पवित्र बाइबिल : Pavitr Bible ( The Holy Bible )

पुराना विधान : Purana Vidhan ( Old Testament )

मक्काबियों का दूसरा ग्रन्थ ( 2 Maccabees )

अध्याय 1

1) मिस्र के यहूदी भाइयों को नमस्कार। येरुसालेम और यहूदियों में रहने वाले यहूदी भाइयों की ओर से शांति और कुशलक्षेम की शुभकामनाएँ!
2) ईश्वर आपका भला करे और अपने उस विधान का ध्यान रखे, जो उसने अपने भक्त सेवक इब्राहीम, इसहाक और याकूब के लिए निर्धारित किया था।
3) वह आप सब को ऐसा मनोभाव प्रदान करे कि आप उसकी आराधना करते रहें और सारे हृदय और मन से उसकी आज्ञाओं का पालन करें।
4) वह आपके हृदय में अपनी संहिता और आज्ञाओं के प्रति प्रेम भर दे, आप को शांति प्रदान करे,
5) आपकी प्रार्थनाएँ स्वीकार कर ले, आप को क्षमा कर दे और विपत्ति के समय आपका त्याग न करें।
6) हम इस समय आपके लिए यही प्रार्थना करते हैं।
7) एक सौ उनहत्तरवें वर्ष, जब देमेत्रियस राज्य कर रहा था, हम यहूदियों ने आप को यह लिखा था : इन दिनों हम पर घोर विपत्तिया पड़ी हैं। यासोन और उसके अनुयायियों ने पवित्र देश और राज्य के विरुद्ध विद्रोह किया,
8) मंदिर का फाटक जलाया और निर्दोष रक्त बहाया है। तब हमने प्रभु से प्रार्थना की और उसने हमारी सुनी। हमने होम-बलि और अन्न बलि चढायी, दीप जलाये और भेंट की रोटियाँ मंदिर में रख दी।
9) अब हम आप को फिर पत्र लिखकर एक सौ अठासीवें वर्ष के किसलेव महीने में शिविर-पर्व मनाने का अनुरोध करते हैं।
10) अरिस्तोबूलस को (जो अभ्यंजित याजकों के वंशज तथा राजा पतोलेमेउस के गुरू है) और मिस्र के निवासियों तथा यूदाह और परिषद का नमस्कार। आप स्वस्थ और सानंद रहें।
11) ईश्वर ने घोर विपत्तियों से हमारी रक्षा की और वह राजा के विरुद्ध हमारा सहायक रहा, इसलिए हम उसके बहुत कृतज्ञ हैं।
12) उसने स्वयं उन लोगों को भगा दिया, जो पवित्र नगर पर आक्रमण करने आये थे।
13) उस सेना का सेनापति एक ऐसी सेना ले कर, जो अजेय-जैसी लगती थी, फारस गया था और वहाँ ननैया देवी के मंदिर पुजारियों द्वारा टुकडे-टुकडे कर दिया गया।
14) अन्तियोख देवी के साथ विवाह करने के बहाने अपने सहचारों के साथ वहाँ आया। उसने सोचा कि इस तरह दहेज रूप में मंदिर की भारी संपत्ति उनके हाथ आ जायेगी।
15) ननैया के पुजारियों ने मंदिर की सम्पत्ति निकाल कर प्रदर्शित की और अंतियोख ने थोड़े ही लोगों के साथ मंदिर के क्षेत्र में प्रवेश किया। उसके प्रवेश करते ही पुजारियों ने द्वार बंद कर दिया।
16) फिर वे छत का गुप्त दरवाजा खोल कर उन पर पत्थर फेंकने लगे और सेनापति को और उसके आदमियों को मार गिराया। इसके बाद उन्होंने अन्तियोख के टुकडे-टुकडे कर और उसके सिर काट कर उन्हें बाहर खडे लोगों के सामने फेंक दिया।
17) ईश्वर सदा-सर्वदा धन्य है। उसने विधर्मियों को मृत्यु के हवाले कर दिया।
18) किसलेव मास के पच्चीसवें दिन हम मंदिर के शुद्धीकरण का उत्सव मना रहे हैं। आप को इसकी सूचना देना हमने उचित समझा, जिससे आप शिविर-पर्व और उस अग्नि का स्मरणोत्सव मनायें, जो उस समय प्रकट हुई, जब मंदिर और वेदी के निर्माता नहेम्या बलिदान चढ़ाते थे।
19) जब हमारे पूर्वज फारस में निर्वासित किये जा रहे थे, तो उस समय के भक्त याजकों ने चुपके से वेदी की अग्नि को सूखे कुँए की एक ऐसी गुफा में छिपा दिया, जिसका पता किसी को नहीं चल सका,
20) बहुत वर्ष बाद ईश्वर को यह उचित जान पड़ा कि फारस के राजा द्वारा वापस भेजे हुए नहेम्या ने उन याजकों के वंशजों को बुला भेजा, जिन्होंने आग छिपायी थी और उसे ले आने का आदेश दिया। लेकिन उन्होंने आ कर कहा कि हमें वहाँ आग नहीं, बल्कि गंदला पानी मिला, तो नहेम्या ने उन्हें उसे ले कर आने को कहा।
21) जब बलिदान की पूरी सामग्री रखी जा चुकी, तो नहेम्या ने याजकों से कहा कि वे लकडी और उस पर रखे हुए चढ़ावों पर वह पानी उँडेलें।
22) उन्होंने वैसा ही किया। कुछ देर बाद बादलों के हट जाने से हट जाने से सूर्य प्रकट हुआ और वेदी पर से आग की लपटें जोरों से उठने लगीं। सब लोग आश्यर्च करने लगे।
23) जिस समय होमबलि जल रही थी, याजक और सभी लोग प्रार्थना कर रहे थे। योनातान पहले प्रार्थना सुनाते थे और अन्य लोग नहेम्या के साथ उसके शब्द दोहराते थे।
24) प्रार्थना इस प्रकार थी : ''प्रभु! प्रभु-ईश्वर! सब के सृष्टा! भीषण, शक्तिशाली, न्यायी और करूणामय! तू ही राजा, तू ही भला है।
25) तू ही दाता है, तू ही न्यायी है, सर्वशक्तिशाली और शाश्वत है। तू सभी विपत्तियों से इस्राएल की रक्षा करता है। तूने हमारे पूर्वजों को चुना और पवित्र किया।
26) तू अपनी समस्त प्रजा इस्राएल के लिए चढ़ाया हुआ यह बलिदान स्वीकार कर। तू अपनी विरासत सुरक्षित रख और उसे पवित्र कर।
27) हमारे निर्वासितों को एकत्र कर। जो गैर-यहूदी राष्ट्रों में दास हैं, उन्हें मुक्त कर। जो तिरस्कृत और उपेक्षित हैं, उन पर दयादृष्टि कर, जिससे गैर-यहूदी राष्ट्र जान जायें कि तू हमारा ईश्वर है।
28) जो लोग हम पर अत्याचार करते और घमण्ड के आवेश में हमारा अपमान करते हैं, तू उन्हें दण्डित कर।
29) जैसा मूसा ने कहा था, तू अपनी प्रजा को फिर इस पवित्र भूमि पर स्थापित कर।''
30) इसके बाद याजक भजन गाते थे।
31) जब होम-बलि जल चुकी थी, तो नहेम्या ने बचा हुआ पानी बडे पत्थरों पर उँड़ेलने का आदेश दिया।
32) जैसे ही ऐसा किया गया, पत्थरों से एक ज्वाला निकली, जो होम-बलि की वेदी से उठने वाली प्रखर ज्योति में विलीन हो गयी।
33) इस घटना की चर्चा फैल गयी। फारसियों के राजा को भी बताया गया कि उस स्थान पर, जहाँ याजकों ने आग छिपा रखी थी, वहाँ वह पानी मिला था, जिस से नहेम्या और उसके साथियों ने होम-बलि की सामग्री का शुद्धीकरण किया था।
34) इस पर राजा ने घटना की जाँच कराने के बाद वह स्थान घेर दिया और उसे पवित्र घोषित किया।
35) राजा को उस स्थान से बहुत आमदनी होती थी और उस में से वह उन लोगों को एक बड़ा हिस्सा देता, जिन्हें उसने उस स्थान की देखरेख का प्रबंध सौंपा था।
36) नहेम्या के आदमियों ने उस द्रव का नाम 'नफ़थार' रखा, जिसका अर्थ है- शुद्धीकरण। प्रायः लोग इसे 'नफ़थाय' कहते हैं।

अध्याय 2

1) ग्रंथों में इसका उल्लेख किया गया है कि नबी यिरमियाह ने निर्वासितों से कहा था कि वे आग का थोड़ा सा अंश अपने साथ ले जाये, जैसा कि उसका उल्लेख किया जा चुका है।
2) नबी ने निर्वासितों को संहिता दे दी और उन से अनुरोध किया कि वे प्रभु की आज्ञाएँ नहीं भूलें और सोने-चाँदी की अलंकृत मूर्तियाँ देख कर उनकी ओर आकर्षित न हो जायें।
3) नबी ने इस प्रकार की अन्य बातों के साथ-साथ उन से आग्रह किया कि वे संहिता को अपने हृदय से दूर होने न दें।
4) उसी ग्रंथ में यह भी लिखा है कि नबी ने ईश्वर की प्रेरणा से विधान का तम्बू और मंजूषा लाने और अपने पीछे ले जाने का आदेश दिया। तब वह उस पर्वत गया, जिस पर चढ़ कर मूसा ने ईश्वर की विरासत के दर्शन किये थे।
5) यहाँ यिरमियाह को एक बड़ी गुफा मिली। उसने उस में तम्बू, मंजूषा और धूपदेवी रखवायी और
6) इसके बाद उसका द्वार बंद किया। बाद में उसके साथियों के कई व्यक्ति वहाँ गये, जिससे वे उस मार्ग पर चिन्ह लगा दें, लेकिन वे उस स्थान का पता नहीं लगा सके।
7) जब यिरमियाह ने यह बात सुनी, तो उसने उन्हें इस प्रकार डाँटा, ''यह स्थान तब तक गुप्त रहेगा, जब तक ईश्वर अपनी प्रजा को एकत्र न करे और उन पर तरस न खाये।
8) उस समय प्रभु ये वस्तुएँ दिखायेगा। तब बादल के साथ-साथ प्रभु की महिमा प्रकट होगी, जैसी वह मूसा के समय प्रकट हुई थी और उस समय, जब सुलेमान ने मंदिर के भव्य प्रतिष्ठान के लिए प्रार्थना की थी।''
9) उन ग्रंथों में इसका भी वर्णन किया गया है कि प्रज्ञासम्पन्न सुलेमान ने मंदिर के निर्माण की समाप्ति पर प्रतिष्ठान का यज्ञ चढ़ाया।
10) जिस तरह मूसा ने प्रभु से प्रार्थना की थी और स्वर्ग से उतरी आग ने चढावे भस्म कर दिये, उसी तरह सुलेमान ने भी प्रार्थना की थी और आग से उतर कर होम-बलि भस्म कर दी।
11) मूसा ने कहा था, ''प्रायश्चित बलि नहीं खायी गयी, इसलिए वह भस्म की गयी है''।
12) सुलेमान ने भी आठ दिन तक इसी तरह पर्व मनाया था।
13) उपर्युक्त बातों के अतिरिक्त उन ग्रंथों और नहेम्या के संस्मरणों में यह भी लिखा है कि नहेम्या ने एक पुस्तकालय बनवाया, जिस में उसने राजाओं और नबियों के गं्रथों, दाऊद के ग्रंथों और मंदिरों में अर्पित की गयी भेंटों से संबंधित राजाओं के पत्रों का संग्रह किया था।
14) इसी प्रकार यूदाह ने भी उन सब गं्रथों को संग्रहीत किया, जो हमारे साथ की गयी लडाई के कारण इधर-उधर बिखर गये थे। वे इस समय हमारे पास हैं।
15) यदि आप को उनकी आवश्यकता है, तो दूत भेजें, जो उन ग्रंथों को आपके पास ले जायेंगे।
16) हम मंदिर के शुद्धीकरण का पर्व मनाने जा रहे हैं, इसलिए हम आप को लिख रहे हैं। अच्छा होगा कि आप भी यह पर्व मनायें।
17) ईश्वर ने अपनी समस्त प्रजा की रक्षा की, सब को विरासत, राजत्व, याजकत्व और पवित्रीकरण प्रदान किया,
18) जैसा कि उसने संहिता में इसकी प्रतिज्ञा की थी। हमें आशा है कि वही ईश्वर शीघ्र ही हम पर दया करेगा और आकाश के नीचे के सब स्थानों से हमें अपने पवित्र देश में एकत्र करेगा; क्योंकि उसने हमें बड़ी-बड़ी विपत्तियों से मुक्त किया है और मंदिर का शुद्धीकरण किया है।
19) यूदाह मक्काबी और उसके भाइयों का इतिहास, महामंदिर का शुद्धीकरण और वेदी का प्रतिष्ठान,
20) अंतियोख एपीफानेस और उसके पुत्र यूपातोर के साथ हुई लडाइयाँ,
21) यहूदी संस्कृति की रक्षा के लिए संघर्ष करने वाले लोगों को स्वर्ग की ओर से दिखाये हुए चमत्कार-वे अपनी छोटी संख्या के बावजूद इतनी उदारता और साहस के साथ लडते रहे और करूणामय प्रभु की उन पर इतनी कृपादृष्टि रही कि उन्होंने समस्त देश को लूटा, विदेशियों को भगाया,
22) सारे संसार में सुव्यवस्थित मंदिर को अपने अधिकार में कर लिया, नगर को मुक्त किया और उन विधि-निषेधों का पुनरुद्धार किया, जिनका उन्मूलन किया जा रहा था-
23) इस सब बातों का विस्तृत वर्णन कुरेने के यासोन ने पाँच ग्रंथों में किया है। हम एक ही ग्रंथ में उनका संक्षेप प्रस्तुत करने का प्रयत्न करेंगे।
24) हमारी दृष्टि में उन ग्रंथों में इतने आंकड़ों का उल्लेख किया गया है और उन में इतनी सामग्री का समावेश किया गया है कि वे उन लोगों के लिए कठिनाई उत्पन्न करते हैं, जो उन ऐतिहासिक ग्रंथों का अध्ययन करना चाहते हैं।
25) इसलिए हमें यह उचित प्रतीत हुआ कि हम उनका रोचक संक्षेप प्रस्तुत करें, जिससे पढ़ने वाला लाभ उठा सके- चाहे वह साधारण पाठक हो या वह ऐतिहासिक घटनाओं की स्मृति अपने मन पर अंकित करना चाहता हो।
26) इस संक्षेप की रचना हमारे लिए सरल नहीं, बल्कि कठिन कार्य था, जिसके लिए रात-रात भर जाग कर पसीना बहाना पड़ा।
27) मेरा यह कार्य उन लोगों-जैसा है, जो भोज की तैयारी करना चाहते हैं और बिना परिश्रम किये सभी अतिथियों को संतुष्ट नहीं कर सकेंगे। फिर भी हमने यह जान कर परिश्रम किया कि बहुत-से लोग इस से लाभ उठायेंगे।
28) हमने ऐतिहासिक घटनाओं का अनुसन्धान मूल लेखक पर छोड़ कर बड़ी सावधानी से संक्षेपण प्रस्तुत किया।
29) नये भवन के वास्तुपति पर समस्त भवन का उत्तरदायित्व है, जब कि जिसने दीवारों पर चित्र अंकित करने का भार लिया, उसे केवल अलंकरण पर ध्यान रखना है। मैं समझता हूँ कि यह मुुुझ पर भी लागू है।
30) विषय के अध्ययन और सर्वोपांग निरीक्षण के अतिरिक्त एक-एक घटना की सूक्ष्म जाँच करना इतिहासकार का कार्य है।
31) किंतु जो किसी ग्रंथ का संक्षेपण करता है, उसे समास-शैली का प्रयोग करने और विषय का पूर्ण विवरण छोड़ देने का अधिकार है।
32) अब हम कुछ कहने की बजाय अपनी रचना प्रारंभ करें; क्योंकि इतिहास-ग्रंथ का संक्षेपण करते समय उसकी लंबी-चौड़ी भूमिका प्रस्तुत करना मूर्खता होगी।

अध्याय 3

1) पवित्र नगर में शांति का साम्र्राज्य था और जनता विधि-निषेधों का अच्छी तरह पालन करती थी; क्योंकि प्रधानयाजक ईश्वरभक्त था और बुराई से घृणा करता था।
2) राजा लोग भी पवित्रस्थान का सम्मान करते थे और मंदिर को बहुमूल्य उपहार चढ़ाते थे।
3) एशिया को राजा सिलूकस तो अपनी व्यक्तिगत संपत्ति से मंदिर के बलिदानों का आवश्यक खर्च देता था।
4) किंतु बिलगावंशी सिमोन नामक एक व्यक्ति मंदिर का प्रबंधक नियुक्त किया गया। नगर के बाजारों के निरीक्षण के विषय में उसका प्रधानयाजक से मतभेद हो गया।
5) जब वह ओनियस को प्रभावित नहीं कर सका, तो थरसूस के पुत्र अपल्लोनियस के पास गया जो उस समय केलेसीरिया और फेनीके का शासक था।
6) सिमोन ने उसे यह बताया कि येरुसालेम के कोषागार में इतनी संपत्ति भरी है कि उसका कुल जोड़ निकालना असंभव है और बलिदानों के खर्च से उसकी कोई तुलना नहीं है। उसने यह भी कहा कि वह संपत्ति राजा को दिलायी जा सकती थी।
7) जब अपल्लोनियस राजा से मिला, तो कोष के संबंध में उसे जो कुछ बताया गया था, उसने वह सब राजा से कहा। राजा ने अपने प्रधान मंत्री हेल्यादोरस को बुला कर उसे आज्ञा दी कि वह वहाँ जा कर वह सम्पत्ति जब्त करें।
8) हेल्योदोरस तुरंत चल पडा। उसने यह बहाना किया कि वह केले-सीरिया और फेनीके के नगरों के दौरे पर जा रहा है, लेकिन सच तो यह था कि वह राजा का उद्देश्य पूरा करने गया।
9) जब वह येरुसालेम पहुँचा तो नगर के प्रधानयाजक ने सद्भाव से उसका स्वागत किया। हेल्योदोरस ने बतलाया कि उसने क्या सुना और यह भी स्पष्ट किया कि वह क्यों आया है। उसने पूछा कि सुनी हुई बात कहाँ तक सच है।
10) प्रधानयाजक ने उसे बतलाया कि यह कोष विधवाओं और अनाथों का है
11) और इसका कुछ भाग टोबीयाह के पुत्र हिर्कानस का है, जो एक बड़ा पदाधिकारी है। बात वैसी नहीं है, जैसी विधर्मी सिमोन ने बतायी है। कोष मे कुल मिला कर सौ मन चाँदी और दो सौ मन सोना है।
12) यह भी असंभव था कि उन लोगों का रूपया ले लिया जाये, जिन्होंने इस स्थान की पवित्रता और संसार भर में प्रसिद्ध मंदिर की परमपावन, अनुल्लंघनीयता पर विश्वास किया था।
13) किंतु हेल्योदोरस ने राजा का आदेश दृष्टि में रख कर इस बात पर बल दिया कि वह सम्पत्ति राजकोष में रखी जानी चाहिए।
14) उसने मंदिर में प्रवेश करने और कोष के निरीक्षण के लिए जो दान निश्चित किया, उसने उसी दिन मंदिर में प्रवेश किया। इस पर सारा नगर भयभीत हो उठा।
15) याजक अपने याजकीय वस्त्र धारण कर और मुँह के बल गिर कर ईश्वर से, जिसने मंदिर में रखी हुई संपत्ति के विषय में नियम बनाया था, यह प्रार्थना करते थे कि वह उन लोगों की संपत्ति की रक्षा करे, जिन्होंने उसे मंदिर में रखवाया था।
16) प्रधानयाजक को देख कर कोई भी व्यक्ति अप्रभावित नहीं रह सकता था। उसके चेहरे को मनोभाव और पीला रंग उसकी आत्मा का दुःख व्यक्त करता था।
17) वह अत्यंत भयभीत था और उसका सारा शरीर इस प्रकार काँप रहा था कि जो भी उसे देखता, वह समझ जाता कि उसके हृदय में कितनी तीव्र वेदना है।
18) लोग बड़ी संख्या में अपने घरों से निकल कर सामूहिक प्रार्थना में सम्मिलित हो जाते थे, जिससे मंदिर का अपवित्रीकरण नहीं हो पाये।
19) स्त्रियाँ छाती के नीचे टाट के कपडे पहन कर गलियों में एकत्र हो जाती थीं। लडकियाँ, जो प्रायः घर के अन्दर रहती थीं, अब झुण्ड बना कर मंदिर के फाटकों या दीवारों की ओर दौड़ती या खिडकियों से बाहर देखती थीं।
20) सभी स्वर्ग की ओर हाथ पसार कर प्रार्थना करती थीं।
21) यह दृश्य कितना करूणाजनक था-सभी लोग मुँह के बल गिर कर प्रार्थना करते थे और प्रधानयाजक भावी अनिष्ट की आशंका से अत्यंत व्याकुल था।
22) जिस समय सभी प्रार्थना कर रहे थे कि प्रभु उन लोगों की संपत्ति की पूरी-पूरी रक्षा करें, जिन्होंने उसे मंदिर में रखवाया था,
23) उस समय हेल्योदोरस ने अपना संकल्प पूरा किया।
24) जब वह अपने अंगरक्षकों के साथ कोष के पास पहुँचा, तो आत्माओं का सर्वशक्मिान् प्रभु उसके सामने महिमा के साथ प्रकट हुआ कि जितने लोगों ने मंदिर में प्रवेश करने का साहस किया था वे सभी ईश्वरीय तेज के सामने अशक्त और निरुत्साह हो गये।
25) उन्हें सुसज्जित घोड़े पर एक भयानक आकार वाला घुड़सवार दिखाई पड़ा। वह घोडा हेल्योदोरस पर टूट पड़ा और उसने उस पर अपनी अगली टापों से प्रहार किया। घुड़सवार सोने का कवच पहने था।
26) भडकीले वस्त्र पहने दो अत्यंत बलवान् और सर्वांगसुंदर नवयुवक दिखाई पड़े। वे हेल्योदोरस के दोनों ओर खडे हो कर उस निरंतर कोडे लगाते हुए मारते थे।
27) हेल्योदोरस अचानक जमीन पर गिर पड़ा। उसकी आँखों के सामने गहरा अंधकार छा गया। तब उसे उठा कर एक तख्ते पर रखा गया।
28) वह, जो दलबल और अंगरक्षकों के साथ उपर्युक्त कोष के पास पहुँचा था, अब अशक्त हो कर बाहर ले जाया जा रहा था। उसने ईश्वरीय सामर्थ्य का अनुभव किया।
29) वह ईश्वरीय सामर्थ्य के प्रभाव के कारण बोलने में असमर्थ हो कर पड़ा रहा और उसके बचने की कोई आशा नहीं थी।
30) उधर लोगों ने ईश्वर को धन्यवाद दिया, जिसने अपने मंदिर की महिमा की रक्षा की थी। वह मंदिर, जो अभी-अभी भय और आतंक से आच्छादित था, अब हर्ष और उल्लास से गूंज उठा, क्योंकि सर्वशक्मिान् प्रभु वहाँ दिखाई पड़ा था।
31) हेल्योदोरस के कुछ साथियों ने ओनियस से तुरंत यह निवेदन किया कि वह सर्चोच्च प्रभु से प्रार्थन करे, जिससे वह मरणासन्न हेल्योदोरस को जीवन प्रदान करे।
32) राजा कहीं यह न सोचे कि यहूदियों ने हेल्योदोरस को छल-कपट से मारा है, इसलिए प्रधानयाजक ने उसकी प्राणरक्षा के लिए बलिदान चढ़ाया।
33) प्रधानयाजक अभी प्रायश्चित-बलि चढ़ा ही रहा था कि उसी समय हेल्योदोरस को वे दोनों नवयुवक वही वस्त्र पहने दिखाई पडे। ''तुम्हें प्रधानयाजक ओनियस को बहुत धन्यवाद देना चाहिए, क्योंकि उनकी प्रार्थना के कारण प्रभु ने तुम को जीवन प्रदान किया है।
34) ईश्वर ने तुम का दण्ड दिया, इसलिए तुम को सब के सामने ईश्वरीय सामर्थ्य की महिमा घोषित करनी चाहिए।'' इतना कह कर वे अंतर्धान हो गये।
35) हेल्योदोरस ने भी प्रभु को बलिदान चढ़ाया और उसके लिए बड़ी मन्नतें मानीं, क्योंकि उसने उसे जीवित रहने दिया। इसके बाद उसने ओनियस से विदा ली और अपनी सेना के साथ राजा के पास लौटा।
36) उसने सब के सामने सर्वोच्च प्रभु के उन चमत्कारों का साक्ष्य दिया, जिन्हें उसने अपनी आँखों से देखा था।
37) जब राजा ने हेल्योदोरस से पूछा कि अब किसे येरुसालेम भेजा जाना चाहिए, तो उसने उत्तर दिया,
38) ''यदि कोई आपका शत्रु या राजद्रोही हो, तो उसे वहाँ भेजिए। यदि वह जीवित रह गया, तो वह कोडे खाने के बाद आपके पास लौटेगा; क्योंकि एक दिव्य शक्ति वहाँ निवास करती है।
39) जो स्वर्ग में विराजमान है, वह उस स्थान की रक्षा करता और उसे सहायता देता है। जो उसे हानि पहुँचाने आते हैं, वह उन पर प्रहार करता और उसका विनाश करता है।''
40) यह हेल्योदोरसस और कोष की रक्षा का वृतांत है।

अध्याय 4

1) सिमोन ने, जिसके विषय में पहले यह कहा जा चुका है कि उसने कोष के विषय में सूचना दी और अपने देश के साथ विश्वासघात किया था, ओनियस पर यह झूठा अभियोग लगाया कि उसने हेल्योदोरस पर आक्रमण किया था और कि वह सब बुराइयों का उत्तरदायी है।
2) उसने नगर के उपकारक, जाति के रक्षक और संहिता के उत्साही पालनकर्ता को राजद्रोही घोषित करने का साहस किया।
3) सिमोन की शत्रुता यहाँ तक बढ़ गयी कि उसके अनुयायियों द्वारा हत्याएँ होने लगीं।
4) जब ओनियस ने देखा कि सिमोन की यह शत्रुता खतरनाक है और कि केले-सीरिया और फेनीके के शासक मनेस्थेस का पुत्र अपल्लोनियस सिमोन की शत्रुता को प्रोत्साहन देता है,
5) तो वह राजा के पास गया-इसलिए नहीं कि वह अपने नागरिकों पर दोष लगाये, बल्कि इसलिए कि उसे समस्त राष्ट्र और प्रत्येक व्यक्ति के कल्याण की चिंता थी;
6) क्योंकि उसने देखा कि जब तक राजा हस्तक्षेप नहीं करेगा, तब तक न तो प्रशासन में शांति होगी और न सिमोन अपनी हरकतें बंद करेगा।
7) सिलूकस की मृत्यु के बाद अंतियोख, जो एपीफोनस कहलाता है, राजा बना। तब ओनियस के भाई यासोन ने प्रधानयाजक के पद पर अधिकार कर लिया;
8) क्योंकि वह राजा से मिलने गया और उसके तीन सौ साठ मन चाँदी और किसी अन्य सूत्र के प्राप्त अस्सी मन चाँदी देने की प्रतिज्ञा की।
9) इसके सिवा उसने इस शर्त पर और डेढ सौ मन चाँदी देने का वादा किया कि राजा उसे यह अधिकार दे कि वह एक व्यामायशाला और एक अखाडा स्थापित करे और येरुसालेम के निवासियों को अंताकिया कि नागरिकता प्रदान करे।
10) राजा ने अनुमति दे दी। प्रशासन की बगडोर अपने हाथ में लेने के बाद यासोन तुरंत अपने देश-भाइयों में यूनानी रीति-रिवाजों के प्रचलन का प्रवर्त्तन करने लगा।
11) उसने वे छूटें रद्द कर दी, जो उदारमना राजाओं ने यूपोलेमस के पिता योहन के निवेदन पर यहूदियों को दे रखी थीं (यह वही यूपोलेमस हैं, जिसे बाद में मित्रता और सन्धि का संबंध स्थापित करने रोम भेजा गया)। यासोन ने नागरिकों के संहितासम्मन अधिकार समाप्त कर संहिता-विरोधी रीति-रिवाजों का प्रवर्तन किया।
12) उसने बिना विलम्ब किये मंदिर के पर्वत के ठीक नीचे एक व्यायामशाला बनवायी, जिस में उसने कुलीन युवकों को भरती किया।
13) विधर्मी यासोन के कारण-जो प्रधानयाजक नहीं, बल्कि बड़ा कुकर्मी था-यूनानीकरण और विदेशी रीति-रिवाजों का इतना बोलबाला हो गया
14) कि याजकों को वेदी की सेवा करने की चिंता नहीं रही। वे मंदिर को तुच्छ समझते और बलिदान चढ़ाना छोड़ देते, किंतु चक्र फेंकने की घंटी बजते ही वे संहिता-विरोधी खेलों में सम्मिलित होने के लिए व्यायामशाला की ओर दौड़ पड़ते।
15) वे अपने पूर्वजों द्वारा सम्मानित पदों की उपेक्षा करते और यूनानियों द्वारा प्रदत्त सम्मान को बड़ा महत्व देते।
16) इन सब बातों के कारण उनकी दुर्गति हो गयी; क्योंकि वे जिन लोगों के रीति-रिवाजों का अनुकरण करना और हर तरह जिनके सदृश बनना चाहते थे, वे उनके शत्रु और अत्याचारी बन गये।
17) आगे की घटनाएँ इस बात को प्रमाणित करेंगी कि ईश्वरीय नियमों का उल्लंघन करना कोई साधारण बात नहीं है।
18) तीरुस में हर पाँचवें वर्ष राजा की उपस्थिति में खेल-कूद होता था।
19) नीच यासोन ने येरुसालेम के प्रतिनिधियों के रूप में कुछ ऐसे लोगों को भेजा, जिन्हें अंताकिया की नागरिकता प्राप्त हो गयी और उन्हें हेराक्लेस की बलि चढ़ाने के लिए तीन सौ चाँदी के सिक्के दिये। किंतु वहाँ पहुँच कर प्रतिनिधियों को लगा कि यह रूपया बलिदान के लिए देना अनुचित था और उन्होंने उसे एक अन्य कार्य में खर्च किया।
20) भेजने वाले ने इसे इसलिए भेजा था कि इसे हेराक्लेस के बलिदान के लिए खर्च किया। लेकिन लाने वालों को यह बात उचित नहीं लगी, इसलिए इसे नावों के निर्माण के लिए अर्पित किया गया।
21) मनेस्थेस के पुत्र अपल्लोनियस को फिलोमेतोर के राज्यभिषेक के अवसर पर मिस्र भेजा गया। अप्पलोनियस से अंतियोख को मालूम हुआ कि फिलोमेतोर उसकी राजनीति का विरोधी है और इसलिए वह अपने राज्य की सुरक्षा का प्रबंध करने लगा। इस सिलसिले में वह याफ़ा गया और वहाँ से येरुसालेम।
22) यासोन और नगर के लोगों ने बड़ी धूमधाम से उसका स्वागत किया। जैसे ही उसने नगर में प्रवेश किया, नगर के लोगों ने मशालें जलायीं और उसका जयकार किया। इसके बाद वह अपनी सेना के साथ फेनीके लौट आया।
23) तीन वर्ष बाद यासेन ने मनेलास को, जो उपर्युक्त सिमोन का भाई था, राजा को रूपया देने और प्रशासन की कुछ आवश्यक समस्याओं के संबंध में राजा का निर्णय ले आने भेजा।
24) मनेलास ने राजा से मिलने पर उसे यह विश्वास दिलाया कि वह एक प्रभावशाली व्यक्ति है। राजा ने उसे प्रधानयाजक के पद पर नियुक्त किया; क्योंकि उसने यासोन से तीन सौ मन चाँदी अधिक देने की प्रतिज्ञा ली।
25) वह अपनी नियुक्त का राज्यादेश ले कर येरुसालेम पहुँचा, यद्यपि वह उस पद के नितांत अयोग्य था; क्योंकि उसकी प्रकृति क्रूर तानाशाही की जैसी थी और वह क्रोध के आवेश में जंगली जानवर-जैसा व्यवहार करता था।
26) इस प्रकार यासोन, जिसने अपने भाई को पदच्युत किया था अब स्वयं दूसरे के द्वारा पदच्युत कर दिया गया और उसे अम्मोनियों के देश भागना पडा।
27) मनेलास ने पदभार ग्रहण किया, लेकिन उसने राजा को जो रूपया देने का वचन दिया था, वह नहीं दिया-
28) तब भी नहीं दिया, जब गढ के प्रधान सोस्त्रातस ने, जो राजकर वसूलने का अधिकारी था, उसे ऐसा करने को कहा। इस कारण राजा ने दोनों को स्पष्टीकरण के लिए बुला भेजा।
29) मनेलास ने स्थानापन्न प्रधानयाजक के रूप में अपने भाई लिसीमाखस को नियुक्त किया और सोस्त्रातस ने कुप्रुस के सैनिकों के अध्यक्ष क्रातेस को अपने स्थान पर।
30) इस बीच तारसस और मल्लोस में राजद्र्रोह हो रहा था, क्योंकि ये नगर राजा की उपपत्नी अंतियोखिस को दिये गये थे।
31) राजा शीघ्र ही स्थिति सुलझाने वहाँ गया। उसने अन्द्रोनिकस को, जो एक प्रतिष्ठित व्यक्ति था, अपनी जगह पर नियुक्त किया।
32) मनेलास ने सोचा कि वह अच्छा अवसर है। उसने मंदिर के कुछ सोने के पात्र चुरा कर उन्हें अन्द्रोनिकस को भेंट में दे दिये। उसने कुछ अन्य पात्र तीरुस और आसपास के नगरों में बेचे।
33) ओनियस ने इसकी निश्चित जानकरी प्राप्त कर उसे बहुत फटकारा। वह उस समय दफ़ने में था, जो अन्ताकिया के पास एक शरण-नगर है।
34) इस कारण मनेलास ने अन्द्रोनिकस को एकांत में बुला कर उस में अनुरोध किया कि वह ओनियस की हत्या कर दे। इसके बाद उसे विश्वास था कि वह कपट से अपना उद्देश्य पूरा कर सकेगा। उसने ओनियस को हार्दिक प्रणाम किया और शपथ खा कर उसे अपने सद्भाव का विश्वास दिलाया। यद्यपि ओनियस का संदेह दूर नहीं हुआ, फिर भी वह अपना शरणस्थान छोड़ने के लिए तैयार हो गया। ज्यों ही उसने ऐसा किया, अन्द्रोनिकस ने विश्वासघात कर उसकी हत्या कर डाली।
35) इस रक्तपात से न केवल यहूदी, परंतु बहुत-से अन्य गैर-यहूदी लोग भी उस मनुष्य की निर्मम हत्या पर क्रुद्ध और क्षुब्ध हो गये।
36) जैसे ही राजा किलीदिया प्रदेश से लौटा, नगर के यहूदियों और यूनानियों ने, जो इस अपराध की निंदा करते थे, मिल कर राजा से यह शिकायत की कि ओनियस का अकारण वध किया गया है।
37) अन्तियोख को बड़ा दुःख हुआ और उसके हृदय पिघल गया। वह मृतक की प्रज्ञा और संयम का स्मरण करते हुए रो पड़ा।
38) उसने आवेश में आ कर तुरन्त अन्द्रानिकस के बैंगनी वस्त्र उतारे, उसका कुरता फाड़ डाला और उसे पूरे नगर में घुमा कर उस स्थान तक पहुँचाया, जहाँ उसने ओनियस की हत्या करायी थी और वहाँ उस विधर्मी हत्यारे को मरवा दिया। इस प्रकार प्रभु ने उसे उचित दण्ड दिया।
39) लिसीमाखन ने मनेलास की अनुमति से नगर के मंदिर से बहुत-से सोने के पात्र चुराये। जब यह बात लोगों को मालूम हुई, तो वे लिसीमाखस का विरोध करने एकत्र हो गये।
40) लिसीमाखस ने लगभग तीन हजार आदमियों को शस्त्र प्रदान किये और उन्हें उत्तेजित और क्रुद्ध भीड़ पर आक्रमण करने का आदेश दिया। उसने औरानस नामक व्यक्ति को उनका नायक बनाया। औरानस जितना बूढा था, उसना मूर्ख भी था।
41) जब लोगों को पता चला कि लिसीमाखस उन पर आक्रमण करने वाला है, तो वे पत्थर, लकड़ी और राख उठाकर लिसीमाखस के आदमियों पर धड़ाधड फेंकने लगे।
42) इस तरह उन्होंने उन में बहुतों को घायल किया, कुछ लोगों को मार डाला, बाकी सब को भगा दिया और कोष के पास मंदिर के लुटेरे का वध किया।
43) इन घटनाओं के बाद मनेलास पर मुकदमा चलाया गया।
44) जैसै ही राजा तीरुस लौटा, उसके सामने परिषद् के भेजे तीन सदस्यों ने उस पर दोषारोपण किया।
45) जब मनेलास ने देखा कि मामला उसके प्रतिकूल होता जा रहा है, तो उसने दोरिमेनस के पुत्र पतोलेमेउस से कहा कि यदि वह राजा को उसके पक्ष में कर देगा, तो वह एक भारी रकम देगा।
46) पतोलेमेउस राजा को हवा खाने का मौका देने के बहाने प्रांगण ले गया और उसका मन बदलने में सफल हो गया।
47) इसका परिणाम यह हुआ कि राजा ने मनेलास को, जो दंगे का मूल कारण था, दोषमुक्त ठहराया और उन अभागे लोगों को प्राणदण्ड दिया, जिन्हें स्कूती भी दोषमुक्त ठहराते, यदि वे उनका न्याय करते।
48) जो लोग नगर, राष्ट्र और पवित्र पात्रों की रक्षा के लिए उठ खडे हुए, उन्हें अविलम्ब अन्यायपूर्वक प्राणदण्ड दिया गया।
49) तीरुस ने निवासी इस अपराध के कारण इतने क्रुद्ध थे कि उन्होंने मृतकों को समारोह के साथ दफनाने का खर्च दिया।
50) इस प्रकार शासकों के लालच के कारण मनेलास अपना पद सँभालता रहा। उसकी दुष्टता बढ़ती गयी और वह सहनागरिकों का कट्टर विरोधी बन गया।

अध्याय 5

1) जब अन्तियोख दूसरी बार मिस्र पर आक्रमण करने की तैयारी कर रहा था,
2) (२-३) तो चालीस दिन तक पूरे नगर में लोगों को दिव्य दृश्य दिखाई पड़ेः सोने से कढे वस्त्र पहने और भाले लिये घुडसवारों के झुण्ड आकाश पार करते थे- कितनी ढाले, कितने बरछे, नंगी तलवारे, उडते हुए बाण, सोने के चमकदार कवच और हर प्रकार के बख्तर दिखाई पडे।
4) सब लोग प्रार्थना करते थे, जिससे वे लक्षण शुभ हों।
5) जब यह झूठा समाचार फैला कि अन्तियोख मर गया, तो यासोन ने एक हजार से कुछ अधिक लोगों को ले कर अचानक नगर का धावा बोल दिया। उसने दीवार पर तैनात सैनिको को भागने के लिए विवश किया और अंत में नगर पर उसका अधिकार हो गया। मनेलास ने गढ़ में शरण ली।
6) यासोन ने अपने सहनागरिकों में, बहुत लोगों का वध किया। वह यह नहीं समझ सका कि अपने ही लोगों पर विजय वास्तव में भारी पराजय है। ऐसा लगता था, मानो अपनी ही जाति उसका शत्रु है।
7) किंतु वह शासन पर अधिकार करने में असमर्थ रहा। अंत में उसे अपने विश्वासघात के कारण कलंकित हो कर फिर अम्मोनियों के देश भागना पड़ा।
8) उसका अंत बड़ा दुःखद रहा। अरबों के तानाशाह अरेतास के सामने उस पर आरोप लगाया गया और उसे एक नगर से दूसरे नगर भागना पड़ा। सब लोग उसके पीछे पड़ गये थे। वह घृणा और तिरस्कार का पात्र था, क्योंकि उसने विधि-निषेधों का उल्लंघन और अपने देश और अपने सहनागरिकों पर अत्याचार किया था। वह मिस्र भगा दिया गया।
9) जिस व्यक्ति ने अनेक लोगों को देश से निकाला था, वह स्वयं परदेश में मरा। वह यह सोच कर लकेदैमोनी लोगों के यहाँ गया था कि वे लोग उसके संबंधी होने के कारण उसे शरण देंगे।
10) उसने अनेक लोगों को बिना दफनाये ही छोड़ दिया था। अब वह स्वयं बिना दफनायें पड़ा रहा। न किसी ने उसके लिए शोक मनाया, न उसे दफनाया और न उसके पूर्वजों के समाधिस्थान में उसे जगह मिल सकी।
11) जब राजा को ये बातें मालूम हुई, तो उसे लगा कि यहूदियों ने विद्रोह कर दिया है। वह हिंसक पशु की तरह क्रोध के आवेश में आ कर मिस्र से लौट आया और उसने शस्त्रों के बल पर नगर अपने अधिकार में कर लिया।
12) उसने सैनिकों को आदेश दिया कि जो भी लोग मिलें या घरों के ऊपरी भाग में छिपे हुए हों, सब का निर्दयतापूर्वक वध किया जाये।
13) नवयुवकों और वृद्धों की हत्या की गयी। स्त्रियों, बच्चों, कन्याओं और दुधमुँहे शिशुओं का वध किया गया।
14) तीन ही दिन में अस्सी हजार लोग मर गये; चालीस हजार तलवार के घाट उतारे गये और उतने ही लोग दास के रूप में बेचे गये।
15) इस से भी राजा को संतोष नहीं हुआ। वह संसार भर के सब से पवित्र मंदिर मे घुुस आया। विधि-निषेधों और अपने देश का विश्वासघाती मनेलास उसके आगे चल रहा था।
16) उसने अपने अपवित्र हाथों से पवित्र पात्र और मनौती के वे उपहार छीन लिये, जिन से अन्य राजाओं और नगरों ने मंदिर की प्रतिष्ठा, शोभा और सम्मान बढाया था।
17) उसने अपने घमण्ड में यह नहीं सोचा कि प्रभु नगरवासियों के पापों के कारण थोड़े समय के लिए उनके प्रतिकूल हो गया था और केवल इसी कारण उस स्थान पर यह विपत्ति टूट पड़ी थी।
18) यदि नगरवासी असंख्य पापों में नहीं फंस गये होते, तो उसके साथ ठीक वैसा ही होता, जैसा हेल्योदोरस के साथ हुआ, जिसे सिलूकस ने कोष का निरीक्षण करने भेजा था। उसे मंदिर में प्रवेश करते ही दण्डित किया जाता और इस प्रकार उसका दुःसाहस का कार्य रोका जाता।
19) प्रभु ने उस स्थान के कारण अपनी प्रजा का चुनाव नहीं किया, बल्कि उसने वह स्थान अपनी प्रजा के कारण चुना है।
20) इसलिए उन स्थान को लोगों की विपत्तियों का सहभागी बनना पडा, जिस तरह वह बाद में उनके सौभाग्य का भागी बनने वाला था। सर्वशक्तिमान् के क्रोध के कारण अब उस स्थान का त्याग किया गया। किंतु सर्वोच्च प्रभु के क्रोध के शांत होने के बाद उसे फिर से प्रतिष्ठा प्राप्त होने वाली थी।
21) अंतियोख मंदिर से अठारह सौ मन चांदी ले कर अंतकिया लौटा। उसका अहंकार इतना बढ़ गया कि वह धरती पर नाव चलाने और समुद्र पर पैदल रास्ता बनाने की सोचने लगा।
22) उसने प्रस्थान करने से पहले यहूदियों को नियुक्त किया- येरुसालेम में फ़िलिप को, जो फ्रीजिया का था और जिसका दिल अपने मालिक से भी अधिक बर्बर था,
23) गरिज्जीम पर अंद्रोनिकस को; इनके अतिरिक्त मनेलास को, जो इन से भी अधिक दुष्ट था और अपने सहनागरिकों पर रोब दिखाता था।
24) अंतियोख ने सेनापति अपल्लोनियस को बाईस हजार सैनिकों के साथ भेजा और उसे सभी वयस्क पुरुषों का वध करने और स्त्रियों तथा किशोरों को बेचने का आदेश दिया।
25) उसने येरुसालेम आ कर शांतिप्रिय व्यक्ति होने का स्वाँग रचा। वह पवित्र विश्राम-दिवस तक निष्क्रिय बैठा रहा और जिस दिन यहूदी विश्राम-दिवास मनाने लगे, उस दिन उसने अपने आदमियों को शस्त्रों से सुसज्जित हो कर कवायद करने को कहा।
26) जब लोग सैनिकों को देखने निकले, तो उसने उनका वध करने का आदेश दिया और इसके बाद उसने अपने सशस्त्र सैनिकों के साथ नगर में प्रवेश कर कितने ही लोगों को मार डाला।
27) इस पर यूदाह मक्काबी नौ आदमियों को साथ ले कर उजाडखण्ड की ओर भाग गया। वहाँ वह अपने साथियों के साथ पहाडियों पर जंगली जानवरों की तरह रहने लगा। वे अपवित्र होने के डर से केवल सब्जी खाते थे।

अध्याय 6

1) कुछ समय बाद राजा ने एक एथेंस-निवासी वृद्ध पुरुष को इसलिए भेजा कि वह यहूदियों को अपने पूर्वजों के विधि-निषेधों का परित्याग करने और ईश्वर के नियमों का उल्लंघन करने को बाध्य करे।
2) उसे येरुसालेम के मंदिर को अपवित्र कर ओलिम्पसवासी ज्यूस के नाम पर उसका प्रतिष्ठान करना था और गरिज्जीम के निवासियों के स्वभाव के अनुरूप वहाँ के मंदिर का, आतिथेय ज्यूस के नाम पर।
3) अधर्म का यह बोलबाला जनसाधारण को भी खलने लगा। यह उनके लिए दुःसह हो गया।
4) मंदिर में दुराचरण और रंगरेलियाँ होने लगीं। गैर-यहूदी वहाँ वेश्याओं के साथ मनोरंजन और पवित्र प्रांगणों में स्त्रियों के साथ रमण करते। वे मंदिर में ऐसी वस्तुएँ अन्दर लाते, जो वर्जित थीं।
5) वेदी ऐसी वस्तुओं से भर गयी, जो अपवित्र और संहिता द्वारा वर्जित थीं।
6) न विश्राम-दिवस मनाया जा सकता और न परंपरागत उत्सव मनाये जा सकते थे। कोई अपने को यहूदी कहलाने का साहस नहीं करता था।
7) राजा के प्रति मास मनाये जाने वाले जन्म-दिवस पर बलि का प्रसाद खाने के लिए लोगों को बाध्य किया जाता और दियोनीसियस देवता के पर्व पर अवसर पर उन्हें इसके लिए मजबूर किया जाता कि वे मारवल्ली का मुकुट सिर पर पहन कर दियोनीसियस के जुलूस में सम्मिलित हों
8) पतोलेमेउस के कहने पर यह निर्णय किया गया कि निकटवर्ती यूनानी नगरों में भी यहूदियों के साथ वही व्यवहार किया जाये और उन्हें बलि-प्रसाद खाने को बाध्य किया जाये।
9) जो व्यक्ति यूनानी रीति-रिवाजों को अपनाने से इंकार करे, उसका वध कर दिया जाये। इस से स्पष्ट था कि यहूदियों पर कितनी विपत्तियाँ पड़ने वाली थीं।
10) एक दिन दो माताएँ कचहरी में पेश की गयीं, जिन्होंने अपने बच्चों का खतना करवाया था। उनके शिशु उनकी छाती पर लटका दिये गये। उन्हें इसी रूप में नगर में घुमाया गया और इसके बाद उन्हें दीवार से नीचे फेंक दिया गया।
11) कुल लोग वही गुफाओं में छिप गये थे, जिससे वहीं विश्राम-दिवस मनायें। किंतु यह बात फ़िलिप को बता दी गयी और उन्हें वहीं जला दिया गया। वे पवित्र विश्राम-दिवस पर श्रद्धा रखने के कारण अपनी रक्षा करना नहीं चाहते थे।
12) मैं इस ग्रंथ के पाठकों से यह निवेदन करता हूँ कि वे इन विपत्तियों के कारण निराश न हों, बल्कि यह समझें कि ये विपत्तियाँ हमारे विनाश के लिए नहीं, वरन् हमारी जाति के सुधार के लिए आयी है।
13) यदि पापी लोगों को दण्ड मिलने में कुछ समय नहीं लगता हैं, यदि उन्हें तत्काल दण्ड मिलता हैं, तो यह बड़ी कृपा का प्रमाण है।
14) प्रभु अन्य जातियों के साथ ढिलाई करता और उन्हें तब दण्ड देता है, जब उनके पाप का घड़ा भर जाता है। किंतु वह हमारे साथ ऐसा नहीं करता,
15) जिससे उसे तब हमें और कठोर दण्ड न देना पड़े, जब हमारे पाप चरमसीमा तक पहुँचे गये हों।
16) वह हमें अपनी दया से कभी वंचित नहीं करता। वह विपत्तियों द्वारा अपनी प्रजा को शिक्षा देता है, लेकिन उसका पूरी तरह त्याग नहीं करता।
17) हमने थोड़े ही शब्दों में इस सत्य का स्मरण दिलाया और अब हम अपना कथानक आगे बढाते हैं।
18) एलआजार मुख्य शास्त्रियों में एक था। वह बहुत बूढ़ा हो चला था और उसकी आकृति भव्य तथा प्रभावशाली थी। वह अपना मुँह खोलने और सूअर का मांस खाने के लिए बाध्य किया जा रहा था।
19) (१९-२०) किंतु उसने कलंकित जीवन की अपेक्षा गौरवपूर्ण मृत्यु को चुना। वह सूअर का मांस उगल कर स्वेच्छा से उस स्थान की ओर बढ़ा जहाँ कोडे लगाये जाते थे। ऐसा उन लोगों को करना चाहिए, जिन्हें जीवन का मोह छोड़ कर वर्जित भोजन अस्वीकार करने का साहस हैं।
21) उस अवैध भोजन का प्रबंध करने वाले एलआजार के पुराने परिचित थे। उन्होंने उसे अलग ले जा कर उस से अनुरोध किया कि वे ऐसा माँस मंगवा कर खाये, जो वर्जित न हो और जिसे उसने स्वयं पकाया हो और राजा के आदेश के अनुसार बलि का माँस खाने का स्वाँग मात्र करें।
22) इस प्रकार वह मृत्यु से बच सकेगा और पुरानी मित्रता के कारण उसके साथ अच्छा व्यवहार किया जायेगा।
23) किंतु उसने एक उत्तम निश्चय किया, जो उसकी उमर, उसकी वृद्धावस्था की मर्यादा, उसके सफेद बालों, बचपन से उसके निर्दोष आचरण और विशेष कर ईश्वर द्वारा प्रदत्त पवित्र नियमों के अनकूल था। उसने उत्तर दिया, ''मुझे तुरंत अधोलोक पहुँचा दो।
24) मेरी अवस्था में इस प्रकार का स्वाँग अनुचित है। कहीं ऐसा न हो कि बहुत-से युवक यह समझें कि एलआजार ने नब्बे वर्ष की उमर में विदेशियों के रीति-रिवाज अपनाये हैं।
25) मेरे जीवन का बहुत कम समय रह गया है। यदि मैं उसे बचाने के लिए इस प्रकार का स्वाँग करता, तो वे शायद मेरे कारण भटक जाते और मेरी वृद्धावस्था पर दोष और कलंक लग जाता।
26) यदि मैं इस प्रकार अभी मनुष्यों के दण्ड से बच जाता, तो भी, चाहे जीवित रहूँ अथवा मर जाऊँ, मैं सर्वशक्तिमान् के हाथ से नहीं छूट पाता।
27) इसलिए यदि मैं अभी साहस के साथ अपना जीवन अर्पित करूँगा तो मैं अपनी वृद्धावस्था की प्रतिष्ठा बनाये रखूँगा
28) और युवकों के लिए एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करूँगा कि किस प्रकार पूज्य तथा पवित्र विधियों की रक्षा के लिए कोई स्वेच्छा से और आनंद के साथ मर सकता है।'' यह कह कर एलआजार सीधे उस स्थान की ओर बढ़ा जहाँ कोडे लगाये जाते थे।
29) जो पहले उसके साथ सहानुभूति दिखलाते थे, अब वे उसके साथ दुर्व्यवहार करने लगे; क्योंकि एलआजार ने उन से जो कहा था, वह उन्हें मूर्खता ही लगी।
30) कोड़ों की मार से मरते समय एलआजार ने आह भर कर यह कहा, ''प्रभु सब कुछ जानता है। वह जानता है कि मैं मृत्यु से बच सकता था। मैं कोड़ों की मार से जो असह् पीडा अपने शरीर में भोग रहा हूँ, उसे अपनी आत्मा से स्वेच्छा से स्वीकार करता हूँ, क्योंकि मैं उस पर श्रद्धा रखता हूँ''।
31) इस प्रकार वह मर गया और उसने मरते समय न केवल युवकों के लिए, बल्कि राष्ट्र के अधिकांश लोगों के लिए साहस तथा धैर्य का आदर्श प्रस्तुत किया।

अध्याय 7

1) किसी अवसर पर सात भाई अपनी माता के साथ गिरफ्तार हो गये थे। राजा उन्हें कोड़े लगवा कर और यंत्रणा दिला कर बाध्य करना चाहता था कि वे सूअर का माँस खायें, जो संहिता में मना किया गया है।
2) उन में से एक ने दूसरों का प्रतिनिधि बन कर कहा, ''तुम हम लोगों से क्या चाहते हो? अपने पूर्वजों की संहिता का उल्लंघन करने की अपेक्षा हम मर जाना अधिक पसंद करेंगे।'-
3) इस पर राजा क्रुद्ध हो उठा और उसके कड़ाह और हण्डे आग पर चढ़ाने की आज्ञा दी।
4) जब ऐसा किया गया, तो उसने फिर आदेश दिया कि जो व्यक्ति सबसे पहले बोला था, उसकी जीभ काट दी जाये, उसके सिर की चमड़ी उतार ली जाये और उसके हाथ पाँव काट दिये जायें। उसके दूसरे भाइयों और माँ की आँखों के सामने ऐसा किया गया।
5) वह व्यक्ति अभी जिंदा ही था, तभी उसकी क्षत-विक्षत देह को आग के पास ले जाया गया और उसे कड़ाह में तपाया गया। जब कड़ाह से धुआँ ऊपर उठने लगा, तो दूसरे भाइयों और उनकी माता ने एक दूसरे को उत्साहित किया, जिससे वे साहस के साथ मत्यु का सामना करें। उन्होंने कहा,
6) ''प्रभु-ईश्वर हमें देख रहा है और जैसा कि मूसा ने अपने भजन में सुस्पष्ट शब्दों में कहा : 'वह अपने सेवकों पर दया करेगा' वह निश्चित ही हमें सान्त्वना प्रदान करेगा''।
7) जब पहला इस प्रकार मारा गया, तो दूसरे को लाया गया, जिससे उसे भी घोर यातना दी जाये। उसके सिर की चमड़ी बालो-सहित उतार दी गयी और उस से कहा गया, ''क्या तू भी नहीं खायेगा? तो समझ ले कि तेरे शरीर के एक-एक अंग को यंत्रणा दी जायेगी।''
8) उसने अपनी मातृभाषा में कहा, ''मैं नही खाऊँगा''। इस पर पहले की ही तरह उसे यातानाएँ दी गयीं।
9) उसने प्राण त्यागते समय कहा, ''दुष्ट! तुम हम से यह जीवन छीन सकते हो, किंतु संसार का राजा, जिसके नियमों के लिए हम मर रहे हैं, हमें पुनर्जीवित कर अनंत जीवन प्रदान करेगा''।
10) इसके बाद वे तीसरे भाई की उत्पीडित करने लगे। जब उस से जीभ निकालने को कहा, तो उसने ऐसा ही किया।
11) और यह कर कर निधड़क अपने हाथ बढाये, ''ईश्वर की ओर से मुझे ये अंग मिले और उसके नियमों की रक्षा के लिए मैं इनकी परवाह नहीं करता। मेरा विश्वास है कि ईश्वर इन्हें मुझ को लौटा देगा।''
12) राजा और उसके परिजन युवक का साहस तथा यातनाओं में उसका धैर्य देख कर अचम्भे में पड़ गये।
13) जब वह मर गया, तो वे चौथे भाई को इसी प्रकार की घोर यातनाएँ देने लगे।
14) वह मरते समय चिल्ला उठा, ''यह अच्छा ही है कि हम मनुष्यों के हाथ पर जाये, क्योंकि हमें ईश्वर की इस प्रतिज्ञा पर भरोसा हैं कि वह हमें पुनर्जीवित कर देगा। किंतु जीवन के लिए तुम्हारा पुनरुत्थान नहीं होगा।''
15) इसके बाद पाँचवें को लाया गया और उसे भी यातना दी गयी।
16) उसने राजा की ओर देख कर कहा, ''तुम नश्वर हो, फिर भी तुम को यह सामर्थ्य दिया गया है कि तुम जैसा चाहो, कर सकते हो। किंतु यह मत समझो कि ईश्वर ने हमारी जाति का त्याग किया है।
17) तुम धीरज के साथ प्रतीक्षा करोगे, तो देखोगे कि उसका महिमामय सामर्थ्य तुम को और तुम्हारे वंशजों को किस प्रकार उत्पीड़ित करेगा।''
18) तब छठा लाया गया। उसने प्राण त्यागते समय कहा, ''तुम धोखा मत खाओ। हमें ये दण्ड मिल रहे हैं और हम पर भी असाधारण विपत्तियाँ इसलिए पड़ रही है कि हमने अपने ईश्वर के विरुद्ध पाप किया है।
19) किंतु तुम यह न सोचो कि ईश्वर के विरुद्ध लडने का साहस करने के बाद तुम दण्ड से बच जाओंगे।''
20) माता विशेष रूप से प्रंशसनीय तथा प्रातः स्मरणीय है। एक ही दिन में अपने सात पुत्रों को अपनी आँखों के सामने मरते देखकर भी वह विचलित नहीं हुई; क्योंकि वह प्रभु पर भरोसा रखती थी।
21) वह अपने पूर्वजों की भाषा में हर एक का साहस बँधाती रही। उच्च संकल्प से प्रेरित हो कर तथा अपने नारी-हृदय में पुरुष का तेज भर कर, वह अपने पुत्रों से यह कहती थी,
22) ''मुझे नहीं मालूम कि तुम कैसे मेरे गर्भ में आये। मैंने न तो तुम्हें प्राण तथा जीवन प्रदान किया और न तुम्हारे अंगों की रचना की।
23) संसार का सृष्टिकर्ता मानव जाति की रचना करता और सब कुछ उत्पन्न करता है। वह दया कर तुम्हें अवश्य ही फिर प्राण तथा जीवन प्रदान करेगा; क्योंकि तुम उसकी विधियों की रक्षा के लिए अपने जीवन का तिरस्कार कर रहे हो।''
24) अंतियोख को लगा कि वह उसका तिरस्कार और निंदा कर रही है। अब केवल उसका सब से छोटा पुत्र जीवित रहा। अंतियोख ने उसे समझाया ही नहीं, बल्कि शपथ खा कर आश्वासन भी दिया कि ''यदि तुम अपने पूर्वजों के रीति-रिवाजों का परित्याग करोगे, तो मैं तुम को धन और सुख प्रदान करूँगा, तुम्हें अपना मित्र बना कर उच्च पद पर नियुक्त करूँगा''।
25) जब नवयुवक ने उसकी बातों पर ध्यान ही नहीं दिया तो अंतियोख ने माता को बुला भेजा और उस से अनुरोध किया कि वह नवयुवक को समझाये, जिससे वह जीवित रह सके।
26) राजा के कई बार अनुरोध करने के बाद वह अपने पुत्र को समझाने को राजी हो गयी।
27) वह उस पर झुक गयी और क्रूर तानाशाह की अवज्ञा करते हुए उसके पूर्वजों की भाषा में उस से यह कहा, ''बेटा! मुझ पर दया करो। मैंने तुम्हें नौ महीनों तक गर्भ में धारण किया और तीन वषोर्ं तक दूध पिलाया। मैंने तुम्हें खिलाया और तुम्हारी इस उमर तक तुम्हारा पालन-पोषण किया।
28) बेटा! मैं तुम से अनुरोध करती हूँ। तुम आकाश तथा पृथ्वी की ओर देखो- उन में जो कुछ है, उसका निरीक्षण करो और यह समझ लो कि ईश्वर ने शून्य से उसकी सृष्टि की है। मनुष्य भी इस प्रकार उत्पन्न हुआ है।
29) इस जल्लाद से मत डरो। अपने भाइयों के योग्य बनो और मृत्यु स्वीकार करो, जिससे मैं दया के दिन तुम्हें अपने भाइयों के साथ फिर पा सकूँ।''
30) जब वह ऐसा कह चुकी थी, तो नवयुवक तुरंत बोल उठा ''तुम देर क्यों करते हो? मैं राजा का आदेश नहीं मानूँगा। मैं अपने पुरखों को मूसा द्वारा प्रदत्त संहिता के नियमों का पालन करता हूँ।
31) और तुम राजा, अंतियोख! जिसने इब्रानियों पर हर प्रकार का अत्याचार किया, तुम ईश्वर के हाथ से नहीं बच सकोगे।
32) हम अपने पापों के कारण दुःख झेल रहे हैं।
33) यदि हमारा जीवंत ईश्वर हमें दण्ड देने और हमारा सुधार करने के लिए थोडे ही समय तक हम पर क्रोध प्रकट करता हैं, तो वह फिर अपने सेवकों पर दया करेगा।
34) किंतु तुम, जो मनुष्यों में सब से दुष्ट और नीचे हो और ईश्वर के सेवकों पर हाथ उठाते हो, घमण्डी बन कर व्यर्थ आशा मत करो।
35) तुम सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ ईश्वर के न्याय से नहीं बच सकोंगे।
36) हमारे भाई थोडे समय के लिए दुःख सहने के बाद अब ईश्वर के विधान के कारण अनन्त जीवन का जल पीते हैं। लेकिन ईश्वर की ओर से तुम्हें अपने अहंकार का उचित दण्ड मिलेगा।
37) मैं अपने भाइयों की तरह अपने पूर्वजों की संहिता पर शरीर और जीवन-सब कुछ न्योछावर कर रहा हूँ और ईश्वर से यह निवेदन कर रहा हूँ कि वह शीघ्र ही मेरी जाति पर फिर से दया करे और तुम को भी विपत्तियों की मार से यह समझा दे कि वह एकमात्र ईश्वर है।
38) यह उचित ही था कि सर्वशक्तिमान् का क्रोध हमारी जाति पर भडक उठे। वह क्रोध मेरे और मेरे भाइयों के कारण अब शांत हो जाये''
39) राजा को इस तिरस्कार का बहुत तीखा अनुभव हुआ और उसके क्रोध के आवेश में आ कर उसके साथ दूसरों से कहीं अधिक क्रूर व्यवहार करने को कहा।
40) इस प्रकार वह निर्दोष युवक केवल प्रभु पर भरोसा रखते हुए इस संसार से चल बसा।
41) अंत में माता का अपने पुत्रों के बाद देहान्त हो गया।
42) बलि-प्रसाद के सेवन और असाधारण यातानाओं का यह विवरण यहाँ समाप्त किया जाता है।

अध्याय 8

1) यूदाह मक्काबी अपने आदमियों को साथ ले कर छिपे-छिपे गाँवों का दौरा करता था। वे अपने संबंधियों को बुला भेजते और उन लागों को अपने दल में भर्ती कर लेते थे, जो यहूदी धर्म के प्रति ईमानदार रहे थे। इस प्रकार उन्होंने लगभग छः हजार लोगों को एकत्र किया।
2) उन्होंने प्रभु से प्रार्थना की कि वह उस प्रजा पर कृपादृष्टि करे, जिस पर चारों ओर से अत्याचार किया जा रहा है; उस मन्दिर में दया करे, जो विधर्मियों द्वारा अपवित्र किया गया है;
3) उस नगर पर सहानुभूति दिखाये, जिसका विनाश और पूर्ण संहार किया जा रहा हैं; उस रक्त की पुकार पर ध्यान दे, जो उसकी दुहाई दे रहा है;
4) उन निर्दोष बच्चों को याद करे, जिनका अधर्म से वध किया गया है और उन लोगों को दण्डित करे, जिन्होंने उसकी निंदा की है।
5) जब मक्काबी ने अपनी सेना संगठित कर ली, तो गैर-यहूदी उसके सामने नहीं टिक पाते थे; क्योंकि अब प्रभु का कोप दया बन गया था।
6) वह अचानक नगरों और गाँवों में घुसता और उन्हें जला देता। उसने उन स्थानों पर अधिकार कर लिया, जो उसके काम के थे। इस तरह उसने कई शत्रुओं को भगा दिया।
7) वह इस प्रकार के आक्रमण प्रायः रात में किया करता। उसकी वीरता की चर्चा दूर-दूर तक फैल गयी।
8) जब फिलिप ने देखा कि यूदाह की शक्ति धीरे-धीरे बढ़ने लगी और उसकी विजयों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही थी, तो उसने केले-सीरिया आर फेनीके के शासक पतोलेमेउस को पत्र लिख कर निवेदन किया कि वह राजा का पक्ष सुदृढ़ करने के लिए सहायता भेजे।
9) उसने तुरंत पत्रक्लस के पुत्र निकानोर को, जो राजा का एक घनिष्ठ मित्र था, बुला भेजा, उसे विभिन्न जातियों के कम-से-कम बीस हजार सैनिकों का सेनापति नियुक्त किया और समस्त यहूदी जाति का संहार करने यहूदिया भेजा। उसने सेनापति गोरगियस को भी उनके साथ कर दिया, जो अनुभवी एवं युद्धनिपुण सेनापति था।
10) निकानोर ने सोचा कि राजा रोमियों को कर के रूप में जो दो हजार मन चुकाता था, वह राशि यहूदी युद्ध निपुण की बिक्री से प्राप्त हो सकेगी।
11) उसने तुरंत समुद्रतट के नगरों में घोषणा की कि यहूदी दासों को बेचा जायेगा और आश्वासन दिया कि एक मन में नब्बे दास मिलेंगे। उसने उस दण्ड की कल्पना नहीं कि जो उसे सर्वशक्तिमान् की ओर से मिलने वाला था।
12) यूदाह को निकानोर के आगमन का पता चल गया और उसने अपने साथियों को इसकी सूचना दी।
13) उन में जो कायर थे और जिन्हें ईश्वर के न्याय पर भरोसा नहीं था, वे लोग दूसरी जगह भाग गये।
14) शेष लोगों ने वह बेच दिया, जो उनके पास था और प्रभु से प्रार्थना की कि वह उन्हें उस विधर्मी निकानोर के हाथों से बचायें, जिसने उन्हें युद्ध से पहले ही दास के रूप में बेचा।
15) यदि वे बचाये जाने के योग्य न हो, तो ईश्वर उनके पूर्वजों के लिए निर्धारित विधान के कारण उन्हें बचाये और इसलिए भी कि वे ईश्वर के पवित्र और महिमामय नाम को समर्पित है।
16) मक्काबी ने अपनी सेना एकत्र की, जिसकी संख्या छः हजार थी। उसने उन्हें समझाया कि वे शत्रु से नहीं डरें और गैर-यहूदियों की संख्या से भयभीत न हों, जो अन्याय से उन पर चढे आ रहे हैं, बल्कि उनका साहसपूर्वक सामना करें।
17) वे यह याद रखें कि उन्होंने किस प्रकार घृष्टता-पूर्वक पवित्र-स्थान को दूषित किया, कितनी क्रूरता से नगर को उजाड़ा और पूर्वजों के रीति-रिवाजों को समाप्त किया।
18) उसने यह भी कहा, ''दूसरें लोगों को अपने अस्त्र-शस्त्रों और अपनी वीरता का भरोसा है, किंतु हमें उस सर्वशक्तिमान् ईश्वर का भरोसा है, जो न केवल हम पर आक्रमण करने वालों का, बल्कि पलक मारते ही समस्त संसार का विनाश कर सकता है''।
19) उसने उन्हें उनके पूर्र्वजों को प्रदत्त सहायता का स्मरण दिलाया : जिस प्रकार सनहेरीब के एक लाख पचासी हजार आदमी मर गये थे।
20) उसने उस लडाई की भी याद दिलायी, जो बाबुल में गलातियों के साथ हुई थी। उस समय चार हजार मकेदूनियों को मिला कर कुल आठ हजार लोग थे और जब मकेदूनियों का दल विचलित हो रहा था, तो उन आठ हजार आदमियों ने ईश्वर की सहायता से एक लाख बीस हजार लोगों को पराजित किया और लूट का भी बहुत धन प्राप्त किया।
21) ऐसी बातों द्वारा उसने उनका साहस बंधाया और उन्हें अपने विधि-निषेधों और अपने देश के लिए जीवन अर्पित करने को तैयार किया। इसके बाद उसने सेना को चार दलों में बाँटा
22) और अपने भाइयों को, अर्थात् सिमोन, यूसुफ और योनातान को, एक-एक दल का अध्यक्ष बनाया। उसने प्रत्येक को पन्द्रह सौ आदमी दिये।
23) उसने एलआजार को पवित्र ग्रंथ का एक अंश पढ़ सुनाने को कहा। इसके बाद उसने उन्हें यह संकेत-वाक्य दिया : ''ईश्वर सहायक है!'' और पहले दल के नेता के रूप में उसने निकानोर पर आक्रमण किया।
24) उन्होंने शत्रुओं में नौ हजार से अधिक का वध किया, निकानोर की सेना के अधिकांश सैनिकों को घायल और पंगु बना दिया और उसकी सेना को भगा दिया। यह इसलिए हुआ कि सर्वशक्तिमान् उनका सहायक था।
25) निकानोर के साथ जो उनके खरीदार आये थे, उन्होंने उनका पैसा लूटा और काफी दूर तक शत्रुओं को खदेड़ा, किंतु दिन ढलने के कारण उन्हें लौटना पड़ा।
26) यह विश्राम-दिवस का पूर्व दिन था, इसलिए उन्होंने उन्हें दूर तक खदेड़ना उचित नहीं समझा।
27) उन्होंने शत्रुओं के अस्त्र-शस्त्र एकत्रित किये और उनके कवच उतार लिये। इसके बाद उन्होंने विश्राम-दिवस मनाया और उल्लास के साथ प्रभु का स्तुतिगान और धन्यवाद किया, जिसने उस दिन उनकी सहायता की थी और इस प्रकार फिर उन पर दया दिखाने लगा था।
28) उन्होंने विश्राम-दिवस के बाद अत्याचार-पीड़ितों, विधवाओं और अनाथों के बीच लूट का अंश बाँट दिया। जो बचा, उसे अपने और अपने बच्चों के बीच बाँट लिया।
29) इसके बाद उन्होंने सामूहिक प्रार्थना की और कृपालु प्रभु से निवेदन किया कि वह अंत तक अपने सेवकों पर दयादृष्टि रखे।
30) उन्होंने तिमोथेव और बक्खीदेस की सेना का भी सामना किया और युद्ध में उन में बीस हजार से अधिक लोगों को मार गिराया। इसके अतिरिक्त उन्होंने कुछ ऊँचे गढ़ों को अपने अधिकार में कर लिया और लूट का बहुत बड़ा माल दो बराबर भागों में विभाजित किया - एक अपने लिए दूसरा भाग अत्याचार-पीडित लोगों, अनाथों, विधवाओं और बूढों में बाँट दिया।
31) उन्होंने राजधानी से अपने सभी हथियार जमा किये और उन्हें सुविधाजनक स्थानों पर रख दिया। लूट का बाकी माल वे येरुसालेम ले गये।
32) उन्होंने तिमोथेव के सेनापति का भी वध किया। वह घोर कुकर्मी था और यहूदियों का बहुत अपकार कर चुका था।
33) जब वे अपने देश में विजय का उत्सव मना रहे थे, तो उन्होंने उन लोगों को जला दिया जिन्होंने मंदिर के फाटकों को जला दिया था और कल्लिस्थेनेस को भी, जिसने किसी घर में शरण ली थी। इस तरह उस से अपने अधर्म का उचित बदला चुकाया गया।
34) महादुष्ट निकानोर, जो एक हजार व्यापारियों को ले आया था, जिससे वह उनके हाथों यहूदियों को बेचे,
35) ईश्वर की सहायता से उन्हीं लोगों द्वारा नीचा दिखाया गया, जिन्हें वह तुच्छ समझता था। उसने अपने भड़कीले वस्त्र उतारने पडे और वह भगोड़े दास की तरह देहाती रास्तों से अकेला अंताकिया पहुँचा। उसे अपनी सेना का विनाश कराने में अपूर्व सफलता मिली।
36) उसने रोमियों से कहा था कि वह येरुसालेम के जिन लोगों को युद्ध में दास बना लेगा, उन्हें बेच कर, कर चुका देगा; लेकिन अब उसे यह मानना पडा कि यहूदियों का एक सहायक है और वे तब अजेय हैं, जब तक वे उसके दिये हुए विधान का पालन करते हैं।

अध्याय 9

1) ेउसी समय अंतियोख को भी फारस के प्रांतों से बुरी तरह पराजित हो कर हट जाना पडा।
2) वह फारसीपुलिस नामक नगर में घुस आया था। वह मंदिर को लूटने और नगर पर अधिकार करने ही वाला था कि वहाँ की जनता ने अपनी रक्षा के लिए अस्त्र उठा लिये। अंतियोख को देशवासियों द्वारा भगा दिया गया और उसे अपमानपूर्वक हटना पडा।
3) एकवतना पहुँचने पर उसे संदेश मिला कि निकानोर, तिमोथेव और उसके आदिमयों पर क्या बीती।
4) उसने क्रोध के आवेश में शपथ खायी कि भगाये जाने से उसका अभी जो अपमान हुआ है, इसका बदला यहूदियों से अवश्य लेगा। इसलिए उसने अपने सारथी को बिना रूके रथ चलाने का आदेश दिया, किंतु ईश्वर का दण्ड उसक साथ-साथ चल रहा था। उसने अपने अहंकार में यह कहा था, ''मैं वहाँ पहँुच कर येरुसालेम को यहूदियों का कब्रिस्तान बना दूँगा''।
5) किंतु प्रभु ने जो सब कुछ देखता है और इस्राएल का ईश्वर है, उसे असाध्य एवं अज्ञात रोग का शिकार बना दिया। जैसे ही उसने ये बाते कहीं, उसे अपनी अँतडियों में एक असह् पीडा का अनुभव हुआ और उसके शरीर मे तेज दर्द होने लगा।
6) यह उसका उचित दण्ड था, क्योंकि उसने क्रूर यंत्रणाओं से दूसरों की अंतडियों को उत्पीडित किया था।
7) इसके बावजूद उसने अपना अहंकार नहीं छोडा। उसने यहूदियों पर क्रोध में आ कर जल्दी करने को कहा, किंतु वह तेजी से चलते रथ से अचानक गिर पडा और इतने जोर से जमीन पर पटक दिया गया कि उसके सभी अंग टूट गये।
8) जो अभी-अभी अहंकार के आवेश में समुद्र की लहरों पर अधिकार करने और बड़े-बड़े पर्वतों को तराजू पर तौलने की सोच रहा था, उसे अब भूमि पर से उठा पर पालकी पर बिठाया जा रहा था। यह ईश्वर के सामर्थ्य का सुस्पष्ट प्रमाण था।
9) उस विधर्मी की हालत इतनी खराब हुई कि उसकी आंतों से कीडे निकल आये, उसके जिंदा रहते ही उसका माँस गल-गल कर गिरने लगा और उसे घोर पीड़ा सहनी पड़ी। उसके शरीर की दुर्गन्ध से उनकी सेना परेशान थी।
10) जो व्यक्ति अभी-अभी आकाश के तारों की ओर हाथ बढाने की सोच रहा था, उसकी असहनीय दुर्गन्ध के कारण कोई साथ नहीं रह सकता था।
11) जब उसका शरीर टूट गया था और वह ईश्वर से दण्डित हो कर निरंतर पीड़ा झेल रहा था, जो उसका घमण्ड कम हो गया और उस में सद्बुद्धि आ गयी।
12) जब वह अपने शरीर की दुर्गन्ध सहने मे असमर्थ हो गया, तो उसने कहा, ''मरणशील मनुष्य को ईश्वर की अधीनता स्वीकार कर घमण्ड नहीं करना चाहिए''।
13) प्रभु ने उस दुष्ट की प्रार्थना स्वीकार करना और उस पर दया करना उचित नहीं समझा।
14) उसने अपनी प्रार्थना में यह प्रतिज्ञा की कि वह उस नगर को स्वतंत्रता प्रदान करेगा, जिसकी ओर वह शीघ्रता से यात्रा कर रहा था, जिससे वह उसे धूल में मिलाये और कब्रिस्तान बनाये।
15) जिन यहूदियों को उसने दफ़नाने लायक भी नहीं समझा था और जिन्हें उनके बाल-बच्चों के साथ जंगली जानवारों का आहार बनाना चाहता था, उन्हें उसने एथेंस की नागरिकता प्रदान करने की प्रतिज्ञा की।
16) जिस पवित्र मंदिर को उसने पहले लूटा था, उसे उसने सर्वोत्तम उपहारों से सजाने, उसके बहुसंख्यक पवित्र पात्र लौटाने और फिर से बलिदानों का खर्च चुकाने का वचन दिया।
17) इसके सिवा उसने स्वयं यहूदी बनने और हर जगह जा कर ईश्वर का सामर्थ्य घोषित करने की प्रतिज्ञा की।
18) जब दर्द किसी तरह कम नहीं हुआ, क्योंकि ईश्वर उसे उचित दण्ड दे रहा था, तो उसकी हालत से निराश हो कर यहूदियों के नाम बड़े विनम्र शब्दों मे यह पत्र लिखा :
19) ''राजा और सेनापति अंतियोख की ओर से आदरणीय यहूदी नागरिकों को अनेकानेक नमस्कार! आप स्वस्थ और सकुशल रहे।
20) यदि आप और आपके बच्चे कुशल-क्षेम से हैं और आपके सभी कार्य आपकी ईच्छा के अनुकूल सफल हैं, तो मैं इसके लिए ईश्वर को हार्दिक धन्यवाद देता हूँ: क्योंकि मुझे ईश्वर का भरोसा है।
21) मैं पलंग पर बीमार पड़ा हुुआ आप लोगों द्वारा दिये हुए सम्मान और सद्भाव का स्मरण प्रेम से करता हूँ। जब मैं फ़ारस से लौटते समय एक कष्टदायक बीमारी का शिकार बना, तो मुझे सारे देश की सुरक्षा का प्रबंध करना पड़ा।
22) मैं अपनी हालत से निराश नहीं हूँ, बल्कि मुझे पक्का विश्वास है कि मैं इस बीमारी से अच्छा हो जाऊँगा।
23) किंतु मेरे पिता का उदाहरण मेरे सामने है। जब वह उत्तरी प्रांतों में अपनी सेना को ले कर युद्ध करने जाते थे, तो वह सदा अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करते थे।
24) इस तरह अप्रत्याशित घटना या अशुभ समाचार के कारण किसी को चिंता नहीं रहती थी; क्योंकि सब जानते थे कि शासन किसके हाथ में होगा।
25) मैं यह भी जानता हूँ हमारे निकटवर्ती शासक और हमारे राज्य के पडोसी अवसर की ताक में है, इसलिए मैंने अपने पुत्र अंतियोख को राजा नियुक्त कर दिया है। जब पहले कभी-कभी मैं उत्तरी प्रदेशों की यात्रा करता था, तो मैंने उसे आपके अधिकांश लोगों के सामने प्रस्तुत किया था और उसकी सिफारिश की थी। मैंने उसके नाम एक पत्र भी लिखा है, जिसे मैं भेज रहा हूँ।
26) मैं आप लोगों से निवेदन करता हूँ और यह चाहता हूँ कि आप उन उपकारों को स्मरण रखें, जो जनता और प्रत्येक व्यक्ति के साथ किये गये हैं और आप मेरे और मेरे पुत्र के प्रति सद्भाव बनाये रखें।
27) मुझे विश्वास है कि वह मेरी इच्छा के अनुसार आप लोगों के साथ विनम्र और सहृदय व्यवहार करेगा।''
28) जिस तरह उस हत्यारे और ईश-निदंक ने दूसरों को उत्पीडन किया था, उसी तरह वह असहय पीडा झेलने के बाद परदेश के पर्वतों के बीच चल बसा।
29) फिलिप जिसके साथ उसका पालन-पोषण हुआ था, उसका शव साथ ले गया। किंतु फिलिप ने उसके पुत्र अंतियोख से भयभीत हो कर पतोलेमेउस फिलोमेतोर के यहाँ मिस्र में शरण ली।

अध्याय 10

1) मक्काबी और उसके आदमियों ने प्रभु की सहायता से मंदिर और नगर पर फिर अधिकार कर लिया।
2) गैर-यहूदियों ने चौराहे पर जो अन्य वेदियाँ बनवायी थी, उन्होंने उन्हें गिरा दिया और अन्य पूजास्थानों का भी विनाश कर दिया।
3) उन्होंने मंदिर के शुद्धीकरण के लिए एक नयी वेदी बनायी, चकमक पत्थरों से आग निकाली और उस से बलि जलायी, जिसे वे दो साल के अंतराल के बाद चढ़ा सके। उन्होंने धूप चढ़ायी, दीप जलाये और भेंट रोटियाँ रखी।
4) इसके बाद उन्होंने मुँह के बल गिर कर प्रभु से प्रार्थना की कि वह भविष्य में उन पद फिर कभी ऐसी विपत्तियाँ न पड़ने दे। यदि वे फिर कभी पाप करें, तो वह उन्हें अपनी दया के अनुरूप दण्ड दिलाये, किन्तु विधर्मी और बर्बर गैर-यहूदियों के हाथ फिर कभी नहीं पड़ने दे।
5) जिस दिन मंदिर ग़ैर-यहूदियों द्वारा अपवित्र किया गया, ठीक उसी दिन मंदिर का शुद्धीकरण भी किया गया, अर्थात् किसलेव मास के पच्चीसवें दिन।
6) शिविर-पर्व की विधि के अनुसार वे आठ दिन उल्लास के साथ उत्सव मनाते रहे और यह याद करते रहे कि कैसे थोड़े ही समय पहले वे पहाड़ियों और गुफाओं में शिविर-पर्व मना रहे थे, मानो वे जंगली जानवर हों।
7) वे अपने हाथ में सजे हुए डण्डे, हरी टहनियाँ और खजूर की डालियाँ लिये रहते थे और उसके आदर में भजन गाते थे, जिसने अपने मंदिर का शुद्धीकरण सम्पन्न कराया था।
8) उन्होंने सर्वसम्मति से एक राजाज्ञा निकाली कि सारी यहूदी जाति प्रति वर्ष मंदिर के शुद्धीकरण का पर्व मनायेगी।
9) ये हैं अंतियोख एपीफानेस की मृत्यु के समय की घटनाएँ।
10) अब हम उन घटनाओं का वर्णन करेंगे, जो उस दुष्ट के पुत्र अंतियोख यूपातोर के राज्यकाल में हुई। हम संक्षेप में उस समय के युद्धों की विपत्तियों का वर्णन करेंगे।
11) राजपद ग्रहण करते ही अंतियोख यूपातोर ने लीसियस को प्रमुख शासक के रूप में नियुक्त किया, जो केले-सीरिया और फेनीके का राज्यपाल था।
12) पतोलेमेउस, जो माक्रोन कहलाता है, यहूदियों के साथ किये हुए अधर्म के कारण उनके प्रति न्याय-संगत और शांतिपूर्ण व्यवहार करना चाहता था।
13) इसलिए दरबारियों ने यूतापोत से उसकी शिकायत की। इसके सिवा उसके सुनने में बार-बार आता था कि लोग उसे विश्वासघाती कहते हैं, क्योंकि उसने साइप्रस छोड़ दिया, जिसे फिलोमेतोर ने उसे सौपा था और वह अंतियोख एपीफानेस के पक्ष में चला गया था। जब उसने देखा कि वह सम्मान के साथ अपना कार्य-भार नहीं संभाला सका, तो उसने विष पी कर आत्महत्या कर ली।
14) जब गोरगियस उन प्रांतों का शासक बना, तो उसने किराये के सैनिक इकट्ठे किये और वह सर्वत्र यहूदियों के विरुद्ध लड़ने का अवसर ढूँढता रहा।
15) उसी समय इदूमैयावासी भी, जिनके हाथ कई उपयुक्त स्थानों पर गढ थे, यहूदियों को तंग करते थे। ये येरुसालेम से निर्वासित लोगों को शरण देते और युद्ध जारी रखने का प्रयत्न करते थे।
16) मक्काबी के आदमियों ने सामूहिक प्रार्थना में ईश्वर से निवेदन किया कि वह उनका सहायक बने और इसके बाद उन्होंने इदूमैया के गढ़ों पर आक्रमण कर दिया।
17) उन्होंने उन पर जोरदार चढ़ाई की और उन गढों को अधिकार में कर किया। जो लोग दीवारों पर से उन से लड़ते थे, उन्होंने उन्हें भगा दिया और जिन लोगों को पकड़ा, उन्हें तलवार के घाट उतारा। इस प्रकार उन्होंने कम-से-कम बीस हजार आदमियों का वध किया।
18) लगभग नौ हजार लोगों ने दो ऐसे बडे बुर्जों में शरण ली, जहाँ वह सब कुछ था, जिसके सहारे वे घेरे का सामना कर सकते थे।
19) मक्काबी ने वहाँ घेरा डालने सिमोन, युसूफ और जखेयस को बहुत-से आदमियों के साथ वहाँ छोड़ दिया। वह खुद ऐसे स्थान पर चला गया, जहाँ उसकी अधिक आवश्यकता थी।
20) लेकिन सिमोन के आदमियों ने, जो पैसे के लालची थे, उन लोगों से घूस ली, जो बुजोर्ं में पडे थे। उन्होंने सत्तर हजार सिक्के ले कर कुछ लोगों को बाहर जाने दिया।
21) जैसे ही मक्काबी को इस बात का पता चला, उसने जनता के नेताओं को बुलाया और उन पर यह अभियोग लगाया कि उन्होंने पैसे के लोभ में अपने भाइयों को बेच दिया और उनके शत्रुओं को हाथ से निकल जाने दिया।
22) उसने उन विश्वासघातियों को प्राणदण्ड दिया और शीघ्र ही उन बुजोर्ं को अपने अधिकार में कर लिया।
23) उसे लडाई में अपूर्व सफलता मिली और उसने उन बुजोर्ं में बीस हजार से अधिक आदमियों का वध किया।
24) तिमोथेव ने, जो पहले यहूदियों से पराजित हो गया था, विदेशी सैनिकों की एक बड़ी सेना और एशिया से बहुत-से घोड़े एकत्रित किये। वह शस्त्रों के बल पर यहूदिया को अपने अधिकार में करना चाहता था।
25) वह पास आ ही रहा था कि मक्काबी के आदमियों ने ईश्वर से सहायता की प्रार्थना की। उन्होंने सिर पर राख डाली, टाट के वस्त्र ओढे
26) और वेदी के सामने मुँह के बल गिर कर ईश्वर से प्रार्थना की कि वह उनके अनुकूल हो और संहिता के कथन के अनुसार उनके शत्रुओं का शत्रु और उनके विरोधियों का विरोधी प्र्रमाणित हों।
27) उन्होंने प्रार्थना समाप्त कर हथियार उठाये और नगर से काफी दूर निकल गये। वे शत्रु के पास आ कर रूक गये।
28) पौ फटने पर दोनों सेनाएँ एक दूसरे से लड़ने लगीं। कुशल-क्षेम और विजय के लिए एक दल को अपनी वीरता के सिवा ईश्वर का भरोसा था, दूसरे दल को लड़ने के अपने उत्साह का!
29) जब लड़ाई का रूप विकट हो गया, जो शत्रुओं ने देखा कि भड़कीले वस्त्र पहने ऐसे पाँच घुड़सवार आकाश से उतरे, जिनके घोड़ों की लगामें सोने की थीं। वे घुड़सवार यहूदी सेना के आगे-आगे चलने लगे।
30) वे मक्काबी को अपने बीच में ले चले और अपने शस्त्रों से उसकी रक्षा करते रहे, जिससे वह घायल न हो। वे शत्रु पर तीर चलाते और वज्रपात करते रहे, जिससे उनके सैनिकों की आँखों चौंधिया गयीं और वे आतंकित हो कर पीछे हट गये।
31) उनके बीस हजार पाँच सौ पैदल सैनिक और छः सौ घुड़सवार मारे गये।
32) तिमोथेव ने गेजेर नामक एक सुदृढ गढ़ में शरण ली, जिसका नायक खरैअस था।
33) मक्काबी के आदमी चार दिन तक बडे उत्साह से उस गढ को घेरे रहे।
34) जो लोग भीतर थे, उन्हें उस स्थान की किलाबंदी का भरोसा था और वे घोर ईशनिंदा और अशोभनीय शब्दों का प्रयोग करते रहे।
35) जब पाँचवा दिन आया, तो मक्काबी के दल के बीस नौजवान ईशनिंदा के कारण उत्तेजित हो कर अदम्य साहस और जंगली जानवरों-जैसे क्रोध के आवेश में दीवार पर टूट पडे और जो भी मिले, उन्हें मार गिराया।
36) एक दूसरे दल ने उसी प्रकार पीछे की ओर से आक्रमण किया, बुजोर्ं में आग लगायी और शत्रुओं को जीवित जला दिया। एक तीसरे दल ने फाटक तोड़ दिये, जिससे शेष सेना घुस कर नगर को अपने अधिकार में कर सकी।
37) उन्होंने तिमोथेव को मार डाला, जो उस समय एक अंधे कुएँ में छिप गया था और उसके भाई खैरअस तथा अपल्लोफ़ानेस को भी।
38) इसके बाद उन्होंने भजन गाते और प्रार्थना करते हुए प्रभु को धन्यवाद दिया, जिसने इस्राएल के साथ इतना बड़ा उपकार किया और उन्हें विजय दिलायी थी।

अध्याय 11

1) लीसियस को इन घटनाओं से बड़ा क्षोम हुआ। वह राजा का अभिभावक और संबंधी था और उसे राज्य का प्रबंध सौंपा गया था।
2) कुछ दिन बाद वह अस्सी हजार पैदल सैनिक और अपना सारा घुड़सवार दल ले कर यहूदियों से लड़ने चल पड़ा। वह येरुसालेम में यूनानियों को बसाना चाहता था।
3) उसका विचार था कि दूसरी जातियों के मंदिरों की तरह उस मंदिर पर भी कर लगेगा और वह प्रति वर्ष प्रधानयाजक का पद बेच देगा।
4) उसने ईश्वर के सामर्थ्य का ध्यान नहीं रखा, उसे केवल अपने लाखों पैदल सैनिकों, हजारों घुडसवारों और अपने अस्सी हाथियों का भरोसा था।
5) वह यहूदिया में प्रवेश कर बेत-सूर के पास पहुँचा। वह एक किलाबंद स्थान है, जो येरुसालेम से लगभग डेढ़ सौ फर्लांग दूर है। उसने उसका घेराव किया।
6) जैसे ही मक्काबी के आदमियों ने सुना कि लीसियस ने किलाबंद नगर पर घेरा डाला है, तो वे सारी जनता के साथ रोते और विलाप करते हुए प्रभु से प्रार्थना करने लगे कि वह इस्राएल की रक्षा के लिए उन्हें एक सहायक दूत भेजे।
7) मक्काबी ने स्वयं सब से पहले शस्त्रों से सुसज्जित हो कर दूसरों को उत्साहित किया कि वे जोखिम का सामना करते हुए अपने भाइयों की सहायता करें। वे एक साथ पूरे उत्साह से निकल पड़े।
8) अभी वे येरुसालेम के पास ही थे कि एक घुड़सवार दिखाई पड़ा, जो उनके आगे-आगे चल रहा था।
9) उन्होंने दयालु ईश्वर को एक स्वर में धन्यवाद किया और इसके बाद उन में इतना साहस भर आया कि वे न केवल मनुष्यों, बल्कि उग्र जानवरों का सामना करने और लोहे की दीवारों पर भी आक्रमण करने की तैयार हो गये।
10) वे पंक्तिबद्ध हो कर आगे बढ़ते गये। उनके साथ स्वर्ग का वह सहायक था, जिसे दयालु प्रभु ने उन्हें भेजा था।
11) वे सिंहों की तरह शत्रुओं पर टूट पडे और ग्यारह हजार पैदल सौनिकों तथा सोलह सौ घुडसवारों को मार गिराया। बचे हुए लोगों को उन्होंने खदेड़ दिया।
12) उन में जो भागने में सफल हुए, वे अधिकांश घायल थे और उन्हें अपने हथियार खोने पड़े। लीसियस को भी लज्जित हो कर भागना पडा।
13) लीसियस नासमझ व्यक्ति था जब उसने अपनी पराजय पर विचार किया, तो वह समझ गया कि इब्रानी लोग केवल इसलिए अजय हैं कि सर्वशक्तिमान् ईश्वर उनके लिए युद्ध करता है।
14) इसलिए उसने उचित शतोर्ं पर यहूदियों के साथ संधि करने दूत भेजे। उसने उन्हें यह आश्वासन दिया कि वह राजा को उनके पक्ष में कर लेगा।
15) मक्काबी लीसियस के ये सभी प्रस्ताव स्वीकार कर गया; क्योंकि उसने देखा कि लोगों का हित इसी में है। राजा ने भी वे सभी शतेर्ं स्वीकार कर ली, जिन्हें मक्काबी ने यहूदियों की ओर से लिख कर लीसियस को दिया था।
16) यहूदियों के नाम लीसियस का पत्र इस प्रकार था : ''लीसियस का यहूदियों को नमस्कार!
17) आपके दूत योहन और अबसालोम ने मुझे आपका पत्र दिया और निवेदन किया कि मैं उस में लिखित प्रस्तावों का अनुमोदन करूँ।
18) राजा के सामने जो कुछ प्रस्तुत करना था, उसे मैंने प्रस्तुत किया और उन्होंने जो उचित था, उसे स्वीकार किया।
19) यदि भविष्य में आप लोग राज्य के प्रति सद्भाव बनाये रखेंगे, तो मैं भी आपके कल्याण के लिए प्रयत्न करता रहूँगा।
20) मैंने अपने और आप लोगों के दूतों को आज्ञा दी है कि वे एक-एक विषय पर आप से बातचीत करें।
21) आप लोगों का कल्याण हो! एक सौ अड़तालीसवें वर्ष के ज्यूस करिंथस मास के चौबीसवें दिन।''
22) राजा का पत्र इस प्रकार था :
23) ''भाई लीसियस को राजा अंतियोख का नमस्कार! हमारे पिता देवलोक सिधार गये। हमारी इच्छा है कि हमारे राज्य के लोग विश्वस्त हो कर अपने-अपने कामों में लगे रहें।
24) हम सुनते हैं कि यहूदी हमारे पिता की इच्छा के अनुसार रहना चाहते हैं और इसलिए वे निवेदन करते हैं कि उन्हें अपने विधि-निषेधों के पालन की अनुमति दी जाये।
25) हम चाहते हैं कि उस जाति को तंग नहीं किया जाये इसलिए हमने यह निर्णय किया कि उन्हें मंदिर लौटा दिया जाये और उन्हें अपने पूर्वजों के परंपरागत रीति-रिवाजों के अनुसार जीवन बिताने की अनुमति दी जाये।
26) अच्छा हो, यदि आप दूत भेज कर उन से संधि कर लें, जिससे वे हमारे विचार जान कर निश्चिन्त हो जायें और अपने कामों में शांतिपूर्वक लगे रहें।''
27) लोगों के नाम राजा का पत्र इस प्रकार था : ''यहूदियों की परिषद् तथा शेष यहूदियों को राजा अंतियोख का नमस्कार!
28) हम आपका कल्याण चाहते हैं। हम सकुशल हैं।
29) मनेलास ने हमें बतलाया है कि आप लोग अपने यहाँ लौट कर अपने काम-काज में लग जाना चाहते हैं।
30) इसलिए जो यहूदी जंथिकस मास की तीसवीं तारीख तक ऐसा करेंगे, उन्हें आश्वासन दिया जाता है कि
31) वे पहले की तरह भोजन-संबंधी अपने नियमों और अपने विधि-निषेधों का पालन कर सकते हैं। उन में किसी को भी अनजान में किये हुए अपराधों के लिए तंग नहीं किया जायेगा।
32) मैंने मनेलास को भेजा, जिससे वह आप लोगों को आश्वासन दे।
33) आप लोगों का कल्याण हो! एक सौ अड़तालीसवें वर्ष के जंथिकस मास के पन्द्रहवें दिन।''
34) रोमियों ने भी उन्हें एक पत्र भेजा। वह इस प्रकार था : ''यहूदियों को क्विन्तुस मम्मियुस और तितुस मानियुस नामक राजदूतों का नमस्कार!
35) राजा के संबंधी लीसियस ने आप लोगों को जिन बातों की अनुमति दी है, उस से हम भी सहमत हैं।
36) जिन बातों के संबंध में उन्होंने राजा की राय लेना उचित समझा, आप उन पर विचार कर लेने के बाद किसी को शीघ्र हमारे पास भेज दें, जिससे हम वे बातें आपकी ओर से राजा के सामने प्रस्तुत कर सकें। कारण यह है कि हम अंताकिया जाने वाले हैं।
37) इसलिए आप शीघ्र ही कुछ लोगों को हमारे पास भेजें, जिससे हमें आपके विचारों का पता चले।
38) आप लोग स्वस्थ रहें! एक सौ अडतालीसवें वर्ष के जंथिकस मास के पन्द्रहवें दिन।''

अध्याय 12

1) समझौते की इन बातों के बाद लीसियस राजा के पास लौट गया और यहूदी लोग अपनी खेती में लग गये।
2) किन्तु उस प्रान्त के कई सेनापति -तिमोथेव, गन्नैयस का पुत्र अपल्लोनियस, हीरोनिमस, देमोफ़ोन और साइप्रस का सेनापति निकानोर-यहूदियों को शान्ति से रहने नहीं देते थे।
3) याफ़ावासियों ने यह दुष्टता की। उन्होंने अपने साथ रहने वाले यहूदियों से कहा कि वे अपनी पत्नियों और बाल-बच्चों के साथ नावों पर सवार हो जायें, जो उन्होंने तैयार रखी थीं। उन्होंने उन्हें आश्वासन दिया कि उनके प्रति कोई बैर नहीं था।
4) यह नगरपालिका का प्रबन्ध था। इस पर यहूदियों ने उनका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया; क्योंकि वे उनके साथ शान्ति-पूर्वक रहना चाहते थे और उन्हें लगा कि इस में धोखे की कोई बात नहीं है। जब वे खुले समुद्र में आ गये, तो उन नावों को डुबा दिया गया, जिन पर लगभग दो सौ यहूदी सवार थे।
5) जैसे ही यूदाह को अपने जाति-भाइयों के साथ की हुई क्रूरता का पता चला, उसने अपने आदमियों को बुला भेजा।
6) उसने निष्पक्ष न्यायकर्ता ईश्वर की दुहाई दी और अपने भाइयों के हत्यारों के विरुद्ध चल पड़ा। उसने रातोंरात बन्दरगाह में आग लगा दी, नावें जला दीं और जिन लोगों ने वहाँ शरण ली थी, उन्हें मार दिया।
7) नगर के फाटक बन्द कर दिये गये थे, इसलिए वह इस विचार से चला गया कि वह बाद में लौट कर सारा याफा नष्ट कर देगा।
8) जब उसने सुना कि यमनिया के लोग भी अपने साथ रहने वाले यहूदियों के साथ वैसा ही करना चाहते थे,
9) तो उसने यमनिया के निवासियों पर रात में आक्रमण किया और उस बन्दरगाह तथा वहाँ की नावों को जला दिया। उस आग की ज्वाला येरुसालेम तक दिखाई देती थी, जो वहाँ से पचास किलोमीटर दूर है।
10) यहूदियों ने वहाँ से तिमोथेव के विरुद्ध प्रस्थान किया। वे दो किलोमीटर भी पूरे नहीं कर सके कि उन पर अरब टूट पड़े जिनकी संख्या कम-से-कम पाँच हजार पैदल सैनिक और पाँच सौ घुड़सवार थे।
11) घमासान युद्ध हुआ, किन्तु अन्त में यूदाह के आदमी ईश्वर की कृपा से विजयी हुए। पराजित खानाबदोश लोग यूदाह से दया की याचना करने लगे। उन्होंने उसे पशु देने का वचन दिया और यह वादा किया कि वे हर प्रकार से उसकी सहायता करेंगे।
12) यूदाह जानता था कि वे सचमुच बहुत सी बातों में उसकी सहायता कर सकते हैं, इसलिए उसने उनकी शान्ति की बात स्वीकार कर ली। वे उस से हाथ मिला कर अपने तम्बुओं में लौट गये।
13) इसके बाद यूदाह ने एक ऐसे नगर पर आक्रमण किया जो, बाँध और चार दीवारी से घिरा था। उस में कई जातियों के लोग रहते थे। उसका नाम कस्पिन था।
14) उस नगर के निवासियों को चार दीवारी की सुदृढ़ता पर और नगर में खाद्य-सामग्री के भण्डारों का भरोसा था, इसलिए वे यूदाह के आदमियों पर ताना मारने, उनका अपमान करने, ईशनिन्दा और अशोभनीय शब्दों का प्रयोग करने लगे।
15) इस पर यूदाह के आदमियों ने संसार के प्रभु की दुहाई दी, जिसने योशुआ के समय भित्तिपातकों और घेरे के यन्त्रों का प्रयोग किये बिना येरीखो की चारदीवारी गिर दी थी। वे जंगली पशुओं की तरह दीवार पर टूट पड़े।
16) उन्होंने ईश्वर की इच्छा से नगर अपने अधिकार में कर लिया और उस में इतने लोगों का वध किया कि नगर के पास का तालाब, जो आधा किलोमीटर चौड़ा था, रक्त से भरा हुआ दिखाई देता था।
17) वे वहाँ से एक सौ चालीस किलोमीटर आगे बढ़ कर यहूदियों के यहाँ खारक्स पहुँचे, जो तूबी कहलाते हैं।
18) उन्हें वहाँ तिमोथेव नहीं मिला, क्योंकि वह किसी से कुछ कहे बिना वहाँ से चला गया था; किन्तु उसने वहाँ के किसी स्थान पर एक बड़ी रक्षक-सेना रख दी थी।
19) दोसिथेव और सोसीपतेर ने, जो मक्काबी के सेनापति थे, उस स्थान पर आक्रमण किया और तिमोथेव के उस गढ़ में रखे हुए लोगों को समाप्त कर दिया। उनकी संख्या दस हजार से अधिक थी।
20) अब मक्काबी ने अपनी सेना को दलों में विभाजित किया, उनके अध्यक्ष नियुक्त किये और तिमोथेव की ओर प्रस्थान किया, जिसके पास एक लाख बीस हजार पैदल सैनिक और ढ़ाई हजार घुड़सवार थे।
21) जैसे ही यूदाह पास आया, तिमोथेव ने स्त्रियों और बच्चों को अपने सामान के साथ करनियन नामक स्थान भेज दिया। वहाँ एक अजेय गढ़ था, क्योंकि वहाँ तक पहुँचने की घाटियाँ सँकरी थीं।
22) जैसे ही यूदाह का प्रथम दल पहुँचा, शत्रुओं पर आतंक छा गया, क्योंकि उन्हें सर्वदृष्टा ईश्वर के दर्शन हुए। उन में भागदौड़ मच गयी। वे इधर-उधर इस तरह भागने लगे कि वे अपने ही आदमियों के हाथों घायल हो जाते और अपनी ही तलवारों की धार के शिकार बन जाते।
23) यूदाह ने उन्हें बुरी तरह खदेड़ा और उन दुष्टों को- लगभग तीस हजार लोगों को-मार गिराया।
24) तिमोथेव स्वयं ही दोसिथेव और सोसीपतेर के आदमियों के हाथ पड़ गया। उसने कपटपूर्ण बातें करते हुए जीवनदान माँगा। उसने यह कहा कि उन में कितनों के माता-पिता और भाई बन्धु उसके वश में हैं; अगर वे उसे मुक्त नहीं करेंगे, तो उनके सम्बन्धियों के साथ बहुत बुरा व्यवहार होगा।
25) जब तिमोथेव ने उन्हें विश्वास दिलाया कि वह उनके सम्बन्धियों को सकुशल जाने देगा, तो उन्होंने उसे मुक्त कर दिया, जिससे उनके भाई-बन्धुओं की रक्षा हो सके।
26) वहाँ से यूदाह करनियन और अतरगातिस के मन्दिर की ओर बढ़ा। उसने वहाँ पहुँच कर पच्चीस हजार आदमियों का वध किया।
27) इन शत्रुओं की पराजय और विनाश के बाद यूदाह ने अपनी सेना के साथ किलाबन्द नगर एफ्रोन की ओर प्रस्थान किया, जहाँ लीसियस तथा कई जातियों के बहुत-से लोग निवास करते थे। तगड़े युवकों की सेना चारदीवारी के बाहर पंक्तिबद्ध थी और उसने वीरतापूर्वक विरोध किया। नगर के अन्दर युद्धयन्त्रों और अस्त्रक्षेपकों की भरमार थी।
28) यहूदियों ने उस सर्व शक्तिमान की दुहाई दी, जो अपने सामर्थ्य से शत्रुओं को रौंदता है। इसके बाद उन्होंने नगर को अपने अधिकार में किया और वहाँ लगभग पच्चीस हजार निवासियों का वध किया।
29) वे वहाँ से स्कूतापुलिस की ओर बढ़े, जो येरुसालेम से एक सौ चालीस किलोमीटर दूर है।
30) वहाँ के रहने वाले यहूदियों ने यह साक्ष्य दिया कि स्फूतापुलिस के निवासी उनके साथ अच्छा व्यवहार करते हैं और कि उन्होंने विपत्ति के समय उनका मैत्रीपूर्ण स्वागत किया था।
31) इसलिए यूदाह और उसके साथियों ने नागरिकों को धन्यवाद दिया और उन से अनुरोध किया कि वे भविष्य में भी यहूदियों के साथ अच्छा व्यवहार करते रहें। इसके बाद वे येरुसालेम लौट गये; क्योंकि अब सप्ताहों का पर्व निकट था।
32) उस पर्व के बाद, जो पेन्तेकोस्त कहलाता है, वे इदूमैया के शासक गोरगियस के विरुद्ध चल पड़े।
33) वह तीन हजार पैदल सैनिकों और चार सौ घुड़सवारों के साथ उनका सामना करने आया।
34) वे एक दूसरे से भिड़ गये और युद्ध में थोड़े ही यहूदी खेत रहे।
35) बकेनोर के आदमियों में दोसिथेव नामक व्यक्ति ने, जो शूरवीर घुड़वार था, गोरगियस को उसके लबादे से पकड़ कर जोरों से अपनी ओर खींचा, जिससे वह उस अभिशप्त को जीवित ही पकड़ ले। लेकिन एक थ्राकी घुड़सवार ने दोसिथेव पर प्रहार कर उसकी बाँह काट दी। इस प्रकार गोरगियस निकल कर मरीसा भागने में सफल हो गया।
36) एसिद्रिस के आदमी देर तक लड़ते-लड़ते थक गये। तब यूदाह ने प्रभु से प्रार्थना की कि वह अपने को यहूदियों का सहायक और सेनापति प्रमाणित करे।
37) उसने अपनी मातृभाषा में भजन गाया और युद्ध का नारा लगा कर गोरगियस के आदमियों को भगा दिया।
38) यूदाह अपनी सेना ले कर अदुल्ला पहुँचा। सप्ताह का अन्त निकट था; अतः उन्होंने प्रथा के अनुसार अपने को पवित्र कर, वहीं विश्राम-दिवस मनाया।
39) दूसरे दिन यूदाह और उसके साथी वध किये गये लोगों के शव एकत्र करने और उन्हें पूर्वजों की कब्रों में अपने सम्बन्धियों के साथ दफनाने लगे। इस कार्य में अब देर नहीं की जा सकती थी।
40) अब पता चला कि प्रत्येक मारे हुए व्यक्ति के कपड़ों के नीचे यमनियों की देवमूर्तियों के ताबीज थे; संहिता के अनुसार यहूदी ऐसी वस्तुएँ अपने पास नहीं रख सकते थे। अब सब के सामने यह स्पष्ट हो गया कि वे इसी पाप के कारण मारे गये हैं।
41) इस पर सबों ने निष्पक्ष न्यायकर्ता का धन्यवाद किया, जो गुप्त बातें प्रकाश में लाता है।
42) इसके बाद उन्होंने प्रार्थना की और यह निवेदन किया कि उनके किये हुए अपराध पूर्णतः क्षमा कर दिये जायें। वीर यूदाह ने लोगों से अनुरोध किया कि वे अपने को पाप से बचाये रखें; क्योंकि उन्होंने अपनी आँखें से देखा था कि मारे हुए लोगों के पाप के कारण उन पर क्या बीती थी।
43) इसके बाद यूदाह ने लगभग दो हजार रुपये का चन्दा एकत्र किया और उसे येरुसालेम भेज दिया, जिससे वहाँ पाप के प्रायश्चित के रूप में बलि चढ़ायी जाये। उसने पुनरुत्थान का ध्यान रख कर यह उत्तम तथा सराहनीय कार्य सम्पन्न किया।
44) यदि उसे मृत सैनिकों के पुनरुत्थान की आशा नहीं होती, तो मृतकों के लिए प्रार्थना करना मूर्खतापूर्ण तथा निरर्थक होता।
45) उसका उद्देश्य पवित्र तथा पुनीत था, क्योंकि वह जानता था कि प्रभु-भक्ति में मरने वालों के लिए एक अपूर्व पुरस्कार सुरक्षित है।
46) इसलिए उसने प्रायश्चित्त के बलिदान का प्रबन्ध किया, जिससे मृतक अपने पाप से मुक्त हो जायें।

अध्याय 13

1) एक सौ उनचासवें वर्ष यूदाह के आदमियों को यह खबर मिली कि अन्तियोख यूपातोर भारी सेना ले कर यहूदिया पर आक्रमण करने आ रहा है
2) और उसके साथ उसका संरक्षक तथा राजप्रशासक लीसियस भी है। उनके पास एक लाख दस हजार पैदल सैनिक थे, पाँच हजार तीन सौ घुड़सवार, बाईस हाथी तथा तीन सौ ऐसे रथ, जिनके पहियों में हँसिये लगे थे।
3) मनेलास भी उन से जा मिला। वह कपटपूर्ण बातों से अन्तियोख को प्रोत्साहित करता था। उसे अपने देश के कल्याण की चिन्ता नहीं थी, किन्तु वह आशा करता था कि ऐसा करने से उसे अपनी पहली प्रतिष्ठा प्राप्त होगी।
4) किन्तु राजाओं के राजा के विधान से अन्तियोख का कोप उस दुष्ट पर भड़क उठा। लीसियस ने उसे बताया कि केवल मनेलास सारे उपद्रव का मूल है, इसलिए राजा ने उसे बरेआ ले जाने और वहाँ के रिवाज के अनुसार उसे प्राण दण्ड देने का आदेश दिया।
5) वहाँ पचास हाथ ऊँची एक मीनार थी, जो राख से भरी थी। उसके शिखर पर घूमने वाली एक कीप थी और जो कुछ भी उस में डाला जाता, वह राख में गिरता।
6) मन्दिरों के लुटेरों और अन्य घोर कुकर्मियों को उस मीनार के ऊपर ले जा कर कीप में डाला और प्राणदण्ड दिया जाता था।
7) संहिता के उल्लंघन करने वाले मनेलास को ऐसा ही प्राणदण्ड दिया गया। उसे नहीं दफ़नाया गया।
8) यह उचित भी था, क्योंकि उसने वेदी के विरुद्ध, जिसकी राख और आग पवित्र है, बहुत-से अपराध किये। उसे राख में मरना पड़ा।
9) राजा आगबबूला था। वह उस उद्देश्य से आगे बढ़ा कि वह यहूदियों के साथ उस से भी अधिक बुरा व्यवहार करे, जैसा उसके पिता के समय हुआ था।
10) जब यूदाह को इसका पता चला, तो उसने लोगों को आदेश दिया कि वे दिन-रात प्रभु से प्रार्थना करते रहें, जिससे वह पहले की तरह उनकी सहायता करे; क्योंकि वह समय आ गया, जब वे संहिता, स्वदेश और पवित्र मन्दिर से वंचित किये जायेंगे।
11) प्रभु अपनी प्रजा को, जिस में थोड़े दिनों से नया जीवन आने लगा था, ईशनिन्दक गैर-यहूदियों के हाथ न पड़ने दे।
12) सब ने यूदाह का प्रस्ताव स्वीकार किया। वे भूमि पर मुँह के बल पड़ कर तीन दिन तक आँसू बहाते और उपवास करते हुए निरन्तर दयालु प्रभु से प्रार्थना करते रहे। इसके बाद यूदाह ने उन्हें साहस बँधाया और तैयार रहने को कहा।
13) नेताओं के साथ परामर्श करने के बाद, इस से पहले कि राजा की सेना यहूदियों में घुस आये और नगर पर अधिकार कर ले, उसने प्रस्थान करने और ईश्वर की सहायता से निर्णयात्मक युद्ध करने का निश्चय किया।
14) उसने युद्ध का परिणाम संसार के सृष्टिकर्ता के हाथ दे कर, अपने आदमियों को उत्साहित किया कि वे संहिता, मन्दिर, नगर, स्वदेश और उसकी संस्थाओं के लिए मरण तक साहसपूर्वक युद्ध करें। उसने मोदी के पास पड़ाव डाला।
15) वह अपने सैनिकों को संकेत-शब्द- 'ईश्वर की विजय' -देने के बाद चुने हुए शूरवीर युवकों के साथ रात को राजा के तम्बू पर टूट पड़ा। उन्होंने शिविर में लगभग दो हजार लोगों को मार गिराया और महावत के साथ प्रमुख हाथी का वध किया।
16) वे शिविर में इस प्रकार डर और आतंक फैलाने के बाद
17) दिन निकलते ही सकुशल लौटे। यह आक्रमण इसलिए सफल हुआ कि प्रभु यूदाह की रक्षा करता था।
18) राजा को यहूदियों के आक्रमण से यहूदियों की वीरता का पता चला। इसलिए अब उसने कपट से किलाबन्द नगर अपने अधिकार में करने का प्रयत्न किया।
19) उसने उनके किलाबन्द बेत-सूर पर आक्रमण किया, किन्तु उसे भागना पड़ा। उसने फिर उस पर आक्रमण किया, तो उसे फिर पराजित होना पड़ा।
20) यूदाह ने वहाँ आवश्यक हथियार भेजे थे।
21) लेकिन यहूदी सेना के एक व्यक्ति रदोकस ने शत्रुओं पर अपनी सेना के भेद प्रकट किये। इसलिए उसकी खोज की गयी, उसे पकड़ा और प्राणदण्ड दिया गया।
22) जब राजा ने फिर बेत-सूर के निवासियों से बातचीत और सन्धि करनी चाही, तो उन्होंने यह स्वीकार किया। राजा ने वहाँ से चल कर यूदाह के आदमियों पर आक्रमण किया, किन्तु वह पराजित हो गया।
23) उसी समय उसे पता चला कि फ़िलिप विद्रोही बन गया है, जिसे वह राजप्रशासक बना कर अन्ताकिया में छोड़ आया था। इस से वह इतना घबरा गया कि उसने यहूदियों को बुला कर उन से सन्धि करने का प्रस्ताव किया। उसने उनकी उचित माँगों को स्वीकार किया और शपथ खा कर उन्हें पूरा करने का वचन दिया। इस सन्धि के बाद उसने बलि चढ़ाची, मन्दिर का सम्मान किया और उसे उदार दान दिये।
24) उसने मक्काबी का स्वागत किया, पतोलेमाइस से गरेनियों के नगर तक के प्रान्तों पर हेगेमोनीदेश को राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया
25) और स्वयं पतोलेमाइस के लिए प्रस्थान किया। पतोलेमाइस के निवासी इस सन्धि से सन्तुष्ट नहीं थे। उन्होंने इस पर असन्तोष प्रकट किया और वे इसे रद्द करना चाहते थे।
26) तब लीसियस मंच पर आया। उसने तर्कों द्वारा सन्धि के औचित्य पर प्रकाश डाला और लोगों को शान्त किया। इसके बाद वह अन्ताकिया लौटा। यह है राजा के आगमन और प्रस्थान का वृतान्त।

अध्याय 14

1) तीन वर्ष बाद यूदाह और उसके आदमियों को यह मालूम हुआ कि सिलूकस का पुत्र देमेत्रियस एक बड़ी सेना और एक बेड़े के साथ त्रीपुलिस बन्दरगाह पहुँच गया है
2) तथा उसने अन्तियोख और उसके प्रशासक लीसियस को मरवा कर देश पर अधिकार कर लिया है।
3) अलकिमस पहले प्रधानयाजक था और उसने विद्रोह के समय स्वेच्छा से अपने को अपवित्र किया। जब उसने देखा कि वह फिर कभी पवित्र वेदी की सेवा नहीं कर पायेगा,
4) तो वह एक सौ इक्यानवें वर्ष राजा देमेत्रियम के पास पहुँचा। उसने येरुसालेम के मन्दिर की प्रथा के अनुसार उसे सोने का एक मुकुट, खजूर की डाली और जैतून की कुछ टहनियाँ भेंट कीं। उसने उस दिन और कुछ नहीं किया।
5) लेकिन एक दिन उसे तब अपने उन्माद की सफलता का अवसर मिला, जब देमेत्रियस ने उसे अपनी सभा में बुलाया और उससे पूछा कि यहूदियों के क्या मनोभाव और क्या योजनाएँ हैं।
6) उसने उत्तर दिया, ''जो यहूदी हसीदी कहलाते हैं और जिनका नेता यूदाह मक्काबी है, वे युद्ध और विद्रोह का अवसर ढूँढ़ते रहते हैं और राज्य में अशान्ति फैलाते हैं।
7) इस कारण मुझे अपने पूर्वजों की प्रतिष्ठा, अर्थात् प्रधानयाजक के पद से वंचित किया गया है और
8) मैं इसलिए आया हूँ कि मैं हृदय से राजा का हित और अपने देश-भाइयों का कल्याण चाहता हूँ; क्योंकि उन लोगों के मूर्खतापूर्ण व्यवहार के कारण, जिनका उल्लेख कर चुका हूँ, हमारी समस्त जनता को बहुत-से कष्ट झेलने पड़ते हैं।
9) राजा! आप को अब उन सब बातों की जानकारी प्राप्त हो गयी है, इसलिए मैं आप से निवेदन करता हूँ कि आप सब के प्रति अपने सद्भाव के अनुसार हमारे देश और हमारी पददलित जनता का कल्याण करें।
10) जब तक यूदाह उनका नेता है, राज्य में शान्ति रहे, यह असम्भव है।''
11) अलकिमस के इन शब्दों के तुरन्त बाद राजा के अन्य मित्र, जो यूदाह के शत्रु थे, देमेत्रियस का क्रोध भड़काने लगे।
12) इस पर उसने निकानोर को, जो गज-सेना का अध्यक्ष रह चुका था, यहूदिया का राज्यपाल नियुक्त किया।
13) और उसे यह आदेश दे कर भेजा कि वह यूदाह को समाप्त कर दे, उसके आदमियों को तितर-बितर कर दे और अलकिमस को महामन्दिर का प्रधानयाजक नियुक्त करे।
14) जो गैर-यहूदी यूदाह के कारण यहूदिया से भाग गये थे, अब वे झुण्ड के झुण्ड निकानोर के पास यह सोच कर आने लगे कि यहूदियों के दुर्भाग्य और विपत्तियों से हमें लाभ होगा।
15) जैसे ही यहूदियों को निकानोर के आगमन और गैर-यहूदियों के आक्रमण की योजना का पता चला, वे अपने सिर पर राख डाल कर उस से प्रार्थना करने लगे, जिसने सदा के लिए अपनी प्रजा को बसाया था और जो सुस्पष्ट चमत्कारों से अपनी विरासत की सहायता करता रहता है।
16) वे अपने सेनापति के आदेश पर तुरन्त वहाँ से चल कर दस्साव नामक गाँव के पास शत्रुओं पर टूट पड़े।
17) यूदाह के भाई सिमोन ने निकानोर की सेना पर आक्रमण तो किया था, किन्तु शत्रु के अप्रत्याशित विरोध के कारण उसे पराजित हो कर धीरे-धीरे हट जाना पड़ा।
18) फिर भी यह जानकर कि यूदाह के आदमियों में कितनी बहादुरी है और स्वदेश की रक्षा के लिए वे कितने उत्साह के साथ लड़ सकते हैं, निकानोर निर्णयात्मक युद्ध करने से डरता था।
19) उसने पस्सिदोनियस, थेवदतस और मत्तथ्या को भेज कर सन्धि का प्रस्ताव किया।
20) प्रस्ताव की शर्तों का अध्ययन करने के बाद सेनापति ने उन्हें सैनिकों को समझाया। उन्होंने सर्वसम्मति से प्रस्ताव स्वीकार किया
21) और एक दिन निश्चित किया, जब दोनों सेनापति एक दूसरे से अकेले में मिलेंगे। दोनों सेनाओं की ओर से एक-एक रथ आगे बढ़ा और दोनों के बीच आसन रखे गये।
22) उधर यूदाह ने उपयुक्त जगहों पर सशस्त्र सैनिक छोड़ रखे थे, जिससे शत्रु अचानक विश्वासघात न कर पाये। मामला पूरी तरह तय हो गया।
23) बाद में निकानोर येरुसालेम में पड़ा रहा लेकिन उसने संहिता के प्रतिकूल कभी कदम नहीं उठाया। उसने उन लोगों को विदा किया, जो उसके साथ आये थे।
24) वह प्रत्येक अवसर पर यूदाह को अपने साथ रखने लगा, क्योंकि वह उसे हृदय से चाहने लगा था।
25) उसने उसे विवाह करने और गृहस्थ जीवन बिताने की सलाह दी। यूदाह ने विवाह कर लिया और वह शान्ति में जीवन का आनन्द उठाने लगा।
26) जब अलकिमस ने उनकी मित्रता देखी, तो वह सन्धि की एक प्रति ले कर देमेत्रियस के पास गया। उसने उस से कहा कि निकानोर देशद्रोही बन गया है, क्योंकि उसने विद्रोही यूदाह को अपना साथी बना लिया है।
27) राजा क्रुद्ध हुआ और उस दुष्ट के मिथ्या अभियोगों से उत्तेजित हो कर निकानोर को लिखा कि वह उस सन्धि से सहमत नहीं है और उसे आज्ञा देता है, कि वह मक्काबी को बँधवा कर अविलम्ब अन्ताकिया भेजे।
28) जब निकानोर को यह आदेश मिला, तो उसे बड़ा दुःख हुआ। सन्धि रद्द करना उसे अच्छा नहीं लगा, क्योंकि यूदाह ने कोई अनुचित बात नहीं की थी।
29) राजा के आदेश की अवज्ञा करना उसके लिए सम्भव नहीं था, इसलिए वह उसे कपटपूर्ण ढंग से पूरा करने का अवसर ढूँढ़ने लगा।
30) इधर जब मक्काबी ने देखा कि निकानोर अब उस से कतराने-सा लगा है और उसकी घनिष्ठता अब रूखाई में बदल गयी है, तो वह समझने लगा कि इस रूखाई का परिणाम अच्छा नहीं होगा। उसने बड़ी संख्या में अपने आदमियों को अपने पास बुलाया और निकानोर से छिप कर रहने लगा।
31) जब निकानोर को पता चला कि वह व्यक्ति बड़ी चालाकी से उसके हाथ से निकल भागा, तो वह परम-पावन मन्दिर जा कर याजकों को, जो नियमित बलियाँ चढ़ा रहे थे, यह आदेश दिया कि वे यूदाह को उसके हवाले कर दें।
32) उन्होंने शपथ खा कर कहा कि वे नहीं जानते थे कि वह व्यक्ति कहाँ है, जिसे वह ढूँढ़ता है।
33) इस पर उसने मन्दिर की ओर अपना दाहिना हाथ उठा कर यह शपथ खायी, ''यदि तुम लोग यूदाह को बाँध कर मेरे हवाले नहीं करोगे, तो मैं यह मन्दिर ढा कर और बलि की वेदी गिरा कर इसी स्थान पर दियोनीसियस के लिए एक विशाल मन्दिर बनवाऊँगा।''
34) यह कह कर वह वहाँ से चला गया। याजकों ने स्वर्ग की ओर हाथ जोड़ कर यह कहते हुए उस से प्रार्थना की, जो सदा हमारी प्रजा का सहायक रहा,
35) ''सर्वेश्वर प्रभु! तुझे किसी बात की कमी नहीं, फिर भी तूने हमारे बीच मन्दिर के रूप में अपना निवास बनवाना चाहा है।
36) परमपावन प्रभु! समस्त पवित्रता के स्रोत! इस मन्दिर को कभी अपवित्र नहीं होने दे, जिसका अभी-अभी शुद्धीकरण हुआ है।''
37) निकानोर के यहाँ राजिस पर अभियोग लगाया गया। वह येरुसालेम की परिषद् का सदस्य, नगर का शुभचिन्तक और जनता में सम्मानित था। वह अपने उपकारों के कारण यहूदियों का पिता कहलाता था।
38) पहले विद्रोह में उसे यहूदी राष्ट्रवादी होने के कारण दण्ड दिया गया था और उसने यहूदी संस्कृति के लिए बहुत दृढ़तापूर्वक तन-मन से संघर्ष किया था।
39) निकानोर ने यहूदियों के प्रति बैर का प्रमाण देने के उद्देश्य से पाँच सौ से अधिक आदमियों को उसे गिरफ्तार करने भेजा।
40) उसका विचार था कि इस गिरफ्तारी से यहूदियों को भारी धक्का लगेगा।
41) जब सैनिक बुर्ज पर अधिकार करने के लिए प्रवेश फाटक पर प्रहार करने लगे और उन्हें द्वारों में आग लगाने का आदेश मिला, तो यह देख कर कि अब उसके बचने का कोई उपाय नहीं है, राजिस ने स्वयं अपने पेट में तलवार भोंक ली।
42) उन दुष्टों के हाथ पड़ने और अपनी कुलीनता के प्रतिकूल घोर अपमान का शिकार बनने की अपेक्षा उसने गौरव के साथ मरना उचित समझा।
43) किन्तु उसने हड़बड़ी में अपने पर घातक प्रहार नहीं किया। जब उसने देखा कि वे लोग फाटक से घुस रहे हैं, तो वह शूरवीर की तरह दीवार पर चढ़ गया और वहाँ से साहसपूर्वक नीचे खड़े लोगों के बीच कूद पड़ा।
44) वे लोग तुरन्त हट गये, जिससे वह एक खाली जगह आ गिरा।
45) यद्यपि उसके भारी घावों से खून बह रहा था, फिर भी वह अभी जीवित था। वह क्रोध में उठा और भीड़ पार कर एक ऊँची चट्टान पर खड़ा हो गया।
46) उसका रक्त बह गया था, तो उसने दोनों हाथों से अपनी अँतड़ियाँ निकाल कर लोगों के बीच फेंक दीं। उसने जीवन और जीव के प्रभु से प्रार्थना की कि वह उन्हें किसी दिन उसे लौटा दे और उसकी मृत्यु हो गयी।

अध्याय 15

1) जब निकानोर को पता चला कि यूदाह के आदमी समारिया में एकत्र हैं, तो उसने सुरक्षा के विचार से विश्राम के दिन ही उन पर आक्रमण करने का निश्चय किया।
2) दबाव के कारण जो यहूदी उसके साथ थे, उन्होंने उस से कहा, ''आप क्रूर और बर्बर रीति से उनका वध न करें। आप उस दिन का आदर करें, जिसे सर्वज्ञ ईश्वर ने प्रारम्भ से सम्मानित और पवित्र किया है।''
3) लेकिन उस अभिशप्त व्यक्ति ने पूछा, ''क्या स्वर्ग में कोई प्रभु है, जिसने विश्राम का दिन मनाने का आदेश दिया है?''
4) उन्होंने स्पष्ट शब्दों में उत्तर दिया, ''स्वयं जीवन्त प्रभु, स्वर्ग के सर्वशक्तिमान् शासक ने सातवाँ दिन पवित्र करने का आदेश दिया है''।
5) इस पर उसने कहा, ''तो मैं इस पृथ्वी का शासक हूँ और मैं यह आज्ञा देता हूँ कि तुम अस्त्र-शस्त्र धारण कर राजाज्ञा का पालन करो''। किन्तु वह दुष्ट अपनी योजना में सफल नहीं हुआ।
6) निकानोर ने उत्कट घमण्ड में निश्चय किया कि वह यूदाह और उसके आदिमयों की लूट से एक भव्य स्मारक का निर्माण करेगा।
7) किन्तु मक्काबी अटल विश्वास से प्रभु की सहायता की प्रतीक्षा करता रहा।
8) उसने अपने आदमियों को समझाया कि वे विदेशियों के इस आक्रमण से नहीं डरें, बल्कि याद रखें कि उन्हें कितनी ही बार स्वर्ग की ओर से सहायता मिल चुकी है। इसलिए वे अब भी विश्वास करें कि सर्वशक्तिमान् उन्हें विजय दिलायेगा।
9) उसने संहिता और नबियों का हवाला देते हुए हुए उन्हें उत्साहित किया। उसने उन्हें याद दिलाया कि वे कितनी लडाइयाँ लड़ चुके हैं।
10) उसने उन में लडने का उत्साह भर कर यह भी बतलाया कि विदेशी कैसे विश्वासघाती है और कैसे अपनी शपथें भंग करते रहे हैं।
11) इस प्रकार उसने ने केवल ढालों और भालों से, बल्कि अपनी प्रभावशाली बातों से प्रत्येक व्यक्ति को तैयार किया। इसके बाद उसने उन्हें एक विश्वास योग्य स्वप्न के विषय में भी बताया, जिससे सभी अत्याधिक आनन्दित हो उठे।
12) उसका वह दर्शन इस प्रकार था : उसने देखा कि ओनियस, जो कभी प्रधानयाजक रह चुका था, जो कुलीन और विनम्र व्यक्ति था तथा जिसका व्यवहार बड़ा मधुर था, जो अच्छा वक्ता था और बचपन से ही सभी सद्गुणों से संपन्न था, हाथ उठा कर समस्त यहूदी प्रजा के लिए प्रार्थना कर रहा है।
13) इसके बाद यूदाह को एक ऐसा पुरुष दिखाई पडा, जो उसी तरह प्रार्थना कर रहा था। वह वृद्ध था और उसका स्वरूप गौरव, ऐश्वर्य और प्रताप से समन्वित था।
14) तब ओनियस ने यूदाह से कहा, ''यह ईश्वर के नबी यिरमियाह हैं, जो अपने भाइयों को प्यार करते और अपने देश-भाइयों और पवित्र नगर के लिए बराबर प्रार्थना करते हैं''।
15) इसके बाद यिरमियाह ने दाहिना हाथ बढ़ा कर यूदाह को सोने की एक तलवार देते हुए कहा,
16) ''यह पवित्र तलवार ले लो, यह ईश्वर का उपहार है। इस से तुम शत्रुओं को कुचल दोंगे।''
17) यूदाह की प्रभावशाली बातों ने उन का साहस बँधाया और युवकों के हृदयों को उत्साह से भर दिया। इसलिए यहूदियों ने निश्चिय किया कि वे पड़ाव न डाल कर सीधे साहस के साथ आक्रमण करेंगे और पूरी शक्ति से लड़ कर निर्णयात्मक युद्ध करेंगे; क्योंकि नगर, स्वधर्म और मंदिर खतरे में थे।
18) उन्हें अपनी पत्नियों, बाल-बच्चों और भाई-बंधुओं की भी चिंता थी, लेकिन यह चिंता उतनी नहीं थी, जितनी पवित्र मंदिर की।
19) वे लोग भी बड़ी चिंता में थे, जो नगर में पड़े थे। वे इस बात से घबरा रहे थे कि लडाई खुले मैदान में होने जा रही थी।
20) युद्ध का परिणाम जानने को सभी उत्सुक थे। इतने में शत्रु की सेना एकत्र हो गयी और व्यहूरचना कर चुकी। हाथियों को उपयुक्त स्थानों पर रखा गया और घुड़सवारों को पार्श्वभागों में।
21) जब मक्काबी ने शक्तिशाली शत्रु को निकट आते देखा और यह देखा कि उनके पास कितने प्रकार के अस्त्र-शस्त्र हैं और उनके हाथी कितने डरावने हैं, तो वह स्वर्ग की ओर हाथ जोड़कर उस प्रभु की दुहाई देने लगा, जो चमत्कार दिखाता है। उसे पूरा विश्वास था कि विजय अस्त्र-शस्त्रों पर निर्भर नहीं होती, बल्कि उनकी होती है, जिन्हें प्रभु इसके योग्य मानता है।
22) उसने यह प्रार्थना की, ''प्रभु! तूने यूदा के राजा हिजकीया को सहायता के लिए अपना दूत भेजा, जिसने सनहेरीब के पड़ाव में लगभग एक लाख पचासी हजार आदमियों का वध किया।
23) स्वर्ग के प्रभु! अब फिर अपना एक उत्तम दूत भेज, जो हमारे आगे-आगे चल कर शत्रुओं में भय और आतंक उत्पन्न करे।
24) जो लोग ईशनिंदा करते हुए अपनी पवित्र प्रजा पर आक्रमण करने आ रहे हैं, उन्हें अपने भुजबल से मार गिरा।'' उसने इन शब्दों के साथ अपनी प्रार्थना समाप्त की।
25) निकानोर के सैनिक नरसिंघे बजाते और गीत गाते आगे बढे।
26) यूदाह के आदमी प्रार्थना करने के बाद प्रभु की दुहाई देते हुए शत्रुओं पर टूट पड़े।
27) वे हाथों से लड़ रहे थे और हृदय से ईश्वर की प्रार्थना कर रहे थे। उन्होंने ईश्वर की सहायता का अनुभव करते हुए उल्लासित हो कर पैंतीस हजार आदमियों को मार गिराया।
28) जब लडाई समाप्त हुई और वे आनन्द के साथ पीछे हटे तो उन्होंने देखा कि निकानोर कवच पहने मरा पड़ा है।
29) इस पर वे गगनभेदी नारे लगाने और अपनी मातृभाषा में सर्वशक्तिमान् प्रभु को धन्य कहने लगे।
30) तब यूदाह ने, जो अपनी सहनागरिकों के लिए सदा तन-मन से प्रथम पंक्ति में लडता रहा और बाल्यावस्था से अपने देश-भाइयों को प्यार करता आया, निकानोर का सिर और उसकी पूरी दाहिनी बाँह काट देने और उन्हें येरुसालेम ले जाने का आदेश दिया।
31) वहाँ पहुँच पर उसने अपने देश-भाइयों और याजकों को एकत्र किया और स्वयं वेदी के सामने खड़ा रहा। उसने गढ़ के लोगों को बुला भेजा।
32) और उन्हें दुष्ट निकानोर का सिर और उस ईशनिंदक का हाथ दिखाया, जिसे उसने घमण्ड के आवेश में सर्वेश्वर के मंदिर के विरुद्ध उठाया था।
33) उसने विधर्मी निकानोर की जीभ काटवा कर उसके टुकडे पक्षियों को दे देने और उन्माद के पुरस्कार के रूप में उसका हाथ मंदिर के सामने लटकाने का आदेश दिया।
34) तब सब ने स्वर्ग की ओर आँखें उठा कर प्रभु को धन्यवाद दिया, जिसने प्रकट रूप से उनकी सहायता की थी। उन्होंने कहा, ''धन्य हैं वह, जिसने अपने निवास को दूषित होने से बचाया है!''
35) यूदाह ने निकानोर का सिर गढ की दीवार पर लटकवा दिया, जिससे वह सब के लिए एक सुस्पष्ट प्रमाण हो कि प्रभु ने उनकी सहायता की थी।
36) यह निर्णय सर्वसम्मति से किया गया कि उन दिन को नहीं भुलाया जाये, बल्कि (सीरिया की भाषा में) अदार नामक महीने के तेरहवें दिन, मोरदकय-दिवस के पूर्वदिन, समारोह के साथ उसका उत्सव मनाया जाये।
37) ये हैं-निकानोर के समय की घटनाएँ। उस समय से नगर इब्रानियों के ही अधिकार में रहा। अब यहाँ मैं भी अपनी रचना समाप्त करता हूँ।
38) यदि यह सुंदर और सुगठित है, तो मैं समझूँगा कि मेरा उद्देश्य सफल हुआ। किंतु यदि यह शिथिल और बहुत साधारण है, तो मैं इतना ही कर सकता था।
39) जिस तरह केवल मदिरा या केवल पानी पीना हानिकर है, जब कि पानी-मिली मदिरा रूचिकार होती और मन प्रसन्न कर देती है, उसी तरह कोई रचना सुंदर वस्तु-विन्यास के कारण पाठकों के लिए श्रुतिमधुर हो जाती है। बस, यही मेरा वृतांत।