पवित्र बाइबिल : Pavitr Bible ( The Holy Bible )

पुराना विधान : Purana Vidhan ( Old Testament )

उपदेशक ग्रन्थ ( Ecclesiastes )

अध्याय 1

1) दाउद के पुत्र, येरुसालेम के राजा उपदेषक के वचन
2) उपदेषक कहता है, ÷÷व्यर्थ ही व्यर्थ; व्यर्थ ही व्यर्थ; सब कुछ व्यर्थ है।÷÷
3) मनुष्य को इस पृथ्वी पर के अपने सारे परिश्रम से क्या लाभ?
4) एक पीढ़ी चली जाती है, दूसरी पीढ़ी आती है और पृथ्वी सदा के लिए बनी रहती है।
5) सूर्य उगता है और सूर्य अस्त हो जाता है। वह शीघ्र ही अपने उस स्थान पर जाता है, जहाँ से वह फिर उगता है।
6) हवा दक्षिण की ओर बहती है, वह उत्तर की ओर मुड़ती है; वह घूम-घूम कर पूरा चक्कर लगाती है।
7) सब नदियाँ समुद्र में गिरती हैं; किन्तु समुद्र नहीं भरता। और नदियाँ जिधर बहती है, उधर ही बहती रहती हैं।
8) यह सब इतना नीरस है, कि कोई भी इसका पूरा-पूरा वर्णन नहीं कर पाता। आँखें देखने से कभी तृप्त नहीं होतीं और कान सुनने से कभी नहीं भरते।
9) जो हो चुका है, वह फिर होगा। जो किया जा चुका है, वह फिर किया जायेगा। पृथ्वी भर में कोई भी बात नयी नहीं होती।
10) जिसके विषय में लोग कहते हैं, ÷÷देखों, यह तो नयी बात है÷÷ वह भी हमारे समय से बहुत पहले हो चुकी है।
11) पहली पीढ़ियो के लोगों की स्मृति मिट गयी है और आने वाली पीढ़ियों की भी स्मृति परवर्ती लोगोें मे नहीं बनी रहेगी।
12) मैं, उपदेषक, येरुसालेम में इस्राएल का शासक था।
13) मैंने आकाष के नीचे जो कुछ घटित होता है, उसकी छानबीन और खोज करने में अपना मन लगाया। यह एक कष्टप्रद कार्य है, जिसे प्रभु ने मनुष्यों को सौंपा है।
14) मैंने आकाष के नीचे का सारा कार्यकलाप देखा है- यह सब व्यर्थ है और हवा पकड़ने के बराबर है।
15) जो टेढ़ा है, वह सीधा नहीं किया जा सकता और जो है ही नहीं, उसकी गिनती नहीं हो सकती।
16) मैंने अपने मन में सोचा कि अपने पहले के येरुसालेम के सब शासको से मैंने अधिक प्रज्ञा प्राप्त की है। मुझे प्रज्ञा और ज्ञान का भण्डार मिल चुका है।
17) फिर मैंने यह जानने का प्रयत्न किया कि प्रज्ञा क्या है, पागलपन और मूर्खता क्या है और मैं समझ गया कि यह भी हवा पकड़ने के बराबर है;
18) क्योंकि प्रज्ञा के बढ़ने के साथ-साथ दुःख भी बढ़ता है और जितना अधिक ज्ञान बढ़ता है, उतना अधिक कष्ट भी होता है।

अध्याय 2

1) फिर मैं अपने मन से बोला, ÷÷चलो, मैं सुख द्वारा तुम्हारी परीक्षा करूँगा, तुम भोग-विलास करो÷÷, किन्तु मैंने अनुभव किया कि वह भी व्यर्थ है।
2) मैंने कहा, ÷÷हँसी मूर्खता है और भोग-विलास से काई लाभ नहीं होता÷÷।
3) मैंने प्रज्ञा की प्रेरणा से मदिरा पी कर अपने शरीर को सुख देने का निष्चय किया। मैं जानना चाहता था, कि कहीं मूर्खता में वह सुख तो नहीं है, जिसकी खोज में मनुष्य अपने जीवन के अल्पकाल में पृथ्वी पर लगे रहते हैं।
4) मैंने बड़ी-बड़ी योजनाएँ पूरी की है; मैंने अपने लिए भवन बनवाये और दाखबारियाँ लगवायी;
5) मैंने अपने लिए बाग और बगीचें तैयार कराये और उन में सब प्रकार के फलदार वृक्ष लगवाये।
6) मैंने अपने लिये पोखर खुदवाये, जिनके पानी से नये वृक्षों के उपवन सींचे जा सके।
7) मैंने दास-दासियोें को खरीदा ओैर मेरे यहाँ अन्य दासों का जन्म हुआ। मेरे पास इतने गाये-बैलों और भेड़-बकरियों के झुण्ड थे, जितने मुझ से पहले येरुसालेम में किसी के पास नहीं थे।
8) मैंने अपने लिए चाँदी, और सोना, राजाओें और राष्ट्रों की सम्पत्ति प्राप्त की। मैंने अपने यहाँ गायक-गायिकाओं को एकत्र किया और मनुष्य का हृदय आनन्दित करने वाली सुन्दरियों को भी।
9) मैं महान् बन गया और अपने पहले के येरुसालेम के सब शासकों से अधिक धनी। इसके अतिरिक्त मेरी प्रज्ञा भी मेरे साथ रही।
10) मेरी आँखें जो कुछ चाहती थी, उस से मैंने परहेज नहीं किया। मैंने अपने हृदय को किसी भी प्रकार के भोग-विलास से वंचित नहीं रखा। मेरा मन मेरे सब कामों में आनन्द लेता था : यह मेरे लिए अपने सारे परिश्रम का पुरस्कार था।
11) तब मैंने अपने हाथों के सब कामों पर और उन्हें सम्पन्न करने के लिए अपने सारे परिश्रम पर विचार किया; मैंने देखा कि यह सब व्यर्थ और हवा पकड़ने के बराबर है। पृथ्वी पर उससे कोई लाभ नहीं होता।
12) इसके बाद मैंने प्रज्ञा, पागलपन और मूर्खता पर विचार किया। राजा का उत्तरदायित्व क्या कर सकता, जो उस से पहले नहीं किया जा चुका है?
13) मैंने देखा कि मूर्खता की अपेक्षा प्रज्ञा से अधिक लाभ होता है, जैसा कि अन्धकार की अपेक्षा प्रकाष से अधिक लाभ होता है, जैसा कि अन्धकार की अपेक्षा प्रकाष से अधिक लाभ होता है।
14) बुद्धिमान् के सिर में आँखें होती है, और मूर्ख अन्धकार में चलता है, किन्तु मैं समझ गया कि दोनों को एक गति प्राप्त होती है।
15) मैं अपने मन से बोला : ÷÷जो गति मूर्ख की है, वही मेरी होगी, तो मुझे प्रज्ञा से क्या लाभ होता है?÷÷ इसलिए मैंने अपने मन में कहा, ÷÷यह भी व्यर्थ है''।
16) मूर्ख की तरह बुद्धिमान् की स्मृति भी नहीं रहेगी; कुछ समय के बाद दोनों भुला दिये जायेंगे। मूर्ख की तरह बुद्धिमान् भी मरता है।
17) इसलिए मुझे जीवन नीरस और आकाष के नीचे का सारा कार्यकलाप दुःखद लगने लगा। यह सब व्यर्थ और हवा पकड़ने के बराबर है।
18) मुझे पृथ्वी पर अपने सारे परिश्रम के फल से घृणा हो गयी है, क्योंकि मुझे सब कुछ अपने उत्तराधिकारी के लिए छोड़ना है।
19) कौन जानता है कि वह बुद्धिमान् होगा या मूर्ख? फिर भी मैंने पृथ्वी पर अपनी बुद्धि और परिश्रम से जो कुछ किया, वह सब उसके नियन्त्रण में आयेगा। यह भी व्यर्थ है।
20) इसलिए मैंने पृथ्वी पर अपना सारा परिश्रम व्यर्थ समझा।
21) मनुष्य समझदारी, कौषल और सफलता से काम करने के बाद जो कुछ एकत्र कर लेता है, उसे वह सब ऐसे व्यक्ति के लिए छोड़ देना पड़ता है, जिसने उसके लिए कोई परिश्रम नहीं किया है। यह भी व्यर्थ और बड़े दुर्भाग्य की बात है;
22) क्योंकि मनुष्य को कड़ी धूप में कठिन परिश्रम करने के बदले क्या मिलता है ?
23) उसके सभी दिन सचमुच दुःखमय हैं और उसका सारा कार्यकलाप कष्टदायक। रात को उसके मन को शान्ति नहीं मिलती। यह भी व्यर्थ है।
24) मनुष्य के लिए सब से अच्छा यह है, कि वह खाये-पिये और परिश्रम करते हुए सन्तुष्ट रहे। मैंने देखा कि यह भी ईष्वर के हाथ से प्राप्त होता है;
25) क्योंकि ईष्वर के अनजान में न तो कोई खा-पी सकता और न चिन्ता कर सकता है।
26) जिस मनुष्य पर ईष्वर प्रसन्न है, वह उसे प्रज्ञा, ज्ञान और आनन्द प्रदान करता है; किन्तु वह पापी मनुष्य से धन एकत्र करने और संचित रखने का काम करवाता, जिससे वह उसे उस मनुष्य को सौंप दे, जिस पर ईष्वर प्रसन्न है। यह भी व्यर्थ और हवा पकड़ने के बराबर है।

अध्याय 3

1) पृथ्वी पर हर बात का अपना वक्त और हर काम का अपना समय होता है :
2) प्रसव करने का समय और मरने का समय; रोपने का समय और पौधा उखाड़ने का समय;
3) मारने का समय और स्वस्थ करने का समय; गिराने का समय और उठाने का समय;
4) रोने का समय और हँसने का समय; विलाप करने का समय और नाचने का समय;
5) पत्थर बिखेरने का समय और पत्थर एकत्र करने का समय; आलिंगन करने का समय और आलिंगन नहीं करने का समय;
6) खोजने का समय और खोने का समय; अपने पास रखने का समय और फेंक देने का समय;
7) फाड़ने का समय और सीने का समय; चुप रहने का समय और बोलने का समय;
8) प्यार करने का समय और बैर करने का समय; युद्ध का समय और शान्ति का समय।
9) मनुष्य को अपने सारे परिश्रम से क्या लाभ ?
10) ईष्वर ने मनुष्यों को जो कार्य सौंपा है, मैंने उस पर विचार किया।
11) उसने सब कुछ उपयुक्त समय के अनुसार सुन्दर बनाया है। उसने मनुष्य को भूत और भविष्य का विवेक दिया है; किन्तु ईष्वर ने प्रारम्भ से अन्त तक जो कुछ किया, उसे मनुष्य कभी नहीं समझ सका।
12) मैं जानता हँू कि मनुष्य के लिए सब से अच्छा यह है कि वह जीवन भर सुखी रहे और आनन्द मनाये।
13) यदि वह खा-पी सके और परिश्रम करते हुए सुख-षान्ति में जीवन बिताये, तो यह ईष्वर का वरदान है।
14) मैं जानता हूँ कि ईष्वर जो करता है, वह सदा बना रहेगा : उस में न कुछ जोड़ा और न कुछ उस से घटाया जा सकता है। ईष्वर यह इसलिए करता है कि मनुष्य उस पर श्रद्धा रखे।
15) जो है, वह पहले हो चुका है; जो होगा, वह भी पहले हो चुका है। जो बीत चुका है, ईष्वर उसे बराबर दोहराता है।
16) मैंने पृथ्वी पर यह भी देखा है : न्यायालय में अन्याय होता है और न्यायासन पर दोषी बैठता है।
17) मैंने अपने मन में यह कहा, ÷÷ईष्वर धर्मी और दुष्ट, दोनों का न्याय करेगा; क्योंकि हर बात और प्रत्येक कार्य का अपना समय होता है÷÷।
18) मैंने मनुष्यों के विषय में अपने मन में यह सोचा है कि ईष्वर उनकी परीक्षा लेता है, जिससे वे समझें कि वे पषुओ-जैसे हैं;
19) मनुष्य की गति पषुओं की गति-जैसी है; दोनों की अन्तगति एक-जैसी है : जिस तरह पषु मरता है, उसी तरह मनुष्य भी मरता है। दोनों में एक ही प्रकार के प्राण हैं और मनुष्य पषु से बढ़कर नहीं है। सच व्यर्थ है।
20) सभी एक ही स्थान जाते हैं : सब मिट्टी से बनें हैं और मिट्टी में मिल जायेंगे।
21) कौन जानता है, कि मनुष्य के प्राण ऊपर उठते और पषु के प्राण पृथ्वी में उतरते हैं?
22) इसलिए मैंने समझा कि मनुष्य के लिए सब से अच्छा यह है कि वह अपने परिश्रम के फल से लाभ उठायें; क्योंकि यही उसका भाग्य है। कोई भी मनुष्य को यह नहीं दिखा सकता कि उसके बाद क्या होने वाला है।

अध्याय 4

1) मैंने यह भी देखा कि पृथ्वी पर बहुत अत्याचार हो रहा है : मैंने दलितोें के आँसू देखे; उन को कोई सान्त्वना नहीं देता। उन पर अत्याचार करने वाले शक्तिषाली है और उन को कोई सान्त्वना नहीं देता।
2) मैं यह भी समझा कि मृतक, जो पहले मर चुके हैं, उन लोगों से सौभाग्यषाली हैं, जो अब तक जीवित हैं।
3) और उन दोनों से और सौभाग्यषाली वह है, जिसका अभी तक जन्म नहीं हुआ; जिसने वह बुराई नहीं देखी, जो सूर्य के नीचे की जाती है; जिसने वे कुकर्म नहीं देखे, जो पृथ्वी पर किये जाते हैं।
4) मैंने यह भी देखा है कि मनुष्य के परिश्रम की सारी सफलता अपने पड़ोसी से ईर्ष्या का परिणाम है। यह भी व्यर्थ है और हवा पकड़ने के बराबर है।
5) मूर्ख हाथ-पर-हाथ रख कर बैठा हुआ अपना ही विनाष करता है।
6) मुट्ठी भर विश्राम अंजली भर परिश्रम से और हवा पकड़ने के प्रयत्न से अच्छा है।
7) मैंने पृथ्वी की एक और व्यर्थ बात देखी।
8) कोई व्यक्ति एकदम अकेला है। उसके न तो कोई पुत्र है और न कोई भाई। वह परिश्रम करता रहता है, उसकी आँखें उसकी सम्पत्ति से तृप्त नहीं है; वह मन-ही-मन पूछता है, ÷÷मैं किसके लिए परिश्रम करता और क्यों अपने को सुख से वंचित करता हूँ?÷÷ यह भी व्यर्थ और दुःखद है।
9) एक अकेले मनुष्य से दो अच्छे हैं, उन्हें अपने परिश्रम का अच्छा फल मिलता है।
10) यदि एक गिर जाता है, तो दूसरा उसे उठाता है; किन्तु अकेले मनुष्य पर शोक! गिरने पर उसे कोई नहीं उठाता।
11) यदि दो साथ लेटते है, तो गर्म रहेंगे। अकेला लेटने वाला कैसे गर्म रहेगा?
12) यदि अकेले व्यक्ति से कोई प्रबल हो जाता, तो दो व्यक्ति उसका सामना कर सकेंगे। तीन लड़ों की बटी रस्सी आसानी से नहीं टूटती।
13) सलाह न मानने वाले बूढ़े मूर्ख राजा से दरिद्र, किन्तु बुद्धिमान् नवयुवक अच्छा है।
14) वह नवयुवक चाहे बन्दीगृह से निकल कर राजा बन गया हो या अपने राज्य में दरिद्रता में जन्मा हो,
15) किन्तु मैंने देखा कि पृथ्वी के सब निवासी राजा के उत्तराधिकारी नवयुवक का पक्ष लेते थे।
16) उसके अनुयायियों की संख्या अपार थी, किन्तु आने वाली पीढ़ी उस से भी असन्तुष्ट थी। यह भी व्यर्थ और हवा पकड़ने का प्रयत्न है।
17) यदि तुम ईष्वर के मन्दिर जाते हो, तो सावधान रहो और पास आ कर ध्यान से सुनो। यह मूर्खो की तरह बलिदान चढ़ाने से अच्छा है। वे यह भी नहीं जानते कि वे कब बुराई करते हैं।

अध्याय 5

1) ईष्वर के सामने खड़े होकर तुम अपने मुँह से जल्दी कोई शब्द नहीं निकालो और अपने हृदय की कोई बात प्रकट करने मेें उतावली मत करो; क्योंकि ईष्वर स्वर्ग में है और तुम पृथ्वी पर हो। इसलिए तुम्हारे शब्द थोड़े ही हो;
2) क्योंकि अधिक चिन्ता करने से मनुष्य दुःस्वप्न देखता और अधिक बोलने से वह बकवाद करता है।
3) यदि तुम ईष्वर के लिए मन्नत मानते हो, तो उसे शीघ्र पूरा करो। वह मूर्खो पर प्रसन्न नहीं होता। तुमने जो मन्नत मानी उसे पूरा करो।
4) मन्नत मानने और उसे पूरा नहीं करने से अच्छा यह है कि तुम मन्नत नहीं मानो।
5) इसका ध्यान रखो कि तुम्हारा मुख तुम को दोषी न बनाये और (मन्नत मानने के बाद) तुम याजक से मत कहो कि गलती हो गयी है। कहीं ऐसा न हो कि ईष्वर तुम पर अप्रसन्न हो और तुम्हारे परिश्रम का फल नष्ट कर दे।
6) स्वप्नों और निरर्थक बातों की कमी नहीं होती, तुम ईष्वर पर श्रद्धा रखो।
7) यदि तुम देखते हो कि देष में दरिद्र सताये जाते हैं, न्याय को भ्रष्ट किया जाता और अधिकार छीने जाते हैं, तो इन बातों पर आष्चर्य मत करो; क्योंकि छोटे अधिकारी से लेकर उच्च अधिकारी तक सब-के-सब एक दूसरे का पक्ष लेते हैं।
8) सब को भूमि से लाभ होता है और राजा का कल्याण कृषि पर निर्भर करता है।
9) जिसे पैसा प्रिय है, वह हमेषा और पैसा चाहता है। जिसे सम्पत्ति प्रिय है, वह कभी अपनी आमदनी से सन्तुष्ट नहीं होता है। यह भी व्यर्थ है।
10) जब सम्पत्ति बढ़ती है, तो उसे खाने वाले भी बढ़ते है। सम्पत्ति को देखकर आँखे तृप्त करने के सिवा स्वामी को उस से क्या लाभ?
11) चाहे खाना ज्यादा मिला हो या कम, मजदूर की नींद मीठी होती है, किन्तु धनी की परितृप्ति उसे सोने नहीं देती।
12) मैंने पृथ्वी पर एक और दुःख देने वाल बुराई देखी है : छिपाकर रखी हुई सम्पत्ति स्वामी को हानि पहुँचाती है।
13) वह सम्पत्ति किसी विपत्ति मेें नष्ट हो जाती है और उसकी सन्तान के हाथ ख़ाली हैं।
14) जिस तरह मनुष्य अपनी माता के गर्भ से बाहर आया, उसी तरह वह नंगा ही यहाँ से चला जायेगा। वह अपने परिश्रम के फल का कुछ भी अपने साथ नहीं ले जा सकता है।
15) यह भी एक दुःख देने वाली बुराई है : वह जिस तरह आया, उसी तरह वह चला जाता है उसे क्या लाभ हुआ? उसने व्यर्थ परिश्रम किया!
16) वह अपना सारा जीवन अन्धकार, निराषा, कष्ट और कटुता में बिताता है।
17) मैं एक बात अच्छी समझता हूँ : यह उचित है कि मनुष्य ईष्वर द्वारा प्रदत्त अल्प जीवनकाल में खाये-पिये और परिश्रम करते हुए सुख-षान्ति का जीवन बितायें; क्योंकि यही उसका भाग्य हैं।
18) यदि ईष्वर किसी मनुष्य को धन-सम्पत्ति प्रदान करता है और उसे उसका उपभोग करने के योग्य बनाता है, तो वह अपना भाग्य स्वीकार करें और परिश्रम करते हुए सुख-षान्ति का जीवन बिताये- यह ईष्वर का वरदान है।
19) यह बिरले ही अपने जीवन के अल्पकाल पर विचार करता है, क्योंकि ईष्वर उसके हृदय को आनन्द से भर देता है।

अध्याय 6

1) मैंने पृथ्वी पर एक और बुराई देखी है, जिसके भार से मनुष्य दब जाता है।
2) ईष्वर किसी मनुष्य को इतनी धन-सम्पत्ति और सम्मान देता है कि उसके हृदय के सब मनोरथ पूरे हो जाते हैं, किन्तु ईष्वर उसे उसका उपभोग करने नहीं देता और पराया व्यक्ति उसका उपभोग करता है। यह भी व्यर्थ और दुःख देने वाली बुराई है।
3) यदि किसी मनुष्य के सौ सन्तानें हों और वह बहुत वर्ष जीवित रहे किन्तु वह अपने वैभव का उपभोग नहीं कर सके और उचित रीति से दफनाया नहीं जाये, तो वह बच्चा उस से अच्छा है, जो मृत पैदा हुआ है।
4) ऐसा बच्चा व्यर्थ ही आता और अनाम ही अन्धकार में चला जाता है।
5) उसने कभी सूर्य को नहीं देखा, वह कुछ नहीं जानता और इसलिए उसे उस मनुष्य की अपेक्षा अधिक शान्ति मिलती है।
6) यदि वह मनुष्य दो हजार वर्ष जीवित रहता, तो उसे सुख-षान्ति नहीं मिलती। क्या सभी एक ही स्थान नहीं जाते?
7) मनुष्य भोजन के लिए सारा परिश्रम करता, किन्तु उसकी भूख कभी शान्त नहीं होती।
8) बुद्धिमान् किस बात में मूर्ख से श्रेष्ठ है? दरिद्र को व्यवहारकुषल होने से क्या लाभ होता है?
9) लालच से किसी वस्तु की खोज में भटकने से उसका उपभोग करना अच्छा है, जो आँखों के सामने है। यह भी व्यर्थ और हवा पकड़ने के बराबर है।
10) जो हो चुका है, उसका नाम रखा जा चुका है और मनुष्य क्या है, इसका भी पता चल गया है। कोई मनुष्य उससे नहीं लड़ सकता, जो उस से बलवान् है।
11) जितने अधिक शब्द, उतना अधिक बकवाद। उससे किस को लाभ होता है?
12) कोई नहीं जानता कि मनुष्य के लिए उसके व्यर्थ और अल्पकालीन जीवन में अच्छा क्या है; वह छाया की तरह बीत जाता है। कोई भी उसे यह नहीं बता सकता कि उसके बाद पृथ्वी पर क्या होगा।

अध्याय 7

1) उत्तम सुगन्धित द्रव्य से सुनाम अच्छा है और जन्मदिन से मृत्यु का दिन अच्छा।
2) दावत के घर जाने की अपेक्षा शोक के घर में प्रवेष करना अच्छा है; क्योंकि मृत्यु हर मनुष्य की गति है। जीवितों को उस पर ध्यान देना चाहिए।
3) हँसी से शोक अच्छा है; क्योंकि उदास मुख वाले का हृदय सुखी हो सकता है।
4) बुद्धिमान् का हृदय शोक के घर को अधिक पसन्द करता है, किन्तु मूर्खो का हृदय उत्सव के घर को।
5) मूर्खों का गाना सुनने की अपेक्षा बुद्धिमान् की डाँट सुनना अच्छा है।
6) मूखोर्ं की हँसी वैसी ही होती है, जैसी हँड़िया के नीचे लकड़ियों की चर-चराहट। यह भी व्यर्थ है।
7) अत्याचार बुद्धिमान् को मूर्ख बनाता और घूस उसे भ्रष्ट कर देती है।
8) किसी मामले का अन्त उसके प्रारंभ से अच्छा है और धैर्य अहंकार से अच्छा है।
9) आसानी से उत्तेजित मत हो; क्योंकि मूर्खों के हृदय में क्रोध का निवास है।
10) यह मत पूछो कि पहले के दिन क्योंं इन दिनों से अच्छे थे। इस प्रकार का प्रष्न उठाना बुद्धिमानी की बात नहीं।
11) प्रज्ञा विरासत की तरह अच्छी बात है, इस से सूर्य देखने वाले लाभ उठाते हैं।
12) प्रज्ञा और धन, दोनों मनुष्य की रक्षा करते हैं, कि वह ज्ञानी को जीवन प्रदान करता है।
13) ईष्वर के कार्यों पर विचार करो : जिसे ईष्वर ने टेढ़ा कर दिया, उसे कौन सीधा कर सकता है?
14) सुख के दिन आनन्द मनाओ, दुःख के दिन यह सोचो कि ईष्वर ने दोनों को बनाया है। मनुष्य नहीं जानता कि उसके बाद क्या होने वाला है।
15) मैंने अपने व्यर्थ जीवन में इन दोनों को देखा है : धर्मी को, जो अपने न्याय के कारण नष्ट हो गया, और दुष्ट को, जो अपनी दुष्टता के बावजूद बहुत समय तक जीवित रहा।
16) न बहुत अधिक न्यायी बनों और न बहुत अधिक बुद्धिमान्- क्यों अपनी हानि करना चाहते हो?
17) न बहुत अधिक दुष्ट बनो और न मूर्ख बनो - क्यों समय से पहले मरना चाहते हो?
18) अच्छा यह है कि तुम एक को पकड़े रहो और दूसरे को हाथ से जाने न दो। जो ईष्वर पर श्रद्धा रखता है, वह दोनों कर पायेगा।
19) प्रज्ञा बुद्धिमान् मनुष्य को नगर के दस शासकों से अधिक शक्तिषाली बनाती है।
20) संसार में ऐसा कोई धार्मिक मनुष्य नहीं जो भलाई ही करता और कभी पाप नहीं करता।
21) लोग जो बाते कहते हैं, उन सब पर ध्यान मत दो; नहीं तो तुम अपने नौकर को अपने को कोसते सुनोगे;
22) क्योंकि तुम यह भी जानते हो कि तुमने कितनी बार दूसरों को कोसा है।
23) मैंने प्रज्ञा से इन सब बातों की छानबीन की है और कहा : ÷÷मैंने प्रज्ञा प्राप्त करने का निष्चय किया÷÷, किन्तु यह मेरी शक्ति के परे था।
24) जो अस्तित्व में आया, वह हमारी बुद्धि के परे है। वह गहरा है, बहुत गहरा। कौन उसकी थाह ले सकता है?
25) मैंने सारे हृदय से यह जानने का प्रयत्न किया कि प्रज्ञा और बुद्धि क्या है और यह समझा कि दुष्टता नासमझी और मूर्खता पागलपन है।
26) मैं यह समझता हँू कि कुछ स्त्रियाँ मृत्यु से भी कड़वी है; वे फन्दे-जैसी हैं, उनका हृदय जाल-जैसा और उनके हाथ जंजीर-जैसे हैं। जो ईष्वर के प्रिय है, वही उन से बचता है; किन्तु पापी उनके जाल में फँसता है।
27) उपदेषक कहता है- अनुसन्धान करते-करते मैं इतना ही जान पाया।
28) मैं अनुसन्धान करता रहा, किन्तु मैं असफल रहा। मुझे हजार में एक पुरुष मिला, किन्तु उन सब में मुझे एक भी स्त्री नहीं मिली।
29) अन्त मे मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा : ईष्वर ने मानव जीवन को सरल बनाया, किन्तु मनुष्य ने उसे तर्क-वितर्क से जटिल बना दिया।

अध्याय 8

1) बुद्धिमान् के सदृष कौन है? सृष्टि का रहस्य कौन जानता है? प्रज्ञा मनुष्य का मुख आलोकित करती और उसकी कठोरता दूर कर देती है।
2) ईष्वर के सामने अपनी शपथ के कारण तुम राजा की आज्ञा का पालन करो। तुम उसके यहाँ से उतावली में नहीं जाओ।
3) तुम किसी बात के लिए राजा से अनुरोध नहीं करो; क्योंकि वह जो चाहता है, वही करेगा।
4) राजा का मत निर्णायक है। कौन उससे यह पूछ सकता है कि आप यह क्यों कर रहे हैं?
5) जो उसकी आज्ञा का पालन करता है, उसका कोई अनिष्ट नहीं होगा। जो बुद्धिमान् है, वह हर काम का उपयुक्त समय और उचित ढंग जानता है;
6) क्योंकि हर काम का उपयुक्त समय और ढंग होता है। मनुष्य के लिए बड़े दुःख की बात है
7) कि वह भविष्य को नहीं जानता। उसे कौन बता सकता है कि क्या होने वाला है?
8) किसी को अपने प्राणों पर अधिकार नहीं, कोई उन्हें नहीं रोक सकता। जिस तरह युद्ध के समय किसी को छुट्टी नहीं मिलती, उसी तरह दुष्टों को अपनी दुष्टता से मुक्ति नहीं।
9) मैंने यह सब देखा, जब मैं संसार के समस्त कार्यकलाप पर विचार करता रहा, जहाँ मनुष्य दूसरों पर अधिकार जताता और उन्हें हानि पहुँचाता है।
10) मैंने दुष्टों का दफन देखा। मन्दिर से जाने के बाद लोगों ने नगर में उनका आचरण भुला दिया। यह भी व्यर्थ है।
11) मनुष्य अपने हृदय में इसलिए बुरी योजनाएँ बनाते रहते हैं, कि अपराधियों को तुरन्त दण्ड नहीं दिया जाता।
12) दुष्ट सैकड़ो कुकर्म करने के बाद भी बहुत समय तक जीवित रहते हैं। फिर भी मैं यह जानता हूँ : ईष्वर के भक्तों का कल्याण होगा, क्योंकि वे ईष्वर पर श्रद्धा रखते हैं।
13) किन्तु दुष्ट का कल्याण नहीं होगा। वह छाया की तरह लुप्त हो कर बहुत समय तक जीवित नहीं रहेगा, क्योंकि वह प्रभु पर श्रद्धा नहीं रखता।
14) पृथ्वी पर एक और बात व्यर्थ है : कुछ धर्मियों को दुष्टों का दण्ड भुगतना पड़ता है और कुछ दुष्टों को धर्मियों का पुरस्कार मिलता है। मैं कह चुका हूँ कि यह भी व्यर्थ है।
15) इसलिए मेरी सिफारिष यह है : जीवन में आनन्द मनाओ, क्योंकि पृथ्वी पर मनुष्य के लिए सब से अच्छा यह है कि वह खाये-पिये और प्रसन्न रहे। इस संसार में ईष्वर ने उसे जितने दिन दिये, उन में उसके परिश्रम में वह आनन्द उसके साथ रहे।
16) जब मैंने प्रज्ञा प्राप्त करने और पृथ्वी पर मनुष्य का कार्यकलाप समझने का प्रयत्न किया, तो मैंने देखा कि मनुष्य भले ही दिन-रात परिश्रम करता रहे, किन्तु पृथ्वी पर जो कुछ हो रहा है, वह उस में ईष्वर का उद्देष्य समझने में असमर्थ है। वह कितना ही परिश्रम क्यों न करें, किन्तु उसे सफलता नहीं मिलती। यदि ज्ञानी यह समझने का दावा करता है, तो भी वह उसका पता लगाने में असमर्थ है।

अध्याय 9

1) इन सब बातों पर विचार करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि धर्मी एवं ज्ञानी और उनका सारा कार्यकलाप प्रभु के हाथ में है। कोई मनुष्य यह नहीं जानता कि उसके भाग्य में प्रेम बदा है या बैर।
2) धर्मी और अधर्मी, भला और बुरा, शुद्ध और अषुद्ध, बलिदान चढ़ाने वाला सब की गति एक-जैसी है। भले मनुष्य की गति पापी की जैसी है; शपथ खाने वाले की गति उस व्यक्ति की जैसी है, जो शपथ खाने से डरता है।
3) पृथ्वी पर के सारे कार्यकलाप में यही बुराई है : सब की गति एक-जैसी है। मनुष्यों का हृदय दुष्टता से भरा है। जब तक वे जीवित रहते हैं, उनके हृदय में पागलपन है और उसके बाद वे मृतकों के पास जाते हैं।
4) जब तक जीवन, तब तक आषा है; मुरदा सिंह से जिन्दा कुत्ता अच्छा है।
5) जो जीवित हैं, वे जानते हैं कि उन्हें मरना होगा, किन्तु मृतक कुछ नहीं जानते। उन्हें और कोई प्रतिफल नहीं मिलेगा। उनका नाम तक भुला दिया गया है।
6) उनका प्यार, उनका बैर और उनकी ईर्ष्या-यह सब मिट गया है। पृथ्वी पर के सारे कार्यकलाप में उनका अब कोई भाग नहीं रहा।
7) जाओ, आनन्द के साथ अपनी रोटी खाओ और प्रसन्न हो कर अपनी अंगूरी पियों, क्योंकि ईष्वर उसके लिए अपनी स्वीकृति दे चुका है।
8) तुम हमेषा उज्जवल कपड़े पहनों और अपने सिर पर तेल लगाओ।
9) ईष्वर ने तुम्हे पृथ्वी पर जो व्यर्थ जीवन दिया है, उस में अपनी प्रिय पत्नी के साथ जीवन का आनन्द भोगते रहो-यह जीवन में और पृथ्वी पर तुम्हारे परिश्रम में तुम्हारा भाग्य है।
10) तुम्हारे हाथ जो भी काम करें, उसे पूरी लगन के साथ करो; क्योंकि अधोलोक में, जहाँ तुम जाने वाले हो, वहाँ न तो काम है, न विचार, न ज्ञान और न प्रज्ञा।
11) मैंने पृथ्वी पर और एक बात देखी है। न तो दौड़ में सब से दु्रतगामी जीतता और न युद्ध में सब से शक्तिषाली विजयी होता है। न तो सब से बुद्धिमान् को भोजन मिलता, न सब से समझदार को धन-सम्पत्ति और न सब से ज्ञानी को कृपादृष्टि। सब कुछ समय और संयोग पर निर्भर है।
12) इसके अतिरिक्त कोई नहीं जानता कि उसकी घड़ी कब आयेगी। जिस तरह मछलियाँ क्रूर जाल में और पक्षी फन्दे मे फँसते है, उसी तरह मनुष्य विपत्ति के षिकार बनते हैं, जो अचानक उन पर आ पड़ती है।
13) मैंने पृथ्वी पर प्रज्ञा का एक उदाहरण भी देखा, जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया।
14) एक छोटा-सा नगर था; उसमें बहुत कम लोग रहते थे। एक शक्तिषाली राजा ने आकर उसके चारों ओर बड़ी मोर्चाबन्दी कर दी।
15) वहाँ के एक दरिद्र और बुद्धिमान् व्यक्ति ने अपनी प्रज्ञा से नगर की रक्षा की, किन्तु बाद में किसी ने भी उस दरिद्र को याद नहीं किया।
16) इसलिए मैंने कहा, ÷÷प्रज्ञा शक्ति से श्रेष्ठ है÷÷, किन्तु दरिद्र की प्रज्ञा का तिरस्कार किया जाता और उसकी बातों पर कोई भी ध्यान नहीं देता।
17) मूर्खों के बीच राजा की चिल्लाहट की अपेक्षा बुद्धिमान् की शान्तिपूर्ण बातों पर अधिक ध्यान दिया जाता है।
18) युद्ध-यन्त्रों की अपेक्षा प्रज्ञा श्रेष्ठ है, किन्तु एक ही गलती बहुत अच्छा काम बिगाड़ दे सकती है।

अध्याय 10

1) मरी हुई मक्खियाँ सुगन्धित द्रव्य बिगाड़ती है; इसी प्रकार थोड़ी-सी मूर्खता प्रज्ञा और सम्मान को चौपट कर सकती है।
2) बुद्धिमान् का हृदय भलाई की ओर झुकता है और मूर्ख का हृदय बुराई की ओर।
3) मार्ग पर चलने वाले मूर्ख को बुद्धि नहीं सूझती। वह सब को यह दिखा देता है, कि वह कितना मूर्ख है।
4) जब शासक तुम पर अप्रसन्न हो, तो अपना काम मत छोड़ो; क्योंकि धैर्य बहुत-सी गलतियों से बचाता है।
5) मैंने पृथ्वी पर एक बुराई देखी है एक ऐसी गलती, जिसे शासक किया करते हैं;
6) मूर्खों की नियुक्ति बड़े-बड़े पदों पर होती है और धनियों की छोटे-छोटे पदों पर।
7) मैंने दासों को घोड़ो पर यात्रा करते देखा है और शासकों को दासों-जैसा पैदल जाते।
8) जो गड्ढा खोदता, वह उसमें गिर सकता है; जो दीवार में सेंध लगाता, उसे साँप काट सकता है;
9) जो खादान से पत्थर निकालता, उसे चोट लग सकती है; जो लकड़ियाँ चीरता, उसे उन से खतरा रहता है।
10) यदि तुम भोथरे कुल्हाड़े की धार नहीं पजाते, तो दुगुना परिश्रम करना पड़ेगा। बुद्धिमानी सफलता की कुंजी है।
11) यदि मन्त्र सुनने से पहले साँप काट ले, तो सँपेरा क्या कर सकता है?
12) बुद्धिमान् के मुख से निकलने वाले शब्द प्रिय लगते हैं, किन्तु मूर्ख की बातें उसके विनाष का कारण बनती है।
13) उसके मुख से निकलने वाले शब्द मूर्खता से प्रारंभ होते है, किन्तु उनका अन्त दुष्टतापूर्ण पागलपन है।
14) मूर्ख बहुत बातें करते हैं। यह कोई भी नहीं जानता कि बाद में क्या होगा और कोई भी उसे यह नहीं बता सकता कि उसके बाद क्या होने वाला है।
15) मूर्ख अपने परिश्रम से इतना थक जाता कि उसे नगर का रास्ता भी नहीं सूझता।
16) उस देष पर शोक, जिसका राजा बच्चा है, जिसके सामन्त प्रातःकाल से दावत उड़ाते हैं!
17) धन्य है वह देष, जिसका राजा कुलीन है, जिसके सामन्त मतवाले बनने के लिए नहीं, बल्कि बल प्राप्त करने के लिए उचित समय पर खाते-पीते हैं!
18) यदि कोई आलसी है, तो उसकी छत बैठ जाती है। यदि उसके हाथ सुस्त है, तो घर में पानी चूता है।
19) लोग मन बहलाने के लिए भोजन करते और अंगूरी जीवन को आनन्दपूर्ण बनाती है, किन्तु धन से हर समस्या का समाधान हो जाता है।
20) तुम मन में भी राजा की निन्दा मत करो और अपने शयन-कक्ष में भी धनी को मत धिक्कारों; क्योंकि आकाष की कोई चिड़िया तुम्हारे शब्द ले उड़ेगी, कोई पंखदार जीव तुम्हारी बात प्रकट कर देगा।

अध्याय 11

1) अपनी रोटी जलाषय की सतह पर बिखेरो। किसी-न-किसी दिन उसे फिर पा जाओगे।
2) अपान धन सात या आठ लोगों में बाँट दो, क्योंकि तुम नहीं जानते कि पृथ्वी पर कौन-सी विपत्ति आ पड़ेगी।
3) जब बादल पानी से भर जाते हैं, तो वे पृथ्वी पर बरसते हैं। पेड़ चाहे दक्षिण की ओर गिरे या उत्तर की ओर, वह जहाँ गिरता, वहीं पड़ा रहता है।
4) जो हवा पर ही ध्यान रखता, वह नहीं बोता। जो बादलों की ओर देखता रहता, वह नहीं लुनता।
5) जिस तरह तुम नहीं जानते कि प्राण कहाँ जाते और माता के गर्भ में शरीर कैसे बनता है, उसी तरह तुम ईष्वर का कार्य नहीं समझ सकते, जिसने सब कुछ बनाया है।
6) तुम प्रातः अपने खेत में बीज बोओ और सन्ध्या तक काम करते रहो; क्योंकि तुम नहीं जानते कि तुम्हें किस काम में सफलता मिलेगी-इसमें या उसमें, अथवा दोनों में।
7) ज्योति मधुर लगती है और आँखे सूर्य का प्रकाष देख कर प्रसन्न होती हैं।
8) यदि मनुष्य वर्षो तक जीता रहता है, तो उन सबका आनन्द मनाये; किन्तु उसे याद रहे कि बुरे दिनों का अभाव नहीं और जो बाद में आयेगा, वह सब व्यर्थ है।
9) युवक! अपनी जवानी में आनन्द मनाओं अपनी युवावस्था में मनोरंजन करो। अपने हृदय और अपनी आँखों की अभिलाषा पूरी करो, किन्तु याद रखो कि ईष्वर तुम्हारे आचरण का लेखा माँगेगा।
10) अपने हृदय से शोक को निकाल दो और अपने शरीर से कष्ट दूर कर दो, क्योंकि जीवन का प्रभात क्षणभंगुर है।

अध्याय 12

1) अपनी जवानी के दिनों में अपने सृष्टिकर्ता को याद रखों : बुरे दिनों के आने से पहले, उन वर्षों के आने से पहले, जिनके विषय में तुम कहोगे- ÷÷मुुझे उन में कोई सुख नहीं मिला÷÷;
2) उस समय से पहले, जब सूर्य, प्रकाष, चन्द्रमा और नक्षत्र अन्धकारमय हो जायेंगे; और वर्षा के बाद बादल छा जायेंगे;
3) उस समय से पहले, जब घर के रक्षक काँपने लगेंगे, बलवानों का शरीर झुक जायेगा, चबाने वाले इतने कम होंगे कि अपना काम बन्द कर देंगे और जो खिड़कियों से झाँकती है वे धुँधली हो जायेगी ;
4) उस समय से पहले, जब बाहरी दरवाजे बन्द होंगे, चक्की की आवाज मन्द होगी, चिड़ियों की चहचहाहट धीमी पड़ जायेगी और सभी गीत मौन हो जायेंगे;
5) उस समय से पहले, जब ऊँचाई पर चढ़ने से डर लगेगा और सड़को पर खतरे-ही-खतरे दिखाई देंगे, जब बादाम का स्वाद फीका पड़ जायेगा, टिड्डियाँ नहीं पचेंगी और चटनी में रूचि नहीं रहेगी, क्योंकि मनुष्य परलोक सिधारने पर है और शोक मनाने वाले सड़क पर आ रहे हैं;
6) उस समय से पहले, जब चाँदी का तार टूट जायेगा और सोने का पात्र गिर पड़ेगा, जब घड़ा झरने के पास फूटेगा और कुएँ का पहिया टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा;
7) उस समय से पहले, जब मिट्टी उस पृथ्वी में मिल जायेगी, जहाँ से वह आयी है और आत्मा ईष्वर के पास लौट जायेगी, जिसने उसे भेजा है।
8) उपदेषक कहता है : व्यर्थ ही व्यर्थ; सब कुछ व्यर्थ है।
9) उपदेषक न केवल बुद्धिमान था, बल्कि उसने जनता को प्रज्ञा की षिक्षा दी थी। उसने सोचने और परखने के बाद बहुत-सी सूक्तियों का संकलन किया था।
10) उसने सुन्दर सूक्तियों को खोज निकाला था, जिनका सही अर्थ यहाँ लिपिबद्ध किया गया है। ये शब्द प्रमाणित है।
11) बुद्धिमान् के शब्द अंकुष-जैसे है; उसकी सूक्तियों का संग्रह मजबूती से ठोकी कीलों-जैसा है। ये सब एक ही चारवाहे की देन हैं।
12) पुत्र! सावधान रहो, उन में कुछ नहीं जोड़ो। अनेक ग्रन्थों के निर्माण का अन्त नहीं होता और अधिक अध्ययन करने से शरीर थक जाता है।
13) ईष्वर पर श्रद्धा रखो और आज्ञाओं का पालन करो : यही मनुष्य का कर्त्तव्य है;
14) क्योंकि ईष्वर हर कार्य का न्याय करेगा चाहे वह कितना गुप्त क्यों न हो और वह उसे भला या बुरा सिद्ध करेगा।