पवित्र बाइबिल : Pavitr Bible ( The Holy Bible )

पुराना विधान : Purana Vidhan ( Old Testament )

सूक्ति ग्रन्थ ( Proverbs )

अध्याय 1

1) इस्राएल के राजा, दाऊद के पुत्र सुलेमान की सूक्तियाँ :
2) जिससे मनुष्य प्रज्ञा और अनुषासन ग्रहण करें, गम्भीर वचनों को अर्थ समझे,
3) संयमपूर्ण जीवन बिताने की षिक्षा, न्याय, कर्तव्यबोध और सच्चाई प्राप्त करें;
4) भोले-भाले लोगो की समझदारी और नवयुवकों को ज्ञान और विवेक मिले,
5) ज्ञानी इन्हें सुन कर अपना ज्ञान बढ़ाये और विवेकी व्यवहारकुषल बने।
6) वे कहावतों और दृष्टान्तों का, मनीषियों की उक्तियों और पहेलियों का अर्थ समझें।
7) प्रज्ञा का मूल स्त्रोत प्रभु पर श्रद्धा है, किन्तु मूर्ख लोग प्रज्ञा और अनुषासन का तिरस्कार करते हैं।
8) पुत्र! अपने पिता की षिक्षा पर ध्यान दो, अपनी माता की सीख अस्वीकार मत करो।
9) यह मानो तुम्हारे सिर का सुन्दर मुकुट होगा, तुम्हारे कण्ठ को सुषोभित करने वाली माला।
10) पुत्र! यदि पापी लोग तुम को लुभाना चाहें, तो उनकी बात मत मानो।
11) यदि वे कहें, ''आओ, हमारे साथ चलो, हम घात लगा कर किसी का वध करें, हम अकारण किसी निर्दोष व्यक्ति की ताक में रहेें।
12) हम अघोलोक की तरह उन्हे जीवित ही निगल लें, कब्र में उतरने वालों की तरह उन्हे पूर्ण रूप से समाप्त करें।
13) हमें सब प्रकार की बहुमूल्य वस्तुएँ मिल जायेंगी। हम लूट के माल से अपने घर भर लेंगे;
14) हम में से एक बनो, हम सब की एक ही पूँजी होगी।''
15) पुत्र! ऐसे लोगों का साथ मत दो, उनके मार्ग पर पैर मत रखो;
16) क्योंकि उनके कदम बुराई की ओर बढ़ते हैं, वे रक्त बहाने को दौड़ते हैं।
17) जब पक्षी देख रहे हों, तो जाल बिछाना व्यर्थ है।
18) ये लोग अपने ही लोगों का वध करते और अपने ही जीवन की घात में बैठते हैं।
19) यह उन लोगों की गति है, जो पाप की कमाई एकत्र करते, ऐसी कमाई मनुष्यों की जान लेती है।
20) प्रज्ञा सड़कों पर उच्च स्वर से पुकार रही है, उसकी आवाज+ चौको में गूँज रही है।
21) वह भीड़-भरी सड़कों पर पुकार लगा रही है, वह नगर के फाटकों पर अपना सन्देष सुनाती है।
22) ''अज्ञानियों! तुम कब तक मूर्खता पसन्द करोगे? उपहासक कब तक उपहास करते रहेंगे, मूर्ख कब तक ज्ञान से बैर रखेंगे?
23) यदि तुम मेरी चेतावनी पर ध्यान दोगे, तो मैं तुम को अपना आत्मा प्रदान करूँगी और तुम पर अपना सन्देष प्रकट करूँगी।
24) मैंने पुकारा और तुमने मुझे अस्वीकार किया, मैंने अपना हाथ पसारा और तुमने ध्यान नहीं दिया,
25) तुमने मेरे परामर्ष का तिरस्कार किया और मेरी चेतावनी ठुकरायी,
26) इसलिए मैं तुम्हारी विपत्ति पर हँसँूगी, तुम पर आने वाले आतंक का उपहास करूँगी।
27) अब आतंक तुम पर आँधी की तरह छा जायेगा, जब विपत्ति बवण्डर की तरह तुम पर टूट पड़ेगी, जब दुःख और संकट तुम को अभिभूत करेंगे,
28) ''तब वे मेरी दुहाई देंगे, किन्तु मैं उत्तर नहीं दूँगी। वे मुझे खोजेंगे, किन्तु मुझे नहीं पायेंगे।
29) उन्होंने ज्ञान से बैर रखा और प्रभु की श्रद्धा नहीं चाही,
30) उन्हें मेरा परामर्ष पसन्द नहीं आया, उन्होंने मेरी चेतावनी का तिरस्कार किया,
31) इसलिए वे अपने आचरण का फल भोगेंगे, वे अपनी योजनाओं के परिणाम से तृत्त किये जायेंगे।
32) अज्ञानियों की अवज्ञा उन्हीं को मारती है, मूर्खों का अविवेक उनका ही सर्वनाष करता है।
33) किन्तु जो मेरी बातों पर ध्यान देता है, वह सुरक्षा में जीवन बितायेगा, वह शान्ति में रह कर विपत्ति से नहीं डरेगा।''

अध्याय 2

1) पुत्र! यदि तुम मेरे शब्दों पर ध्यान दोगे, मेरी आज्ञाओं का पालन करोगे,
2) प्रज्ञा की बातें कान लगा कर सुनोगे और सत्य में मन लगाओगे;
3) यदि तुम विवेक की शरण लोगे और सद्बुद्धि के लिए प्रार्थना करोगे;
4) यदि तुम उसे चाँदी की तरह ढूँढ़ते रहोगे और खजाना खोजने वाले की तरह उसके लिए खुदाई करोगे,
5) तो तुम प्रभु-भक्ति का मर्म समझोगे और तुम्हें ईष्वर का ज्ञान प्राप्त होगा;
6) क्योंकि प्रभु ही प्रज्ञा प्रदान करता और ज्ञान तथा विवेक की षिक्षा देता है।
7) वह धर्मियोंें को सफलता दिलाता और ढाल की तरह सदाचारियों की रक्षा करता है।
8) वह धर्ममार्ग पर पहरा देता और अपने भक्तों का पथ सुरक्षित रखता है।
9) तुम धार्मिकता और न्याय, सच्चाई और सन्मार्ग का मर्म समझोगे।
10) प्रज्ञा तुम्हारे हृदय में निवास करेगी और तुम्हें ज्ञान से आनन्द प्राप्त होगा।
11) विवेक तुम्हारा मार्ग प्रषस्त करेगा, समझदारी तुम्हारी रक्षा करेगी।
12) प्रज्ञा तुम्हे दुष्टों के मार्ग पर चलने से रोकेगी-उन लोगों से, जो कपट पूर्ण बातें करते हैं;
13) जो सन्मार्ग से भटक कर अन्धकार के मार्ग पर चलते;
14) जो पाप करना पसन्द करते और बुराई की दुष्टता का रस लेते हैं;
15) जिनके मार्ग टेढ़े-मेढे+ हैं; जो कपटपूर्ण व्यवहार करते हैं।
16) प्रज्ञा तुम को परस्त्री के जाल से बचायेगी, उस व्यभिचारिणी के सम्मोहक वचनों से,
17) जिसने अपनी युवावस्था के साथी का परित्याग किया और अपने ईष्वर का विधान भुला दिया।
18) उसका घर मृत्यु की ओर, उसका पथ अधोलोक की ओर ले जाता है।
19) जो उसके यहाँ अन्दर जाता है, वह लौट कर जीवन के मार्ग पर फिर पैर रहीं रखता।
20) इसलिए तुम अच्छे लोगों के पथ पर चलोगे; तुम धार्मिकों के मार्ग से नहीं भटकोगे।
21) निष्कपट लोग देष के अधिकारी होंगे; निर्दोष लोग उस में निवास करेंगे।
22) किन्तु दुष्ट देष से निर्वासित होंगे; विधर्मी उस से निकाले जायेंगे।

अध्याय 3

1) पुत्र! मेरी षिक्षा को मत भुलाओ; मेरी आज्ञाओं को अपने हृदय में सँजोये रखो;
2) क्योंकि वे तुम्हें लम्बी आयु और बड़ी शान्ति प्रदान करेंगी।
3) प्यार और ईमानदारी को अपने से अलग नहीं करो। उन्हें अपने गले में बाँध लो, अपने हृदय के पटल पर अंकित कर लो।
4) इस प्रकार तुम ईष्वर और मनुष्यों की दृष्टि में कृपा और सुयष के पात्र बनोगे।
5) तुम सारे हृदय से प्रभु का भरोसा करो; अपनी बुद्धि पर निर्भर मत रहो।
6) अपने सब कार्यों में उसका ध्यान रखो। वह तुम्हारा मार्ग प्रषस्त कर देगा।
7) अपने को बुद्धिमान मत समझो। प्रभु पर श्रद्धा रखो और बुराई से दूर रहो;
8) इस से तुम्हारे शरीर को स्वास्थ्य और तुम्हारी हड्डियों को नवजीवन मिलेगा।
9) अपनी सम्पत्ति से प्रभु का सम्मान करो; उसे अपनी उपज का दषमांष चढ़ाओ।
10) इस से तुम्हारे बखार अनाज से भरे रहेंगे और तुम्हारे कोल्हुओं से अंगूरी छलकेगी।
11) पुत्र! प्रभु के अनुषासन की अपेक्षा मत करो और उसकी फटकार का बुरा मत मानो;
12) क्योंकि जिस प्रकार पिता अपने प्रिय पुत्र को दण्ड देता है, उसी प्रकार प्रभु जिसे प्यार करता है, उसे दण्ड देता है।
13) धन्य है वह मनुष्य, जिसे प्रज्ञा मिलती है, जिसने विवेक पा लिया है!
14) उसकी प्राप्ति चाँदी की प्राप्ति से श्रेष्ठ है। सोने की अपेक्षा उस से अधिक लाभ होता है।
15) उसका मूल्य मोतियों से भी बढ़कर है। तुम्हारी कोई अनमोल वस्तु उसकी बराबरी नहीं कर सकती।
16) उसके दाहिने हाथ में लम्बी आयु और उसके बायें हाथ में सम्पत्ति और सुयष हैं।
17) उसके मार्ग रमणीय हैं और उसके सभी पथ शान्तिमय।
18) जो उसे प्राप्त करते हैं, उनके लिए वह जीवन-वृक्ष है। धन्य हैं वे लोग, जो उसे सँजोये रखते हैं!
19) प्रभु ने प्रज्ञा से पृथ्वी को स्थापित किया; उसने विवेक से आकाष को सुदृढ़ किया।
20) उसके ज्ञान से पानी महागर्त्त से फूट निकला और ओस बादलों से टपकने लगी।
21) पुत्र! समझदारी और विवेक सुरक्षित रखों, उन्हें अपनी आँखों से ओझल न करो,
22) जिससे वे तुम को जीवन प्रदान करें और तुम्हारे कण्ठ की माला बनें।
23) इस प्रकार तुम अपने मार्ग पर निरापद आगे बढ़ोगे और तुम्हारे पैर को ठोकर नहीं लगेगी।
24) तुम निर्भय हो कर लेटोगे और लेटने पर तुम्हें सुख की नींद आयेगी।
25) तुम ने तो अचानक आ पड़ने वाले आतंक से और न दुष्टों के आक्रमण से डरोगे;
26) क्योंकि प्रभु तुम्हारा साथ देगा और जाल से तुम्हारे पैरों की रक्षा करेगा।
27) पुत्र! यदि यह तुम्हारी शक्ति के बाहर न हो, तो जिसके आभारी हो, उसका उपहार करो।
28) यदि तुम दे सकते हो, तो अपने पड़ोसी से यह न कहो, ''चले जाओ! फिर आना! मैं तुम्हे कल दूँगा।''
29) जो पड़ोसी तुम पर विष्वास रखता है, उसके विरुद्ध षड्यन्त्र मत रचो।
30) जिसने तुम्हारे साथ कोई अन्याय नहीं किया, उस मनुष्य से अकारण झगड़ा मत करो।
31) विधर्मी से ईर्ष्या मत करो और उसके किसी मार्ग पर पैर न रखों;
32) क्योंकि प्रभु दुष्टों से घृणा करता और सदाचारियों को अपना मित्र बना लेता है।
33) दुष्ट के घर पर प्रभु का अभिषाप पड़ता है, किन्तु वह धर्मी के घर को आषीर्वाद देता है।
34) प्रभु घमण्डियोंं को नीचा दिखाता और दीनों को अपना कृपापात्र बना लेता है।
35) बुद्धिमान् लोगों को सम्मान मिलेगा ओैर मूखोर्ं का तिरस्कार किया जायेगा।

अध्याय 4

1) पुत्रों! पिता की षिक्षा पर ध्यान दो। समझदार बनने का प्रयत्न करो।
2) मैं तुम लोगो को ज्ञान की बातें बता रहा हूँ। मेरी षिक्षा का तिरस्कार मत करो।
3) मैं भी अपने पिता का आज्ञाकारी पुत्र था। मेरी माता मुझे इकलौते पुत्र की तरह प्यार करती थी।
4) मेरे पिता ने यह कहते हुए मुझे षिक्षा दी : ''सारे हृदय से मेरी षिक्षा अपनाओ। मेरी आज्ञाओंं का पालन करो और तुम्हें जीवन प्राप्त होगा।
5) प्रज्ञा और समझदारी प्राप्त करो। मेरे शब्द याद रखो और उन से नहीं भटको
6) ''प्रज्ञा का परित्याग मत करो और वह तुम्हारी रक्षा करेगी। उसको प्यार करो और वह तुम्हारी देख-रेख करेगी।
7) सब से पहले प्रज्ञा प्राप्त करो, किसी भी कीमत पर सद्बुद्धि प्राप्त करो।
8) इसे सँजोये रखो और यह तुम्हें सम्मान दिलायेगी।
9) यह तुम्हारे कण्ठ में एक मनोहर माला डाल देगी और तुम्हें महिमा का किरीट प्रदान करेगी।''
10) पुत्र! सुनो, मेरी बातों पर ध्यान दो और तुम्हारी आयु लम्बी होगी।
11) मै तुम्हें प्रज्ञा का मार्ग दिखाता और सन्मार्ग पर ले चलता हूँ।
12) तुम आगे बढ़ोगे, तो बाधा नहीं होगी; तुम दौड़ने लगोगे, तो ठोकर नहीं खाओगे।
13) इस षिक्षा को ग्रहण करो, इसे कभी मत छोड़ो, इसे सँजोये रखो, क्योंकि यह तुम्हारा जीवन है।
14) दुष्टों के मार्ग में प्रवेष मत करो; कुकर्मियों के पथ पर मत चलो।
15) उस से दूर रहो, उस पर पैर मत रखो; उस से कतरा कर आगे बढ़ो।
16) वे पाप किये बिना सोने नहीं जाते। यदि उन्होंने किसी को पथभ्रष्ट नहीं किया, तो उन्हे नींद नहीं आती।
17) वे अधर्म की रोटी खाते और हिंसा की मदिरा पीते हैं।
18) धर्मियों का मार्ग प्रभात के प्रकाष-जैसा है, जो दोपहर तक क्रमषः बढ़ता जाता है;
19) किन्तु विधर्मियों का मार्ग अन्धकारमय है। उन्हें पता नहीं कि वे किस चीज से ठोकर खायेंगे।
20) पुत्र! मेरी बातों पर ध्यान दो; कान लगा कर मेरी षिक्षा सुनो।
21) उसे अपनी आँखों से ओझल न होने दो; उसे अपने हृदय में सँजोये रखो।
22) वह तुम में नवजीवन का संचार करेगी और तुम्हारे शरीर को स्वस्थ रखेगी।
23) तुम बड़ी सावधानी से अपने हृदय की रक्षा करो, क्योंकि जीवन का स्त्रोत उस से फूटा करता है।
24) अपने मुख को असत्य न बोलने दो, अपने होंठो से हर प्रकार का कपट दूर रखो।
25) तुम्हारी आँखे सीधे, सामने की ओर देखा करें। तुम्हारी दृष्टि ठीक आगे की ओर टिकी रहे।
26) जिस पथ पर चलते हो, उसे ध्यान से देखो; तुम्हारे सभी मार्ग निरापद हों।
27) तुम न तो बायें भटकों और न दायें; बुराई के पथ पर पैर मत रखो।

अध्याय 5

1) पुत्र! मेरी प्रज्ञा पर ध्यान दो, मेरी षिक्षा कान लगा कर सुनो,
2) जिससे तुम विवेकषील बने रहो और तुम्हारे होंठ ज्ञान की बातें बोलें।
3) व्यभिचारिणी के होंठों से मधु चूता है और उसकी वाणी तेल से भी चिकनी है।
4) किन्तु अन्त में वह चिरायते-जैसी कड़वी और दुधारी तलवार-जैसी तेज होती है।
5) उसके पैर मृत्यु की ओर बढ़ते हैं और उसके कदम अधोलोक की ओर।
6) वह जीवन के मार्ग का ध्यान नहीं रखती, उसके पथ टेढ़े-मेढ़े हैं और उसे इसका पता नहीं।
7) पुत्र! मेरी बात सुनो! मेरी षिक्षा की उपेक्षा मत करो।
8) उस से दूर रहो, उसके घर की देहली पर पैर मत रखो।
9) कहीं ऐसा न हो कि तुम अपनी मर्यादा खो बैठो और अपना जीवन उस निर्दय को अर्पित करो।
10) ऐसा न हो कि पराये लोग तुम्हारी सम्पत्ति से तृत्त हों; अपरिचित का घर तुम्हारे परिश्रम से लाभ उठाये
11) और जब तुम्हारा हाड़-मांस घुल गया हो, तो तुम्हें जीवन के अन्त में रोना पड़े।
12) तब तुम कहोगे, ''मैंने अनुषासन से घृणा क्यों की? मेरे हृदय ने परामर्ष का तिरस्कार क्यों किया?
13) मैंने अपने गुरुओंें की वाणी पर ध्यान क्यों नहीं दिया? मैंने षिक्षकों की बातों पर कान क्यों नहींं दिया?
14) मैं समस्त समुदाय की सभा के सामने सर्वनाष के कगार पर पहुँच गया हूँ।''
15) अपने ही कुण्ड का पानी पियो, अपने ही कुएँ के बहते स्त्रोत से।
16) क्यों तुम्हारे जलस्त्रोत घर के बाहर, तुम्हारी जलधाराएँ सड़को पर बहें?
17) इन पर तुम्हारा ही अधिकार है। इन में तुम्हारे साथ किसी पराये की साझेदारी नहीं।
18) तुम्हारे जलस्त्रोत को आषीर्वाद प्राप्त हो। तुम अपनी युवावस्था की पत्नी,
19) उस सुन्दर हिरनी, उस रमणीय मृगी से सुखी रहो उसका प्रेमस्पर्ष तुम को तृप्ति प्रदान करता रहे, उसका प्रेम तुम को मोहित करता रहे।
20) पुत्र! क्यों तुम व्यभिचरिणी पर मोहित होते हो? क्यों तुम परस्त्री को गले लगाते हो?
21) प्रभु प्रत्येक के आचरण का निरीक्षण करता और उसके सभी मार्गो की जाँच करता है।
22) दुष्ट अपने ही कुकर्मो के जाल में फँसता है; वह अपने ही पापों के बन्धनों से बँधता है।
23) वह अनुषासन की कमी से मर जायेगा, उसकी अपनी मूर्खता उसका विनाष कर देगी।

अध्याय 6

1) पुत्र! यदि तुमने अपने पड़ोसी की जमानत दी है, यदि तुमने किसी पराये व्यक्ति के लिए जिम्मेदारी ली है,
2) यदि तुम अपनी प्रतिज्ञा के जाल में फँसे हो, यदि तुम अपने ही शब्दों से बँध गये हो,
3) तो तुम मुक्त होने के लिए यह करो : पुत्र! तुम अपने पड़ोसी के हाथ पड़ गये हो, इसलिए तुम जा कर उस से अनुरोध करते रहो।
4) तुम अपनी आँखों में नींद नहीं आने दो, अपनी पलकों की झपटी न लेने दो,
5) तुम हरिण की तरह षिकारी के जाल से, पक्षी की तरह बहेलिये के फन्दे से अपने को छुड़ाओ।
6) आलसी! तुम चींटी के पास जाओ! उसके आचरण पर विचार करो और प्रज्ञ बनो।
7) उसका न तो कोई स्वामी है, न कोई निरीक्षक और न कोई शासक।
8) वह समय पर अपने रसद का प्रबन्ध करती और फसल के समय अपना भोजन संचित करती है।
9) आलसी! तुम कब तक पड़े रहोगे, तुम अपनी नींद से कब जागोगे?
10) थोड़ी देर तक सोना, थोड़ी देर झपकी लेना और हाथ-पर-हाथ रख कर थोड़ी देर आराम करना-
11) ऐसा होने पर गरीबी तुम पर डाकू की तरह टूटेगी, अभाव तुम पर बलषाली की तरह आक्रमण करेगा।
12) वह व्यक्ति निकम्मा और दुष्ट है, जो असत्य बोलता रहता है;
13) जो आँख मारता, पैर घसीट कर चलता और उँगलियों से इषारा करता है;
14) अपने हृदय मेें कपटपूर्ण योजनाएँ बनाता और लड़ाई लगाता है।
15) इस से विपत्ति उस पर अचानक टूट पड़ेगी, वह पलक मारते ही नष्ट हो जायेगा और उसका उपचार सम्भव नहीं होगा।
16) प्रभु छः बातों से बैर रखता और सात बातोें से घृणा करता है :
17) घमण्ड-भरी आँखें, झूठ बोलने वाली जिह्वा, निर्दोष रक्त बहाने वाले हाथ,
18) कपटपूर्ण योजनाएँ बनाने वाला हृदय, बुराई की ओर बढ़ने वाले पैर,
19) असत्य बोलने वाला झूठा साक्षी और भाइयों में झगड़ा लगाने वाला व्यक्ति।
20) पुत्र! अपने पिता का आज्ञाओं का पालन करो, अपनी माता की सीख अस्वीकार न करो।
21) उन्हे अपने हृदय में सँजोये रखो, उन्हें अपने गले में बाँध लो।
22) वे तुम्हारे सभी मार्गों में तुम्हारा पथ- प्रदर्षन करेंगी, वे तुम्हारी शय्या के पास तुम्हारी रखवाली करेंगी और तुम्हारे जागने पर तुम से बातचीत करेंगी;
23) क्योंकि ये आज्ञाएँ दीपक हैं, यह षिक्षा ज्योति और अनुषासन की डाँट जीवन-मार्ग है,
24) जिससे तुम व्यभिचारिणी से और परस्त्री के प्रलोभन से सावधान रहो।
25) तुम अपने हृदय में उसके सौन्दर्य की अभिलाषा मत करो, तुम उसके कटाक्ष के षिकार मत बनो;
26) क्योंकि वेष्या तो रोटी के टुकड़े से खरीदी जा सकती है, किन्तु व्यभिचारिणी तुम्हारे जीवन का विनाष करती है।
27) क्या कोई अपने पल्ले में आग बाँधेगा और उसके कपड़े नहीं जलेंगे ?
28) क्या कोई जलते अंगारों पर चलेगा और उसके पैर नहीं झुलसेंगे?
29) यही हाल उसका है, जो अपने पड़ोसी की पत्नी के पास जाता है। जो उसका स्पर्ष करता, वह बिना दण्ड के नहीं रहेगा।
30) लोग उस चोर का तिरस्कार नहीं करते, जो अपनी भूख मिटाने के लिए चोरी करता है।
31) फिर भी यदि वह पकड़ा जाये, तो उसे सात गुनी क्षतिपूर्ति करनी और अपने घर की सारी सम्पत्ति देनी पड़ती है।
32) परस्त्रीगमन करने वाला नासमझ है, क्योंकि वह ऐसा करने पर अपना ही सर्वनाष करता है।
33) वह पीटा जायेगा, वह बदनाम होगा और उसका कलंक कभी नहीं मिटेगा;
34) क्योंकि ईर्ष्या पति का क्रोध भड़काती है और वह प्रतिषोध लेते समय दया नहीं करेगा।
35) तुम कितना ही क्यों न देना चाहो, वह क्षतिपूर्ति स्वीकार नहीं करेगा।

अध्याय 7

1) पुत्र! मेरे शब्दों को याद करो। मेरी आज्ञाओं को अपने हृदय में सँजोये रखो।
2) मेरी आज्ञाओं का पालन करो और तुम जीते रहोगे। आँख की पुतली की तरह मेरी षिक्षा को सुरक्षित रखो।
3) उन्हे अपनी उँगलियों में बाँध लो; उन्हे अपने हृदय के पटल पर अंकित करो।
4) प्रज्ञा से यह कहो, ''तू मेरी बहन है''। समझदारी को अपनी कुटुम्बिनी समझो।
5) वे तुम की परस्त्री के जाल से, व्यभिचारिणी के सम्मोहक वचनों से बचायेंगी।
6) एक दिन मैंने अपने घर की खिड़की से, अपने झरोखे से बाहर झाँका।
7) मैंने भोले जवानों की भीड़ में एक नासमझ युवक को देखा।
8) वह नुक्कड़ पर गली में घुसा और उस स्त्री के घर की ओर आगे बढ़ रहा था।
9) उस समय दिन का प्रकाष धुँधला रहा था; रात का अँधेरा गहरा होता जा रहा था।
10) वह स्त्री वेष्या-जैस कपड़े पहने निर्लज्ज हो कर उस से मिलने आयी।
11) वह चंचल और उच्छृंखल है; उसके पैर घर में नहीं टिकते।
12) कभी गली में, कभी बाजार में, वह हर नुक्कड़ पर घात में रहती है।
13) वह उस युवक से लिपट कर उसका चुम्बन करती और निर्लज्जता से उस से यह कहती है :
14) ''मैं शान्ति-बलि चढ़ा चुकी हूँ। मैं अपनी मन्नतें पूरी कर चुकी हूँ।
15) इसलिए मैं तुम से भेंट करने बाहर निकली और तुम मुझे मिल गये।
16) मैंने मिस्र की रंगीन छालटी से अपना बिस्तर सजाया है।
17) मैंने अपनी शय्या को गन्धरस, अगरू और दारचीनी से सींचा है।
18) आओ, हम सबेरे तक रमण करें, प्रेम का उत्सव मनाते रहें।
19) मेरा पति घर पर नहीं है। वह एक लम्बी यात्रा पर बाहर है।
20) वह रूपये से भरी थैली ले कर चला गया और पूर्णिमा तक नहीं लौटेगा।''
21) वह मीठी-मीठी बातों से उसे पथभ्रष्ट करती है। वह सम्मोहक शब्दों से उसे बहकाती है।
22) वह तुरन्त उसके पीछे हो लेता है- बैल की तरह, जिसे कसाईखाना ले जाया जा रहा है; हरिण की तरह, जो फन्दे पर पैर रखता,
23) जिसका शरीर बाण से बेधा जाता है; पक्षी की तरह, जो जाल की ओर बढ़ता और नहीं जानता कि उसे जीवन से हाथ धोना पड़ेगा।
24) पुत्र! मेरी बात सुनो; मेरे वचनों पर ध्यान दो।
25) तुम्हारा हृदय उसके मार्ग पर न चले। तुम उसके पथ पर मत भटको।
26) उसने कितने ही लोगों को पथभ्रष्ट किया; उसने कितने ही लोगों का सर्वनाष किया।
27) उसका घर अधोलोक का मार्ग है; वह मृत्यु के अन्धकारमय घर की ओर ले जाता है।

अध्याय 8

1) प्रज्ञा पुकार रही है। सद्बुद्धि आवाज दे रही है।
2) वह मार्ग के किनारे की ऊँचाई पर, चौराहे पर खड़ी है।
3) वह नगर के फाटकों पर, वह प्रवेष-द्वारों पर ऊँचे स्वर से पुकार रही है :
4) ''मनुष्यों! मैं तुम को सम्बोधित करती हूँ, मैं समस्त मानवजाति को पुकारती हूँ।
5) तुम, जो भोले हो, समझदार बनो; तुम जो मूर्ख हो, बुद्धिमान बनो।
6) ''सुनो, मैं महत्वपूर्ण बातें बताऊँगी। मैं जो कहूँगी, वह बिलकुल सही है;
7) क्योंकि मेरा मुख सत्य बोलता है। मुझे कपटपूर्ण बातों से घृणा है।
8) मेरे मुख से जो शब्द निकलते है, वे सच्चे हैं; उन मेंें कोई छल-कपट या कुटिलता नहीं।
9) वे समझदारी के लिए तर्कसंगत हैं और ज्ञानियों के लिए कल्याणकारी।
10) चाँदी की अपेक्षा मेरी षिक्षा ग्रहण करो, परिष्कृत सोने की अपेक्षा मेरा ज्ञान स्वीकार करो;
11) क्योंकि प्रज्ञा का मूल्य मोतियों से भी बढ़कर और वह किसी भी वस्तु से अधिक वांछनीय है।''
12) मैं, प्रज्ञा, समझदारी के साथ रहती हूँ। मुझे ज्ञान और विवेक प्राप्त है।
13) प्रभु पर श्रद्धा बुराई से बैर करती है। मैं घमण्ड, अक्खड़पन, दुराचरण और असत्य कथन से घृणा करती हूँ।
14) मुझे सत्परामर्ष और विवेक प्राप्त है। मुझे में ज्ञान और शक्ति का निवास है।
15) मेरे द्वारा राजा राज्य करते और न्यायाधीष न्यायसंगत निर्णय देते हैं।
16) मेरे द्वारा शासक और उच्चाधिकारी पृथ्वी पर न्यायपूर्ण शासन करते हैं।
17) ''जो मुझ को प्यार करते है, मैं उन्हे प्यार करती हूँ। जो मुझे ढूँढ़ते हैं, वे मुझे पायेंगे।
18) मेरे पास सम्पत्ति और सुयष, स्थायी धन-दौलत और समृद्धि है।
19) मेरा फल सोने, परिष्कृत सोने से बढ़कर है; मेरी उपज शुद्ध चाँदी से श्रेष्ठ है।
20) मैं धार्मिकता के मार्ग पर, न्याय के पथ पर आगे बढ़ती हूँ।
21) जो मुझ को प्यार करते है, मैं उन्हें सम्पत्ति प्रदान करती हूँ। मैंं उनके खजाने भर देती हूँ।
22) ''आदि में, प्रभु ने अन्य कार्यो से पहले मेरी सृष्टि की है।
23) प्रारम्भ में, पृथ्वी की उत्पत्ति से पहले, अनन्त काल पूर्व में मेरी सृष्टि हुई है।
24) जिस समय मेरा जन्म हुआ था, न तो महासागर था और न उमड़ते जलस्त्रोत थे।
25) मैं पर्वतों की स्थापना से पहले, पहाड़ियों से पहले उत्पन्न हुई थी।
26) जब उसने पृथ्वी, समतल भूमि तथा संसार के मूल-तत्व बनाये, तो मेरा जन्म हो चुका था।
27) जब उसने आकाषमण्डल का निर्माण किया और महासागर के चारों ओर वृत्त खींचा, तो मैं विद्यमान थी।
28) जब उसने बादलों का स्थान निर्धारित किया और समुद्र के स्रोत उमड़ने लगे,
29) जब उसने समुद्र की सीमा निष्चित की, जिससे जल तट का अतिक्रमण न करे- जब उसने पृथ्वी की नींव डाली,
30) उस समय मैं कुषल षिल्पकार की तरह उसके साथ थी। मैं नित्यप्रति उसका मनोरंजन करती और उसके सम्मुख क्रीड़ा करती रही।
31) मैं पृथ्वी पर सर्वत्र क्रीड़ा करती और मनुष्यों के साथ मनोरंजन करती रही।''
32) पुत्र! मेरी बात सुनो। मेरे मार्ग पर चलने वाले धन्य हैं!
33) मेरी षिक्षा पर ध्यान दो और प्रज्ञ बनो। उसकी उपेक्षा मत करो।
34) धन्य है वह मनुष्य, जो मेरी बात सुनता, मेरे द्वार पर प्रतिदिन खड़ा रहता और मेरी देहली पर प्रतीक्षा करता है;
35) क्योंकि जो मुझे पाता है, उसे जीवन और प्रभु की कृपा प्राप्त होती है।
36) जो मुझे नहीं पाता, वह अपनी हानि करता है। जो मुझ से बैर रखते, वे मृत्यु को प्यार करते हैं।''

अध्याय 9

1) प्रज्ञा ने अपने लिए घर बनाया है। उसने सात खम्भे खड़े किये हैं।
2) उसने अपने पषुओं को मारा, अपनी अंगूरी तैयार की और अपनी मेज सजायी है।
3) उसने अपनी दासियों को भेजा है और नगर की ऊँचाईयों पर यह घोषित किया :
4) ''जो भोला-भाला है, वह इधर आ जाये''। जो बुद्धिहीन है, उस से वह कहती है :
5) ''आओ! मेरी रोटी खाओ और वह अंगूरी पियों, जो मैंने तैयार की है।
6) अपनी मूर्खता छोड़ दो और जीते रहोगे। बुद्धिमानी के सीधे मार्ग पर आगे बढ़ते जाओ।''
7) जो अविष्वासी को षिक्षा देता है, वह अपमानित किया जाता है। जो दुष्ट को डाँटता है, वह कलंकित होता है।
8) अविष्वासी को मत डाँटो, नहीं तो वह तुुम से बैर रखेगा। बुद्धिमान को डाँटों और वह तुम को प्यार करेगा।
9) ज्ञानी को षिक्षा दो, वह और ज्ञानी बनेगा। सदाचारी को षिक्षा दो, उसका ज्ञान बढ़ेगा।
10) प्रज्ञा का मूल स्रोत प्रभु पर श्रद्धा है। बुद्धिमानी परमपावन ईष्वर का ज्ञान है;
11) क्योंकि मेरे द्वारा तुम्हारे दिनों की संख्या बढ़ेगी और तुम्हारी आयु लम्बी होगी।
12) यदि तुम प्रज्ञ हो, तो उस से तुम को लाभ होगा। यदि तुम अविष्वासी हो, तो उस से तुम्हें हानि होगी।
13) मूर्ख स्त्री बकवाद करती है। वह नादान है और कुछ नहीं समझती।
14) वह अपने घर के द्वार पर, नगर के ऊँचे स्थानों पर बैठकर
15) उधर गुज+रने वालोें को पुकारती है, जो सीधे आगे बढ़ना चाहते हैं :
16) ''जो भोला-भाला है, वह मेरे यहाँ आये''। जो नासमझ हैं, वह उन से यह कहती है :
17) ''चोरी का जल मीठा है, छिप कर खाये हुये व्यंजन स्वादिष्ट हैं'';
18) किन्तु वे नहीं जानते कि वहाँ प्रेतोें का वास है और उसके अतिथि अधोलोक में पड़े हैं।

अध्याय 10

1) बुद्धिमान् पुत्र अपने पिता को आनन्द देता, किन्तु मूर्ख पुत्र से माता को दुःख होता है।
2) अन्याय की सम्पत्ति से लाभ नहीं, किन्तु धार्मिकता मृत्यु से रक्षा करती है।
3) प्रभु धार्मिक मनुष्य को भूखा नहीं रहने देता, किन्तु पापियों की लालसा की पूर्ति में बाधा डालता है।
4) आलसी हाथ गरीब और परिश्रमी हाथ अमीर बनाते हैं।
5) जो उपयुक्त समय पर रसद एकत्र करता, वह बुद्धिमान् है। जो फसल के समय सोता रहता, वह घृणित है।
6) धार्मिक मनुष्य को आषीर्वाद प्राप्त है, किन्तु विधर्मी के मुख में हिंसा भरी है।
7) धार्मिक मनुष्य का स्मरण मंगलकारी है, किन्तु विधर्मी का नाम मिट जायेगा।
8) जो बुद्धिमान् है, वह आज्ञाओं का पालन करता है; किन्तु बकवादी मूर्ख का विनाष होता है।
9) जो धर्म के मार्ग पर चलता है, वह सुरक्षित है; किन्तु जो टेढ़े-मेढ़े मार्गों पर चलता है, वह दण्ड पायेगा।
10) जो आँख मारता है, वह दुःख का कारण बनता है और बकवादी मूर्ख नष्ट होता है।
11) सद्धर्मी का मुख जीवन का स्रोत है, किन्तु विधर्मी के मुख में हिंसा भरी है।
12) बैर झगड़े को बढ़ावा देता है, किन्तु प्रे्रम सभी पाप ढाँक देता है।
13) बुद्धिमान् के शब्दों में प्रज्ञा का निवास है, किन्तु लोग मूर्ख की पीठ पर लाठी मारते हैं।
14) बुद्धिमान अपने ज्ञान का भण्डार भरता रहता है। मूर्ख का बकवाद उसके विनाष का कारण बनता है।
15) धनी की सम्पत्ति उसके लिए किलाबन्द नगर है। कंगाल की गरीबी उसकी विपत्ति का कारण है।
16) धर्मी की कमाई जीवन की ओर, किन्तु विधर्मी की आमदनी पाप की ओर ले जाती है।
17) जो अनुषासन में रहता, वह जीवन की ओर आगे बढ़ता है; किन्तु जो चेतावनी की उपेक्षा करता, वह पथभ्रष्ट होता है।
18) जो अपना बैर छिपाता, वह कपटपूर्ण बातें करता है। जो झूठा आरोप लगाता, वह निरा मूर्ख है।
19) जो बहुत अधिक बोलता, वह पाप से नहीं बचता; किन्तु जो अपनी जिह्वा पर नियन्त्रण रखता, वह बुद्धिमान् है।
20) धर्मी की जिह्वा शुद्ध चाँदी है, किन्तु पापियों के हृदय का कोई मूल्य नहीं।
21) धर्मी की बातों से बहुतों को लाभ होता है, किन्तु मूर्ख अपने अविवेक के कारण नष्ट होते हैं।
22) प्रभु के आषीर्वाद से ही कोई धनवान बनता है। इसकी तुलना में हमारा परिश्रम नगण्य है।
23) मूर्ख पापकर्म में, किन्तु बुद्धिमान् प्रज्ञा में रस लेता है।
24) दुर्जन जिस बात से डरता, वह उसके सिर पड़ती है; किन्तु धर्मियों की मनोकामनाएँ पूरी हो जाती हैं।
25) बवण्डर पापी को उड़ा ले जाता है, किन्तु धर्मी सदा दृढ़ बना रहता है।
26) आलसी अपने को कार्य सौंपने वालों के लिए वैसा है, जैसा सिरका दाँतों के लिए और धुआँ आँखों के लिए।
27) प्रभु पर श्रद्धा आयु बढ़ाती है, किन्तु दुष्टों के वर्ष घटाये जाते हैं।
28) धर्मियों का भविष्य आनन्दमय है, किन्तु दुष्टों की आषा व्यर्थ हो जाती है।
29) प्रभु का मार्ग धर्मी का गढ़ है, किन्तु वह कुकर्मियों का विनाष करता है।
30) धर्मी कभी विचलित नहीं होगा, किन्तु विधर्मी देष में निवास नहीं करेंगे।
31) धर्मी के मुख से प्रज्ञा के शब्द निकलते हैं, किन्तु कपटी जिह्वा काट दी जायेगी।
32) धर्मी के होंठ प्रिय बातें करते हैं, किन्तु दुष्ट के मुख से कुटिल बातें निकलती हैं।

अध्याय 11

1) प्रभु को खोटे तराजू से घृणा है, किन्तु उसे सही बात पसन्द है।
2) घमण्डी को अपमानित किया जाता है, किन्तु विनम्र में प्रज्ञा का वास है।
3) धर्मियों की ईमानदारी उनका पथप्रदर्षन करती है। किन्तु विधर्मियों का कपट उनका विनाष करता है।
4) सम्पत्ति कोप के दिन किसी काम की नहीं, किन्तु धार्मिकता मृत्यु से रक्षा करेगी।
5) निर्दोष की धार्मिकता उसका मार्ग प्रषस्त करती है, किन्तु दुष्ट की दुष्टता उसका विनाष करती है।
6) निष्कपट की धार्मिकता उसे बचाती है, किन्तु कपटी अपनी वासना के जाल में फँस जाता है।
7) मरने पर दुष्ट की आषा मर जाती है, और अपनी सम्पत्ति पर उसका भरोसा भी मरता है।
8) धर्मी संकट से मुक्त है; वह विधर्मी के सिर पर पड़ता है।
9) विधर्मी अपनी बातों से अपने पड़ोसी का विनाष करता है, किन्तु धर्मी अपने ज्ञान द्वारा बच जाते हैं।
10) धर्मियों की उन्नति पर नगर आनन्द मनाता है, किन्तु दुष्टों के विनाष पर लोग जयकार करते हैं।
11) धर्मियों के आषीर्वाद से नगर की उन्नति होती है, किन्तु दुष्टों के दुर्वचनों से वह नष्ट हो जाता है।
12) जो अपने पड़ोसी को तुच्छ समझता, वह मूर्ख है; किन्तु समझदार व्यक्ति मौन रहता है।
13) गप्पी गुप्त बातें प्रकट करता है, किन्तु विष्वासी उन्हें छिपाये रखता है।
14) नेतृत्व के अभाव में राष्ट्र नष्ट हो जाता है, किन्तु परामर्षदाताओं की भारी संख्या में कल्याण है।
15) जो अपरिचित की जमानत देता है, वह हानि उठायेगा। और उत्तरदायित्व अस्वीकार करने वाला झंझट से बचता है।
16) सहृदय नारी का सम्मान होता है, और परिश्रमी व्यक्ति को धन प्राप्त होता है।
17) जो दूसरों पर कृपा करता, वह अपना हितकारी हैः किन्तु निर्दय अपनी ही हानि करता है।
18) दुष्ट की कमाई विष्वसनीय नहीं होती, किन्तु जो न्याय बोता, उसे सच्चा प्रतिफल मिलेगा।
19) धार्मिकता जीवन की ओर ले जाती है, किन्तु बुराई करने वाला मृत्यु की ओर बढ़ता है।
20) प्रभु को कपटी हृदयों से घृणा है, किन्तु वह निर्दोषों पर प्रसन्न है
21) दुष्ट को अन्त में निष्चय ही दण्ड मिलेगा, किन्तु धर्मियो का वंष बना रहेगा।
22) नासमझ स्त्री का सौन्दर्य सूअर के थूथन में सोने की नथ है।
23) धर्मियों के भाग्य में कल्याण बदा है, किन्तु विधर्मियों के भाग्य में प्रभु का क्रोध लिखा है।
24) जो उदारता से दान देता, वह और धनवान् बनता है। जो कृपणता से देता, वह दरिद्र बनता है।
25) उदार व्यक्ति सम्पन्न होता जाता है, जो दूसरो को पिलाता, उसे भी पिलाया जायेगा।
26) लोग अनाज के जमाखोर को कोसते हैं और अनाज बेचने वाले को आषीर्वाद देते हैं।
27) जो भलाई करता रहता, उसे ईष्वर की कृपा प्राप्त है। जो बुराई करता रहता, उसका अन्त बुरा होगा।
28) जिसे अपनी सम्पत्ति का भरोसा है, उसका पतन होगा; किन्तु धर्मी नये पौधों-जैसा लहलहायेगा।
29) जो अपनी गृहस्थी का ध्यान नहीं रखता, उसकी विरासत नष्ट हो जायेगी। मूर्ख बुद्धिमान् का नौकर बनेगा।
30) धर्मी को जीवन-वृक्ष प्राप्त होगा। बुद्धिमान् लोगों का हृदय मोह लेता है।
31) यदि धर्मी को पृथ्वी पर अपने कर्मों का फल मिलता है, तो दुष्ट और पापी को क्यों नहीं ?

अध्याय 12

1) जिसे अनुषासन प्रिय है, उसे ज्ञान भी प्रिय है। जो सुधार से घृणा करता, वह मूर्ख है।
2) जो भला है, उसे प्रभु की कृपा मिलती है, किन्तु प्रभु कपटी को दण्ड देता है।
3) जो बुराई करता, वह नहीं टिक सकता; किन्तु धर्मियों की जड़े नहीं उखाड़ी जायेंगी।
4) सच्चरित्र पत्नी अपने पति का मुकुट है, किन्तु व्यभिचारिणी अपने पति की हड्डियों का क्षय है।
5) धर्मी के विचार न्यायसंगत, किन्तु दुष्टों की योजनाएँ कपटपूर्ण हैं।
6) दुष्टों के शब्द घातक हैं, किन्तु धर्मियों के शब्द लोगों की रक्षा करते हैं।
7) दुष्टों का विनाष हो जाता है और वे फिर दिखाई नहीं देते, किन्तु धर्मी का घराना बना रहता है।
8) समझदारी के कारण मनुष्य की प्रषंसा होती है, किन्तु जिनका मन कुटिल है, उनका तिरस्कार किया जाता है।
9) उपेक्षित मनुष्य, जिसके पास नौकर है, उस शेख़ीबाज से अच्छा है, जिसे पेट भर रोटी नहीं मिलती।
10) धर्मी अपने पशुओं की आवष्यकताओं का ध्यान रखता, किन्तु पापी स्वभाव से निर्दय है।
11) जो अपनी भूमि जोतता, उसे रोटी की कमी नहीं होगी; किन्तु जो व्यर्थ के कामों में लगा रहता वह नासमझ है।
12) दुष्ट पापियोें की लूट का लालच करता, किन्तु धर्मियों की जड़ फल उत्पन्न करेगी।
13) दुष्ट अपने शब्दों के जाल में फँस जाता, किन्तु धर्मी विपत्ति से मुक्ति पाता है।
14) मनुष्य जिस तरह अपने हाथ से परिश्रम का फल पाता उसी तरह उसे अपने शब्दोंं के फल से अच्छी चीजें+ प्राप्त होती हैं।
15) मूर्ख अपना आचरण ठीक समझता, किन्तु जो सत्परामर्ष सुनता, वह बुद्धिमान् है।
16) मूर्ख अपना क्रोध तुरन्त प्रकट करता, किन्तु समझदार व्यक्ति अपमान पी जाता है।
17) विष्वसनीय गवाह प्रामाणिक साक्ष्य देता है, किन्तु झूठा गवाह कपटपूर्ण बातें कहता है।
18) अविचारित शब्द कटार की तरह छेदते हैं, किन्तु ज्ञानियों की वाणी मरहम-जैसी है।
19) सत्यवादी का कथन सदा बना रहता, किन्तु मिथ्यावादी की वाणी क्षणभंगुर है।
20) बुरी योजनाएँ बनाने वालों के मन में कपट, किन्तु शान्ति-समर्थकों के मन में आनन्द है।
21) धर्मियों के सिर पर विपत्ति नहीं पड़ेगी, किन्तु दुष्ट कष्टों से घिरे रहते हैं।
22) प्रभु को झूठ बोलने वालों से घृणा है, किन्तु वह सत्य बोलने वालों पर प्रसन्न है।
23) बुद्धिमान् अपना ज्ञान छिपाये रखता किन्तु मूर्ख अपनी मूर्खता घोषित करता है।
24) परिश्रमी शासक बनेगा, किन्तु आलसी को बेगार में लगाया जायेगा।
25) मन की चिन्ता मनुष्य को निराष करती है, किन्तु एक सहानुभूतिपूर्ण शब्द उसे आनन्दित कर देता है।
26) धर्मी दूसरों का पथप्रदर्षन करता किन्तु दुष्टों का मार्ग उन्हें भटका देता है।
27) आलसी के हाथ षिकार नहींं लगता, किन्तु परिश्रमी धन एकत्र करता हेै।
28) धार्मिकता का मार्ग जीवन की ओर, किन्तु दुष्टता मृत्यु की ओर ले जाती है।

अध्याय 13

1) समझदार पुत्र अपने पिता की षिक्षा सुनता है, किन्तु उपहास करने वाला डाँट-डपट की चिन्ता नहीं करता।
2) मनुष्य अपने शब्दों का अच्छा फल खाता है, किन्तु अविष्वासी की प्रवृत्ति हिंसा की ओर है।
3) जो अपनी जिह्वा पर नियन्त्रण रखता वह सुरक्षित है; किन्तु जो व्यर्थ की बातें करता, वह नष्ट हो जाता है।
4) आलसी की आषा व्यर्थ है, किन्तु परिश्रमी की इच्छा पूरी होगी।
5) धर्मी को झूठ से घृणा है, किन्तु दुष्ट कलंकित और अपमानित होता है।
6) धार्मिकता निर्दोष की रक्षा करती, किन्तु पाप दुष्टों के विनाष का कारण बनता है।
7) कोई अपने को धनी बताता, जब कि उसके पास कुछ नहीं। कोई अपने को दरिद्र बताता, जब कि उसके पास अपार सम्पत्ति है।
8) धनी का रक्षाषुल्क उसकी सम्पत्ति पर निर्भर है, किन्तु दरिद्र को ऐसी धमकी नहीं दी जाती।
9) धर्मियों की ज्योति देदीप्यमान है, किन्तु दुष्टों का दीया बुझ जायेगा।
10) घमण्ड के कारण झगड़ा होता है, किन्तु जो सलाह लेते, वे समझदार है।
11) अचानक पायी हुई सम्पत्ति नहीं टिकती, किन्तु थोड़ा-थोड़ा करके इकट्ठा धन बढ़ता रहेगा।
12) आषा की पूर्ति में विलम्ब मन को निरुत्साह कर देता है, किन्तु अभिलाषा पूरी होने पर मन में नवजीवन का संचार होता है।
13) जो षिक्षा की अपेक्षा करता, उसे पछताना पड़ेगा; किन्तु जो आज्ञा का पालन करता, उसे पुरस्कार मिलेगा।
14) बुद्धिमान् की षिक्षा जीवन का स्रोत है और मनुष्य को मृत्यु के जाल से छुड़ाती है।
15) सद्बुद्धि मनुष्य को लोगों का कृपापात्र बनाती है, किन्तु बेईमान का आचरण उसके पतन का कारण बनता है।
16) बुद्धिमान् सोच-समझकर कार्य प्रारंभ करता है, किन्तु नासमझ अपनी मूर्खता का प्रदर्षन करता है।
17) दुष्ट सन्देषवाहक दूसरों को संकट में डालता, किन्तु विष्वासी राजदूत से सान्त्वना मिलती है।
18) जो अनुषासन की अपेक्षा करता, उसे दरिद्रता और अपमान सहना पडे+गा; किन्तु जो डाँट का ध्यान रखता, वह सम्मानित होगा।
19) अभिलाषा की पूर्ति आत्मा को आनन्दित करती है। मूर्ख बुराई का मार्ग छोड़ना पसन्द नहीं करता।
20) जो बुद्धिमानों का सत्संग करता, वह बुद्धिमान् बनेगा; किन्तु जो मूर्खों से मेल-जोल रखता, वह संकट में पड़ेगा।
21) विपत्ति पापियों को पीछा करती है, किन्तु सुख-षान्ति धर्मियों का पुरस्कार है।
22) भला मनुष्य अपने पौत्रों के लिए विरासत छोड़ जाता है, किन्तु पापी की सम्पत्ति धर्मी के हाथ लगती है।
23) दरिद्रों का खेत भरपूर फसल पैदा करता है, किन्तु अन्याय उसे चौपट कर देता है।
24) जो छड़ी नहीं लगाता, वह अपने पुत्र का शत्रु है। जो अपने पुत्र को प्यार करता है, उसे दण्ड देने में हिचक नहीं।
25) धर्मी भरपेट भोजन करता, किन्तु पापी भूखा रहता है।

अध्याय 14

1) बुद्धिमान् नारी अपने लिए घर बनाती है, किन्तु मूर्ख स्त्री अपने हाथों से अपना घर गिराती है।
2) सन्मार्ग पर चलने वाला प्रभु पर श्रद्धा रखता है किन्तु कुमार्ग पर चलने वाला प्रभु का तिरस्कार करता है।
3) मूर्ख की गर्वोक्ति से उसकी पीठ पर लाठी पड़ती, किन्तु बुद्धिमान् की वाणी उसकी रक्षा करती है।
4) जहाँ बैल नहीं, वहाँ नाँद खाली है; किन्तु बैल की ताकत से भरपूर फसल होती है।
5) सच्चा गवाह धोखा नहीं देता, किन्तु झूठे गवाह की हर बात झूठी है।
6) उपहास करने वाला व्यर्थ ही प्रज्ञा खोजता है, किन्तु समझदार व्यक्ति सहज ही ज्ञान प्राप्त करता है।
7) मूर्ख से दूर रहो, तुम उसके मुख से ज्ञान की बातें नहीं सुनोंगे।
8) अपने आचरण का ध्यान रखना-यह बुद्धिमान् की प्रज्ञा है। दूसरों को धोखा देना- यह मूर्खों की नासमझी है।
9) मूर्ख पाप का प्रायष्चित नहीं करता। धर्मियों को प्रभु की कृपा प्राप्त है।
10) हृदय अपनी ही पीड़ा का मर्म जानता है, उसके आनन्द का कोई पराया भागी नहीं होता।
11) दुष्टों का घर ढा दिया जायेगा, किन्तु धर्मियों का तम्बू समृद्ध होगा।
12) कुछ लोग अपना आचरण ठीक समझते हैं, किन्तु वह अन्त में उन्हें मृत्यु की ओर ले जाता है।
13) हँसते हुए मनुष्य का हृदय उदास हो सकता है, और आनन्द का परिवर्तन दुःख में संभव है।
14) पथभ्रष्ट अपने आचरण का फल भोगेगा और धर्मी को अपने कर्मों का फल मिलेगा।
15) मूर्ख हर किसी की बात पर विष्वास करता, किन्तु समझदार सोच-विचार कर आगे बढ़ता है।
16) बुद्धिमान् बुराई से डरता और उस से दूर रहता है। मूर्ख लापरवाह है और अपने को सुरक्षित मानता है।
17) क्रोधी व्यक्ति मूर्खतापूर्ण आचरण करता है। लोग कपटी मनुष्य से बैर रखते हैं।
18) भोले के भाग्य में मूर्खता बदी है, किन्तु समझदार के सिर पर ज्ञान का मुकुट है।
19) बुरे लोग भलों के सामने झुकेंगे। दुष्ट धर्मियों के फाटकों को दण्डवत् करेंगे।
20) दरिद्र अपने पड़ोसी द्वारा तुच्छ समझा जाता है, किन्तु धनवान् के बहुत मित्र होते हैं।
21) जो अपने पड़ोसी को तुच्छ समझता, वह पापी है; किन्तु जो दरिद्रों पर दया करता, वह सुखी है।
22) जो बुरी योजनाएँ बनाते है, वे पथभ्रष्ट हो जाते हैं। जो भलाई करते हैं, उन से प्यार और सच्चाई का व्यवहार होता है।
23) परिश्रम से सदा लाभ होता है, किन्तु बकवादी कंगाल बनते हैं।
24) समृद्धि बुद्धिमानों का मुकुट है; मूर्खों की नादानी मात्र नादानी है।
25) सच्चा गवाह लोगों के प्राण बचाता है, किन्तु झूठा गवाह धोखा देता है।
26) जो प्रभु पर श्रद्धा रखता, वह सुरक्षित है और वह अपने पुत्रों का आश्रय होता है।
27) प्रभु पर श्रद्धा जीवन का स्रोत है और मृत्यु के फन्दों से बचाती है।
28) प्रजा की बड़ी संख्या राजा की शोभा है। प्रजा की कमी शासक का विनाष है।
29) जो देर से क्रोध करता, वह समझदार है। क्रोधी व्यक्ति मूर्खतापूर्ण आचरण करता है।
30) मन की शान्ति शरीर को स्वास्थ्य प्रदान करती, किन्तु ईर्ष्या हड्डियों का क्षय है।
31) जो दुर्बल पर अत्याचार करता, वह उसके सृष्टिकर्ता की निन्दा करता है; किन्तु जो दरिद्र पर दया करता है, वह ईश्वर का सम्मान करता है।
32) दुष्ट अपनी ही बुराई द्वारा मारा जाता है, किन्तु धर्मी मरते समय भी भरोसा नहीं छोड़ता।
33) प्रज्ञा समझदार के हृदय में निवास करती है। किन्तु मूखोर्ं के यहाँ उसे कोई नहीं जानता।
34) सदाचार देष को महान् बनाता किन्तु पाप राष्ट्रों का कलंक है।
35) समझदार सेवक को राजा की कृपा प्राप्त है, किन्तु उसका क्रोध निर्लज्ज सेवक पर भड़क उठता है।

अध्याय 15

1) कोमल उत्तर क्रोध को शान्त करता, किन्तु कटुवचन क्रोध भड़काता है।
2) बुद्धिमान् की वाणी ज्ञान बखानती है, किन्तु बुद्धिमान के मुख से मूर्खता प्रकट होती है।
3) प्रभु की आँखें सब कुछ देखती हैं। वह भले-बुरे, दोनों पर दृष्टि दौड़ाता है।
4) सान्त्वना देने वाली वाणी जीवन-वृक्ष है, किन्तु कपटपूर्ण जिह्वा मन को निराष करती है।
5) मूर्ख अपने पिता के अनुषासन की उपेक्षा करता, किन्तु समझदार चेतावनी पर ध्यान देता है।
6) धर्मी के घर में समृद्धि है, किन्तु दुष्ट की आय झंझट पैदा करती है।
7) प्रज्ञा के मुख से ज्ञान की बातें निकलती है, किन्तु मूर्खो का हृदय कपट से भरा है।
8) प्रभु को पापियों के बलिदान से घृणा है, किन्तु उसे धर्मियों की प्रार्थना प्रिय है।
9) प्रभु को पापियों के आचरण से घृणा है, किन्तु धर्मी का आचरण उसे प्रिय है।
10) पथभ्रष्ट को कड़ा दण्ड दिया जायेगा। जो चेतावनी की उपेक्षा करता, वह मर जायेगा।
11) प्रभु अधोलोक और महागर्त्त का रहस्य जानता है, तो मनुष्यों के हृदयों की बात ही क्या है?
12) मूर्ख सुधार का बुरा मानता, वह ज्ञानियों का सत्संग नहीं करता।
13) आनन्दित हृदय मुख को आलोकित करता है, किन्तु दुःखी हृदय से मन उदास होता है।
14) समझदार हृदय ज्ञान की खोज में लगा रहता है, किन्तु नासमझ मूर्खता से अपना मुख भरता है।
15) दरिद्र के सभी दिन दुःखमय हैं, किन्तु प्रसन्न हृदय के लिए प्रतिदिन त्योहार है।
16) अषान्ति पैदा करने वाली अपार सम्पत्ति की अपेक्षा प्रभु पर श्रद्धा रखने वाले व्यक्ति को थोड़ा-सा सामान अच्छा है।
17) बैर के घर के मोटे बछड़े की अपेक्षा प्यार के घर का सागपात अच्छा है।
18) क्रोधी मनुष्य झगड़ा पैदा करता, किन्तु धैर्यवान् उसे शान्त करता है।
19) आलसी का पथ काँटों से भरा है, किन्तु धर्मी का मार्ग प्रषस्त है।
20) बुद्धिमान् पुत्र अपने पिता को आनन्द देता, किन्तु मूर्ख पुत्र अपनी माता का तिरस्कार करता है।
21) मूर्खता नासमझ को आनन्द देती है, किन्तु बुद्धिमान् सन्मार्ग पर आगे बढ़ता है।
22) अविचारित योजनाएँ असफल होती है। परामर्षदाताओं की भारी संंख्या उन्हें सिद्ध करती है।
23) मुँहतोड़ जवाब देने में मनुष्य को आनन्द आता है। यथोचित शब्द कितने अच्छे हैं।
24) बुद्धिमान् का मार्ग ऊपर, जीवन की ओर ले जाता है और उसे नीचे, अधोलोक जाने से बचाता है।
25) प्रभु घमण्डियों का घर गिराता, किन्तु विधवा के खेत के सीमा-पत्थर की रक्षा करता है।
26) प्रभु को दुष्टों की योजनाओं से घृणा है, किन्तु प्रेममय वचन उसे प्रिय है।
27) पाप की कमाई एकत्र करने वाला अपना घर संकट में डालता है, किन्तु घूस से घृणा करने वाला जीवित रहेगा।
28) धर्मी सोच-समझ कर उत्तर देता है, किन्तु दुष्टों के मुख से बुराई प्रकट होती है।
29) प्रभु दुष्टों से दूर रहता, किन्तु वह धर्मियों की प्रार्थना सुनता है।
30) प्रमुदित आँखे हृदय को आनन्दित करती और शुभ समाचार शरीर को स्फूर्ति प्रदान करता है।
31) जो हितकर चेतावनी का ध्यान रखता, उसे ज्ञानियों में स्थान मिलेगा।
32) अनुषासन अस्वीकार करने वाला अपनी ही अवज्ञा करता, किन्तु चेतावनी पर ध्यान देने वाला बुद्धिमान् बनता है।
33) प्रभु पर श्रद्धा रखने वाला प्रज्ञा प्राप्त करता है, विनम्रता सम्मान प्राप्त करने की अनिवार्य शर्त है।

अध्याय 16

1) मनुष्य योजनाएँ बनाता है; उनकी सफलता प्रभु पर निर्भर है।
2) मनुष्य अपना आचरण निर्दोष समझता है, किन्तु प्रभु हृदय की चाह लेता है।
3) अपने सभी कार्य प्रभु को अर्पित करो और तुम्हारी योजनाएँ सफल होगी।
4) प्रभु ने अपने उद्देष्य की पूर्ति के लिए सब कुछ बनाया- दुष्ट को भी, क्रोध के दिन के लिए।
5) प्रभु को घमण्डी से घृणा है। उसे अन्त में निष्चय ही दण्ड मिलेगा।
6) भक्ति और निष्ठा से पाप का प्रायष्चित होता है। प्रभु पर श्रद्धा द्वारा मनुष्य बुराई से दूर रहता है।
7) यदि प्रभु किसी के आचरण से प्रसन्न है तो वह उसके शत्रुओं से भी उसका मेल कराता है।
8) अन्याय से कमायी हुई अपार सम्पत्ति की अपेक्षा धर्मी का थोड़ा-सा सामान अच्छा है।
9) मनुष्य मन में अपना मार्ग निष्चित करता, लेकिन प्रभु उसके कदमों को सुदृढ़ बनाता है।
10) राजा की वाणी में देव-वाणी रहती वह निष्पक्षता से निर्णय देता है।
11) सच्चे पलड़े और तराजू प्रभु के हैं। थैली के सभी बाट उसके बनाये हुए हैं।
12) राजा को कुकर्मो से घृणा है, क्योंकि धार्मिकता के कारण सिंहासन सुदृढ़ रहता है।
13) निष्कपट व्यक्ति को राजा की कृपा प्राप्त है, वह सत्यवादी को प्यार करता है।
14) राजा का क्रोध मृत्यु का दूत है, किन्तु बुद्धिमान् उसे शान्त करता है।
15) राजा की प्रसन्नता जीवन प्रदान करती है। उसकी कृपादृष्टि वसन्त में पानी बरसाने वाले बादल-जैसी है।
16) सोने की अपेक्षा प्रज्ञा प्राप्त करना अच्छा है। चाँदी की अपेक्षा समझदारी अधिक वांछनीय है।
17) धर्मियों का मार्ग बुराई से दूर रहता है। जो अपने मार्ग का ध्यान रखता, वह अपनी रक्षा करता है।
18) घमण्ड विनाष की ओर ले जाता है और अहंकार पतन की ओर।
19) घमण्डियों के साथ लूट बाँटने की अपेक्षा विनम्रों के साथ दरिद्रों की संगति अच्छी है।
20) सुविचारित योजना सफल होती है। जो प्रभु पर भरोसा रखता, वह सुखी है।
21) जिसके हृदय में प्रज्ञा का निवास है, वह समझदार कहलाता है। मधुर वाणी में मनवाने की शक्ति है।
22) समझदारी मनुष्य के लिए जीवन का स्रोत है, किन्तु मूर्खता नासमझ लोगों को दण्ड दिलाती है।
23) ज्ञानी का हृदय उसे अच्छा वक्ता बनाता और उसकी वाणी को मनवाने की शक्ति प्रदान करता है।
24) मधुर वाणी मधुमक्खी का छत्ता है। वह मन को आनन्द और शरीर को स्वास्थ्य प्रदान करती है।
25) कुछ लोग अपना आचरण ठीक समझते हैं, किन्तु वह अन्त में उन्हें मृत्यु की ओर ले जाता है।
26) मजदूर की भूख उस से काम कराती है। उसका खाली पेट उसे विवष करता है।
27) निकम्मा व्यक्ति बुराई की योजना बनाता है। उसके मुख से दाहक अग्नि निकलती है।
28) कपटी व्यक्ति झगड़ा पैदा करता और चुगलखोर मित्रों में फूट डालता है।
29) उपद्रवी व्यक्ति अपने पड़ोसी को बहकाता और उसे कुमार्ग पर ले चलता है।
30) जो कुयोजनाएँ बनाते हुए आँखे बन्द कर लेता और होंठ चबाता है, वह बुराई कर चुका है।
31) सिर के पके बाल सुन्दर मुकुट हैं। वे धर्ममार्ग पर चलने वालों में पाये जाते है।
32) धैर्यवान् व्यक्ति वीर योद्धा से श्रेष्ठ है और आत्मसंयमी नगर-विजेता से बढ़ कर है।
33) निर्णय के लिए चिट्ठियाँ पात्र में डाली जाती है, किन्तु परिणाम प्रभु के हाथ में हैं।

अध्याय 17

1) अनबन के घर मे दावतों की अपेक्षा शान्ति के साथ सूखी रोटी अच्छी है।
2) समझदार सेवक घर के कलंकित पुत्र पर शासन करेगा और उसे उसके भाईयों के साथ विरासत का हिस्सा मिलेगा।
3) घरिया चाँदी की और भट्ठी सोने की परख करती है, किन्तु प्रभु हृदय की परख करता है।
4) कुकर्मी बुरी बातेंें ध्यान से सुनता और झूठ बोलने वाला व्यक्ति चुगली पर कान देता है।
5) जो कंगाल का उपहास करता, वह उसके सृष्टिकर्ता का अपमान करता है। जो दूसरों की विपत्ति पर प्रसन्न होता है, उसे निष्चय ही दण्ड मिलेगा।
6) नाती-पोते बूढ़ों के मुकुट है और पिता पुत्रों की शोभा है।
7) मूर्ख के मुख से अलंकृत भाषा शोभा नहीं देती, किन्तु सम्मानित व्यक्ति का झूठ कहीं अधिक अषोभनीय है।
8) रिष्वत देने वाला समझता है कि घूस जादू का पत्थर है। वह जहाँ भी जाता है, सफलता प्राप्त करता है।
9) अपराध क्षमा करने वाला मित्र बना लेता है। चुगलखोर मित्रोंें में फूट डालता है।
10) मूर्ख पर लाठी के सौ प्रहारों की अपेक्षा समझदार पर एक फटकार अधिक प्रभाव डालती है।
11) दुष्ट विद्रोह की बातें ही सोचता रहता है। उसके पास एक निर्दय अधिकारी भेजा जायेगा।
12) मूर्खता के आवेष में उन्मत्त मूर्ख से मिलने की अपेक्षा उस रीछनी से मिलना अच्छा, जिसके बच्चे चुराये गये हैं।
13) जो भलाई का बदला बुराई से चुकाता है, उसके घर से विपत्ति कभी नहीं हटेगी।
14) झगड़े का प्रारम्भ बाँध की दरार-जैसा है, प्रारम्भ होने से पहले झगड़ा बन्द करो।
15) जो पापी को निर्दोष और धर्मी को दोषी ठहराता है-दोनों से प्रभु को घृणा है।
16) मूर्ख के हाथ का धन किस काम का? उसे प्रज्ञा प्राप्त करने की इच्छा नहीं होती।
17) मित्र सब समय प्रेम निबाहता है। भाई विपत्ति के दिन के लिए जन्म लेता है।
18) नासमझ जिम्मेदारी लेता और पड़ोसी के लिए जमानत देता है।
19) जो लड़ाई-झगड़ा पसन्द करता, वह पाप पसन्द करता है। जो अपना फाटक ऊँचा बनवाता, वह विपत्ति बुलाता है।
20) जिसका हृदय दुष्ट है, वह कभी उन्नति नहीं करेगा। जो झूठ बोलता है, वह विपत्ति का षिकार बनेगा।
21) जिसका पुत्र मूर्ख है, उसे दुःख होता है। मूर्ख के पिता को आनन्द नहीं।
22) आनन्दमय हृदय अच्छी दवा है। उदास मन हड्डियाँ सुखाता है।
23) दुष्ट न्याय को भ्रष्ट करने के लिए छिप कर घूस स्वीकार करता है।
24) समझदार व्यक्ति की दृष्टि प्रज्ञा पर लगी रहती है, किन्तु मूर्ख की आँखे पृथ्वी के सीमान्तों पर टिकी हुई है।
25) मूर्ख पुत्र से पिता को दुःख होता है; वह अपनी माता को कष्ट पहुँचाता है।
26) धर्मी को जुरमाना करना अनुचित है और सज्जनों की पिटाई करना अन्याय है।
27) जो अपनी जिह्वा पर नियन्त्रण रखता, वह ज्ञानी है। जो शान्त रहता, वह समझदार है।
28) यदि मूर्ख मौन रहता, तो वह भी बुद्धिमान् समझा जाता। यदि वह अपना मुँह नहीं खोलता, तो वह समझदार माना जाता।

अध्याय 18

1) जो दूसरों से अलग रहता, उसे अपने स्वार्थ की चिन्ता है और वह हर प्रकार का परामर्ष ठुकरा देता है।
2) मूर्ख विवेकपूर्ण बातों में रूचि नहीं लेता, बल्कि अपने ही विचार प्रकट करता रहता है।
3) दुष्ट का अपमान किया जायेगा और कलंकित का तिरस्कार होगा।
4) मनुष्य के मुख से निकलने वाली वाणी गहरा जल, उमड़ती नदी और प्रज्ञा का स्रोत है।
5) निर्णय देते समय दुष्ट का पक्ष लेना और धर्मी के साथ अन्याय करना अनुचित है।
6) मूर्ख के होंठ झगड़ा पैदा करते हैं, उसका मुँह मारपीट को निमन्त्रण देता है।
7) मूर्ख का मुँह उसके विनाष का कारण है। उसके होंठ उसके लिए फन्दा बिछाते हैं।
8) झूठी निन्दा करने वाले की बातें चाट-जैसी है; वे पेट की गहराई तक उतरती है।
9) जो काम में ढिलाई करता, वह काम बिगाड़ने वाले का भाई है।
10) प्रभु का नाम एक सुदृढ़ गढ़ है। धर्मी उसकी शरण जाकर सुरक्षित है।
11) धर्मी की सम्पत्ति उसका किलाबन्द नगर है; वह उसे एक अलंघनीय दीवार समझता है।
12) घमण्ड विनाष की ओर ले जाता है और विनम्रता सम्मान की ओर।
13) जो व्यक्ति प्रष्न सुनने से पहले उत्तर देता है : यह उसके लिए मूर्खता और लज्जा की बात है।
14) मनुष्य का आत्मबल उसे बीमारी में सँभालता है, किन्तु कौन टूटे हुए मन को सान्त्वना देगा?
15) समझदार हृदय ज्ञान प्राप्त करता और ज्ञानियों का कान उसकी खोज में लगा रहता है।
16) उपहार मनुष्य का मार्ग प्रषस्त करता और उसके लिए बड़ों का द्वार खोलता है।
17) जो पहले अपना पक्ष प्रस्तुत करता है, वह तब तक सच्चा प्रतीत होता है, जब तक दूसरा आ कर उससे पूछताछ न करे?
18) चिट्ठी डालने से झगड़ा समाप्त होता और शक्तिषालियोें का विवाद शान्त होता है।
19) रूठा हुआ भाई किलाबन्द नगर से भी अधिक अगम्य है। विवाद दुर्ग की अर्गला के सदृष है।
20) मनुष्य का पेट उसके शब्दों के फल से भरता है। वह अपने होंठो की उपज से अपना निर्वाह करता है।
21) जीवन और मृत्यु, दोनों मनुष्य की जिह्वा के अधीन है। उसका सदुपयोग करो और तुम्हें उसका फल प्राप्त होगा।
22) जिसे पत्नी मिली, उसे सुख-षान्ति प्राप्त है। उसे प्रभु से वरदान मिला है।
23) दरिद्र गिड़गिड़ा कर बोलता, किन्तु धनी रूखाई से उत्तर देता है।
24) जिसके बहुत साथी है, उसका सत्यानाष हो जाता है। किन्तु अकेला मित्र भाई से भी अधिक निष्ठावान् है।

अध्याय 19

1) कपटपूर्ण बातें करने वाले मूर्ख की अपेक्षा सदाचारी दरिद्र कहीं अच्छा है।
2) सोच-विचार के बिना उत्साह हानिकर है। जो जल्दबाजी से आगे बढ़ता, वह भटकता है।
3) मनुष्य की अपनी मूर्खता उसका सत्यानाष करती, किन्तु वह प्रभु के विरुद्ध भुनभुनाता है।
4) धनवान् के बहुत मित्र होते हैं, किन्तु दरिद्र अपने मित्र द्वारा त्याग दिया जाता है।
5) झूठा गवाह निष्चय ही दण्डित किया जायेगा और मिथ्यावादी दण्ड से नहीं बचेगा।
6) कुलीन की चापलूसी करने वाले अनेक होते हैं। सभी लोग उपहार देने वाले के मित्र होते हैंं।
7) जब दरिद्र के सभी भाई उसकी उपेक्षा करते हैं, तो उसके मित्र उस से कन्नी क्यों नहीं काटेंगे? वह उन्हें पुकार-पुकार कर बुलाता है, किन्तु वे उसके पास नहीं रूकते।
8) जो प्रज्ञा प्राप्त करता, वह अपना हितकारी है। जो समझदार है, वह फलेगा-फूलेगा।
9) झूठा गवाह निष्चय ही दण्डित किया जायेगा और मिथ्यावादी विनाष की ओर बढ़ता है।
10) भोग-विलास का जीवन बिताना मूर्ख को शोभा नहीं देता। दास का शासकों पर शासन करना और अषोभनीय है।
11) समझदार व्यक्ति देर से क्रोध करता है। दूसरों के अपराध क्षमा करना उसका गौरव है।
12) राजा का क्रोध सिंह की दहाड़ जैसा है और उसकी कृपादृष्टि घासस्थल पर ओस-जैसी।
13) मूर्ख पुत्र अपने पिता की विपत्ति है। झगड़ालू पत्नी निरन्तर चूने वाली नल जैसी है।
14) घर और सम्पत्ति पूर्वजों की विरासत है, किन्तु समझदार पत्नी प्रभु का वरदान है।
15) आलस्य मनुष्य को गहरी नींद में सुलाता है। आलसी का पेट भूखा रहता है।
16) जो आज्ञाओंें का पालन करता, वह अपने जीवन की रक्षा करता है। जो अपने आचरण का ध्यान नहीं रखता, वह मर जायेगा।
17) जो दरिद्रों पर दया करता, वह प्रभु को उधार देता है। प्रभु उसे उसके उपकार का बदला चुकायेगा।
18) अपने पुत्र को दण्ड दो-इसी में उसका कल्याण है। उसकी मृत्यु का कारण मत बनो।
19) क्रोधी को अपने उग्र क्रोध का फल भोगना पडे+गा। यदि तुम उससे उसकी रक्षा करोगे, तो बारम्बर ऐसा करना होगा।
20) परामर्ष का ध्यान रखो और सुधार स्वीकार करो। इससे तुमको अन्त में प्रज्ञा प्राप्त होगी।
21) मनुष्य के हृदय में अनेक योजनाएँ बनती है, किन्तु प्रभु की योजना ही पूरी होती है।
22) मनुष्य से ईमानदारी की आषा है। दरिद्र झूठ बोलने वाले से बढ़कर है।
23) प्रभु पर श्रद्धा जीवन की ओर ले जाती है। इससे मनुष्य निष्चिन्त होकर सोचता है और विपत्ति उसके पास नहीं फटकती।
24) आलसी थाली में हाथ डालता तो है, किन्तु वे उसे उठा कर मुँह तक नहीं ले जाता।
25) उपहास करने वाले को मारो और भोला मनुष्य बुद्धिमान बनेगा। समझदार को डाँटों और वह ज्ञान प्राप्त करेगा।
26) जो अपने पिता पर हाथ उठाता और अपनी माता को घर से निकालता, वह अपने माता-पिता की लज्जा और कलंक है।
27) पुत्र! यदि तुम अनुषासन अस्वीकार करोगे, तो तुम ज्ञान के मार्ग से भटकोगे।
28) झूठा गवाह न्याय की हँसी उड़ाता है; दुष्टों का मुँह बुराई से भरा है।
29) उपहास करने वालों को दण्ड और मूर्खों की पीठ पर लाठी!

अध्याय 20

1) अंगूरी उपहास करती और मदिरा उपद्रव मचाती है। जो उनके कारण भटकता है, वह बुद्धिमान् नहीं।
2) राजा का क्रोध सिंह की दहाड़-जैसा है। जो उसे अप्रसन्न करता, वह अपना जीवन दाँव पर रखता है।
3) विवाद से अलग रहना मनुष्य को शोभा देता है। सभी मूर्ख झगड़ालू होते हैं।
4) आलसी कार्तिक में हल नहीं चलाता, किन्तु फसल के समय ढूढ़ने पर भी उसे कुछ नहीं मिलेगा।
5) मानव हृदय के उद्देष्य गहरे जलाषय जैसे है; समझदार व्यक्ति उन्हें खींच कर निकालता है।
6) बहुत से लोग ईमानदार कहलाते हैं, किन्तु निष्ठावान् व्यक्ति कहाँ मिलेगा?
7) धर्मी सन्मार्ग पर आगे बढ़ता है। धन्य हैं वे पुत्र, जो उसका अनुसरण करते हैं!
8) जब राजा अपने न्यायासन पर विराजमान है, तो उसकी आँखे बुराई को भूसी की तरह ओसाती हैं।
9) कौन मनुष्य यह कह सकता है : ''मैंने अपना हृदय शुद्ध किया, मैं अपने पाप से मुक्त हो गया हूँ?''
10) दो प्रकार के बाट और दो प्रकार के मापक : प्रभु को इन दोनों से घृणा है।
11) नवयुवक का आचरण निर्दोष और निष्कपट है- यह उसके कामों से पहचाना जाता है।
12) सुनने के कान और देखने की आँखे - प्रभु ने दोनों को बनाया है।
13) नींद को प्यार मत करों, नहीं तो दरिद्र बनोगे। आँखे खुली रखो और तुम को रोटी की कमी नहीं होगी।
14) खरीददार कहता है : ''यह चीज रद्दी है, रद्दी है!'' किन्तु वह माल ले जाकर अपनी खरीद की शेखी मारता है।
15) सोना और मोती बहुत मिलते है, किन्तु ज्ञानपूर्ण बातें सर्वोत्तम हैं।
16) जो अपरिचित व्यक्ति की जमानत देता, उसका वस्त्र ले लो। जो अपरिचित नारी की जिम्मेदारी लेता, उसे बन्धक रखो।
17) झूठ की रोटी भले ही किसी को मीठी लगे, किन्तु बाद मंें उसका मुँह कंकड़ से भरा होता है।
18) सोच-विचार के बाद की योजनाएँ सफल हो जाती हैं। सत्परामर्ष लेकर ही युद्ध करो।
19) जो गुप्त बातें प्रकट करता है, वह विष्वासघाती है; इसलिए गप्पी की संगति मत करो।
20) जो अपने माता-पिता को अभिषाप देता है, उसका दीपक अन्धकार में बुझ जायेगा।
21) जो सम्पत्ति पहले जल्दबाजी से प्राप्त होती है, वह बाद में कल्याणकारी नहीं होगी।
22) यह नहीं कहो : ''मैं इस बुराई का बदला चुकाऊँगा''। प्रभु का भरोसा करो और वह तुम्हारी रक्षा करेगा।
23) प्रभु को दो प्रकार के बाटों से घृणा है। खोटा तराजू बुरी बात है।
24) मनुष्य के कदम प्रभु पर निर्भर रहते हैं, वह यह नहीं जानता कि मैं कहॉ जा रहा हूँ।
25) जल्दबाजी से प्रभु को कुछ अर्पित करना और मन्नत मानने के बाद ही विचार करना : यह मनुष्य के लिए फन्दा है।
26) बुद्धिमान् राजा दुष्टों को ओसाता और रथ के पहियों के नीचे उन्हे दाँवता है।
27) मनुष्य का अन्तःकरण प्रभु का दीपक है, जो उसके अन्तरतम की थाह लेता।
28) दया और निष्ठा राजा की रक्षा करती है। दया के कारण उसका सिंहासन दृढ़ रहता है।
29) नवयुवकों का बल उनका अलंकरण है। सिर के पके बाल बूढ़ो का मुकुट हैं।
30) प्रहार घाव की बुराई को दूर करता है। मार खाने से अन्तरतम शुद्ध होता है।

अध्याय 21

1) राजा का हृदय प्रभु के हाथ में जल धारा की तरह है : वह जिधर चाहता, उसे मोड़ देता है।
2) मनुष्य जो कुछ करता है, उसे ठीक समझता है; किन्तु प्रभु हृदय की थाह लेता है।
3) बलिदान की अपेक्षा सदाचरण और न्याय प्रभु की दृष्टि में कहीं अधिक महत्व रखते हैंं।
4) तिरस्कारपूर्ण आँखें और धमण्ड से भरा हुआ हृदय : ये पापी मनुष्य के लक्षण हैं।
5) जो परिश्रम करता है, उसकी योजनाएँ सफल हो जाती हैं। जो उतावली करता है, वह दरिद्र हो जाता है।
6) झूठ से कमाया हुआ धन असार है और वह मृत्यु के पाष में बाँध देता है।
7) दुष्टों की हिंसा उनका विनाष करती है; क्योंकि वे न्याय करना नहीं चाहते।
8) अपराधी का मार्ग टेढ़ा है, किन्तु धर्मी का आचरण सच्चा है।
9) झगड़ालू पत्नी के साथ घर में रहने की अपेक्षा छत के कोने पर रहना अच्छा है।
10) दुष्ट बुराई की बातें सोचता रहता है, वह अपने पड़ोसी पर भी दया नहीं करता।
11) अविष्वासी को दण्डित देख कर, अज्ञानी सावधान हो जाता है। जब बुद्धिमान् को षिक्षा दी जाती है, तो उसका ज्ञान बढ़ता है।
12) न्यायप्रिय दुष्ट के घर पर दृष्टि रखता और कुकर्मियों का विनाष करता है।
13) जो दरिद्र का निवेदन ठुकराता है, उसकी दुहाई पर कोई कान नहीं देगा।
14) गुप्त रूप से दिया हुआ उपहार कोप को शान्त करता है।
15) न्याय हो जाने पर धर्मी को आनन्द होता है, किन्तु कुकर्मी आतंकित हो जाते हैं।
16) जो समझदारी के मार्ग से भटकता, वह प्रेतों की सभा में पहुँच जाता है।
17) भोग-विलास का प्रेमी दरिद्र बनेगा; अंगूरी और दावत का शौकीन कभी धनी नहीं बन सकता।
18) दुष्ट धर्मियों का रक्षाषुल्क बन जाते हैं और विष्वासघाती ईमानदारों का।
19) झगड़ालू और चिड़चिड़ी पत्नी के साथ रहने की अपेक्षा मरुभूमि में जीवन बिताना कहीं अच्छा है।
20) बुद्धिमान् के घर बहुमूल्य निधि और तेल का भण्डार है, लेकिन मूर्ख अपनी सम्पत्ति उड़ा देता है।
21) जो न्याय और ईमानदारी की खोज में लगा रहता, उसे जीवन, न्याय और सम्मान प्राप्त होगा।
22) ज्ञानी किलाबन्द नगर जिता सकता है और जिस गढ़ पर नगर का भरोसा था, उसे ढा सकता है।
23) जो अपने मुख और अपनी जिह्वा पर नियन्त्रण रखता, वह अपने को विपत्ति से बचाता है।
24) अविष्वासी घमण्डी और ढीठ है, उसके पूरे आचरण में अहंकार बोलता है।
25) आलसी का लालच उसे मारेगा; क्योंकि उसके हाथ काम करना नहीं चाहते।
26) वह दिन भर लालच के जाल में फँसा रहता है। धर्मी उदारता से दान देता है।
27) पापियों का बलिदान घृणित है। दुष्ट उद्देष्य से चढ़ाया बलिदान और भी घृणित है।
28) झूठे गवाह का विनाष हो जायेगा। जो सुनना जानता, उसे बोलने का अवसर मिलेगा।
29) दुष्ट चेहरे से कठोरता झलकती है, किन्तु धर्मी मनुष्य अपने आचरणों का ध्यान रखता है।
30) प्रभु के सामने न तो प्रज्ञा; न अन्तर्दृष्टि और न चिन्तन टिक सकता है।
31) घुड़सवार सेना युद्ध के दिन के लिए तैयार की जाती है, किन्तु विजय प्रभु के हाथ में है।

अध्याय 22

1) अपार सम्पत्ति की अपेक्षा सुयष श्रेष्ठ है। चाँदी-सोने की अपेक्षा सम्मान अच्छा है।
2) अमीर और गरीब में यही समानता है कि प्रभु ने दोनों की सृष्टि की है।
3) बुद्धिमान् खतरा देख कर छिप जाता है, किन्तु मूर्ख आगे बढ़ता और कष्ट पाता है।
4) विनम्रता का परिणाम है- प्रभु पर श्रद्धा, धन, सम्मान और जीवन।
5) कुटिल का मार्ग काँटों और फन्दों से भरा है; जो अपना जीवन सुरक्षित रखना चाहता, वह उससे दूर रहता है।
6) युवक को बचपन से ही सन्मार्ग की षिक्षा दो। वह बुढ़ापे में उससे भटकेगा नहीं।
7) धनी दरिद्रों पर शासन करता और ऋणदाता ऋणी को अपना दास बनाता है।
8) जो अन्याय बोता, वह विपत्ति लुनेगा। उसके क्रोध की लाठी नष्ट हो जायेगी।
9) जिसके चेहरे पर सहानुभूति झलकती है, उसे आषीर्वाद प्राप्त होगा; क्योंकि वह दरिद्रों को अपनी रोटी बाँटता है!
10) उपहासक को भगा दो और झगड़ा मिट जायेगा, वाद-विवाद और अपमान का अन्त हो जायेगा।
11) जिसे हृदय की पवित्रता प्रिय है और जिसकी बातों में मधुरता है : उसे राजा अपना मित्र बनाता है।
12) प्रभु की आँखे ज्ञान की रक्षा करती है। वह दुष्ट की बातों को व्यर्थ कर देता है।
13) आलसी कहता है, ''सिंह बाहर खड़ा है, सड़क पर निकलने पर वह मेरा वध करेगा''।
14) व्यभिचारिणी का मुँह गहरा गड्ढा है। जिस व्यक्ति पर प्रभु अप्रसन्न है, वह उस में गिरेगा।
15) नवयुवक के हृदय में जो मूर्खता घर कर गयी, उसे अनुषासन की लाठी निकाल देगी।
16) जो दरिद्र पर अत्याचार करता, वह उसे लाभ पहुँचाता है। जो धनी को दान देता, वह दरिद्र बनता है।
17) कान लगा कर ज्ञानियों के वचन सुनो। मेरी षिक्षा में मन लगाओ;
18) क्योंकि यदि तुम उसे अपने हृदय में संचित रखोगे और वह तुम्हारे होंठों पर विद्यमान रहेगी, तो इससे तुम्हें सुख प्राप्त होगा।
19) मैं आज तुम को भी षिक्षा प्रदान करूँगा, जिससे तुम प्रभु पर श्रद्धा रखों।
20) मैंने तुम्हारे लिए परामर्ष और ज्ञान सम्बन्धी तीस सूक्तियों को लिपिबद्ध किया है,
21) जिससे तुम को सत्य का विष्वसनीय ज्ञान प्राप्त हो और तुम उस व्यक्ति को विष्वसनीय उत्तर दे सको जो तुम को भेजता है।
22) दरिद्र का शोषण मत करो, क्योंकि वह दरिद्र है और न्यायालय में दीन-हीन को मत कुचलो;
23) क्योंकि प्रभु उनके पक्ष का समर्थन करेगा और उन्हें लूटने वालों का जीवन छीन लेगा।
24) क्रोधी का मित्र मत बनो, उग्र व्यक्ति की संगति मत करो।
25) कहीं ऐसा न हो कि तुम उसके समान बनो और अपने लिए जाल बिछा दो।
26) उन लोगो के समान मत बनो, जो दूसरों की जमानत देते और कर्जदारों की जिम्मेदारी लेते हैं।
27) कहीं ऐसा न हो कि चुकाने का रूपया तुम्हारे पास न हो और तुम्हारा बिस्तर भी तुम से छीन लिया जाये।
28) खेत का वह सीमा-पत्थर मत हटाओ, जिसे तुम्हारे पूर्वजों ने खड़ा किया है।
29) क्या तुम किसी को अपने काम में निपुण देखत हो? तो समझ लो कि वह साधारण लोगों की नहीं, बल्कि राजाओं की सेवा करेगा।

अध्याय 23

1) यदि तुम किसी शासक के यहाँ भोजन करते हो, तो ध्यान रखो कि तुम्हारे सामने कौन बैठा है।
2) यदि तुम्हें पेटूपन की लत हो, तो अपने पर संयम रखो।
3) उसके स्वादिष्ट व्यंजनों का लालच मत करो; क्योंकि वह धोखे का भोजन है।
4) धनी बनने के लिए परिश्रम मत करोः यह विचार अपने मन से निकाल दो।
5) तुम धन पर आँख लगाते हो, तो वह लुप्त हो जाता है; क्योंकि उसके पंख निकल जाते हैं और वह गरूड़ की तरह आकाष की ओर उड़ जाता है।
6) कंजूस के यहाँ भोजन मत करो। उसके स्वादिष्ट व्यंजनों का लालच मत करो :
7) क्योंकि वह वैसा ही है, जैसा मन में सोच रहा है। वह तो तुम से कहता है : ''खा-पी लीजिए'' किन्तु उसका हृदय तुम्हारे साथ नहीं है।
8) तुमने जो भोजन खाया, उसे उगल दोगे और कंजूस से कही हुई मीठी बातेंें व्यर्थ होंगी।
9) मूर्ख को सम्बोधित मत करो। वह तुम्हारी ज्ञान की बातों का तिरस्कार करेगा।
10) खेत का पुराना सीमा-पत्थर मत हटाओ और अनाथों के खेत पर पैर मत रखोे;
11) क्योंकि उनका उद्धारक समर्थ है। वह तुम्हारे विरुद्ध उनका पक्ष लेगा।
12) षिक्षा में मन लगाओ। ज्ञानियों की बातों को कान लगा कर सुनो।
13) युवक को दण्ड देने से मत हिचको, यदि तुम उसे छड़ी लगाओगे, तो वह मरेगा नहीं,
14) बल्कि उसे छड़ी लगाने से तुम अधोलोक से उसकी रक्षा करोगे।
15) पुत्र! यदि तुम्हारे हृदय में प्रज्ञा का वास है, तो मेरा हृदय भी आनन्दित होता है।
16) यदि तुम विवेकपूर्ण बातें करते हो, तो मेरा अन्तरम उल्लसित हो उठता है।
17) अपने हृदय में पापियों से ईर्ष्या मत करो, बल्कि दिन भर प्रभु पर श्रद्धा रखो।
18) इस प्रकार तुम्हारा भविष्य सुरक्षित है और तुम्हारी आषा व्यर्थ नहीं जायेगी।
19) पुत्र! सुनो, प्रज्ञ बनो और सन्मार्ग पर सीधे आगे बढ़ो।
20) शराबियों की संगति मत करो और न उन लोगों की, जो मांस बहुत खाते हैं;
21) क्योंकि शराबी और पेटू दरिद्र हो जाते है; उनींदापन उन्हें चिथड़े पहनाता है।
22) अपने पिता, अपने जन्मदाता की बात सुनो और अपनी बूढ़ी माता का तिरस्कार मत करो।
23) सत्य खरीदो, उसका सौदा मत करो। प्रज्ञा, अनुषासन और समझदारी खरीदो।
24) धर्मी के पिता को आनन्द होगा; बुद्धिमान् का जन्मदाता उस पर प्रसन्न होगा।
25) तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे कारण आनन्द मनायें, तुम्हारी जननी उल्लसित हो।
26) पुत्र! मेरी बातों पर ध्यान दो; तुम्हारी आँखें मेरे आचरण पर टिकी रहें।
27) वेष्या गहरा गड्ढा है और परस्त्री सँकरा कुआँ।
28) वह डाकू की तरह घात में बैठती है और बहुत-से पुरुषों को व्यभिचारी बना लेती है।
29) कौन दुःखी है? कौन शोक मनाता है? कौन झगड़ा लगाता है? कौन षिकायत करता है? कौन अकारण घायल हो जाता है? किस की आँखे लाल है?
30) यह उनकी दषा है, जो देर तक अंगूरी पीते हैं; जो मिश्रित अंंगूरी के प्याले चखते रहते हैं।
31) लाल-लाल अंगूरी पर दृष्टि मत लगाओं, जो प्याले में बुदबुदाती है। वह पीते समय मधुर लगती है,
32) किन्तु अन्त में साँप की तरह डँसती और करैत की तरह विष उगलती है।
33) तुम्हारी आँखें बड़ा विचित्र दृष्य देखेंगी और तुम उल्टी-सीधी बातें करोगे।
34) तुम खुले समुद्र पर यात्रा करने वाले व्यक्ति के समान होगे, जो मस्तूल के षिखर पर सोया हुआ है।
35) तुम कहोगे : ''उन्होंने मुझे मारा, किन्तु मुझे चोट नहीं लगीं। उन्होने मेरी पिटाई की, किन्तु मुझे इसका पता नहीं चला। मुझे कब होष होगा? तब मैं फिर पिऊँगा।''

अध्याय 24

1) दुष्टोें से ईर्ष्या मत करो, उनकी संगति की इच्छा न करो;
2) क्योंकि उनका हृदय हिंसा से भरा है और उनके मुख से अनिष्ट की बातें निकलती है।
3) प्रज्ञा से घर बनता और समझदारी से दृढ़ होता है।
4) ज्ञान से उसके कमरे सब प्रकार की बहुमूल्य और सुन्दर वस्तुओं से भरते हैं।
5) प्रज्ञासम्पन्न व्यक्ति शक्तिषाली है और ज्ञान से उसका सामर्थ्य बढ़ता है।
6) युद्ध में पथप्रदर्षन की आवष्यकता होती है, विजय परामर्षदाताओं की भारी संख्या पर निर्भर है।
7) प्रज्ञा मूर्ख के लिए पहाड़-जैसी है; मूर्ख नगर-द्वार की सभा में मुँह नहीं खोलता।
8) जो बुराई की योजना बनाता, वह कपटी कहा जायेगा।
9) मूर्ख पाप की ही योजना बनाता है। उपहास करने वाले से मनुष्यों को घृणा है।
10) यदि तुम विपत्ति के समय निराष होते हो, तो तुम में शक्ति की बहुत कमी है।
11) प्राणदण्ड मिलने वालों को छुड़ाओ, लड़खड़ाते हुए वध के लिए ले जाये जाने वालो को बचाओ।
12) यदि तुम यह कहते हो : ''हम इस विषय में कुछ नहीं जानते'' तो क्या हृदयों की थाह लेने वाला कोई नहीं? वह जानता है! जो तुम्हारी निगरानी करता, वह जानता है और प्रत्येक व्यक्ति को उसके कर्मों का फल देगा।
13) पुत्र! मधु खाओ, क्योंकि वह अच्छा है। छत्ते का मधु तालू को मीठा लगता है।
14) समझ लो कि प्रज्ञा इसी तरह तुम्हारी आत्मा को मीठी लगेगी। उसे प्राप्त करने पर तुम्हारा भविष्य सुरक्षित रहेगा और तुम्हारी आषा व्यर्थ नहीं जायेगी।
15) दुष्ट! धर्मी के घर के पास घात मत लगाओ, उसके निवासस्थान पर छापा मत मारो;
16) क्योंकि धर्मी भले ही सात बार गिरे, वह फिर उठेगा, जबकि दुष्ट विपत्ति में नष्ट हो जाते हैं।
17) अपने शत्रु के पतन पर आनन्द मत मनाओ। जब वह ठोकर है, तो तुम्हारा हृदय उल्लसित न हो।
18) कहीं ऐसा न हो कि प्रभु यह देख कर अप्रसन्न हो और तुम्हारे शत्रु पर से अपना क्रोध हटा ले।
19) कुकर्मियों के कारण मत कुढ़ो और दुष्टों से ईर्ष्या मत करो;
20) क्योंकि कुकर्मी का कोई भविष्य नहीं और दुष्टों का दीया बुझ जायेगा।
21) पुत्र! प्रभु और राजा पर श्रद्धा रखो और विद्रोहियों की संगति मत करो;
22) क्योंकि विनाष उन पर अचानक आ पड़ेगा, कौन जानता है कि वे, कौन-सी विपत्ति ढा सकते हैं?
23) ज्ञानियों की कुछ और सूक्तियाँ : निर्णय देते समय पक्षपात उचित नहीं है।
24) जो दोषी से यह कहता है, ''तुम निर्दोष हो'', जनता उसे अभिषाप देगी और राष्ट्र उसकी निन्दा करेगा।
25) जो दोषी को दण्ड देंगे, उन्हें सुख-षान्ति मिलेगी; उन्हें आषीर्वाद और समृद्धि प्राप्त होगी।
26) जो निष्कपट उत्तर देता, वह मानों होंठों का चुम्बन करता है।
27) तुम पहले बाहर और खेत का काम पूरा करो, बाद में अपना घर बनाओ।
28) तुम अकारण अपने पड़ोसी के विरुद्ध साक्ष्य मत दो। अपने मुख से किसी को धोखा मत दो।
29) यह मत कहो, ''उसने मेरे साथ जो किया, वही उसके साथ करूँगा। मैं प्रत्येक को उसके कर्मों का बदला चुकाऊँगा।''
30) मैं आलसी के खेत के सामने से निकला, उस मनुष्य की दाखबारी के सामने से, जो मूर्ख है।
31) मैंने देखा कि काँटे सब जगह पर उग गये, भूमि जंगली पौधों से ढकी है और पत्थरों की दीवार गिर गयी है।
32) मैंने जो देखा, उस पर विचार किया और उससे यह षिक्षा मिली :
33) थोड़ी देर तक सोना, थोड़ी देर तक झपकी लेना और हाथ-पर-हाथ रख कर थोड़ी देर आराम करना
34) ऐसा होने पर दरिद्रता टहलते हुए तुम्हारे पास आयेगी; अभाव तुम पर बलषाली की तरह आक्रमण करेगा।

अध्याय 25

1) सुलेमान की ये सूक्तियाँ यूदा के राजा हिजकीया के लिपिकों द्वारा संकलित की गयी हैं।
2) किसी बात को गुप्त रखने में ईष्वर की महिमा है, राजाओं की महिमा किसी बात की छानबीन मेें।
3) आकाष की ऊँचाई, पृथ्वी की गहराई और राजाओें का हृदय ये तीनों अज्ञेय हैं।
4) चाँदी पर से धातु-मैल हटाओ और वह सोनार के हाथ में सुन्दर पात्र बनती है।
5) राजा के यहाँ से दुष्ट को निकालो और उसका राजसिंहासन न्याय के कारण सुदृढ़ रहेगा।
6) राजा के सामने डींग मत मारोे और बड़े लोगों के स्थान पर मत बैठो;
7) क्योंकि किसी उच्चाधिकारी के सामने नीचा दिखाये जाने की अपेक्षा अच्छा यह है, कि राजा तुम से कहे, ''यहाँ, आगे बढ़ कर बैठिए'',
8) तुमने अपनी आँखों से जो देखा है, अदालत में उसकी तुरन्त चरचा मत करो; क्योंकि यदि तुम्हारा पड़ोसी तुम को झूठा सिद्ध करें, तो तुम अन्त में क्या करोगे?
9) पड़ोसी के साथ अपने मुकदमें की चरचा करो, किन्तु पराये व्यक्ति का भेद मत खोलो।
10) कहीं ऐसा न हो कि वह उसके विषय में सुनकर तुम्हारा अपमान करे और तुम्हारी बदनामी होती रहे।
11) अवसर के अनुरूप कहीं हुई बात चाँदी की थाली में सोने के सेव-जैसी है।
12) ध्यान से सुनने वाले कान के लिए ज्ञानी की डाँट सोने की अँगूठी और बहुमूल्य आभूषण जैसी है।
13) विष्वासी सन्देषवाहक अपने भेजने वाले के लिए कटने के समय शीतल बर्फ-जैसा है। वह अपने स्वामी की आत्मा में नवजीवन का संचार करता है।
14) जो अपने उपहार की डींग मारता, किन्तु नहीं देता, वह उन बादलों और हवा-जैसा है, जिनके बाद वर्षा नहीं होती।
15) शासक को धैर्य से समझाया जा सकता है। मधुर वाणी हड्डी को भी तोड़ सकती है।
16) तुम को मधु मिल गया तो उतना खाओं, जितना ज+रूरी है। तुम अधिक खाओगे, तो उलटी कर दोगे।
17) बिरले ही अपने पड़ोसी के घर जाओ, नहीं तो वह तुम से ऊब कर बैर करेगा।
18) जो व्यक्ति अपने पड़ोसी के विरुद्ध झूूठा साक्ष्य देता है। वह सदा, तलवार और पैने बाण-जैसा है।
19) संकट के समय विष्वासघाती पर भरोसा ढीले दाँत या लँगड़ाते पैर-जैसा है।
20) जो दुःखी के सामने गीत गाता है, वह उस व्यक्ति के सदृष है, जो जाड़े के दिनों में गरम कपड़ा उतारता या जले पर नमक छिड़कता है।
21) यदि तुम्हारा शत्रु भूखा है, तो उसे खिलाओ; यदि वह प्यासा है, तो उसे पिलाओ;
22) क्योंकि तुम उसके सिर पर जलते अंगारों का ढेर लगाओगे और प्रभु तुम्हें उसका बदला चुकायेगा।
23) उत्तर की हवा वर्षा लाती है। कपटी जीभ क्रोध उत्पन्न करती है।
24) झगड़ालू पत्नी के साथ घर में रहने की अपेक्षा छत के कोने पर रहना अच्छा है।
25) दूर देष से मिला शुभ समाचार प्यासे कण्ठ के लिए शीतल जल-जैसा है।
26) दुष्ट के सामने झुकने वाला धर्मी गँदले स्रोत या दूषित कूप-जैसा है।
27) अधिक मधु खाना अच्छा नहीं है, किन्तु कठिन विषयों का अध्ययन महत्वपूर्ण है।
28) जिस व्यक्ति में आत्यसंयम नहीं, वह उस नगर-जैसा है, जिसकी चारदीवारी गिरा दी गयी है।

अध्याय 26

1) मूर्ख का आदर करना उचित नहीं; यह गर्मी में बर्फ या बरसात में वर्षा के सदृष है।
2) जिस प्रकार फुदकती गौरैया या उड़ती अबाबील कहीं नहीं रूकती, उसी प्रकार अकारण अभिषाप किसी को नहीं लगता।
3) घोड़े के लिए चाबुक, गधे के लिए लगाम और मूर्ख की पीठ पर लाठी!
4) मूर्ख की मूर्खता के अनुसार उत्तर मत दो, नहीं तो तुम उसके सदृष बन जाओगे।
5) मूर्ख की मूर्खता के अनुसार उत्तर दो, जिससे वह अपनी दृष्टि में समझदार न बने।
6) जो मूर्ख द्वारा सन्देष भेजता, वह अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारता और अपने पर विपत्ति बुलाता है।
7) मूर्खों के मुँह में सूक्ति पंगु के लँगड़ाते पैर-जैसी है।
8) मूर्ख का सम्मान करना गोफन में पत्थर बाँधने के समान है।
9) मूर्खों के मुँह में सूक्ति शराबी के हाथ में कँटीली डाल जैसी है।
10) जो मूर्ख या अपरिचित व्यक्ति को काम पर लगाता, वह यों ही घायल करने वाले तीरन्दाज+ जैसा है।
11) जो मूर्ख बार-बार मूर्खतापूर्ण काम करता, वह अपने ही वमन के पास लौटने वाले कुत्ते जैसा है।
12) जो व्यक्ति अपने को बुद्धिमान् समझता उसकी अपेक्षा मूर्ख के सुधार की आषा कहीं अधिक है।
13) आलसी कहता है, ''सिंह बाहर खड़ा है, सिंह गलियों में विचरता है''।
14) जिस तरह किवाड़ अपने कब्जे पर घूमता, उसी तरह आलसी अपने पलंग पर करवट बदलता है।
15) आलसी थाली में हाथ डालता तो है, किन्तु उसे मुँह तक उठाने में उसे थकान आती है।
16) विवेकपूर्ण उत्तर देने वाले सात ज्ञानियोें की अपेक्षा मूर्ख अपने को अधिक बुद्धिमान् समझता है।
17) जो व्यक्ति दूसरों के झगड़े में दखल देता, वह आवारे कुत्ते के कान पकड़ने वाले जैसा है।
18) वह उस पागल-जैसा है, जो जलती लकड़ी फेंकता और घातक तीर मारता है।
19) या उस व्यक्ति-जैसा, जो अपने पड़ोसी को धोखा देने के बाद कहता है, ''मैं तो मजाक कर रहा था''।
20) जहाँ लकड़ी नहीं, वहाँ आग बुझ जाती है। जहाँ चुगलखोर नहीं, वहाँ झगड़ा शान्त हो जाता है।
21) जैसे जलते अंगारों के लिए कोयला और आग के लिए लकड़ी, वैसे ही झगड़ा लगाने के लिए झगड़ालू व्यक्ति।
22) झूठी निन्दा करने वाले की बातें चाट-जैसी हैं; वे पेट की गहराई तक उतरती हैं।
23) जैसी मिट्टी के बरतन पर अषुद्ध चाँदी की कलाई, वैसे ही दुष्ट के होंठों पर चिकनी-चुपड़ी बातें।
24) जो बैर करता, उसके होंठ मधुर बातें करते, किन्तु उसका अन्तरतम कपट से भरा है।
25) वह भले ही मैत्रीपूर्ण बातें करें, तुम उस पर विष्वास मत करो; क्योंकि उसके हृदय में सात घृणित वस्तुएँ छिपी है।
26) वह भले ही अपना बैर कपट से छिपायें, उसकी दुष्टता सभा में प्रकट हो जाती है।
27) जो व्यक्ति गड्ढा खोदता, वह स्वयं उस मेें गिरेगा; जो व्यक्ति पत्थर ऊपर लुढ़काता, वह स्वयं उस से दब जायेगा।
28) झूठी जिह्वा अपने षिकार से घृणा करती है। चापलूसी करने वाला मुख विनाष की ओर ले जाता है।

अध्याय 27

1) आने वाले कल की डींग मत मारो; क्योंकि तुम नहीं जानते कि एक ही दिन में क्या होगा।
2) दूसरे लोग तुम्हारी प्रषंसा करे, तुम अपनी प्रषंसा मत करो। तुम्हारा मुख नहीं, बल्कि पराये व्यक्ति ऐसा करेेंें।
3) पत्थर भारी होता है और बालू वजनदार, किन्तु मूर्ख का क्रोध इन से अधिक भारी होता है।
4) क्रोध क्रूर होता है और उन्माद दुर्दमनीय; किन्तु ईर्ष्या के सामने कौन टिक सकता है?
5) अव्यक्त प्रेम से सुस्पष्ट फटकार कहीं अच्छी है।
6) मित्र द्वारा किया हुआ घाव उसकी ईमानदारी का प्रमाण है, किन्तु शत्रु का आलिंगन कपटपूर्ण है।
7) जिसका पेट भरा है, वह मधु का तिरस्कार करता है। जिसका पेट खाली है, उसे कड़वा भी मीठा लगता है।
8) जो व्यक्ति अपने देष से दूर भटकता है, वह अपने नीड़ से दूर भटकने वाली गौरैया-जैसा है।
9) तेल और इत्र हृदय को उसी तरह आनन्दित करते हैं, जिस तरह प्रिय मित्र का सत्परामर्ष।
10) अपने मित्र और अपने पिता के मित्र का परित्याग मत करो, संकट में अपने भाई के घर मत जाओ। दूर रहने वाले भाई से पास का पड़ोसी अच्छा है।
11) पुत्र! प्रज्ञा प्राप्त करो और मेरा हृदय आनन्दित करो; तब मैं अपने तिरस्कार करने वाले को निरुत्तर कर सकूँगा।
12) बुद्धिमान् खतरा देख कर छिप जाता है, किन्तु मूर्ख आगे बढ़ता और कष्ट पाता है।
13) जो अपरिचित व्यक्ति की जमानत देता, उसका वस्त्र ले लो। जो अपरिचित नारी की जिम्मेदारी लेता, उसे बन्धक रखो।
14) सबेरे उठ कर ऊँची आवाज में अपने पड़ोसी को आषीर्वाद देना - यह अभिशाप माना जाता है।
15) झगड़ालूू पत्नी वर्षा के दिन निरन्तर चूने वाली नल-जैसी है।
16) उसका मुँह बन्द करना हवा बन्द करने या हाथ से तेल पकड़ने के बराबर है।
17) लोहे से लोहा पजाया जाता है; मनुष्य से मनुष्य का सुधार होता है।
18) जो अंजीर के पेड़ की देखभाल करता, वह उसका फल खायेगा। जो अपने स्वामी की सेवा करता, वह उसका सम्मान पायेगा।
19) जिस तरह मुख पानी में प्रतिबिम्बित होता है, उसी तरह मानव-हृदय में मनुष्य।
20) अधोलोक और महागर्त्त की तरह मनुष्य की आँखे कभी तृप्त नहीं होतीं।
21) घरिया द्वारा चाँदी की, भट्ठी द्वारा सोने की और दूसरों की प्रषंसा द्वारा मनुष्य की परख होती है।
22) तुम मूर्ख को ओखली में रख कर अनाज की तरह कूट सकते हो; किन्तु उसकी मूर्खता उस से अलग नहीं कर सकते।
23) अपने पषुओं की दषा का ध्यान रखों, अपने झुण्ड की देखभाल करो;
24) क्योंकि धन सदा के लिए नहीं बना रहता और मुकुट पीढ़ी-दर-पीढ़ी नहीं टिकता।
25) जब घास कट गयी और नयी घास उगती है, जब पहाड़ों पर की वनस्पति बखार में एकत्र की गयी है,
26) तो तुम्हें अपनी भेड़ों से कपड़े और अपने बकरों से खेत खरीदने का दाम मिलेगा।
27) तुम्हारे पास बकरियों का पर्याप्त दूध होगा, जिससे तुम्हारी और तुम्हारे परिवार की तृप्ति और तुम्हारी दासियों का भरण-पोषण हो जायेगा।

अध्याय 28

1) दुष्ट भाग जाता, यद्यपि कोई उसका पीछा नहीं करता; किन्तु धर्मी सिंह-षावक की तरह आष्वस्त रहता है।
2) विद्रोही देष में बहुत-से शासक होते है। समझदार और अनुभवी व्यक्ति द्वारा व्यवस्था दीर्घकाल तक सुदृढ़ रहती है।
3) दरिद्रों का शोषण करने वाला शासक फसल नष्ट करने वाली मूसलाधार वर्षा जैसा है।
4) संहिता का परित्याग करने वाले दुष्टोें की प्रषंसा करते हैं; संहिता का पालन करने वाले उनका विरोध करते हैं।
5) दुष्ट नहीं समझते कि न्याय क्या है। प्रभु की खोज में लगे रहने वाले उसे अच्छी तरह समझते हैं।
6) कपटी धनी व्यक्ति की अपेक्षा सदाचारी दरिद्र कहीं अच्छा है।
7) संहिता का पालन करने वाला पुत्र समझदार है, किन्तु जो दावत उड़ाने वालों की संगति करता, वह अपने पिता का कलंक है।
8) जो ब्याज और सूदखोरी से अपना धन बढ़ाता, वह उसे दरिद्रों पर दया करने वाले के लिए एकत्र करता है।
9) जो संहिता के पाठ पर कान नहीं लगाता, उसकी प्रार्थना भी घृणित है।
10) जो धर्मी को कुमार्ग पर ले चलता, वह स्वयं गड्ढे में गिरेगा; किन्तु निर्दोष व्यक्ति को सुख-षान्ति प्राप्त होगी।
11) धनी अपने को बुद्धिमान् समझता, किन्तु समझदार दरिद्र उसका भण्डाफोड़ करता है।
12) जब धर्मी विजयी हैं, तो महोत्सव होता है। जब दुष्ट प्रबल हैं, तो सभी लोग छिप जाते हैं।
13) जो अपने पाप छिपाता, वह उन्नति नहीं करेगा; जो उन्हें प्रकट कर छोड़ देता, उस पर दया की जायेगी।
14) धन्य है वह मनुष्य, जो सदा प्रभु पर श्रद्धा रखता है! जो अपना हृदय कठोर कर लेता, वह विपत्ति का षिकार बनेगा।
15) दरिद्र जनता पर शासन करने वाला दुष्ट दहाड़ते सिंह या षिकार के भूखे रीछ जैसा है।
16) नासमझ शासक अपनी प्रजा को लूटा करता है। अन्याय के धन से घृणा करने वाले की आयु लम्बी होगी।
17) रक्तपात का दोषी कब तक मारा-मारा फिरता रहेगा - उसे कोई न रोके।
18) जो सन्मार्ग पर चलता, वह सुरक्षित है। जो कुमार्ग पर चलता, वह अचानक गड्ढे में गिरेगा।
19) जो अपनी भूमि जोतता, उसे रोटी की कमी नहीं होगी। जो व्यर्थ के कामों में लगा रहता, वह दरिद्रता का षिकार बनेगा।
20) ईमानदार व्यक्ति को प्रचुर आषीर्वाद प्राप्त होगा। जो जल्दी धनी बनना चाहता, उसे दण्ड दिया जायेगा।
21) पक्षपात करना अनुचित है, किन्तु रोटी के टुकड़े के लिए मनुष्य पाप कर सकता है।
22) ईर्ष्यालु व्यक्ति धन के लिए तड़पता है; वह नहीं जानता कि वह दरिद्र बनेगा।
23) चापलूसी करने वाले की अपेक्षा डाँटने वाला कृपापात्र बनता है।
24) जो अपने माता-पिता की चोरी करता और कहता है : ''यह पाप नहीं है'', वह डाकुओं का साथी है।
25) लालची व्यक्ति झगड़ा पैदा करता, किन्तु प्रभु का भरोसा करने वाला फलेगा-फूलेगा।
26) अपनी बुद्धि का भरोसा करने वाला मूर्ख है, किन्तु प्रज्ञा के मार्ग पर चलने वाला सुरक्षित रहेगा।
27) दरिद्र को दान देने वाले को किसी बात की कमी नहीं होगी। उसकी ओर से आँखे बन्द करने वाला अभिषापों का षिकार बनेगा।
28) जब दुष्ट प्रबल है, तो सभी लोग छिप जाते हैं। जब वे नष्ट हो जाते हैं, तो धर्मी फलते-फूलते हैं।

अध्याय 29

1) जो व्यक्ति बहुत डाँटे जाने पर भी हठ करता रहता, वह पलक मारते ही नष्ट हो जायेगा और उसका उपचार नहीं होगा।
2) जब धर्मी प्रबल है, तो जनता प्रसन्न है; किन्तु जब दुष्ट शासन करता, तो जनता कराहती है।
3) प्रज्ञा-पे्रमी अपने पिता को आनन्दित करता किन्तु जो वेष्यागमन करता, वह अपनी सम्पत्ति उड़ाता है।
4) राजा न्याय द्वारा देष को बनाये रखता, किन्तु जो अधिक कर उगाहता, वह उसका विनाष करता है।
5) जो अपने पड़ोसी की चापलूसी करता, वह अपने पैरों के लिए जाल बिछाता है।
6) दुष्ट अपने ही पाप के जाल में फँसता, किन्तु धर्मी उल्लसित हो कर आनन्द मनाता है।
7) धर्मी दरिद्रों के अधिकारों की रक्षा करता, किन्तु दुष्ट को उनकी कोई जानकारी नहीं।
8) उपहास करने वाले नगर में उत्तेजना पैदा करते, किन्तु ज्ञानी क्रोध को शान्त करते हैं।
9) यदि ज्ञानी मूर्ख पर मुकदमा चलाता, तो वह क्रुद्ध हो या प्रसन्न, उसे शान्ति नहीं मिलेगी।
10) हत्यारे निष्कपट व्यक्ति से बैर करते, किन्तु धर्मी उसके जीवन की रक्षा करते हैं।
11) मूर्ख चिल्ला कर अपना क्रोध अभिव्यक्त करता, किन्तु बुद्धिमान् उसे वष में रख कर शान्त करता है।
12) यदि शासक झूठी बातोें पर ध्यान देता, तो उसके सभी पदाधिकारी दुष्ट बन जाते हैं।
13) दरिद्र और कपटी में यही समानता है कि प्रभु ने दोनों को आँखों की ज्योति प्रदान की है।
14) यदि राजा दरिद्रों को न्याय दिलाता, तो उसका सिंहासन सदा दृढ़ रहता है।
15) छड़ी और डाँट-डपट से प्रज्ञा प्राप्त होती है, किन्तु अनुषासनहीन नवयुवक अपनी माता का कलंक है।
16) जब दुष्ट शासन करते, तो अपराध बढ़ते हैं; किन्तु धर्मी उनका पतन देखेंगे।
17) अपने पुत्र को अनुषासन में रखोगे, तो तुम्हें शान्ति मिलेगी और वह तुम्हें आनन्दित करेगा।
18) नबियों के अभाव में जनता आत्मसंयम खो बैठती है, किन्तु संहिता का पालन करने वाले को सुख-षान्ति मिलेगी।
19) शब्दों द्वारा नौकर का सुधार असम्भव है, क्योंकि समझने पर भी वह ध्यान नहीं देगा।
20) जो व्यक्ति सोच-विचार किये बिना बोलता, उसकी अपेक्षा मूर्ख के सुधार की आषा कहीं अधिक है।
21) जो बचपन से अपने नौकर को सिर चढ़ाता, वह अन्त में उसे निकम्मा बना देगा।
22) चिड़चिड़ा व्यक्ति झगड़ा पैदा करता और क्रोधी बहुत से पाप करता है।
23) मनुष्य का अहंकार उसे नीचा दिखाता, किन्तु विनम्र व्यक्ति का सम्मान किया जाता है।
24) चोर का सहायक अपने से बैर करता। वह शपथ खिलाने पर भी चुप रहता है।
25) जो मनुष्यों से डरता, वह अपने लिए जाल बिछाता है; किन्तु जो प्रभु पर भरोसा रखता, वह सुरक्षित है।
26) बहुत लोग शासक के कृपापात्र बनना चाहते है, किन्तु प्रभु मनुष्य को न्याय दिलाता है।
27) कुकर्मी से धर्मियों को घृणा है। निष्कपट व्यक्ति से दुष्टों को घृणा है।

अध्याय 30

1) मस्सावासी याके के पुत्र आगूर की सूक्तियाँ।
2) मैं मनुष्योें में से सब से अधिक मूर्ख हँू; मुझमें मनुष्य जैसी समझ नहीं।
3) मैंने प्रज्ञा प्राप्त नहीं की। मुझे सर्वोच्च प्रभु का ज्ञान नहीं।
4) कौन स्वर्ग जा कर फिर उतरा? किसने पवन को अपनी मुट्ठी में बन्द किया? किसने पानी को कपड़े में बाँध लिया? किसने पृथ्वी की सीमाओं को निर्धारित किया? उसका और उसके पुत्र का नाम क्या है? यदि तुम जानते हो, तो मुझे बताओ।
5) ईष्वर की प्रत्येक प्रतिज्ञा विष्वसनीय है। ईष्वर अपने शरणार्थियों की ढाल है।
6) उसके वचनों में अपनी और से कुछ मत जोड़ो, कहीं ऐसा न हो कि वह तुम को डाँटे और झूठा प्रमाणित करे।
7) मैं तुझ से दो वरदान माँगता हूँ, उन्हे मेरे जीवनकाल में ही प्रदान कर।
8) मुझ से कपट और झूठ को दूर कर दे। मुझे न तो गरीबी दे और न अमीरी- मुझे आवष्यक भोजन मात्र प्रदान कर।
9) कहीं ऐसा न हो कि मैं धनी बन कर तुझे अस्वीकार करते हुए कहूँ ''प्रभु कौन है?'' अथवा दरिद्र बन कर चोरी करने लगूँ और अपने ईष्वर का नाम कलंकित कर दूँ।
10) तुम मालिक से नौकर की चुगली मत खाओं। कहीं ऐसा न हो कि वह तुम को शाप दे और तुम्हे भुगतना पडे+े।
11) कुछ लोग अपने पिता को अभिषाप देते और अपनी माता का कल्याण नहीं चाहते।
12) कुछ लोग अपने को शुद्ध समझते, किन्तु उनका दूषण नहीं धुला है।
13) कुछ लोगों की आँखें घमण्ड से भरी हैं और दूसरों को तिरस्कारपूर्ण दृष्टि से देखती हैं।
14) कुछ लोगों के दाँत तलवार जैसे और जबड़े छुरी-जैसे हैं; वे देष के दीनों को और जनता में से दरिद्रों को फाड़ कर खाते हैं।
15) जोंक की दो बेटियाँ हैं, वे ''दे दो, दे दो'' चिल्लाती है। तीन चीज+ेें कभी तृप्त नहीं होती, चार कभी, ''बस!'' नहीं कहती :
16) अधोलोक, बाँझ का गर्भाषय, पानी की प्यासी भूमि और आग, जो कभी ''बस!'' नहीं कहती।
17) जो आँख पिता की हँसी उड़ाती और माता की आज्ञा का पालन नहीं करती, उसे घाटी के कौए फोड़ेगे, उसे गरूड़ के बच्चे खायेंगे।
18) तीन बातें मेरी बुद्धि से परे हैं, चार समझ में नहीं आतीं :
19) आकाष में गरूड़ का मार्ग, चट्टान पर साँप का मार्ग, समुद्र पर जहाज का मार्ग और युवती के साथ पुरुष का व्यवहार।
20) व्यभिचारिणी का आचरण ऐसा ही है। वह खाती, मुँह पोंछती और कहती है- ''मैंने कोई बुरा काम नहीं किया है''।
21) तीन बातों से पृथ्वी काँपती है, चार को वह सह नहीं सकती :
22) राजा बनने वाला दास, भरपेट भोजन करने वाला मूर्ख,
23) विवाह करने वाली कुत्सित स्त्री और अपनी मालकिन का स्थान लेने वाली नौकरानी।
24) पृथ्वी पर चार प्राणी बहुत छोटे, किन्तु बड़े समझदार हैं:
25) चींटियाँ निर्बल होती है, किन्तु फसल के समय अपना भोजन एकत्र करती है।
26) बिज्जू बलषाली नहीं होते, किन्तु चट्टानों में अपना घर बनाते हैं।
27) टिड्डियों का कोई राजा नहीं होता, किन्तु वे पंक्तिबद्ध हो कर चलती हैं।
28) छिपकली हाथ से उठायी जा सकती है, किन्तु वह राजाओें के महलों में पायी जाती है।
29) तीन प्राणियों की चाल मनोहर है और चार की ठवन आकर्षक :
30) सिंह, जानवरों में सब से शूरवीर, जो किसी को पीठ नहीं दिखाता;
31) इठलाता हुआ मुरगा, बकरा और अपनी सेना के आगे-आगे चलने वाला राजा।
32) यदि तुमने घमण्ड के कारण मूर्खतापूर्ण कार्य किया या बुरी योजना बनायी है, तो चुप रहो;
33) क्योंकि दूध मथने से मलाई बनती, नाक पर प्रहार करने से रक्त बहता और क्रोध करने से झगड़ा पैदा होता है।

अध्याय 31

1) राजा लमूएल की सूक्तियाँ जिन्हें उसने अपनी माता से प्राप्त किया :
2) पुत्र! मेरे गर्भ से उत्पन्न पुत्र! मेरी मन्नतों के पुत्र!
3) अपना पौरुष स्त्रियों पर व्यय मत करो और न राजाओं को भ्रष्ट करने वाली स्त्रियों पर अपना धन गँवाओे।
4) लमूएल! न तो राजाओें को अंगूरी शोभा देती है और न शासकों को मदिरा;
5) क्योंकि पीने के बाद वे कानून भूल जाते और दलितोें के अधिकार छीन लेते हैं।
6) मरने वाले को मदिरा पिलाओं और दुःखी को अंगूरी दो,
7) जिससे वह पीकर अपनी दुर्गति भूल जाये और उसे अपना कष्ट याद न रहे।
8) गूँगों के लिए अपना मुँह खोलो, पद्दलितों के पक्ष का समर्थन करो।
9) मुँह खोल कर न्यायसम्मत निर्णय दो, दीन-दरिद्रों के पक्ष का समर्थन करो।
10) सच्चरित्र पत्नी किसे मिल पाती है! उसका मूल्य मोतियों से भी बढ़कर है।
11) उसका पति उस पर पूरा-पूरा भरोसा रखता और उस से बहुत लाभ उठाता है।
12) वह कभी अपने पति के साथ बुराई नहीं, बल्कि जीवन भर उसक भलाई करती रहती है।
13) वह ऊन और सन खरीदती और कुषल हाथों में कपड़े तैयार करती है।
14) वह व्यापारी जहाज+ों की तरह दूर-दूर से अपने लिए रसद लाती है।
15) वह रात रहते उठ कर अपने घरवालों के भोजन का प्रबन्ध करती और अपनी दासियों को उनका काम बताती है।
16) वह विचार कर खेत चुनती और खरीदती है। वह अपनी कमाई से दाखबारी लगाती है।
17) वह कमर कस कर काम करती है और इस प्रकार अपनी बाँहो की मज+बूती बनाये रखती है।
18) वह अपनी योजनाओ की सफलता देखती है। उसका दीपक रात को नहीं बुझता
19) उसके हाथों में चरखा रहा करता है; उसकी उँगलियाँ तकली चलाती हैं।
20) वह दीन-दुःखियों के लिए उदार है और गरीबों का सँभालती है।
21) वह हिम के कारण अपने घरवालों के लिए नहीं डरती, क्योंकि वे सब दोहरे वस्त्र पहनते हैं।
22) वह अपने पलंग के कम्बल बनाती और महीन छालटी और बैंगनी कपड़े पहनती है।
23) उसके पति को नगर-सभा में सम्मान प्राप्त है, जहाँ वह देष के बड़े-बूढ़ों के साथ बैठता है।
24) वह छालटी के वस्त्र बुन कर बेचती और व्यापारी को कमरबन्द बेचा करती है।
25) वह सामर्थ्य और मर्यादा से विभूषित है और हँस कर भविष्य की प्रतीक्षा करती है।
26) उसके मुख से ज्ञान की बातें निकलती हैं और उसकी जिह्वा मधुर षिक्षा देती है।
27) वह अपने घरवालों के आचरण का निरीक्षण करती और आलस्य की रोटी नहीं खाती।
28) उसके पुत्र उठ कर उसे धन्य कहते हैं; उसका पति भी उसकी प्रषंसा करता है :
29) ''सच्चरित्र नारियों की कमी नहीं, किन्तु तुम उन सब से श्रेष्ठ हो''।
30) रूप-रंग माया है और सुन्दरता निस्सार है। प्रभु पर श्रद्धा रखने वाली नारी ही प्रषंसनीय है।
31) उसके परिश्रम का फल उसे दिया जाये और उसके कार्य सर्वत्र उसकी प्रषंसा करें।