पवित्र बाइबिल : Pavitr Bible ( The Holy Bible )

पुराना विधान : Purana Vidhan ( Old Testament )

प्रज्ञा-ग्रन्थ ( Wisdom )

अध्याय 1

1) पृथ्वी के शासको! न्याय से प्रेम रखो। प्रभु के विषय में ऊँचे विचार रखो और निष्कपट हृदय से उसे खोजते रहो;
2) क्योंकि जो उसकी परीक्षा नहीं लेते, वे उसे प्राप्त करते हैं। प्रभु अपने को उन लोगों पर प्रकट करता है, जो उस पर अविष्वास नहीं करते।
3) कुटिल विचार मनुष्य को ईष्वर से दूर करते हैं। सर्वषक्तिमत्ता उन मूर्खों को पराजित करती है, तो उसकी परीक्षा लेते हैं।
4) प्रज्ञा उस आत्मा में प्रवेष नहीं करती, जो बुराई की बातें सोचती है और उस शरीर में निवास नहीं करती, जो पाप के अधीन है;
5) क्योंकि षिक्षा प्रदान करने वाला पवित्र आत्मा छल-कपट से घृणा करता है। वह मूर्खतापूर्ण विचारों को तुच्छ समझता और अन्याय से अलग रहता है।
6) प्रज्ञा मनुष्य का हित तो चाहती है, किन्तु वह ईषनिन्दक को उसके शब्दों का दण्ड दिये बिना नहीं छोड़ेगी; क्योंकि ईष्वर मनुष्य के अन्तरतम का साक्षी है। वह उसके हृदय की थाह लेता और उसके मुख के सभी शब्द सुनता है।
7) प्रभु का आत्मा संसार में व्याप्त है। वह सब कुछ को एकता में बाँधे रखता है और मनुष्य जो कुछ कहते हैं, वह सब जानता है।
8) इसलिए जो दुष्टतापूर्ण बातें करते हैं, वे छिप नहीं सकते और न्यायकर्ता उन्हें अवष्य दण्ड देगा।
9) दुष्ट की योजनाओं की जाँच की जायेगी और उसके शब्दों की आवाज प्रभु तक पहुँचेगी, जिससे उसे उसके अपराधों का दण्ड दिया जाये।
10) धर्मोत्साही कान सब कुछ सुनता है; धीमी फुसफुसाहट भी उस से नहीं छिप सकती।
11) इसलिए व्यर्थ फुसफुसाहट से बचते रहो; अपनी जीभ की परनिन्दा नहीं करने दो; क्योंकि गुप्त में कही बात व्यर्थ नहीं जाती और झूठ बोलने वाला मुख आत्मा का विनाष करता है।
12) अपने असंयम से मृत्यु को मत बुलाओ; अपने कर्मर्ाें से अपने विनाष का कारण मत बनो।
13) ईष्वर ने मृत्यु नहीं बनायी; वह प्राणियों की मृत्यु से प्रसन्न नहीं होता।
14) उसने सब कुछ की सृष्टि इसलिए की है कि वह अस्तित्व में बना रहे। संसार में जो कुछ है, वह हितकर है; उस में कहीं भी घातक विष नहीं। अधोलोक पृथ्वी पर शासन नहीं करता;
15) क्योंकि न्याय का कभी अन्त नहीं होगा।
16) दुष्टों ने अपने कर्मों और वचनों से अधोलोक को निमन्त्रण दिया। वे उसे मित्र समझ कर उसकी लालसा करते रहे उन्होंने उसके साथ सन्धि कर ली; इसलिए वे उसके षिकार बनने योग्य हैं।

अध्याय 2

1) विधर्मी कुतर्क करते हुए आपस में यह कहते थे : ''हमारा जीवन अल्पकालिक और दुःखमय है। जब मनुष्य मरने को हो, तो कोई उपचार नहीं और हमारी जानकारी में कोई कभी अधोलोक से नहीं लौटा।
2) हमने संयोग से जन्म लिया और बाद में ऐसा होगा, मानो हम कभी थे ही नहीं! हमारी साँस मात्र धुआँ है और हमारे विचार हमारे हृदय की धड़कन की चिनगारी!
3) चिनगारी बुझ जाने पर शरीर राख बनेगा और प्राण शून्य आकाष में लुप्त हो जायेंगे।
4) हमारा नाम समय पाकर भुला दिया जायेगा। हमारे कार्यों को कोई भी याद नहीं करेगा। हमारा जीवन बादल के मार्ग की तरह मिट जायेगा। वह कुहरे की तरह विलीन हो जायेगा, जो सूर्य की किरणों से छितराया और उसकी गरमी से लुप्त हो जाता है।
5) हमारा जीवनकाल छाया की तरह गुजरता है, हमारा अन्त टाला नहीं जा सकता : उस पर मुहर लग चुकी है और कोई नहीं लौटता।
6) ''इसलिए आओ, हम जब तक जवान है, उत्सुकता से वर्तमान की अच्छी चीजों का उपभोग करेेंें।
7) हम उत्तम अंगूरी और इत्र का पूरा-पूरा आनन्द उठाये; हम वसन्त के फूल हाथ से न जाने दें।
8) इससे पहले कि गुलाब की कलियाँ मुरझायें , हम उनका मुकुट गूँथ कर पहन लें।
9) कोई भी हमारे आनन्दोत्सव से अलग न रहे; हम सर्वत्र अपने आमोद-प्रमोद की निषानी छोड़े; क्योंकि यही हमारा हिस्सा है, यही हमारा भाग्य है।
10) ''हम दरिद्र धर्मात्मा पर अत्याचार करें। हम विधवा को भी नहीं छोड़ें और वृद्ध के पके बालों का आदर नहीं करें।
11) हमारी शक्ति हमारे न्याय का मापदण्ड हो, क्योंकि दुर्बलता किसी काम की नहीं।
12) ''हम धर्मात्मा के लिए फन्दा लगायें, क्योंकि वह हमें परेषान करता और हमारे आचरण का विरोध करता है। वह हमें संहिता भंग करने के कारण फटकारता है और हम पर हमारी षिक्षा को त्यागने का अभियोग लगाता है।
13) वह समझता है कि वह ईष्वर को जानता है और अपने को प्रभु का पुत्र कहता है।
14) वह हमारे विचारों के लिए एक जीवित चुनौती है। उसे देखने मात्र से हमें अरूचि होती है।
15) उसका आचरण दूसरों-जैसा नहीं और उसके मार्ग भिन्न हैं।
16) वह हमें खोटा और अपवित्र समझ कर हमारे सम्पर्क से दूर रहता है। वह धर्मियों की अन्तगति को सौभाग्यषाली बताता और शेखी मारता है कि ईष्वर उसका पिता है।
17) हम यह देखें कि उसका दावा कहाँ तक सच है; हम यह पता लगायें कि अन्त में उसका क्या होगा।
18) यदि वह धर्मात्मा ईष्वर का पुत्र है, तो ईष्वर उसकी सहायता करेगा और उसे उसके विरोधियों के हाथ से छुड़ायेगा।
19) हम अपमान और अत्याचार से उसकी परीक्षा ले, जिससे हम उसकी विनम्रता जानें और उसका धैर्य परख सकें।
20) हम उसे घिनौनी मृत्यु का दण्ड दिलायें, क्योंकि उसका दावा है, कि ईष्वर उसकी रक्षा करेगा।''
21) वे ऐसा सोचते थे, किन्तु यह उनकी भूल थी। उनकी दुष्टता ने उन्हें अन्धा बना दिया था।
22) वे ईष्वर के रहस्य नहीं जानते थे। वे न तो धार्मिकता के प्रतिफल में विष्वास करते थे और न धर्मात्माओं के पुरस्कार मेंं।
23) ईष्वर ने मनुष्य को अमर बनाया; उसने उसे अपना ही प्रतिरूप बनाया।
24) शैतान की ईर्ष्या के कारण ही मृत्यु संसार में आयी है। जो लोग शैतान का साथ देते हैं, वे अवष्य ही मृत्यु का षिकार हो जाते हैं।

अध्याय 3

1) धर्मियों की आत्माएँ ईष्वर के हाथ में हैं। उन्हें कभी कोई कष्ट नहीं होगा।
2) मूर्ख लोगों को लगा कि वे मर गये हैं। वे उनका संसार से उठ जाना घोर विपत्ति मानते थे।
3) और यह समझते थे कि हमारे बीच से चले जाने के बाद उनका सर्वनाष हो गया है; किन्तु धर्मियों को शान्ति का निवास मिला है।
4) मनुष्यों को लगा कि विधर्मियों को दण्ड मिल रहा है, किन्तु वे अमरत्व की आषा करते थे।
5) थोड़ा कष्ट सहने के बाद उन्हें महान् पुरस्कार दिया जायेगा। ईष्वर ने उनकी परीक्षा ली और उन्हें अपने योग्य पाया है।
6) ईष्वर ने घरिया में सोने की तरह उन्हें परखा और होम-बलि की तरह उन्हें स्वीकार किया।
7) ईष्वर के आगमन के दिन वे ठूँठी के खेत में धधकती चिनगारियों की तरह चमकेंगे।
8) वे राष्ट्रों का शासन करेंगे; वे देषों पर राज्य करेंगे, किन्तु प्रभु सदा-सर्वदा उनका राजा बना रहेगा।
9) जो ईष्वर पर भरोसा रखते हैं, वे सत्य को जान जायेंगे; जो प्रेम में दृढ़ रहते हैं, वे उसके पास रहेंगे; क्योंकि जिन्हें ईष्वर ने चुना है, वे कृपा तथा दया प्राप्त करेंगे।
10) किन्तु अधर्मियों को उनके विचारों के योग्य दण्ड दिया जायेगा; क्योंकि उन्होंने धर्मी का तिरस्कार और प्रभु का परित्याग किया।
11) जो प्रज्ञा और अनुषासन को तुच्छ समझते, वे अभागे हैं; उनकी आषा निराधार है, उनका परिश्रम व्यर्थ है और उनके कार्य निष्फल है।
12) उनकी पत्नियाँ मूर्ख, उनके बच्चे दुष्ट, उनके वंषज अभिषप्त हैं।
13) धन्य है बाँझ स्त्री, जो अषुद्ध नहीं हुई, जिसने व्यभिचार नहीं किया! आत्माओं के विचार के दिन वह फलवती होगी।
14) धन्य है नपुंसक, जिसके हाथ ने बुराई नहीं की, जिसने प्रभु के विरुद्ध दुष्ट विचार नहीं पाले! उसे अपनी ईमानदारी का विषिष्ट पुरस्कार और प्रभु के मन्दिर मेें सुखद भाग प्राप्त होगा;
15) क्योंकि भले कामों का फल महिमामय है और उनकी जड़, प्रज्ञा अविनष्वर है।
16) व्यभिचारियों की सन्तान प्रौढ़ता तक नहीं पहुँचेगी। अवैध संसर्ग से उत्पन्न वंषज नष्ट हो जायेंगे।
17) यदि उन्हें लम्बी आयु मिली, तो उन्हें सम्मान नहीं मिलेगा और वे अन्त तक, बुढ़ापे तक तिरस्कृत होंगे।
18) यदि वे शीघ्र ही मर जायेंगे, तो विचार के दिन उन्हें न आषा होगी और न सान्त्वना मिलेगी ;
19) क्योंकि दुष्ट वंष का अन्त दुःखद है।

अध्याय 4

1) इसकी अपेक्षा सद्गुणी होकर निस्सन्तान रहना कहीं अच्छा है, क्योंकि सद्गुण की स्मृति बनी रहती है। ईष्वर और मनुष्य, दोनों उसका सम्मान करते हैं।
2) जब तक सद्गुण विद्यमान है, लोग उसका अनुसरण करते हैं। जब वह चला जाता है, तो लोग उसकी अभिलाषा करते हैं। परलोक में उसकी शोभा-यात्रा मनायी जाती है, जिसमेंं वह विजय का मुकुट पहन कर चलता है; क्योंकि उसे अविनाषी पुरस्कारों की प्रतियोगिता में सफलता मिली है।
3) किन्तु दुष्टों की बहुसंख्यक सन्तति व्यर्थ होगी। उनकी जारज सन्तान जड़ नहीं पकड़ेगी, उसे कोई सुदृढ़ आधार नहीं मिलेगा।
4) यदि उसकी शाखाओं में कुछ समय तक टहनियाँ फूटेगी, तो वे सुदृढ़ नहीं होंगी; हवा उन्हें झकझोर देगी और आँधी उन्हें उखाडेगी।
5) उनकी अविकसित टहनियाँ टूट जायेगी, उनका फल बेकार होगा। वह इतना कच्चा होगा कि खाया नहीं जा सकता। वह किसी काम का नहीं होगा।
6) जाँच होने पर जारज सन्तान अपने माता-पिता की दुष्टता का साक्ष्य देती है।
7) यदि धर्मी मनुष्य असमय मर जाये, तो वह शान्ति पायेगा,
8) क्योंकि जो वृद्धावस्था आदरणीय है, वह न तो लम्बी आयु पर निर्भर करती है और न केवल वर्षों की संख्या पर।
9) जो मनुष्य बुद्धिमान् है, उसी के बाल सफेद समझो और जिसका जीवन निर्दोष है, उसी को वयोवृद्ध मान लो।
10) ईष्वर उस पर प्रसन्न था और उसे प्यार करता था, इसलिए ईष्वर ने उसे पापियों के बीच में से उठा लिया।
11) वह इसीलिए उठा लिया गया कि कहीं उसकी बुद्धि का विकार न हो जाये और कपट उसकी आत्मा को नहीं बहकायें;
12) क्योंकि बुराई का सम्मोहन भलाई को धुँधलाता है और लालच की तीव्रता सरल हृदय को दूषित करती है।
13) वह थोड़े समय में पूर्ण कर लम्बी आयु तक पहुँच गया है।
14) उसकी आत्मा प्रभु को प्रिय थी, इसलिए प्रभु ने उसे शीघ्र ही चारोें ओर की बुराई में से निकाल लिया है। लोग यह बात देख कर नहीं समझे।
15) वे यह नहीं जानते हैं, कि प्रभु अपने भक्तोेंें की रक्षा करता है।
16) मरने वाला धर्मी जीवित रहने वाले दुष्ट को दोषी ठहराया है और शीघ्र पूर्णता प्राप्त करने वाला नवयुवक दुष्ट की लम्बी आयु पर दोष लगाता है।
17) लोग ज्ञानी की मृत्यु देखेंगे, किन्तु वे उसके विषय में ईष्वर का प्रयोजन नहीं समझेंगे और यह भी नहीं कि ईष्वर ने उसे क्यों सुरक्षित रखा।
18) वे यह देखेंगे और उसकी उपेक्षा करेंगे, किन्तु प्रभु उनका उपहास करेगा।
19) बाद में वे तिरस्कृत शव बनेंगे और मृतकों में सदा के लिए निन्दा के पात्र होंगे। प्रभु उन्हें टुकड़े-टुकड़े कर देगा और वे एक शब्द भी नहीं बोल पायेंगे। वह उन्हें उखाड़ कर फेंक देगा। उनका सर्वनाष किया जायेगा, उन्हें दुःख भोगना पड़ेगा और उनकी स्मृति तक शेष नहीं रहेगी।
20) जब उनके पापों का लेखा लगाया जायेगा, तो वे डरते-काँपते आयेंगे। उनके कुकर्म उनके सामने खड़े होकर उन पर दोष लगायेंगे।

अध्याय 5

1) उस समय धर्मी आत्मविष्वास के साथ उन लोगों के सामने खड़े हो जायेंगे, जो उन पर अत्याचार करते और उनके परिश्रम को तुच्छ समझते थे।
2) दुष्ट उसे देख आतंकित होकर काँपने लगेंगे और वे उसके अप्रत्याषित कल्याण पर आष्चर्यचकित होंगे।
3) वे मन-ही-मन पष्चात्ताप करेंगे और दुःखी होकर कराहते हुए कहेंगेः
4) ''यह वही है, जिसकी हम हँसी उड़ाते थे, जिस पर हम ताना मारते थे। हम मूर्खतावष उसके जीवन को पागलपन और उसकी मृत्यु को अपमानजनक समझते थे।
5) वह ईष्वर के पुत्रों में कैसे सम्मिलित किया गया? वह कैसे सन्तों का सहभागी बना?
6) इसलिए हम सत्य के मार्ग से भटक गये, न्याय के प्रकाष ने हमें आलोकित नहीं किया और सूर्य हम पर उदित नहीं हुआ।
7) हम अन्याय और विनाष के पथ पर भटकते रहे, हमने मार्गहीन मरुभूमियों को पार किया, किन्तु हमें प्रभु के मार्ग का पता नहीं था।
8) घमण्ड से हमें क्या लाभ हुआ? जिस सम्पत्ति पर हमें गर्व था, उसने हमें क्या दिया?
9) यह सब छाया की तरह, उड़ती अफवाह की तरह बीत गया,
10) समुद्र की लहरों पर चलने वाले जहाज की तरह, जिसके पारगमन का कहीं निषान नहीं, जिसके पेंदे के मार्ग की कहीं खोज नहीं ;
11) या पक्षी की तरह, जो हवा में उड़ते हैं, जिसके मार्ग की कोई खोज नहीं। वह हवा में पंख फड़फड़ाता और उसे अपने पंखों की पूरी शक्ति से चीरता, किन्तु बाद में वहाँ उसकी उड़ान का कोई निषान नहीं,
12) या बाण की तरह, जो निषाने पर चलाया जाता है। हवा उस से चिर जाती, किन्तु वह तुरन्त जुड़ जाती है। जिससे उसके मार्ग का कोई पता नहीं चलता।
13) इसी तरह हम जन्म के बाद तुरन्त लुप्त हो गये और अपने सद्गुणों को कोई चिन्ह नहीं दिखा सके। हम अपने दुर्गुणों द्वारा समाप्त हो गये।''
14) सच! दुष्ट की आषा भूसी-जैसी है, जो पवन द्वारा उड़ायी जाती है ; हलके फेन-जैसी है, जो आँधी द्वारा छितराया जाता है; धुएँ-जैसी है, जिसे पवन उड़ा ले जाता है; एक दिन के मेहमान-जैसी है, जिसे कोई याद नहीं करता।
15) किन्तु धर्मी सदा के लिए जीवित रहेंगे। उनका पुरस्कार प्रभु के हाथ में है और सर्वोच्च ईष्वर उनकी देखरेख करता है।
16) वे प्रभु के हाथ से महिमामय राजत्व और भव्य मुकुट ग्रहण करेंगे; क्योंकि वह अपने दाहिने हाथ से और अपने भुजबल से उनकी रक्षा करेगा।
17) वह अपने धर्मोत्साह के शस्त्र पहनेगा और अपनी सृष्टि द्वारा अपने शत्रुओं को दण्डित करेगा।
18) वह न्याय का कवच धारण करेगा और अपरिवर्तनीय निर्णय का टोप पहनेगा।
19) वह अजेय पवित्रता की ढाल
20) और अनम्य क्रोध की तलवार धारण करेगा। समस्त सृष्टि उसके साथ मूखोर्ं के विरुद्ध युद्ध करेगी।
21) चढ़े हुए धनुष से जैसे बाण सीधे लक्ष्य पर लग जाते हैं, वैसे ही बादलों से बिजली निकलेगी।
22) उसका क्रोध गोफन की तरह भारी ओले बरसायेगा। समुद्र की लहरें उन पर आक्रमण करेंगी और नदियों की बाढ़ उन को ढ़क देगी।
23) घोर आँधी उन पर टूट पड़ेगी और बवण्डर उन्हें छितरा देगा। अराजकता पृथ्वी को उजाड़ कर देगी और कुकर्म शासकों के सिंहासन गिरायेंगे।

अध्याय 6

1) राजाओेंें! सुनो और समझो। पृथ्वी भर के शासको! षिक्षा ग्रहण करो।
2) तुम, जो बहुसंख्यक लोगों पर अधिकार जताते हो और बहुत-से राष्ट्रों का शासन करने पर गर्व करते हो, मेरी बातों पर कान दो ;
3) क्योंकि प्रभु ने तुम्हें प्रभुत्व प्रदान किया, सर्वोच्च ईष्वर ने तुम्हे अधिकार दिया। वही तुम्हारे कार्यों का लेखा लेगा और तुम्हारे विचारोें की जाँच करेगा।
4) तुम उसके राज्य के सेवक मात्र हो। इसलिए यदि तुमने सच्चा न्याय नहीं किया, विधि का पालन नहीं किया और ईष्वर की इच्छा पूरी नहीं की,
5) तो वह भीषण रूप मेें अचानक तुम्हारे सामने प्रकट होगा; क्योंकि उच्च अधिकारियोें का कठोर न्याय किया जायेगा।
6) जो दीन-हीन है, वह क्षमा और दया का पात्र है; किन्तु जो शक्तिषाली है, उनकी कड़ी परीक्षा ली जायेगी।
7) सर्वेष्वर पक्षपात नहीं करता और बड़ों के सामने नहीं झुकता; क्योंकि उसी ने छोटे और बड़े, दोनों को बनाया और वह सब का समान ध्यान रखता है,
8) किन्तु शक्तिषालियों की कठोर परीक्षा ली जायेगी।
9) इसलिए शासको! मैं तुम्हे षिक्षा देता हूँ, जिससे तुम प्रज्ञा प्राप्त करो और विनाष से बचे रहो;
10) क्योंकि जो पवित्र नियमों का श्रद्धापूर्वक पालन करते हैं, वे पवित्र माने जायेंगे और जो उन नियमों से षिक्षा ग्रहण करेंगे, वे उनके आधार पर अपनी सफाई दे सकेंगे।
11) इसलिए मेरी इन बातों को अपनाओ और इनका मनन करो, जिससे तुम्हें षिक्षा प्राप्त हो।
12) प्रज्ञा देदीप्यमान है। वह कभी मलिन नहीं होती। जो लोग उसे प्यार करते हैं, वे उसे सहज ही पहचानते हैं। जो उसे खोजते है, वे उसे प्राप्त कर लेते हैं।
13) जो उसे चाहते हैं, वह स्वयं आ कर उन्हें अपना परिचय देती है।
14) जो उसे खोजने के लिए बड़े सबेरे उठते हैं, उन्हें परिश्रम नहीं करना पड़ेगा। वे उसे अपने द्वार के सामने बैठा हुआ पायेंगे।
15) उस पर मनन करना बुद्धिमानी की परिपूर्णता है। जो उसके लिए जागरण करेगा, वह शीघ्र ही पूर्ण शान्ति प्राप्त करेगा।
16) वह स्वयं उन लोगो की खोज में निकलती है, जो उसके योग्य है। वह कृपापूर्वक उन्हें मार्ग में दिखाई देती है और उनके प्रत्येक विचार में उन से मिलने आती है।
17) षिक्षा की सदिच्छा प्रज्ञा का प्रारम्भ है।
18) षिक्षा की सदिच्छा प्रज्ञा का प्रेम है। षिक्षा का प्रेम उसकी आज्ञाओें का पालन है। उसकी आज्ञाओं के पालन में अमरता है।
19) अमरता ईष्वर के निकट पहुँचाती है
20) इसलिए प्रज्ञा की सदिच्छा राजत्व दिलाती है।
21) राष्ट्रों के शासको! यदि तुम्हें सिंहासन और मुकुट प्रिय है, तो प्रज्ञा पर श्रद्धा रखो, जिससे तुम अनन्त काल तक राज्य कर सको।
22) प्रज्ञा क्या है और वह कहाँ से उत्पन्न होती है- मैं यह प्रकट करूँगा। मैं तुम से रहस्य नहीं छिपाऊँगा। मैं उसकी उत्पत्ति के रहस्य का पता लगाऊँगा। मैं उसके विषय में अपनी जानकारी प्रकाष में लाऊँगा और सत्य के मार्ग से नहीं भटकूँगा।
23) मैं घुलाने वाली ईर्ष्या का साथ नहीं दूँगा, क्योंकि इसका प्रज्ञा से कोई सम्बन्ध नहीं।
24) बुद्धिमानों की भारी संख्या में संसार का कल्याण है और बुद्धिमान् राजा अपनी प्रजा का आश्रय है;
25) इसलिए मेरी षिक्षा ग्रहण करो, उस से तुम्हें लाभ होगा।

अध्याय 7

1) मैं सभी अन्य लोगों की तरह नष्वर मनुष्य हूँ। मैं उसका वंषज हूँ, जो सब से पहले मिट्टी रचा गया। मेरा शरीर अपनी माता के गर्भ में गढ़ा गया।
2) मैं संसर्ग के सुख के पष्चात् वीर्य द्वारा दस महीनों तक रक्त में बनता रहा।
3) मैंने जन्म लेते ही सर्वसुलभ हवा में साँस ली, मैं सब के समान पृथ्वी पर गिरा और सब के समान पहली बार रोने लगा।
4) मैं कपड़ो में लपेटा गया और बड़ी सावधानी से मेरा पालन-पोषण हुआ।
5) सभी राजाओं का जीवन इसी तरह प्रारम्भ होता है।
6) जीवन में प्रवेष सब के लिए एक-जैसा है और जीवन से प्रस्थान भी एक-जैसा।
7) मैंने प्रार्थना की और मुझे विवेक मिला। मैंने विनती की और मुझ पर प्रज्ञा का आत्मा उतरा।
8) मैंने उसे राजदण्ड और सिंहासन से ज्यादा पसन्द किया और उसकी तुलना में धन-दौलत को कुछ नहीं समझा।
9) मैंने उसकी तुलना अमूल्य रत्न से भी नहीं करना चाहा; क्योंकि उसके सामने पृथ्वी का समस्त सोना मुट्ठी भर बालू के सदृष है और उसके सामने चाँदी कीच ही समझी जायेगी।
10) मैंने उसे स्वास्थ्य और सौन्दर्य से अधिक प्यार किया और उसे अपनी ज्योति बनाने का निष्चय किया; क्योंकि उसकी दीप्ति कभी नहीं बुझती।
11) मुझे उसके साथ-साथ सब उत्तम वस्तुएँ मिल गयी और उसके हाथों से अपार धन-सम्पत्ति।
12) मैंने उन सब के साथ आनन्द मनाया, क्योंकि वे मुझे प्रज्ञा द्वारा मिली थी; यद्यपि मैं उस समय नहीं जानता कि प्रज्ञा ही उन सब की जन्मदात्री है।
13) मैंने सरल हृदय से प्रज्ञा की षिक्षा ग्रहण की और मैं खुले हाथ से बाँटता हूँ, मैं उसकी समृद्धि नहीं छिपाता।
14) वह मनुष्यों के लिए एक अक्षय भण्डार है। जो लोग उसे प्राप्त करते हैं, वे ईष्वर के मित्र बनते हैं; क्योंकि प्रज्ञा की षिक्षा द्वारा प्राप्त सद्गुण उसे प्रिय है।
15) ईष्वर ने मुझे यह कृपा दी कि मैं सही बातें बोलूँ और उसके वरदानों का मूल्य समझूँ; क्योंकि वह प्रज्ञा का पथप्रदर्षक है और ज्ञानियों को मार्ग दिखाता है।
16) हम उसी के हाथ में हैं- हम और हमारे शब्द, हमारी समस्त बुद्धि और षिल्प-विज्ञान भी।
17) जो कुछ अस्तित्व में है, उसने मुझे उसका पूरा ज्ञान दिया : विष्व की संरचना और तत्वों की गतिविधियाँ,
18) काल का आदि, मध्य और अन्त, सूर्य का प्रत्यावर्त्तन और ऋतुओं का परिवर्तन,
19) वर्षों के चक्र और नक्षत्रों के स्थान,
20) पषुओं की प्रकृति और जंगली जानवरों का हिंसक स्वभाव, आत्माओं की शक्ति और मनुष्यों के विचार, पौधो की विभिन्न जातियाँ और जड़ी-बूटियों के गुण।
21) मैंने सब कुछ की जानकारी प्राप्त की चाहे वह गुप्त हो या प्रकट क्योंकि विष्व की रचना करने वाली प्रज्ञा ने मुझे षिक्षा प्रदान की।
22) प्रज्ञा में एक आत्मा विद्यमान है, जो विवेकषील, पवित्र अद्वितीय, बहुविध, सूक्ष्म, गतिमय, प्रत्यक्ष, निष्कलंक, स्वच्छ, अपरिवर्तनीय, हितकारी, तत्पर,
23) अदम्य, उपकारी, जनहितैषी, सुदृढ़, आष्वस्त, प्रषान्त, सर्वषक्तिमान् और सर्वनिरीक्षक है। वह सभी विवेकषील, शुद्ध तथा सूक्ष्म जीवात्माओं में व्याप्त है;
24) क्योंकि प्रज्ञा किसी भी गति से अधिक गतिषील है। वह इतनी परिषुद्ध है कि वह सब कुछ में प्रवेष करती और व्याप्त रहती है।
25) वह ईष्वर की शक्ति का प्रसव है, सर्वषक्तिमान् की महिमा की परिषुद्ध प्रदीप्ति है, इसलिए कोई अषुद्धता उस में प्रवेष नहीं कर पाती।
26) वह शाष्वत ज्योति का प्रतिबिम्ब है, ईष्वर की सक्रियता का परिषुद्ध दर्पण और उसकी भलाई का प्रतिरूप है।
27) वह अकेली होते हुए भी सब कुछ कर सकती है। वह अपरिवर्तनीय होते हुए भी सब कुछ को नवीन बनाती रहती है। वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी पवित्र जीवात्माओं में प्रवेष कर उन्हें ईष्वर के मित्र और नबी बनाती है;
28) क्योंकि ईष्वर केवल उसी को प्यार करता है, जो प्रज्ञा के साथ निवास करता है।
29) प्रज्ञा सूर्य से भी रमणीय है, सभी नक्षत्रों से श्रेष्ठ है और प्रकाष से भी बढ़ कर है;
30) क्योंकि प्रकाष रात्रि के सामने दूर हो जाता है, किन्तु प्रज्ञा पर दुष्टता का वष नहीं चलता।

अध्याय 8

1) प्रज्ञा की शक्ति पृथ्वी के एक छोर से दूसरे छोर तक सक्रिय है और वह सुचारू रूप से विष्वका संचालन करती है।
2) मैंने उस को प्यार किया और युवावस्था से उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करता रहा। मैंने उसे अपनी दुलहन बना कर अपने घर में लाना चाहा, क्योंकि मैं उसके सौन्दर्य का उपासक बन गया था।
3) वह अपनी कुलीनता पर गर्व करती है, क्योंकि वह ईष्वर के यहाँ निवास करती है और सर्वेष्वर उस को प्यार करता है।
4) वह ईष्वर-सम्बन्धी ज्ञान में दीक्षित हो चुकी है और ईष्वर के कार्य निर्धारित करती है।
5) यदि जीवन मेंें सम्पत्ति वांछनीय है, तो प्रज्ञा से बड़ी सम्पत्ति क्या है, जो सब कार्य सम्पन्न करती है?
6) यदि हमारी बुद्धि कार्यकुषल है, तो प्रज्ञा कहीं अधिक कार्यकुषल है, क्योंकि वह सब कुछ की जन्मदात्री है।
7) यदि कोई धार्मिकता को प्यार करता है, तो सद्गुण प्रज्ञा के परिश्रम से उत्पन्न होते हैं; क्योंकि वह संयम, विवेक, न्याय और धैर्य की षिक्षा देती है और मानव जीवन में इन से लाभदायक कुछ नहीं हो सकता।
8) और यदि कोई प्रचुर मात्रा में अनुभव प्राप्त करना चाहता है, तो प्रज्ञा अतीत जानती और भविष्य का अनुमान लगाती है। वह सूक्तियों की व्याख्या करती और पहेलियाँ सुलझाती है। उसे चिन्हों चमत्कारों, कालों और युगों का पूर्वज्ञान है।
9) इसलिए मैंने उसे अपनी जीवन-संगिनी बनाने का संकल्प किया; क्योंकि मैं जानता था कि इस प्रकार मुझे उस से कल्याणकारी परामर्ष और चिन्ताओं एवं दुःख में सान्त्वना मिलती।
10) उसी के कारण मुझे जनता में यश और युवक होते हुए भी बड़ों का सम्मान प्राप्त होता।
11) मैं निर्णय देने में प्रवीण बनता और मुझे शासकों की प्रषंसा प्राप्त होती।
12) यदि मैं मौन रहता, तो लोग प्रतीक्षा करते, यदि मैं बोलता, तो वे ध्यान से सुनते। यदि मैं बहुत देर तक भाषण देता, तो वे दाँत तले उँगली दबाते।
13) मैं प्रज्ञा द्वारा, अमरत्व प्राप्त करता और आने वाली पीढ़ियों में मेरी स्मृति सदा बनी रहती।
14) मैं जातियों पर राज्य करता और राष्ट्र मेरे अधीन हो जाते।
15) मेरा नाम सुनते ही दुर्जेय राजा काँपते। मैं जनता के बीच भला और युद्ध में वीर दिखता।
16) अपने यहाँ लौटने पर मैं उसके पास विश्राम करता; क्योंकि उसकी संगति में न तो कोई कटुता है और न उसके सान्निध्य में कोई क्लान्ति वहाँ केवल सुख और आनन्द मिलता है।
17) मन-ही-मन विचार कर और हृदय में यह सोच कर कि प्रज्ञा के रिष्ते से अमरता प्राप्त होती है,
18) उसकी मित्रता से शुभ आनन्द, उसके हाथ के कार्यों से अक्षय सम्पत्ति, उसके साहचर्य से विवेक और उसके साथ वार्तालाप से सुयष मिलता है। मैं उसे चारों और ढूँढ़ता रहा, जिससे मैं उसे अपनाऊँ।
19) मैं उस समय एक प्रतिभाषाली और सहृदय नवयुवक था;
20) सद्गुणी होने के कारण मुझे एक अदोष शरीर मिला,
21) किन्तु यह ज्ञान कर कि यदि ईष्वर मुझे प्रज्ञा प्रदान नहीं करेगा, तो मैं उसे प्राप्त नहीं कर पाऊँगा हालाँकि यह जानना भी प्रज्ञा था कि वह किसका वरदान है। मैंने प्रभु की ओर अभिमुख हो कर सारे हृदय से यह कहते हुए प्रार्थना की :

अध्याय 9

1) ''पूर्वजों के ईष्वर! दयासागर प्रभु! तूने अपने शब्द से सब कुछ बनाया
2) और अपनी प्रज्ञा से मनुष्य को गढ़ा, जिससे वह तेरी बनायी हुई सृष्टि का शीर्ष बने,
3) औचित्य और न्याय से संसार का शासन करेें और निष्कपट हृदय से निर्णय दे।
4) मुझे अपने सिंहासन पर विराजमान प्रज्ञा प्रदान कर और अपने पुत्रों से मुझे अलग न कर।
5) क्योंकि मैं तेरा सेवक, तेरी दासी का पुत्र हूँ, दुर्बल और अल्पायु मनुष्य हूँ, मुझ में न्याय एवं विधि के ज्ञान का अभाव है।
6) वास्तव में यदि मनुष्यों में कोई पूर्ण हो, किन्तु उस में तेरी प्रज्ञा न हो, तो वह कुछ भी नहीं समझा जायेगा।
7) तूने मुझे अपनी प्रजा का राजा और अपने पुत्र-पुत्रियों को न्यायाधीश चुना है;
8) तूने मुझे अपने पवित्र पर्वत पर एक मन्दिर और तू जिस नगर में निवास करता है, उस में एक वेदी बनवाने का आदेष दिया - वह उस पवित्र षिविर-जैसा हो, जिसे तूने प्रारम्भ से तैयार करवाया था।
9) ''प्रज्ञा तेरे पास रहती है, वह तेरे कार्य जानती है। वह विद्यमान थी, जब तूने संसार बनाया। वह जानती है, कि तुझे क्या प्रिय है और वह भी, जो तेरी आज्ञाओं के अनुकूल है।
10) प्रज्ञा को अपने पवित्र स्वर्ग से उतरने दे। उसे अपने महिमामय सिंहासन से भेज, जिससे वह मेरे साथ रह कर क्रियाषील हो और मैं जानूँ कि तुझे क्या प्रिय है;
11) क्योंकि वह सब कुछ जानती और समझती है। वह सावधानी से मेरा पथप्रदर्षन करेगी और अपनी महिमा से मेरी रक्षा करेगी।
12) इस प्रकार मेरे कार्य ग्राह्य होंगे, मैं तेरी प्रजा का निष्पक्षता से न्याय करूँगा और अपने पिता के सिंहासन के योग्य बनूँगा।
13) ''ईष्वर के मन की थाह कौन ले सकता है? कौन ईष्वर की इच्छा जान सकता है?
14) मनुष्यों के विचार अनिष्चित हैं और हमारे उद्देष्यों अस्थिर है;
15) क्यांेंकि नष्वर शरीर आत्मा के लिए भारस्वरूप है और मिट्टी की यह काया मन की विचार शक्ति घटा देती है।
16) हम पृथ्वी पर की चीजें कठिनाई से जान पाते हैं। जो हमारे सामने है, उसे हम मुष्किल से समझ पाते हैं? तो आकाष में क्या है, इसका पता कौन लगा सकता है?
17) यदि तूने प्रज्ञा का वरदान नहीं दिया होता और अपने पवित्र आत्मा को नहीं भेजा होता, तो तेरी इच्छा कौन जान पाता?
18) इस तरह पृथ्वी पर रहने वालों के पथ सीधे कर दिये गये हैं। जो बात तुझे प्रिय है, उसकी षिक्षा मनुष्यों को मिल गयी और प्रज्ञा के द्वारा उनका उद्धार हुआ है।''

अध्याय 10

1) जब अकेले आदि मानव, संसार के पिता की ही सृष्टि हुई थी, तो प्रज्ञा ने उसकी रक्षा की थी, उसके पतन के बाद उसका उद्धार किया था।
2) और उसे समस्त सृष्टि पर शासन करने की शक्ति प्रदान की थी।
3) जब एक अधर्मी मनुष्य अपने क्रोधावेष में उस से विमुख हो गया था, तो उसका विनाष हुआ, क्योंकि उसने क्रुद्ध हो कर अपने भाई की हत्या की थी।
4) जब उसके कारण पृथ्वी पर जलप्रलय हुआ था, तो प्रज्ञा ने फिर उसकी रक्षा की थी और एक भंगुर लकड़ी पर धर्मी को बिठा कर पार कराया था।
5) जब सर्वत्र फैली हुई दुष्टता के कारण राष्ट्रों में उलझन पैदा हुई थी, तो प्रज्ञा ने धर्मी को पहचान कर उसे ईष्वर की दृष्टि में अनिन्द्य बनाये रखा और उसे वात्सल्य पर विजय का सामर्थ्य प्रदान किया था।
6) जब अधर्मी नष्ट हो रहे थे और पाँच नगरों पर आग बरस रही थी, तो प्रज्ञा ने भागने वाले धर्मी को बचाया था।
7) उन लोगो की दुष्टता के साक्ष्य के रूप में अब तक वहाँ एक उजाड़भूमि विद्यमान है, जिस में से धुँआ उठता है, जहाँ वृक्ष अनिष्चित समय तक फल देते हैं और एक अविष्वासी आत्मा की स्मृति मेेंें नमक का खम्भा खड़ा है।
8) जिन लोगों ने प्रज्ञा की उपेक्षा की थी, वे न केवल भलाई पहचानने में असमर्थ हो गये, बल्कि उन्होंने आने वाली पीढ़ियों के लिए अपनी मूर्खता का स्मारक छोड़ दिया था, जिससे उनका पाप गुप्त न रहे।
9) किन्तु जो प्रज्ञा के अनुयायी बने, उसने उन्हें उनके कष्टों से मुक्त किया।
10) प्रज्ञा धर्मी को सीधे मार्गों पर ले चली, जब वह अपने भाई के क्रोध से भाग रहा था। उसने उसे ईष्वर के राज्य के दर्षन कराये और पवित्रता का ज्ञान प्रदान किया। उसने उसे उसके कार्यों द्वारा सम्पन्न बनाया और उसके परिश्रम का प्रचुर पुरस्कार दिया।
11) उसने लोभी शोषकों के विरुद्ध उसकी सहायता की और उसे धनी बनाया।
12) उसने उसके शत्रुओं से उसकी रक्षा की और उसे फन्दा बिछाने वालों से बचा लिया। उसने उसे घोर संघर्ष में विजय दिलायी, जिससे वह समझ सके कि भक्ति सब से शक्तिषाली है।
13) उसने बेचे हुए धर्मी का परित्याग नहीं किया, बल्कि उसे पाप से बचाया।
14) वह उसके साथ कुएँ में उतरी और उसने बन्दीगृह में उसे अकेला नहीं छोड़ा बल्कि उसे देष का राजदण्ड दिलाया। उसने उस को अत्याचारियों पर अधिकार दिया। उसने उसके निन्दकों को झूठा सिद्ध किया और उसे अमर यष प्रदान किया।
15) उसने एक पवित्र पूजा और निर्दोष प्रजाति को उस पर अत्याचार करने वाले राष्ट्र से मुक्त किया।
16) उसने प्रभु के सेवक की आत्मा में प्रवेष किया और चमत्कारों एवं चिन्हों द्वारा विकट राजाओं का सामना किया।
17) उसने सन्तों को उनके परिश्रम का पुरस्कार दिलाया। वह उन्हें एक आष्चर्यजनक मार्ग से ले चली। वह दिन में उनके लिए आच्छादन और में तारों की ज्योति बनी।
18) उसने उन्हें लाल सागर के पार उतारा; वह उन्हें विषाल जलाषय के उस पार ले गयी।
19) उसने उनके शत्रुओ को जल में बहा दिया और उन्हें गर्त्त की गहराई से निकाल कर ऊपर फेंक दिया।
20) इसलिए धर्मियों ने दुष्टों को लूटा। प्रभु! उन्होंने तेरे पवित्र नाम की स्तुति की और एक स्वर से तेरी विजयी भुजा का गुणगान किया;
21) क्योंकि प्रज्ञा ने गूँगों का मुख खोला और षिषुओं की जिह्वा को वाणी दी।

अध्याय 11

1) उसने एक पवित्र नबी के हाथ से उनकी योजना को सफल बनाया।
2) उन्होंने निर्जन उजाड़खण्ड पार किया और दुर्गम स्थानों पर अपने तम्बू खड़े किये।
3) उन्होंने अपने शत्रुओं का डट कर सामना किया और विरोधियों को मार भगाया।
4) जब उन्हें प्यास लगी, तो उन्होने तेरी दुहाई दी और उन्हें एक ऊँची चट्टान से पानी मिला, एक कठोर पत्थर ने उनकी प्यास बुझायी;
5) क्योंकि जिसके द्वारा उनके शत्रुओं को दण्ड दिया गया, उसी के द्वारा अभाव में उनका उपकार किया गया।
6) (६-७) षिषुओें के वध की राजाज्ञा के दण्डस्वरूप नील की सदा प्रवाहित धारा रक्त और कीच से दूषित हो गयी। उसके बदले तूने अपनी प्रजा को अप्रत्याषित रूप में भरपूर जल दिया।
8) तूने उस समय की प्यास द्वारा अपनी प्रजा को यह दिखाया कि उनके विरोधियों को किस प्रकार का दण्ड दिया गया था।
9) यद्यपि वे नरमी से सुधारे गये, फिर भी वे इस परीक्षा द्वारा अधर्मियों की घोर यन्त्रणा समझ गये, जब उन को क्रोध में दण्ड दिया गया था।
10) तूने अपनी प्रजा के साथ पिता का-सा व्यवहार किया, जो उसकी परीक्षा लेता और चेतावनी देता है; किन्तु दूसरों के साथ तूने कठोर राजा की तरह जाँच करने के बाद उन्हें दण्ड दिया।
11) वे तेरी प्रजा से दूर या निकट रहते, समान रूप से उत्पीड़ित किये जाते थे।
12) वे बीती घटनाओं की याद करते हुए विलाप करते थे। उन्हें दोहरा दुःख भोगना पड़ा :
13) क्योंकि जब उन्होंने सुना कि जिसके द्वारा उन्हें दण्ड दिया गया, वही इस्राएलियों के लिए कल्याण का कारण बना, तो वे समझ गये कि उस में प्रभु का हाथ है।
14) उन्होंने जिस व्यक्ति को पहले फिंकवाया और उपहास करते हुए अस्वीकार किया था, उसने ही बाद में उन्हें आष्चर्यचकित किया; क्योंकि उनकी प्यास धर्मियों की प्यास जैसी नहीं थी।
15) उनके अधर्म के मूर्ख विचारों के दण्ड स्वरूप, जिन से प्रेरित हो कर वे भटक कर गूँगे साँपों और तुच्छ पषुओं की पूजा करते थे, तूने उनके यहाँ गूँगे पषुओें को भारी संख्या में भेज दिया,
16) जिससे वे समझे कि कोई जिसके द्वारा पाप करता है, उसी के द्वारा उसे यन्त्रणा दी जाती है।
17) तेरी सर्वषक्तिमान् भुजा, जिसने निराकार पदार्थ से संसार की सृष्टि की थी, उन पर भालुओं या हिंसक सिंहों के झुण्ड या नये सृष्टि किये हुए और क्रोध से भरे ऐसे अपूर्व पषु छोड़ने में असमर्थ नहीं थी, जो या तो आग उगलते, या गरजता हुआ धुँआ फैलाते या अपनी आँखों से भयंकर चिनगारियाँ निकालते थे।
18) ऐसे पषु, जिनके प्रहार से उनका विनाष हो जाता,
19) बल्कि जिन्हें देखने मात्र से आतंक के मारे उनकी मृत्यु हो जाती।
20) यद्यपि इन सब के अभाव में वे तेरे दण्ड के षिकार बन कर या तेरी शक्तिषाली आत्मा द्वारा छिन्न-भिन्न हो कर तेरे श्वास मात्र द्वारा मारे जा सकते थे।
21) तेरी सर्वषक्तिमत्ता सदा तेरे पास रहती है, कौन तेरे भुजबल के सामने टिक सकता है?
22) प्रभु! तेरी दृष्टि में समस्त संसार तराजू के पासंग के बराबर है अथवा प्रातःकाल भूमि पर गिरने वाली ओस की बूँद की तरह।
23) तू सब पर दया करता है, क्योंकि तू सर्वशक्तिमान् है। तू मनुष्य के पापों को इसलिए अनदेखा करता है, कि वह पष्चात्ताप करें।
24) तू सब प्राणियों को प्यार करता है और अपनी बनायी हुई किसी वस्तु से घृणा नहीं करता। यदि तुझे किसी वस्तु से घृणा हुई होती तो तूने उसे नहीं बनाया होता।
25) यदि तू उसे नहीं चाहता, तो कुछ भी अस्तित्व में नहीं बना रहता; यदि तूने उसे नहीं बुलाया होता, तो कुछ भी सुरक्षित नहीं रहता।
26) प्रभु! तू सारी सृष्टि की रक्षा करता है, क्योंकि वह तेरी है। तू सब प्राणियों को प्यार करता है;

अध्याय 12

1) क्योंकि तेरा अविनाषी आत्मा सब में व्याप्त है।
2) प्रभु! तू अपराधियों को थोड़ा-थोड़ा कर के दण्ड देता है। तू उन्हें चेतावनी देता और उन्हें उनके पापों का स्मरण दिलाता है, जिससे वे बुराई से दूर रहे और तुझ पर भरोसा रखें।
3) तूने अपनी पवित्र भूमि के पुराने निवासियों के साथ ऐसा व्यवहार किया,
4) जिन से उनके घृणित कार्यों के कारण तुझे बैर हुआ था : उनका जादू-टोना, उनकी निन्दनीय धर्मरीतियाँ,
5) बच्चों की निर्मम हत्याएँ, मनुष्य के माँस और रक्त की वे दावतें, जिन में अँतड़ियॉ तक खायी जाती थी, दीक्षितों के रहस्यात्मक धर्मानुष्ठानोंें की रंगरलियाँ।
6) तूने असहाय बच्चों के उन हत्यारों को हमारे पूर्वजों के हाथों द्वारा मिटाना चाहा,
7) जिससे वह भूमि, जो तुझे सब से प्रिय है, योग्य लोगों से, ईष्वर के पुत्रों से बसायी जाये।
8) किन्तु तूने उन पुराने निवासियों पर दया की; क्योंकि वे मनुष्य थे : तूने अपनी सेना के अग्रदूतों के रूप में उनके पास बर्रे भेजे, जिससे वे उनका धीरे-धीरे विनाष करेें।
9) तू उन अधर्मियों को एक ही युद्ध में धर्मियों के हाथ दे सकता था, या हिंसक जानवरोें या एक ही कठोर शब्द द्वारा उनका क्षणमात्र में सर्वनाष कर सकता था,
10) किन्तु तूने धीरे-धीरे दण्ड दे कर उन्हें पष्चात्ताप करने का अवसर दिया, हालाँकि तू उनका विकृत स्वभाव और जन्मजात दुष्टता जानता था और यह भी कि वे अपने विचार कभी भी नहीं बदलेंगे।
11) क्योंकि यह जाति प्रारम्भ से ही अभिषप्त थी। तूने इसलिए उनके पापों का दण्ड नहीं दिया कि तू किसी से डरता था।
12) क्योंकि कौन तुझ से कहेगा, ''तूने यह क्या किया?'' या कौन तेरे निर्णय का विरोध करेगा? जिन राष्ट्रों की तूने स्वयं सृष्टि की है, उनके विनाष के कारण तुझ पर कौन अभियोग लगायेगा? कौन अधर्मी लोगों का पक्ष ले कर तुझे चुनौती देगा?
13) तुझे छोड़ कर और कोई ईष्वर नहीं। तू ही समस्त सृष्टि की रक्षा करता है। यह आवष्यक नहीं कि तू किसी को इसका प्रमाण दे कि तेरे निर्णय सही है।
14) ऐसा कोई राजा या शासक नहीं है, जो तेरे द्वारा दण्डित लोगों के कारण तेरा विरोध कर सकता है।
15) तू न्यायी है और न्याय से विष्व का शासन करता है। तू अपने सामर्थ्य के अयोग्य समझता है कि निर्दोष को दण्ड दिया जाये।
16) तेरा न्याय तेरे सामर्थ्य पर आधारित है। तू सब का स्वामी है और इसलिए सब पर दया करता है।
17) तू तभी अपना सामर्थ्य प्रकट करता है, जब तेरी सर्वषक्तिमत्ता पर सन्देह किया जाता है। तू उसी को दण्ड देता है, जो तेरी प्रभुता जान कर तुझे चुनौती देता है।
18) तू शक्तिषाली होते हुए भी उदारतापूर्वक न्याय करता और बड़ी कृपालुता से हम पर शासन करता है, क्योंकि तू इच्छानुसार अपना सामर्थ्य दिखा सकता है।
19) इस प्रकार तूने अपनी प्रजा को यह षिक्षा दी कि धर्मी को अपने भाइयों के प्रति सहृदय होना चाहिए और तूने अपने पुत्रों को यह भरोसा दिलाया कि पाप के बाद तू उन्हें पष्चात्ताप का अवसर देगा।
20) यदि तूने अपने पुत्रों के शत्रुओं को, उन्हें प्राणदण्ड मिलने वाला था, इतनी सावधानी और नम्रता से दण्डित किया और उन्हें अपनी दुष्टता से विमुख होने का समय और अवसर दिया है,
21) तो तूने अपने पुत्रों का कहीं अधिक सावधानी से न्याय किया है, जिनके पूर्वजों के लिए तूने शपथ खा कर विधान निर्धारित किया और उन से मंगलमय प्रतिज्ञाएँ की थी।
22) इस प्रकार तूने हमें षिक्षा देने के लिए हमारे शत्रुओं को नरमी से दण्ड दिया, जिससे हम भी न्याय करते समय तेरी दया का स्मरण करेंं और जब तू हमारा न्याय करता है, तो हम तेरी दयालुता पर भरोसा रखे।
23) जो लोग मूर्खतावष अधर्म का जीवन बिता चुके थे, तूने उन्हें उनके अपने घृणित कार्यों द्वारा दण्ड दिया।
24) वे बहुत दूर तक भटक गये थे। वे नासमझ बच्चों की तरह धोखा खा कर सब से नीचे और घृणित जानवरों को देवता मानते थे।
25) इसलिए तूने उन्हें नासमझ बच्चे मान कर दण्डस्वरूप हँसी के पात्र बना दिया।
26) उपहास के इस दण्ड द्वारा जिनका सुधार नहीं हुआ, उन्हें ईष्वर के योग्य दण्ड दिया जायेगा।
27) जिन प्राणियों को वे देवता मानते थे, उनके द्वारा उन्हें दण्ड दिया गया और कष्ट एवं यातनाएँ सहनी पड़ी। इस प्रकार वे उस सच्चे ईष्वर को पहचान गये, जिसका ज्ञान वे पहले अस्वीकार करते रहे। इस कारण उन्हें कठोर-से-कठोर दण्ड दिया गया।

अध्याय 13

1) वे मनुष्य कितने मूर्ख है, जिन में ईष्वर का ज्ञान नहीं है! जो दृष्य जगत् को देख कर ÷सत्÷ नामक ईष्वर को नहीं जान सके, जो सृष्टि को देख कर सृष्टिकर्ता को पहचानने में असमर्थ रहे!
2) किन्तु उन्होंने अग्नि, पवन, सूक्ष्म वायु, तारामण्डल, जल का तीव्र प्रवाह अथवा आकाष के ज्योति-पिण्डों को संसार का संचालन करने वाले देवता समझा है।
3) यदि उन्होंने इन वस्तुओं के सौन्दर्य से मोहित हो कर इन्हें देवता समझ लिया है, तो वे यह जान जायें कि इन सब का स्वामी इन से कितना श्रेष्ठ है; क्योंकि समस्त सौन्दर्य के मूलस्त्रोत द्वारा उनकी सृष्टि हुई है
4) और यदि वे इन वस्तुओं की शक्ति और क्रियाशीलता से प्रभावित हुए, तो वे इन वस्तुओं से अनुमान लगायें कि इनका निर्माता, कितना अधिक शक्तिषाली है;
5) क्योंकि सृष्ट वस्तुओं की महानता और सौन्दर्य के आधार पर इनके निर्माता का अनुमान लगाया जा सकता है।
6) किन्तु उन लोगों का दोष बड़ा नहीं है; क्योंकि वे ईष्वर को ढूँढ़ते और उसे पाने के इच्छुक थे, किन्तु वे भटक गये।
7) वे ईष्वर के कार्यों के बीच जीवन बिता कर उनकी छानबीन करते और दृष्य वस्तुओं के सौन्दर्य के कारण भ्रम में फँस जाते हैं।
8) फिर भी वे लोग क्षम्य नहीं है;
9) क्योंकि यदि वे ज्ञान में इतना आगे बढ़ गये थे कि विष्व के विषय में चिन्तन कर सके, तो वे शीघ्र ही इसके स्वामी को क्यों नहीं पहचान सके?
10) अभागे हैं वे लोग, जिनकी आषा निर्जीव वस्तुओं पर आधारित है! जिन्होंने मनुष्य के हाथों की कृतियों को देवता माना है : पषुओं की मूर्तियों को, सोने और चाँदी की कलाकृतियों को या प्राचीन काल के गढ़े हुए रद्दी पत्थर को।
11) कोई बढ़ई उपयुक्त पेड़ चुन कर उसे गिराता, चतुराई से उसकी छाल उतारता और कौषल से उसे गढ़ कर कोई घरेलू सामान बनाता है।
12) वह लकड़ी की काट-छाट से भोजन पकाता और खा कर तृप्त हो जाता है।
13) जो रद्दी बच गयी, वह उस में से एक टेढ़ी गाँठदार लकड़ी उठाता और फुरसत के समय चतुराई से उसे काट-काट कर कोई रूप देता है। वह उस से मनुष्य की मूर्ति बनाता
14) या किसी तुच्छ पषु की प्रतिमा। वह उस पर गेरू लगता, लाल रंग पोतता और उसका हर दोष छिपाता है।
15) वह उसके लिए एक उपयुक्त निवास बनाता, उसे दीवार पर लगाता और कील से ठोंक देता है।
16) वह सावधानी से उसे गिरने से बचाता है; क्योंकि वह जानता है, कि वह अपने को सँभाल नहीं पाती; वह मात्र मूर्ति है और उसे सहारे की आवष्यकता होती है।
17) यदि वह सम्पत्ति, विवाह या सन्तान के लिए प्रार्थना करता है, तो उसे एक निर्जीव वस्तु को सम्बोधित करने में लज्जा का अनुभव नहीं होता। जो शक्तिहीन है, वह उस से स्वास्थ्य माँगता है;
18) जो मृत है, वह उस से जीवन माँगता है; जो निस्सहाय है, वह उस से सहायता चाहता है; जो चल नहीं सकता, व उससे शुभ यात्रा चाहता है।
19) वह अपनी जीविका, अपने परिश्रम और अपने हाथों की सफलता के लिए एक ऐसी वस्तु से सहायता माँगता है, जिसके हाथ नितान्त शक्तिहीन है।

अध्याय 14

1) कोई व्यक्ति समुद्री यात्रा करना चाहता है और उसे प्रचण्ड लहरों को पार करना है, तो वह ऐसी लकड़ी से प्रार्थना करता है, जो उस जहाज से भी जर्जर है, जिस पर वह सवार है;
2) क्योंकि लाभ की लालसा ने वह जहाज बनवाया और वह एक कुषल कारीगर द्वारा निर्मित हुआ है।
3) किन्तु, पिता और विधाता! तू जहाज का संचालन करता है; क्योंकि तूने समुद्र में उसका मार्ग प्रषस्त किया और लहरों में उसके लिए एक सुरक्षित पथ बनाया है।
4) इस प्रकार तू दिखाता है कि तू हर जोखिम से बचाने में समर्थ है, उस समय भी, जब कोई अनाड़ी जहाज चलाता है।
5) तू यह नहीं चाहता कि तेरी प्रज्ञा की कृतियाँ व्यर्थ रहे। इसलिए मनुष्य लकड़ी के छोटे टुकड़े को अपने प्राण सौंपते और एक बेड़े पर लहरे पार करते हुए सुरक्षित रहते हैं।
6) प्राचीनकाल में भी, जब घमण्डी भीमकाय जाति का विनाष हो रहा था, तो पृथ्वी की आषा ने एक पोत की शरण ली और तेरे हाथ से संचालित हो कर उसने संसार के लिए एक नयी पीढ़ी का बीच छोड़ा।
7) धन्य है लकड़ी, जिसके द्वारा न्याय होता है;
8) किन्तु हाथ से बनी हुई वस्तु अभिषप्त है, मूर्ति भी और बनाने वाला भी, क्योंकि उसने उसे बनाया और मूर्ति नष्वर होते हुए भी ईष्वर कहलाती है!
9) ईष्वर को दुष्ट और उसकी दुष्टता, दोनों से समान रूप से घृणा है।
10) कृति को और कृतिकार को, दोनों को दण्ड दिया जावेगा।
11) इसलिए राष्ट्रों की देवमूर्तियों को दण्ड दिया जायेगा, क्योंकि वे ईष्वर की सृष्टि में घृणा के पात्र, मनुष्यों की आत्माओंें के लिए पाप का कारण और मूर्खों के पैरों के लिए फन्दे बन गयी है।
12) मूर्तियों की कल्पना से धर्मत्याग प्रारम्भ हुआ और उनके निर्माण ने जीवन को भ्रष्ट कर दिया;
13) क्योंकि वे न तो आदि में विद्यमान थी और न सदा बनी रहेगी।
14) मनुष्यों की व्यर्थ कल्पना के कारण उनका पृथ्वी पर आगमन हुआ था और इसलिए उनका आकस्मिक अन्त निष्चित किया गया है।
15) अप्रत्याषित शोक से दुःखी हो कर किसी पिता ने अपने बच्चे की मूर्ति बनवायी, जिसकी असमय में मृत्यु हो गयी थी। जो बच्चा मनुष्य के रूप में मर गया था, वह उसे अब देवता का आदर देने और अपने अधीन लोगों द्वारा पूजा-पाठ कराने लगा।
16) इसके बाद इस दुष्ट प्रथा को बल मिला, उसका विधिवत् पालन होने लगा और शासकों के आदेष पर गढ़ी मूर्तियों की पूजा होती रही।
17) लोग राजाओं को अपने सामने आदर नहीं दे सकते थे; क्योंकि वे उन से दूर रहा करते थे। इसलिए उन्होंने दूरवर्ती आकृति का प्रतिरूप बना कर समादृत राजा की प्रत्यक्ष मूर्ति की रचना की, जिससे वे अपने उत्साह से अनुपस्थित की चापलूसी कर सके, मानो वह विद्यमान हो।
18) जो लोग राजा को नहीं जानते थे, वे भी कलाकार के अपूर्व उत्साह से प्रेरित हो कर मूर्ति की पूजा में सम्मिलित हो जाते थे;
19) क्योंकि कलाकार ने शासक का कृपापात्र बनने के उद्देष्य से अपने कौषल से मूर्ति को वास्तविकता से सुन्दर बनाया था।
20) भीड़ ने मूर्ति के सौन्दर्य से मोहित हो कर उसे, जो पहले समादृत मनुष्य था, अपनी आराधना का विषय बनाया।
21) इस प्रकार यह प्रथा मानव जीवन के लिए फन्दा बन गयी; क्योंकि मनुष्यों ने, चाहे अपने दुर्भाग्य से या शासकों के दबाव से, पत्थर या लकड़ी के टुकड़ों को वही नाम दिया, जो किसी दूसरे को नहीं दिया जा सकता है।
22) वे न केवल ईष्वर के ज्ञान के विषय में भटक गये, बल्कि वे अपने अज्ञान के कारण जो घोर संघर्ष का जीवन बिताते हैं, अपनी उस दयनीय दषा को शान्ति का नाम देते हैं।
23) वे अपने पुत्रों की बलि चढ़ाते, रहस्यानुष्ठान मनाते और रंगरलियों के साथ दावतें उड़ाते हैं।
24) वे न तो जीवन का आदर करते और न विवाह की पवित्रता का। वे षड्यन्त्र रच कर एक दूसरे का वध करते और व्यभिचार द्वारा एक दूसरे को दुःख देते हैं।
25) चारों ओर अव्यवस्था है : रक्त और वध, चोरी और छलकपट, प्रलोभन और बेईमानी, दंगा और झूठी शपथ,
26) मूल्यों का विघटन, परोपकार की कृतनता, आत्माओं का दूषण, अप्राकृतिक संसर्ग, विवाह का व्यतिक्रम और लम्पटता;
27) क्योंकि घृणित देवमूर्तियों की पूजा सभी बुराईयों का प्रारम्भ, कारण और पराकाष्ठा है।
28) मूर्तिपूजक या तो आनन्दातिरेक में पागल हो जाते, या झूठी भविष्यवाणी करते, या अन्याय की कमाई खाते हैं, या झूठी शपथ खाने में संकोच नहीं करते।
29) वे निर्जीव देवमूर्तियों पर भरोसा रखते हैं, इसलिए उन्हें अपनी झूठी शपथों के कारण किसी अनर्थ की आषंका नहीं है।
30) किन्तु उन्हें दोहरा दण्ड दिया जायेगा; क्योंकि उन्होंने देवमूर्तियों के अनुयायी बनने के कारण ईष्वर के विषय में भ्रान्तिपूर्ण विचार रखा और पवित्रता की उपेक्षा करते हुए कपट से झूठी शपथ खायी।
31) शपथ के समय जिनका नाम लिया जाता, उनकी शक्ति नहीं, बल्कि न्याय ही पापियों को सदा उनके अपराध का दण्ड देता है।

अध्याय 15

1) हमारे ईष्वर! तू सचमुच कृपालु और सत्यप्रतिज्ञ है। तू सहिष्णु है और दया से सब कुछ का संचालन करता है।
2) जब हम पाप करते है, तो भी हम तेरे हैं; क्योंकि हम तेरा सामर्थ्य जानते हैं। किन्तु हम पाप नहीं करेंगे; क्योंकि हम तेरे कहलाते हैं।
3) तेरा ज्ञान हमें पूर्ण धार्मिकता तक पहुँचाता है और तेरे सामर्थ्य की पहचान अमरत्व की जड़ है;
4) क्योंकि हम न तो मनुष्यों की कपटी कल्पना द्वारा भटके- न चित्रकारों की व्यर्थ कृति द्वारा और न विविध रंगों से पुती हुई मूर्ति द्वारा,
5) जिसका दृष्य मूर्ख में आषा उत्पन्न करता है : वह एक मृत मूर्ति की निर्जीव आकृति पर मुग्ध होता है।
6) जो मूर्तियाँ बनाते हैं, जो उन पर मुग्ध होते और उनकी पूजा करते है, वे बुराई के अनुयायी हैं और इस प्रकार की आषा के योग्य है।
7) कुम्हार परिश्रम से गीली मिट्टी गूँधता और हमारे उपयोग के लिए सब प्रकार के पात्र बनाता है। वह एक ही मिट्टी से समान रूप से उच्च प्रयोजन के पात्र भी बनाता है और दूसरे प्रयोजन के लिए भी। कुम्हार निष्चित करता है कि कौन पात्र किस काम आयेगा।
8) वह व्यर्थ परिश्रम से उसी मिट्टी से एक निरर्थक देवमूर्ति गढ़ता है, यद्यपि वह स्वयं कुछ समय पहले मिट्टी से जन्मा और शीघ्र ही उस मिट्टी में लौटने वाला है, जहाँ से वह लाया गया है, जब उस से उसका जीव वापस माँगा गया होगा।
9) उसे कोई चिन्ता नहीं कि उसे मरना होगा और उसका जीवन अल्पकालिक है; बल्कि वह स्वर्ण और रजतकारों से होड़ लगाता, काँसा ढालने वालों का अनुकरण करता और मिथ्या मूर्तियाँ बनाने पर गर्व करता है।
10) उसका हृदय राख उसकी आषा धूल से अधिक व्यर्थ और उसका जीवन मिट्टी से अधिक तुच्छ है;
11) क्योंकि वह अपने निर्माता को नहीं पहचानता, जिसने उस में सक्रिय आत्मा को डाला और जीवनदायक प्राण फँूके।
12) वह हमारे जीवन को लीला समझता है, हमारे अस्तित्व को एक लाभकारी मेला! वह कहता है कि सब कुछ से, बुराई से भी लाभ उठाना चाहिए।
13) वह किसी भी व्यक्ति से यह अच्छी तरह जानता है कि वह पाप करता है, जब वह मिट्टी से भंगुर पात्र और देवमूर्तियाँ बनाता है।
14) वे लोग सब से अधिक बुद्धिमान् और निर्दोष बच्चे से भी अधिक अभागे हैं, जो तेरी प्रजा के शत्रु बन कर उस पर अत्याचार करते थे।
15) उन्होंने राष्ट्रों की सब मूर्तियों को देवता माना है, जो अपनी आँखों से नहीं देखती, अपने नथनों से साँस नहीं लेती, अपने कानों से नहीं सुनती, अपने हाथ की उँगलियों से नहीं टटोलती और अपने पैरों से नहीं चलती :
16) क्योंकि एक मनुष्य ने उन्हें बनाया, एक व्यक्ति ने उन्हे गढ़ा, जिसे उधार के रूप में प्राण मिले थे। कोई भी मनुष्य अपने-जैसे कोई देवता बनाने में असमर्थ है।
17) मर्त्य होने के कारण वह अपने अपवित्र हाथों से वही बना सकता है, जो मृत है। वह अपनी आराध्य वस्तुओं से श्रेष्ठ है; क्योंकि वह जीवित है, किन्तु उन्हें कभी जीवन नहीं मिलेगा।
18) वे सब से घृणित जन्तुओं की पूजा करते हैं, जो अन्य पषुओं से भी अधिक मूर्ख है।
19) जो पषु सुन्दर भी नहीं है, कि कोई उन पर मोहित हो, जैसा कि अन्य पषुओं के विषय में सम्भव है; क्योंकि उन्हे न तो ईष्वर का समर्थन मिला और न उसका आषीर्वाद।

अध्याय 16

1) उन्हें इस प्रकार के जन्तुओं के माध्यम से दण्ड मिला और कीड़ों के दलों द्वारा कष्ट दिया गया।
2) उस दण्ड के विपरीत तूने अपनी प्रजा का उपकार किया। तूने उसकी लालसा शान्त करने के लिए उसे बटेरों का स्वादिष्ट भोजन प्रदान किया।
3) इसके विपरीत जब वे भूखे थे, तो उन्हें अपने पर भेजे हुए घृणित जन्तु देख कर सब प्रकार के भोजन से वितृष्णा हुई, जब कि तेरी प्रजा को थोड़े समय के अभाव के बाद उत्तम व्यंजनों का स्वाद मिला।
4) उन अत्याचारियों को एक विकट भुखमरी सहनी पड़ी, जब कि तेरी प्रजा को दिखाया गया कि उसके शत्रुओं को किस प्रकार की यन्त्रणा दी गयी थी।
5) जब तेरी प्रजा पर जन्तुओं का प्रकोप भड़क उठा और वह कुटिल साँपों के दंष से नष्ट हो रही थी, तो तेरा क्रोध बहुत समय तक नहीं बना रहा।
6) उसे चेतावनी के रूप में कुछ समय तक डराया गया और संहिता की आज्ञाओं का स्मरण दिलाने के लिए उसे मुक्ति का चिन्ह दिखाया गया।
7) जो उस चिन्ह की ओर अभिमुख हुआ, उसकी उस दृष्य द्वारा नहीं, बल्कि तेरे, सब के मुक्तिदाता द्वारा रक्षा हुई।
8) इस प्रकार तूने हमारे शत्रुओं को यह प्रमाण दिया कि तू ही सब बुराई से मुक्त करता है।
9) वे टिड्डोंें और डाँसों के काटने से मर गये और उनके जीवन की रक्षा का कोई उपाय नहीं था, क्योंकि वे उस प्रकार के जानवरों द्वारा दण्ड पाने योग्य थे।
10) किन्तु विषैले साँपों के दाँत भी तेरी प्रजा पर विजयी नहीं हुए, क्योंकि तेरी दया ने आ कर उसे चंगा किया।
11) वह तेरी आज्ञाओं का स्मरण दिलाने के लिए डँसी गयी, किन्तु उसे शीघ्र ही बचाया गया। कहीं ऐसा न हो कि वह उन आज्ञाओं को इस प्रकार भुला दे कि वह तेरे उपकारों के प्रति उदासीन बन जाये!
12) क्योंकि उसे किसी जड़ी-बूटी या लेप से स्वास्थ्य लाभ नहीं हुआ, बल्कि प्रभु! तेरे शब्द ने उसे चंगा किया था।
13) जीवन और मृत्यु पर तेरा ही अधिकार है। तू अधोलोक के फाटकों तक पहुँचाता और फिर ऊपर उठाता है।
14) मनुष्य अपनी दुष्टता के कारण वध कर सकता है, किन्तु वह न तो छूटे हुए प्राणों को वापस लाने में समर्थ है और न (अधोलोक में) बन्द आत्मा का उद्धार करने में।
15) कोई तेरे हाथ से भाग कर निकल नहीं सकता।
16) जो अधर्मी तुझे स्वीकार करना नहीं चाहते थे, वे तेरे बाहुबल द्वारा मारे गये : वे असाधारण वर्षा, ओलों और भीषण आँधी से सताये और बिजली की आग से नष्ट किये गये।
17) सब से आष्चर्यजनक बात यह थी कि पानी में, जो सब कुछ बुझाता है, आग बल पकड़ रही थी; क्योंकि सृष्टि धर्मियों की ओर से युद्ध करती है।
18) ज्वाला कभी-कभी शान्त हो जाती थी, जिससे दुष्टों के विनाष के लिए भेजे जन्तु नहीं मरें और वे स्वयं यह देख कर समझे कि ईष्वर का न्याय उनका पीछा कर रहा है।
19) कभी-कभी पानी के बीच में ही ज्वाला धधक उठती थी और आग की स्वाभाविक शक्ति से भी अधिक तेज जलती थी, जिससे वह दुष्ट भूमि की फ़सल नष्ट कर दे।
20) इसके विपरीत, तूने अपनी प्रजा को स्वर्ग दूतों का भोजन खिलाया, बिना परिश्रम किये उन्हें तेरी ओर से पकी-पकायी रोटी मिली, जिसमें हर प्रकार की मिठास थी और जो सब को रूचिकर लगी।
21) तेरा दिया हुआ पदार्थ तेरी प्रजा के प्रति तेरा वात्सल्य प्रकट करता था, फिर भी वह खाने वाले की इच्छा के अनुसार अपने को हर एक की रूचि के अनुकूल बनाता था।
22) हिम और पाला आग में नहीं पिघलता था, जिससे लोग जान जायें कि शत्रुओें की फसल तो ओले में जलती और वर्षा की चमकती बिजली में आग द्वारा नष्ट हो गयी थी;
23) किन्तु दूसरी और वही आग अपनी शक्ति भूल जाती थी, जिससे धर्मियों को भोजन मिले।
24) प्रकृति तेरे अधीन है, जिसने उसे बनाया है, इसलिए वह अधर्मियों को दण्ड देने के लिए अपनी शक्ति बढ़ाती और तुझ पर भरोसा रखने वालों का कल्याण करने के लिए उसे मन्द कर देती है।
25) इस कारण वह अपने को बदलते हुए तेरे उस वरदान की सेवा करती है, जो अभाव में रहने वालों की इच्छा के अनुसार भोजन-सम्बन्धी उनकी सब आवष्यकताओं को पूरा करता था।
26) प्रभु! इस प्रकार तेरे प्रिय पुत्रों को अनुभव हुआ कि मनुष्यों का पोषण विभिन्न फलों द्वारा नहीं होता, बल्कि तेरा वचन उन सब को सँभालता है, जो तुझ पर विष्वास करते हैं।
27) जो चीज आग द्वारा नष्ट नहीं होती थी, वह सूर्य की किरण के स्पर्ष मात्र से पिघलती थी,
28) जिससे लोग जान जायें कि सूर्योदय से पहले तुझे धन्यवाद देना और प्रभात के समय तेरे सामने उपस्थित होना चाहिए।
29) जो धन्यवाद नहीं देता, उसकी आषा शीतकालीन पाले की तरह नष्ट होती है और अप्रयोज्य जलधारा की तरह वह जाती है।

अध्याय 17

1) तेरे निर्णय महान् और अनिर्वचनीय है; इसलिए तेरी षिक्षा अस्वीकार करने वाले भटक गये।
2) पापी लोग एक पवित्र राष्ट्र को अपने अधीन करना चाहते थे, किन्तु वे अन्धकार के कैदी बने और लम्बी रात्रि की बेड़ियों से बाँधे गये। वे शाष्वत विधाता द्वारा बहिष्कृत होकर अपने घरों में बन्द थे।
3) वे अपने गुप्त पापों के साथ विस्मृति के काले परदे के पीछे छिप जाना चाहते थे, किन्तु वे भयभीत होकर तितर-बितर कर दिये गये और मृगमरीचिकाओें से आतंकित किये गये;
4) क्योंकि वे जिस स्थान में छिप गये थे, वह उन्हें भय से मुक्त नहीं करता था। डरावनी आवाजें चारों ओर से आती थीं और उन्हें डरावने दृष्य दिखाई पड़ते थे।
5) धधकती आग भी उन्हे प्रकाष देने में असमर्थ थी और नक्षत्रों की चमकती ज्योति को इस भयानक रात को प्रकाषमान करने का साहस नहीं था।
6) उन्हे केवल एक अग्निपुंज दिखाई देता था, जो अपने आप प्रज्वलित होकर उन्हें भयभीत करता था। जब वह दृष्य उनकी आँखों के सामने ओझल हो जाता था, तो उन पर आतंक छाया रहता और वे उस दृष्य को वास्तविकता से अधिक भयानक समझते थे।
7) इस प्रकार उनके जादू-टोने के तन्त्र-मन्त्र व्यर्थ सिद्ध हुए और उस ज्ञान की कटु भर्त्सना की गयी, जिसका उन्हें गर्व था।
8) जो लोग दावा करते थे कि हम त्रस्त आत्माओें को डर और उलझन से मुक्त करने में समर्थ है, वे स्वयं एक हास्यास्पद भय के षिकर बन गये।
9) जब कोई भीषण दृष्य उन्हें नहीं डराता, तो वे अपने पास जन्तुओं के गुजरने और साँपों की फुफकार से आतंकित हो जाते थे। वे डर के मारे मर रहे थे और उस अन्धकार पर आँख गड़ाना नहीं चाहते थे, जो उन्हें घेरे रहता था।
10) दुष्टता तो स्वाभाव से भीरू है और अपने विरुद्ध साक्ष्य देती है। जब अन्तःकरण उसे दोषी ठहराता है, तो वह विपत्तियों को बढ़ा कर देखती है;
11) क्योंकि भय इसके सिवा और कुछ नहीं कि मनुष्य विवेक द्वारा प्रस्तुत उपायों का परित्याग करता है।
12) मन में सहायता की जितनी कम आषा है, यन्त्रणा के कारण का अज्ञान उतना ही दुःखदायी है।
13) वे सब-के-सब उस असह्य रात्रि में सो गये, जो अषक्त अधोलोक की गहराइयों से निकली थी।
14) वो कभी भयानक दृष्यों से सताये जाते और कभी निराषा से निष्प्राण पड़े रहते थे; क्योंकि एक अप्रत्याषित भय उनको अचानक घेरे रहता था।
15) इस प्रकार प्रत्येक जहाँ गिर पड़ा, वहाँ रोका गया, मानों वह बिना बेड़ियों के कैद मंें बन्द हो :
16) चाहे वह किसान हो या चरवाहा या उजाड़स्थान के बेगार का मजदूर, वह अचानक पकड़ा गया और अदम्य बलप्रयोग का षिकार बना; क्योंकि सभी एक ही जंजीर अर्थात् अन्धकार से जकड़े हुए थे।
17) (१७-१९) हर एक आवाज उन्हें भयभीत और निष्प्राण बनाती थीः चाहे वह हवा की सरसराहट हो, या घनी झाड़ियों में चिड़ियों की चहचहाहट, या तेज जलधाराओं की घरघराहट, या गिरने वाले पत्थरों की गड़गड़ाहट, या कूदने वाले पषुओं की धपधप या ंिहंसक जानवरों की दहाड़ या पहाड़ों की गुफा की प्रतिध्वनि; क्योंकि सारी पृथ्वी तेज प्रकाष से आलोकित थी और कार्यकलाप सर्वत्र निर्बाध चल रहा था।
20) केवल उन पर ही एक गहरी रात छायी हुई थी, जो उस अन्धकार की प्रतीक थी, जो उन्हें समेट लेने वाली थी। किन्तु वे अन्धकार से भी अधिक अपने आप के लिए भारस्वरूप थे।

अध्याय 18

1) इसके विपरीत, तेरे सन्तों पर एक महती ज्योति चमक रही थी। मिस्री, जो उनकी आवाज तो सुनते, किन्तु उनका रूप नहीं देखते थे, उन्हें धन्य समझते थे, क्योंकि उन्हें वह विपत्ति नहीं झेलनी पड़ी।
2) मिस्री अपनी शत्रुता के लिए उन से क्षमा माँगते और धन्यवाद देते थे, क्योंकि वे अपने अत्याचारियों को हानि नहीं पहुँचाते थे।
3) तूने उन्हें अज्ञात मार्ग के पथप्रदर्षक के रूप में और महिमामय यात्रा में मन्द सूर्य के रूप में एक अग्निमय स्तम्भ दिया।
4) मिस्री प्रकाष से वंचित हो कर अन्धकार के कैदी बनने योग्य थे; क्योंकि उन्होंने उन पुत्रों को कैद में बन्द किया, जिनके द्वारा संहिता की अमर ज्योति संसार को प्राप्त होने वाली थी।
5) जब मिस्रियों ने सन्तों की सन्तान का वध करने का निष्चय किया था और जब एक षिषु की रक्षा परित्यक्त हो जाने के बाद भी की गयी, तो तूने दण्ड के रूप में उनके बहुत-से षिषुओं को छीन लिया और तेज जलधारा में उन सब का एक साथ विनाष किया।
6) उस रात के विषय में हमारे पूर्वजों को पहले से इसलिए बताया गया था कि वे यह जानकर हिम्मत बाँधे कि हमने किस प्रकार की शपथोें पर विष्वास किया है।
7) तेरी प्रजा धर्मियों की रक्षा तथा अपने शत्रुओं के विनाष की प्रतीक्षा करती थी।
8) तूने हमारे शत्रुओं को दण्ड दिया और हमें अपने पास बुला कर गौरवान्वित किया है।
9) धर्मियों की भक्त सन्तान से छिप कर बलि चढ़ायी और पूर्वजों के भजन गाने के बाद उसने एकमत हो कर यह ईष्वरीय विधान स्वीकार किया कि सन्त-जन साथ रह कर भलाई और बुराई, दोनों समान रूप से भोगेंगे।
10) दूसरी ओर शत्रुओं की कर्कष चीख और मारे हुए षिषुओं के कारण सर्वत्र विलाप सुनाई पड़ा।
11) दास और स्वामी, दोनों को एक ही दण्ड दिया गया। प्रजा और राजा, दोनों को समान दुःख भोगना पड़ा।
12) सब के पास एक ही प्रकार की मृत्यु के कारण असंख्य शव थे; उनके दफन के लिए जीवितों की संख्या पर्याप्त नहीं थी, क्योंकि क्षणमात्र में उनकी सब से प्रिय सन्तान का विनाष हुआ था।
13) वे अपने जादू-टोने के कारण अविष्वासी बन रहे थे, किन्तु अपने पहलौठों का विनाष देख कर उन्होंने स्वीकार किया कि यह प्रजा ईष्वर की सन्तान है।
14) जब सारी पृथ्वी पर गहरा सन्नाटा छाया हुआ था और रात्रि तीव्र गति से आधी बीत चुकी थी,
15) (१५-१६) तब तेरा सर्वषक्तिमान् वचन, तेरे अपरिवर्तनीय निर्णय की तलवार ले कर, स्वर्ग में तेरे राजकीय सिंहासन पर से एक दुर्दम्य योद्धा की तरह उस अभिषप्त देष में कूद पड़ा। वह उठ खड़ा हुआ और उसने सर्वत्र मृत्यु का आतंक फैला दिया। उसका सिर आकाष को छू रहा था और उसके पैर पृथ्वी पर थे।
17) भयानक दृष्यों ने उन्हें भयभीत किया और उन पर अचानक आतंक छा गया।
18) वे इधर-उधर अधमरे गिर पड़े और उन्होंने अपनी मृत्यु का कारण प्रकट किया।
19) जिन दृष्यों ने उन्हे भयभीत किया, उन से उन्हें यह पता चला, जिससे अपनी विपत्ति का कारण जाने बिना उनकी मृत्यु न हो।
20) धर्मियों की भी मृत्यु द्वारा परीक्षा की गयी, उजाड़खण्ड में बहुतों की मृत्यु हो गयी; किन्तु क्रोध बहुत समय तक नहीं बना रहा।
21) एक अनिन्द्य व्यक्ति ने शीघ्र ही उनकी रक्षा की। वह अपनी धर्मसेवा के शस्त्रों से, अर्थात् प्रार्थना और प्रायष्चित्त-बलि की धूप से सुसज्जित था। उसने क्रोध का सामना किया, विपत्ति को समाप्त किया और अपने को तेरा सेवक प्रमाणित किया।
22) वह शारीरिक बल या शस्त्रों की सहायता से विपत्ति पर विजयी नहीं हुआ, बल्कि उसने अपने शब्द द्वारा दण्ड देने वाले को पराजित किया। उसने हमारे पूर्वजों को शपथ खा कर दी हुई प्रतिज्ञाओें और उनके लिए ठहराये हुए विधानों का स्मरण दिलाया।
23) जब शवों के ढेर पड़े थे, तो उसने बीच में खड़ा होकर आक्रमण रोक दिया और जीवितों की ओर जाने वाले मार्ग अवरूद्ध किये;
24) क्योंकि जो एफ़ोद वह पहने था, उस पर समस्त विष्व का प्रतीक था। मणियों की चार पंक्तियों में पूर्वजों के महिमामय नाम अंकित थे और उसके सिर के किरीट पर तेरी महिमा विद्यमान थी।
25) यह देख कर विनाषक डर कर हट गया; इस प्रकार क्रोध का प्रदर्षन पर्याप्त था।

अध्याय 19

1) किन्तु अधर्मियों पर निर्दय प्रकोप अन्त तक छाया रहा, क्योंकि ईष्वर पहले से जानता था कि वे क्या करने वाले हैं।
2) इस्राएलियों को निकल जाने की अनुमति देने और उन्हें जल्दी में विदा करने के बाद वे अपना मन बदल कर उनका पीछा करने वाले थे।
3) जब वे शोक मना रहे थे और मृतकों की कब्रों के पास विलाप कर रहे थे, तो उन्होंने एक मूर्खतापूर्ण निष्चय, किया। उन्होंने जिन लोगों से चले जाने के लिए निवेदन किया, वे उनका भगोड़ों की तरह पीछा करने लगे।
4) एक विवषता उन्हें इसके लिए प्रेरित करती थी और बीती हुई घटनाओं का उन्हें विस्मरण करा देती थी, जिससे उनकी यन्त्रणाओं में जिस दण्ड की कमी थी, वह उन्हें पूरा-पूरा दिया जाये।
5) तेरी प्रजा एक आष्चर्यजनक यात्रा का साहस करने वाली थी, किन्तु उन्हें एक अपूर्व मृत्यु मिलने वाली थी।
6) समस्त सृष्टि का, सभी तत्वों के साथ, नवीकरण किया गया और वह तेरे आदेषों का पालन करती थी, जिससे तेरे पुत्र सुरक्षित रह सकें।
7) बादल उनके षिविर पर छाया करते थे। जहाँ पहले जलाषय था, वहाँ सूखी भूमि, लाल समुद्र के पार जाने वाला अबाध मार्ग और तूफानी लहरों में एक हरा मैदान दिखाई पड़ा।
8) इस प्रकार सारी प्रजा ने तेरे अपूर्व कार्य देखने के बाद, तेरे हाथ का संरक्षण पा कर, लाल समुद्र पार किया।
9) प्रभु! वे तेरी, अपने मुक्तिदाता की स्तुति करते हुए घोड़ों की तरह विचरते और मेमनों की तरह उछलते-कूदते थे।
10) वे याद करते थे कि विदेष में उन पर क्या बीती थी। वे मच्छड़ अन्य प्राणियों से नहीं, बल्कि पृथ्वी से उत्पन्न हुए थे; मेढकों के वे झुण्ड जलचरो से नहीं, बल्कि नदी से उत्पन्न हुए थे।
11) बाद में उन्होंने तब पक्षियों का नया प्रजनन देखा, जब वे लालसा से प्रेरित हो कर स्वादिष्ट भोजन की माँग करते थे;
12) क्योंकि उन्हें सान्त्वना देने के लिए बटेरे समुद्र से निकली।
13) पापी मिस्रियों को गरजती बिजलियों की चेतावनी के बाद दण्ड दिया गया। उन्हें अपनी दुष्टता का उचित दण्ड मिला, क्योंकि उन्होंने परदेषियों से क्रूर बैर किया था।
14) अन्य लोगों ने अपरिचित अतिथियों का स्वागत नहीं किया, बल्कि मिस्रियों ने उन परदेषियों को दास बनाया, जिन्होंने उनका उपकार किया था।
15) उन लोगों को अवष्य विचार के दिन दण्ड मिलेगा, क्योंकि उन्होंने अपरिचित अतिथियों के साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार किया था ;
16) किन्तु मिस्रियों ने इस्राएलियों का धूम-धाम से स्वागत किया और उन्हें समान अधिकार देने के बाद ही उन्हें कठोर बेगार से कष्ट दिया।
17) जिस तरह अन्य लोग धर्मी के द्वार पर अन्धे बनाये गये, उसी तरह मिस्री भी, जब घोर अन्धकार से घिर कर उन में प्रत्येक को टटोलते-टटोलते अपना द्वार ढूँढ़ना पड़ा।
18) घटनाओं पर विचार करने पर लगता है कि जिस प्रकार वीणा के स्वरों के परिवर्तन से लय बदलती है, किन्तु संगीत बना रहता है, इसी प्रकार प्रकृति के तत्वों में भी परिवर्तन हुआ;
19) क्योंकि थलचर जलचर बन गये और तैरने वाले भूमि पर चलते थे।
20) आग पानी में बल पकड़ती थी और पानी आग बुझाने का सामर्थ्य भूल जाता था।
21) दूसरी ओर ज्वाला उन जन्तुओं का विनाष नहीं करती थी, जो उस में आते-जाते थे, और वह दिव्य भोजन नहीं गलाती थी, जो पाले की तरह आसानी से गलता था।
22) प्रभु! तूने अपनी प्रजा को सब तरह से महान् और महिमामय बनाया और तू हर क्षण और हर स्थान में उसकी सहायता करता रहा।