पवित्र बाइबिल : Pavitr Bible ( The Holy Bible )

पुराना विधान : Purana Vidhan ( Old Testament )

स्तोत्र ग्रन्थ ( Psalms )

अध्याय 1

1) धन्य है वह मनुष्य, जो दुष्टों की सलाह नहीं मानता, पापियों के मार्ग पर नहीं चलता और अधर्मियों के साथ नहीं बैठता,
2) जो प्रभु का नियम-हृदय से चाहता और दिन-रात उसका मनन करता है!
3) वह उस वृक्ष के सदृश है, जो जलस्रोत के पास लगाया गया, जो समय पर फल देता है, जिसके पत्ते कभी मुरझाते नहीं। वह मनुष्य जो भी करता है, सफल होता है।
4) दुष्ट जन ऐसे नहीं होते, नहीं होते; वे पवन द्वारा छितरायी भूसी के सदृश हैं।
5) न्याय के दिन दुष्ट नहीं टिकेंगे, पापियों को धर्मियों की सभा में स्थान नहीं मिलेगा;
6) क्योंकि प्रभु धर्मियों के मार्ग की रक्षा करता है, किन्तु दुष्टों का मार्ग विनाश की ओर ले जाता है।

अध्याय 2

1) राष्ट्रों में खलबली क्यों मची हुई है, देश-देश के लोग व्यर्थ की बातें क्यों करते हैं?
2) पृथ्वी के राजा विद्रोह करते हैं। वे प्रभु तथा उसके मसीह के विरुद्ध षड्यन्त्र रचते हैं
3) और कहते हैं : हम उनकी बेड़ियाँ तोड़ डालें हम उनका जुआ उतार कर फेंक दें।
4) जो स्वर्ग में विराजमान है, वह हँसता है, प्रभु उन लोगों का उपहास करता है।
5) वह क्रुद्ध हो कर उन्हें डाँटता और यह कहते हुए उन्हें आतंकित करता है :
6) मैंने ही अपने पवित्र पर्वत सियोन पर अपने राजा को नियुक्त किया है।
7) मैं ईश्वर की राजाज्ञा घोषित करूँगा। प्रभु ने मुझ से कहा, ''तुम मेरे पुत्र हो, आज मैंने तुम को उत्पन्न किया है।
8) मुझ से माँगो और मैं तुम्हें सभी राष्ट्रों का अधिपति तथा समस्त पृथ्वी का स्वामी बना दूँगा।
9) तुम लोहे के दण्ड से उनपर शासन करोगे, तुम उन्हें मिट्टी के बर्तनों की तरह चकना-चूर कर दोगे।''
10) राजाओं! अब भी समझो! पृथ्वी के शासकों! शिक्षा ग्रहण करो, सावधान हो कर आनन्द मनाओ।
11) डरते-काँपते हुए प्रभु की सेवा करो। सावधान हो कर आनन्द मनाओ।
12) पुत्र की आज्ञाओं का पालन करो, ऐसा न हो कि वह क्रोध करे और तुम्हारा सर्वनाश हो जाये; क्योंकि उसका क्रोध सहज ही भड़कता है। धन्य हैं वे, जो उसकी शरण जाते हैं!

अध्याय 3

2) (१-२) प्रभु! कितने ही मेरे शत्रु! कितने है, जो मुझ से विद्रोह करते हैं!
3) कितने हैं, जो मेरे विषय में यह कहते हैं: उसका ईश्वर उसकी सहायता नहीं करता।
4) प्रभु! तू ही मेरी ढाल और मेरा गौरव है। तू ही मेरा सिर ऊँचा करता है।
5) मैं प्रभु को ऊँचे स्वर में पुकारता हूँ, वह अपने पवित्र पर्वत से मुझे उत्तर देता है।
6) मैं लेट कर निश्चिन्त सो जाता और सकुशल जागता हूँ, क्योंकि प्रभु मुझे संभालता है।
7) मैं उन लाखों शत्रुओं से नहीं डरता, जो चारों ओर मेरे विरुद्ध खड़े हैं।
8) प्रभु! मेरे ईश्वर! उठ कर मुझे बचा। तू मेरे सब शत्रुओं पर चोट करता और विधर्मियों को दन्तहीन कर देता है।
9) प्रभु! तू ही हमारा उद्धारक है। अपनी प्रजा को आशीर्वाद प्रदान कर।

अध्याय 4

2) (१-२) ईश्वर! मेरे रक्षक! मेरी पुकार का उत्तर दे। तूने मुझे सदा संकट से उबारा है। मुझ पर दया कर और मेरी प्रार्थना सुन।
3) मनुष्यों! कब तक अन्धे बने रहोगे? कब तक मोह में पड़ कर असत्य की खोज करते रहोगे?
4) समझ लो-प्रभु अपने भक्त के लिए अपूर्व कार्य करता है। वह सदा मेरी प्रार्थना सुनता है।
5) प्रभु पर श्रद्धा रखो! पाप से दूर रहो! शय्या पर मौन हो कर ध्यान करो।
6) प्रभु को योग्य बलिदान चढ़ाओ और उस पर भरोसा रखो।
7) कितने ही लोग कहते हैं : हमें सुख-शान्ति कहाँ से मिलेगी? प्रभु! हम पर दयादृष्टि कर!
8) जो आनन्द तू मुझे प्रदान करता है, वह उस आनन्द से गहरा है, जो लोगों को अंगूर और गेहूँ की अच्छी फसल से मिलता है।
9) प्रभु! मैं लेटते ही सो जाता हूँ, क्योंकि तू ही मुझे सुरक्षित रखता है।

अध्याय 5

2) (१-२) प्रभु! मेरी बात सुनने की कृपा कर। मेरे उच्छ्वासों पर ध्यान दे।
3) मेरी दुहाई तेरे पास पहुँचे, प्रभु! मैं तुझ से प्रार्थना करता हूँ, मेरे राजा, मेरे ईश्वर!
4) प्रभु! तू प्रातःकाल मेरी पुकार सुनता है। मैं प्रातः अपना चढ़ावा सजाता हूंँ और प्रतीक्षा करता रहता हूँ।
5) तू न तो बुराई से समझौता करता और न दुष्टों को शरण देता है।
6) घमण्डी तेरे सामने नहीं टिकते; तू सब कुकर्मियों को तुच्छ समझता
7) और झूठ बोलने वालों का विनाश करता है। प्रभु हिंसा करने वाले और कपटी मनुष्य से घृणा करता है।
8) किन्तु मैं तेरी अपार कृपा के कारण तेरे मन्दिर में प्रवेश करता हूँ। मैं बड़ी श्रद्धा से तेरे पवित्र मन्दिर को दण्डवत् करता हूँ।
9) मेरे शत्रु मेरी घात में रहते हैं, प्रभु! मुझे अपने धर्ममार्ग पर ले चल और मेरे लिए अपना मार्ग प्रशस्त कर।
10) उनके सुख की कोई बात विश्वसनीय नहीं, उनका हृदय दुष्टता से भरा है। उनका गला खुली हुई कब्र है और उनकी जिह्वा चाटुकारी करती है।
11) ईश्वर! उन्हें अपराधी घोषित कर। उनकी योजनाएँ विफल हों। उनके बहुत पापों के कारण उनका परित्याग कर; क्योंकि उन्होंने तेरे विरुद्ध विद्रोह किया है।
12) जो तेरी शरण जाते हैं, वे सब आनन्द मनायेंगे; जो तेरे नाम के प्रेमी हैं, वे आनन्द के गीत गायेंगे।
13) प्रभु! तू ही धर्मी को आशीर्वाद देता है, तू अपनी कृपा की ढाल से उसकी रक्षा करता है।

अध्याय 6

2) (१-२) प्रभु! क्रुद्ध हुए बिना मुझे दण्ड दे, कोप किये बिना मेरा सुधार कर।
3) प्रभु! दया कर, मैं कुम्हलाता जा रहा हूँ प्रभु! मुझे स्वस्थ कर। मेरी शक्ति शेष हो रही है।
4) मेरी आत्मा बहुत घबरा रही है। लेकिन तू प्रभु! कब तक......?
5) प्रभु! लौट कर मेरे प्राणों की रक्षा कर। अपनी सत्यप्रतिज्ञता के कारण मेरा उद्धार कर
6) मृतकों में कोई तेरा नाम नहीं लेता, अद्योलोक में कोई तुझे स्मरण नहीं करता।
7) मैं आह भरते-भरते थक गया हूँ। मैं हर रात शय्या पर रोता रहता हूँ, मेरा बिछावन आँसुओं से तर हो जाता है।
8) मेरी आँखें शोक से धुँधली हो गयी हैं, मेरे बहुत-से शत्रुओं के कारण वे क्षीण हो गयी हैं।
9) कुकर्मियों! मुझ से दूर हटो; प्रभु ने मेरा विलाप सुन लिया है।
10) प्रभु ने मेरी प्रार्थना सुन ली है; प्रभु मेरा निवेदन स्वीकार करता है।
11) मेरे शत्रु निराश और भयभीत हों। वे सब लज्जित हो कर हट जायें।

अध्याय 7

2) (१-२) प्रभु! मेरे ईश्वर! मैं तेरी शरण आया हूँ। पीछा करने वालों से मेरी रक्षा कर, मेरा उद्धार कर।
3) कहीं ऐसा न हो कि वे सिंह की तरह मुझे फाड़ डाले, मुझे घसीट ले जायें और मुझे कोई नहीं बचाये।
4) प्रभु! मेरे ईश्वर! यदि मैंने यह किया है- यदि मेरे हाथों ने अन्याय किया है,
5) यदि मैंने अपने उपकारक के साथ बुराई की है, यदि मैंने अपने शत्रु को अकारण लूटा है,
6) तो मेरा शुत्र मेरा पीछा करे, मुझे पकड़े, मुझे अपने पैरों तले मिट्टी में रौंदे और मेरी मर्यादा धूल में मिला दे।
7) प्रभु! क्रोध में आ कर उठ खड़ा हो, मेरे विरोधियों के प्रकोप का दमन कर। मेरे ईश्वर! सचेत हो! तू ही न्याय की व्यवस्था करता है।
8) राष्ट्र तेरे चारों और एकत्र हों, तू उच्च न्यायासन पर विराजमान हो।
9) प्रभु! राष्ट्रों का न्याय करता है। प्रभु! मेरी धार्मिकता और निर्दोषता के अनुसार, तू मेरा न्याय कर।
10) विधर्मियों की दुष्टता मिट जाये। तू धर्मी को प्रतिष्ठित कर। न्यायप्रिय ईश्वर! तू मनुष्य के हृदय की थाह लेता है।
11) ईश्वर ही मेरी ढाल है। वह निष्कपट लोगों का उद्धार करता है।
12) ईश्वर निष्पक्ष न्यायकर्ता है। वह प्रतिदिन बुराई के कारण क्रोध में आता है।
13) यदि लोग पश्चाताप नहीं करते, तो वह अपनी तलवार पर सान देता है और अपना धनुष चढ़ा कर निशाना बाँधता है।
14) वह अपने घातक शस्त्र तैयार करता और अपने बाणों को अग्निमय बनाता है।
15) जो पाप करने का निश्चय करता है, जिसका मन अपराध से भरा है, उसे निराश होना पडेगा।
16) जो गड्ढ़ा गहरा खोदता है, वह स्वयं उसमें गिरता है।
17) उसका अपराध उसी के सिर लौटेगा, उसकी हिंसा उसी के सिर पड़ेगी।
18) मैं उसकी न्यायप्रियता के कारण प्रभु को धन्य कहूँगा। मैं सर्वोच्च प्रभु के नाम का स्तुतिगान करूँगा।

अध्याय 8

2) (१-२) प्रभु! हमारे ईश्वर! तेरा नाम समस्त पृथ्वी पर कितना महान् है! तेरी महिमा आकाश से भी ऊँची है।
3) बालक और दुधमुँहे बच्चे तेरा गुणगान करते हैं। तूने अपने लिए एक सुदृढ़ गढ़ बनाया है। तेरे शत्रु और विद्रोही उसके सामने नहीं टिक सकते।
4) जब मैं तेरे बनाये हुए आकाश को देखता हूँ, तेरे द्वारा स्थापित तारों और चन्द्रमा को,
5) तो सोचता हूँ कि मनुष्य क्या है, जो तू उसकी सुधि ले? आदम का पुत्र क्या है, जो तू उसकी देख-भाल करे?
6) तूने उसे स्वर्गदूतों से कुछ ही छोटा बनाया और उसे महिमा और सम्मान का मुकुट पहनाया।
7) तूने उसे अपनी सृष्टि पर अधिकार दिया और उसके पैरों तले सब कुछ डाल दिया-
8) सब भेड़-बकरियों, गाय-बैलों और जंगल के बनैले पशुओं को;
9) आकाश के पक्षियों, समुद्र की मछलियों और सारे जलचरी जन्तुओं को।
10) प्रभु! हमारे ईश्वर! तेरा नाम समस्त पृथ्वी पर कितना महान् है!

अध्याय 9

2) (१-२) प्रभु! मैं सारे हृदय से तुझे धन्यवाद दूँगा। मैं तेरे सब अपूर्व कार्यों का बखान करूँगा।
3) मैं उल्लसित हो कर आनन्द मनाता हूँ। सर्वोच्च ईश्वर! मैं तेरे नाम के आदर में भजन गाता हूँ।
4) मेरे शत्रुओं को हट जाना पड़ा। वे तेरे सामने ठोकर खा कर नष्ट हो जाते हैं।
5) निष्पक्ष न्यायकर्ता! तूने अपने सिंहासन पर बैठ कर मुझे न्याय दिलाया और मेरे पक्ष में निर्णय दिया।
6) तूने राष्ट्रों को डाँटा, दुष्टों का विनाश किया और उनका नाम सदा के लिए मिटा दिया है।
7) शत्रु असंख्य खंडहरो-जैसे हो गये, तूने उनके नगरों को उजाड़ा; उनकी स्मृति तक मिट गयी।
8) प्रभु का राज्य सदा बना रहता है, उसने न्याय करने के लिए अपना सिंहासन स्थापित किया है।
9) वह न्यायपूर्वक संसार का शासन और निष्पक्षता से राष्ट्रों का न्याय करता है।
10) प्रभु पददलितों का आश्रय है, संकट के समय शरणस्थान।
11) प्रभु! जो तेरा नाम जानते हैं, वे तुझ पर भरोसा रखें; क्योंकि तू उन लोगों का परित्याग नहीं करता, जो तेरी खोज में लगे रहते हैं।
12) सियोन में निवास करने वाले प्रभु की स्तुति करो, राष्ट्रों में उसके अपूर्व कायोर्ं का बखान करो।
13) वह रक्तपात का लेखा रखता है और दरिद्र की पुकार नहीं भुलाता।
14) प्रभु! दया कर! यह देख कि मेरे शत्रुओं ने मुझे कितना नीचा दिखाया है। तू मुझे मृत्यु के द्वार से निकाल ले आता है,
15) जिससे मैं सियोन की पुत्री के फाटकों पर तेरे समस्त गुणों का बखान करूँ और तेरे उद्धार के कारण आनन्द के गीत गाऊँ।
16) राष्ट्र उस चोरगढ़े में गिरे, जिसे उन्होंने खोदा था; जो फन्दा उन्होने लगाया था, उस में उनके पैर फँस गये।
17) प्रभु ने प्रकट हो कर न्याय किया, उसने दुष्ट को उसके अपने जाल में फँसाया।
18) दुष्ट जन अधोलोक लौट जाये और वे सब राष्ट्र भी, जो ईश्वर की उपेक्षा करते हैं।
19) दरिद्र को सदा के लिए नहीं भुलाया जायेगा और दीन-दुःखियों की आशा व्यर्थ नहीं होगी।
20) प्रभु! उठ। मनुष्य की विजय न हो। तेरे सामने राष्ट्रों का न्याय हो।
21) प्रभु! राष्ट्रों को आतंकित कर, जिससे वे समझें कि वे मात्र मनुष्य हैं।

अध्याय 10

1) प्रभु! तू क्यों दूर रहता और संकट के समय छिप जाता है?
2) दुष्ट के घमण्ड के कारण दरिद्र दुःखी हैं, वे उसके कपट के शिकार बनते हैं।
3) दुष्ट अपनी सफलता की डींग मारता है, लोभी प्रभु की निन्दा और तिरस्कार करता है।
4) वह अपने घमण्ड में किसी की परवाह नहीं करता और सोचता है, ईश्वर है ही नहीं।
5) उसके सब कार्य फलते-फूलते हैं, वह तेरे निर्णयों की चिन्ता नहीं करता और अपने विरोधियों का तिरस्कार करता है।
6) वह अपने मन में कहता है, ''जैसा हूँ, वैसा ही रहूँगा, मेरा कभी अनर्थ नहीं होगा''।
7) उसका मुख निन्दा, कपट और अत्याचार से भरा है। वह बुराई और दुष्टता की बातें करता है।
8) वह गांवों के पास घात लगा कर बैठता और निर्दोष को छिप कर मारता है, उसकी आँखें असहाय पर लगी रहती है।
9) वह झाड़ी में सिंह की तरह छिप कर घात कर बैठा है; वह दीन-हीन की घात में बैठा है। वह उसे पकड़ कर अपने जाल में फँसाता है।
10) वह झुक कर छिपा रहता और दरिद्रों पर टूट पड़ता है।
11) वह अपने मन में कहता है : ''ईश्वर लेखा नहीं रखता; उसका मुख छिपा हुआ है और वह कभी कुछ नहीं देखता''।
12) प्रभु! उठ कर अपना बाहुबल प्रदर्शित कर। ईश्वर! दरिद्र को न भुला।
13) दुष्ट क्यों ईश्वर का तिरस्कार करता है? वह क्यों अपने मन में कहता है कि वह लेखा नहीं लेगा?
14) किन्तु, तू कष्ट और दुःख देखता है। दीन-हीन अपने को तुझ पर छोड़ देता है। तू अनाथ की सहायता करता है।
15) दुष्ट और कुकर्मी का बाहुबल तोड़, उसकी दुष्टता का लेखा ले और उसे समाप्त कर।
16) प्रभु सदा के लिए राज्य करता है, राष्ट्र उसके देश से लुप्त हो गये हैं।
17) प्रभु! तूने दरिद्रों का मनोरथ पूरा किया; तू उन्हें ढारस बंधाता और उनकी प्रार्थना सुनता है।
18) तू अनाथ और पददलित को न्याय दिलाता है, जिससे कोई निरा मनुष्य उन पर अत्याचार न करे।

अध्याय 11

1) मैं प्रभु की शरण आया हूँ; तुम मुझ से कैसे कह सकते हो : ''पक्षी की तरह पर्वत पर भाग जाओ''?
2) देखो, अंधेरे में निष्कपट लोगों को मारने के लिए दुष्ट जन धनुष चढ़ाते और प्रत्यंचा पर बाण साधते हैं।
3) यदि नींव उखाड़ दी गयी है, तो धर्मी क्या कर सकेगा!
4) प्रभु अपने मन्दिर में विराजमान है, प्रभु का सिंहासन स्वर्ग में है। वह संसार को देखता रहता और मनुष्यों पर दृष्टि दौड़ाता है।
5) प्रभु धर्मी और विधर्मी, दोनों की परीक्षा लेता है। वह अत्याचारी से घृणा करता है।
6) वह दुष्टों पर जलते अंगारे और गन्धक बरसाये, उन्हें झुलसाने वाली लू झेलनी पड़े;
7) क्योंकि प्रभु न्यायी हैं और न्याय के कार्य उसे प्रिय हैं। जो निष्कपट हैं, वे उसके मुख के दर्शन करेंगे।

अध्याय 12

2) (१-२) प्रभु! रक्षा कर! एक भी भक्त नहीं रहा; मनुष्यों में सत्य का लोप हो गया है।
3) लोग एक दूसरे से झूठ बोलते और कपटपूर्ण हृदय से चिकनी-चुपड़ी बातें करते हैं।
4) प्रभु चाटुकारों और डींग मारने वालों का सर्वनाश करे, जो कहते हैं,
5) ''हम अपनी वाणी के बल पर विजयी होंगे। हम जो चाहेंगे, वही कहेंगे। हमारा प्रभु कौन है?''
6) प्रभु कहता है, ''मैं अब उठूँगा, क्योंकि असहाय सताये जाते हैं और दरिद्र आह भरते हैं। जो तिरस्कृत हैं, मैं उनका उद्धार करूँगा।''
7) प्रभु की वाणी परिशुद्ध है। वह चाँदी के सदृश है, जो सात बार घड़िया में गलायी गयी है।
8) प्रभु! तू ही हमें सुरक्षित रखेगा और इस पीढ़ी से हमारी रक्षा करता रहेगा।
9) दुष्ट जन चारों ओर मंडराते हैं और मनुष्यों में नीचता का बोलबाला है।

अध्याय 13

2) (१-२) प्रभु! कब तक? क्या तू मुझे सदा भुलाता रहेगा? कब तक तू मुझ से अपना मुख छिपाये रखेगा?
3) कब तक मैं अपने मन में चिन्ता करता रहूँगा, अपने हृदय में प्रतिदिन दुःख सहता रहूँगा? कब तक मेरा शत्रु मुझ पर हावी होता रहेगा?
4) प्रभु! मेरे ईश्वर! मुझ पर दया दृष्टि कर। मेरी सुन। मेरी आँखों को ज्योति प्रदान कर, जिससे मैं चिरनिद्रा में न सो जाऊँ।
5) मेरा शत्रु यह न कहने पाये : मैंने उसे पराजित किया है''। मेरे विरोधी मेरे पतन पर आनन्द न मनायें।
6) प्रभु! मुझे तेरी सत्यप्रतिज्ञा का भरोसा है। मेरा हृदय तेरा उद्धार पा कर आनन्दित हो और मैं प्रभु के सब उपकारों के लिए उसके आदर में गीत गाऊँ।

अध्याय 14

1) मूर्ख अपने मन में कहते हैं : ''ईश्वर है ही नहीं''। उनका आचरण भ्रष्ट और घृणास्पद है। उन में कोई भी भलाई नहीं करता।
2) ईश्वर यह जानने के लिए स्वर्ग से मनुष्यों पर दृष्टि दौड़ाता है कि उन में कोई बुद्धिमान हो, जो ईश्वर की खोज में लगा रहता हो।
3) सब-के-सब भटक गये हैं, सब समान रूप से दुष्ट हैं। उन में कोई भी भलाई नहीं करता, नहीं, एक भी नहीं।
4) क्या वे कुकर्मी कुछ नहीं समझते? वे भोजन की तरह मेरी प्रजा का भक्षण करते हैं और ईश्वर का नाम नहीं लेते।
5) अब वे थरथर काँपने लगे हैं, क्योंकि ईश्वर धर्मियों का साथ देता है।
6) क्या तुम दरिद्र की योजनाओं को विफल करना चाहते हो, जब कि प्रभु उसका आश्रयदाता है?
7) कौन सियोन पर से इस्राएल का उद्धार करेगा? जब प्रभु अपनी प्रजा के निर्वासितों को लौटा लायेगा, तब याकूब उल्लसित होगा और इस्राएल आनन्द मनायेगा।

अध्याय 15

2) (१-२) प्रभु! कौन तेरे शिविर में प्रवेश करेगा? कौन तेरे पवित्र पर्वत पर निवास कर सकेगा?
3) वही, जिसका आचरण निर्दोष है, जो सदा सत्कार्य करता है, जो हृदय से सत्य बोलता है और चुगली नहीं खाता, जो अपने भाई को नहीं ठगता और अपने पड़ोसी की निन्दा नहीं करता,
4) जो विध्रमी को तुच्छ समझता और प्रभु-भक्तों का आदर करता है,
5) जो किसी भी कीमत पर अपने वचन का पालन करता है, उधार दे कर ब्याज नहीं माँगता और निर्दोष के विरुद्ध घूस नहीं लेता। जो ऐसा आचरण करता है, वह कभी विचलित नहीं होता।

अध्याय 16

1) प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ, मेरी रक्षा कर।
2) मैं प्रभु से कहता हूँ, ''तू ही मेरा ईश्वर है। तुझ में ही मेरा कल्याण है।''
3) पृथ्वी के तथाकथित शक्तिशाली देवताओं से मुझे कल्याण की आशा नहीं।
4) उनकी मूर्तियों असंख्य हैं, सब उनकी पूजा करने दौड़ते हैं। मैं उन्हें रक्त-बलि नहीं चढ़ाऊँगा, मैं प्रार्थना में उनका नाम नहीं लूँगा।
5) प्रभु! मेरे सर्वस्व और मेरे भाग्य! तू ही मुझे संभालता है।
6) मेरा दायभाग बहुत रमणीय है, वह मुझे आनन्द प्रदान करता है।
7) मैं अपने परामर्शदाता ईश्वर को धन्य कहता हूँ। रात को भी मेरा अन्तःकरण मुझे पथ दिखाता है।
8) मैं प्रभु को सदा अपनी आँखों के सामने रखता हूँ। वह मेरे दाहिने विराजमान हैं, मैं विचलित नहीं होऊँगा।
9) मेरे हृदय में आनन्द है और मेरी आत्मा में उल्लास, मेरा शरीर भी सुरक्षित है;
10) क्योंकि तू मेरी आत्मा को अधोलोक में नहीं छोड़ेगा, तू अपने भक्त को कब्र में गलने नहीं देगा।
11) तू मुझे जीवन का मार्ग दिखायेगा, तेरे साथ रह कर परिपूर्ण आनन्द प्राप्त होता है और तेरे दाहिने सदा के लिए सुख-शान्ति।

अध्याय 17

1) प्रभु! मुझे न्याय दिला। मेरी दुहाई पर ध्यान दे। मैं निष्कपट हृदय से जो प्रार्थना कर रहा हूँ, उसे तू सुनने की कृपा कर।
2) तेरे द्वारा मेरा न्याय हो, तेरी आँखे देख लें कि सत्य कहाँ है।
3) तूने मेरे हृदय की परीक्षा ली और रात को मेरा निरीक्षण किया; तूने मुझे परखा और मुझ में कोई दोष नहीं पाया।
4) मैंने मनुष्यों की तरह अपने मुख के शब्दों द्वारा पाप नहीं किया। मैं तेरी शिक्षा के अनुसार सन्मार्ग पर चलता रहा।
5) मैं तेरे मार्ग पर चलता रहा, मेरे पैर विचलित नहीं हुए।
6) मेरे ईश्वर! मैं तुझे पुकारता हूँ; क्योंकि तू मुझे उत्तर देता है। मेरी सुन, मेरी प्रार्थना स्वीकार कर।
7) अपनी सत्यप्रतिज्ञता प्रदर्शित कर। जो तेरी शरण जाते हैं, तू उन्हें उनके अत्याचारियों से छुड़ाता है।
8) तू आँख की पुतली की तरह मेरी रक्षा कर। मुझे अपने पंखों की छाया में छिपा-
9) उन दुष्टों से दूर, जिन्होंने मुझे लूटा, उन घातक शत्रुओं से, जो मुझे घेरते हैं।
10) उनकी बुद्धि जड़ और कुण्ठित है, उनका मुख डींग मारता है।
11) वे मेरी घात में बैठे हैं, अब वे मुझे घेरते हैं। मुझे भूमि पर पटकने के लिए उनकी आँखें मुझ पर टिकी हुई हैं।
12) वे सिंह की तरह मुझे फाड़ने के लिए उत्सुक है, घात में बैठे हुए हिंसक पशु की तरह।
13) प्रभु ! उठ कर उनका सामना कर और मार गिरा। मुझे अपनी तलवार से दुष्टों से छुड़ा।
14) प्रभु! तेरा हाथ मनुष्यों में से और पृथ्वी पर से उन्हें निकाल दे; जीवन में यही उनका भाग्य है। जो दण्ड तूने उनके लिए रख छोड़ा है, उसे उन से पूरा-पूरा चुका, उनके पुत्र दण्ड से तृप्त हो जायें और अपनी सन्तति के लिए भी कुछ छोड़ जायें।
15) मैं न्याय के अनुसार तेरे दर्शन करूँगा। मैं जागने पर तेरा स्वरूप देख कर तृप्त होऊँगा।

अध्याय 18

2) (१-२) प्रभु! मेरे बल! मैं तुझे प्यार करता हूँ। प्रभु मेरी चट्टान है, मेरा गढ़ और मेरा उद्धारक।
3) ईश्वर ही मेरी चट्टान है, जहाँ मुझे शरण मिलती है। वही मेरी ढाल है, मेरा शक्तिशाली उद्धारकर्ता और आश्रयदाता।
4) प्रभु धन्य है! मैंने उसकी दुहाई दी और मैं अपने शत्रुओं पर वियजी हुआ।
5) मैं मृत्यु के पाश में पड़ गया था, विनाश की प्रचण्ड धारा में बह रहा था।
6) मैं अधोलोक के जाल में फँस गया था, मेरे लिए मृत्यु का फन्दा बिछाया गया था।
7) मैंने अपने संकट में प्रभु को पुकारा, मैंने अपने ईश्वर की दुहाई दी। उसने अपने मन्दिर में मेरी वाणी सुनी, मेरी दुहाई उसके कान तक पहुँची।
8) तब पृथ्वी विचलित हो कर काँपने लगी और पर्वतों की नींव हिलने लगी। उसका क्रोध भड़क उठा और वे काँपने लगे।
9) उसके नथनों से धुआँ उठा, भस्मकारी अग्नि और दहकते अंगारे उसके मुख से निकल पड़े।
10) वह आकाश खोल कर उतरा; उसके चरणों तले घोर अन्धकार था।
11) वह केरूब पर सवार हो कर उड़ गया; पवन के पंख उसे ले चले।
12) वह अन्धकार ओढ़े था। वह काले घने बादलों से घिरा था।
13) उसके मुखमण्डल के तेज से बादल हटते जा रहे थे- औले और दहकते अंगारे झरने लगे।
14) प्रभु आकाश में गरज उठा, सर्वोच्च ईश्वर की वाणी सुनाई पड़ी-ओले और दहकते अंगारे झरने लगे।
15) उसने बाण चला कर शत्रुओं को तितर-बितर कर दिया, बिजली चमका कर उन्हें भगा दिया।
16) प्रभु! तेरी धमकी के गर्जन से, तेरी क्रोधभरी फुंकार से महासागर का तल दिखाई पड़ा, पृथ्वी की नींव प्रकट हो गयी।
17) वह ऊपर से हाथ बढ़ा कर मुझे संभालता और महासागर से मुझे निकाल लेता है,
18) मुझे मेरे शक्तिशाली शत्रुओं से छुड़ाता है, उन विरोधियों से, जो मुझ से प्रबल है।
19) वे संकट के समय मुझ पर आक्रमण करते थे, परन्तु प्रभु मेरा सहायक बना।
20) वह मुझे संकट में से निकाल लाया, उसने मुझे छुड़ाया, क्योंकि वह मुझे प्यार करता है।
21) प्रभु मेरी धार्मिकता के अनुसार मेरे साथ व्यवहार करता है, मेरे हाथों की निर्दोषता के अनुरूप;
22) क्योंकि मैं प्रभु के मार्ग पर चलता रहा। मैंने अपने ईश्वर के साथ विश्वासघात नहीं किया।
23) मैंने उसके सब नियमों को अपने सामने रखा, मैंने उसकी आज्ञाओं का उल्लंघन नहीं किया।
24) मैं उसकी दृष्टि में धर्माचरण करता रहा; मैंने किसी प्रकार का अपराध नहीं किया।
25) प्रभु ने मेरी धार्मिकता के अनुसार मेरे साथ व्यवहार किया, उसने मेरे हाथों की निर्दोषता का ध्यान रखा।
26) तू निष्ठावान् के लिए निष्ठावान् है और अनिन्द्य के लिए अनिन्द्य।
27) तू शुद्ध के लिए शुद्ध है और टेढ़े के लिए टेढ़ा।
28) तू अपमानित प्रजा को विजय दिलाता और घमण्डियों को नीचा दिखाता है।
29) प्रभु! तू ही मेरा दीपक जलाता है, मेरा ईश्वर मेरे अन्धकार को आलोकित करता है।
30) मैं तेरे बल पर शत्रुओं के दल में कूद पड़ता हूँ। मैं ईश्वर के बल पर चारदीवारी लाँघ जाता हूँ।
31) ईश्वर का मार्ग अदोष है, प्रभु की वाणी विश्वसनीय है। वह उन सब लोगों की ढाल है, जो उसकी शरण जाते हैं।
32) प्रभु के सिवा और कौन ईश्वर है? हमारे ईश्वर के सिवा और कौन चट्टान है?
33) वही ईश्वर मुझे शान्ति प्रदान करता और मार्ग प्रशस्त कर देता है।
34) वह मेरे पैरों को हिरनी की गति देता और मुझे पर्वतों पर बनाये रखता है।
35) वह मेरे हाथों को युद्ध का प्रशिक्षण देता और मेरी बाँहों को काँसे का धनुष चढ़ाना सिखाता है।
36) तू मुझे अपनी विजय ढाल देता है। तेरा दाहिना हाथ मुझे संभालता और स्वयं झुक कर मुझे महान् बनाता है।
37) तू मेरा मार्ग प्रशस्त करता है; इसलिए मैरे पैर नहीं फिसलते।
38) मैं अपने शत्रुओं का पीछा कर उन को पकड़ लेता हूँ और उनका संहार किये बिना नहीं लौटता।
39) मैं उन्हें मारता हूँ और वे फिर नहीं उठते, वे गिर कर मेरे पैरों तले पड़े रहते हैं।
40) तू युद्ध के लिए मुझे शक्ति सम्पन्न बनाता और मेरे विरोधियों को मेरे सामने झुकाता है।
41) तू मेरे शत्रुओं को भागने को विवश करता है और मैं अपने विरोधियों का विनाश करता हूँ।
42) वे पुकारते तो हैं, किन्तु कोई नहीं सुनता; वे प्रभु की दुहाई देते हैं, किन्तु वह मौन रहता है।
43) मैं उन्हें आंधी की धूल की तरह चूर-चूर करता और सड़कों के कीचड़ की तरह रौंद देता हूँ।
44) तू मुझे अपनी प्रजा के विद्रोह से मुक्त करता और मुझे राष्ट्रों का अधिपति बनाता है। जिन को मैं नहीं जानता था, वे मेरे अधीन हो जाते हैं।
45) विदेशी मेरे दरबारी बनते हैं, वे मेरा आदेश सुनते ही उसका पालन करते हैं।
46) विदेशी योद्धाओं का साहस टूट जाता है; वे काँपते हुए अपने किलों से निकलते हैं।
47) प्रभु की जय! मेरी चट्टान धन्य है! मेरे मुक्तिदाता ईश्वर की स्तुति हो।
48) वही ईश्वर मुझे प्रतिशोध लेने देता और राष्ट्रों को मेरे अधीन करता है।
49) तू मुझे मेरे शत्रुओं से मुक्त करता, मुझे विरोधियों पर विजय दिलाता और मुझे हिंसा करने वालों से छुड़ाता है।
50) प्रभु! मैं राष्ट्रों के बीच तुझे धन्यवाद दूँगा और तेरे नाम का स्तुतिगान करूँगा।
51) वह अपने राजा को विजय दिलाता रहता है। उसकी सत्यप्रतिज्ञता उसके अभिषिक्त के लिए- दाऊद और उसके वंश के लिए-सदा सर्वदा बनी रहती है।

अध्याय 19

2) (१-२) आकाश ईश्वर की महिमा बखानता है, तारामण्डल उसका सामर्थ्य प्रकट करता है।
3) दिन, दिन को उसकी कहानी सुनाता है और रात, रात को उसे बताती है।
4) न तो कोई वाणी सुनाई देती है, न कोई शब्द और न कोई स्वर,
5) फिर भी उसकी गूँज संसार भर में फैल जाती है। और पृथ्वी के सीमान्तों तक उसकी ध्वनि। प्रभु ने आकश में सूर्य के लिए एक तम्बू खड़ा किया है।
6) वह उस से इस तरह प्रकट होता है, जिस तरह वह विवाह-मण्डप से निकलता है। सूर्य उत्साह के साथ शूरवीर की तरह अपनी दौड़ पूरी करने जाता है।
7) वह आकाश के एक छोर से उदित हो कर दूसरे छोर तक अपनी परिक्रमा पूरी करता है। ऐसा कुछ नहीं, जो उसके ताप से अछूता रहे।
8) प्रभु का नियम सर्वोत्तम है; वह आत्मा में नवजीवन का संचार करता है। प्रभु की शिक्षा विश्वसनीय है; वह अज्ञानियों को समझदार बनाती है।
9) प्रभु के उपदेश सीधे-सादे हैं, वे हृदय को आनन्दित करते हैं। प्रभु की आज्ञाएं स्पष्ट हैं; वे आँखों को ज्योति प्रदान करती हैं।
10) प्रभु की वाणी परिशुद्ध है; वह अनन्त काल तक बनी रहती है। प्रभु के निर्णय सही है; वे सब-के-सब न्यायसंगत हैं।
11) वे सोने से अधिक वांछनीय हैं, परिष्कृत सोने से भी अधिक वांछनीय। वे मधु से अधिक मधुर हैं, छत्ते से टपकने वाले मधु से भी अधिक मधुर।
12) तेरा सेवक उन्हें हृदयंगम कर लेता है। उनके पालन से बहुत लाभ होता है।
13) फिर भी कौन अपनी सभी त्रुटियाँ जानता है? अज्ञात पापों से मुझे मुक्त कर।
14) अपनी सन्तान को घमण्ड से बचाये रखने की कृपा कर, उसका मुझ पर अधिकार नहीं हो पाये। तब मैं निरपराध होऊँगा और भारी पाप से निर्दोष।
15) प्रभु! तू मेरी चट्टान और मुक्तिदाता है। मेरे मुख से जो शब्द निकलते हैं और मेरे में जो विचार उठते हैं, वे सब-के-सब तुझे प्रिय लगें।

अध्याय 20

2) (१-२) संकट के समय प्रभु आपकी प्रार्थना सुने, याकूब के ईश्वर का नाम उसकी रक्षा करे।
3) वह मन्दिर में से आपकी सहायता करे, सियोन पर्वत पर से आप को संभाले।
4) वह आपके सब चढ़ावों को स्मरण रखे और आपकी होम-बलि स्वीकारे।
5) वह आपके सब मनोरथ पूर्ण करे और आपकी समस्त योजनाएं सफल बनाये।
6) तब हम आपकी विजय के कारण तालियाँ बजायेंगे और अपने ईश्वर के नाम पर ध्वजाएँ फहरायेंगे। प्रभु आपकी सब प्रर्थनाएँ पूरी करे।
7) अब मैं जान गया कि प्रभु अपने अभिषिक्त को विजय दिलाता है। वह अपने विजयी बाहुबल के प्रदर्शन से अपने अभिषिक्त की प्रार्थना पूरी करता है।
8) कुछ लोग रथों पर और कुछ लोग अश्वों पर गौरव करते हैं। हम तो प्रभु, अपने ईश्वर के नाम की दुहाई देते हैं।
9) वे लड़खड़ा कर गिर जाते हैं और हम डट कर सामना करते हैं।
10) प्रभु! राजा को विजय दिला। जिस दिन हम तुझे पुकारते हैं, उस दिन हमारी सुन।

अध्याय 21

2) (१-२) प्रभु! तेरे सामर्थ्य के कारण राजा आनन्दित है, वह तेरी सहायता पा कर आनन्द मनाते हैं।
3) तूने उनकी अभिलाषा पूरी की, तूने उनकी प्रार्थना नहीं ठुकरायी।
4) तूने उन्हें भरपूर आशीर्वाद दिया, तूने उन्हें परिष्कृत स्वर्ण का मुकुट पहनाया।
5) उन्होंने तुझ से जीवन का वरदान माँगा और तूने उनके दिन अनन्त काल तक बढ़ा दिये।
6) तेरी सहायता से उनका यश फैल गया; तूने प्रताप और ऐश्वर्य प्रदान किया।
7) तूने उन्हें चिरस्थायी आशीर्वाद दिया। वह तेरा सान्निध्य पा कर आनन्दित हैं।
8) राजा प्रभु पर भरोसा रखते हैं, सर्वोच्च की कृपा से वह कभी विचलित नहीं होंगे।
9) आपका हाथ सब शत्रुओं पर प्रहार करेगा, आपका बाहुबल सब विद्रोहियों का दमन करेगा।
10) आपका क्रोध दहकती भट्टी की तरह उनका सर्वनाश करेगा। प्रभु का क्रोध भड़केगा और आग उन्हें भस्म कर देगी।
11) आप पृथ्वी पर उनकी सन्तति का विनाश करेंगे; आप मनुष्यों में उनका वंश समाप्त कर देंगे।
12) यदि वे आपकी हानि करना चाहेंगे या आपके विरुद्ध षड्यन्त्र रचेंगे, तो सफल नहीं होंगे;
13) क्योंकि आप उन्हें पीठ दिखाने को विवश करेंगे; आप उन्हें अपने धनुष का निशाना बनायेंगे।
14) प्रभु! उठ कर अपना बाहुबल प्रदर्शित कर। हम गाते हुए तेरे सामर्थ्य का बखान करेंगे।

अध्याय 22

2) (१-२) मेरे ईश्वर! मेरे ईश्वर! तूने मुझे क्यों त्याग दिया? तू मेरी पुकार सुन कर मेरा उद्धार क्यों नहीं करता?
3) मेरे ईश्वर! मैं दिन में पुकारता हूँ और तू उत्तर नहीं देता; मैं रात में पुकारता हूँ और मुझे शान्ति नहीं मिलती,
4) यद्यपि तू मन्दिर में विराजमान है। इस्राएल तेरा स्तुतिगान करता है।
5) हमारे पूर्वजों को तेरा भरोसा था; उन्होंने तुझ पर भरोसा रखा और तूने उनका उद्धार किया।
6) उन्होंने तेरी दुहाई दी और तूने उन्हें मुक्त किया। उन को तेरा भरोसा था और तूने उन्हें निराश नहीं होने दिया।
7) परन्तु मैं मनुष्य नहीं, कीट हूँ; मनुष्यों द्वारा तिरस्कृत, लोगों द्वारा परित्यक्त।
8) मुझे जो भी देखते हैं, मेरा उपहास करते हैं; वे सिर हिलाते हुए मेरी हंसी उड़ाते हैं।
9) ''उसने प्रभु पर भरोसा रखा, वही अब उसे बचाये; यह वह उसे प्यार करता है, तो वह उसे छुड़ाये''।
10) तूने मुझे गर्भ से निकाला और माता की गोद में सुरक्षित रखा।
11) मैं जन्म से ही तुझ अर्पित किया गया; माता के गर्भ से ही तू मेरा रक्षक है।
12) मुझ से दूर न जा, क्योंकि विपत्ति निकट है और मेरा कोई सहायक नहीं।
13) बहुत-से सांड़ मेरे चारों और खड़े हैं; बाशान प्रदेश के सांड़ मुझे घेर रहे हैं।
14) वे भूखे और गरजते सिंह की तरह मुझे फाड़ खाने के लिए खड़े हैं।
15) मैं पानी की तरह बह गया; मेरी सब हडिडयाँ जोड़ से उखड़ गयी हैं। मेरा हृदय मोम की तरह मेरे सीने में पिघल रहा है।
16) मेरी शक्ति ठीकरे की तरह सूख गयी; मेरी जिह्वा तालू से चिपक गयी। वे मुझे मृत्यु की धूल में मिलाने जा रहे हैं।
17) कुत्ते मुझे घेर रहे हैं; कुकर्मियों का दल मेरे चारों ओर खड़ा है। वे मेरे हाथ-पैर छेद रहे हैं।
18) मैं अपनी एक-एक हड्डी गिन सकता हूँ। वे मुझे देखते और घूरते रहते हैं।
19) वे मेरे वस्त्र आपस में बाँटते और मेरे कुरते पर चिट्ठी डालते हैं।
20) प्रभु! मुझ से दूर न जा। तू मेरा बल है; शीघ्र ही मेरी सहायता कर।
21) मेरी आत्मा को तलवार से बचा, मेरे प्राणों को कुत्तों के पंजों से।
22) मुझे सिंह के जबड़े से छुड़ा, मेरे प्राणों की जंगली सांडों के सींगों से।
23) मैं अपने भाइयों के सामने तेरे नाम का बखान करूँगा, मैं सभाओं में तेरा स्तुतिगान करूँगा।
24) प्रभु के श्रद्धालुु भक्तों! उसकी स्तुति करो। याकूब के वंशजों! उसकी महिमा गाओ। इस्राएल के सब वंशजों! उस पर श्रद्धा रखो;
25) क्योंकि उसने दीन-हीन का तिरस्कार नहीं किया, उसे उसकी दुर्गति से घृणा नहीं हुई, उसने उस से अपना मुख नहीं छिपाया, उसने उसकी पुकार पर ध्यान दिया।
26) मैं तुझ से प्रेरित हो कर भरी सभा में तेरा गुणगान करूँगा। मैं प्रभु-भक्तों के सामने अपनी मन्नतें पूरी करूँगा।
27) जो दरिद्र हैं, वे खा कर तृप्त हो जायेंगे; जो प्रभु की खोज में लगे हैं, वे उसकी स्तुति करेंगे। उनका हृदय सदा-सर्वदा जीवित रहे।
28) समस्त पृथ्वी प्रभु का स्मरण करेगी और उसकी ओर अभिमुख हो जायेगी। सभी राष्ट्र उसे दण्डवत् करेंगे;
29) क्योंकि प्रभु ही राजा है। वही राष्ट्रों का शासन करता है।
30) पृथ्वी के सभी शासक उसी के सामने नमस्तक होंगे। सभी मनुष्य उसी की आराधना करेंगे। मैं उसके लिए जीवित रहूँगा।
31) मेरा वंश उसकी सेवा करता रहेगा। वह आने वाली पीढ़ी के लिए प्रभु के कार्यों का बखान करेगा
32) और जिन लोगों का अब तक जन्म नहीं हुआ, उनके लिए प्रभु का नाम घोषित करेगा।

अध्याय 23

1) प्रभु मेरा चरवाहा है, मुझे किसी बात की कमी नहीं।
2) वह मुझे हरे मैदानों में बैठाता और शान्त जल के पास ले जा कर मुझ में नवजीवन का संचार करता है।
3) अपने नाम के अनुरूप वह मुझे धर्ममार्ग पर ले चलता है।
4) चाहे अँधेरी घाटी हो कर जाना पड़े, मुझे किसी अनिष्ट की शंका नहीं, क्योंकि तू मेरे साथ रहता है। मुझे तेरी लाठी, तेरे डण्डे का भरोसा है।
5) तू मेरे शत्रुओं के देखते-देखते मेरे लिये खाने की मेज सजाता है। तू मेरे सिर पर तेल का विलेपन करता और मेरा प्याला लबालब भर देता है।
6) इस प्रकार तेरी भलाई और तेरी कृपा से मैं जीवन भर घिरा रहता हूँ। मैं चिरकाल तक प्रभु के मन्दिर में निवास करूँगा।

अध्याय 24

1) पृथ्वी और जो कुछ उस में है, संसार और उसके निवासी-सब प्रभु का है;
2) क्योंकि उसी ने समुद्र पर उसकी नींव डाली और जल पर उसे स्थापित किया है।
3) प्रभु के पर्वत पर कौन चढ़ेगा? उसके मन्दिर में कौन रह पायेगा?
4) वही, जिसके हाथ निर्दोष और हृदय निर्मल है, जिसका मन असार संसार में नहीं रमता जो शपथ खा कर धोखा नहीं देता।
5) प्रभु की आशीष उसे प्राप्त होगी, मुक्तिदाता ईश्वर उसे धार्मिक मानेगा।
6) ऐसे ही हैं वे लोग, जो प्रभु की खोज में लगे रहते हैं, जो याकूब के ईश्वर के दर्शनों के लिए तरसते हैं।
7) फाटको! मेहराब ऊपर करो! प्राचीन द्वारो! ऊँचे हो जाओ! महाप्रतापी राजा को प्रवेश करने दो।
8) वह महाप्रतापी राजा कौन है? प्रभु ही वह महाप्रतापी राजा है- समर्थ, शक्तिशाली और पराक्रमी।
9) फाटको! मेहराब ऊपर करो! प्राचीन द्वारो! ऊँचे हो जाओ! महाप्रतापी राजा को प्रवेश करने दो।
10) वह महाप्रतापी राजा कौन है? प्रभु ही वह महाप्रतापी राजा विश्वमण्डल का प्रभु है।

अध्याय 25

1) प्रभु! मैं अपनी आत्मा को तेरी और अभिमुख करता हूँ।
2) मेरे ईश्वर! मैं तुझ पर भरोसा रखता हूँ, मुझे निराश न कर। मेरे शत्रु मुझ पर हावी न हो पायें।
3) जो तुझ पर भरोसा रखते हैं, वे कभी निराश नहीं होते। निराश वे होते हैं, जो अकारण तुझे त्यागते हैं।
4) प्रभु! मुझे अपने मार्ग का ज्ञान दे, मुझे अपने पथ की शिक्षा प्रदान कर।
5) मुझे अपने सत्य के मार्ग पर ले चल, मुझे शिक्षा देने की कृपा कर; क्योंकि तू ही वह ईश्वर है, जो मुक्ति प्रदान करता है। मैं दिन भर तेरी प्रतीक्षा करता हूँ।
6) प्रभु! अपनी करुणा और सत्यप्रतिज्ञता याद कर, जो अनन्त काल से बनी हुई है
7) तू मेरे अपराधों और जवानी के पापों को याद न कर। प्रभु! अपनी भलाई और सत्यप्रतिज्ञता के अनुरूप मेरी सुधि ले।
8) प्रभु भला और सच्चा है, इसलिए वह पापियों को मार्ग दिखाता है।
9) वह दीनों को सन्मार्ग पर ले चलता और पददलितों को अपने मार्ग की शिक्षा देता है।
10) जो प्रभु के विधान और उसकी आज्ञाओं का पालन करते हैं, उनके लिए उसके सब मार्ग निष्ठा और सत्य के मार्ग हैं।
11) प्रभु! अपने नाम के अनुरूप मेरा अपराध क्षमा कर, हालाँकि वह भारी है।
12) यदि कोई प्रभु पर श्रद्धा रखता है, तो वह उसे उचित मार्ग दिखाता है।
13) उसका जीवन सुख-शान्ति में बीतेगा और उसका वंश पृथ्वी का अधिकारी होगा।
14) प्रभु पर श्रद्धा रखने वाले उसके कृपापात्र हैं। वह उन्हें अपने विधान का ज्ञान कराता है।
15) मेरी आँखे प्रभु पर लगी हुई हैं! क्योंकि वह मेरे पैरों को जाल से छुड़ाता है।
16) मुझ पर दयादृष्टि कर, मुझ पर दया कर; क्योंकि मैं अकेला और दुःखी हूँ
17) मेरे शोकसन्तप्त हृदय को सान्त्वना दे और मुझे यातनाओं से मुक्त कर।
18) मेरी दुर्गति और कष्ट पर ध्यान दे, मेरे सब पाप क्षमा कर।
19) यह देख कि मेरे शत्रु कितने अधिक हैं और वे मुझ से बैर और अत्याचार करते हैं।
20) मेरे जीवन की रक्षा कर, मेरा उद्धार कर। मैं तेरी शरण आया हूँ, मुझे निराश न कर।
21) मेरी सच्चाई और धर्मनिष्ठा मेरी रक्षा करें, क्योंकि मुझे तेरा भरोसा है।
22) ईश्वर! इस्राएल को उसकी सब विपत्तियों से मुक्त कर।

अध्याय 26

1) प्रभु! मुझे न्याय दिला, क्योंकि मेरा आचरण निर्दोष है। मैंने निरन्तर प्रभु पर भरोसा रखा।
2) प्रभु! मुझे परख, मेरी परीक्षा ले। मेरे हृदय और अन्तःकरण की जाँच कर।
3) मैं तेरी सत्यप्रतिज्ञता का मनन करता रहता और तेरे सत्य के मार्ग पर चलता हूँ।
4) मैं कपटियों के साथ नहीं बैठता और पाखण्डियों की संगति नहीं करता।
5) मैं अपराधियों की मण्डली से घृणा करता हूँ और दुष्टों के साथ नहीं बैठता।
6) (६-७) प्रभु! मैं निर्दोष हो कर हाथ धोता हूँ। मैं ऊँचे स्वर में तुझे धन्यवाद देते हुए और तेरे अपूर्व कार्यों का बखान करते हुए तेरी वेदी की प्रदक्षिणा करता हूँ।
8) तेरा निवास स्थान मुझे प्रिय है, जहाँ तेरी महिमा विद्यमान है।
9) मुझे न तो पापियों में सम्मिलित कर और उन हत्यारों में,
10) जिनके हाथ कुकर्मों से दूषित और रिश्वत से भरे हैं।
11) मेरा आचरण निर्र्दोष है, दयापूर्वक मेरा उद्धार कर।
12) मेरे पैर सन्मार्ग से नहीं भटकते, मैं भरी सभा में प्रभु को धन्य कहूूँगा।

अध्याय 27

1) प्रभु मेरी ज्योति और मुक्ति है, तो मैं किस से डरूँ? प्रभु मेरे जीवन की रक्षा करता है, तो मैं किस से भयभीत होऊँ?
2) जब कुकर्मी मुझ पर टूट पड़ते और मुझे निगलना चाहते हैं, तो वे- मेरे शत्रु और विरोधी-लड़खड़ा कर गिर जाते हैं।
3) कोई सेना भले ही मेरे सामने पड़ाव डाले, मेरा हृदय भयभीत नहीं होता। मेरे विरुद्ध भले ही युद्ध छिड़े, मेरा भरोसा दृढ़ बना रहता है।
4) मैंने प्रभु से यही वरदान माँगा है, यही मेरी अभिलाषा रही कि प्रभु की सौम्यता के दर्शन करने के लिए और उसके मन्दिर की देखरेख के लिए, मैं जीवन भर प्रभु के घर में निवास करूँ;
5) क्योंकि वह संकट के समय मुझे अपने तम्बू में सुरक्षित रखता है। वह मुझे अपने तम्बू के भीतर छिपाता है। वह मुझ ऊँची चट्टान पर खड़ा करता है।
6) अब भी मैं अपने चारों ओर के शत्रुओं के बीच अपना मस्तक ऊँचा रखता हूँ। मुझे प्रभु के मन्दिर में जयकार के साथ बलिदान चढ़ाने और प्रभु के आदर में भजन गाने की सुविधा है।
7) प्रभु! मेरी पुकार पर ध्यान दे। मुझ पर दया कर मेरी सुन।
8) यही मेरे हृदय की अभिलाषा रही कि मैं तेरे दर्शन करूँ। प्रभु! मैं तेरे दर्शनों के लिए तरसता हूँ।
9) अपना मुख मुझ से न छिपा, अप्रसन्न हो कर अपने सेवक को न त्याग। मुझे न छोड़, तू ही मेरा सहारा रहा है। मेरे मुक्तिदाता ईश्वर! मेरा परित्याग न कर।
10) मेरे माता-पिता भले ही मुझे छोड़ दें- प्रभु मुझे अपनायेगा।
11) प्रभु! मुझे अपना मार्ग दिखा, मुझे सन्मार्ग पर ले चल, क्योंकि मेरे शत्रु मेरी घात में बैठे हैं।
12) मुझे मेरे विरोधियों की इच्छा पर न छोड़; क्योंकि झूठे गवाह मेरे विरुद्ध खड़े हो गये हैं और उनके रोम-रोम में हिंसा भरी है।
13) मुझे विश्वास है कि मैं जीवितों के देश में प्रभु की भलाई के दर्शन करूँगा।
14) प्रभु की प्रतीक्षा करो, दृढ़ रहो, साहस रखो। प्रभु की प्रतीक्षा करो।

अध्याय 28

1) प्रभु! मैं तुझे पुकारता हूँ। मेरी चट्टान! अनसुनी न कर। यदि तू मेरे प्रति मौन रहेगा, तो मैं अधोलोक जाने वालों-जैसा हो जाऊँगा।
2) मैं तेरी दुहाई देता हूँ। तेरे पवित्र मन्दिर की ओर अभिमुख हो कर मैं करबद्ध प्रार्थना करता हूँ, प्रभु! मेरी प्रार्थना सुन।
3) मुझे दृष्टों के साथ घसीट कर न ले जा और न उन कुकर्मियों के साथ, जो अपने पड़ोसी से शान्ति की बात करते हैं, किन्तु जिनका हृदय बुराई से भरा हे।
4) उनके कामों और अपराधों के अनुसार, उनके हाथ के कर्मों के अनुसार उनके साथ व्यवहार कर। उन से उनकी करनी का बदला चुका।
5) वे न प्रभु के कार्यों पर ध्यान देते और न उसके हाथ के कृत्यों पर। वह उनका सर्वनाश करे और फिर कभी उनका निर्माण न करे।
6) धन्य है प्रभु! उसने मेरी पुकार सुनी है।
7) प्रभु मेरा गढ़ है और मेरी ढाल। मेरे हृदय ने उस पर भरोसा रखा और मुझे सहायता मिली है। मेरा हृदय आनन्दित है और मैं गाते हुए उसे धन्यवाद देता हूँ।
8) प्रभु अपनी प्रजा को बल प्रदान करता और अपने अभिषिक्त की रक्षा करता है।
9) अपनी प्रजा की रक्षा कर, अपनी विरासत को आशीर्वाद दे। उसका चरवाहा बन कर उसे सदा सँभाल।

अध्याय 29

1) ईश्वर के पुत्रों! प्रभु की महिमा का गीत गाओ। उसके सामर्थ्य का बखान करो।
2) उसके महिमामय नाम की स्तुति करो, पवित्र वस्त्र पहन कर उसकी आराधना करो।
3) प्रभु की वाणी जल पर, महासागर की लहरों पर गरजती है।
4) प्रभु की वाणी तेजस्वी है, प्रभु की वाणी प्रतापी है।
5) प्रभु की वाणी देवदारों को चीर देती है, प्रभु लेबानोन के देवदारों को चीर देता है।
6) वह लेबानोन को बछड़े की तरह कुदाता है और सियोन को तरुण भैंस की तरह।
7) प्रभु की वाणी से अग्नि की ज्वाला निकलती है,
8) प्रभु की वाणी जंगल को कँपाती है; प्रभु कादेश के मरुप्रान्त को कँपाता है।
9) प्रभु की वाणी बलूतों को जोर-जोर से हिलाती और जंगल के वृक्षों को नोच डालती है। प्रभु के मन्दिर में सब बाले उठते हैं : प्रभु की जय!
10) प्रभु जलप्रलय के ऊपर विराजमान था, प्रभु सदा-सर्वदा राज्य करेगा।
11) प्रभु अपनी प्रजा को बल प्रदान करेगा; प्रभु अपनी प्रजा को शांति का आशीर्वाद देगा।

अध्याय 30

2) (१-२) प्रभु! मैं तेरी स्तुति करता हूँ, क्योंकि तूने मेरा उद्धार किया; तूने मेरे शत्रुओं को मुझ पर हंसने नहीं दिया।
3) प्रभु! मेरे ईश्वर! मैंने तुझे पुकारा और तूने मुझे स्वास्थ्य प्रदान किया।
4) प्रभु! तूने मुझे अधोलोक से निकाला! मैं मरने को था और तूने मुझे नवजीवन प्रदान किया।
5) प्रभु-भक्तों! उसके आदर में गीत गाओ, उसके पवित्र नाम का जयकार करो।
6) उसका क्रोध क्षण भर रहता है, उसकी कृपा जीवन भर बनी रहती है। सांझ को भले ही रोना पड़े, भोर में आनन्द-ही-आनन्द है।
7) मैंने सुख-शान्ति के समय कहा था : मैं कभी विचलित नहीं होऊँगा।
8) प्रभु! तूने अपनी कृपा से मुझे सुदृढ़ किया था, किन्तु जब तूने मुझ से अपना मुख छिपाया, तो मैं घबरा गया।
9) प्रभु! मैंने तुझे पुकारा, मैंने तुझ से यह प्रार्थना की,
10) मेरी मृत्यु से, अधोलोक में मेरे उतरने से तुझे क्या लाभ होगा? क्या धूल तुझे धन्यवाद देती है या तेरी सत्यप्रतिज्ञता की घोषणा करती है?
11) प्रभु! मेरी सुन, मुझ पर दया कर। प्रभु! मेरी सहायता कर।''
12) तूने मेरा शोक आनन्द में बदल दिया, तूने मेरा टाट उतार कर मुझे आनन्द के वस्त्र पहनाये;
13) इसलिए मेरी आत्मा निरन्तर तेरा गुणगान करती है। प्रभु! मेरे ईश्वर! मैं अनन्त काल तक तुझे धन्यवाद देता रहूँगा।

अध्याय 31

2) (१-२) प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ। मुझे कभी निराश न होने दे। अपने न्याय के अनुरूप मेरा उद्धार कर।
3) मेरी सुन, मुझे शीघ्र छुड़ाने की कृपा कर। तू मेरे लिए आश्रय की चट्टान और रक्षा का सुदृढ़ गढ़ बन;
4) क्योंकि तू ही मेरी चट्टान है और मेरा गढ़। अपने नाम के कारण तू मुझे ले चल और मेरा पथप्रदर्शन कर।
5) जो जाल मेरे लिए बिछाया गया है, तू मुझे उस से छुड़ा; क्योंकि तू ही मेरा आश्रय है।
6) मैं अपनी आत्मा को तेरे हाथों सौंपता हूँ। प्रभु! तूने मेरा उद्धार किया। तू ही सत्यप्रतिज्ञ ईश्वर है।
7) जो निस्सार मूर्तियों की पूजा करते हैं, मैं उन से घृणा करता हूँ; क्योंकि मुझे प्रभु का भरोसा है।
8) मैं तेरी सत्यप्रतिज्ञा के कारण उल्लास के साथ आनन्द मनाऊँगा; क्योंकि तूने मेरी दुर्गति देखी और मेरी आत्मा की पीड़ा पर ध्यान दिया है।
9) तूने मुझे शत्रु के हाथ नहीं छोड़ा; तूने मुझे छुड़ाया और स्वच्छन्द विचरने दिया।
10) प्रभु! मुझ पर दया कर, क्योंकि मैं संकट में हूँ। मेरी आँखें शोक से धुँधली हो गयी हैं, मेरी आत्मा और मेरा शरीर सन्तप्त हैं।
11) मेरा जीवन दुःख में बीत रहा है और मेरे वर्ष आहें भरने में। मेरी दुर्गति के कारण मेरी शक्ति क्षीण हो गयी है। और मेरी हड्डियाँ गल रही हैं।
12) मेरे सब विरोधी मेरी निन्दा करते हैं, मेरे पड़ोसी भी मेरा उपहास करते हैं। मेरे परिचित मुझ से भय खाते हैं। जो मुझे रास्ते में देखते हैं, वे मुझ से दूर भागते हैं।
13) मैं मरे हुए की तरह भुला दिया गया हूँ, टूटे घड़े-जैसा बन गया हूँ।
14) मैं बहुतों की निन्दा सुनता रहता हूँ, चारों और आतंक से घिरा हूँ। वे मेरे विरुद्ध षड्यन्त्र रच कर मुझे मार डालना चाहते हैं।
15) प्रभु! मुझे तेरा ही भरोसा है। मैं कहता हूँ, तू ही मेरा ईश्वर है।
16) तेरे ही हाथों मेरा भाग्य है, शत्रुओं और अत्याचारियों से मेरी रक्षा कर।
17) अपने सेवक पर दयादृष्टि कर। तू दयासागर है, मेरा उद्धार कर।
18) प्रभु! मैं तुझे पुकारता हूँ; मुझे निराश न होने दे। मेरे शत्रु निराश हों और अधोलोक में मौन हो जायें।
19) वे मिथ्यावादी होंठ बन्द हों, जो घमण्ड, धृष्टता और तिरस्कार से धर्मी के विरुद्ध बोलते हैं।
20) प्रभु! तेरी भलाई कितनी अपार है! तू अपने भक्तों के लिए कितना दयालु है! जो तेरी शरण आते हैं, तू उन्हें सबों के सामने आश्रय देता है।
21) तू उन्हें अपने साथ रख कर मनुष्यों के षड्यन्त्रों से उनकी रक्षा करता है। तू उन्हें अपने तम्बू में छिपा कर लोगों की निन्दा से बचाता है।
22) धन्य है प्रभु! उसने संकट के समय मुझ पर अपूर्व रीति से दया की है।
23) मैंने अपनी घबराहट में कहा था, ''तूने मुझे अपने सामने से हटा दिया है'', किन्तु मेरे दुहाई देने पर तूने मेरी पुकार सुनी है।
24) प्रभु के सब भक्तों! प्रभु को प्यार करो। वह अपने विश्वासियों की रक्षा करता है, किन्तु वह घमण्डियों को पूरा-पूरा दण्ड देता है।
25) तुम सब, जो प्रभु पर भरोसा रखते हो, ढारस रखो और दृढ़ रहो।

अध्याय 32

1) धन्य है वह, जिसका अपराध क्षमा हुआ है, जिसका पाप मिट गया है!
2) धन्य है वह जिसे ईश्वर दोषी नहीं मानता, जिसका मन निष्कपट है!
3) जब तक मैं मौन रहा, तब तक मेरे निरन्तर कराहने से मेरी हड्डियाँ छीजती रहीं;
4) क्योंकि दिन-रात मुझ पर तेरे हाथ का भार था। मेरा शक्ति-रस मानो ग्रीष्म के ताप से सूखता रहा।
5) मैंने तेरे सामने अपना पाप स्वीकार किया, मैंने अपना दोष नहीं छिपाया। मैंने कहा, ''मैं प्रभु के सामने अपना अपराध स्वीकार करूँगा''। तब तूने मेरे पाप का दोष मिटा दिया।
6) इसलिए संकट के समय प्रत्येक भक्त तुझ से प्रार्थना करता है। बाढ़ कितनी ऊँची क्यों न उठे, किन्तु जलधारा उसे नहीं छू पायेगी।
7) प्रभु! तू मेरा आश्रय है। तू संकट से मेरा उद्धार करता और मुझे शान्ति के गीत गाने देता है।
8) मैं तुझे शिक्षा दूँगा, तुम को मार्ग दिखाऊँगा; तुम्हें परामर्श दूँगा और तुम्हारी रक्षा करूँगा।
9) नासमझ घोड़े या खच्चर-जैसे न बनो, जिन्हें लगाम और रास से बाध्य करना पड़ता है; नहीं तो वे तुम्हारे वश में नहीं आते।
10) दुष्ट को बहुत से दुःख झेलने पड़ते हैं, किन्तु जो प्रभु पर भरोसा रखता है, उसे प्रभु की कृपा घेरे रहती है।
11) धर्मियों! उल्लसित हो कर प्रभु में आनन्द मनाओ। तुम सब, जिनका हृदय निष्कपट है, आनन्द के गीत गाओ।

अध्याय 33

1) धर्मियों! प्रभु में आनन्द मनाओ! स्तुतिगान करना भक्तों के लिए उचित है।
2) वीणा बजाते हुए प्रभु का धन्यवाद करो, सारंगी पर उसका स्तुतिगान करो।
3) उसके आदर में नया गीत गाओ, मन लगा कर वाद्य बजाओ।
4) प्रभु का वचन सच्चा है, उसके समस्त कार्य विश्वसनीय हैं।
5) प्रभु को धार्मिकता और न्याय प्रिय हैं; पृथ्वी उसकी सत्यप्रतिज्ञता से परिपूर्ण है।
6) उसके शब्द मात्र से आकाश बना है, उसके श्वास मात्र से समस्त तारागण।
7) वह समुद्र का जल बाँध से घेरता और महासागर को भण्डारों में एकत्र करता है
8) समस्त पृथ्वी प्रभु का आदर करे, उसके सभी निवासी उस पर श्रद्धा रखें।
9) उसके मुख से शब्द निकलते ही यह सब बना है, उसके आदेश देते ही यह अस्तित्व में आया है।
10) प्रभु राष्ट्रों की योजनाएं व्यर्थ करता और उसके उद्देश्य पूरे नहीं होने देता है;
11) किन्तु उसकी अपनी योजनाएं चिरस्थायी हैं, उनके अपने उद्देश्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी बने रहते हैं।
12) धन्य है वह राष्ट्र, जिसका ईश्वर प्रभु है, जिसे प्रभु ने अपनी प्रजा बना लिया है!
13) प्रभु आकाश के ऊपर से देखता और समस्त मानवजाति पर दृष्टि दौड़ाता है।
14) वह अपने सिंहासन पर से पृथ्वी के सब निवासियों का निरीक्षण करता है।
15) उसी ने सबों का हृदय गढ़ा है; वह उनके सब कार्यों का लेखा रखता है।
16) राजा की सुरक्षा विशाल सेना से नहीं होती, शूरवीर अपने बाहुबल से अपनी रक्षा नहीं कर सकता।
17) युद्धाश्व द्वारा विजय की आशा व्यर्थ है-वह कितना ही बलवान् क्यों न हो, बचाने में असमर्थ है।
18) प्रभु की दृष्टि अपने भक्तों पर बनी रहती है, उन पर, जो उसकी कृपा से यह आशा करते हैं
19) कि वह उन्हें मृत्यु से बचायेगा और अकाल के समय उनका पोषण करेगा।
20) हम प्रभु की राह देखते रहते हैं, वही हमारा सहायक और रक्षक है।
21) हम उसकी सेवा करते हुए आनन्दित हैं, हमें उसके पवित्र नाम का भरोसा है।
22) प्रभु! तेरी कृपा हम पर बनी रहे, जैसी हम तुझ से आशा करते हैं।

अध्याय 34

2) (१-२) मैं हर समय प्रभु को धन्य कहूँगा; मेरा कण्ठ निरन्तर उसकी स्तुति करेगा।
3) मेरी आत्मा गौरव के साथ प्रभु का गुणगान करती है। दीन-हीन उसे सुन कर आनन्द मनाये।
4) मेरे साथ प्रभु की महिमा का गीत गाओ। हम मिल कर उसके नाम की स्तुति करें।
5) मैंने प्रभु को पुकारा। उसने मेरी सुनी और मुझे हर प्रकार के भय से मुक्त कर दिया।
6) प्रभु की ओर दृष्टि लगाओ, आनन्दित हो, तुम फिर कभी निराश नहीं होगे।
7) दीन-हीन ने प्रभु की दुहाई दी। प्रभु ने उसकी सुनी और उसे हर प्रकार के संकट से बचाया।
8) प्रभु का दूत उसके भक्तों के पास डेरा डालता और विपत्ति से उनकी रक्षा करता है।
9) परख कर देखो कि प्रभु कितना भला है। धन्य है वह, जो उसकी शरण जाता है!
10) प्रभु-भक्तों! प्रभु पर श्रद्धा रखो! श्रद्धालु भक्तों को किसी बात की कमी नहीं।
11) धनी लोग दरिद्र बन कर भूखे रहते हैं, प्रभु की खोज में लगे रहने वालों का घर भरा-पूरा है।
12) पुत्रों! आओ और मेरी बात सुनो! मैं तुम्हें प्रभु पर श्रद्धा की शिक्षा दूँगा।
13) तुम में कौन भरपूर जीवन, लम्बी आयु और सुख-शान्ति चाहता है?
14) तो, तुम न अपनी जीभ की बुराई बोलने दो और न अपने होंठों को कपटपूर्ण बातें।
15) बुराई से दूर रहो, भलाई करो और शान्ति के मार्ग पर बढ़ते रहो।
16) प्रभु की कृपादृष्टि धर्मियों पर बनी रहती हैं, वह उनकी पुकार पर कान देता है।
17) प्रभु कुकर्मियों से मुँह फेर लेता और पृथ्वी पर से उनकी स्मृति मिटा देता है।
18) प्रभु दुहाई देने वालों की सुनता और उन्हें हर प्रकार के संकट से मुक्त करता है।
19) प्रभु दुःखियों से दूर नहीं है। जिनका मन टूट गया, प्रभु उन्हें संभालता है।
20) धर्मी विपत्तियों से घिरा रहता है। किन्तु उन सबों से प्रभु उसे छुड़ाता है।
21) प्रभु उसकी हड्डियां की रक्षा करता है। उसकी एक भी हड्डी नहीं रौंदी जायेगी।
22) अधर्म ही विधर्मी को मारता है। धर्मी के बैरियों को दण्ड दिया जायेगा।
23) प्रभु अपने सेवकों की आत्मा का उद्धार करता है। प्रभु की शरण जाने वालों को दण्ड नहीं दिया जायेगा।

अध्याय 35

1) प्रभु! तू मेरे अभियोक्ताओं पर अभियोग लगा, मेरे आक्रामकों पर आक्रमण कर।
2) ढाल संभाल और कवच पहन ले; उठ कर मेरी सहायता कर।
3) भाला उठा कर मेरा पीछा करने वालों का मार्ग रोक। मुझे यह आश्वासन दे कि तू मेरा उद्धारक है।
4) जो मेरे प्राणों के ग्राहक हैं, वे निराश और कलंकित हों। जो मेरी दुर्गति चाहते हैं, वे लज्जित हो कर पीछे हटें।
5) जब प्रभु का दूत उन्हें भगा देगा, तो वे पवन द्वारा छितरायी भूसी के सदृश हों;
6) जब प्रभु का दूत उनका पीछा करेगा, तो उनका मार्ग अन्धकारमय और पिच्छल हो।
7) उन्होंने अकारण मेरे लिए जाल बिछाया, अकारण मेरे लिए चोरगढ़ा खोदा है।
8) उनका अचानक सर्वनाश हो। जो जाल उन्होंने बिछाया, वे उस में फंसे। जो चोरगढ़ा उन्होंने खोदा, वे उस में गिरें।
9) तब मैं प्रभु के कारण आनन्द मनाऊँगा; उसकी सहायता के कारण मैं उल्लसित हो उठूँगा।
10) मेरी समस्त हड्डियाँ यह कहेंगी : ''प्रभु! तेरे समान कौन है? तू प्रबल अत्याचारी से दर्रिद की और शोषक से दीन-हीन-की रक्षा करता है।''
11) झूठे गवाह मेरे विरुद्ध खड़े हाते हैं; मैं जो बातें नहीं जानता, मुझ से उनके बारे में पूछताछ की जाती है।
12) वे मुझ से भलाई का बदला बुराई से चुकाते हैं। मैं बिलकुल अकेला हूँ।
13) जब वे बीमार थे, तब मैं टाट ओढ़े, उपवास करते हुए तप करता और हृदय से प्रार्थना करता
14) मेरा व्यवहार ऐसा था, मानो आत्मीय या भाई बीमार हो। मैं ऐसा निरूत्साह और उदास था, जैसा कोई माता के लिए शोक मनाता हो!
15) किन्तु जब मैं ठोकर खाकर गिर गया, तब वे प्रसन्न हो कर मेरे पास एकत्र हो गये। जिन को मैं नहीं जानता था, वे भी निरन्तर मेरी निन्दा करते थे।
16) वे मेरे चारों और खड़े हो गये और दांत पीसते हुए मेरा उपहास करते थे।
17) प्रभु! तू कब तक यह देखता रहेगा? इस विपत्ति से मेरा उद्धार कर, इन सिंहों से मेरे प्राण बचा।
18) मैं भरी सभा में तुझे धन्यवाद दूँगा। मैं विशाल जनसमूह में तेरी स्तुति करूँगा।
19) मेरे मिथ्यावादी शत्रुओं को मुझ पर हँसने न दे; जो अकारण मुझ से बैर करते हैं, वे आँख न मारें।
20) वे कभी शान्ति की बातें नहीं करते; वे देश के शान्तिप्रिय लोगों की झूठी निन्दा करते हैं।
21) वे गला फाड़ कर मेरे विरुद्ध बोलते हैं। वे कहते हैं ''अहा! अहा! हमने उसे अपनी आँखों से देखा''।
22) प्रभु! तूने यह सब देखा है। अब मौन न रह। प्रभु! मुझ से दूर न जा।
23) मेरे ईश्वर! मेरे प्रभु! जाग। उठ कर मुझे न्याय दिला।
24) प्रभु! मेरे ईश्वर! अपने न्याय के अनुसार मुझे निर्दोष सिद्ध कर। उन्हें मुझ पर हँसने न दे।
25) वे अपने मन में यह न कहें, ''अहा! अहा! हम तो यही चाहते थे''। वे यह न कहने पायें, ''हम उसे निगल गये''।
26) जो मेरी दुर्गति के कारण आनन्दित थे, वे सब-के-सब लज्जित और निराश हों। जो मुझे नीचा दिखाने में अपना गौरव समझते थे, वे कलंकित और अपमानित हों।
27) जो मेरे लिए न्याय चाहते थे, वे उल्लसित होंगे और निरन्तर कहेंगे, ''प्रभु की जय! उसने अपने सेवक को सुख-शान्ति प्रदान की।''
28) तब मेरी जिह्वा तेरे न्याय का बखान करेगी और दिन भर तेरी स्तुति करेगी।

अध्याय 36

2) (१-२) दुष्ट के हृदय में पाप बोलता है, उसके हृदय में ईश्वर की श्रद्धा नहीं।
3) वह अपने को धोखा देता है, और अपना दोष स्वीकार करना नहीं चाहता।
4) वह पाप और कपट की बातें ही करता है; वह भलाई का बोध खो चुका है।
5) वह अपनी शय्या पर पाप की योजना बनाता है, उसने कुमार्ग पर चलने का संकल्प किया है, वह बुराई से घृणा नहीं करता।
6) प्रभु! तेरा प्रेम स्वर्ग तक फैला हुआ है, आकाश की तरह ऊँची है तेरी सत्यप्रतिज्ञता
7) ऊँचे पर्वतों के सदृश है तेरा न्याय, अथाह समुद्र के सदृश तेरे निर्णय। प्रभु! तू मनुष्यों और पशुओं की रक्षा करता है।
8) ईश्वर! कितनी अपार है तेरी सत्यप्रतिज्ञता। मनुष्यों को तेरे पंखों की छाया में शरण मिलती है।
9) तू उन्हें अपने घर के उत्तम व्यंजनों से तृप्त करता और अपने आनन्द की नदी का जल पिलाता है।
10) तू ही जीवन का स्रोत है, तेरी ही ज्योति में हम ज्योति देखते हैं।
11) अपने भक्तों के प्रति अपना प्रेम और धर्मियों के प्रति अपनी न्यायप्रियता बनाये रख।
12) घमण्डी का पैर मुझे नहीं रौंदे; दुष्टों का हाथ मुझे घर से न निकाले।
13) देखो! कुकर्मियों का पतन हो गया है, वे इस प्रकार पछाड़े गये कि उठ नहीं सकते।

अध्याय 37

1) दुष्टों का देख कर मत झुँझलाओ, कुकर्मियों से ईर्ष्या मत करो;
2) क्योंकि वे घास की तरह जल्दी मुरझायेंगे और हरियाली की तरह कुम्हलायेंगे।
3) प्रभु पर भरोसा रखो और भलाई करो; तुम स्वदेश में सुरक्षित रह सकोगे।
4) यदि तुम प्रभु में अपना आनन्द पाओगे, तो वह तुम्हारा मनोरथ पूरा करेगा।
5) प्रभु को अपना जीवन अर्पित करो, उस पर भरोसा रखो और वह तुम्हारी रक्षा करेगा।
6) वह तुम्हारी धार्मिकता को उषा की तरह प्रकट करेगा और तुम्हारे न्याय को दोपहर के प्रकाश की तरह।
7) प्रभु के सामने मौन रह कर उसकी प्रतीक्षा करो। जो फलता-फूलता है, उस पर मत झुँझलाओ और न उस मनुष्य पर, जो षड्यन्त्र रचता है।
8) क्रोध मत करो, आवेश छोड़ो, मत झुँझलाओ। यह बुराई की ओर ले जाता है;
9) क्योंकि दुष्टों का विनाश होगा, किन्तु प्रभु की प्रतीक्षा करने वाले देश के अधिकारी होंगे।
10) थोड़े ही समय बाद दुष्ट नहीं रहेगा। तुम उसके स्थान का पता करोगे और वह वहाँ नहीं होगा;
11) किन्तु विनीत देश के अधिकारी होंगे और पूर्ण शान्ति में आनन्द मनायेंगे।
12) दुष्ट धर्मी के विरुद्ध षड्यन्त्र रचता और उस पर दाँत पीसता है।
13) किन्तु प्रभु उस पर हँसता है; क्योंकि वह देखता है कि उसके दिन पूरे हो रहे हैं।
14) दीन-हीन लोगों को समाप्त करने और धर्मियों को मारने के लिए दुष्टों ने तलवार खींची और धनुष चढ़ाया है।
15) किन्तु उनकी तलवार उनका अपना हृदय भेदेगी और उनके धनुष टूट जायेंगे।
16) दुष्टों की अपार सम्पत्ति की अपेक्षा धर्मी का थोड़ा सामान अच्छा है;
17) क्योंकि दुष्टों की बाहें तोड़ी जायेंगी, किन्तु प्रभु धर्मियों को संभालता है।
18) प्रभु धर्मियों के जीवन की रक्षा करता है। उनकी विरासत सदा बनी रहेगी।
19) उन्हें संकट के समय निराश नहीं होना पड़ेगा। अकाल के समय वे तृप्त किये जायेंगे।
20) दुष्टों का विनाश होगा। प्रभु के बैरी चरागाह की हरियाली की तरह मिट जायेंगे। वे धुएँ की तरह विलीन हो जायेंगे।
21) दुष्ट उधार लेता है और लौटाता नहीं। धर्मी दयालु है और देता है।
22) जिन को प्रभु आशीर्वाद देता है, वे देश के अधिकारी होंगे। जिन को वह अभिशाप देता है, उनका विनाश होगा।
23) प्रभु की कृपा से मनुष्य दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ता है। उसका आचरण प्रभु को प्रिय है।
24) वह मनुष्य ठोकर खाने पर भी नहीं गिरता, क्योंकि प्रभु उसका हाथ थामता है।
25) मैं जवान था और अब बूढ़ा हो चला हूँ, किन्तु मैंने न तो धर्मी को निस्सहाय पाया और न उसकी सन्तान को भीख माँगते देखा।
26) धर्मी सदा दयालु हो कर उधार देता है और उसकी संतान को ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त है।
27) बुराई से बचते रहो, भलाई करो और तुम्हारा निवास सदा बना रहेगा;
28) क्योंकि प्रभु को धार्मिकता प्रिय है। वह अपने भक्तों को कभी नहीं त्यागता। वह सदा उनकी रक्षा करता है, किन्तु दुष्टों का वंश नहीं बना रहेगा।
29) धर्मी देश के अधिकारी होंगे और वहाँ सदा के लिए बस जायेंगे।
30) धर्मी विवेकपूर्ण बातें करता है। उसकी जिह्वा न्याय की चरचा करती है।
31) ईश्वर की संहिता उसके हृदय में घर कर गयी है, उसके पैर कभी नहीं फिसलते।
32) दुष्ट धर्मी की घात में बैठे हैं और उसे मारना चाहते हैं।
33) प्रभु उसे उनके हाथों में नहीं छोड़ता और न्यायालय में उसे दोषी नहीं बनने देता।
34) प्रभु की प्रतीक्षा करो, उसके मार्ग पर चलो। वह तुम्हें देश का अधिकारी बनायेगा और तुम दुष्टों का विनाश देखोगे।
35) मैंने दुष्ट को अत्याचार करते और लेबानोन के देवदार की तरह बढ़ते देखा।
36) जब फिर उधर गया, तो वह नहीं रहा। मैंने उसका पता लगाया और उसे नहीं पाया।
37) सच्चरित्र को देखो, निष्कपट पर ध्यान दो। शान्तिप्रिय मनुष्य को सन्तति होती है;
38) किन्तु विद्रोहियों का सर्वथा विनाश होता है, दुष्टों की सन्तति उखाड़ दी जाती है।
39) प्रभु धर्मियों का उद्धार करता और संकट के समय उनकी रक्षा करता है।
40) प्रभु उनकी सहायता करता और उन्हें मुक्त करता है। वह उन्हें दुष्टों से छुड़ाता और उनका उद्धार करता है; क्योंकि वे उसकी शरण आये हैं।

अध्याय 38

2) (१-२) प्रभु! क्रुद्ध हुए बिना मुझे दण्ड दे, कोप किये बिना मेरा सुधार कर।
3) तेरे बाणों ने मुझे छेदा है, तेरे हाथ ने मुझे मारा है।
4) तेरे क्रोध के कारण मेरा सारा शरीर क्षत-विक्षत है, मेरे पाप के कारण मेरी समस्त हड्डियाँ छीज रही हैं।
5) मेरे अपराधों का ढेर मेरे सिर से भी ऊँचा हो गया है, भारी बोझ की तरह मैं उन्हें ढोने में असमर्थ हूँ।
6) मेरी मूर्खता के कारण मेरे घावों में पीब पड़ गयी और उन से दुर्गन्ध आती है।
7) मैं झुक गया हूँ; अत्यन्त दुर्बल हूँ और दिन भर उदास चलता-फिरता हूँ।
8) मेरी कमर में जलन है, मेरा सारा शरीर अस्वस्थ है।
9) मैं पंगु और टूटा हुआ हूँ, हृदय की पीड़ा से कराहता हूँ।
10) प्रभु! तू मेरे सब मनोरथ जानता है, मेरी आहें तुझ से छिपी नहीं है।
11) मेरा हृदय धड़कता है, मेरी शक्ति चुक गयी है, मेरी आँखों की ज्योति भी बुझ गयी है।
12) मेरे घाव देख कर मेरे मित्र और साथी मेरे पास नहीं आते, मेरे पड़ोसी दूर खड़े रहते हैं।
13) जो मुझे मारना चाहते हैं, उन्होंने मेरे लिए फन्दे बिछाये हैं। जो मेरी दुर्गति की कामना करते हैं, उन्होंने मेरे विरुद्ध षड्यन्त्र रचा है और वे दिन भर मेरी चुगली खाते हैं।
14) मैं बहरे की तरह कुछ नहीं सुनता, गूंगे की तरह मुँह नहीं खोलता।
15) मैं उस मनुष्य के सदृश बन गया हूँ, जो न तो सुनता और न जबाव देता है।
16) प्रभु! मुझे तेरा ही भरोसा है। प्रभु! मेरे ईश्वर! तू अवश्य उत्तर देगा।
17) मैं कहता था, ''उन्हें मुझ पर हँसने का अवसर न मिले! जब मेरे पैर फिसलते हों, तो वे मुझ पर विजयी न हों।''
18) देख, मैं लड़खड़ा कर गिरने को हूँ। मेरी वेदना जाने का नाम नहीं लेती।
19) मैं अपना अपराध स्वीकार करता हूँ, अपने पाप के कारण अशान्त हूँ।
20) जो अकारण मेरे शत्रु हैं, वे शक्तिशाली हैं; जो नाहक मेरे बैरी हैं, वे असंख्य हैं।
21) जो मुझ से भलाई का बदला बुराई से चुकाते हैं, वे मेरी भलाई के कारण मुझ पर दोष लगाते हैं।
22) प्रभु! मुझे न त्याग। मेरे ईश्वर! मुझ से दूर न जा।
23) प्रभु! मेरे उद्धारक! शीघ्र ही मेरी सहायता कर।

अध्याय 39

2) (१-२) मैंने कहा था, ''मैं सावधान रहूँगा, जिससे मैं अपनी जिह्वा से पाप न करूँ। जब तक विधर्मी मेरे पास हैं, मैं अपने मुँह पर लगाम लगाऊँगा।''
3) मैं मौन और शान्त रहा। मैं व्यर्थ चुप रहा, मेरी वेदना बढ़ गयी।
4) मेरा हृदय मेरे अन्तरतम में जलता रहा। मैं आहें भरता रहा, मुझ में आग धधकने लगी और मेरी जिह्वा बोल उठी :
5) ''प्रभु! मुझे बता कि मेरा अन्त कब होगा, मेरे कितने दिन शेष हैं, जिससे मैं समझूँ कि मैं कितना क्षणभंगुर हूँ?
6) देख, तूने मेरे दिनों को बित्ते से मापा है, मेरी आयु तेरे सामने नहीं के बराबर है। सब मनुष्य श्वास मात्र हैं।
7) मनुष्य छाया की तरह अपनी राह चलता है, उसकी सारी क्रियाशीलता निरर्थक है। वह धन एकत्र करता है और नहीं जानता कि उसे कौन बटोर लेगा।
8) ''प्रभु! मुझे क्या पाने की आशा है? मेरी आशा तुझ पर लगी है।
9) मुझे अपने पापों से मुक्त कर! मैं मूर्खों के अपमान का पात्र न बनूँ।
10) मैंने अपना मुँह बन्द किया, उसे नहीं खोलूँगा; क्योंकि यह कार्य तेरा ही है।
11) ''अब मुझ पर प्रहार न कर, मैं तेरे हाथ की मार से नष्ट हो गया हूँ।
12) तू दण्ड दे कर मनुष्य को सुधारता है। जो सम्पत्ति उसे प्रिय है, तू उसे मकड़ी के जाले की तरह नष्ट करता है; क्योंकि मनुष्य श्वास मात्र है।
13) ''प्रभु! मेरी प्रार्थना और मेरी पुकार सुन, मेरे आँसुओं पर ध्यान दे, मौन न रह; क्योंकि मैं तेरे यहाँ अतिथि हूँ, अपने पूर्वजों की तरह प्रवासी हूँ।
14) मुझ से अपनी कोपदृष्टि हटा, जिससे चले जाने और समाप्त होने के पूर्व मुझे सान्त्वना मिले।''

अध्याय 40

2) (१-२) मैं प्रभु की प्रतीक्षा करता रहा; उसने झुक कर मेरी पुकार सुनी।
3) उसने मुझे विनाश के गर्त से, दलदल से कीच से निकाला। उसने मेरे पैर चट्टान पर टिकाकर मुझे दृढ़ कदमों से आगे बढ़ने दिया।
4) उसने मेरे मुख में एक नया गीत, हमारे ईश्वर का स्तुतिगान रखा। बहुत-से लोग यह देख कर प्रभु पर श्रद्धा और भरोसा रखेंगे।
5) धन्य है वह मनुष्य, जिसने प्रभु का भरोसा किया। और घमण्डियों तथा मिथ्यावादियों का साथ नहीं दिया।
6) प्रभु! मेरे ईश्वर! तूने हमारे लिए कितनी महान योजनाएँ और कार्य सम्पन्न किये! तू अतुलनीय है। यदि मैं तेरे कार्यों की घोषणा और वर्णन करना चाहूँ, तो वे इतने अधिक हैं कि मैं उनके वर्णन में असमर्थ हूँ।
7) तूने न तो यज्ञ चाहा और न चढ़ावा, बल्कि तूने मुझे सुनने के कान दिये। तूने न तो होम माँगा और न बलिदान।
8) तब मैंने कहा : देख! मैं आ रहा हँू। मुझे धर्मग्रन्थ से यह आदेश मिला है कि मैं तेरी आज्ञाओं का पालन करूँ।
9) मेरे ईश्वर! मैं वही करना चाहता हँू, जो तुझे प्रिय है। तेरी संहिता मेरे हृदय में घर कर गयी है।
10) मैंने भरी सभा में तेरे न्याय की घोषणा की है। प्रभु! तू जानता है कि मैंने अपना मुख बन्द नहीं रखा।
11) मैंने तेरी न्यायप्रियता को अपने हृदय में नहीं छिपाया। मैंने तेरी सत्यप्रतिज्ञता और सहायता का बखान किया। मैंने भरी सभा में तेरे प्रेम और सत्य को नहीं छिपाया।
12) प्रभु! तू मुझ पर अपनी कृपादृष्टि बनाये रखेगा, तेरी सत्यप्रतिज्ञता और तेरा सत्य मेरी रक्षा करते रहेंगे।
13) असंख्य विपत्तियाँ मुझे घेरे रहती हैं, मैं अपने दोषों के भार से दब जाता हूँ, मैं उन्हें देखने में असमर्थ हूँ। वे मेरे सिर के बालों से भी अधिक हैं। मेरा हृदय हताश हो गया है।
14) प्रभु! मेरा उद्धार कर। प्रभु! शीघ्र ही मेरी सहायता कर।
15) जो मेरे जीवन के ग्राहक हैं, वे सब-के-सब लज्जित हों। जो मेरी दुर्गति की कामना करते हैं, वे अपमानित हो कर हट जायें।
16) जो मुझ से ''अहा! अहा!'' कहते हैं, वे कलंकित हो कर घबरायें।
17) जो तेरी खोज में लगे हैं, वे सभी उल्लास के साथ आनन्द मनायें। जो तेरे द्वारा मुक्ति चाहते हैं, वे निरन्तर यह कहते रहें: प्रभु महान् है।
18) मैं दरिद्र और निस्सहाय हूँ, प्रभु मेरी सुधि लेता है। तू ही मेरा सहायक और उद्धारक है। मेरे ईश्वर! विलम्ब न कर।

अध्याय 41

2) (१-२) धन्य है वह, जो दरिद्र की सुधि लेता है! विपत्ति के दिन प्रभु उसका उद्धार करता है।
3) प्रभु पृथ्वी पर उसे सुरक्षित रखता और सुख-शान्ति प्रदान करता है। वह उसे उसके शत्रुओं के हाथों पड़ने नहीं देता।
4) प्रभु उसे रोग-शय्या पर सान्त्वना देता और उसका बिस्तर बदलता है।
5) मैंने कहा, ''प्रभु! मुझ पर दया कर, मुझे चंगा कर, क्योंकि मैंने तेरे विरुद्ध पाप किया है।''
6) मेरे शत्रु यह कहते हुए मेरा अहित चाहते हैं। ''वह कब मरेगा और उसका नाम नहीं रहेगा?''
7) यदि कोई मुझ से मिलने आता है, तो वह झूठ बोलता है। वह मन में मेरी बुराई की सामग्री भरता और बाहर आते ही मेरी निन्दा करता है।
8) मेरे सब बैरी मिलकर मेरे विरुद्ध फुसफुसाते और मेरी दुर्दशा के विषय में यह कहते हैं:
9) ''वह एक अशुभ रोग से ग्रस्त है। उसके लग जाने के बाद कोई रोग-शय्या से नहीं उठता।''
10) जिस पर मुझे भरोसा था, जिसने मेरी रोटी खायी, उस अभिन्न मित्र ने भी मुझ पर लात चलायी है।
11) परन्तु तू, प्रभु! मुझ पर दया कर; मुझे चंगा कर और मैं उन से बदला चुकाऊँगा।
12) मेरा शत्रु मुझ पर विजयी नहीं हुआ, इस से मैं जानता हूँ कि तू मुझ पर प्रसन्न है।
13) मेरी निर्दोषता के कारण तूने मुझे संभाला और सदा के लिए मुझे अपने सान्निध्य में रखा है।
14) प्रभु, इस्राएल का ईश्वर सदा-सर्वदा धन्य है। आमेन, आमेन।

अध्याय 42

2) (१-२) ईश्वर! जैसे हरिणी जलधारा के लिए तरसती है, वैसे मेरी आत्मा तेरे लिए तरसती है,
3) मेरी आत्मा ईश्वर की, जीवन्त ईश्वर की प्यासी है। मैं कब जा कर ईश्वर के दर्शन करूँगा?
4) दिन-रात मेरे आँसू ही मेरा भोजन है। लोग दिन भर यह कहते हुए मुझे छेड़ते हैं: ''कहाँ है तुम्हारा ईश्वर?''
5) मैं भावविभोर हो कर वह समय याद करता हूँ, जब उत्सव मनाती हुई भीड़ में मैं अन्य तीर्थयात्रियों के साथ आनन्द और उल्लास के गीत गाते हुए ईश्वर के मन्दिर की ओर बढ़ रहा था।
6) मेरी आत्मा! क्यों उदास हो? क्यों आह भरती हो? ईश्वर पर भरोसा रखो। मैं फिर उसका धन्यवाद करूँगा। वह मेरा मुक्तिदाता और मेरा ईश्वर है।
7) मेरी आत्मा मेरे अन्तरतम में उदास है; इसलिए मैं यर्दन और हेरमोन प्रदेश से, मिसार के पर्वत पर से तुझे याद करता हूँ।
8) तेरे जलप्रपातों का घोर निनाद प्रतिध्वनि हो कर गरजता है। तेरी समस्त लहरें और तरंगें मुझ पर गिर कर बह गयी हैं।
9) दिन में मैं प्रभु की कृपा के लिए तरसता हूँ, रात को मैं अपने जीवन्त ईश्वर की स्तुति गाता हूँ।
10) मैं ईश्वर से, अपनी चट्टान से, कहता हूँ, ''तू मुझे क्यों भूल जाता है? शत्रु के अत्याचार से दुःखी हो कर मुझे क्यों भटकना पड़ता है?''
11) मेरी हड्डियाँ रौंदी जा रही हैं। मेरे विरोधी यह कहते हुए दिन भर मेरा अपमान करते हैं ''कहाँ है तुम्हारा ईश्वर?
12) मेरी आत्मा! क्यों उदास हो? क्यों आह भरती हो? ईश्वर पर भरोसा रखो। मैं फिर उसका धन्यवाद करूँगा। वह मेरा मुक्तिदाता और मेरा ईश्वर है।

अध्याय 43

1) ईश्वर! मुझे न्याय दिला, इस विधर्मी पीढ़ी के विरुद्ध मेरा पक्ष ले। ईश्वर! कपटी और कुटिल लोगों से मुझे बचाये रखने की कृपा कर।
2) ईश्वर! तू ही मेरा आश्रय है। तूने मुझे क्यों त्याग दिया? शुत्र के अत्याचार से दुःखी हो कर मुझे क्यों भटकना पड़ता है?
3) अपनी ज्योति और अपना सत्य भेज। वे मुझे मार्ग दिखा कर तेरे पवित्र पर्वत तक, मेरे निवासस्थान तक पहुँचा देंगे।
4) मैं ईश्वर की वेदी के पास जाऊँगा, ईश्वर के पास, जो मेरा आनन्द और उल्लास है। मैं वीणा बजाते हुए अपने प्रभु-ईश्वर की स्तुति करूँगा।
5) मेरी आत्मा! उदास क्यों हो? क्यों आह भरती हो? ईश्वर पर भरोसा रखो। मैं फिर उसका धन्यवाद करूँगा। वह मेरा मुक्तिदाता और मेरा ईश्वर है।

अध्याय 44

2) (१-२) ईश्वर! तूने हमारे पूर्वजों के समय में, प्राचीन काल में क्या-क्या किया था, हमने वह अपने कानों से सुना है, हमारे पूर्वजों ने हमें बताया है।
3) उन्हें बसाने के लिए तूने अपने हाथ से राष्ट्रों को निर्वासित किया। उनकी वृद्धि के लिए तूने अन्य जातियों का दमन किया;
4) क्योंकि वे अपनी तलवार के बल देश के अधिकारी नहीं बने, वे अपने बाहुबल से विजयी नहीं हुए; बल्कि वह तेरे दाहिने हाथ, तेरे बाहुबल और तेरी कृपादृष्टि का परिणाम था; क्योंकि तू उनको प्यार करता था।
5) ईश्वर! मेरे राजा! तू ही याकूब को विजय दिलाता है।
6) तेरी सहायता से हमने अपने शत्रुओं को भगाया, तेरे नाम के प्रताप से हमने अपने आक्रामकों को रौंदा है।
7) मुझे अपने धनुष का भरोसा नहीं था, मेरी तलवार मुझे विजय नहीं दिलाती थी।
8) तूने ही हमें हमारे शत्रुओं पर विजय दिलायी, तूने हमारे बैरियों को नीचा दिखाया है।
9) हम प्रतिदिन ईश्वर का स्तुतिगान करते हैं, हम निरन्तर तेरे नाम को धन्य कहेंगे।
10) किन्तु अब तूने हमें त्यागा और अपमानित होने दिया, अब तू हमारी सेनाओं का साथ नहीं देता।
11) हम अपने शत्रुओं के सामने से हटते हैं और वे जब चाहें, हम पर छापा मारते हैं।
12) तूने हमें, भेड़-बकरियों की तरह, वध के लिए छोड़ दिया, तूने हमें राष्ट्रों के बीच बिखेर दिया है।
13) तूने अपनी प्रजा को सस्ते दामों पर बेचा और उस से तुझे कोई लाभ नहीं हुआ।
14) हमारे पड़ोसी हम पर ताना मारते हैं। आसपास रहने वाले हमारा उपहास करते हैं।
15) गैैर-यहूदी राष्ट्रों में हमारे निन्दा होती है। लोग सिर हिलाते हुए हम पर हँसते हैं।
16) (१६-१७) मेरा कलंक दिन भर मेरे सामने है। अपमान और ईश-निन्दा सुनते-सुनते मैं प्रतिशोध की कामना करने वाले शत्रुओं के सामने लज्जा के मारे अपना मुख छिपाता हूँ।
18) यह सब होते हुए भी हमने तुझे नहीं भुलाया।
19) हमने तेरे विधान के साथ विश्वासघात नहीं किया था। हमारा हृदय नहीं मुकर गया था, तुझ से विमुख नहीं हुआ था। हमारे पैर तेरे मार्ग से नहीं भटके थे,
20) जब तूने हमारा देश उजाड़ कर उसे गीदड़ों का अड्डा बनाया और मृत्यु की छाया से हमें ढक दिया।
21) यदि हमने अपने ईश्वर का नाम भुलाया होता और पराये देवता के आगे हाथ फैलाये होते,
22) तो क्या ईश्वर ने यह नहीं देखा होता? वह तो हृदयों का रहस्य जानता है।
23) तेरे कारण दिन भर हमारा वध किया जाता है। वध होने वाली भेड़ों में हमारी गिनती हुई है।
24) प्रभु! जाग! तू सोता क्यों है? उठ! हमें सदा के लिए न त्याग।
25) तू हम से अपना मुख क्यों छिपाता है? और हमारी दयनीय दशा क्यों भुलाता है?
26) क्योंकि हमारी आत्मा धूल में पड़ी हुई है, हमारा शरीर मिट्टी में रौंदा गया है। उठ कर हमारी सहायता कर। अपनी सत्यप्रतिज्ञता के कारण हमारा उद्धार कर।

अध्याय 45

2) (१-२) मेरे हृदय में मधुर भाव उमड़ रहे हैं। मैं राजा के आदर में गीत सुनाऊँगा; मेरी जिह्वा कुशल कवि की लेखनी की तरह हो।
3) आप पुरुषों में सर्वसुन्दर हैं। आपके अधरों में मधुरिमा टपकती है! यह आपके लिए ईश्वर का चिरस्थायी आशीर्वाद है।
4) शूरवीर! आप कमर में कृपाण बाँधें, ऐश्वर्य और प्रताप धारण करें।
5) सत्य की रक्षा और न्याय के समर्थन के लिए, आप धनुष चढ़ा कर अश्व पर प्रस्थान करें। आपका दाहिना हाथ चमत्कार दिखाये।
6) आपके बाण सुतीक्ष्ण हैं, वे राजा के शत्रुओं का हृदय छेदते हैं। राष्ट्र आपके अधीन हो जायेंगे।
7) आपका सिंहासन सदा-सर्वदा बना रहेगा। आपका राजदण्ड न्याय का अधिकार दण्ड है।
8) आप न्याय से प्रेम और अन्याय से घृणा करते हैं; इसलिए ईश्वर, आपके ईश्वर ने आपके साथियों की अपेक्षा आनन्द के तेल से आपका अभिषेक किया है।
9) आपके वस्त्र गन्धरस, अगरु और तेजपत्र से सगुन्धित हैं। हाथीदाँत के महलों से आने वाला संगीत आप को आनन्दित करता है।
10) राजकुमारियाँ आपकी कृपापात्रों के साथ खड़ी हैं। ओफ़िर के स्वर्ण से विभूषित महारानी आपके दाहिने विराजमान हैं।
11) पुत्री! इधर देखो और कान लगा कर सुनो। तुम अपने लोगों को और अपने पिता का घर भूल जाओ,
12) जिससे राजा तुम्हारे सौन्दर्य की अभिलाषा करें। वह तुम्हारे स्वामी हैं, उन्हें दण्डवत् करो।
13) तीरुस की पुत्री! प्रजा के धन्य-मान्य लोग उपहार ला कर तुम्हारे कृपापात्र बनना चाहेंगे।
14) अन्तःपुर में राजकुमारी का श्रृंगार अपूर्व है। उसके वस्त्र स्वर्ण और मोतियों से विभूषित हैं।
15) अलंकृत परिधान पहने वह राजा के पास पहुँचायी जाती है। उसकी सखियाँ उसके पीछे-पीछे आपके पास ले जायी जाती है।
16) वे आनन्द के गीत गाते हुए आ रही हैं और उल्लास के साथ राजमहल में प्रवेश करती हैं।
17) आपके पुत्र आपके पूर्वजों की उत्तराधिकारी होंगे। आप उन्हें समस्त पृथ्वी पर शासक के रूप में नियुक्त करेंगे।
18) मैं भावी पीढ़ियों में आपके नाम की स्मृति जीवित रखूँगा, जिससे राष्ट्र सदा-सर्वदा आपकी स्तुति करें।

अध्याय 46

2) (१-२) ईश्वर हमारा आश्रय और सामर्थ्य है। वह संकट में सदा हमारा सहचर है।
3) इसलिए हम नहीं डरते-चाहे पृथ्वी काँप उठे, चाहे पर्वत समुद्र के गर्त में डूब जायें,
4) चाहे सागर की प्रचण्ड लहरें फेन उगले और पर्वत उनकी टक्कर से हिल जायें
5) एक नदी की धाराएँ ईश्वर के नगर को सर्वोच्च ईश्वर के पवित्र निवासस्थान को आनन्द प्रदान करती हैं।
6) ईश्वर उस नगर में रहता है, वह कभी पराजित नहीं होगा। ईश्वर प्रातःकाल उसकी सहायता करेगा।
7) राष्ट्रों में खलबली मची हुई है, राज्य डग-मगाते हैं। प्रभु की वाणी सुन कर पृथ्वी पिघलती है
8) विश्वमण्डल का प्रभु हमारे साथ है, याकूब का ईश्वर हमारा गढ़ है।
9) आओ! प्रभु के महान कार्यों का मनन करो वह पृथ्वी पर अपूर्व चमत्कार दिखाता है।
10) वह पृथ्वी भर के युद्धों को शान्त करता वह धनुष को तोड़ता, भाले के टुकड़े-टुकड़े करता और युद्ध-रथों को अग्नि में भस्म कर देता है।
11) ''शान्त हो और जान लो कि मैं ही ईश्वर हूँ, मैं राष्ट्रों और पृथ्वी पर विजयी हूँ''।
12) विश्वमण्डल का प्रभु हमारे साथ है, याकूब का ईश्वर हमारा गढ़ है।

अध्याय 47

2) (१-२) समस्त राष्ट्रों! तालियाँ बजाओ और उल्लसित हो कर ईश्वर का जयकार करो;
3) क्योंकि वह प्रभु है, सर्वोच्च है, आराध्य है। वह समस्त पृथ्वी का महान् राजा है।
4) वह अन्य देशों को हमारे अधीन करता है, वह अन्य राष्ट्रों को हमारे पैरों तले रखता है।
5) वह हमें वह विरासत प्रदान करता है, जिस पर उसके कृपापात्र याकूब को गौरव था।
6) ईश्वर जयकार के साथ आगे बढ़ता है। वह तुरही के घोष के साथ आगे बढ़ता है।
7) हमारे ईश्वर के आदर में भजन गाओ, हमारे राजा के आदर में भजन गाओ।
8) ईश्वर समस्त पृथ्वी का राजा है। उसके आदर में शिक्षा-गीत सुनाओ।
9) ईश्वर सभी राष्ट्रों पर राज्य करता है। वह अपने सिंहासन पर विराजमान है।
10) अन्य राष्ट्रों के शासक इब्राहीम के ईश्वर की प्रजा से मेल करते हैं। पृथ्वी के शासक ईश्वर के अधीन है। ईश्वर सबों पर राज्य करता है।

अध्याय 48

2) (१-३) प्रभु महान् और परमप्रशंनीय है। हमारे ईश्वर के नगर में उसका पवित्र पर्वत ऊँचा और मनोहर है। वह समस्त पृथ्वी को आनन्द प्रदान करता है। सियोन का पर्वत ईश्वर का निवास और राजाधिराज का नगर है।
4) ईश्वर उसके गढ़ों में निवास करता और उसे सुरक्षित रखता है।
5) देखो! राजागण संगठित हो गये, उन्होंने मिल कर उस पर आक्रमण किया।
6) वे उसे देखते ही घबरा गये, आतंकित हो कर भाग गये।
7) वे वहाँ पहुँचते ही इस तरह भयभीत और पीड़ित हो गये, जिस तरह प्रसव निकट आने पर स्त्री को वेदना होती है।
8) उनकी दशा उन समुद्री जहाजों-जैसी हो गयी, जिन्हें पूर्वी आँधी छिन्न-भिन्न कर देती है।
9) जैसा हमने सुना था, वैसा ही हमने देखा है- विश्वमंडल के प्रभु के नगर में, हमारे ईश्वर के नगर में, ईश्वर उसे सदा के लिए सुरक्षित रखता है।
10) ईश्वर! हम तेरे मन्दिर में तेरे प्रेम का मनन करते हैं।
11) ईश्वर! तेरे नाम की तरह तेरी स्तुति पृथ्वी के सीमान्तों तक फैल जाती है। तेरे दाहिने हाथ में न्याय भरा है।
12) तेरी न्यायप्रियता के कारण सियोन पर्वत आनन्द मनाता है। यूदा के नगर तेरे निर्णय सुन कर आनन्दित हैं।
13) सियोन की प्रदक्षिणा करो, उसकी मीनारों की गिनती करो,
14) उसकी चारदीवारी को ध्यान से देखो, उसके भवनों पर दृष्टि दौड़ाओ, जिससे तुम आने वाली पीढ़ियों को बता सको
15) कि प्रभु हमारा ईश्वर है। वह अनन्त काल तक हमारा नेतृत्व करेगा।

अध्याय 49

2) (१-३) समस्त राष्ट्रों! मेरी यह बात सुनो! क्या बड़े, क्या छोटे, क्या धनी, क्या दरिद्र, पृथ्वी के सब निवासियों! तुम ध्यान दो।
4) मेरा मुख ज्ञान की बातें कहता है, मेरे हृदय के उद्गार विवेकपूर्ण हैं।
5) मैं दृष्टांत को ध्यान में रख कर सितार-वादन के साथ रहस्य समझाता हूँ।
6) मैं संकट के दिनों में क्यों डरूँ, जब मैं कपटियों के बैर से घिरा हुआ हूँ?
7) उन्हें अपने धन का भरोसा है, वे अपने वैभव पर गर्व करते हैं।
8) मनुष्य न तो अपने भाई का उद्धार कर सकता और न उसके जीवन का मूल्य ईश्वर को दे सकता है।
9) प्राणों का मूल्य इतना ऊँचा है कि किसी के पास पर्याप्त धन नहीं।
10) क्या कोई सदा के लिए जीवित रहेगा? कभी वह मृत्यु का गर्त नहीं देखेगा?
11) लोग देखते हैं कि बुद्धिमान मर जाते हैं; उनकी तरह मूर्ख और नासमझ मर कर अपनी सम्पत्ति दूसरों के लिए छोड़ जाते हैं।
12) उनकी कब्र सदा के लिए उनका घर है। वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी उस में निवास करेंगे, हालाँकि उन्होंने अपने नाम पर अपनी जमीन का नाम रखा था।
13) मनुष्य अपने वैभव में यह नहीं समझता, वह गूंगे, पशुओं के सदृश है।
14) यह उन लोगों की गति है, जो अपने पर भरोसा रखते हैं। यह उनका भविष्य है, जो ऐसे लोगों की चाटुकारी करते हैं।
15) वे भेंड़ों की तरह अधोलोक के बाड़े में रखे जायेंगे, मृत्यु उन्हें चराने ले जायेगी। वे सीधे कब्र में उतरेंगे। उनका शरीर गल जायेगा और वे अधोलोक में निवास करेंगे,
16) जब कि ईश्वर मेरी आत्मा का उद्धार करेगा और मुझे अधोलोक से निकालेगा।
17) इसकी चिन्ता मत करो यदि कोई धनी बनता हो और उसके घर का वैभव बढ़ता जाये
18) मरने पर वह अपने साथ कुछ नहीं ले जाता है और उसका वैभव उसका साथ नहीं देता।
19) वह अपने जीवनकाल में अपने को धन्य समझता था- ''लोग तुम्हारे वैभव के कारण तुम्हारी प्रशंसा करते हैं''।
20) वह अपने पूर्वजों के पास जायेगा, जो कभी दिन का प्रकाश नहीं देखेंगे।
21) मनुष्य अपने वैभव में यह नहीं समझता, वह गूंगे, पशुओं के सदृश है।

अध्याय 50

1) सर्वेश्वर प्रभु बोलता है। वह उदयाचल से अस्ताचल तक समस्त पृथ्वी को सम्बोधित करता है।
2) वह सौन्दर्यमय सियोन पर देदीप्यमान है।
3) हमारा ईश्वर आयेगा और मौन नहीं रहेगा। भस्म करने वाली अग्नि उसके आगे-आगे चलती है और उसके चारों ओर प्रचण्ड आँधी।
4) वह अपनी प्रजा का न्याय करने के लिए आकाश और पृथ्वी को सम्बोधित करता है :
5) ''मेरी प्रजा को मेरे सामने एकत्र करो, जिसने यज्ञ चढ़ा कर मेरा विधान स्वीकार किया''।
6) आकाश प्रभु की न्यायप्रियता घोषित करता है। ईश्वर स्वयं न्यायकर्ता है।
7) ''मेरी प्रजा! सुनो , मैं बोलूँगा। इस्राएल! मैं तुम्हारे विरुद्ध साक्ष्य दूँगा। मैं ईश्वर, तुम्हारा ईश्वर हूँ।
8) मैं तुम्हारे यज्ञों के कारण तुम पर दोष नहीं लगाता - तुम्हारे बलिदान तो सदा मरे सामने हैं।
9) मुझे न तो तुम्हारे घरों के सांड चाहिए और न तुम्हारे बाड़ों के बकरे;
10) क्योंकि जंगल के सभी जानवर और पहाड़ों पर चरने वाले हजारों चौपाये मेरे हैं।
11) मैं आकाश के सभी पक्षियों को जानता हूँ। मैदान में विचरने वाले पशु मेरे हैं।
12) यदि मैं भूखा होता, तो तुम से नहीं कहता; क्योंकि पृथ्वी और उसकी सभी वस्तुुएँ मेरी हैं।
13) क्या मैं सांड़ों का मांस खाता और बकरों का रक्त पीता हूँ?
14) ईश्वर को धन्यवाद का बलिदान चढ़ाओ और उसके लिए अपनी मन्नतें पूरी करो।
15) संकट के समय मेरी दुहाई दो। मैं तुम्हारा उद्धार करूँगा और तुम मेरा सम्मान करोगे।''
16) (१६-१७) ईश्वर विधर्मी से यह कहता है : ''तुम मेरी संहिता का तिरस्कार करते और मेरी बातों पर ध्यान नहीं देते हो, तो तुम मेरी आज्ञाओं का पाठ और मेरे विधान की चरचा क्यों करते हो?
18) चोर को देखने पर तुम उसका साथ देते हो और तुम व्यभिचारियों से मेल-जोल रखते हो।
19) तुम्हारे मुँह से बुराई निकलती है और तुम्हारी जीभ कपटपूर्ण बातें करती है।
20) तुम बैठ कर अपने भाई की निन्दा करते ओर अपनी माता के पुत्र की चुगली खाते हो।
21) तुम यह सब करते हो और मैं चुप रहूँ? क्या तुम मुझे अपने जैसा समझते हो? मैं तुम्हारा एक-एक अपराध गिना कर तुम पर दोष लगाता हूँ।
22) ''तुम, जो ईश्वर को भूल जाते हो-सावधान रहो! कहीं ऐसा न हो कि मैं तुम्हारा विनाश करूँ और तुम्हारा उद्धार करने वाला कोई न हो।
23) जो मुझे धन्यवाद का बलिदान चढ़ाता है, वही मेरा सम्मान करता है। जो सदाचारी है, मैं उसे ईश्वर के मुक्ति-विधान के दर्शन कराऊँगा।''

अध्याय 51

3) (१-३) ईश्वर! तू दयालु है, मुझ पर दया कर। तू दयासागर है, मेरा अपराध क्षमा कर।
4) मेरी दुष्टता पूर्ण रूप से धो डाल, मुझ पापी को शुद्ध कर।
5) मैं अपना अपराध स्वीकार करता हूँ। मेरा पाप निरन्तर मेरे सामने है।
6) मैंने तेरे विरुद्ध पाप किया है। मैंने वही किया, जो तेरी दृष्टि में बुरा है; इसलिए तेरा निर्णय सही और तेरी दण्डाज्ञा न्यायसंगत है।
7) मैं तो जन्म से ही अपराधी, अपनी माता के गर्भ से ही पापी हूँ।
8) तू हृदय की सच्चाई से प्रसन्न होता है। मेरे अन्तःकरण को ज्ञान की बातें सिखा।
9) मुझ पर जूफ़ा से जल छिड़क दे और मैं शुद्ध हो जाऊँगा।
10) मुझे आनन्द और उल्लास का सन्देश सुना और तुझ से रौंदी हुई हड्डियाँ फिर खिल उठेंगी।
11) मेरे पापों पर दृष्टि न डाल, मेरा अपराध मिटाने की कृपा कर।
12) ईश्वर! मेरा हृदय फिर शुद्ध कर और मेरा मन फिर सुदृढ़ बना।
13) अपने सान्निध्य से मुझे दूर न कर, अपने पवित्र आत्मा से मुझे वंचित न कर।
14) मुक्ति का आनन्द मुझे फिर प्रदान कर, उदारता में मेरा मन सुदृढ़ बना।
15) मैं अपराधियों को तेरे मार्ग की शिक्षा दूँगा और पापी तेरे पास लौट आयेंगे।
16) ईश्वर! तू मेरे मुक्तिदाता! मेरा उद्धार कर और मैं तेरी भलाई का बखान करूँगा।
17) प्रभु! मेरे होंठ खोल दे और मेरा कण्ठ तेरा गुणगान करेगा।
18) तू बलिदान से प्रसन्न नहीं होता। यदि मैं होम चढ़ाता, तो तू उसे अस्वीकार करता।
19) मेरा पश्चाताप ही मेरा बलिदान होगा। तू पश्चातापी दीन-हीन हृदय का तिरस्कार नहीं करेगा।
20) प्रभु! सियोन पर दयादृष्टि कर, येरुसालेम की चारदीवारी फिर उठा
21) तब तू योग्य बलिदान - होम तथा पूर्णाहुति - स्वीकार करेगा और तेरी वेदी पर बछड़े चढ़ाये जायेंगे।

अध्याय 52

3) (१-३) विधर्मी अत्याचारी! तुम अपनी दृष्टता की डींग क्यों मारते हो?
4) तुम दिन भर षड्यन्त्र रचते हो। कपटी! तुम्हारी जीभ तेज उस्तरे-जैसी है।
5) तुम को भलाई की अपेक्षा बुराई और सत्य की अपेक्षा झूठ अधिक प्रिय है।
6) कपटी जिह्वा! हर विनाशकारी बात तुम को प्रिय है।
7) इसलिए ईश्वर सदा के लिए तुम्हारा विनाश करेगा। वह तुम को तुम्हारे तम्बू के भीतर से छीन लेगा, वह जीवन-लोक से तुम्हारा उन्मूलन करेगा।
8) धर्मी देखेंगे और दंग रह जायेंगे। वे यह कहते हुए इसका उपहास करेंगे :
9) ''इस मनुष्य को देखो! इसने ईश्वर को अपना आश्रय नहीं बनाया था। इसे अपनी अपार सम्पत्ति का भरोसा था और यह अपने कुकर्मों की डींग मारता था।''
10) किन्तु मैं जैतून के हरे-भरे पेड़ की तरह ईश्वर के घर में लगा हुआ हूँ। मैं प्रभु की सत्यप्रतिज्ञता का सदा-सर्वदा भरोसा करता हूँ।
11) यह कार्य तेरा ही है, इसलिए मैं सदा तेरी स्तुति करूँगा और तेरे भक्तों की मण्डली में तेरे नाम की भलाई का बखान करूँगा।

अध्याय 53

2) (१-२) मूर्ख लोग अपने मन में कहते हैं : ''ईश्वर है ही नहीं''। उनका आचरण भ्रष्ट और घृणास्पद है, उन में कोई भलाई नहीं करता।
3) ईश्वर यह जानने के लिए स्वर्ग से मनुष्यों पर दृष्टि दौड़ाता है कि उन में कोई बुद्धिमान हो, जो ईश्वर की खोज में लगा रहता हो।
4) सब-के-सब भटक गये हैं, सब समान रूप से भ्रष्ट हैं। उनमें कोई भलाई नहीं करता, नहीं, एक भी नहीं।
5) क्या वे कुकर्मी कुछ नहीं समझते? वे भोजन की तरह मेरी प्रजा का भक्षण करते हैं और ईश्वर का नाम नहीं लेते।
6) जहाँ वे थरथर काँपने लगे थे, वहाँ भयभीत होने का कोई कारण नहीं था। प्रभु ने आपके शत्रुओं की हड्डियाँ छितरा दीं; प्रभु ने उनका परित्याग किया था, इसलिए आपने उन्हें अपमानित किया।
7) कौन सियोन पर से इस्राएल का उद्धार करेगा? जब प्रभु अपनी प्रजा के निर्वासितों को लौटा लायेगा, तब याकूब उल्लसित होगा और इस्राएल आनन्द मनायेगा।

अध्याय 54

3) (१-३) ईश्वर! अपने नाम द्वारा मेरा उद्धार कर, अपने सामर्थ्य से मुझे न्याय दिला।
4) ईश्वर! मेरी प्रार्थना सुन और मेरे शब्दों पर ध्यान दे।
5) विदेशी मुझे घेरते हैं और अत्याचारी मुझे मारना चाहते हैं।
6) देखो! ईश्वर मेरी सहायता करता है, प्रभु ही मेरे जीवन का आधार है।
7) वह मेरे शत्रुओं से बुराई का बदला ले। तू अपनी सत्यप्रतिज्ञता के अनुरूप उनका सर्वनाश कर।
8) मैं तुझे उदार बलिदान चढ़ाऊँगा। मैं तेरा नाम धन्य कहूँगा, क्योंकि वह भला है।
9) उसने मुझे हर संकट में उबारा और मैं अपने शत्रुओं का डट कर सामना करता हूँ।

अध्याय 55

2) (१-२) ईश्वर! मेरी प्रार्थना पर ध्यान दे, मेरी विनय की उपेक्षा न कर।
3) मेरी सुन और मुझे उत्तर दे, मैं अपने कष्टों से व्याकुल हूँ।
4) शत्रु के कोलाहल और विधर्मी के अत्याचार के कारण मैं विलाप करता हूँ; क्योंकि वे मेरे विरुद्ध षड्यन्त्र रचते हैं और क्रोध में मुझ पर अत्याचार करते हैं।
5) मेरा हृदय मेरे अन्तरतम में तड़पता है, मुझ पर मृत्यु का आतंक छाया है।
6) मैं भय से काँपता हूँ, सन्त्रास मुझे अभिभूत करता है।
7) इसलिए मैंने कहा : ''ओह! यदि कपोत की तरह तेरे भी पंख होते, तो मैं कहीं उड़ जाता और विश्राम पाता!
8) मैं कहीं दूर भाग जाता और मरुभूमि में बसेरा करता;
9) मैं प्रचण्ड वायु और घोर आँधी से बचने के लिए शीघ्र ही शरणस्थान पाता।''
10) प्रभु! दुष्टों में फूट डाल, उनकी भाषा में उलझन उत्पन्न कर; क्योंकि मैंने नगर में हिंसा और अनबन देखी है।
11) हिंसा और अनबन दिन-रात हमारे नगर की चारदीवारी में विचरती हैं और भीतर अन्याय और बुराई है।
12) नगर के भीतर अपराध का बोलबाला है, अत्याचार और कपट उसकी सड़के नहीं छोड़ते।
13) यदि कोई शत्रु मेरा अपमान करता, तो मैं सह लेता। यदि मेरा बैरी मुझ से विद्रोह करता, तो मैं उस से छिप जाता।
14) किन्तु तुम यह करते हो, मेर भाई, मेरे साथी, मेरे अन्तरंग मित्र!
15) जिसके साथ मैं ईश्वर के मन्दिर में मधुर संलाप करता था, जब कि हम भारी भीड़ के साथ चलते थे।
16) मृत्यु अचानक मेरे शत्रुओं पर आ पड़े, वे जीवित ही अधोलोक में उतरे; क्योंकि दुष्टता उनके यहाँ निवास करती है, वह उनके अन्तरतम में घर कर गयी है
17) लेकिन मैं ईश्वर की दुहाई देता हूँ, प्रभु मेरा उद्धार करेगा।
18) शाम, सुबह और दोपहर मैं रोता-कराहता रहता हूँ। वह मेरी पुकार सुनता है।
19) उसने मेरे बैरियों से मेरा उद्धार कर मुझे शान्ति प्रदान की; क्योंकि मेरे बहुत-से विरोधी हैं।
20) अनन्तकाल से स्वर्ग में विराजमान ईश्वर मेरी प्रार्थना सुने और उन्हें नीचा दिखाये; क्योंकि, उनका हृदय-परिवर्तन नहीं होगा, वे ईश्वर पर श्रद्धा नहीं रखते।
21) उस मनुष्य ने अपने पड़ोसी पर हाथ उठाया, उसने मैत्री का वचन भंग किया।
22) वह चिकनी-चुपड़ी बातें करता है, किन्तु उसके हृदय में लड़ाई का भाव है। उसके शब्द तेल-जैसे कोमल, किन्तु कटार-जैसे पैने हैं।
23) तुम प्रभु पर अपना भार छोड़ दो, वह तुम को संभालेगा। वह धर्मी को विचलित नहीं होने देगा।
24) प्रभु! तू उन्हें अधोलेक में उतारेगा। रक्त-पिपासू और कपटी मनुष्य अपनी आधी आयु भी पूरी नहीं करेंगे। मुझे तो तेरा भरोसा है।

अध्याय 56

2) (१-२) ईश्वर! मुझ पर दया कर। मुझ पर अत्याचार किया जाता है। एक व्यक्ति दिन भर मुझे तंग करता है।
3) मेरे शत्रु दिन भर मुझ पर अत्याचार करते हैं मेरे विरोधियों की संख्या बड़ी है।
4) सर्वोच्च प्रभु! जब मैं डरने लगता हूँ, तो तुझ पर भरोसा रखता हूँ।
5) मैं ईश्वर पर, जिसकी प्रतिज्ञा की स्तुति करता हूँ, मैं ईश्वर पर भरोसा रखता हूँ और नहीं डरता। निरा मनुष्य मेरा क्या कर सकता है?
6) वे दिन भर मेरी निन्दा करते और मेरे विरुद्ध षड्यन्त्र रचते हैं।
7) मुझे मारने के लिए वे मेरी घात में बैठे हैं और पग-पग पर मेरी निगरानी करते हैं।
8) इतनी बुराई करने पर भी क्या वे बच सकेंगे? प्रभु! तेरा क्रोध उन राष्ट्रों का विनाश करे।
9) मेरी विपत्तियों का विवरण और मेरे आँसुओं का लेखा तेरे पास है।
10) जिस दिन मैं तेरी दुहाई दूँगा, उस दिन मेरे शत्रुओं को पीछे हटना पड़ेगा। मुझे दृढ़ विश्वास है कि ईश्वर मेरे साथ है।
11) ईश्वर पर, जिसकी प्रतिज्ञा की स्तुति करता हूँ, प्रभु पर, जिसकी प्रतिज्ञा की स्तुति करता हूँ,
12) मैं ईश्वर पर भरोसा रखता हूँ और नहीं डरता। निरे मनुष्य मेरा क्या कर सकते हैं?
13) ईश्वर! मुझे अपनी मन्नतें पूरी करनी है। मैं तुझे धन्यवाद के बलिदान चढ़ाता हूँ,
14) क्योंकि तूने मुझे मृत्यु से बचाया, तूने मेरे पैरों को नहीं फिसलने दिया, जिससे मैं जीवन की ज्योति में प्रभु के सामने चलता रहूँ।

अध्याय 57

2) (१-२) मुझ पर दया कर। ईश्वर! मुझ पर दया कर। मैं तेरी शरण आया हूँ। जब तक संकट न टले, मैं तेरे पंखों की छाया में रहूँगा।
3) मैं सर्वोच्च ईश्वर को पुकारता हूँ, ईश्वर को, जो मेरा हितकारी है।
4) वह स्वर्ग से मेरी सहायता और मेरी रक्षा करे। मेरे अत्याचारी ने ईश-निन्दा की है। प्रभु अपना प्रेम और अपनी सत्यप्रतिज्ञता प्रदर्शित करे।
5) मैं सिंहों के बीच पड़ा हुआ हूँ, आग उगलने वाले प्राणियों के बीच रहता हूँ। उनके दाँत भाले और बाण हैं और उनकी जीभ पैनी तलवार।
6) ईश्वर! आकाश के ऊपर अपने को प्रदर्शित कर। समस्त पृथ्वी पर तेरी महिमा प्रकट हो।
7) मनुष्यों ने मेरे पैरों के नीचे जाल बिछाया और मुझे नीचा दिखाया है। उन्होंने मेरे लिए चोरगढ़ा खोदा है, किन्तु उस में वे स्वयं गिर गये हैं।
8) ईश्वर! मेरा हृदय प्रस्तुत है; प्रस्तुत है मेरा हृदय। मैं गाते-बजाते हुए भजन सुनाऊँगा।
9) मेरी आत्मा! जाग। सारंगी और वीणा! जागो। मैं प्रभात को जगाऊँगा।
10) प्रभु! मैं राष्ट्रों के बीच तुझे धन्य कहूँगा। मैं देश-विदेश में तेरा स्तुतिगान करूँगा;
11) क्योंकि आकाश के सदृश ऊँची है तेरी सत्यप्रतिज्ञता; तारामण्डल के सदृश ऊँचा है तेरा सत्य।
12) ईश्वर! आकाश के ऊपर अपने को प्रदर्शित कर। समस्त पृथ्वी पर तेरी महिमा प्रकट हो।

अध्याय 58

2) (१-२) शासकों! क्या तुम्हारे निर्णय सही हैं? क्या तुम उचित रीति से न्याय करते हो?
3) नहीं! तुम जान कर अपराध करते हो; पृथ्वी पर तुम्हारे हाथों के अन्याय का भार है।
4) दुष्ट जन गर्भ से दूषित हैं; मिथ्यावादी जन्म से भटकते हैं।
5) उनका विष साँप के विष-जैसा है, उस बहरे साँप के विष-जैसा, जो अपना कान बन्द कर लेता है,
6) जो सँपेरों की वाणी नहीं सुनता, जिस पर कुशल जादूगर के मन्त्रों का प्रभाव नहीं पड़ता।
7) ईश्वर! उनके दाँत उनके मुँह में तोड़ दे। प्रभु! उन सिंहों की दाढ़ों को टुकड़े-टुकड़े कर दे।
8) वे बहते पानी की तरह लुप्त हो जायें, वे रौंदी हुई घास की तरह मुरझायें,
9) वे घोंघे की तरह हो, जो स्वयं घुल जाता है, असमय गिरे हुए गर्भ की तरह, जो सूर्य का प्रकाश नहीं देखता।
10) बवण्डर उन्हें कँटीली झाड़ी या ऊँटकटारे की तरह अचानक उड़ा ले जाये।
11) धर्मी प्रतिशोध देख कर प्रसन्न होगा। वह दुष्टों के रक्त में अपने पैर धोयेगा।
12) मनुष्य यह कहेंगे-''सच है : धर्मी को पुरस्कार मिलता है; सच है : ईश्वर है, जो पृथ्वी पर न्याय करता है।''

अध्याय 59

2) (१-२) ईश्वर! शत्रुओं से मेरा उद्धार कर; आक्रमकों से मेरी रक्षा कर।
3) कुकर्मियों के पंजे से मुझे छुड़ा, रक्त-पिपासुओं से मेरी रक्षा कर।
4) देख, वे मुझे मारने के लिए घात लगाये बैठे हैं, शक्तिशाली शत्रु मुझ पर आक्रमण करते हैं। प्रभु! मैंने न तो कोई पाप किया और न कोई अपराध।
5) मैं निर्दोष हूँ, फिर भी वे दौड़ते हुए आ कर मेरी घात में बैठे हैं। उठ कर मेरी सहायता कर, मेरी दुर्गति पर ध्यान दे।
6) सर्वशक्तिमान् प्रभु-ईश्वर! इस्राएल के ईश्वर! तू जाग कर इन सब राष्ट्रों को दण्ड दे, इन सब दुष्ट विश्वासघातियों पर दया न कर।
7) वे शाम को लौट कर कुत्तों की तरह गुर्राते हुए शहर में विचरते हैं।
8) वे डींग मारते हैं। उनके शब्द तलवार..जैसे पैने हैं। वे सोचते हैं - ''हमें कौन सुनता है?''
9) प्रभु! तू उन पर हँसता और उन सब राष्ट्रों का उपहास करता है।
10) तू ही मेरा बल है; मैं तेरी प्रतीक्षा करता हूँ। ईश्वर ही मेरा गढ़ है।
11) सत्यप्रतिज्ञ ईश्वर मेरी सहायता करता है; मैं अपने शत्रुओं का डट कर सामना करता हूँ।
12) उनका वध न कर। ऐसा न हो कि मेरी प्रजा भूल जाये। तेरा सामर्थ्य उन्हें भगा दे और नीचा दिखाये; क्योंकि प्रभु; तू ही हमारी ढाल है।
13) वे अपने हर शब्द से पाप करते हैं। उनका घमण्ड, उनकी निन्दा और उनके झूठे शब्द उनके लिए फन्दा बनें।
14) तेरा क्रोध उन्हें भस्म कर दे, उनका नाम-निशान भी नहीं रहे। वे जान जायें कि ईश्वर पृथ्वी के सीमान्तों तक याकूब पर राज्य करता है।
15) वे शाम को लौट कर कुत्तों की तरह गुर्राते हुए शहर में विचरते हैं।
16) वे आहार की खोज में भटकते फिरते हैं, वे तृप्त न होने पर रात भर हुआते हैं।
17) मैं तेरे सामर्थ्य का बखान करता हूँ। मैं प्रातः तेरी सत्यप्रतिज्ञता की स्तुति करता हँू; क्योंकि तू मेरा गढ़ है, संकट के समय मेरा शरणस्थान।
18) तू ही मेरा बल है; मैं तेरी स्तुति करूँगा। ईश्वर ही मेरा गढ़ है; वह मेरा सत्यप्रतिज्ञ ईश्वर है।

अध्याय 60

3) (१-३) ईश्वर! तूने हमें त्यागा और छिन्न-भिन्न कर दिया। तू हम पर क्रुद्ध हुआ, अब हमारा उद्धार कर।
4) तूने पृथ्वी को कँपाया और वह फट गयी। अब उसकी दरारें भर दे, क्योंकि वह डगमगाती है।
5) तूने अपनी प्रजा को घोर कष्ट में डाला और हमें लड़खड़ा देने वाली मदिरा पिलायी।
6) जो तुझ पर श्रद्धा रखते हैं, तूने उन्हें संकेत दिया कि वे धर्नुधारी के सामने से भाग जायें।
7) तू अपने दाहिने हाथ से हमें बचा, हम को उत्तर दे, जिससे तेरे कृपापात्रों का उद्धार हो।
8) ईश्वर ने अपने मन्दिर में यह कहा, ''मैं सहर्ष सिखेम का विभाजन करूँगा और सुक्कोथ की घाटी नाप कर बाँट दूँगा।
9) गिलआद प्रदेश मेरा है, मनस्से प्रदेश मेरा है; एफ्रईम मेरे सिर का टोप है; यूदा मेरा राजदण्ड है;
10) मोआब मेरी चिलमची है; मैं एदोम पर अपनी चप्पल रखता हूँ; मैं फिलिस्तिया को युद्ध के लिए ललकारता हूँ।''
11) कौन मुझे किलाबन्द नगर में पहुँचायेगा? कौन मुझे एदोम तक ले जायेगा?
12) वही ईश्वर, जिसने हमें त्यागा है; वही ईश्वर, जो अब हमारी सेनाओं का साथ नहीं देता। शत्रु के विरुद्ध हमारी सहायता कर : क्योंकि मनुष्य की सहायता व्यर्थ है।
13) ईश्वर के साथ हम शूरवीरों की तरह लड़ेंगे, वही हमारे शत्रुओं को रौंदेगा।

अध्याय 61

2) (१-२) ईश्वर! मेरी पुकार सुन, मेरी प्रार्थना पर ध्यान दे।
3) मेरा हृदय डूब रहा है, मैं दूर-दूर से तेरी दुहाई देता हूँ। तू मुझे उस चट्टान पर ले जायेगा, जो मेरे लिए अगम्य है;
4) क्योंकि तू मेरा आश्रय है, शत्रु के विरुद्ध सुदृढ़ गढ़।
5) ओह! कितना अच्छा होता कि मैं सदा के लिए तेरे तम्बू में रहता और तेरे पंखों के नीचे शरण पाता।
6) ईश्वर! तू मन्नतें स्वीकार करता है; जो तेरे नाम पर श्रद्धा रखते हैं, तू उनकी इच्छा पूरी करता है।
7) राजा की आयु को और भी बढ़ा, वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी जीवित रहें।
8) वह ईश्वर के सामने राज्य करते रहें; सत्यप्रतिज्ञता और सत्य उन्हें सुरक्षित रखें।
9) तब मैं प्रतिदिन अपनी मन्नतें पूरी करते हुए निरन्तर तेरे नाम की स्तुति करूँगा।

अध्याय 62

2) (१-२) ईश्वर में ही मुझे शान्ति मिलती है; वही मेरा उद्धार कर सकता है;
3) वही मेरी चट्टान है, मेरा उद्धार और मेरा गढ़; मैं विचलित नहीं होऊँगा।
4) तुम सब मिल कर कब तक एक व्यक्ति पर आक्रमण करते रहोगे और उसे ढहती दीवार या धँसते घेरे की तरह गिराना चाहोगे?
5) वे उसके पद से उसे हटाना चाहते हैं। उन्हें झूठ बोलने में आनन्द आता है। वे मुख से आशीर्वाद, किन्तु हृदय से अभिशाप देते हैं।
6) मेरी आत्मा! ईश्वर में ही शान्ति प्राप्त करो, क्योंकि उसी से मुझे आशा है।
7) वही मेरी चट्टान है, मेरा उद्धार और मेरा गढ़ है; मैं विचलित नहीं होऊँगा।
8) ईश्वर से ही सुरक्षा और सम्मान मिलता है; वही मेरा बल और मेरा आश्रय है।
9) मेरी प्रजा! हर समय उसी पर भरोसा रखो। उसी के सामने अपना हृदय खोलो, क्योंकि ईश्वर हमारा आश्रय है।
10) साधारण मनुष्य श्वास मात्र हैं और कुलीन लोग झूठे हैं। यदि सब को तुला कर चढ़ाया जाये तो वे श्वास से भी हल्के निकलेंगे।
11) अत्याचार पर भरोसा मत रखो और लूट के माल पर गर्व मत करो। यदि तुम्हारी धन-सम्पत्ति बढ़ती जाये, तो उस में अपना हृदय आसक्त न होने दो।
12) ईश्वर ने एक बात कही, मैंने उसे दो बार सुना है- ईश्वर ही समर्थ है।
13) प्रभु! तू ही सत्यप्रतिज्ञ है। तू ही हर एक को उसके कर्मों का फल देता है।

अध्याय 63

2) (१-२) ईश्वर! तू ही मेरा ईश्वर है! मैं तुझे ढूँढ़ता रहता हँूँ। मेरी आत्मा तेरे लिए प्यासी है। जल के लिए सूखी सन्तप्त भूमि की तरह, मैं तेरे दर्शनों के लिए तरसता हूँ।
3) मैंने तेरे मंदिर में तेरे दर्शन किये, मैंने तेरा सामर्थ्य और तेरी महिमा देखी है।
4) तेरी सत्यप्रतिज्ञता प्राणों से भी अधिक प्यारी है। मेरा कण्ठ तेरी स्तुति करता था।
5) मैं जीवन भर तुझे धन्य कहूँगा और तुझ से करबद्ध प्रार्थना करता रहूँगा।
6) मेरी आत्मा मानों उत्तम व्यंजनों से तृप्त होगी; मैं उल्लसित हो कर तेरी स्तुति करूँगा।
7) मैं अपनी शय्या पर भी तुझे याद करता हूँ; मैं रात भर तेरा मनन करता हूँ।
8) तू सदा मेरा सहारा रहा है; मैं तेरे पंखों की छाया में सुखी हूँ।
9) मेरी आत्मा तुझे में आसक्त रहती है; तेरा दाहिना हाथ मुझे सँभालता रहता है।
10) जो मेरे प्राणों के गाहक हैं, उनका विनाश हो; वे अधोलोक जायें।
11) वे तलवार के घाट उतारे जाये; वे गीदड़ों का आहार बनें।
12) राजा प्रभु के कारण आनन्दित होंगे। जो ईश्वर की शपथ खाता है, वह अपने को धन्य समझेगा, जब कि मिथ्यावादियों का मुख बन्द रहेगा।

अध्याय 64

2) (१-२) ईश्वर! संकट में मेरी पुकार सुन। शत्रु के आतंक से मेरे प्राणों की रक्षा कर।
3) दुष्टों के षड़यन्त्र से, कुकर्मियों के अत्याचार से मेरी रक्षा कर।
4) उन्होंने अपनी जिह्वा को तलवार की तरह तेज किया और अपने विषैले शब्दों का निशाना बाण की तरह बाँधा है।
5) वे छिप कर धर्मी मनुष्य को मारते हैं। वे अचानक मारते हैं और किसी से नहीं डरते।
6) वे बुराई करने के लिए एक दूसरे को प्रोत्साहन देते हैं। वे जाल छिपाने के लिए आपस में परामर्श करते और कहते हैं : ÷÷हमें कौन देखेगा?''
7) वे कुकमोर्ं की योजना बनाते हैं और अपना कुचक्र छिपाये रखते हैं। मनुष्य का हृदय अपने अन्तरतम में अथाह है।
8) किन्तु ईश्वर ने उन पर बाण छोड़ा है, वे अचानक घायल हो गये हैं।
9) उनकी जिह्वा ने उनका विनाश किया है। उन्हें देख कर सब अपना सिर हिलाते हैं।
10) और भयभीत हो जाते हैं। वे ईश्वर के इस कार्य की घोषणा करते और इस से शिक्षा ग्रहण करते हैं।
11) धर्मी प्रभु में आनन्द मनाये, वह उसकी शरण जाये। इस से सब निष्कपट लोग अपने को धन्य मानेंगे।

अध्याय 65

2) (१-२) ईश्वर! सियोन में तेरा स्तुतिगान करना हमारे लिए उचित है। हम तेरे लिए अपनी मन्नतें पूरी करते हैं।
3) सब मनुष्य तेरे पास आते हैं, क्योंकि तू प्रार्थनाएँ सुनता है।
4) हमारा अधर्म हम पर हावी हो गया, किन्तु तू हमारा पाप क्षमा करता है।
5) धन्य है वह, जिसे तू चुनता और अपने मंदिर में निवास करने देता है। हम तेरे घर के वैभव से, तेरे मंदिर की पवित्रता से समृद्ध होंगे।
6) अपने न्याय के अनुरूप तू अपने चमत्कारों द्वारा हमारी प्रार्थना का उत्तर देता है। तू हमारा उद्धारक ईश्वर है, समस्त पृथ्वी और सुदूर द्वीपों की आशा।
7) वह अपने सामर्थ्य से पर्वतों को स्थापित करता है। वह पराक्रम से विभूषित है।
8) वह समुद्र का गर्जन, उसकी लहरों का कोलाहल और राष्ट्रों का उपद्रव शान्त करता है।
9) पृथ्वी के सीमान्तों के निवासी तेरे चमत्कार देख कर आश्चर्यचकित हैं। पूर्व और पश्चिम के प्रदेश तेरे कारण उल्लसित हो कर आनन्द मनाते हैं।
10) तूने पृथ्वी की सुधि ली, उसे सींचा और उपज से भर दिया। तू मनुष्य के अन्न का प्रबन्ध करता है। तू भूमि को इस प्रकार तैयार करता है।
11) तू जोती हुई भूमि सींचता है, उसे बराबर करता, पानी बरसा कर नरम बनाता और उसके अंकुरों को आशिष देता है।
12) तू वर्ष भर वरदान देता रहता है, तेरे मागर्ोें के आसपास की भूमि अच्छी फसल से भरी हुई है।
13) परती भूमि के चरागाह हरे-भरे हैं। पहाड़ियों में आनन्द के गीत गूँजते हैं।
14) चरागाह पशुओं से भरे हुए हैं। घाटियाँ अनाज की फसल से ढकी हुई हैं। सर्वत्र आनन्द तथा उल्लास के गीत सुनाई पड़ते हैं।

अध्याय 66

1) समस्त पृथ्वी! ईश्वर का जयकार करो!
2) उसके प्रतापी नाम का गीत गाओ और उसकी महिमा का स्तुतिगान करो।
3) ईश्वर से यह कहो : ÷÷तेरे कार्य अपूर्व हैं। तेरे अपार सामर्थ्य को देख कर तेरे शत्रु चाटुकारी करते हैं।
4) समस्त पृथ्वी तुझे दण्डवत् करती है, वह तेरे नाम का स्तुतिगान करती है।''
5) आओ! ईश्वर के कार्यों का ध्यान करो- उसने पृथ्वी पर अपूर्व कार्य किये हैं।
6) उसने समुद्र को स्थल में बदल दिया। उन लोगों ने नदी को पैदल ही पार किया; इसलिए हम उसके नाम पर आनन्द मनायें।
7) वह अपने सामर्थ्य द्वारा सदा शासन करता और राष्ट्रों पर दृष्टि दौड़ाता है, जिससे विद्रोही फिर सिर न उठायें।
8) राष्ट्रों! हमारे ईश्वर को धन्य कहो, उच्च स्वर में उसका स्तृतिगान करो,
9) जिसने हमें जीवन प्रदान किया, जिसने हमारे पैरों को फिसलने नहीं दिया।
10) ईश्वर! तूने हमारी परीक्षा ली और चाँदी की तरह हमारा परिष्कार किया है।
11) तूने हमें जाल में फँसाया और हमें बहुत कष्ट दिलाया।
12) तूने हमारे साथ लद्दू जानवरों-सा व्यवहार होने दिया। हमने आग और पानी में प्रवेश किया; किन्तु तूने हमें निकाल कर सुख-चैन दिया।
13) मैं होम-बलियाँ लिए तेरे मन्दिर में प्रवेश करता हूँ। मैं तेरे लिए वे मन्नतें पूरी करता हूँ,
14) जो संकट के समय मेरे होंठों से निकलीं, जिनका मेरे मुख ने उच्चारण किया।
15) मैं मेढ़ों की सुगन्धित बलि के साथ तुझे मोटे जानवरों की होम-बलि चढ़ाता हूँ। मैं साँड़ और बकरे चढ़ाता हूँ।
16) प्रभु के समस्त श्रद्धालु भक्तों! आओं। मैं तुम्हें बताऊँगा कि उसने मेरे लिए क्या-क्या किया है।
17) मैंने उसे ऊँचे स्वर से पुकारा और उसकी प्रशंसा में गीत सुनाया।
18) यदि मेरे मन में बुराई होती, तो ईश्वर ने मेरी न सुनी होती।
19) किन्तु ईश्वर ने वास्तव में मेरी सुनी, उसने मेरी प्रार्थना पर ध्यान दिया।
20) धन्य है ईश्वर ! उसने मेरी प्रार्थना नहीं ठुकरायी; उसने मुझे अपने प्रेम से वंचित नहीं किया।

अध्याय 67

2) (१-२) ईश्वर हम पर दया करे और हमें आशीर्वाद दे। वह हम पर दयादृष्टि करे,
3) जिससे पृथ्वी पर तेरे मार्ग का और राष्ट्रों में तेरे मुक्ति-विधान का ज्ञान हो।
4) ईश्वर! राष्ट्र तुझे धन्यवाद दें। सभी राष्ट्र मिल कर तुझे धन्यवाद दें।
5) सभी राष्ट्र उल्लसित हो कर आनन्द मनायें, क्योंकि तू न्यायपूर्वक संसार का शासन करता और पृथ्वी पर राष्ट्रों का पथप्रदर्शन करता है।
6) ईश्वर! राष्ट्र तुझे धन्यवाद दें। सभी राष्ट्र मिल कर तुझे धन्यवाद दें।
7) पृथ्वी ने अपनी उपज प्रदान की। ईश्वर, हमारा ईश्वर हमें आशीर्वाद देता है।
8) ईश्वर हमें आशीर्वाद प्रदान करता रहे और समस्त पृथ्वी उस पर श्रद्धा रखे।

अध्याय 68

2) (१-२) ईश्वर उठता है; उसके शत्रु बिखर जाते हैं, उसके विरोधी उसके सामने से भागते हैं।
3) तू उन्हें धुँए की तरह उड़ा देता है। मोम जिस तरह आग में पिघलता है, उसी तरह विधर्मी ईश्वर के सामने नष्ट हो जाते हैं।
4) धर्मी ईश्वर के सामने आनन्द मनाते हैं, वे प्रफुल्लित हो कर नृत्य करते हैं।
5) ईश्वर के आदर में गीत गाओ, उसके नाम का भजन सुनाओ। जो बादलों पर विराजमान है, उसकी स्तुति करो। प्रभु उसका नाम है, उसके सामने आनन्द मनाओ।
6) अनाथों का पिता, विधवाओं का रक्षक, यही ईश्वर अपने पावन मन्दिर में निवास करता है।
7) ईश्वर परित्यक्तों को आवास देता और बन्दियों को छुड़ा कर आनन्द प्रदान करता है, किन्तु विद्रोही निर्जन स्थानों में रहते हैं।
8) ईश्वर! जब तू अपनी प्रजा के आगे-आगे चलता था, जब तू मरूभूमि पार करता था,
9) तो सीनई के ईश्वर के सामने, इस्राएल के ईश्वर के सामने पृथ्वी काँप उठी और आकाश से वर्षा हुई।
10) ईश्वर! तूने प्रचुर जल बरसा कर अपनी थकी हुई प्रजा को नवजीवन प्रदान किया।
11) तेरी प्रजा वहाँ बस गयी और तूने वहाँ दयापूर्वक दरिद्रों का भरण-पोषण किया।
12) प्रभु घोषणा करता है, वह महासेना को सुसमाचार सुनाता है :
13) (१३-१४) ''राजा और उसकी सेनाएं भागी जाती हैं, भागी जाती हैं और तुम भेड़शालाओं में विश्राम करते हो। विजेताओं की स्त्रियाँ लूट बाँधती हैं। वे कपोत के पंखों-जैसी चाँदी से, कपोत के पिच्छकों-जैसी पीले सोने से अलंकृत हैं।''
15) जब सर्वोच्च प्रभु ने वहाँ राजाओं को तितर-बितर किया, तब सलमोन पर्वत पर हिमपात हो रहा था।
16) बाशान पर्वत बहुत ऊँचा है, बाशान पर्वत के अनेक शिखर हैं।
17) ऊँचे पर्वतो! तुम उस पर्वत से ईर्ष्या क्यों करते हो? प्रभु ने उसे अपने निवास के लिए चुना है, जहाँ वह सदा-सर्वदा विराजमान होगा।
18) ईश्वर के लाखों रथ हैं, प्रभु सीनई से अपने मन्दिर आया है।
19) तू ऊँचाई पर चढ़ा और बन्दियों को अपने साथ ले गया। तूने मनुष्यों और विरोधियों को भी शुल्क-स्वरूप ग्रहण किया, जिससे तू, प्रभु-ईश्वर वहाँ निवास करे।
20) हम प्रतिदिन प्रभु को धन्यवाद दिया करें। ईश्वर हमें संभालता और विजय दिलाता है।
21) ईश्वर हमारा उद्धार करता है। प्रभु-ईश्वर हमें मृत्यु से बचाता है।
22) ईश्वर अपने शत्रुओं का सिर कुचलता है, उस व्यक्ति को, लम्बे बाल वाली खोपड़ी को, जो कुमार्ग पर चलता है।
23) प्रभु ने कहा : ''मैं तुम्हें बाशान से ले आऊँगा, तुम्हें समुद्र की गहराइयों से निकाल कर लाऊँगा,
24) जिससे तुम रक्त में अपने पैर धोओ और तुम्हारे कुत्तों की जीभों को शत्रुओं का अपना हिस्सा मिले।''
25) ईश्वर! उन्होंने मेरी शोभा-यात्राओं का देखा, मन्दिर में मेरे ईश्वर, मेरे प्रजा की शोभा-यात्राओं को।
26) गायक आगे, वादक पीछे, बीच में वीणा बजाती हुई युवतियाँ।
27) वे गाते हुए ईश्वर को धन्य कहते थे, इस्राएल के पर्वों में प्रभु को धन्य कहते थे।
28) वहाँ कनिष्ठ वंश बेनयामीन, वहाँ यूदा के नेताओं का बहुसंख्यक दल, वहाँ जबूलोन और नपताली के नेता।
29) तुम्हारे ईश्वर ने तुम को बल प्रदान किया। ईश्वर! अपना सामर्थ्य प्रदर्शित कर। तूने पहले भी हमारे लिए महान् कार्य किये।
30) राजा लोग, उपहार लिये, येरुसालेम में तेरे ऊँचे मन्दिर के सामने तेरे पास आयेंगे।
31) सरकण्ड़ों में विचरने वाले पशु को, सांड़ों के झुण्ड को, राष्ट्रों के शासकों को डाँट जिससे वे चाँदी की सिल्लियाँ लिये तुझे दण्डवत् करें। युद्धप्रिय राष्ट्रों को तितर-बितर कर।
32) मिस्र के सामन्त आयेंगे, इथोपिया ईश्वर के आगे हाथ पसारेगी।
33) पृथ्वी के राज्यो! ईश्वर का भजन गाओ। प्रभु का स्तुतिगान करो।
34) वह चिरन्तन आकाश के ऊपर विराजमान है। देखो, उसकी वाणी मेघगर्जन में बोलती है।
35) ईश्वर का सामर्थ्य स्वीकार करो। उसकी महिमा इस्राएल पर छायी हुई हैं। उसका सामर्थ्य आकाशमण्डल में व्याप्त है।
36) ईश्वर अपने पावन मन्दिर में प्रतापी है। वह इस्राएल का ईश्वर है। वह अपनी प्रजा को बल और सामर्थ्य प्रदान करता है। ईश्वर धन्य है!

अध्याय 69

2) (१-२) ईश्वर! मेरी रक्षा कर; जलप्रवाह मेरे गले तक आ रहा है।
3) मैं दलदल के कीच में धँसता जा रहा हँू; मेरे पैर नहीं टिक पाते। मैं गहरे जल में पड़ गया हूँ; लहरें मुझे डुबा कर ले जा रही हैं।
4) मैं पुकारते-पुकारते थक गया हूँ; मेरा गला सूख गया है। अपने ईश्वर की राह देखते-देखते मेरी आँखें धुँधला रही हैं।
5) जो अकारण मुझ से बैर करते हैं, उनकी संख्या मेरे सिर के बालों से भी अधिक है। जो मुझ पर झूठा अभियोग लगाते हैं, वे मुझ से शक्तिशाली हैं। जो चीज मैंने नहीं चुरायी, क्या मैं उसे लौटा सकता हूँ?
6) ईश्वर! तू मेरी मूर्खता जानता है; मेरे अपराध तुझ से नहीं छिपे हैं।
7) विश्वमण्डल के प्रभु-ईश्वर! जो तुझ पर भरोसा रखते हैं, वे मेरे कारण अपमानित न हों। इस्राएल के प्रभु-ईश्वर! जो तुझ पर भरोसा रखते हैं वे मेरे कारण अपमानति न हों।
8) तेरे ही कारण लोग मेरा अपमान करते हैं और मेरा सिर लज्जा से झुक जाता है।
9) तेरे ही कारण मेरे भाई मुझे पराया समझते हैं और मैं अपनी माता के पुत्रों में परेदशी जैसा बन गया हूँ;
10) क्योंकि तेरे घर का उत्साह मुझे खा जाता है। तेरी निन्दा करने वाले मेरी निन्दा करते हैं।
11) मैंने उपवास द्वारा अपना शरीर तपाया, इस से लोगों ने मेरी निन्दा की।
12) मैंने टाट ओढ़ा और लोगों ने मुझ पर ताना मारा।
13) नगर के फाटक पर बैठनेवाले मेरी चरचा करते हैं और मदिरा पीने वाले मेरे विषय में गीत गाते हैं।
14) प्रभु! मैं तुझ से प्रार्थना करता हूँ; अब दया करने का समय आ गया है। ईश्वर! तेरी सत्यप्रतिज्ञता अपूर्व है; मुझे उत्तर दे, क्योंकि तू ही उद्धारक है।
15) मुझे दलदल में धँसने से बचा; बैरियों से, गहरे जल से मेरा उद्धार कर।
16) जलधारा मुझे डुुबा कर न ले जाये, अथाह गर्त मुझे निगलने न पायें, कब्र मुझ पर अपना मुँह बन्द न करे।
17) प्रभु! तू सत्यप्रतिज्ञ है, मुझे उत्तर दे; तू दयासागर है, मुझ पर दयादृष्टि कर।
18) अपने सेवक से अपना मुख और न छिपा; मैं संकट में हूँ, मुझे शीघ्र उत्तर दे।
19) मेरे पास आ और मेरी रक्षा कर; शत्रुओं से मेरा उद्धार कर।
20) तू जानता है कि वे किस तरह मुझे निन्दित, अपमानित और लज्जित करते हैं। मेरे सब विरोधी तेरे सामने हैं।
21) मेरा हृदय अपमान के कारण टूट गया है; मैं अत्यन्त दुर्बल हो गया हूँ। मैं व्यर्थ ही सहानुभूति की आशा करता रहा; मैं दिलासा चाहता था, किन्तु वह नहीं मिला।
22) उन्होंने मेरे भोजने में विष मिलाया और प्यास बुझाने के लिये मुझे सिरका पिला दिया।
23) उनका भोजन उनके लिए फन्दा और उनके मित्रों के लिए जाल बन जाये।
24) उनकी आँखें धुँधली पड़ जायें, जिससे वे न देख सकें। तू उनकी कमर झुकाये रख।
25) तेरा क्रोध उन पर भड़क उठे; तेरे कोप की ज्वाला उन्हें ग्रस्त कर ले।
26) उनका शिविर उजड़ जाये; उनके तम्बुओं में कोई निवास न करे;
27) क्योंकि जिसे तूने मारा था, उन्होंने उस पर अत्याचार किया; जिसे तूने घायल किया था, उन्होंने उसे और दुःख दिया।
28) उन्हें अपने पापों के लिए दोष-पर-दोष लगा, जिससे वे तुझ से पापमुक्ति न पा सकें।
29) जीवन-ग्रन्थ से उसके नाम मिटा दिये जायें; उनके नाम धर्मियों के साथ न लिखे जायें।
30) ईश्वर! मैं अभागा और दुःखी हूँ; तेरी सहायता मेरा उद्धार करे।
31) मैं गीत गाते हुए ईश्वर के नाम को धन्य कहूँगा, मैं धन्यवाद देते हुए उसका गुणगान करूँगा।
32) यह प्रभु को बैल की बलि से अधिक, सींग और खुर वाले सांड़ की बलि से अधिक प्रिय है।
33) दीन-हीन यह देख कर आनन्दित हो उठते हैं। तुम, जो ईश्वर की खोज में लगे रहते हो, तुम्हारे हृदय में नवजीवन का संचार हो;
34) क्योंकि प्रभु दरिद्रों की पुकार सुनता है, वह अपनी पराधीन प्रजा का परित्याग नहीं करता।
35) आकाश और पृथ्वी, समुद्र और जलचारी जन्तुओं! प्रभु की स्तुति करो;
36) क्योंकि ईश्वर सियोन का उद्धार और यूदा के नगरों का पुनर्निर्माण करेगा। वे देश में बस कर उसे अपने अधिकर में करेंगे।
37) उसके सेवकों का वंश उसका उत्तराधिकारी होगा और उसके नाम के भक्त वहाँ निवास करेंगे।

अध्याय 70

2) (१-२) ईश्वर! मेरा उद्धार कर। प्रभु! शीघ्र ही मेरी सहायता कर।
3) जो मेरे जीवन के गाहक हैं, वे सब-के-सब लज्जित हों, जो मेरी दुर्गति की कामना करते हैं, वे अपमानित हो कर हट जायें।
4) जो मुझे से ''अहा! अहा!'' कहते हैं, वे कलंकित हो कर पीछे हटें।
5) जो तेरी खोज में लगे हैं, वे सभी उल्लास के साथ आनन्द मनायें। जो तेरे द्वारा मुक्ति चाहते हैं, वे निरन्तर यह कहते रहें : प्रभु महान् है।
6) मैं दरिद्र और अपमानित हूँ; ईश्वर! शीघ्र ही मेरे पास आ। तू ही मेरा सहायक और उद्धारक है। प्रभु! विलम्ब न कर।

अध्याय 71

1) प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ। मुझे कभी निराश न होने दे।
2) तू न्यायी है- मुझे छुड़ा, मेरा उद्धार कर; मेरी सुन और मुझे बचा।
3) तू मेरे लिए आश्रय की चट्टान और रक्षा का सुदृढ़ गढ़ बन जा; क्योंकि तू ही मेरी चट्टान और मेरा गढ़ है।
4) मेरे ईश्वर! मुझे दुष्टों के हाथ से, कुकर्मियों और अत्याचारियों के पंजे से छुड़ा।
5) प्रभ्ुा-ईश्वर! युवावस्था से तू ही मेरी आशा और भरोसा है।
6) मैं जन्म से तुझ पर ही निर्भर रहा, तूने मुझे गर्भ से निकाला। मैं निरन्तर तेरा गुणगान करता हूँ।
7) मुझे देख कर बहुत-से लोग आश्चर्य करते थे, किन्तु तू मेरा सुरक्षित आश्रय था।
8) मैं दिन भर तेरी स्तुति करता और तेरी महिमा का गीत गाता था।
9) अब मैं बूढ़ा हो चला हूँ, मुझे नहीं छोड़; मैं दुर्बल हो गया हूँ, मुझे नहीं त्याग;
10) क्योंकि मेरे शत्रु मेरी निन्दा करते हैं; जो मेरी घात में बैठे हैं, वे आपस में परामर्श करते हैं।
11) वे कहते हैं, ''ईश्वर ने उसे त्याग दिया है, उसका पीछा करो और उसे पकड़ लो; क्योंकि उसे कोई नहीं छुड़ायेगा''।
12) प्रभु! मुझ से दूर न जा, मेरे ईश्वर! शीघ्र ही मेरी सहायता कर।
13) जो मेरे प्राणों के गाहक हैं, वे लज्जित होकर पीछे हटें। जो मेरी दुर्गति चाहते हैं, वे तिरस्कृत और कलंकित हों।
14) मेरी आशा कभी नहीं टूटेगी, मैं निरन्तर तेरा स्तुतिगान करता रहता हूँ।
15) मैं दिन भर तेरी न्यायप्रियता और तेरे मुक्ति-विधान की चरचा करता रहता हूँ, यद्यपि मैं उसकी थाह नहीं ले सकता।
16) मैं प्रभु-ईश्वर के महान् कार्यों का बखान करता हूँ, मैं तेरी ही न्यायप्रियता घोषित करता हूँ।
17) ईश्वर! मुझे युवावस्था से तेरी शिक्षा मिली है, मैं अब तक तेरे महान् कार्य घोषित करता रहा।
18) प्रभु! अब मैं बूढ़ा हो चला, मेरे केश पक गये; फिर भी, मेरा परित्याग न कर, जिससे मैं इस पीढ़ी के लिए तेरे सामर्थ्य का, भावी पीढ़ियों के लिए तेरे पराक्रम का बखान करूँगा।
19) ईश्वर! तेरा न्याय आकाश तक व्याप्त है, तूने महान कार्य प्रदर्शित किये। ईश्वर! कौन तेरे सदृश है?
20) तूने मुझे बहुत-से घोर संकटों में डाला, किन्तु तू मुझे फिर नवजीवन प्रदान करेगा। तू पृथ्वी की गहराइयों से मुझे फिर ऊपर उठायेगा।
21) तू मेरा सम्मान बढ़ा कर मुझे फिर सान्त्वना प्रदान करेगा।
22) मेरे ईश्वर! मैं वीणा बजाते हुए तेरी सत्यप्रतिज्ञता का बखान करूँगा। इस्राएल के परमपावन प्रभु! मैं सितार बजाते हुए तेरी स्तुति करूँगा।
23) तेरी स्तुति करते हुए मेरे होंठ आनन्द के गीत गायेंगे; क्योंकि तूने मेरा उद्धार किया है।
24) मेरी जिह्वा दिन भर तेरी न्यायप्रियता का बखान करती रहेगी; क्योंकि जो मेरी दुर्गति चाहते थे, वे लज्जित और कलंकित हो गये हैं।

अध्याय 72

1) ईश्वर! राजा को अपना न्याय-अधिकार, राजपुत्र को अपनी न्यायशीलता प्रदान कर।
2) वह तेरी प्रजा का न्यायूपर्वक शासन करें और पददलितों की रक्षा करें।
3) न्याय के फलस्वरूप पर्वत और पहाड़ियों अपनी उपज से जनता को सम्पन्न बनायें।
4) राजा पददलितों को न्याय दिलायें, दरिद्रों की सन्तति की रक्षा करें और अत्याचारी का दमन करें।
5) वह सूर्य और चन्द्रमा की तरह पीढ़ी-दर-पीढ़ी बने रहें।
6) वह घास के मैदान पर बौछार के सदृश हों, पृथ्वी को सींचने वाली वर्षा के सदृश।
7) उनके राज्यकाल में न्याय फले-फूले और अपार शान्ति सदा-सर्वदा छायी रहे।
8) उनका राज्य एक समुद्र से दूसरे समुद्र तक, फ़रात नदी से पृथ्वी के सीमान्तों तक फैल जाये।
9) उनके विरोधी उनके सामने घुटने टेकेंगे। उनके शत्रु खेत रहेंगे।
10) तरशीश और द्वीपों के राजा उन्हें उपहार देने आयेंगे, शेबा और सबा के राजा उन्हें भेंट चढ़ाने आयेंगे।
11) सभी राजा उन्हें दण्डवत् करेंगे। सभी राष्ट्र उनके अधीन रहेंगे।
12) वह दुहाई देने वाले दरिद्रों और निस्सहाय पददलितों का उद्धार करेंगे।
13) वह दरिद्र और दुर्बल पर दया करेंगे। वह दरिद्रों के प्राण बचायेंगे।
14) वह अन्याय और अत्याचार से उनकी रक्षा करेंगे, क्योंकि वह उनके प्राणों का मूल्य समझते है।
15) वह दीर्घायु हों। शेबा का स्वर्ण उन्हें भेंट किया जायेगा। लोग उनके लिए निरन्तर प्रार्थना करेंगे, वे उन्हें सदा धन्य कहेंगे।
16) पर्वतों के शिखर तक खेतों का विस्तार हो, गेहूँ की बालें लेबानोन की तरह लहलहायें। येरुसालेम से दूर-दूर तक हरियाली फैल जाये।
17) राजा का नाम सदा बना रहे, उनका वंश सूर्य की तरह चिरस्थायी हो। वह सबों के कल्याण का कारण बनें, समस्त राष्ट्र उन्हें धन्य कहें।
18) प्रभु-ईश्वर, इस्राएल का ईश्वर धन्य है। वही अपूर्व कार्य दिखाता है।
19) उसका महिमामय नाम सदा-सर्वदा धन्य है। उसकी महिमा समस्त पृथ्वी में व्याप्त हो! आमेन। आमेन।

अध्याय 73

1) इस्राएल के लिए ईश्वर कितना भला है, उन लोगों के लिए ईश्वर कितना भला है, उन लोगों के लिए, जिनका हृदय निर्मल है!
2) फिर भी मेरे पैर लड़खड़ाने लगे और मैं गिरते-गिरते बचा;
3) क्योंकि दुष्टों को फलते-फूलते देख कर मैं घमण्डियों से ईर्ष्या करने लगा।
4) उन्हें कोई कष्ट नहीं होता; उनका शरीर हष्ट-पुष्ट है।
5) वे दूसरों की तरह परिश्रम नहीं करते और उन पर विपत्ति भी नहीं पड़ती।
6) इसलिए वे घमण्ड को कण्ठहार की तरह पहनते और हिंसा को वस्त्र की तरह ओढ़ते हैं।
7) उनके जटिल हृदय से अधर्म उत्पन्न होता है; उनके मन के बुरे विचार असंख्य हैं।
8) वे उपहास करते और द्वेषपूर्ण बातें कहते हैं; वे अपने घमण्ड के आवेश में दूसरों को धमकाते हैं।
9) वे स्वर्ग के विरुद्ध बोलते हैं; उनकी जिह्वा पृथ्वी भर की बात करती है।
10) ईश्वर की प्रजा उनकी ओर अभिमुख हो जाती है और उस में कोई दोष नहीं पाती।
11) वे कहते हैं : ''ईश्वर कैसे जान सकता है? क्या सर्वोच्च प्रभु को ज्ञान होता है?''
12) देखो, दुष्ट लोग ऐसे ही होते हैं- वे निश्चिन्त होकर अपना धन बढ़ाते जाते हैं।
13) निश्चय ही मैंने व्यर्थ अपने हृदय को निर्मल रखा; व्यर्थ ही निर्दोष हो कर अपने हाथ धोये।
14) मैं हर समय मार खाता हूँ; मुझे प्रतिदिन प्रातःकाल दण्ड दिया जाता है।
15) यदि मैं कहता : ''मैं उनकी तरह बोलूँगा'', तो तेरे पुत्रों की पीढ़ी के साथ विश्वासघात करता।
16) मैंने इस रहस्य पर विचार किया; किन्तु वह मुझे भारी लगा।
17) तब मैंने ईश्वर के मन्दिर में प्रवेश किया और उन लोगों की अन्तगति को समझा।
18) निश्चय ही तू उन्हें पिच्छल भूमि पर रखता है और उन्हें विनाश के गर्त में गिरने देता है।
19) क्षण भर में उनका विनाश हो जाता है, वे आतंकित हो कर पूर्णतया समाप्त हो जाते हैं।
20) प्रभु! नींद से जागने पर जिस प्रकार स्वप्न मिट जाता है, उसी प्रकार तू उठ कर उनका तिरस्कार करेगा।
21) जब मेरा मन कटुता से भरा था और मेरा हृदय दुःखी था,
22) तो मैं मूर्ख और नासमझ था, मैं तेरे सामने पशु-जैसा था।
23) फिर भी मैं सदा तेरे साथ हूँ और तू मेरा दाहिना हाथ पकड़ कर
24) अपने परामर्श से मेरा पथप्रदर्शन करता है और बाद में मुझे अपनी महिमा में ले चलेगा।
25) तेरे सिवा स्वर्ग में मेरा कौन है? मैं तेरे सिवा पृथ्वी पर कुछ नहीं चाहता।
26) मेरा शरीर और मेरा हृदय भले ही क्षीण हो जायें; किन्तु ईश्वर मेरी चट्टान है, सदा के लिए मेरा भाग्य है।
27) जो तुझे त्याग देते हैं, वे नष्ट हो जायेंगे। जो तेरे साथ विश्वासघात करते हैं, तू उनका विनाश करता है।
28) ईश्वर के साथ रहने में मेरा कल्याण है। मैं प्रभु-ईश्वर की शरण आया हूँ। मैं तेरे सब कार्यों का बखान करूँगा।

अध्याय 74

1) ईश्वर! तूने क्यों हमें सदा के लिए त्याग दिया है? तेरा क्रोध क्यों अपने चरागाह की भेड़ों पर बना हुआ है?
2) अपनी प्रजा को याद कर, जिसे तूने प्राचीन काल में अर्जित किया, जिसका तूने उद्धार किया, उस वंश को, जिसे तूने विरासत के रूप में अपनाया था; सियोन पर्वत को, जिसे तूने अपना निवास बनाया था।
3) इन पुराने खँडहरों पर दयादृष्टि कर। शत्रु ने पवित्र मन्दिर को उजाड़ दिया।
4) तेरे बैरियों ने तेरे प्रार्थनागृह में शोर मचाया और वहाँ अपने विजयी झण्डे फहराये।
5) ऐसा लगा कि वे कुल्हाड़ी घुमाते हुए झाड़-झंखाट काट रहे हैं।
6) उन्होंने कुल्हाड़ियों और हथौड़ों से मन्दिर के सभी उत्कीर्ण द्वार टुकड़े-टुकड़े कर दिये।
7) उन्होंने तेरे मन्दिर में आग लगायी, तेरे नाम का निवासस्थान ढा कर दूषित कर दिया।
8) उन्होंने अपने मन में कहा, ''हम उनका सर्वनाश करें; हम देश भर के सब सभागृह जला दें''।
9) हमें कोई चिन्ह नहीं दिखाया जाता, एक भी नबी शेष नहीं रहा। हम में कोई नहीं जानता कि कब तक ऐसा रहेगा?
10) प्रभु! बैरी कब तक तेरी निन्दा करता रहेगा? क्या शत्रु तेरे नाम का सदा उपहास करता रहेगा?
11) तू क्यों अपना हाथ खींचता है? क्यों अपना दाहिना हाथ अपने सीने में छिपाता है?
12) ईश्वर! तू आदिकाल से मेरा राजा है और पृथ्वी पर लोगों का उद्धार करता आ रहा है।
13) तूने सामर्थ्य से समुद्र को विभाजित किया और जल में मगर-मच्छों के सिर टुकड़े-टुकड़े कर दिये।
14) तूने लिव्यातान के सिर तोड़ डाले और उसे समुद्र के जन्तुओं को खिलाया।
15) तूने झरने और जलधाराएँ बहायीं और सदा बहने वाली नदियों को सुखाया।
16) दिन तेरा है, रात भी तेरी है। तूने चन्द्रमा और सूर्य को स्थापित किया।
17) तूने पृथ्वी के सीमान्तों को निर्धारित किया। तूने ग्रीष्म और शीतकाल बनाया।
18) प्रभु! याद कर कि शत्रु ने तेरी निन्दा की है और एक नासमझ राष्ट्र ने तेरे नाम का उपहास किया है।
19) अपने भक्तों के प्राण जंगली पशुओं के हवाले मत कर, अपने दरिद्रों का जीवन कभी न भुला।
20) अपना विधान याद कर। देश की गुफाएँ हिंसा के अड्डे बन गयी है।
21) पददलितों को निराश न होने दें। दरिद्र और निस्सहाय तेरे नाम की स्तुति करें।
22) ईश्वर! उठ और अपने पक्ष का समर्थन कर। उन नासमझ लोगों की निरन्तर होने वाली निन्दा याद कर।
23) अपने बैरियों की चिल्लाहट को, अपने विद्रोहियों के निरन्तर बढ़ने वाले कोलाहल को न भुला।

अध्याय 75

2) (१-२) ईश्वर! हम तुझे धन्यवाद देते हैं। हम तेरा नाम लेते हुए और तेरे अपूर्व कार्यों का बखान करते हुए तुझे धन्यवाद देते हैं।
3) ''निर्धारित समय आने पर मैं स्वयं निष्पक्षता से न्याय करूँगा।
4) पृथ्वी अपने सब निवासियों के साथ ढह जायेगी। क्या मैंने उसके खम्भों को स्थापित नहीं किया?
5) मैंने घमण्डियों से कहाः घमण्ड मत करो, और दुष्टों से : अपना सिर मत उठाओ,
6) अपना सिर उतना ऊँचा मत उठाओ; ईश्वर के सामने धृष्टता मत करो।''
7) क्योंकि न तो पूर्व से, न पश्चिम से और न मरुभूमि से उद्धार सम्भव है।
8) ईश्वर ही न्यायकर्ता है; वह एक को नीचा दिखाता और दूसरे को ऊँचा उठाता है।
9) तिक्त उफनती मदिरा से भरा, प्रभु के हाथ में एक प्याला है। वह उस में से उँड़ेलता है- पृथ्वी के सब दुष्ट जनों को उसे तलछट तक पीना है।
10) मैं सदा इसकी घोषणा करता रहूँगा, मैं याकूब के ईश्वर की स्तुति करूँगा।
11) मैं सब दुष्टों का सिर झुकाऊँंगा, किन्तु धर्मी का सिर ऊँचा उठाया जायेगा।

अध्याय 76

2) (१-२) ईश्वर ने अपने को यूदा में प्रकट किया। उसका नाम इस्राएल में महान् है।
3) सालेम में उसका शिविर है और सियोन में उसका निवास।
4) उसने वहाँ धनुष के बाणों को, शस्त्रों को, ढाल और तलवार को खण्ड-खण्ड कर दिया।
5) प्रभु! तू शक्तिशाली और प्रतापी है, शत्रुओं से लूटा माल पहाड़-जैसा ऊँचा है।
6) शूरवीर चिरनिद्रा में सो गये। उन सब योद्धाओं का बाहुबल नष्ट हो गया।
7) याकूब के ईश्वर! तेरी धमकी सुन कर रथ और युद्धाश्व निष्प्राण हो गये।
8) तू आतंकित करता है। जब तेरा क्रोध भड़क उठता है, तो तेरे सामने कौन टिक सकता है?
9) ईश्वर! जब तू न्याय करने और देश के दीन-दुखियों का उद्धार करने उठा,
10) जब तूने स्वर्ग से अपना निर्णय सुनाया, तो पृथ्वी भयभीत हो कर शान्त हो गयी।
11) विद्रोही एदोम तेरी स्तुति करेगा, हामाथ के बचे हुए लोग तेरे पर्व मनायेंगे।
12) मन्नतें मानो; उन्हें अपने प्रभु-ईश्वर के लिए पूरा करो। निकटवर्ती राष्ट्र तेजस्वी प्रभु को भेंट चढाने आयें;
13) क्योंकि वह शासकों का घमण्ड तोड़ता और पृथ्वी के राजाओं को आतंकित करता है।

अध्याय 77

2) (१-२) मैं ऊँचे स्वर से ईश्वर को पुकारता हूँ। मैं ईश्वर को पुकारता हूँ, वह मेरी सुनेगा।
3) अपने संकट के दिन मैं प्रभु को खोजता हूँ। दिन-रात बिना थके उसके आगे हाथ पसारता हूँ। मेरी आत्मा सान्त्वना अस्वीकार करती है।
4) मैं ईश्वर को याद करते हुए विलाप करता हूँ। मनन करते-करते मेरी आत्मा शिथिल हो जाती है।
5) तू मेरी आँख लगने नहीं देता। मैं व्याकुल हूँ और नहीं जानता कि क्या कहूँ।
6) मैं अतीत के दिनों पर, बहुत पहले बीते वर्षों पर विचार करता हूँ।
7) रात को मुझे अपना भजन याद आता है। मेरा हृदय इस पर विचार करता है और मेरी आत्मा यह पूछती है :
8) क्या प्रभु सदा के लिए त्यागता है? क्या वह फिर कभी हम पर दयादृष्टि नहीं करेगा?
9) क्या उसकी सत्यप्रतिज्ञता लुप्त हो गयी है? क्या उसकी वाणी युगों तक मौन रहेगी?
10) क्या प्रभु दया करना भूल गया है? क्या उसने क्रुद्ध हो कर अपना हृदय का द्वार बन्द किया है?''
11) मैं कहता हूँ, ''मेरी यन्त्रणा का कारण यह है कि सर्वोच्च प्रभु ने अपना दाहिना हाथ खींच लिया''।
12) मैं प्रभु के महान् कार्य याद करता हूँ, प्राचीनकाल में उसके किये हुए चमत्कार।
13) मैं तेरे सभी कार्यों पर विचार करता हूँ, तेरे अपूर्व कार्यों का मनन करता हूँ।
14) ईश्वर! तेरा मार्ग पवित्र है। कौन देवता हमारे ईश्वर-जैसा महान है?
15) तू वह ईश्वर है, जो चमत्कार दिखाता है। तूने राष्ट्रों में अपना सामर्थ्य प्रदर्शित किया।
16) तूने अपने बाहुबल से अपनी प्रजा का, याकूब और युसूफ के पुत्रों का उद्धार किया।
17) ईश्वर! सागर ने तुझे देखा। सागर तुझे देख कर काँप उठा, अगाध गर्त भी घबरा गया।
18) बादल बरसने लगे, आकश गरजने लगा, बिजली चारों ओर चमकने लगी।
19) तेरा गर्जन बवण्डर में सुनाई पड़ा, बिजली ने संसार को आलोकित किया, पृथ्वी काँप उठी और डोलने लगी।
20) तेरा मार्ग समुद्र हो कर जाता था, गहरे सागर हो कर तेरा पथ जाता था। तेरे पदचिन्हों का पता नहीं चला।
21) तूने मूसा और हारून के द्वारा झुण्ड की तरह अपनी प्रजा का पथप्रदर्शन किया।

अध्याय 78

1) मेरी प्रजा! मेरी शिक्षा पर ध्यान दो। मेरे मुख के शब्द कान लगा कर सुनो।
2) मैं तुम लोगों को एक दृष्टान्त सुनाऊँगा, मैं अतीत के रहस्य खोल दूँगा।
3) हमने जो सुना और जाना है, हमारे पूर्वजों ने हमें जो बताया है-
4) हम यह उनकी सन्तति से नहीं छिपायेंगे। हम यह आने वाली पीढ़ी को बतायेंगे- प्रभु की महिमा, उसका सामर्थ्य और उसके किये हुए चमत्कार।
5) उसने याकूब के लिए एक नियम लागू किया; उसने इस्राएल के लिए एक विधान निर्धारित किया। उसने हमारे पूर्वजों को यह आज्ञा दी कि वे उसे अपने पुत्रों को सिखायें,
6) जिससे आने वाली पीढ़ी, भविष्य में उत्पन्न होने वाले उनके पुत्र उसे जान जायें और वे भी उसे अपने पुत्रों को बतायें।
7) यह इसलिए हुआ कि वे प्रभु पर भरोसा रखें, ईश्वर के महान् कार्य नहीं भुलायें, उसकी आज्ञाओं का पालन करते रहें
8) और अपने पूर्वजों-जैसे नहीं बनें। वह एक हठीली और विद्रोही पीढ़ी थी : एक ऐसी पीढ़ी, जिसका हृदय दृढ़ नहीं, जिसका मन ईश्वर के प्रति निष्ठावान् नहीं।
9) एफ्रईम के अनुभवी धर्नुधारी पुत्रों ने युद्ध के दिन पीठ दिखायी;
10) क्योंकि उन्होंने ईश्वर के विधान का पालन नहीं किया था, उन्होंने उसके नियमों पर चलना अस्वीकार किया था।
11) उन्होंने उसके महान् कार्य, उसके दिखाये हुए चमत्कार भुला दिये थे।
12) ईश्वर ने मिस्र देश में, तानिस के मैदान में उनके पूर्वजों को चमत्कार दिखाया था।
13) उसने समुद्र विभाजित कर उन्हें पार कराया, उसने जल को बाँध की तरह खड़ा कर दिया।
14) वह उन्हें दिन में एक बादल द्वारा और हर रात को अग्नि के प्रकाश द्वारा ले चलता था।
15) उसने मरूभूमि में चट्टाने फोड़ कर मानो अगाध गर्त में से जल पिलाया।
16) उसने चट्टान में से जलधाराएँ निकालीं और पानी को नदियों की तरह बहाया।
17) फिर भी वे उसके विरुद्ध पाप करते रहे और मरूभूमि में सर्वोच्च ईश्वर के विरुद्ध विद्रोह करते रहे।
18) उन्होंने अपनी रूचि का भोजन माँगा और इस प्रकार ईश्वर की परीक्षा ली।
19) उन्होंने ईश्वर की निन्दा करते हुए यह कहा : ''क्या ईश्वर मरूभूमि में हमारे लिए भोजन का प्रबन्ध कर सकता है?
20) उसने तो चट्टान पर प्रहार किया, और उस में से जल की नदियाँ फूट निकलीं। किन्तु क्या वह अपनी प्रजा के लिए रोटी और मांस का प्रबन्ध भी कर सकता है?
21) यह सुन कर प्रभु क्रुद्ध हुआ- याकूब के विरुद्ध अग्नि धधकने लगी, इस्राएल के विरुद्ध क्रोध भड़क उठा;
22) क्योंकि वे ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे, उन्हें उसकी सहायता का भरोसा नहीं था।
23) प्रभु ने आकाश के बादलों को आदेश दिया, उसने आकाश के द्वारा खोल दिये।
24) उसने उनके भोजन के लिए मन्ना बरसाया और उन्हें स्वर्ग की रोटी दी।
25) हर एक ने स्वर्गदूतों की रोटी खायी; प्रभ्ुा ने उन्हें भरपूर भोजन दिया।
26) उसने आकाश में पुरवाई चलायी; उसने अपने सामर्थ्य द्वारा दक्खिनी हवा बहायी।
27) उसने उनके लिए धूल की तरह भरपूर मांस और समुद्र के बालू की तरह असंख्य पक्षियों को बरसाया।
28) उसने उन को उनके शिविरों के बीचोंबीच और उनके तम्बुओं के चारों ओर गिराया।
29) वे खा कर तृप्त हो गये, ईश्वर ने उन्हें उनकी रूचि का भोजन दिया था।
30) वे अपनी लालसा को शान्त नहीं कर पाये थे, उनका भोजन अभी उनके मुँह में ही था
31) कि ईश्वर का क्रोध उन पर भड़क उठा। उसने उनके शूरवीरों को मारा, उसने इस्राएल के युवकों को भूमि पर बिछा डाला।
32) यह सब होने पर भी वे पाप करते रहे, उन्हें ईश्वर के चमत्कारों पर विश्वास नहीं था।
33) इसलिए उसने एक ही साँस में उनके दिन और आतंक में उनके वर्ष समाप्त कर दिये।
34) जब ईश्वर उन को मारता था, तब वे उसकी खोज करते थे- वे पश्चाताप करते हुए उसकी ओर अभिमुख हो गये।
35) तब उन्हें याद आया कि ईश्वर ही उनकी चट्टान, सर्वोच्च ईश्वर ही उनका मुक्तिदाता था।
36) किन्तु वे अपने मुख से उसे धोखा देना चाहते थे, उनकी जिह्वा उस से झूठ बोलती थी;
37) क्योंकि उनके हृदय में उसके प्रति निष्ठा नहीं थी, उन्हें उसके विधान का भरोसा नहीं था।
38) फिर भी दयासगर प्रभु ने उनका अपराध क्षमा कर उन्हें विनाश से बचा लिया। उसने बारम्बार अपना कोप दबाया; उसने अपना क्रोध नहीं भड़कने दिया।
39) उसे याद रहा कि वे हाड़-मांस भर हैं, श्वास मात्र, जो निकल कर नहीं लौटता।
40) कितनी बार उन्होंने मरूभूमि में उसके विरुद्ध विद्रोह किया, निर्जन स्थान में, उसके विरुद्ध अपराध किया।
41) उन्होंने बारम्बार ईश्वर की परीक्षा ली; वे इस्राएल के परमपावन ईश्वर को चिढ़ाते रहे।
42) उन्हें उसकी शक्ति याद नहीं रही- वह दिन, जब उसने उन को शत्रुओं से छुड़ाया था;
43) किस प्रकार उसने मिस्र को अपने चिन्ह दिखाये और तानिस के निवासियों को अपने चमत्कार।
44) उसने वहाँ की नहरों और नदियों को रक्त में बदल दिया, जिससे वे जल न पी सकें।
45) उसने उन पर डाँस छोड़ दिये, जो उन्हें काटते थे और उनके बीच मेढ़क भेजे, तो उन्हें सताते थे।
46) उसने उनकी फसलें टिड्डों को दे दीं, उनके घोर परिश्रम का फल टिड्डियों को।
47) उसने ओलों से उनकी दाखबारियों को नष्ट किया और पाले से उनके गूलर के पेड़ों को।
48) उसने उनके पशुओं पर ओले बरसाये और उनकी भेड़-बकरियों पर बिजली गिरायी।
49) उसने उन पर अपना प्रचण्ड क्रोध भड़कने दिया : रोष, प्रकोप, संकट और विनाशकारी दूतों का दल।
50) उसने अपने क्रोध पर अंकुश नहीं रखा; उसने उन को मृत्यु से नहीं बचाया, बल्कि महामारी से उनका जीवन समाप्त कर दिया।
51) उसने मिस्रियों के हर पहलौठे को, जवानी की पहली सन्तान को हाम के तम्बुओं में मारा।
52) वह अपनी प्रजा को भेड़ों की तरह निकाल लाया और मरुभूमि में उन्हें झुण्ड की तरह ले चला।
53) वह उन्हें सुरक्षित और निर्भय ले गया, जब कि समुद्र ने उनके शत्रुओं को निगल लिया।
54) वह उन्हें अपने पवित्र देश ले चला, उस पर्वत तक, जिसे उसके बाहुबल ने जिताया था।
55) उसने उनके सामने से राष्ट्रों को मार भगाया; उसने भूमि को बाँट कर उन्हें विरासत के रूप में दे दिया। उसने दूसरों के तम्बुओं में इस्राएल के वंशों को बसाया।
56) फिर भी विद्रोही बन कर उन्होंने सर्वोच्च ईश्वर की परीक्षा ली और उसके नियमों का पालन नहीं किया।
57) वे भटक गये और अपने पूर्वजों की तरह विश्वासघाती बने। वे धोखा देने वाले धनुष की तरह मुड़ गये।
58) उन्होंने अपने पहाड़ी पूजास्थानों द्वारा उसे क्रोधित किया और अपनी देवमूर्तियों द्वारा उसे चिढ़ाया।
59) यह सुन कर प्रभु क्रुद्ध हुआ और उसने इस्राएल का परित्याग कर दिया।
60) उसने शिलों में अपना निवास छोड़ दिया, अपना वह तम्बू, जहाँ वह मनुष्यों के बीच रहता था।
61) उसने मंजूषा को, अपने सामर्थ्य और गौरव के प्रतीक को शत्रुओं के हाथ पड़ने दिया।
62) उसका क्रोध अपनी प्रजा पर भड़क उठा; उसने उसे तलवार का शिकार होने दिया।
63) अग्नि उनके युवकों को निगल गयी; उनकी युवतियों के विवाह-गीत नहीं सुनाई पड़े।
64) उनके याजक तलवार से मारे गये और उनकी विधवायें शोक-गीत भी नहीं गा सकीं।
65) तब प्रभु मानो नींद से जाग उठा, योद्धा की तरह, जो मदिरा पी कर ललकारता है।
66) उसने अपने शत्रुओं को महामारी से सताया और उन्हें सदा के लिए अपमानित किया।
67) उसने यूसुफ़ का निवास त्याग दिया, उसने एफ्रईम के वंश को नहीं चुना।
68) उसने यूदा के वंश को चुना सियोन के पर्वत को, जिस को वह प्यार करता है।
69) उसने ऊँंचे पर्वतों के सदृश अपना मन्दिर बनवाया, पृथ्वी के सदृश, जिसे उसने सदा के लिए स्थापित किया।
70) उसने अपने सेवक दाऊद को चुना, उसे भेड़शाला से निकाल लिया।
71) उसने भेडें, चराने वाले को बुलाया और उसे अपनी प्रजा याकूब का, अपनी विरासत इस्राएल का चरवाहा बनाया।
72) दाऊद ने सच्चे हृदय से उन्हें चराया और कुशल हाथों से उनका नेतृत्व किया।

अध्याय 79

1) ईश्वर! गैर-यहूदी तेरी प्रजा के देश में घुस आये हैं। उन्होंने तेरा पवित्र मन्दिर दूषित किया और येरुसालेम को खंड़हरों का ढेर बना दिया।
2) उन्होंने तेरे सेवकों के शव आकाश के पक्षियों को खिलाये और तेरे सन्तों का मांस पृथ्वी के पशुओं को।
3) उन्होंने येरुसालेम के चारो ओर रक्त पानी की तरह बहाया। मृतकों को दफ़नाने के लिए कोई नहीं रहा।
4) हमारे पड़ोसी हम पर ताना मारते हैं; आसपास रहने वाले हमारा उपहास करते हैं।
5) प्रभु! तू कब तक हम पर अप्रसन्न रहेगा? तेरा क्रोध कब तक अग्नि की तरह जलता रहेगा?
6) अपना क्रोध उन राष्ट्रों पर प्रदर्शित कर, जो तेरी उपेक्षा करते हैं; उन राज्यों पर, जो तेरा नाम नहीं लेते;
7) क्योंकि वे याकूब को निगल गये। उन्होंने उसके प्रदेश को उजाड़ा।
8) हमारे पूर्वजों के पापों के कारण हम पर अप्रसन्न न हों। तेरी करूणा हमें शीघ्र प्राप्त हों; क्योंकि हम घोर संकट में हैं।
9) ईश्वर! हमारे मुक्तिदाता! अपने नाम की महिमा के लिए हमारी सहायता कर। अपने नाम की मर्यादा के लिए हमारा उद्धार कर, हमारे पाप क्षमा कर।
10) गैर-यहूदी राष्ट्र क्यों यह कहने पायें ''कहाँ है उन लोगों का ईश्वर?'' हमारी आँखों के सामने राष्ट्र यह जान जायें कि तेरे सेवकों के बहाये रक्त का प्रतिशोध लिया जाता है।
11) बन्दियों की कराह तेरे पास पहुँचे। अपने बाहुबल द्वारा मृत्युदण्ड पाने वालों की रक्षा कर।
12) प्रभु! हमारे पड़ोसियों ने तेरा जो अपमान किया, उन से उसका सातगुना बदला चुका।
13) हम तेरी प्रजा हैं, तेरे चरागाह की भेड़ें। हम सदा तुझे धन्यवाद देते रहेंगे। हम युग-युगों तक तेरी स्तुति करेंगे।

अध्याय 80

2) (१-२) तू, जो इस्राएल का चरवाहा है, हमारी सुन; जो भेड़ों की तरह युसूफ को ले चलता है, जो स्वर्गदूतों पर विराजमान है,
3) एफ्रईम, बेनयामीन और मनस्से के सामने अपने को प्रकट कर। अपने सामर्थ्य को जगा और आ कर हमारा उद्धार कर।
4) ईश्वर! हमारा उद्धार कर। हम पर दयादृष्टि कर और हम सुरक्षित रहेंगे।
5) विश्वमण्डल के प्रभु-ईश्वर! तू कब तक अपनी प्रजा की प्रार्थना ठुकराता रहेगा?
6) तूने उसे विलाप की रोटी खिलायी और उसे भरपूर आँसू पिलाये।
7) हमारे पड़ोसी हमारे लिए आपस में लड़ते हैं; हमारे शत्रु हमारा उपहास करते हैं।
8) विश्वमण्डल के प्रभु! हमारा उद्धार कर। हम पर दयादृष्टि कर और हम सुरक्षित रहेंगे।
9) तू मिस्र देश से एक दाखलता लाया, तूने राष्ट्रों को भगा कर उसे रोपा।
10) तूने उसके लिए भूमि तैयार की, जिससे वह जड़ पकड़े और देश भर में फैल जाये।
11) उसकी छाया पर्वतों पर फैलती थी और उसकी डालियाँ ऊँचे देवदारों पर।
12) उसकी शाखाएँ समुद्र तक फैली हुई थीं और उसकी टहनियाँ फ़रात नदी तक।
13) तूने उसका बाड़ा क्यों गिराया? अब अधर से निकलने वाले उसके फल तोड़ते हैं।
14) जंगली सूअर उसे उजाड़ते हैं और मैदान के पशु उस में चरते हैं।
15) विश्वमण्डल के ईश्वर! वापस आने की कृपा कर, स्वर्ग से हम पर दयादृष्टि कर।
16) आ कर उस दाखबारी की रक्षा कर, जिसे तेरे दाहिने हाथ ने रोपा है।
17) तेरी दाखलता काट कर जलायी गयी है। तेरे धमकाने पर तेरी प्रजा नष्ट होती जा रही है।
18) अपने कृपापात्र पर अपना हाथ रख, उस मनुष्य पर, जिसे तूने शक्ति प्रदान की थी।
19) तब हम फिर कभी तुझे नहीं त्यागेंगे। तू हमें नवजीवन प्रदान करेगा और हम तेरा नाम ले कर तुझ से प्रार्थना करेंगे।
20) विश्वमण्डल के प्रभ्ुा-ईश्वर! हमार उद्धार कर, हम पर दयादृष्टि कर और हम सुरक्षित रहेंगे।

अध्याय 81

2) (१-२) हमारे शक्तिशाली ईश्वर के लिए आनन्द का गीत गाओ। याकूब के ईश्वर का जयकार करो।
3) गीत गाओ, डफली बजाओ, सुरीली वीणा और तानपूरा सुनाओ।
4) पूर्णिमा के दिन, हमारे उत्सव के दिन, नये मास की तुरही बजाओ।
5) यही इस्राएल का विधान है, याकूब के ईश्वर का आदेश है।
6) जब वह मिस्र के विरुद्ध उठ खड़ा हुआ, तो उसने यूसुफ़ के लिए यह नियम बनाया। उसने एक अपरिचित वाणी को यह कहते सुना,
7) मैंने उनके कन्धों पर से भार उतारा और उनके हाथ टोकरों से मुक्त हो गये।
8) तुमने संकट में मेरी दुहाई दी और मैंने तुम को छुड़ाया। मैंने अदृश्य रह कर तुम को मेघ के गर्जन में से उतार दिया। मैंने मरीबा के जलाशय के पास तुम्हारी परीक्षा ली।
9) ''मेरी प्रजा! मेरी चेतावनी पर ध्यान दो! इस्राएल! मेरी बात सुनो!
10) तुम्हारे बीच कोई पराया देवता नहीं रहेगा, तुम किसी अन्य देवता की आराधना नहीं करोगे।
11) मैं ही तुम्हारा प्रभु-ईश्वर हूँ। मैं तुम्हें मिस्र देश से निकाल लाया। अपना मुँह पूरा-पूरा खोलो और मैं उसे भर दूँगा।
12) ''मेरी प्रजा ने मेरी वाणी पर ध्यान नहीं दिया, इस्राएल ने मेरी एक भी नहीं मानी।
13) इसलिए मैंने उस हठधर्मी प्रजा का परित्याग किया और वह मनमाना आचरण करने लगी।
14) ओह! यदि मेरी प्रजा मेरी बात सुनती, यदि इस्राएल मेरे पथ पर चलता,
15) तो मैं तुरन्त ही उनके शत्रुओं को नीचा दिखाता और उनके अत्याचारियों पर अपना हाथ उठाता।
16) तब ईश्वर के बैरी मेरी प्रजा की चाटुकारी करते और उनकी यह स्थिति सदा के लिए बनी रहती,
17) जब मैं इस्राएल को उत्तम गेहूँ खिलाता और उसे चट्टान के मधु से तृप्त करता।''

अध्याय 82

1) ईश्वर स्वर्गसभा में उठ खड़ा हुआ है। वह देवताओं के बीच न्याय करता है।
2) ''तुम कब तक दोषियों का पक्ष लेकर अन्यायपूर्ण निर्णय देते रहोगे?
3) निर्बल और अनाथ की रक्षा करो; दरिद्र और दीन-हीन को न्याय दिलाओ।
4) निर्बल और दरिद्र का उद्धार करो; उन्हें दुष्टों के पंजे से छुड़ाओ।
5) ''वे न तो जानते हैं और न समझते हैं; वे अन्धकार में भटकते रहते हैं। पृथ्वी के सब आधार डगमगाने लगे हैं।
6) मैं तुम से कहता हूँ कि तुम देवता हो, सब-के-सब सर्वोच्च ईश्वर के पुत्र हो।
7) तब भी तुम मनुष्यों की तरह मरोगे; शासकों की तरह ही तुम्हारा सर्वनाश होगा।''
8) ईश्वर! उठ और पृथ्वी का न्याय कर, क्योंकि समस्त राष्ट्र तेरे ही हैं।

अध्याय 83

2) (१-२) ईश्वर! मौन न रह। ईश्वर! शान्त और निष्क्रिय न रह।
3) देख! तेरे शत्रु सक्रिय हैं, तेरे बैरी सिर उठा रहे हैं।
4) वे तेरी प्रजा के विरुद्ध षड्यन्त्र रचते और तेरे कृपापात्रों के विरुद्ध परामर्श करते हैं।
5) वे कहते हैं, ''चलो, हम उन्हें राष्ट्र नहीं रहने दें, इस्राएल का नाम किसी को याद न रहे''।
6) वे एकमत हो कर परामर्श करते हैं, वे तेरे विरुद्ध परस्पर सन्धि करते हैं-
7) एदोम और इसमाएल के निवासी, मोआबी और हागार के वंशज,
8) गबाली, अम्मोनी, अमालोकी, फिलिस्तिया और तीरुस के निवासी।
9) अस्सूरी भी उन से मिल गये और उन्होंने लोट के पुत्रों का हाथ मजबूत किया।
10) उनके साथ वैसा कर, जैसा तूने मिदयान के साथ किया था, जैसा तूने कीशोन नदी के पास सीसरा और याबीन के साथ किया था।
11) एनदोर में उनका विनाश हुआ था; वहाँ वे भूमि की खाद बन गये थे।
12) उनके राजकुमारों को ओरेब और जएब के सदृश बना दे, उनके सब सामन्तों को जबह और सलमुन्ना के सदृश,
13) जो यह कहते थे, ''हम ईश्वर के चरागाहों को अपने अधिकार में कर लें''।
14) मेरे ईश्वर! उन्हें बवण्डर के पत्तों के सदृश, पवन में भूसी के सदृश बना दे।
15) जिस तरह आग जंगल को भस्म कर देती है, जिस तरह ज्वाला पर्वतों को जलाती है;
16) उसी तरह अपने तूफान से उनका पीछा कर, अपनी आँधी से उन्हें आतंकित कर।
17) प्रभु! उनका मुख कलंकित कर, जिससे लोग तेरे नाम की शरण आयें।
18) वे सदा के लिए लज्जित और भयभीत हों और कलंकित हो कर नष्ट हो जायें।
19) वे जान जायें कि तेरा ही नाम प्रभु है, तू ही समस्त पृथ्वी पर सर्वोच्च ईश्वर है।

अध्याय 84

2) (१-२) विश्वमण्डल के प्रभु! कितना रमणीय है तेरा मन्दिर!
3) प्रभु का प्रांगण देखने के लिए मेरी आत्मा तरसती रहती है। मैं उल्लास के साथ तन-मन से जीवन्त ईश्वर का स्तुतिगान करता हूँ।
4) गौरेया को बसेरा मिल जाता है, अबाबील को अपने बच्चों के लिए घोंसला। विश्वमण्डल के प्रभु! मेरे राजा! मेरे ईश्वर! मुझे तेरी वेदियाँ प्रिय हैं।
5) तेरे मन्दिर में रहने वाले धन्य हैं! वे निरन्तर तेरा स्तुतिगान करते हैं।
6) धन्य हैं वे, जो तुझ से बल पा कर तेरे पर्वत सियोन की तीर्थयात्रा करते हैं!
7) वे सूखी घाटी पार करते हुए उसे निर्झर भूमि बनाते हैं- प्रथम वर्षा उसे आशीर्वाद प्रदान करती है।
8) चलते-चलते उनका उत्साह बढ़ता है और वे सियोन में प्रभु के सामने उपस्थित होते हैं।
9) विश्वमण्डल के प्रभु! मेरी प्रार्थना सुन। याकूब के ईश्वर! ध्यान देने की कृपा कर।
10) ईश्वर! हमारे रक्षक! हमारी सुधि ले, अपने अभिषिक्त पर दयादृष्टि कर।
11) हजार दिनों तक और कहीं रहने की अपेक्षा एक दिन तेरे प्रांगण में बिताना अच्छा है। दुष्टों के शिविरों में रहने की अपेक्षा ईश्वर के मन्दिर की सीढ़ियों पर खड़ा होना अच्छा है;
12) क्योंकि ईश्वर हमारी रक्षा करता और हमें कृपा तथा गौरव प्रदान करता है। वह सन्मार्ग पर चलने वालों पर अपने वरदान बरसाता है।
13) विश्वमण्डल के प्रभु! धन्य है वह, जो तुझ पर भरोसा रखता है!

अध्याय 85

2) (१-२) प्रभु! तूने अपने देश पर कृपादृष्टि की, तूने याकूब को निर्वासन से वापस बुलाया।
3) तूने अपनी प्रजा के अपराध क्षमा किये, तूने उसके सभी पापों को ढक दिया।
4) तेरा रोष शान्त हो गया, तेरी क्रोधाग्नि बुझ गयी।
5) हमारे मुक्तिदाता प्रभु! हमारा उद्धार कर। हम पर से अपना क्रोध दूर कर।
6) क्या तू सदा हम से अप्रसन्न रहेगा? क्या तू पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपना क्रोध बनाये रखेगा?
7) क्या तू लौट कर हमें नवजीवन नहीं प्रदान करेगा, जिससे तेरी प्रजा तुझ में आनन्द मनाये?
8) प्रभु! हम पर दयादृष्टि कर! हमें मुक्ति प्रदान कर!
9) प्रभु-ईश्वर जो कहता है, मैं वह सुनना चाहता हूँ। वह अपनी प्रजा को, अपने भक्तों को शान्ति का सन्देश सुनाता है, जिससे वे फिर कभी पाप नहीं करे।
10) उसके श्रद्धालु भक्तों के लिए मुक्ति निकट है। उसकी महिमा हमारे देश में निवास करेगी।
11) दया और सच्चाई, न्याय और शान्ति ये एक दूसरे से मिल गये।
12) सच्चाई पृथ्वी पर पनपने लगी, न्याय स्वर्ग से दयादृष्टि करता है।
13) प्रभु हमें सुख-शान्ति देता है और पृथ्वी अपनी फसल उत्पन्न करती है।
14) न्याय प्रभु के आगे-आगे चलता है और शान्ति उसका अनुगमन करती है।

अध्याय 86

1) प्रभु! मेरी प्रार्थना सुन, मुझे उत्तर दे। मैं दरिद्र और निस्सहाय हूँ।
2) मेरी रक्षा कर! मैं तेरा भक्त हूँ। तुझ पर भरोसा है, अपने दास का उद्धार कर।
3) प्रभु! तू ही मेरा ईश्वर है। मुझ पर दया कर। मैं दिन भर तुझे पुकारता हँू।
4) प्रभु! अपने दास को आनन्द प्रदान कर, क्योंकि मैं अपनी आत्मा को तेरी ओर अभिमुख करता हूँ।
5) प्रभु! तू भला है, दयालु है और अपने पुकारने वालों के लिए प्रेममय।
6) प्रभु! मेरी प्रार्थना सुनने और मेरी दुहाई पर ध्यान देने की कृपा कर।
7) मैं संकट के दिन तुझे पुकारता हूँ, क्योंकि तू मुझे उत्तर देता है।
8) प्रभु! देवताओं में तेरे सदृश कोई नहीं। तेरे कार्य अतुलनीय हैं।
9) प्रभु! तूने राष्ट्रों का निर्माण किया, वे सब आ कर तेरी आराधना करेंगे और तेरे नाम की महिमा करेंगे;
10) क्योंकि तू महान् है, तू चमत्कार दिखाता है। तू ही ईश्वर है।
11) प्रभु! मुझे अपना मार्ग दिखा, जिससे मैं तेरे सत्य के प्रति ईमानदार रहूँ। मेरे मन को प्रेरणा दे, जिससे मैं तेरे नाम पर श्रद्धा रखूँ।
12) मेरे प्रभु-ईश्वर! मैं सारे हृदय से तुझे धन्यवाद दूँगा, मैं सदा तेरे नाम की महिमा करूँगा;
13) क्योंकि मेरे प्रति तेरी सत्यप्रतिज्ञता महान् है; तूने अधोलोक की गहराइयों से मेरा उद्धार किया है।
14) प्रभु! घमण्डियों ने मुझ पर आक्रमण किया, अत्याचारियों का झुण्ड मुझे मारना चाहता है। वे तेरी उपेक्षा करते हैं।
15) प्रभु! तू एक दयालु और करूणामय ईश्वर है। तू सहनशील, सत्यप्रतिज्ञ और प्रेममय है।
16) मेरी सुधि ले, मुझ पर दया कर, अपने दास को बल प्रदान कर, अपनी दासी के पुत्र को बचा।
17) मुझे अपनी कृपादृष्टि का प्रमाण दे। तब मेरे शत्रु, यह देख कर, हताश होंगे कि प्रभु! तू मुझे सहायता और सान्त्वना प्रदान करता है।

अध्याय 87

1) प्रभु ने पवित्र पर्वत पर अपना नगर बसाया है।
2) वह याकूब के अन्य नगरों की अपेक्षा सियोन के फाटकों को अधिक प्यार करता है।
3) ईश्वर के नगर लोग तेरा गुणगान करते हैं।
4) ''मिस्र और बाबुल के लोग उसके नागरिक कहलायेंगे। फिलिस्तिया, तीरुस और इथोपिया सियोन को अपना जन्मस्थान मानेंगे।
5) ''सब लोग सियोन को अपनी माता कहेंगे; क्योंकि सब वहीं उत्पन्न हुए हैं। सर्वोच्च प्रभु उसे सुदृढ़ बनाये रखता है।''
6) प्रभु राष्ट्रों की सूची में उनके विषय में लिखता है कि सियोन उनका जन्मस्थान है।
7) सब-के-सब नृत्य करते हुए सियोन का गुणगान करते हैं।

अध्याय 88

2) (१-२) प्रभु! मेरे मुक्तिदाता ईश्वर! मैं दिन-रात तुझे पुकारता हूँ।
3) मेरी प्रार्थना तेरे पास पहुँचे। मेरी दुहाई पर ध्यान देने की कृपा कर।
4) मैं कष्टों से घिरा हुआ हूँ। मैं अधोलोक के द्वार पर पहुँचा हूँ।
5) लोग मेरी गिनती मरने वालों में करते हैं; मेरी सारी शक्ति शेष हो गयी है।
6) मैं मृतकों में एक-जैसा हो गया हूँ, उन लोगों के सदृश, जो कब्र में पड़े हुए हैं, जिन्हें तू याद नहीं करता, जिनकी तू देखरेख नहीं करता।
7) तूने मुझे गहरे गर्त में, अन्धकारमय गहराइयों में डाल दिया है।
8) तेरे क्रोध का भार मुझे दबाता है, उसकी लहरें मुझे डुबा ले जाती हैं।
9) तूने मेरे मित्रों को मुझ से दूर कर दिया और मुझे उनके दृष्टि में घृणित बना दिया। मैं बन्दी हूँ और भाग नहीं सकता।
10) मेरी आँखें दुख के कारण धुँधली पड़ गयी है। प्रभु! मैं दिन भर तुझे पुकारता हूँ। मैं तेरे आगे हाथ पसारे रहता हूँ।
11) क्या तू मृतकों के लिए चमत्कार दिखायेगा? क्या मृतक उठ कर तेरी स्तुति करेंगे?
12) क्या कब्र में तेरे प्रेम की चरचा होती है? अधोलोक में तेरी सत्यप्रतिज्ञता का बखान होता है?
13) क्या मृत्यु की छाया में लोग तेरे चमत्कार, विस्मृति के देश में तेरी न्यायप्रियता जानते हैं?
14) प्रभु! मैं तुझे पुकारता हूँ। प्रातःकाल मेरी प्रार्थना तेरे पास पहुँचती है।
15) प्रभु! तू मेरा त्याग क्यों करता है? तू मुझ से अपना मुख क्यों छिपाता है?
16) ''मैं अभागा हूँ, बचपन से प्राणपीड़ा सहता हूँ। तुझ से आतंकित हो कर निष्क्रिय हँू।
17) मैं तेरे प्रकोप के व्याघात सहता रहा; तेरी विभीषिकाओं ने मेरा विनाश किया है।
18) मैं जीवनभर उन से जल की बाढ़ की तरह घिरा रहा; उन्होंने मुझे चारों ओर से घेर लिया है।
19) तूने मेरे साथियों और मित्रों को मुझ से दूर किया है। अन्धकार ही मेरा एकमात्र आत्मीय है।

अध्याय 89

2) (१-२) मैं प्रभु के उपकारों का गीत गाता रहूँगा। मैं पीढ़ी-दर-पीढ़ी तेरी सत्यप्रतिज्ञता घोषित करता रहूँगा।
3) तेरी कृपा सदा बनी रहेगी। तेरी प्रतिज्ञा आकाश की तरह चिरस्थायी है।
4) तूने कहा ''मैं अपने कृपापात्र दाऊद से प्रतिज्ञा कर चुका हूँ। मैंने शपथ खा कर अपने सेवक दाऊद से कहाः
5) 'मैं तुम्हारा वंश सदा के लिए स्थापित करूँगा। तुम्हारा सिंहासन युग-युगों तक सुदृढ़ बनाये रखूँगा।''
6) प्रभु! आकाश तेरे अपूर्व कार्य घोषित करता है। स्वर्गिकों की सभा तेरी सत्यप्रतिज्ञता का बखान करती है।
7) आकाश में ऐसा कौन, जो प्रभु के समान हो? स्वर्गदूतों में प्रभु के सदृश कौन?
8) ईश्वर स्वर्गिकों की सभा में महाप्रतापी है, अपने साथ रहने वालों में सर्वाधिक श्रद्धेय है!
9) विश्मण्डल के प्रभु-ईश्वर! तेरे समान कौन? प्रभु! तू शक्तिशाली और सत्यप्रतिज्ञ है।
10) तू महासागर का घमण्ड चूर करता और उसकी उद्यण्ड लहरों को शान्त करता है।
11) तूने रहब पर घातक प्रहार किया और अपने बाहुबल से अपने शत्रुओं को तितर-बितर कर दिया।
12) आकाश तेरा है, पृथ्वी भी तेरी है; तूने संसार और उसके वैभव की स्थापना की।
13) तूने उत्तर और दक्षिण की सृष्टि की। ताबोर और हेरमोन तेरे नाम का जयकार करते हैं।
14) तेरी भुजा शक्तिशाली है, तेरा हाथ सुदृढ़, तेरा दाहिना हाथ प्रतापी है।
15) तेरा सिंहासन सत्य और न्याय पर आधारित है। प्रेम और सत्यप्रतिज्ञता तेरे आगे-आगे चलती है!
16) प्रभु! धन्य है वह प्रजा, जो तेरा जयकार करती है और तेरे मुुखमण्डल की ज्योति में चलती हैं!
17) वह दिन भर तेरे नाम पर आनन्द मनाती और तेरे न्याय पर गौरव करती है;
18) क्योंकि तू ही उसके बल की शोभा है। तेरी कृपा से हमारा सामर्थ्य बढ़ता है।
19) प्रभु ही हमारी रक्षा करता है। इस्राएल का परमपावन ईश्वर हमारे राजा को संभालता है।
20) तूने प्राचीनकाल में दर्शन दे कर अपने भक्तों से यह कहाः ''मैंने एक शूरवीर की सहायता की है, जनता में एक नवयुवक को ऊपर उठाया है।
21) मैंने अपने सेवक दाऊद को चुन कर अपने पवित्र तेल से उसका अभिषेक किया है।
22) मेरा हाथ उसे संभालता रहेगा, मेरा बाहुबल उसे शक्ति प्रदान करेगा।
23) कोई शत्रु धोखें से उस पर आक्रमण नहीं कर पायेगा, कोई विद्रोही उसे नीचा नहीं दिखा सकेगा।
24) मैं उसके विरोधियों को उसके सामने मिटा दूँगा, मैं उसके बैरियों को परास्त करूँगा।
25) मेरी सत्यप्रतिज्ञता और मेरी कृपा उसका साथ देती रहेगी। मेरे नाम के कारण उसका सामर्थ्य बढ़ेगा।
26) मैं समुद्र पर उसका हाथ आरोपित करूँगा और नदियों पर उसका बाहुबल।
27) वह मुझ से कहेगाः तू ही मेरा पिता है, मेरा ईश्वर, मेरी चट्टान और मेरा उद्धारक!
28) मैं उसे अपना पहलौठा बनाऊँगा, पृथ्वी के राजाओं का अधिपति।
29) मेरी कृपा उस पर बनी रहेगी, मेरी प्रतिज्ञा उसके लिए चिरस्थायी है।
30) मैं उसका वंश सदा बनाये रखँूगा, उसका सिंहासन आकाश की तरह चिरस्थायी होगा।
31) ''यदि उसके पुत्र मेरी संहिता का तिरस्कार रहेंगे और मेरी शिक्षा पर नहीं चलेंगे;
32) यदि वे मेरे नियमों का उल्लंघन करेंगे,
33) तो मैं उनके अपराधों के कारण उन्हें मारूँगा, उन्हें कोड़े लगा कर अधर्म का दण्ड दूँगा।
34) किन्तु दाऊद के लिए मेरा प्रेम चिरस्थायी है, मेरी प्रतिज्ञा सदा बनी रहेगी।
35) मैं अपनी प्रतिज्ञा भंग नहीं करूँगा, अपने मुख से निकला वचन नहीं बदलूँगा।
36) मैंने सदा के लिए अपनी पवित्रता की शपथ खायी, मैं दाऊद के सामने मिथ्यावादी नहीं बनूँगा।
37) उसके वंश का कभी अन्त नहीं होगा, उसका सिंहासन मेरे सामने सूर्य की तरह बना रहेगा,
38) आकाश में निष्ठावान् साक्षी, सदा बने रहने वाले चन्द्रमा की तरह।''
39) फिर भी तूने अपने अभिषिक्त को त्यागा, और अपमानित होने दिया और उस पर अपना क्रोध प्रकट किया।
40) तूने अपने सेवक के प्रति अपनी प्रतिज्ञा को भंग किया। तूने उसका मुकुट धूल में दूषित होने दिया।
41) तूने उसकी चारदीवारी गिरा दी और उसके गढ़ खंडहर बना दिये।
42) उधर से गुजरने वाले उस लूटते हैं। उसके पड़ोसी उस पर ताना मारते हैं।
43) तूने उसके शत्रुओं का बाहुबल बढ़ा दिया। तूने उसके विरोधियों को आनन्द प्रदान किया।
44) तूने उसकी तलवार की धार भोथरी कर दी। तूने उसे संग्राम में नहीं संभाला।
45) तूने उसका वैभव छीन लिया और उसका सिंहासन भूमि पर उलट दिया।
46) तूने उसके यौवन के दिन घटाये और उसे कलंकित होने दिया।
47) प्रभु! कब तक? क्या तू सदा के लिए छिप गया? क्या तेरा क्रोध आग की तरह जलता रहेगा?
48) याद कर कि कितना अल्प है मेरा जीवनकाल! कितने नश्वर हैं तेरे बनाये हुए मनुष्य!
49) ऐसा कौन मनुष्य है, जो मृत्यु देखे बिना जीवित रहेगा? जो अधोलोक से अपने प्राण छुड़ा सकेगा?
50) प्रभु! कहाँ हैं पूर्वकाल के तेरे उपकार? तूने दाऊद के लिए अपनी सत्यप्रतिज्ञता की शपथ खायी।
51) प्रभु! अपने अपमानित सेवकों की सुधि ले; उस प्रजा की सुधि ले, जो मुझे सौंपी गयी है।
52) प्रभु! तेरे शत्रुओं ने उनकी निन्दा की; उन्होंने तेरे अभिषिक्त का पग-पग पर अपमान किया।
53) प्रभु सदा-सर्वदा धन्य है! आमेन! आमेन!

अध्याय 90

1) प्रभु! तू पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारा आश्रय बना रहा।
2) पर्वतों की सृष्टि से पहले से, पृथ्वी तथा संसार की उत्पत्ति के पहले से तू ही अनादि-अनन्त ईश्वर है।
3) तू मनुष्य को फिर मिट्टी में मिलाते हुए कहता है : ''आदम की सन्तान! लौट जा''।
4) एक हजार वर्ष भी तुझे बीते कल की तरह लगते हैं; वे तेरी गिनती में रात के पहर के सदृश हैं।
5) तू मनुष्यों को इस तरह उठा ले जाता है, जिस तरह सबेरा होने पर स्वप्न मिट जाता है,
6) जिस तरह घास प्रातःकाल उग कर लहलहाती है और सन्ध्या तक मुरझा कर सूख जाती है।
7) हम तेरे कोप से भस्म हो गये हैं; तेरे क्रोध से आतंकित हैं।
8) तूने हमारे दोषों को अपने सामने रखा, हमारे गुप्त पापों को अपने मुखमण्डल के प्रकाश में।
9) तेरे क्रोध के कारण हमारे दिन मिटते हैं, हमारे वर्ष आह भरते बीतते हैं।
10) हमारी आयु की अवधि सत्तर बरस है, स्वास्थ्य अच्छा है, तो अस्सी बरस। हम अपनी अधिकांश आयु कष्ट और दुःख मे बिताते हैं। हमारे दिन शीघ्र ही बीतते हैं और हम चले जाते हैं।
11) तेरे क्रोध का बल कौन जानता है? तेरे क्रोध की थाह कौन ले सकता है?
12) हमें जीवन की क्षणभुंगुरता सिखा, जिससे हम में सद्बुद्धि आये।
13) प्रभु! लौट आ। हम कब तक तेरी प्रतीक्षा करें? तू अपने सेवकों पर दया कर।
14) भोर को हमें अपना प्रेम दिखा, जिससे हम दिन भर आनन्द के गीत गायें।
15) दण्ड के दिनों के बदले, विपत्ति के वर्षों के बदले हम को भविष्य में सुख-शान्ति प्रदान कर।
16) तेरे सेवक तेरे महान् कार्य देखें और उनकी सन्तान तेरी महिमा के दर्शन करें।
17) हमारे प्रभु-ईश्वर की मधुर कृपा हम पर बनी रहे! तू हमारे सब कार्यों को सफलता प्रदान कर।

अध्याय 91

1) तुम, जो सर्वोच्च के आश्रय में रहते और सर्वशक्तिमान् की छत्रछाया में सुरक्षित हो,
2) तुम प्रभु से यह कहो : ''तू ही मेरी शरण है, मेरा गढ़, मेरा ईश्वर; तुझ पर ही भरोसा रखता हूँ''।
3) वह तुम्हें बहेलिये के फन्दे से, घातक महामारी से छुड़ाता है।
4) वह अपने पंख फैला कर तुम को ढँक लेता है, तुम्हें उसके पैरों के नीचे शरणस्थान मिलता है। उसकी सत्यप्रतिज्ञता तुम्हारी ढाल है और तुम्हारा कवच।
5) तुम्हें न तो रात्रि के आतंक से भय होगा और न दिन में चलने वाले बाण से;
6) न अन्धकार में फैलने वाली महामारी से और न दोपहर को चलने वाले घातक लू से।
7) तुम्हारी बगल में भले ही हजारों और तुम्हारी दाहिनी ओर लाखों ढेर हो जायें, किन्तु तुम को कुछ नहीं होगा।
8) तुम अपनी आँखों से देखोगे कि किस प्रकार विधर्मियों को दण्ड दिया जाता है;
9) क्योंकि प्रभु तुम्हारा आश्रय है, तुमने सर्वोच्च ईश्वर को अपना शरण-स्थान बनाया है।
10) तुम्हारा कोई अनिष्ट नहीं होगा, महामारी तुम्हारे घर के निकट नहीं आयेगी;
11) क्योंकि वह अपने दूतों को आदेश देगा कि तुम जहाँ कहीं भी जाओगे, वे तुम्हारी रक्षा करें।
12) वे तुम्हें अपने हाथों पर उठा लेंगे कि कहीं तुम्हारे पैरों को पत्थर से चोट न लगे।
13) तुम सिंह और साँप को कुचलोगे, तुम बाघ और अजगर को पैरों तले रौंदोगे।
14) वह मेरा भक्त है, इसलिए मैं उसका उद्धार करूँगा; वह मेरा नाम जानता है, इसलिए मैं उसकी रक्षा करूँगा।
15) यदि वह मेरी दुहाई देगा, तो मैं उसकी सुनूँगा, मैं संकट में उसका साथ दूँगा; मैं उसका उद्धार कर उसे महिमान्वित करूँगा।
16) मैं उसे दीर्घ आयु प्रदान करूँगा और उसे अपने मुक्ति-विधान के दर्शन कराऊँगा।

अध्याय 92

2) (१-२) प्रभु का गुणगान करना कितना अच्छा है! सर्वोच्च ईश्वर! तेरे नाम का भजन गाना,
3) तम्बूरा और वीणा बजाते हुए, सितार के मधुर संगीत के साथ,
4) प्रातः तेरे प्रेम का और रात को तेरी सत्यप्रतिज्ञता का बखान करना कितना अच्छा है!
5) प्रभु! तेरे कार्य मुझे आनन्दित करते हैं; तेरी सृष्टि देख कर मैं उल्लसित हो कर कहता हूँ;
6) प्रभु तेरे कार्य कितने महान् है! तेरी योजनाएँ कितनी गूढ़ हैं!
7) अविवेकी मनुष्य यह नहीं जानता, मूर्ख यह नहीं समझता।
8) विधर्मी भले ही घास की तरह बढ़ते हों, सब दुष्ट भले ही फलते-फूलते हों, किन्तु वे सदा-सर्वदा के लिए नष्ट किये जायेंगे,
9) जब कि तू, प्रभु! सदा-सर्वदा स्वर्ग में विराजमान रहता है।
10) प्रभु! निश्चय ही तेरे शत्रुओं का विनाश होगा और सब कुकर्मी तितर-बितर हो जायेंगे।
11) तूने मुझे जंगली भैंसे-जैसा बल प्रदान किया है। मैं उत्तम तेल से नहाता हूँ।
12) मेरी आँख ने अपने शत्रुओं की पराजय देखी है, मेरे कान ने अपने दुष्ट बैरियों के पतन के विषय में सुना है।
13) धर्मी खजूर की तरह फलता-फूलता और लेबानोन के देवदार की तरह बढ़ता है।
14) वे प्रभु के मन्दिर में रोपे गये हैं, वे हमारे ईश्वर के प्रांगण में फलते-फूलते हैं।
15) वे लम्बी आयु में भी फलदार हैं। वे रसदार और हरे-भरे रहते हैं,
16) जिससे वे प्रभु का न्याय घोषित करें: ÷÷प्रभु मेरी चट्टान है। उस में कोई अन्याय नहीं।''

अध्याय 93

1) प्रभु राज्य करता है। वह प्रताप का वस्त्र ओढ़े और सामर्थ्य का कटिबन्ध बाँधे है। उसने पृथ्वी का आधार सुदृढ़ बनाया है।
2) तेरा सिंहासन प्रारम्भ से स्थिर है। तू अनन्त काल से विद्यमान है।
3) प्रभु! बाढ़ की लहरें उमड़ रही हैं, बाढ़ की लहरें गरज रही हैं, बाढ़ की लहरें घोर गर्जन कर रही हैं।
4) आकाश के ऊपर विराजमान प्रभु बाढ़ के गर्जन और महासागर की प्रचण्ड लहरों से कहीं अधिक शक्तिशाली है।
5) प्रभु! तेरे आदेश अपरिवर्तनीय है। तेरे मन्दिर की पवित्रता अनन्त काल तक बनी रहेगी।

अध्याय 94

1) प्रभु! प्रतिशोधी ईश्वर! प्रतिशोधी ईश्वर! अपने को प्रकट कर।
2) पृथ्वी के न्यायकर्ता! उठ कर घमण्डियों से उनके कर्मों का बदला चुका।
3) प्रभु! दुर्जन कब तक, दुर्जन कब तक आनन्द मनायेंगे?
4) वे धृष्टतापूर्ण बातें करते हैं। वे सब कुकर्मी डींग मारते हैं।
5) प्रभु! वे तेरी प्रजा को पीसते और तेरी विरासत पर अत्याचार करते हैं।
6) वे विधवाओं तथा परदेशियों की हत्या और अनाथों का वध करते हैं।
7) वे कहते हैं : ÷÷प्रभु नहीं देखता, याकूब का ईश्वर उस पर ध्यान नहीं देता''।
8) निर्बुद्धियों! सावधान रहो। मूखर्ोे! तुम कब समझोगे?
9) जिसने कान बनाया, क्या वह नहीं सुनता? जिसने आँख बनायी, क्या वह नहीं देखता?
10) जो राष्ट्रों का शासन करता है, क्या वह नहीं जानता? जो मनुष्यों को शिक्षा देता है, क्या वह नहीं जानता?
11) प्रभु! मनुष्यों के विचार जानता है; वह जानता है कि वे व्यर्थ हैं।
12) प्रभु! धन्य है वह मनुष्य, जिसे तू सुधारता और अपनी संहिता की शिक्षा देता है!
13) वह संकट के समय नहीं घबराता, जब कि दुर्जन के लिए गड्ढा खोदा जा रहा है।
14) प्रभु अपनी प्रजा का परित्याग नहीं करता; वह अपनी विरासत को नहीं त्यागता।
15) धर्मी को न्याय दिलाया जायेगा और सभी निष्कपट लोग उसका समर्थन करेंगे।
16) मेरे लिए उन दुष्टों का सामना कौन करेगा? उन कुकर्मियों के विरुद्ध मेरा पक्ष कौन लेगा?
17) यदि प्रभु ने मेरी सहायता नहीं की होती, तो अधोलोक मेरा निवास बन गया होता।
18) प्रभु! जब मुझे लगता था कि मेरे पैर फिसलने वाले हैं, तो तेरी सत्यप्रतिज्ञता मुझे सँभालती थी।
19) जब असंख्य चिन्ताएँ मुझे घेरे रहती थीं, तो मुझे तेरी सान्त्वना का सहारा मिलता था।
20) क्या अन्याय के सिंहासन की साँठगाँठ तेरे साथ हो सकती है, जहाँ विधि की आड़ में जनता पर भार डाला जाता है?
21) वे धर्मी के प्राणों के गाहक हैं और निर्दोष को मृत्युदण्ड देते हैं;
22) किन्तु प्रभु मेरा गढ़ है। मेरा ईश्वर मेरे आश्रय की चट्टान है।
23) वह उन से उनके अधर्म का बदला चुकायेगा। वह उनकी दुष्टता द्वारा उनका विनाश करेगा।
24) हमारा प्रभु-ईश्वर उनका विनाश करेगा।

अध्याय 95

1) आओ! हम आनन्द मनाते हुए प्रभु की स्तुति करें, अपने शक्तिशाली त्राणकर्ता का गुणगान करें।
2) हम धन्यवाद करते हुए उसके पास जायें, भजन गाते हुए उसे धन्य कहें;
3) क्योंकि हमारा प्रभु शक्तिशाली ईश्वर है, वह सभी देवताओं से महान् अधिपति है।
4) वह पृथ्वी की गहराइयों को अपने हाथ से संभालता है, पर्वतों के शिखर उसी के है।
5) समुद्र और पृथ्वी, जल और थल सब उसके बनाये हुए और उसी के हैं।
6) आओ! हम दण्डवत् कर प्रभु की आराधना करें, अपने सृष्टिकर्ता के सामने घुटने टेकें;
7) क्योंकि वही हमारा ईश्वर है और हम हैं- उसके चरागाह की प्रजा, उसकी अपनी भेड़ें। ओह! यदि तुम आज उसकी यह वाणी सुनो,
8) अपना हृदय कठोर न कर लो, जैसा कि पहले मरीबा में, जैसा कि मस्सा की मरुभूमि में हुआ था।
9) तुम्हारे पूर्वजों ने वहाँ मुझे चुनौती दी मेरा कार्य देख कर भी उन्होंने मेरी परीक्षा ली।
10) वह पीढ़ी मुझे चालीष वर्षों तक अप्रसन्न करती रही और मैंने कहा, ''उनका हृदय भटकता रहा है, वे मेरे मार्ग नहीं जानते''।
11) तब मैंने क्रुद्ध होकर यह शपथ खायी : ''वे मेरे विश्राम-स्थान में प्रवेश नहीं करेंगे''।

अध्याय 96

1) प्रभु के आदर में नया गीत गाओ। समस्त पृथ्वी! प्रभु का भजन सुनाओ,
2) भजन गाते हुए प्रभु का नाम धन्य कहो। दिन-प्रतिदिन उसका मुक्ति-विधान घोषित करो।
3) सभी राष्ट्रों में उसकी महिमा का बखान करो। सभी लोगों को उसके अपूर्व कार्यों का गीत सुनाओ,
4) क्योंकि प्रभु महान् और अत्यन्त प्रशंसनीय है। वह सब देवताओं में परमश्रद्धेय है।
5) अन्य राष्ट्रों के सब देवता निस्सार हैं, किन्तु प्रभु ने आकाश का निर्माण किया है।
6) वह महिमामय और ऐश्वर्यशाली है। उसका मन्दिर वैभवपूर्ण और भव्य है।
7) पृथ्वी के सभी राष्ट्रो! प्रभु की महिमा और सामर्थ्य का बखान करो।
8) उसके नाम की महिमा का गीत गाओ। चढ़ावा ले कर उसके प्रांगण में प्रवेश करो।
9) पवित्र वस्त्र पहन कर प्रभु की आराधना करो। समस्त पृथ्वी! उसके सामने काँप उठे।
10) राष्ट्रों में घोषित करो कि प्रभु ही राजा है। उसने पृथ्वी का आधार सुदृढ़ किया है। वह निष्पक्षता से राष्ट्रों का न्याय करेगा।
11) स्वर्ग में आनन्द और पृथ्वी पर उल्लास हो, सागर की लहरें गर्जन करने लगें,
12) खेतों के पौधे खिल जायें और वन के सभी वृक्ष आनन्द का गीत गायें;
13) क्योंकि प्रभु का आगमन निश्चित है, वह पृथ्वी का न्याय करने आ रहा है। वह धर्म और सच्चाई से संसार के राष्ट्रों का न्याय करेगा।

अध्याय 97

1) प्रभु राज्य करता है। पृथ्वी पर उल्लास हो! असंख्य द्वीप आनन्द मनायें।
2) अन्धकारमय बादल उसके चारों ओर मँडराते हैं। उसका सिंहासन धर्म और न्याय पर आधारित है।
3) अग्नि उसके आगे-आगे चलती है और उसके शत्रुओं को चारों ओर जलाती है।
4) उसकी बिजली संसार पर चमकती है, पृथ्वी यह देख कर काँपने लगती है।
5) पृथ्वी के अधिपति के आगमन पर पर्वत मोम की तरह पिघलने लगते हैं।
6) आकाश प्रभु का न्याय घोषित करता है। सभी राष्ट्र उसकी महिमा के दर्शन करते हैं।
7) जो लोग देवमूर्तियों की पूजा करते हैं, जो उन मूर्तियों पर गौरव करते हैं, उन्हें निराश होना पड़ेगा। सभी देवताओं! प्रभु को दण्डवत् करो।
8) प्रभु! तेरा निर्णय सुन कर सियोन आनन्दित हो उठता है, याकूब के गाँव उल्लास के गीत गाते हैं;
9) क्योंकि तू समस्त पृथ्वी पर सर्वोच्च प्रभु है। तू ही सभी देवताओं से महान् है।
10) प्रभु-भक्तो! बुराई से घृणा करो! प्रभु अपने भक्तों की रक्षा करता और उन्हें दुष्टों के पंजे से छुड़ाता है।
11) धर्मी के लिए ज्योति का उदय होता है, निष्कपट लोग आनन्द मनाते हैं।
12) धर्मियों! प्रभु में आनन्द मनाओ! उसके पवित्र नाम को धन्य कहो।

अध्याय 98

1) प्रभु के आदर में नया गीत गाओ, उसने अपूर्व कार्य किये हैं। उसके दाहिने हाथ, उसकी पवित्र भुजा ने विजय पायी है।
2) प्रभु ने अपना मुक्ति-विधान प्रकट किया। उसने राष्ट्रों के लिए अपना न्याय प्रदर्शित किया है।
3) उसने अपनी प्रतिज्ञा का ध्यान कर इस्राएल के घराने की सुध ली है। पृथ्वी के कोने-कोने में हमारे ईश्वर का मुक्ति-विधान प्रकट हुआ है।
4) समस्त पृथ्वी प्रभु का जयकार करे और आनन्द मनाते हुए भजन गाये।
5) वीणा बजाते हुए प्रभु के आदर में भजन गा कर सुनाओ।
6) तुरही और नरसिंघा बजाते हुए अपने प्रभु-ईश्वर का जयकार करो।
7) समुद्र की लहरें गरजने लगें; पृथ्वी और उसके निवासी जयकार करें;
8) नदियाँ तालियाँ बजायें और पर्वत आनन्दित हो उठें;
9) क्योंकि प्रभु पृथ्वी का न्याय करने आ रहा है। वह न्यायपूर्वक संसार का शासन करेगा। वह निष्पक्ष हो कर राष्ट्रों का न्याय करेगा।

अध्याय 99

1) प्रभु राज्य करता है। राष्ट्र भयभीत हों। वह केरूबों पर विराजमान है। पृथ्वी काँप उठे।
2) प्रभु सियोन में महान् है। वह सब राष्ट्रों से ऊँचा है।
3) वे उसके विराट् एवं श्रद्धेय नाम का गुणगान करें। प्रभु पवित्र है।
4) शक्तिशाली न्यायप्रिय राजा! तूने अपरिवर्तनीय न्याय स्थापित किया, तू याकूब में निष्पक्षता से न्याय करता है।
5) हमारे प्रभु-ईश्वर को धन्य कहो, उसके पावदान को दण्डवत् करो। प्रभ्ुा पवित्र है।
6) हारून और मूसा उसके पुरोहित थे, समूएल उसकी उपासना करता था। उन्होंने प्रभु की आज्ञाओं और नियमों का पालन किया।
7) उसने बादल के खम्भे में से उन से बातें कीं। उन्होंने प्रभुु की आज्ञाओं और नियमों का पालन किया।
8) हमारे प्रभु-ईश्वर! तूने उनकी प्रार्थना सुनी। तूने उन्हें अपराध का दण्ड दिया, किन्तु उन्हें क्षमा भी प्रदान की।
9) हमारे प्रभु-ईश्वर को धन्य कहो, उसके पवित्र पर्वत को दण्डवत् करो। हमारा प्रभु-ईश्वर पवित्र है।

अध्याय 100

1) समस्त पृथ्वी! प्रभु की स्तुति करो।
2) आनन्द के साथ प्रभु की सेवा करो। उल्लास के गीत गाते हुए उसके सामने उपस्थित हो।
3) यह जान लो कि प्रभु ही ईश्वर है। उसी ने हमें बनाया है-हम उसी के हैं। हम उसकी प्रजा, उसके चरागाह की भेड़ें हैं।
4) धन्यवाद देते हुए उसके मन्दिर में प्रवेश करो; भजन गाते हुए उसके प्रांगण में आ जाओ; उसकी स्तुति करो और उसका नाम धन्य कहो।
5) ओह! ईश्वर कितना भला है! उसका प्रेम चिरस्थायी है। उसकी सत्यप्रतिज्ञता युगानुयुग बनी रहती है।

अध्याय 101

1) मैं दया और न्याय का गीत गाऊँगा। प्रभु! मैं तेरे आदर में भजन सुनाऊँगा।
2) मैंने सन्मार्ग पर चलने की ठानी है। तू कब मेरे पास आयेगा? मैं अपने घर के आँगन में शुद्ध हृदय से जीवन बिताऊँगा।
3) मैं अपनी आँखों के सामने कोई भी बुराई सहन नहीं करूँगा। मैं पथभ्रष्टों के आचरण से घृणा करता हूँ, वह मुझे आकर्षित नहीं कर सकता।
4) मैं अपने को कुटिलता से दूर रखूँगा। मैं बुराई की उपेक्षा करूँगा।
5) जो छिप कर अपने पड़ोसी की निन्दा करता है, मैं उसे चुप रहने के लिए विवश करूँगा। जो इठलाता और घमण्ड करता है, मैं उसे अपने पास नहीं रहने दूँगा।
6) मेरी कृपादृष्टि देश-भक्तों पर बनी रहती है, वे मेरे आसपास निवास करें। जो सन्मार्ग पर चलता है, वही मेरा सेवक हो सकता है।
7) जो छल-कपट करता है, वह मेरे यहाँ नहीं रह पायेगा। जो झूठ बोलता है, वह मेरी आँखों के सामने नहीं टिकेगा।
8) मैं प्रतिदिन प्रातः देश के सब दुष्टों को चुप करूँगा। मैं प्रभु के नगर से सब कुकर्मियों को निकाल दूँगा।

अध्याय 102

2) (१-२) प्रभु! मेरी प्रार्थना सुन; मेरी दुहाई तेरे पास पहुँचे।
3) संकट के समय मुझ से अपना मुख न छिपा। मेरी पुकार पर ध्यान दे, मुझे शीघ्र उत्तर दे;
4) क्योंकि मेरे दिन धुएँ की तरह लुप्त हो जाते हैं, मेरी हड्डियाँ अंगारों की तरह जलती हैं।
5) मेरा हृदय कटी हुई घास की तरह सूख गया है, मैं भोजन करना भूल जाता हूँ।
6) मेरे निरन्तर कराहते रहने से मेरा चमड़ा हड्डियों से चिपक गया है।
7) मैं मरुभूमि के घुग्घू-जैसा, खंडहर के उल्लू की तरह हूँ।
8) मुझे नींद नहीं आती; मैं छत पर एकाकी पक्षी-जैसा बन गया हूँ।
9) मेरे शत्रु दिन भर मेरा अपमान करते और निन्दा करते हुए मुझे कोसते हैं।
10) भोजन के नाम पर मैं राख खाता और अपने पेय में आँसू मिलाता हूँ।
11) अपने प्रचण्ड क्रोध के कारण तूने मुझे उठा कर फेंक दिया।
12) मेरे दिन सन्ध्या के प्रकाश जैसे हैं मैं घास की तरह झुलस रहा हूँ।
13) प्रभु! तेरा सिंहासन अनन्त काल तक बना रहता है और तेरी स्तुति युग-युगों तक।
14) तू उठ कर सियोन पर दया करेगा; क्योंकि उस पर अनुग्रह करने का समय यही है, निर्धारित समय आ गया है।
15) तेरे सेवक उसके पत्थरों को प्यार करते और उसके खंडहरों पर तरस खाते हैं।
16) राष्ट्र प्रभु के नाम पर श्रद्धा रखेंगे, पृथ्वी के सभी राजा उसकी महिमा का समादर करेंगे;
17) क्योंकि प्रभु सियोन का पुनर्निर्माण करेगा और अपनी सम्पूर्ण महिमा में प्रकट हो जायेगा।
18) वह दीन-दुःखियों की प्रार्थना सुनेगा। वह उनकी विनती का तिरस्कार नहीं करेगा।
19) आने वाली पीढ़ी के लिए यह लिखा जाये, जिससे भावी सन्तति प्रभु की स्तुति करे।
20) प्रभु ने ऊँचे पवित्र स्थान से झुक कर देखा। उसने स्वर्ग से पृथ्वी पर दृष्टि दौड़ायी,
21) जिससे वह बन्दियों की कराह सुने और प्राणदण्ड पाने वालों को मुक्त करें।
22) जब सभी प्रजातियाँ और राज्य प्रभु की सेवा करने के लिए एकत्र हो जायेंगे,
23) तब सियोन में प्रभु के नाम की घोषणा और येरुसालेम में उसकी स्तुति होती रहेगी।
24) जीवन के मध्यकाल में उसने मेरी शक्ति क्षीण कर दी; उसने मेरे दिन घटा कर कम कर दिये।
25) मैंने कहा : ''मेरे ईश्वर! जब तक मेरे दिन पूरे नहीं होंगे, तू मुझे यहाँ से उठाना नहीं''। तेरे वर्ष पीढ़ी दर पीढ़ी बने रहते हैं।
26) तूने प्राचीन काल में पृथ्वी की नींव डाली; आकाश तेरे हाथों की कृति है।
27) वे नष्ट हो जायेंगे, तू बना रहेगा। वे वस्त्र की तरह पुराने हो जायेंगे। तू परिधान की तरह उन्हें बदल देगा और वे फेंक दिये जायेंगे।
28) किन्तु तू एकरूप रहता है; तेरे वर्षों का अन्त नहीं।
29) तेरे सेवकों की सन्तति सुरक्षा में निवास करेगी और उसका वंश तेरे सामने बना रहेगा।

अध्याय 103

1) मेरी आत्मा! प्रभु को धन्य कहो। मेरे अन्तरतम! उसके पवित्र नाम की स्तुति करो।
2) मेरी आत्मा! प्रभु को धन्य कहो और उसका एक भी वरदान कभी नहीं भुलाओ।
3) वह तेरे सभी अपराध क्षमा करता और तेरी सारी दुर्बलताएँ दूर करता है।
4) वह तुझे सर्वनाश से बचाता और दया और अनुकम्पा से संभालता है।
5) वह जीवन भर तुझे सुख-शान्ति प्रदान करता और तुझे गरूड़ की तरह चिरंजीवी बनाता है।
6) प्रभु न्यायपूर्वक शासन करता और सब पददलितों का पक्ष लेता है।
7) उसने मूसा को अपने मार्ग दिखाये और इस्राएल को अपने महान् कार्य।
8) प्रभु दया और अनुकम्पा से परिपूर्ण हैं; वह सहनशील और अत्यन्त प्रेममय है।
9) वह सदा दोष नहीं देता और चिरकाल तक क्रोध नहीं करता।
10) वह न तो हमारे पापों के अुनसार हमारे साथ व्यवहार करता और न हमारे अपराधों के अनुसार हमें दण्ड देता है।
11) आकाश पृथ्वी के ऊपर जितना ऊँचा है, उतना महान है, अपने भक्तों के प्रति प्रभु का प्रेम।
12) पूर्व पश्चिम से जितना दूर है, प्रभु हमारे पापों को हम से उतना ही दूर कर देता है।
13) पिता जिस तरह अपने पुत्रों पर दया करता है, प्रभु उसी तरह अपने भक्तों पर दया करता है;
14) क्योंकि वह जानता है कि हम किस चीज के बने हैं; उसे याद रहता है कि हम मिट्टी हैं।
15) मनुष्य के दिन घास की तरह हैं वह खेत के फूल की तरह खिलता है।
16) हवा का झोंका लगते ही वह चला जाता है और फिर कभी नहीं दिखाई देता है।
17) किन्तु प्रभु-भक्तों के लिए उसकी कृपा और उनके पुत्र-पोत्रों के लिए उसकी न्यायप्रियता सदा-सर्वदा बनी रहती है;
18) उनके लिए, जो उसके विधान पर चलते हैं, जो उसकी आज्ञाएँ याद कर उनका पालन करते हैं।
19) प्रभु ने स्वर्ग में अपना सिंहासन स्थापित किया है। वह विश्वमण्डल का शासन करता है।
20) प्रभु के शक्तिशाली दूतो! तुम सब जो उसकी वाणी सुनते ही उसकी आज्ञाओं का पालन करते हो, प्रभु को धन्य कहो।
21) विश्वमण्डल! प्रभु को धन्य कहो। प्रभु के आज्ञाकारी सेवको! प्रभु को धन्य कहो।
22) प्रभ्ुा की समस्त कृतियों! उसके राज्य में सर्वत्र प्रभु को धन्य कहो। मेरी आत्मा! प्रभु को धन्य कहो।

अध्याय 104

1) मेरी आत्मा! प्रभु को धन्य कहो। प्रभु! मेरे ईश्वर! तू कितना महान् है। तू महिमा और प्रताप से विभूषित है।
2) तू प्रकाश को चादर की तरह ओढ़े है। तूने आकाश को तम्बू की तरह ताना है।
3) तू जल के ऊपर अपने भवन का निर्माण करता है। तू बादलों को अपना रथ बनाता और पवन के पंखों पर चलता है।
4) तू पवनों को अपने दूत बनाता है और अग्नि की ज्वालाओं को अपने सेवक।
5) तूने पृथ्वी को उसकी नींव पर स्थापित किया; वह सदा-सर्वदा के लिए स्थिर है।
6) तूने उसे वस्त्र की तरह महासागर से ढक दिया- जल पहाड़ों के ऊपर तक चढ़ा हुआ था।
7) जल तेरी धमकी से हट गया, तेरी गर्जन सुन कर भाग गया।
8) वह पहाड़ों पर से बहता हुआ घाटियों में उतरा और तेरे द्वारा निश्चित स्थान पर आ गया।
9) तूने उसके लिए एक सीमा निर्धारित की, जिसे वह लाँघ नहीं सकता। वह फिर कभी पृथ्वी को नहीं ढक सकेगा।
10) तू घाटियों में से स्त्रोत निकालता है और वे पहाड़ों के बीच से बहते हैं।
11) मैदानों के पशु उनका पानी पीते हैं, जंगल के गदहे उन में अपनी प्यास बुझाते हैं।
12) आकाश के पक्षी उनके पास बसेरा करते और डालियों पर चहचहाते हैं।
13) तू अपने ऊँचे निवास से पहाड़ों को सींचता और पृथ्वी को अपने वरदानों से तृप्त करता है।
14) तू पशुओं के लिए घास उगता है और मनुष्य के लिए पेड़-पौधे, जिससे वह भूमि से रोटी उत्पन्न करे,
15) अंगूरी मनुष्य का हृदय प्रसन्न करे, उसका मुख तेल के विलेपन से चमकता रहे और रोटी उसके हृदय को बल प्रदान करे।
16) प्रभु के वृक्षों को और उसके लगाये हुए लेबानोन के देवदारों को भरपूर जल मिलता है।
17) पक्षी उन में अपने घोंसले बनाते हैं और लगभग उनकी फुनगी में निवास करता है।
18) ऊँचे पर्वतों पर जंगली बकरे रहते हैं और बिज्जू चट्टानों में छिपते हैं।
19) तूने पर्वों के निर्धारण के लिए चन्द्रमा बनाया है। सूरज अपने अस्त होने का समय जानता है।
20) तू अन्धकार को बुलाता है और रात हो जाती है, जब जंगल के सब जानवर विचरते हैं।
21) सिंह के बच्चे, शिकार के लिए दहाड़ते हुए, ईश्वर से अपना आहार माँगते हैं।
22) वे सूरज के उगने पर हट जाते और अपनी मांदों में विश्राम करते हैं।
23) मनुष्य अपने काम पर जाता और शाम तक परिश्रम करता है।
24) प्रभु! तेरे कार्य असंख्य हैं। तू जो भी करता है, अच्छा ही करता है। पृथ्वी तेरे वैभव से भरपूर है।
25) अपार समुद्र दूर-दूर तक फैला है, जहाँ असंख्य छोटे-बड़े जीव-जन्तु विचरते हैं,
26) जहाँ जलयान आते-जाते हैं, जहाँ तिमिंगल का निवास है, जिसे तूने इसलिए बनाया कि वह उस में क्रीड़ा करे।
27) सब तुझ से यह आशा करते हैं कि तू समय पर उन्हें भोजन प्रदान करे।
28) तू उन्हें देता है और वे एकत्र करते हैं। तू अपना हाथ खोलता है और वे तृप्त हो जाते हैं।
29) तू उन से मुँह छिपाता है, तो वे घबराते हैं। तू उनके प्राण वापस लेता है, तो वे मर कर फिर मिट्टी में मिल जाते हैं।
30) तू प्राण फूँक देता है, तो वे पुनर्जीवित हो जाते हैं और तू पृथ्वी का रूप नया बना देता है।
31) प्रभु की महिमा अनन्त काल तक बनी रहे; प्रभु अपनी सृष्टि में आनन्द मनाये।
32) वह पृथ्वी पर दृष्टि डालता है, तो वह काँपती है! वह पर्वतों का स्पर्श करता है, तो वे धुँआ उगलते हैं!
33) मैं जीवन भर प्रभु के गीत सुनाता रहूँगा, मैं जीवन भर ईश्वर का स्तुतिगान करूँगा।
34) मेरा यह भजन प्रभु को प्रिय लगे। प्रभु ही मेरे आनन्द का स्रोत है।
35) पृथ्वी पर से पापियों का विलोप हो, दुष्ट जनों का अस्तित्व मिट जाये। मेरी आत्मा प्रभु को धन्य कहे!

अध्याय 105

1) अल्लेलूया! प्रभु की स्तुति करो, उसका नाम धन्य कहो; राष्ट्रों में उसके महान् कार्यों का बखान करो।
2) उसके आदर में गीत गाओ और बाजा बजाओ; उसके सब चमत्कारों को घोषित करो।
3) उसके पवित्र नाम पर गौरव करो। प्रभु को खोजने वालों का हृदय आनन्दित हो।
4) प्रभु और उसके सामर्थ्य का मनन करो। उसके दर्शनों के लिए लालायित रहो।
5) उसके चमत्कार, उसके अपूर्व कार्य और उसके निर्णय याद रखो।
6) प्रभु-भक्त इब्राहीम की सन्तति! याकूब के पुत्रों! प्रभु की चुनी हुई प्रजा!
7) प्रभु ही हमारा ईश्वर है; उसके निर्णय समस्त पृथ्वी पर व्याप्त हैं।
8) प्रभु को अपना विधान सदा स्मरण रहता है, हजारों पीढ़ियों के लिए अपनी प्रतिज्ञाएँ,
9) इब्राहीम के लिए निर्धारित विधान, इसहाक के सामने खायी हुई शपथ,
10) याकूब को प्रदत्त संहिता, इस्राएल के लिए चिरस्थायी विधान।
11) उसने कहा था : मैं तुम्हें कनान देश प्रदान करूँगा, वह तुम्हारे लिए निश्चित की हुई विरासत है।
12) उस समय उनकी संख्या बहुत कम थी, वे मुट्ठी-भर अप्रवासी थे।
13) वे एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र में, एक राज्य से दूसरे राज्य में भटकते फिरते थे।
14) फिर भी प्रभु ने किसी को उन पर अत्याचार नहीं करने दिया, उसने उनके कारण राजाओं को डाँटा :
15) ''मेरे अभिषिक्तों पर हाथ नहीं लगाना, मेरे नबियों को कष्ट नहीं देना''।
16) उसने उस देश में अकाल पड़ने दिया, उसने जीवन-निर्वाह के सब साधन नष्ट कर दिये।
17) उसने उस से पहले एक मनुष्य को वहाँ भेजा : यूसुफ़ वहाँ दास के रूप में बिक गया।
18) उसके पैरों में बेड़ियाँ डाली गयीं और उसकी गर्दन में लोहे की जंजीरें।
19) उसकी भविष्यवाणी पूरी हो गयी; प्रभु की वाणी ने उसे सच्चा प्रमाणित किया।
20) राजा ने उसे रिहा करने का आदेश दिया, राष्ट्रों के शासक ने उसे मुक्त किया,
21) उसे अपने घराने का अधिपति और अपनी सारी सम्पत्ति का प्रबन्धक बनाया,
22) जिससे वह उसके पदाधिकारियों को प्रशिक्षण दे और वयोवृद्धों को प्रज्ञा प्रदान करे।
23) तब इस्राएल ने मिस्र देश में प्रवेश किया; याकूब हाम के देश में अप्रवासी के रूप में रहने लगा।
24) ईश्वर ने अपनी प्रजा की संख्या बहुत अधिक बढ़ायी और उसे उसके विरोधियों से अधिक शक्तिशाली बनाया।
25) उसने मिस्रियों का हृदय बदल दिया, जिससे वे उसकी प्रजा से बैर करें और उसके साथ छल-कपट करें।
26) तब उसने अपने सेवक मूसा को और अपने कृपापात्र हारून को भेजा।
27) इन दोनों ने मिस्र में प्रभु के चमत्कार दिखाये; हाम के देश में ईश्वर के अपूर्व कार्य सम्पन्न किये।
28) उसने अन्धकार भेजा और समस्त देश पर अन्धकार छाया रहा; किन्तु उन्होंने उसका कहना नहीं माना।
29) उसने उनका जल रक्त में बदल दिया और उनकी मछलियों का विनाश कर दिया।
30) उनका देश मेढ़कों से भर गया; वे उनके शासकों के महलों में घुस गये।
31) उसके कहने पर उनके समस्त देश पर डाँस और मच्छर छा गये।
32) उसने वर्षा के बदले उनके सारे देश पर ओले बरसाये और धधकती आग गिरायी।
33) उसने उनकी दाख और अंजीर की बारियों को नष्ट किया और उनके सीमान्तों के पेड़ों को तोड़ दिया।
34) उसके कहने पर टिड्डियाँ और असंख्य कीड़े-मकोड़े उमड़ आये।
35) इन्होंने देश भर की वनस्पतियों को खाया; इन्होंने धरती की फसलों को चाट डाला।
36) उसने मिस्र के सब पहलौठों को, उनकी जवानी की पहली सन्तानों को मारा।
37) तब वह अपनी प्रजा को सोने-चाँदी के साथ निकाल लाया; उसके वंशों में वहाँ एक भी नहीं छूटा।
38) उनके प्रस्थान पर मिस्र आनन्दित हो उठा, क्योंकि उस पर आतंक छा गया था।
39) उसने उनकी रक्षा के लिए बादल फैला दिया और रात में प्रकाश के लिए आग।
40) उनके माँगने पर उसने बटेरों को भेजा और उन्हें स्वर्ग की रोटी से तृप्त किया।
41) उसने चट्टान को फाड़ा; जल फूट निकला और नदी की तरह निर्जल भूमि में बहने लगा।
42) उसने अपने सेवक इब्राहीम के प्रति अपनी पवित्र प्रतिज्ञा को स्मरण रखा।
43) वह अपनी प्रफुल्लित प्रजा को, उपने कृपापात्रों को, आनन्द के गीत गाते हुए निकाल लाया।
44) उसने उन्हें राष्ट्रों की भूमि दे दी; वे अन्य जातियों के परिश्रम का फल पाते हैं,
45) बशर्ते वे उसके विधान के अनुसार चलते और उसकी संहिता का पालन करते हों। अल्लेलूया!

अध्याय 106

1) अल्लेलूया! प्रभु की स्तुति करो; क्योंकि वह भला है। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
2) प्रभु के महान् कार्यों का वर्णन कौन कर सकता है? उसकी यथायोग्य स्तुति कौन कर सकता है?
3) धन्य हैं वे, जो न्याय का पालन करते और हर समय सदाचरण करते हैं!
4) प्रभु! जब तू अपनी प्रजा पर दयादृष्टि करेगा, तो मुझे भी याद कर। जब तू उसका उद्धार करेगा, तो मेरी भी सुधि ले,
5) जिससे मैं तेरे कृपापात्रों की सुख-शान्ति देखूँ; तेरी प्रजा के आनन्द से प्रफुल्लित होऊँ और उसकी महिमा का भागी बनूँ।
6) हमने अपने पूर्वजों की तरह पाप किया। हम भटक गये, हम अपराधी हैं।
7) हमारे पूर्वजों ने मिस्र में रहते समय तेरे अपूर्व कार्यों का अर्थ नहीं समझा। उन्होंने तेरे असंख्य वरदान भुला दिये और लाल सागर के पास विद्रोह किया।
8) अपने नाम के कारण और अपना सामर्थ्य प्रदर्शित करने के लिए प्रभु ने उनका उद्धार किया।
9) उसने लाल सागर को डाँटा और वह सूख गया, उसने उन्हें सागर के उस पार पहुँचाया, मानो वह मरुभूमि हो।
10) उसने उन्हें बैरियों के हाथ से छुड़ाया, उसने शत्रु के हाथ से उनकी रक्षा की।
11) जलधारा ने उनके शत्रुओं को ढक लिया, उन में एक भी शेष नहीं रहा।
12) उस समय उन्हें उसके शब्दों पर विश्वास हुआ और उन्होंने उसका स्तुतिगान किया।
13) उन्होंने शीघ्र ही उसके कार्य भुला दिये और उसकी योजना पूरी होने की प्रतीक्षा नहीं की।
14) वे मरुभूमि में अपनी वासनाओं के शिकार बने, उन्होंने निर्जन प्रदेश में ईश्वर की परीक्षा ली।
15) वे जो माँगते थे, ईश्वर ने उन्हें दे दिया, किन्तु उन में उचाट भी उत्पन्न किया।
16) उन्होंने शिविर में मूसा से ईर्ष्या की और प्रभु को अर्पित हारून से भी।
17) पृथ्वी फट कर दातान को निगल गयी और उसने अबीराम के दल को समेट लिया।
18) उनके समुदाय में आग लगी, ज्वालाओं ने दुष्टों को भस्म कर दिया।
19) उन्होंने होरेब में एक बछड़ा गढ़ा और धातु की मूर्ति को दण्डवत् किया।
20) उन्होंने अपने महिमामय ईश्वर के बदले घास खाने वाले बैल की प्रतिमा की शरण ली।
21) उन्होंने अपने मुक्तिदाता ईश्वर को भुला दिया, जिसने मिस्र देश में महान् कार्य किये थे,
22) हाम देश में चमत्कार दिखाये थे और लाल समुद्र के पास आतंक फैलाया था।
23) वह उनका सर्वनाश करने की सोच रहा था, किन्तु उसके कृपापात्र मूसा बीच में आये और ईश्वर ने उन पर से अपना विनाशकारी क्रोध हटा लिया।
24) उन्होंने रमणीय देश का तिरस्कार किया; उन्हें प्रभु की प्रतिज्ञा पर विश्वास नहीं था।
25) वे अपने तम्बुओं में भुनभुनाते रहे और उन्होंने प्रभु की वाणी की अवज्ञा की।
26) प्रभु ने हाथ उठा कर शपथ खायी कि वह मरुभूमि में उनका विनाश करेगा,
27) उनके वंशजों को राष्ट्रों में तितर-बितर कर देगा और उन्हें अन्य देशों में निर्वासित करेगा।
28) उन्होंने पेओर के बाल-देवता का जूआ स्वीकार किया और निर्जीव देवताओं की चढ़ायी बलि खायी।
29) उन्होंने अपने आचरण द्वारा ईश्वर को चिढ़ाया और उनमें महामारी फैल गयी।
30) तब पीनहास उठ कर मध्यस्थ बने और महामारी रूक गयी।
31) इसके कारण पीनहास पीढ़ी-दर-पीढ़ी, सदा के लिए, धार्मिक माने गये।
32) इस्राएलियों ने मरीबा के जलाशय के पास ईश्वर को चिढ़ाया और मूसा का अनिष्ट किया;
33) क्योंकि उन्होंने मूसा में मन में कटुता उत्पन्न की और उनके मुँह से अविवेकपूर्ण शब्द निकले।
34) उन्होंने उन राष्ट्रों का विनाश नहीं किया, जैसा कि प्रभु ने उन्हें आदेश दिया था।
35) वे उन से मेल-जोल रखने और उनकी धर्मरीतियाँ अपनाने लगे।
36) उन्होंने उनकी देवमूर्तियों की पूजा की; वही उनके लिए फन्दा बन गया।
37) उन्होंने अप-देवताओं के आदर में अपने पुत्र-पुत्रियों को बलि चढ़ाया।
38) उन्होंने निर्दोष रक्त बहाया अपने पुत्र-पुत्रियों का रक्त, जिसे उन्होंने कनान की देवमूर्तियों को चढ़ाया। देश रक्त की धाराओं से अपवित्र हो गया।
39) वे अपने आचरण से दूषित हो गये। उन्होंने प्रभु के साथ विश्वासघात किया।
40) प्रभु का कोप अपनी प्रजा पर भड़क उठा, वह अपनी विरासत से घृणा करने लगा।
41) उसने उन्हें राष्ट्रों के हाथ छोड़ दिया और उनके बैरियों ने उन पर शासन किया।
42) शत्रु ने उन पर अत्याचार किया, उसके हाथ ने उन्हें नीचा दिखाया।
43) प्रभु ने बारम्बार उनका उद्धार किया, किन्तु वे अपने कुकर्मों द्वारा उसके विरुद्ध विद्रोह करते रहे।
44) फिर भी उनकी दुहाई सुन कर वह उनकी दुर्दशा पर ध्यान देता रहा।
45) वह उनके लिए निर्धारित विधान का स्मरण करता और अपनी अपूर्व दयालुता के कारण द्रवित हो जाता था।
46) जो उन्हें बन्दी बना कर ले गये थे, उन में उसने अपनी प्रजा के प्रति दया उत्पन्न की।
47) प्रभु! हमारे ईश्वर! हमारा उद्धार कर। राष्ट्रों में से हमें एकत्र कर। तब हम तेरा पवित्र नाम धन्य कहेंगे और तेरी स्तुति करते हुए अपने को धन्य समझेंगे।
48) प्रभु, इस्राएल का ईश्वर, सदा-सर्वदा धन्य है। सब लोग यह कहें : आमेन!

अध्याय 107

1) अल्लेलूया! प्रभु की स्तुति करो, क्योंकि वह भला है। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
2) वे लोग यह कहते रहें, जिनका प्रभु ने उद्धार किया; जिन्हें उसने शत्रु के पंजे से छुड़ाया;
3) जिन्हें उसने पूर्व और पश्चिम, उत्तर और दक्षिण, दूर-दूर देशों से एकत्र कर लिया।
4) कुछ लोग उजाड़ प्रदेश और मरुभूमि में भटक गये थे। उन्हें बसे हुए नगर का रास्ता नहीं मिल रहा था।
5) वे भूखे और प्यासे थे। उनके प्राण निकल रहे थे।
6) उन्होंने अपने संकट में प्रभु की दुहाई दी और उसने विपत्ति से उनका उद्धार किया।
7) वह उन्हें सीधे रास्ते से ले गया और वे बसे हुए नगर तक पहुँचे।
8) वे प्रभु को धन्यवाद दें- उसके प्रेम के लिए और मनुष्यों के कल्याणार्थ उसके चमत्कारों के लिए :
9) क्योंकि उसने प्यासे को पिलाया और भूखे को तृप्त किया।
10) कुछ लोग अन्धकार और मृत्यु की छाया में बैठे थे, दुःखी और बेड़ियों से जकड़े हुए;
11) क्योंकि उन्होंने ईश्वर की वाणी से विद्रोह और सर्वोच्च प्रभु की योजना का तिरस्कार किया था।
12) उसने उन्हें घोर कष्ट दिलाया। वे विचलित हुए, उनका कोई सहायक नहीं रहा।
13) उन्होंने अपने संकट में प्रभु की दुहाई दी और उसने विपत्ति से उनका उद्धार किया।
14) उसने अन्धकार और मृत्यु की छाया से उन्हें निकाला; उसने उनके बन्धन तोड़ डाले।
15) वे प्रभु को धन्यवाद दें- उसके लिए और मनुष्यों के कल्याणार्थ उसके चमत्कारों के लिए;
16) क्योंकि उसने काँसे के द्वार तोड़ दिये और लोहे की अर्गलाओं के टुकड़े कर डाले।
17) कुछ लोग अपने कुकर्मों के कारण बीमार पड़ गये थे। वे अपने पापों के कारण कष्ट झेल रहे थे।
18) वे हर प्रकार के भोजन से घृणा करते थे और मृत्यु के द्वार तक पहुँच गये थे।
19) उन्होंने अपने संकट में प्रभु की दुहाई दी और उसने विपत्ति से उनका उद्धार किया।
20) उसने अपनी वाणी भेज कर उन्हें स्वस्थ किया और कब्र से उनका उद्धार किया।
21) वे प्रभु को धन्यवाद दे- उसके प्रेम के लिए और मनुष्यों के कल्याणार्थ उसके चमत्कारों के लिए।
22) वे धन्यवाद का बलिदान चढ़ायें और आनन्द के गीत गाते हुए उसके कार्य घोषित करें।
23) कुछ लोग जहाज पर चढ़ कर यात्रा करते थे। वे महासागर के उस पार व्यापार करते थे।
24) उन्होंने प्रभु के कार्य देखे, सागर की गहराइयों में उसके चमत्कार।
25) उसके कहने पर आँधी आयी, ऊँची-ऊँची लहरें उठने लगीं।
26) वे आकाश तक चढ़ कर गहरे गर्त में उतरे, संकट में उनका साहस टूट गया।
27) वे डगमगाते थे, शराबी की तरह लड़खड़ाते थे। उनकी बुद्धि काम नहीं कर पा रही थी।
28) उन्होंने अपने संकट में प्रभु की दुहाई दी और उसने विपत्ति से उनका उद्धार किया।
29) उसने आँधी को शान्त किया और लहरें थम गयीं।
30) उस शान्ति को देख कर वे आनन्दित हो उठे और प्रभु ने उन्हें मनचाहे बन्दरगाह तक पहुँचा दिया।
31) वे प्रभु को धन्यवाद दें- उसके प्रेम के लिए और मनुष्य के कल्याणार्थ उसके चमत्कारों के लिए।
32) वे भरी सभा में उसे धन्य कहें और बड़े-बूढ़ों की बैठक में उसकी स्तुति करें।
33) (३३-३४) वह निवासियों के अधर्म के कारण नदियों को बंजर भूमि, जलस्रोतों को सूखी जमीन और उपजाऊ भूमि को लवणकच्छ बना देता है।
35) वह मरूभूमि को जलाशय और सूखी जमीन को जलस्र्रोत बना देता है।
36) वहाँ वह भूखों को बसाता है और वे उस में अपने लिए नगर बनाते हैं।
37) वे खेत बोते, दाखबारी लगाते और उन से अच्छी फसल पाते हैं।
38) ईश्वर उन्हें आशीर्वाद देता है- उनकी संख्या बहुत अधिक बढ़ती है। वह उनके पशु-धन का ह्रास नहीं होने देता।
39) बाद में उनकी संख्या घट जाती है और वे अत्याचार, विपत्ति और दुःख के कारण दब जाते हैं।
40) वह उनके शासकों को नीचा दिखाता और उन्हें पंथ-विहीन बंजर भूमि में भटकाता है;
41) किन्तु वह दरिद्रों का दुःख दूर करता और उनके परिवारों को झुण्ड की तरह बढ़ाता है।
42) धर्मी यह देख कर आनन्दित होते हैं और विधर्मियों का मुँह बन्द हो जाता है।
43) जो बुद्धिमान है, वह इन बातों पर ध्यान दे और प्रभु की अनुकम्पा का मनन करे।

अध्याय 108

2) (१-२) ईश्वर! मेरा हृदय प्रस्तुत है। मैं सारे हृदय से गाते-बजाते हुए भजन सुनाऊँगा।
3) सारंगी और वीणा! जागो। मैं प्रभात को जगाऊँगा।
4) प्रभु! मैं राष्ट्रों के बीच तुझे धन्य कहूँगा। मैं देश-विदेश में तेरा स्तुतिगान करूँगा;
5) क्योंकि आकाश के सदृश ऊँची है तेरी सत्यप्रतिज्ञता, तारामण्डल के सदृश ऊँचा है तेरा सत्य।
6) ईश्वर! आकाश के ऊपर अपने को प्रदर्शित कर। समस्त पृथ्वी पर तेरी महिमा प्रकट हो।
7) तू अपने दाहिने हाथ से हमें बचा, हम को उत्तर दे, जिससे तेरे कृपापात्रों का उद्धार हो।
8) ईश्वर ने अपने मन्दिर में यह कहा : ''मैं सहर्ष सिखेम का विभाजन करूँगा और सुक्कोथ की घाटी नाप कर बाँट दूँगा।
9) गिलआद प्रदेश मेरा है; मनस्से प्रदेश मेरा है; एफ्रईम मेरे सिर का टोप है; यूदा मेरा राजदण्ड है;
10) मोआब मेरी चिलमची है; मैं एदोम पर अपनी चप्पल रखता हूँ; मैं फिलिस्तिया को युद्ध के लिए ललकारता हूँ।''
11) कौन मुझे किलाबन्द नगर में पहुँचायेगा? कौन मुझे एदोम तक ले जायेगा?
12) वही ईश्वर, जिसने हमें त्यागा है; वही ईश्वर, जो अब हमारी सेनाओं का साथ नहीं देता।
13) शत्रु के विरुद्ध हमारी सहायता कर; क्योंकि मनुष्य की सहायता व्यर्थ है।
14) ईश्वर के साथ हम शूरवीरों की तरह लड़ेंगे; वही हमारे शत्रुओं को रौंदेगा।

अध्याय 109

1) ईश्वर! मैं तेरी स्तुति करता हूँ। मौन न रह;
2) क्योंकि दुष्ट और कपटी लोग मेरे विरुद्ध बोले। उन्होंने मुझ पर झूठा अभियोग लगाया।
3) उन्होंने शत्रुतापूर्ण शब्द कहते हुए मुझे घेरा और मुझ पर अकारण आक्रमण किया।
4) उन्होंने मेरी मित्रता के बदले मुझ पर अभियोग लगाया, किन्तु मैं प्रार्थना करता रहा।
5) उन्होंने मुझ से भलाई का बदला बुराई से और मित्रता का बदला बैर से चुकाया।
6) प्रभु! उसका विरोध करने एक दुर्जन को नियुक्त कर। एक अभियोगकर्ता उसके दाहिने खड़ा हो।
7) वह न्यायालय में दोषी ठहरे और उसकी प्रार्थना पाप मानी जाये।
8) उसके दिन घटाये जायें, कोई दूसरा उसका पद ग्रहण करे।
9) उसकी सन्तति अनाथ और उसकी पत्नी विधवा हो।
10) उसकी सन्तति भीख माँगते हुए भटकती रहे और अपने टूटे-फूटे घर से निकाली जाये।
11) सूदखोर उनका सर्वस्व छीने, पराये लोग उसके परिश्रम का फल लूटें।
12) कोई उसके प्रति सहानुभूति प्रकट न करे, कोई उसके अनाथ बच्चों पर तरस न खाये।
13) उसके वंशजों का विनाश हो। उनका नाम एक ही पीढ़ी में मिट जाये।
14) प्रभु को उसके पूर्वजों के अधर्म का स्मरण दिलाया जाये। उसकी माता का पाप न मिटाया जाये।
15) प्रभु के सामने उनके पाप निरन्तर बने रहें। प्रभु पृथ्वी पर से उन लोगों की स्मृति मिटा दे;
16) क्योंकि उसने कभी किसी की भलाई नहीं की; उसने दरिद्र और निस्सहाय पर अत्याचार किया; जिसका हृदय टूट गया था, वह मृत्यु तक पीछा करता रहा।
17) अभिशाप देना उसे प्रिय था, वह उसी पर आ पड़े। वह आशीर्वाद देना नहीं चाहता था, वह उस से दूर रहे।
18) उसने अभिशाप को चादर की तरह ओढ़ा। वह पानी की तरह उसके शरीर में, तेल की तरह उसकी हड्डियों में समा गया।
19) वह अभिशाप वस्त्र की तरह हो, जिसे वह पहनता है, कटिबन्ध की तरह, जिसे वह सदा बाँधता है।
20) मुझ पर अभियाग लगाने वालों और मेरी बुराई करने वालों को प्रभु से यही पुरस्कार मिले।
21) प्रभु-ईश्वर! अपने नाम के कारण मेरी सहायता कर। तू दयालु और प्रेममय है; मेरा उद्धार कर।
22) मैं दरिद्र और दीन-हीन हूँ। मेरा हृदय मेरे अन्तरतम में रौंद दिया गया है।
23) मैं साँझ की छाया की तरह विलीन हो रहा हूँ। मैं टिड्डी की तरह झाड़ दिया जाता हूँ।
24) उपवास के कारण मेरे घुटने काँपते हैं, मेरा शरीर सूख कर काँटा हो गया है।
25) मैं लोगों के लिए घृणा का पात्र हूँ, वे मुझे देख कर सिर हिलाते हैं।
26) प्रभु! मेरे ईश्वर! मेरी सहायता कर। अपनी दयालुता के अनुरूप मेरा उद्धार कर।
27) प्रभु! सब लोग जान जायें कि इस में तेरा हाथ है, कि तूने यह मेरे लिए किया है।
28) वे भले ही अभिशाप दें, तू आशीर्वाद देता है। मुझ पर आक्रमण करने वाले निराश हों। तेरा सेवक आनन्द मनाये।
29) मुझ पर अभियोग लगाने वाले कलंकित हों, लज्जा उन्हें चादर की तरह ढक ले।
30) मैं ऊँचे स्वर से प्रभु को धन्य कहूँगा, मैं जनसमूह में उसकी स्तुति करूँगा;
31) क्योंकि वह दरिद्र के दाहिने विद्यमान है, जिससे वह न्यायकर्ताओं से उसके जीवन की रक्षा करे।

अध्याय 110

1) प्रभु ने मेरे प्रभु ने कहा : ÷÷तुम मेरे दाहिने बैठ जाओ। मैं तुम्हारे शत्रुओं को तुम्हारा पावदान बना दूँगा।''
2) ईश्वर सियोन से आपके राज्याधिकार का विस्तार करेगा। आप दूर तक अपने शत्रुओं के देश पर शासन करेंगे।
3) आपकी सेना के संघटन के दिन आपकी प्रजा आपका साथ देगी। आपके सैनिक सुसज्जित हो कर प्रभात की ज्योति में ओस की तरह चमकेंगे।
4) ईश्वर की यह शपथ अपरिवर्तनीय है ''तुम मेलखीसेदेक की तरह सदा पुरोहित बने रहोगे''।
5) ईश्वर आपके दाहिने विराजमान है। जिस दिन राजा का क्रोध भड़क उठेगा, वह अन्य राजाओं को कुचल देंगे।
6) वह अन्य राष्ट्रों का न्याय करेंगे, असंख्य लोगों का वध करेंगे और पृथ्वी भर में उनका सर्वनाश करेंगे।
7) वह मार्ग में जलस्रोत का पानी पी कर अपना सिर ऊँचा करेंगे।

अध्याय 111

1) अल्लेलूया! धर्मियों की गोष्ठी में, लोगों की सभा में मैं सारे हृदय से प्रभु की स्तुति करूँगा।
2) प्रभु के कार्य महान हैं। भक्त जन उनका मनन करते हैं।
3) उसके कार्य प्रतापी और ऐश्वर्यमय हैं। उसकी न्यायप्रियता युग-युगों तक स्थिर है।
4) प्रभु के कार्य स्मरणीय हैं। प्रभु दयालु और प्रेममय है।
5) वह अपने भक्तों को तृप्त करता और अपने विधान का सदा स्मरण करता है।
6) उसने अपनी प्रजा को राष्ट्रों की भूमि दिला कर अपने सामर्थ्य का प्रदर्शन किया।
7) उसके कार्य सच्चे और सुव्यवस्थित हैं। उसके सभी नियम अपरिवर्तनीय हैं।
8) वे युग-युगों तक बने रहेंगे। उनके मूल में न्याय और सत्य हैं।
9) उसने अपनी प्रजा का उद्धार किया और अपना विधान सदा के लिए निश्चित किया। उसका नाम पवित्र और पूज्य है।
10) प्रज्ञा का मूल स्रोत प्रभु पर श्रद्धा है। जो उसकी आज्ञाओं का पालन करते हैं, वे अपनी बुद्धिमानी का प्रमाण देते हैं। प्रभु की स्तुति अनन्त काल तक होती है।

अध्याय 112

1) अल्लेलूया! धन्य है वह मनुष्य, जो प्रभु पर श्रद्धा रखता और उसकी आज्ञाओं को हृदय से चाहता है!
2) उसका वंश पृथ्वी पर फलेगा-फूलेगा; धर्मियों की सन्तति को आशीर्वाद प्राप्त होगा।
3) उसका घर भरा-पूरा होगा; उसकी न्यायप्रियता सदा बनी रहती है।
4) वह धर्मियों के लिए अन्धकार का प्रकाश हैः; वह दयालु, करूणामय और न्यायप्रिय है।
5) वह तरस खा कर उधार देता और ईमानदारी से अपना कारबार करता है।
6) वह सन्मार्ग से कभी नहीं भटकेगा। उसकी स्मृति सदा बनी रहेगी।
7) वह विपत्ति के समाचार से नहीं डरेगा, उसका मन सुदृढ़ है। वह ईश्वर का भरोसा करता है।
8) वह न तो घबराता और न डरता है; वह अपने शत्रुओं का डट कर सामना करता है।
9) वह उदारतापूर्वक दरिद्रों को दान देता है। उसकी न्यायप्रियता सदा बनी रहती है। वह सम्मानपूर्वक अपना सिर ऊँचा करता है।
10) दुष्ट यह देख कर जलता है, वह निराश हो कर दाँत पीसता है। दुष्टों की अभिलाषाएँ निष्फल होंगी।

अध्याय 113

1) अल्लेलूया! प्रभु के सेवकों! स्तुतिगान करो! प्रभु के नाम की स्तुति करो!
2) धन्य है प्रभु का नाम, अभी और अनन्त काल तक!
3) सूर्योदय से सूर्यास्त तक प्रभु के नाम की स्तुति हो।
4) प्रभु सभी राष्ट्रों का शासक है। उसकी महिमा आकाश से भी ऊँची है।
5) हमारे प्रभु-ईश्वर के सदृश कौन? वह उच्च सिंहासन पर विराजमान हो कर
6) स्वर्ग और पृथ्वी, दोनों पर दृष्टि रखता है।
7) वह धूल में से दीन को और कूड़े पर से दरिद्र को ऊपर उठाता है।
8) वह उन्हें शासकों के साथ बैठाता है, अपनी प्रजा के शासकों के साथ।
9) वह वन्ध्या को आनन्द प्रदान कर उसे पुत्रवती माता के रूप में घर में बसाता है।

अध्याय 114

1) अल्लेलूया! जब इस्राएल मिस्र से निकला, जब याकूब का वंश विदेशी राष्ट्र से भाग चला,
2) तो यूदा प्रभु का मन्दिर बना और इस्राएल उसका राज्य।
3) समुद्र यह देख कर भाग चला, यर्दन नदी उलटी दिशा में बहने लगी।
4) पर्वत मेढ़ों की तरह उछल पड़े, पहाड़ियाँ मेमनों की तरह।
5) समुद्र! तू क्यों भागा? यर्दन! तू उलटी दिशा में क्यों बहने लगी?
6) पर्वतो! तुम मेढ़ों की तरह क्यों उछल पड़े? पहाड़ियो! तुम मेमनों की तरह क्यों उछल पड़ी?
7) पृथ्वी प्रभु के सामने कम्पित हो, याकूब के ईश्वर के सामने,
8) जो चट्टान को जलाशय में पथरीली भूमि को उमड़ते स्रोत में बदल देता है।

अध्याय 115

1) प्रभु! तू प्रेममय और सत्यप्रतिज्ञ है। हम को नहीं, हम को नहीं, बल्कि अपना नाम महिमान्वित कर।
2) अन्य राष्ट्र क्यों कहते हैं : ''कहाँ है उनका ईश्वर?''
3) हमारा ईश्वर स्वर्ग में है। वह जो चाहता है, वही करता है।
4) उन लोगों की देवमूर्तियाँ चाँदी और सोने की हैं; वे मनुष्यों द्वारा बनायी गयी हैं।
5) उनके मुख हैं, किन्तु वे नहीं बोलतीं; आँखें है, किन्तु वे नहीं देखतीं।
6) उनके कान हैं, किन्तु वे नहीं सुनतीं; नाक हैं, किन्तु वे नहीं सूंघतीं।
7) उनके हाथ हैं, किन्तु वे नहीं छूतीं; पैर हैं, किन्तु वे नहीं चलतीं। उनके कण्ठ से एक भी शब्द नहीं निकलता।
8) जो उन्हें बनाते हैं, वे उनके सदृश बने और वे सब भी, जो उन पर भरोसा रखते हैं।
9) इस्राएल के पुत्रों! प्रभु का भरोसा करो, वही उनकी सहायता और ढाल है।
10) हारून की सन्तति! प्रभु का भरोसा करो। वही उनकी सहायता और ढाल है।
11) प्रभु के श्रद्धालु भक्तों! प्रभु का भरोसा करो। वही उनकी सहायता और ढाल है।
12) प्रभु हम को याद करता है; वह हमें आशीर्वाद प्रदान करेगा। वह इस्राएल के घराने को आशीर्वाद प्रदान करेगा; वह हारून के घराने को आशीर्वाद प्रदान करेगा;
13) वह प्रभु के श्रद्धालु भक्तों को आशीर्वाद प्रदान करेगा; चाहे वे बड़े हों या छोटे।
14) जिसने पृथ्वी और स्वर्ग बनाया है, वही प्रभु तुम्हें आशीर्वाद प्रदान करे।
15) प्रभु तुम को और तुम्हारी सन्तति को सम्पन्नता और उन्नति प्रदान करे।
16) स्वर्ग, प्रभु का स्वर्ग है; किन्तु उसने पृथ्वी मनुष्य को प्रदान की है।
17) मृतक प्रभु की स्तुति नहीं करते; वे सब अधोलोक जाते हैं।
18) किन्तु हम अभी और अनन्त काल तक प्रभु को धन्य कहते हैं।

अध्याय 116

1) मैं प्रभु को प्यार करता हूँ; क्योंकि वह मेरी पुकार सुनता है।
2) मैं जीवन भर उसका नाम लेता रहूँगा; क्योंकि उसने मेरी दुहाई पर ध्यान दिया।
3) मैं मृत्यु के बन्धनों से जकड़ा और अधोलोक के फन्दों में फँसा हुआ था। मैं संकट और शोक से घिरा हुआ था।
4) तब मैंने प्रभु का नाम ले कर पुकारा : ''प्रभु! मेरे प्राणों की रक्षा कर!''
5) प्रभु न्यायप्रिय और दयालु है; हमारा ईश्वर करुणामय है।
6) प्रभु निष्कपट लोगों की रक्षा करता है। मैं निस्सहाय हो गया था और उसने मेरा उद्धार किया।
7) मेरी आत्मा! तू फिर शान्त हो जा, क्योंकि प्रभु ने तेरा उपकार किया है।
8) उसने मुझे मृत्यु से छुड़ाया। उसने मेरे आँसू पोंछ डाले और मेरे पैरों को फिसलने नहीं दिया,
9) जिससे मैं जीवितों के देश में प्रभु के सामने चलता रहूँ।
10) यद्यपि मैंने कहा था, ''मैं अत्यन्त दुःखी हूँ'', तब भी मैंने भरोसा नहीं छोड़ा।
11) मैंने संकट में पड़ कर यह भी कहा था, ''कोई मनुष्य विश्वसनीय नहीं है''।
12) प्रभु के सब उपकारों के लिए मैं उसे क्या दे सकता हूँ?
13) मैं मुक्ति का प्याला उठा कर प्रभु का नाम लूँगा।
14) मैं प्रभु की सारी प्रजा के सामने प्रभु के लिए अपनी मन्नतें पूरी करूँगा।
15) अपने भक्तों की मृत्यु से प्रभु को भी दुःख होता है।
16) प्रभु! तूने मेरे बन्धन खोल दिये; क्योंकि मैं तेरा सेवक हूँ, तेरा सेवक, तेरी सेविका का पुत्र।
17) मैं प्रभु का नाम लेते हुए धन्यवाद का बलिदान चढ़ाऊँगा।
18) (१८-१९) येरुसालेम! मैं तेरे मध्य में ईश्वर के मन्दिर के प्रांगण में, प्रभु की सारी प्रजा के सामने प्रभु के लिए अपनी मन्नतें पूरी करूँगा। अल्लेलूया!

अध्याय 117

1) समस्त जातियों! प्रभु की स्तुति करो समस्त राष्ट्रों! उसकी महिमा गाओ;
2) क्योंकि हमारे प्रति उसका प्रेम समर्थ है। उसकी सत्यप्रतिज्ञता सदा-सर्वदा बनी रहती है। अल्लेलूया!

अध्याय 118

1) प्रभु का धन्यवाद करो, क्योंकि वह भला है। उसकी सत्यप्रतिज्ञता अनन्त काल तक बनी रहती है।
2) इस्राएल का घराना यह कहता जाये उसकी सत्यप्रतिज्ञता अनन्त काल तक बनी रहती है।
3) हारून का घराना यह कहता जाये- उसकी सत्यप्रतिज्ञता अनन्त काल तक बनी रहती है।
4) प्रभु के श्रद्धालु भक्त यह कहते जायें- उसकी सत्यप्रतिज्ञता अनन्त काल तक बनी रहती है।
5) संकट में मैंने प्रभु को पुकारा। प्रभु ने मेरी सुनी और मेरा उद्धार किया।
6) प्रभु ने मेरी सुनी और मेरा उद्धार किया।
7) प्रभु मेरे साथ है, वह मेरी सहायता करता है। मैं अपने शत्रुओं का डट कर सामना करता हूँ।
8) मनुष्यों पर भरोसा रखने की अपेक्षा प्रभु की शरण जाना अच्छा है।
9) शासकों पर भरोसा रखने की अपेक्षा प्रभु की शरण जाना अच्छा है।
10) सब राष्ट्रों ने मुझे घेर लिया था- मैंने प्रभु के नाम पर उन्हें तलवार के घाट उतारा।
11) उन्होंने मुझे चारों ओर से घेर लिया था- मैंने प्रभु के नाम पर उन्हें तलवार के घाट उतारा।
12) उन्होंने मुझे मधुमक्खियों की तरह घेर लिया था। वे काँटों की आग की तरह शीघ्र ही बुझ गये- मैंने प्रभु के नाम पर उन्हें तलवार के घाट उतारा।
13) वे मुझे धक्का दे कर गिराना चाहते थे, किन्तु प्रभु ने मेरी सहायता की।
14) प्रभु ही मेरा बल है और मेरे गीत का विषय, उसने मेरा उद्धार किया।
15) धर्मियों के शिविरों में आनन्द और विजय के गीत गाये जाते हैं।
16) प्रभु का दाहिना हाथ महान् कार्य करता है; प्रभु का दाहिना हाथ विजयी है, प्रभु का दाहिना हाथ महान् कार्य करता है।
17) मैं नहीं मरूँगा, मैं जीवित रहूँगा, और प्रभु के कार्यों का बखान करूँगा।
18) प्रभु ने मुझे कडा दण्ड दिया, किन्तु उसने मुझे मरने नहीं दिया।
19) मेरे लिए मन्दिर के द्वार खोल दो, मैं उस में प्रवेश कर प्रभु को धन्यवाद दूँगा।
20) यह प्रभु का द्वार है, इस में धर्मी प्रवेश करते हैं।
21) मैं तुझे धन्यवाद देता हूँ; क्योंकि तूने मेरी सुनी और मेरा उद्धार किया है।
22) कारीगरों ने जिस पत्थर को निकाल दिया था, वह कोने का पत्थर बन गया है।
23) यह प्रभु का कार्य है, यह हमारी दृष्टि में अपूर्व है।
24) यह प्रभु का ठहराया हुआ दिन है, हम आज प्रफुल्लित हो कर आनन्द मनायें।
25) प्रभु! हमारा उद्धार कर। प्रभु! हमें सुख-शान्ति प्रदान कर।
26) धन्य है वह, जो प्रभु के नाम पर आता है! हम प्रभु के मन्दिर से तुम्हें आशीर्वाद देते हैं।
27) प्रभु ही ईश्वर है। उसने हमें ज्योति प्रदान की है। हाथ में डालियाँ लिये, जुलूस बना कर, वेदी के कोनों तक आगे बढ़ो।
28) तू ही मेरा ईश्वर है! मैं तुझे धन्यवाद देता हूँ। मेरे ईश्वर! मैं तेरी स्तुति करता हूँ।
29) प्रभु का धन्यवाद करो, क्योंकि वह भला है। उसकी सत्यप्रतिज्ञता अनन्त काल तक बनी रहती है।

अध्याय 119

1) धन्य हैं वे, जो निर्दोष जीवन बिताते हैं, जो प्रभु की संहिता के मार्ग पर चलते हैं!
2) धन्य हैं वे, जो उसके आदेशों का पालन करते और उन्हें हृदय से चाहते हैं,
3) जो अधर्म नहीं करते और उसके बताये हुए मार्ग पर चलते हैं!
4) तूने इसलिए अपना विधान घोषित किया कि हम उसका पूरा-पूरा पालन करें।
5) ओह! मैं तेरे आदेश पूरे करने में सदा दृढ़ बना रहूँ।
6) यदि मैं तेरी आज्ञाओं का ध्यान करता रहूँगा, तो मुझे कभी हताश नहीं होना पड़ेगा।
7) मैं तेरे न्यायसंगत निर्णयों का अध्ययन करते हुए निष्कपट हृदय से तेरा स्तुतिगान करता रहूँगा।
8) मैं तेरे आदेशों का पालन करता हूँ, तू कभी मेरा परित्याग न कर।
9) तेरी शिक्षा का पालन करने से ही नवयुवक निर्दोष आचरण कर सकता है।
10) मैं सारे हृदय से तुझे खोजता रहा, मुझे अपनी आज्ञाओं के मार्ग से भटनके न दे।
11) मैंने तेरी शिक्षा अपने हृदय में सुरिक्षत रखी, जिससे मैं तेरे विरुद्ध पाप न करूँ।
12) प्रभु! तू धन्य है। मुझे अपनी संहिता की शिक्षा दे।
13) मेरा कण्ठ तेरे सब नियमों का बखान करता रहा।
14) धन-सम्पत्ति की अपेक्षा मुझे तेरे आदेशों के पालन से अधिक आनन्द मिला।
15) मैं तेरी विधियों का मनन करूँगा, मैं तेरे मार्गों का ध्यान रखूँगा।
16) तेरी संहिता मुझे अपार आनन्द प्रदान करती है, मैं तेरी शिक्षा कभी नहीं भुलाऊँगा।
17) अपने सेवक को आशिष प्रदान कर, जिससे मैं जीवित रहूँ और तेरी शिक्षा का पालन करूँ।
18) मेरी आँखों को ज्योति प्रदान कर, जिससे मैं तेरी संहिता की महिमा देख सकूँ।
19) मैं पृथ्वी पर परदेशी हूँ, अपनी आज्ञाओं को मुझ से न छिपा।
20) मेरी आत्मा सदा-सर्वदा तेरे नियमों के लिए तरसती है।
21) तू उन घमण्डी शापितों को धमकाता है, जो तेरी आज्ञाओं से दूर भटक जाते हैं।
22) मुझे अपमानित और तिरस्कृत न होने दें, क्योंकि मैंने तेरे आदेशों का पालन किया।
23) चाहे शासक मिल कर मेरी निन्दा करें, किन्तु मैं, तेरा सेवक तेरी संहिता का मनन करता हूँ।
24) तेरे आदेश मुझे अपार आनन्द प्रदान करते हैं, तेरा विधान मेरा परामर्शदाता है।
25) मेरी आत्मा धूल में पड़ी हुई है, अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार मुझे नवजीवन प्रदान कर।
26) मैंने अपना आचरण तेरे सामने खोल कर रख दिया और तूने मुझे उत्तर दिया। अब मुझे अपनी संहिता की शिक्षा प्रदान कर।
27) मुझे अपनी आज्ञाओं का मार्ग समझा और मैं तेरे अपूर्व कार्यों का मनन करूँगा।
28) मेरी आत्मा दुःख के आँसू बहाती है; अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार मुझे सान्त्वना दे।
29) कपट के मार्ग से मुझे दूर रख और अपनी संहिता पर चलने की कृपा प्रदान कर।
30) मैंने सत्य का मार्ग चुना और तेरे निर्णयों को हृदयंगम किया है।
31) मैं तेरे आदेशों का पालन करता हूँ। प्रभु! मुझे निराश न होने दे।
32) मैं तेरी आज्ञाओं के मार्ग पर चलता हूँ, क्योंकि तू मुझ में नवजीवन का संचार करता है।
33) प्रभु! मुझे अपने विधान के मार्ग की शिक्षा प्रदान कर, मैं जीवन भर उस पर चलता रहूँगा।
34) मुझे ऐसी शिक्षा दे, जिससे मैं सारे हृदय से तेरी संहिता का पालन करता रहूँ।
35) मुझे अपनी आज्ञाओं के मार्ग पर ले चल; क्योंकि वे मुझे आनन्द प्रदान करती हैं।
36) मेरे हृदय में धन-सम्पत्ति का नहीं, बल्कि अपने आदेशों का अनुराग रोपने की कृपा कर।
37) संसार की माया से मेरी दृष्टि हटा, मुझे अपने मार्ग द्वारा नवजीवन प्रदान कर।
38) अपने सेवक के लिए अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर और लोग तुझ पर श्रद्धा रखेंगे।
39) मुझ से अपमान दूर कर, मैं उस से डरता हूँ; क्योंकि तेरे निर्णय कल्याणकारी हैं।
40) मुझे तेरी आज्ञाएँ हृदय से प्रिय हैं; तू अपने न्याय के अनुरूप मुझे नवजीवन प्रदान कर।
41) प्रभु! तेरा प्रेम मुझे मिलता रहे अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार मेरा उद्धार कर।
42) तब मैं अपने निन्दकों को निरुत्तर कर दूँगा। मैं तेरी प्रतिज्ञा पर निर्भर रहता हूँ।
43) मेरे मुख को सत्य-वचन से वंचित न कर, क्योंकि मुझे तेरे नियमों का भरोसा है।
44) मैं निरन्तर और सदा-सर्वदा तेरी संहिता का पालन करूँगा।
45) मैं सहज रूप से आगे बढ़ता रहूँगा, क्योकि मैं तेरी विधियों का मनन करता हूँ।
46) मैं राजाओं के सामने तेरे आदेशों का बखान करूँगा। मुझे किसी प्रकार का संकोच नहीं होगा।
47) तेरी आज्ञाएँ मुझे अपार आनन्द प्रदान करती हैं। मैं उन्हें सारे हृदय से चाहता हूँ।
48) मैं तेरी आज्ञाओं को करबद्ध प्रणाम करता हूँ। मैं तेरी संहिता का मनन करूँगा।
49) अपने सेवक से की हुई प्रतिज्ञा को स्मरण कर। इसके द्वारा तूने मुझे आशा प्रदान की।
50) यह विपत्ति में मेरी सान्त्वना है, क्योंकि तेरी शिक्षा मुझे नवजीवन प्रदान करती है।
51) घमण्डियों ने मुझ पर व्यंग्य किया, किन्तु मैं तेरी संहिता से विमुख नहीं हुआ।
52) प्रभु! मैं तेरे प्राचीन नियमों का स्मरण करता हूँ, इन से मुझे सान्त्वना मिलती है।
53) विधर्मी तेरी संहिता की उपेक्षा करते हैं, यह देख कर मुझे क्षोभ होता है।
54) पृथ्वी पर मेरे अस्थायी निवास में तेरी संहिता मेरे भजनों का विषय बन गयी है।
55) प्रभु! मैं रात को तेरा नाम स्मरण करता हूँ, जिससे मैं तेरी संहिता के अनुसार जीवन बिताऊँ।
56) यही मेरे लिए उचित है कि मैं तेरे नियमों का पालन करूंँ।
57) प्रभु! मैंने कहा : मेरा भाग्य यह है कि मैं तेरी शिक्षा का पालन करूँ।
58) मैं सारे हृदय से तुझ से प्रार्थना करता हूँ। अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार मुझ पर कृपा दृष्टि कर।
59) मैंने अपने आचरण का विचार किया। मैंने तेरे नियमों के अनुसार चलने का संकल्प किया।
60) मैंने विलम्ब नहीं किया। मैं तेरी आज्ञाओं का पालन करने के लिए तत्पर रहा।
61) विधर्मियों ने मुझे अपने जाल में फँसा लिया, किन्तु मैंने संहिता को नहीं भुलाया।
62) तेरे न्यायसंगत निर्णयों के कारण मैं आधी रात को उठ कर तेरी स्तुति करता हूँ।
63) मैं तेरे श्रद्धालु भक्तों का सत्संग करता हूँ, जो तेरी आज्ञाओं का पालन करते हैं।
64) प्रभु! पृथ्वी तेरी सत्यप्रतिज्ञता से परिपूर्ण है। मुझे अपनी संहिता की शिक्षा प्रदान कर।
65) प्रभु! तूने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अपने सेवक का उपकार किया है।
66) मुझे विवेक और ज्ञान प्रदान कर; क्योंकि मुझे तेरी आज्ञाओं पर विश्वास है।
67) मैं अपमानित होने से पहले भटक गया था। अब मैं तेरे आदेशों का पालन करता हूँ।
68) तू भला है, हितकारी है। मुझे अपनी संहिता की शिक्षा प्रदान कर।
69) घमण्डियों ने मुझ पर झूठे आरोप लगाये; किन्तु मैं सारे हृदय से तेरे विधान का पालन करता हूँ।
70) उनकी बुद्धि जड़ और कुण्ठित है। तेरी संहिता मुझे अपार आनन्द प्रदान करती है।
71) अच्छा हुआ कि मुझे अपमानित किया गया, मैंने तेरी आज्ञाओं का पालन करना सीखा।
72) सोने-चाँदी की सहस्रों मुहरों की अपेक्षा मुझे तेरी संहिता कहीं अधिक वांछनीय है।
73) तेरे हाथों ने मुझे बनाया और गढ़ा; मुझे सद्बुद्धि प्रदान कर और मैं तेरी आज्ञाओं का अध्ययन करूँगा।
74) तेरे भक्त मुझे देख कर आनन्दित हैं; क्योंकि मुझे तेरी प्रतिज्ञा का भरोसा है।
75) प्रभु! मैं मानता हूँ कि तेरे निर्णय न्यायसंगत हैं। यह उचित ही हुआ कि मुझे अपमानित किया गया।
76) तेरा प्रेम मुझे सान्त्वना प्रदान करता रहे, जैसा कि तूने अपने सेवक से प्रतिज्ञा की है।
77) तेरी असीम अनुकम्पा मुझे मिलती रहे, जिससे मैं जीवित रहूँ; क्योंकि तेरी संहिता मुझे परमप्रिय है।
78) घमण्डियों ने मुझ पर झूठा आरोप लगाया, वे निराश हों। मैं तेरी आज्ञाओं का मनन करूँगा।
79) तेरे श्रद्धालु भक्त मेरा साथ दें और वे भी, जो तेरा विधान जानते हैं।
80) मैं तेरी संहिता के पालन में दृढ़ बना रहूँ। कहीं ऐसा न हो कि मुझे निराश होना पड़े।
81) मैं तेरी मुक्ति के लिए तरसता रहता हूँ, मुझे तेरी प्रतिज्ञा का भरोसा है।
82) मेरी आँखें तेरी प्रतिज्ञा की राह देखती रहती है। मैं कहता रहता हूँ : ''तू मुझे कब सान्त्वना देगा?''
83) मैं धुँए में सिकुड़ी हुई मशक-जैसा बन गया हूँ; किन्तु मैंने तेरी संहिता नहीं भुलायी।
84) मेरी यह दशा कब तक रहेगी? तू कब मेरे अत्याचारियों का न्याय करेगा?
85) घमण्डियों ने तेरी संहिता की उपेक्षा करते हुए मेरे लिए गड्ढ़ा खोदा।
86) तेरी आज्ञाएँ विश्वसनीय हैं। मेरी सहायता कर; लोग मुझ पर अकारण अत्याचार करते हैं।
87) पृथ्वी पर से मेरा अस्तित्व प्रायः मिट गया है; किन्तु मैंने तेरी आज्ञाओं का परित्याग नहीं किया।
88) अपनी सत्यप्रतिज्ञता के अनुरूप मुझे नवजीवन प्रदान कर और मैं तेरी शिक्षा का पालन करता रहूँगा।
89) प्रभु! तेरी प्रतिज्ञा सदा-सर्वदा बनी रहती है। वह आकाश की तरह चिरस्थायी है।
90) तेरी सत्यप्रतिज्ञता पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनी रहती है। तेरे द्वारा स्थापित पृथ्वी आज तक अचल है।
91) तेरी इच्छा से सब कुछ बना हुआ है, क्योंकि विश्व तेरी आज्ञा मानता है।
92) यदि तेरी संहिता से मुझे अपार आनन्द नहीं मिला होता, तो मैं अपनी विपत्ति में मर गया होता।
93) मैं तेरी आज्ञाएँ कभी नहीं भुलाऊँगा; क्योंकि उनके द्वारा तूने मुझे नवजीवन प्रदान किया।
94) मैं तेरा ही हूँ, मेरा उद्धार कर; क्योंकि मैं तेरे आदेशों का पालन करना चाहता हूँ।
95) दुष्ट जन मेरा सर्वनाश करना चाहते थे; किन्तु मैं तेरी आज्ञाओं का मनन करता हूँ।
96) मैंने देखा कि सब पूर्णताएँ ससीम हैं; किन्तु तेरी संहिता की सीमा नहीं।
97) प्रभु! तेरी संहिता मुझे कितनी प्रिय है! मैं प्रतिदिन उसका मनन करता हूँ।
98) तेरे आदेश सदा मेरे सामने रहते हैं, इसलिए मैं अपने शत्रुओं से अधिक समझदार हूँ।
99) मैं तेरी शिक्षा का मनन किया करता हूँ, इसलिए मैं अपने शिक्षकों से अधिक बुद्धिमान् हूँ।
100) मैंने तेरी आज्ञाओं का पालन किया है, इसलिए मैं वयोवृद्धों से अधिक विवेकशील हूँ।
101) तेरे नियमों का पालन करने के लिए मैं कुमार्ग से दूर रहा हूँ।
102) मैं तेरी आज्ञाओं के मार्ग से नहीं भटका हूँ; क्योंकि तूने स्वयं मुझे शिक्षा दी है।
103) मुँह में टपकने वाले मधु की अपेक्षा तेरी शिक्षा मेरे लिए अधिक मधुर है।
104) तेरी आज्ञाओं से मुझे विवेक मिला, इसलिए मैं असत्य के मार्ग से घृणा करता हूँ।
105) तेरी शिक्षा मुझे ज्योति प्रदान करती और मेरा पथ आलोकित करती है।
106) मैंने शपथ खायी और इसपर दृढ़ रहता हूँ कि मैं तेरे न्यायसंगत निर्णयों का पालन करूँगा।
107) प्रभु! मेरा बहुत अधिक अपमान किया गया है, अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार मुझे नवजीवन प्रदान कर।
108) प्रभु! मेरी प्रार्थनाएं स्वीकार करने की कृपा कर, मुझे अपने नियमों की शिक्षा प्रदान कर।
109) मैं निरन्तर हथेली पर जान रखता हूँ; लेकिन मैंने तेरी संहिता नहीं भुलायी है।
110) विधर्मियों ने मेरे लिए जाल बिछाया है, किन्तु मैं तेरे आदेशों से नहीं भटका हूँ।
111) तेरी शिक्षा मेरी सदा बनी रहने वाली विरासत है, इस में मेरा हृदय रमता है।
112) मैं सदा, जीवन के अन्त तक, तेरे सपनों पर चलने के लिए दृढ़संकल्प हूँ।
113) मैं कपटी व्यक्तियों से घृणा करता हूँ।
114) तू ही मेरा आश्रय और ढाल है! मुझे तेरी प्रतिज्ञा का भरोसा है।
115) दुष्टो! मुझ से दूर हटो! मैं अपने ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करूँगा।
116) अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार मुझे सँभाल और मैं जीवित रहूँगा, मुझे अपनी आशा से निराश न होने दे।
117) मुझे सँभाल और मेरा उद्धार हो जायेगा, मैं तेरी संहिता का मनन करता रहूँगा।
118) जो तेरी संहिता से दूर भटकते हैं, तू उनका तिरस्कार करता है; क्योंकि उनका कपटपूर्व व्यवहार व्यर्थ है।
119) पृथ्वी के सब दुर्जनों को तू कूड़ा-करकट समझता है; इसलिए मैं तेरे नियमों को हृदय से चाहता हूँ।
120) तेरे सामने मेरा शरीर आतंक से काँपता है; मुझे तेरे निर्णयों का भय बना रहता है।
121) मैंने न्याय और धार्मिकता का आचरण किया है; मुझे मेरे अत्याचारियों के हाथ न पड़ने दे।
122) अपने सेवक की सुख-शान्ति की रक्षा कर, जिससे घमण्डी मुझ पर अत्याचार न करें।
123) तेरी मुक्ति और तेरी न्यायसंगत प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिए मेरी आँखें तरसती रहती हैं।
124) अपनी सत्यप्रतिज्ञता के अनुरूप अपने सेवक से व्यवहार कर और मुझे अपनी संहिता की शिक्षा प्रदान कर।
125) मैं तेरा सेवक हूँ; मुझे विवेकशील बना और मैं तेरे आदेशों का ज्ञान प्राप्त करूँगा।
126) प्रभु! हस्तक्षेप करने का समय आ गया है। तेरी संहिता का उल्लंघन किया जाता है।
127) सोने, परिष्कृत सोने की अपेक्षा मुझे तेरी आज्ञाएँ अधिक प्रिय हैं।
128) मैं तेरे सभी नियम न्यायसंगत मानता और असत्य के सब मार्गों से घृणा करता हूँ।
129) तेरे नियम अपूर्व हैं, इसलिए मैं उनका पालन करता हूँ।
130) तेरी शिक्षा की व्याख्या ज्योति प्रदान करती है; वह अशिक्षितों को भी विवेकशील बनाती है।
131) मैं आह भर कर बड़ी उत्सुकता से तेरी आज्ञाओं के लिए तरसता रहता हूँ।
132) मुझ पर दयादृष्टि कर, जैसा कि तू अपने भक्तों के लिए करता आया है।
133) अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार मेरे कदमों को दृढ़ता प्रदान कर। किसी भी बुराई का मुझ पर अधिकार न होने दे।
134) मुझे मनुष्यों के अत्याचार से मुक्त कर, जिससे मैं तेरी आज्ञाओं का पालन करूँ।
135) अपने सेवक पर दयादृष्टि कर; मुझे अपने आदेशों की शिक्षा प्रदान कर।
136) मेरी आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी, क्योंकि लोग तेरी संहिता का पालन नहीं करते।
137) प्रभु! तू न्यायी है; तेरे निर्णय सही हैं।
138) न्याय के अनुसार और पूरी सच्चाई से तूने अपने आदेशों की घोषणा की है।
139) जब मेरे विरोधी तेरी शिक्षा भुलाते हैं, तो मेरा धर्मोत्साह मुझे खा जाता है।
140) तेरी शिक्षा पूर्ण रूप से विश्वसनीय है, तेरा सेवक उसे प्यार करता है।
141) दीन-हीन और तिरस्कृत होने पर भी मैंने तेरे नियमों को नहीं भुलाया।
142) तेरा न्याय चिरस्थायी न्याय है, तेरी संहिता मूर्तिमान् सत्य है।
143) मैं संकट और दुःख से घिरा हुआ हूँ। तब भी तेरी आज्ञाएँ मुझे आनन्द प्रदान करती हैं।
144) तेरे निर्णय न्याययुक्त और चिरस्थायी हैं। मुझे विवेक प्रदान कर और मैं जीवित रहूंँगा।
145) प्रभु! मैंने सारे हृदय से तुझे पुकारा, मेरी सुन। मैं तेरी संहिता का पालन करूँगा।
146) मैंने तेरी दुहाई दी, मेरा उद्धार कर और मैं तेरे आदेशों का पालन करूँगा।
147) मैं भोर से पहले तुझे पुकारता हूँ। मुझे तेरी प्रतिज्ञा का भरोसा है।
148) तेरी शिक्षा का मनन करने के लिए मेरी आँखें रात के पहरों में खुली रहीं।
149) अपनी सत्यप्रतिज्ञता के अनुरूप मेरी सुन। प्रभु! अपने निर्णय के अनुसार मुझे नवजीवन दे।
150) तेरी संहिता की उपेक्षा करने वाले दुष्ट अत्याचारी मेरे निकट आ रहे हैं।
151) प्रभु! तू भी तो निकट है। तेरी सब आज्ञाएँ विश्वसनीय हैं।
152) मैं बहुत पहले से यह जानता हूँ कि तूने सदा के लिए अपनी शिक्षा स्थापित की है।
153) मेरी विपत्ति पर दृष्टि डाल और मेरा उद्धार कर; क्योंकि मैंने तेरी संहिता को नहीं भुलाया।
154) मेरे पक्ष का समर्थन कर और मेरी रक्षा कर; अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार मुझे नवजीवन प्रदान कर।
155) मुक्ति विधर्मियों से दूर है; क्योंकि उन्होंने तेरी संहिता की उपेक्षा की।
156) प्रभु! तेरी कृपा असीम है; अपने निर्णय के अनुसार मुझे नवजीवन दे।
157) मेरे अत्याचारी और विरोधी अनेक हैं, किन्तु मैं तेरी संहिता से विमुख नहीं हुआ।
158) विश्वासघातियों को देख कर मुझे घृणा होती है; क्योंकि उन्होंने तेरी शिक्षा का पालन नहीं किया।
159) देख कि मैं तेरे आदेशों से कितना अनुराग करता हूँ। प्रभु! अपनी सत्यप्रतिज्ञता के अनुरूप मुझे नवजीवन दे।
160) तेरी शिक्षा सत्य पर आधारित है, तेरे न्याय का प्रत्येक निर्णय अपरिवर्तनीय है।
161) शासकों ने मुझ पर अकारण अत्याचार किया, किन्तु मेरा हृदय केवल तेरी शिक्षा का उल्लंघन करने से डरता है।
162) मैं तेरी प्रतिज्ञा के कारण वैसे ही आनन्दित हूँ, जैसे कोई, बड़ा खजाना मिलने पर आनन्दित है।
163) मैं सारे हृदय से असत्य से घृणा करता हूँ, तेरी संहिता ही मुझे परमप्रिय है।
164) तेरे न्यायमुक्त निर्णयों के कारण मैं दिन में सात बार तेरी स्तुति करता हूंँ।
165) तेरी संहिता के प्रेमियों को अपार शान्ति प्रिय है, वे कभी विचलित नहीं होते।
166) प्रभु! तुझ से मुक्ति का भरोसा है; मैं तेरी आज्ञाओं का पालन करता रहा।
167) मैं तेरे आदेशों को पूरा करता रहा, मैं उन को बहुत प्यार करता हूँ।
168) तू मेरा आचरण जानता है; तू जानता है कि मैं तेरी संहिता का पालन करता आया हूँ।
169) ्रप्रभु! मेरी पुकार तेरे पास पहुंँचे, अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार मुझे विवेक प्रदान कर।
170) मेरी विनती तेरे पास पहुँचे, अपने वचन के अनुसार मेरा उद्धार कर।
171) मेरा कण्ठ तेरा स्तुतिगान करता रहे, क्योंकि तू मुझे अपनी संहिता की शिक्षा देता है।
172) मेरी वाणी तेरे आदेशों का स्तुतिगान करती रहे, क्योंकि तेरी सब आज्ञाएँ न्यायमुक्त हैं।
173) तेरा हाथ मेरी सहायता के लिए तत्पर रहे, क्योंकि मैंने तेरे नियम चुने हैं।
174) प्रभु! मुझे तुझ से मुक्ति का भरोसा है; मुझे तेरी संहिता से अपार आनन्द मिलता है।
175) मैं तेरी स्तुति करने के लिए जीवित रहँू। तेरी आज्ञाएँ मेरा पथप्रदर्शन करती रहें।
176) मैं खोयी हुई भेड़ की तरह भटक रहा हूँ, अपने सेवक को खोज ले; क्योंकि मैंने तेरी आज्ञाएँ नहीं भुलायीं।

अध्याय 120

1) मैंने संकट में प्रभु को पुकारा और उसने मुझे उत्तर दिया।
2) ''प्रभु! झूठ बोलने वाले होंठों से, कपटपूर्ण जिह्वा से मेरी रक्षा कर''।
3) कपटी जिह्वा! तुम को कौन-सा दण्ड दिया जाये? तुम्हें और क्या किया जाये?
4) वह योद्धा के पैने बाणों से, झाड़-झंखाड़ की आग से तुम्हें दण्ड देगा।
5) हाय! प्रवासी के रूप में मैं मेशेक में रहता हूँ; मैं केदार प्रदेश के तम्बुओं के बीच निवास करता हूँ।
6) मैं बहुत अधिक समय तक उन लोगों के साथ रह चुका हूँ, जो शान्ति से घृणा करते हैं।
7) मैं शान्तिप्रिय हूँ, किन्तु जब मैं शान्ति की बात कहता हूँ, तो वे युद्ध का उपक्रम करते हैं।

अध्याय 121

1) मैं अपनी आँखें पर्वतों की ओर उठता हूँ। क्या वहाँ से मुझे सहायता मिलेगी?
2) जिसने स्वर्ग और पृथ्वी को बनाया है, वही प्रभु मेरी सहायता करता है।
3) वह तुम्हारा पैर फिसलने न दे, तुम्हारा रक्षक न सोये।
4) नहीं, इस्राएल का रक्षक न तो सोता है और न झपकी लेता है।
5) प्रभु ही तुम्हारा रक्षक है। वह छाया की तरह तुम्हारे दाहिने रहता है।
6) न तो दिन में सूर्य से तुम्हारी कोई हानि होगी और न रात चन्द्रमा से।
7) प्रभु तुम्हें हर बुराई से बचायेगा, वह तुम्हारी आत्मा की रक्षा करेगा।
8) तुम जहाँ कहीं भी जाओगे, प्रभु तुम्हारी रक्षा करेगा, अभी और अनन्त काल तक।

अध्याय 122

1) मैं यह सुन कर आनन्दित हो उठाः ''आओ! हम ईश्वर के मन्दिर चलें''।
2) येरुसालेम! अब हम पहुँचे हैं, हमने तेरे फाटकों में प्रवेश किया है।
3) एक सुसंघटित नगर के रूप में येरुसालेम का निर्माण हुआ है।
4) यहाँ इस्राएल का वंश, प्रभु के वंश आते हैं। वे ईश्वर का स्तुतिगान करने आते हैं, जैसा कि इस्राएल को आदेश मिला है।
5) यहाँ न्याय के आसन, दाऊद के वंश के आसन संस्थापित हैं।
6) येरुसालेम के लिए शान्ति का यह वरदान माँगों : ''जो तुझ को प्यार करते हैं, वे सुखी हों।
7) तेरी चारदीवारी में शान्ति बनी रहे! तेरे भवनों में सरुक्षा हो!''
8) मेरे भाई और मित्र यहाँ रहते हैं, इसलिए कहता हूँ : ''तुझ में शान्ति बनी रहे''।
9) हमारा प्रभु-ईश्वर यहाँ निवास करता है, इसलिए मैं तेरे कल्याण की मंगलकामना करता हूँ।

अध्याय 123

1) मैंने तेरी ओर आँखे उठायी, तेरी ओर, जो स्वर्ग में विराजमान है।
2) जिस तरह दासों की आँखें स्वामी के हाथ पर टिकी रहती हैं, जिस तरह दासी की आँखें स्वामिनी के हाथ पर टिकी रहती हैं, उसी तरह जब तक प्रभु-ईश्वर दया न करे, हमारी आँखें उस पर टिकी हुई हैं।
3) हम पर दया कर, प्रभु! हम पर दया कर! हम तिरस्कार सहते-सहते तंग आ गये हैं।
4) हमारी आत्मा धनियों के उपहास और घमण्डियों के तिरस्कार से तंग आ गयी है।

अध्याय 124

1) यदि प्रभु ने हमारा साथ नहीं दिया होता- इस्राएल यह दोहराये-
2) यदि प्रभु ने हमारा साथ नहीं दिया होता, तो जब लोगों ने हम पर चढ़ाई की
3) और हम पर उनका क्रोध भड़का, तब वे हमें जीवित ही निगल गये होते।
4) बाढ़ हमें डुबा गयी होती, प्रचण्ड धारा ने हमें बहा दिया होता
5) और चारों ओर उमड़ती लहरों में हम डूब कर मर गये होते।
6) धन्य है प्रभु! उसने हमें उनके दाँतों का शिकार नहीं होने दिया।
7) हमारी आत्मा, पक्षी की तरह, बहेलिये के फन्दे से निकल गयी है। फन्दा टूट गया और हम निकल भागे।
8) प्रभु का नाम ही हमारा सहारा है। उसने स्वर्ग और पृथ्वी को बनाया है।

अध्याय 125

1) जो प्रभु पर भरोसा रखते हैं, वे सियोन पर्वत के सदृश हैं, जो अटल है और सदा बना रहता है।
2) येरुसालेम पर्वतों से घिरा हुआ है : प्रभु इसी तरह अपनी प्रजा को घेरे रहता है, अभी और अनन्त काल तक!
3) धर्मियों के देश पर अयोग्य राजदण्ड का भार नहीं टिकेगा। धर्मी अपराध की ओर अपना हाथ बढ़ायेंगे।
4) प्रभु! भक्तों की भलाई कर। निष्कपट मनुष्यों की भलाई कर।
5) किन्तु जो कुटिल मार्गों पर भटकते हैं, प्रभु उन्हें कुकर्मियों के साथ निकालेगा। इस्राएल को शान्ति!

अध्याय 126

1) जब प्रभु ने सियोन के निर्वासितों को लौटाया, तो हमें लगा कि हम स्वप्न देख रहे हैं।
2) हमारे मुख पर हँसी खिल उठी, हम आनन्द के गीत गाने लगे। गैर-यहूदी आपस में यह कहते थे : ÷÷प्रभु ने उनके लिए अपूर्व कार्य किये हैं''।
3) उसने वास्तव में हमारे लिए अपूर्व कार्य किये हैं और हम आनन्दित हो उठे।
4) प्रभु! मरुभूमि की नदियों की तरह हमारे निर्वासितों को लौटा दे।
5) जो रोते हुए बीज बोते हैं, वे गाते हुए लुनते हैं;
6) जो बीज ले कर जाते हैं, जो रोते हुए जाते हैं, वे पूले लिये लौटते हैं, वे गाते हुए लौटते हैं।

अध्याय 127

1) यदि प्रभु ही घर नहीं बनाये, तो राजमन्त्रियों का श्रम व्यर्थ है। यदि प्रभु ही नगर की रक्षा नहीं करे, तो पहरेदार व्यर्थ जागते हैं।
2) कठोर परिश्रम की रोटी खानेवालो! तुम व्यर्थ ही सबेरे जागते और देर से सोने जाते हो; वह अपने सोये हुए भक्त का भरण-पोषण करता है।
3) पुत्र प्रभु द्वारा दी हुई विरासत है, सन्तति प्रभु द्वारा प्रदत्त पारितोषिक है।
4) तरुणाई के पुत्र योद्धा के हाथ में बाणों-जैसे हैं।
5) धन्य है वह मनुष्य, जिसने उन से अपना तरकश भर लिया है! जब उसे नगर के फाटकों पर शत्रुओं का सामना करना पड़ेगा, तो वह लज्जित नहीं होगा।

अध्याय 128

1) धन्य हैं वे, जो प्रभु पर श्रद्धा रखते और उसके मार्गों पर चलते हैं!
2) तुम अपने हाथ की कमाई से सुखपूर्वक जीवन बिताते हो।
3) तुम्हारी पत्नी तुम्हारे घर के आँगन में दाखलता की तरह फलती-फूलती है। तुम्हारी सन्तान जैतून की टहनियों की तरह तुम्हारे चौके की शोभा बढ़ाती है।
4) जो प्रभु पर श्रद्धा रखता है, उसे यही आशीर्वाद प्राप्त होता है।
5) प्रभु सियोन पर्वत पर से तुम्हें आशीर्वाद प्रदान करे, जिससे तुम जीवन भर येरुसालेम का कुशल मंगल
6) और अपने पोत्रों को देख सको। इस्राएल को शान्ति!

अध्याय 129

1) युवावस्था से मुझ पर बारम्बार अत्याचार किया गया है, -इस्राएल यह दोहराये -
2) युवावस्था से मुझ पर बारम्बार अत्याचार किया गया है, फिर भी वे मुझ पर हावी नहीं हुए।
3) हलवाहों ने मेरी पीठ पर हल चलाया, उन्होंने उस पर लम्बी रेखाएँ खींचीं।
4) प्रभु न्यायी है उसने विधर्मियों द्वारा बाँधी रस्सियों को काटा है।
5) जो सियोन से बैर करते हैं, वे लज्जित हो कर हट जायें।
6) वे छत पर उगी घास-जैसे हों, जो बढ़ने से पहले सूख जाती है।
7) उस से न तो घास काटने वाला अपना हाथ भरता और न पूले बाँधने वाला अपनी बाँहें।
8) उधर से गुजरने वाले यह नहीं कहते : ''प्रभु का आशीर्वाद आप पर हो; हम प्रभु के नाम पर आप को आशीर्वाद देते हैं।''

अध्याय 130

1) प्रभु! गहरे गर्त में से मैं तेरी दुहाई देता हूँ।
2) प्रभु! मेरी पुकार सुन, मेरी विनती पर ध्यान दे।
3) प्रभु! यदि तू हमारे अपराधों को याद रखेगा, तो कौन टिका रहेगा?
4) तू पापों को क्षमा करता है, इसलिए लोग तुझ पर श्रद्धा रखते हैं।
5) मैं प्रभु की प्रतीक्षा करता हूँ। मेरी आत्मा उसकी प्रतिज्ञा पर भरोसा रखती है।
6) भोर की प्रतीक्षा करने वाले पहरेदारों से भी अधिक मेरी आत्मा प्रभु की राह देखती है।
7) इस्राएल! प्रभु पर भरोसा रखो; क्योंकि दयासागर प्रभु उदारतापूर्वक मुक्ति प्रदान करता है।
8) वही इस्राएल का उसके सब अपराधों से उद्धार करेगा।

अध्याय 131

1) प्रभु! मेरे हृदय में अहंकार नहीं है। मैं महत्वाकांक्षी नहीं हूँ। मैं बड़ी-बड़ी योजनाओं के फेर में नहीं पड़ा और मैंने ऐसे कार्यों की कल्पना नहीं की, जो मेरी शक्ति से परे हैं।
2) माँ की गोद में सोये हुए दूध-छुड़ाये बच्चे के सदृश मेरी आत्मा शान्त और मौन है। ठीक उसी बच्चे की तरह मेरी आत्मा मुझ में है।
3) इस्राएल! प्रभु पर भरोसा रखो, अभी और अनन्त काल तक!

अध्याय 132

1) प्रभु! दाऊद को याद कर और उसके समस्त कष्टों को,
2) प्रभु के सामने उसकी शपथ को, याकूब के शक्तिमान् ईश्वर के प्रति उनकी मन्नत को :
3) ''मैं अपने घर में प्रवेश नहीं करूँगा, अपनी शय्या पर विश्राम नहीं करूँगा,
4) अपनी आँखों में नींद नहीं आने दूँगा, अपनी पलकों को झपकी लेने नहीं दूँगा,
5) जब तक कि मैं ईश्वर के लिए स्थान न पाऊँ, याकूब के शक्तिमान प्रभु के लिए निवास''।
6) हमने एफ्राता में मंजूषा के विषय में सुना और उसे यार के मैदान में पाया।
7) ''हम प्रभु के आवास को चलें, हम उसके पावदान को दण्डवत करें।
8) प्रभु! तू अपनी तेजस्वी मंजूषा के साथ अपने स्थायी आवास को चल।
9) तेरे याजक धार्मिकता के वस्त्र धारण करें, तेरे भक्त आनन्द के गीत गायें।
10) अपने सेवक दाऊद के कारण अपने अभिषिक्त को न त्याग।''
11) प्रभु ने शपथ खा कर दाऊद से प्रतिज्ञा की है। वह अपना वचन भंग नहीं करेगा। ''मैं तुम्हारे वंशज में से एक को तुम्हारे सिंहासन पर बैठाऊँगा।
12) यदि तुम्हारे पुत्र मेरे विधान पर चलेंगे और मेरे दिये हुए नियमों का पालन करेंगे, तो उनके पुत्र भी सदा-सर्वदा के लिए तुम्हारे सिंहासन पर बैठेंगे।''
13) क्योंकि प्रभु ने सियोन को चुना और अपने निवास के लिए चाहा :
14) ''यह मेरा स्थिरस्थायी निवास है, मैं यहीं रहूँगा, क्योंकि मैंने सियोन को चुना है।
15) ''मैं यहाँ के निवासियों को भरपूर भोजन प्रदान करूँगा, मैं इसके दरिद्रों को रोटी दे कर तृप्त करूँगा।
16) मैं इसके याजकों को कल्याण के वस्त्र पहनाऊँगा। इसके भक्त जन उल्लास के गीत गायेंगे।
17) मैं यहाँ दाऊद के लिए एक शक्तिशाली वंशज उत्पन्न करूँगा, अपने मसीह के लिए एक प्रदीप जलाऊँगा।
18) उसके शत्रुओं को लज्जित होना पड़ेगा, किन्तु उसके मस्तक पर मेरा मुकुट शोभायमान होगा।''

अध्याय 133

1) ओह! भाइयों का एक साथ रहना कितना भला है, कितना सुखद!
2) यह सिर पर सुगन्धित तेल-जैसा है, जो दाढ़ी पर, हारून की दाढ़ी पर उतरता है। जो उसके कुरते की गरदनी तक उतरता है।
3) यह हेरमोन पर्वत की ओस-जैसा है, जो सियोन के पर्वतों पर उतरती है। प्रभु वहाँ अपना आशीर्वाद प्रदान करता है-सदा-सर्वदा बना रहने वाला जीवन।

अध्याय 134

1) प्रभु के सब सेवकों! जो रात के समय मन्दिर में नियुक्त हो, प्रभु को धन्य कहो।
2) वेदी की ओर हाथ उठा कर प्रभु को धन्य कहो।
3) सियोन से वह प्रभु तुम को आशीर्वाद प्रदान करे, जिसने आकाश और पृथ्वी को बनाया है।

अध्याय 135

1) (१-२) अल्लेलूया! प्रभु के नाम की स्तुति करो! प्रभु के सेवकों! जो प्रभु के मन्दिर में, हमारे ईश्वर के प्रांगण में रहते हो, उसकी स्तुति करो।
3) प्रभु की स्तुति करो! वह भला है। उसके नाम की स्तुति करो! वह प्रेममय है।
4) प्रभु ने याकूब को चुना है; उसने इस्राएल को अपनी प्रजा बनाया है।
5) मैं जानता हूँ कि प्रभु महान है, हमारा प्रभु सब अन्य देवताओं से महान् है।
6) आकाश में, पृथ्वी पर, समुद्र्रों और उनकी गहराइयों में प्रभु जो चाहता है, वही करता है।
7) वह पृथ्वी की सीमान्तों से बादल ले आता और वर्षा के लिए बिजली चमकाता है। वह अपने भण्डारों से पवन निकालता है।
8) उसने मिस्र में मनुष्यों और पशुओं, दोनों के पहलौठों को मारा।
9) मिस्र! उसने तुझ में फिराउन और उसके सब सेवकों के विरुद्ध चिन्ह और चमत्कार दिखाये।
10) उसने बहुत से राष्ट्रों को हराया और शक्तिशाली राजाओं को मारा,
11) अमोरियों के राजा सीहोन को, बाशान के राजा ओग को और कनान के सब राजाओं को।
12) उसने उनका देश अपनी प्रजा इस्राएल को विरासत के रूप में दे दिया।
13) प्रभु तेरा नाम चिरस्थायी है। प्रभु तेरी स्मृति पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनी रहती है।
14) प्रभु अपनी प्रजा को न्याय दिलाता और अपने भक्तों पर दया करता है।
15) राष्ट्रों की देवमूर्तियाँ चाँदी और सोने की हैं, वे मनुष्यों द्वारा बनायी गयी हैं।
16) उनके मुख हैं, किन्तु वे नहीं बोलती; आँखें हैं, किन्तु वे नहीं देखती;
17) उनके कान हैं, किन्तु वे नहीं सुनतीं और वे साँस भी नहीं लेतीं।
18) जो उन्हें बनाते हैं, वे उनके सदृश बनेंगे और वे सब भी, जो उन पर भरोसा रखते हैं।
19) इस्राएल के घराने! प्रभु को धन्य कहो। हारून के घराने! प्रभु को धन्य कहो।
20) लेवी के घराने! प्रभु को धन्य कहो। तुम, जो प्रभु पर श्रद्धा रखते हो, प्रभु को धन्य कहो!
21) धन्य है सियोन का प्रभु, जो येरुसालेम में निवास करता है!

अध्याय 136

1) प्रभु की स्तुति करो; क्योंकि वह भला है। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
2) सर्वोच्च ईश्वर की स्तुति करो। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
3) सर्वोच्च प्रभु की स्तुति करो। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
4) उसी ने अपूर्व कार्य किये हैं। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
5) उसने अपनी प्रज्ञा से आकाश बनाया है। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
6) उसने पृथ्वी पर समुद्र स्थापित किया है। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
7) उसने महान् नक्षत्रों की रचना की है। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
8) उसने दिन का नियंत्रण करने के लिए सूर्य की सृष्टि की। उसका प्रेम अनन्तकाल तक बना रहता है।
9) रात्रि का नियन्त्रण करने के लिए चन्द्रमा और तारों की। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
10) उसने मिस्रियों के पहलौठों को मारा। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
11) वह उनके बीच में से इस्राएलियों को निकाल लाया। उसका प्रेम अनन्तकाल तक बना रहता है।
12) उसने हाथ बढ़ा कर अपने सामर्थ्य का प्रदर्शन किया। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
13) उसने लाल सागर को दो भागों में विभाजित किया। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
14) वह बीच में से इस्राएलियों को ले चला। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
15) उसने फिराउन और उसकी सेना को समुद्र में बहा दिया। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
16) वह अपनी प्रजा को मरूभूमि से हो कर ले चला। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
17) उसने शक्तिशाली राजाओं को हराया। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
18) उसने महान् राजाओं को मारा। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
19) अमोरियों के राजा सीहोन को। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
20) बाशान के राजा ओग को भी। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
21) उसने उनकी भूमि को विरासत के रूप में दे दिया। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
22) उसे विरासत के रूप में अपनी प्रजा इस्राएल को दे दिया। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
23) उसने हमारी विपत्ति में हमें याद किया। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
24) उसने हमें हमारे शत्रुओं के पंजे से छुड़ाया। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
25) वह सब प्राणियों को आहार देता है। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।
26) स्वर्ग के ईश्वर की स्तुति करो। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।

अध्याय 137

1) बाबुल की नदियों के तट पर बैठ कर हम सियोन की याद करते हुए रोते थे।
2) आसपास खड़े मजनँू के पेड़ों पर हमने अपनी वीणाएँ टाँग दी थीं।
3) जो लोग हमें बन्दी बना कर ले गये थे, वे हम से भजन गाने को कहते थे। हम पर अत्याचार करने वाले हम से आनन्द के गीत चाहते थे। वे हम से कहते थे : ''सियोन का कोई गीत सुनाओ''।
4) हम पराये देश में रहते हुए प्रभु का भजन कैसे गा कर सुनायें?
5) येरुसालेम! यदि मैं तुझे भुला दूं, तो मेरा दाहिना हाथ सूख जाये।
6) यदि मैं तुझे याद नहीं करूँ, यदि मैं येरुसालेम को अपना सर्वोत्तम आनन्द नहीं मानूँ, तो मेरी जीभ तालू से चिपक जाये।
7) प्रभु! एदोमियों को याद कर, जो येरुसालेम की पराजय के दिन कहते थे, ''ढ़ा दो, उसे नींव तक ढा दो''।
8) बाबुल की पुत्री! तेरा विनाश निश्चित है। धन्य है वह मनुष्य, जो तेरे साथ वैसा ही करेगा, जैसा कि तूने हमारे साथ किया है!
9) धन्य है वह मनुष्य, जो तेरे दुधमुँहे बच्चों को उठा कर चट्टान पर पटक देगा!

अध्याय 138

1) प्रभु! मैं सारे हृदय से तुझे धन्यवाद देता हूँ; क्योंकि तूने मेरी सुनी है। मैं स्वर्गदूतों के सामने तेरी स्तुति करता हूँ।
2) मैं तेरे पवित्र मन्दिर को दण्डवत् करता हूँ। मैं तेरे अपूर्व प्रेम की सत्यप्रतिज्ञा के कारण तेरे नाम का गुणगान करता हूँ। तूने पहले से भी अधिक अपनी सत्यप्रतिज्ञता का यश बढ़ाया है।
3) जिस दिन मैंने तुझे पुकारा, उस दिन तूने मेरी सुनी और मुझे आत्मबल प्रदान किया।
4) प्रभु! पृथ्वी भर के राजा तेरा गुण-गान करें, क्योंकि वे तेरे मुख की प्रतिज्ञाएँ सुन चुके हैं।
5) वे प्रभु के कार्यों का बखान करें, ''प्रभु की महिमा अपार है''।
6) प्रभु महान् है। वह दीनों पर दया-दृष्टि करता और धमण्डियों से मुँह फेर लेता है।
7) विपत्ति में तू मुझे नवजीवन प्रदान करता और मेरे शत्रुओं पर हाथ उठाता है। तेरा दाहिना हाथ मेरा उद्धार करता है।
8) प्रभु अन्त तक तेरा साथ देगा। प्रभु! तेरी सत्यप्रतिज्ञता चिरस्थायी है। अपनी सृष्टि को सुरक्षित रखने की कृपा कर।

अध्याय 139

1) प्रभु! तूने मेरी थाह ली है; तू मुझे जानता है।
2) मैं चाहे लेटूँ या बैठूँ, तू जानता है। तू दूर रहते हुए भी मेरे विचार भाँप लेता है।
3) मैं चाहे लेटूँ या बैठूं, तू सब जानता है।
4) मेरे मुख से बात निकल ही नहीं पायी कि प्रभु! तू उसे पूरी तरह जान गया।
5) तू मुझे आगे और पीछे से सँभालता है। तेरा हाथ मेरी रक्षा करता रहता है।
6) तेरी यह सूक्ष्म दृष्टि मेरी समझ के परे है। यह उतनी ऊँची है कि मैं इसे छू नहीं पाता।
7) मैं कहाँ जा कर तुझ से अपने को छिपाऊँ? मैं कहाँ भाग कर तेरी आँखों से ओझल हो जाऊँ,
8) यदि मैं आकाश तक चढूँ, तो तू वहाँ है। यदि मैं अधोलोक में लेटँू, तो तू वहाँ है।
9) यदि मैं उषा के पंखों पर चढ़ कर समुद्र के उस पार बस जाऊँ,
10) तो वहाँ भी तेरा हाथ मुझे ले चलता, वहाँ भी तेरा दाहिना हाथ मुझे सँभालता है
11) यदि मैं कहूँ : ''अन्धकार मुझे छिपाये और रात मुझे चारों ओर घेर ले'',
12) तो तेरे लिए अन्धकार अंधेरा नहीं है और रात दिन की तरह प्रकाशमान है। अन्धकार तेरे लिए प्रकाश-जैसा है।
13) तूने मेरे शरीर की सृष्टि की; तूने माता के गर्भ में मुझे गढ़ा।
14) मैं तेरा धन्यवाद करता हूँ - मेरा निर्माण अपूर्व है। तेरे कार्य अद्भुत हैं, मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ।
15) जब मैं अदृश्य में बन रहा था, जब मैं गर्भ के अन्धकार में गढ़ा जा रहा था,
16) तो तूने मेरी हड्डियों को बढ़ते देखा। तूने मेरे सब कर्मों को देखा। वे सब तेरे ग्रन्थ में लिखे हैं। घटित होने के पूर्व ही मेरे दिनों की सीमा निर्धारित की गयी।
17) ईश्वर! मेरे लिए तेरे विचार कितने दुर्बोध है! उनकी संख्या कितनी अपार है!
18) यदि मैं उन्हें गिनना चाहूँ, तो वे बालू के कणों से भी अधिक हैं। यदि मैं उन्हें पूरा गिन पाऊँ, तब भी मैं घाटे में होऊँगा।
19) ईश्वर! कितना अच्छा होता कि तू दुष्टों का विनाश करता! रक्तपिपासु मनुष्यो! मुझ से दूर हटो।
20) वे कपट से तेरा से तेरा नाम लेते और व्यर्थ ही तुझ से विद्रोह करते हैं।
21) प्रभु! क्या मैं तेरे बैरियों से बैर न करूँ? क्या मैं तेरे विरोधियों से घृणा न करूँ?
22) मैं हृदय से उन से बैर करता हूँ। मैं उन्हें अपने निजी शत्रु मानता हूँ।
23) ईश्वर! मुझे परख कर मेरे हृदय को पहचान ले; मुझे जाँच कर मेरी चिन्ताओं को जान ले।
24) मेरी रखवाली कर, जिससे मैं कुमार्ग पर न रखूँ; मुझे अनन्त जीवन के मार्ग पर ले चल।

अध्याय 140

2) (१-२) प्रभु! दुष्ट से मेरा उद्धार कर। हिंसक व्यक्ति से मेरी रक्षा कर,
3) उन लोगों से, जो हृदय में बुराई सोचते हैं, जो प्रतिदिन युद्ध छेड़ते हैं।
4) वे साँप की तरह अपनी जिह्वा पजाते हैं। उनके होंठों के नीचे नाग का विष है।
5) प्रभु! विधर्मी के हाथों से मुझे बचा, उन हिंसक व्यक्तियों से मेरी रक्षा कर, जो मुझे ठोकर खिलाना चाहते हैं।
6) धमण्डियों ने मेरे लिए पाश छिपाया, उन्होंने मेरे लिए जाल बिछाया और रास्ते के किनारे मेरे लिए फन्दे लगाये हैं।
7) मैंने प्रभु से कहा, ''तू ही मेरा ईश्वर है! प्रभु! मेरी विनय पर ध्यान दे।
8) प्रभु-ईश्वर! मेरे शक्तिशाली उद्धारक! तूने युद्ध के दिन मेरे सिर की रक्षा की।
9) प्रभु! दुष्ट की कामनाएँ पूरी न कर, उसके षड्यन्त्र सफल न होने दे।
10) जो मुझे घेरते हैं, वे अपना सिर ऊँचा न उठायें, उनके होंठों का पाप उनके सिर पड़े।
11) ईश्वर उन पर जलते अंगारे बरसाये उन्हें आग में डाल दे, ऐसे गर्तों में, जिन में से वे नहीं निकल पायेंगे।
12) परनिन्दक देश में न रहने पायें, हिंसक व्यक्ति पर निरन्तर विपत्ति पड़े!
13) मैं जानता हूँ कि प्रभु दुःखी को न्याय दिलायेगा, वह दरिद्रों का पक्ष लेगा।
14) धर्मी तेरा नाम धन्य कहेंगे, निष्कपट लोग तेरे सान्निध्य में निवास करेंगे।

अध्याय 141

1) प्रभु! मैं तुझे पुकारता हूँ, शीघ्र ही मेरी सहायता कर। मैं तेरी दुहाई देता हूँ, मेरी मेरी सुन।
2) मेरी विनती धूप की तरह, मेरी करबद्ध प्रार्थना सन्ध्या-वन्दना की तरह तेरे पास पहुँचे।
3) प्रभु! मेरे मुख पर पहरा बैठा, मेरे होंठों के द्वार की रखवाली कर।
4) मेरे हृदय को बुराई की ओर झुकने न दें, मैं दुष्टों के साथ अधर्म न करूँ और उनके भोजों में सम्मिलित न होऊँ।
5) धर्मी मुझ पर भले ही हाथ उठाये और भक्त मुझे डाँटे, किन्तु दुष्ट का सुगन्धित तेल मेरा सिर अलंकृत न करें; क्योंकि मैं प्रार्थना द्वारा उनके कुकर्मों का विरोध करता हूँ।
6) वे न्याय की चट्टान से टकरा कर डूब जायेंगे और समझेंगे कि मेरे शब्द कितने मधुर थे।
7) भूमि जिस तरह जोत कर उलट दी जाती है, उसी तरह उनकी हड्डियाँ अधोलोक के द्वार पर छितरायी जायेंगी।
8) प्रभु-ईश्वर! मेरी आँखें तुझ पर टिकी हुई हैं। मैं तेरी शरण आया हूँ, मुझे विनाश से बचा।
9) लोगों ने मेरे लिए जो फन्दा लगाया, कुकर्मियों ने जो जाल बिछाया, उस से मेरी रक्षा कर।
10) विधर्मी अपने जाल में फँसेंगे और मैं बच कर निकल जाऊँगा।

अध्याय 142

2) (१-२) मैं प्रभु की दुहाई देता हूँं मैं ऊँचे स्वर से प्रभु से प्रार्थना करता हूँ,
3) मैं उसके सामने अपना दुःखड़ा रोता हूँ, मैं उसे अपना कष्ट बताता हूँ।
4) जब मैं निराश हो जाता हूँ, तो तू जानता है कि मैं कहाँ जा रहा हूँ। मैं जिस मार्ग पर चलता हूँ, वहाँ लोगों ने मेरे लिए जाल बिछाया है।
5) मेरे दाहिने दृष्टि डाल और देख - मेरी परवाह कोई नहीं करता, मेरे लिए कोई शरण नहीं, मेरे जीवन की चिन्ता कोई नहीं करता।
6) मैंने यह कहते हुए प्रभु को पुकारा : ''तू ही मेरा शरण है, जीवितों के देश में मेरा भाग्य''।
7) मेरी पुकार सुन, क्योंकि मैं दुर्बल हूँ। मेरे अत्याचारियों से मुझे बचा, क्योंकि वे मुझे से शक्तिशाली हैं।
8) मुझे बन्दीगृह से निकाल, जिससे मैं तेरा नाम धन्य कहूँ। जब तू मेरा उपकार करेगा, तो धर्मी मेरे चारों ओर एकत्र हो जायेंगे।

अध्याय 143

1) प्रभु! मेरी प्रार्थना सुन। मेरी विनय पर ध्यान दे। अपनी सत्यप्रतिज्ञता और न्यायप्रियता के अनुरूप मुझे उत्तर देने की कृपा कर।
2) अपने सेवक को अपने न्यायालय में न बुला, क्योंकि तेरे सामने कोई प्राणी निर्दोष नहीं है।
3) शत्रु ने मुझ पर अत्याचार किया, उसने मुझे पछाड़ कर रौंद डाला। उसने मुझे उन लोगों की तरह अन्धकार में रख दिया, जो बहुत समय पहले मर चुके हैं।
4) इसलिए मेरा साहस टूट रहा है; मेरा हृदय तेरे अन्तरतम में सन्त्रस्त है।
5) मैं बीते दिन याद करता हूँ। मैं तेरे सब कार्यों पर चिन्तन और तेरी दृष्टि का मनन करता हूँ।
6) मैं तेरे आगे हाथ पसारता हूँ, सूखी भूमि की तरह मेरी आत्मा तेरे लिए तरसती है।
7) प्रभु! मुझे शीघ्र उत्तर दे। मेरा साहस टूट गया है। अपना मुख मुझ से न छिपा, नहीं तो मैं अधोलोक में उतरने वालों के सदृश हो जाऊँगा।
8) मुझे प्रातःकाल अपना प्रेम दिखा; मैं तुझ पर भरोसा रखता हूँ। मुझे सन्मार्ग की शिक्षा दे, क्योंकि मैं अपनी आत्मा को तेरी ओर अभिमुख करता हूँ।
9) प्रभु! शत्रुओं से मेरा उद्धार कर, क्योंकि मैं तेरी शरण आया हूँ।
10) प्रभु! मुझे तेरी इच्छा पूरी करने की शिक्षा दे, क्योंकि तू ही मेरा ईश्वर है। तेरा मंगलमय आत्मा मुझे समतल मार्ग पर ले चले।
11) प्रभु! अपने नाम के अनुरूप तू मुझे नवजीवन प्रदान करेगा, अपनी न्यायप्रियता के अनुरूप तू संकट से मेरा उद्धार करेगा।
12) अपनी सत्यप्रतिज्ञता के अनुरूप तू मेरे शत्रुओं को मिटायेगा। तू मेरे सभी विरोधियों का विनाश करेगा ; क्योंकि मैं तेरा सेवक हँू।

अध्याय 144

1) प्रभु, मेरी चट्टान, धन्य है! वह मेरे हाथों को युद्ध का और मेरी उँगलियों को समर का प्रशिक्षण देता है।
2) वह मेरा सहायक है, मेरा शरणस्थान, मेरा गढ़, मेरा मुक्तिदाता और मेरी ढाल। मैं उसकी शरण जाता हूँ। वह अन्य राष्ट्रों को मेरे अधीन करता है।
3) प्रभु! मनुष्य क्या है, जो तू उस पर ध्यान दें? आदम का पुत्र क्या है, जो तू उसकी सुधि ले?
4) मनुष्य तो श्वास के सदृश है। उसका जीवन छाया की तरह मिट जाता है।
5) प्रभु! आकाश को खोल कर उतर आ! पर्वतों का स्पर्श कर, जिससे वे धुआँ उगलें।
6) बिजली चमका और शत्रुओं को तितर बितर कर। अपने बाण चला और उन्हें भगा दे।
7) ऊपर से अपना हाथ बढ़ा कर मुझे बचा, भीषण जलधारा से, विदेशियों के हाथ से मुझे छुड़ा।
8) वे अपने मुँह से असत्य बोलते और दाहिना हाथ उठा कर झूठी शपथ खाते हैं।
9) ईश्वर! मैं तेरे लिए एक नया गीत गाऊँगा, मैं वीणा बजाते हुए तेरी स्तुति करूँगा।
10) तू राजाओं को विजय दिलाता और घातक तलवार से अपने दास दाऊद की रक्षा करता है।
11) तू मुझे विदेशियों के हाथ से छुड़ा। वे अपने मुँह से असत्य बोलते और दाहिना हाथ उठा कर झूठी शपथ खाते हैं।
12) हमारे पुत्र बाल-वृक्षों की तरह हैं- युवावस्था में पूर्ण विकसित। हमारी पुत्रियाँ तराशे हुए खम्भों की तरह हैं- महल के कोणों पर सुशोभित।
13) हमारे बखार हर प्रकार की उपज से भरपूर हैं। हमारी भेड़ों के झुण्ड चरागाहों में हजारो-लाखों गुना बढ़ते हैं।
14) हमारे बैल भारी बोझ ढोते हैं। हमारी चारदीवारी में न तो कोई दरार है, न युद्ध का कोई उपक्रम है और न हमारे चौकों में कोई गोहार।
15) सौभाग्यशाली है वह प्रजा, जो इस तरह समृद्ध है! सौभाग्यशाली है वह प्रजा, जिसका ईश्वर प्रभु है!

अध्याय 145

1) मेरे ईश्वर! मेरे राजा! मैं तेरी स्तुति करूँगा। मैं सदा-सर्वदा तेरा धन्य कहँूगा।
2) मैं दिन-प्रतिदिन तुझे धन्य कहूँगा। मैं सदा-सर्वदा तेरे नाम की स्तुति करूँगा।
3) प्रभु महान् और अत्यन्त प्रशंसनीय है। उसकी महिमा अगम है।
4) सब पीढ़ियाँ तेरी सृष्टि की प्रशंसा करती और तेरे महान् कार्यों का बखान करती हैं।
5) मैं भी तेरे प्रताप, तेरे ऐश्वर्य और तेरे महान् चमत्कारों का बखान करूँगा।
6) मैं भी तेरे विस्मयकारी कार्यों और तेरी महिमा का वर्णन करूँगा।
7) लोग तेरी अपार कृपा की चरचा करते रहेंगे और तेरी न्यायप्रियता का जयकार।
8) प्रभु दया और अनुकम्पा से परिपूर्ण है। वह सहनशील और अत्यन्त प्रेममय है।
9) प्रभु सब का कल्याण करता है। वह अपनी समस्त सृष्टि पर दया करता है।
10) प्रभु! तेरी समस्त सृष्टि तेरा धन्यवाद करेगी, तेरे भक्त तुझे धन्य कहेंगे।
11) वे तेरे राज्य की महिमा गायेंगे और तेरे सामर्थ्य का बखान करेंगे,
12) जिससे सभी मनुष्य तेरे महान् कार्य और तेरे राज्य की अपार महिमा जान जायें।
13) तेरे राज्य का कभी अन्त नहीं होगा। तेरा शासन पीढ़ी-दर-पीढ़ी बना रहेगा। प्रभु अपनी सब प्रतिज्ञाएँ पूरी करता है, वह जो कुछ कहता है, प्रेम से करता है।
14) प्रभु निर्बल को सँभालता और झुके हुए को सीधा करता है।
15) सब तेरी ओर देखते और तुझ से यह आशा करते हैं कि तू समय पर उन्हें भोजन प्रदान करेगा।
16) तू खुले हाथों देता और हर प्राणी को तृप्त करता है।
17) प्रभु जो कुछ करता है, ठीक ही करता है। वह जो कुछ करता है, प्रेम से करता है।
18) वह उन सबों के निकट है, जो उसका नाम लेते हैं, जो सच्चे हृदय से उस से विनती करते हैं।
19) जो उस पर श्रद्धा रखते हैं, वह उनका मनोरथ पूरा करता है। वह उनकी पुकार सुन कर उनका उद्धार करता है।
20) प्रभु अपने भक्तों को सुरक्षित रखता, किन्तु अधर्मियों का सर्वनाश करता है।
21) मेरा कण्ठ प्रभु की स्तुति करता रहेगा। सभी मनुष्य सदा-सर्वदा उसका पवित्र नाम धन्य कहें।

अध्याय 146

1) अल्लेलूया! मेरी आत्मा! प्रभु की स्तुति करो।
2) मैं जीवन भर प्रभु की स्तुुति करूँगा। जब तक जीवित रहूँगा, मैं प्रभु के भजन गाऊँगा।
3) न तो शासकों का भरोसा करो और न किसी मनुष्य का, जो बचाने में असमर्थ हैं।
4) वे प्राण निकलते ही मिट्टी में मिल जाते हैं और उसी दिन उनकी सब योजनाएँ व्यर्थ हो जाती हैं।
5) धन्य है वह, जिसका सहायक याकूब का ईश्वर है, जो अपने प्रभु-ईश्वर का भरोसा करता है!
6) उसने ही स्वर्ग और पृथ्वी को बनाया है, समुद्र को और जो कुछ उस में है। प्रभु सदा ही सत्यप्रतिज्ञ है।
7) वह पददलितों को न्याय दिलाता और भूखों को तृप्त करता है। प्रभु बन्दियों को मुक्त करता है।
8) प्रभु अन्धों को दृष्टि प्रदान करता है। प्रभु झुके हुए को सीधा करता है। प्रभु धर्मियों को प्यार करता है।
9) प्रभु परदेशियों की रक्षा करता है। वह अनाथ तथा विधवा को सँभालता, किन्तु विधर्मियों के मार्ग में बाधा डालता है।
10) प्रभु सदा-सर्वदा राज्य करता रहेगा। सियोन! वह पीढ़ी-दर-पीढी तेरा ईश्वर है। अल्लेलूया!

अध्याय 147

1) अल्लेलूया! अपने ईश्वर का भजन गाना कितना अच्छा है, उसकी स्तुति करना कितना सुखद है!
2) प्रभु येरुसालेम को पुनः बनवाता और इस्राएली निर्वासितों को एकत्र करता है।
3) वह दुःखियों को दिलासा देता है और उनके घावों पर पट्टी बाँधता है।
4) वह तारों की संख्या निश्चित करता और एक-एक को नाम ले कर पुकारता है।
5) हमारा प्रभु महान् सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ है।
6) वह दीनों को सँभालता और विधर्मियों को नीचे गिराता है।
7) धन्यवाद देते हुए प्रभु का गीत गाओ, सितार बजाते हुए प्रभु का भजन सुनाओ।
8) वह आकाश को बादलों से आच्छादित करता, पृथ्वी पर पानी बरसाता और पर्वतों पर घास उगाता है।
9) वह पशुओं को चारा देता है और कौओं के बच्चों को भी, जो उसे पुकारते हैं।
10) वह युद्धाश्व की शक्ति पर प्रसन्न नहीं होता और मनुष्यों के बल को महत्व नहीं देता।
11) प्रभु श्रद्धालु भक्तों पर प्रसन्न होता है, उन लोगों पर, जो उसकी कृपा का भरोसा करते हैं।
12) येरुसालेम! प्रभु की स्तुति कर। सियोन! अपने ईश्वर का गुणगान कर।
13) उसने तेरे फाटकों के अर्गल सुदृढ़ बना दिये, उसने तेरे यहाँ के बच्चों को आशीर्वाद दिया।
14) वह तेरे प्रान्तों में शान्ति बनाये रखता और तुझे उत्तम गेहूँ से तृप्त करता है।
15) वह पृथ्वी को अपना आदेश देता है, उसकी वाणी शीघ्र ही फैल जाती है।
16) वह ऊन की तरह हिम बरसाता और राख की तरह पाला गिराता है।
17) वह ओले के कण छित राता है। ठण्ड के सामने कौन टिक सकता है?
18) वह आदेश देता है और बर्फ पिघलती है। वह पवन भेजता है और जलधाराएँ बहती हैं।
19) वह याकूब को अपना आदेश देता और इस्राएल के लिए अपना विधान घोषित करता है।
20) उसने किसी अन्य राष्ट्र के लिए ऐसा नहीं किया। उसने उनके लिए अपने नियम नहीं प्रकट किये। अल्लेलूया!

अध्याय 148

1) अल्लेूलूया! स्वर्ग में प्रभु की स्तुति करो। आकाश में प्रभु की स्तुति करो।
2) प्रभु के सब दूतो! उसकी स्तुति करो। समस्त विश्वमण्डल! उसकी स्तुति करो।
3) सूर्य और चन्द्रमा! उसकी स्तुति करो। जगमगाते तारामण्डल! उसकी स्तुति करो।
4) सर्वोच्च आकाश! उसकी स्तुति करो। आकाश के ऊपर के जल! उसकी स्तुति करो।
5) वे प्रभु के नाम की स्तुति करें, क्योंकि उसके आदेश देते ही उनकी सृष्टि हुई।
6) उसने उन्हें सदा-सर्वदा के लिए स्थापित किया। उसके ठहराये नियम अपरिवर्तनीय हैं।
7) मगर-मच्छो और समस्त गहराइयो! पृथ्वी पर प्रभु की स्तुति करो।
8) आग और ओले, बर्फ और कोहरे! प्रभु की आज्ञा मानने वाली आँधियो!
9) पर्वतों और सब पहाड़ियों! फलदार वृक्षो और देवदारो!
10) बनैले और पालतू पशुओ! रेंगने वाले सर्पो और उड़ने वाले पक्षियो!
11) पृथ्वी के राजाओ और समस्त राष्ट्रो! पृथ्वी के क्षत्रपो और सभी शासको!
12) नवयुवकों और नवयुवतियों! वृद्धो और बालको! प्रभु की स्तुति करो।
13) वे सब-के-सब प्रभु की स्तुति करें, क्योंकि उसी का नाम महान् है। उसकी महिमा पृथ्वी और आकाश से परे है।
14) उसने अपनी प्रजा को बल प्रदान किया है। उसके सभी भक्त इस्राएल की सन्तान तथा उसकी शरण में रहने वाली, प्रजा, सब-के-सब प्रभु की स्तुति करें। अल्लेलूया!

अध्याय 149

1) अल्लेलूया! प्रभु के आदर में नया गीत गाओ, भक्तों की सभा में उसकी स्तुति करो।
2) इस्राएल अपने सृष्टिकर्ता में आनन्द मनाये। सियोन के पुत्र अपने राजा का जयकार करें।
3) वे नृत्य करते हुए उसका नाम धन्य कहें, डफली और सितार बजाते हुए प्रभु का भजन गायें;
4) क्योंकि प्रभु अपनी प्रजा को प्यार करता और पददलितों का उद्धार करता है।
5) प्रभु के भक्त विजय के गीत सुनायें और अपने शिविर में आनन्द मनायें।
6) उनका कण्ठ ईश्वर का गुणगान करे। उनके हाथ में दुधारी तलवार हो,
7) जिससे वे अन्य जातियों से बदला चुकायें, राष्ट्रों को दण्डित करें,
8) उनके राजाओं को बेड़ियाँ पहना दें, उनके नेताओं को लोहे की श्रृंखलाओं से बाँध लें
9) और उनके विरुद्ध दिया हुआ दण्ड पूरा करें। इस में सभी भक्तों का गौरव है। अल्लेलूया!

अध्याय 150

1) अल्लेलूया! प्रभु के मन्दिर में उसकी स्तुति करो। उसके महिमामय आकाश में उसकी स्तुति करो।
2) उसके महान् कार्यों के कारण उसकी स्तुति करो। उसके परम प्रताप के कारण उसकी स्तुति करो।
3) तुरही फूँकते हुए, उसकी स्तुति करो। वीणा और सितार बजाते हुए उसकी स्तुति करो।
4) ढोल बजाते और नृत्य करते हुए उसकी स्तुति करो। तानपूरा और बाँसुरी बजाते हुए उसकी स्तुति करो।
5) झाँझों की ध्वनि पर उसकी स्तुति करो। विजय की झाँझों को बजाते हुए उसकी स्तुति करो।
6) सभी प्राणी प्रभु की स्तुति करें। अल्लेलूया!