय मेरा मापदण्ड़ होगा और सद्धर्म मेरा साहुल। ओले की वर्षा झूठ के आश्रय को बहा देगी और जलधारा तुम्हारे शरणस्थान को।
18) मृत्यु के साथ तुम्हारा समझौता टूट जायेगा और अधोलोक के साथ तुम्हारी सन्धि नहीं टिकेगी। जब विपत्ति तुम पर टूट पड़ेगी, तो तुम उस में बह जाओगे।
19) जब-जब वह आ पड़ेगी, तो वह तुम को डुबा कर ले जायेगी। वह हर सुबह, दिन-रात आती रहेगी।'' जब लोग यह सन्देश समझेंगे, तो वे आतंक से भर जायेंगे।
20) पलंग इतना लम्बा नहीं होगा कि तुम पैर फैला कर सो सको। चादर इतनी छोटी होगी कि वह तुम्हारा शरीर नहीं ढक सकेगी।
21) प्रभु उठ कर खड़ा हो जायेगा, जैसा कि उसने परासीम पर्वत पर किया था। वह क्रोध के आवेश में उठेगा, जैसा कि उसने गिबओन की घाटी में किया था।
22) वह अपना अद्भुत कार्य पूरा करेगा, वह अपनी अलौकिक योजना सम्पन्न करेगा।
23) अब तुम उपहास करना छोड़ दो, नहीं तो तुम्हारी बेड़ियाँ और कस दी जायेंगी; क्योंकि मुझे प्रभु की ओर से पता चला कि उसने तुम्हारे देश के विनाश का आदेश दिया है।
24) मेरी बात अच्छी तरह सुनो, मेरे शब्दों पर ध्यान दो।
25) क्या किसान हर समय हल चलाता और हेंगा फेरता रहता है? क्या वह जमीन बराबर करने के बाद उस में सौंफ़ और जीरा नहीं लगाता है? क्या वह उनकी अपनी-अपनी जगह पर गेहूँ, जौ और बाजरा नहीं बोता और किनारे पर घटिया अनाज?
26) उसे यह शिक्षा ईश्वर से प्राप्त है, जो उसे काम का सही ढंग सिखाता है।
27) सौंफ की दँवरी पुशुओं से नहीं की जाती और जीरे पर गाड़ी का पहिया नहीं चलाया जाता है, बल्कि सौंफ़ छड़ी से और जीरा सोंटे से झाड़ा जाता है।
28) रोटी बनाने के लिए गेहँू पीसा जाता है, इसलिए लोग देर तक उसकी दँवरी नहीं करते। जो पशुओं से उसकी दँवरी करते हैं, वे इसका ध्यान रखते हैं कि वह रौंदा नहीं जाये।
29) अपूर्व परामर्शदाता और अत्यन्त कार्यकुशल सर्वशक्तिमान् प्रभु की प्रेरणा से किसान को यह शिक्षा प्राप्त है।

अध्याय 29

1) अरीएल, अरीएल! तुम को धिक्कार! दाऊद ने इस नगर में अपना तम्बू खड़ा किया था। एक वर्ष पर दूसरा वर्ष बीतने दो, उत्सवों का चक्र चलते रहने दो;
2) किन्तु मैं अरीएल की महान् कष्ट दूँगा, वह शोक मनाते हुए विलाप करेगा और मेरे लिए सचमुच अरीएल (अग्निकुण्ड) - जैसा होगा।
3) मैं तुम्हारे चारों ओर घेरा डालूँगा, खाई खोदूँगा और तुम्हारे विरुद्ध मोरचाबन्दी करूँगा।
4) तुम जमीन पर पटक दिये जाओगे। तुम्हारी धीमी आवाज धूल में से सुनाई देगी। तुम्हारी वाणी धरती से प्रेत की तरह निकलेगी। वह मिट्टी के भीतर से कराह-जैसी लगेगी।
5) किन्तु तुम्हारे बहुसंख्यक शत्रु चूर-चूर कर दिये जायेंगे, तुम्हारे असंख्य अत्याचारी छितरायी हुई भूसी-जैसे होंगे। सर्वशक्तिमान् प्रभु अचानक, अप्रत्यक्ष रूप से
6) तुम्हारे पक्ष में हस्तक्षेप करेगा- मेधगर्जन, भूकम्प, भीषण निनाद, बवण्ड्र आँधी और भस्मकारी अग्नि-ज्वाला से।
7) तब अरीएल के विरुद्ध लड़ने वाले असंख्य राष्ट्र, उसका घेरा डालने वाले अपने अस्त्र-शस्त्रों के साथ, सब-के-सब स्वप्न, रात में देखे हुए दृश्य की तरह लुप्त हो जायेंगे।
8) तब सियोन पर्वत के विरुद्ध लड़ने वाले असंख्य राष्ट्रों के साथ वैसा ही होगा, जैसा भूखे के साथ होता है, जो स्वप्न में भोजन कर रहा है, किन्तु जागने पर भूखा रह जाता है। या जैसा प्यासे के साथ होता है, जो स्वप्न में पी रहा है, किन्तु जागने पर उसे मूर्च्छा आती है, क्योंकि उसकी प्यास नहीं बुझी।
9) चकित और स्तम्भित हो जाओ, अन्धे बनो और ऐसे ही रहो; मस्त बनो, किन्तु अंगूरी पी कर नहीं; लड़खड़ाओ, किन्तु मदिरा पी कर नहीं;
10) क्योंकि प्रभु ने तुम को सम्मोहित किया है; उसने तुम्हारी आँखों को-नबियों को-अन्धा बनाया है; उसने तुम्हारे सिरों पर-तुम्हारे दृष्टाओं पर-परदा डाला है।
11) इन सभी बातों का सन्देश तुम्हारे लिए मुहरबन्द ग्रन्थ के शब्दों-जैसा है। यदि वह किसी व्यक्ति को पढ़ने के लिए दिया जाये, जो कि पढ़ सकता है, तो वह उत्तर देता है, ''मैं उसे पढ़ नहीं सकता, क्योंकि वह मुहरबन्द है''।
12) यदि वह किसी को पढ़ने के लिए दिया जाये, जो नहीं पढ़ सकता, तो वह उत्तर देता है, ''मैं पढ़ नहीं सकता''।
13) प्रभु कहता है, ''ये लोग केवल शब्दों द्वारा मेरे पास आते हैं। इनके होंठ मेरी महिमा करते हैं, किन्तु इनका हृदय मुझ से दूर है। ये दूसरों के ओदेश से मुझ पर श्रद्धा रखते हैं, इनकी भक्ति रटायी हुई शिक्षा है।
14) इसलिए मैं फिर इन्हें चमत्कार-पर-चमत्कार दिखाऊँगा। मैं इनके ज्ञानियों का ज्ञान व्यर्थ कर दूँगा।'' इनके समझदारों की समझ लुप्त हो जायेगी।''
15) धिक्कार उन लोगों को, जो प्रभु से अपनी योजनाएँ छिपाते हैं! वे अँधेरे में षड्यन्त्र रचते हुए कहते हैं, ''हमें कौन देखता है? हम पर कौन ध्यान देता है?''
16) वे ग़लत समझते हैं। क्या मिट्टी कुम्हार के बराबर है? क्या कृति अपने निर्माता से यह कहेगी कि तुमने मुझे नहीं बनाया? क्या पात्र कुम्हारे से यह कहेगा कि वह कुछ नहीं जानता?
17) थोड़े ही समय बाद लोबानोन फलवाटिका में बदल जायेगा और फलवाटिका जंगल बन जायेगी।
18) उस दिन बहरे ग्रन्थ का पाठ सुनेंगे और अन्धे देखने लगेंगे; क्योंकि उनकी आँखों से धँुधलापन और अन्धकार दूर हो जायेगा।
19) दीन-हीन प्रभु मे आनन्द मनायेंगे और जो सबसे अधिक दरिद्र हैं, वे इस्राएल के परमपावन ईश्वर की कुपा से उल्लसित हो उठेंगे;
20) क्योंकि अत्याचारी नहीं रह जायेगा, घमण्डियों का अस्तित्व मिटेगा और उन कुकर्मियों का बिनाश होगा,
21) जो दूसरों पर अभियोग लगाते हैं, जो कचहरी के न्यायकर्ताओं को प्रलोभन देते और बेईमानी से धर्मियों को अधिकारों से वंचित करते हैं।
22) इसलिए प्रभु, याकूब के वंश का ईश्वर, इब्राहीम का उद्वारकर्ता, यह कहता है : ''अब से याकूब को फिर कभी निराशा नहीं होगी; उसका मुख कभी निस्तेज नहीं होगा;
23) क्योंकि वह देखेगा कि मैंने उसके बीच, उसकी सन्तति के साथ क्या किया है और वह मेरा नाम धन्य कहेगा।'' लोग याकूब के परमपावन प्रभु को धन्य कहेंगे और इस्राएल के ईश्वर पर श्रद्धा रखेंगे।
24) भटकने वालों में सद्बुद्वि आयेगी ओर विद्रोही शिक्षा स्वीकार करेंगे।

अध्याय 30

1) प्रभु कह कहता है : ''घिक्कार उन विद्रोही पुत्रों को! वे ऐसी योजनाएँ बनाते हैं, जो मेरे अनुकूल नहीं है! वे ऐसी सन्धियाँ करते हैं, जो मुझ से प्रेरित नहीं हैं और पाप-पर-पाप करते जाते हैं।
2) वे मुझ से परामर्श लिये बिना सहायता के लिए मिस्र जाते हैं। वे फ़िराउन के क़िले में सुरक्षा चाहते हैं। वे मिस्र की छत्रछाया की शरण लेते हैं।
3) फ़िराऊन की शरण तुम्हारे लिए लज्जा का कारण बनेगी। मिस्र की सुरक्षा तुम को निराश करेगी।
4) तुम्हारे प्रतिनिधि सोअन आ गये हैं। तुम्हारे राजदूत हानेस पहुँच चुके हैं।
5) उन्हें लज्जित होना पड़ेगा, क्योंकि उस राष्ट्र की आशा व्यर्थ है। लज्जा और कलंक के अतिरिक्त उस से कोई सहायता या कोई लाभ नहीं होगा।''
6) नेगेब के पशुओं के विषय में। राजदूत आतंक और संकट का देश पार करते हैं, जहाँ सिंह, सिंहनियाँ, नाग और पंखदार सर्प पाये जाते हैं। वे अपनी सम्पत्ति गधों पर और अपना ख़जाना ऊँटों के कोहान पर लाद कर उस देश ले जाते हैं, जिस से कोई लाभ नहीं होगा।
7) वे मिस्र जा चुके हैं, जिसकी सहायता व्यर्थ है। इसलिए मैं उस देश को निश्चल रहब का नाम देता हूँ।
8) तुम जा कर यह सन्देश उनके सामने एक तख्ती पर दो बार लिख दो। यह भविष्य में उनके लिए चिरस्थायी साक्ष्य हो।
9) यह एक विद्रोही प्रजा है; ये कपटपूर्ण पुत्र हैं, जो प्रभु की शिक्षा सुनना नहीं चाहते।
10) वे दृष्टाओं से कहते हैं, ''हमें तुम्हारे दिव्य दृश्यों से क्या?'' और नबियों से कहते हैं, ''सत्य के विषय में हम से कुछ नहीं कहो, हमें सुखद बातें बताओ, हमें काल्पनिक भविष्यवाणी सुनाओ।
11) इस मार्ग का त्याग कर दो, इस पथ से दूर हो जाओ। इस्राएल के परमपावन प्रभु के विषय में हम से और कुछ नहीं कहो।''
12) इस्राएल का परमपावन प्रभु यह कहता है, ''तुमने मेरा सन्देश अस्वीकार किया, तुमने अत्याचार का भरोसा किया और छल-कपट का सहारा लिया।
13) इसलिए अपने इस पाप के कारण तुम ऊँची दीवारी में ढीले पत्थर-जैसे बन गये हो, जो अचानक धड़ाम से गिर जाता
14) और कुम्हार के घड़े की तरह इस तरह टुकड़े-टुकड़े हो जाता है कि उस में से एक भी टुकड़ा ऐसा नहीं, जिस से चूल्हे से आग या हौज से पानी निकाला जा सके।''
15) इस्राएल का परमपावन प्रभु-ईश्वर यह कहता है, ''पश्चात्तप और स्वीकृति में तुम्हारा कल्याण है, तुम्हारा बल शन्ति और भरोसे में है, किन्तु तुम यह नहीं चाहते हो।
16) तुम कहते हो, ÷हम घोड़े पर सवार हो कर भागेंगे', किन्तु तुम नहीं भाग पाओगे। ÷हम दु्रतगामी रथों पर चढ़ेंगे', किन्तु तुम्हारा पीछा करने वाले भी द्रुतगामी होंगे।
17) एक के डराने पर हजारों भाग जायेंगे, पाँच के डराने पर तुम सभी भाग जाओगे। तुम में जो शेष रहेगा, वह पहाड़ की चोटी पर गाढ़ी गयी पताका, पहाड़ी पर एकाकी झण्डे-जैसा होगा।''
18) फिर भी प्रभु तुम पर कृपा दिखाना चाहता है। वह तुम पर तरस खाने के लिए उठ खड़ा हो रहा है; क्योंकि प्रभु न्यायप्रिय प्रभु है। धन्य हैं वे, जो उसका भरोसा करते हैं!
19) येरुसालेम में रहने वाली सियोन की प्रजा! अब से तुम लोगों को रोना नहीं पड़ेगा। प्रभु तुम पर अवश्य दया करेगा, वह तुम्हारी दुहाई सुनते ही तुम्हारी सहायता करेगा।
20) प्रभु ने तुम्हें विपत्ति की रोटी खिलायी और दुःख का जल पिलाया है; किन्तु अब तुम्हें शिक्षा प्रदान करने वाला प्रभु अदृश्य नहीं रहेगा- तुम अपनी आँखों से उसके दर्शन करोगे।
21) यदि तुम सन्मार्ग से दायें या बायें भटक जाओगे, तो तुम पीछे से यह वाणी अपने कानों से सुनोगे-''सच्चा मार्ग यह है; इसी पर चलते रहो''।
22) तुम चाँदी से मढ़ी हुई अपने द्वारा गढ़ी गयी प्रतिमाओं को और सोने से मढ़ी हुई अपनी देवमूर्तियों को अपवित्र मानोगे। तुम उन्हें दूषित समझ कर फेंक दोगे और कहोगे ''उन्हें यहाँ से निकाल दो''।
23) प्रभु तुम्हारे बोये हुये बीजों को वर्षा प्रदान करेगा और तुम अपने खेतों की भरपूर उपज से पुष्टिदायक रोटी खाओगे। उस दिन तुम्हारे चौपाये विशाल चारागाहों में चरेंगे।
24) खेत में काम करने वाले बैल और गधे, सूप और डलिया से फटकी हुई, नमक मिली हुई भूसी खयेंगे।
25) महावध के दिन, जब गढ़ तोड़ दिये जायेंगे, तो हर एक उत्तुंग पर्वत और हर एक ऊँची पहाड़ी से उमड़ती हुई जलधाराएँ फूट निकलेंगी।
26) जिस दिन प्रभु अपनी प्रजा के टूटे हुए अंगों पर पट्टी बाँधेगा और उसकी चोटों के घावों को चंगा करेगा, उस दिन चन्द्रमा का प्रकाश सूर्य की तरह होगा और सूर्य का प्रकाश- सात दिनों के सम्मिलित प्रकाश के सदृश-सतगुना प्रचण्ड हो उठेगा।
27) देखो, प्रभु का नाम दूर से आ रहा है। उसका प्रज्ज्वलित क्रोध सर्वनाशक है। उसके होंठ क्रोध से फड़क रहे हैं। उसकी जिह्वा भस्मकारी अग्नि-जैसी है।
28) उसकी साँस उमड़ती हुई जलधारा-जैसी है, जो गले तक पहुँच जाती है। वह विनाश की छलनी से राष्ट्रों को छान रहा है। और राष्ट्रों के जबड़ों में ऐसी लगाम लगा रहा है, जो उन्हें बहका रही है।
29) तब पर्व की रात की तरह तुम्हारे यहाँ गीत गाये जायेंगे। तुम्हारा हृदय उस समय की तरह आनन्दित होगा, जब लोग बाँसुरी बजाते हुए प्रभु के पर्वत, इस्राएल की चट्टान की तीर्थयात्रा करते हैं।
30) प्रभु अपनी तेजस्वी वाणी से लागों को सम्बोधित करेगा। वह प्रचण्ड क्रोध, भस्मकारी आग, मेघगर्जन, तूफ़ान और ओलों की वर्षा में उन्हें मारने को उद्यत अपनी भुजा दिखायेगा।
31) प्रभु की वाणी अस्सूर को आतंकित करेगी और वह उसे अपने राजदण्ड से मारेगा।
32) प्रभु के हर प्रहार के साथ-साथ डफ और सितार का संगीत सुनाई देगा। वह अपनी भुजा से प्रहार करते हुए उसके विरुद्ध लड़ता रहेगा।
33) बहुत पहले से राजा के लिए चिता तैयार की गयी है। अग्निकुण्ड गहरा और चौड़ा है और उस में जलाने के लिए बहुत ईन्धन रखा गया है। प्रभु की साँस उसे गन्धक की धारा की तरह सुलगा रही है।

अध्याय 31

1) उन लोगों को धिक्कार, जो सहायता के लिए मिस्र जाते और अपने घोड़ों का भरोसा करते हैं; जो अपने रथों की बड़ी संख्या पर और अपने घुडसवारों पर निर्भर रहते हैं, किन्तु इस्राएल के परमपावन की ओर नहीं देखते और प्रभु की सहायता नहीं चाहते !
2) किन्तु प्रभु प्रज्ञासम्पन्न है। वह विपत्ति ढाने में समर्थ है और अपने शब्द वापस नहीं लेता। वह दुष्टों के दल के विरुद्ध उठ खड़ा होता है और उन कुकर्मियों के विरुद्ध जिन से सहायता माँगी जाती है।
3) मिस्री मात्र मनुष्य हैं, ईश्वर नहीं; उनके घोड़े हाड़-मांस के हैं, आत्मा नहीं। जब प्रभु अपना हाथ उठायेगा, तो सहायक ठोकर खायेगा और सहायता पाने वाला गिर जायेगा; दोनों साथ-साथ नष्ट हो जायेंगे।
4) प्रभु ने मुझ से यह कहा, ''जिस तरह सिंह या सिंह-शावक अपने शिकार को दबोच कर गुर्राता है और चरवाहों का पूरा दल उसके विरुद्ध एकत्र होने पर उनके चिल्लाने से नहीं डरता और उनके कोलाहल से नहीं घबराता, इसी तरह सर्वशक्तिमान् उतरेगा और सियोन पर्वत के शिखर पर युद्ध करेगा।
5) जिस तरह पक्षी अपने घोंसले के ऊपर मँडराते हुए अपने बच्चों की रक्षा करते हैं, उसी तरह प्रभु येरुसालेम की रक्षा करेगा। वह उसकी रक्षा कर उसका उद्धार करेगा; वह उसे बचा कर उसे मुक्त करेगा।''
6) इस्रालियो! तुमने जिस से भारी विद्रोह किया, उसकी ओर अभिमुख हो जाओ।
7) उस दिन तुम सभी चाँदी और सोने की वे देवमूर्तियाँ फेंक दोगे, जिन्हें तुम्हारे पापी हाथों ने बनाया है।
8) ''अस्सूरी एक ऐसी तलवार के घाट उतारे जायेंगे, जो मनुष्य की नहीं होगी। एक ऐसी तलवार उन्हें निगल जायेगी, जो मनुष्य की नहीं होगी। वे उस तलवार के सामने भाग जायेंगे और उनके युवकों को बेगार में लगाया जायेगा।
9) उनकी चट्टान आतंक के सामने नष्ट हो जायेगी और युद्ध की पताका देख कर उनके सेनापति भाग निकलेंगे।'' यह उस प्रभु का कथन है, जिसका अग्निकुण्ड सियोन पर, जिसकी भट्ठी येरुसालेम में है।

अध्याय 32

1) देखो, एक राजा धार्मिकता से राज्य करेगा और शासक न्याय से शासन करेंगे।
2) उन में प्रत्येक आँधी से आश्रय-जैसा होगा, तूफान से शरणस्थान-जैसा, सन्तप्त प्रदेश में बड़ी चट्टान की छाया-जैसा ।
3) तब देखने वाले अपनी आँखें बन्द नहीं करेंगे और सुनने वालों के कान ध्यान से सुनेंगे।
4) अविवेकी लोगों में सद्बुद्धि आयेगी और हकलाने वाली जीभ धाराप्रवाह बोलेगी।
5) तब मूर्ख का सम्मान नहीं किया जायेगा और धूर्त की प्रतिष्ठा नहीं होगी;
6) क्योंकि मूर्ख निरर्थक बातें कहता और अपने मन में बुराई की बात सोचता है। वह अधर्म का आचरण करता और प्रभु की निन्दा करता है। वह भूखों की भूख दूर नहीं करता और प्यासों को पानी नहीं पिलाता।
7) धूर्त की कार्यप्रणाली कपटपूर्ण है। वह ऐसी दृष्ट योजनाएँ बनाता है कि जब दरिद्र अपना पक्ष प्रस्तुत करते हैं, तो झूठी बातों द्वारा उनका विनाश हो जात है;
8) किन्तु सहृदय मनुष्य उच्च योजनाएँ बनाता और उन्हें कार्यान्वित भी करता है।
9) अकर्मण्य स्त्रियों! जागो और मेरे कहने पर ध्यान दो। निश्चिन्त युवतियों! मेरी बात ध्यान से सुनो।
10) तुम अब निश्चिन्त बैठी हो, किन्तु एक वर्ष से थोड़ा अधिक समय बीतने पर तुम भय से काँपोगी। दाखबारियाँ निराश करेंगी और अंगूर की फ़सल नहीं होगी।
11) अकर्मण्य स्त्रियों! थर्राओ। निश्चिन्त युवतियो! भय से काँपो। अपने वस्त्र उतार कर कमर में टाट ओढ़ लो।
12) छाती पीटते हुए विलाप करो- रमणीय खेतों के लिए, उपजाऊ दाखबारियों के लिए,
13) मेरी प्रजा की भूमि के लिए, जहाँ झाड़-झंखाड़ उठ रहा है। आनन्दमय घरों के लिए और उत्सवप्रिय नगरी के लिए शोक मनाओ।
14) राजमहल का परित्याग हो चुका है, कोलाहल-भरा नगर उजाड़ पड़ा है : किला और बुर्ज गधों के अड्डे बन गये और पशुओं के चरागाह।
15) यह दशा तब तक बनी रहेगी, जब तक हमें ऊपर की ओर आत्मा का वरदान नहीं मिलेगा। तब मारुभूमि फल-उद्यान बन जायेगी और फल-उद्यान वन में बदल जायेगा।
16) न्याय मारुभूमि में निवास करेगा और धर्मिकता फल-उद्यान में।
17) धर्मिकता शान्ति उत्पन्न करेगी और न्याय चिरस्थायी सुरक्षा।
18) मेरी प्रजा शान्तिमय प्रदेश में, सुरक्षित भवनों तथा सुरम्य स्थानों में निवास करेगी।
19) यद्यपी ओलों की वर्षा वन का विनाश करेगी और नगर पूरी तरह नष्ट कर दिया जायेग,
20) किन्तु उन्हें सुख-शान्ति प्राप्त होगी। जहाँ कहीं जल होगा, तुम खेती करोगे और तुम्हारे गाय-बैल और गधे स्वच्छन्द चरेंगे।

अध्याय 33

1) विनाश करने वाले! तुम को धिक्कार! तुम्हारा विनाश अब तक नहीं हुआ। विश्वासघाती! तुम को धिक्कार, जिसके साथ अब तक विश्वासघात नहीं किया गया! जब तुमने सब का विनाश कर दिया होगा, तो तुम्हारा भी विनाश किया जायेगा। जब तुम विश्वाघात कर चुके होगे, तो तुम्हारे साथ भी विश्वासघात किया जायेगा।
2) प्रभु! तू हम पर दया कर। तुझ पर भरोसा है। तू हर सुबह हमें बल प्रदान कर; तू विपत्ति में हमारी रक्षा कर।
3) मेघगर्जन सुन कर लोग भाग जाते हैं; जब तू उठ कर खड़ा हो जाता है, तो राष्ट्र छितरा जाते हैं।
4) तब लूट एकत्र हो जाती है और लोग टिड्डियों की तरह उस पर टूट पड़ते हैं।
5) प्रभु सवोच्य हैं। वह ऊँचाइयों पर निवास करता है। वह सियोन को न्याय और धार्मिकता से परिपूर्ण कर देगा।
6) वह तुम्हारे दिनों की सुरक्षा होगा। प्रज्ञा, ज्ञान और प्रभु पर श्रद्धा यही तुम्हारा ख़जाना होगा।
7) देखो, अरीएल के शूरवीर विलाप कर रहे हैं, शान्ति के सन्देशवाहक फूट-फूट कर रो रहे हैं।
8) राजमार्ग खाली हैं, सड़कों पर कोई नहीं दिखता। सन्धि भंग हो गयी है, नगर उजाड़ हैं और किसी का ध्यान नहीं रखा जाता।
9) देश शोक मनाता है और नष्ट हो रहा है। लेबनोन लज्जा से मुरझाता जा रहा है। शारोन मरुभूमि बन रहा है। बाशान और करमेल में पतझड़ है।
10) प्रभु कहता है, ''अब में उठूँगा, उब मैं उठ खड़ा हो जाऊँगा, अब मेरी महिमा प्रकट की जायेगी।
11) तुम्हारे गर्भ में भूसा है, तुम पुआल पैदा करते हो; तुम्हारी साँस तुम को आग की तरह भस्म करेगी।
12) राष्ट्र जल कर चूने के सदृश बन जायेंगे। काटे हुए काँटों की तरह आग में धधक उठेंगे।''
13) तुम, जो दूर हो, सुनो कि मैंने क्या किया है। तुम जो निकट हो, मेरा सामर्थ्य स्वीकार करो।
14) सियोन के पापी आतंकित हैं, विधर्मी काँपने लगे। ''हम में कौन धधक्ती आग में टिक सकता है? हम में कौन सदा जलने वाली भट्टी में टिक सकता है?''
15) जो सदाचारण करता और सत्य बोलता है, जो अत्याचार द्वारा लाभ नहीं उठाता और घूस स्वीकार नहीं करता; जो वध का षड्यन्त्र सुन कर कान बन्द कर लेता, जिसकी आँखें बुराई नहीं देखना चाहतीं,
16) वह ऊँचाई पर निवास करेगा, उसका आश्रय पर्वत पर बसा हुआ क़िला होगा; उसे रोटी मिलती रहेगी और उसे कभी पानी का अभाव नहीं होगा।
17) तुम्हारी आँखें राजा के वैभव के दर्शन करेंगी। तुम दूर तक फैला हुआ देश देखोगे।
18) तुम बीते दिनों के आतंक पर विचार करोगेः ''हमारी आय का लेखा करने वाले और कर वसूल करने वाले अब कहाँ हैं? कहाँ है वह अधिकारी, जो हमारे बुर्जों को निरीक्षण करता था?''
19) तुम्हें अहंकारी लोग दिखाई नहीं देंगे, जो विदेशी और अस्पष्ट भाषा में ऐसी बातें करते थे, जिन्हें तुम ही समझते थे।
20) हमारे पर्वों के नगर सियोन पर दृष्टि दौड़ाओ। तुम्हारी आँखें येरूसालेम को एक शान्तिमय क्षेत्र के रूप में देखेंगी एक तम्बू, जो नहीं उठाया जायेगा, जिसकी खूँटियाँ नहीं उखाड़ी जायेंगी, जिसकी रस्सियाँ नहीं खोली जायेंगी।
21) प्रभु वहाँ हम पर अपनी महिमा प्रकट करेगा। येरुसालेम महानदियों और चौड़ी नहरों का क्षेत्र-जैसा बनेगा, किन्तु उन पर युद्धपोत नहीं आयेंगे; उन पर बड़े जलयान आक्रमण नहीं करेंगे;
22) क्योंकि प्रभु हमारा न्यायाधीश है, वही हमारा विधिकर्ता है। प्रभु हमारा राजा है, वही हमारा उद्वार करेगा।
23) तुम्हारी रस्सियाँ ढीली पड़ गयी हैं। वे न तो मस्तूल को अपनी जगह बनाये रखती और न झण्डे को फहराती हैं। तब अपार लूट बाँटी जायेगी; लँगड़े तक उस में से अपना हिस्सा ले सकेंगे।
24) वहाँ एक भी निवासी यह नहीं कहेगा कि मैं बीमार हूँ। येरुसालेम के नागरिकों का पाप क्षमा होगा।

अध्याय 34

1) राष्ट्रो! पास आओ और सुनो! जातियो! ध्यान दो। पृथ्वी के सभी प्राणी और संसार के सभी निवासी सुन लें।
2) प्रभु का क्रोध सभी राष्ट्रों पर भड़क उठा है, वह उनकी सभी सेनाओं पर क्रुद्ध है। उनके सर्वनाश का निश्चय किया गया है, उन सबों का वध किया जायेगा।
3) उनके मृतक पड़े रहेंगे, उनकी लाशों से दुर्गन्ध फैल जायेगी। पर्वतों पर से उनका रक्त टपकता रहेगा।
4) नक्षत्रों का समूह टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा, आकाश काग़ज के पुलिन्दे की तरह लपेटा जायेगा। दाखलता और अंगूर के पेड़ के मुरझाये पत्तों की तरह आकाश के सभी तारे गिर जायेंगे
5) प्रभु की तलवार आकाश में दिखाई दे रही है। वह एदोम पर नीचे उतर रही है, जिसके सर्वनाश का मैंने निश्चय किया है।
6) प्रभु की तलवार से रक्त टपक रहा है। उस में चरबी लगी है- वह मेमनों और बकरों के रक्त से, मेढ़ों के गुरदों की चरबी से सनी है; क्योंकि प्रभु बोस्रा में एक यज्ञ चढ़ा रहा है, वह एदोम में महावध कर रहा है।
7) भैंसे, बछड़े और साँड़ - सबों का वध किया जायेगा। उनका देश रक्त से भर जायेगा। धूल चरबी से सन जायेगी।
8) यह प्रभु के लिए प्रतिशोध का दिन होगा, सियोन का रक्षक लेखा लेने आयेगा।
9) एदोम की नदियों में राल बहेगी, उसकी धूल गन्धक बन जायेगी। वह भूमि प्रज्वलित राल बनेगी,
10) जो दिन-रात जलती रहेगी, जिस में से धूआँ निरन्तर उठता रहेगा। देश पीढ़ी-दर-पीढ़ी खँडहर बना रहेगा। उसे कभी कोई पार नहीं करेगा।
11) उस पर उल्लू और साही राज्य करेंगे; वहाँ धुग्धू और काक निवास करेंगे। वहाँ अन्धव्यवस्था, अराजकता और संहार का साम्राज्य होगा।
12) कूलीन लोग किसी को राजा धोषित नहीं करेंगे, सामन्त लुप्त हो जायेंगे।
13) किलों में काँटे उगेंगे और गढ़ों में बिच्छू-बूटी और झाड़-झंखाड़। वह गीदड़ों की माँद बन जायेगा। और शुतुरमुगोर्ं का निवास।
14) वहाँ जंगली पशु लकड़बग्घों के साथ रहेंगे, जंगली बकरे एक दूसरे को पुकारेंगे। लीलीत उसे अपना स्थायी निवास बनायेगी।
15) वहाँ साँप का नीड़ होगा; मादा अण्डे देगी और सेयेगी और अपने बच्चों की देखरेख करेगी। वहाँ गीध भी अपनी मादाओं के साथ निवास करेंगे।
16) प्रभु के ग्रन्थ में देखो, जहाँ लिखा है- वहाँ ये सब पशु एकत्र होंगे, वे एक दूसरे पर आक्रमण नहीं करेंगे; क्योंकि प्रभु ने आदेश दिया और उन्हें वहाँ एकत्र किया।
17) उसने चिट्ठी डाल कर प्रत्येक का क्षेत्र निर्धारित किया, वह सदा के लिए उनका अपना होगा और वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी वहाँ निवास करेंगे।

अध्याय 35

1) मरुस्थल और निर्जल प्रदेश आनन्द मनायें। उजाड़ भूमि हर्षित हो कर फले-फूले,
2) वह कुमुदिनी की तरह खिल उठे, वह उल्लास और आनन्द के गीत गाये। उसे लेबानोन का गौरब दिया गया है, करमेल तथा शारोन की शोभा। लोग प्रभु की महिमा तथा हमारे ईश्वर के प्रताप के दर्शन करेंगे।
3) थके-माँदे हाथों को शक्ति दो, निर्बल पैरों को सुदढ़ बना दो।
4) घबराये हुए लोगों से कहो- ''ढारस रखों डरो मत! देखो, तुम्हारा ईश्वर आ रहा है। वह बदला चुकाने आता है, वह प्रतिशोध लेने आता है, वह स्वयं तुम्हें बचाने आ रहा है।''
5) तब अन्धों की आँखें देखने और बहरों के कान सुनने लगेंगे। लँगड़ा हरिण की तरह छलाँग भरेगा। और गूँगे की जीभ आनन्द का गीत गायेगी।
6) मरुस्थल में जल की धाराएँ फूट निकलेंगी, रेतीले मैदानों में नदियाँ बह जायेंगी,
7) सूखी धरती झील बन जायेगी और प्यासी धरती में झरने निकलेंगे। जहाँ पहले सियारों की माँद थी, वहाँ सरकण्डे और बेंत उपजेंगे।
8) वहाँ एक राजमार्ग बिछा दिया जायेगा, जो ÷पवित्र मार्ग' कहलायेगा। कोई भी पापी उस पर नहीं चलेगा। प्रभु स्वयं यह मार्ग तैयार करेगा- नास्तिक भूल कर भी उस पर पैर नहीं रखेंगे।
9) वहाँ न तो कोई सिंह विचरेगा और न कोई हिंसक पशु मिलेगा। प्रभु की प्रजा उस पर चलेगी।
10) प्रभु ने जिन्हें मुक्त कर दिया है, वे ही उस पर लौटेंगे। वे गाते-बजाते हुए सियोन लौटेंगे, उनके मुख पर अपार आनन्द खिल उठेगा। वे हर्ष और उल्लास के साथ लौटेंगे। दुःख और विलाप का अन्त हो जायेगा।

अध्याय 36

1) राजा हिजकीया के चौदहवें वर्ष अस्सूर के राजा सनहेरीब ने यूदा के सब क़िलाबन्द नगरों पर आक्रमण कर उन पर अधिकार कर लिया।
2) अस्सूर के राजा ने अपने प्रधान रसद-प्रबन्धक को एक बड़े सैनिक दल के साथ लाकीश से राजा हिजकीया के यहाँ येरुसालेम भेजा। वह ऊपरी जलकुण्ड की नहर के निकट, धोबियों के खेत की सड़क पर रुका।
3) तब हिलकीया का पुत्र महल का प्रबन्धक एल्याकीम, सचिव शेबना और आसाफ़ का पुत्र अभिलेखी योआह उसके पास आये।
4) प्रधान रसद-प्रबन्धक ने उन से कहा, ''तुम लोग हिजकीया से कहोगे, ÷अस्सूर के राजाधिराज कहते हैं कि तुम किस बात पर भरोसा रखते हो?
5) तुमने कहा- शब्द मात्र से मुझे युद्ध के लिए परामर्श और बल मिलेगा। तुमने मेरे विरुद्ध विद्रोह करने के लिए किस पर भरोसा रखा?
6) दखो, तुम्हें उस टूटे सरकण्डे का, उस मिस्र का भरोसा है; उस पर जो टिकेगा, वह उसी के हाथ में चुभ जायेगा। मिस्र का राजा फ़िराउन अपने ऊपर सब भरोसा करने वालों के साथ ऐसा ही करता आ रहा है
7) और यदि तुम मुझ से कहो कि हमें प्रभु, अपने ईश्वर का भरोसा है, तो विचार करो कि हिजकीया ने उसके पहाड़ी पूजास्थानों और वेदियों को गिरा दिया है तथा यूदा और येरुसालेम वालों को आज्ञा दी है कि उन्हें केवल यहाँ की वेदी के सामने आराधना करनी चाहिए?'
8) इसलिए आओ, अब मेरे स्वामी अस्सूर के राजा को चुनौती दो और मैं तुम्हें दो हजार घोड़े दे रहा हँू, बशर्ते तुम उनके लिए सवार पा सको।
9) तुम मिस्र के रथ और रथियों का भरोसा करते हो। क्या तुम मेरे स्वामी के छोटे-से-छोटे कर्मचारी का सामना कर सकोगे?
10) इसके अतिरिक्त, क्या मैं प्रभु की आज्ञा के बिना इस देश को उजाड़ करने आया हूँ? प्रभु ने तो स्वयं ही मुझ से कहा था कि इस देश को उजाड़ करने के लिए इस पर आक्रमण करो।''
11) एल्याकीम, शेबना और योआह ने प्रधान रसद-प्रबन्धक से कहा, ''कृपया अपने दासों से आरामी भाषा में बोलिए, उसे हम भी समझते हैं। इन लोगों के सामने, जो दीवार पर बैठे हैं, हम से यहूदी भाषा में बातचीत मत कीजिए।''
12) प्रधान रसद-प्रबन्धक ने उन्हें उत्तर दिया, ''क्या मेरे स्वामी ने मुझे तुम्हारे स्वामी और तुम से ही बातचीत करने के लिए भेजा है? नहीं; मुझे तो इन आदमियों से भी बातचीत करने के लिए भेजा गया है, जो दीवार पर बैठे हैं और जिन्हें भी तुम्हारी ही तरह अपना मल-मूत्र खाना-पीना पड़ेगा।''
13) इसके बाद प्रधान रसद-प्रबन्धक ने आगे बढ़ कर उच्च स्वर से यहूदी भाषा में कहा, ''अस्सूर के राजाधिराज की बात सुनो।
14) राजा का कथन है कि तुम हिजकीया के धोखे में न फँसो, क्योंकि वह तुम्हें नहीं बचा सकेगा।
15) हिजकीया यह कहते हुए तुम्हें प्रभु का झूठा भरोसा न दिला पाये कि प्रभु हमारी रक्षा अवश्य करेगा और यह नगर अस्सूर के राजा के हाथों नहीं पड़ेगा।
16) हिजकीया की बात पर ध्यान न देना। अस्सूर का राज तुम्हारे सामने यह प्रस्ताव रखता है कि मेरे साथ सन्धि कर लो, मेरे पक्ष में आ जाओ। तब तुम में से प्रत्येक अपनी दाखलता और अपने अंजीर-वूक्ष का फल खा सकेगा और अपने कुएँ से पानी पी सकेगा।
17) बाद में मैं आऊँगा और तुम्हें ऐसे देश में ले जाऊँगा, जो तुम्हारे ही देश की तरह है- एक ऐसे देश, जो अन्न और अंगूरी से भरा है; एक ऐसा देश खाद्यान्नों और दाखबारियों से भरा है।
18) हिजकीया यह कहते हुए तुम्हें धोखा न दे कि प्रभु हमारी रक्षा करेगा। क्या राष्ट्रों के देवता अस्सूर के राजा से अपना देश बचा सके?
19) हमात और अर्पाद के देवता कहाँ रहे? सफ़रवईम के देवता कहाँ रहे? क्या वे मेरे हाथ से समारिया की रक्षा कर पाये?
20) जब उन देशों के सभी देवताओं में से कोई भी मेरे हाथ से अपने देश की रक्षा नहीं कर पाये, तो क्या प्रभु मेरे हाथ से येरुसालेम की रक्षा कर पायेगा?''
21) ''लोग चुप रहे और उन्होंने उसे कोई उत्तर नहीं दिया; क्योंकि राजा की आज्ञा थी कि तुम उसे उत्तर नहीं दोगे।
22) इसके बाद हिलकीया का पुत्र, महल का प्रबन्धक एल्याकीम, सचिव शेबना और आसाफ़ का पुत्र अभिलेखी योआह फाड़े हुए वस्त्र पहने हिजकीया के पास गये और उसे प्रधान रसद-प्रबन्धक की बातें सुनायीं।

अध्याय 37

1) यह सुन कर राजा हिजकीया ने अपने वस्त्र फाड़ डाले और टाट ओढ़ कर प्रभु के मन्दिर गया।
2) इसके बाद उसने महल-प्रबन्धक एल्याकीम, सचिव शेबना और प्रमुख याजकों को टाट ओढ़े आमोस के पुत्र नबी इसायाह के पास भेजा।
3) उन्होंने उस से कहा, ''हिजकीया का कहना हैः आज का दिन संकट, डाँट और अपमान का दिन है; क्योंकि प्रसव का दिन आया है, लेकिन प्रसूता में प्रसव करने की शक्ति नहीं रह गयी है।
4) हो सकता है कि प्रभु, आपके ईश्वर ने प्रधान रसद-प्रबन्धक की बातों को सुन लिया हो, जिसे अस्सूर के राजा ने जीवन्त ईश्वर की निन्दा करने भेजा है और उन बातों के लिए उसे दण्ड दे, जिन्हें प्रभु, आपके ईश्वर ने सुना होगा। अतः उन लोगों के लिए प्रार्थना कीजिए, जो शेष रह गये हैं।''
5) जब राजा हिजकीया के सेवक इसायाह के पास आये,
6) तब इसायाह ने उन से कहा, ''तुम अपने स्वामी से यह कहोगे कि प्रभु का कथन हैः ÷तुम उन बातों से नहीं डरो, जिन्हें तुमने सुना है और जिनके द्वारा अस्सूर के राजा के सेवकों ने मेरी निन्दा की है।
7) मैं उसके मन में ऐसी भावना पैदा करूँगा कि वह कोई अफ़वाह सुन कर अपने देश लौट जायेगा और अपने देश में ही तलवार से मार डाला जोयगा'।''
8) जब प्रधान रसद-प्रबन्धक लौटा, तो उसने सुना कि अस्सूर का राजा लाकीश छोड़ कर चला गया और लिबना में युद्ध कर रहा है। इसलिए वह भी लिबना गया।
9) राजा को ख़बर मिली की कूश का राजा तिरहाका उस से लड़ने आया है। यह सुन कर अस्सूर के राजा ने हिजकीया के पास दूतों को भेजते हुए कहा,
10) ''यूदा के राजा हिजकीया से यह कहनाः ÷तुम अपने ईश्वर का भरोसा करते हो, जो तुम्हें आश्वासन देता है कि येरुसालेम अस्सूर के राजा के हाथ नहीं पड़ेगा। इस प्रकार का धोखा मत खाओ।''
11) तुमने अवश्य सुना है कि अस्सूर के राजाओं ने उन सब देशों का सर्वनाश किया है, तो तुम कैसे बच सकते हो?
12) क्या उन राष्ट्रों के देवताओं ने उनकी रक्षा की, जिनका विनाश मेरे पूर्वजों ने किया है, अर्थात् गोजान हरान, सेरेफ़ और तलस्सार में एदेन के लोगों की?
13) हमात् अर्पाद, सफ़रवईम, हेना या इव्वा के राजा कहाँ हैं?''
14) हिजकीया ने दूतों के हाथ से पत्र लेकर पढ़ा। इसके बाद उसने प्रभु के मन्दिर में जा कर उसे प्रभु के सामने खोल कर रख दिया।
15) अब हिजकीया ने प्रभु से इस प्रकार प्रार्थना कीः
16) ''सर्वशक्तिमान प्रभु! इस्राएल के ईश्वर! तू केरूबीम पर विराजमान है। तू पृथ्वी भर के सब राज्यों का एकमात्र ईश्वर है। तूने ही स्वर्ग और पृथ्वी को बनाया है।
17) प्रभु! तू कान लगा कर सुन! प्रभु! अपनी आँखें खोल कर देख! सनहेरीब के वे सब शब्द सुन, जिनके द्वारा उसने जीवन्त ईश्वर का अपमान किया है।
18) प्रभु! यह सच है कि अस्सूर का राजाओं ने सब राष्ट्रों का विनाश किया और उनके देश उजाड़े।
19) उन्होंने उनके देवताओं को जलाया, किन्तु वे देवता नहीं, बल्कि मनुष्यों द्वारा लकड़ी और पत्थर की बनायी मूर्तियाँ मात्र थे। इसलिए वे उन्हें नष्ट कर सके।
20) प्रभु! हमारे ईश्वर! हमें उसके पंजे से छुड़ा, जिससे पृथ्वी भर के राज्य यह जान जायें कि प्रभु! तू ही ईश्वर है।''
21) इसके बाद आमोस के पुत्र इसायाह ने हिजकीया को यह कहला भेजा, ''प्रभु, इस्राएल का ईश्वर यह कहता हैः तुमने अस्सूर क राजा सनहेरीब के विषय मुझ से प्रार्थना की है।
22) सनहेरीब के विरुद्ध प्रभु का कहना इस प्रकार हैः ''सियोन की कुँवारी पुत्री तुम्हारा तिरस्कार और उपहास करती है। येरुसालेम की पुत्री तुम्हारी पीठ पीछे सिर हिलाती है।
23) ''तुमने किसकी निन्दा की है और किसका अपमान किया है? तुमने किसके विरुद्ध आवाज उठायी है? तुमने किसकी ओर अहंकार से आँखें उठायी हैं? इस्रएल के परमपावन ईश्वर के विरुद्ध!
24) तुमने अपने सेवक भेज कर प्रभु की निन्दा की हैै। तुमने कहाः मैं अपने रथों के साथ पर्वतों के शिखर पर चढ़ चुका हँू, लेबानोन के सब से ऊँचे स्थानों पर! मैंने उसके सब से ऊँचे देवदार और उसके सब से सुन्दर सनोवर कटवा डाले। मैं उसके सब से दुर्गम भागों में और उसके गहनतम वन-खण्डों में पहूँच गया हूँ।
25) मैंने खोद कर विदेशों का पानी पिया और अपने पैरों के नीचे मिस्र की सब नहरें सुखायी हैं।
26) ''क्या तुम लोग यह नहीं जानते कि मैंने बहुत पहले यह योजना बनायी थी? अब मैं उसे पूरा करूँगा। मैं तुम्हारे क़िलाबन्द नगरों को पत्थरों का खँडहर बना दूँगा।
27) उनके निवासी शक्तिहीन, भयभीत और निराश हैं। वे खेतों की घास-जैसे हैं, मैदान की हरियाली की तरह, छत पर उगे पौधों-जैसे, झुलसे गेहँू की तरह, जो बढ़ने से पहले सूख जाते हैं।
28) मैं तुम्हारा उठना-बैठना, आना-जाना जानता हूँ। जब तुम मुझ पर क्रुद्ध हो, तो मैं जानता हूँ।
29) तुमने मुझ पर क्रोध किया, तुम्हारी अहंकार-भरी बातें मेरे कानों तक पहुँच गयी हैं। इसलिए मैं तुम्हारी नाक में नकेल डालूँगा और तुम्हारे मुँह पर लगाम। तुम जिस रास्ते से आये, उस से तुम को लौटाऊँगा।
30) ''तुम्हारे लिए यह संकेत होगा- इस वर्ष तुम सिल्ला खाओगे, दूसरे वर्ष अपने आप उगने वाला घास-पात, तीसरे वर्ष तुम बोओगे और लुनोगे, दाखबारियाँ लगाओगे और उनका फल खाओगे।
31) यूदा के घराने का अवशेष जड़ पकड़ेगा और फल देगा।
32) येरुसालेम में से एक अवशेष निकलेगा और सियोन पर्वत से बचे हुए लोगों का एक दल। विश्वमण्डल के प्रभु का अनन्य प्रेम यह कर दिखायेगा।
33) ''इसलिए अस्सूर के राजा के विषय में प्रभु यह कहता हैः वह इस नगर में प्रवेश नहीं करेगा और इस पर एक बाण भी नहीं छोड़ेगा। वह ढाल ले कर इसके पास नहीं फटकेगा और इसकी मोरचाबन्दी नहीं करेगा।
34) वह जिस रास्ते से आया, उसी से वापस जायेगा। वह इस नगर में प्रवेश नहीं करेगा।'' यह प्रभु की वाणी है।
35) ''मैं अपने नाम और अपने सेवक दाऊद के कारण यह नगर बचा कर सुरक्षित रखूँगा।''
36) प्रभु के दूत ने आकर अस्सूरियों के शिविर में एक लाख पचासी हजार मनुष्यों को मार डाला। प्रातःकाल ये सब मर कर पड़े हुए थे।
37) अस्सूर का राजा सनहेरीब शिविर उठा कर अपने देश लौटा और निनिवे में रहा।
38) एक दिन जब वह अपने देवता निस्रोक के मन्दिर में उपासना कर रहा था, तो उसके पुत्र अद्रम्मेलेक और शरएसेर ने उसे तलवार से मार डाला और वे अराराट देश भाग गये। उसका पुत्र एसेर-हद्दोन उसकी जगह राजा बना।

अध्याय 38

1) उन दिनों हिजकीया इतना बीमार पड़ा था कि वह मरने को हो गया। आमोस के पुत्र नबी इसायाह ने उसके यहाँ जा कर कहा, ''प्रभु यह कहता है- अपने घरबार की समुचित व्यवस्था करो, क्योंकि तुम्हारी मृत्यु होने वाली है। तुम अच्छे नहीं हो सकोगे।''
2) हिजकीया ने दीवार की ओर मुँह कर प्रभु से यह प्रार्थना की,
3) प्रभु! कृपया याद कर कि मैं ईमानदारी और सच्चे हृदय से तेरी सेवा करता रहा और जो तुझे प्रिय है, वही करता रहा''। और हिजकीया फूट-फूट कर रोने लगा।
4) प्रभु की वाणी इसायाह को यह कहते हुए सुनाई पड़ी,
5) ''हिजकीया के पास जा कर कहो- तुम्हारे पूर्वजों का प्रभु-ईश्वर यह कहता हैः मैंने तुम्हारी प्रार्थना सुनी और तुम्हारे आँसू देखे। मैं तुम्हारी आयु पन्द्रह वर्ष बढ़ा दूँगा।
6) मैं तुम को और इस नगर को अस्सूर के राजा के हाथ से छुड़ाऊँगा और इस नगर की रक्षा करूँगा।
7) ''प्रभु अपनी प्रतिज्ञा पूरी करेगा। इसका चिन्ह यह होगा-
8) अहाज की सीढ़ी पर ढलते हुए सूर्य की छाया देखो। यह छाया सीढ़ी पर उतर रही है। मैं इसे दस सोपान तक ऊपर चढ़ाऊँगा'' और जिस सीढ़ी पर सूर्य उतर चुका था, वहाँ वह दस सोपान तक पीछे हट गया।
9) यूदा के राजा हिजकीया का गीत। यह उस समय का है, जब वह अपनी बीमारी से अच्छा हो गया था।
10) मैंने कहा, ''अपने जीवन के मध्य काल में मुझे जाना पड़ रहा है। मुझे अपने जीवन के शेष वर्ष अधोलोक के फाटक पर बिताने होंगे।''
11) मैंने कहा, ''मैं जीवितों के देश में प्रभु को फिर कभी नहीं दूखूँगा। मैं पृथ्वी के निवासियों में किसी को फिर कभी नहीं देखूँगा।
12) चरवाहे के तम्बू की तरह मेरा जीवन उखाड़ा और मुझ से ले लिया गया है। तूने मेरा जीवन इस प्रकार समेट लिया है, जिस प्रकार जुलाहा करघे पर से तागे काट देता है। सुबह से शाम तक तू मुझे तड़पाता है।
13) मैं रात भर पुकारता रहता हूँ। उसने सिंह की तरह मेरी सब हड्डियों को रौंदा है। सुबह से श्याम तक तू मुझे तड़पाता है।
14) मैं अबाबील की तरह चींचीं करता हूँ, कपोत की तरह कराहता हूँ। मेरी आँखें ऊपर देखते-देखते धुँधला रही हैं। प्रभु! मैं कष्ट में हूँ, मेरी सहायता कर।''
15) मैं क्या कहूँ, जिससे वह मुझे उत्तर दे? उसने ही तो यह किया। मेरे दिन दुःख में बीत रहे हैं।
16) प्रभु अपने भक्तों को सुरक्षित रखेगा, उसका आत्मा उन में नवजीवन का संचार करेगा। तू मुझे स्वास्थ्य प्रदान कर पुनर्जीवित करेगा।
17) दुःख मेरे लिए कल्याण बन गया। तूने मेरी आत्मा को विनाश के गर्त्त में गिरने से बचाया, तूने मेरे सब पापों को अपनी पीछे फेंक दिया।
18) अधोलोक तेरा गुणगान नहीं करता, मृत्यु तेरी स्तुति नहीं करती। जो गर्त्त में उतरे हैं, उन्हें तेरी सत्यप्रतिज्ञता का भरोसा नहीं।
19) जीवित मनुष्य ही तेरी स्तुति करता है, जैसा कि मैं आज कर रहा हूँ। पिता अपने पुत्रों को तेरी सत्यप्रतिज्ञता का ज्ञान करायेगा।
20) प्रभु! तूने मेरा उद्धार किया। इसलिए हम जीवन भर प्रभु के मन्दिर में वीणा बजाते हुए तेरी स्तुति करेंगे।
21) इसायाह ने कहा, ''अंजीर की रोटी ला कर फोड़े पर रख दीजिए और वह अच्छा हो जायेगा'' और राजा अच्छा हो गया।
22) हिजकीया ने पूछा, ''मैं यह कैसे जान सकता हूँ कि मैं फिर प्रभु के मन्दिर जाऊँगा?''

अध्याय 39

1) उस समय बलअदान के पुत्र बाबुल के राजा मरोदक-बलअदान ने दूतों द्वारा हिजकीया के पास उपहार और साथ में एक पत्र भेजा; क्योंकि उसने सुना था कि वह अपनी बीमारी से अच्छा हो गया है।
2) हिजकीया दूतों के अगमन से प्रसन्न हुआ और उसने उन्हें अपने भण्डारों की समस्त चाँदी, सोना, मसाले, सुगन्धित तेल, अपना सारा शस्त्रागार और अपनी सारी धन-सम्पत्ति दिखायी। उसके महल और उसके सारे राज्य में ऐसा कुछ न रहा, जिसे हिजकीया ने उन्हें न दिखाया हो।
3) तब नबी इसायाह ने राजा हिजकीया के पास आ कर उस से पूछा, ''उन दूतों ने क्या कहा और वे आपके पास कहाँ से आये थे?'' हिजकीया ने कहा, ''वे दूर देश से, बाबुल से मेरे पास आये थे''।
4) फिर उसने पूछा, ''उन्होंने आपके महल में क्या दखा?'' हिजकीया ने कहा, ''उन्होंने वह सब कुछ देखा, जो मेरे महल में है। मेरे भण्डारों में ऐसा कुछ न रहा, जिसे मैंने उन्हें न दिखाया हो।''
5) इस पर इसायाह ने हिजकीया से कहा, ''विश्वमण्डल के ्रप्रभु का कहना सुनिएः
6) वह दिन आ रहा है, जब वह सब कुछ, जो तुम्हारे महल मंें है और वह सब कुछ, जो तुम्हारे पूर्वजों ने आज तक एकत्रित किया है, बाबुल ले जाया जायेगा। कुछ भी शेष नहीं रहेगा। यह प्रभु का कथन है।
7) आपके अपने पुत्रों में से भी कइयों को ले जाया जायेगा और वे बाबुल के राजा के महल में कंचुकियों का काम करेंगे।''
8) इस पर हिजकीया ने इसायाह से कहा, ''प्रभु का यह कथन, जिसे आपने सुनाया, अच्छा ही है''। उसने सोचा कि इसका अर्थ यह है कि मेरे जीवनकाल में शान्ति और सुरक्षा रहेगी।

अध्याय 40

1) तुम्हारा ईश्वर यह कहता है, ''मेरी प्रजा को सान्त्वना दो, सान्त्वना दो।
2) यरुसालेम को ढारस बँधओ और पुकार कर उस से यह कहो कि उसकी विपत्ति के दिन समाप्त हो गये हैं
3) यह आवाज आ रही है, ''निर्जन प्रदेश में प्रभु का मार्ग तैयार करो। हमारे ईश्वर के लिए मैदान में रास्ता सीधा कर दो।
4) हर एक घाटी भर दी जाये। हर एक पहाड़ और पहाड़ी समतल की जाये, खड़ी चट्ठान को मैदान और कगार को घाटी बना दिया जाये।
5) तब प्रभु-ईश्वर की महिमा प्रकट हो जायेगी और सब शरीरधारी उसे देखेंगे; क्योंकि प्रभु ने ऐसा ही कहा है।''
6) मुझे एक वाणी यह कहते हुए सुनाई पड़ी - ''पुकार कर सुनाओ''
7) और मैंने यह कहा, ''मैं क्या सुनाऊँ?'' ''सब शरीरधारी घास के सदृश हैं और उनका सौन्दर्य खेत के फूलों के सदृश। जब प्रभु को श्वास उनका स्पर्श करता है, तो घास सूख जाती और फूल मुरझाता हैं। निश्चय ही मनुष्य घास के सदृश है।
8) घास सूख जाती और फूल मुरझाता हैं, किन्तु हमारे ईश्वर का वचन सदा-सर्वदा बना रहता है।''
9) सियोन को शुभ सन्देश सुनाने वाले! ऊँचे पहाड़ पर चढ़ो। यरुसालेम को शुभ सन्देश सुनाने वाले! अपनी आवाज ऊँची कर दो। निडर हो कर यूदा के नगरों से पुकार कर यह कहोः ''यही तुम्हारा ईश्वर है।''
10) देखो प्रभु-ईश्वर सामर्ध्य के साथ आ रहा है। वह सब कुछ अपने अधीन कर लेगा। वह अपना पुरस्कार अपने साथ ला रहा है और उसका विजयोपहार भी उसके साथ है।
11) वह गड़ेरिये की तरह अपना रेवड़ चराता है। वह मेमने को उठा कर अपनी छाती से लगा लेता और दूध पिलाने वाली भेडें धीरे-धीरे ले चलता है।
12) किसने सागर का जल अपनी अंजलि से मापा, या आकाश का विस्तार अपने बित्ते से निर्धारित किया है? किसने पृथ्वी की मिट्ठी टोकरे में उठायी है? किसने पर्वतों को तुला पर या पहाड़ियों को तराजू पर तौला है?
13) किसने प्रभु के मन की थाह ली या परामर्शदाता के रूप में उसे समझाया है?
14) प्रभु ने शिक्षा पाने के लिए किस से परामर्श लिया? किसने प्रभु को न्याय का मार्ग दिखाया? किसने प्रभु को ज्ञान की शिक्षा दी या उसे विवेक का मार्ग दिखया?
15) निश्चय ही राष्ट्र घड़े में बूँद के सदृश हैं। वे पलड़े पर धूलि के बराबर माने जाते हैं। प्रभु द्वीपों को रजकण के समान उठा लेता है।
16) न तो लेबानोन का इर्ंधन और न उसके पशु होम-बलि के लिए पर्याप्त हैं।
17) सभी राष्ट्र उनके सामने नगण्य हैं; वे उसकी दृष्टि में नहीं के बराबर हैं।
18) तुम ईश्वर की तुलना किस से करना चाहते हो? उसके लिए कौन-सी उपमा देना चाहते हो?
19) शिल्पकार एक मूर्ति बनाता है, सुनार उस पर सोना मढ़ता है, और उसके लिए चाँदी की जंजीरें ढालता है।
20) जो इस प्रकार का ख़र्च करने में असमर्थ होता है, वह टिकाऊ लकड़ी चुनता और एक दक्ष शिल्पकार ढूँढ़ता है, जो एक स्थिर मूर्ति बना दे।
21) क्या तुम यह नहीं समझते? क्या तुमने सुना नहीं? क्या तुम से प्रारम्भ से नहीं कहा गया? क्या तुमने पृथ्वी के निर्माता को नहीं पहचाना?
22) वह पृथ्वी के ऊपर इतना ऊँचा विराजमान है कि उसके निवासी टिड्डों-जैसे लगते हैं। उसने आकाश को चादर की तरह फैलाया, उसे तम्बू की तरह तान दिया है।
23) वह अधिपतियों का विनाश करता और शासकों को मिटा देता हैं।
24) वे अभी-अभी लगाये ही गये थे, अभी-अभी बोये ही गये थे, उन्होंने अभी-अभी जड़ पकड़ी ही थी कि वे उसके श्वास मात्र से सूख जाते हैं और बवण्डर उन्हें भूसी की तरह छितरा देता है।
25) परमपावन ईश्वर कहता है, ''तुम मेरी तुलना किस से करना चाहते हो? मेरी बराबरी कौन कर सकता है?''
26) आकाश की ओर दृष्टि लगाओ। किसने यह सब बनाया है? उसी ने, जो नक्षत्रों का समूह फैलाता और एक-एक का नाम ले कर पुकारता है। उसका सामर्थ्य इतना महान् है और उसका तेज इतना अदम्य कि एक भी नक्षत्र अविद्यमान नहीं रहता।
27) याकूब! तुम यह क्यों कहते हो, इस्राएल! तुम यह क्यों बोलते होः ''प्रभु मेरी दुर्दशा पर ध्यान नहीं देता, मेरा ईश्वर मुझे न्याय नहीं दिलाता''?
28) क्या तुम यह नहीं जानते, क्या तुमने यह नहीं सुना कि प्रभु अनादि-अनन्त ईश्वर है, वह समस्त पृथ्वी का सृष्टिकर्ता है? वह कभी क्लान्त अथवा परिश्रन्त नहीं होता। कोई भी उसकी प्रज्ञा की थाह नहीं ले सकता।
29) वह थके-माँदे को बल देता और अशक्त को सँभालता है।
30) जवान भले ही थक कर चूर हो जायें और फिसल कर गिर पड़ें,
31) किन्तु प्रभु पर भरोसा रखने वालों को नयी स्फूर्ति मिलती रहती है। वे गरुड़ की तरह अपने पंख फैलाते हैं; वे दौड़ते रहते हैं, किन्तु थकते नहीं, वे आगे बढ़ते हैं, पर शिथिल नहीें होते।

अध्याय 41

1) ''द्वीपो! मरे सामने मौन रहो! राष्ट्रों में नयी शक्ति का संचार हो! वे पास आ कर अपना पक्ष प्रस्तुत करें। हम मिल कर न्यायासन के पास जायें।
2) किसने पूर्व में उस व्यक्ति को प्रेरित किया, जो सर्वत्र विजय प्राप्त करता है? कौन राष्ट्रों को उसके हाथ देता और राजाओं को उसके सामने नीचा दिखाता है? उसकी तलवार उन्हें धूल में मिलाती और उसका धनुष उन्हें भूसी की तरह बिखेरता है।
3) वह उनका पीछा करता और मार्ग पर बिना पैर धरे निरापद आगे बढ़ता है।
4) किसने यह कार्य किया है? उसने ही, जो प्रारम्भ से मनुष्यों को सम्बोधित करता आ रहा है : मैं ही प्रभु हूँ, प्रथम हूँ और अन्त तक वही रहूँगा।''
5) द्वीप देख चुके हैं और डरते हैं, पृथ्वी के सीमान्त काँपते हैं : वे निकट बढ़ते आ रहे हैं।
6) प्रत्येक अपने साथी की सहायता करता और अपने भाई से कहता हैः ''दृढ़ बने रहो''।
7) शिल्पकार सुनार को ढारस बँधाता है और हथौड़ा चलाने वाला निहाई पर काम करने वाले को। वे कहते हैं: ''जोड़ने का काम पूरा हो गया है''। बाद में वे कीलें ठोंकते, जिससे मूर्ति न हिले।
8) ''मेरे सेवक इस्राएल! याकूब, जिसे मैंने चुना है! अपने भक्त इब्राहीम की सन्तान!
9) मैं तुम को पृथ्वी के सीमान्तों से लाया, मैंने तुम को दूर-दूर के क्षेत्रों से बुलाया। मैंने कहा, 'तुम मेरे सेवक हो'। मैंने तुम को चुना और नहीं त्यागा।
10) डरो मत, मैं तुम्हारे साथ हूँ। चिन्ता मत करो, मैं तुम्हारा ईश्वर हूँ। मैं तुम्हें शक्ति प्रदान कर तुम्हारी सहायता करूँगा, मैं अपने विजयी दाहिने हाथ से तुम्हें सँभालूँगा।
11) जो तुम्हारा विरोध करते थे, वे लज्जित और अपमानित होंगे। जो तुम से लड़ते थे, वे नष्ट हो कर मिट जायेंगे।
12) तुम अपने शत्रुओं को ढूँढोगे और उन्हें नहीं पा सकोगे; क्योंकि जो तुम से युद्ध करते हैं, वे नष्ट हो कर मिट जायेंगे;
13) क्योंकि मैं तुम्हारा प्रभु-ईश्वर हूँ। मैं तुम्हारा दाहिना हाथ पकड़ कर तुम से कहता हूँ- मत डरो, देखो, मैं तुम्हारी सहायता करूँगा।
14) याकूब! तुम कीड़े-जैसे हो गये हो। इस्राएल! तुम शव-जैसे हो गये हो। प्रभु कहता है- मैं तुम्हारी सहायता करूँगा, इस्राएल का परमपावन प्रभु तुम्हारा उद्धारक है।
15) मैं तुम, को दँवरी का यन्त्र बनाता हूँ- नया, दुधारा और पैना। तुम पहाड़ों को दाँव कर चूर-चूर करोगे और पहाड़ियों को भूसी बना दोगे।
16) तुम उन्हें ओसाओगे- हवा उन्हें उड़ा ले जायेगी और आँधी उन्हें छितरा देगी। तुम प्रभु में आनन्द मनाओगे और इस्राएल के परमपावन ईश्वर पर गौरव करोगे।
17) ''दरिद्र पानी ढूँढते हैं और पाते नहीं, उनकी जीभ प्यास के मारे सूख गयी है। मैं, प्रभु, उनकी दुहाई पर ध्यान दूँगा; मैं, इस्राएल का ईश्वर, उन्हें नहीं त्यागूँगा।
18) मैं उजाड़ पहाड़ियों पर से नदियाँ और घाटियों में जलधाराएँ बहा दूँगा। मैं मरुभूमि को झील बनाऊँगा और सूखी भूमि को जलस्रोतों से भर दूँगा।
19) मैं मरुभूमि में देवदार, बबूल, मेंहदी और जैतून लगा दूँगा। मैं उजाड़खण्ड में खजूर, चीड़ और चनार के वृक्ष लगाऊँगा।
20) इस प्रकार सब देख कर जानेंगे, सब उस पर विचार कर स्वीकार करेंगे कि प्रभु ने यह सब किया है, इस्राएल के परमपावन ईश्वर ने इसकी सृष्टि की है।''
21) प्रभु कहता है, ''अपना पक्ष प्रस्तुत करो!'' याकूब का अधिराज कहता है, ''अपने तर्कों का प्रतिपादन करो,
22) तुम्हारे देवता आकर हम को बतायें कि क्या होने वाला है। उन्होंने पहले क्या-क्या कहा था? हमें याद दिलाओ, हम ध्यान से सुनेंगे और जान जायेंगे कि इसका परिणाम क्या हुआ।
23) हमें बताओ कि भविष्य में क्या होने वाला है, जिससे हम तुम को देवता मान लें। भला या बुरा, कोई भी कार्य कर दिखाओ, तब हम डर कर तुम पर श्रद्धा रखेंगे।
24) देखो! तुम कुछ भी नहीं हो और तुम्हारे कार्य कुछ भी नहीं हैं।
25) ''मैंने उत्तर दिशा से एक व्यक्ति को प्रेरित किया है और वह आ गया है। मैंने उसे नाम ले कर पूर्व से बुलाया है। जिस तरह कुम्हार पैरों से मिट्टी रौंदता है, उसी तरह वह शासकों को पैरों से कुचलता है।
26) किसने यह बात प्रारम्भ से कही, जिससे हम यह जान सकें? किसने पहले से यह बताया, जिससे हम कह सकें- यह उचित ही है? नहीं, किसी ने इसकी घोषणा नहीं की; नहीं, किसी ने इसकी भविष्यवाणी नहीं की; नहीं, किसी ने तुम्हारी बातें नहीं सुनीं।
27) मैंने सब से पहले सियोन से कहा- वे आ रहे हैं। मैंने येरुसालेम को यह शुभ सन्देश सुनाया।
28) मैंने इधर-उधर देखा- कोई नहीं दिखाई पड़ा। उनमें कोई नहीं था- जो परामर्श दे सके, जो पूछे जाने पर उत्तर दे सके,
29) देखो, वे सब निरर्थक हैं, उनके कार्य व्यर्थ हैं। उनकी मूर्तियाँ सिर्फ हवा हैं।

अध्याय 42

1) ''यह मेरा सेवक है। मैं इसे सँभालता हूँ। मैंने इसे चुना है। मैं इस पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ। मैंने इसे अपना आत्मा प्रदान किया है, जिससे यह राष्ट्रों में धार्मिकता का प्रचार करे।
2) यह न तो चिल्लायेगा और न शोर मचायेगा, बाजारों में कोई भी इसकी आवाज नहीं सुनेगा।
3) यह न तो कुचला हुआ सरकण्डा ही तोड़ेगा और न धुआँती हुई बत्ती ही बुझायेगा। यह ईमानदारी से धार्मिकता का प्रचार करेगा।
4) यह न तो थकेगा और न हिम्मत हारेगा, जब तक यह पृथ्वी पर धार्मिकता की स्थापना न करे; क्योंकि समस्त द्वीप इसी शिक्षा की प्रतीक्षा करेंगे।''
5) जिसने आकाश बना कर फैलाया और पृथ्वी और उसकी हरियाली उत्पन्न की है, वही प्रभु-ईश्वर यह कहता है-
6) ''मैं प्रभु, ने तुम को न्याय के लिए बुलाया और तुम्हारा हाथ पकड़ कर तुम को सँभाला है। मैंने तुम्हारे द्वारा अपनी प्रजा को एक विधान दिया और तुम्हें राष्ट्रों की ज्योति बनाया है,
7) जिससे तुम अन्धों की दृष्टि दो, बन्दियों को मुक्त करो। और अन्धकार में रहने वालों को ज्योति प्रदान करो।
8) ''मैं प्रभु हूँ, यही मेरा नाम है। मैं न तो दूसरे को अपनी महिमा दूँगा और न मूर्तियों को अपना स्तुतिगान।
9) देखो, पुरानी बातें पूरी हो चुकी हैं; अब नयी बातों की घोषणा करता हूँ। घटित होने के पूर्व, मैं उन्हें सुनाता हूँ।''
10) महासागर और जलचरो! द्वीपो! और उनके सब निवासियो! प्रभु के आदर में नया गीत गाओ, पृथ्वी के सीमान्तों तक उसकी स्तुति करो।
11) मरुभूमि और उसके नगर, केदार के ग्रामवासी ऊँचे स्वर में गायें; चट्टान के निवासी उल्लसित हो कर गायें और पर्वतों के शिखर से जयघोष करें।
12) वे प्रभु की महिमा गा कर सुनायें और द्वीपों में उसकी स्तुति करें।
13) प्रभु शूरवीर की तरह प्रस्थान करेगा, योद्धा की तरह अपना उत्साह बढ़ायेगा; वह चिल्ला कर युद्ध का आह्वान करेगा और अपने शत्रुओं पर विजयी होगा।
14) ''मैं बहुत समय तक निष्क्रिय रहा, मैं मौन रहा और अपने को रोकता रहा; किन्तु अब मैं प्रसव-पीड़ित स्त्री की तरह आह भरता हूँ और हाँफते हुए चिल्लाता हूँ।
15) मैं पर्वतों और पहाड़ियों को उजाडँूगा और उनकी हरियाली सुखा दूँगा। मैं नदियों को टापू बनाऊँगा और तालाबों को सुखा दूँगा।
16) मैं अन्धों को अपरिचित पथ पर ले चलूँगा, मैं अपरिचित मार्गों पर उनका पथप्रदर्शन करूँगा। मैं उनके लिए अन्धकार को प्रकाश में बदलूँगा और घुमावदार पथ सीधे बनाऊँगा। मैं ये योजनाएँ पूरी करूँगा और इन्हें किसी भी प्रकार नहीं छोडूँगा।
17) जो देवमूर्तियों पर भरोसा रखते हैं, जो ढली हुई धातु से कहते हैं : 'आप ही हमारे देवता हैं', उन्हें लज्जित हो कर पीछे हटना पड़ेगा।
18) ''बहरो! कान लगा कर सुनो! अन्धो! आँख उठा कर देखो!
19) मेरे सेवक की तरह कौन बहरा है? जो सन्देशवाहक मैं भेजूँगा, उसकी तरह कौन बहरा है? मेरे सेवक, प्रभु के सेवक की तरह कौन अन्धा है?
20) तुमने बहुत कुछ देखा है, किन्तु ध्यान नहीं दिया; तुम्हारे कान खुले थे, किन्तु तुमने नहीं सुना।''
21) प्रभु अपनी सत्यप्रतिज्ञता के अनुरूप अपनी संहिता को महान् और महिमामय बनाना चाहता था।
22) किन्तु यह प्रजा लुटी हुई और अकिंचन है। वे सब खाइयों में फँसाये गये और बन्दीगृहों में छिपाये गये हैं। वे लुट गये और उन्हें कोई नहीं छुड़ाता; वे ऐसी लूट हैं कि कोई नहीं कहता : ''उन्हें वापस कर दो''।
23) तुम लोगों में कौन यह बात सुनेगा? कौन भविष्य में इस पर ध्यान देगा?
24) किसने याकूब को लूटने वालों के हाथ कर दिया, इस्राएल को लुटेरों के हाथ? क्या वह प्रभु ही नहीं था, जिसके विरुद्ध हमने पाप किया है? उन्होंने उसके मार्गों पर चलना नहीं चाहा और उसकी संहिता पर ध्यान नहीं दिया।
25) इसलिए इस्राएल पर उसका क्रोध भड़क उठा और उसकी प्रजा पर युद्ध का आतंक फैल गया। इस्राएल के चारों ओर आग लगी, फिर भी उसने ध्यान नहीं दिया। वह आग में भस्म हो गया, फिर भी उस में सद्बुद्धि नहीं आयी।

अध्याय 43

1) याकूब! जिसने तुम्हारी सृष्टि की है, इस्राएल! जिसने तुम को गढ़ा है, वही प्रभु अब कहता है : ''नहीं ड़रो! मैंने तुम्हारा उद्धार किया है। मैंने तुम को अपनी प्रजा के रूप में अपनाया है।
2) यदि तुम समदु्र पार करोगे, तो मैं तुम्हारे साथ होऊँगा। जलधाराएँ तुम्हें बहा कर ले जायेंगी। यदि तुम आग पार करोगे, तो तुम नहीं जलोगे। ज्वालाएँ तुम को भ्स्म नहीं करेंगी;
3) क्योंकि मैं, प्रभु, तुम्हारा ईश्वर हूँ; मैं इस्राएल का परमपावन उद्धारक हूँ। मैंने तुम को छुड़ाने के लिए मिस्र दे दिया, तुम्हारे बदले में इथोपिया और सबा दे दिये।
4) तुम मेरी दृष्टि में मूल्यवान् हो और महत्व रखते हो। मैं तुम्हें प्यार करता हूँ। इसलिए मैं तुम्हारे बदले मनुष्यों को देता हूँ? तुम्हारे प्राणों के लिए राष्ट्रों को देता हूँ।
5) नहीं डरो! मैं तुम्हारे साथ हूँ। मैं पूर्व से तुम्हारे वंशजों को लौटाऊँगा। मैं पश्चिम से तुम लोगों को एकत्र करूँगा।
6) मैं उत्तर से कहूँगा, 'उन्हें छोड़ दो' और दक्षिण से, 'उन्हें मत रोको।' मेरे पुत्रों को दूर-दूर से ला दो और मेरी पुत्रियों को पृथ्वी के कोने-कोने से;
7) उन सबों को, जो मेरे कहलाते हैं, जिनकी सृष्टि मैंने अपनी महिमा के लिए की है, जिन्हें मैंने गढ़ा और बनाया है।''
8) उन लोगों को सामने ले आओ, जो आँख रहते अन्धे हैं, जो कान होते बहरे हैं।
9) सारे राष्ट्र इकट्ठे हों, सब जातियाँ मिल जायें। उन में कौन राष्ट्र ऐसा है जिसने इस बात की भविष्यवाणी की थी, जिसने पहले की घटनाओं का संकेत किया था? वे अपनी बातें प्रमाणित करने के लिए साक्षियों को ले आयें, जिससे लोग उन्हें सुन कर कहें- ''उन पर विश्वास किया जा सकता है''।
10) प्रभु कहता है, ''तुम मेरे साक्षी हो। तुम मेरे सेवक हो; मैंने तुम को इसलिए चुना है कि तुम जान जाओ, मुझ में विश्वास करो और यह समझो कि मैं वही हूँ। मेरे पहले न तो कोई ईश्वर हुआ और न मेरे बाद कोई होगा।
11) मैं, मैं ही प्रभु हूँ; मेरे सिवा कोई उद्धारक नहीं।
12) मैंने मुक्ति-विधान की घोषणा की और उसे पूरा किया; मैंने भविष्यवाणी की- तुम्हारे किसी पराये देवता ने नहीं।'' प्रभु कहता हैः ''तुम मेरे साक्षी हो और मैं तुम्हारा ईश्वर हूँ।
13) मैं आज भी वही हूँ। मेरे हाथ से छुड़ाने वाला कोई नहीं। मैंने जो किया, उसे कोई व्यर्थ नहीं कर सकता।''
14) प्रभु, इस्राएल का परमपावन उद्धारक यह कहता हैः ''मैं तुम्हारे कारण बाबुल पर सेना भेजता हूँ, उसकी सब अर्गलाएँ तोड़ी जायेंगी। वहाँ के निवासी रोयेंगे और विलाप करेंगे।
15) मैं तुम्हारा परमपावन प्रभु हूँ, इस्राएल का सृष्टिकर्ता और तुम्हारा राजा।''
16) प्रभु ने समुद्र में मार्ग बनाया और उमड़ती हुई लहरों में पथ तैयार किया था।
17) उसने रथ, घोड़े और एक विशाल सेना बुलायी। वे सब-के-सब ढेर हो गये और फिर कभी नहीं उठ पाये। वे बत्ती की तरह जल कर बुझ गये। वही प्रभु कहता है :
18) ''पिछली बातें भुला दो, पुरानी बातें जाने दो।
19) देखो, मैं एक नया कार्य करने जा रहा हूँ। वह प्रारम्भ हो चुका है। क्या तुम उसे नहीं देखते? मैं मरुभूमि में मार्ग बनाऊँगा और उजाड़ प्रदेश में पथ तैयार करूँगा।
20) जंगली जानवर, गीदड़ और शुतुरमुर्ग मुझे धन्य कहेंगे, क्योंकि मैं अपनी प्रजा की प्यास बुझाने के लिए मरुभूमि में जल का प्रबन्ध करूँगा और उजाड़ प्रदेश में नदियाँ बहाऊँगा।
21) मैंने यह प्रजा अपने लिए बनायी है। यह मेरा स्तुतिगान करेगी।
22) ''याकूब! तुमने मेरा नाम नहीं लिया। इस्राएल! तुमने मेरी परवाह नहीं की।
23) तुमने भेड़ें ला कर मुझे होम-बलियाँ नहीं चढ़ायीं, तुमने यज्ञ चढ़ा कर मेरा सम्मान नहीं किया। मैंने तुम पर चढ़ावों का भार नहीं डाला और तुम से लोबान के लिए अनुरोध नहीं किया।
24) तुमने अपने खर्च से मुझे सुगन्धित द्रव्य नहीं चढ़ाया; तुमने अपने बलि-पशुओं से मुझे तृप्त नहीं किया। किन्तु तुमने अपने पापों का बोझ मुझ पर डाला और अपने अपराधों से मुझे खिजाया।
25) ''मैं वही हूँ, जो अपने नाम के कारण तुम्हारे सब अपराध धो डालता है। मैं तुम्हारे पाप फिर याद नहीं करता।
26) अपना पक्ष प्रस्तुत करो। हम उस पर विचार करें। निर्दोष होने के प्रमाण प्रस्तुत करो।
27) तुम्हारे मूल पुरुष ने पाप किया, तुम्हारे नेताओं ने मेरे विरुद्ध विद्रोह किया;
28) इसलिए मैंने मन्दिर के अध्यक्षों को अपवित्र किया, मैंने याकूब का विनाश किया और इस्राएल को अपमानित होने दिया।

अध्याय 44

1) ''याकूब! मेरे सेवक! इस्राएल! मैंने तुम्हें चुना है। मेरी बात सुनो!
2) जिसने तुम को बनाया है, जिसने माता के गर्भ में तुम्हें गढ़ा है, जो तुम्हारी सहायता करता है, वही प्रभु यह कहता है- याकूब! मेरे सेवक! तुम मत डरो! इस्राएल! मैंने तुम्हें चुना है।
3) मैं प्यासी भूमि पर पानी बरसाऊँगा। मैं सूख्ी धरती पर नदियाँ बहाऊँगा। मैं तुम्हारे वंशजों को अपना आत्मा और तुम्हारी सन्तति को अपना आशीर्वाद प्रदान करूँगा।
4) वे जलस्रोतों के किनारे लगे मजनूँ वृक्षों की तरह, जलाशय के तट की घास की तरह लहलहा उठेंगे।
5) एक कहेगा, 'मैं प्रभु का हूँ', तो दूसरा अपने को याकूब कह कर पुकारेगा। कोई तीसरा अपने हाथ पर लिखेगा, 'मैं प्रभु का हूँ' और उसका उपनाम इस्राएल होगा।
6) ''इस्राएल का प्रभु-ईश्वर और उद्धारक, विश्वमण्डल का प्रभु यह कहता हैः प्रथम और अन्तिम मैं हूँ। मेरे सिवा कोई ईश्वर नहीं।
7) मेरे समान कौन है? वह आ कर मेरे सामने इसका पूरा-पूरा वर्णन प्रस्तुत करे कि मानवजाति की सृष्टि के समय से क्या-क्या हुआ और क्या-क्या होने वाला है। वह भविष्य की घोषणा करे।
8) ''तुम भयभीत न हो, मत डरो। क्या मैंने बहुत पहले यह नहीं बताया और इसकी भविष्यवाणी नहीं की? क्या तुम मेरे साक्षी नहीं हो? क्या मेरे सिवा कोई ईश्वर है? मैं दूसरी चट्टान नहीं जानता, कोई है ही नहीं।''
9) जो मूर्तियाँ बनाते है, उनका कोई महत्त्व नहीं। जिन देवताओं पर उन्हें विश्वास है, उन से कोई लाभ नहीं। उनके समर्थक कुछ नहीं देख सकते, कुछ नहीं जानते और उन्हें लज्जित होना पड़ेगा।
10) वह कौन है, जो ऐसा देवता बनाता या मूर्ति ढालता है, जिस से कोई लाभ नहीं?
11) उसके उपासकों को लज्जित होना पड़ेगा; उसके शिल्पकार मात्र मनुष्य हैं। वे सब आ कर मेरे सामने आ जायें- वे भय-भीत हो कर कलंकित होंगे।
12) लोहार लोहे की मूर्ति बनाते समय उसे अंगारों पर रखता, हथौड़े से पीटता और मजबूत बाँहों से उसे गढ़ता है। काम करते-करते उसे भूख लगती है और वह कमजोर हो जाता है। यदि वह पानी नहीं पीता, तो बेहोश हो जाता।
13) बढ़ई लकड़ी पर डोरी रख कर उस पर निशान लगाता, छेनी से उसे आकार-प्रकार देता और परकार से मापता है। वह उस को मनुष्य के नमूने पर गढ़ता है और मन्दिर में रखने के उद्देश्य से उसे सुन्दर मानव आकृति देता है।
14) वह अपना लगाया हुआ देवदार, तिर्जा, बलूत या कोई अन्य वृक्ष काटता अथवा अपना रोपा हुआ कोई चीड़ जिसे वर्षा ने बढ़ाया है।
15) यह मनुष्य के लिए ईंधन बन जाता। लोग इसे जला कर तापते हैं अथवा चूल्हे में रख कर रोटी सेंकते। इसी लकड़ी से वे देवता बना कर उसकी उपासना करते अथवा मूर्ति बना कर उसकी दण्डवत् करते हैं।
16) वे आधी लकड़ी जलाते, उस पर माँस पका कर अपनी भूख मिटाते और आग सुलगा कर तापते हुए कहते हैं- ''अहा गरमी कितनी अच्छी लगती है''।
17) शेष लकड़ी से एक ईश्वर, अपनी देवमूर्ति बना कर उसे दण्डवत् करते और उसकी उपासना करते हैं। वे यह कहते हुए उस से प्रार्थना करते हैं, ''मेरा उद्धार कर, क्योंकि तू ही मेरा ईश्वर है''।
18) ऐसे लोग न तो जानते और न समझते हैं; उनकी आँखें अन्धी हैं, इसलिए वे नहीं देखते; उनके हृदय पर परदा लगा है, इसलिए उन में विवेक नहीं है।
19) कोई नही समझता और यह कहते हुए विचार नहीं करता, ''मैंने आधी लकड़ी जलायी, चूल्हे पर रोटी सेंकी और माँस पका कर खाया; क्या शेष लकड़ी से घृणित मूर्ति बना कर मुझे उसे दण्डवत् करना चाहिए?''
20) वह ईंधन पर भरोसा रखता है! उसका अविवेकी मन उसे भटकाता है। वह अपने जीवन की रक्षा नहीं कर सकेगा, फिर भी वह यह नहीं सोचता, ''जो मेरे हाथ में है, क्या वह धोखा नहीं?''
21) ''याकूब! इस बात पर विचार करो। इस्राएल! तुम मेरे सेवक हो। इस बात पर विचार करो। मैंने तुम को गढ़ा और अपना सेवक बनाया। इस्राएल! तुम मेरे साथ विश्वासघात नहीं करोगे।
22) मैंने बादल की तरह तुम्हारे अपराध, कोहरे की तरह तुम्हारे पाप मिटा दिये। मेरे पास लौटो, क्योंकि मैं तुम्हारा उद्धारक हूँ।''
23) आकाश! जयकार करो, क्योंकि प्रभु ने यह कार्य सम्पन्न किया। पृथ्वी की गहराइयो! जयघोष करो! पर्वतो, वन और वृक्षों! उल्लसित हो कर गाओ! क्योंकि प्रभु ने याकूब का उद्धार किया, उसने इस्राएल में अपनी महिमा प्रकट की है।
24) जिसने तुम्हारा उद्धार किया और तुम को माता के गर्भ में गढ़ा है, वही प्रभु यह कहता है : ''मैं प्रभु हूँ। मैंने सब कुछ बनाया है, मैंने ही आकाश ताना है, मैंने ही पृथ्वी को फैलाया है।
25) मैं झूठे नबियों की वाणी को व्यर्थ करता और शकुन विचारने वालों को मूर्ख बनाता हूँ। मैं ज्ञानियों को नीचा दिखाता और उनकी विद्या निरर्थक सिद्ध करता हूँ।
26) मैं अपने सेवक की वाणी सच प्रमाणित करता और अपने दूतों की योजनाएँ सफल बनाता हूँ। मैं येरुसालेम के विषय में कहता कि वह बसाया जाये और यूदा के नगरों के विषय में कि उनका पुनर्निर्माण हो। जो उजाड़ा गया, मैं उसे फिर बनवाऊँगा।
27) मैं विशाल समुद्र से कहता-'सूख जा' और नदियों से- मैं तुम्हें सुखा दूँगा'।
28) मैं सीरुस के विषय में कहता हूँ- 'वह मेरा चरवाहा है, वह यह कहते हुए मेरी इच्छा पूरी करेगा- येरुसालेम का पुनर्निर्माण हो; मन्दिर फिर उठाया जाये।''

अध्याय 45

1) प्रभु ने अपने अभिषिक्त सीरुस का दाहिना हाथ सँभाला है। उसने राष्ट्रों को सीरुस के अधीन कर दिया और राजाओं के शस्त्र ले लिये। प्रभु ने उसके लिए फाटकों को तोड़ दिया। अब उसके सामने कोई भी द्वार बन्द नहीं रहा। प्रभु उसी सीरुस से यह कहता है-
2) मैं तुम्हारे आगे-आगे चलूँगा और ऊबड़-खाबड़ स्थानों को समतल बनाऊँगा। मैं काँसे के फाटक को टुकड़े-टुकड़े करूँगा और लोहे की अर्गलाएँ तोड़ डालूँगा।
3) मैं तुम को अन्धकार में छिपे हुए ख़जाने और गुप्त स्थानों में रखी सम्पत्ति दे दूँगा, जिससे तुम जान जाओ कि मैं प्रभु हूँ, इस्राएल का वह ईश्वर, जो तुम को नाम ले कर बुलाता है।
4) मैंने अपने सेवक याकूब तथा अपने कृपापात्र इस्राएल के कारण तुम को नाम ले कर बुलाया और महान् बना दिया है, यद्यपि तुम मुझे नहीं जानते।
5) मैं ही प्रभु हूँ, कोई दूसरा नहीं है; मेरे सिवा कोई अन्य ईश्वर नहीं। यद्यपि तुम मुझे नहीं जानते, तो भी मैंने तुम्हें शस्त्र प्रदान किये,
6) जिससे पूर्व से पश्चिम तक सभी लोग यह जान जायें कि मेरे सिवा कोई दूसरा नहीं। मैं ही प्रभु हूँ, कोई दूसरा नहीं।
7) मैं प्रकाश और अन्धकार, दोनों की सृष्टि करता हूँ। मैं सुख भी देता और दुःख भी भेजता हूँ। मैं, प्रभु, यह सब करता हूँ।
8) आकाश! धार्मिकता बरसाओ- ओस की बूँदों की तरह, बादलों के जल की तरह। धरती खुल कर उसे ग्रहण करे- मुक्ति का अंकुर फूट निकले और धार्मिकता फले-फूले। मैं, प्रभु, ने इसकी सृष्टि की है।
9) धिक्कार उसे, जो अपने बनाने वाले के विरुद्ध भुनभुनाता, उस ठीकरे को, जो कुम्हार से बहस करता है! क्या मिट्टी अपने गढ़ने वाले से कहेगी, ''तुम यह क्या बना रहे हो? यह तो किसी काम का नहीं।''
10) धिक्कार उसे, जो अपने पिता से कहता है- ''तुमने मुझे क्यों पैदा किया?'' जो अपनी माता से कहता है- ''तुमने मुुझे जन्म क्यों दिया?''
11) प्रभु, इस्राएल का परमपावन सृष्टिकर्ता यह कहता है : ''क्या तुम मेरी प्रजा के भविष्य के विषय में मुझ से प्रश्न पूछते हो? क्या तुम मेरी सृष्टि के विषय में मुझे आदेश देते हो?
12) मैंने पृथ्वी को बनाया और उस पर मानव जाति की सृष्टि की। मैंने अपने हाथों से आकाश ताना, मैं ही आकाश के नक्षत्रों को आदेश देता हूँ।
13) मैंने न्याय के लिए उस व्यक्ति को बुलाया और मैं उसके सभी मार्ग समतल बनाऊँगा। वही मेरे नगर का पुनर्निर्माण करेगा और मेरे निर्वासितों को मुफ्त में लौटायेगा। यह विश्वमण्डल के प्रभु का कहना है।''
14) प्रभु यह कहता है : ''मिस्र की धन-सम्पत्ति, इथोपिया और उसकी उपज, सबा के ऊँचे कद वाले पुरुष- यह सब तुम्हारे पास आयेगा और उस पर तुम्हारा अधिकार हो जायेगा। वे बेड़ियाँ पहने तुम्हारे पीछे-पीछे चलेंगे। वे दण्डवत् कर तुम से यह प्रार्थना करेंगे : ''आप लोगों के यहाँ ही ईश्वर है, उसके सिवा कोई नहीं! अन्य देवता कुछ नहीं।''
15) इस्राएल के मुक्तिदाता ईश्वर! तू निश्चय वही ईश्वर है, जो अपने को छिपाता है।
16) देखो, देवमूर्तियाँ बनाने वाले सब-के-सब लज्जित, अपमानित और कलंकित हो कर जा रहे हैं।
17) ईश्वर के द्वारा इस्राएल का उद्धार हुआ है और वह उद्धार चिरस्थायी है। तुम अनन्त काल तक न तो अपमानित होगे और न कलंकित।
18) यह आकाश के सृष्टिकर्ता प्रभु का कहना है। उसने पृथ्वी गढ़ कर उसकी नींव सुदृढ़ कर दी है। उसने उसे इसलिए नहीं बनाया कि वह उजाड़ रहे, बल्कि इसलिए कि लोग उस पर निवास करें। प्रभु कहता हैः ''मैं ही प्रभु हूँ, कोई दूसरा नहीं।
19) मैं न तो छिप कर बोला हूँ और न पृथ्वी के किसी अन्धकारमय स्थान से। मैंने याकूब के वंशजों से नहीं कहा, 'शून्य उजाड़ स्थान में मुझे ढूँड़ो। मैं ही प्रभु हूँ। मैं सही बात कहता हूँ, मैं न्याय घोषित करता हूँ।
20) ''तुम, जो राष्ट्रों में बच गये हो, एकत्र हो कर मेरे पास आओ। जो जुलूस निकाल कर लकड़ी से बनी हुई अपनी देवमूर्ति ले जाते हैं, वे कुछ नहीं जानते और ऐसे देवता से प्रार्थना करते हैं, जो उनका उद्धार नहीं कर सकता।
21) ''आओ और अपनी सफ़ाई दो। आपस में परामर्श करो। किसने यह बात प्रारम्भ से ही बतायी? किसने बहुत पहले इसकी घोषणा की थी? क्या मैं, प्रभु ने ऐसा नहीं किया था? मेरे सिवा कोई दूसरा ईश्वर नहीं। मेरे सिवा कोई न्यायी और उद्धारकरर्ता ईश्वर नहीं।
22) पृथ्वी के सीमान्तों से मेरे पास आओ और तुम मुक्ति प्राप्त करोगे, क्योंकि मेरे सिवा कोई ईश्वर नहीं।
23) ''मेरे मुख से निकलने वाला शब्द सच्चा और अपरिवर्तनीय है। मैं शपथ खा कर यह कहता हूँ : हर घुटना मेरे सामने झुकेगा, हर कण्ठ मेरे नाम की शपथ लेगा।
24) सब लोग मेरे विषय में कहेंगे- ''प्रभु में ही न्याय दिलाने का सामर्थ्य है।'' जो उस से बैर करते थे, वे सब लज्जित हो कर उसके पास आयेंगे।
25) प्रभु इस्राएल की समस्त प्रजा को न्याय दिलायेगा और वह प्रभु का गौरव करेगी।

अध्याय 46

1) बेल देवता झुक गया, नबो देवता गिर गया। उनकी देवमूर्तियाँ लद्दू जानवरों पर रखी गयीं। जो मूर्तियाँ तुम जुलूस बना कर ले जाते हो, वे थके-माँदे जानवरों का बोझ बन गयी है।
2) वे देवमूर्तियाँ झुक कर गिर गयीं; वे अपने उपासकों को बचाने में असमर्थ हैं और उनके साथ बन्दी बन कर जा रही हैं।
3) ''याकूब के वंशजों! इस्राएल के बचे हुए लोगों! मेरी बात सुनो। मैंने गर्भ से ही तुम्हारी रक्षा की, माता की गोद से ही तुम को सँभला है।
4) मैं तुम्हारे बुढ़ापे तक वही करूँगा, मैं तुम्हारे बाल पक जाने तक तुम्हारा भरण-पोषण करूँगा। मैं वही करता रहूँगा, मैं तुम्हारी देखरेख करूँगा। तुमको सँभालूँगा और तुम्हारा उद्धार करूँगा।
5) ''तुम मेरी तुलना किस से करना चाहते हो, मुझे किसके बराबर समझते हो? तुम मेरी उपमा किस से देना चाहते हो, मुझे किसके समान समझते हो?
6) कुछ लोग अपनी थैली से सोना निकाल कर और अपनी चाँदी तौल कर सोनार को कोई देवता बनाने का आदेश देते हैं और उसके सामने झुक कर उसकी उपासना करते हैं।
7) वे स्वयं उसे अपने कन्धे पर ले जाते हैं और उसे उसके अपने स्थान पर रख देते हैं, जहाँ से वह खड़ी रह कर हिल नहीं सकती। वे उसकी दुहाई देते हैं, किन्तु वह उत्तर नहीं देती और उनकी विपत्ति से उनका उद्धार नहीं करती।
8) ''विद्रोहियों! मेरी बात सुनो, अपने मन में उस पर विचार करो।
9) प्राचीन काल की घटनाओं पर विचार करो। मैं ही ईश्वर हूँ, कोई दूसरा नहीं। मैं ही ईश्वर हूँ, मेरे समान कोई नहीं।
10) मैं प्रारम्भ से ही अन्त की घोषणा करता हूँ, मैं प्राचीन काल से भविष्य बताता हूँ। मैं कहता हूँ- मेरी योजना पूरी हो कर रहेगी; मैं जो चाहूँगा, वही करूँगा।
11) मैं पूर्व से एक शिकारी पक्षी बुलाता हूँ, दूर देश से एक ऐसा व्यक्ति, जो मेरा उद्देश्य पूरा करेगा। मैंने उसे प्रकट किया और उसे सम्पन्न करूँगा, मैंने यह योजना बनायी और उसे पूरा करूँगा।
12) हठधर्मियो, जो मुक्ति से दूर रहते हो! मेरी बात सुनो।
13) मैं अपना मुक्ति-विधान प्रकट करने जा रहा हूँ; वह दिन दूर नहीं है। तुम्हारा उद्धार निकट है। मैं सियोन का उद्धार करूँगा और इस्राएल पर अपनी महिमा प्रकट करूँगा।'

अध्याय 47

1) ''बाबुल की कुँवारी पुत्री! सिंहासन से उतर कर धूल में बैठ जा। खल्दैयियों की पुत्री! तू अपने सिंहासन से वंचित हो कर भूमि पर बैठ जा। लोग तुझे फिर कभी कोमला और सुकुमारी नहीं कहेंगे।
2) अपना घूँघट हटा कर चक्की से आटा पीसने जा। घाघरा उठा कर और जाँघ उघाड़ कर नदी पार कर।
3) तेरे वस्त्र उतर जायेंगे और लोग तुझे नंगी देखेंगे। मैं तुझ से बदला चुकाऊँगा और किसी की नहीं सुनूँगा।''
4) हमारा उद्धार करने वाले का नाम है- सर्वशक्तिमान् प्रभु, इस्राएल का परमपावन राजा।
5) ''खल्दैयियों की पुत्री! मौन रह कर अन्धकार में बैठ। फिर तुझे कोई कभी 'राज्यों की सम्राज्ञी' नहीं कहेगा।
6) मैं अपनी प्रजा पर क्रुद्ध था, मैंने अपनी विरासत को दूषित होने दिया; मैंने उसे तेरे हाथ दिया था, किन्तु तूने उन पर दया नहीं की, तूने बूढ़ों पर अपना बहुत भारी जूआ रख दिया।
7) तू कहती थी, 'मैं सदा-सर्वदा सम्राज्ञी बनी रहूँगी'। तूने अपने मन में उन बातों पर विचार नहीं किया और यह नहीं सोचा कि उनका परिणाम क्या होगा।
8) ''भोग-विालस में निश्चिन्त जीवन बिताने वाली! तू मन-ही-मन कहती थी : 'मैं ही हूँ, मेरे सिवा कोई नहीं; मैं कभी विधवा नहीं होऊँगी, मैं कभी सन्तान से वंचित नहीं होऊँगी।' अब मेरी बात सुनः
9) तेरे बहुसंख्यक तन्त्र-मन्त्रों और तेरे जादू-टोने की भरमार के बावजूद, वे दोनों विपत्तियाँ तुझ पर एक ही दिन टूट पडेंगी- सन्तानहीनता और विधवापन!
10) ''तू अपनी दुष्टता में अपने को सुरक्षित समझ कर कहती थी, 'मुझे कोई नहीं देखता।' तेरी ही बुद्धि और तेरी ही विद्या ने तुझे बहका दिया। तू मन-ही-मन कहती थी, 'मैं ही हूँ, मेरे सिवा कोई नहीं'।
11) तुझ पर एक ऐसा संकट आयेगा, जिसे दूर करने का मन्त्र तू नहीं जानती। तुझ पर एक ऐसी विपत्ति टूट पड़ेगी, जिस से तू अपनी रक्षा नहीं कर सकेगी। तुझ पर एक ऐसे विनाश का पहाड़ अचानक टूटेगा, जिसकी तू कल्पना नहीं कर सकती।
12) तन्त्र-मन्त्र और जादू-टोना करती जा, जिसकी साधना तू बचपन से करती आ रही है। हो सकता हैं, उस से तुझे कुछ लाभ हो और तू विपत्ति टाल सके।
13) तू असंख्य परामर्शदाताओं से पूछते-पूछते थक गयी है। वे ज्योतिषी और शकुन विचारने वाले अब आ कर तेरी रक्षा करे, जो प्रत्येक अमावस को तुझे बताते हैं कि तुझ पर क्या-क्या बीतेगी।
14) वे भूसी-जैसे हैं: उन्हें एक ऐसी आग भस्म कर देगी, जिसकी ज्वाला से वे अपनी ही रक्षा नहीं कर सकेंगे। वह आग तापने की लकड़ी नहीं है; उस आग के पास कोई नहीं बैठ सकेगा।
15) जिन जादू-टोना वालों के पीछे तू दौड़ती रही, जो बचपन से तेरा शोषण करते हैं, वे सब-के-सब स्वयं भटकते रहेंगे और तेरा उद्धार कोई नहीं करेगा।

अध्याय 48

1) ''याकूब के वंशजो! मेरी बात सुनो! तुम्हारा नाम इस्राएल है। तुम यूदा के वंशज हो। तुम प्रभु का नाम ले कर शपथ खाते हो। तुम इस्राएल के ईश्वर की दुहाई देते हो, किन्तु तुम में सच्चाई और धार्मिकता की कमी है।
2) वे अपने को पवित्र नगर के निवासी कहते हैं और इस्राएल के ईश्वर पर भरोसा करते हैं, जिसका नाम ÷विश्वमण्डल का प्रभु' है।
3) मैंने प्राचीन काल से प्रारम्भ की घटनाओं की भविष्यवाणी की; मैंने अपने ही मुख से उनकी घोषणा की है। मैंने उन्हें अचानक कार्य में परिणत किया और वे पूरी हो गयीं।
4) मैं जानता था कि तुम हठीले हो; तुम्हारी गरदन लोहे की तरह और तुम्हारा माथा काँसे की तरह कठोर है।
5) इसलिए मैंने बहुत पहले उन घटनाओं की घोषणा की, घटित होने से पहले उन्हें प्रकट किया, जिससे तुम यह नहीं कह पाते, ÷वे मेरी देवमूर्ति के कार्य हैं, मेरी ढली हुई प्रतिमा ने उनका आयोजन किया है'।
6) तुमने ये सब बातें सुनी और देखी हैं। क्या तुम इनकी घोषणा नहीं करोगे? मैं अब नयी बातों की चरचा करना चाहता हूँ, ऐसी बातों की, जो गुप्त हैं और जिन्हें तुम नहीं जानते।
7) ''वे बहुत पहले नहीं, बल्कि अभी-अभी घटित हो रही हैं, तुमने अब तक उनके विषय में नहीं सुना। इसलिए तुम नहीं कह सकते हो- ÷वे मुझे बहुत पहले से मालूम है'।
8) तुमने निश्चय ही उनके विषय में नहीं सुना, तुम उनके विषय में कुछ नहीं जानते; तुम से उनके विषय में पहले से कुछ नहीं कहा गया ; क्योंकि मैं जानता था कि तुम विश्वासघास करते आ रहे हो और माता के गर्भ से ही विद्रोही कहलाते हो।
9) मैंने अपना क्रोध अपने नाम के कारण भड़कने नहीं दिया। मैंने अपने गौरव के कारण अपने पर नियन्त्रण रखा और तुम्हारा विनाश नहीं किया।
10) देखो, मैंने तुम को शुद्ध किया, किन्तुु चाँदी की तरह आग में नहीं, बल्कि मैंने विपत्ति की भट्ठी में तुम्हारा परिष्कार किया।
11) मैंने अपने कारण ही यह किया। मैं अपना नाम कलंकित नहीं होने दूँगा, मैं अपनी महिमा किसी दूसरे को प्रदान नहीं करूँगा।
12) ''याकूब! इस्राएल! जिसे मैंने चुना है, मेरी बात सुनो। मैं वही हँू। प्रथम और अन्तिम मैं हूँ।
13) मेरे हाथ ने पृथ्वी की स्थापना की; मेरे दाहिने हाथ ने आकाश फैलाया; मेरे बुलाने पर वे प्रस्तुत हो जाते हैं।
14) तुम सब एकत्र हो कर मेरी बात सुनो। तुम्हारे देवताओं में किसने इसकी भविष्यवाणी की कि ईश्वर का कृपापात्र बाबुल और खल्दैयियों की जाति के विरुद्ध उसकी इच्छा पूरी करेगा?
15) मैंने ही यह कहा; मैंने उस को बुलाया, मैंने बुला भेजा और मैं उसे सफलता प्रदान करूँगा।
16) मेरे पास आ कर तुम यह सुनो; मैं प्रारम्भ से ही गुप्त रूप से कभी नहीं बोला; जब से यह सब होने लगा, मैं वहाँ था।'' अब प्रभु-ईश्वर ने मुझे अपना आत्मा प्रदान कर भेजा है।
17) प्रभु, इस्राएल का परमपावन ईश्वर, तुम्हारा उद्धारक यह कहता हैः ''मैं प्रभु, तुम्हारा ईश्वर हूँ। मैं तुम्हें कल्याण की बातें बतलाता हूँ और मार्ग में तुम्हारा पथप्रदर्शन करता हूँ।
18) ''यदि तुमने मेरी आज्ञाओं का पालन किया होता, तो तुम्हारी सुख-शान्ति नदी की तरह उमड़ती रहती और तुम्हारी धार्मिकता समुद्र की लहरों की तरह।
19) ''तुम्हारे वंशज बालू की तरह हो गये होते, तुम्हारी सन्तति उसके कणों की तरह असंख्य हो जाती। उसका नाम कभी नहीं मिटता और मैं उसे कभी अपनी दृष्टि से दूर नहीं करता।''
20) बाबुल से बाहर निकल जाओ, खल्दैया से भाग जाओ, जयकार करते हुए इसकी घोषणा करो, पृथ्वी के छोरों तक यह सुनाओ, ''प्रभु ने अपने सेवक याकूब का उद्धार किया''।
21) जिस समय वह उन्हें रेगिस्तान से हो कर ले जा रहा था, उस समय उन्हें प्यास नहीं लगी। उसने उनके लिए चट्टान से पानी निकाला, उसने चट्टान तोड़ डाली और उस में से पानी बह निकला।
22) प्रभु कहता हैः ''कुकर्मियों को शान्ति नहीं मिलती''।

अध्याय 49

1) दूरवर्ती द्वीप मेरी बात सुनो। दूर के राष्ट्रों! कान लगा कर सुनो। प्रभु ने मुझे जन्म से पहले ही बुलाया, मैं माता के गर्भ में ही था, जब उसने मेरा नाम लिया।
2) उसने मेरी वाणी को अपनी तलवार बना दिया और मुझे अपने हाथ की छाया में छिपा लिया। उसने मुझे एक नुकीला तीर बना दिया और मुझे अपने तरकश में रख लिया
3) उसने मुझे से कहा, ''तुम मेरे सेवक हो, मैं तुम में अपनी महिमा प्रकट करूँगा''।
4) मैं कहता था, ''मैंने बेकार ही काम किया है, मैंने व्यर्थ ही अपनी शक्ति खर्च की है। प्रभु ही मेरा न्याय करेगा, मेरा पुरस्कार उसी के हाथ में है।''
5) परन्तु जिसने मुझे माता के गर्भ से ही अपना सेवक बना लिया है, जिससे मैं याकूब को उसके पास ले चलँू और उसके लिए इस्राएल को इकट्ठा कर लूँ, वही प्रभु बोला; उसने मेरा सम्मान किया, मेरा ईश्वर मेरा बल है।
6) उसने कहाः ''याकूब के वंशों का उद्धार करने तथा इस्राएल के बचे हुए लोगों को वापस ले आने के लिए ही तुम मेरे सेवक नहीं बने। मैं तुम्हें राष्ट्रों की ज्योति बना दूँगा, जिससे मेरा मुक्ति-विधान पृथ्वी के सीमान्तों तक फैल जाये।''
7) जो तिरस्कृत है, जिसे लोग तुच्छ समझते हैं, जो निरंकुश शासकों का दास है, उस से प्रभु, इस्राएल का परमपावन ईश्वर और उद्धारक यह कहता हैः ''राजगण यह देख कर अपने सिंहासन से उठेंगे और दण्डवत् करेंगे कि प्रभु तुम्हारे प्रति सत्यप्रतिज्ञा है, कि इस्राएल के परमपावन ईश्वर ने तुम को चुना है।''
8) प्रभु यह कहता हैः ''मैं उपयुक्त समय में तुम्हारी सुनूँगा, मैं कल्याण के दिन तुम्हारी सहायता करूँगा। मैंने तुम को सुरक्षित रखा है और अपने विधान की प्रजा नियुक्त किया है। मैं भूमि का उद्धार करूँगा और तुम्हें उजाड़ प्रदेशों में बसाऊँगा।
9) मैं बन्दियों से यह कहूँगा, 'मुक्त हो जाओ! और अन्धकार में रहने वालों से, 'सामने आओ'। वे मार्गों के किनारे चरेंगे और उन्हें उजाड़ स्थानों में चारा मिलेगा।
10) उन्हें फिर कभी न तो भूख लगेगी और न प्यास, उन्हें न तो लू से कष्ट होगा और न धूप से, क्योंकि जो उन्हें प्यार करता है, वह उनका पथप्रदर्शन करेगा और उन्हें उमड़ते हुए जलस्रोतों तक ले चलेगा।
11) मैं पर्वतों में रास्ता निकालूँगा और मार्गों को समतल बना दूँगा।
12) ''देखो, कुछ लोग दूर से आ रहे हैं, कुछ उत्तर से, कुछ पश्चिम से और कुछ अस्सुआन देश से।''
13) आकाश जयकार करे! पृथ्वी उल्लसित हो और पर्वत आनन्द के गीत गायें! क्योंकि प्रभु अपनी प्रजा को सान्त्वना देता है और अपने दीन-हीन लोगों पर दया करता है।
14) सियोन यह कह रही थी, ''प्रभु ने मुझे छोड़ दिया है। प्रभु ने मुझे भुला दिया है।''
15) ''क्या स्त्री अपना दुधमुँहा बच्चा भुला सकती है? क्या वह अपनी गोद के पुत्र पर तरस नहीं खायेगी? यदि वह भुला भी दे, तो भी मैं तुम्हें कभी नहीं भुलाऊँगा।
16) मैंने तुम्हें अपनी हथेलियों पर अंकित किया है, तुम्हारी चारदीवारी निरन्तर मेरी आँखों के सामने है।
17) तुम्हारे निर्माता दौड़ते हुए तुम्हारे पास आ रहे हैं; जिन्होंने तुम्हें उजाड़ा और विनष्ट किया, वे तुम्हारे यहाँ से जा रहे हैं।
18) तुम चारों और दृष्टि दौड़ा कर देखो कि सब एकत्र हो कर तुम्हारे पास आ रहे हैं। प्रभु कहता हैः ''अपने अस्तित्व की शपथ! तुम आभूषण की तरह उन सबों को पहनोगी। तुम वधू की तरह उन से अपना श्रृंगार करोगी;
19) क्योंकि तुम्हारे खँड़हर, तुम्हारे उजाड़ स्थान, तुम्हारा देश, जिसका पूर्ण विनाश किया गया, वह अब तुम्हारे बहुसंख्यक निवासियों के लिए छोटा पड़ जायेगा; क्योंकि जिन्होंने तुम को उजाड़ा है, वे चले गये हैं।
20) जो सन्तति तुम्हारे निर्वासन के समय उत्पन्न हुई है, वह तुम से कहेगी, 'यह स्थान हमारे लिए पर्याप्त नहीं है, हम को बसने के लिए और जगह दो'।
21) तब तुम अपने मन में यह कहोगी, 'मुझे यह सारी सन्तति कहाँ प्राप्त हुई? मैं तो निस्सन्तान और बाँझ थी। किसने उसका पालन-पोषण किया? मैं अकेली रह गयी थी, ये सब कहाँ से आ गयी है?'
22) प्रभु-ईश्वर यह कहता हैः ''देखो, मैं हाथ उठा कर जातियों को बुलाऊँगा, मैं राष्ट्रों को संकेत देने का झण्डा फहराऊँगा। वे तुम्हारे पुत्रों को अपनी गोद में उठा कर और तुम्हारी पुत्रियों को अपने कन्धों पर रख कर ले आयेंगे।
23) राजा तुम्हारे पालक-पिता होंगे और राजकुमारियाँ तुम्हारी धायें। वे तुम को साष्टांग प्रणाम करेंगे और तुम्हारे पैरों की धूल चाटेंगे। तुम जान जाओगे कि मैं ही प्रभु हूँ। मुझ पर भरोसा रखने वालों को लज्जित नहीं होना पड़ेगा।''
24) क्या विजेता से उसकी लूट छीनी जा सकती है? क्या अत्याचारी के हाथ से बन्दी को छुड़ाया जा सकता है?
25) प्रभु इसका यह उत्तर देता है, ''निश्चय ही विजेता से उसकी लूट छीनी जायेगी और अत्याचारी के हाथ से बन्दी को छुड़ाया जायेगा। मैं ही तुम्हारे शत्रुओं से लडूँगा, मैं ही तुम्हारे पुत्रों को छुड़ाऊँगा।
26) मैं तुम्हारे अत्याचारियों को बाध्य करूँगा कि वे अपना ही माँस खायें। वे अंगूरी पीने वालों की तरह अपना ही रक्त पी कर मत्त हो जायेंगे। तब सभी शरीरधारी जान जायेंगे कि मैं, प्रभु, तुम्हारा मुक्तिदाता हूँ, याकूब का वह अजेय ईश्वर, जो तुम्हारा उद्धार करता है।''

अध्याय 50

1) प्रभु यह कहता हैः ''कहाँ है वह तलाक़-पत्र, जिससे यह प्रमाणित हो कि मैंने तुम्हारी माता का परित्याग किया? कहाँ है वह साहूकार, जिसके हाथ मैंने तुम को बेचा? तुम अपने ही कुकर्मों के कारण बिक गये हो। तुम्हारे पापों के कारण तुम्हारी माता का परित्याग किया गया।
2) जब मैं आया, तो क्यों कोई नहीं मिला? जब मैंने पुकारा, तो क्यों किसी ने उत्तर नहीं दिया? क्या मेरा हाथ इतना छोटा हो गया है कि वह तुम्हारा उद्धार करने में असमर्थ है? क्या मेरे पास इतना सामर्थ्य नहीं कि मैं तुम को छुड़ा सकता? देखो! मैं धमकी दे कर समुद्र सुखाता हूँ। मैं नदियों की मरुभूमि बना देता हूँ, जिससे मछलियाँ पानी के अभाव के कारण मर जाती हैं और उनमें दुर्गन्ध हो जाती है।
3) मैं आकाश को अन्धकार पहनाता हूँ और उसे टाट के वस्त्र ओढ़ाता हूँ।''
4) प्रभु ने मुझे शिष्य बना कर वाणी दी है, जिससे मैं थके-माँदे लोगों को सँभाल सकूँ। वह प्रतिदिन प्रातः मेरे कान खोल देता है, जिससे मैं शिष्य की तरह सुन सकूँ।
5) प्रभु ने मेरे कान खोल दिये हैं; मैंने न तो उसका विरोध किया और न पीछे हटा।
6) मैंने मारने वालों के सामने अपनी पीठ कर दी और दाढ़ी नोचने वालों के सामने अपना गाल। मैंने अपमान करने और थूकने वालों से अपना मुख नहीं छिपाया।
7) प्रभु मेरी सहायता करता है; इसलिए मैं अपमान से विचलित नहीं हुआ। मैंने पत्थर की तरह अपना मुँह कड़ा कर लिया। मैं जानता हूँ कि अन्त में मुझे निराश नही होना पड़ेगा।
8) मेरा रक्षक निकट है, तो मेरा विरोधी कौन? हम एक दूसरे का सामना करें। मुझ पर अभियोग लगाने वाला कौन? वह आगे बढ़ने का साहस करे।
9) प्रभु-ईश्वर मेरी सहायता करता है, तो कौन मुझे दोषी ठहराने का साहस करेगा? मेरे सभी विरोधी वस्त्र की तरह जीर्ण हो जायेंगे, उन्हें कीड़े खा जायेंगे।
10) क्या तुम लोगों में कोई प्रभु पर श्रद्धा रखता और उसके सेवक की वाणी पर ध्यान देता है? जो अन्धकार में भटकता है और कहीं भी प्रकाश नहीं देखता, वह प्रभु के नाम का भरोसा करे और अपने ईश्वर की सहायता पर निर्भर करे।
11) तुम सब, जो आग लगाते हो, और चारों ओर लुआठे फेंकते हो, तुम्हें अपने द्वारा जलायी हुई अग्नि और सुलगाये लुआठों की आग को पार करना होगा। मेरे कारण तुम को यह भुगतना पड़ेगा। तुम सन्ताप में पड़े रहोगे।

अध्याय 51

1) ''तुम, जो धर्माचरण करते और प्रभु को खोजते रहते हो, मेरी बात सुनो। उस चट्टान की ओर देखो, जिस से तुम काटे गये हो, उस खदान की ओर, जिस से तुम निकाले गये हो।
2) अपने पिता इब्राहीम पर ध्यान दो, सारा पर, जिसने तुम को जन्म दिया। जब मैंने इब्राहीम को बुलाया, तो वह अकेला था। मैंने उसे आशीर्वाद दिया और उसके वंश की वृद्धि की।
3) प्रभु निश्चय ही सियोन को सान्त्वना देगा और उसके खँडहरों पर दयादृष्टि करेगा। वह उसकी मरुभूमि को अदन-वाटिका के सदृश बना देगा और उसके उजाड़ स्थान प्रभु और के उद्यान के सदृश। वहाँ आनन्द और उल्लास बना रहेगा; वहाँ धन्यवाद के गीत गूँजते रहेंगे।
4) ''मेरी प्रजा! मेरी बात सुनो; मेरे नगर! मुझ पर कान दो। मैं संहिता को प्रकट करूँगा, मेरा न्याय जातियों की ज्योति होगा।
5) मेरा न्याय निकट है, मेरा उद्धार आ रहा है; मैं अपने बाहुबल से जातियों का न्याय करूँगा। द्वीप मेरी ओर देखेंगे और मेरे सामर्थ्य का भरोसा करेंगे।
6) आकाश की ओर आँखें ऊपर उठाओ और नीचे की ओर पृथ्वी पर दृष्टि दौड़ाओ। आकश धुएँ की तरह विलीन हो जायेगा, पृथ्वी वस्त्र की तरह जीर्ण हो जायेगी और उसके निवासी कीड़ों की तरह मर जायेंगे। किन्तु तुम्हारे लिए मेरा उद्धार चिरस्थायी है और मेरा न्याय सदा बना रहेगा।
7) ओ मेरी प्रजा! तुम, जो सद्धर्म समझती हो और मेरी संहिता को हृदय से चाहती हो, मेरी बात सुनो! मनुष्यों की निन्दा से मत डरो और उनके अपमान से मत घबराओ;
8) क्योंकि उन्हें कीड़े कपड़ों की तरह चाट जायेंगे, उन्हें कीट ऊन की तरह खा जायेंगे; किन्तु तुम्हारे लिए मेरा न्याय, पीढ़ी-दर-पीढ़ी मेरा उद्धार सदा बना रहेगा।''
9) प्रभु की भुजा! जाग! जाग! सामर्थ्य धारण कर! जाग-प्राचीन काल की तरह, पुरानी पीढ़ियों के समय की तरह! क्या तूने रहब को टुकड़े-टुकड़े नही किया, और पंखदार सर्प को नहीं छेदा?
10) क्या तूने समुद्र को, महागर्त्त की जलधाराओं को नहीं सुखाया? तूने समुद्र की गहराइयों में मार्ग नहीं बनाया, जिससे मुक्त किये गये लोग पार कर सकें?
11) प्रभु द्वारा मुक्त किये गये लोग लौटेंगे। वे चिरस्थायी आनन्द से विभूषित, सुख और उल्लास में विभोर, दुःख और चिन्ता से मुक्त हो कर जयकार करते हुए सियोन में प्रेवश करेंगे।
12) ''मैं, मैं ही तुम को सान्त्वना देता हूँ, तो तुम मरणशील मनुष्यों से क्यों डरते हो-आदम के पुत्रों से, जो घास के सदृश हैं?
13) तुम अपने सृष्टिकर्ता को क्यों भूल जाते हो, जिसने आकश को फैलाया और पृथ्वी की नींव डाली? तुम दिन भर निरन्तर अत्याचारी के क्रोध से क्यों करते हो, मानो वह तुम्हारा विनाश करने में समर्थ हो? कहाँ है अत्याचारी का क्रोध?
14) झुके हुए बन्दी शीघ्र ही रिहा किये जायेंगे। वे नहीं मरेंगे और उन्हें रोटी का अभाव नही होगा;
15) क्योंकि मैं तुम्हारा प्रभु-ईश्वर हूँ, जो समुद्र का मन्थन करता, जिससे उसकी लहरें गरजती हैं। मेरा नाम है-विश्वमण्डल का प्रभु।
16) मैंने अपने शब्दों को तुम्हारे मंँुह में रखा और तुम को अपने हाथ की छाया में छिपाया है। मैंने आकाश को स्थापित किया, पृथ्वी की नींव डाली और सियोन से कहा-'तुम ही मेरी प्रजा हो'।''
17) येरुसालेम नगरी! जाग, खड़ी हो जा। तूने प्रभु के हाथ से उसके कोप के प्याले का पान किया। तूने लड़खड़ा देने वाली मदिरा का पात्र पूरा-पूरा पी लिया है।
18) तूने जितने पुत्रों को उत्पन्न किया, उन में एक भी तेरा प्रथप्रदर्शक नहीं बना। तूने जितने पुत्रों का पालन-पोषण किया, उन में एक ने भी तेरा हाथ नही थामा।
19) तुझ पर दो-दो विपत्तियाँ टूटीं: उजाड़ और विनाश; भुखमरी और तलवार। किसी ने तुझ पर विलाप नहीं किया; किसी ने तुझे सान्त्वना नहीं दी।
20) तेरी सन्तति जाल में फँसे मृग की तरह हर गली के नुक्कड़ पर बेहोश पड़ी है। वह प्रभु के कोप की मारी ईश्वर की डाँट से घायल है।
21) इसलिए दुर्भाग्यशालिनी! मेरी बात सुन। तू बिना अंगूरी पिये लड़खड़ा रही है।
22) तेरा स्वामी, तेरा प्रभु-ईश्वर, जो अपनी प्रजा का पक्ष लेता है, कहता है, ''मैंने तेरे हाथ से लड़खड़ा देने वाला प्याला ले लिया है। तू फिर कभी मेरे क्रोध का पात्र नहीं पियेगी।
23) मैं उसे तेरे अत्याचारियों के हाथ में दूँगा, उन लोगों के हाथ, जो तुझ से कहते थेः 'भूमि पर लेट जा, हम तुझ पर पैर रख कर आगे बढ़ेंगे' और तूने अपनी पीठ जमीन-जैसी बना ली, मार्ग-जैसी, जिस पर गुजरने वाले चलते थे।''

अध्याय 52

1) सियोन! जाग, खड़ी हो जा, सामर्थ्य धारण कर। पवित्र नगरी येरुसालेम! वैभव के वस्त्र धारण कर। क्योंकि बेख़तना और अपवित्र व्यक्ति फिर कभी तुझ में प्रवेश नहीं करेंगे।
2) येरुसालेम! धूल में से उठ कर खड़ी हो और अपने सिंहासन पर विराजमान हो जा। सियोन की बन्दिनी पुत्री! अपनी गरदन की बेड़ियाँ तोड़ डाल।
3) ्रपभु यह कहता है, ''तू बिना मोल बेच दी गयी थी। अब बिना मोल तेरा उद्धार किया जायेगा'';
4) क्योंकि प्रभु-ईश्वर यह कहता है, ''प्रारम्भ में मेरी प्रजा रहने के लिए मिस्र गयी थी। अन्त में अस्सूरियों ने उस पर अत्याचार किया
5) और अब यहाँ मेरे पास क्या रह गया?'' यह प्रभु की वाणी है। ''क्योंकि मेरी प्रजा अकारण निर्वासित की गयी और उस पर शासन करने वाले उसका उपहास करते हैं।'' यह प्रभु की वाणी है। ''दिन भर मेरे नाम की निन्दा की जाती है।
6) उस दिन मेरी प्रजा मेरा नाम जान जायेगी। वह अनुभव करेगी कि मैं वही हूँ, जो कहता है, 'मैं यहीं हूँ।''
7) जो शान्ति घोषित करता है, सुसमाचार सुनाता है, कल्याण का सन्देश लाता और सियोन से कहता है, ''तेरा ईश्वर राज्य करता है''- इस प्रकार शुभ सन्देश सुनाने वाले के चरण पर्वतों पर कितने रमणीय हैं!
8) येरुसालेम! तेरे पहरेदार एक साथ ऊँचे स्वर से आनन्द के गीत गाते हैं। वे अपनी आँखों से देख रहे हैं कि प्रभु ईश्वर सियोन की ओर वापस आ रहा है।
9) येरुसालेम के खँड़हर आनन्दविभोर हो कर जयकार करें! प्रभु-ईश्वर अपनी प्रजा को सान्त्वना देता और येरुसालेम का उद्धार करता है।
10) प्रभु-ईश्वर ने समस्त राष्ट्रों के देखते-देखते अपना पावन सामर्थ्य प्रदर्शित किया है। पृथ्वी के कोने-कोने में हमारे ईश्वर का मुक्ति-विधान प्रकट हुआ है।
11) प्रस्थान करो, प्रस्थान करो! वहाँ से जाओ। किसी अशुद्ध वस्तु का स्पर्श मत करो। प्रभु के मन्दिर के पात्र ले जाने वालो! बाबुल से निकल कर अपने को पवित्र करो।
12) तुम हड़बड़ी में नहीं जाओगे, तुम भगदड़ में नहीं भागोगे; क्योंकि प्रभु तुम्हारे आगे-आगे चलेगा, इस्राएल का ईश्वर तुुम्हारे पीछे-पीछे आयेगा।
13) देखो! मेरा सेवक फलेगा-फूलेगा। वह महिमान्वित किया जायेगा और अत्यन्त महान् होगा।
14) उसकी आकृति इतनी विरूपित की गयी थी कि वह मनुष्य नही जान पड़ता था; लोग देख कर दंग रह गये थे।
15) उसकी ओर बहुत-से राष्ट्र आश्चर्यचकित हो कर देखेंगे और उसके सामने राजा मौन रहेंगे; क्योंकि उनके सामने एक अपूर्व दृश्य प्रकट होगा और जो बात कभी सुनने में नहीं आयी, वे उसे अपनी आँखों से देखेंगे।

अध्याय 53

1) किसने हमारे सन्देश पर विश्वास किया? प्रभु का सामर्थ्य किस पर प्रकट हुआ है?
2) वह हमारे सामने एक छोटे-से पौधे की तरह, सूखी भूमि की जड़ की तरह बढ़ा। हमने उसे देखा था; उसमें न तो सुन्दरता थी, न तेज और न कोई आकर्षण ही।
3) वह मनुष्यों द्वारा निन्दित और तिरस्कृत था, शोक का मारा और अत्यन्त दुःखी था। लोग जिन्हें देख कर मुँह फेर लेते हैं, उनकी तरह ही वह तिरस्कृत और तुच्छ समझा जाता था।
4) परन्तु वह हमारे ही रोगों का अपने ऊपर लेता था और हमारे ही दुःखों से लदा हुआ था और हम उसे दण्डित, ईश्वर का मारा हुआ और तिरस्कृत समझते थे।
5) हमारे पापों के कारण वह छेदित किया गया है। हमारे कूकर्मों के कारण वह कुचल दिया गया है। जो दण्ड वह भोगता था, उसके द्वारा हमें शान्ति मिली है और उसके घावों द्वारा हम भले-चंगे हो गये हैं।
6) हम सब अपना-अपना रास्ता पकड़ कर भेड़ों की तरह भटक रहे थे। उसी पर प्रभु ने हम सब के पापों का भार डाला है।
7) वह अपने पर किया हुआ अत्याचार धैर्य से सहता गया और चुप रहा। वध के लिए ले जाये जाने वाले मेमने की तरह और ऊन कतरने वाले के सामने चुप रहने वाली भेड़ की तरह उसने अपना मुँह नहीं खोला।
8) वे उसे बन्दीगृह और अदालत ले गये; कोई उसकी परवाह नहीं करता था। वह जीवितों के बीच में से उठा लिया गया है और वह अपने लोगों के पापों के कारण मारा गया है।
9) यद्यपि उसने कोई अन्याय नहीं किया था और उसके मुँह से कभी छल-कपट की बात नहीं निकली थी, फिर भी उसकी कब्र विधर्मियों के बीच बनायी गयी और वह धनियों के साथ दफ़नाया गया है।
10) प्रभु ने चाहा कि वह दुःख से रौंदा जाये। उसने प्रायश्चित के रूप में अपना जीवन अर्पित किया; इसलिए उसका वंश बहुत दिनों तक बना रहेगा और उसके द्वारा प्रभु की इच्छा पूरी होगी।
11) उसे दुःखभोग के कारण ज्योति और पूर्ण ज्ञान प्राप्त होगा। उसने दुःख सह कर जिन लोगों का अधर्म अपने ऊपर लिया था, वह उन्हें उनके पापों से मुक्त करेगा।
12) इसलिए मैं उसका भाग महान् लोगों के बीच बाँटूँगा और वह शक्तिशाली राजाओं के साथ लूट का माल बाँटेगा; क्योंकि उसने बहुतों के अपराध अपने ऊपर लेते हुए और पापियों के लिए प्रार्थना करते हुए अपने को बलि चढ़ा दिया और उसकी गिनती कुकर्मियों में हुई।

अध्याय 54

1) ''बन्ध्या! तुझे कभी पुत्र नहीं हुआ। अब आनन्द मना। तूने प्रसवपीड़ा का अनुभव नहीं किया। उल्लास के गीत गा, क्योंकि प्रभु यह कहता है, -'विवाहिता की अपेक्षा परित्यक्ता के अधिक पुत्र होंगे।'
2) ''अपने शिविर का क्षेत्र बढ़ा। अपने तम्बू के कपड़े फैला। उसके रस्से और लम्बे कर। उसकी खूँटियाँ और दृढ़ कर;
3) क्योंकि तू दायें और बायें फैलेगी। तेरा वंश राष्ट्रों को अपने अधीन करेगा और तेरी सन्तति उजाड़ नगरों में बस जायेगी।
4) ''डर मत- तुझे निराशा नही होगी। घबरा मत- तुझे लज्जित नहीं होना पड़ेगा। तू अपनी तरुणाई का कलंक भूल जायेगी, तुझे अपने विधवापन की निन्दा याद नहीं रहेगी।
5) ''तेरा सृष्टिकर्ता ही तेरा पति है। उसका नाम है- विश्वमण्डल का प्रभु। इस्राएल का परमपावन ईश्वर तेरा उद्धार करता है। वह समस्त पृथ्वी का ईश्वर कहलाता है।
6) ''परित्यक्ता स्त्री की तरह दुःख की मारी! प्रभु तुझे वापस बुलाता है। क्या कोई अपनी तरुणाई की पत्नी को भुला सकता है?'' यह तेरे ईश्वर का कथन है।
7) ''मैंने थोड़ी ही देर के लिए तुझे छोड़ा था। अब मैं तरस खा कर, तुझे अपने यहाँ ले जाऊँगा।
8) मैंने क्रोध के आवेश में क्षण भर तुझ से मुँह फेर लिया था। अब मैं अनन्त प्रेम से तुझ पर दया करता रहूँगा।'' यह तेरे उद्धारकर्ता ईश्वर का कथन है।
9) ''नूह के समय मैंने शपथ खा कर कहा था कि प्रलय की बाढ़ फिर पृथ्वी पर नहीं आयेगी। उसी तरह मैं शपथ खा कर कहता हूँ कि मैं फिर तुझ पर क्रोध नहीं करूँगा और फिर तुझे धमकी नहीं दूँगा।
10) ''चाहे पहाड़ टल जायें और पहाड़ियाँ डाँवाडोल हो जायें, किन्तु तेरे प्रति मेरा प्रेम नहीं टलेगा और तेरे लिए मेरा शान्ति-विधान नहीं डाँवाडोल होगा।'' यह तुझ पर तरस खाने वाले प्रभु का कथन है।
11) ''दुर्भाग्यशालिनी! आँधी और दुःख की मारी! मैं तेरे पत्थर चुन-चुन कर लगवा दूँगा और तेरी नींव नीलमणियों पर डालूँगा।
12) मैं तेरे कंगूरे लालमणियों से, तेरे फाटक स्फटिक से और तेरे परकोटे रत्नों से बनाऊँगा।
13) तेरी प्रजा प्रभु से शिक्षा ग्रहण करेगी और उसकी सुख-शान्ति की सीमा नहीं रहेगी।
14) तेरी नींव न्याय पर डाली जायेगी। तुझे कोई नहीं सतायेगा, तू कभी भयभीत नहीं होगी। आतंक तुझ से कोसों दूर रहेगा।
15) यदि कोई तुझ पर आक्रमण करेगा, तो वह मुझ से प्रेरित नहीं होगा, तुझ पर जो आक्रमण करेगा, उसका तेरे कारण विनाश हो जायेगा।
16) देख, मैंने लोहार की सृष्टि की, जो कोयले में आग सुलगा कर युद्ध के लिए उत्तम शस्त्र बनाता है। मैंने सब कुछ का विनाश करने वाले विध्वसंक की भी सृष्टि की है।
17) तेरे विरुद्ध गढ़ा हुआ कोई शस्त्र सफल नहीं होगा। जो तुझ पर अभियोग लगाता है, तू उसका खण्डन करेगी। यह प्रभु के सेवकों का भाग्य है। मैं, प्रभु, उन्हें न्याय दिलाता हूँ।'' यह प्रभु का कथन है।

अध्याय 55

1) ''तुम सब, जो प्यासे हो, पानी के पास चले आओ। यदि तुम्हारे पास रुपया नहीं हो, तो भी आओ। मुफ्त में अन्न ख़रीद कर खाओ, दाम चुकाये बिना अंगूरी और दूध ख़रीद लो।
2) जो भोजन नहीं है, उसके लिए तुम लोग अपना रुपया क्यों ख़र्च करते हो? जो तृप्ति नहीं दे सकता है, उसके लिए परिश्रम क्यों करते हो? मेरी बात मानो। तब खाने के लिए तुम्हें अच्छी चीजें मिलेंगी और तुम लोग पकवान खा कर प्रसन्न रहोगे।
3) कान लगा कर सुनो और मेरे पास आओ। मेरी बात पर ध्यान दो और तुम्हारी आत्मा को जीवन प्राप्त होगा। मैंने दाऊद से दया करते रहने की प्रतिज्ञा की थी। उसके अनुसार मैं तुम लोगों के लिए, एक चिरस्थायी विधान ठहराऊँगा।
4) मैंने राष्ट्रों के साक्ष्य देने के लिए दाऊद को चुना और उसे राष्ट्रों का पथप्रदर्शक तथा अधिपति बना दिया है।
5) ''तू उन राष्ट्रों को बुलायेगी, जिन्हें तू नहीं जानती थी और जो तुझे नहीं जानते थे, वे दौड़ते हुए तेरे पास जायेंगे। यह इसलिए होगा कि प्रभु, तेरा ईश्वर, इस्राएल का परमपावन ईश्वर, तुझे महिमान्वित करेगा।
6) ''जब तक प्रभु मिल सकता है, तब तक उसके पास चली जा। जब तक वह निकट है, तब तक उसकी दुहाई देती रह।
7) पापी अपना मार्ग छोड़ दे और दुष्ट अपने बुरे विचार त्याग दे। वह प्रभु के पास लौट आये और वह उस पर दया करेगा; क्योंकि हमारा ईश्वर दयासागर है।
8) प्रभु यह कहता है- तुम लोगों के विचार मेरे विचार नहीं हैं और मेरे मार्ग तुम लोगों के मार्ग नहीं हैं।
9) जिस तरह आकश पृथ्वी के ऊपर बहुत ऊँचा है, उसी तरह मेरे मार्ग तुम्हारे मार्गों से और मेरे विचार तुम्हारे विचारों से ऊँचे हैं।
10) जिस तरह पानी और बर्फ़ आकाश से उतर कर भूमि सींचे बिना, उसे उपजाऊ बनाये और हरियाली से ढके बिना वहाँ नहीं लौटते, जिससे भूमि बीज बोने वाले को बीज और खाने वाले को अनाज दे सके,
11) उसी तरह मेरी वाणी मेरे मुख से निकल कर व्यर्थ ही मेरे पास नहीं लौटती। मैं जो चाहता था, वह उसे कर देती है और मेरा उद्देश्य पूरा करने के बाद ही वह मेरे पास लौट आती है।
12) तुम उल्लास के साथ प्रस्थान करोगे और सकुशल पहुँच जाओगे। पर्वत और पहाड़ियाँ तुम्हारा जयकार करेंगी। वन के सभी वृक्ष तालियाँ बजायेंगे।
13) जहाँ ऊँटकटारे और झाड़-झँखाड़ थे, वहाँ सनोवर और मेंहदी के वृक्ष उगेंगे। यह प्रभु की महिमा का ऐसा स्मारक होगा जिसका अस्तित्व कभी नहीं मिटेगा।''

अध्याय 56

1) प्रभु यह कहता है- ''न्याय बनाये रखो- और धर्म का पालन करो; क्योंकि मेरी मुक्ति निकट है और मेरी न्यायप्रियता शीघ्र ही प्रकट हो जायेगी।
2) धन्य है वह मनुष्य, जो धर्माचरण करता है और उस में दृढ़ रहता हैं; जो विश्राम-दिवस को अपवित्र नहीं करता और हर प्रकार का पाप छोड़ देता है!'
3) परदेशी का जो पुत्र प्रभु का अनुयायी बन गया है, वह यह न कहे कि प्रभु मुझे अपनी प्रजा से अवश्य अलग कर देगा और खोजा यह न कहे कि मैं सूखा हुआ वृक्ष हूँ;
4) क्योंकि प्रभु यह कहता हैः ''जो ख़ोजे मेरे विश्राम-दिवस पवित्र करते, मेरी इच्छा के अनुसार चलते और दृढ़तापूर्वक मेरे विधान का पालन करते हैं,
5) मैं अपने मन्दिर और अपने नगर में एक स्मारक पर उनके नाम अंकित करूँगा, जो पुत्रों और पुत्रियों की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं। मैं उन्हें एक चिरस्थायी नाम प्रदान करूँगा, जिसका अस्तित्व सदा बना रहेगा।
6) ''जो विदेशी प्रभु के अनुयायी बन गये हैं, जिससे वे उसकी सेवा करें, वे उसका नाम लेते रहें और उसके भक्त बन जायें और वे सब, जो विश्राम-दिवस मनाते हैं और उसे अपवित्र नहीं करते-
7) मैं उन लोगों को अपने पवित्र पर्वत तक ले जाऊँगा। मैं उन्हें अपने प्रार्थनागृह में आनन्द प्रदान करूँगा। मैं अपनी बेदी पर उनके होम और बलिदान स्वीकार करूँगा; क्योंकि मेरा घर सब राष्ट्रों का प्रार्थनागृह कहलायेगा।''
8) बिखरे हुए इस्राएलियों को एकत्र करने वाला प्रभु-ईश्वर यह कहता है, ''एकत्र किये हुए लोगों के सिवा मैं दूसरों को भी एकत्र करता जाऊँगा''।
9) मैंदान और वन के सब पशुओ! आओ और खा कर तृप्त हो जाओ।
10) इस्राएल के पहरेदार अन्धे हैं। उन में ज्ञान का अभाव है। वे गूँगे कुत्ते हैं, जो भौंक नहीं सकते। वे स्वप्न देखते हुए पड़े रहते हैं। उन्हें नींद सब से अधिक प्यारी है।
11) किन्तु वे ऐसे पेटू कुत्ते हैं, जिनका पेट कभी नहीं भरता। वे बेसमझ चरवाहे हैं, जो अपने-अपने रास्ते चलते, जिन्हें केवल अपने ही लाभ की चिन्ता है।
12) सब कहते हैं, ''आओ, हम अंगूरी ले आयें, हम पी कर छक जायें। आज की तरह हम कल भी यही करें, अंगूरी की कोई कमी नहीं है!''

अध्याय 57

1) धर्मियों का विनाश हो रहा है, किन्तु उसकी परवाह कोई नहीं करता। भक्त-जन मर रहे हैं, किन्तु कोई यह नहीं समझताः धर्मी इसलिए उठाये जाते हैं कि वे विपत्ति से बचाये जायें।
2) जो धर्ममार्ग पर चलते हैं, उन्हें शान्ति प्राप्त हो जाती और वे अपनी शय्या पर विश्राम करेंगे।
3) जादूगरनी के पुत्रों! और व्यभिचारियों और वेश्याओं की सन्तति! तुम भी यहाँ आओ।
4) तुम किसकी हँसी उड़ाते हो? तुम मुँह फाड़ कर किस को जीभ दिखा रहे हो? क्या तुम विद्रोह के पुत्र, झूठ की सन्तति नहीं हो?
5) तुम बलूतों और हर घने पेड़ के नीचे वासना के वशीभूत हो कर पड़े रहते हो। तुम घाटियों और चट्टानों की दरारों में अपने बच्चों को बलि चढ़ाते हो।
6) तुम को घाटी के चिकने पत्थर प्रिय हैं, वे तुम्हारी विरासत और भाग्य हैं। तुम उन्हें अर्घ और अन्न-बलि चढ़ाते हो! क्या तुम समझते हो कि मैं इस से द्रवित हो जाऊँगा?
7) तुमने ऊँचे पहाड़ पर व्यभिचार का पलंग बिछाया। तुमने वहाँ जा कर बलि चढ़ायी।
8) तुमने अपने द्वार और चौखट के पीछे पराये देवता का स्मारक रखा। तुमने मेरा परित्याग किया। तुम अपने वस्त्र उतार कर पलंग पर लेट गयी। तुम जिन को पसन्द करती हो, तुमने उन्हें अपना शरीर बेच दिया और उनके साथ भोग-विलास किया।
9) तुम तेल ले कर मोलेक के पास गयी और उस पर भरपूर सुगन्धित द्रव्य अर्पित किया। तुमने अपने दूतों को दूर-दूर भेजा। उन्हें अधोलोक तक उतरने को बाध्य किया।
10) तुम यह सब करते-करते थक गयी हो, किन्तु तुम कभी नहीं कहती कि यह व्यर्थ है। तुम निरन्तर अपने में नयी स्फूर्ति का अनुभव करती और विश्राम करने का नाम नहीं लेती हो।
11) तुम किस से डर गयी कि तुमने मेरे साथ विश्वासघात किया? तुमने मुझे भुलाया और अपने हृदय से निकाल दिया। में बहुत समय तक निष्क्रिय रहा, इसलिए तुम मुझ से नहीं डरती।
12) किन्तु मैं तुम्हारा धर्माचरण और तुम्हारे कार्य प्रकट करूँगा- तुम्हें उन से कोई लाभ नहीं होगा।
13) तुम्हारी पुकार पर तुम्हारी देवमूर्तियाँ तुम्हारा उद्धार करें! हवा उन सब को ले जायेगी- उन्हें एक साँस मात्र उड़ा देगी। किन्तु जो व्यक्ति मेरी शरण आता, वह देश को विरासत के रूप में प्राप्त करेगा और मेरे पवित्र पर्वत का अधिकारी होगा।
14) एक वाणी सुनाई पड़ेगीः ''मार्ग प्रशस्त करो! मेरी प्रजा के मार्ग से सभी बाधाएँ दूर करो'';
15) क्योंकि सर्वोच्च प्रभु- जो सदा बना रहता है और जिसका नाम पवित्र है- यह कहता हैः ''मैं तो उच्च तथा पावन स्थान में निवास करता हूँ, किन्तु में विनीतों को ढारस बँधाने तथा पश्चात्तापी हृदयों में नवजीवन का संचार करने के लिए पश्चात्तापी तथा विनीत मनुष्य के साथ भी रहता हूँ।
16) मैं न तो सदा के लिए दोष दूँगा और न निरन्तर क्रुद्ध रहूँगा। कहीं ऐसा न हो कि उनका मन टूट जाये। मैंने ही तो उन आत्माओं की सृष्टि की है।
17) मैं इस्राएल के अपराध पर क्रुद्ध हुआ। क्रुद्ध होकर और अपनी कृपादृष्टि उस पर से हटा कर मैंने उसे मारा क्योंकि वह अपनी हठधर्मी में भटक गया था।
18) मैंने उसका आचरण देखा- अब मैं उसे स्वास्थ्य प्रदान करूँगा और उसका पथप्रदर्शन कर उसे सान्त्वना दूँगा।
19) मैं दुखियों को यह कह कर शान्ति प्रदान करूँगा- 'जो दूर है और जो निकट हैं, सब को शान्ति!''' प्रभु यही कहता है- ''मैं उन्हें स्वास्थ्य प्रदान करूँगा''।
20) किन्तु दुष्ट लोग अशान्त समुद्र-जैसे हैं, जिसकी लहरें कीचड़ और कचरा उछालती हैं।
21) मेरे ईश्वर ने कहा, ''दुष्टों को शान्ति नहीं मिलती!''

अध्याय 58

1) प्रभु-ईश्वर यह कहता है, ''पूरी शक्ति से पुकारो, तुरही की तरह अपनी आवाज ऊँची करो- मेरी प्रजा को उसके अपराध और याकूब के वंश को उसके पाप सुनाओ।
2) वे मुझे प्रतिदिन ढूँढ़ते हैं और मेरे मार्ग जानना चाहते हैं। एक ऐसे राष्ट्र की तरह, जिसने धर्म का पालन किया हो और अपने ईश्वर की संहिता नहीं भुलायी हो, वे मुझ से सही निर्णय की आशा करते और ईश्वर का सान्निध्य चाहते हैं।
3) (वे कहते हैं), 'हम उपवास क्यों करते हैं, जब तू देखता भी नहीं? हम तपस्या क्यों करते हैं, जब तू ध्यान भी नहीं देता। देखो, उपवास के दिनों में तुम अपना कारबार करते और अपने सब मजदूरों से कठोर परिश्रम लेते हो।
4) तुम उपवास के दिनों लड़ाई-झगड़ा करते और करारे मुक्के मारते हो। तुम आजकल जो उपवास करते हो, उस से स्वर्ग में तुम्हारी सुनवाई नहीं होगी।
5) क्या मैं इस प्रकार का उपवास, ऐसी तपस्या का दिन चाहता हूँ, जिस में मनुष्य सरकण्डे की तरह अपना सिर झुकाये और टाट तथा राख पर लेट जाये? क्या तुम इसे उपवास और ईश्वर का सुग्राह् दिवस कहते हो?
6) मैं जो उपवास चाहता हूँ, वह इस प्रकार है- अन्याय की बेड़ियों को तोड़ना, जूए के बन्धन खोलना, पददलितों को मुक्त करना और हर प्रकार की गुलामी समाप्त करना।
7) अपनी रोटी भूखों के साथ खाना, बेघर दरिद्रों को अपने यहाँ ठहराना। जो नंगा है, उसे कपड़े पहनाना और अपने भाई से मुँह नहीं मोड़ना।
8) तब तुम्हारी ज्योति उषा की तरह फूट निकलेगी और तुम्हारा घाव शीघ्र ही भर जायेगा। तुम्हारी धार्मिकता तुम्हारे आगे-आगे चलेगी और ईश्वर की महिमा तुम्हारे पीछे-पीछे आती रहेगी।
9) यदि तुम पुकारोगे, तो ईश्वर उत्तर देगा। यदि तुम दुहाई दोगे, तो वह कहेगा-÷देखो, मैं प्रस्तुत हूँ÷। यदि तुम अपने बीच से अत्याचार दूर करोगे, किसी पर अभियोग नहीं लगाओगे और किसी की निन्दा नहीं करोगे;
10) यदि तुम भूखों को अपनी रोटी खिलाओगे और पद्दलितों को तृप्त करोगे, तो अन्घकार में तुम्हारी ज्योति का उदय होगा और तुम्हारा अन्धकार दिन का प्रकाश बन जायेगा।
11) प्रभु निरन्तर तुम्हारा पथप्रदर्शन करेगा। वह मरुभूमि में भी तुम्हें तृप्त करेगा और तुम्हें शक्ति प्रदान करता रहेगा। तुम सींचे हुए उद्यान के सदृश बनोगे, जलस्रोत के सदृश, जिसकी धारा कभी नहीं सूखती।
12) तब तुम पुराने खँडहरों का उद्धार करोगे और पूर्वजों की नींव पर अपना नगर बसाओगे। तुम चारदीवारी की दरारें पाटने वाले और टूटे-फूटे घरों के पुनर्निर्माता कहलाओगे।
13) ''यदि तुम विश्राम-दिवस का नियम भंग करना छोड़ दोगे और उस पावन दिवस को कारबार नहीं करोगे; यदि तुम उसे आनन्द का दिन, प्रभु को अर्पित तथा प्रिय दिवस समझोगे; यदि उसके आदर में यात्रा पर नहीं जाओगे, अपना कारबार नहीं करोगे और निरर्थक बातें नहीं करोगे,
14) तो तुम्हें प्रभु का आनन्द प्राप्त होगा। मैं तुम लोगों को देश के पर्वत प्रदान करूँगा और तुम्हारे पिता याकूब की विरासत में तृप्त करूँगा।'' यह प्रभु का कथन है।

अध्याय 59

1) प्रभु का हाथ बचाने में समर्थ है। उसका कान बहरा नहीं है; वह सुन सकता है।
2) किन्तु तुम्हारे अधर्म ने तुम को ईश्वर से दूर किया, तुम्हारे पापों ने ईश्वर को तुम से विमुख कर दिया; इसलिए वह तुम्हारी नहीं सुनता।
3) तुम्हारे हाथ रक्त से रँगे हुए और तुम्हारी अँगुलियाँ कुकर्म से दूषित हैं। तुम्हारे होंठ झूठ बोलते और तुम्हारी जिव्हा बुराई की बातें कहती है।
4) एक भी व्यक्ति सच्चा अभियोग नहीं लगाता या ईमानदारी से मुकदमा लड़ता है। वे खोखले तर्क प्रस्तुत करते और झूठ बोलते हैं। वे अन्याय का गर्भ धारण करते और अपराध को जन्म देते हैं।
5) वे साँप के अण्डे सेते और मकड़ी के जालें बुनते हैं। जो साँप के अण्डे खाता, वह मर जाता है। जब अण्डा फूटता है, तो उस में से साँप का बच्चा निकलता है।
6) उनके जालें कपड़े के काम नहीं आते। वे जो कुछ बुनते हैं, उस से कोई अपना शरीर नहीं ढक सकता। उनके कर्म कुकर्म होते हैं। उनके हाथों के कार्य हिंसामय हैं।
7) उनके पैर फुरती से बुराई की ओर बढ़ते हैं। वे निर्दोष रक्त बहाने दोड़ते हैं। वे मन-ही-मन बुरी योजनाएँ बनाते हैं। वे जहाँ कहीं जाते हैं, वहाँ उजाड़ते और विनाश करते हैं।
8) वे शांति का मार्ग नहीं जानते। वे जिस मार्ग पर चलते हैं, उसमें कहीं न्याय नहीं। उनके पथ टेढ़े-मेढ़े हैं। जो उन पर चलता है, वह शान्ति का नाम तक नहीं जानता।
9) इस कारण न्याय हम से दूर है और धार्मिकता हमारे पास नहीं फटकती। हमें प्रकाश की आशा थी और हमें अन्धकार मिलता है। हम उजियाला चाहते थे, किन्तु अँधेरे में चलते हैं।
10) हम अन्धों की तरह दीवार टटोलते और नेत्रहीनों की तरह राह ढूँढ़ते हैं। हम दिन में रात की तरह ठोकर खाते हैं। हम बलशाली लोगों के बीच मृतकों-जैसे हैं।
11) हम रीछों की तरह गुर्राते और कपोतों की तरह विलाप करते हैं। हम न्याय की प्रतीक्षा करते, किन्तु वह नहीं मिलता; हम मुक्ति की आकांक्षा करते, किन्तु वह हम से कोसों दूर है;
12) क्योंकि तू हमारे बहुसंख्यक अपराध जानता है। हमारे पाप हमारे विरुद्ध साक्ष्य देते हैं। हमारे अपराध हमारा साथ नहीं छोड़ते। हम अपनी दुष्टता अच्छी तरह जानते हैं।
13) हम प्रभु के विरुद्ध विद्रोह और उसके साथ विश्वासघात करते हैं। हम अपने ईश्वर से दूर भटकते हैं। हम दूसरों पर अत्याचार करते और उन्हें विद्रोह के लिए उकसाते हैं। हम अपने मन में झूठी बातें सोचते हैं और उन्हें कहने में संकोच नहीं करते।
14) हमने न्याय से मुँह मोड़ लिया और धार्मिकता हम से दूर हो गयी हैं। हमारे चौकों में सच्चाई को ठोकर लग गयी और सदाचरण प्रवेश नहीं कर पाता।
15) सच्चाई का सर्वत्र अभाव है। जो कुकर्म से दूर रहता, लोग उसके यहाँ चोरी करते हैं। प्रभु ने यह देखा और इसलिए अप्रसन्न हुआ कि कहीं भी न्याय नहीं रहा।
16) उसे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि कोई भी न्याय के लिए संघर्ष नहीं करता। तब उसने अपने बाहुबल से विजय प्राप्त की और उसकी न्यायप्रियता ने उसका साथ दिया।
17) उसने न्याय का कवच धारण किया और अपने सिर पर उद्धार का टोप रखा। उसने कुरते की तरह प्रतिशोध का वस्त्र पहना और धर्मोत्साह की चादर ओढ़ी।
18) वह सब को उनके कर्मों के अनुसार फल देगा। वह दूर द्वीपों तक अपने विरोधियों पर अपना क्रोध प्रकट करेगा और अपने शत्रुओं से बदला चुकायेगा।
19) पश्चिम और पूर्व के निवासी प्रभु के नाम और उसकी महिमा के सामने काँप उठेंगे; क्योंकि प्रभु तेज हवा से प्रवाहित तीव्र जलधारा की तरह आयेगा।
20) ''वह सियोन के उद्धारक के रूप में आयेगा, याकूब के उन लोगों के पास, जो पश्चाताप करते हैं।'' यह प्रभु की वाणी है।
21) प्रभु यह कहता है, ''यह तुम्हारे लिए मेरा विधान है। मेरा आत्मा तुम्हारे साथ रहेगा। मैंने तुम्हारे मुंँह में जो शब्द रखे हैं, वे अब से और अनन्त काल तक न तो तुम्हारे मुँह से, न तुम्हारे पुत्रों के मुँह से और न तुम्हारे वंशजों के मुँह से अलग होंगे।''

अध्याय 60

1) ''उठ कर प्रकाशमान हो जा! क्योंकि तेरी ज्योति आ रही है और प्रभु-ईश्वर की महिमा तुझ पर उदित हो रही है।
2) पृथ्वी पर अँधेरा छाया हुआ है और राष्ट्रों पर घोर अन्धकार; किन्तु तुझ पर प्रभु उदित हो रहा है, तेरे ऊपर उसकी महिमा प्रकट हो रही है।
3) राष्ट्र तेरी ज्योति की ओर आ रहे हैं और राजा तेरे उदीयमान प्रकाश की ओर।
4) ''चारों ओर दृष्टि दौड़ा कर देख! सब मिल कर तेरे पास आ रहे हैं। तेरे पुत्र दूर से चले आ रहे हैं; लोग तेरी पुत्रियों को गोद में उठा कर लाते हैं।
5) यह देख कर तू प्रफुल्लित हो उठेगी; तेरा हृदय आनन्द से उछलने लगेगा; क्योंकि समुद्र की सम्पत्ति और राष्ट्रों का धन तेरे पास आ जायेगा।
6) ऊँटों के झुण्ड और मिदयान तथा एफ़ा की साँड़नियाँ तुझ में उमड़ पड़ेंगी; शबा के सब लोग, प्रभु की स्तुति करते हुए, सोने और लोबान की भेंट ले आयेंगे।
7) केदार की सब भेड़-बकरियाँ तेरे पास इकट्टी हो जायेंगी, नबायोत के मेढ़े तेरी सेवा में उपस्थित होंगे। वे चढ़ावे के रूप में मेरी वेदी पर स्वीकार किये जायेंगे। मैं अपना भव्य मन्दिर महिमान्वित करूँगा।
8) ''वे कौन हैं, जो उड़ते हुए बादलों, अपने दरबों की ओर उड़ने वाले कपोतों की तरह आ रहे हैं?
9) द्वीपों के बेड़े मेरे पास आ रहे हैं, तरशीश के जहाज सब से आगे हैं। वे तेरे पुत्रों को दूर-दूर से ले आते हैं और चाँदी और सोने से लदे हुए हैं, जिससे वे तेरे प्रभु-ईश्वर का आदर करें, इस्राएल के उस परमपावन ईश्वर का, जिसने तुझे अपनी महिमा प्रदान की है।
10) विदेशी तेरी दीवारें फिर उठायेंगे और उनके राजा तेरी सहायता करेंगें। मैंने अपने क्रोध में तुझे मारा था। अब मैं प्रसन्न हो कर तुझ पर अपनी अनुकम्पा प्रकट करूँगा।
11) तेरे फाटक निरन्तर खुले रहेंगे। वे दिन-रात कभी बन्द नहीं होंगे, जिससे लोग अपने राजाओं के नेतृत्व में राष्ट्रों की सम्पत्ति तेरे यहाँ ला सकें।
12) जो राष्ट्र या राज्य तेरी सेवा नहीं करेंगे, उनका पतन और विनाश होगा।
13) लेबानोन की महिमा तेरे यहाँ आयेगी- सनोवर, देवदार और चीड़। वे मेरे मन्दिर की शोभा बढ़ायेंगे। मैं अपने पावदान को महिमान्वित करूँगा।
14) तेरे अत्याचारियों के पुत्र सिर झुकाये तेरे पास आयेंगे। जो तेरा तिरस्कार करते थे, वे तेरे चरणों को प्रणाम करेंगे। वे तुझे 'प्रभु की नगरी' और 'परमपावन ईश्वर का सियोन' कह कर पुकारेंगे।
15) ''तेरा परित्याग और तुझ से बैर किया गया था, तेरे पास हो कर कोई नहीं जाता था। मैं तुझे सभी आने वाली पीढ़ियों का गौरव और आनन्द का स्रोत बनाऊँगा।
16) तू राष्ट्रों का दूध पियेगी और राजाओं की सम्पत्ति लूटेगी। तू जान जायेगी कि मैं, प्रभु, तेरा मुक्तिदाता, याकूब का अजेय ईश्वर हूँ, जो तुम्हारा उद्धार करता है।
17) मैं तुझे काँसे के बदले सोना, लोहे बदले चाँदी, लकड़ी के बदले काँसा और पत्थर के बदले लोहा दिलाऊँगा। मैं शान्ति को तेरा निरीक्षक और न्याय को तेरा पदाधिकारी बनाऊँगा।
18) तेरे प्रदेश में न तो हिंसा की चरचा होगी और न तेरे सीमान्तों में विध्वंस और विनाश की। तू अपनी चारदीवारी का नाम 'मुक्ति' और अपने फाटक का नाम 'स्तुति' रखेगी।
19) तुझे न तो दिन में सूर्य के प्रकाश की और न रात में चाँदनी की आवश्यकता होगी। प्रभु सदा के लिए तेरा प्रकाश होगा और ईश्वर तेरी दीप्ति।
20) तेरा सूर्य कभी अस्त नहीं होगा, तेरा चन्द्रमा, कभी लुप्त नहीं होगा; क्योंकि ईश्वर ही होगा तेरा सदा बना रहने वाला प्रकाश। तेरे शोक के दिन समाप्त हो जायेंगे।
21) तेरी समस्त प्रजा सदाचारी होगी। देश पर उसका अधिकार सदा बना रहेगा। मैंने अपनी महिमा प्रकट करने के लिए उसे अपने हाथों से पौधे की तरह रोपा है।
22) उस में प्रत्येक से एक हजार उत्पन्न होंगे और सबसे दुर्बल से एक शक्तिशाली राष्ट्र। मैं, प्रभु, उचित समय पर यह अविलम्ब पूरा करूँगा।''

अध्याय 61

1) प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है, क्योंकि उसने मेरा अभिषेक किया है। उसने मुझे भेजा है कि मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊँ, दुःखियों को ढारस बँधाऊँ; बन्दियों को छुटकारे का और कैदियों को मुक्ति का सन्देश सुनाऊँ;
2) प्रभु के अनुग्रह का वर्ष और ईश्वर के प्रतिशोध का दिन घोषित करूँ; विलाप करने वालों को सान्त्वना दूँ,
3) राख के बदले उन्हें मुकुट पहनाऊँ, शोक-वस्त्रों के बदले आनन्द का तेल प्रदान करूँ और निराशा के बदले स्तुति की चादर ओढाऊँ। उनका यह नाम रखा जोयेगाः ''सदाचार के बलूत, प्रभु की महिमा प्रकट करने वाला उद्यान''।
4) वे पुराने खँडहरों और नष्ट किये हुए स्थानों का पुनर्निर्माण करेंगे। वे उन नगरों में बस जायेंगे, जो पीढ़ियों से उजाड़ पड़े हैं।
5) दूर-दूर के लोग तेरे सेवक बन कर तेरी भेड़-बकरियाँ चरायेंगे। तेरे यहाँ के परदेशी तेरे खेतों और दाखबारियों के मजदूर बनेंगे।
6) तुम लोग कहलाओगे ''प्रभु के पुरोहित'', तुम्हारा नाम रखा जायेगा ''हमारे ईश्वर के सेवक''। तुम राष्ट्रों की सम्पत्ति का उपभोग करोगे और उन से प्राप्त वैभव पर गौरव करोगे।
7) मेरी प्रजा को बहुत अपमान, तिरस्कार और अत्याचार झेलना पड़ा; इसलिए उसे देश में दुगुनी विरासत मिलेगी। उसे चिरस्थायी आनन्द प्राप्त होगा;
8) ''क्योंकि मैं, प्रभु न्यायप्रिय हूँ, मैं अन्याय और लूट से घृणा करता हूँ; इसलिए मैं ईमानदारी से उसकी क्षतिपूर्ति करूँगा और उनके लिए चिरस्थायी विधान स्थापित करूंँगा।
9) उनके वंशज राष्ट्रों में प्रसिद्ध होंगे और उनकी सन्तति का नाम देश-विदेश में फैलेगा। उन्हें देखने वाले सब-के-सब जान जायेंगे कि वे प्रभु की चुनी हुई प्रजा है।''
10) मैं प्रभु में प्रफुल्लित हो उठता हूँ, मेरा मन अपने ईश्वर में आनन्द मनाता है। जिस प्रकार वह याजक की तरह मौर बाँध कर और वधू आभूषण पहन कर सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार प्रभु ने मुझे मुक्ति के वस्त्र पहनाये और मुझे धार्मिकता की चादर ओढ़ा दी है।
11) जिस प्रकार पृथ्वी अपनी फ़सल उगाती है और बाग़ बीजों को अंकुरित करता है, उसी प्रकार प्रभु-ईश्वर सभी राष्ट्रों में धार्मिकता और भक्ति उत्पन्न करेगा।

अध्याय 62

1) मैं सियोन के विषय में तब तक चुप नहीं रहूँगा, मैं येरुसालेम के विषय में तब तक विश्राम नहीं करूँगा, जब तक उसकी धार्मिकता उषा की तरह नहीं चमकेगी, जब तक उसका उद्धार धधकती मशाल की तरह प्रकट नहीं होगा।
2) तब राष्ट्र तेरी धार्मिकता देखेंगे और समस्त राजा तेरी महिमा। तेरा एक नया नाम रखा जायेगा, जो प्रभु के मुख से उच्चरित होगा।
3) तू प्रभु के हाथ में एक गौरवपूर्ण मुकुट बनेगी, अपने ईश्वर के हाथ में एक राजकीय किरीट।
4) तू न तो फिर 'परित्यक्ता' कहलायेगी और न तेरा देश 'उजाड़'; बल्कि तू 'परमप्रिय' कहलायेगी और तेरे देश का नाम होगाः 'सुहागिन'; क्योंकि प्रभु तुझ पर प्रसन्न होगा और तेरे देश को एक स्वामी मिलेगा।
5) जिस तरह नवयुवक कन्या से ब्याह करता है, उसी तरह तेरा निर्माता तेरा पाणिग्रहण करेगा। जिस तरह वर अपनी वधू पर रीझता है, उसी तरह तेरा ईश्वर तुझ पर प्रसन्न होगा।
6) येरुसालेम! मैंने तेरी चारदीवारी पर पहरेदारों को बैठा दिया। वे न दिन में चुप रहेंगे और न रात में। ''प्रभु को सब का स्मरण दिलाना तुम्हारा कर्तव्य है। तुम लोगों को कभी विश्राम नहीं मिलेगा।
7) तुम प्रभु को भी विश्राम न करने दो, जब तक वह येरुसालेम का पुनर्निर्माण न करे और संसार में उसका यश न फैलाये।''
8) प्रभु ने अपना दाहिना हाथ और शक्तिशाली भुजा उठा कर यह शपथ खायीः ''मैं फिर कभी तेरा अन्न तेरे शत्रुओं को खाने नहीं दूँगा। परदेशी तेरी अंगूरी, तेरे परिश्रम का फल, फिर कभी नहीं पियेंगे।
9) बल्कि जिन लोगों ने गेहूँ काटा, वे उसे खायेंगे और प्रभु की स्तुति करेंगे। जिन्होंने अंगूर की फ़सल एकत्र की, वे मेरे मन्दिर के प्रांगण में उसे पियेंगे।''
10) नगर के फाटक के बाहर निकलो, प्रजा का मार्ग तैयार करो। राजमार्ग का पुननिर्माण करो, पक्की सड़क बनाओ और झण्डा फहरा कर राष्ट्रों को सूचना दो।
11) यह है समस्त पृथ्वी के लिए ईश्वर का सन्देश। ''सियोन की पुत्री से यह कहोः 'देख! तेरे मुक्तिदाता आ रहे हैं वह अपना पुरस्कार अपने साथ ला रहे हैं और उनका विजयोपहार भी उनके साथ है'।''
12) वे 'पवित्र प्रजा' और 'प्रभु के मुक्ति-प्राप्त लोग कहलायेंगे और तेरा नाम 'परमप्रिय' तथा 'अपरित्यक्त नगरी' रखा जायेगा।

अध्याय 63

1) वह कौन एदोम के बोसरा नगर से आ रहा है? वह लाल और भड़कीले वस्त्र पहने सामर्थ्य और प्रताप से विभूषित है। ''वह मैं ही हूँ; मैं न्याय घोषित करता हूँ और उद्धार करने में समर्थ हूँ''।
2) तेरे वस्त्र लाल क्यों हैं? वे अंगूर का कुण्ड रौंदने वाले के वस्त्र-जैसे हैं।
3) ''मुझे अकेले ही अंगूर का कुण्ड रौंदना पड़ा। राष्टों में से कोई मेरी सहायता नहीं करना चाहता था। मैंने क्रुद्ध हो कर उन्हें रौंदा, उन्हें अपने प्रकोप में कुचल दिया। उनके रक्त के छींटे मेरे वस्त्रों पर पड़े और वे लाल हो गये;
4) क्योंकि मैंने प्रतिशोध का दिन निश्चित किया था, मेरे उद्धार का वर्ष आ गया था।
5) मैंने सहायक के लिए दृष्टि दौड़ायी, किन्तु कोई नहीं मिला। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि सहारा देने वाला कोई नहीं। तब मैंने अपने बाहुबल से विजय प्राप्त की, मेरे क्रोध ने मुझे सहायता दी।
6) मैंने क्रुद्ध हो कर राष्ट्रों को रौंद डाला, मैंने उन्हें अपने प्रकोप में कुचल दिया। मैंने उनका रक्त धरती पर उँड़ेल दिया।''
7) मैं प्रभु के सब उपकारों और उसके महान् कार्यों का बखान करूँगा। उसने हमारे लिए क्या-क्या नहीं किया! उसने अपनी अनुकम्पा तथा अपनी महती कृपा के अनुरूप इस्राएल के घराने के असंख्य उपकार किये।
8) उसने कहा, ''वे निश्चय मेरी प्रजा, मेरे पुत्र हैं। वे मेरे साथ विश्वासघात नहीं करेंगे।'' उनके सभी दुःखों में वह उनका उद्धारक बना।
9) उसने किसी स्वर्गदूत को भेज कर नहीं, बल्कि स्वयं आ कर उनकी रक्षा की। अपने प्रेम तथा अपनी अनुकम्पा के अनुरूप उसने स्वयं आ कर उनका उद्धार किया। वह उन्हें गोद में उठा कर प्राचीनकाल से ही सँभालता आ रहा है।
10) फिर भी उन्होंने विद्रोह किया और उसके पवित्र आत्मा को दुःख दिया। इसलिए वह उनका शत्रु हो गया और उसने उनके विरुद्ध युद्ध किया।
11) तब उसकी प्रजा को प्राचीन काल की और उसके सेवक मूसा की याद आयी। ''वह ईश्वर अब कहाँ है, जो अपनी भेड़ों के चरवाहे को समुद्र से बाहर निकाल लाया और जिसने उसे अपना पवित्र आत्मा प्रदान किया?
12) जिसने अपने महिमामय सामर्थ्य से मूसा का साथ दिया, अपने लोगों के सामने समुद्र को विभाजित किया और अमर यश प्राप्त किया?
13) जो उसे गहरे जल के उस पार ले गया? वे बिना ठोकर खाये आगे बढ़े, उस घोड़े की तरह, जो मरुभूमि पार करता है,
14) उस चौपाये की तरह, जो घाटी में उतरता है। उस समय प्रभु का आत्मा उनके आगे-आगे-चलता था।'' इस प्रकार तूने अपने नाम की महिमा के कारण अपनी प्रजा का पथप्रदर्शन किया।
15) तू अपने पवित्र और महिमामय निवास स्वर्ग से हम पर दृष्टि डालः अब तेरा उत्साह और तेरे महान् कार्य कहाँ हैं? हम तेरे वात्सल्य और अनुकम्पा से वंचित हैं।
16) प्रभु! तू ही हमारा पिता है; क्योंकि इब्राहीम हमें नहीं जानता और इस्राएल भी हमें नही पहचानता। प्रभु! तू ही हमारा पिता है। हमारा मुक्तिदाता- यही अनन्त काल से तेरा नाम रहा है।
17) प्रभु! तू यह क्यों होने देता है कि हम तेरे मार्ग छोड़ कर भटक जायें और कठोर-हृदय बन कर तुझ पर श्रद्धा न रखें? प्रभु! हमारे पास लौटने की कृपा कर, हम तेरे सेवक और तेरी प्रजा हैं।
18) तेरी पवित्र प्रजा का थोड़े समय तक तेरी विरासत पर अधिकार रहा। हमारे शत्रुओं ने तेरा मन्दिर अपवित्र किया।
19) हमें बहुत समय से ऐसा लग रहा है कि तू हम पर शासन नहीं करता, मानो हम कभी तेरे नहीं कहलाये हों।
19) (ंअ) ओह! यदि तू आकाश फाड़ कर उतरे! तेरे आगमन पर पर्वत काँप उठें!

अध्याय 64

1) जिस तरह अग्नि लकड़ी को जलाती और पानी को उबालती है, उसी तरह तू अपने शत्रुओं पर अपना नाम प्रकट कर, जिससे जातियाँ तेरे सामने काँप उठें।
2) यदि तू ऐसे भयंकर कार्य करता, जिनकी हम कल्पना नहीं कर सकते, तो तेरे आगमन पर पर्वत काँपने लगेंगे।
3) यह कभी सुनने या देखने में नहीं आया कि तेरे ही समान कोई देवता अपने पर भरोसा रखने वालों के साथ ऐसा व्यवहार करें।
4) तू उन लोगों का पथप्रदर्शन करता है, जो सदाचरण और तेरे मार्गों का स्मरण करते हैं। तू अप्रसन्न है, क्योंकि हम पाप करते थे और बहुत समय से तेरे विरुद्ध विद्रोह करते आ रहे हैं।
5) हम सब-के-सब अपवित्र हो गये और हमारे समस्त धर्मकार्य मलिन वस्त्र जैसे हो गये थे। हम सब पत्तों की तरह सूख गये और हमारे पाप हमें पवन की तरह छितराते रहे।
6) कोई न तो तेरा नाम लेता और न तेरी शरण में जाने का विचार करता है; क्योंकि तूने हम से मुँह फर लिया और हमारे पापों को हम पर हावी होने दिया।
7) तो भी, प्रभु! तू हमारा पिता है। हम मिट्टी हैं और तू कुम्हार है, तूने हम सबों को बनाया है।
8) प्रभु! हम पर अधिक क्रुद्ध न हो! हमारे पाप सदा के लिए याद न कर! हम पर दयादृष्टि कर, क्योंकि हम तेरी प्रजा हैं।
9) तेरे पवित्र नगर निर्जन हो गये हैं। सियोन मरुभूमि बन गया है; येरुसालेम उजाड़ पड़ा हुआ है।
10) हमारा पवित्र और भव्य मन्दिर, जहाँ हमारे पूर्वज तेरी स्तुति करते थे, आग में भस्म हो गया है। हमारे सभी रमणीय स्थल उजाड़ पड़े है!
11) प्रभु! क्या तू यह सब देख कर भी हस्तक्षेप नहीं करेगा? क्या तू इसी तरह मौन रह कर हम को अत्यधिक नीचा दिखायेगा?

अध्याय 65

1) ''मैंने उन लोगों पर अपने को प्रकट किया, जो मुझ से परामर्श नहीं लेते थे। जो लोग मेरी खोज नहीं करते थे, मैं उन्हें नहीं मिला। जो राष्ट्र मेरा नाम नहीं लेता, मैंने उस से कहा, 'देखो, मैं प्रस्तुत हूँ÷।''
2) मैं दिन भर एक ऐसे विद्रोही राष्ट्र की ओर अपने हाथ फैलाये रहा, जो कुमार्ग पर चलता और मनचाहे रास्ते पर भटकता है-
3) एक ऐसा राष्ट्र, जो मेरे मुँह पर मुझे निरन्तर चिढ़ाता रहता है। वे लोग अपनी वाटिकाओं में चढ़ावे अर्पित करते और ईंटों पर धूप चढ़ाते हैं।
4) वे कब्रों के बीच बैठते और गुफाओं में जागरण करते हैं। वे सूअर का माँस खाते और अपने बरतनों में घृणित रस भरते हैं।
5) वे दूसरों से कहते हैं, 'सावधान रहो, मेरे पास मत आओ। मैं तुम्हारे लिए परमपवित्र हूँ।' ऐसे लोग धूएँ की तरह, दिन भर जलती अग्नि की तरह, मेरी नाक में दम करते हैं।
6) (६-७) ''देखो, मेरे सामने यह लिखा हआ हैः मैं तब तक मौन नहीं रहूँगा, जब तक मैं उन से उनके अधर्म का, उनकी अपनी और उनके पूर्वजों की दुष्टता का पूरा-पूरा बदला नहीं चुकाऊँगा।'' यह प्रभु का कथन है। ''जो पहाड़ों पर सुगन्धित धूप चढ़ाते और पहाड़ियों पर मेरा उपहास करते हैं, मैं उन से उनके पुराने कुकर्मों का पूरा-पूरा बदला चुकाऊँगा।''
8) प्रभु यह कहता हैः ''जब तक अंगूर के गुच्छे में रस होता है, लोग कहते हैं- 'उसे नष्ट मत करो, उस में अब तक आशिष मौजूद हैं'। मैं अपने सेवकों के कारण ऐसा ही करूँगा। मैं सबों का विनाश नहीं करूँगा।
9) मैं याकूब से वंशजों को उत्पन्न करूँगा और यूदा से अपने पर्वतों के अधिकारियों को। वे मेरी चुनी हुई प्रजा को विरासत के रूप में मिलेंगे, मेरे सेवक वहाँ निवास करेंगे।
10) जो प्रजा मेरी खोज करती रही, उसके लिए शारोन का मैदान भेड़-बकरियों का चरागाह बनेगा और आकोर की घाटी गाय-बैलों का विश्राम-स्थान।
11) ''परन्तु तुम लोग, जिन्होंने प्रभु का परित्याग किया और मेरा पवित्र पर्वत भुला दिया, जो भाग्य-देवता गद को अन्न अर्पित करते और नियति-देवी मेनी को अर्घ चढ़ाते हो,
12) मैं तुम्हें तलवार को अर्पित करूँगा। वध के लिए सब को अपनी गरदन झुकानी होगी; क्योंकि मैंने तुम को बुलाया और तुमने उत्तर नहीं दिया। तुमने वही किया, जो मेरी दृष्टि में बुरा है; तुमने वही चुना, जो मुझे अप्रिय है।''
13) इसलिए प्रभु-ईश्वर यह कहता हैः ''मेरे सेवकों को भोजन मिलेगा, किन्तु तुम लोग भूखे रहोगे। मेरे सेवकों को पीने को मिलेगा, किन्तु तुम प्यास से तड़पोगे। मेरे सेवक आनन्द मनायेंगे, किन्तु तुम को नीचा दिखाया जायेगा।
14) मेरे सेवक आनन्दित हो कर जयकार करेंगे, किन्तु तुम लोग दुःखी हो कर रोओगे और निराशा में विलाप करोगे।
15) मेरे चुने हुए लोग तुम्हारा नाम ले कर अभिशाप देंगे। प्रभु-ईश्वर तुम्हारा वध करेगा किन्तु वह अपने सेवकों का नया नाम रखेगा।
16) जो व्यक्ति देश में अपने लिए आशीर्वाद माँगेगा, या शपथ खायेगा, वह सत्य के ईश्वर के नाम पर ऐसा करेगा; क्योंकि अतीत के कष्ट भुला दिये गये हैं; वे मेरी आँखों से ओझल हो गये हैं।
17) ''मैं एक नये आकाश और एक नयी पृथ्वी की सृष्टि करूँगा। पुरानी बातें भुला दी जायेंगी, उन्हें कोई याद नहीं करेगा।
18) मेरी उस सृष्टि में सदा आनन्द और उल्लास रहेगा। मैं येरुसालेम को आनन्दित और उसकी प्रजा को उल्लसित करूँगा।
19) तब येरुसालेम मुझे आनन्द प्रदान करेगा और मेरी प्रजा मेरे उल्लास का कारण बनेगी। उस में फिर न तो रुदन सुनाई देगा और न विलाप।
20) वहाँ न तो कोई ऐसा शिशु मिलेगा, जो थोड़े ही दिनों तक जीवित रहे और न कोई ऐसा वृद्ध, जो अपने दिन पूरे न कर पाये। हर युवक सौ वर्ष तक जीवित रहेगा- जो उस उमर तक नहीं पहुँचता, वह शापित माना जायेगा।
21) वे घर बनायेंगे और उन में निवास करेंगे; वे दाखबारियाँ लगायेंगे और उनके फल खायेंगे।
22) अब ऐसा नहीं होगा कि वे घर बनायें और दूसरे उन में निवास करें, वे पौधे लगायें और दूसरे उसके फल खायें; क्योंकि मेरी प्रजा के पुत्र वृक्षों की तरह दीर्घायु होंगें। मेरे चुने हुए लोग स्वयं अपने परिश्रम का फल खायेंगे।
23) वे अब व्यर्थ परिश्रम नहीं करेंगे, उनकी सन्तति दुर्दिन नहीं देखेगी। प्रभु का आशीर्वाद उन पर और उनके वंशजों पर बना रहेगा।
24) उनके दुहाई देने से पहले ही, मैं उन्हें उत्तर दूँगा; उनकी प्रार्थना पूरी होने से पहले ही, मैं उसे स्वीकार करूँगा।
25) भेड़िया और मेमना साथ-साथ चरेंगे। सिंह बैल की तरह चारा खायेगा। साँप मिट्टी खा कर पेट भरेगा। मेरे समस्त पवित्र पर्वत पर कोई हानि या विनाश नहीं करेगा।'' यह प्रभु का कथन है।

अध्याय 66

1) प्रभु यह कहता हैः ''आकाश मेरा सिंहासन है और पृथ्वी मेरा पावदान। तुम मेरे लिए कौन-सा घर बनाओगे? मेरे विश्राम का घर कहाँ होगा?
2) मैंने अपने हाथों से सब कुछ बनाया है। सब कुछ मेरा ही है'' -यह प्रभु की वाणी है- ''मैं उन लोगों पर कृपादृष्टि करता हूँ, जो विनम्र और पश्चातापी हैं, जो श्रद्धा से मेरी वाणी सुनते हैं।
3) कुछ लोग बछड़ा चढ़ाते, किन्तु मनुष्य का भी वध करते हैं। वे भेड़ की बलि चढ़ाते, किन्तु कुत्ते की भी गरदन तोड़ते हैं। वे अन्न-बलि अर्पित करते, किन्तु सूअर का रक्त भी चढ़ाते हैं। वे लोबान की धूप जलाते, किन्तु देवमूर्तियों की भी पूजा करते हैं। उन्होंने अपना मनमाना मार्ग चुना और उन्हें अपने घृणित कार्यों में आनन्द आता है।
4) इसलिए मुझे उन्हें दण्ड देने और भयभीत करने में आनन्द आयेगा; क्योंकि जब मैंने उन्हें बुलाया, तो किसी ने उत्तर नहीं दिया। मैंने उन्हें सम्बोधित किया और उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी। उन्होंने वही किया, जो मेरी दृष्टि में बुरा है। उन्होंने वही चुना, जो मुझे अप्रिय है।''
5) तुम, जो प्रभु की वाणी सुनते ही काँपते हो, प्रभु की वाणी पर ध्यान दो। ''तुम्हारे उन भाइयों को नीचा दिखाया जायेगा, जो तुम से बैर रखते हैं, मेरे नाम के कारण तुम को अस्वीकार करते और जिन्होंने कहा, ''प्रभु अपनी महिमा प्रकट करे, जिससे हम तुम्हारे साथ आनन्द मनायें।''
6) नगर से आता हआ कोलाहल सुनो, मन्दिर से आने वाली वाणी सुनो। यह प्रभु की वाणी है, जो अपने शत्रुओं से उनके कुकर्मों का बदला चुका रहा है।
7) ''प्रसवपीड़ा के पूर्व ही सियोन ने जन्म दिया, प्रसवपीड़ा का अनुभव किये बिना उसे पुत्र उत्पन्न हुआ है।
8) क्या किसी ने कभी ऐसी बात सुनी है? क्या किसी ने कभी ऐसी बात देखी है? क्या एक ही दिन में कोई देश उत्पन्न हो सकता है? क्या क्षण भर में किसी राष्ट्र का जन्म सम्भव है? किन्तु सियोन को प्रसवपीड़ा होते ही सन्तति उत्पन्न हुई है।''
9) प्रभु कहता हैः ''क्या समय पूरा होने पर मैं जन्म न होने दूँ?'' तुम्हारा ईश्वर कहता है, ''क्या गर्भाधान का आशीर्वाद देने के बाद मैं गर्भ का द्वार बन्द कर दूँ?
10) ''येरुसालेम के साथ आनन्द मनाओ। तुम, जो येरुसालेम को प्यार करते हो, उसके कारण उल्लास के गीत गाओ। तुम, जो उसके लिए विलाप करते थे, उसके कारण आनन्दित हो जाओ,
11) जिससे तुम उसकी संतान होने के नाते सान्त्वना का दूध पीते हुए तृप्त हो जाओ और उसकी गोद में बैठ कर उसकी महिमा पर गौरव करो'';
12) क्योंकि प्रभु यह कहता है, ''मैं शान्ति को नदी की तरह और राष्ट्रों की महिमा को बाढ़ की तरह येरुसालेम की ओर बहा दूँगा। उसकी सन्तान को गोद में उठाया और घुटनों पर दुलारा जायेगा।
13) जिस तरह माँ अपने पुत्र को दिलासा देती है, उसी तरह मैं तुम्हें सान्त्वना दूँगा। तुम्हें येरुसालेम से दिलासा मिलेगा।''
14) तुम्हारा हृदय यह देख कर आनन्दित हो उठेगा, तुम्हारा हड्डियाँ हरी-भरी घास की तरह लहलहा उठेंगी। प्रभु अपने सेवकों के लिए अपना सामर्थ्य, किंतु अपने शत्रुओं पर अपना क्रोध प्रदर्शित करेगा।
15) देखो, प्रभु अग्नि लेकर आयेगा, उसका रथ बवण्डर के सदृश है। वह आग से अपना क्रोध शान्त करेगा, धधकती ज्वालाओं से अपना प्रकोप।
16) वह आग और तलवार से सभ मनुष्यों का न्याय करेगा। प्रभु बहुत-से प्राणियों का वध करेगा।
17) ''जो लोग पुजारी का अनुसरण करते हुए पूजा की वाटिकाओं में प्रवेश करते, अपना शुद्धीकरण करवाते और सूअर का माँस, घृणित जन्तु और चुहिया खाते हैं, वे सभी अपने कर्मों और योजनाओं-सहित एक साथ नष्ट हो जायेंगे।'' यह प्रभु का कथन है।
18) ''मैं सभी भाषाओं के राष्ट्रों को एकत्र करूँगा। वे मेरी महिमा के दर्शन करने आयेंगे।
19) मैं उन में एक चिन्ह प्रकट करूँगा। जो बच गये होंगे, उन में से कुछ लोगों को मैं राष्ट्रों के बीच भेजूँगा- तरशीश, पूट, धनुर्धारी लूद, तूबल, यूनान और उन सुदूर द्वीपों को, जिन्होंने अब तक न तो मेरे विषय में सुना है और न मेरी महिमा देखी है। उन राष्ट्रों में वे मेरी महिमा प्रकट करेंगे।
20) वे प्रभु की भेंटस्वरूप सभी राष्ट्रों में से तुम्हारे सब भाइयों को ले आयेंगे।'' प्रभु कहता है, ''जिस तरह इस्राएली शुद्ध पात्रों में चढ़ावा लिये प्रभु के मन्दिर आते हैं, उसी तरह वे उन्हें घोड़ों, रथों, पालकियों, खच्चरों और साँड़नियों पर बैठा कर मेरे पवित्र पर्वत येरुसालेम ले आयेंगे।
21) मैं उन मे से कुछ को याजक बनाऊँगा और कुछ लोगों को लेवी।'' यह प्रभु का कहना है।
22) ''जिस तरह मैं वह नया आकाश और नयी पृथ्वी, जिसकी रचना मैं करने जा रहा हूँ, अपने सामने स्थिर बनाये रखूँगा, उसी तरह मैं तुम्हारे वंश और तुम्हारे नाम को स्थिर बनाये रखूँगा'', यह प्रभु की वाणी है।
23) ''सब शरीरधारी एक नये चाँद के दिन से दूसरे नये चाँद के दिन तक, एक विश्राम-दिवस के दूसरे विश्राम-दिवस तक मेरी आराधना करने आयेंगे।
24) जब वे नगर से निकलेंगे, तो वे उन लोगों के शव देखेंगे, जिन्होंने मुझ से विद्रोह किया। उनमें पड़ा हुआ कीड़ा नहीं मरेगा, उन्हें जलाने वाली आग नहीं बुझेगी। सभी मनुष्य उन से घृणा करेंगे।''