पवित्र बाइबिल : Pavitr Bible ( The Holy Bible )

पुराना विधान : Purana Vidhan ( Old Testament )

प्रवक्ता-ग्रन्थ ( Ecclesiasticus )

अध्याय 1

1) समस्त प्रज्ञा प्रभु से उत्पन्न होती है, वह सदा उसके पास विद्यमान है।
2) समुद्रतट के बालू-कण, वर्षा की बूॅदें और अनन्त काल के दिन कौन गिन सकता है ? आकाष की ऊॅचाई, पृथ्वी का विस्तार और महागर्त्त की गहराई कौन नाप सकता है ?
3) किसने ईष्वर की प्रज्ञा का अनुसन्धान किया, जो सब से पहले विद्यमान थी?
4) सबसे पहले प्रज्ञा की सृष्टि हुई थी। विवेकपूर्ण बुद्धि अनादिकाल से बनी हुई है।
5) प्रज्ञा का स्त्रोत है- स्वर्ग में ईष्वर का शब्द। प्रज्ञा के मार्ग हैं- शाष्वत आदेष।
6) प्रज्ञा की जड़ तक कौन पहुॅचा है? उसकी बारीकियॉ कौन समझता है?
7) प्रज्ञा की षिक्षा किस को मिली है? उसके विविध मार्ग कौन जानता है?
8) परमश्रद्धेय प्रभु ही प्रज्ञासम्पन्न है, वह अपने सिंहासन पर विराजमान है।
9) प्रभु ने ही प्रज्ञा की सृष्टि की है। उसने उसका अवलोकन एवं मूल्यांकन किया
10) और उसे अपने सभी कार्यों में सन्निविष्ट किया है। उसने उसे अपनी उदारता के अनुरूप सब प्राणियों और अपने भक्तों को प्रचुर मात्रा में प्रदान किया है।
11) प्रभु पर श्रद्धा महिमा और गौरव, आनन्द और उल्लास की पराकाष्ठा है।
12) प्रभु पर श्रद्धा हृदय में स्फूर्ति भरती और आनन्द, प्रसन्नता एवंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं दीर्घ जीवन प्रदान करती हैं।
13) जो प्रभु पर श्रद्धा रखता है, उसका अन्त में भला होगा, वह अपनी मृत्यु के दिन धन्य माना जायेगा।
14) ईष्वर के प्रति प्रेम सम्मान्य प्रज्ञा है।
15) जिन लोगों को यह वरदान मिलता है, वह उन्हें ईष्वर के दर्षन और उन से उसके महान् कार्यो की स्तुति कराता है।
16) प्रज्ञा का मूल स्रोत प्रभु पर श्रद्धा है। वह भक्तों को जन्म से प्राप्त होती है। उसने अपने लिए मनुष्यों के बीच सदा के लिए अपना निवास बनाया और वह उनके वंषजों के प्रति ईमानदार रहेगी।
17) प्रभु पर श्रद्धा ज्ञानसम्मत धार्मिकता है।
18) धार्मिकता हृदय को सुरक्षित रखेगी
19) और उसे प्रसन्नता एवं आनन्द प्रदान करेगी।
20) प्रभु पर श्रद्धा प्रज्ञा की परिपूर्णता है; वह अपने फलों से मनुष्यों को तृप्त करती है।
21) वह उनके घर बहुमूल्य वस्तुओं से और उनके बखार उपज से भर देती है।
22) प्रभु पर श्रद्धा प्रज्ञा का मुकुट है, उसके द्वारा शान्ति और स्वास्थ्य की वृद्धि होती है।
23) दोनो ईष्वर के वरदान हैं।
24) प्रज्ञा वर्षा की तरह ज्ञान और विवेक बरसाती है; जो उस से सम्पन्न हैं, वह उनके यष की वृद्धि करती है।
25) प्रभु पर श्रद्धा प्रज्ञा की जड़ है, उसकी शाखाएॅ लम्बी आयु है।
26) प्रज्ञा के भण्डार में विवेक और ज्ञानसम्मत धार्मिकता है; उसका तिरस्कार पापियों की समझदारी है।
27) प्रभु पर श्रद्धा पाप हरती और जब तक वह विद्यमान है, (प्रभु का) क्रोध दूर करती है।
28) जो अकारण क्रोध करता है, वह दोषी है; क्रोध का आवेग उसके विनाष का कारण बनता है।
29) धैर्यवान् तब तक दुःख सहता है, जब तक उसके हृदय में आनन्द का विकास नहीं होता।
30) वह तब तक अपने विचार प्रकट नहीं करता, जब तक बहुत-से लोग उसके विवेक की चरचा न करें।
31) प्रज्ञा के भण्डार में ज्ञानपूर्ण सूक्तियॉ हैं,
32) किन्तु पापी भक्ति से घृणा करता है।
33) पुत्र! यदि तुम प्रज्ञा चाहते हो, तो आज्ञाओं का पालन करो और प्रभु उसे तुम को प्रदान करेगा।
34) प्रभु की श्रद्धा प्रज्ञा और अनुषासन में निहित है।
35) निष्ठा और विनम्रता प्रभु को प्रिय हैं।
36) प्रभु पर श्रद्धा का विरोध नहीं करो, कपटपूर्ण हृदय से उसके पास नहीं जाओ।
37) मनुष्यों के सामने पाखण्डी मत बनो अपने शब्दों पर नियन्त्रण रखो।
38) घमण्डी मत बनो; नहीं तो तुम्हारा पतन होगा और तुम पर कलंक लगेगा;
39) ईष्वर तुम्हारे गुप्त कार्य प्रकट करेगा और तुम को भरी सभा में नीचा दिखायेगा;
40) क्योंकि तुम में ईष्वर के प्रति श्रद्धा नहीं है और तुम्हारा हृदय कपट से भरा है।

अध्याय 2

1) पुत्र! यदि तुम प्रभु की सेवा करना चाहते हो, तो विपत्ति का सामना करने को तैयार हो जाओ।
2) तुम्हारा हृदय निष्कपट हो, तुम दृढ़संकल्प बने रहो, विपत्ति के समय तुम्हारा जी नही घबराये।
3) ईष्वर से लिपटे रहो, उसे मत त्यागो, जिससे अन्त में तुम्हारा कल्याण हो।
4) जो कुछ तुम पर बीतेगा, उसे स्वीकार करो तथा दुःख और विपत्ति में धीर बने रहो;
5) क्योंकि अग्नि में स्वर्ण की परख होती है और दीन-हीनता की घरिया में ईष्वर के कृपापात्रों की।
6) ईष्वर पर निर्भर रहो और वह तुम्हारी सहायता करेगा। प्रभु के भरोसे सन्मार्ग पर आगे बढ़ते जाओ।
7) प्रभु के श्रद्धालु भक्तो! उसकी दया पर भरोसा रखो। मार्ग से मत भटको; कहीं पतित न हो जाओ।
8) प्रभु के श्रद्धालु भक्तों! उस पर भरोसा रखो और तुम्हें निष्चय ही पुरस्कार मिलेगा।
9) प्रभु के श्रद्धालु भक्तो! उसके उपकारों की, चिरस्थायी आनन्द और दया की प्रतीक्षा करो।
10) प्रभु के श्रद्धालु भक्तों! उस से प्रेम रखो और तुम्हारे हृदयों में प्रकाष का उदय होगा।
11) पिछली पीढ़ियों पर विचार कर देखो किसने ईष्वर पर भरोसा रखा और वह निराष हुआ?
12) किसने ईष्वर पर श्रद्धा रखी और वह परित्यक्ता हुआ? किसने ईष्वर से प्रार्थना की और वह उपेक्षित रहा?
13) क्योंकि ईष्वर अनुकम्पा और दया से परिपूर्ण है। वह पापों को क्षमा करता और संकट के दिन में हमें बचाता है।
14) धिक्कार कायर हृदयों, निष्क्रिय हाथों और उस पापी को, जो दो मार्गो पर चलता है!
15) धिक्कार निरूत्साह हृदय को, जो भरोसा नहीं रखता! इसलिए उसकी रक्षा नहीं की जायेगी!
16) धिक्कार तुम लोगों को, जो धैर्य खो चुके हो!
17) तुम क्या करोगे, जब प्रभु लेखा लेने आयेग?
18) जो प्रभु पर श्रद्धा रखते हैं, वे उसकी आज्ञाओें की अवज्ञा नहीं करते। जो उससे प्रेम रखते हैं, वे उसके मार्गो पर चलते हैं।
19) जो प्रभु पर श्रद्धा रखते हैं, वे वही करते हैं, जो उसे प्रिय है। जो उस से प्रेम रखते हैं, उसकी संहिता उनका सम्बल है।
20) जो प्रभु पर श्रद्धा रखते हैं, उनका हृदय प्रस्तुत रहता है। वे उसके सामने अपनी आत्मा को पवित्र करते हैं।
21) जो प्रभु पर श्रद्धा रखते हैं, वे उसकी आज्ञाओं का पालन करते हैं और उसके आगमन के दिन तक धैर्य रखेंगे।
22) वे कहते हैं, ''हम मनुष्यों के हाथों नहीं, बल्कि प्रभु के हाथ पड़ जायेंगे;
23) क्योंकि वह जितना महान् है, उतना ही दयालु भी''।

अध्याय 3

1) प्रज्ञा की सन्तति धर्मियों की सभा है, उनका राष्ट्र आज्ञाकारी और प्रेममय है।
2) पुत्रों! पिता की षिक्षा ध्यान से सुनो; उसका पालन करने में तुम्हारा कल्याण है।
3) प्रभु का आदेष है कि सन्तान अपने पिता का आदर करें ; उसने माता को अपने बच्चों पर अधिकार दिया है।
4) जो अपने पिता पर श्रद्धा रखता है, वह अपने पापोें का प्रायष्चित करता है
5) और जो अपनी माता का आदर करता है, वह मानो धन का संचय करता है।
6) जो अपने पिता का सम्मान करता है, उसे अपनी ही सन्तान से सुख मिलेगा और जब वह प्रार्थना करता है, तो ईष्वर उसकी सुन लेगा।
7) जो अपने पिता का आदर करता है, वह दीर्घायु होगा। जो अपनी माता को सुख देता है, वह प्रभु का आज्ञाकारी है।
8) जो प्रभु पर श्रद्धा रखता है, वह अपने माता-पिता का आदर करता और उनकी सेवा वैसे ही करता है, जैसे दास अपने स्वामी की सेवा करता है।
9) वचन और कर्म से अपने पिता का आदर करो,
10) जिससे तुम को उसका अषीर्वाद प्राप्त हो।
11) पिता का आषीर्वाद उसके पुत्रों का घर सुदृढ़ बनाता है, किन्तु माता का अभिषाप उसकी नींव उखाड़ देता है।
12) अपने पिता के अपमान पर गौरव मत करो, उसका अपयष तुम को शोभा नहीं देता।
13) पिता का सम्मान मनुष्य का गौरव है और माता का अपयष पुत्र को शोभा नहीं देता।
14) पुत्र! अपने बूढ़े पिता की सेवा करो। जब तक वह जीता रहता है, उसे उदास मत करो।
15) यदि उसका मन दुर्बल हो जाये, तो उस से सहानुभूति रखो। अपने स्वास्थ्य की उमंग में उसका अनादर मत करो; क्योंकि पिता की सेवा-षुश्रूषा नहीं भुलायी जायेगी,
16) वह तुम्हारे पापों का प्रायष्चित्त
17) और तुम्हारी धार्मिकता समझी जायेगी। लोग तुम्हारी विपत्ति के दिन तुम को याद करेंगे और तुम्हारे पाप धूप में पाले की तरह गल जायेगे।
18) जो अपने पिता का त्याग करता, वह ईष-निंदक के बराबर है। जो अपनी माता को दुःख देता है, वह ईष्वर द्वारा अभिषप्त है।
19) पुत्र! नम्रता से अपना व्यवसाय करो और लोग तुम्हें दानषील व्यक्ति से भी अधिक प्यार करेंगे।
20) तुम जितने अधिक बड़े हो, उतने ही अधिक नम्र बनों इस प्रकार तुम प्रभु के कृपापात्र बन जाओगे। बहुत लोग घमण्डी और गर्वीले हैं, किन्तु ईष्वर दीनों पर अपने रहस्य प्रकट करता है।
21) प्रभु का सामर्थ्य अत्यधिक महान् है, किन्तु वह विनम्र लोगों की श्रद्धांजलि स्वीकार करता है।
22) न तो अपनी बुद्धि के परे की बाते समझने का प्रयत्न करो और रहस्यमय बातों के फेर में मत पड़ो।
23) गुप्त रहस्यों को अपनी ऑखों से देखने की तुम्हें कोई आवष्यकता नहीं।
24) जो तुम्हारी समझ के परे है, उस में मत फॅसो।
25) जो षिक्षा तुम्हें मिली है, वह मानव बुद्धि से परे है।
26) बहुत लोग अपने-अपने विचारों के कारण भटक गये और निराधार कल्पनाओं ने उनकी बुद्धि भ्रष्ट कर दी। यदि तुम्हें ऑखें नहीं हैं, तो प्रकाष से वंचित रहोगे; यदि तुम्हें ज्ञान नहीं, तो तुम में प्रज्ञा का अभाव होगा।
27) कठोर हृदय अन्त में बुरे दिन देखेगा। जो जोखिम से प्यार करता है, वह उस में नष्ट हो जायेगा।
28) कपटी हृदय अपने कार्यो में असफल होगा और दुष्ट हृदय पाप के जाल में फॅसेगा।
29) दुष्ट हृदय बहुत कष्ट पायेगा। पापी पाप-पर-पाप करता रहेगा।
30) अहंकारी के रोग को कोई इलाज नहीं है, क्योंकि बुराई ने उस मंें जड़ पकड़ ली है।
31) समझदार मनुष्य दृष्टान्तों पर विचार करता है। जो कान लगा कर सुनता है, वह प्रज्ञा की कामना करता है।
32) प्रज्ञासम्पन्न और समझदार हृदय पाप से दूर रहेगा और अपने कार्यो में सफल होगा।
33) पानी प्रज्वलित आग बुझाता और भिक्षादान पाप मिटाता है।
34) जो परोपकार के बदले में परोपकार करता, वह भविष्य का ध्यान रखता है। गिरने पर उसे सहारा मिलेगा।

अध्याय 4

1) पुत्र! दरिद्र की जीविका मत छीनो और प्रतीक्षा करने वाली ऑखों को निराष मत करो।
2) भूखे को मत सताओ और दरिद्र को मत चिढ़ाओ।
3) कटु हृदय को उत्पीड़ित मत करो और कंगाल को देने में विलम्ब मत करो।
4) संकट में पड़े की याचना मत ठुकराओ, कंगाल से अपना मुॅह मत मोड़ो।
5) दरिद्र से ऑखें मत फेरो, उसे अवसर मत दो कि वह तुम को अभिषाप दे।
6) यदि वह अपनी आत्मा की कटुता के कारण तुम को अभिषाप दे, तो उसका सृष्टिकर्ता उसकी प्रार्थना सुनेगा।
7) सभा में मिलनसार बनो और बड़े को प्रणाम करो।
8) कंगाल की बात पर कान दो और सौजन्य से उसके नमस्कार का उत्तर दो।
9) अत्याचारी के हाथों से उत्पीड़ित को छुड़ाओ और न्याय करने में आगा-पीछा मत करो।
10) अनाथों के दयालु पिता बनो और पति की तरह उनकी माता के सहायक बनो।
11) तब तुम मानो सर्वोच्च प्रभु के पुत्र बनोगे और वह तुम को माता से भी अधिक प्यार करेगा।
12) प्रज्ञा अपनी प्रजा को महान् बनाती है। जो उसकी खोज में लगे रहते हैं, वह उनकी देखरेख करती है।
13) जो उसे प्यार करता है, वह जीवन को प्यार करता है। जो प्रातःकाल से उसे ढूॅढ़ते हैं, वे आनन्दित होंगे।
14) जो उसे प्राप्त कर लेता है, वह महिमान्वित होगा। वह जहॉ कहीं जायेगा, प्रभु उसे वहॉ आषीर्वाद प्रदान करेगा।
15) जो उसकी सेवा करते हैं, वे परमपावन प्रभु की सेवा करते हैं। जो उसे प्यार करते हैं, प्रभु उन को प्यार करता है।
16) जो उसकी बात मानता है, वह न्यायसंगत निर्णय देता है। जो उसके मार्ग पर चलता है, उसका निवास सुरक्षित है।
17) जो उस पर भरोसा रखता है, वह उसे प्राप्त करेगा और उसका वंष भी उसका अधिकारी होगा।
18) प्रारम्भ में प्रज्ञा उसे टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर ले चलेगी और उसकी परीक्षा लेगी।
19) वह उस में भय तथा आतंक उत्पन्न करेगी। वह अपने अनुषासन से उसे उत्पीड़ित करेगी और तब तक अपने नियमों से उसकी परीक्षा करती रहेगी, जब तक वह उस पूर्णतया विष्वास नहीं करती।
20) इसके बाद वह उसे सीधे मार्ग पर ले जा कर आनन्दित कर देगी
21) और उस पर अपने रहस्य प्रकट करेगी। वह उसे ज्ञान और न्याय का विवेक प्रदान करेगी।
22) किन्तु यदि वह भटक जायेगा, तो वह उसका त्याग करेगी और उसे विनाष के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए छोड़ देगी।
23) परिस्थिति के अनुसार आचरण करो, अपने को बुराई से दूर रखो
24) और तुम्हें अपने पर लज्जा नहीं होगी;
25) क्योंकि एक प्रकार की लज्जा पाप की ओर ले जाती और दूसरे प्रकार की लज्जा महिमा और सम्मान की ओर।
26) धृष्टता के कारण अपनी हानि मत करो और अपने पतन का कारण मत बनो।
27) अपने पड़ोस के रोब को अपने पतन का कारण न बनने दो।
28) अवसर आने पर बोलने में संकोच मत करो और अपनी प्रज्ञा को मत छिपाओे;
29) क्योंकि प्रज्ञा भाषा में और ज्ञान शब्दों में प्रकट होता है।
30) सत्य का विरोध मत करो और नम्रता से अपना अज्ञान स्वीकार करो।
31) अपने पाप स्वीकार करने में संकोच मत करो। पाप के कारण किसी की अधीनता स्वीकार मत करो।
32) शक्तिषाली का विरोध मत करो; नदी के प्रवाह का सामना मत करो।
33) मृत्यु तक न्याय के लिए संघर्ष करो और प्रभु-ईष्वर तुम्हारे लिए युद्ध करेगा।
34) जब तुम करनी में आलसी और निष्क्रिय हो, तो कथनी में धृृष्ट मत बनो!
35) अपने दासों को निकाल कर और अपने अधीन लोगों पर अत्याचार कर अपने घर मंें सिंह मत बनो।
36) लेने के लिए अपना हाथ मत पसारो और देने के लिए उसे बन्द मत रखो।

अध्याय 5

1) अपनी धन-सम्पत्ति पर भरोसा मत रखो और यह मत कहो, ''मुझे किसी बात की कमी नहीं''।
2) प्रबल नैसर्गिक प्रवृत्तियों से हार कर अपने हृदय की वासनाओं को पूरा मत करो।
3) यह मत कहो, ''मुझ पर किसी का अधिकार नहीं''; क्योंकि प्रभु तुम्हें अवष्य दण्ड देगा।
4) यह मत कहो, ''मैंने पाप किया, तो मेरा क्या बिगड़ा?'' क्योंकि प्रभु बड़ा सहनषील है।
5) क्षमा पाने की आषा मेें पाप-पर-पाप मत करते जाओ।
6) यह मत कहो, ''उसकी दया असीम है। वह मेरे असंख्य पाप क्षमा करेगा''।
7) क्योंकि दया के अतिरिक्त उस में क्रोध भी है और उसका कोप पापियों पर भड़क उठता है।
8) प्रभु के पास शीघ्र ही लौटा आओ, दिन-पर-दिन उस में विलम्ब मत करो;
9) क्योंकि प्रभू का क्रोध अचानक भड़क उठेगा; दण्ड के दिन तुम्हारा विनाष होगा।
10) पाप की कमाई पर भरोसा मत रखो, विपत्ति के दिन इस से तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा।
11) हर हवा में मत ओसाओ, हर मार्ग पर मत चलो; ऐसा दोमुॅहा पापी करता है।
12) अपनी धारणा पर दृढ़ रहो और अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।
13) दूसरों की बात सुनने के लिए तत्पर रहो और सोच-विचार कर उत्तर दो।
14) जानकारी होने पर अपने पड़ोसी को उत्तर दो। यदि नहीं है, तो मुॅह पर हाथ रखो।
15) बोलने से सम्मान और अपमान, दोनों मिलते हैं; जिह्वा मनुष्य के पतन का कारण बनती है।
16) चुगलखोर मत बनो और किसी की बदनामी मत मरो;
17) क्योंकि यदि चोर को लज्जित होना पड़ेगा, तो दोमुॅहे को कठोर दण्ड मिलेगा।

अध्याय 6

1) बड़ी या छोटी, किसी भी बात में अपराध मत करो। मित्र से शत्रु मत बनो। बदनामी से लज्जा और कलंक मिलता है, यही दोमुॅहे पापी का भाग्य है।
2) सॉड़ की तरह घमण्डी मत बनो। कहीं ऐसा न हो कि वह तुम्हारा विनाष कर दे,
3) तुम्हारे पत्ते खाये, तुम्हारे फल तोड़े और तुम को सूखे पेड़ की तरह छोड़ दे।
4) वासना सब का विनाष करती और उन्हें उनके शत्रुओं के उपहास का पात्र बनाती है।
5) प्रिय शब्दों से मित्रों की संख्या बढ़ती है और मधुर वाणी से मैत्रीपूर्ण व्यवहार।
6) तुम्हारे परिचित अनेक हों, किन्तु तुम्हारा परामर्षदाता सहस्रों में से एक।
7) परीक्षा लेने के बाद किसी को मित्र बना लो, उस पर तुरन्त विष्वास मत करो।
8) कोई मित्र अवसरवादी होता है, वह विपत्ति के दिन तुम्हारा साथ नहीं देगा।
9) कोई मित्र शत्रु बन जाता है और अलगाव का दोष तुम्हें ही देता है।
10) कोई मित्र तुम्हारे यहॉ खाता-पीता है, किन्तु विपत्ति के दिन दिखाई नहीं देता।
11) समृद्धि के दिनों में वह तुम्हारा अंतरंग मित्र बन कर तुम्हारे नौकरों पर रोब जमाता है,
12) किन्तु दुर्दिन आते ही वह तुम्हारा शत्रु बन कर तुम से मुॅह फेर लेगा।
13) तुम अपने शत्रुओं से दूर रहो और अपने मित्रोंें से सावधान।
14) सच्चा मित्र प्रबल सहायक है; जिसे मिल जाता है, उसे खजाना प्राप्त है।
15) सच्चा मित्र एक अमूल्य निधि है, उसकी कीमत धन से चुकायी नहीं जा सकती।
16) सच्चा मित्र संजीवनी है, वह प्रभु-भक्तों को ही प्राप्त होता है।
17) प्रभु-भक्त मित्रता का निर्वाह करता है; वह जैसा है, उसका मित्र वैसा ही होगा।
18) पुत्र! बचपन से षिक्षा ग्रहण करो। तब तुम्हें बुढ़ापे में प्रज्ञा प्राप्त होगी।
19) तुम हल चलाने और बोने वाले की तरह प्रज्ञा प्राप्त करने का प्रयत्न करो और उसके अच्छे फलों की प्रतीक्षा करो।
20) तुम्हें कुछ समय तक परिश्रम करना पड़ेगा किन्तु बाद में उसे शीघ्र प्राप्त करोगे।
21) अज्ञानियों के लिए प्रज्ञा बहुत कठिन होती है और नासमझ उसकी साधना में दृढ़ नहीं रहेगा।
22) प्रज्ञा भारी पत्थर की तरह उसकी परीक्षा लेती है और वह उसे फेंक देने में देर नहीं करेगा;
23) क्योंकि प्रज्ञा अपने नाम के अनुरूप कठिन है। बहुत कम लोग उसे देख पाते हैं।
24) पुत्र! मेरी बात मानो; मेरा परामर्ष मत ठुकराओ।
25) प्रज्ञा की बेड़ियॉ अपने पैरों में पहनो और उसका जूआ अपनी गरदन पर रखो।
26) अपने कन्धे झुका कर उसे धारण करो और उसके बन्धनों से मत चिढ़ो।
27) उस को सारे हृदय से अपनाओ और सारी शक्ति से उसका पालन करो।
28) उसकी खोज करो और वह तुम को मिल जायेगी; उसे पाने पर तुम उसे मत जाने दो।
29) अन्त में तुम्हेंें उस में शान्ति मिलेगी और वह तुम्हारे लिए आनन्द का कारण बनेगी।
30) उसकी बेड़ियॉ तुम्हारा सुदृढ़ आश्रय बनेंगी और उसका जूआ एक महिमामय आभूषण।
31) वह सोने से अलंकृत है और उसके बन्धन बैंगनी फ़ीते-जैसे हैें।
32) तुम उसे महिमामय आभूषण की तरह पहनोगे और उसे आनन्द के मुकुट की तरह धारण करोगे।
33) पुत्र! यदि तुम सुनना चाहो, तो षिक्षा प्राप्त करोगे; यदि उस में मन लगाओगे, तो समझदार बनोगे।
34) यदि तुम रूचि से सुनोगे, तो ज्ञान प्राप्त करोगे ; यदि कान दोगे, तो बुद्धिमान् बनोगे।
35) बड़े-बूढ़ो की संगति करो और उनकी प्रज्ञा की बातों पर ध्यान दो। धर्म-सम्बन्धी चरचा रूचि से सुनो और ज्ञान-सम्बन्धी सूक्तियॉ मत भुलाओ।
36) यदि तुम को समझदार व्यक्ति का पता चले, तो सबेरे ही उस से मिलने जाओ। उसके द्वार की देहली तुम्हारे पैरों से घिस जाये।
37) प्रभु की आज्ञाओ का चिन्तन करो, उसके आदेषों का पालन करो। वह तुम्हारा मन दृढ़ करेगा और तुम को वह प्रज्ञा देगा, जिसकी तुम कामना करते हो।

अध्याय 7

1) बुराई मत करो और बुराई तुम पर हावी नहीं होगी।
2) अन्याय से दूर रहो और वह तुम्हारे पास नहीं फटकेगा।
3) पुत्र! अधर्म के कुँड़ों में बीज न बोओ, तो उसकी सात गुनी फसल नहीं लुनोगे।
4) तुम न तो प्रभु से अधिकार मॉगो और न राजा से सम्मान का आसन।
5) तुम न तो प्रभु के सामने धार्मिकता का और न राजा के सामने प्रज्ञा का स्वॉग भरो।
6) न्यायाधीष बनने का प्रयत्न मत करो। कहीं ऐसा न हो कि तुम अन्याय नहीं दूर कर सको या डर के मारे शासक का पक्ष लो और अपने ईमान पर कलंक लगाओ।
7) नगर-सभा के विरुद्ध पाप मत करो और भीड़ की दृष्टि में कलंकित मत बनो।
8) एक ही पाप में दो बार मत फॅसो, क्योंकि एक के दण्ड से भी नहीं बचोगे।
9) प्रार्थना करते समय मॉगने में संकोच मत करो।
10) याचना और भिक्षादान की उपेक्षा मत करो।
11) यह मत कहो, ''ईष्वर मेरे बहुसंख्यक चढ़ावों पर ध्यान देगा। जब मैं प्रभु को चढ़ावे अर्पित करूॅगा, तो वह उन्हें स्वीकार करेगा।''
12) दुःखी मनुष्य का उपहास मत करो, क्योंकि ईष्वर नीचा भी दिखाता और ऊपर भी उठाता है।
13) अपने भाई के विरुद्ध झूठी बातों का प्रचार मत करो और अपने मित्र के साथ भी ऐसा मत करो।
14) हर समय झूठ मत बोलो, इस से कोई लाभ नहीं होता।
15) बड़े-बूढ़ों की सभा में बकवास मत करो और प्रार्थना करते समय रट मत लगाओ।
16) कठोर परिश्रम से घृणा मत करो और न खेती-बारी से, जो सर्वोच्च प्रभु द्वारा निर्धारित है।
17) पापियों की संगति मत करो।
18) याद रखो कि क्रोध में देर नहीं होगी।
19) अपने को बहुत विनम्र बनाये रखो; क्योंकि विधर्मी को आग और कीड़ों से दण्डित किया जायेगा।
20) रुपये-पैसे के लिए अपने मित्र को न बेचो और न ओफ़िर के सोने के लिए सच्चे भाई को।
21) समझदार और साध्वी पत्नी का परित्याग मत करो, क्योंकि वह स्वर्ण से भी अधिक वांंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंछनीय है।
22) ईमानदार नौकर के साथ दुर्व्यवहार मत करो और न उस मजदूर के साथ, जो पूरी लगन से काम करता है।
23) तुम बुद्धिमान् दास को अपने समान प्यार करो और उसे मुक्त करना अस्वीकार मत करो।
24) यदि तुम्हारे पषु हो, तो उनकी देखरेख करो। यदि उन से लाभ है, तो उन्हें अपने पास रखो।
25) यदि तुम्हारे पुत्र हों, तो उन्हें षिक्षा दिलाओ और बचपन से ही उन्हें अनुषासन में रखो।
26) यदि तुम्हारी पुत्रियॉ हों, तो उनकी रक्षा करो और उनके साथ ढिलाई मत करो।
27) अपनी पुत्री के विवाह का प्रबन्ध करो यह एक महत्वपूर्ण कार्य है। किन्तु उसे एक समझदार व्यक्ति को सौंपो।
28) यदि तुम्हारी पत्नी मनपसन्द है, तो उसका परित्याग मत करो। यदि वह तुम को पसन्द नहीं है, तो उस पर विष्वास मत करो।
29) सारे हृदय से अपने पिता का आदर करो और अपनी माता का दुःख मत भुलाओ।
30) याद रखो कि तुम्हें उन से जन्म मिला; उनके उपकार का बदला कैसे दे सकते हो ?
31) सारे हृदय से प्रभु पर श्रद्धा रखो और उसके याजकों का आदर करो।
32) अपने सृष्टिकर्ता को अपनी सारी शक्ति से प्यार करो। और उसके सेवकों को निराष मत करो।
33) सारे हृदय से ईष्वर का आदर करो और याजको का सम्मान करो।
34) प्रज्ञा के अनुसार उन्हें उनका भाग दो : प्रथम फल, प्रायष्चित-बलि, स्कन्धभाग,
35) समर्पण-बलि और पवित्र चढ़ावों के प्रथम फल।
36) हाथ बढ़ा कर दरिद्र को दान दो, जिससे तुम्हें अषीर्वाद प्राप्त हो।
37) सब जीवितों के प्रति उदार बनो, मृतकों को अपने दान से वंचित मत करो।
38) रोने वालों को सान्त्वना दो और शोक मनाने वालों के साथ शोक मनाओ।
39) बीमारों से मिलने में लापरवाही मत करो। इससे तुम लोकप्रिय बनोगे।
40) सब बातों में अपनी अन्तगति याद रखो और तुम जीवन भर पाप नहीं करोगे।

अध्याय 8

1) शक्तिषाली मनुष्य का विरोध मत करो- कहीं ऐसा न हो कि तुम उसके हाथों पड़ जाओ।
2) धनी व्यक्ति से झगड़ा मत करो- कहीं ऐसा न हो कि वह तुम पर हावी हो जाये।
3) सोने ने बहुत लोगों का विनाष किया है और चॉदी ने राजाओं का हृदय भटकाया है।
4) बकवादी से वादविवाद मत करो : आग पर लकड़ी मत रखो।
5) अषिक्षित व्यक्ति के साथ मजाक मत करो, जिससे तुम्हारे पूर्वजों पर कलंक न लगे।
6) पष्चाताप करने वाले पापी की निन्दा मत करो; याद रखो कि हम सब दण्ड के योग्य हैं।
7) बृद्ध मनुष्य का तिरस्कार मत करो, क्योंकि हम भी बूढ़े बन रहे हैं।
8) किसी की मृत्यु पर आनन्द मत मनाओ। याद रखो कि हम सब को मरना है।
9) ज्ञानियों की बातों का तिरस्कार मत करो और उनकी सूक्तियों पर विचार करो;
10) क्योंकि तुम उन से ज्ञान प्राप्त करोगे और बड़ों की सेवा की षिक्षा भी।
11) वृद्धों की बातों का तिरस्कार मत करो; क्यांेंकि उन्हें भी अपने पूर्वजों से षिक्षा मिली।
12) तुम उन से ज्ञान प्राप्त करोगे और उपयुक्त उत्तर देने की षिक्षा भी।
13) पापी की क्रोधाग्नि मत भड़काओ, नहीं तो उसकी ज्वाला में भस्म हो जाओगे।
14) उपहासक का सामना मत करो, नहीं तो वह तुम को तुम्हारी बात के फन्दे में फॅसायेगा।
15) अपने से शक्तिषाली व्यक्ति को रुपया उधार मत दो। यदि उधार दोगे, तो अपना रुपया खोया समझो।
16) अपनी शक्ति से परे जमानत मत दो। यदि ऐसा करते हो, तो समझो कि उसे तुम्हें चुकाना पड़ेगा।
17) न्यायाधीष पर मुकदमा मत चलाओ; क्योंकि उसकी प्रतिष्ठा निर्णय को प्रभावित करेगी।
18) दुःसाहसी व्यक्ति के साथ कहीं मत जाओ : उसके कारण तुम पर घोर विपत्ति पड़ सकती है; क्योंकि वह किसी की बात नहीं सुनेगा और उसकी मूर्खता के कारण तुम्हारा भी विनाष हो जायेगा।
19) क्रोधी व्यक्ति से झगड़ा मत करो और उसके साथ मरुभूमि मत पार करो; क्योंकि रक्तपात उसके लिए साधारण सी बात है। जहॉ तुम्हें सहायता नहीं मिल सकेगी, वहॉ वह तुम पर टूट पड़ेगा।
20) मूर्ख से परामर्ष मत करो; क्योंकि वह तुम्हारी बात छिपाये नहीं रख सकता।
21) अपरिचित के सामने कोई ऐसा काम मत करो, जिसे तुम गुप्त रखना चाहते हो; क्योंकि तुम नहीं जानते कि इसका परिणाम क्या होगा।
22) हर किसी के सामने अपना हृदय मत खोलो और इस प्रकार लोकप्रिय बनने का प्रयत्न मत करो।

अध्याय 9

1) तुम अपनी प्रिय पत्नी से ईर्ष्या मत करो- कहीं ऐसा न हो कि वह तुम्हारी शत्रु बन जाये।
2) किसी स्त्री के प्रति इस तरह आसक्त मत हो कि वह तुम पर शासन करने लगे।
3) किसी वेष्या के निकट मत जाओ- कहीं ऐसा न हो कि तुम उसके जाल में फॅस जाओ।
4) किसी गायिका की संगति मत करो- कहीं ऐसा न हो कि तुम उस पर आसक्त हो जाओ।
5) किसी युवती पर दृष्टि मत डालो- कहीं ऐसा न हो कि उसका सौन्दर्य तुम्हारे पतन का कारण बन जाये।
6) वेष्याओं पर आसक्त मत हो- कहीं ऐसा न हो कि तुम अपनी विरासत खो दो।
7) नगर की गलियों में मत मारा-मारा फिरो और उसके एकान्त स्थानों में मत भटको।
8) सुन्दर स्त्री से अपनी दृष्टि हटालो और परायी सुन्दरी को मत निहारो।
9) स्त्री के सौन्दर्य के कारण बहुतों का विनाष हुआ। वासना उसके कारण आग की तरह भड़क उठती है।
12) विवाहित परस्त्री की संगति मत करो; उसके साथ बैठ कर मदिरा मत पियो
13) कहीं ऐसा न हो कि तुम उस पर आसक्त हो जाओ और वासना के कारण तुम्हारा विनाष हो जाये।
14) पुराने मित्र का परित्याग मत करो, क्योंकि नया मित्र उसकी बराबरी नहीं कर सकता।
15) नया मित्र नयी अंगूरी के सदृष है : पुराने हो जाने पर तुम उसे रूचि से पियोगे।
16) पापी की सफलता से ईर्ष्या मत करो : तुम नहीं जानते कि उसका अन्त कितना दुःखमय होगा।
17) दुष्टों की समृद्धि की प्रषंसा मत करो। याद रखो कि मृत्यु से पहले उन्हें, दण्ड दिया जायेगा।
18) प्राणदण्ड का अधिकार रखने वाले से दूर रहो और तुम्हें मृत्यु के भय का अनुभव नहीं होगा।
19) उसके निकट आने पर अपराध मत करो कहीं ऐसा न हो कि वह तुम्हारे प्राण हर ले।
20) समझ लो कि तुम फन्दों के बीच चलते हो और नगर के प्राचीर पर टहलते हो।
21) इस में सावधान रहो कि किसके साथ मेल-जोल रखते हो; ज्ञानियों से परामर्ष करो।
22) समझदार लोगों की संगति करो और सर्वोच्च प्रभु की आज्ञाओं की ही चरचा करो।
23) धर्मियों के साथ भोजन करो और ईष्वर के प्रति श्रद्धा पर गौरव करो।
24) षिल्पकार की कुषलता के कारण कृति की प्रषंसा होती है और अपने वचनों के कारण शासक प्रज्ञ माना जाता है।
25) बकवादी अपने नगर में संकट पैदा करता है और अन्धाधुन्ध बोलने वाले व्यक्ति से लोग बैर करते हैं।

अध्याय 10

1) प्रज्ञासम्पन्न शासक अपनी प्रजा को षिक्षा देता है; समझदार व्यक्ति का शासन सुदृढ़ रहता है।
2) जैसा शासक, वेैसे ही उसके पदाधिकारी; जैसा नगराध्यक्ष, वैसे ही उसके निवासी।
3) मूर्ख राजा अपनी प्रजा का विनाष करता है। नगरों की सुव्यवस्था उसके शासकों की समझदारी पर निर्भर है।
4) प्ृथ्वी का शासन प्रभु के हाथ में है। वह सुयोग्य व्यक्ति को उपयुक्त समय पर भेजता है।
5) मनुष्य की समृद्धि प्रभु के हाथ में है। वह शास्त्री को महिमा प्रदान करता है।
6) अन्याय के कारण अपने पड़ोसी से बैर मत रखो और घमण्ड के आवेष में कोई काम मत करो।
7) प्रभु और मनुष्यों को घमण्ड से बैर है; अन्याय से दोनों को घृणा है।
8) अन्याय, अत्याचार और लोभ के कारण राजसत्ता एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र के हाथ चली जाती है।
9) कृपण व्यक्ति से अधिक बुरा कोई नहीं। वह अपनी आत्मा को भी बेच सकता है।
10) मिट्टी और राख का पुतला घमण्ड क्यों करता है? जीवित रहते भी उसकी ऍतिड़ियों में कीड़े हैं।
11) दीर्घकालीन बीमारी वैद्य को निराष और अल्पकालीन बीमारी उसे प्रसन्न करती है।
12) हर राज्याधिकार अल्पकालीन है। आज का राजा कल मर जाता है।
13) ज्यों ही मनुष्य मर जाता है, सॉप, पषु और कीडे उसकी विरासत बनते हैं।
14) मनुष्य का घमण्ड इस से प्रारम्भ होता है कि वह ईष्वर का परित्याग करता
15) और अपने सृष्टिकर्ता से विमुख हो जाता है; क्योंकि हर पाप घमण्ड से प्रारम्भ होता है। जो पाप करता है, वह अभिषप्त है।
16) इसलिए प्रभु ने पापियों पर विपत्तियॉ ढाहीं और उनका सर्वनाष किया है।
17) ईष्वर ने घमण्डियों के सिंहासन गिराये और उन पर दीनोें को बैठाया है।
18) प्रभु ने घमण्डी राष्ट्रों की जड़ उखाड़ी और उनके स्थान पर दीनों को रोपा है।
19) प्रभु ने राष्ट्रों की भूमि उजाड़ दी और उनका समूल विनाष किया है।
20) उसने उन्हें मनुष्यों के बीच से उखाड़ दिया और पृथ्वी पर उनकी स्मृति तक मिटा दी है।
21) ईष्वर ने घमण्डियों की स्मृति को मिटा दिया और दीनों की स्मृति को बनाये रखा।
22) घमण्ड मनुष्यों को शोभा नहीं देता और न स्त्री की सन्तान को क्रोध का आवेष।
23) जो प्रजाति प्रभु पर श्रद्धा रखती है, वही सम्मान के योग्य है। जो प्रजाति प्रभु की आज्ञाओं का उल्लंघन करती है, वह सम्मान से वंचित रह जाती है।
24) जो अपने भाइयों का नेता है, उसका उनके बीच सम्मान किया जाता है।
25) परदेषी, शरणार्थी और भिखारी : उनका गौरव इस में है कि वे प्रभु पर श्रद्धा रखते हैं।
26) धार्मिक दरिद्र की उपेक्षा करना अन्याय है और पापी की महिमा करना अनुचित है।
27) राजा, न्यायाधीष और शासक का सम्मान किया जाता है, किन्तु उन में कोई उस व्यक्ति से महान् नहीं, जो प्रभु पर श्रद्धा रखता है।
28) स्वाधीन व्यक्ति समझदार दास की सेवा करेंगे और इस पर किसी विवेकी को आपत्ति नहीं होगी।
29) अपने व्यवसाय में प्रज्ञा का और तंगहाली में बड़प्पन का स्वॉग मत रचो।
30) उस घमण्डी की अपेक्षा, जिसके पास रोटी नहीं, वह कर्मषील व्यक्ति अच्छा है, जिसे किसी बात की कमी नहीं।
31) पुत्र! विनम्रता से अपनी स्वाभिमान की रक्षा करो, अपने को अपनी योग्यता के अनुसार ही श्रेय दो।
32) जो व्यक्ति अपने साथ अन्याय करता, उसे कौन निर्दोष ठहरायेगा? जो व्यक्ति अपना ही अपमान करता, उस को कौन सम्मान देगा?
33) ज्ञान के कारण दरिद्र का और धन के कारण धनी का सम्मान किया जाता है।
34) दरिद्रता में जिसका सम्मान किया जाता है, उसका समृद्धि में कहीं अधिक सम्मान किया जायेगा। समृद्धि में जिसका अपमान किया जाता है, उसका दरिद्रता में कहीं अधिक अपमान किया जायेगा।

अध्याय 11

1) प्रज्ञा दीन का सिर ऊँचा करती और उसे शासकों के बीच बैठाती है।
2) सौन्दर्य के कारण किसी की प्रषंसा मत करो और रूप-रंग के कारण किसी की उपेक्षा मत करो।
3) पंख वाले जीवों में मधुमक्खी छोटी है, किन्तु वह जो उत्पन्न करती है, वह सब से मधुर है।
4) अपने वस्त्रों पर गौरव मत करो और सम्मान मिलने पर घमण्डी मत बनो; क्योंकि प्रभु के कार्य ही प्रषंसनीय हैं, यद्यपि वे मनुष्य से छिपे रहते हैं।
5) कई तानाषाहों को भूमि पर बैठ जाना पड़ा और जिसका कोई ध्यान नहीं करता था, उसने किरीट धारण किया।
6) कई शासकों को बहुत अपमानित किया गया और सुप्रसिद्ध व्यक्तियो को शत्रुओं के हवाले कर दिया गया है।
7) जानकारी के अभाव में किसी को दोष मत दो; सोच-विचार करने के बाद ही किसी को डाँटो।
8) सुनने के बाद ही उत्तर दो और बोलने वाले को मत टोको।
9) जो मामला तुम से सम्बन्ध नहीं रखता, उसके विषय में झगड़ा मत करो और दुष्टों के विवाद में मत पड़ो।
10) पुत्र! बहुत बातों के फेर में मत पड़ो : ऐसा करने पर तुम निर्दोष नहीं रहोगे। जिसका पीछा करोगे, उसे नहीं पकड़ पाओगे और जिस से भाग जाओगे, उस से नहीं बचोगे।
11) कुछ लोग परिश्रम और संघर्ष करते हुए दौड़ते हैं, किन्तु तब भी पिछड़ जाते हैं।
12) कुछ लोग कमजोर और निस्सहाय, साधनहीन और दरिद्र हैं, किन्तु प्रभु की कृपादृष्टि उन्हें प्राप्त है और वह उन्हें उनकी दयनीय दषा से ऊपर उठाता है।
13) वह उनका सिर ऊँचा करता और इस पर बहुतों को आष्चर्य होता है।
14) दुःख और सुख, जीवन और मृत्यु गरीबी और अमीरी- यह सब कुछ प्रभु के हाथ है।
15) प्रज्ञा, अनुषासन, संहिता का ज्ञान, भा्रतृप्रेम और परोपकार का मार्ग यह सब प्रभु का वरदान है।
16) भ्रम और अन्धकार पापियों का भाग्य है। जो बुराई को प्यार करते है, वे उसे बुढ़ापे तक नहीं छोड़ते।
17) भक्तों को प्रभु के वरदान मिलते हैं; उसकी कृपादृष्टि उनका सदा पथप्रदर्षन करेगी।
18) कुछ लोग परिश्रम और मितव्यय से धनी बनते हैं, किन्तु अन्त में उनका यह भाग्य होगा :
19) वे कहेंगे, ''मुझे शान्ति प्राप्त हो गयी है। अब मैं अपनी सम्पत्ति का उपभोग करूँगा'';
20) जब कि वे नहीं जानते कि उनकी घड़ी कब आयेगी। वे मर जायेंगे और अपनी सम्पत्ति दूसरों के लिए छोड़ देंगे।
21) कर्तव्यपालन में दृढ़ बने रहो और बुढ़ापे तक अपना काम करते जाओ।
22) पापी के कर्मो पर आष्चर्य पत करो; प्रभु पर भरोसा रखते हुए अपना काम करते जाओ ;
23) क्योंकि प्रभु सुगमता से किसी दरिद्र को अचानक धनी बना सकता है।
24) प्रभु का आषीर्वाद धर्मी का पुरस्कार है; उसका आषीर्वाद क्षण भर में फलता है।
25) यह मत कहो, ''मुझे और क्या चाहिए? मुझे और कौन सुख मिल सकता है?''
26) यह मत कहो, ''मुझे किसी बात की कमी नहीं, भविष्य में मुझ पर कौन विपत्ति आ सकती है?''
27) सुख के दिनों में दुःख और दुःख के दिनों में सुख भुलाया जाता है।
28) प्रभु आसानी से मृत्यु के दिन मनुष्य को उसके समस्त कर्मो का फल दे सकता है।
29) घड़ी भर का दुःख समृद्धि को भुला देता है; मनुष्य का अन्त उसके कर्म प्रकट करता है।
30) किसी को मृत्यु के पूर्व सौभाग्यषाली मत कहो; मृत्यु के समय ही मनुष्य को पहचाना जाता है।
31) हर किसी को अपने घर में मत आने दो; क्योंकि कपटी मनुष्य के बहुत-से जाल होते हैं।
32) अहंकारी का हृदय पिंजड़े में बन्द तीतर के सदृष है। वह गुप्तचर की तरह तुम्हारे पतन की ताक में रहता है।
33) चुगलखोर अच्छाई को बुराई में बदल देता है। ओैर अच्छी-से-अच्छी बातोें में भी दोष निकालता है।
34) एक चिनगारी कोयले के ढेर में आग लगा सकती है। पापी रक्तपात की ताक में रहता है।
35) दुष्ट से सावधान रहो, वह बुराई ही सोचता है; वह सदा के लिए तुम पर कलंक लगा सकता है।
36) यदि परदेषी को अपने यहाँ ठहराओगे, तो वह तुम को परेषानी में डालेगा और तुम्हारे अपनों से विमुख करेगा।

अध्याय 12

1) अपने परोपकार का पात्र अच्छी तरह चुनो और तुम को अपने परोपकार का धन्यवाद दिया जायेगा।
2) यदि तुम भक्त मनुष्य का उपकार करोगे, तो तुम को उस से या सर्वोच्च प्रभु से पुरस्कार मिलेगा।
3) जो बुराई करता रहता और भिक्षादान करना नहीं चाहता, उसका कल्याण नहीं होगा; क्योंकि सर्वोच्च ईष्वर को उस से घृणा होती है और वह पष्चात्तापियों पर दया करता है।
4) दयालु मनुष्य को दान दो और पापी की सहायता कभी नहीं करो।
5) भले मनुष्य को दे दो और पापी को अपने यहाँ मत ठहराओ।
6) दीन का उपकार करो और विधर्मी को कुछ नहीं दो। उसे हथियार मत दो; कहीं ऐसा न हो कि उनके बल पर वह तुम पर हावी हो जाये;
7) क्योंकि तुम उसका जो उपकार करोगे, उस से दुगुनी बुराई तुम को भोगनी पड़ेगी। सर्वोच्च प्रभु को पापियों से घृणा है और वह दुष्टों को उचित दण्ड देता है।
8) सुख के दिनों में मित्र की पहचान नहीं होती और दुःख के दिनों में शत्रु छिपा नहीं रहता।
9) सुख के दिनों में मनुष्य के शत्रु भी उसके मित्र बनते हैं और दुःख के दिनों में उसके मित्र अलग हो जाते हैं।
10) अपने शत्रु पर कभी विष्वास मत करो; उसकी दुष्टता धातु पर जंग की तरह प्रकट होती है।
11) यदि वह नम्र बन कर तुम्हारे सामने झुक जाये, तो सतर्क हो कर उस से सावधान रहो और उस मनुष्य के समान बनो, जिसने दर्पण साफ किया, किन्तु जो जानता है, कि उस पर फिर जंग जम जायेगा।
12) उसे अपने पास खड़ा न होने दो। कहीं ऐसा न हो कि वह तुम को गिरा दे और तुम्हारा स्थान ले ले। उसे अपने दाहिने न बैठने दो। कहीं ऐसा न हो कि वह तुम्हारे आसन पर बैठ जाये और तुम अन्त में समझो कि मैंने ठीक ही कहा और तुम को मेरी चेतावनी याद कर दुःख हो।
13) यदि साँप सँपेरे को काटे, तो उस से कौन सहानुभूति रखेगा, या उन लोगो से, जो हिंसक जानवरों के निकट जाते हैं? यही दषा उसी की है, जो पापी की संगति करता और उसके पापों में फँस जाता है।
14) पापी थोड़े समय तक तुम्हारा साथ देगा, किन्तु यदि तुम्हारी स्थिति डाँवाडोल होगी, तो वह नहीं टिकेगा।
15) शत्रु के होंठो से मधु टपकता है, किन्तु उसके हृदय में तुम को गड्ढे में गिराने का भाव है।
16) भले ही उसकी आँखों से आँसू निकलते हों, अवसर मिलने पर वह रक्त बहाने में भी नहीं हिचकेगा।
17) यदि तुम पर विपत्ति आ पड़ी, तो उसे अपने पास पाओगे;
18) वह सहायता देने के बहाने तुम को लंगी मारेगा।
19) वह सिर हिलायेगा, ताली बजायेगा और सीटी बजाते हुए अपना असली रूप प्रकट करेगा।

अध्याय 13

1) जो अलकतरा छूता, वह मैला हो जाता है और जो घमण्डी की संगति करता, वह उसके सदृष बन जाता है।
2) ऐसा बोझ मत उठाओं, जो तुम्हारे लिए अधिक भारी है। ऐसे व्यक्ति की संगति मत करो, जो तुम से शक्तिषाली या धनी है।
3) मिट्टी के बरतन और धातु-पात्र का क्या मेल? टकराने पर मिट्टी का बरतन टूट जायेगा।
4) जब धनी अन्याय करता, तो वह शेखी मारता है। जब दरिद्र के साथ अन्याय होता है, तो उसे क्षमा भी माँगनी पड़ती है।
5) यदि तुम धनी के लिए उपयोगी हो, तो वह तुमसे काम लेगा। यदि तुम्हारी दुर्गति हो जायेगी, तो वह तुमको छोड़ देगा।
6) जब तक तुम समृद्ध हो, वह तुम्हारे साथ खा-पी कर तुम्हारी सम्पत्ति उड़ायेगा और उसे तुम्हारी दुर्गति पर कोई दुःख नहीं होगा।
7) यदि उसे तुम्हारी जरूरत होगी, तो वह तुम को मूर्ख बनायेगा। वह मुस्कराते हुए तुम्हें आषा दिलाता रहेगा और चिकनी-चुपड़ी बातेें करते हुए पूछेगा : ''मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ? ''
8) वह तुम्हें अपनी दावत में बुला कर तुम्हारा अपमान करेगा। वह दो-तीन बार तुम्हारी सम्पत्ति उड़ायेगा और अन्त में तुम्हारा उपहास करेगा यदि वह बाद में तुम को देखेगा, तो कन्नी काट कर सिर हिलाते हुए आगे बढ़ जायेगा।
9) ईष्वर के सामने विनम्र बनो और उस पर भरोसा रखो।
10) सावधान रहो कि कहीं धोखा न खाओ और बाद में मूर्खता के कारण तुम को नीचा न दिखाया जाये।
11) समझदार बनो और दूसरों से मत दबो। कहीं ऐसा न हो कि अधिक दीनता के कारण तुम मूर्ख बन जाओ।
12) शक्तिषाली व्यक्ति का निमन्त्रण आसानी से स्वीकार मत करो; तब वह तुम से अधिक आग्रह करेगा।
13) ढीठ मत बनो, नहीं तो तुम हटा दिये जाओगे; अधिक दूर मत रहो, नहीं तो तुम भुला दिये जाओगे।
14) उस से बराबरी के स्तर पर बात मत करो और उसकी अनेकानेक बातों पर विष्वास मत करो; क्योंकि वह देर तक बात कर तुम्हारी परीक्षा लेता और मुस्कुराते हुए तुम्हारा भेद जान जाता है।
15) शक्तिषाली व्यक्ति निर्दय होता है और बहुतों की जान जोखिम में डालता है।
16) इसलिए अधिक मत बोलो, सावधान रहो और उग्र व्यक्तियों की संगति मत करो।
17) यह षिक्षा सुन कर जागो।
18) अपनी सारी शक्ति से प्रभु को प्यार करो और अपने कल्याण के लिए उसकी दुहाई दो।
19) हर प्राणी अपनी जाति को प्यार करता है और हर मनुष्य अपने पड़ोसी को।
20) हर प्राणी अपनी जाति की ओर खिंचता है और हर मनुष्य अपने-जैसे व्यक्ति की संगति करता है।
21) क्या भेड़िया मेमने के साथ रह सकता है? ऐसे ही भक्त के साथ पापी नहीं रह सकता।
22) क्या लकड़बग्घे और कुत्ते का मेल सम्भव है? उसी तरह धनी और दरिद्र का मेल नहीं हो सकता।
23) उजाड़खण्ड के गधे सिंहो के षिकार बनते हैं, इसी तरह दरिद्र धनियों के चरागाह हैं।
24) घमण्डी को विनम्रता से घृणा होती है, इसी तरह धनी को दरिद्र से घृणा होती है।
25) जब धनी ठोकर खाता, तो उसके मित्र उसे सँभालते हैं; किन्तु जब दरिद्र गिरता, तो उसके मित्र उसे लात मारते हैं।
26) जब धनी लड़खड़ाता, तो बहुत लोग उसे सँभालते हैं; जब वह अषोभनीय बातें कहता, तो लोग उसकी सफाई देते हैं।
27) जब दरिद्र लड़खड़ाता तो लोग उसे दोष देते हैं; जब वह पते की बात कहता, तो कोई ध्यान नहीं देता।
28) जब धनी बोलता, तो सब चुप रहते और उसकी बातों की अत्यधिक प्रषंसा करते हैं।
29) जब दरिद्र बोलता, तो लोग पूछते हैं यह कौन है? जब वह लड़खड़ाता, तो लोग उसे धक्का देते हैं।
30) वह धन अच्छा है, जो पाप की कमाई नहीं हो। दुष्ट मानता है कि दरिद्रता बुरी है।
31) मनुष्य का हृदय उसका चेहरा बदल देता है- या तो अच्छाई की ओर, या बुराई की ओर।
32) प्रसन्न मुख अच्छे हृदय का लक्षण है। सूक्तियों की रचना के लिए गम्भीर चिन्तन की अपेक्षा है।

अध्याय 14

1) धन्य है वह मनुष्य, जिसने अपने मुख से पाप नहीं किया और जो अपने पुराने पापों के कारण दुःखी न हो!
2) धन्य है वह मनुष्य, जिसका अन्तःकरण उसे दोषी नहीं ठहराता और जिसने आषा नहीं छोड़ी है!
3) क्षुद्र मनुष्य को धन शोभा नहीं देता और कृपण का सोना किसी काम का नहीं।
4) जो अपना पेट काट कर धन संचित करता है, वह उसे दूसरों के लिए संचित करता है, पराये लोग उसका धन भोगेंगे।
5) जो अपना ही शत्रु है, वह किसका हित करेगा? वह अपने ही धन का उपभोग नहीं करता।
6) जो अपने साथ दुर्व्यवहार करता, उस से बुरा कोई नहीं; वह अपने से अपनी बुराई का बदला चुकाता है।
7) यदि वह भलाई करता, तो अनजाने ऐसा करता और अन्त में अपनी बुराई प्रकट करता है।
8) ईर्ष्यालु मनुष्य दुष्ट है। वह मुँह मोड़ कर दूसरो का तिरस्कार करता है।
9) लालची अपने भाग से सन्तुष्ट नहीं होता उसका लालच उसे खा जाता है।
10) कृपण रोटी का लालच करता, किन्तु अपनी मेज पर भूखा रहता है।
11) पुत्र! अपने धन का उपभोग करो और प्रभु को उचित बलिदान चढ़ाओ।
12) याद रखो कि मृत्यु के आने में देर नहीं है और तुम अधोलोक का निर्णय नहीं जानते।
13) मरने से पहले अपने मित्र की भलाई करो और जहाँ तक बन पड़े, उसे उदार दान दो।
14) वर्तमान की अच्छी चीजों से अपने को वंचित मत रखो और सुख का अपना भाग हाथ से न जाने दो।
15) क्या तुम को अपना धन दूसरों के लिए नहीं छोड़ना पड़ेगा? क्या तुम्हारे परिश्रम का फल चिट्ठी डाल कर नहीं बँटेगा ?
16) दे दो, ले लो और आनन्द मनाओ।
17) मरने से पहले धर्माचरण करो, क्योंकि अधोलोक में तुम को सुख नहीं मिलेगा।
18) हर शरीर वस्त्र की तरह जीर्ण हो जाता है और यह निर्णय अपरिवर्तनीय है ''तुम मर जाओगे''। जिस तरह हरे पेड़ के पत्तों में
19) कुछ फूट कर निकलते और कुछ गिर जाते हैं, उसी तरह शरीरधारियो की पीढ़ियों में होता है- कोई मरती और कोई उत्पन्न होती है।
20) कोई भी नष्वर कृति अन्त में नही टिकेगी और उसका निर्माता भी उसके साथ चला जायेगा।
21) हर सत्कार्य टिका रहेगा और उसके कर्ता का सम्मान किया जायेगा।
22) धन्य है वह मनुष्य, जो प्रज्ञा की खोज करता रहता और विवेक की प्राप्ति के लिए उत्सुक है;
23) जो अपने मन में प्रज्ञा के मार्ग का चिन्तन और उसके रहस्य समझने का प्रयत्न करता है; जो षिकारी की तरह उसका पीछा करता और उसकी गति-विधि की ताक में रहता है;
24) जो उसकी खिड़की के अन्दर झाँकता और उसके द्वार पर कान लगा कर सुनता है;
25) जो उसके घर के पास निवास करता और उसकी दीवार में अपने तम्बू की खँूटी गाड़ता है; जो उसके निकट अपना तम्बू खड़ा करता और सुखद स्थान में निवास करता है;
26) जो अपने पुत्रों को उसके आश्रय में रखता और उसकी डालियों के नीचे रहता है!
27) वह उसकी छाया में गरमी से बचता और उसकी महिमा में विश्राम पाता है।

अध्याय 15

1) जो प्रभु पर श्रद्धा रखता है, वह ऐसा आचरण करता है। जो संहिता का पालन करता, उसे प्रज्ञा प्राप्त होगी।
2) प्रज्ञा माता की तरह उसकी अगवानी करने जायेगी, वह उसका नववधू-जैसा स्वागत करेगी।
3) वह उसे बुद्धि की रोटी खिलायेगी और उसे ज्ञान का जल पिलायेगी। वह उसके सहारे चलेगा और नहीं गिरेगा।
4) वह उस पर निर्भर रहेगा और कभी लज्जित नहीं होगा। वह उसे उसके साथियों के ऊपर उठायेगी और सभा में बोलने की शक्ति देगी।
5) वह उसे प्रज्ञा और विवेक का आत्मा प्रदान करेगी और उसे महिमा के वस्त्र पहनायेगी।
6) उसे सुख-षान्ति तथा आनन्द प्राप्त होगा और उसका नाम सदा बना रहेगा।
7) मूर्ख लोग उसे नहीं प्राप्त करेंगे, पापी उसके दर्षन नहीं करेंगे। वह घमण्डी और कपटी से दूर रहती है।
8) मिथ्यावादी उस पर ध्यान नहीं देंगे। सत्यवादी उसे प्राप्त करेंगे।
9) पानी के मुँह में प्रषंसा अषोभनीय है;
10) क्योंकि वह प्रभु से प्रेरित नहीं हैं। प्रषंसा प्रज्ञा के अनुकूल होनी चाहिए, प्रभु ही उसे प्रेरित करता है।
11) यह मत कहों, ''प्रभु के कारण मैं भटक गया''; क्योंकि जिस से वह घृणा करता है, उसे प्रेरित नहीं करता।
12) यह मत कहो, ''उसी ने मुझे भटकाया'', क्योंकि उसे पापी से क्या?
13) प्रभु को हर पाप से घृणा होती है; जो पाप करता है, वह ईष्वर पर श्रद्धा नहीं रखता।
14) ईष्वर ने प्रारम्भ में मनुष्य की सृष्टि की और उसे निर्णय करने की स्वतन्त्रता प्रदान की।
15) उसने अपनी आज्ञाएॅ एवं आदेष प्रकट किये और मनुष्य पर अपनी इच्छा प्रकट की है।
16) यदि तुम चाहते हो, तो आज्ञाओं का पालन कर सकते हो; ईष्वर के प्रति ईमानदार रहना तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है।
17) उसने तुम्हारे सामने अग्नि और जल, दोनों रख दिये हाथ बढ़ा कर उन में एक का चुनाव करो।
18) मनुष्य के सामने जीवन और मरण, दोनों रखे हुए हैं। जिसे मनुुष्य चुनता, वहीं उसे मिलता है।
19) ईष्वर की प्रज्ञा अपार है। वह सर्वषक्तिमान् और सर्वज्ञ है।
20) वह अपने श्रद्धालु भक्तों की देखरेख करता है। मनुष्य जो भी करते हैं, वह सब देखता रहता है।
21) उसने न तो किसी को अधर्म करने का आदेष दिया और न किसी को पाप करने की छूट।
22) विधर्मियों और दुष्टों की बहुसंख्यक सन्तति से ईर्ष्या मत करो।

अध्याय 16

1) अधर्मी पुत्रों के कारण आनन्द मत मनाओ। यदि वे ईष्वर पर श्रद्धा नहीं रखते, तो उनकी बढ़ती संख्या पर प्रसन्न मत हो।
2) उनकी लम्बी आयु का भरोसा मत करो और उनकी संख्या पर निर्भर मत रहो।
3) हजार अधर्मी पुत्रों की अपेक्षा एक भक्त पुत्र अच्छा है।
4) अधर्मी पुत्रोंं की अपेक्षा निस्सन्तान मरना अच्छा है।
5) एक समझदार व्यक्ति से नगर की रक्षा होती है, किन्तु दुष्टोें की पीढ़ी नष्ट हो जायेगी।
6) मैंने यह सब अपनी आँखो से बार-बार देखा और इससे अधिक प्रभावकारी उदाहरण सुने।
7) पापियों की सभा में आग प्रज्वलित होती है और विद्रोही भीड़ के विरुद्ध कोप भड़कता है।
8) प्रभु ने भीमकाय लोगों को क्षमा नहीं किया, जिन्होंने अपनी शक्ति के बल पर विद्रोह किया था।
9) उसने लोट के नगर की रक्षा नहीं की; क्योंकि उसे उसके घमण्ड से घृणा थी।
10) उसने विनाष की प्रजाति पर दया नहीं की; वह अपने पापों के कारण नष्ट की गयी।
11) उसने छः लाख पैदल सैनिकों के साथ वही किया, जिन्होंने हठपूर्वक उस से विद्रोह किया था। यदि केवल एक ही हठीला विद्रोही हुआ होता और वह बच गया होता, तो बड़े आष्चर्य की बात होती;
12) क्योंकि उसके पास दया और क्रोध है; वह बड़ा दयालु है, किन्तु अपने क्रोध को भी भड़कने देता है।
13) उसकी दया जितनी बड़ी है, उतनी ही महान् है उसकी डाँट। वह कर्मों के अनुसार मनुष्यों का न्याय करता है।
14) पापी अपनी लूट के साथ नहीं भाग सकेगा और धर्मी की आषा पूर्ण हो जायेगी।
15) जो भलाई करता है, उसे पुरस्कार मिलेगा और सब को अपने कर्मों का फल दिया जायेगा। प्रभु ने फिराउन का हृदय कठोर बना दिया; जिससे वह प्रभु को नहीं पहचाने और प्रभु के कार्य सर्वत्र सम्पन्न हों। सारी सृष्टि पर प्रभु की कृपा प्रकट हो गयी है। उसने प्रकाष और अन्धकार, दोनों को मनुष्यों में बाँट दिया।
16) यह मत कहो, ''मैं प्रभु के सामने से छिप जाऊँगा, वहाँ आकाष में मुझे कौन याद करेगा?
17) अपार भीड़ में मुझे कौन पहचानेगा? समस्त सृष्टि मेें मैं क्या हूँ?
18) प्रभु के आगमन पर आकाष, सर्वोच्च आकाष, महागर्त्त और पृथ्वी सब-के-सब हिलाये जायेंगे।
19) जब प्रभु उन पर दृष्टि डालेगा, तो पर्वत और पृथ्वी के आधार डर के मारे काँप उठेंगे।
20) फिर भी वह मुझ पर ध्यान नहीं देता। मेरे मार्ग का निरीक्षण कौन करेगा?
21) जब मैं पाप करता, तो काई नहीं देखता; जब मैं गुप्त में अपराध करता, तो कौन जानता है?
22) कौन भले कामों की चरचा करता है? कौन उनकी प्रतीक्षा करता है? न्याय का दिन दूर है।''
23) ये नासमझ के विचार हैं, अविवेकी ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें सोचता है।
24) पुत्र! मेरी बात सुनो और ज्ञान ग्रहण करो।
25) मैं तुम को सन्तुलित षिक्षा प्रदान करूँगा और अपना ज्ञान अच्छी तरह समझाऊँगा। मेरी बातों में मन लगाओ।
26) प्रभु ने प्रारम्भ से अपने कार्य सम्पन्न किये और प्रत्येक कृति का अपना स्थान निर्धारित किया।
27) उसने सदा के लिए उनका कार्यक्षेत्र निष्चित किया और उनकी अपनी प्रकृति के अनुसार उन को अधिकार दिया।
28) उन्हें न तो भूख लगती और न थकावट होती, वे अपने कार्य नहीं छोड़तीं।
29) कोई न तो उसकी निकटवर्ती कृति से टकराती और न उसके आदेष की अवज्ञा करती।
30) इसके बाद प्रभु ने पृथ्वी पर दृष्टि डाली और उसे अपने बरदानों से भर दिया।
31) उसने पृथ्वीतल हर प्रकार के प्राणियों से भर दिया और उन्हें उसी में लौटना होगा।

अध्याय 17

1) प्रभु ने मिट्टी से मनुष्य को गढ़ा। उसने उसे अपना प्रतिरूप बनाया।
2) वह उसे फिर मिट्टी में मिला देता है। उसने उसे अपने सदृष शक्ति प्रदान की।
3) उसने मनुष्यों की आयु की सीमा निर्धारित की और उन्हें पृथ्वी की सब वस्तुओं पर अधिकार दिया।
4) उसने सब प्राणियों में मनुष्य के प्रति भय उत्पन्न किया और उसे सब पषुओं तथा पक्षियों पर अधिकार दिया।
5) उसने मनुष्यों को बुद्धि, भाषा, आँखें तथा कान दिये और विचार करने का मन भी।
6) उसने उन्हें विवेक से सम्पन्न किया और भलाई तथा बुराई की पहचान से।
7) उसने उनके मन की आँखों को ज्योति प्रदान की, जिससे वे उसके कार्यों की महिमा देख सकें
8) और उसके पवित्र नाम का स्तुतिगान एवं महिमामय कार्यों का बखान करें।
9) उसने उन्हें ज्ञान का वरदान और जीवनप्रद नियम दिया।
10) उसने उनके लिए चिरस्थायी विधान निर्धारित किया और उन्हें अपनी आज्ञाओं की षिक्षा दी।
11) उनकी आँखों में उसके महिमामय ऐष्वर्य को देखा और उनके कानों ने उनकी महिमामय वाणी सुनी। उसने उन से यह कहा, ''हर प्रकार की बुराई से दूर रहो''।
12) उसने प्रत्येक को दूसरों के प्रति कर्तव्य सिखाया।
13) मनुष्य जो कुछ करता है, वह सदा उसके लिए प्रकट है और उसकी आँखों से छिपा हुआ नहीं रह सकता।
14) उसने प्रत्येक राष्ट्र के लिए एक शासक नियुक्त किया,
15) किन्तु इस्राएल प्रभु की विरासत है।
16) मनुष्यों के सभी कार्य दिन के प्रकाष की तरह प्रभु के सामने प्रकट है; वह उनके मार्गों पर निरन्तर दृष्टि दौड़ाता है।
17) उनका अधर्म उस से छिपा नहीं है; उनके सभी पाप प्रभु के सामने हैं।
18) मनुष्य का भिक्षादान मुहर की तरह उसकी रक्षा करता है। प्रभु मनुष्य का परोपकार आँख की पुतली की तरह सुरक्षित रखता है।
19) वह अन्त में उठ कर उन्हें प्रतिफल प्रदान करेगा। वह उनका पुरस्कार उनके सिर पर रख देगा।
20) ईष्वर पष्चात्ताप करने वालों को अपने पास लौटने देता और निराष लोगों को ढ़ारस बँधाता है।
21) पाप छोड़ कर सर्वोच्च ईष्वर के पास लौट जाओ।
22) उस से प्रार्थना करो और उसे अप्रसन्न मत किया करो।
23) अन्याय छोड़ कर सर्वोच्च ईष्वर के पास लौट जाओ और अधर्म से अत्यधिक घृणा करो।
24) ईष्वर का न्यायोचित निर्णय पहचान लो और सर्वोच्च प्रभु से विनय और प्रार्थना करो।
25) यदि जीवित लोग ईष्वर का धन्यवाद नहीं करते, तो अधोलोक में कौन उसका स्तुतिगान करेगा?
26) अधर्मियों की भ्रान्ति में मत रहो और मृत्यु से पहले प्रभु की स्तुति करो। जो मर चुका है, वह प्रभु का स्तुतिगान नहीं करता।
27) जो जीवित और सकुषल है, वही प्रभु को धन्य कहता है। जीवित और सकुषल रहते हुए प्रभु को धन्य कहो। प्रभु की स्तुति करो और उसकी दया पर गौरव करो।
28) कितनी महान् है ईष्वर की दया और उसके पास लौटने वालों के लिए उसकी क्षमाषीलता!
29) सब कुछ मनुष्य के लिए सम्भव नहीें है, क्योंकि मनुष्य अमर नहीं है।
30) सूर्य से अधिक प्रकाषमय क्या है? किन्तु उस पर भी ग्रहण लग जाता है। रक्त-मांस का मनुष्य तो बुराई की बात सोचता है।
31) ईष्वर विष्वमण्डल पर दृष्टि दौड़ाता है, किन्तु मनुष्य मिट्टी और राख मात्र है।

अध्याय 18

1) जो सदा जीवित रहता है, उसने सब कुछ की सृष्टि की है। वहीं न्यायी है और सदा ही अजेय राजा बना रहता है।
2) कौन उसके कार्यो का पूरा वर्णन कर सकता है?
3) कौन उसकी महिमा का अनुसन्धान कर सकता है?
4) कौन उसके महिमामय सामर्थ्य को घोषित करेगा? कौन उसकी दयालुता का बखान करेगा?
5) उन में न तो कुछ घटाया और न कुछ बढ़ाया जा सकता है। प्रभु के चमत्कारों की थाह कोई नहीं ले सकता।
6) जहाँ मनुष्य उनके वर्णन का अन्त करता है, वहाँ उनका प्रारम्भ मात्र है। जब वह रूकता है, तो असमंजस में पड़ा रहता है।
7) मनुष्य क्या है? वह किस काम का है? उसके अच्छे और बुरे कामों का क्या अर्थ है?
8) यदि मनुष्य की आयु एक सौ वर्ष है, ते वह बहुत मानी जाती है; किन्तु अनन्त काल की तुलना में ये थोड़े वर्ष समुद्र में बूँद की तरह, रेतकण की तरह हैं।
9) इसलिए प्रभु मनुष्यों के प्रति सहिष्णु है और उन पर अपनी दया बरसाता है।
10) वह उनके हृदय के बुरे झुकाव देखता और उनका दुष्ट विरोध जानता है।
11) वह उन्हे क्षमा प्रदान करता और धर्ममार्ग दिखाता है।
12) मनुष्य अपने पड़ोसी पर ही दया दिखा सकता, किन्तु प्रभु की दया सब शरीरधारियों पर प्रकट होती है।
13) जिस तरह चरवाहा अपने झुण्ड का पथ-प्रदर्षन करता, उसी तरह वह मनुष्यों को डाँटता, दण्डित करता और षिक्षा देता है।
14) वह उन लोगों पर दया करता है, जो उसकी षिक्षा ग्रहण करते और उसकी आज्ञाओं को उत्सुकता से पालन करते हैं।
15) पुत्र! भलाई करते समय किसी को दोष मत दो और दान देते समय कटु शब्द मत बोलो।
16) क्या ओस शीतल नहीं करती? इसी प्रकार उपहार से भी अच्छा एक शब्द हो सकता है।
17) एक मधुर शब्द महँगे उपहार से अच्छा है। स्नेही मनुष्य एक साथ दोनों को देता है।
18) मूर्ख कटु शब्दों से डाँटता है और क्रोधी मनुष्य का उपहार दुःखदायी है।
19) निर्णय से पहले वकील का प्रबन्ध करो और बोलने से पहले जानकार बनो।
20) बीमारी से पहले दवा का सेवन करो, निर्णय से पहले अपनी ही जाँच करो और जाँच के समय तुम को क्षमा मिलेगी।
21) बीमारी से पहले विनम्र बनो और समय रहते अपने पापों पर पष्चात्ताप करो।
22) मन्नत पूरी करने में विलम्ब मत करो। मृत्यु तक यह काम मत टालते रहो; क्योंकि ईष्वर का पुरस्कार सदा बना रहेगा।
23) मन्नत मानने से पहले सोच-विचार करो। उस मनुष्य के समान मत बनो, जो प्रभु की परीक्षा लेता है।
24) अन्तिम समय भड़कने वाला क्रोध और दण्ड याद रखो, जब प्रभु अपना प्रभु मुँह फेर लेता है।
25) बहुतायत के दिनों में भुखमरी ओर समृद्धि के दिनों में दरिद्रता और अभाव याद रखो।
26) सुबह से शाम तक मौसम बदलता है, प्रभु की दृष्टि में यह सब क्षणभंगुर है।
27) बुद्धिमान् सब समय सावधान रहता है और जब पाप का बोलबाला हो, तो वह अपराध से बचता है।
28) हर विवेकषील व्यक्ति प्रज्ञा पहचानता और प्रज्ञासम्पन्न मनुष्य की प्रषंसा करता है।
29) नीति-वचन जानने वाले अपनी प्रज्ञा का प्रमाण देते हैं और वर्षा की तरह सूक्तियाँ बरसाते है।
30) अपनी वासनाआंें का दास मत बनो और अपनी लालसाओं पर संयम रखो।
31) यदि तुम अपनी वासनाओं का दास बनोगे, तो तुम्हारे शत्रु तुम्हारा उपहास करेंगे।
32) दावतों में रुचि मत लो, इस से दुगुनी दरिद्रता आ जाती है।
33) यदि तुम्हारे पास धन न हो, तो न पेटू बनो और न मद्यप। कहीं ऐसा न हो कि तुम अपनी हानि कर बैठो।

अध्याय 19

1) पीने वाला मजदूर धनी नहीं बनेगा। जो छोटी बातों की उपेक्षा करता, उसका पतन होगा।
2) अंगूरी और स्त्रियाँ समझदार लोगों को भटकाती हैं। वेष्यागामी का विनाष होगा। वह सड़ाँध और कीड़ों का षिकार होगा।
3) उसका दुःसाहस उसके विनाष का कारण बनेगा। उसकी आत्मा का सत्यानाष होगा और उसका उदाहरण प्रस्तुत किया जायेगा।
4) जो जल्दी विष्वास करता, वह छिछोरा है। जो पाप करता, वह अपने को हानि पहुँचाता है।
5) जो बुराई में रूचि लेता, उसे कलंक लगेगा।
6) जो सुधार से घृणा करता, वह दीर्घायु नहीं होगा और जो बकवाद से ृाणा करता, वह बुराई से बचता है।
7) चुगली मत दोहराओ और तुम को हानि नहीं उठानी पड़ेगी।
8) जब तक चुप रहने में तुम्हारा कोई दोष न हो, तो न मित्र और न शत्रु का कोई भेद प्रकट करो;
9) क्योंकि वह इसके विषय में सुनेगा, तुम से सावधान रहेगा और अवसर पा कर तुम पर बैर प्रकट करेगा।
10) तुमने कोई बात सुनी है? तो उसे अपने में बन्द रखो। मत डरो, ऐसा करने पर तुम फट नहीं जाओगे।
11) मूर्ख कोई बात सुनने पर परेषान है, उस स्त्री की तरह, जिसका प्रसव निकट है।
12) मूर्ख के पेट में रहस्य की बात जाँघ में लगे वाण की तरह होती है।
13) अपने मित्र से पूछो- सम्भव है, उसने वह अपराध नहीं किया हो; यदि उसने किया है, तो उसे फिर ऐसा करने से रोकोगे।
14) अपने पड़ोसी से पूछो- सम्भव है, उसने वह बात नहीं कही हो। यदि उसने वह कही, तो उसे यह बात दोहराने से रोको।
15) अपने मित्र से पूछो, क्योंकि लोग बहुत चुगली खाते हैं।
16) हर बात पर विष्वास मत करो। कोई अनजान में बातचीत में गलती कर सकता है।
17) किसने कभी बातचीत में गलती नहीं की? डाँटने से पहले पड़ोसी से पूछो
18) और सर्वोच्च प्रभु की संहिता का पालन करो। प्रभु पर श्रद्धा प्रज्ञा की परिपूर्णता है और प्रज्ञा संहिता का पालन करती है।
19) बुराई का अनुभव प्रज्ञा नहीं है और पापियों की योजनाएँ समझदारी का परिचय नहीं देती।
20) एक प्रकार की चतुराई घृणास्पद है। जिस व्यक्ति में प्रज्ञा का अभाव है, वह मूर्ख है।
21) संहिता का उल्लंघन करने वाले चतुर व्यक्ति की अपेक्षा वह कम समझदार व्यक्ति अच्छा है, जो प्रभु पर श्रद्धा रखता है।
22) एक चतुराई ऐसी भी होती है, जो दुष्ट है।
23) कोई अपना पक्ष उचित सिद्ध करने के लिए छल-कपट का सहारा लेता है। कोई शोक के वस्त्र पहन दुःखी होने का स्वाँग रचता है, किन्तु उसका अन्तरतम कपट से भरा है।
24) कोई सिर झुका क नम्रता प्रदर्षित करता और बहरा होने का स्वाँग रचता है; किन्तु जब कोई ध्यान नहीं देता, तो वह तुम को धोखा देगा।
25) कोई सामर्थ्य के अभाव में पाप से परहेज करता, किन्तु अवसर मिलते ही वह अपराध करेगा।
26) मनुष्य चेहरे से पहचाना जाता है और बुद्धिमान् अपने चेहरे के भाव से।
27) मनुष्य कैसा है- इसका पता चलता है उसके पहनावे, उसकी मुस्कराहट और उसकी चाल से।

अध्याय 20

1) क्रोध करने की अपेक्षा किसी को समझाना अच्छा है। पाप स्वीकार करने वाले को बोलने देना चाहिए।
2) जो न्याय को भ्रष्ट करना चाहता है,
3) वह उस ख़ोजे के सृदष है, जो किसी कुँवारी का शील भंग करना चाहता है।
4) जो अपना अपराध स्वीकार करता है, उसे कोई हानि नहीं होगी।
5) कोई चुप रहता और बुद्धिमान् समझा जाता है। कोई अधिक बोलता है और लोग उस से बैर करते हैं।
6) कोई चुप रहता, क्योंकि उसके पास उत्तर नहीं और कोई चुप रहता, क्योंकि वह बोलने का उचित समय जानता है।
7) बुद्धिमान् सुअवसर के समय तक मौन रहेगा, किन्तु बकवादी और मूर्ख सुअवसर का ध्यान नहीं रखते।
8) लोग बकवादी से घृणा करते हैं और जो अधिकार जताता है, लोग उस से बैर करते हैं।
9) कभी तो मनुष्य अपनी विपत्ति से लाभ उठाता है और कभी अप्रत्याषित लाभ उसे हानि पहुँचाता है।
10) किसी उपहार से तुम को कोई लाभ नहीं होगा और किसी उपहार से तुम को दुगुना लाभ होगा।
11) कभी ख्याति से अपमान मिलता और नीचा दिखाये जाने के बाद सिर ऊँचा उठता है।
12) कोई कम दाम में बहुत-सी वस्तुएँ खरीदता और कोई सात गुना दाम देता है।
13) बुद्धिमान् थोड़-से शब्दों द्वारा लोकप्रिय बनता, किन्तु मूर्ख व्यर्थ ही बहुत-से प्यार के शब्द बोलता है।
14) मूर्ख के उपहार से तुम को कोई लाभ नहीं होगा, क्योंकि वह अपने उपहार का सात गुना दाम समझता है।
15) वह कम देता, उसकी बड़ी चरचा करता है और मुनादी करने वाले की तरह उसका ढिंढोरा पीटता है।
16) वह आज उधार देता और कल वापस माँगता- ऐसा मनुष्य तिरस्कार के योग्य है।
17) मूर्ख कहता है, ''मेरा कोई मित्र नहीं और कोई मेरे उपकारों की चरचा नहीं करता''।
18) जो उसकी रोटी खाते, वे उसकी निन्दा करते हैं। कितने ही लोग कितनी ही बार उसकी हँसी उड़ाते हैं;
19) क्योंकि जो उसके पास है, उसने उसे सद्भाव से नहीं ग्रहण किया और यदि उसके पास नहीं है, तो वह उस बात की परवाह नहीं करता।
20) जीभ के फिसलने की अपेक्षा जमीन पर फिसलना अच्छा है। दुष्टों का पतन इस प्रकार जल्दी हो जाता है।
21) बेमौके की बात अप्रिय व्यक्ति की तरह होती है, वह मूर्खों के मुँह से निकलती रहती है।
22) सूक्ति मूर्ख के मुँह को शोभा नहीं देती; क्योंकि वह उसे बेमौके बोलता है।
23) कुछ लोग दरिद्रता के कारण पाप नहीं करते ; विश्राम के समय उन्हें पष्चात्ताप नहीं होता।
24) कुछ लोग संकोचवष पाप करते और लोकलज्जा के कारण अपनी आत्मा का विनाष करते हैं।
25) कुछ लोग संकोचवष अपने मित्र से प्रतिज्ञा करते और इस प्रकार उसे व्यर्थ ही शत्रु बना लेते हैं।
26) झूठ मनुष्य का कलंक है; वह मूर्खों के मुँह से निकलता रहता है।
27) बराबर झूठ बोलने वाले की अपेक्षा चोर अच्छा है, किन्तु विनाष दोनो की विरासत है।
28) झूठ बोलने वाले का आचरण अपमानजनक है और उसे निरन्तर लज्जित होना पड़ता है।
29) प्रज्ञासम्पन्न व्यक्ति सहज ही उन्नति करता है। बुद्धिमान् बड़े लोगों का कृपापात्र बनता है।
30) जो खेती करता, वह अपने अनाज का ढेर बढ़ाता है; जो धर्माचरण करता, वह उन्नति करता है, जो बड़े लोगों का कृपापात्र है, उसका अन्याय माफ किया जाता है।
31) दान और उपहार ज्ञानियों की भी आँखें अन्धी बना देते और मुँह पर मोहरे की तरह डाँट को रोकते हैं।
32) गुप्त प्रज्ञा और अनदेखा खजाना : ये दोनों किस काम के होते हैं?
33) अपनी प्रज्ञा छिपाये रखने वाले मनुष्य की अपेक्षा अपनी मूर्खता छिपाने वाला मनुष्य अच्छा है।

अध्याय 21

1) पुत्र! क्या तुमने पाप किया है? तो फिर ऐसा मत करो और अपने पुराने पापों के लिए क्षमा माँगो।
2) साँप के सामने की तरह पाप से दूर भाग जाओ। यदि पास आओगे, तो वह तुम को काटेगा।
3) उसके दाँत सिंह के दाँतो-जैसे हैं; वे मनुष्य की आत्माओं का विनाष करते हैं।
4) प्रत्येक अपराध दुधारी तलवार-जैसा हैः उसके घाव का इलाज नहीं होता।
5) डाँट-डपट और अक्खड़पन सम्पत्ति का विनाष करते हैं; इनके द्वारा घमण्डी का घर उजाड़ा जाता है।
6) दरिद्र की प्रार्थना सीधे ईष्वर के कान तक पहुँचती है; उसे शीघ्र ही न्याय दिलाया जायेगा।
7) जो सुधार नापसन्द करता, वह पापी के मार्ग पर चलता है; किन्तु जो प्रभु पर श्रद्धा रखता, वह हृदय से पष्चात्ताप करेगा।
8) सब लोग डींग मारने वाले को पहचानते हैं; किन्तु समझदार व्यक्ति अपनी गलतियाँ जानता है।
9) जो पराये धन से अपना घर बनाता है, वह मानो अपने मकबरे के लिए पत्थर बटोरता है।
10) पापियों की सभा सन की गठरी-जैसी है। उसका अन्त प्रज्वलित आग में होता है।
11) पापियों का मार्ग प्रषस्त है, उस में रोड़े नहीं है, किन्तु वह मृतकों के निवास के गर्त्त में ले जाता है।
12) संहिता के पालनकर्ता की बुद्धि स्थिर है।
13) प्रज्ञा प्रभु पर श्रद्धा की परिपूर्णता है।
14) जो बुद्धिमान् नहीं है, वह सुषिक्षित नहीं बना सकता।
15) किन्तु एक ऐसी बुद्धिमानी होती है, जो बुराई से भरी हुई है और जहाँ कटुता है, वहाँ बुद्धिमानी नहीं।
16) प्रज्ञ का ज्ञान बाढ़ की तरह बढ़ता है और उसका परामर्ष संजीवन जल का स्त्रोत है।
17) मूर्ख का हृदय टूटे घड़े के सदृष है; उस में कोई भी ज्ञान नहीं ठहर पाता।
18) जब समझदार व्यक्ति ज्ञान की बात सुनता, तो वह उसकी प्रषंसा करता और अपनी ओर से उस में कुछ जोड़ देता है; किन्तु लम्पट उसे सुन कर नापसन्द करता और उसे अपनी पीठ पीछे फंेंक देता है।
19) मूर्ख बकवाद यात्रा में बोझ-जैसी है, किन्तु बुद्धिमान् की बातें मनोहर हैं।
20) लोग सभा में बुद्धिमान् की सम्मति को महत्व देते और उसके षब्दों पर विचार करते हैं।
21) मूर्ख की दृष्टि में प्रज्ञा टूट-फूटे मकान जैसी है। बेसमझ का ज्ञान है- बेसिर-पैर की बातें।
22) मूर्ख के लिए अनुषासन पैरों में बेड़ियों जैसा या दाहिने हाथ में हथकड़ियों-जैसा है।
23) मूर्ख खिलखिला कर हँसता है, किन्तु समझदार अधिक-से-अधिक मुस्कराता है।
24) प्रज्ञ के लिए अनुषासन सोने आभूषण जैसा या दाहिनी बाँह में भुजबन्द-जैसा है।
25) मूर्ख किसी के घर निधड़क घुस जाता, किन्तु समझदार सविनय खड़ा रहता है।
26) मूर्ख द्वार पर घर के अन्दर झाँकता, किन्तु सभ्य मनुष्य बाहर खड़ा रहता है।
27) असभ्य द्वार पर कान लगा कर सुनता, किन्तु समझदार व्यक्ति उसे लज्जा की बात समझता है।
28) गप्पी के होंठ बकवाद करते हैं, किन्तु समझदार व्यक्ति के शब्द तराजू पर तोले हुए हैं।
29) मूर्खों का हृदय उनकी जीभ पर बसता है, किन्तु ज्ञानियों की जीभ उनके हृदय में बसती है।
30) जब दुष्ट अपने विरोधी को कोसता, तो वह अपने को कोसता है।
31) चुगलखोर अपने को दूषित करता और अपने को पड़ोस में घृणा का पात्र बना लेता है।

अध्याय 22

1) आलसी कीचड़ में पड़े हुए पत्थर जैसा है। सब कोई उसके कलंक की निन्दा करते हैं।
2) आलसी मल के टुकड़े-जैसा है; सब कोई उसे छू कर हाथ झटकारते हैं।
3) दुर्ललित पुत्र पिता का कलंक है और ऐसी पुत्री पिता को हानि पहुँचाती है।
4) समझदार पुत्री को उपयुक्त पति मिलेगा, किन्तु कलंकित पुत्री पिता को दुःख देती है।
5) निर्लज्ज कन्या अपने पिता और पति का कलंक है। दोनों उसका तिरस्कार करते हैं।
6) बेमौके की बात शोक के समय संगीत जैसी है। कोड़े और दण्ड- हर समय समझदारी की बात है।
7) मूर्ख को षिक्षा देना फूटे घड़े के ठीकरे जोड़ने-जैसा है।
8) अनसुनी करने वाले से बात करना गहरी नींद से सोने वाले को जगाने जैसा है।
9) मूर्ख को समझाना सोने वाले से बातचीत करने-जैसा है। अन्त में वह पूँछेगा : ''बात क्या है?''
10) मृतक के लिए रोओ : वह ज्योति से वंचित है। मूर्ख के लिए राओ : वह बुद्धि से वंचित है।
11) मृतक के लिए कम रोओ : उसे शान्ति मिली है;
12) किन्तु मूर्ख का जीवन मौत से भी बदतर है।
13) मृतक के लिए सात दिन तक शोक मनाया जाता है, किन्तु मूर्ख और नास्तिक के लिए उनके जीवन भर।
14) मूर्ख से अधिक बातचीत मत करो। और बेसमझ की संगति मत करो।
15) उस से सावधान रहो, जिससे तुम को मुसीबत न हो और जब वह अपने कपड़े झटकारता हो, तो तुम पर उसका मैल न पडे।
16) उस से दूर रहो : तुम को शान्ति मिलेगी और उसकी नासमझी से कष्ट नहीं होगा।
17) सीसे से भारी क्या होता है? क्या उसका नाम ÷मूर्ख÷ नहीं?
18) मूर्ख व्यक्ति की अपेक्षा बालू, नमक और लोहे का पिण्ड ढोना सरल है।
19) जैसे भवन में कड़ियों का पक्का बन्धन भूकम्प से ढीला नहीं पड़ता, वैसे ही सोच-विचार के बाद मन का संकल्प निर्णयात्मक समय पर विचलित नहीं होता।
20) जो मन सोच-समझ पर दृढ़ हो गया है, वह पक्की दीवार पर गचकारी के अलंकरण-जैसा है।
21) जैसे ऊँची दीवार पर पड़ी कंकड़ियाँ हवा में नहीं टिकी पातीं,
22) (२२-२३) वैसे ही मूर्खतापूर्ण दुर्बल संकल्प किसी भय के सामने नहंीं टिक पाता।
24) आँख पर चोट लगने पर आँसू टपकते हैं और हृदय पर चोट लगने पर मित्रता चली जाती है।
25) जो पक्षियों पर पत्थर मारता, वह उन्हें भगाता है और जो मित्र की निन्दा करता, वह मित्रता भंग करता है।
26) यदि तुमने अपने मित्र के विरुद्ध तलवार खींची है, तो चिन्ता मत करो, उस से तुम्हारा सम्बन्ध पहले-जैसा सम्भव है।
27) यदि तुमने अपने मित्र से कटु बात कही है, तो डरो मत : मेल-मिलाप सम्भव है। किन्तु अपमान, अहंकार, विष्वासघात और कपटपूर्ण आक्रमण के कारण कोई भी मित्र भाग जायेगा।
28) अपने मित्र का उसकी दरिद्रता में साथ दो और तुम उसकी समृद्धि के साझेदार बनोगे।
29) उसकी विपत्ति में उसके प्रति ईमानदार रहो और तुम उसकी विरासत के साझेदार बनोगे।
30) आग से पहले चूल्हे से धुआँ निकलता है; इसी प्रकार रक्तपात के पहली गाली दी जाती है।
31) मुझे अपने मित्र की रक्षा करने में लज्जा का अनुभव नहीं होगा और उसके आने पर मैं उस से नहीं छिप जाऊँगा। यदि मुझे उस से हानि उठानी पड़ेगी,
32) तो सब सुनने वाले उस से सावधान रहेंगे।
33) कौन मेरे मुँह पर पहरा बैठायेगा और मेरे होठों पर सावधानी की मुहर लगायेगा, जिससे मैं उनके द्वारा पाप न करूँ ओैर मेरी जिह्वा मेरा विनाष नहीं करे?

अध्याय 23

1) प्रभु! मेरे जीवन के पिता और स्वामी! मुझे उनके वष में न पड़ने दे और उनके द्वारा मेरा पतन न होने दे।
2) कौन मेरे विचारों पर कीड़ों का अंकुष लगायेगा और मेरे हृदय पर प्रज्ञा का अनुषासन, जिससे मेरे अपराधों की अनदेखी न हो और मुझे अपने पापों का दण्ड दिया जाये?
3) कहीं ऐसा न हो कि मेरे अपराधों में वृद्धि हो, मेरे पापों की संख्या बढ़ती जाये, मैं अपने विरोधियों के हाथ पडूँ और मेरा शत्रु मुझ पर हँसे।
4) प्रभु! मेरे जीवन के पिता और ईष्वर! मुझे उनके वष में न होने दे।
5) मुझ में अहंकार न आने दे और लालच मुझ से दूर कर।
6) मुझ पर पेटूपन और वासना का अधिकार न होने दे और मुझे प्रबल मनोवेगों का षिकार न बनने दे।
7) पुत्रों! सुनो, किस प्रकार मुँह को वष में रखना चाहिए। जो इस षिक्षा का पालन करता है, वह कभी नहीं फँसेगा।
8) पापी अपने होंठो का षिकार बनता है। निन्दक और घमण्डी का इसी कारण पतन होता है।
9) अपने मुँह को शपथ खाने का आदी मत बनने दो : इस प्रकार बहुतों का पतन होता है।
10) परमपावन ईष्वर का नाम मत लिया करो। नहीं तो पाप से नहीं बच सकोगे।
11) जिस प्रकार वह नौकर कोड़ों की मार से नहीं बचेगा, जिस पर निरन्तर निगरानी रखी रहती है, उसी प्रकार वह व्यक्ति पाप से नहीं बच सकेगा, जो हर समय शपथ खाता और परमवान का नाम लेता है।
12) जो व्यक्ति बार-बार शपथ खाता, वह अपराध करता जाता है और उसके घर पर से दण्ड नहीं हटेगा।
13) यदि वह बिना सोचे-समझे शपथ खाता है, तो उसे पाप लगता है। यदि वह उसे तुच्छ समझता, तो वह दुगुना पाप करता है।
14) यदि उसने अकारण शपथ खायी, तो वह निर्दोष नहीं माना जायेगा और उसके घर पर विपत्तियाँ आ पड़ेगी।
15) एक ऐसी भाषा होती है, जो मृत्युदण्ड के योग्य है। वह याकूब की विरासत में सुनाई नहीं पडे।
16) भक्तजन ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं करते और इस प्रकार पापों से दूषित नहीं होते।
17) अपने मुँह को अष्लील बातों का आदी न बनने दो, क्योंंकि इस प्रकार तुम शब्दों द्वारा पाप करते हो।
18) जब तुम बड़े लोगों के बीच बैठे हो, तो अपने माता-पिता को याद रखो।
19) कहीं ऐसा न हो कि तुम उनके सामने मूर्ख बनो। तब तुम चाहोगे कि तुम्हारा जन्म नहीं हुआ होता और अपने जन्म के दिन को अभिषाप दोगे।
20) जो अष्लील बातचीत का आदी बन गया है, वह जीवन भर सभ्य नहीं बनेगा।
21) दो प्रकार के लोग पाप करते जाते हैं और तीसरे प्रकार के लोग अपने ऊपर ईष्वर का क्रोध बुलाते हैं।
22) प्रबल बासना प्रज्वलित आग-जैसी है। वह भस्म हो जाने से पहले नहीं बुझती।
23) जो मनुष्य अपना शरीर व्यभिचार को अर्पित करता, वह तब तक नहीं सँभलेगा, जब तक आग उसे जला न दे।
24) व्यभिचारी को हर प्रकार का चारा मीठा लगता है। वह तब तक उसे नहीं छोड़ता, जब तक वह नहीं मरता।
25) जो व्यक्ति व्यभिचार करता और मन-ही-मन कहता है, ''मुझे कौन देखता है?
26) मेरे चारों और अँधेरा है, मुझे दीवारें छिपा रही है। मुझे कोई नहीं देख सकता। चिन्ता की बात ही क्या है? सर्वोच्च प्रभु मेरे पापों पर ध्यान नहीं देगा।''
27) वह नहीं समझता कि उसकी आँखें सब कुछ देखती हैं। वह मनुष्यों की आँखों से डरता
28) और नहीं जानता कि प्रभु की आँखें सूर्य से कहीं अधिक प्रकाषमान हैं। वे मनुष्यों के सभी मार्ग देखतीं और गुप्त-से-गुप्त स्थानों तक पहुँचती हैं।
29) प्रभु-ईष्वर सब वस्तुएँ उनकी सृष्टि से पहले जानता और उनके बनने के बाद भी उन्हें देखता रहता है।
30) व्यभिचारी को नगर के चौकों पर दण्ड दिया जायेगा और वह उस समय पकड़ा जायेगा, जब उसे उसकी कोई आषंका नहीं।
31) वह सबों के सामने कलंकित होगा; क्योंकि उसे प्रभु पर श्रद्धा नहीं थी।
32) उस स्त्री को भी वही दण्ड दिया जायेगा, जो अपने पति के साथ विष्वासघात करती और उसे ऐसा वारिस देती है, जो उसकी अपनी सन्तान न हो।
33) उसने सर्वोच्च प्रभु की संहिता का उल्लंंंंंंंंंंंंंघन किया, अपने पति के साथ अन्याय किया, व्यभिचार के कारण दूषित हो गयी और परपुरुष की सन्तान को उत्पन्न किया।
34) वह सभा के सामने प्रस्तुत की जायेगी और उसकी सन्तान दुःखी होगी।
35) उसके पुत्र जड़ नहीं पकडेेगे और उसकी टहनियॉ फल नहीं उत्पन्न करेंगी।
36) उसकी स्मृति अभिषप्त होगी और उसका कलंक सदा बना रहेगा।
37) इस प्रकार बाद के लोग जान जायेगें कि प्रभु पर श्रद्धा से बढ़ कर कोई बात नहीं और उसकी आज्ञाओं के पालन से अधिक मधुर कुछ नहीं।

अध्याय 24

1) प्रज्ञा अपनी ही प्रषंंंंंंंंंंंंंसा कर रही है, वह अपने लोगों के बीच अपना ही गुणगान करती है,
2) वह सर्वोच्च की सभा मेंें बोलती है और उसके सामर्थ्य के सामने अपना यष गाती है।
3) वह उसकी प्रजा के बीच गौरवान्वित और सन्तों की सभा में प्रषंंंंंंंंंंंसित है।
4) वह चुने हुए लोगों के बीच अपनी स्तुति करती और यह कहते हुए अपने को धन्य कहती है :
5) मैं प्रभु के मुख से निकली, सब से पहले मेरी सृष्टि हुई।
6) मैं अखण्ड ज्योति के रूप मे आकाष में प्रकट हुई और मैंने कुहरे की तरह समस्त पृथ्वी को ढक लिया।
7) मैंने ऊँचे आकाष में डेरा डाला। मेरा सिंहासन बादल का खम्भा था।
8) मैंने अकेले ही आकाषमण्डल का चक्कर लगाया और महागर्त्त की गहराई का भ्रमण किया।
9) मुझे समुद्र की लहरों पर, समस्त पृथ्वी पर,
10) सभी प्रजातियोें और राष्ट्रों पर अधिकार मिला।
11) मैं उन सबों मंें विश्राम का स्थान ढूँढ़ती रहीं : मैं किसके यहाँ निवास करूँ?
12) तब विष्व के सृष्टा ने मुझे आदेष दिया, मेरे सृष्टिकर्ता ने मेरे रहने का स्थान निष्चित किया।
13) उसने मुझ से कहा ''याकूब मेंंंंंंंं डेरा डालो, इस्राएल में निवास करो और मेरी प्रजा में जड़ पकड़ो''।
14) उसने आदि में, युगों से पहले मेरी सृष्टि की थी और मैं अन्त काल तक बनी रहूँगी।
15) मैं उसके सामने, पवित्र मन्दिर में सेवा करती रही और इस प्रकार सियोन मेरा निवास बन गया है। मुझे परमप्रिय नगर में विश्राम मिला। येरुसालेम मेरा अधिकारक्षेत्र बन गया है।
16) एक गौरवाषाली राष्ट्र में, प्रभु की भूमि में, उसकी अपनी प्रजा में मेरी जड़ जम गयी है।
17) मैं लेबानोन के देवदार की तरह बढ़ती रही, हेरमोन की पर्वत-श्रेणियों पर सनोवर की तरह।
18) मेैंं एन-गेदी के खजूर की तरह बढ़ती रहीं, येरीखों के गुलाब के पौधों की तरह।
19) मैं मैदान मेंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं सुन्दर जैतून वृक्ष की तरह, चौकों में चिनार वृक्ष की तरह बढ़ती रही।
20) मैं दारचीनी, गुलमेहँदी और उत्कृष्ट गन्धरस की तरह अपनी सुगन्ध फैलाती रही,
21) गन्धराल, लौंग, अगरू और मन्दिर के लोबान के बादल की तरह।
22) मैंने बलूत वृक्ष की तरह अपनी शाखाएँ फैलायी, मेरी शाखाएँ सुन्दर और मनोहर हैं।
23) मुझ में दाखलता की तरह सुन्दर बेलंें फूट निकलीं, मेरी बौड़ियों ने मनोहर और रसदार फल उत्पन्न किये।
24) मैं मंगलमय प्रेम, श्रद्धा, ज्ञान और पावन आषा की जननी हूँ।
25) मुझ में सन्मार्ग और सत्य का अनुग्रह, जीवन और सामर्थ्य की सम्पूर्ण आषा विद्यमान है।
26) तुम सब, जो मेरे लिए तरसते हो, मेरे पास आओ और मेरे फल खा कर तृप्त हो जाओ।
27) मेरी स्मृति मधु से भी मधुर है, मैं छत्ते से टपकने वाले मधु से भी वांछनीय हूँ।
28) मेरी स्मृति मनुष्यों में सदा बनी रहेगी।
29) जो मुझे खाते हैं, उन्हें और खाने की इच्छा होगी; जो मेरा पान करते हैं, वे और पीना चाहेंगे।
30) जो मेरी आज्ञा का पालन करते, उन्हें लज्जित नहीं होना पड़ेगा और जो मेरे निर्देषानुसार चलते, वे नहीं भटकेंगे।
31) जो मुझे आलोकित करते, उन्हें अनन्त जीवन प्राप्त होगा।
32) यह सब सर्वोच्च ईष्वर के विधान के ग्रन्थ में लिपिबद्ध है,
33) उस संहिता में, जिसे मूसा ने याकूब की विरासत के रूप में हमें प्रदान किया है।
34) उसने अपने सेवक दाऊद को राजा बना दिया और उसे सदा के लिए सम्मान के सिंहासन पर बिठाया।
35) संहिता पीषोन नदी की तरह प्रज्ञा से परिपूर्ण है, नये फलों के समय दजला नदी की तरह।
36) वह फ़रात नदी की तरह मन को आप्लावित करती, फसल के समय यर्दन नदी की तरह।
37) वह नील नदी की तरह षिक्षा की बाढ़ बहाती है, दाख की फसल के समय गीहोन नदी की तरह।
38) प्रथम मनुष्य उसका सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहंीं कर सका और अन्तिम मनुष्य उसकी थाह नहीं ले सकेगा;
39) क्योंकि उसका भाव-भण्डार समुद्र से विस्तृत और उसके अभिप्राय महागर्त्त से गम्भीर हैं।
40) मैं तो नदी से निकली नहर के सदृष् हूँ,
41) वाटिका सींचने वाली नाली के सदृष।
42) मैंने कहा, ''मैं अपनी वाटिका सीचूँगी, मैं अपनी क्यारियाँ पानी से भर दूँगी''।
43) और देखो : मेरी नाली नदी के रूप में, मेरी नदी समुद्र के रूप में बदल गयी।
44) मैं अपनी षिक्षा उषा की तरह चमकाऊँगी और उसका प्रकाष दूर-दूर तक प्रसारित करूँगी।
45) मैं समस्त पृथ्वी में फैल जाऊँगी, सब सोने वालों का निरीक्षण करूँगी और सब प्रभु पर भरोसा रखने वालों को आलोकित करूँगी।
46) मैं भविष्यवाणी की तरह अपनी षिक्षा प्रसारित करूँगी, उसे आने वाली पीढ़ियों को प्रदान करूँगी और उनके वंषजों में सदा बनी रहूँगी।
47) तुम देखते हो कि मैंने न केवल अपने लिए परिश्रम किया, बल्कि उन सब के लिए, जो प्रज्ञा की खोज में लगे रहते हैं।

अध्याय 25

1) मैं तीन बातें पसन्द करता हूँ; वे प्रभु और मनुष्यों को प्रिय हैं :
2) भाइयों का मित्रभाव, पड़ोसी का प्रेम और पति-पत्नी का सामंजस्य।
3) मेरा हृदय तीन प्रकार के लोगों से घृणा करता है और मुझे उनके आचरण से चिढ़ है :
4) घमण्डी दरिद्र, मिथ्यावादी धनी और मूर्ख एवं व्यभिचारी बूढ़ा।
5) तुमने युवावस्था में जो इकट्ठा नहीं किया, उसे वृद्धावस्था में कैसे पाओगे?
6) कितना अच्छा लगता है, जब पके बाल न्याय करते और बूढ़े परामर्ष देते हैं!
7) कितना अच्छा लगता है, जब बूढ़ों में प्रज्ञा होती है और प्रतिष्ठित लोगों में विवेक और सत्यपरामर्ष!
8) प्रचुर अनुभव वृद्धों का मुकुट है और प्रभु पर श्रद्धा उनका गौरव।
9) मैं अपने मन में नौ बातों की प्रषंसा करता हूँ और दसवीं की भी चरचा करूँगा :
10) वह मनुष्य, जिसे अपने बच्चों में आनन्द आता है; वह, जो अपने जीवनकाल में अपने शत्रुओं का पतन देखता है;
11) धन्य है वह, जिसके एक समझदार पत्नी है, वह, जो बैल और गधे के जोड़े से नहीं जोतता, वह, जो अपनी जीभ से पाप नहीं करता, वह, जिसे अपने से छोटे मनुष्य की नौकरी नहीं करनी पड़ती!
12) धन्य है वह, जिसे सच्चा मित्र प्राप्त है और वह, जो ध्यान से सुनने वालों को सम्बोधित करता है!
13) वह कितन महान् है, जिसे प्रज्ञा और ज्ञान प्राप्त है! किन्तु जो प्रभु पर श्रद्धा रखता, उस से महान् कोई नहीं!
14) प्रभु पर श्रद्धा सर्वश्रेष्ठ है।
15) जिसे वह प्राप्त है, उसकी तुलना किसी से नहीं हो सकती।
16) भक्ति प्रभु पर श्रद्धा से प्रारम्भ होती है, किन्तु मनुष्य विष्वास द्वारा प्रभु से संयुक्त हो जाता है।
17) हृदय के दुःख के बराबर कोई दुःख नहीं। स्त्री की बुराई के बराबर कोई बुराई नहीं।
18) हृदय के घाव के बराबर कोई घाव नहीं।
19) स्त्री की दुष्टता के बराबर कोई दुष्टता नहीं।
20) बैरियों द्वारा दिये गये कष्ट के बराबर कोई कष्ट नहीं।
21) शत्रुओं के प्रतिषोध के बराबर कोई प्रतिषोध नहीं।
22) साँप के विष के बराबर कोई विष नहीं।
23) स्त्री के क्रोध के बराबर कोई क्रोध नहीं। दुष्ट पत्नी के साथ रहने की अपेक्षा मैं सिंह और पंखदार सर्प के साथ रहना अधिक पसन्द करूँगा।
24) स्त्री की दुष्टता उसकी आकृति बदल देती और उसका चेहरा रीछनी की तरह काला बना देती है।
25) उसका पति पड़ोसियों के बीच बैठ कर अनजान में आह भरता है।
26) स्त्री की दुष्टता की तुलना में हर दुष्टता छोटी है। उसे पापियों की गति प्राप्त हो!
27) शान्तिप्रिय पति के लिए बकवादी पत्नी बूढे के पैरों के लिए रेत के चढ़ाव के समान है।
28) स्त्री के सौन्दर्य के जाल में मत फँसो और स्त्री का लालच मत करो।
29) यदि पत्नी पति का भरण-पोषण करती है,
30) तो यह पति के लिए कठोर दासता और कलंक है।
31) टूटा हुआ दिल, उतरा हुआ चेहरा और मन की व्यथा- यह दुष्ट पत्नी का परिणाम है।
32) पति के निष्क्रिय हाथ और काँपते पैर यह उस पत्नी का कार्य है, जो अपने पति को सुख नहीं देती।
33) स्त्री के द्वारा पाप का प्रारम्भ हुआ था, हम सब उसी के कारण मर जाते हैं।
34) पानी नहीं बहने दो और दुष्ट पत्नी को बोलने की छूट मत दो।
35) यदि वह तुम्हारे हाथ के संकेत पर नहीं चलती, तो तुम को अपने शत्रुओं के सामने लज्जित होना पड़ेगा।
36) तुम उस से अलग हो जाओ और उसे उसके अपने घर भेज दो।

अध्याय 26

1) साध्वी स्त्री का पति धन्य है! उसकी आयु दुगुनी हो जाती है।
2) सुयोग्य पत्नी अपने पति को आनन्दित करती है, वह अपने जीवन का पूरा समय शान्ति में बिताता है।
3) साध्वी पत्नी ईष्वर का वरदान है, वह ईष्वर-भक्तों को ही प्राप्त होती है।
4) वे धनी हों या दरिद्र, किन्तु दोनों संतुष्ट हैं और उनके चेहरे पर मुस्कान बनी रहती है।
5) मेरा हृदय तीन बातों से काँप जाता है और मैं चौथी से डरता हूँ :
6) नगर में बदनामी, उत्तेजित भीड़
7) और झूठा दोषारोपण- ये सब मृत्यु से भी बदतर हैं ;
8) (८-९) किन्तु जो पत्नी अपनी सौत से ईर्ष्या करती और अपनी कटु बातचीत से झगड़ा पैदा करती, वह मनोव्यथा और विपत्ति का करण है।
10) दुष्ट पत्नी ढीले जूए की तरह दुःखदायी है। जो उस पर नियन्त्रण रखना चाहता, वह मानो हाथ से बिच्छू उठाता है।
11) मदिरा पीने वाली पत्नी घृणा उत्पन्न करती है, वह अपना कलंक नहीं छिपा सकेगी।
12) निर्लज्ज आँखों और कनखियों से व्यभिचारिणी पत्नी पहचानी जा सकती है।
13) चंचल पत्नी पर सख्त निगरानी रखो। वह अवसर पाते ही उस से लाभ उठाती है।
14) उसकी निर्लज्ज आँखों से सावधान रहो। जब वह तुम्हारे साथ विष्वासघात करे, तो आष्चर्य मत करो।
15) वह प्यासे यात्री की तरह मुँह खोल कर अपने पड़ोस का हर पानी पीती है। वह तम्बू की हर खँूटी के सामने बैठती और वाण निकालने के लिए अपना तरकष खोलती है।
16) पत्नी का लावण्य पति को मोहित करता है।
17) उसकी कार्यकुषलता उसे सुस्वस्थ बनाती है।
18) कम बोलने वाली पत्नी ईष्वर का वरदान है। सुषिक्षित पत्नी अमूल्य है।
19) शालीन पत्नी का लावण्य असीम है।
20) जो साध्वी है, उसका मूल्य अपार है।
21) सुव्यवस्थित घर में साध्वी का सौन्दर्य ईष्वर के पर्वत पर उदीयमान सूर्य के सदृष है।
22) उसके सुस्वस्थ शरीर पर उसके मुख का सौन्दर्य पवित्र दीपवृक्ष पर चमकते हुए दीपक की तरह शोभायमान है।
23) उसकी सुदृढ़ एड़ियों पर उसके सुन्दर पैर चाँदी की पीठिका पर स्वर्ण खम्भों की तरह शोभायमान है।
24) साध्वी पत्नी के हृदय में ईष्वर की आज्ञाएँ सुदृढ़ आधार पर शाष्वत नींव की तरह संस्थापित है।
25) दो बातें मेरा दिल दुखाती हैं और तीसरी मुझ में क्रोध उत्पन्न करती है :
26) सैनिक, जो दरिद्र बनता है, समझदार व्यक्ति, जिसका तिरस्कार किया जाता है
27) और सद्धर्मी, जो पाप की ओर झुकता है; प्रभु उसे तलवार का षिकार बनने देगा।
28) व्यापारी शायद ही अपराध से बच सकेगा और दुकानदार पाप से मुक्त नहीं रहेगा।

अध्याय 27

1) लाभ के लालच में बहुत लोगों ने पाप किया और जो धनी बनना चाहता, वह आज्ञाओें पर ध्यान नहीं देता।
2) जैसे दो पत्थरों के बीच खूँटी गाड़ी जाती है, वैसे ही क्रय-विक्रय के बीच पाप निवास करता है।
3) (३-४) जो दृढ़तापूर्वक प्रभु पर श्रद्धा नहीं रखता, उसका घर शीघ्र उजड़ जायेगा।
5) छलनी हिलाने से कचरा रह जाता है, बातचीत में मनुष्य के दोष व्यक्त हो जाते हैं।
6) भट्टी में कुम्हार के बरतनों की, और बातचीत में मनुष्य की परख होती है।
7) पेड़ के फल बाग की कसौटी होते हैं और मनुष्य के शब्दों से उसके स्वभाव का पता चलता है।
8) किसी की प्रषंसा मत करो, जब तक वह नहीं बोले; क्योंकि यहीं मनुष्य की कसौटी है।
9) यदि तुम न्याय की खोज करोगे, तो उसे पा जाओगे और उसे बहुमूल्य वस्त्र की तरह ओढ़ लोगे। वह तुम्हारे साथ रह कर तुम्हारी रक्षा करेगा और विचार के दिन तुम को सुरक्षित रखेगा।
10) जैसे पक्षी अपनी जाति के पक्षियों के साथ रहते हैं, वैसे ही सत्य उनके पास लौटता है, जो उसे चरितार्थ करते हैं।
11) सिंह हमेषा षिकार की घात में बैठता है, इसी तरह पाप अन्याय करने वालों की घात में बैठा रहता है।
12) भक्त सदा ज्ञान की बातों की चरचा करता है, जब कि मूर्ख की बातचीत चन्द्रमा की तरह बदलती है।
13) तुम मूर्खों के साथ कम समय बिताओ, किन्तु समझदार लोगों के साथ देर तक बैठे रहो।
14) मूर्खों की बातचीत घिनावनी है और उनकी हँसी पापमय लम्पटता।
15) बारम्बार शपथ खाने वाले की बातचीत सुन कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं और उनके लड़ाई-झगड़े सुन कर लोग अपने कान बन्द कर लेते हैं।
16) घमण्डियों के झगड़े रक्तपात को बुलावा देते हैं और उनकी फटकारें कर्णकटु होती हैं।
17) जो भेद प्रकट करता, उस पर विष्वास नहीं किया जाता और उसे फिर कभी सच्चा मित्र नहीं मिलेगा।
18) अपने मित्र को प्यार करो और उसके प्रति ईमानदार रहो;
19) यदि तुमने उसका भेद प्रकट किया, तो फिर उसके पीछे मत दौड़ो;
20) क्योंकि जिसने अपने पड़ोसी की मित्रता गँवा दी है, वह उस व्यक्ति के सदृष है, जिसने अपनी विरासत गँवायी।
21) जिस तरह तुम पक्षी को अपने हाथ से जाने देते हो, उसी तरह तुमने अपने पड़ोसी को जाने दिया और तुम उसे फिर नहीं प्राप्त करोगे।
22) उसके पीछे मत दौड़ो, क्योंकि वह दूर तक निकल गया। वह हरिण की तरह फन्दे से निकल भागा; क्योंकि उसकी आत्मा को चोट लगी।
23) तुम उसे फिर अपने से नहीं मिला सकोगे। दुर्वचन के बाद मेल-मिलाप सम्भव है,
24) किन्तु जिसने अपने मित्र का भेद प्रकट किया, उसके लिए कोई आषा नहीं।
25) जो आँख मारता, वह षड्यन्त्र रचता है; किन्तु जो उस को जानता है, वह उस से दूर रहता है।
26) तुम्हारे साथ रहते समय वह मीठी-मीठी बातें करता और तुम्हारी बातों पर मुग्ध हो जाता है, किन्तु पीठ पीछे अपनी भाषा बदलता और तुम्हारे शब्दों में दोष निकालता है।
27) मैं बहुत-सी बातों से घृणा करता हूँ, किन्तु ऐसे व्यक्ति से सब से अधिक। प्रभु को भी उस से घृणा है।
28) जो पत्थर ऊपर फेंकता, वह उसे अपने सिर पर गिराता है, जो षड्यन्त्र रचता, वह उस से घायल हो जायेगा।
29) जो गड्ढा खोदता, वह स्वयं उसी में गिरेगा, जो अपने पड़ोसी के लिए पत्थर रखता, वह उसी से ठोकर खायेगा और जो जाल बिछाता, वह उसी में फँसेगा।
30) जो बुराई करता, उसे उस से हानि होती है, यद्यपि वह नहीं जानता कि वह कहाँ से आती है।
31) घमण्डी का उपहास और अपमान किया जायेगा और प्रतिषोध घात में बैठे हुए सिंह की तरह उसकी प्रतीक्षा करता है।
32) जो धर्मियों के पतन पर आनन्दित है, वे स्वयं जाल में फँसेंगे और वे मृत्यु से पहले वेदना से धुल जायेंगे।
33) विद्वेष और क्रोध घृणित है, तो भी पापी दोनों किया करता है।

अध्याय 28

1) ईष्वर बदला लेने वाले को दण्ड देगा और उसके पापों का पूरे-पूरा लेखा रखेगा।
2) अपने पड़ोसी का अपराध क्षमा कर दो और प्रार्थना करने पर तुम्हारे पाप क्षमा किये जायेंगे।
3) यदि कोई अपने मन में दूसरों पर क्रोध बनाये रखता है, तो वह प्रभु से क्षमा की आषा कैसे कर सकता है?
4) यदि वह अपने भाई पर दया नहीं करता, तो वह अपने पापों के लिए क्षमा कैसे माँग सकता है?
5) निरा मनुष्य होते हुए भी यदि वह बैर बनाये रखता, तो उसे अपने पापों की क्षमा कैसे मिल सकती है? उसके पापों की क्षमा के लिए कौन प्रार्थना करेगा?
6) अन्तिम बातों का ध्यान रखो और बैर रखना छोड़ दो।
7) विकृति तथा मृत्यु को याद रखो और आज्ञाओं का पालन करो।
8) आज्ञाओं का ध्यान रखो और अपने पड़ोसी से बैर न रखो।
9) सर्वोच्च ईष्वर के विधान का ध्यान रखो और दूसरो के अपराध क्षमा कर दो।
10) तुम झगड़े से दूर रहोगे, तो कम पाप करोगे;
11) क्योंकि क्रोधी व्यक्ति झगड़ा लगाता, पापी अपने मित्रों में फूट डालता और शान्तिप्रिय लोगों में शत्रुता उत्पन्न करता है।
12) आग मंंें जितनी अधिक लकड़ी है, वह उतनी अधिक तेज होती है; मनुष्य में जितना अधिक सामर्थ्य है, उसका क्रोध उतना अधिक बड़ा है; वह जितना अधिक धनी है, वह उतना अधिक अपना क्रोध बढ़ाता है।
13) राल और अलकतरा आग भड़काते हैं और उग्र वाद-विवाद रक्तपात कराता है।
14) चिनगारी पर फूँक मारों और वह भड़केगी, उस पर थूक दो और वह बुझेगी : दोनों तुम्हारे मुँह से निकलते हैं।
15) चुग़लखोर और कपटपूर्ण बातें करने वाले अभिषप्त हो, उन्होंने बहुत-से शान्तिप्रिय लोगों का विनाष किया।
16) चुग़लखोर ने बहुतों की शान्ति भंग की और उन्हें एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र में भगाया
17) उसने क़िलाबन्द नगरों का विनाष किया और बड़े लोगों के घर गिरा दिये।
18) उसने राष्ट्रों की शक्ति समाप्त की और महान् राष्ट्रों का विनाष किया।
19) निन्दक ने सुयोग्य स्त्रियों को उनके घर से निकाला ओर उन्हें उनके परिश्रम के फल से वंचित कर दिया।
20) जो उसकी बात पर ध्यान देता, उसे न तो शान्ति मिलेगी और न कोई विष्वासपात्र मित्र।
21) कोड़े की मार से साँट उभड़ जाती, किन्तु जिह्वा की मार हड्डियाँ तोड़ती है।
22) बहुतों को तलवार के घाट उतारा गया, किन्तु जिह्वा ने कहीं अधिक लोगों का विनाष किया।
23) धन्य है वह, जो उस से बचता रहता और उसके प्रकोप का षिकार नहीं बनता; जो उसके जूए में नहीं जोता और उसकी बेड़ियों में नही जकड़ा गया;
24) क्योंकि उसका जूआ लोहे का और उसकी बेड़ियाँ काँसे की हैं।
25) वह जो मृत्यु देता है, वह दारुण है; उसकी अपेक्षा अधोलोक अच्छा है।
26) धर्मियों पर उसका वष नहीं चलता, वे उसकी ज्वाला में नहीं जलाये जायेंगे।
27) जो प्रभु का परित्याग करते, वे उसके षिकार बनेंगे। वे उसकी आग में सदा के लिए जलेंगे। वह उन पर सिंह की तरह टूट पड़ेगी और चीते की तरह उन को फाड़ खायेगी।
28) तुम अपनी दाखबारी के चारों ओर घेरा लगाओ, कपटी जिह्वा की बात मत सुनो। अपने मुँह पर दरवाजा और ताला लगाओ।
29) अपना सोना-चाँदी ताला लगा कर बन्द रखो, अपने शब्दों के लिए तराजू और बाट बनवाओ।
30) सावधान रहो, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी जिह्वा फिसल जाये, तुम घात मंें बैठे हुए शत्रुओं के सामने गिर जाओ और तुम्हारे पतन के कारण तुम्हारी मृत्यु हो जाये।

अध्याय 29

1) जो अपने पड़ोसी को उधार देता वह दयालु है। जो उसकी सहायता करता, वह आज्ञाओं का पालन करता है।
2) पड़ोसी को जरूरत हो, तो उसे उधार दो। और समय पर अपने पड़ोसी के ऋण चुका दो।
3) अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो और पड़ोसी के प्रति ईमानदार रहो। इस प्रकार तुम को हर जरूरत में सहायता मिलेगी।
4) अनेक लोग उधार को संयोग से मिला ख़जाना समझते हैं और जिन्होंने उनकी सहायता की है, उन्हे कष्ट पहुँचाते हैं।
5) ऐसे लोग उधार पाने से पहले देने वाले का हाथ चूमते और रुपये के कारण विनय से बात करते हैं,
6) किन्तु लौटाने का समय आने पर विलम्ब करते, बहाना बनाते और असमर्थता प्रकट करते हैं।
7) यदि वे लौटाते हैं, तो उधार देने वाला मुष्किल से आधा पायेगा और समझेगा कि मुझे संयोग से ख़जाना मिला है।
8) यदि वे नहीं लौटाते, तो देने वाला अपना पैसा खो देता और अकारण उन्हें शत्रु बना लेता है।
9) वे उसकी निन्दा तथा भर्त्सना करेंगे और सम्मान के बदले उसका अपमान करेंगे।
10) कुछ लोग उधार नहीं देते, वे दुष्ट नहीं हैं, किन्तु व्यर्थ धोखा खाने से डरते हैं।
11) फिर भी तुम दरिद्र के प्रति उदार बनो और उसे देर तक अपने दान की प्रतीक्षा मत करने दो।
12) आज्ञा का पालन करने के लिए दरिद्र की सहायता करो और उसे अपनी जरूरत में खाली हाथ मत जाने दो।
13) अपने धन का त्याग भाई और मित्र के लिए कर दो और जमीन के नीचे उस में जंग न लगने दो।
14) सर्वोच्च प्रभु की आज्ञा के अनुसार अपने धन का उपयोग करो और तुम सोने की अपेक्षा उस से अधिक लाभ उठाओगे।
15) (१५-१७) अपनी भिक्षा दरिद्र के हृदय में संचित करो और वह हर प्रकार की बुराई से तुम्हारी रक्षा करेगी।
18) वह पक्की ढाल और भारी भाले की अपेक्षा अधिक अच्छी तरह से तुम्हारे लिए शत्रु से लड़ेगी।
19) भला आदमी पड़ोसी की जमानत देता, किन्तु निर्लज्ज व्यक्ति से धोखा खाता है।
20) (२०-२१) अपने लिए जमानद देने वाले का उपकार मत भुलाओं; उसने तुम्हारे लिए अपने को अर्पित किया।
22) जो अपनी जमानत देने वाले का धन गँवाता, वह पापी है
23) और जो अपने उद्धारकर्ता का परित्याग करता, वह कृतन है।
24) जमानत ने बहुत-से धनियों का विनाष किया और उन्हें समुद्र की लहरों की तरह बहा दिया।
25) उसने शक्तिषालियों को निर्वासित किया और उन्हें पराये राष्ट्रों में भटकाया।
26) पापी प्रभु की आज्ञाओें का उल्लंघन करते हुए लाभ की आषा में जमानत देता और मुकदमा मोल लेता है।
27) अपनी शक्ति के अनुसार अपने पड़ोसी की जमानत दो, किन्तु सावधान रहो कि कहीं धोखा न खाओ।
28) जीवन की प्राथमिक आवष्यकताएँ जल, भोजन, वस्त्र हैं और उचित एकान्त के लिए अपना घर।
29) पराये घर में दावत की अपेक्षा अपने घर में रूखा-सूखा भोजन अच्छा है।
30) तुम्हारे पास बहुत हो या कम, उस से सन्तुष्ट रहो और तुम को परदेष में डाँट-फटकार नहीं सुननी पडेगी।
31) एक घर से दूसरे घर में भटकना और परदेषी होने के कारण मुँह नहीं खोल सकना- यह एक दयनीय जीवन है।
32) तुम को दूसरों को खिलाना-पिलाना पड़ता है और वे तुम्हारा आभार नहीं मानेंगे, बल्कि तुम को कटु शब्द सुनने पडंेगे
33) ''परदेषी! आओ और मेज तैयार करो; यदि तुम्हारे पास कुछ हो, तो हमें खिला दो''।
34) ''परदेषी! चले जाओ, अपने से बड़े आदमी को जगह दो। मेरे भाई आ गये है। मुझे मकान की जरूरत है।''
35) कोमल हृदय व्यक्ति के लिए ये दो बातें दुःखदायी हैं : परदेषी समझा जाना और ऋणदाता का अपमान।

अध्याय 30

1) जो अपने पुत्र को प्यार करता, वह उसे कोड़े लगाता है, जिससे बाद में उसे पुत्र से सुख मिले।
2) जो अपने पुत्र को अनुषासन में रखता, उसे सन्तोष मिलेगा और वह अपने सम्बन्धियोें में उस पर गौरव कर सकेगा।
3) जो अपने पुत्र को अनुषासन में रखता, वह अपने शत्रु से ईर्ष्या उत्पन्न करेगा और अपने मित्रों में उस पर गौरव करेगा।
4) यदि ऐसे पुत्र के पिता की मृत्यु हो जाती, तो भी वह मानो अब तक जीवित है; क्योंकि वह अपना प्रतिरूप छोड़ गया है।
5) वह जीवन में पुत्र को देखकर आनन्दित रहा और मरते समय उसे दुःख नहीं हुआ। वह अपने शत्रुओं के सामने लज्जित नहीं हुआ :
6) वह ऐसा व्यक्ति छोड़ गया, जो शत्रुओं से उसके घर की रक्षा करेगा और उसके मित्रों को उनके उपकार का बदला देगा।
7) जो अपने पुत्र को सिर पर चढ़ाता, उसे अपने घावों पर पट्टी बाँधनी होगी और उसका हृदय पर चिल्लाहट पर काँप उठेगा।
8) जो घोड़ा पालतू नहीं बनाया गया, वह वष में नहीं रहता। यदि पुत्र भी स्वच्छन्द छोड़ा गया, तो उद्दण्ड बन जाता है।
9) अपने पुत्र को सिर पर चढ़ाओ और वह तुुम को चकरा देगा; उसके साथ खेलो और वह तुम को दुःख पहुँचायेगा।
10) उसके साथ हँसी-मजाक मत करो, नहीं तो तुम्हें दुःख उठाना पडेगा और तुम अन्त में उस पर दाँत पीसते रह जाओगे।
11) तुम उसे जवानी में पूरी स्वतन्त्रता मत दो और उसके अपराधोें की अनदेखी मत करो।
12) तुम जवानी में उसकी गरदन झुकाओ और बचपन में उसकी पसलियाँ तोड़ दो। नहीं तो वह हठी बन कर तुम्हारी बात नहीं मानेगा और तुम को उसके कारण दुःख होगा।
13) तुम अपने पुत्र को षिक्षा दो और अनुषासन में रखो। नहीं तो तुम को उसकी दुष्टता के कारण लज्जा होगी।
14) रोग से दुर्बल धनी की अपेक्षा स्वस्थ्य और हष्ट-पुष्ट दरिद्र अच्छा है।
15) संसार भर के सोने-चाँदी की अपेक्षा स्वस्थ शरीर अच्छा है। अपार सम्पत्ति की अपेक्षा सुदृढ़ मन अच्छा है।
16) स्वस्थ शरीर के बराबर कोई सम्पत्ति नहीं और प्रसन्न मन के बराबर कोई सुख नहीं।
17) दयनीय जीवन की अपेक्षा मृत्यु अच्छी है और दीर्घकालीन रोग की अपेक्षा अनन्त विश्राम।
18) रोगी के बन्द मुख के सामने रखा स्वादिष्ट व्यंजन कब्र पर चढ़ाये गये भोजन के बराबर है।
19) देवमूर्ति को अर्पित भोजन से क्या लाभ, क्योंकि वह न तो खा सकती और न सूँघ सकती है!
20) यह उस पापी की दषा है, जिसे प्रभु उत्पीड़ित करता है।
21) वह उसी तरह देखता रहता और आहें भरता है, जिस प्रकार ख़ोजा कुँवारी के सामने करता है।
22) उदासी के षिकार मत बनो और चिन्ता से अपने को तंग मत करो।
23) हृदय की प्रसन्नता मनुष्य में जीवन का संचार करती और उसे लम्बी आयु प्रदान करती है।
24) अपना मन बहलाओ, अपने हृदय को सान्त्वना दो और उदासी को अपने से दूर करो!
25) उदासी ने बहुतोें का विनाष किया है और उस से कोई लाभ नहीं!
26) ईर्ष्या और क्रोध जीवन के दिन घटाते हैं और चिन्ता समय से पहले किसी को बूढ़ा बनाती है।
27) आनन्दमय हृदय खाने की रुचि बढ़ाता है, ऐसा व्यक्ति अपने भोजन का बहुत ध्यान रखता है।

अध्याय 31

1) धन के कारण अनिद्रा मनुष्य को छिजाती है। सम्पत्ति की चिन्ता मनुष्य को सोने नहीं देती।
2) जीविका की चिन्ता आँख लगने नहीं देती, जिस प्रकार भारी रोग निद्रा हर लेता है।
3) धनी सम्पत्ति एकत्र करने में परिश्रम करता और यदि विश्राम करता, तो भोग-विलास में डूब जाता है।
4) दरिद्र जीवन-निर्वाह के लिए परिश्रम करता और यदि विश्राम करता, तो तंगहाल हो जाता हेै।
5) जिसे सोने का मोह होता है, वह धार्मिक नहीं रह पाता और जो लाभ के पीछे पड़ता, वह पथभ्रष्ट हो जोयगा।
6) सोने के कारण अनेकों का पतन हो गया और उनका अचानक विनाष हुआ है।
7) जो सोने के लालची हैं, वह उनके लिए फन्दा बनता है; बहुत-से मूर्ख उस में फँस जाते हैं।
8) धन्य है वह धनवान्, जो निर्दोष रह गया और सोने के पीछे नहीं दौड़ा!
9) वह कौन है? हम उसे धन्य कहेंगे, क्योंकि उसने अपने लोगों के बीच प्रषंसनीय आचरण किया।
10) जो उस परीक्षा में निर्दोष सिद्ध हुआ, उसे सदा बना रहने वाला यष प्राप्त होगा। वह पाप कर सकता था, किन्तु उसने ऐसा नहीं किया! वह बुराई कर सकता था, किन्तु उसने ऐसा नहीं किया!
11) उसकी समृद्धि सदा बनी रहेगी और सभा उसके उपकारों का बखान करेगी।
12) यदि तुम किसी दावत की मेज पर बैठो, तो मुँह फाड़ कर यह मत कहो :
13) ''उस पर कितने व्यंजन रखे हुए हैं?''
14) याद रखो कि ईर्ष्यालु आँख बुरी है। प्रभु को ईर्ष्या से घृणा हैं।
15) संसार में ईर्ष्यालु आँख से बुरा क्या है? इसलिए वह हर समय आँसू बहाती है।
16) यदि कोई किसी चीज की ओर देखता, तो उसकी ओर हाथ मत बढ़ाओ
17) और थाली में साथी का हाथ मत छुओ।
18) विचार कर देखो कि वह क्या चाहता है और सावधानी से काम करो।
19) जो तुम्हारे सामने रखा जाता है, उसे भद्र मनुष्य की तरह खाओ। अधिक मत खाओ, जिससे लोग तुम से घृणा न करें।
20) षिष्टाचार के लिए सब से पहले खाना बन्द करो, पेटू मत बनो; लोग इसका बुरा मानते हैं।
21) यदि तुम अनेक लोगों के साथ खाने पर बैठो, तो सबसे पहले हाथ मत बढ़ाओ।
22) भद्र मनुष्य कम से सन्तोष पाता है, इस प्रकार वह आराम से सो जाता है।
23) जो अधिक खाता है, वह नहीं सो पाता और उसे अपचन और पेट का दर्द होता है।
24) परिमित भोजन के बाद अच्छी नींद आती और सुबह उठने पर मन में ताजगी रहती है।
25) यदि तुम को अधिक खाने के लिए बाध्य किया गया हो, तो उठकर वमन करो और तुम्हारा जी हल्का होगा।
26) पुत्र! मेरी सुनो और मेरा तिरस्कार मत करो। तुम बाद में मेरी समझोगे।
27) तुम अपने सब कामों में संयम रखोे और तुम कभी बीमार नहीं होगे।
28) जो भोज दिया करता है, उसकी सभी लोग प्रषंसा करते हैं और उसकी उदारता की ख्याति बनी रहती है।
29) जो भोजन देने में कृपण है, उसकी सभी लोग निन्दा करते हैं और उसकी कृपणता की बदनामी बनी रहती है।
30) अंगूरी पीने में अपनी वीरता का प्रदर्षन मत करो; क्योंकि अंगूरी ने बहुतों का विनाष किया।
31) भट्टी इस्पात के उत्कर्ष की परीक्षा लेती है। इसी प्रकार जब घमण्डी झगड़ते हैं, तो अंगूरी हृदयों की परीक्षा लेती है।
32) जो व्यक्ति संयम से पीता हैं, उसके लिए अंगूरी जीवन-जैसी है।
33) जिसके पास अंगूरी नहीं, उसे जीवन से क्या लाभ?
34) मृत्यु ही हम मनुष्यों को जीवन से वंचित करती है।
35) नषे के लिए नहीं, बल्कि आनन्द के लिए प्रारम्भ से अंगूरी की सृष्टि हुई है।
36) अवसर के अनुसार संयम से पी गयी अंगूरी हृदय को उल्लास और आत्मा को आनन्द प्रदान करती है।
37) जो व्यक्ति संयम से अंगूरी पीता है, वह तन-मन से स्वस्थ रहता है।
38) जो व्यक्ति असंयम से अंगूरी पीता है, वह क्रोध एवं झगड़ा किया करता
39) और उसकी आत्मा कटुता से भर जाती है।
40) नषा मूर्ख को क्रोध भड़काता और उसे हानि पहुँचाता है। वह उसकी शक्ति घटाता और उसके घाव बढ़ाता है।
41) अंगूरी पीते समय अपने पड़ोसी को मत धिक्कारो और जब वह आनन्दित हो जाता, तो उसका तिरस्कार मत करो।
42) तुम उसे मत डाँटो और अपने प्रष्नों से उसे तंग मत करो।

अध्याय 32

1) यदि तुम को अध्यक्ष बनाया गया, तो मत इतराओ; अतिथियों के साथ उन में एक-जैसे आचरण करो।
2) दूसरों को सुव्यवस्थित करने के बाद बैठ जाओ। अपना कर्तव्य पूरा करने के बाद ही अपना आसन ग्रहण करो।
3) तुम उनके साथ आनन्द मनाओगे और अपने आतिथ्य-सत्कार के लिए तुम्हारा सम्मान होगा।
4) वयोवृद्ध! तुम उन को सम्बोधित करो, क्योंकि तुम उसके योग्य हो।
5) किन्तु सावधानी से अपने शब्दों का चयन करो और गायन-वादन में बाधा मत डालो।
6) दावत के समय देर तक भाषण मत करो और असमय अपनी प्रज्ञा का प्रदर्षन मत करो।
7) स्वर्ण आभूषण में जड़ी लाल मणि की तरह अंगूरी की दावत में वादन-गायन शोभा देता है।
8) मधुर अंगूरी के पान के समय सुरीला संगीत सोने के खाँचे में मरकत-मणि जैसा है।
9) मौन रह कर दूसरों की बात सुनो; तुम्हारे षिष्टाचार की प्रषंसा की जायेगी।
10) युवको! जरूरत पड़ने पर बोलो,
11) किन्तु दो बार पूछे जाने के बाद ही।
12) उस व्यक्ति की तरह, जो बहुत जानता, किन्तु कम बोलता है, तुम संक्षिप्त, बल्कि सारगर्भित भाषण दो।
13) बड़ों के बीच विनयी बनो और बूढ़ों के सामने कम बोलो।
14) मेघगर्जन से पहले बिजली चमकती है, इसी तरह विनम्र व्यक्ति के आगे सम्मान चलता है।
15) समय पर मेज से उठ कर वहाँ देर मत करो। सीधे अपने घर जा कर मनोरंजन करो।
16) वहाँ अपनी इच्छा के अनुसार समय बिताओ। और घमण्डपूर्वक बातों द्वारा पाप मत करो।
17) सब कुछ के लिए अपने सृष्टिकर्ता को धन्यवाद दो, जिसने तुम को इतने उपकार प्रदान किये।
18) जो ईष्वर पर श्रद्धा रखता है, वह उसकी षिक्षा स्वीकार करता है। जो प्रातः उसकी खोज करता, वह उसकी कृपा प्राप्त करता है।
19) जो संहिता का अनुषीलन करता, उसे तृप्ति मिलेगी; किन्तु जो उसका विरोध करता, वह उसके जाल में फँसता है।
20) जो प्रभु पर श्रद्धा रखते हैं, वे धर्म का मर्म समझेंगे और उनके सत्कर्म प्रकाष की तरह चमकेंगे।
21) पापी चेतावनी स्वीकार नहीं करता और आज्ञाओें का मनमाना अर्थ लगाता है।
22) (२२-२३) समझदार व्यक्ति सोच-विचार करता, किन्तु मूर्ख और घमण्डी कभी नहीं डरते।
24) पुत्र! सोच-विचार किये बिना कुछ मत करो और तुम बाद में नहीं पछताओगे।
25) ऊबड-खाबड़ रास्ते पर मत चलो और तुम पत्थरों से ठोकर नहीं खाओगे। अज्ञात मार्ग पर सँभल कर चलो और अपना जीवन जोखिम में मत डालो।
26) अपने पुत्रों से भी सावधान रहो और अपने नौकरों पर निगरानी रखो।
27) तुम सावधानी से अपने सभी कार्य करो। इस प्रकार तुम आज्ञाओं का पालन कर लोगे।
28) जो संहिता का ध्यान रखता, वह आज्ञाओें का पालन करता है। जो प्रभु पर भरोसा रखता, उसे कोई हानि नहीं होगी।

अध्याय 33

1) जो प्रभु पर श्रद्धा रखता, उस पर विपत्ति नहीं पड़ेगी। प्रभु हर संकट मेें उसकी रक्षा करेगा और उसे सब बुराईयोें से बचायेगा।
2) प्रज्ञासम्पन्न व्यक्ति आज्ञाओें और धर्माचरण से घृणा नहीं करता; वह आँधी में जहाज की तरह हचकोले नहीं खाता।
3) समझदार व्यक्ति प्रभु के वचन पर निर्भर रहता और संहिता को देववाणी समझता है।
4) अपने भाषण की तैयारी करो और लोग तुम को ध्यान से सुनेंगे। प्राप्त ज्ञान पर विचार करने के बाद ही उत्तर दो।
5) मूर्ख का हृदय गाड़ी के पहिये-जैसा है और उसका चिन्तन घूमती धुरी-जैसा।
6) उपहास करने वाला मित्र उस सवारी घोड़े जैसा है, जो हिनहिनाता है, जब कोई उस पर सवार होता है।
7) कोई दिन किसी दूसरे दिन से अधिक महत्व क्यांें रखता है, जबकि वर्ष भर के दिन सूर्य से ही प्रकाष पाते हैं?
8) प्रभु की प्रज्ञा उन में अन्तर उत्पन्न करती है।
9) उसने विभिन्न ऋतुएँ और पर्व निर्धारित किये।
10) उसने कुछ दिनों को महत्व दे कर पवित्र किया और कुछ को साधारण दिनों की श्रेणी में रखा। मिट्टी से सब मनुष्यों की उत्पत्ति हुई और पृथ्वी से आदम की सृष्टि हुई।
11) प्रभु ने अपनी अपार प्रज्ञा से उन्हें असमान बनाया और उनके लिए भिन्न-भिन्न मार्ग निर्धारित किये।
12) उसने कुछ को आषीर्वाद दिया और महान् बनाया, कुछ को पवित्र किया और अपने निकट आने दिया और कुछ को अभिषाप दिया, नीचा दिखाया और उनके स्थान से उन्हें गिराया।
13) जैसे कुम्हार अपने हाथ से मिट्टी गढ़ता और अपनी इच्छा के अनुसार उसे आकार देता है,
14) वैसे ही सृष्टिकर्ता का हाथ मनुष्य को अपने निर्णय के अनुसार बनाता है।
15) जिस तरह बुराई और भलाई में, मृत्यु और जीवन में विरोध होता है, उसी तरह सद्धर्मी और पापी मेें। इस प्रकार सर्वोच्च प्रभु की सब कृतियों में परस्पर-विरोधी दो-दो तत्व देखो।
16) मैं तो सब के बाद जागा और अंगूर तोड़ने वाले के पीछे अंगूर बटोरता हूँ;
17) किन्तु प्रभु के आषीर्वाद से मैं आगे बढ़ा और दूसरों की तरह मैंने अपना अंगूर कुण्ड भर दिया।
18) यह समझो कि मैंने अपने लिए ही नहीं, बल्कि उन सब के लिए परिश्रम किया, जो षिक्षा की खोज में लगे रहते हैं।
19) प्रजा के शासको! मेरी बात सुनो, सभा के नेताओें! ध्यान दो।
20) तुम अपने जीवनकाल में किस को अपने ऊपर अधिकार मत दो- न तो अपने पुत्र को, न अपनी पत्नी, अपने भाई और अपने मित्र को। किसी दूसरे को अपनी सम्पत्ति मत दो। कहीं ऐसा न हो कि तुम को पछता कर उसे वापस माँगना पड़े।
21) जब तक जीते और साँस लेते हो, किसी को अपने ऊपर हावी न होने दो।
22) अपने पुत्रों की इच्छा पर निर्भर रहने की अपेक्षा यही अच्छा है कि तुम्हारे पुत्र तुम से माँगें।
23) अपने सभी कार्य अच्छी तरह सम्पन्न करो।
24) अपने नाम पर कलंक न लगने दो जब तुम्हारे अन्तिम दिन आ गये और तुम्हारी मृत्यु की घडी आ पहुँची, तो अपनी विरासत बाँट दो।
25) गधे के लिए चारा, लाठी और बोझ; दास के लिए रोटी, दण्ड और परिश्रम।
26) नौकर को काम में लगाओ ओर तुम को आराम मिलेगा। उसके हाथ ढीले पड़ने दो और वह मुक्त होना चाहेगा।
27) जूआ और लगाम गर्दन झुकाती है। कठोर परिश्रम नौकर को अनुषासन में रखता है।
28) टेढ़े नौकर के लिए यन्त्रणा और बेड़ियाँ! उसे काम में लगाओ, नहीं तो वह आलसी बनेगा।
29) आलस्य अनेक बुराईयों की जड़ है।
30) उसे ऐसे काम में लगाओ, जो उसके योग्य हो। यदि वह आज्ञा नहीं मानता, तो उसे बेड़ियाँ पहनाओ, किन्तु किसी से औचित्य से अधिक काम मत लो और किसी के साथ अन्याय मत करो।
31) यदि तुम्हारे एक नौकर हो, तो उसे अपने जैसा समझो; क्योंकि तुम को अपनी-जैसी उसकी आवष्यकता है। यदि तुम्हारे एक नौकर हो, तो उसके साथ भाई-जैसा व्यवहार करो। कहीं ऐसा न हो कि तुम अपने रक्तबन्धु पर क्रोध करो।
32) यदि तुम उसके साथ अन्याय करोगे, तो वह तुम को छोड़ कर भाग जायेगा।
33) यदि वह भाग कर चला जाता, तो तुम उसे कहाँ ढूँढ़ोगे?

अध्याय 34

1) व्यर्थ आषा नासमझ व्यक्ति को धोखा देती है और स्वप्नों के कारण मूर्खों का सिर फिर जाता है।
2) जो स्वप्नों का ध्यान रखता, वह मानो छाया पकड़ता या हवा का पीछा करता है।
3) स्वप्न में छाया मात्र दिखाई देता है, जैसे मुख के सामने दर्पण में उसका प्रतिबिम्ब।
4) क्या दूषण से पवित्रता और झूठ से सत्य निकल सकता है?
5) भविष्य-फल, शकुन और स्वप्न- ये सब व्यर्थ
6) और प्रसव-पीड़िता की कल्पनाएँ मात्र है। यदि स्वप्न सर्वोच्च प्रभु द्वारा न भेजा गया हो, तो उस पर कोई ध्यान मत दो।
7) स्वप्नों के कारण बहुत-से लोग भटक गये और उन पर भरोसा रख कर निराष हुए।
8) इन झूठी बातों के बिना संहिता प्रमाणित है और ईमानदार व्यक्ति के मुख में प्रज्ञा की परिपूर्णता है।
9) जिसने दूर की यात्रा की है, उसने बहुत सीख लिया ओैर जो अनुभवी है, वह ज्ञान की बातें कहता है।
10) (१०-११) जिसे अनुभव नहीं, वह कम जानता है, किन्तु जिसने यात्रा की है, वह व्यवहार कुषल है।
12) मैंने अपनी यात्राओें में बहुत कुछ देखा और बहुत-सी बातोें का ज्ञान प्राप्त किया है।
13) मुझे कई बार जीवन की जोखिम का सामना करना पड़ा, किन्तु मैं अपने अनुभव के कारण बच गया।
14) जो प्रभु पर श्रद्धा रखते हैं, उनकी आयु लम्बी होगी और उन्हें प्रभु का आषीर्वाद प्राप्त होगा;
15) क्योंकि उन्हें उसका भरोसा है, जो उनकी रक्षा करने में समर्थ है। प्रभु की आँखें अपने भक्तों पर टिकी रहती है।
16) जो प्रभु पर श्रद्धा रखता, वह किसी से नहीं डरता। वह कभी नहीं घबराता, क्योंकि उसे प्रभु का भरोसा है।
17) जो प्रभु पर श्रद्धा रखता, उसकी आत्मा धन्य है।
18) वह किस पर निर्भर रहता है? उसे कौन सँभालता है?
19) जो लोग प्रभु पर श्रद्धा रखते हैं, उन पर प्रभु की आँखे टिकी रहती है। प्रभु पक्की ढाल, सुदृढ़ आधार, लू से आश्रय, दोपहर की धूप से छाया है।
20) वह ठोकर खाने से बचाता और गिरने वालों की सहायता करता है। वह आत्मा को ऊपर उठता और आँखों को ज्योति प्रदान करता है।
21) जो प्रभु पर भरोसा रखते हैं, वह उन्हें सत्य और धर्म के मार्ग पर ले चलता है।
22) अन्याय की कमाई का चढ़ावा दूषित है। पापियोें की भेटें प्रभु को ग्राह्य नहीं होती।
23) सर्वोच्च प्रभु को पापियोें के चढ़ावे प्रिय नहीं होते, वह बलिदानों की बहुलता के कारण पाप क्षमा नहीं करता।
24) जो दरिद्रों की सम्पत्ति से बलिदान चढ़ाता है, वह उस व्यक्ति-जैसा है, जो पिता की आँखों के सामने उसके पुत्र का वध करता है।
25) भीख की रोटी से दरिद्र का निर्वाह होता है। जो उसे छीनता है, वह रक्तपात करता है।
26) जो अपने पड़ोसी की जीविका छीनता है, वह मानो उसका वध करता है,
27) जो मजदूर का वेतन दबाता है, वह हत्यारे के बराबर है।
28) एक निर्माण करता और दूसरा ढा देता है। उस से क्या लाभ? दोनों ने व्यर्थ परिश्रम किया।
29) एक आषीर्वाद और दूसरा अभिषाप देता है। ईष्वर को किसकी बात माननी चाहिए?
30) कोई शव स्पर्ष कर नहाता और फिर शव स्पर्ष करता है, तो उसे नहाने से क्या लाभ?
31) यही उस व्यक्ति की दषा है, जो अपने पापों के लिए अनषन करता है और उसके बाद जा कर फिर वहीं पाप करता है।

अध्याय 35

1) संहिता के अनुसार आचरण बहुत-सी बलियों के बराबर है।
2) (२-३) जो आज्ञाओें का पालन करता है, वह शांति का बलिदान चढ़ाता है।
4) परोपकार अन्न-बलि लगाने के बराबर है। जो भिक्षादान करता है, वह धन्यवाद का बलिदान चढ़ाता है।
5) बुराई का त्याग प्रभु को प्रिय होता है और अधर्म से दूर रहना प्रायष्चित के बलिदान के बराबर है।
6) फिर भी खाली हाथ प्रभु के सामने मत जाओ,
7) क्योंकि ये सब बलिदान आदेष के अनुकूल हैं।
8) धर्मी का चढ़ावा वेदी की शोभा बढ़ाता है और उसकी सुगन्ध सर्वोच्च ईष्वर तक पहुँचती है।
9) धर्मी का बलिदान सुग्राहय होता है, उसकी स्मृति सदा बनी रहेगी।
10) उदारतापूर्वक प्रभु की स्तुति करते रहो। प्रथम फलों के चढ़ावे में कमी मत करो।
11) प्रसन्नमुख हो कर दान चढ़ाया करो और खुषी से दषमांष दो।
12) जिस प्रकार सर्वोच्च ईष्वर ने तुम्हें दिया है, उसकी प्रकार तुम भी उसे सामर्थ्य के अनुसार उदारतापूर्वक दो;
13) क्योंकि प्रभु प्रतिदान करता है, वह तुम्हें सात गुना लौटायेगा।
14) उसे घूस मत दो, वह उसे स्वीकार नहीं करता।
15) पाप की कमाई के चढ़ावे पर भरोसा मत रखो; क्योंकि प्रभु वह न्यायाधीष है, जो पक्षपात नहीं करता।
16) वह दरिद्र के साथ अन्याय नहीं करता और पद्दलित की पुकार सुनता है।
17) वह विनय करने वाले अनाथ अथवा अपना दुःखड़ा रोने वाली विधवा का तिरस्कार नहीं करता।
18) उसके आँसू उसके चेहरे पर झरते हैं और उसकी आह उत्याचारी पर अभियोग लगाती है।
19) उसके आँसू उसके चेहरे से स्वर्ग तक चढ़ते हैं और प्रभु उसकी आह सुनता है।
20) जो सारे हृदय से प्रभु की सेवा करता है, उसकी सुनवाई होती है और उसकी पुकार मेघों को चीर कर ईष्वर तक पहुँचती हैं।
21) वह तब तक आग्रह करता रहता, जब तक सर्वोच्च ईष्वर उस पर दयादृष्टि न करे और धर्मियों को न्याय न दिलाये।
22) प्रभु देर नहीं करेगा। वह उन पर दया नहीं करेगा और कू्रर लोगों की कमर तोड़ देगा।
23) वह राष्ट्रों को बदला चुकायेगा, घमण्डियों का झुण्ड मिटायेगा और दुष्टों का राजदण्ड तोड़ेगा।
24) वह मनुष्यों को उनके कर्मो का फल और उनके उद्देष्य के अनुसार उनके कार्यो का पुरस्कार प्रदान करेगा।
25) वह अपनी प्रजा का पक्ष लेगा और अपनी दया से उसे आनन्दित करेगा।
26) सूखे के समय वर्षा के बादलोें की तरह विपत्ति के दिनों में प्रभु की दया का स्वागत होता है।

अध्याय 36

1) सर्वेष्वर प्रभु! हम पर दया कर, हमें अपनी करुणा की ज्योति दिखा।
2) सब राष्ट्रों में अपने प्रति श्रद्धा उत्पन्न कर, जिससे वे जान जायें कि तेरे सिवा और कोई ईष्वर नहीं और तेरे महान् कार्यों का बखान करें।
3) अन्य राष्ट्रोें पर अपना हाथ उठा, जिससे वे तेरा सामर्थ्य देखें।
4) जिस तरह तूने उनके सामने हम पर अपनी पवित्रता को प्रदर्षित किया, उसी तरह उन में अपनी महिमा को हमारे सामने प्रदर्षित कर।
5) प्रभु! वे तुझे उसी प्रकार जान जायें, जिस प्रकार हम जान गये कि तेरे सिवा और कोई ईष्वर नहीं।
6) नये चिन्ह प्रकट कर और नये चमत्कार दिखा।
7) अपना हाथ और बाहुबल महिमान्वित कर।
8) अपना क्रोध जगा, अपना प्रकोप प्रदर्षित कर,
9) विरोधी को मिटा और शत्रु का विनाष कर।
10) विलम्ब न कर, निष्चित समय याद कर, जिससे लोग तेरे महान् कार्यों का बखान करें।
11) जो भागना चाहे, वह आग में भस्म हो जाये और जो लोग तेरी प्रजा पर अत्याचार करते हैं, उनका सर्वनाष हो।
12) विरोधी शासकों का सिर तोड़ डाला, जो कहते हैं, ''हमारे बराबर कोई नहीं''।
13) समस्त याकूबवंषियों को एकत्र कर, उन्हें पहले की तरह उनकी विरासत लौटा।
14) प्रभु! उस प्रजा पर दया कर, जो तेरी कहलाती है, इस्राएल पर, जिसे तूने अपना पहलौठा माना है।
15) अपने पवित्र नगर, अपने निवासस्थान येरुसालेम पर दया कर।
16) अपने स्तुतिगान से सियोन को भर दे और अपनी महिमा से अपने मन्दिर को।
17) अपनी पहली कृति का समर्थन कर और अपने नाम पर घोषित भविष्य वाणियाँ पूरी कर।
18) जो तुझ पर भरोसा रखते हैं, उन्हें पुरस्कार दे और अपने नबियों की वाणी सत्य प्रमाणित कर। अपने सेवकों की प्रार्थना सुन।
19) अपनी प्रजा पर दया कर, हमें धर्ममार्ग पर ले चल और पृथ्वी भर के सभी लोग यह स्वीकार करें कि तू ही प्रभु और शाष्वत ईष्वर है।
20) मुँह सब प्रकार का भोजन निगलता है, किन्तु एक भोजन दूसरे से अच्छा है।
21) जिस प्रकार तालू चख कर षिकार का मांस पहचान लेता है, उसी प्रकार समझदार हृदय झूठ जान जाता है।
22) कपटपूर्ण हृदय दुःख पहुँचाता है, किन्तु अनुभवी व्यक्ति उसे बदला चुकाता है।
23) प्रत्येक मनुष्य अपने लिए पत्नी ग्रहण करता है, किन्तु एक कन्या दूसरी से सुन्दर है।
24) स्त्री का सौन्दर्य अपने पति का हृदय आनन्दित करता और उसकी सभी अभिलाषाओं को पूरा करता है।
25) इसके सिवा यदि वह प्रेमपूर्ण और मधुर बातें करती है, तो वह दूसरे मनुष्योेंं से कहीं सौभाग्यषाली है।
26) जो पत्नी प्राप्त करता है, उसे खजाना मिलता है। वह उसके लिए योग्य साथी है और विष्वस्त सहारा।
27) जहाँ बाड़ नहीं, वहाँ दाखबारी उजड़ती है और जिस मनुष्य की पत्नी नहीं, वह उदास भटकता रहता है।
28) जो सषस्त्र डाकू नगर-नगर घूमता है, उस पर कौन विष्वास करेगा? यह उस व्यक्ति की दषा है, जिसके घर नहीं और जो जहाँ रात हो जाती है, वहीं रह जाता है।

अध्याय 37

1) प्रत्येक मित्र कहता है : ''मैं भी तुम्हारा मित्र हूँ'', किन्तु कुछ लोग नाम मात्र के मित्र हैं। क्या वह दुःख मृत्यु के सदृष नहीं,
2) जब कोई अभिन्न मित्र शत्रु बन जाता है?
3) वह दुर्भाव कहाँ से उत्पन्न हुआ है, जो पृथ्वी को कपट से ढक देता है?
4) कपटी मित्र सुख में अपने मित्र का साथ देता, किन्तु विपत्ति में उसका विरोधी बन जाता है।
5) सच्चा मित्र दुःख में अपने मित्र का साथ देता और भाला उठाकर उसके शत्रु से लड़ता है।
6) अपने मन में मित्र को मत भुलाओ और समृद्धि में भी उसे याद रखो।
7) कपटी व्यक्ति से सलाह मत लो। और ईर्ष्यालु से अपनी योजना छिपाओ।
8) प्रत्येक परामर्षदाता अपनी सम्मति अच्छी समझता है, किन्तु कुछ लोग अपने हित में परामर्ष देते हैं।
9) परामर्षदाता से सावधान रहो और पहले पता करो कि उसका स्वार्थ किस में है; क्योंकि वह अपने हित में परामर्ष देगा
10) और तुम से लाभ उठाने के विचार से कहेगा :
11) ''आप सही मार्ग पर चलते हैं'', किन्तु किनारे से देखता है, कि तुम को क्या होगा।
12) जो तुम से बैर रखता, उस से सलाह मत माँगो और ईर्ष्यालु व्यक्ति से अपनी योजना छिपाओे। तुम न तो स्त्री से उसकी सौत के विषय में सलाह माँगो और न कायर से युद्ध के विषय में, न व्यापारी से सौदे के विषय में, न खरीददार से बिक्री के विषय मे, न विद्वेषी से कृतज्ञता के विषय में,
13) न विधर्मी से भक्ति के विषय में, न बेईमान से ईमानदारी के विषय में, न आलसी से किसी काम के विषय में,
14) न ठेके के मजदूर से किसी काम की समाप्ति के विषय में और न आलसी नौकर से कठिन काम के विषय में। इन लोगों के किसी परामर्ष पर निर्भर मत रहो,
15) किन्तु धार्मिक व्यक्ति की संगति करो, जिसके विषय में तुम जानते हो कि वह आज्ञाओं का पालन करता है,
16) जिसका स्वभाव तुम्हारे स्वभाव से मेल खाता है और जब तुम लड़खड़ाते हो, तो वह तुम से सहानुभूति रखेगा।
17) अपने अन्तःकरण पर भी ध्यान दो, क्योंकि वह तुम्हारे प्रति किसी से भी अधिक ईमानदार है।
18) ऊँची मीनार पर बैठने वाले पहरेदारों से भी अधिक मनुष्य को अधिक जानकारी अन्तःकरण देता है।
19) सब से महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम सर्वोच्च प्रभु से प्रार्थना करो, जिससे वह तुम को सत्य के मार्ग पर ले चले।
20) प्रत्येक योजना विचार-विमर्ष से प्रारम्भ होती है, और प्रत्येक कार्य सोच-विचार से।
21) हृदय में विचारोें की जड़ है, उस में से चार डालियाँ निकलती हैं : बुराई और भलाई, जीवन और मृत्यु और इन सबों पर जिह्वा शासन करती है।
22) कुछ अनुभवी लोग बहुतोें को षिक्षा देते हैं, किन्तु अपनी आत्मा के लिए किसी काम के नहीें।
23) कुछ विद्वान् अपने शब्दों द्वारा अपने प्रति बैर उत्पन्न करते हैं और इस कारण स्वादिष्ट भोजन से वंचित रहते हैं।
24) प्रभु ने उन्हें लोकप्रियता का वरदान नहीं दिया; उन पर रत्ती भर प्रज्ञा नहीं।
25) कुछ लोग अपनी बुद्धि से लाभ उठाते और अपनी बुद्धि के फल से अपना शरीर पुष्ट करते हैं।
26) प्रज्ञासम्पन्न व्यक्ति अपने लोगों को षिक्षा देता है और उसकी बुद्धि का परिणाम चिरस्थायी है।
27) प्रज्ञासम्पन्न व्यक्ति को सभी आषीर्वाद देते हैं और जो उसे देखते, वे उसे धन्य कहते हैं।
28) मनुष्य के दिन गिने जा सकते हैं, किन्तु इस्राएल के दिन असंख्य हैं।
29) प्रज्ञासम्पन्न व्यक्ति को अपने लोगोेें से सम्मान मिलेगा और उसका नाम सदा जीवित रहेगा।
30) पुत्र! अपने जीवनकाल में अपने आचरण पर विचार करो। देखो कि तुम्हारे लिए क्या अहितकर है और उस से अपने को दूर रखो;
31) क्योंकि सब कुछ सबों के लिए हितकर नहीं है और सभी की सब कुछ मंें रुचि नहीं।
32) हर सुख के लालची मत बनो और स्वादिष्ट भोजन पर मत टूटो।
33) अधिक भोजन करने से मनुष्य अस्वस्थ्य हो जाता और पेटूपन से मिचली आती है।
34) अधिक खाने से बहुतोें की मृत्यु हो गयी और जो संयम रखता है, वह अपने दिनोें की संख्या बढ़ाता है।

अध्याय 38

1) चिकित्सक का सम्मान करो, तुम को उसकी आवष्यकता है। सर्वोच्च प्रभु ने उसकी भी सृष्टि की है।
2) सर्वोच्च प्रभु से स्वास्थ्यलाभ होता और राजा की ओर से चिकित्सक को उपहार मिलता है।
3) चिकित्सक का उसके विज्ञान के कारण सम्मान किया जाता और बडे लोग उसकी प्रषंसा करते हैं।
4) प्रभु पृथ्वी से जड़ी-बूटियाँ उत्पन्न करता है और समझदार व्यक्ति उनकी उपेक्षा नहीं करता।
5) क्या पानी लकड़ी द्वारा मीठा नहीं बना,
6) जिससे मनुष्य प्रभु का सामर्थ्य पहचान सके?
7) उसने मनुष्योें को विज्ञान प्रदान किया है, जिससे वे उसके चमत्कारों के कारण प्रभु की महिमा करें।
8) चिकित्सक जड़ी-बूटियों द्वारा पीड़ा दूर करता हैं। भेषजज्ञ उनका मिश्रण तैयार करता है, जिससे प्रभु की कृतियाँ नष्ट न हों।
9) पुत्र! अपनी बीमारी में लापरवाह न बनो; प्रभु से प्रार्थना करो और वह तुम्हें स्वास्थ्य प्रदान करेगा।
10) अपने अपराधों पर पष्चात्ताप करो, अपने हाथ निर्दोष रखो और अपना हृदय हर पाप से शुद्ध रखो।
11) सुगन्धयुक्त धूप एवं अन्न-बलि चढ़ाओ और शक्ति भर तेल का अर्पण करो। चिकित्सक को निवास दो,
12) क्योंकि प्रभु ने उसकी भी सृष्टि की है। वह तुम से दूर न जाये, क्योंकि तुम को उसकी जरूरत है;
13) क्योंकि कभी-कभी तुम्हारा स्वास्थ्य लाभ उनके हाथ में है।
14) वे भी प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि वह उन्हें निदान पहचानने में और जीवन की रक्षा में सफलता प्रदान करें।
15) जो अपने सृष्टिकर्ता के सामने पाप करेगा, वह चिकित्सक के हाथोें पड़ेगा।
16) पुत्र! मृतक पर आँसू बहाओ और दुःखी हो कर विलाप करो। उसका शरीर योग्य रीति से दफनाओ और उसकी कब्र का ध्यान रखो।
17) फूट-फूट कर रोओ और विलाप करो।
18) लोगों की निन्दा से बचने के लिए एकाध दिन मृतक की योग्यता के अनुसार शोक मनाओ और इसके बाद अपना दुःख शान्त हो जाने दो;
19) क्योंकि शोक मृत्यु का कारण बन सकता है और मन का दुःख शक्ति घटाता है।
20) शोक विपत्ति में बना रहता है और दरिद्रता का जीवन हृदय के लिए अभिषाप है।
21) अपना हृदय शोक में मत डूबने दो, उसे हटाओ और अपनी अन्तगति पर विचार करो।
22) मृतक को भूल जाओ, वह लौट कर नहीं आयेगा। उसे तुम से कोई लाभ नहीं होता और तुम अपने को हानि पहुँचाते हो।
23) यह याद रखो कि उसकी गति तुम्हारी भी होगी- कल उसकी और आज तुम्हारी।
24) मृत्यु के बाद मृतक की स्मृति मिट जाने दो, उसके प्राण निकलने के बाद अपना दुःख शान्त होने दो।
25) अवकाष मिलने के कारण ही शास्त्री को प्रज्ञा प्राप्त होती है। जो काम-धन्धों में नहीं फँसा रहता, वही प्रज्ञ बन सकता है।
26) जो हल चलाता और घमण्ड से पैना भाँजता है, जो बैलोें को जोतता और उनके कामों में लगा रहता है, जो अपने साँड़ों की ही बात करता है, उसे प्रज्ञा कैसे प्राप्त हो सकती है?
27) वह हल की रेखा खींचने की चिन्ता करता रहता और रात में देर तक बछड़ों को चारा देता है।
28) यही हाल प्रत्येक षिल्पकार और हर कारीगर का है, जो दिन-रात अपने काम में लगा रहता है। यही हाल उन लोगों का है, जो मुद्राएँ उकेरते हैं और निरन्तर नयी आकृतियाँ बनाते रहते हैं। ऐसा व्यक्ति सच्ची प्रतिकृति बनाने मेें तल्लीन रहता और रात में देर तक अपनी कृति का परिष्कार करता है।
29) यही हाल लोहार का है, जो निकाई के पास बैठ मन लगा कर लोहे का काम करता है। आग की भाप उसका शरीर गलाती है; वह भट्टी की गरमी में परिश्रम करता रहता है।
30) हथोड़े की आवाज उसके कानों में निरन्तर गूँजती रहती है। उसकी आँखें अपनी कृति के नमूने पर टिकी रहती हैं।
31) यह दत्तचित्त हो कर अपने कार्य में लगा रहता। और रात में देर तक उसका परिष्कार करता है।
32) यही हाल कुम्हार का है, जो अपने चाक के पास बैठ कर उसे अपने पैरों से घुमाता रहता है। वह अपने काम पर निरन्तर ध्यान रखता और समय पर उसे पूरा करने की चिन्ता करता है।
33) वह अपने हाथों से मिट्टी के लोंदे बनाता और पैरों से उसे गूँधता है।
34) वह दत्तचित्त होकर बरतनों पर रोगन लगाता और रात में देर तक अपना आँवा साफ करता है।
35) इन सबों को अपने हस्तकौषल का भरोसा है। ये सभी अपने-अपने कार्य में निपुण हैं।
36) इनके बिना कोई भी नगर नहीं बसाया जा सकता।
37) इनके बिना यहाँ न तो कोई रह सकता और न कोई आ-जा सकता; किन्तु नगर परिषद में इन से परामर्ष नहीं लिया जायेगा। इन्हें सार्वजनिक सभाओं में प्रमुख स्थान नहीं दिये जायेंगे।
38) ये न्यायाधीष के आसन पर नहीं बैठेंगे। ये न तो संहिता के निर्णय समझते और न षिक्षा एवं न्याय के क्षेत्र में योग देते हैं। शासकों में इन मेें से कोई नहीं,
39) किन्तु ये ईष्वर की सृष्टि बनाये रखते हैं। इनका काम ही इनकी प्रार्थना है।

अध्याय 39

1) उस व्यक्ति की बात दूसरी है, जो पूरा ध्यान लगा कर सर्वोच्च प्रभु की संहिता का मनन करता है; जो प्राचीन काल के प्रज्ञा-साहित्य का और नबियों के उद्गारों का अध्ययन करता है।
2) वह विख्यात पुरुषोंें की उक्तियों को सुरक्षित रखता और दृष्टान्तों की गहराई तक पहुँचने का प्रयत्न करता है।
3) वह जीवन भर सूक्तियों की गहराई का और दृष्टान्तों की पहेलियों का अध्ययन करता रहता है।
4) वह उच्च पदाधिकारियों की सेवा में उपस्थित रहता और शासकों का द्वार उसके लिए खुला है।
5) वह विदेषी राष्ट्रों का भ्रमण करता और मनुष्यों की भलाई एवं बुराई की जानकारी रखता है।
6) वह बड़े सबेरे अपने सृष्टिकर्ता प्रभु की शरण जाता और सारे हृदय से सर्वोच्च ईष्वर से विनय करता है।
7) वह अपने होंठोें से प्रार्थना करता और अपने पापों की क्षमा माँगता है।
8) यदि सर्वोच्च प्रभु ऐसा चाहेगा, तो उसे बुद्धि का आत्मा प्राप्त होगा।
9) तब वह प्रज्ञापूर्ण सूक्तियाँ बोलेगा और अपनी प्रार्थना में प्रभु की स्तुति करेगा।
10) उसका परामर्ष और ज्ञान विवेकपूर्ण होगा और वह ईष्वर के रहस्यों का मनन करेगा।
11) जो षिक्षा उसे प्राप्त हुई, वह उसे प्रकट करेगा और ईष्वर के विधान के नियमों पर गर्व करेगा।
12) बहुत-से लोग उसकी बुद्धि की प्रषंसा करेंगे और वह कभी नहीं भुलायी जायेगी।
13) उसकी स्मृति नहीं मिटेगी। उसका नाम पीढ़ी-दर-पीढ़ी बना रहेगा।
14) राष्ट्रों में उसकी प्रज्ञा की चरचा होगी और सभा में उसकी प्रषंसा की जायेगी।
15) यदि वह बहुत दिनों तक जीवित रहेगा, तो उसका नाम हजारों से महान् होगा। और यदि उसकी मृत्यु हो जायेगी, तो उसे कोई चिन्ता नहीं होगी।
16) मैं एक बार और अपने विचार प्रकट करूँगा, क्योंकि मैें पूर्णिमा के चन्द्रमा की तरह पूर्ण हँू।
17) भक्त पुत्रोें! मेरी बात सुनो और उस गुलाब की तरफ बढ़ो, जो जलस्रोत के निकट लगाया गया है,
18) लोबान की तरह सुगन्ध बिखेरो,
19) सोसन की तरह खिलो, ऊँचे स्वर में भजन सुनाओ ओैर प्रभु के सभी कार्यों के कारण उसकी स्तुति करो।
20) उसके नाम की महिमा घोषित करो, उसका स्तुतिगान करो, गीत गाते और सितार बजाते हुए इन शब्दों में उसकी स्तुति करो :
21) . ''प्रभु के सभी कार्य उत्तम हैं और उसके सभी आदेष अपने समय पर पूर्ण होते हैं''। यह मत पूछो, ''यह क्या है? इस से क्या लाभ?'' क्योंकि अपने समय पर सब कुछ का रहस्य प्रकट हो जायेगा।
22) उसके आदेष पर पानी एकत्र हो गया, उसके शब्द मात्र से महासागर के भण्डार भर गये।
23) उसके आदेष पर उसकी इच्छा पूरी हुई, क्योंकि उसके कल्याण-कार्य में कोई भी बाधा नहीं डाल सकता।
24) सभी मनुष्यों के कार्य उसके सामने हैं और कोई भी उसकी दृष्टि से नहीं छिप सकता।
25) वह आदि से काल के अन्त तक देखता रहता है; उसकी दृष्टि में कोई बात असाधारण नहीं।
26) यह मत पूछो, ''यह क्या है? इस से क्या लाभ? '' क्योंकि सब कुछ का अपना-अपना प्रयोजन है।
27) उसका आषीर्वाद उमड़ती नदी के सदृष है,
28) जो सूखी भूमि को प्रलय की तरह सींचती है! जिन राष्ट्रों ने उसकी खोज नहीं की, उसका क्रोध उनका इस तरह विनाष करेगा,
29) जिस तरह उसने पानी को खारा कर दिया। सन्तोें के लिए उसके मार्ग सीधे हैं, किन्तु दुष्टोें के लिए वे काँटों से भरे हैं।
30) प्रारम्भ से ही अच्छे लोगों के लिए अच्छी चीजों की और बुरे लोगों के लिए बुरी चीजोें की सृष्टि हुई।
31) मनुष्यों के जीवन के लिए ये अत्यावष्यक हैं : पानी, आग, लोहा, नमक, गेहूँ का मैदा, दूध, मधु, दाखरस, तेल और वस्त्र।
32) यह सब भक्तों के लिए कल्याणकारी हैं, किन्तु पापियोें के लिए अहितकर होता है।
33) दण्ड देने के लिए आँधियों की सृष्टि हुई : प्रभु का कोप उनका संकट दुगुना कर देता है।
34) समय आने पर वे विनाषलीला रचती और अपने सृष्टिकर्ता का क्रोध शान्त करती हैं।
35) आग, ओले, अकाल और मृत्यु- इनकी सृष्टि दण्ड देने के लिए हुई है।
36) जंगली जानवरों के दाँत, बिच्छू, साँप और प्रतिषोधी तलवार, जो दुष्टों का विनाष करती है-
37) ये सब सहर्ष उसकी आज्ञा मानते हैं, इनकी उस समय के लिए सृष्टि की गयी है, जब इनकी जरूरत पडेगी; समय आने पर ये उसकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करेंगे।
38) इसलिए प्रारम्भ से मेरी यही धारणा थी, मैंने सोच-विचार करने के बाद यह लिखा है :
39) ''प्रभु के सभी कार्य उत्तम हैं, वह समय पर सब आवष्यकताएँ पूरी करता है''।
40) यह मत कहो, ''यह उस से बुरा है'', क्योंकि सब कुछ अपने समय पर अच्छा प्रमाणित होगा।
41) और अब हमारे हृदय से ऊँचे स्वर में गाओ और प्रभु का नाम धन्य कहो।

अध्याय 40

1) जिस दिन से मनुष्य अपनी माता के गर्भ से निकलते, उस दिन तक, जब वे मिट्टी-सब की गोद-में लौटते हैं, उन्हें बहुत-से कष्ट झेलने पड़ते हैं और आदम के पुत्रों पर भारी जूआ रखा रहता है।
2) उनके सोच-विचार और हृदय की आषंका पर भविष्य अर्थात् मृत्यु की चिन्ता छायी रहती है।
3) वे चाहे महिमामय सिंहासन पर विराज मान हों या धूल और राख में पड़े हुए हो,
4) वे चाहे बैंगनी पहने हो या मुकुट धारण किये हों या मामूली सन के कपड़े पहने हों, सब में क्रोध, ईर्ष्या, घबराहट और अषान्ति, मृत्यु की आषंका, द्वेष और संघर्ष भरा है।
5) जब वह अपनी शय्या पर विश्राम करता, तब भी रात की नींद उसे बेचैन कर देती है।
6) उसे नाम मात्र विश्राम मिलता है और वह नींद में भी दिन की तरह परेषान रहता है।
7) वह अपने हृदय की कल्पनाओं से आतंकित है। उसकी दषा युद्ध से भागे योद्धा के सदृष है। तब वह नींद से जागता है और उसे अपनी सुरक्षा पर आष्चर्य है।
8) ये हर प्राणी के लिए, चाहे वह मनुष्य हो या पषु किन्तु पापियों के लिए सात गुने हैं :
9) मृत्यु, रक्त, संघर्ष और तलवार, विपत्ति, भूख, अत्याचार और कोड़े।
10) दुष्टोें के लिए इन सब बातों की सृष्टि हुई और उन्हीं के कारण जलप्रलय आया है।
11) जो मिट्टी से निकलता है, वह सब मिट्टी में मिला जाता है और जो पानी से निकलता, वह समुद्र में मिला जाता है।
12) हर घूस और अधर्म मिटाया जायेगा, किन्तु ईमानदारी सदा बनी रहेगी।
13) अधर्मियोें की सम्पत्ति बरसाती नदी की तरह सूख जायेगी और बरसात में बिजली की कड़क की तरह लुप्त हो जायेगी।
14) जो उदारतापूर्वक देता है, वह आनन्दित है, किन्तु पापी सदा के लिए नष्ट हो जायेंगे।
15) दुष्टोें की सन्तति नहीं पनपेगी, क्योंकि पापियों की जड़ें ऊँची चट्टान पर लगी हैं।
16) वे उस पौधे के सदृष हैं, जो नदी की धारा के पास उगता और सब से पहले उखाड़ा जाता है।
17) परोपकार एक हरी-भरी वाटिका-जैसा है और भिक्षादान सदा के लिए बना रहता है।
18) आत्मनिर्भर व्यक्ति और श्रमिक का जीवन सुखद है, किन्तु खजाने का पता लगाने वाला व्यक्ति अधिक सुखी होता है।
19) सन्तति और नगर-निर्माण से नाम बना रहता है, किन्तु इन दोनों की अपेक्षा साध्वी पत्नी श्रेष्ठ है।
20) अंगूरी और संगीत हृदय को आनन्दित करते हैं, किन्तु इन दोनों की अपेक्षा प्रज्ञा का प्रेम श्रेष्ठ है।
21) बाँसुरी और सितार श्रुतिमधुर हैं, किन्तु इन दोनों की अपेक्षा निष्कपट वाणी श्रेष्ठ है।
22) सौम्यता और सौन्दर्य आँखों को प्रिय हैं, किन्तु इन दोनों की अपेक्षा खेतों की हरियाली श्रेष्ठ है।
23) मित्र और साथी समय के अनुसार मार्ग दिखाते हैं, किन्तु इन दोनों की अपेक्षा समझदार पत्नी श्रेष्ठ है।
24) भाई और सहायक बुरे दिनों में रक्षा करते हैं, किन्तु इन दोनों की अपेक्षा भिक्षादान हितकर है।
25) चाँदी और सोना आत्मविष्वास देते हैं, किन्तु इन दोनों की अपेक्षा सत्परामर्ष श्रेष्ठ है।
26) समृद्धि और सामर्थ्य की अपेक्षा प्रभु पर श्रद्धा हृदय को अधिक आनन्द प्रदान करती है।
27) जो प्रभु पर श्रद्धा रखता, उसे किसी बात की कमी नहीं और उसे किसी सहायक की आवष्यकता नहीं।
28) प्रभु पर श्रद्धा हरी-भरी वाटिका-जैसी और महिमामय छतरी-जैसी है।
29) पुत्र! भिखारी का जीवन मत बिताओ। भीख माँगने की अपेक्षा मृत्यु अच्छी है।
30) जो व्यक्ति रोटी के लिए पराये का मुँह ताकता है, उसका जीवन जीवन कहलाने योग्य नहीं। वह पराये के भोजन से अपना गला अपवित्र करता है,
31) जब कि षिक्षित और भद्र मनुष्य उस से परहेज करता है।
32) भीख माँगते समय निर्लज्ज के मुँह से मीठी बोली होती है, किन्तु उसके अन्तरमन में आग की ज्वाला है।

अध्याय 41

1) मृत्यु! उस मनुष्य के लिए तेरा स्मरण कितना कटु है, जो अपनी सम्पत्ति का उपभोग करते हुए शान्ति का जीवन बिताता है,
2) उस निष्चिन्त मनुष्य के लिए, जो अपने सब कामोें में सफल है और जिस में भोग-विलास करने की शक्ति रह गयी है!
3) मृत्यु! वह मनुष्य तेरे दण्ड का स्वागत करता है, जो तंगहाली में रहता और जिसकी शक्ति शेष हो रही है;
4) जो बूढ़ा हो चला है, चिन्ताओं से ग्रस्त है, हतोत्साह और निराष है।
5) तुम मृत्यु से मत डरो; उन्हें याद करो, जो तुम से पहले आये और जो तुम्हारे बाद आयेंगे। हर मनुष्य के विषय में प्रभु का यही निर्णय है।
6) सर्वोच्च प्रभु की इच्छा का विरोध क्योें करते हो? तुम चाहे दस वर्ष जियो या एक सौ या एक हजार वर्ष,
7) तुम अधोलोक में अपनी आयु के विषय में षिकायत नहीं कर सकोगे।
8) पापियोें की सन्तति अभिषप्त है। वह अधर्मियों के साथ रहती है।
9) पापियों की सन्तति अपनी विरासत खो देगी और उनके वंषज सदा के लिए कलंकित होंगे।
10) पुत्र अपने दुष्ट पिता की निन्दा करेंगे, क्योंकि वे उसी के कारण कलंकित हैं।
11) विधर्मियों! धिक्कार तुम लोगो को, जो सर्वोच्च प्रभु की संहिता का परित्याग करते हो!
12) तुम अभिषाप के लिए उत्पन्न हुए हो और मरने के बाद तुम्हें अभिषाप प्राप्त होगा!
13) जो मिट्टी से निकलता, वह सब मिट्टी में मिल जाता है। इसी प्रकार अभिषाप के बाद दुष्टों का नाष होता है।
14) मनुष्य अपने शरीर के लिए शोक मनाते हैं। पापियों का अपयष सदा बना रहेगा।
15) अपने नाम की रक्षा करो, क्योंकि वह सोने के हजारों कोषोें की अपेक्षा अधिक समय तक बना रहेगा।
16) सुखी जीवन थोड़े दिनों का है, किन्तु सुयष सदा बना रहता है।
17) अपनी प्रज्ञा छिपाने वाले मनुष्य की अपेक्षा अपनी मूर्खता छिपाने वाला मनुष्य अच्छा है। छिपी हुई प्रज्ञा और गुप्त ख़जाना, दोनों किस काम के हैं?
18) पुत्र! जो षिक्षा तुम को मिली है, शान्तिपूर्वक उसके अनुसार आचरण करो।
19) मेरे विचारों का सम्मान करो।
20) बहुत-सी बातों के लिए लज्जा नहीं करनी चाहिए और हर प्रकार की लज्जा उचित नहीं होती।
21) इन बातों को लज्जाजनक मानो : माता-पिता के सामने व्यभिचार, शासक और अधिकारी के सामने झूठ,
22) न्यायाधीष और दण्डाधिकारी के सामने अपराध; सभा और जनता के सामने विद्रोह,
23) साथी और मित्र के प्रति अन्याय, पड़ोस के लोगों के सामने चोरी, ईष्वर के सत्य और विधान के प्रति शपथ-भंग,
24) भोजन के समय मेज पर कोहनी टेकना, लेन-देन में डाँट-फँटकार करना,
25) नमस्कार करने वाले को उत्तर नहीं देना, वेष्या की ओर ताकना, रक्त-सम्बन्धी से मुँह फेरना
26) या उसे दिया हुआ हिस्सा या उपहार दबाना,
27) परस्त्री की ओर आँख उठा कर देखना या उसकी नौकरानी के साथ घनिष्ठता स्थापित करना, -तुम उसके पलंग के पास पैर मत रखो
28) मित्रों को डाँटना, दान देने के बाद फटकारना,

अध्याय 42

1) सुनी हुई बात को दूसरों से कहना और रहस्य प्रकट करना। इस प्रकार तुम सच्ची लज्जा का अनुभव करोगे और सबों में लोकप्रिय होगे। निम्नलिखित बातों को लज्जाजनक मत मानो और लोकलज्जा के कारण पाप मत करो :
2) सर्वोच्च प्रभु की संहिता और उसका विधान, विधर्मी को न्यायोचित दण्ड,
3) साथी और सहयात्री के साथ हिसाब, दूसरों के साथ विरासत का विभाजन,
4) तराजू और बाँटों की सच्चाई, बहुत या कम सम्पत्ति,
5) व्यापारी के साथ सौदा, सन्तति का निरन्तर अनुषासन, दुष्ट नौकर को कोड़ों की मार।
6) यदि पत्नी दुष्ट हो, तो उसे बन्द रखो।
7) जहाँ बहुत हाथ हों, वहाँ सामान पर ताला लगाओ। अमानत का माल गिनो और तोलो, जो देते या लेते हो , उसका हिसाब रखो।
8) नासमझ एवं मूर्ख और लम्पट बूढे को डाँटने में लज्जा का अनुभव मत करो। इस से तुम समझदार समझे जाओगे और सभी लोग तुम्हारा समर्थन करेंगे।
9) पिता के लिए पुत्री की चिन्ता का कारण है, उसकी चिन्ता उसे सोने नहीं देती। जब छोटी है, तो वह डरता है कि कहीं अविवाहित न रह जाये और जब उसका विवाह हो गया है, तो इसलिए कि कहीं उसका परित्याग न हो।
10) जब कुँवारी है, तो शीलभंग और पिता के घर में रहते गर्भवती होने की आषंका है। जब विवाहिता है, तो अपने पति के प्रति विष्वासघात की और उसके घर में बाँझपन की आषंका है।
11) चंचल पुत्री पर सख्त निगरानी रखो। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे शत्रु तुम्हारी निन्दा करेें, नगर में तुम्हारी बदनामी हो, लोग तुम को अभिषाप दें और तुम को भरी सभा में कलंक लगे।
12) वह किसी पुरुष के सामने अपना सौन्दर्य प्रकट न करे। और स्त्रियों की बीच नहीं बैठे;
13) क्योंकि कपड़ों से कीड़े निकलते हैं और एक स्त्री की दुष्चरित्रता दूसरी को प्रभावित करती है।
14) स्नेही स्त्री की अपेक्षा उसके लिए कठोर पुरुष अच्छा है। पुत्री को हर प्रकार के कलंक से सावधान रहना चाहिए।
15) अब मेैं प्रभु के कार्यों का स्मरण करूँगा। मैंने जो देखा है, उसका बखान करूँगा। प्रभु ने अपने शब्द द्वारा अपने कार्य सम्पन्न किये और अपनी इच्छा के अनुसार निर्णय किया।
16) सूर्य सब कुछ आलोकित करता है समस्त सृष्टि प्रभु की महिमा से परिपूर्ण है।
17) स्वर्गदूतों को भी यह सामर्थ्य नहीं मिला है कि वे उन सब महान् कार्यो का बखान करें, जिन्हें सर्वषक्तिमान् प्रभु ने सुस्थिर कर दिया है, जिससे विष्वमण्डल उसकी महिमा पर आधारित हो।
18) वह समुद्र और मानव हृदय की थाह लेता और उनके सभी रहस्य जानता है;
19) क्योंकि सर्वोच्च प्रभु सर्वज्ञ है और भविष्य भी उस से छिपा हुआ नहीं। वह भूत और भविष्य, दोनो को प्रकाष में लाता और गूढ़तम रहस्यों को प्रकट करता है।
20) वह हमारे सभी विचार जानता है, एक शब्द भी उस से छिपा नहीं रहता।
21) उसकी प्रज्ञा के कार्य सुव्यवस्थित हैं; क्योंकि वह अनादि और अनन्त है। उस में न तो कोई वृद्धि है।
22) और न कोई ह्रास और उसे किसी परामर्षदाता की आवष्यकता नहीं।
23) उसकी सृष्टि कितनी रमणीय है! हम उसकी झलक मात्र देख पाते हैं।
24) उसके समस्त कार्य अनुप्रमाणित और चिरस्थायी हैं; उसने जो कुछ बनाया है, वह उसका उद्देष्य पूरा करता है।
25) सब चीजें दो-दो प्रकार की होती हैं, एक दूसरी से ठीक विपरीत। उसने कुछ भी व्यर्थ नहीं बनाया।
26) वे एक दूसरी की कमी पूरी करती है। प्रभु की महिमा देखने पर कौन तृप्त होगा?

अध्याय 43

1) स्वच्छ नक्षत्रमण्डल और महिमामय आकाष हमारी आँखों के सामने कितने रमणीय हैं!
2) सूर्य उदित होते ही मानो कहता है : सर्वोच्च प्रभु की सृष्टि कितनी श्रेष्ठ है!
3) दोपहर के समय वह पृथ्वी को झुलसाता है; उसका प्रखर ताप कौन सह सकता है?
4) धातु गलाने वाली भट्टी की आग तेज है; पर्वतों को जलाने वाला सूर्य उस से तीन गुना गर्म है। वह भस्म करने वाला धूआँ उगलता है और उसकी प्रखर किरणें चकाचौधं उत्पन्न करती हैं।
5) वह प्रभु महान् है, जिसने उसकी सृष्टि की है और जिसके आदेष पर वह तेजी से परिक्रमा करता है।
6) चन्द्रमा निष्चित समय पर प्रकाष देता और काल और ऋतु निर्धारित करता है।
7) चन्द्रमा के आधार पर पर्व निर्धारित होते हैं। उसका प्रकाष बढ़ता और घटता है।
8) चन्द्रमा के अनुसार महीने का नाम रखा जाता है। उसकी वृद्धि और ह्रास अद्भुत हैं।
9) वह नभोमण्डल के नक्षत्रों की ध्वजा है और आकाष के षिखर पर शोभायमान है।
10) तारे आकाष की शोभा बढ़ाते हैं; वे प्रभु की ऊँचाईयों के चमकते अलंकार है।
11) वे परमपावन प्रभु की आज्ञा के अनुसार पंक्तिबद्ध है और अपने जागरण में कभी नहीं थकते।
12) इन्द्रधनुष को देख कर उसके सृष्टिकर्ता को धन्य कहो। उसकी भव्यता कितनी रमणीय है!
13) वह आकाष में प्रकाषमान् वृत्त खींचता है। सर्वोच्च प्रभु के हाथों ने उसे ताना है।
14) वह अपने आदेष द्वारा हिम गिराता और अपने निर्णय के अनुसार बिजली चमकाता है।
15) वह अपने भण्डार खोलता और पक्षियों की तरह बादल उड़ जाते हैं।
16) वह अपने सामर्थ्य द्वारा बादलों को सघन करता और ओले नीचे गिरते हैं। बिजली की कड़क पृथ्वी को कँपाती है।
17) पर्वत उसे देख कर थर्रा उठते हैं। उसके आदेष पर दक्षिणी हवा,
18) उत्तर की आँधी और बवण्डर आता है।
19) वह उतरने वाले पक्षियों की तरह हिम गिराता और वह टिड्डी दल की तरह छा जाता है।
20) वह अपने श्वेत सौन्दर्य से आँख में चकाचौंध उत्पन्न करता और उतरने पर हृदय को मुग्ध कर देता है।
21) प्रभु नमक की तरह पृथ्वी पर पाला गिराता है, जो जम कर काँटों की तरह नुकीला हो जाता है।
22) ठण्डी उत्तरी हवा बहने लगती है और जल की सतह जमा कर बर्फ बना देती है। वह हर जलाषय पर छा जाती और उसे मानो कवच से ढक देती है।
23) लू पर्वतों को खा जाती, मरुभूमि को झुलसाती और हरियाली को आग की तरह जलाती है।
24) बादल शीघ्र ही सब में नवजीवन का संचार करते हैं और ओस ग्रीष्म के बाद सब को आनन्दित करती है।
25) प्रभु ने अपनी योजना के अनुसार महासागर को शान्त किया और उस में टापू लगा दिये।
26) समुद्र पर यात्रा करने वाले उसकी जोखिमोें का वर्णन करते और हम सुनकर आष्चर्यचकित हो जाते हैं।
27) ये हैं प्रभु के महान् और अद्भुत कार्य, हर प्रकार के जीव-जन्तु और भीमकाय जलचर।
28) उसके सामर्थ्य से उसका दूत सकुषल विचरता है और उसके आदेष के अनुसार सब सुसंघटित हैं।
29) हम कहाँ तक कहें! उसके महान् कार्यों का अन्त नहीं। हम अन्त में यह कहते हैं : ''वहीं सब कुछ है!''
30) हम उसकी महिमा का वर्णन करने में असमर्थ हैं; क्योंकि वह अपने कार्यों से कहीं अधिक महान् है।
31) प्रभु भीषण और अत्यधिक महान् है, उसका सामर्थ्य आष्चर्यजनक है।
32) (३२-३३) शक्ति भर प्रभु की महत्ता गाओ, क्योंकि वह तुम्हारी स्तुति के परे है। उसकी महिमा श्लाय हैं।
34) पूरी शक्ति लगा कर उसकी स्तुति करते जाओ। तुम उसका पूरा-पूरा वर्णन नहीं कर पाओगे।
35) किसने उसे देखा, जो उसका वर्णन कर सके? कौन उसके महत्व के अनुसार उसकी महिमा कर सकता है?
36) जो दिखता, उस से कहीं अधिक अप्रकट है; क्योंकि हमने उसके कार्यों में से कुछ को ही देखा है।
37) प्रभु ने सब कुछ बनाया है और भक्तों को प्रज्ञा का वरदान दिया है।

अध्याय 44

1) हम पीढ़ियों के क्रमानुसार अपने लब्ध प्रतिष्ठ पूर्वजों का गुणगान करें।
2) प्रभु ने उन्हें प्रचुर यष प्रदान किया; उसकी महिमा अनन्त काल से विद्यमान है।
3) वे अपने राज्यों के महान् शासक थे, अपनी तेजस्विता के लिए प्रसिद्ध थे : अपनी बुद्धि के कारण परामर्षदाता, अपनी दैवी दृष्टि के कारण भविष्यवक्ता,
4) अपने विवेक के कारण प्रजा के शासक, अपनी बुद्धि के कारण नेता और अपनी ज्ञानपूर्ण बातों के कारण षिक्षक।
5) वे श्रुतिमधुर गीतोेंं और काव्यात्मक कलाओं के रचयिता थे।
6) वे शक्तिसम्पन्न प्रभावषाली व्यक्ति थे, जो अपने घरों में शान्तिपूर्ण जीवन बिताते थे।
7) वे सब अपनी पीढ़ियों मेें महिमान्वित और अपने जीवनकाल में प्रसिद्ध थे।
8) उन में कुछ लोग अपना नाम छोड़ गये, जिससे जनता अब तक उनका गुणगान करती है।
9) कुछ लोगों की स्मृति शेष नहीं रही। वे इस प्रकार लुप्त हो गये हैं, मानो कभी थे ही नहीं। वे इस प्रकार चले गये हैं, मानो उनका कभी जन्म नहीं हुआ और उनकी सन्तति की भी यही दषा है।
10) जिन लोगों के उपकार नहीं भुलाये गये हैं, उनके नाम यहाँ दिये जायेंगे।
11) उन्होनें जो सम्पत्ति छोड़ी है, वह उनके वंषजों में निहित है।
12) उनके वंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंषज आज्ञाओं का पालन करते हैं
13) और उनके कारण उनकी सन्तति भी। उनका वंंंंंंंंंंंष सदा बना रहेगा और उनकी कीर्ति कभी नहीं मिटेगी।
14) उनके शरीर शान्ति में दफनाये गये और उनके नाम पीढ़ी-दर-पीढ़ी बने रहेंगे।
15) लोग उनकी प्रज्ञा की प्रषंसा करेंगे। सभाओं में उनका गुणगान किया जायेगा।
16) हनोक प्रभु को प्रिय थे और वह सषरीर उठा लिये गये। वह पीढ़ियों के लिए प्रज्ञा का आदर्ष है।
17) नूह को निर्दोष पाया गया। प्रकोप के दिन वह मानवजाति का नाम प्रारम्भ बने।
18) प्रलय के समय उनके माध्यम से पृथ्वी पर मानवजाति का अवषेष कायम रहा।
19) उनके लिए वह विधान ठहराया गया कि कोई भी वाणी जलप्रलय से फिर नष्ट नहीं होगा।
20) इब्राहीम अनेक राष्ट्रोें के महान् मूलपुरुष हैं। उनके सुयष पर कोई कलंंक नहीं लगा। उन्होंने सर्वोच्च प्रभु की संहिता का पालन किया और प्रभु ने उनके लिए एक विधान निर्धारित किया।
21) उन्होंने अपने शरीर में विधान का चिन्ह अंकित किया और वह परीक्षा में खरे उतरे।
22) इसलिए प्रभु ने शपथ खा कर प्रतिज्ञा की कि उनके वंषजों द्वारा राष्ट्र आषीर्वाद प्राप्त करेंगे, कि वे पृथ्वी की धूल की तरह असंख्य होंगे,
23) उन्हें तारों की तरह ऊपर उठाया जायेगा और उन्हें ऐसी विरासत प्राप्त होगी, जो एक समुद्र से दूसरे समुद्र तक और फरात नदी से पृथ्वी के सीमान्तों तक फैल जायेगी।
24) प्रभु ने इब्राहीम के कारण उनके पुत्र इसहाक से वही प्रतिज्ञा की।
25) उसने उन को मानवजाति का कल्याण और याकूब को विधान सौंपा।
26) उसने उन्हेें प्रचुर आषीर्वाद दिया और उन्हें विरासत प्रदान की, जिससे वह उसे बारह वंषों में बाँट देंं।
27) प्रभु ने उन मेेंें एक ऐसे महान् भक्त को उत्पन्न किया, जो सभी मनुष्यों के कृपापात्र बने,

अध्याय 45

1) जिन को ईष्वर और मनुष्यों का प्रेम प्राप्त था : वह मूसा थे, जिनकी स्मृति धन्य है।
2) उसने उन्हें सन्तोें-जैसी महिमा प्रदान की और उन्हेें महान् शत्रुओें के लिए भीषण बनाया। उसने उनके कहने पर तुरन्त महान् चमत्कार दिखाये
3) और उन्हें राजाओें की दृष्टि में महिमान्वित किया। उसने उन्हें अपनी प्रजा के लिए आज्ञाएँ दीं और उनके लिए अपनी महिमा प्रकट की।
4) उसने उनकी निष्ठा और विनम्रता के कारण उनका अभिषेक किया। और सब शरीरधारियों में से उन को चुना।
5) उसने उन को अपनी वाणी सुनायी और उन्हेें घने बादल में बुलाया।
6) उसने उन्हेें आमने-सामने अपनी आज्ञाएँ, जीवन और ज्ञान की संहिता प्रदान की, जिससे वह याकूब को प्रभु के विधान की और इस्राएल को उसके निर्णयों की षिक्षा दें।
7) उसने मूसा के भाई लेवीवंषी हारून को इसी तरह पवित्र और प्रतिष्ठित किया।
8) उसने चिरस्थायी विधान के रूप में उन्हें प्रजा का पुरोहित बनाया, उन्हें सुन्दर परिधान दे कर प्रसन्न किया।
9) और महिमामय वस्त्र पहनाये। उसने उन्हें अपूर्व आभूषण दिये और उन्हें अधिकार सूचक चिन्हों से अलंकृत किया।
10) उसने उन्हें जाँघिया, कुरता और एफोद दिया। उसने उनके चारों ओर अनार और सोने की अनेक घण्टियाँ लगवायी,
11) जो उनके चलते समय टनटनायेें और उनके मन्दिर में प्रवेष करने पर सुनाई पड़े, जिससे उसकी प्रजा के पुत्र सावधान रहें।
12) उसने उनके लिए कलाकार द्वारा सोने के तारों का, नीले और बैगनी रंग का पवित्र वस्त्र सिलवाया। इसके अतिरिक्त कमरबन्द और वक्षपेटिका में ऊरीम और तुम्मीम।
13) षिल्पकार द्वारा बटी हुई छालटी से बनायी वक्षपेटिका में नक्क़ाषी किये हुये सोने के खाँचोें मेे इस्राएल के बारह वंषों की संख्या के अनुसार अक्षरों से अंकित मणियाँ सुषोभित थीं।
14) उनकी पगड़ी पर एक स्वर्ण मुकुट था, जिस पर अभिषेक की मुहर अंकित थी। वह कलाकृति सम्मान का प्रतीक थी, नयनाभिराम और अलंकृत।
15) उनके पूर्व इतनी सुन्दर वस्तुएँ कभी नहीं हुई
16) और बाद मंें कोई विदेषी उन्हें कभी नहीं पहनेगा। उनके पुत्र ही उन्हें पहनेंगे और उनके बाद अनन्त काल तक उनके वंषज।
17) उनकी बलियाँ अनन्त काल तक प्रतिदिन दो बार भस्म कर दी जायेंगी।
18) मूसा ने उन्हें याजक के रूप में नियुक्त कर उनका अभिषेक पवित्र तेल से किया।
19) यह उनके लिए और उनके वंषजों के लिए एक चिरस्थायी विधान था : जब तक आकाष बना रहेगा, वे याजक का कार्य सम्पन्न करेंगे और प्रभु के नाम पर प्रजा को आषीर्वाद प्रदान करेंगे।
20) उसने उन्हें सभी लोगों में से चुना, जिससे वह प्रभु को होम-बलि, लोबान एवं सुगन्धयुक्त अन्न-बलि चढ़ायें और प्रजा के लिए प्रायष्चित-विधि सम्पन्न करें।
21) उसने उन्हें अपने आदेष सुनाये और संहिता की व्याख्या का अधिकार दिया, जिससे वह याकूब को उसके नियमों की षिक्षा दे, और इस्राएल को उसकी संहिता के विषय में ज्योति प्रदान करें।
22) एक अन्य वंष के लोगों ने उनके विरुद्ध विद्रोह किया और मरुभूमि में उन से ईर्ष्या प्रकट की : वे दातान, अबिराम और कोरह के दल थे, जो कु्रद्ध हो कर उनके विरुद्ध खड़े हो गये।
23) प्रभु ने यह देखा और यह उसे अप्रिय लगा, उसका क्रोध भड़क उठा और उनका विनाष हुआ।
24) उसने उनके विरुद्ध चमत्कार दिखाये और उन्हें अपनी धधकती आग में भस्म किया।
25) उसने हारून का यष और बढ़ाया और उन्हें एक दायभाग प्रदान किया। उसने उन्हें खेतों के प्रथम फल दिलाये
26) और उन्हें भरपूर भोजन प्रदान किया; क्योंकि वे प्रभु को अर्पित बलिदान खायेंगे; जिन्हें उसने हारून और उनके वंषजों को दिया।
27) किन्तु प्रजा की भूमि में उन्हें विरासत नहीं मिली, प्रजा की तरह उन्हें कोई भाग नहीं मिला; क्योंकि प्रभु स्वयं उनका भाग और उनकी विरासत है।
28) एलआजार के पुत्र पीनहास तीसरे यषस्वी व्यक्ति हैं। उन्होनें प्रभु के लिए उत्साह का प्रदर्षन किया
29) ओैर अपनी उदारता और साहस से इस्राएल पर से प्रभु का का्रेध दूर किया।
30) इसलिए उसने उनके लिए शान्ति-विधान निर्धारित किया और उन्हें मन्दिर और अपनी प्रजा का अध्यक्ष नियुक्त किया, जिससे उन्हें और उनके वंषजों को सदा के लिए प्रधान याजक का पद प्राप्त हो।
31) यूदावंषी यिषय के पुत्र दाऊद के लिए जो विधान निर्धारित किया गया, उसके अनुसार राजा का उत्तराधिकार उनके पुत्रों में एक को मिलता है, जब कि हारून का उत्तराधिकार उनके सभी वंषजों को मिलता है। प्रजा का उचित रीति से न्याय करने के लिए प्रभु आपके हृदयों को प्रज्ञा प्रदान करें, जिससे आपकी समृद्धि लुप्त न हो और आपका यष पीढ़ियों तक बना रहे!

अध्याय 46

1) नून के पुत्र योषुआ शूरवीर योद्धा थे और भविष्यवक्ता के रूप में मूसा के उत्तराधिकारी। वह अपने नाम के अनुरूप
2) प्रभु के चुने हुए लोगों के महान् उद्धारक बने। उन्होंने इस्राएल को उसकी विरासत दिलाने के लिए आक्रामक शत्रुओं को दण्ड दिया।
3) उन्होंने कितना यष कमाया, जब वह अपने हाथ उठाते और नगरों के विरुद्ध तलवार खींचते थे।
4) कौन उनके विरुद्ध टिक सका? क्योंकि वह प्रभु के युद्ध लड़ते थे।
5) क्या सूर्य उनके हाथ से नहीं रोका गया और एक दिन दो दिनों के बराबर नहीं बना?
6) जब शत्रु उन पर चारों ओर से टूट पड़े, तो उन्होंने सर्वोच्च प्रभु की दुहाई दी। प्रभु ने उनकी प्रार्थना सुनी और ओले के बड़े-बड़े पत्थरों की वर्षा की।
7) वे शत्रु-सेना पर टूट पड़े और उन्होंने ढाल पर उतरने वालों का विनाष किया,
8) जिससे राष्ट्र जान जायें कि उनके शस्त्र कितने शक्तिषाली हैं; क्योंकि योषुआ प्रभु के लिए लड़ते थे और सर्वषक्तिमान् का अनुगमन करते थे।
9) मूसा के दिनों में वह ईमानदार बने रहे और उन्होंने यफुन्ने के पुत्र कालेब के साथ समुदाय का विरोध किया, प्रजा को पाप करने से रोका और उनका दुष्टतापूर्ण भुनभुनाना समाप्त किया।
10) इसलिए छः लाख सैनिकों में ये दो बचे और उन्होंने उस विरासत में प्रवेष किया, जहाँ दूध और मधु की नदियाँ बहती हैं।
11) प्रभु ने कालेब को बल प्रदान किया, जो उनकी वृद्धावस्था तक बना रहा। वे पहाड़ी प्रदेष में बस गये, जहाँ उनके वंषजों को विरासत मिली,
12) जिससे सभी इस्राएली यह जान जाये कि प्रभु का अनुगमन करना कितना अच्छा है।
13) प्रत्येक न्यायकर्ता ने नाम कमाया; उन में एक का भी मन विचलित नहीं हुआ। वे प्रभु से विमुख नहीं हुए।
14) धन्य है उनकी स्मृति! उनकी हड्डियाँ अपने स्थान पर फिर खिल उठेें,
15) इन यषस्वी पुरुषोें के पुत्रों द्वारा उनका नाम फिर चमके!
16) समूएल प्रभु के कृपापात्र और नबी थे। उन्होंने राजत्व की स्थापना की और अपनी जाति के शासकों का अभिषेक किया।
17) वह प्रभु की संहिता के अनुसार सभा मेें न्याय करते थे और प्रभु की कृपादृष्टि याकूब पर बनी रही। वह अपनी ईमानदारी द्वारा सच्चे नबी
18) और अपने शब्दों द्वारा सच्चे दृष्टा प्रमाणित हुए।
19) जब उनके शत्रुओं ने उन पर चारों ओर से आक्रमण किया, तो उन्होंने सर्वषक्तिमान् प्रभु से प्रार्थना की और उसे दूध पीने वाला मेमना अर्पित किया।
20) प्रभु ने आकाष में मेघगर्जन उत्पन्न किया और उसकी वाणी का महानाद सुनाई पड़ा।
21) उसने तीरुस के सेनापतियोें का और सभी फिलिस्तीनी नेताओं का विनाष किया।
22) उन्होंने अपनी चिरनिद्रा के पहले ही, प्रभु और उसके अभिषिक्त को साक्षी बना कर कहा :''मैने कभी किसी का कुछ नहीं लिया, यहाँ तक कि किसी की चप्पल तक नहीं÷। उस समय किसी ने उन पर अभियोग नहीं लगाया।
23) उन्होंने मरने के बाद भी भविष्यवाणी की और राजा को उसकी मृत्यु की सूचना दी। उन्होंने प्रजा की दुष्टता दूर करने के लिए पृथ्वी की गोद में से अपनी वाणी सुनायी।

अध्याय 47

1) इनके बाद नातान प्रकट हुए, जो दाऊद के दिनों में नबी थे।
2) जिस प्रकार प्रायष्चित्त के बलिदान में चरबी अलग की जाती है, उसी प्रकार दाऊद को इस्राएलियोें में से चुना गया था।
3) वह सिंहों के साथ खेलते थे, मानो वे बकरी के बच्चे हों और भालुओं के साथ खेलते थे, मानो वे छोटे मेमने हों।
4) उन्होंने अपनी जवानी में भीमकाय योद्धा को मारा और अपने राष्ट्र का कलंक दूर किया।
5) उन्होंन हाथ से ढेलबाँस का पत्थर मारा और गोलयत का घमण्ड चूर-चूर कर दिया;
6) क्योंकि उन्होंने सर्वोच्च प्रभु से प्रार्थन की और उसने उनके दाहिने हाथ को शक्ति प्रदान की, जिससे वह बलवान् योद्धा को पछाड़ कर अपनी प्रजा को शक्तिषाली बना सकें।
7) इसलिए लोगोें ने उन्हें 'दस हजार का विजेता' घोषित किया, ईष्वर के आषीर्वाद के कारण उनकी स्तुति की और उन्हें महिमा का मुकुट पहनाया;
8) क्योंकि उन्होंने चारों ओर के शत्रुओें को पराजित किया और अपने फिलिस्तीनी विरोधियोें का सर्वनाष किया। उन्होंने सदा के लिए उनकी शक्ति समाप्त कर दी।
9) वह अपने सब कार्यों में धन्यवाद देते हुए परमपावन सर्वोच्च ईष्वर की स्तुति करते रहे।
10) वह अपने सृष्टिकर्ता के प्रति अपना प्रेम प्रकट करने के लिए सारे हृदय से गीत गाया करते थे।
11) उन्होंने गायकों को नियुक्त किया, जिससे वे वेदी के सामने खड़े हो कर मधुर गान सुनायें।
12) उन्होंने पर्वों के भव्य समारोह का प्रबन्ध किया और सदा के लिए पर्वचक्र निर्धारित किया, जिससे प्रभु का मन्दिर प्रातःकाल से ही उसके पवित्र नाम की स्तुति से गूँज उठे।
13) प्रभु ने उनके पाप क्षमा किये और सदा के लिए उन्हें शक्तिषाली बना दिया। उसने उन्हें राज्याधिकार और इस्राएल को महिमामय सिंहासन प्रदान किया।
14) दाऊद के बाद उनके एक प्रज्ञासम्पन्न पुत्र प्रकट हुए, जो अपने पिता के कारण सुरक्षा में जीवन बिता सके।
15) सुलेमान ने शान्ति के समय राज्य किया। ईष्वर ने उन्हें सब ओर से शान्ति प्रदान की, जिससे वे उसके नाम पर भवन बनवायें और सदा के लिए एक मन्दिर की स्थापना करेें। आप अपनी युवावस्था में कितने प्रज्ञा-सम्पन्न थे।
16) और नदी की तरह विवेक से भरपूर! आपकी विद्धता ने पृथ्वी को ढक दिया
17) और उसे रहस्यात्मक सूक्तियों से भर दिया। आपका नाम दूर द्वीपों तक फैल गया और आप अपनी शान्ति के कारण लोकप्रिय थे।
18) सारी पृथ्वी आपके गीतोें, सूक्तियोें, दृष्टान्तोें और व्याख्याओं पर मुग्ध थी।
19) आपने प्रभु-ईष्वर के नाम पर, जो इस्राएल का ईष्वर कहलाता है,
20) राँगे की तरह सोने का और सीसे की तरह चाँदी का ढेर लगाया।
21) किन्तु आपने अपने को स्त्रियोें पर अर्पित किया और उन्हें अपने शरीर पर अधिकार दिया।
22) आपने अपने यष पर कलंक लगाया, अपने वंंंंंंंंंंंंंंषजों को दूषित किया, अपनी सन्तति पर क्रोध उत्पन्न किया और उन्होंने आपकी मूर्खता पर शोक मनाया।
23) आपका राज्य दो भागों में विभाजित किया गया, जिससे एफ्रईम में एक विद्रोही राज्य उत्पन्न हुआ।
24) फिर भी प्रभु ने अपनी दया नहीं भुलायी और अपने शब्दों में एक को भी व्यर्थ नहीें होने दिया। उसने दाऊद के पुत्रों को मिटने नहीं दिया और अपने प्रेमपात्र के वंष का सर्वनाष नहीं किया।
25) उसने याकूब का एक अवषेष और दाऊद के एक वंषज को सुरक्षित रखा।
26) सुलेमान अपने पूर्वजों से जा मिले
27) और अपने बाद एक ऐसे मूर्ख वंषज को छोड़ गये,
28) जिस में कोई बुद्धि नहीं थी। रहबआम, जिसने अपने निर्णय के कारण जनता में विद्रोह उत्पन्न किया,
29) नबाट के पुत्र यरोबआम ने इस्राएल से पाप करवाया, और एफ्रईम को पाप का मार्ग दिखाया। उनके पापों की संख्या इस प्रकार बढ़ गयी
30) कि उन को अपने देष से निर्वासित किया गया।
31) जब तक उन को दण्ड नहीं दिया गया, तब तक वे हर प्रकार के अपराध करते रहे।

अध्याय 48

1) तब एलियाह अग्नि की तरह प्रकट हुए। उनकी वाणी धधकती मषाल के सदृष थी।
2) उन्होंने उनके देष में अकाल भेजा और अपने धर्मोत्साह में उनकी संख्या घटायी।
3) उन्होंने प्रभु के वचन से आकाष के द्वार बन्द किये और तीन बार आकाष से अग्नि गिरायी।
4) एलियाह! आप अपने चमत्कारोें के कारण कितने महान् है! आपके सदृष होने का दावा कौन कर सकता है!
5) आपने सर्वोच्च प्रभु की आज्ञा से एक मनुष्य को मृत्यु और अधोलोक से वापस बुलाया।
6) आपने राजाओें का सर्वनाष किया, प्रतिष्टित लोगों को गिरा दिया और सहज ही उनका बल तोड़ दिया।
7) आपने सीनई पर्वत पर दोषारोपण और होरेब पर्वत पर दण्डाज्ञा सुनी।
8) आपने प्रतिषोध करने वाले राजाओं का और अपने उत्तराधिकारियों के रूप में नबियों का अभिषेक किया।
9) आप अग्नि की आँधी में अग्निमय अष्वों के रथ में आरोहित कर लिये गये।
10) आपके विषय में लिखा है, कि आप निर्धारित समय पर चेतावनी देने आयेंगे, जिससे ईष्वरीय प्रकोप भड़कने से पहले ही आप उसे शान्त करें, पिता और पुत्र का मेल करायें और इस्राएल के वंषों का पुनरुद्धार करें।
11) धन्य हैं वे, जिन्होंने आपके दर्षन किये, जो आपके प्रेम से सम्मानित हुए!
12) हमें तो जीवन मिला है, किन्तु मृत्यु के बाद हमें आपके सदृष नाम नहीं मिलेगा।
13) जब एलियाह बवण्डर में ओझल हो गये, तो एलीषा को उनकी आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त हुई। वे अपने जीवनकाल में किसी भी शासक से नहीं डरते थे। कोई भी मनुष्य उन्हें अपने वष में नहीं कर सका।
14) कोई भी कार्य उनकी शक्ति के परे नहीं था और मृत्यु के बाद भी उनके शरीर में नबी का सामर्थ्य विद्यमान था।
15) उन्होंने अपने जीवनकाल में चमत्कार और मृत्यु के बाद भी अपूर्व कार्य कर दिखाये।
16) यह सब होते हुए भी लोगोें ने पष्चात्ताप नहीं किया और पाप करना नहीं छोड़ा। इसलिए वे अपने देष से निर्वासित किये गये और सारी पृथ्वी पर बिखेरे गये।
17) बहुत कम लोग बच गये और दाऊद के घराने का एक शासक शेष रहा।
18) उन में कुछ लोगों ने वही किया, जो प्रभु के प्रिय है, किन्तु अन्य लोग पाप करते रहे।
19) हिजकीया ने अपने नगर को किलाबन्द किया और वे उसके भीतर पानी लाये। उन्होंने लोहे के औजारों से चट्टान खुदवा कर जलाषय बनवाये।
20) उनके राज्यकाल में सनहेरीब ने आक्रमण किया। उसने अपने प्रधान रसद-प्रबन्धक को भेजा, जिसने सियोन पर हाथ उठाया और अपने घमण्ड में ईष्वर की निन्दा की।
21) तब उनका हृदय और उनके हाथ काँपने लगे और उन्हें प्रसव-पीड़िता की-सी वेदना होने लगी;
22) उन्होंने हाथ पसार कर दयालु प्रभु से प्रार्थना की और परमपावन प्रभु ने शीघ्र ही उनकी सुनी।
23) उसने उनके पापों को याद नहीं किया। उसने उन्हें शत्रुओं के हाथ नही पड़ने दिया और उन्हें इसायाह द्वारा छुड़ाया।
24) उसने अस्सूरियों का षिविर उजाड़ा और अपने दूतों द्वारा उनका विनाष किया।
25) हिजकीया ने वही किया, जो प्रभु को प्रिय है और वे अपने पिता दाऊद के मार्ग के प्रति ईमानदार रहे, जिनका निर्देष नबी इसायाह करते थे जो एक महान् और विष्वसनीय दृष्टा प्रमाणित हुए।
26) इसायाह के दिनों में सूर्य के पीछे हटने पर राजा का जीवन बढ़ा दिया गया।
27) इसायाह ने दिव्य शक्ति से प्रेरित हो कर अन्तिम दिनों के दृष्यों का दर्षन किया, उन्होंने सियोन में शोक मनाने वालों को सान्त्वना दी, अनन्त काल तक का भविष्य घोषित किया
28) और घटित होने के पूर्व गुप्त बातों को प्रकट किया।

अध्याय 49

1) योषीया की स्मृति एक सुगन्धित मिश्रण है, जिसे अत्तार की कला ने तैयार किया है।
2) उनकी स्मृति प्रत्येक के मुँह में मधु की तरह मधुर है, अंगूरी की दावत में संगीत की तरह।
3) उन्हें हमारे धर्मत्याग का दुःख था और उन्होंने हमारा घृणित आचरण समाप्त किया।
4) उन्होनें अपना हृदय प्रभु की ओर अभिमुख किया और पाप के युग में उनकी भक्ति दृढ़ बनी रही।
5) दाऊद, हिजकीया और योषीया को छोड़ कर सब-के-सब पाप-पर-पाप करते रहे;
6) क्योंकि यूदा के सभी राजाओें ने सर्वोच्च प्रभु की संहिता का परित्याग किया।
7) उनका राज्य दूसरों के हाथ चला गया और उनकी महिमा विदेषियों को दी गयी।
8) विदेषियों ने मन्दिर का पावन नगर जलाया और यिरमियाह के कारण उसकी सड़के उजाड़ी;
9) क्योंकि उन्होंने उन पर अत्याचार किया, यद्यपि माता के गर्भ में ही उनका अभिषेक नबी के रूप में हुआ था, जिससे उन्हें उखाड़ने, गिराने एवं नष्ट करने का और इसके बाद निर्माण करने और रोपने का अधिकार मिला था।
10) एजेकिएल ने एक दिव्य दर्षन देखा, जिसे प्रभु ने उन्हें केरूबों के रथ पर दिखाया।
11) उन्होंने अय्यूब का स्मरण दिलाया, जो अन्त तक सन्मार्ग से नहीं भटके।
12) बारह नबियों की हड्डियॉ अपने स्थान पर खिल उठे, क्योंकि उन्होंने याकूब को ढारस बँधाया और अपनी ईमानदारी से उसका उद्धार किया!
13) हम जरूबबाबेल की प्रषंसा कैसे करें? वह दाहिने हाथ की मुद्रिका-जैसे थे।
14) योसादाक के पुत्र येषूआ उनके सदृष थे। दोनों ने अपने जीवनकाल में वेदी स्थापित की और प्रभु के नाम पर वह मन्दिर बनवाया, जो उसकी अनन्त महिमा को अर्पित है।
15) नहेम्या की स्मृति भी अमिट है। उन्होनें हमारी गिरायी हुई दीवारों का पुनर्निर्माण किया, उन में फाटक एवं अर्गल लगवाये और हमारे घर फिर से बनवाये।
16) हनोक के सदृष पृथ्वी पर किसी की सृष्टि नहीं हुई; क्योंकि वह पृथ्वी पर से सषरीर उठा लिये गये।
17) यूसुफ के सदृष भी कोई मनुष्य नहीं जन्मा। वह अपने भाईयों के नेता और अपने लोगों के सहायक थे।
18) उनकी हड्डियों का सम्मान किया गया और उन्होंने उनकी मृत्यु के बाद भविष्यवाणी की।
19) सेम और सेत मनुष्योंें मेें यषस्वी थे, किन्तु आदम सृष्टि के सभी प्राणियोें मेें श्रेष्ठ है।

अध्याय 50

1) ओनियस के पुत्र प्रधानयाजक सिमोन ने अपने जीवनकाल में निवास का पुनर्निर्माण किया और अपने दिनों में मन्दिर को सुदृढ़ बनाया।
2) उनके दिनों में राजमहल के पास दीवार और मन्दिर की मीनारोें का निर्माण किया गया।
3) उनके दिनों में एक जलकुण्ड खोदा गया, एक तालाब, जो समुद्र-जैसा विस्तृत था।
4) उन्होंने अपने लोगो को विनाष से बचाया और शत्रुओें के विरुद्ध नगर को किलाबन्द किया।
5) वह कितने देदीप्यमान थे, जब वह परमपावन् स्थान से, मन्दिर के परदे के पीछे से निकलते थे!
6) वह बादलों के बीच प्रभात-तारे के सदृष थे, पूर्णिमा के दिनों में चन्द्रमा के सदृष,
7) राजमहल पर चमकते हुए सूर्य के सदृष,
8) महिमामय बादलों के बीच इन्द्रधनुष के सदृष, वसन्त के समय गुलाब के फूल के सदृष, जलस्रोत के निकट सोसन के सदृष, ग्रीष्म-ऋतु में लेबानोन की हरियाली के सदृष,
9) धूपदान में जलते लोबान के सदृष,
10) मणियों से जटित ठोस सोने के पात्र के सदृष,
11) फलां से लदे जैतून-वृक्षों के सदृष, गगनचुम्बी सरू-वृक्ष के सदृष। जब वह भव्य वस्त्र पहन कर और अमूल्य आभूषण धारण कर
12) पवित्र वेदी की ओर बढ़ते थे, तो वह मन्दिर के प्रांगण को महिमान्वित करते थे।
13) जब वह वेदी के अग्निकुण्ड के निकट खड़े हो कर याजकों के चढ़ावे स्वीकार करते थे, तो उनके भाई-बन्धु लेबानोन के देवदारों की तरह,
14) खजूर के वृक्षों की तरह उन्हें चारों ओर से घेरे रहते थे। सुन्दर वस्त्रों से सुषोभित हारून के सभी पुत्र,
15) प्रभु का चढ़ावा अपने हाथ में लिये इस्राएल के सारे समुदाय के सामने एकत्र थे। सिमोन वेदी को सजा कर और उस पर सर्वषक्तिमान् का चढ़ावा रख कर,
16) पात्र की ओर बढ़ाते और अंगूर-रस का अर्य अर्पित करते थे।
17) वह उसे सर्वोच्च और सर्वषक्तिमान् प्रभु को सुगन्ध चढ़ावे के रूप में वेदी के आधार पर उँड़ेलते थे।
18) तब हारून के पुत्र प्रभु को स्मरण कराने के लिए ऊँचे स्वर में पुकारते और धातु की तुरहियाँ बजाते थे।
19) इस सब पर लोग एक साथ मुँह के बल गिर कर सर्वषक्तिमान् सर्वोच्च प्रभु की आराधना करते
20) और गायक अपने भजनों से उसकी स्तुति करते थे। उनका मधुर गान दूर-दूर तक गूँजता था।
21) जब तक प्रभु का समारोह समाप्त नहीं हुआ और लोगों ने अपना कर्तव्य पूरा नहीं किया, तब तक वे दयासागर के सामने नतमस्तक हो कर सर्वोच्च प्रभु से प्रार्थना करते रहे।
22) इसके बाद सिमोन नीचे उतर कर और सारे इस्राएली समुदाय के ऊपर हाथ फैला कर अपने होंठों से प्रभु की ओर से आषीर्वाद देते थे और उसके नाम का उच्चारण कर अपने को धन्य समझते थे।
23) लोग सर्वषक्तिमान् का आषीर्वाद प्राप्त करने के लिए दूसरी बार मुँह के बल गिरते थे।
24) आओ! सर्वेष्वर को धन्य कहो। वह सर्वत्र महान् कार्य करता है। वह माता के गर्भ से मनुष्य का विकास करता है और अपनी इच्छा के अनुसार उसे गढ़ता हैं
25) वह हमारे हृदय को आनन्द प्रदान करे और हमारे समय में भी पहले की तरह इस्राएल में सदा के लिए शान्ति बनाये रखे।
26) उसकी कृपादृष्टि हम पर बनी रहे और हमारे दिनों में हमारा उद्धार करे।
27) मेरी आत्मा को दो राष्ट्रों से घृणा है और तीसरा राष्ट्र कहलाने योग्य नहीं।
28) सेईर पर्वत के निवासी, फिलिस्तीनी ओैर सिखेम में रहने वाले मूर्ख लोग।
29) येरुसालेम-निवासी, एलआजार के तीन पौत्र, सीरह के पुत्र येषूआ ने, अपने हृदय का भण्डार खोल कर, इस ग्रन्थ में प्रज्ञा और ज्ञान की षिक्षा को लिपिबद्ध किया।
30) धन्य है वह, जो इसका मनन करेगा! जो इसे अपने हृदय में धारण करेगा, उसे प्रज्ञा प्राप्त होगी।
31) जो इसके अनुसार आचरण करेगा, वह सब कुछ करने में समर्थ होगा; क्योंकि प्रभु पर श्रद्धा उसका पथप्रदर्षन करेगी।

अध्याय 51

1) प्रभु! मेरा राजा! मैं तुझे धन्य कहँॅगा। ईष्वर! मेरे मुक्तिदाता! मैं तेरी स्तुति करूँगा।
2) मैं तुझे धन्यवाद देता हूँ; क्योंकि तू मेरी रक्षा और सहायता करता रहा।
3) तूने मुझे सर्वनाष से, छल-कपट करने वालोें के फन्दे से और झूठ बोलने वालों के षड्यन्त्र से बचाया है। तू मेरे शत्रुओं के विरुद्ध मेरा सहारा रहा।
4) अपनी असीम दया तथा महिमामय नाम के अनुरूप तूने इन सब बातों से मेरी रक्षा की है-
5) भक्षकों के दाँतों से, हत्या पर उतारू लोगों के पंजों से, आ पड़ने वाली असंख्य विपत्तियोें से,
6) घेरने वाली आग के धुएँ से, उस अग्नि-ज्वाला से, जिसे मैंने नहीं जलाया,
7) अधोलोक के गर्त्त से, कपटी जीभ की निन्दा से और मुझ पर लगाये हुए मिथ्यावाद से।
8) मृत्यु मेरे निकट आ गयी थी,
9) मैं अधोलोक के फाटक तक पहुँच गया था।
10) उन्होंने मुझे चारों ओर से घेर लिया था। मेरा कोई सहायक नहीं था। कोई भी मनुष्य मुझे सँभालने के लिए तैयार नहीं था।
11) प्रभु! तब मैंने तेरी दयालुता और पहले किये हुए तेरे कार्यों का स्मरण किया-
12) तू अपने पर भरोसा रखने वालों की रक्षा करता और उन्हें उनके शत्रुओं के पंजे से छुड़ाता है।
13) मैंने पृथ्वी पर से प्रभु की दुहाई दी और मृत्यु से रक्षा की प्रार्थन की।
14) मैने कहा, ''प्रभु! तू मेरा पिता है! घमण्डी शत्रुओं के सामने, मुझे विपत्ति के दिन, असहाय नहीं छोड़।
15) मैं निरन्तर तेरा नाम धन्य कहूँगा, मैं धन्यवाद के गीत गाता रहूँगा।'' मेरी प्रार्थना सुनी गयी,
16) क्योंकि तूने मुझे विनाष से बचाया और विपत्ति से मेरा उद्धार किया।
17) इस कारण मैं तेरा धन्यवाद और तेरी स्तुति करूँगा, मैं प्रभु का नाम धन्य कहूँगा।
18) अपनी यात्राएँ प्रारम्भ करने से पहले मैं युवावस्था में आग्रह के साथ प्रज्ञा के लिए प्रार्थना करता था।
19) मैं मन्दिर के प्रांगण में उसके लिए अनुरोध करता था और अन्त तक उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करता रहूँगा। वह फलते-फूलते हुए अंगूर की तरह मुझ मेें विकसित हो कर
20) मुझे आनन्दित करती रही। मैं सीधे मार्ग पर आगे बढ़ता गया और बचपन से ही प्रज्ञा का अनुगामी बना।
21) मैंने थोड़े समय तक उस पर कान दिया था।
22) और मुझे प्रचुर मात्रा में षिक्षा मिली। मैं उसी के कारण प्रगति कर सका।
23) जिसने मुझे प्रज्ञा प्रदान की है, मैं उसकी महिमा करूँगा।
24) मैंने प्रज्ञा के अनुसार आचरण करने का निष्चय किया। मैं भलाई करता रहा। मुझे कभी लज्जित नहीं होना पड़ेगा।
25) मैं प्रज्ञा प्राप्त करने के लिए पूरी शक्ति से प्रयास करता रहा। और संहिता के पालन में ईमानदार रहा।
26) मैंने आकाष की ओर हाथ ऊपर उठाया और अपनी नासमझी पर दुःख प्रकट किया।
27) मै उत्सुकता से प्रज्ञा को खोजता रहा और अपने सदाचरण के कारण मैंने उसे पाया।
28) मुझे प्रारम्भ से उसके द्वारा विवेक मिला, इसलिए मुझे कभी परित्यक्त नहं किया जायेगा।
29) मैं पूरी शक्ति से उसकी खोज करता रहा और मुझे एक अमूल्य निधि प्राप्त हुई।
30) प्रभु ने पुरस्कार के रूप में मुझे कुषल जिह्वा प्रदान की और मैं उस से उसका यष गाऊँगा।
31) तुम, जो अषिक्षित हो, मेरे पास आओ और षिक्षा के घर में एकत्र हो जाओ।
32) देर क्यों करते हो, जब कि तुम्हारी आत्माएँ उसके लिए तरस रही हैं?
33) मैं मुँह खोल कर बोलता हूँ: ''मुफ्त में प्रज्ञा प्राप्त करो।
34) तुम जूए के नीचे गरदन झुकाओ। तुम्हारा हृदय षिक्षा ग्रहण करे; क्योंकि वह तुम्हारे लिए प्रस्तुत है।
35) तुम अपनी आँखों से देख सकते हो कि मुझे उसके लिए कम परिश्रम करना पड़ा और मुझे बहुत शान्ति मिली।
36) षिक्षा ग्रहण करो; तुम उसके द्वारा बहुत चाँदी और सोना प्राप्त करोगे।
37) तुम प्रभु की दया के कारण आनन्द मनाओ और उसकी स्तुति करने में लज्जा का अनुभव मत करो।
38) समय समाप्त होने से पहले अपना कार्य पूरा करो और समय आने पर प्रभु तुम को पुरस्कार प्रदान करेगा।''