पवित्र बाइबिल : Pavitr Bible ( The Holy Bible )

पुराना विधान : Purana Vidhan ( Old Testament )

अय्यूब (योब) का ग्रन्थ ( Job )

अध्याय 1

1) उस देश में अय्यूब नामक मनुष्य रहता था, वह निर्दोष और निष्कपट था, ईश्वर पर श्रद्धा रखता और बुराई से दूर रहता था।
2) उसके सात पुत्र और तीन पुत्रियाँ थी।
3) उसके पास सात हजार भेड़े, तीन हजार ऊँट, पाँच सौ जोड़ी बैल, पाँच सौ गधियाँ और बहुत-से नौकर चाकर थे। वह समस्त पूर्वी देशों के लोगों में सबसे बड़ा था।
4) उसके पुत्र बारी-बारी से अपने यहाँ भोज प्रबंध किया करते और अपनी तीनों बहनों को भी अपने साथ खाने-पीने के लिए निमन्त्रित किया करते थे।
5) जब भोजों के एक चक्र समाप्त हो जाता था, तो अय्यूब उन को बुला कर उनकी शुद्धि करवाता और वह स्वयं बड़े सबेरे उठ कर प्रत्येक के लिए होम चढ़ता था; क्योंकि अय्यूब यह सोचता थाः संभव है, मेरे लड़को ने कोई पाप किया हो और मन-ही-मन ईश्वर की निंदा की हो। इसलिए अय्यूब हर बार ऐसा किया करता था।
6) एक दिन ऐसा हुआ कि स्वर्गदूत प्रभु के सामने उपस्थित हुए और शैतान भी उन में सम्मिलित हो गया।
7) प्रभु ने शैतान से कहा, ''तुम कहाँ से आये हो?'' शैतान ने प्रभु को उत्तर दिया, ''मैंने पृथ्वी का पूरा चक्कर लगाया''।
8) इस पर प्रभु ने कहा, ''क्या तुमने मेरे सेवक अय्यूब पर ध्यान दिया है? पृथ्वी भर में उसके समान कोई नहीं; वह निर्दोष और निष्कपट है, वह ईश्वर पर श्रद्धा रखता और बुराई से दूर रहता है।''
9) शैतान ने प्रभु से कहा, ''क्या अय्यूब यों ही ईश्वर पर श्रद्धा रखता है?
10) क्या आपने उसके, उसके परिवार और उसकी पूरी जायदाद के चारों ओर मानो घेरा लगा कर उसे सुरक्षित नहीं रखा? आपने उसके सब कायोर्ं को आशीर्वाद दिया उसके झुण्ड देश भर मैं फैले हुए हैं।
11) आप हाथ बढ़ा कर उसकी सारी सम्पत्ति छीन लें, तो वह निश्चिय ही आपके मुँह पर आपकी निंदा करेगा।''
12) प्रभु ने शैतान से कहा, ''अच्छा! उसका सब कुछ तुम्हारे हाथ में है, किंतु अय्यूब पर हाथ मत लगाना''। इसके बाद शैतान प्रभु के सामने से चला गया।
13) अय्यूब के पुत्र-पुत्रियाँ किसी दिन अपने बड़े भाई के यहाँ खा-पी रहे थे
14) कि एक सन्देशवाहक ने आ कर अय्यूब से कहा, ''बैल हल में जुते हुए थे और गधियोँ उनके आस-पास चर रही थीं।
15) उस समय शबाई उन पर टूट पड़े और आपके सेवकों को तलवार के घाट उतार कर सब पशुओं को ले गये। केवल मैं बच गया और आप को यह समाचार सुनाने आया हूँ।''
16) वह बोल ही रहा था कि कोई दूसरा आ कर कहने लगा, ''ईश्वर की आग आकाश से गिर गयी। उसने भेड़ों और चहवाहों को जला कर भस्म कर दिया। केवल मैं बच गया और आप को समाचार सुनाने आया हूँ''
17) वह बोल ही रहा था कि एक और अंदर से आया और कहने लगा, ''खल्दैयी तीन दल बना कर ऊँटों पर टूट पड़े और आपके नौकरों को तलवार के घाट उतार कर पशुओं को ले गये। केवल मैं बच गया और आप को यह समाचार सुनाने आया हूँ''
18) वह बोल ही रहा था कि एक और आ कर कहने लगा, ''आपके पुत्र-पुत्रियाँ, अपने बड़े भाई के यहाँ खा-पी रहे थे
19) कि एक भीषण आँधी मरूभूमि की ओर से आयी और घर के चारों कोनो से इतने जोर से टकरायी कि घर आपके पुत्र-पुत्रियों पर गिर गया और वह मर गये। केवल मैं बचा गया हूँ और आप को यह समाचार सुनाने आया हूँ''
20) अय्यूब ने उठ कर अपने वस्त्र फाड़ डाले। उनसे सिर मुडाया और मुँह के बल भूमि पर गिर कर
21) यह कहा, ''मैं नंगा ही माता के गर्भ से निकला और नंगा ही पृथ्वी के गर्भ में लौट जाऊँगा! प्रभु ने दिया था, प्रभु ने ले लिया। धन्य है प्रभु का नाम!''
22) इन सब विपत्तियों के होते हुए भी अय्यूब ने कोई पाप नहीं किया और उसने ईश्वर की निंदा नहीं की।

अध्याय 2

1) एक दिन फिर ऐसा ही हुआ कि स्वर्ग-दूत प्रभु के सामने उपस्थित हुए। शैतान भी उनके साथ आया।
2) प्रभु ने शैतान से कहा, ''तुम कहाँ से आये हो?'' शैतान ने प्रभु को उत्तर दिया, ''मैंने पृथ्वी का पूरा चक्कर लगाया''।
3) प्रभु ने शैतान से कहा, ''क्या तुमने मेरे सेवक अय्यूब पर ध्यान दिया है? पृथ्वी भर में उसके समान कोई नहीं; वह निर्दोष और निष्कपट है, वह ईश्वर पर श्रद्धा रखता और बुराई से दूर रहता हैं। तुमने अकारण ही उसकी तबाही करने के लिए मुझे उकसाया हैं, फिर भी वह पहले की तरह निर्दोष है।''
4) शैतान ने प्रभु को उत्तर दिया, ''चमड़ी के बदले चमड़ी। मनुष्य अपने प्राण बचाने के लिए अपना सर्वस्व दे देगा।
5) आप हाथ बढ़ा कर उसके शरीर पर प्रहार कीजिए, तो वह निश्चित ही आपके मुँह पर आपकी निंदा करेगा।
6) प्रभु ने शैतान से कहा, ''अच्छा! मैं उसे तुम्हारे हवाले करता हूँ; किंतु तुम उसे जीवित रहने दो''।
7) इसके बाद शैतान प्रभु के सामने से चला गया और उसने अय्यूब को सिर से पैर तक दर्दनाक फोड़ों से भर दिया।
8) अय्यूब राख के ढेर पर बैठ कर एक ठीकरे से फोड़े साफ करने लगा।
9) उसकी पत्नी ने उस से कहा, ''क्या तुम अब तक अपने को निर्दोष मानते हो? ईश्वर की निंदा करो और मर जाओ।''
10) अय्यूब ने उत्तर दिया, ''तुम मूर्ख स्त्री की तरह बकती हो। हम ईश्वर से सुख स्वीकार करते हैं, तो दुःख क्यों न स्वीकार करें?'' इतना होने पर भी अय्यूब ने अपने मुँह से कोई पाप नहीं किया।
11) जब अय्यूब के तीन मित्रों ने उसकी समस्त विपत्तिों के बारे में सुना, तो वे अपने-अपने यहाँ से उसके पास आयेः तेमा से एफीफ़ज, शुअह से बिलदद और नामात में सोफ़र। उन्होंने मिल कर संवेदना प्रकट करने और सान्त्वना देने के लिए उसके पास जाने का निश्चय किया।
12) जब वे उसे दूर से देख कर पहचान तक न पाये, तो जोरों से रोने लगे। उन्होंने अपने-अपने वस्त्र फाडे और आसमान की ओर राख फेंक कर उसे अपने सिर पर डाल लिया।
13) वे उसके पास सात दिन और सात रात जमीन पर बैठे रहे। उन में कोई भी एक शब्द न बोल सका; क्योंकि उन्होंने अनुभव किया कि उसका दुःख अपार है।

अध्याय 3

1) अय्यूब ने अपने जन्मदिवस को कोसते हुए
2) कहाः
3) विनाश हो उस रात का, जो कहती थी, ''एक बालक का गर्भाधान हुआ है''।
4) वह दिन अंधकार हो जाये, स्वर्ग में ईश्वर उसे भुला दे, प्रकाश उसे अलोकित न करे।
5) घोर अंधकार उसे आत्मसात् कर ले, काली घटाएँ उस पर छा जायें, सूर्यग्रहरण उसे भयानक बना दे।
6) घोर अंधकार उस रात को निगल जाये, वर्ष के दिनों में उसकी गिनती न हो, महीनों के लेखे में उसका उल्लेख न हो।
7) वह रात बंध्या क्यों नहीं हुई? उसमें आनंद की ध्वनि क्यों सुनाई पड़ी?
8) दिन को कोसने वाले और लिव्यातान को जगाने वाले उस रात को अभिशाप दें।
9) प्रभात के तारे अंधकारमय हों, जिससे वह रात व्यर्थ ही प्रकाश की प्रतीक्षा करे और उषा के किरणें कभी नहीं देख पाये;
10) ैक्योंकि उसमें मेरी आँखों से दुःख छिपाने के लिए मेरी माता के गर्भ का द्वार बन नहीं रखा।
11) मैं गर्भ में ही क्यों नहीं मर गया? मैं जन्म लेते ही क्यों नष्ट नहीं हुआ ?
12) मुझे सँभालने के लिए घुटने क्यों थे? मुझे दूध पिलाने के लिए दो स्तन क्यों थे?
13) नहीं तो मैं अभी शांतिपूर्ण समाधि में पडा रहता और निश्चित हो कर चिरनिद्रा में लीन होता,
14) उन राजाओं और देश के शासकों के साथ, जिन्होंने अपने लिए मकबरे बनवाये;
15) उन राजकुमारों के साथ, जिनके पास बहुत सोना था और जिन्होंने अपने भवन चाँदी से भर लिये।
16) समय से पहले गिरे हुए गर्भ की तरह मुझे क्यों नहीं दफनाया गया? उन बच्चों की तरह, जो दिन में प्रकाश कभी नहीं देखते?
17) वहाँ दुष्ट लोग किसी को तंग नहीं करते; वहाँ थके-मांदे विश्राम पाते हैं।
18) वहाँ कैदी भी सुखी हैं और निरीक्षकों की चिल्लाहट नहीं सुनते।
19) वहाँ छोटे-बड़े सब बराबर हैं; वहाँ दास अपने स्वामी से मुक्त हो गया है।
20) दुःखियों को दिन का प्रकाश और अभागे लोगों को जीवन क्यों दिया जाता है?
21) वे मृत्यु की प्रतीक्षा करते हैं, किंतु वह आती नहीं; वे उसे छिपे हुए खजाने से कहीं अधिक खोजते हैं।
22) वे कब्र में पहुँचने पर उल्लसित हो कर आनंद मनाते हैं।
23) उस मनुष्य को जीवन क्यों दिया जाता है, जो अपना मार्ग नहीं देखता और जिसे ईश्वर चारों ओर से बाधित करता है?
24) मेरा विलाप ही मेरा भोजन है; मेरी आहें जलस्रोत की तरह उमड़ती हैं।
25) जिस बात का मुझे डर था, वही मुझ पर गुजरती है; वही मुझ पर आ पड़ी है।
26) मुझे न तो सुख है, न शांति और न विश्राम, यंत्रणा ही मुझे सताती रहती है।

अध्याय 4

1) तब तेमानी एलीफ़ज ने कहाः
2) उसने तुम्हारी परीक्षा ली और तुम उदास हो गये हो। किंतु कौन बोलने से अपने को रोक सकता?
3) तुमने बहुत को शिक्षा प्रदान की और थके-मांदे हाथों को शक्ति दी है।
4) तुम गिरने वालों को समझा कर सँभालते थे; तुम शिथिल घुटनों को सबल बना देते थे।
5) अब, जब तुम पर विपत्ति आती है, तो निराश हो जाते हो; तुम को मारा गया, तो घबरा गये हो।
6) क्या तुम्हें अपनी धार्मिकता पर भरोसा नहीं और अपने निर्दोष आचरण की आशा नहीं?
7) यह बता दोः क्या निर्दोष का कभी सर्वनाश हुआ है? कहाँ धर्मियों को मिटाया गया है?
8) मैने यह देखा है- जो बुराई जोतते और दुःख बोते हैंं, वे दुःख ही लुनते हैं
9) ईश्वर के श्वास मात्र से उनका विनाश होता है, उसकी क्रोधाग्नि में वे भस्म हो जाते हैं।
10) वे सिंहों की तरह गरजते हैं, किंतु उनके दाँत तोड़ दिये जाते हैं।
11) वे शिकार के अभाव में मरते हैं और उनके शावक छितरा जाते हैं :
12) मैंने एकांत में एक वाणी सुनी, उसकी मंद ध्वनि मेरे कानों में पड़ी।
13) जिस समय मनुष्यों को गहरी नींद आती है, उस समय मैं रात्रि के दुःस्वप्नों में
14) भयभीत हो कर थर्रा उठा, मेरी एक-एक हड्डी काँपने लगी।
15) एक श्वास मेरा चेहरा छू गया और मेरे रोंगटे खड़े हो गये।
16) कोई मेरे सामने खड़ा था। मैं उसे नहीं पहचान सका। एक छाया मेरी आँखों के सामने खड़ी रही। सन्नाटे में मुझे एक वाणी सुनाई पड़ी :
17) क्या मनुष्य ईश्वर के सामने धर्मी, अपने सृष्टिकर्ता के सामने शुद्ध प्रमाणित हो सकता हैं?
18) जब ईश्वर अपने सेवको पर विश्वास नहीं करता और स्वर्गदूतों में भी दोष पाता है,
19) तो उन लोगों का क्या, जो मिट्टी के घर में रहते और जिनकी नींव धूल पर आधारित है। वे पंतगे की तरह कुचले जाते हैं।
20) वे एक ही दिन में समाप्त हो कर सदा के लिए नष्ट हो जाते हैं और कोई उन पर ध्यान नहीं देता है।
21) उनके तम्बुओं की रस्सियाँ उखड़ जाती और वे अनजान ही मर जाते हैं।

अध्याय 5

1) पुकारो! किंतु तुम को उत्तर नहीं मिलेगा। तुम संतों में से किसकी दुहाई दोगे?
2) द्वेष ही मूर्ख की जान लेता हैं। ईर्ष्या ही नासमझ को मारती है।
3) मैंने मूर्ख को जड़ पकड़ते देखा है, किंतु उसके घर पर अचानक अभिशाप पड़ा।
4) उसके पुत्र सुरक्षित नहीं रहते और सहारे के अभाव में कचहरी में कुचले जाते हैं।
5) भूखा उसकी फसल खा जाता है, बल्कि काँटों की बाड़ में से उसे निकालता है। प्यासा उसकी सम्पत्ति के लिए मचल जाता है;
6) क्योंकि विपत्ति मिट्टी में से नहीं उगती और दुःख भूमि पर उत्पन्न नहीं होता।
7) जिस तरह चिनगारियाँ ऊपर उड़ती हैं, उसी तरह मनुष्य दुःख के लिए जन्म लेता है।
8) यदि मैं होता, तो मैं ईश्वर की दुहाई देता और अपना मामला उसके सामने पेश करता
9) वह अबोधगम्य महान् कार्य करता और असंख्य चमत्कार दिखाता है।
10) वह पृथ्वी पर पानी बरसाता और खेतों को सींचता है।
11) वह दीनों को ऊपर उठाता हैं और दुःखियों को सुख-शांति देता है।
12) वह धूर्तों के षड्यंत्र व्यर्थ करता है, जिससे उन्हें सफलता नहीं मिलती।
13) वह चतुरों को उनकी चतुराई में फाँसता और कपटियों की योजनाएं मिटा देता है।
14) अंधकार उन्हें दिन में ही घेर लेता है और वे दोपहर को रात की तरह टटोलते-फिरते हैं।
15) उसनें दरिद्र को उनकी तलवार, उनके दाँतों, उनके चंगुल से बचा लिया है।
16) इस प्रकार निर्बल आशा नहीं छोड़ता और अन्याय का मुँह बंद हो जाता है।
17) धन्य वह मनुष्य, जिसे ईश्वर सुधारता है! इसलिए तुम सर्वशक्तिमान् के अनुशासन की उपेक्षा मत करो;
18) क्योंकि वह घायल करने के बाद पट्टी बाँधता हैं। उसके हाथ मारते भी है और चंगा भी करते हैं।
19) वह छः विपत्तियों से तुम्हारी रक्षा करेगा और सातवीं तुम्हें कोई हानि नहीं पहुँचायेगी।
20) वह अकाल में तुम को मृत्यु से बचायेगा और युद्ध में तलवार के आघात से।
21) तुम जीभ के कीड़े से सुरक्षित होगे और आने वाली विपत्तियों से नहीं डरोगे।
22) तुम विनाश और अकाल का उपहास करोगे; तुम्हें पृृथ्वी के पशुओं से भय नहीं होगा।
23) खेत के पत्थरों से तुम्हारी सन्धि होगी और जंगल के बनैले पशु तुमसे मेल रखेंगे।
24) तुम देखोगे कि तुम्हारे तम्बू में शांति है; अपने पशुओं की गिनती करने पर तुम्हें एक भी कम नहीं मिलेगा।
25) तुम देखोगे कि तुम्हारी संतति बहुसंख्यक होगी, तुम्हारे वंशज पृथ्वी की घास की तरह होंगे।
26) जिस तरह फसल के समय पूले बखार में रखे जाते हैं, उसी तरह तुम्हें अच्छी पकी उमर में कब्र में दफनाया जायेगा।
27) हमने इन बातों की जाँच की हैः यही सच है। इन बातों पर ध्यान दो और लाभ उठाओ।

अध्याय 6

1) तब अय्यूब ने उत्तर देते हुए कहाः
2) यदि मेरी वेदना तौली जा सकती, यदि मेरी विपत्ति तराजू पर रखी जाती,
3) तो वह समुद्र के बालू से भी अधिक भारी होती! यही कारण है कि मैं बिना सोचे-समझे बोला हूँ।
4) सर्वशक्तिमान् के बाण मुझे बेधते हैं, मेरी साँस उनका विष पीती है। ईश्वर के आंतक मेरे विरुद्ध पंक्तिबद्ध खड़े हैं।
5) क्या जंगली गधा घास होने पर भी रेंकता हैं? क्या बैल सानी के सामने रँभाता है?
6) क्या फीका भोजन बिना नमक के खाया जाता है? क्या अण्डे की सफेदी में स्वाद होता है?
7) मुझे अपने भोजन से घृणा होती है; वह मुझ से नहीं खाया जाता।
8) ओह! यदि मेरी प्रार्थना सुनी जाती! यदि ईश्वर मेरी आशा पूरी करता!
9) यदि ईश्वर मुझे रौंद डालता! यदि वह अपना हाथ खींच कर मेरा विनाश करता!
10) तो मैं असह्य पीड़ा में भी आनन्दित होता मुझे यह सान्त्वना मिलती मैंने परमपावन की वाणी नहीं भुलायी है।
11) मेरा सामर्थ्य ही क्या है, जो मैं आशा रखूँ? मेरा भविष्य क्या है, जो मैं जीवित रहना चाहूँ?
12) क्या मेरा बल चट्टान का बल हैं? क्या मेरा शरीर काँसे का है?
13) मुझ में कोई बल शेष नहीं रहा और मेरा कोई सहायक नहीं।
14) निराशा में मनुष्य मित्रों की दया का अधिकारी है, नहीं तो वह सर्वशक्तिमान् पर श्रद्धा नहीं करेगा।
15) मेरे भाई नादियों की तरह अविश्वसनीय हैं, जलधाराओं की तरह, जो बह जाती हैं,
16) जो वर्षा के समय चारों ओर उमडती हैं।
17) किंतु बाद में सूखने लगतीं और ग्रीष्म-ऋतु में लुप्त हो जाती हैं।
18) उनकी खोज में कारवाँ अपना रास्ता छोड़ कर उजाड़खण्ड में भटक कर नष्ट हो जाते हैं।
19) तेमा के कारवाँ उनकी खोज में निकले, शबा के काफ़िलों को उन पर भरोसा था।
20) वे अपनी आशा व्यर्थ समझ कर दुःखी हैं, वहाँ पहुँच कर वे हैरान हो जाते हैं।
21) इसी तरह तुम भी मेरे किसी काम के नहीं, मेरी विपत्ति देख कर तुम डरते हो।
22) क्या मैंने कभी तुम से कहा- ''मेरी सहायता करो; अपनी संपत्ति से मुझे छुड़ा लो,
23) शत्रु के हाथ से मुझे मुक्त करो, शक्तिशालियों के हाथ से मेरा उद्धार करो''?
24) मुझे शिक्षा दो और मैं मौन रहूँगा, मुझे समझा दो कि मेरा अपराध क्या है।
25) सच्ची बातों से कोई आपत्ति नहीं, किंतु तुम्हारे तर्कों का कोई आधार नहीं होता।
26) क्या तुम मेरे शब्दों में दोष निकालना चाहते हो? क्या तुम नहीं समझते कि ये निराशा के उद्गार हैं?
27) हो सका, तो तुम अनाथ पर भी चिट्ठी डालते और अपने अंतरंग मित्र का सौदा करते।
28) मेरी बातों पर ध्यान देने की कृपा करो! क्या मैं तुम्हारे सामने झूठ बोलूँगा
29) अभियोग लगाना छोड दो, अन्याय न करो! छोड़ दो। मेरे साथ न्याय करो।
30) क्या मेरी जिह्वा झूठ बोलती हैं? क्या मुझ में भले-बुरे की पहचान नहीं?

अध्याय 7

1) क्या इस पृथ्वी पर मनुष्य का जीवन सेना की नौकरी की तरह नहीं? क्या उसके दिन मजदूर के दिनों की तरह नहीं बीतते?
2) क्या वह दास की तरह नहीं, जो छाया के लिए तरसता हैं? मजदूर की तरह, जिसे समय पर वेतन नहीं मिलता?
3) मुझे महीनों निराशा में काटना पड़ता है। दुःखभरी रातें मेरे भाग्य में लिखी है।
4) शय्या पर लेटते ही कहता हूँ- भोर कब होगा? उठते ही सोचता हूँ-सन्ध्या कब आयेगी? और मैं सायंकाल तक निरर्थक कल्पनाओं में पड़ा रहता हूँ।
5) मेरा शरीर कृमियों और कुकरी से भर गया है। मेरी चमड़ी फट गयी है और उस से पीब बह रही है।
6) मेरे दिन जुलाहें की भरती से भी अधिक तेजी से गुजर गये और तागा समाप्त हो जाने पर लुप्त हो गये हैं।
7) प्रभु! याद रख कि मेरा जीवन एक श्वास मात्र है और मेरी आँखें फिर अच्छे दिन नहीं देखेंगी।
8) जो मुझे देखा करता था, वह मुझे फिर नहीं देखेगा; तेरी आँख भी मुझे नहीं देख पायेगी।
9) जिस तरह बादल छँट कर लुप्त हो जाता है, उसी तरह अधोलोक में उतरने वाला नहीं लौटता।
10) वह फिर कभी अपने घर वापस नहीं आयेगा। उसकी भूमि पर कोई उसकी प्रतीक्षा नहीं करेगा।
11) इसलिए मैं अपनी जीभ पर लगाम नहीं लगाऊँगा, मैं अपनी वेदना प्रकट करूँगा, अपनी कटुता से विवश हो कर बोलूँगा।
12) क्या मैं समुद्र या भीमकाय मरगरमच्छ हूँ, जो तू मुझ पर पहरा बैठाता है?
13) जब सोचता हँू कि पंलग पर मुझे आराम मिलेगा, शय्या पर मेरा दुःख हलका हो जायेगा,
14) तो तू मुझे स्वप्नों द्वारा डराता और डरावने दृश्यों द्वारा आतंकित करता है।
15) यहाँ तक कि फाँसी मुझे लुभाती है, जीवन की अपेक्षा मैं मृत्यु की कामना करता हूँ।
16) मुझे अपने जीवन से घृणा हो गयी है। मुझे छोड़ दे, मैं तो श्वास मात्र हूँ।
17) मनुष्य क्या है जो तू उसे इतना महत्व दे और उस पर इतना ध्यान रखे?
18) तू प्रतिदिन सबेरे उस पर दृष्टि दौड़ाता और प्रतिक्षण उसकी परीक्षा लेता है।
19) तू कब मेरी निगरानी करना छोड़ देगा? मुझे कब अपना थूक निगलने का अवसर मिलेगा?
20) मनुष्य के पहरेदार! यदि मैंने पाप किया, तो इस से तुझे क्या? तूने मुझे अपना निशाना क्यों बनाया हैं? क्यों मैं तेरे लिए भार बन गया हूँ?
21) तुझे मेरा अपराध असहय क्यों है? तू मेरा दोष अनदेखा क्यों नही करता? क्योंकि मैं शीघ्र ही मिट्टी में मिल जाऊँगा; तू मुझे ढूँढ़ेगा, परंतु मैं शेष नहीं रहूँगा।

अध्याय 8

1) इसके उत्तर में शूही बिलदद ने कहाः
2) तुम कब तक ऐसी बातें करते रहोगे? तुम्हारे शब्द प्रचण्ड वायु-जैसे हैं।
3) क्या ईश्वर न्याय भ्रष्ट करता है? क्या सर्वशक्तिमान् अन्याय करता है?
4) तुम्हारे पुत्रों ने उसके विरुद्ध पाप किया और उसने उन्हें पाप का दण्ड दिया।
5) यदि तुम ईश्वर की शरण जाओगे, यदि तुम सर्वशाक्तिमान् से प्रार्थना करोगे,
6) और यदि तुम निर्दोष और निष्कपट हो, तो वह तुम्हारी रक्षा करेगा और तुम्हें न्याय दिलायेगा।
7) तुम्हारा भविष्य इतना उज्ज्वल होगा कि तुम्हारी पिछली दशा बहुत साधारण लगेगी।
8) पुरानी पीढ़ियों से पूछो, पूर्वजों के अनुभव पर ध्यान दो।
9) हम तो कल के हैं और कुछ नहीं जानते। हमारा जीवन पृथ्वी पर छाया की तरह बीतता है।
10) किंतु वे तुम्हें शिक्षा देंगे और समझायेगे; वे अपने अनुभव की चर्चा करेंगे।
11) क्या पटेर कछार के बिना उग सकती है? क्या सरकण्डा पानी के बिना पनप सकता है?
12) हरा सरकण्डा कट जाने से पहले भी अन्य घासों की अपेक्षा जल्दी सूख जाता है।
13) यही हाल उन सब का होता है, जो ईश्वर को भूल जाते है। इसी प्रकार विधर्मी की आशा नष्ट हो जाती है।
14) उसका भरोसा तन्तु की तरह है और उसकी आशा मकड़ी के जाले की तरह।
15) वह अपने घर का भरोसा रखता, किंतु टिक नहीं पाता। वह उस पर हाथ रखता, किंतु वह ढह जाता है।
16) वह पौधे की तरह धूप में हरा-भरा है, उसकी टहनियाँ पूरी वाटिका में फैली हैं,
17) उसकी जड़े पत्थरों से भी चिपकती हैं। वह चट्टानों के बीच भी पनपता है,
18) किंतु जब वह उखाड़ा जाता, तो उनका पुराना स्थान उसे अस्वीकार कर देता है।
19) देखो, उसका भाग्य यही है, उसके स्थान पर दूसरे पौधे उग जाते हैं।
20) देखो, ईश्वर न तो निर्दोष व्यक्ति का परित्याग करता और न विधर्मी को सहारा देता है।
21) तुम्हारे चेहरे पर फिर हँसी खिल उठेगी और तुम्हारे होंठ आनंद के गीत गायेंगे।
22) तुम्हारे शत्रु लज्जित होंगे और दुष्टों के तम्बू उखड़ जायेंगे।

अध्याय 9

1) अय्यूब ने अपने मित्रों से कहा :
2) मैं निश्चित रूप से जानता हूँ कि तुम लोगों का कहना सच है। मनुष्य अपने को ईश्वर के सामने निर्दोष प्रमाणित नहीं कर सकता।
3) यदि वह ईश्वर के साथ बहस करना चाहेगा, तो ईश्वर हजार प्रश्नों में एक का भी उत्तर नहीं देगा।
4) ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वशक्मिान् है। कौन मनुष्य उसका सामना करने के बाद जीवित रहा?
5) ईश्वर पर्वतों को अचानक हटाता और अपने क्रोध में उलट देता है।
6) वह पृथ्वी को उसके स्थान से खिसकाता और उसके खम्भों को हिला देता है।
7) वह नक्षत्रों को ढाँकता और उसके आदेश पर सूर्य नहीं दिखाई देता।
8) वह अकेला आकाश ही आकाश फैलाता और समुद्र की लहरों पर चलता है।
9) उसने सप्तर्षि, मृग, कृत्तिका और दक्षिण नक्षत्रों की सृष्टि की है।
10) वह महान् एवं रहस्यमय कार्य सम्पन्न करता और असंख्य चमत्कार दिखाता है।
11) वह मेरे पास आता है और मैं उसे नहीं देखता। वह आगे बढ़ता है और मुझे इसका पता नहीं चलता।
12) जब वह कुछ ले जाता है, तो कौन उसे रोकेगा? कौन उस से कहेगा, ''तू यह क्या कर रहा है?''
13) ईश्वर के क्रोध पर किसी का वश नहीं, रहब के सहायक भी उसके अधीन हैं।
14) मैं उस को कैसे जवाब दे सकता हूँ? मुझे उस से बहस करने को शब्द कहाँ से मिलेंगे?
15) यदि मेरा पक्ष न्यायसंगत है, तो भी मैं क्या कहूँ? मैं केवल दया-याचना ही कर सकता हूँ?
16) यदि वह मेरी दुहाई का उत्तर देता, तो मुझे विश्वास नहीं होता कि वह मेरी प्रार्थना पर ध्यान देता है।
17) वह तूफान से मुझे रौंदता और अकारण मेरे घाव बढ़ाता है।
18) वह मुझे साँस भी नहीं लेने देता और मुझे कटु वेदना से भरता है।
19) बलपरीक्षा का प्रश्न नहीं उठता क्योंकि, उसे कौन बुला भेजेगा?
20) यदि मैं निर्दोष होता, तो भी दोषी ठहराता। यदि मैं निरपराध होता, तो भी अपराधी सिद्ध होता।
21) मैं स्वयं नही जानता कि मैं निर्दोष हूँ। मुझे अपने जीवन से घृणा हो गयी है।
22) दोषी-निर्दोष बराबर है। इसलिए कहता हूँ- वह दोनों का समान रूप से विनाश करता है।
23) जब महाविपत्ति अचानक मनुष्यों को मारती, तो वह धर्मियों की निराशा का उपहास करता।
24) जब कोई देश दुष्टों के हाथ में पड़ जाता, तो वह न्यायाधीशों की आँखों पर पट्टी बाँधता। यदि वह नहीं करता, तो वह कौन करता है?
25) मेरे दिन हरकारे से भी तेज भागते हैं, वे बिना आनंद देखे लुप्त हो गये हैं।
26) वे सरकाण्डे की नावों की तरह गुजर गये, शिकार पर झपटते हुए बाज की तरह।
27) यदि मैं कहता, ''मैं अपनी शिकायतें भुलाऊँगा, मैं अपनी उदासी भूल कर प्रसन्मुख होऊँगा'',
28) तब भी मैं अपने सब कष्टों से भयभीत रहता; क्योंकि मैं जानता हूँ कि तू मुझे निर्दोष नहीं मानेगा।
29) यदि में दोषी हूँ, तो मैं क्यों व्यर्थ ही परिश्रम करूँ?
30) यदि मैं बर्फ के पानी से नहाता और खार से अपने हाथ साफ करता,
31) तो तू मुझे कीचड़ के गड्ढे में डालता और मेरे कपड़े मुझ से घृणा करने लगते।
32) वह तो मुझ-जैसा मनुष्य नहीं, जो मैं उस से बहस करता और हम दोनों न्याय के लिए न्यायालय जाते!
33) हम दोनों का तो कोई मध्यस्थ नहीं, जो हम दोनों के बीच न्याय करे,
34) जो मुझ पर से ईश्वर का अंकुश हटाये और मैं आतंक के कारण मौन न रहूँ।
35) यदि कोई होता, तो मैं निर्भय होकर अपना पक्ष प्रस्तुत करता; किंतु ऐसा कोई नहीं है और मैं कुछ नहीं कर सकता।

अध्याय 10

1) मैं अपने जीवन से घृणा करता हूँ मैं अपने कष्टों के विषय में मौन नहीं रहूँगा, मैं कटुता भरे शब्दों में शिकायत करूँगा।
2) मैं ईश्वर से कहूँगाः मुझे दोषी समझ कर मेरे साथ व्यवहार न कर; मुझे बता कि तू मुझ पर कौन-सा अभियोग लगाता है।
3) तू मुझे सताता है, अपने हाथों की इस कृति का तिरस्कार करता है। और दुष्टों की योजनाओं को प्रोत्साहन देता है- क्या तुझे इस में आनंद मिलता है?
4) क्या तेरी आँखें हमारी-जैसी हैं? क्या तू हम मनुष्यों की तरह देखता है?
5) क्या तेरे दिन हमारे-जैसे बीतते हैं, क्या तू मनुष्यों की तरह अल्पायु है,
6) जो तू मेरे अपराधों की खोज करता और मेरे पाप की जाँच करता है-
7) जब कि तू जानता है कि मैं निर्दोष हूँ और तेरे हाथों से मुझे कोई नहीं छुड़ा सकता?
8) तूने अपने हाथों से मुझे बनाया। क्या तू अब विमुख हो कर मेरा विनाश करेगा?
9) याद कर- तूने मुझे मिट्टी में गढ़ा। क्या तू अब मुझे फिर धूल में मिला देगा?
10) क्या तूने मुझे दूध की तरह नहीं उँड़ेला और दही की तरह नहीं जमाया?
11) तूने मुझे चमड़े और मांस का आवरण दिया, हड्डियों और स्नायुओं से गूंथा,
12) मुझे प्राण और स्फूर्ति प्रदान की, तेरे संरक्षण में मेरा जीवन सुरक्षित था।
13) फिर भी तूने अपने मन में ये बातें छिपा रखीं। मैं जान गया कि ये तेरा उद्देश्य था।
14) यदि मैं पाप करता, तो तू मुझे देखता और मेरा एक भी अपराध क्षमा नहीं करता।
15) यदि मैं दोषी हूँ, तो धिक्कार मुझे! यदि मैं निर्दोष हूँ, तो भी मैं सिर उठा नहीं सकता; क्योंकि अपमानित और दुःख से अभिभूत हूँ।
16) यदि मैं अपना सिर उठाता हूँ, तो तू सिंह की तरह मेरा शिकार करता और मेरे विरुद्ध अपने सामर्थ्य का प्रदर्शन करता।
17) तू फिर मुझ पर आक्रमण करता, मुझ पर अपना क्रोध दुगुना कर देता और तेरी भेजी विपत्तियों की सेना मुझे घेर लेती।
18) तूने मुझे गर्भ से क्यों निकाला? अच्छा यही होता कि मैं मर जाता और मुझे कोई न देखता।
19) तब ऐसा होता, मानों मैं कभी था ही नहीं और मैं गर्भ से सीधे कब्र लाया जाता।
20) मेरे दिनों की संख्या थोड़ी ही है। मुझे छोड़ दे, जिससे मुझे कुछ सुख मिले-
21) इससे पहले कि मैं वहाँ जाऊँ, जहाँ से कोई नहीं लौटता, अंधकार और मृत्यु की छाया के देश में,
22) उस देश में जहाँ उषा घोर रात्रि-जैसी है, अराजकता और तिमिर के देश में, उस देश में, जहाँ प्रकाश भी अंधकार जैसा है।

अध्याय 11

1) तब नामाती सोफर ने उत्तर देते हुए कहा : (अय्यूब का पाप : ईश्वर का न्याय)
2) क्या इस बकवाद का उत्तर नहीं दिया जायेगा? क्या यह बातूनी निर्दोष माना जायेगा?
3) क्या तुम्हारा बकवाद लोगों को निरुत्तर कर देगा? तुम उपहास करोगे, तो क्या कोई तुम को नहीं डाँटेगा?
4) तुमने ईश्वर से कहा, ''मैं अपने को निर्दोष मानता हूँ और मैं मेरी दृष्टि से भी निर्दोष हूँ''।
5) ओह! कितना अच्छा होता कि ईश्वर कुछ कहता और अपने शब्दों में तुम्हें उत्तर देता!
6) कि वह तुम पर अपनी प्रज्ञा का रहस्य प्रकट करता- क्योंकि वह मनुष्य की समझ से परे है- तो तुम जान जाते कि ईश्वर तुम्हारे अपराध का लेखा माँगता है।
7) क्या तुम ईश्वर के रहस्यों की थाह ले सकते हो? क्या तुम सर्वशक्तिमान् की पूर्णता समझ सकते हो?
8) वह आकाश से भी ऊँची है- तुम क्या कर सकते हो? वह अधोलोक से भी गहरी है- तुम क्या जानते हो?
9) वह पृथ्वी से भी लंबी, समुद्र से भी विस्तृत है!
10) यदि वह आ कर तुम को बंदी बनाये और न्यायालय में बुलाये, तो कौन विरोध करेगा?
11) क्योंकि वह कपटियों को पहचानता और सहज ही अधर्म भाँपता है।
12) मूर्ख के मुँह से विवेकपूर्ण बात नहीं निकलती। जंगली गधी से मनुष्य का बच्चा पैदा नहीं होता।
13) तुम ईश्वर की ओर अभिमुख हो जाओं, उसके सामने अपने हाथ पसारो।
14) यदि तुमने पाप किया, तो उसे दूर फेंको; और अधर्म को अपने यहाँ न रहने दो।
15) तब तुम गौरव से अपना सिर ऊपर उठाओगे और निडर हो कर दृढ़ बने रहोगे।
16) तुम अपनी विपत्ति भुला दोगे, उसे उस पानी की तरह याद करोगे, जो बह गया है।
17) तुम्हारा जीवन दोपहर के प्रकाश की तरह, तुम्हारा अंधकार उषा की तरह उज्जवल होगा।
18) आशा के कारण तुम सुरक्षा का अनुभव करोगे। तुम चारों ओर दृष्टि दौड़ा कर निश्चित लेट जाओगे।
19) तुम विश्राम करोगे और कोई तुम्हें नहीं डरायेगा। तुम्हारी कृपादृष्टि चाहने वालों की कमी नहीं होगी।
20) किंतु दुष्टों की आँखें धुँधली पड़ जायेगी, उन्हें कहीं भी शरण नहीं मिलेगी। मृत्यु ही उनकी एकमात्र आशा होगी।

अध्याय 12

1) तब अय्यूब ने उत्तर में कहाः
2) तुम लोग निस्संदेह बुद्धिमान् हो! तुम्हारे मरने पर प्रज्ञा मर जायेगी!
3) किंतु तुम्हारी तरह मुझ में भी बुद्धि है। मैं तुम लोगों से कम नहीं। ये सब बातें कौन नहीं जानता?
4) मैं अपने मित्रों के लिए हँसी का पात्र बन गया हूँ। मैंने ईश्वर की दुहाई दी और उसने मेरी सुनी थी। मैं धर्मी और निरपराध हूँ, फिर भी हँसी का पात्र हूँ।
5) जो लाग आराम का जीवन बिताते है, वे दुःखियों का तिरस्कार करते और फिसलने वालों पर हँसते हैं।
6) डाकुओं के तम्बुओं में कुशल-क्षेम हैं, ईश्वर को चिढ़ाने वाले सुरक्षित हैं, उन्हें किसी बात की कमी नहीं।
7) पशुओं से पूछो, वे तुम्हें सिखायेंगे; आकाश के पक्षियों से पूछो, वे तुम्हें बतायेंगे।
8) पृथ्वी से पूछो, वह तुम्हें सिखायेगी; समुद्र की मछलियाँ तुम्हें बतायेंगी।
9) उन में कोई नहीं, जो यह नहीं जानता कि यह ईश्वर का कार्य है।
10) उसी के हाथ हर प्राणी का जीवन है और हर मनुष्य की साँस।
11) क्या कान शब्द नहीं पहचानता और जीभ भोजन नहीं चखती?
12) क्या बूढों में बुद्धि नहीं होती? क्या लंबी आयु के साथ विवेक नहीं आता?
13) ईश्वर में ही प्रज्ञा और सामर्थ्य हैं, सत्परामर्श और विवेक उसी का है।
14) वह जिसे ढाता, वह फिर नहीं बनता; वह जिस मनुष्य को बंदी बनाता, उसे कोई मुक्त नहीं कर सकता।
15) यदि वह पानी रोक लेता, तो सूखा है; यदि वह उसे बहने दे तो बाढ होती है।
16) सामर्थ्य और विजय उसी की है; धोखा खाने वाला और धोखा देने वाला, दोनों उसके अधीन हैं।
17) वह परामर्शदाताओं को विवेकहीन और न्यायाधीशों को मूर्ख बना देता है।
18) वह राजाओं का अधिकार भंग करता और उन्हें निर्वासित कर देता है।
19) वह याजकों को विवेकहीन बनाता और शासकों को उनके आसनों से गिराता है।
20) वह वक्ताओं का मुँह बंद करता और बूढ़ों का विवेक हर लेता है।
21) वह कुलीनों को घृणा का पात्र बनाता और शक्तिशालियों के शस्त्र छीनता है।
22) वह अगाध गर्त का अंधकार दूर करता और मृत्यु की छाया प्रकाशमय कर देता है।
23) वह राष्ट्रों को महान् बना कर उनका सर्वनाश करता है; वह उनकी सीमाएँ बढ़ाकर उन्हें निर्वासित करता है।
24) वह संसार के नेताओं की बुद्धि छीन लेता और उन्हें मार्गहीन उजाडखण्डों में भटकाता है।
25) वे घोर अंधकार में टटोलते-फिरते हैं और मद्यपों की तरह लड़खड़ाते हैं।

अध्याय 13

1) मैंने अपनी आँखों से यह सब देखा है, कानों से सुना और समझा है।
2) तुम जो जानते हो, वह मैं भी जानता हूँ। मैं तुम लोगों से कम नहीं।
3) मैं सर्वशक्तिमान् से बोलना और उसके सामने अपना पक्ष प्रस्तुत करना चाहता हूँ।
4) तुम तो झूठे का जाल बुनते हो, तुम सभी निकम्मे वैद्य हो।
5) कितना अच्छा होता कि तुम चुप रहते! तुम्हारे लिए यही बुद्धिमानी होती!
6) अब मेरा पक्ष सुनो, मेरे तकोर्ं पर कान दो।
7) क्या तुम ईश्वर के नाम पर झूठ बोलते और कपटपूर्ण बातें करते हो?
8) क्या तुम उसकी ओर से बोलते, ईश्वर का पक्ष प्रस्तुत करते हो?
9) यदि वह तुम्हारी परीक्षा ले, तो क्या तुम खरे उतरोगे? क्या तुम उसे मनुष्य की तरह धोखा दे पाओगे?
10) यदि तुम पक्षपात करोगे, तो वह निश्चय ही तुम को डाँटेगा।
11) क्या उसका प्रताप तुम को भयभीत नहीं करता? क्या वह तुम को आंतकित नहीं करता?
12) तुम्हारी सूक्तियाँ राख-जैसी हैं; तुम्हारे तर्क भुरभुरी मिट्टी-जैसे हैं।
13) तुम चुप रहो और मुझे बोलने दो। मुझ पर जो बीतेगी, सो बीतेगी।
14) मैं हर जोखिम का सामना करने, अपने प्राण हथेली पर रखने को तैयार हूँ।
15) यदि ईश्वर मुझे मारना चाहता, तो भी मैं नहीं डरूँगा; मैं उसके सामने अपना पक्ष प्रस्तुत करूँगा।
16) मेरा कल्याण उसी पर निर्भर है। कोई पाखण्डी उसका सामना नहीं कर सकता
17) मेरी बातें सावधानी से सुनो; मेरे तर्कों पर कान दो।
18) मैंने अपना मामला तैयार कर लिया। मैं निश्चित ही निर्दोष ठहरूँगा।
19) यदि कोई मेरे तकोर्ं का खण्डन करेगा, तो मैं मौन रहूँगा और प्राण त्याग दूँगा।
20) ईश्वर! मैं तुझ से ये दो वरदान माँगता हूँ और मैं अपने को तुझ से नहीं छिपाऊँगा।
21) मुझ पर से अपना हाथ हटा ले और मुझे आतंकित न कर।
22) तब मुझे बुला और मैं उत्तर दूँगा। नहीं तो मुझे बोलने दे और तू ही उत्तर दे।
23) मैंने कितने अपराध और पाप किये? मुझे बता कि मेरा विद्रोह और अपराध क्या है?
24) तू अपना मुख क्यों छिपाता और मुझे अपना शत्रु क्यों समझता है?
25) क्या तू उड़ते हुए पत्ते को डराना या सूखे हुए तिनके का पीछा करना चाहता है,
26) जो तू मुझ पर कटु आरोप लगाता और मुझे जवानी के पापों का दण्ड देता है,
27) मेरे पैरों को बेड़ियाँ पहनाता, मेरे आचरण की कड़ी निगरानी और मेरे पदचिह्नों की जाँच करता है?
28) मनुष्य तो सड़ी हुई लकड़ी की तरह, कीड़ों से खाये हुए कपड़े की तरह घुलघुल कर मरता है।

अध्याय 14

1) स्त्री से उत्पन्न मानव थोड़े दिनों का है और कष्टों से घिरा है।
2) वह फूल की तरह खिल का मुरझाता, छाया की तरह शीघ्र ही विलीन हो जाता है।
3) क्या तू ऐसे मनुष्य पर ध्यान देता और उसे न्याय के लिए अपने सामने बुलाता है?
4) क्या कोई अशुद्ध से शुद्ध निकाल सकता है? नहीं! कोई नहीं!
5) तूने उनके जीवन के दिनों और महीनों की संख्या निश्चित की है। वह तेरे द्वारा निर्धारित सीमा पार नहीं कर सकता।
6) इसलिए उस से अपनी दृष्टि हटा ले, उसे रहने दे, जिससे वह किराये के मजदूर की तरह अपना समय पूरा करे।
7) वृक्ष के लिए आशा रहती हैं वह कट जाने पर फिर हरा होता और उस में से अंकुर निकलते हैं।
8) उसकी जड़े भले ही जीर्ण हो गयी हों, उसका ठँूठ मिट्टी में सूख गया हो,
9) फिर भी वह पानी की गंध मिलते ही पनप उठेगा और उस में नये पौधे की तरह अंकुर फूटेंगे।
10) किंतु मनुष्य मर कर पड़ा रहता है, वह प्राण निकलते ही समाप्त हो जाता है।
11) भले ही समुद्र से पानी लुप्त हो जाये और नदी तप कर सूख जाये,
12) फिर भी मृतक पडे रहेंगे और नहीं उठ पायेंगे। जब तक आकाश का अंत नहीं होगा, वे नहीं जागेंगे; उनकी नींद नहीं टूटेगी।
13) ओह! यदि तू मुझे अधोलोक में छिपाता! अपना क्रोध शांत हो जाने तक ही आश्रय देता! यदि तू एक अवधि निश्चित करता, जब तू मुझे फिर याद करता!
14) यदि मनुष्य मर कर पुनर्जीवित होता, तो मैं अपने पूरे सेवाकाल में तब तक प्रतीक्षा करता रहता, जब तक उस से मेरी मुक्ति का समय नहीं आ जाता।
15) तू मुझे बुलाता और मैं उत्तर देता; तू अपने हाथों की कृति की प्रतीक्षा करता।
16) तब तू मेरा एक-एक कदम नहीं गिनता, बल्कि मेरा पाप अनदेखा करता।
17) तू मेरा अपराध थैली में मुहरबंद करता और मेरा अधर्म ढक देता!
18) जिस तरह पहाड़ टूट कर टुकडे-टुकड़े हो जाता और चट्टान अपने स्थान से हट जाती है;
19) जिस तरह वर्षा पत्थर को घिस देती और जलधाराएँ मिट्टी बहा ले जाती हैं, उसी तरह तू मनुष्य की आशा चकनाचूर कर देता है।
20) तू उसे मारता और वह सदा के लिए चला जाता है। तू उनका चेहरा बिगाड़ कर उसे भगा देता है।
21) उसके पुत्र सम्मानित है, तो इसे इसका पता नहीं चलता। वे तिरस्कृत हो जाते हैं, किंतु उसे इसकी जानकारी नहीं होती।
22) उसे केवल अपने ही शरीर की पीड़ा का अनुभव होता है। वह अपने लिए ही शोक मनाता है।

अध्याय 15

1) तब तेमानी एलीफ़ज ने उत्तर देते हुए कहाः
2) क्या बुद्धिमान बकवाद करता और अपना पेट पश्चिमी हवा से फुलाता है?
3) क्या वह खोखले तर्क देता और निरर्थक बातें बघारता है?
4) तुम तो ईश्वर पर श्रद्धा की जड़ काटते और ईश्वर की भक्ति में बाधा डालते हो।
5) तुम्हारा पाप तुम्हारे मुँह से बोलता है। तुम कपटियों-जैसी बातें करते हो।
6) इसलिए मैं नहीं, बल्कि तुम्हारा ही मुँह तुम को दोषी ठहराता, तुम्हारे ही होंठ तुम्हारे विरुद्ध गवाही देते हैं।
7) क्या मनुष्यों में सबसे पहले तुम्हारा ही जन्म हुआ था? क्या पहाड़ियों के पहले तुम्हारी ही उत्पत्ति हुई थी?
8) क्या तुम ईश्वर की सभा में बैठ कर प्रज्ञा प्राप्त कर चुके हो?
9) तुम क्या जानते हो, जो हम नहीं जानते? तुम क्या समझते हो, जो हम नहीं समझते?
10) हमारे पक्ष में ऐसे पके बाल वाले बूढ़े हैं, जिनकी उमर तुम्हारे पिता से भी अधिक है।
11) क्या तुम ईश्वर की सान्त्वना और हमारे संतुलित शब्दों का तिरस्कार करते हो?
12) तुम इस प्रकार उत्तेजित क्यों होते हो? तुम्हारी आँखें आवेश में क्यों चमकती है?
13) तुम क्यों ईश्वर के प्रति क्रोध व्यक्त करते और अपनी जीभ को ऐसे कटु शब्द कहने देते हो?
14) मनुष्य क्या है, जो वह शुद्ध होने का दावा करे! स्त्री की संतान क्या है, जो निर्दोषता का दावा करें!
15) यदि ईश्वर स्वर्गदूतों का विश्वास नहीं करता और आकाश उसकी दृष्टि में निर्मल नहीं,
16) तो घृणित और भ्रष्ट मनुष्य की क्या बात, जो पानी की तरह पाप पीता हैं।
17) मेरी बात सुनो, मैं तुम्हें शिक्षा दूँगा! मैंने जो देखा है, वह तुम्हें बताऊँगा।
18) मैं ज्ञानियों की वह शिक्षा दोहराऊँगा, जो उन्हें अपने पूर्वजों से मिली थी और जिसे उन्होंने पूर्ण रूप से प्रकट किया।
19) उनके पूर्वजों को यह देश उस समय मिला था, जब उनके बीच कोई परदेशी नहीं रहता था।
20) दुष्ट का हृदय जीवन भर अशांत रहता है। अत्याचारी को थोड़े ही वर्ष दिये जाते हैं।
21) जोखिम की ख़बरें उसे आतंकित करती रहती है; समृद्धि के दिनों में उस पर छापामार टूट पड़ते हैं।
22) उसे घोर अंधकार से बच निकलने की आशा नहीं; उसके सिर पर तलवार लटकती रहती है।
23) वह मारा-मारा फिरता है, वह गीधों का शिकार है। वह जानता है कि उसके लिए अंधकार निकट है।
24) वेदना और विपत्ति उसे आतंकित करती है। वे आक्रमक राजा की तरह उस पर टूट पड़ती हैं;
25) क्योंकि उसने ईश्वर के विरुद्ध विद्रोह किया, सर्वशक्तिमान् का सामना करने का साहस किया।
26) वह मोटी ढाल की आड़ में, सिर झुका कर उस पर टूट पड़ा।
27) उसके चेहरे पर मुटापा छा गया और उसके शरीर पर चरबी चढ़ गयी है।
28) वह उजड़ हुए नगरों में बस गया था, ऐसे टूटे-फूटे घरों जो खंडहर होने को हैं।
29) वह धनी नहीं बनेगा, उसकी सम्पत्ति उसके पास नहीं रहेगी। वह पृथ्वी पर नहीं फलेगा-फूलेगा।
30) वह अंधकार से नहीं निकल पायेगा। आग उसकी टहनियों को मुरझा देगी, वे उस गरम हवा से नहीं बच पायेंगी।
31) वह मिथ्या बातों का भरोसा कर अपने को धोखा न दे, उसे निराश होना पड़ेगा।
32) उसकी टहनियाँ समय से पहले मुरझायेंगी और उसकी डालिया फिर हरी नहीं होंगी।
33) उसके कच्चे फल दाखलता की तरह झड़ जायेंगे, उसके फूल जैतून की तरह गिर जायेंगे;
34) क्योंकि दृष्ट की संतति निष्फल होती है, आग भ्रष्टाचारी मनुष्य के तम्बू भस्म कर देती है।
35) जो बुराई की कल्पना करते हैं, वे कुकर्म उत्पन्न करते हैं; उनके मन में छल-कपट की योजना बनती है।

अध्याय 16

1) अय्यूब ने उत्तर देते हुए कहा :
2) मैं इस तरह की बहुत-सी बातें सुन चुका हूँ, तुम सब के सब दुःखदायी सान्त्वनादाता हो।
3) क्या हमारे बकवाद का कभी अंत नहीं होगा? तुम मुझे उत्तर देने पर क्यों तुले हुए हो?
4) यदि तुम मेरे स्थान पर होते, तो मैं भी तुम्हारी तरह बोलता। मैं तुम्हारे विरुद्ध भाषण झाड़ता और तुम्हारी विरुद्ध सिर हिलाता।
5) मैं अपने शब्दों में तुम्हें सान्त्तवना देता और अपनी चतुर बातों से तुम को शांत करता।
6) मेरे बोलने पर मेरी वेदना दूर नहीं होती और मौन रहने पर बनी रहती है।
7) मैं टूट गया हूँ, निस्सहाय हूँ उसने मेरा समस्त परिवार नष्ट कर दिया।
8) वह मेरे विरुद्ध साक्ष्य देता है, मेरा परित्याग करता और मुझ पर अभियोग लगाता है।
9) वह क्रुद्ध हो कर मुझे फाड़ डालता और मेरे विरुद्ध दाँत पीसता है। मेरे विरोधी मुझ पर आँख गड़ाता है।
10) लोग मेरा उपहास करते और मुझे थप्पड़ मारते हैं। वे मेरे चारों ओर खड़े रहते हैं।
11) ईश्वर ने मुझे दुष्टों के हाथ दे दिया, मुझे विधर्मियों के पंजे में डाल दिया है।
12) मैं सुख-शांति से रहता था, किंतु उसने मुझ झकझोरा। उसने मेरी गरदन पकड़ कर मुझे पछाड़ा और मुझे अपना निशाना बनाया है।
13) उसके बाण मुझे चारों ओर से मारते हैं, वह निर्दयता से मेरे गुरदे चीरता और मेरा पित्त भूमि पर बिखेरता है।
14) वह बार-बार मुझे छेदित करता और योद्धा की तरह मुझ पर टूट पड़ता है।
15) मैंने टाट सिलकर कर पहन लिया और अपना माथा धूल में छिपाया
16) मेरा चेहरा रोते-रोते लाल हो गया है, मेरी आँखों पर मृत्यु की छाया पड़ गयी है।
17) फिर भी मेरे हाथों ने हिंसा नहीं की और मेरी प्रार्थना निष्कपट है।
18) पृथ्वी! मेरा बहाया रक्त मत ढको! मेरी दुहाई की आवाज शांत न हो जाये!
19) अब भी स्वर्ग में मेरा साक्षी है, ऊँचाई पर मेरा समर्थक है।
20) मेरे मित्र भले ही मेरा उपहास करें, मैं ईश्वर के सम्मुख आँसू बहाता हूँ।
21) जिस तरह कोई व्यक्ति मनुष्य के सामने किसी का पक्ष लेता है, उसी तरह कोई समर्थक ईश्वर के सामने मनुष्य का पक्ष प्रस्तुत करे;
22) क्योंकि मुझे थोड़ ही वषोर्ं के बाद उस मार्ग पर जाना होगा, जहाँ से कोई नहीं लौटता।

अध्याय 17

1) मेरा मन टूट गया है, मेरे दिन समाप्त हो रहे हैं, मेरी लिए कब्र ही बाकी है।
2) मेरे निंदक मेरे चारों ओर खड़े हैं, उनका उपहास मुझे सोने नहीं देता।
3) प्रभु! तू ही मेरे लिए जमानत दे, मेरे लिए ऐसा कोई भी नहीं करेगा।
4) तूने उनकी बुद्धि कुण्ठित कर दी, इसलिए तू उन्हें विजय नहीं दिला।
5) जो मनुष्य झूठ बोलकर अपने मित्र की सम्पत्ति हरता है, वह दोषी है और उसकी सन्तान दुःख में दिन काटेगी।
6) मैं सब के लिए उपहास का पात्र बन गया हूँ लोग मेरे मुँह पर थूकते हैं।
7) मेरी आँखें दुःख के कारण धुंधला गयी है। मेरे अंग घुल कर छाया मात्र हो गये हैं।
8) धर्मी लोग यह देख कर दंग रह जाते हैं और निर्दोष के मन में पाखण्डी के प्रति क्षोम उत्पन्न होता है,
9) फिर भी धर्मात्मा अपने मार्ग से नहीं भटकेगा; जिसने हाथ निर्दोष है, उसका बल बढ़ता ही जायेगा।
10) तुम सब आओं और अपने तर्क फिर प्रस्तुत करो। तुम लोगों में एक बुद्धिमान् नहीं मिलेगा।
11) मेरे दिन बीत चुके हैं, मेरी योजनाएँ और मेरे मन के सभी स्वप्न मिट गये हैं।
12) किंतु वे रात को दिन में बदलते है। वे कहते हैं कि प्रकाश हाने वाला हैं, जबकि अंधकार छा जाता है।
13) मुझे कोई आशा नहीं रही। अधोलोक मेरा आवास है, जहाँ मेर बिस्तर बिछाया गया है।
14) मैं कब्र से बोला, ''तू मेरा पिता है!'' कीड़ों से, ''तुम मेरी माँ या बहनें हो!''
15) इसलिए कहाँ है मेरी आशा? मेरा सौभाग्य कौन देख सकता है?
16) वे मेरे साथ अधोलोक में उतरेंगे। वे मेरे साथ मिट्टी में मिल जायेंगे।

अध्याय 18

1) शूही बिलदद ने उत्तर देते हुए कहाः
2) तुम कब तक-बोलते रहोगे? तुम सोच लो और उसके बाद हम बातें करेंगे।
3) तुम हमें नासमझ पशु-जैसे क्यों मानते हो? तुम हमें मूर्ख क्यों समझते हो?
4) तुम अपने क्रोध के आवेश में अपने की विक्षत करते हो। क्या तुम चाहते हो कि तुम्हारे कारण पृथ्वी उजड़ जाये और चट्टान अपने स्थान से हट जायें?
5) दुष्ट का दीपक बुझाया जायेगा, उसके घर में अंधकार होगा।
6) उसके तम्बू में प्रकाश नहीं होगा, उसके घर की बत्तियाँ बुझ जायेंगी।
7) उसके दृढ़ कदम शिथिल पड़ जायेंगे, उसके अपने षड्यंत्र उसे गिराते हैं।
8) उसके पैर जाल में फँस जाते हैं; वह चोरगढे में गिर जाता है।
9) एक फंदा उसकी एड़ी जकड़ लेता है, वह जाल में फंस जाता है।
10) उसे फँसाने के लिए पाश छिपाया गया है, उसके मार्ग में जल बिछाया गया है।
11) विभीषिकाएँ उसे चारों ओर से डराती और उसका पीछा करती रहती है।
12) भूख से उसका बल घट जायेगा, विपत्ति उसकी बगल में खड़ी रहती है।
13) बीमारी उसका चमड़ा खा जायेगी, महामरी उसके अंग गला देगी।
14) वे उसे सुरक्षित तम्बू से ले जा कर आतंक के सम्राट के सामने पेश करेंगे।
15) उसका तम्बू जलाया जायेगा और उसकी जमीन पर गंधक बिखेर दिया जायेगा।
16) उसकी जड़े नीचे से सूख जायेंगी और उसकी डालियाँ ऊपर से मुरझायेंगी
17) उसकी स्मृति पृथ्वी पर से मिट चुकी है। देश में कोई उसका नाम नहीं लेता।
18) लोग उसे प्रकाश से अंधकार में ढकेलते हैं और पृथ्वी से उसका बहिष्कार करते हैं।
19) उसकी जाति में उसकी कोई सन्तति नहीं, उसके घर में कोई निवास नहीं करता।
20) पश्चिम के लोग उसके भाग्य पर विस्मित हैं, पूर्व के लोगों के रोंगटे खडे हो जाते हैं।
21) विधर्मी के निवास की यह दशा होती है, उस स्थान की, जहाँ ईश्वर पर आस्था नहीं।

अध्याय 19

1) अय्यूब ने उत्तर देते हुए कहाः
2) तुम लोग कब तक मुझे सताते रहोगे और अपने शब्दों से मुझे रौंदते रहोगे
3) तुमने दस बार मेरा अपमान किया। क्या तुम को मुझे सताते हुए लज्जा नहीं?
4) यदि मैं सचमुच भटक गया, तो उस से तुम को क्या?
5) यदि तुम अपने को मुझ से बड़ा प्रमाणित करना और मेरी दुर्दशा के कारण मेरी निंदा करना चाहते हो,
6) तो यह जान लो कि ईश्वर ने मेरे साथ अन्याय किया और मुझे अपने जाल में फँसाया है।
7) यदि मैं 'अत्याचार! अत्याचार!' की आवाज लगाता, तो कोई नहीं सुनता, मैं दुहाई देता हूँ, किंतु मेरे साथ अन्याय होता रहता है।
8) उसने मेरा मार्ग बंद कर दिया, मैं आगे नहीं बढ सकता। उसने मेरा पथ अंधकार से ढक दिया।
9) उसने मेरी प्रतिष्ठा मुझ से छीन ली है, उसने मेरे सिर का मुकुट उतार दिया है।
10) वह चारों ओर से मेरी जड़ काटता है, उसने मेरी आशा का वृक्ष उखाड़ा है।
11) उसका क्रोध मुझ पर भड़क उठा, उसने मेरे साथ-शत्रु जैसा व्यवहार किया।
12) उसके सैनिक मेरी ओर आगे बढ़ते हैं, वे मेरे पास तक का मार्ग बनाते और मेरे तम्बू की घेराबंदी करते हैं।
13) उसने मेरे भाई-बहनों को मुझ से दूर कर दिया। मेरे परिचित मुझे पराया समझते हैं,
14) मेरे संबंधी मुझे छोड़ कर चले गये, मेरे मित्रों ने मुझे भुला दिया।
15) मेरे अतिथि और दासियाँ मुझे परदेशी समझते हैं, मैं उनकी दृष्टि में अपरिचित बन गया हँू।
16) मैं अपने नौकर को बुलाता हँू, वह उत्तर तक नहीं देता, यद्यपि मैं उस से विनयपूर्वक निवेदन करता हूँ।
17) मेरी सांँस से मेरी पत्नी को घृणा होती है, मेरे अपने पुत्र मुझे घृणित समझते हैं।
18) छोकरे भी मेरी हंसी उडाते हैं, जब मैं उठ खड़ा होता हूँ, तो वे मेरा उपहास करते हैं।
19) मेरे पुराने मित्र मेरा तिरस्कार करते, मेरे आत्मीय मुझ से मुँह मोड़ते हैं।
20) मेरी चमड़ी मेरी हड्डियों से चिपक गयी, मैं मृत्यु से बाल-बाल बचा हूँ।
21) मेरे मित्रों! मुझ पर दया करो! दया करो! क्योंकि प्रभु के हाथ ने मेरा स्पर्श किया है।
22) तुम ईश्वर की तरह मुझे क्यों सताते हो? तुम मुझे क्यों निगलना चाहते हो?
23) (२३-२४) ओह! कौन मेरे ये शब्द लिखेगा? कौन इन्हें लोहे की छेनी और शीशे से किसी स्मारक पर अंकित करेगा? इन्हें सदा के लिए चट्टान पर उत्कीर्ण करेगा?
25) मैं यह जानता हूँ कि मेरा रक्षक जीवित हैं और वह अंत में पृथ्वी पर खड़ा हो जायेगा।
26) जब मैं जागूँगा, मैं खड़ा हो जाऊँगा, तब मैं इसी शरीर में ईश्वर के दर्शन करूँगा।
27) मैं स्वयं उसके दर्शन करूँगा, मेरी ही आँखे उसे देखेंगी। मेरा हृदय उसके दर्शनों के लिए तरसता है।
28) यदि तुम सोचते हो, ''हम उसे किस प्रकार सतायें क्योंकि वह अपनी दुर्गति का कारण है''
29) तो तुम अपनी तलवार से सावधान रहो; क्योंकि तुम्हारी क्रूरता तलवार के दण्ड के योग्य है। तब तुम जान जाओगे कि न्याय होता है।

अध्याय 20

1) तब नामाती सोफ़र ने उत्तर देते हुए कहा :
2) मेरी व्याकुलता के कारण मेरे विचार मुझे बोलने को बाध्य करते हैं।
3) तुम्हारी आलोचना मेरा अपमान करती है। मेरी बुद्धि मुझे उत्तर सुझाती है।
4) क्या तुम यह नहीं जानते कि प्राचीन काल से, उस समय से जब मनुष्य पृथ्वी पर प्रकट हुआ,
5) दुष्ट की विजय अल्पकालीन है, विधर्मी का आनंद क्षणभंगुर है?
6) उसकी लंबाई भाले ही आकाश की तरह ऊँची हो, उसका सिर भले ही बादलों तक पहुँचता हो,
7) किन्तु वह उसके मल की तरह सदा के लिए लुप्त हो जायेगा। जो उसे देखा करते थे, वे बोल उठेंगे वह कहाँ है?
8) वह स्वप्न की तरह मिट जायेगा और उसका कहीं पता नहीं चलेगा। वह रात के दृश्य की तरह अंतर्धान होगा
9) जो आँख उसे देखा करती थी, वह अब उसे नहीं देखेगी। उसके अपने घर में उसका कहीं पता नहीं चलेगा।
10) उसके पुत्र दरिद्रो को क्षतिपूति देंगे, उसके हाथ उसकी सम्पत्ति लौटायेंगे।
11) उसकी हाड्डियां जवानी के जोश से भरी थी, किंतु वे उसके साथ धूल में पड़ी रहेंगी।
12) बुराई का स्वाद उसे इतना पसंद हैं कि वह उसे अपनी जीभ के नीचे छिपाता है,
13) उसे अपने मुँह में रखता और उसका तालू उसका स्वाद लेता रहता है।
14) फिर भी उनका भोजन उसके पेट में कटु बन कर नाग का विष बन जाता है।
15) वह जो संपत्ति निगल गया था, वह उसे उगल देता, ईश्वर उसे उसके पेट से निकालेगा।
16) वह नाग का विष चूसता है, सर्प का दंश उसे मारेगा।
17) वह उन धाराओं को फिर नहीं देखेगा, उस नदियों को, जो मधु और दूध से भरी है।
18) उसने जो कमाया है, वह उसे नहीं निगल पायेगा, वह अपने व्यापार का लाभ नहीं भोगेगा।
19) उसने दरिद्रों पर अत्याचार किया और उन्हें निराश्रय छोड़ दिया। उसने ऐसे घरों पर अधिकार किया, जिन्हें उसने नहीं बनाया।
20) वह अपनी भूख शांत नहीं कर पाता, फिर भी वह अपनी संपत्ति नहीं बचा सकेगा।
21) लोभ उसे खा जाता है। इसलिए उसकी सुख-शांति नहीं टिकेगी।
22) समृद्धि के शिखर पर पहुँचने पर वह चिंता करने लगेगा और विपत्ति उस पा आ पडेगी।
23) जब वह भोजन पर बैठगा, तो ईश्वर का क्रोध उस पर भड़क उठेगा। वह उस पर अपना कोप भोजन की तरह बरसायेगा।
24) यदि वह लोहे के शस्त्र से बचेगा, तो काँसे का धनुष छेदित करेगा।
25) जब वह उसे अपने शरीर से निकालेगा, उसकी नोंक अपने पिताशय से खींचेगा, तो मृत्यु का डर उसे आतंकित करेगा।
26) उसके खजाने पर अंधकार छा जायेगा। एक रहस्यमय आग उसकी सम्पत्ति खा जायेगी और वह सब भस्म करेगी, जो उसक तम्बू में रह गया है।
27) आकाश उसकी दुष्टता प्रकट करेगा और पृथ्वी उसके विरुद्ध खड़ी हो जायेगी।
28) क्रोध के दिन की जलधाराएँ उसके घर की संपत्ति बहा ले जायेंगी।
29) यही दुष्ट मनुष्य का वह भाग्य है, जिस ईश्वर ने उसके लिए निर्धारित किया है।

अध्याय 21

1) अय्यूब ने उत्तर देते हुए कहा :
2) मेरी बात ध्यान से सुनो; यही मेरे लिए तुम्हारी सान्त्वना हो।
3) मुझे अपना पक्ष प्रस्तुत करने दो, इसके बाद तुम मेरा उपहास कर सकते हो।
4) क्या मैं किसी मनुष्य से शिकायत करता हूँ? तो मैं अपना धैर्य क्यों नहीं खो देता?
5) मेरी ओर देखो। तुम दंग रह जाओगे और दाँतों तले उँगली दबाओगे।
6) इस पर विचार करने पर मैं घबरा जाता हूँ, मेरा शरीर थरथर काँपने लगता है।
7) विधर्मी क्यों जीवित रहते हैं? उनका सामर्थ्य उमर के साथ क्यों बढता जाता है?
8) उनकी सन्तति उनके सामने फूलती-फलती है। वे अपनी आँखों से अपने वंशजों को बढ़ते देखते हैं।
9) उनके घरों में शांति और सुरक्षा है। उन पर ईश्वर का डण्डा नहीं बरसता।
10) उनके सांड़ बरदाने में कभी नहीं चूकते, उनकी गायें बछड़ा ब्याही हैं, गँवाती नहीं।
11) वे अपनी संतान को मेमनों की तरह मैदान में खेलने देते हैं। उनके बाल-बच्चे नाचते-कूदते हैं।
12) वे डफली और वीणा की धुन पर गाते हैं, वे मुरली की ध्वनि पर आनंद मानते हैं।
13) वे सुख में जीवन बिताने के बाद ही शांतिपूर्वक अधोलोक में उतरते हैं।
14) उन्होंने ईश्वर से कहा था, ''हमारे पास से चले जा! हमें तेरे मार्ग में कोई रूचि नहीं!
15) सर्वशक्तिमान् कौन होता है, जो हम उसकी सेवा करें? उस से प्रार्थना करने से हमें क्या लाभ होगा?
16) क्या उनके हाथ में सुख-शांति नहीं? तो हम दुष्टों के षड्यंत्रों से दूर क्यों रहें?
17) क्या दुष्ट के दीपक अकसर बुझते हैं? क्या विपत्ति उन पर अकसर टूटती है? क्या ईश्वर का क्रोध उन पर अकसर भडक उठता है?
18) क्या वे अकसर तिनके की तरह पवन द्वारा छितराये जाते, भूसी की तरह आँधी द्वारा उड़ाये जाते हैं?
19) कहा जाता हैं, ''ईश्वर पुत्र को पिता का दण्ड देता हैं''। दुष्ट को ही दण्ड दिया जाना चाहिए, जिससे वह स्वयं उसका अनुभव करें।
20) वह अपनी ही आँखों से अपनी दुर्गति देखे और सर्वशक्तिमान् के क्रोध का शिकार बने;
21) क्योंकि अपने जीवन की डोर कट जाने के बाद उसे अपने घराने की क्या चिंता?
22) ईश्वर दूतों का भी न्याय करता है, तो क्या कोई मनुष्य उसे ज्ञान सिखा सकता है?
23) कोई व्यक्ति सुख-शांति में जीवन बिताते हुए मृत्यु तक पूर्ण स्वस्थ रहता है।
24) उसका शरीर हष्ट-पुष्ट है और उसकी हड्डियों की मज्जा तरल है।
25) दूसरा व्यक्ति सुख देखे बिना कुढ-कुढ़ कर प्राण छोड़ता है।
26) दोनों समान रूप से धूल में पडे हैं और उन्हें कीडे ढक देते हैं।
27) मैं अच्छी तरह तुम्हारे विचार भाँपता हूँ। मैं जानता हूँ कि तुम मेरे विषय मे क्या सोचते हो।
28) तुम कहते हो, ''शासक का भवन कहाँ है? कहाँ है वह तम्बू, जहाँ डाकू रहते थे?''
29) क्या तुमने यात्रियों से यह नहीं पूछा? क्या तुम उनका कहना प्रामाणिक नहीं मानते?
30) दुष्ट विपत्ति के दिन सुरक्षित रहता है, उसे कोप के दिन आश्रय मिलता है।
31) कौन उसके मुँह पर उसके आचरण की निंदा करेगा? कौन उस से उसके कर्मों का बदला चुकायेगा?
32) लोग उसकी शवयात्रा में सम्मिलित होते और उसकी समाधि पर जागरण करते हैं।
33) घाटी की मिट्टी उसे हलकी लगती है। सब लोग उसके पीछे-पीछे चलते हैं; अपार जनसमूह उसके साथ चलता है।
34) इसलिए तुम लोगों की सान्त्वना व्यर्थ हैं, तुम्हारे तर्कों में कोई सत्य नहीं।

अध्याय 22

1) तब तेमानी एलीफ़ज ने उत्तर देते हुए कहा :
2) क्या कोई ईश्वर को लाभ पहुँचा सकता? बुद्धिमान अपने को ही लाभ पहुँचता है।
3) सर्वशक्तिमान् की रूचि तुम्हारी धार्मिकता में नहीं; उसे तुम्हारे निर्दोष आचरण से कोई लाभ नहीं।
4) क्या वह धार्मिकता के कारण तुम्हें दण्ड देता या तुम पर अभियोग लगाता है?
5) कभी नहीं! वह तुम्हारी दुष्टता के कारण ऐसा करता है, क्योंकि तुम्हारे अपराध असंख्य हैं।
6) तुम अकारण अपने भाइयों से जमानत माँगते और उन्हें नंगा कर उनके कपड़े उतरवाते थे।
7) तुमने प्यासों को पानी नहीं दिया और भूखों को रोटी नहीं खिलायी।
8) शक्तिशाली ने भूमि अपने अधिकार में कर ली और उस पर अपने कृपापात्र को बसाया।
9) तुमने विधवाओं को खाली हाथ भगाया और अनाथों की बांहें तोड़ीं।
10) इसलिए तुम्हारे लिए जाल बिछाये गये और आतंक तुम को अचानक दबोचता हैं।
11) इसलिए तुम को अंधकार घेरता और तुम को बाढ़ ढ़कती है।
12) क्या ईश्वर आकाश के ऊपर विराजमान नहीं? नक्षत्रमण्डल कितना ऊँचा है!
13) फिर भी तुम कहते हो, ''ईश्वर क्या जानता है? क्या वह घने बादलों के ऊपर से न्याय कर सकता है?
14) वह बादलों के ऊपर विराजमान है और उनके परदे के आर-पार नहीं देख सकता।''
15) क्या तुम उस पुराने मार्ग पर चलना चाहते हो, जिस पर दुर्जन जा चुके हैं?
16) वे समय से पहले उठा लिये गये, उनकी नींव बाढ़ ने बहा दी;
17) क्योंकि वे ईश्वर से कहते थे, ''हमारे पास से चला जा'' और सर्वशक्तिमान् से हम को क्या?''
18) फिर ईश्वर ने उनके घर उत्तम वस्तुओं से भर दिये थे। इसलिए मैं दुष्टों के षड़यंत्रों से दूर रहता हूँ।
19) धर्मी दुष्टों का विनाश देख कर आनंद मनायेंगे, निष्कपट व्यक्ति यह कहते हुए उनका उपहास करेगा;
20) ''हमारे विरोधियों का विनाश हो गया, उनकी संपत्ति आग ने भस्म कर दी''।
21) ईश्वर से मेल करो, तुम्हें फिर सुख-शांति मिलेगी।
22) उसके मुख से शिक्षा ग्रहण करो, उसके शब्द अपने हृदय में संचित करो।
23) यदि तुम सर्वशक्तिमान् के पास लौटोगे और अपने तम्बू से अन्याय को दूर कर दोगे,
24) यदि तुम अपना सोना धूल-जैसा और ओफ़िर का सोना नदी के पत्थरों जैसा समझोगे,
25) तो सर्वशक्तिमान तुम्हारे लिए सोने और चाँदी का ढेर बना जायेगा।
26) तब तुम सर्वशक्तिमान को अपना सर्वोत्तम आनंद मानोगे और ईश्वर की ओर अभिमुख हो जाओगे।
27) वह तुम्हरी प्रार्थना स्वीकार करेगा और तुम उसके लिए अपनी मन्नतें पूरी करोगे।
28) तुम्हारी सभी योजनाएँ सफल होंगी, तुम्हारा मार्ग प्रकाशमान होगा;
29) क्योंकि ईश्वर घमण्डी को नीचा दिखाता और दीन-हीन की रक्षा करता है।
30) वह निर्दोष का उद्धार करता है। तुम को अपनी पवित्रता के कारण मुक्ति मिलेगी।

अध्याय 23

1) तब अय्यूब ने उत्तर देते हुए कहा :
2) आज भी मेरी वाणी में विद्रोह है। उसका हाथ मुझ अभागे पर भारी है।
3) ओह! यदि मैं जानता कि वह कहाँ मिलेगा, तो मैं उसके सामने उपस्थित हो जाता।
4) मैं अपना मामला पेश करता और अपनी सफाई में अनेक तर्क प्रस्तुत करता।
5) तब मैं उसका उत्तर सुनता और उसके शब्दों पर विचार करता।
6) क्या वह मुझ पर कठोर अभियोग लगाता? कभी नहीं! वह ध्यान से मेरी बात सुनता।
7) वहाँ निष्कपट व्यक्ति अपना पक्ष प्रस्तुत करता और मैं अपने न्यायकर्ता के सामने निर्दोष ठहरता।
8) मैं जब पूर्व की ओर जाता हूँ, तो वह नहीं मिलता; पश्चिम की ओर जाता हूँ, तो वह मुझे वहाँ नहीं दिखाई देता।
9) मैं उसे उत्तर में खोजता, किंतु उसे वहाँ नहीं देखता; मैं लौट कर उसे दक्षिण में ढूँढता, किंतु वह नहीं मिलता।
10) फिर भी वह मेरा आचरण जानता है। मैं उसकी परीक्षा में स्वर्ग की तरह शुुद्ध ठहरूँगा।
11) मैं उसके पदचिन्हों पर चलता रहा, मेरे पैर उसके मार्ग से नहीं भटके।
12) मैं उसकी आज्ञाओं के पालन से विचलित नहीं हुआ, मैंने उसके वचनों को अपने हृदय में संचित रखा।
13) किंतु वह प्रभु है। उसका विरोध कौन करेगा? वह जो चाहता है, वही हो कर रहेगा।
14) वह अपने मन की अन्य योजनाओं की तरह मेरे विषय में भी अपनी योजना पूरी करेगा।
15) मैं उसके सामने आतंक से काँपता हूँ; मैं जितना अधिक सोचता हूँ, उतना अधिक भयभीत हो जाता हूँ।
16) ईश्वर ने मेरा साहस छीन लिया, सर्वशक्तिमान् ने मुझे आतंकित कर दिया।
17) फिर भी अंधकार ने मुझे नहीं डराया, बल्कि मैं अज्ञात भविष्य से घबराता हूँ।

अध्याय 24

1) सर्वशाक्तिमान् न्याय का दिन क्यों नहीं निर्धारित करता? उसके भक्त उसके दिन क्यों नहीं देखते?
2) दुर्जन खेतों के सीमा-पत्थर खिसकाते हैं और चुराये हए झुण्ड चराते हैं।
3) वे अनाथों का गधा हाँक कर ले जाते हैं और विधवा के बैल को बंधक के रूप में रखते हैं।
4) वे गरीब को मागोर्ं से भगाते हैं, देश के सभी दरिद्र छिपने को बाध्य हो जाते हैं,
5) जिससे वे मुँह अंधेरे निकल कर भोजन की खोज में जंगली गधों की तरह उजाड़खण्ड में भटकते-फिरते हैं। उस से उनके बच्चों का निर्वाह होता है।
6) वे रात को लुने हुए खेतों में सिल्ला बीनते और दुष्ट की दाखबारी में बचे हुए अंगूर तोड़ते हैं।
7) वे कपड़ों के अभाव में रात को नंगे पड़े रहते हैं। जाडें में भी उनके पास ओढ़ने को कुछ नहीं।
8) वे पर्वतों की वर्षा से भीगते और आश्रय के अभाव में चट्टान पर पड़े रहते हैं।
9) दुर्जन पितृहीन बच्चों को उनकी माता की गोद से छीनते हैं और दरिद्र की संतान को बंधक के रूप में रखते हैं।
10) गरीब कपड़ों के अभाव में नंगे घूमा करते हैं। वे दूसरों के पूले ढोते और स्वयं भूखे रहते हैं।
11) वे दूसरों के यहाँ तेल पेरते और अंगूर रौंदते हुए भी प्यासे रहते हैं।
12) शहरों में मरने वाले विलाप करते और घायल सहायता के लिए पुकारते हैं, किन्तु ईश्वर इस बात पर ध्यान नहीं देता।
13) दुर्जन ज्योति के विरुद्ध विद्रोह करते, उसे पीठ दिखाते और उसकी उपेक्षा करते हैं।
14) हत्यारा मुँह अँधेरे उठ कर दरिद्र का वध करता और रात को चारी करने जाता है।
15) व्यभिचारी की आँखें झुटपुटे की राह देखती हैं। वह सोचता हैं, ''मुझे कोई नहीं देख पायेगा'' और वह अपने चेहरे पर परदा डालता है।
16) वे अँधेरे में घरों में सेंध मारते और दिन में छिपे रहते हैं। वे प्रकाश में किनारा काटते हैं।
17) भोर उनके लिए मृत्यु ही छाया-जैसा है। घोर अंधेरा उनका सखा है।
18) वे पानी पर बहते तिनके के सदृश हैं। उनकी भूमि लोगों द्वारा अभिशप्त है और उनकी दाखबारी में कोई नहीं जाता।
19) जिस तरह सूखी भूमि पर गरमी पिघली बर्फ सोख लेती है, उसी तरह अधोलोक पापी को निगलता है।
20) उसकी माता उसे भुला देती है, उसे कीडे खा जाते हैं, उसे कोई नहीं याद करता। दुष्ट पेड़ की तरह काट दिया जाता है।
21) उसने बांझ का शोषण किया और विधवा के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया।
22) किंतु जब ईश्वर उठता है, जो शक्तिशालियों को भी ले जाता है, तो उसे जीवित रहने की आशा नहीं।
23) फिर भी ईश्वर उसे सुरक्षा में रहने देता, किंतु उसकी आँखों उसके आचरण का निरीक्षण करती रहती हैं।
24) वह थोड़े समय तक फलता-फूलता और समाप्त हो जाता है। वह कटे हुए पौधे की तरह अचानक ढेर हो जाता है। वह अनाज की बाल की तरह कट जाता है।
25) यदि ऐसा नहीं, तो कौन मुझे झूठा प्रभामिण करेगा और मेरे तकोर्ं का खण्डन करेगा?

अध्याय 25

1) तब बिलदद ने उत्तर देते हुए कहा :
2) प्रभुत्व और आतंक प्रभु का है। वह आकाश की ऊँचाइयों में शांति बनाये रखता है।
3) उसकी सेनाएँ कौन गिन सकता है? उसकी ज्योति का उदय किस पर नहीं होता?
4) क्या मनुष्य ईश्वर की दृष्टि में धार्मिक हो सकता है? क्या स्त्री की संतान पवित्र होने का दावा कर सकती है?
5) जब उसकी दृष्टि में चन्द्रमा प्रकाशमान नहीं और नक्षत्र शुद्ध नहीं,
6) तो मनुष्य की बात ही क्या, जो मात्र कीड़ा है? आदम की संतान ही क्या, जो मात्र कृमि है?

अध्याय 26

1) अय्यूब ने उत्तर देते हुए कहा :
2) तुम निर्बल की कैसी सहायता करते हो! तुम अशक्त बाँह को कैसे सँभालते हो!
3) तुमने अज्ञानी को कैसा परामर्श दिया! तुमने विवेक का कितना अच्छा प्रदर्शन किया!
4) तुमने किस को सम्बोधित किया? तुम को यह ज्ञान किस से प्राप्त हुआ?
5) मृतक और समुद्र के नीचे के निवासी ईश्वर के सामने थरथर काँपते हैं।
6) अधोलोक उसके सामने खुला है, महागर्त्त उसके सामने अनावृत है।
7) वह उत्तरी आकाश में फैलाता और पृथ्वी को शून्य में लटकाता है।
8) वह बादलों में पानी जमा करता है और बादल उसके बोझ से नहीं फटते।
9) वह पूर्ण चन्द्रमा का मुँह छिपाता और उस पर अपने बादल तान देता है।
10) वह समुद्र की सतह के ऊपर एक वृत खींच कर प्रकाश और अंधकार की सीमाएँ निर्धारित करता है।
11) उसकी डाँट पर आकाश के खम्भे भयभीत हो कर हिलते हैं।
12) उसने अपनी शक्ति से समुद्र को दण्ड दिया और अपने ज्ञान से रहब को पराजित किया।
13) उसने अपनी साँस से आकाश को साफ किया और उसके हाथ ने भागते सर्प को छेदा है।
14) यह उसके कायोर्ं का आभास मात्र है, हम उनकी झलक मात्र देख पाते हैं। कौन उनकी थाह ले सकता है।

अध्याय 27

1) तब अय्यूब ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा :
2) जीवंत ईश्वर की शपथ, जो मुझे न्याय नहीं दिलाता! सर्वशक्तिमान् की शपथ, जिसने मेरा मन कटु बना दिया है!
3) जब तक मैं जीवित रहूँगा, जब तक ईश्वर का श्वास मुझे अनुप्राणित करेगा,
4) तब तक मेरे होंठ झूठ नहीं बोलेंगे, तब तक मेरी जीभ असत्य नहीं कहेगी।
5) धिक्कार मुझे! यदि मैं तुम से सहमत होऊँ! मैं मरते दम तक अपनी निर्दोषता का दावा करूँगा।
6) मैं अपनी धार्मिकता पर दृढ़ रहूँगा और इसका त्याग नहीं करूँगा। मेरा अंतःकरण मेरे किसी भी दिन के कारण मुझे दोषी नहीं ठहराता।
7) मेरे शत्रु को दुष्ट का भाग्य प्राप्त हो! मेरे विरोधी को अपराधी का दण्ड मिले!
8) जब ईश्वर दुष्ट का अंत कर देता है, तो उसे किस लाभ की आशा रह जाती है?
9) जब उस पर विपत्ति आ पड़ती है, तो क्या ईश्वर उसकी पुकार सुनेगा?
10) यदि वह सर्वशक्तिमान् को अपना आनंद मानता, तो उसने ईश्वर से हर समय प्रार्थना की होती।
11) मैं तुम लागों को ईश्वर के सामर्थ्य की शिक्षा दूँगा। मैं सर्वशक्तिमान् के विचार नहीं छिपाऊँगा।
12) जब तुम लोगों ने यह सब देखा है, तो क्यों इस प्रकार बकवाद करते हो?
13) ईश्वर दुष्ट के लिए यह भाग्य निर्धारित करता है, अत्याचारी को सर्वशाक्तिमान् की ओर से यह विरासत प्राप्त होगी :
14) उसके बहुसंख्यक पुत्रों को तलवार के घाट उतारा जायेगा, उसे वंशजों को भूखा रहना होगा।
15) जो बच जाते हैं, वे महामारी के शिकार बनेंगे और उनकी विधवाएँ उनका शोक नहीं मनायेगी।
16) चाहे वह धूल की तरह चाँदी एकत्र करे और मिट्टी के ढेर की तरह वस्त्र जमा करे,
17) किंतु धर्मी उन्हें पहन लेगा और निर्दोष को उसकी चाँदी मिल जायेगी।
18) जो घर बनाता हैं, वह मकडी के जाले की तरह, चौकीदार द्वारा बनायी झोपड़ी की तरह है।
19) वह सोने जाते समय अमीर और जागते समय कंगाल है।
20) विभीषिकाएँ उसे बाढ की तरह घेरती हैं और बवण्डर उसे रात में उड़ा देता है।
21) पूर्वी हवा उसे उठा कर ले जाती और अपने स्थान से उखाड़ कर फेंकती है।
22) लोग उस पर निर्दयता से टूट पडते हैं और वह मारने वालों से भागने का प्रयत्न करता है।
23) उसकी दुर्गति पर लोग तालियाँ पीटते हैं और उसके अपने घर वाले उस पर सीटी बजाते हैं।

अध्याय 28

1) चाँदी की खानें होती हैं और सोने को परिष्कृत करने के स्थान भी
2) लोहा जमीन से निकाला जाता है और तांबा गलायी हुई चट्टान से।
3) मनुष्य अंधकार दूर करता और पृथ्वी की गोद में दूर तक कच्ची धातु की खोज करता है।
4) वह बस्तियों से दूर, जहाँ राही नहीं पहँुचते, सुरंगे बनाता और वहाँ लटकते हुए काम करता है।
5) भूमि पर ऊपरी सतह से रोटी प्राप्त होती है और उसके भीतर एक आग जलती रहती है।
6) उसकी चट्टानों में नीलम है और वहाँ सोने की धूल भी मिलती है।
7) कोई शिकारी पक्षी वहाँ का मार्ग नहीं जानता, बाज की आँख ने उसे नहीं देखा।
8) जंगली जानवर वहाँ नहीं विचरते, वहाँ सिंह भी कभी नहीं पहुँचा।
9) मनुष्य ही चट्टान पर हथौड़ा मारता और पर्वतों की जड़ खोदता है।
10) वह चट्टानें काट कर सुरंग बनाता और उसकी बहुमूल्य वस्तुओं का पता लगाता है।
11) उसने नदियों के स्रोत सुखा डाले और जो छिपा था, उसे प्रकट कर दिया।
12) किंतु प्रज्ञा कहाँ मिलेगी? सद्बुद्धि का निवास कहाँ है?
13) मनुष्य उसका मूल्य नहीं समझता, वह जीवलोक में नहीं पायी जाती है।
14) महागर्त्त कहता है, ''वह मेरे पास भी नहीं।'' और महासमुद्र कहता है, ''वह मेरे पास भी नहीं।''
15) वह शुद्ध सोने के बदले नहीं मिल सकती, वह चाँदी से नहीं खरीदी जाती।
16) उसका मूल्य न तो ओफ़िर के सोने से आंका जा सकता, न कीमती सुलेमानी और न नीलमणि से।
17) न तो सोना या शीशा उसकी बराबरी कर सकता है और न परिष्कृत सोने का पात्र ही।
18) मूँगा और स्फटिक उसके सामने फीके पड जाते हैं। प्रज्ञा का मूल्य मोतियों से बढ़ कर है।
19) इथोपिया का पुखराज उसके सामने नगण्य है और परिशुद्ध स्वर्ग उसकी बराबरी नहीं कर सकता।
20) प्रज्ञा कहाँ उत्पन्न होती है? सद्बुद्धि का निवास कहाँ है?
21) वे प्रत्येक प्राणी के लिए अदृश्य है। आकाश के पक्षी उसे नहीं देख सकते।
22) मृत्यु और अधोलोक कहते हैं, ''हमने उसकी चर्चा सुनी है''।
23) उसके मार्ग से केवल ईश्वर परिचित है, वह उसका निवासस्थान जानता है।
24) जब उसने पृथ्वी के सीमांतों तक अपनी दृष्टि दौड़ायी और आकाश के नीचे सब कुछ का निरीक्षण किया;
25) जब उसने पवन का वेग और समुद्र का विस्तार निर्धारित किया;
26) जब उसने वर्षा का नियंत्रण किया और मेघगर्जन और बिजली का मार्ग प्रशस्त किया,
27) उस समय उसने प्रज्ञा को देखा, समझा और उसकी थाह ली।
28) तब उसने मनुष्य से यह कहा, ''प्रभु पर श्रद्धा रखना-यही प्रज्ञा है। बुराई से दूर रहना-यही सद्बुद्धि है।''

अध्याय 29

1) अय्यूब ने अपना काव्य आगे बढ़ाते हुए कहा :
2) कौन मुझे पहले की सुख-शांति लौटायेगा? वे दिन, जब ईश्वर मुझे सुरक्षित रखता था,
3) जब उसका दीपक मेरे ऊपर चमकता था, जब मैं रात के समय ईश्वर की ज्योति में चलता था;
4) जब मैं समृद्धि में जीवन बिताता था, जब मुझे ईश्वर की कृपादृष्टि प्राप्त थी;
5) जब सर्वशक्तिमान् मेरे साथ था और मेरे बाल-बच्चे मुझे घेरे रहते थे;
6) जब मैं अपने पैर दूध से धोता और उत्तम तेल की धाराओं से नहाता था;
7) जब मैं नगर के फाटक जा कर चौक में अपने आसन पर बैठ जाता था,
8) तो जवान मुझे देखकर खिसक जाते थे, वृद्ध उठ खडे हो जाते थे,
9) कुलीन लोग भी मुँह पर हाथ रख कर अपनी बातचीत बंद कर देते थे,
10) शासकों की वाणी मौन हो जाती थी उनकी जीभ तालू से चिपक जाती थी।
11) जो लोग मेरी बात सुनते, वे मुझे धन्य कहते और जो मुझे देखते, वे मेरी प्रशंसा करते थे;
12) क्योंकि मैं दुहाई देने वाले दरिद्र और निस्सहाय अनाथ की रक्षा करता था।
13) मुझे मरणासन्न व्यक्ति का आशीर्वाद प्राप्त था; मैं विधवा का हृदय प्रसन्नता से भरता था।
14) मैं धार्मिकता को वस्त्र की तरह ओढ़े था, मैं न्याय को चादर और पगड़ी की तरह पहनता था।
15) मैं अंधे के लिए आँख बन गया था और लँगड़े के लिए पैर।
16) मैं दरिद्रों का पिता था और अपरिचितों को न्याय दिलाता था
17) मैं दुष्टों के दाँत तोड़ता और उनके जबड़े से शिकार छीनता था।
18) मैं सोचता था-मैं समृद्धि में मरूँगा, मेरे दिनों की संख्या रेत के कणों की तरह अनंत होगी।
19) जलस्रोत मेरी जड़े सींचता और ओस मेरी डालियों पर उतरती है।
20) मेरी प्रतिष्ठा चिरनवीन रहेगी, मेरे हाथ का धनुष कभी जर्जर नहीं होगा।
21) सब लोग उत्सुकता से मेरी बात सुनते और मौन रह कर मेरा परामर्श स्वीकार करते थे।
22) कोई मेरे बाद नहीं बोलता था, वे मेरे एक-एक शब्द का रस लेते थे।
23) वे वर्षा की तरह मेरी वाणी की प्रतीक्षा करते थे। वे मुँह खोल कर वसंत की बौछार की तरह मेरे शब्दों की बूँद पीते थे।
24) जब मैं उनकी ओर देख कर मुस्करता, तो उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास नहीं होता। मेरी मुस्कराहट उनकी उदासी दूर करती थी।
25) मैं उनका पथप्रदर्शक और मुखिया था। मैं उनके बीच सेना में राजा के सदृश था, मैं शोक मनाने वालों के सान्त्वनादाता जैसा था।

अध्याय 30

1) जो उम्र में मुझ से छोटे है, जिनके पिताओं को मैं अपनी भेड़ें चराने वाले कुत्तों की श्रेणी में भी रखना नहीं चाहता था, वे अब मेरा उपहास करते हैं!
2) मुझे उनके हाथोर्ं के काम से क्या लाभ होता? उनकी शक्ति एकदम समाप्त हो गयी थी।
3) वे अभाव और भूख के कारण सूख कर काँटे हो गये थे। वे रात को उजाड़ भूमि में खाने की खोज में भटकते थे।
4) वे झुरमुटों में लोनिया साग तोड़ते और झाड़ियों की जड़े खाते थे।
5) वे चोरों की तरह दुतकारे और अपनी जाति-भाइयों द्वारा बहिष्कृत किये गये थे।
6) उन्हें घाटियों के संकरे दर्रों में, पृथ्वी की खोहों और गुफाओं में रहना पड़ता था।
7) वे झाडियों के नीचे से गुर्राते और झुरमुटों के बीच इकट्ठे बैठते थे।
8) वे कुख्यात और गुमनाम के वंशज थे, उन्हें मार-मार कर देश से निकाला गया था।
9) अब उनके पुत्र मेरी निंदा के गीत गाते और मुझे ताना मारते हैं।
10) वे मुझ से घृणा करते, मुझ से कन्नी काटते और मेरे मुँह पर थूकने से नहीं हिचकते।
11) मैं ईश्वर के बाण से मारा गया, इसलिए वे मेरे साथ मनमाना व्यवहार करते हैं।
12) वे झुण्ड में मेरी बगल में खड़े हो जाते, मेरे पैरों के लिए जाल बिछाते और मुझ पर आक्रमण की तैयारियाँ करते हैं।
13) वे मेरा मार्ग बंद करते और मेरा विनाश करने का प्रयास करते हैं। मेरी सहायता करने कोई नहीं आता।
14) वे मानों चारदीवारी की दरार से आ कर खंडहरों के बीच से मुझ पर टूट पड़ते हैं।
15) आतंक मुझे घेर लेता है, मेरा आत्मविश्वास मानो हवा से उड़ा दिया गया, मेरी सुख-शांति बादल की तरह लुप्त हो गयी।
16) अब मेरे प्राण निकल रहे हैं, कष्ट के दिन मुझे घेरे रहते हैं।
17) मेरी हड्डियाँ रात भर रौंदी जाती है। पीड़ा मुझे सोने नहीं देती।
18) वह बलपूर्वक मेरा कुरता कस का पकड़ता है, वह गरदनी की तरह मुझे जकड़ता है।
19) उसने मुझे कीचड में पटक दिया, मैं मुट्ठी भर धूल और राख बन गया हूँ।
20) मैं तेरी दुहाई देता, किंतु तू नहीं सुनता; मैं तेरे सामने खड़ा रहता, किंतु तू मेरी ओर नहीं देखता।
21) तू मेर साथ कठोर व्यवहार करता और पूरी शक्ति से मुझे थप्पड़ मारता है।
22) तू मुझे उठा कर हवा में उड़ाता और मुझे आँधी में उछाल देता है।
23) मैं जानता हूँ- तू मुझे मृत्यु के हाथ देगा, वहाँ पहुँचा देगा, जहाँ सब जीवितों को जाना है।
24) मैंने दरिद्र पर हाथ नहीं उठाया, जब वह अपनी विपत्ति में मेरी दुहाई देता था।
25) क्या मैंने दुखियों के साथ शोक नहीं मनाया, दरिद्रों के प्रति सहानुभूति नहीं दिखायी?
26) मैं सुख-शांति की राह देखता रहा, किंतु मुझे दुर्भाग्य मिला; मैं ज्योति की प्रतीक्षा करता रहा, किंत मुझ पर अंधकार छा गया।
27) मेरा हृदय अशांत रहता है, क्योंकि मेरे बुरे दिन आ गये हैं।
28) मैं उदास हो कर मारा-मारा फिरता हूँ। मैं सभा में खड़ा हो कर अपना दुखड़ा रोता हूँ।
29) मैं गीदड़ों का भाई, शुतुरमुगोर्ं का साथी बन गया हूँ।
30) मेरा चमड़ा काला हो कर छिल रहा है, मेरी हड्डियाँ ताप से सूख गयी हैं।
31) और मेरी वीणा से शोक का संगीत आता है और मेरी बाँसुरी से रुदन का स्वर।

अध्याय 31

1) मैंने अपनी आँखों के साथ समझौता कर लिया कि मैं किसी कुमारी पर दृष्टि नहीं डालूँगा।
2) स्वर्ग में ईश्वर मनुष्य का कौन-सा भाग्य निर्धारित करता है? सर्वशक्तिमान् आकाश की ऊँचाईयों से उसे कैसी विरासत देता है?
3) क्या वह विधर्मी का विनाश और कुकर्मी की विपत्ति नहीं है?
4) क्या वह मेरा आचरण नहीं देखता, मेरा एक-एक कदम नहीं गिनता?
5) तो क्या मैं झूठ के मार्ग पर चला? क्या मेरे पैर कभी कपट की ओर बढे?
6) जब ईश्वर मुझे न्याय की तुला पर तौलेगा, तो उसे पता चलेगा कि मैं निर्दोष हूँ।
7) यदि मेरा मन मेरी आँखों के पीछे चला, यदि मेरे हाथ कलंकित हो गये हैं,
8) तो मैंने जो बोया है, उसे कोई दूसरा खाये; मैंने जो रोपा है, उसे कोई दूसरा उखाड़े।
9) यदि मेरा हृदय किसी स्त्री पर आसक्त हो गया हो, यदि मैं अपने पड़ोसी के द्वार पर घात में बैठा रहा,
10) तो मेरी पत्नी दूसरों के लिए चक्की पीसे और अन्य लोग उसका शीलभंग करे;
11) क्योंकि मेरा ऐसा व्यवहार महापातक होता, ऐसा कुकर्म होता, जो दण्ड के योग्य है।
12) वह एक आग बनता, जो मेरा विनाश करती और मेरी समस्त संपत्ति जला देती।
13) यदि मेरे दास या मेरी दासी को मुझ से शिकायत हुई और मैंने उनके साथ अन्याय किया होता,
14) तो ईश्वर के बुलाने पर मैं क्या करता? जब वह पूछताछ करता, मैं क्या उत्तर देता?
15) क्या उसने मुझे उनकी तरह गर्भ में नहीं गढ़ा? एक ही ईश्वर ने गर्भ में हम दोनों की रचना की!
16) क्या मैंने कभी दरिद्रों की याचना ठुकरायी अथवा विधवा के आँसुओं को भुलाया?
17) क्या मैंने कभी अनाथ को दिये बिना अकेले ही अपनी रोटी का टुकड़ा खाया?
18) मैंने पिता की तरह बचपन से उसका पालन-पोषण किया, जन्म से ही मैं उसकी देखरेख करता आया हूँ।
19) क्या मैंने कभी देखा की किसी अभागे के पास कपड़े नहीं, अथवा किसी दरिद्र के पास चादर नहीं?
20) और उन्हें अपनी भेड़ों का ऊन नहीं पहनाया? क्या उन्होंने मुझे धन्य नहीं कहा?
21) यदि मैंने यह जानकर कि न्यायाधीश मेरे पक्ष में हैं किसी अनाथ पर हाथ उठाया हो,
22) तो मेरी बाँह कंधे से उखड़ जाये, मेरी भुजा बीच में टूट जाये;
23) क्योंकि मैं ईश्वर से डरता था, मैं उसके प्रताप के सामने नहीं टिक सकता था।
24) क्या मैंने सोने पर अपना भरोसा रखा अथवा शुद्ध स्वर्ण पर अपना विश्वास?
25) क्या मुझे इसलिए आनंद हुआ कि मेरी संपत्ति विशाल अथवा इसलिए कि मैंने अपने हाथों से बहुत कमाया है?
26) क्या मेरा मन प्रतापमय सूर्य को अथवा परिक्रमा करते हुए भव्य चंद्रमा को देख कर
27) उन पर कभी मोहित हुआ और उसने छिप कर उनकी आराधना की?
28) यदि मैंने ऐसा किया होता, तो यह दण्डनीय अपराध होता।
29) क्या मैं अपने शत्रु के दुर्भाग्य पर प्रसन्न हुआ? क्या मैं उसकी विपत्ति के कारण आनंदित हुआ?
30) मैं उसे मर जाने का अभिशाप दे कर पाप का भागी नहीं बना।
31) क्या मेरे तम्बू में रहने वालों ने यह नहीं कहा - ''यहाँ कौन ऐसा है, जो खा कर तृप्त नहीं हुआ?''
32) कोई परदेशी कभी बाहर नहीं सोया, क्योंकि यात्रियों के लिए मेरा द्वार खुला था।
33) क्या मैंने मनुष्यों की तरह अपने पाप पर परदा डाला, अपने हृदय में अपना अपराध छिपाये रखा है।
34) क्योंकि मैं समाज की बदनामी से और कुटुम्बियों के तिरस्कार से इतना डरता था, कि मैं चुप रहता और द्वार से बाहर नहीं निकलता था?
35) ओह! यदि कोई मेरी बात सुनता! यह मेरा अंतिम निवेदन है। सर्वशक्तिमान् मुझे उत्तर दे।
36) मेरे विरोधी ने मेरे विरुद्ध जो अभियोगपत्र लिखा है, मैं उसे अपने कंधे पर रखूँगा, उसे मुकुट की तरह धारण करूँगा।
37) मैं उसे अपने सब कर्मो का लेखा दूँगा, मैं निर्भीक हो कर उसके सामने उपस्थित होऊँगा
38) यदि मेरी भूमि मेरी शिकायत करती, यदि उसकी हल-रेखाएँ आँसुओं से तर हैं,
39) यदि मैंने बिना दाम चुकाये उसकी उपज खायी, यदि मैंने असामियों का शोषण किया,
40) तो मेरे खेत में गँहू के बदले काँटे उगें और जौ के बदले दुर्गन्धित घास। यहाँ अय्यूब के वचन समाप्त होते हैं।

अध्याय 32

1) इन तीन व्यक्तियों ने अय्यूब को उत्तर देना बंद कर दिया, क्योंकि वह अपने आप को धार्मिक समझता था।
2) तब रामकुल के बूजवंश बारकएल का पुत्र एलीहू क्रुद्ध हो उठा। वह अय्यूब पर इसलिए क्रुद्ध हुआ कि अय्यूब ने ईश्वर के सामने अपने को दोषमुक्त प्रमाणित करना चाहा।
3) वह उसके तीन मित्रों पर भी क्रुद्ध हुआ, क्योंकि उन्हें कोई उत्तर नहीं सूझा और इस प्रकार उन्होंने प्रभु को दोषी माना था।
4) उन में सब से छोटा होने के कारण ही एलीहू अब तक अय्यूब से नहीं बोला था।
5) जब एलीहू ने देखा कि ये तीनों कोई उत्तर नहीं दे सके हैं, तब वह क्रुद्ध हो उठा।
6) तब बूजवंशज बारकएल के पुत्र एलीहू ने उत्तर देते हुए कहा : उमर की दृष्टि से मैं छोटा हूँ और आप लोग बड़े हैं, इसलिए मुझे संकोच हुआ और अपना मत प्रकट करने का साहस नहीं हुआ।
7) मैं सोचता था, बडे-बूढ़ों को ही बोलने दो; वे प्रज्ञा की शिक्षा देंगे।
8) परंतु मनुष्य की आत्मा और सर्वशक्तिमान् की प्रेरणा उसे विवेक प्रदान करती है।
9) न तो प्रज्ञा वषोर्ं की संख्या पर निर्भर रहती और न बड़े-बूढ़ों में ही विवेक होता है।
10) इसलिए मैं कहता हूँ: मेरी बात सुनिए, मैं भी अपना मत प्रस्तुत करूँगा।
11) देखिए, मैं आप लोगों की बातों की प्रतीक्षा करता रहा। जब आप अय्यूब का खण्डन करने के लिए शब्द ढँूढ़ रहे थे, तो मैं आपके तर्क सुनता रहा।
12) मैंने आप लोगों के कहने पर पूरा ध्यान दिया, किंतु आप लोगों में किसी ने अय्यूूब का खण्डन नहीं किया, आप लोगों में किसी ने उसे उत्तर नहीं दिया।
13) आप यह न कहें : वह हम से अधिक बुद्धिमान् है, ईश्वर की उसका खण्डन कर सकता है, मनुष्य नहीं।
14) उसने मुझे संबोधित नहीं किया, मैं उसके सामने आपके तर्क प्रस्तुत नहीं करूँगा।
15) अब वे घबरा गये; वे कुछ नहीं करते। उन्हें कोई उत्तर नहीं सूझता।
16) मैं क्यों चुप रहूँ? वे फिर नहीं बोलेंगे। वे चुप्पी लगाये खड़े हैं।
17) मैं भी अपनी ओर से अय्यूब को उत्तर दूँगा। मैं भी अपना मत प्रस्तुत करूँगा।
18) मेरे पास असंख्य तर्क हैं, मेरी आत्मा मुझे बोलने के लिए बाध्य करती है।
19) मेरा अंतरतम चर्मपात्र में बंद अंगूरी-जैसा है, नयी अंगूरी से भरी मशकों-जैसा, जो फटी जा रही है।
20) राहत के लिए मुझे बोलना ही पड़ेगा, मैं होंठ खोल कर अय्यूब को उत्तर दूँगा।
21) मैं न किसी ने साथ पक्षपात करूँगा और और न किसी की चापलूसी।
22) यदि मैं चापलूसी करने में निपुण होता, तो ईश्वर तुरंत मेरा अंत कर देता।

अध्याय 33

1) अय्यूब! अब मेरी बात सुनो। जो कहता हँू, उस पर ध्यान दो।
2) देखों, मैं अपना मुँह खोलने वाला हूँ मेरी जीभ बोलने को बेचैन है।
3) मैं निष्टकट हृदय से बोलूँगा, मेरे होंठ सत्य ही प्रकट करेंगे।
4) ईश्वर के आत्मा ने मुझे गढ़ा है, सर्वशक्तिमान मुझ में प्राणवायु फूँकता है।
5) यदि तुम उत्तर दे सकते हो, तो दे दो। अपना पक्ष मेरे सामने प्रस्तुत करो।
6) मैं ईश्वर के सामने तुम्हारे बराबर हूँ, उसने मुझे भी मिट्ठी से गढ़ा है।
7) इसलिए तुम्हें मुझ से भयभीत नहीं होना चाहिए, मैं तुम को आतंकित नहीं करूँगा।
8) तुमने मेरे सामने अपना पक्ष प्रस्तुत किया। मैंने तुम को यह कहते हुए सुना;
9) ''मैं पवित्र हूँ, निष्पाप हूँ। मैं शुद्ध और निरपराध हूँ।
10) फिर भी ईश्वर मुझ में दोष ढूँढता और मुझे अपना शत्रु समझता है।
11) वह मेरे पैरों को बेड़ियाँ पहनाता और मेरे आचरण की कड़ी निगरानी करता है।''
12) मैं तुम से कहता हूँ : तुम्हारी यह बात गलत है, क्योंकि ईश्वर मनुष्य से महान् है।
13) तुम उसकी शिकायत क्यों करते हो कि वह तुम्हारी किसी बात का उत्तर नहीं देता?
14) ईश्वर निश्चय ही बारम्बार बोलता है, किंतु कोई उसकी बात पर ध्यान नहीं देता।
15) जब मनुष्य बिस्तर पर लेटे हुए गहरी नींद में सोते हैं, तो ईश्वर स्वप्न में, रात के किसी दर्श में बोलता है।
16) उस समय वह अपने को मनुष्य पर प्रकट करता और दर्शन दे कर उसे डराता है,
17) जिससे वह उसे कुमार्ग से हटाये और उसका घमण्ड दूर कर दे।
18) इस प्रकार वह अधोलोक के द्वार से मनुष्य की रक्षा करता और भाले की मार से उसका जीवन बचाता है।
19) वह बिस्तर पर पड़े हुए मनुष्य को दर्द द्वारा सुधारता है, जब उनकी हड्डियाँ निरंतर काँपती रहती है।
20) मनुष्य को भोजन से घृणा हो जाती है, उसे स्वादिष्ट व्यंजन में रूचि नहीं होती।
21) उसका शरीर सब के देखते छीजता है, उसकी हड्डियाँ, जो नहीं दिखाई देती थी, अब निकल आती है।
22) उसकी आत्मा अधोलोक के पास पहुँचती है और उसका जीवन मृतकों के निवास के निकट।
23) किंतु यदि उसे एक स्वर्गदूत, हजारों में से एक मध्यस्थ मिल जाता है, जो उसे उसका कर्तव्य समझाता,
24) उस पर कृपा करता और ईश्वर से कहता है, ''इसे अधोलोक में उतरने से बचा, मुझे इसका रक्षा-शुल्क मिल गया'',
25) तब उसका शरीर बालक के जैसा नया हो जाता है और उसकी जवानी के दिन लौटते हैं।
26) वह ईश्वर से प्रार्थना करता, जो उस पर प्रसन्न है। वह उल्लसित हो कर उस ईश्वर के दर्शन करता है, जो उसे नयी धार्मिकता का वरदान देता है।
27) वह मनुष्यों के सामने यह कहता हैः ''मैंने पाप किया, मैं संमार्ग से भटक गया, किंतु उसने मुझे अधर्म का दण्ड नहीं दिया।
28) उसने मुझे अधोलोक में उतरने से बचा लिया। मैं फिर ज्योति का सुख पाता हूँ।'
29) देखो, ईश्वर यह सब मनुष्य के लिए दो बार, तीन बार करता है।
30) वह उसे अधोलोक से वापस बुलाता और उसे जीवन की ज्योति प्रदान करता है।
31) अय्यूब! तुम ध्यान से मेरी बात सुनो। तुम चुप रहो! मैं बोलूँगा।
32) यदि तुम उत्तर दे सकते हो, तो दे दो। निस्संकोच उत्तर दो। मैं चाहता हूँ कि तुम निर्दोष ठहरो।
33) नहीं तो, तुम मेरी बात सुनो। चुप रहो, मैं तुम्हें प्रज्ञा की शिक्षा दूँगा।

अध्याय 34

1) तब एलीहू ने यह कहा :
2) बुद्धिमान् लोगों - मेरा भाषण सुनो। ज्ञानियो! मेरी सब बातों पर ध्यान दो;
3) क्योंकि जिस प्रकार जीभ स्वाद लेती है, उसी तरह कान शब्दों को परखता है।
4) हम स्वयं देखें कि सही बात क्या है, हम मिल कर जान ले कि उचित क्या है;
5) क्योंकि अय्यूब ने कहा, ''मैं निर्दोष हूँ, किंतु ईश्वर मुझे न्याय नहीं दिलाता।
6) न्याय की माँग करने पर मैं झूठा माना जाता हूँ, मैं निष्पाप हूँ, फिर भी मेरा घाव असाध्य है।''
7) अय्यूब के समान और कौन शूरवीर है? वह पानी की तरह निंदा पीता है।
8) वह कुकर्मियों के साथ बैठता और दुष्टों से मेल-जोल रखता है;
9) क्योंकि उसने कहा, ''ईश्वर की इच्छा पूरी करने से मनुष्य को कोई लाभ नहीं''।
10) ज्ञानियो! मेरी बात सुनो। ईश्वर में कोई अधर्म नहीं; सर्वशक्तिमान में कोई अन्याय नहीं!
11) वह मनुष्य को उसके कमोर्ं का फल देता और उसके आचरण के अनुसार उसके साथ व्यवहार करता है।
12) नहीं, ईश्वर दुष्ट-जैसा व्यवहार नहीं करता, सर्वशक्तिमान् न्याय को भ्रष्ट नहीं करता।
13) किसने ईश्वर को पृथ्वी सौंपी? किसने समस्त संसार को उसके अधिकार में दिया?
14) यदि ईश्वर हमारा ध्यान नहीं रखता, यदि वह अपना आत्मा वापस लेता,
15) तो सभी पाणी नष्ट हो जाते और मनुष्य मिट्टी में मिल जाता।
16) अय्यूब! तुम बुद्धिमान हो, मेरी बात सुनो! मेरे भाषण पर ध्यान दो।
17) क्या विधि से बैर रखने वाला शासन कर सकता है? क्या तुम परमन्यायी को दोषी ठहराते हो?
18) क्या वह राजाओं से यह नहीं कहता- ''तुम निकम्मे हो'' और कुलीन से-''तुम दुष्ट हो''?
19) वह शासकों के साथ पक्षपात नहीं करता। वह अमीर और कंगाल में भेद नहीं मानता; क्योंकि सभी उनके हाथ की कृतियाँ है।
20) आधी रात को क्षण भर में उनकी मृत्यु हो जाती है। वे घबराते हैं और मिट जाते हैं। वह बिना किसी की सहायता के शक्तिशाली को हटाता है;
21) क्योंकि ईश्वर मनुष्यों का आचरण देखता रहता और सभी मागोर्ं का निरीक्षण करता है।
22) कहीं भी ऐसा अंधकार या मृत्यु की छाया नहीं है, जहाँ कुकर्म ईश्वर की दृष्टि से छिप सकते हैं।
23) ईश्वर मनुष्य को पूर्वसूचना नहीं देता कि किस दिन उसका न्याय किया जायेगा।
24) ईश्वर अचानक शक्तिशालियों को छिन्न भिन्न करता और दूसरों को उनके स्थान पर नियुक्त करता है।
25) वह उनके सभी कायर्ोें का निरीक्षण करता और रात में उन को गिरा कर समाप्त कर देता है।
26) सब के देखते वह उन्हें कुकर्मियों की तरह कोड़े लगाता है;
27) क्योंकि उन्होंने उसका अनुसरण नहीं किया और मार्ग पर चलना नहीं चाहा।
28) उनके विरुद्ध पददलितों की दुहाई ईश्वर के पास पहुँचती हैं, ईश्वर उनकी पुकार पर ध्यान देता है।
29) किंतु यदि ईश्वर मौन रहता है, तो उसे कौन दोष देगा? यदि वह अपना मुख छिपाता है, तो उसे कौन देख सकेगा?
30) फिर भी वह मनुष्यों और राष्ट्रों की निगरानी करता है। वह नहीं चाहता कि विधर्मी राज्य करे और प्रजा के लिए जाल बिछाया जाये।
31) यदि कोई ईश्वर से यह कहता हैः ''मैंने प्रायश्चित्त किया; मैं फिर पाप नहीं करूँगा।
32) जो मैं नही समझाता, उसे मुझे समझा। यदि मैंने अधर्म किया, तो मैं फिर वैसा नहीं करूँगा।''
33) तो, क्या तुम मानते हो कि ईश्वर को उसे दण्ड देना चाहिए। तुम पश्चात्ताप करना नहीं चाहते। उन्हें निर्णय करना चाहिए, मुझे नहीं। तुम जो जानते हो, उसे मुझे बता दो।
34) जो ज्ञानी मेरी बात सुनते हैं, जो समझदार हैं, वे मुझ से यह कहेंगे :
35) ''यह बकवारी अय्यूब कुछ नहीं जानता, यह निरर्थक बातें कहता है''।
36) अय्यूब विधर्मी की तरह बोलता है, उसकी पूरी-पूरी परीक्षा की जानी चाहिए;
37) क्योंकि पाप करने के बाद वह विद्रोह भी करता, हमारे मन में संदेह उत्पन्न करता और ईश्वर के सामने डींग मारता है।

अध्याय 35

1) एलीहू ने फिर कहा :
2) क्या तुम अपना यह कहना सही मानते हो : ''मैं ईश्वर की अपेक्षा अधिक न्यायी हूँ''?
3) तुमने कहा, ''इसका क्या महत्व है? मुझे अपनी धार्मिकता से क्या लाभ होता है?''
4) मैं तुम्हारे मित्रों के साथ तुम को अपने भाषण द्वारा निरूत्तर कर दूँगा।
5) आकाश की ओर आँखे ऊपर उठा कर देखो, ऊँचे-ऊँचे बादलों पर दृष्टि डालो।
6) जब तुम पाप करते हो, तो ईश्वर का क्या बिगड़ता है? तुम्हारे पाप भले ही असंख्य हो, किंतु उस से ईश्वर को क्या?
7) तुम्हारे सदाचरण से ईश्वर को कोई लाभ नहीं, उसे तुम्हारी ओर से कुछ नहीं मिलता!
8) तुम्हारे अधर्म का प्रभाव केवल तुम्हारे-जैसे लोगों पर पड़ता है, मनुष्यों को ही तुम्हारी धार्मिकता से लाभ होता है।
9) अत्याचार से पीड़ित मनुष्य दुहाई देते हैं, वे शक्तिशालियों से दब कर आह भरते हैं।
10) कोई यह नहीं कहता, ''मेरा वह सृष्टिकर्ता ईश्वर कहाँ है, जो लोगों को रात में गीत गाने के लिए प्रेरित करता है,
11) जो पृथ्वी के पशुओं द्वारा हमें शिक्षा देता और हमें आकाश के पक्षियों से अधिक समझदार बनाता है?''
12) दुष्टों के अहंकार के कारण ईश्वर मनुष्यों की दुहाई का उत्तर नहीं देता।
13) ईश्वर उसकी खोखली दुहाई नहीं सुनता, सर्वशक्तिमान् उस पर ध्यान ही नहीं देता।
14) अय्यूब! ईश्वर तुम्हारी बात नहीं सुनेगा; क्योंकि तुमने कहा, ''ईश्वर मुझे दिखाई नहीं देता, मेरा मामला उसके सामने है और मैं प्रतीक्षा करता हूँ।''
15) यदि वह अभी भी क्रुद्ध हो कर हस्तक्षेप नहीं करता और तुम्हारी चुनौती स्वीकार नहीं करता,
16) तो तुम बेकार डींग मारते और बेसिर-पैर की बात करते हो

अध्याय 36

1) एलीहू ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा :
2) थोड़ी देर और धैर्य से मेरी बात सुनो। मुझे ईश्वर के पक्ष में तुम को कुछ और कहना है।
3) अपने सृष्टिकर्ता का व्यवहार न्यायसंगत सिद्ध करने मैं दूर-दूर से ज्ञान संचित करूँगा।
4) मेरी बातों में निश्चत ही असत्य नहीं है। तुम्हारे सामने वह है, जो पूरी जानकारी रखता है।
5) ईश्वर शक्तिमान् है किन्तु वह मनुष्यों को तुच्छ नहीं समझता। वह शक्तिशाली है और उसके निर्णय सुदृढ़ हैं।
6) वह दुष्टों को जीवित नहीं छोड़ता, किंतु पददलितों को न्याय दिलाता है।
7) वह धार्मिक लोगों से अपना मुख नहीं छिपाता। वह राजाओं को सिंहासन पर बैठा कर उन्हें सदा के लिए ऊँचा उठता है।
8) किंतु यदि वे घमण्ड करने लगे, तो वह उन्हें बेड़ियाँ पहनाता और विपत्ति की रस्सियों से बाँधता है;
9) क्योंकि वह उन्हें दिखाना चाहता हैं कि उन्होंने घमण्ड के कारण कितना घोर पाप किया है।
10) वह उन्हें चेतावनी देता और उन के कुमार्ग छोड़ने का अनुरोध करता है।
11) यदि वे उसकी बात मानकर उसकी अधीनता स्वीकार करते हैं, तो वह अपने दिन सुख-शांति में, अपने वर्ष समृद्धि में व्यतीत करेंगे।
12) यदि वे उसकी नहीं मानते, तो तलवार के शिकार बन कर अपने अज्ञान में ही मर जाते हैं।
13) विधर्मी अपने हृदय में विद्वेष पालते हैं और ईश्वर की दुहाई नहीं देते, जब वह उन्हें बेड़ियाँ पहनाता है।
14) वे अपनी जवानी में ही मर जाते हैं। उसका जीवन किशोरावस्था में ही समाप्त हो जाता है।
15) वह दुःखियों का उद्धार करता और विपत्ति द्वारा उन्हें शिक्षा देता है।
16) अय्यूब! वह तुम को भी विपत्ति के चंगुल से निकालेगा। वह तुम को ऐसे स्थान पहँुचा देगा, जहाँ तुम्हें कोई कष्ट नहीं होगा, जहाँ तुम्हारी मेज पर स्वादिष्ट व्यंजन परोसे जायेंगे।
17) तुम्हें दुष्टों की दण्डाज्ञा दी जायेगी। तुम पर मुकदमा चलाया गया है।
18) तुम दण्ड की आशंका से विद्रोह मत करो। भ्रम में मत रहो। तुम कितने लोगों को घूस दे सकोगे?
19) क्या तुम्हारा धन यह कर पायेगा? नहीं! न तो सोने की सिल्लियाँ और न बलप्रयोग के सभी साधन।
20) तुम लोगों को उनके अपने घर से निकालने के लिए रात की रात मत देखो।
21) बुराई के मार्ग पर पैर मत रखो, क्योंकि तुम बुराई के कारण कष्ट सहते हो।
22) ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता पर विचार करो। हमें उनके समान कौन शिक्षा दे सकता है?
23) क्या कोई उसके आचरण का निरीक्षण करता? क्या कोई उस से कहता ''तुम अन्याय करते हो?''
24) तुम उसकी सृष्टि का स्तुतिगान करो, जिसका गुण मनुष्य ने गाया है।
25) सभी मनुष्य सृष्टि का अवलोकन करते और दूर से उसका निरीक्षण करते हैं।
26) हाँ, हम ईश्वर की महत्ता नहीं समझते। उसके वषोर्ं की संख्या की गिनती संभव नहीं।
27) वह पानी की बूदें ऊपर खींचता और उसे कुहरे के रूप में टपकता है।
28) बादल जल बरसाते हैं और मनुष्यों के लिए पृथ्वी सींचते हैं।
29) कौन समझता है कि वह किस प्रकार बादल फैलाता और आकाश की ऊँचाई से वज्रपात करता है?
30) देखो, वह चारों ओर बिजली चमकाता और समुद्र की गहराइयाँ भरता है।
31) वह इस प्रकार राष्ट्रों का शासन करता और प्रचुर मात्रा में मनुष्यों को भोजन देता है।
32) वह अपने हाथ बिजली से भरता और उस निशाने पर मारता है।
33) मेघगर्जन उसके आगमन की सूचना देता है। मवेशियों को भी आँधी का पूर्वाभास मिलता है।

अध्याय 37

1) यह देख कर मेरा दिल धड़कता और अपने स्थान से उछल पडता है।
2) सुनो, उसकी वाणी के गर्जन को, उसके मुख से निकलने वाली गडगडाहट को,
3) जो समस्त आकाश के नीचे गूँजती है। उसकी बिजली पृथ्वी के सीमांतों तक फैल जाती है।
4) बिजली के बाद उसकी वाणी सुनाई देती है; वह ऊँचे स्वर में गरजती है। जब उसकी वाणी सुनाई पड़ती है, तो वह अपना वज्रपात नहीं रोकता।
5) ईश्वर अपने चमत्कार-घोषित करता है। उसके महान् कार्य हमारी समझ के परे हैं।
6) जब वह बर्फ से भूमि पर गिरने का और बादल से मूसलाधार वर्षा करने का आदेश देता है।
7) तो मनुष्यों के सब काम ठप पड़ जाते हैं और उन्हें ईश्वर के सामर्थ्य का आभास हो जाता है।
8) पशु अपनी-अपनी गुफाओं में छिप जाते और अपनी-अपनी मांदो में पड़े रहते हैं।
9) दक्षिण से बवण्डर आता है और उत्तर से ठण्डी हवा।
10) ईश्वर के श्वास से शीत निकलता, जिससे बड़े जलाश्य जम जाते हैं।
11) तब प्रकाश बादलों से हो कर आता और धूप उन्हें छिन्न-भिन्न कर देता है।
12) बादल ईश्वर के कहने पर समस्त पृथ्वी पर फैल जाते और सर्वत्र उसके आदेश का पालन करते हैं।
13) वे उसकी इच्छा के अनुसार कहीं मनुष्यों को दण्ड देते और कहीं पृथ्वी सींच कर उसका प्रेम प्रकट करते हैं।
14) अय्यूब! कान लगा कर सुनो! ईश्वर के चमत्कारों पर विचार करो।
15) क्या तुम जानते हो कि ईश्वर किस प्रकार बादलों का नियत्रंण करता और उन में से बिजली चमकाता है?
16) क्या तुम जानते हो कि वह किसी प्रकार बादलों को फैलाता है? क्या तुम सर्वज्ञ ईश्वर का एक भी चमत्कार समझते हो?
17) जब दक्षिणी हवा के कारण भूमि तपती है और तुम अपने गरम कपड़ों में पसीना बहाते हो,
18) तो क्या तुमने ईश्वर की सहायता की जिसने ढली धातु के दर्पण की तरह आकाशमण्डल को फैलाया?
19) हमें बताओं कि हम उस से क्या कहें, हम अपने अज्ञान के कारण तुम्हारा पक्ष प्रस्तुत करने में असमर्थ है।
20) क्या मेरी बात उसके पास पहुँचती है? जब कोई मनुष्य बोलता है, तो क्या उसे इसका पता चलता है?
21) जब पवन आकाश के बाद छितराता है, तो कोई सूर्य की प्रखर ज्योति पर आँखें नहीं टिका सकता।
22) उत्तर की ओर से सुनहला प्रकाश प्रकट होता है। ईश्वर विस्मयकारी प्रताप से विभूषित है।
23) सर्वशक्तिमान् सर्वोपरि और अगम्य है, फिर भी वह मूर्तिमान न्याय है और किसी पर अत्याचार नहीं करता।
24) इसलिए सभी मनुष्य उस पर श्रद्धा रखते हैं; किंतु जो लोग अपने की बुद्धिमान समझते, ईश्वर उसका ध्यान नहीं रखता।

अध्याय 38

1) प्रभु ने आँधी में से अय्यूब को इस प्रकार उत्तर दिया :
2) निरर्थक बातों द्वारा कौन मेरी योजना पर आक्षेप करता है?
3) शूरवीर की तरह कमर कस कर प्रस्तुत हो जाओ। मैं प्रश्न करूँगा और तुम मुझे सिखलाओ।
4) जब मैंने पृथ्वी की नींव डाली, तो तुम कहाँ थे? यदि तुम इतने समझदार हो, तो मुझे बता दो!
5) क्या तुम जानते हो कि किसने उसकी लंबाई-चौड़ाई निर्धारित की, किसने उसे डोरी से मापा है?
6) (६-७) उसके खम्भे किस पर आधारित हैं? प्रभात के तारों के समवेत गान और स्वर्गदूतों के जयकार के साथ किसने उसके कोने का पत्थर रखा?
8) जब समुद्र गर्त्त में से फूट निकलता था, तो किसने द्वार लगा कर उसे रोका था?
9) मैंने उसे बादल की चादर पहना दी थी और कुहरे के वस्त्रों में लपेट लिया था।
10) मैंने उसकी सीमाओं को निश्चित किया था और द्वार एवं सिटकिनी लगा कर
11) उस से यह कहा था, ''तू यहीं तक आ सकेगा, आगे नहीं। तेरी तरंगों का घमण्ड यहीं चूर कर दिया जायेगा''।
12) क्या तुमने अपने सारे जीवन में किसी भोर को बुलाया अथवा उषा को उसका स्थान बतलाया?
13) क्या तुमने आदेश दिया कि वह पृथ्वी के छोरों को पकड़ कर झटका दे, जिससे दुष्ट जन उसके तल से लुप्त हो जाये?
14) मुहर लगने से जैसे मिट्टी बदलती है, उसी तरह पृथ्वी बदलती है और वस्त्र की तरह उस पर रंग चढ़ जाता है।
15) उषा दृष्टों से उनका प्रकाश छीन लेती है और उनका ऊपर उठा हुआ हाथ तोड़ देती है।
16) क्या तुम समुद्र के स्रोतों तक उतरे हो या गर्त के तल पर टहल चुके हो?
17) क्या तुम्हें मृत्यु के फाटक दिखाये गये? क्या तुमने अधोलोक के फाटक देखे?
18) क्या तुम को पृथ्वी के विस्तार का कुछ अनुमान है? यदि तुम जानते हो, तो यह सब मुझे बता दो।
19) प्रकाश के निवास का मार्ग कहाँ है और अंधकार का आवास कहाँ है?
20) क्या तुम दोनों को उनके अपने स्थान की ओर, उनके अपने निवास के मार्ग पर ले जा सकते हो?
21) यदि तुम यह सब जानते हो, तो उन से पहले तुम्हारा जन्म हुआ था और तुम्हारे वषोर्ं की संख्या असीम है!
22) क्या तुमने हिम के भण्डारों में प्रवेश किया या ओले के वे भण्डार देखे,
23) जिन्हें मैं विपत्ति के दिनों के लिए, संघर्ष और युद्ध के लिए रख छोड़ता हूँ?
24) बिजली के उद्गम स्थान का मार्ग कहाँ है? कहाँ है वह स्थान, जहाँ से पूर्वी पवन पृथ्वी पर बहाया जाता है!
25) किसने मूसलाधार वर्षा का जलमार्ग तैयार किया? किसने गरजते बादलों का मार्ग प्रशस्त किया,
26) जिससे निर्जन प्रदेश पर, मरुभूमि पर भी पानी बरसे,
27) वहाँ की सूखी भूमि की सिंचाई हो और उस में हरियाली उगे?
28) क्या वर्षा का कोई पिता होता है? ओस की बूँदे कौन उत्पन्न करता है?
29) किसके गर्भ से बर्फ निकलती है? कौन है आकाश के पाले की माता?
30) जल पत्थर की तरह ठोस बनता और समुद्र की सतह जम जाती है।
31) क्या तुम कृत्तिका के बंधन गूँथ सकते हो? या मृगशीर्ष की रस्सियाँ खोल सकते हो?
32) क्या तुम राशिचक्र के नक्षत्रों को उनके समय पर निकाल सकते हो? क्या तुम सप्तर्षि और लघु सप्तर्षि का पथ-प्रदर्शन कर सकते हो?
33) क्या तुम आकाशमण्डल के नियम जानते हो? क्या तुम पृथ्वी पर उन्हें लागू कर सकते हो?
34) क्या तुम बादलों को आदेश दे सकते हो, जिससे वे तुम पर जल बरसायें?
35) यदि तुम बिजली को बुलाते हो, तो क्या वह आ कर कहती- ''मैं प्रस्तुत हँू''?
36) बुज्जा पक्षी को प्रज्ञा किस से मिली? किसने मुरगे को समझदार बनाया?
37) बादलों की गिनती कौन कर सकता है? आकाश के जल-भण्डर कौन उँड़ेलता है,
38) जिससे पृथ्वी की धूल जम जाती है और मिट्टी के ढेले एक दूसरे से सट जाते हैं?
39) क्या तुम सिंहनी के लिए शिकार करते और उसके शावकों की भूख शान्त करते हो,
40) जब वे माँदों में पड़े रहते या झाड़ियों के नीचे घात में बैठते हैं?
41) कौन कौओं के लिए चारे का प्रबन्ध करता है, जब उसके भूखे बच्चे ईश्वर को पुकारते हैं?

अध्याय 39

1) क्या तुम जानते हो कि पहाड़ी बकरिया कब बच्चा देती हैं? क्या तुमने हरिणियों को प्रसव करते देखा?
2) क्या तुमने उनके गर्भकाल के महीनों की गिनती की? क्या तुमने उसके ब्याने का समय निर्धारित किया,
3) जब वे झुक कर अपने बच्चे ब्याती हैं और प्रसव-पीड़ा से मुक्त हो जाती है?
4) उनके बच्चे मोटे होते और जंगल में बढ़ते हैं। वे चले जाते और फिर उनके पास नहीं लौटते।
5) किसने जंगली गधे को स्वच्छन्द विचरने दिया, किसने गोरखर के बंधन खोले?
6) मैं रहने के लिए उसे घास का मैदान दिया, निवास के लिए उसे खारी भूमि प्रदान की है।
7) वह नगरों के कोलाहल की हँसी उड़ाता और हाँकने वाले की आवाज कभी नहीं सुनता।
8) पर्वतमाला उसका चरागाह है, वह हरियाली की खोज में भटकता है।
9) क्या जंगली भैंसा तुम्हरी सेवा करना चाहता है? क्या वह तुम्हारी गोशाला में रात बिताता है?
10) क्या तुम उसे जोत सकते हो? क्या वह तुम्हारे लिए घाटियों में हल खींचेगा?
11) क्या तुम उसकी बड़ी ताकत का भरोसा करते हुए उसे काम में लगाने का साहस कर सकते हो?
12) क्या तुम्हें विश्वास है कि वह तुम्हारा अनाज घर पहुँचा कर तुम्हारे खलिहान पर इकट्ठा करेगा?
13) शुतुरमुर्ग प्रसन्न हो कर अपने पंख फड़फड़ाता है, किंतु वह जाँघिल के पंखों और पिच्छों की बराबरी नहीं कर सकता।
14) जब वह अपने अण्डे सेने के लिए गरम बालू में भूमि पर छोड़ देता,
15) तो वह भूल जाता है कि वे किसी के पैर द्वारा कुचले या किसी जंगली पशु द्वारा रौंदे जा सकते हैं।
16) वह अपने बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार करता, मानों वे उसके अपने न हों। उसे इस बात की कोई चिंता नहीं कि उसका परिश्रम निष्फल जा सकता है;
17) क्योंकि ईश्वर ने उसे मूर्ख बनाया, उसे समझदारी प्रदान नहीं की।
18) किंतु जब वह दौड़ने के लिए अपने पंख फैलाता, तो वह घोडे के घुड़सवार को मात कर देता है।
19) क्या तुम घोडे को शक्ति देते और उसकी गरदन को अयाल से सुशोभित करते हो?
20) क्या तुम उसे टिड्डी की तरह कुदाते हो? उसकी भारी हिनहिनाहट आतंकित करती है।
21) वह अपनी शक्ति की उमंग में टाप मारता और सेना के आगे-आगे चल कर शत्रु का सामना करने जाता है।
22) वह निर्भीक हो कर डर को तुच्छ समझता और तलवार के सामने पीछे नहीं हटता।
23) जब उसकी बगल पर तरकश खड़खड़ाता है, चमकते भाले और सांग की ध्वनि सुनाई देती है,
24) तो वह उत्तेजित को कर तीर-जैसा निकलता है, रणभेरी सुन कर उससे रहा नहीं जाता।
25) हर तूर्यनाद पर वह हिनहिनता है। दूर से ही उसे लड़ाई की गंध, सेनापतियों की चिल्लाहट और युद्ध की ललकार का पता चलता है।
26) क्या बाज तुम्हारे समझाने पर ऊपर उठता और पंख फैला कर दक्षिण की ओर उड़ता है?
27) क्या गरुड़ तुम्हारे कहने पर उड़ान भरता और ऊँचाई पर अपना नीड बनाता हैं?
28) वह पहाड पर रहता और वहाँ रात बिताता है। उसका गढ खडी चट्टान के शिखर पर है।
29) वह वहाँ से अपने शिकार की ताक में रहता और दूर-दूर तक दृष्टि दौड़ता है।
30) गरूढ़ के बच्चे रक्त लप-लप पीते हैं जहाँ कहीं लाशें हैं, वहाँ गरूढ़ भी है।

अध्याय 40

1) प्रभु ने अय्यूब को संबोधित करते हुए कहा :
2) जो सर्वशक्तिमान् के साथ बहस करता है, क्या वह चुप रहेगा? जो ईश्वर पर अभियोग लगाता है, क्या उसे और कुछ कहना है?
3) अय्यूब ने यह कहते हुए प्रभु को उत्तर दिया :
4) मैं कुछ भी नहीं हूँ। मैं तुझे क्या उत्तर दूँ! मैं होंठों पद अपनी उँगली रखता हूँ।
5) मैं एक बार बोला, मैं दुबारा उत्तर नहीं दूँगा; मैं दो बार बोला, मैं और कुछ नहीं कहूँगा।
6) प्रभु ने आँधी में से अय्यूब को इस प्रकार उत्तर दिया :
7) शूरवीर की तरह कमर कस कर प्रस्तुत हो जाओ। मैं प्रश्न करूँगा और तुम को उत्तर देना पडेगा।
8) क्या तुम सचमुच मेरा निर्णय अस्वीकार करते और अपने को निर्दोष सिद्ध करने के लिए मुझ पर अभियोग लगाना चाहते हो?
9) क्या तुम्हारा बाहुबल प्रभु के जैसा है? क्या तुम्हारी वाणी प्रभु के मेघगर्जन-जैसी है।
10) तो अपने प्रताप के आभूषण धारण करो महिमा और ऐश्वर्य के वस्त्र पहन लो।
11) अपने क्रोध की बाढ बहा दो, सभी घमण्डियों को नीचा दिखाओ।
12) अपनी क्रोध-भरी दृष्टि मात्र से घमण्डियों को झुकाओं, सभी दुष्टों को कुचल दो।
13) उन सब को एक साथ मिट्टी में दफना दो, उन्हें अधोलोक में बाँध लो।
14) तभी मैं तुम्हारे सामने स्वीकार करूँगा कि तुम्हारा भुजबल तुम्हारा उद्धार कर सकता है।
15) बहेमोत को देखो। मैंने उसे बनाया, जैसे तुम को। वह बैल की तरह घास खाता है।
16) फिर भी उसकी कमर में कितनी शक्ति हैं, उसके शरीर की मांसपेशियों में कितनी ताक़त है!
17) वह अपनी पूँछ को देवदार की तरह कड़ी करता हैं, उसकी जाघों की नसें चुस्त हैं।
18) उसकी हड्डियाँ काँसे की नलियों-जैसी है और उसके पैर लौहे के दण्डों-जैसे।
19) वह ईश्वर की उत्कृष्ट कृति हैं। वह अपने साथियों पर राज्य करता है।
20) पहाड़ियों और मैदान के पशु उसके अधीन हो कर उसके आसपास खेलते-कूदते हैं।
21) वह कमल के पौधों के नीचे दलदल के नरकटों की आड़ में पड़ा रहता है।
22) कमल के पौधे उस पर छाया करते हैं, तट के मजनू उसे घेरे रहते हैं।
23) नदी में बाढ़ आने पर वह नहीं घबराता। यर्दन भले ही उसके मुँह तक आ जाये, वह विचलित नहीं होता।
24) कौन उसकी आँखे फोड़ कर और उसकी नाक छेद कर उसे फँसा सकता है।
25) क्या तुम लिव्यातान को बंसी से फँसाओगे या उसकी जीभ को रस्सी से बाँधोगे?
26) उसकी नाक में नकेल डालोगे या उसका जबड़ा काँटे से छेदोगे?
27) क्या वह तुम से अनुनय-विनय करेगा? क्या वह तुम्हारी चापलूसी करेगा?
28) क्या वह तुम्हारे साथ संधि करेगा, जिससे वह जीवन भर तुम्हारा सेवक बना रहे?
29) क्या तुम गौरैया-जैसे उसके साथ खेलोगे और उसे अपनी पुत्रियों के लिए बाँधे रखोगे?
30) क्या मछुए उसकी बिक्री का प्रबंध कर सकते हैं? क्या व्यापारी उसे आपस में बाँटेंगे?
31) क्या तुम उसका चमड़ा शरों से बेधोगे और उसका सिर काँटेदार बरछी से?
32) यदि तुम उस पर हाथ लगाओगे, तो वह लड़ाई तुम को सदा याद रहेगी। तुम्हें फिर ऐसा करने का साहस नहीं होगा।

अध्याय 41

1) उसे वश में करने की आशा व्यर्थ है। उसे देखते ही मनुष्य के हाथ-पैर फूल जाते हैं।
2) उसे छेड़ने का साहस कौन करेगा? उसके सामने कौन टिक सकता है?
3) आकाश के नीचे ऐसा कोई मनुष्य नहीं, उसका सामना करने के बाद कोई भी सुरक्षित नहीं रहा।
4) मैंने अब तक उसके अंगो के विषय में कुछ नहीं कहा और न उसके शरीर की रचना और उसकी शक्ति के विषय में।
5) कौन उसका चमडा उतार सकता, कौन उसके शरीर का दोहरा कवच भेद सकता है?
6) कौन उसके जबडे खोलने का साहस करेगा? उसके डरावने दाँत आतंकित करते हैं।
7) उसकी पीठ पर ढालो-जैसे शल्क हैं, जो एक-दूसरे से सटे हुए हैं।
8) वे इस प्रकार एक-दूसरे से जुडे हुए हैं कि हवा भी उनके बीच से हो कर नहीं जा सकती।
9) वे एक-दूसरे से इस प्रकार चिपक गये हैं कि उन्हें कोई भी अलग नहीं कर सकता।
10) उसके छींकने पर ज्योति फूट निकलती है और उसकी आँखे प्रभात की पुतलियों जैसी हैं।
11) उसके मुँह से बिजली चमकती है और आग की चिनगारियाँ छूटती हैं।
12) जलते अंगारों पर उबलती हुए हाँडी की तरह उसके नथनों से धुँआ निकलता है।
13) उसकी साँस लड़की जला देती है और उसके मुँह से ज्वालाएँ निकलती हैं।
14) उसकी ताकत उसकी गरदन में बसती है उसके चारों ओर आतंक छाया रहता है।
15) उसके मांस की भारी परतें सुदृढ़ है; वे उसके शरीर पर ढाली जान पडती हैं।
16) उसका हृदय पत्थर-जैसा है, चक्की के पाट की तरह कठोर।
17) उसके खडे हो जाने पर देवता आतंकित हो कर उसके सामने से हड़बड़ा कर हट जाते हैं।
18) न तो तलवार, न भाला, न बरछी और न बाण उस पर कोई असर कर पाता है।
19) वह लोहे को तिनका और काँसे को सड़ी लकड़ी समझता है।
20) वह बाण के सामने से नहीं भागता और गोफन के चलाये हुए पत्थर को भूसा समझता है।
21) गदा उसे पुआल-जैसी लगती है; वह बरछी के वार पर हँसता है।
22) उसके पेट का निचला भाग ठीकरों के समूह-जैसा है, जो कीचड पर मानो हेंगा फेरता है।
23) वह गहराइयों में बरतन-जैसा उबाल पैदा करता है; वह समुद्र को उबलती हुई हांडी में बदल देता है।
24) वह अपने पीछे एक चमकीली लीक छोड जाता है, ऐसा लगता है कि गहराई के बाल पक गये हैं।
25) पृथ्वी पर उसकी बराबरी करने वाला कोई नहीं। वह नितांत निर्भीक है।
26) वह बड़े-से बड़े प्राणियोें का सामना करता है। वह सभी जंगली पशुओं का राजा है!

अध्याय 42

1) अय्यूब ने प्रभु को यह उत्तर दिया :
2) मैं जानता हूँ कि तू सर्वशक्तिमान् है और अपनी सब योजनाएँ पूरी कर सकता है।
3) मैंने ऐसी बातों की चर्चा चलायी, जिन्हें मैं नहीं समझता। मैं ऐसे चमत्कारों के विषय में बोला, जो मेरी बुद्धि से परे हैं।
4) मैंने कहा था, ''मुझे बोलने दे, मेरी सुन। मैं तुझ से प्रश्न पूछूँगा और तू मुझे उत्तर देगा।''
5) मैंने दूसरों से तेरी चर्चा सुनी थी अब मैंने तुझे अपनी आँखों से देखा है।
6) इसलिए मैं धूल और राख में बैठ कर रोते हुए पश्चात्ताप कर रहा हूँ।
7) जब प्रभु अय्यूब से यह सब कह चुका, तो उसने तेमानी एलीफज से कहा, ''मैं तुम पर और तुम्हारे साथियों पर क्रुद्ध हूँ, क्योंकि तुम लोगों ने मेरे सेवक अय्यूब की तरह मेरे विषय में सच नहीं कहा।
8) इसलिए अब सात बछड़े और सात मेढ़े ले कर मेरे सेवक अय्यूब के पास जाओ, अपने लिए होम-बलि चढाओं और मेरा सेवक अय्यूब तुम्हारे लिए प्रार्थना करेगा। मैं उसकी प्रार्थना स्वीकार करूँगा और तुम्हारी मूर्खता के अनुसार तुम्हारे साथ व्यवहार नहीं करूँगा, यद्यपि तुम लोगों ने मेरे सेवक अय्यूब की तरह मेरे विषय में सच नहीं कहा।''
9) तेमानी एलीफज शूही बिलदद और नामाती सोफर ने प्रभु की आज्ञा का पालन किया। प्रभु ने अय्यूब की प्रार्थना स्वीकार की।
10) जब अय्यूब अपने मित्रों के साथ प्रार्थना कर चुका, तो प्रभु ने उसे फिर संपन्न बनाया और पहले अय्यूब की जितनी सम्पत्ति थी, उसकी दुगुनी कर दी।
11) तब उसके सब भाई-बहन उसके सब पूर्व-परिचित उस से मिलने आये और उन्होंने उसके यहाँ उसके साथ भोजन किया। उन्होंने उसके प्रति सहानुभूति प्रकट की और प्रभु द्वारा उस पर ढ़ाही गयी सब विपत्तियों के लिए सान्त्वना दी। उन में प्रत्येक ने उसे एक-एक अशर्फी और सोने की एक-एक अँगूठी दी।
12) प्रभु ने अय्यूब के पहले दिनों की अपेक्षा उसके पिछले दिनों को अधिक आशीर्वाद दिया। उसके पास चौदह हजार जोड़ियाँ और एक हजार गधियाँ थीं।
13) उसके सात पुत्र उत्पन्न हुए और तीन पुत्रियाँ।
14) उसने पहली का नाम 'यमीमा' रखा दूसरी का 'कसीआ' और तीसरी का 'केरेनहप्पूक'।
15) देश भर में ऐसी स्त्रियाँ नहीं मिली, जो अय्यूब की पुत्रियों के समान सुन्दर हों। अय्यूब ने उन्हें उनके भाइयों के साथ विरासत का भाग दिया।
16) इसके बाद अय्यूब एक सौ चालीस वर्ष तक जीवित रहा, अपने पुत्र-पौत्रों की चार पीढ़िया देखीं
17) और बहुत बड़ी उमर में संसार से विदा हुआ।