पवित्र बाइबिल : Pavitr Bible ( The Holy Bible )

पुराना विधान : Purana Vidhan ( Old Testament )

मक्काबियों का पहला ग्रन्थ ( 1 Maccabees )

अध्याय 1

1) फ़िलिप का पुत्र मकेदूनी सिकन्दर कित्तियों के देश चला और फारसियों और मेदियो के राजा दारा को पराजित कर उसकी जगह स्वयं वहाँ का राजा बन बैठा। इसके पहले यह यूनान का राजा था।
2) उसने बहुत-से युद्ध किये, किलों पर अधिकार कर लिया और पृथ्वी के राजाओं का वध किया।
3) वह दुनिया के छोर तक गया और उसने बहुत-सी जातियों को लूटा। पृथ्वी उसके सामने मौन रही। वह घमण्ड से फूल उठा और अहंकारी हो गया।
4) उसने एक बड़ी सेना तैयार की थी और कितनी ही जातियों के देश और उनके शासक अपने अधीन कर लिये और वे उसे कर देते थे।
5) इसके बाद वह बीमार पड़ा और वह समझ गया कि मृत्यु निकट है।
6) उसने अपने रहते ही उन कुलीन उच्चपदाधिकारियों के बीच अपना राज्य बाँट दिया, जो युवावस्था से उसके साथी थे।
7) जब सिकन्दर को राज्य करते बारह वर्ष हो गये थे, तो उसकी मृत्यु हुई।
8) इसके बाद उसके उच्च पदाधिकारी अपने शासित क्षेत्रों में राज्य करने लगे।
9) उसकी मृृत्यु के बाद उन सब ने अपने सिर पर मुकुट धारण किया और उनके बाद उनके पुत्रों ने बहुत वषोर्ं तक ऐसा ही किया। उनके कारण पृथ्वी की दुर्गति हो गयी।
10) उन में राजा अंतियोख का पुत्र अंतियोख एपीफानेस बड़ा दुष्ट था वह रोम में बंधक के रूप में रहा चुका था। वह यूनानी साम्राज्य के एक सौ सैंतीसवें वर्ष राजा बना।
11) उन दिनों इस्राएल में ऐसे लोग थे, जो संहिता ही परवाह नहीं करते थे और यह कहते हुए बहुतों को बहकाते थे, ''आओं! हम अपने चारों ओर के राष्ट्रों के साथ संधि करें, क्योंकि जब से हम उन से अलग हुए, हमें अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ा''।
12) यह बात उन्हें अच्छी लगी।
13) उन में से कई लोग तुरंत राजा से मिलने गये और राजा ने उन्हें गैर-यहूदी जीवन-चर्या के अनुसार चलने की अनुमति दी।
14) इसलिए उन्होंने गैर-यहूदियों के रिवाज के अनुसार येरुसालेम में एक व्यायामशाला बनवायी।
15) उन्होंने अपने को बेख़तना कर लिया और पवित्र विधान को त्याग दिया। वे गैर-यहूदियों से मेल-जोल रखने लगे और पाप के दास बन गये।
16) जब राजा अन्तियोख ने अपना राज्य सुदृढ़ कर लिया, तो उसकी इच्छा हुई कि वह मिस्र का भी राजा बन जाये और इस प्रकार दो राज्यों पर शासन करे।
17) वह रथों, हाथियों, घोडों और बड़े जहाजी बेड़ों की विशाल सेना ले कर मिस्र पहुँचा
18) उसने मिस्र के राजा पतोलेमेउस पर आक्रमण किया। बहुत-से लोग घायल हुए और पतोलेमेउस अंतियोख से डर कर भाग निकला।
19) उसने मिस्र के बहुत-से किले-बंद नगरों पर अधिकार कर लिया और मिस्र का बहुत-सा धन लूटा।
20) अन्तियोख ने मिस्र पर अधिकार करने के बाद वहाँ से लौट कर एक सौ तैतीसवें वर्ष इस्राएल पर आक्रमण किया। वह एक विशाल सेना ले कर येरुसालेम पर चढ़ आया।
21) उसने गर्व के मद में पवित्र स्थान में प्रवेश किया। सोने की वेदी, दीपवृक्ष और उसकी सारी सामग्रियाँ,
22) भेंट की रोटियाँ की मेज, अर्घ की सुराहियाँ और पात्र, सोने के धूपदान, परदा और मंदिर के बाहरी द्वार पर जड़ा हुआ सोना ले लिया।
23) उसने चाँदी, सोना, बहुमूल्य पात्र और छिपे हुए खजाने, जो उसे मिले यह सब अपने अधिकार में कर लिया।
24) यह सारा धन-माल ले कर वह अपने देश लौट गया। उसने बहुत -से लोगों की हत्या की और गर्व-भरे नारे लगाये।
25) तब इस्राएल में महान् शोक मनाया गया।
26) प्रशासक और नेता कराहते रहे, युवक और युवतियाँ निरुत्साह हो गये और स्त्रियों का सौन्दर्य नष्ट हो गया।
27) हर एक वर शोक मनाता था और नववधू अपने कक्ष में बैठी विलाप करती थी।
28) पृथ्वी अपने निवासियों की दशा कर काँप उठी और याकूब का सारा घराना अपमान से लज्जित हुआ।
29) दो वर्ष बाद राजा ने यूदा के नगरों में एक कर-अधिकारी भेजा। वह एक भारी दल ले कर येरुसालेम आ पहुँचा।
30) उसने धोखा देने के लिए पहले तो लोगों से मीठी-मीठी बातें की। जब लोग आश्वस्त हो गये, तो वह एकाएक नगर पर टूट पड़ा। उसने उसे पूरी तरह ध्वस्त कर दिया और बहुत-से इस्राएलियों का वध किया।
31) उसने नगर लूटा और जला दिया। उसने उसके मकान और उसकी चारदीवारी गिरा दी।
32) शत्रु स्त्रियों और बच्चों को बंदी बना कर ले गये और उन्होंने पशुओं को भी अधिकार में कर लिया।
33) तब उन्होंने दाऊदनगर के चारों ओर किलों के साथ एक बड़ी सुदृढ़ दीवार बनायी, जो उनका गढ बन गया।
34) उन्होंने वहाँ दुष्ट लोगों को बसाया- ऐसे लोगों को, जो संहिता को पालन नहीं करते थे। वे वहीं सब गये।
35) उन्होंने वहाँ शस्त्र और खाद्य-सामग्री जमा की और येरुसालेम का लूटा हुआ सारा माल वहाँ एकत्रित किया। इस प्रकार वह एक बड़ा फंदा बन गया।
36) वह पवित्र स्थानों के लिए घात-स्थल बन गया और इस्राएल में उसका एक भयानक शत्रु खड़ा हो गया।
37) उन्होंने पवित्र-स्थान के निकट निर्दोष रक्त बहाया और पवित्र क्षेत्र को अपवित्र कर दिया।
38) इस कारण येरुसालेम के निवासी भाग खड़े हुए और वह विदेशियों का नगर बन गया। वह अपने ही निवासियों के लिए अपरिचित-जैसा हो गया। उसकी संतान ने उसका त्याग कर दिया।
39) उसका पवित्र-स्थान मरुभूमि की तरह उजड़ गया, उसके पर्व विलाप में, उसके विश्राम-दिवस कलंक में और उसका सम्मान अपमान में बदल गया।
40) वह पहले जितना प्रतिष्ठित था, अब उतना ही अपमानित हुआ और उसकी महिमा शोक में बदल गयी।
41) राजा ने अपने समस्त राज्य के लिए यह लिखित आदेश निकाला कि सब लोग एक ही राष्ट्र बन जायें
42) और सब अपने विशेष विराजों का परित्याग कर दे। सब लोगों ने राजा के आदेश का पालन किया।
43) इस्राएलियों में भी बहुतों ने, देवमूर्तियों को बलि चढ़ा कर और विश्राम दिवस को अपवित्र कर, राजा का धर्म सहर्ष स्वीकार कर लिया।
44) राजा ने येरुसालेम और यूदा के अन्य नगरों में दूतों से कहला भेजा कि वे अपने-अपने यहाँ पृथ्वी की जातियों के विधि-निषेध अपनायें,
45) मंदिर में होम-बलि, यज्ञ और अर्घ न चढ़ाये, विश्राम-दिवस और पर्व न मनायें,
46) मंदिर और मंदिर के सेवकों को अपवित्र कर दे,
47) वेदियाँ, पूजास्थान और देवमूर्ति तैयार करें, सुअरों और अन्य अपवित्र पशुओं की बलि चढाये,
48) अपने बच्चों का खतना न करें और हर प्रकार के दूषण और अशुद्धता से अपने को अपवित्र कर दें।
49) इस तरह वे संहिता भूल जायें और अपनी परंपराओं को बदल दें।
50) जो राजा के इन आदेशों का पालन नहीं करेगा, उसे प्राणदण्ड मिलेगा।
51) उसने अपने राज्य भर के लिए अपनी आज्ञा प्रसारित करायी। उसमें इन बातों के लिए लोगों पर निरीक्षक नियुक्त किये और यूदा के नगरों को आदेश दिया कि हर नगर में बलिदान चढाये जायें।
52) इस तरह बहुत-से लोगों ने इन बातों का पालन किया और प्रभु की संहिता का परित्याग किया। उन्होंने देश में पापाचरण किया
53) और इस्राएलियों को गुप्त स्थानों में छिपने के लिए विवश किया।
54) एक सौ पैतालीसवें वर्ष के किसलेव महीने के पन्द्रहवें दिन राजा ने होम-बलि की वेदी पर उजाड़ का वीभत्स दृश्य (अर्थात् देव-मूर्ति को) स्थापित किया। यूदा के नगरों में चारों ओर देवमूर्तियों की वेदियाँ बनायी गयीं
55) और लोग के घरों के द्वार के सामने तथा चौंको में धूप चढाने लगे।
56) जब उन्हें सहिता की पोथियाँ मिलती थीं, तो वे उन्हें फाड़ कर आग में डाल देते थे।
57) जिसके यहाँ विधान का ग्रन्थ पाया जाता अथवा जो संहिता का पालन करता, उसे राजा के आदेशानुसार प्राणदण्ड दिया जाता था।
58) शक्ति की बागडोर उनके हाथ में थी, इसलिए उन्होंने हर महीने उन इस्राएलियों के साथ वही किया, जिन्हें वे दोषी पाते थे।
59) वे महीने के पच्चीसवें दिन होमबलि की वेदी पर बलिदान चढाते थे।
60) (६०-६१) जिन माताओं ने अपने बच्चों खतना कराया था, उन्हें राजाज्ञा के अनुसार अपनी गर्दन में लटके शिशुओं के साथ, उनके निकट संबंधियों और खतना करने वाले लोगों के साथ मार दिया जाता।
62) फिर भी बहुत-से इस्राएली दृढ़ बने रहे और उन्होंने दृढ़ संकल्प किया कि वे अशुद्ध भोजन नहीं खायेगे।
63) वे मृत्यु को स्वीकार करते थे, जिससे वे अवैध भोजन खा कर दूषित न हो जायें और पवित्र विधान भंग न करें। इस प्रकार बहुत-से इस्राएली मर गये।
64) ईश्वर का प्रकोप इस्राएल पर छाया रहता था।

अध्याय 2

1) उन्हीं दिनों योहन के पुत्र सिमओन के पौत्र मत्तथ्या का उदय हुआ, जाा योयारीब के वंश का याजक था। वह था तो येरुसालेम का, किंतु मोदीन में बस गया था।
2) उसके पाँच पुत्र थे योहन, जो गद्दी कहलाता था;
3) सिमोन, जो थास्सी कहलाता था;
4) यूदाह जो मक्काबी कहलाता था;
5) एलआजार, जो अव कहलाता था और योनातान, जो अफूस कहलाता था।
6) जब मत्तथ्या ने यूदा और येरुसालेम में होने वाली ये घृणित बातें देखी,
7) तो उसने कहा, धिक्कार है मुझे! क्या मेरा जन्म इसीलिए हुआ कि मैं अपनी जाति का नाश और पवित्र नगर का पतन देखूँ और जब नगर शत्रुओं के हाथ में आ गया और पवित्र-स्थान विदेशियों के पंजे पड़ गया, तब भी हाथ-पर-हाथ धरे बैठा रहूँ?
8) उसका मंदिर उस व्यक्ति के समान हो गया है, जिसकी प्रतिष्ठा छिन गयी है।
9) उसके महिमामय पात्र लूट लिये गये, उसके बच्चों की हत्या उसकी गलियों में की गयी है, उसके युवक और युवतियाँ तलवार के घाटे उतारे गये हैं।
10) ऐसा राष्ट्र कौन हैं, जिसने उसके राजकीय वैभव का कुछ लिया न हो और उस से कुछ लूटा न हो?
11) उसकी सारी शोभा, उस से छीन ली गयी। जो स्वतंत्र थी, अब दासी बन गयी।
12) हमारा मंदिर, हमारा सौन्दर्य और हमारी महिमा नष्ट हो गयी है। गैर-यहूदियों ने उसे अपवित्र किया।
13) तो हमें जीवन से क्या?''
14) तब मत्तथ्या और उसके पुत्रों ने अपने वस्त्र फाड़े और टाट पहन कर भारी विलाप किया।
15) राजा के पदाधिकारी, जो लोगों को स्वधर्मत्याग के लिए बाध्य करते थे, बलिदानों का प्रबंध करने मोदीन नामक नगर पहुँचे।
16) बहुत-से इस्राएली उन से मिल गये किंतु मत्तथ्या और उसके पुत्र अलग रहे।
17) राजा के पदाधिकारो ने मत्तथ्या को सम्बोधित करते हुए कहा, ''आप इस नगर के प्रतिष्ठित और शक्तिशाली नेता हैं। आप को अपने पुत्रों और भाइयों का समर्थन प्राप्त हैं।
18) आप सर्वप्रथम आगे बढ़ कर राजाज्ञा का पालन कीजिए, जैसा कि सभी राष्ट्र, यूदा के लोग और येरुसालेम के निवासी कर चुके हैं। ऐसा करने पर आपके पुत्र राजा के मित्र बनेंगे और सोना चाँदी और बहुत-से उपहारों द्वारा आपका और आपके पुत्रों का सम्मान किया जायेगा।''
19) मत्तथ्या ने पुकार कर यह उत्तर दिया, ''साम्राज्य के सभी राष्ट्र भले ही राजा की बात मान जायें, सभी आपने पुरखों का धर्म छोड़ दें और राजा के आदेशों का पालन करें,
20) किंतु मैं, मेरे पुत्र और मेरे भाई-हम अपने पुरखों के विधान के अनुसार ही चलेंगे।
21) ईश्वर हमारी रक्षा करे, जिससे हम उसकी संहिता और उसके नियमों का परित्याग न करें।
22) हम राजा की आज्ञाओं का पालन नहीं करेंगे और अपने धर्म का किसी भी प्रकार से उल्लंघन नहीं करेंगे।
23) मत्तथ्या ने इन शब्दों के तुरंत बाद एक यहूदी राजा के आदेशानुसार मोदीन की वेदी पर बलि चढ़ाने के लिए सब के देखते आगे बढा।
24) इस पर मत्तथ्या का धर्मोत्साह भड़क उठा और वह आगबबूला हो गया। उसने क्रोध के आवेग में आगे झपट कर उस यहूदी को वेदी पर मार डाला।
25) उसने बलि के लिए लोगों को बाध्य करने वाले पदाधिकारी का वध किया और वेदी का विध्वंस किया।
26) इस प्रकार मत्तथ्या ने पीनहास के सदृश संहिता के प्रति अपना उत्साह प्रदर्शित किया- पीनहास ने इसी तरह सालू के पुत्र जिम्री का वध किया था।
27) इसके बाद मत्तथ्या ने नगर भर में घूमते हुए ऊँचे स्वर से पुकार कर यह कहा, ''जो संहिता के प्रति उत्साही हैं। और विधान को बनाये रखने के पक्ष में हैं, वे मेरे पीछे चले आयें''।
28) इसके बाद वह और उसके पुत्र नगर में अपनी सारी संपत्ति छोड़ कर पहाड़ों पर भाग गये।
29) उस समय बहुत-से लोग, जिन्हें धर्म और न्याय प्रिय था, उजाड़ प्रदेश जा कर वहाँ बस गये।
30) वे अपने बच्चों, पत्नियों और पशुओं को भी साथ लेते गये; क्योंकि वे अत्याचार के बोझ से दबे जा रहे थे।
31) येरूसालेम के दाऊदनगर में रहने वाले राजकीय पदाधिकारियों और सेना को यह बात बतलायी गयी कि कुछ लोगों ने राजाज्ञा अवहेलना कर उजाड़खण्ड के गुप्त स्थानों में शरण ली है,
32) तो उन में एक बड़ा दल पीछा करने निकला और उनके पास पहुँच कर उनके सामने पडाव डाला उन्होंने विश्राम के दिन उन पर आक्रमण किया।
33) उन्होंने उन से कहा, ''बहुत हुआ। निकलों और राजा की आज्ञा मानो, तभी जीवित रह सकोगे।''
34) उन्होंने उत्तर दिया, ''हम नहीं निकलेगे। हम न तो राजा की आज्ञा मानेंगे और न विश्राम-दिवस को अपवित्र करेंगे।''
35) तब उस दल ने उन पर आक्रमण कर दिया; किंतु उन्होंने उनका सामना नहीं किया।
36) उन्होंने न उस पर पत्थर मारे और न छिपने के स्थान बंद किये;
37) क्योंकि उनका कहना था, ''हम सब निर्दोष मरना चाहते हैं। आकाश और पृथ्वी साक्षी है कि तुम हमें अन्याय से मार रहे हो।''
38) उस दल ने विश्राम के दिन उन पर आक्रमण किया और वे, उनकी पत्नियाँ, उनके बच्चे और उनके पशु-सभी मार डाले गये। प्रायः एक हजार लोग मारे गये।
39) जब मत्तथ्या और उसके मित्रों को इस बात का पता चला, तो उन्होंने उनके लिए विलाप किया।
40) वे एक दूसरे से कहने लगे, ''यदि हम भी वैसा ही करेंगे, जैसा हमारे भाइयों ने किया; यदि हम अपने प्राणों और रीति रिवाजों के लिए गैर-यहूदियों से नहीं लड़ते, तो पृथ्वीतल से हमारा सर्वनाश शीघ्र हो जायेगा''।
41) इसलिए उस दिन उन्होंने यह निश्चय किया : ''यदि कोई विश्राम के दिन हम पर चढाई करेगा, तो हम उस दिन भी उसका सामना करेंगे, जिससे हम सब की मृत्यु न हो, जैसे हमारे भाइयों की मृत्यु उजाड़खण्ड में हुई थीं।
42) उसी समय हसीदियों का समुदाय भी उन में आ मिला। वे इस्राएल के वीर पुरुष थे और सब संहिता के उत्साही अनुगामी थे।
43) जो लोग भीषण अत्याचार के कारण भाग गये, वे उनसे मिले और इस प्रकार उनका सामर्थ्य बढता रहा। उन्होंने एक सेना का संगठन किया।
44) उन्होंने क्रुद्ध होकर अपने धर्मोत्साह में पापियों और दुष्टों का वध किया। जो शेष रह गये, उन्होंने अपनी प्राण-रक्षा के लिए गैर-यहूदियों की शरण ली।
45) मत्तथ्या और उसके मित्र इधर-उधर घूम-घूम कर वेदियों को ढाहने लगे।
46) और इस्राएल की सीमा में जो भी शिशु ऐसा मिलता, जिसका खतना नहीं हुआ था, उसका बलपूर्वक खतना नहीं हुआ था, उसका बलपूर्वक खतना कराते थे।
47) उन्होंने अहंकारियों को भगा दिया और वे अपना उद्देश्य पूरा करने में सफल हुए।
48) उन्होंने राष्ट्रों और राजाओं से संहिता की रक्षा की और पापी को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया।
49) जब मत्तथ्या की मृत्यु का समय निकट आया, तो उसने पुत्रों से कहा, ''इन दिनों घमण्ड तथा अवज्ञा का बोलबाला है। यह विपत्ति तथा भीषण प्रकोप का समय है।
50) मेरे पुत्रों! तुम संहिता के पालन में उत्साह दिखाओ और अपने पूर्वजों के विधान के लिए अपने प्राण अर्पित करो।
51) याद रखों कि उन्होंने अपने समय में क्या-क्या किया था और तुम्हें बड़ी प्रतिष्ठा तथा अमर यश मिलेगा।
52) क्या इब्राहीम परीक्षा के समय दृढ़ नहीं रहे और इस कारण वह धार्मिक नहीं माने गये?
53) यूसुफ ने विपत्ति में नियम का पालन किया और वह मिस्र के शासक बन गये।
54) हमारे पूर्वज पीनहास में ईश्वर के प्रति उत्साह था और इसलिए यह विधान निर्धारित किया गया कि उन्हें और उनके वंशजों को सदा याजकपद प्राप्त होगा।
55) योशुआ ने आदेशों का पालन किया और इसलिए वह इस्राएल के न्यायाधीश हो गये।
56) कालेब ने सभा में सच्चा साक्ष्य दिया और उन्हें दायभाग मिला।
57) दाऊद निष्ठावान् थे और उन्हें एक चिरस्थायी राज्य का सिंहासन प्राप्त हुआ।
58) संहिता के लिए एलियाह का उत्साह कभी मंद नहीं हुआ और वह स्वर्ग में आरोहित कर लिये गये।
59) हनन्या, अजर्या और मीशाएल अपने विश्वास के कारण जलती हुए भट्टी से बच निकले।
60) दानिएल निर्दोष थे और सिंहों के जबड़ों से बच निकले।
61) इस प्रकार सब पीढ़ियों पर विचार कर देख लो कि जो उस पर भरोसा रखते हैं, वे विचलित नहीं होते।
62) पापी मनुष्य की धमकियों से मत डरो, क्योंकि उसका वैभव घूरे और कीड़ों के लिए है।
63) वह आज प्रतिष्ठित हैं, किंतु कल उसका कहीं पता नहीं चलेगा; क्योंकि जहाँ से वह आया था, उसी धूूल में वह मिल गया है और उसकी सब योजनाएँ व्यर्थ हो जायेंगी।
64) मेरे पुत्रो! तुम संहिता की रक्षा में साहसी और दृढ़ रहो, क्योंकि वह तुम्हें महिमा प्रदान करेगी।
65) देखो, मैं जानता हूँ कि तुम्हारा भाई सिमोन बुद्धिमान है। तुम सदा उसकी मानों, वही तुम्हारा पिता होगा।
66) यूदाह मक्काबी बचपन से ही शारीरिक शक्ति में सब से बढकर है, वही तुम्हारा सेनापति होगा और वह जनता के लिए युद्ध करेगा।
67) तुम उन सब को अपने पास एकत्र करो, जो संहिता का पालन करते हैं और अपनी जाति का बदला चुकाओं।
68) तुम गैर-यहूदियों को जैसे को तैसा दण्ड दो और संहिता को पालन करो।
69) इसके बाद उसने उन्हें आशीर्वाद दिया और वह अपने पूर्वजों से जा मिला। उसकी मृत्यु एक सौ छियालीसवें वर्ष हुई।
70) उसे उसके पूर्वजों के मोदीन-अवस्थित समाधिस्थान में दफनाया गया। सारे इस्राएल ने उसकी मृत्यु पर बड़ा शोक मनाया।

अध्याय 3

1) मत्तथ्या का पुत्र यूदाह, जो मक्काबी कहलाता था, उसका उत्तराधिकारी बना।
2) उसके सभी भाइयों और उन सब लोगों ने, जो उसके पिता के पक्ष में थे, उसका साथ दिया।
3) वे इस्राएल के लिए सहर्ष लड़ते रहे। उसने अपनी जाति के लिए यश कमाया, उसने भीमकाय योद्धा की तरह कवच पहना और अपने अस्त्र-शस्त्र धारण किये। वह लड़ता और अपनी तलवार से शिविर की रक्षा करता रहा।
4) वह युद्ध मे सिंह-जैसा था, सिंहशावक-जैसा, जो शिकार पर गरजता है।
5) उसने जगह-जगह विधर्मियों का पता लगाया और उनका पीछा किया। जो लोग उसकी जाति पर अत्याचार करते थे, उसने उन्हें जला दिया।
6) उसके आतंक से विधर्मी लोग दब गये और सब कुकर्मी घबरा गये। उसने अपने बाहुबल से उद्धार का मार्ग प्रशस्त्र किया।
7) उसने बहुत से राजाओं को तंग किया, किंतु याकूब को उस से सुख मिला। उसके नाम का यश सदा गाया जायेगा।
8) उसने यूदा के नगरों में जा-जा कर दुष्टों को वहाँ से भगाया और इस्राएल पर से ईश्वर का प्रकोप दूर किया।
9) उसका नाम संसार के सीमांतों तक फैल गया। उसने उन्हें एकत्र किया, जिनका विनाश निकट था।
10) अपल्लोनियस ने इस्राएल से लडने के लिए गैर-यहूदियों और समारिया के निवासियों की एक बड़ी सेना तैयार की।
11) जैसे ही यूदाह को इस बात कर पता चला, वह उसका सामना करने निकला। उसने उसे पराजित किया और उसका वध किया। बहुत-से लोग घायल हुए और मारे गये शेष योद्धा भाग खडे हुए।
12) उन्होंने उनका सामान लूटा। यूदाह ने अपल्लोनियस की तलवार ले ली और बाद में जीवन भर युद्ध में उसका उपयोग किया।
13) जब सीरिया के सेनापति सेरोन ने सुना कि यूदाह ने अपने अनुयायियों की सैना तैयार रखी है,
14) तो उसने कहा, ''मैं नाम कमाऊँगा, राज्य में ख्याति प्राप्त करूँगा। मैं यूदाह और उसके अनुयायियों को पराजित करूँगा, जो राजा की अवहेलना करते हैं।''
15) इसलिए उसने इस्राएलियों से बदला लेने के लिए विधर्मियों की एक बड़ी सेना तैयार की और उसके साथ प्रस्थान किया।
16) वह बेतहोरोन के चढाव तक ही आ सका था कि उस समय यूदाह अपना छोटा-सा दल ले कर उसका सामना करने पहुँचा।
17) यूदाह के योद्धाओं ने अपने विरुद्ध आयी सेना को देख कर उस से कहा, ''हमारी संख्या बहुत कम है। हम इतनी बड़ी और शक्तिशाली सेना से कैसे युद्ध करेंगे, इसके सिवा हमें खाने को आज कुुछ भी नहीं मिला है और हम थके-माँदे हैं।''
18) यूदाह ने उत्तर दिया, ''यह आसानी से हो सकता है कि एक बड़ा दल थोड़े लोगों से हार जाये; क्योंकि थोड़े लोग हो या बहुत बड़ी सेना हो, इसका ईश्वर के लिए कोई महत्व नहीं।
19) युद्ध में विजय सेना की विशालता पर नहीं, बल्कि उस शक्ति पर निर्भर है, जो स्वर्ग से मिलती है।
20) ये अहंकारी और दुष्ट लोग हमारी पत्नियों और हमारे बच्चों का नाश करने और हमें लूटने हम पर आक्रमण करने आ रहे हैं;
21) किन्तु हम अपने प्राणों और अपनी संहिता की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं।
22) ईश्वर हमारी आँखों के सामने इनका नाश करेगा। तुम इन से मत डरो।''
23) यूदाह अपनी बात समाप्त कर अचानक शत्रु पर टूट पड़ा। उसके सामने सेरोन और उसकी सेना का विनाश हो गया।
24) उन्होंने बेत-होरोन के उतार से मैदान तक उनका पीछा किया। शत्रु के आठ सौ आदमी मारे गये और बाकी लोग फिलिस्तियों के देश भाग गये।
25) तब लोग यूदाह और उसके भाइयों से डरने लगे और आसपास के गैर-यहूदियों पर उनका आतंक छा गया।
26) उसकी ख्याति राजा के कानों तक पहुँच गयी और यूदाह की युद्धकुशलता की चरचा सर्वत्र होने लगी।
27) यह सुन कर राजा अन्तियोख आग-बबूला हो उठा। उसने अपने राज्य के सब योद्धाओं को बुलाया और एक विशाल सेना एकत्र हो गयी।
28) उसने अपने कोष से सैनिकों को वर्ष भर का वेतन दिया और यह आज्ञा दी कि वे हर स्थिति के लिए तैयार हो जायें।
29) उसने देखा कि कोष में पैसा समाप्त हो रहा है और प्रदेशों से कर कम मिल रहा है; क्योंकि देश भर में इसलिए अशान्ति और आतंक फैल रहा था कि उसने प्राचीन काल से चले आ रहे विधि-निषेधों को रद्द कर दिया था।
30) उसे डर था कि अब दैनिक खर्च और उन उपहारों के लिए उसके पास धन नहीं बचेगा, जिन्हें वह अब तक इस प्रकार खुले हाथों लुटाता था, जिस प्रकार उसके पहले किसी राजा ने नहीं किया था।
31) इस से वह बहुत घबरा गया और फारस के प्रांतों से कर वसूलने और बहुत-सा धन एकत्र करने के उद्देश्य से उसने वहाँ जाने का निश्चय किया।
32) उसने लीसियस नामक कुलीन और राजवंशी मनुष्य को फरात नदी से ले कर मिस्र की सीमा तक के राज्य पर नियुक्त किया।
33) और लौटने तक उसे अपने पुत्र अंतियोख की शिक्षा-दीक्षा का भार सौंपा।
34) उसने उसके हाथ आधी सेना और अपने हाथी दिये और उसे अपनी सब योजनाएँ, विशेष कर यहूदियों और येरुसालेम के निवासियों के संबंध में बता दीं।
35) उसने कहा कि वह उनके विरुद्ध एक ऐसी सेना भेजे, जो इस्राएल की शक्ति और येरुसालेम के बचे हुए लोगों का सर्वनाश करने और वहाँ उनकी स्मृति मिटाने में समर्थ हो।
36) इसके बाद वह उनके क्षेत्र में विदेशियों को बसा दे और चिट्ठियाँ डाल कर उनका देश बाँट दे।
37) सेना का शेष आधा भाग ले कर राजा ने एक सौ सैंतालीसवें वर्ष अपनी राजधानी अंताकिया से चल कर फरात नदी पार की और वह फारस के पठार की ओर बढ़ा।
38) लीसियस ने राजा के मित्रों में इन शक्तिशाली व्यक्तियों को चुना- दोरिमेनस के पुत्र पतोलेमेउस, निकानोर और गोरगियस को
39) उसने उन्हें चालीस हजार पैदल सैनिक और सात हजार घुडसवार दिये, जिससे वे यूदा देश पर आक्रमण कर राजा के आज्ञानुसार उसका विनाश कर दें।
40) वे अपनी सारी सेना ले कर निकल पडे और उन्होंने अम्माऊस के पास के मैदान में पड़ाव डाला।
41) जब उस प्रांत के व्यापारियों ने इस विषय में सुना, तो वे बहुत-सी-सोना-चाँदी तथा हथकड़ियाँ लिये उनके शिविर पहुँचे, जिससे वे इस्राएली दासों को खरीदें। सीरिया से और फिलिस्तियों के देश से एक-एक दल उनका साथ देने आया।
42) इधर यूदाह और उसके भाइयों ने देखा कि स्थिति गंभीर है और शत्रुओं की सेना उनके देश में आ गयी है। उन्होंने यह भी सुना कि राजा ने आदेश दे रखा हैं कि उनकी जाति का सर्वनाश कर दिया जाये।
43) वे आपस में कहने लगे, ''हम अपनी जाति को विनाश से बचायें और अपने पवित्र-स्थान के लिए लडंे''।
44) लोगों की सभा बुलायी गयी, जिससे वे युद्ध की तैयारी करें और दया और अनुकम्पा के लिए ईश्वर से प्रार्थना करें।
45) येरुसालेम उजाडखण्ड की तरह निर्जन पड़ा था। उसके निवासियों में न तो कोई नगर आता और न कोई वहाँ से जाता था। मंदिर रौंद गया था। गैर-यहूदी गढ में बस गये; वह विदेशियों का अड्डा बन गया। याकूब से आनंद का विलोप हो गया और बांसुरी-सितार सब मौन हो गये।
46) वे एकत्रित हो कर मिस्पा आ पहुँचे, जो येरुसालेम के सामने हैं। मिस्पा में पहले इस्राएलियों का एक प्रार्थना-स्थान था।
47) उन्होंने उस दिन वहाँ उपवास किया, टाट ओढ़ा, सिर पर राख डाली और अपने वस्त्र फाडे।
48) जिस प्रकार गैर-यहूदी अपनी देवमूर्तियों के सामने शकुन विचारते हैं, उसी प्रकार उन्होंने संहिता का ग्रंथ खोला।
49) वे याजकीय वस्त्र ले आये। उन्होंने प्रथम फल और दशमांश चढाये। उन्होंने उन लोगों को बुलाया, जिनका नाजीर-व्रत पूरा हो चुका था।
50) जब उन्होंने स्वर्ग के ईश्वर की दुहाई देते हुए पूछा, ''हम इन लोगों के लिए क्या करे, हम इन्हें कहाँ ले जाये?
51) तेरा मंदिर रौंदा और अपवित्र किया गया है। तेरे याजक अपमानित हो कर शोक मनाते हैं।
52) गैर-यहूदी हमारा विनाश करने एकत्र हो गये हैं। तू जानता है कि वे हमारे साथ क्या करना चाहते हैं।
53) हम तेरी सहायता के बिना उनका सामना कैसे कर पायेंगे?''
54) इसके बाद उन्होंने तुरहियाँ बजायीं और ऊँचे स्वर में दुहाई दी।
55) इसके बाद यूदाह ने लोगों पर सेनापति नियुक्त किये-प्रति हजार, सौ, पचास और दस पर एक-एक अध्यक्ष।
56) जो व्यक्ति घर बना रहे थे, जिनका विवाह हाथ में हुआ था या जो दाखबारी लगा रहे थे या जो कायर थे, उनसे उसने संहिता के अनुसार यह कहा कि वे घर लौट सकते हैं।
57) सेना ने प्रस्थान कर अम्माऊस के दक्षिण में पडाव डाला।
58) यूदाह ने कहा, 'शस्त्र धारण करो, वीरों की संतान की तरह दृढ़ रहो और कल सुबह उन विदेशियों से लड़ने के लिए तैयार रहो, जो हमारा और हमारे पवित्र-स्थान का विनाश करने हम पर आक्रमण करने आये हैं।
59) अपनी जाति और पवित्र-स्थान का विनाश देखने से तो यह कहीं अच्छा है कि हम युद्ध में मारे जायें।
60) ईश्वर जो चाहता है, वह पूरा हो कर रहेगा।''

अध्याय 4

1) गोरगियस पाँच हजार पैदल सैनिक और एक हजार चुने हुए घुडसवार ले कर रात को ही निकल पड़ा,
2) जिससे वह अचानक यहूदियों के पड़ाव पर आक्रमण कर बैठे और उनका विनाश करे। गढ़ में रहने वाले व्यक्ति उनके पथप्रदर्शक बने।
3) यूदाह को इसका पता चला और वह अपने वीरों के साथ निकला, जिससे वह अम्माऊस में राजा के शिविर पर उस समय आक्रमण करे,
4) जब उसके सैनिक शिविर के बाहर बिखरे हुए हों।
5) उधर जब गोरगियस रात में यूदाह के पड़ाव में घुसा, तो वहाँ उसे कोई नहीं मिला। वह उन्हें पहाड़ों पर ढूँढने लगा। उसका विचार था कि वे उन्हें देख कर भाग गये हैं।
6) पौ फटते ही यूदाह तीन हजार सैनिकों के साथ मैदान में दिखाई पड़ा, किंतु उनके पास ऐसे कवच और तलवारें नहीं थी, जैसे वे चाहते थे।
7) उन्होंने देखा कि विदेशियों का शिविर पक्का और सुरक्षित है और युद्ध के अनुभवी घुड़सवार उसके चारों ओर पहरा दे रहे हैं।
8) यूहाद ने अपने अनुयायियों से कहा, ''इनकी बड़ी संख्या देख कर हताश मत हो। इनके आक्रमण से मत डरो।
9) याद करो कि हमारे पूर्वज लाल समुद्र के तट पर तब बच निकले थे, जब फिराउन ने अपनी सेना ले कर उनका पीछा किया था।
10) अब हम स्वर्ग के ईश्वर की दुहाई करे, जिससे वह हम पर दया करे, हमारे पूर्वजों के लिए ठहराया हुआ अपना विधान याद करे और आज हमारे सामने उस सेना को रौंद डाले।
11) इस से सब विदेशी जान जायेंगे कि कोई ऐसा है, जो इस्राएल का उद्धारक और रक्षक हैं।''
12) विदेशियों ने जब अपनी आँखे ऊपर उठायी, तो उन्होंने यहूदियों को आक्रमण करने आते देखा।
13) और वे उनका सामना करने पडाव से बार आये। यूदाह के आदमियों ने तुरहियाँ बजायीं
14) और वे शत्रु पर टूट पडे। विदेशी सेना हार गयी और मैदान की ओर भाग खड़ी हुई।
15) जो पिछली पंक्ति में थे, सैनिकों को गजेर और इदुमैया के मैदानों, अजोत और यमनिया तक भगा दिया गया। उन में लगभग तीन हजार आदमी मारे गये।
16) जब यूदाह अपने सैनिको के साथ उनका पीछा करने के बाद लौटा,
17) तो उसने लोगों से कहा, ''लूट का लालच मत करो। हमें और भी लडना हैं,
18) क्योंकि गोरगियस और उसकी सेना पहाड़ पर हमारे निकट हैं। तुम अब हमारे शत्रुओं का डट कर सामना करो और उन्हें पराजित करो। इसके बाद निश्चिंत हो कर लूट जमा करो।''
19) यूदाह बोल ही रहा था कि शत्रुओं का दल पहाड़ पर से उनका निरीक्षण करता हुआ दिखाई पड़ा।
20) उस दल के लोगों ने देखा कि अपने साथी शिविर जलाने के बाद भाग गये हैं। वे शिविर से उठता हुआ धँुआ देख समझ गये कि क्या हुआ है।
21) वे यह देख कर बडे भयभीत हुए जब उन्होंने यह भी देखा कि यूदाह की सेना मैदान में लडने के लिए तैयार खड़ी है,
22) तो वे सभी फिलिस्तियों के देश भाग गये।
23) इसके बाद यूदाह ने पडाव लूटना प्रारंभ किया। उन्हें बहुत सोना और चाँदी, असली रंग के नीले और लाल वस्त्र तथा बहुत सारा माल मिला।
24) वे लौट कर भजन गाते और स्वर्ग के ईश्वर को धन्यवाद देते रहे-''वह भला है; उसका प्रेम अनंत काल तक बना रहता है''।
25) उस दिन इस्राएल का अपूर्व ढंग से उद्धार हुआ।
26) विदेशियों में जो बच निकले थे, वे लीसियस के यहाँ गये और उन्होंने उसे यह सारा हाल बताया।
27) वह यह सुन कर घबराया और हताश हो गया; क्योंकि उसने इस्राएल के विषय में जैसा सोचा था, वैसा नहीं हो सका और राजा ने जो आज्ञा दी थी, वह पूरी नहीं हो सकी।
28) उसने दूसरे वर्ष यहूदियों से लडने के लिए आठ हजार चुने हुए पैदल सैनिक और पाँच हजार घुड़सवार एकत्रित किये।
29) उन सब ने इदुमैया पहुँच कर बेत-सूर के पास पडाव डाला। यूदाह दस हजार आदमियों को ले कर उनका सामना करने आ पहुँचा।
30) वह उस बड़ी सेना को देख कर इस प्रकार प्रार्थना करने लगा, ''धन्य हैं तू, इस्राएल के उद्धारक! तूने अपने सेवक दाऊद द्वारा भीमकाय योद्धा का प्रहार विफल कर दिया और साऊल के पुत्र योनातान और उसके शस्त्रवाहक के हाथ में फिलिस्तियों की सेना दे दी।
31) अब इन सेना को भी अपनी प्रजा इस्राएल के हाथ में दे, जिससे वे अपनी सेना और अपने घुडसवारों पर लज्जित हो जायें।
32) उन्हें भयभीत कर, उनका अहंकार चूर-चूर कर दे। उन्हें इस तरह पराजित कर कि वे हताश हो जायें।
33) उन्हें अपने भक्तों की तलवार के शिकार होने दे, जिससे वे सब, जो तुझे जानते हैं, भजन गा कर तेरी स्तुति कर सकें।''
34) इसके बाद वे एक दूसरे से जूझ पडे। लीसियस की सेना के लगभग पाँच हजार आदमी युद्ध में मारे गये।
35) जब लीसियस ने अपनी सेना की हार और यूदाह की सेना की निर्भकता देखी और यह भी देखा कि यहूदी जीवन या मरण का विचार किये बिना साहसपूर्वक लड़ रहे हैं, तो वह अन्ताकिया लौट गया। वहाँ वह यहूदिया पर फिर आक्रमण करने विदेशियों की और बड़ी सेना एकत्र करने लगा।
36) उस समय यूदाह और उसके भाइयों ने यह कहा, ''हमारे शत्रु हार गये। हम जा कर मंदिर का शुद्धीकरण और प्रतिष्ठान करें।''
37) समस्त सेना एकत्र हो गयी और सियोन के पर्वत की ओर चल पड़ी।
38) वहाँ उन्होंने देखा कि मंदिर उजाड़ हैं, वेदी अपवित्र की गयी हैं और फाटक जला दिये गये हैं। आंगनों में जंगल या पहाड की तरह झाड़-झंखाड़ उग आये हैं और उपशालाएँ भी ध्वस्त पड़ी हैं।
39) यह देख उन्होंने अपने वस्त्र फाड़े, सिर पर राख डाली और भारी विलाप किया।
40) वे मुँह के बल गिर पड़े और तुरहियों के बजाये जाने पर उन्होंने ईश्वर की दुहाई दी।
41) उसी समय यूदाह ने सैनिकों को आदेश दिया कि जब तक मंदिर का शुद्धिकरण पूरा नहीं होता, तब तक वे गढ़ में रहने वाले लोगों से लड़ते रहें।
42) उसने ऐसे याजक चुने, जो अनिन्द्य थे और संहिता के उत्साही समर्थक थे।
43) तब उन्होंने मंदिर को शुद्ध किया और दूषित पत्थरों को ले जा कर अशुद्ध स्थान पर फेंक दिया।
44) इसके बाद उन्होंने आपस में विचार-विमर्श किया कि अपवित्र की गयी होम-बलि की वेदी का क्या किया जाये।
45) उनके मन में यह अच्छा विचार आया कि वे उसे गिरा दें, जिससे वह उनके कलंक का कारण न बने; क्योंकि विदेशियों ने उसे अपवित्र कर दिया था।
46) उन्होंने वह वेदी गिरा दी और उसके पत्थर मंदिर की पहाड़ी पर तब तक के लिए किसी सुयोग्य स्थान पर रख दिये, जब तक कोई नबी आ कर उनके विषय में उन्हें नहीं बताता।
47) इसके बाद उन्होंने अनगढ़े पत्थरों से, जैसा कि संहिता में निर्धारित है, पहली वेदी के नमूने पर नयी वेदी बनायी।
48) उन्होंने मंदिर और मंदिर का भीतरी भाग बनाया और आंगनों को शुद्ध किया।
49) फिर उन्होंने नयी पवित्र सामग्रियाँ बनवा कर दीपवृक्ष, धूप की वेदी और मेज मंदिर में रख दी।
50) इसके बाद उन्होंने वेदी पर धूप चढ़ायी और दीपवृक्ष के दीये जलाये, जिससे मंदिर जगमगा उठा।
51) उन्होंने मेज पर रोटियाँ रखी और परदे लटकाये। इस प्रकार उन्होंने वह सारा काम पूरा किया, जिसे उन्होंने प्रारंभ किया।
52) एक सौ अड़तालीसवें वर्ष के नौंवे महीने-अर्थात् किसलेव-के पच्चीसवें दिन, लोग पौ फटते ही उठे
53) और उन्होंने होम की जो नयी वेदी बनायी थी, उस पर विधिवत् बलि चढ़ायी।
54) जिस समय और जिस दिन गैर-यहूदियों ने वेदी को अपवित्र कर दिया था, उसी समय और उसी दिन भजन गाते और सितार, वीणा तथा झाँझ बजाते हुए उन्होंने वेदी का प्रतिष्ठान किया।
55) सब लोगों ने दण्डवत् कर आराधना की और ईश्वर को धन्य कहा, जिसने उन्हें सफलता दी थी।
56) वे आनंद के साथ होम, शांति तथा धन्यवाद का यज्ञ चढा कर आठ दिन तक वेदी के प्रतिष्ठान का पर्व मनाते रहें।
57) उन्होंने मंदिर का अग्रभाग सोने की मालाओं तथा ढालों से विभूषित किया, फाटकों तथा याजकों की शालाओं को मरम्मत किया और उनमें दरवाजे लगाये।
58) लोगों में उल्लास था और उन पर लगा हुआ गैर-यहूदियों का कलंक मिट गया।
59) यूदाह ने अपने भाइयों तथा इस्राएल के समस्त समुदाय के साथ यह निर्णय किया कि प्रति वर्ष इसी समय, अर्थात् किसलेव के पच्चीसवें दिन से ले कर आठ दिन तक वेदी के पुनः प्रतिष्ठान का पर्व उल्लास तथा आन्नद के साथ मनाया जायेगा।
60) उसी समय उन्होंने सियोन पहाड़ी के चारों और ऊँची दीवार और सुदृढ़ बुर्ज बनाये, जिससे विदेशी उसका विनाश नहीं कर सकें, जैसा वे पहले कर चुके थे।
61) यूदाह ने उस में एक रक्षक-सेना रखी। इसके अतिरिक्त उसने बेत-सूर को भी किलेबंद कर दिया, जिससे वह इदुमैया के विरुद्ध जनता का एक सुदृढ़ गढ़ हो।

अध्याय 5

1) आसपास के गैर-यहूदी लोग यह जान कर बहुत क्रुद्ध हुए कि वेदी बनायी गयी है और पहले की ही तरह मंदिर का प्रतिष्ठान हुआ है।
2) उन्होंने निश्चय किया कि वे अपने यहाँ रहने वाले याकूबवंशियों को निर्मूल कर दें और वे इधर-उधर बिखरे हुए यहूदियों को मारने और उन पर अत्याचार करने लगे।
3) इसलिए यूदाह ने इदुमैया के अक्रबत्तेने में निवास करने वाले एसाववंशियों पर आक्रमण किया, क्योंकि वे इस्राएलियों को तंग करते थे। उसने उन्हें पराजित कर भगा दिया और लूटा।
4) उसे बयानियों की दुष्टता की भी याद आयी, जो लोगों के लिए फंदा-जैसा हो गये थे; क्योंकि वे रास्तों पर उनकी घात में बैठे रहते थे।
5) उसने उन्हें उनके बुजोर्ं में बंद कर घेर लिया और उनका सर्वनाश करने का निश्चय किया। तब उसने बुजर्ोें और उन में रहने वाले लोगों को, सब कुछ को जला दिया। इसके बाद वह अम्मोनियों के विरुद्ध आगे बढ़ा।
6) वहाँ उसे एक बड़ी सेना और बहुत लोग मिले। तिमोथेव उनका नेता था।
7) उसने उन से कई लडाइयाँ लड़ी, उन्हें हराया और उनका विनाश कर डाला।
8) उसने याजेर और उसके आसपास के गाँव भी अधिकार में कर लिये। तब वह यहूदिया लौट गया।
9) तब गिलआद में रहने वाले गैर-यहूदी लोग उस देश के निवासी यहूदियों के विरुद्ध इस नीयत से एकत्रित हुए कि वे उनका सर्वनाश कर दें। इस पर उन्होंने दथेमा गढ़ में शरण ली।
10) और यूदाह और उसके भाइयों के नाम पत्र भेजे। उन्होंने लिखा : ''गैर-यहूदी हमारा सर्वनाश करने जमा हो गये।
11) वे वह गढ घेर लेने की तैयारियाँ कर रहे हैं, जिस में हमने शरण ले रखी हैं। तिमोथेव उनका सेनाध्यक्ष है।
12) इसलिए आप लोग आ कर हमें उनके हाथ से छुडाये; क्योंकि हम में बहुत लोग मारे जा चुके हैं।
13) और तूबी प्रदेश में रहने वाले हमारे सभी भाइयों का वध किया गया है। उनकी पत्नियों और बच्चों को बंदी बना कर ले जाया गया। उनकी संपत्ति जब्त कर ली गयी और वहाँ लगभग एक हजार आदमी मारे जा चुके है।''
14) वे पत्र पढ़ ही रहे थे कि फटे कपडे पहले गलीलिया से दूसरे दूत आये। वे भी वैसा ही संदेश लायें।
15) उन्होंने कहा, ''पतोलेमाइस, तीरुस, सीदोन और गैर-यहूदियों की सारी गलीलिया के लोग हमारा विनाश करने जमा हो गये है''।
16) जब यूदाह और लोगों ने यह सुना, तो एक बड़ी सभा बुलायी गयी, जिससे वे इस बात पर विचार-विमर्श करें, कि अपने उन भाइयों का क्या करें, जो कष्ट में है और जिन पर प्रहार हो रहा है।
17) यूदाह ने अपने भाई सिमोन से कहा, ''अपने लिए आदमी ले लो और गलीलिया जा कर वहाँ अपने भाइयों की रक्षा करो। मैं भाई योनातान को ले कर गिलआद जाऊँगा।''
18) उसने रक्षा के लिए जकर्या के पुत्र यूसुफ़ और जनता के अध्यक्ष अजर्या को, सेना के शेष लोगों के साथ, वहीं यहूदिया में छोड़ दिया।
19) उसने उन्हें यह आज्ञा दी, ''आप इन लोगों के प्रधान रहिए, किंतु जब तक हम नहीं लौटे, आप गैर-यहूदियों के साथ लड़ाई नहीं छेडें''।
20) गलीलिया जाने के लिए सिमोन को तीन हजार आदमी दिये गये और गिलआद देश जाने के लिए यूदाह को आठ हजार।
21) सिमोन गलीलिया पहुँचा और उसने गैर-यहूदियों से कई युद्ध किये। वे उस से पराजित हो कर भाग गये।
22) और उसने उन्हें पतोलेमाइस के फाटक तक खदेड दिया। उन में लगभग तीन हजार आदमी मारे गये। उसने उन्हें लूट भी लिया।
23) वह गलीलिया और अरबत्ता के यहूदियों को, उनकी पत्नियों, बाल-बच्चों और उनकी सारी संपत्ति के साथ, सकुशल यहूूदिया ले चला।
24) इधर यूदाह मक्काबी और उसका भाई योनातान यर्दन पार कर उजाड़खण्ड में तीन दिन यात्रा करते रहे।
25) वहाँ उनकी भेंट नबातैयी लोगों से हुई। उन्होंने उनका शांतिपूर्वक स्वागत किया और उन्हें बतलाया कि गिलआद में उनके भाई-बंधुओं पर क्या बीती तथा उन में
26) कितने लोग बसोरा, बसोर, अलेमा, खसफ़ो, मकेद और करनईम में घिरे पड़े हैं। ये सब बड़े किला बंद नगर है।
27) उन्होंने यह भी बतलाया कि गिलआद के अन्य नगरों में भी लोग घिरे पड़ है और शत्रुओं ने यह निश्चय किया है कि वे अगले दिन उन गढों पर आक्रमण करेंगे, उन्हें अधिकार में कर लेंगे और एक ही दिन में उन सब का विनाश कर डालेंगे।
28) यूदाह तुरंत अपनी सेना के साथ मुड़ा और बसोरा के उजाडखण्ड की ओर चल पड़ा। उसने उस नगर पर अधिकार कर लिया और वहाँ के सभी पुरुषों को तलवार के घाट उतार दिया, नगर को पूरी तरह लूट लिया और उसे जला दिया।
29) वहाँ से रात को चल कर वह (दथेमा) गढ़ पहुँचा
30) सुबह हुई, तो उसके सैनिकों ने यह देखा कि वहाँ असंख्य लोग इकट्ठे पडे हैं। वे उस समय गढ पर अधिकार करने के उद्देश्य से सीढ़िया और अन्य यंत्र ठीक कर रहे थे। गढ़ पर आक्रमण होने ही जा रहा था।
31) जब यूदाह ने यह देखा कि आक्रमण प्रारंभ हो गया हैं और युद्ध का भीषण कोलाहल और तुरहियों की ध्वनि नगर में आकाश तक गूँज उठी हैं,
32) तो उसने अपने आदमियों से यह कहा, ''आज तुम्हें अपने भाइयों के लिए युद्ध करना होगा।''
33) वह अपनी सेना को तीन दलों में बाँट कर शत्रुओं पर पीछे से टूट पडा। वे तुरहियाँ बजाते और ऊँचे स्वर में प्रार्थना करते थे।
34) जैसे ही तिमोथेव के आदमियों ने देखा कि यह मक्काबी की सेना हैं, तो वे उसके सामने से भाग खड़े हुए। यूदाह ने उन्हें इतनी बुरी तरह हराया कि उस दिन उसके लगभग आठ हजार आदमी खेत आये।
35) इसके बाद उसने अलेमा की ओर मुड़ कर उस पर आक्रमण किया और उसे अधिकार में कर लिया, वहाँ के सभी पुरुषों को मार डाला, उसे लूटा और जला दिया।
36) वहाँ से चल कर उसने खसफ़ो, मकेद, बसोर और गिलआद के अन्य नगरों पर अधिकार किया।
37) इसके बाद तिमोथेव ने एक दूसरी सेना एकत्र की और नदी के उस पार रफ़ोन के सामने पडाव डाला।
38) यूदाह ने पडाव की जाँच-पडताल के लिए आदमी भेजे और उन्होंने उसे यह सूचना दी, ''हमारे आसपास के सभी गैर-यहूदी उसके साथ हैं, उसकी सेना बहुत बड़ी हैं।
39) और किराये के अरब भी उसके पडाव डाले पडे हैं। और आप पर आक्रमण करने को तैयार हैं।'' यह सुन कर यूदाह उनका सामना करने निकल पडा।
40) तिमोथेव यूदाह और उसके सैनिकों को नदी के पास आते देख अपने सेनापतियों से बोला, ''यदि वह हम से पहले नदी के पार कर हम पर आक्रमण करता हैं, तो हम उसके सामने नहीं टिक सकेंगे, वह हमें पराजित कर देगा
41) किंतु यदि वह डरता और नदी के उस पार पडाव डाले पडा रहता हैं, तो हम नदी पार करेंगे और उसे जीत लेंगे।''
42) यूदाह धारा के किनारे पहुँचा और उसने नदी के पास जनता के अधिकारियों का पहरा बैठा कर उन्हें यह आदेश दिया, 'कोई भी यहाँ डेरा नहीं डाले; सब को युद्ध करने जाना है''।
43) सेना के पहले ही वह स्वयं नदी पार कर गया और सब लोग उसके पीछे हो लिये। गैर-यहूदी उन से पूरी तरह पराजित हुए। उन्होंने अपने शस्त्र फेंक कर करनईम के मंदिर में शरण ली।
44) यहूदियों ने नगर को अपने अधिकार में कर लिया और मंदिर और उस में रहने वालों को, सब को जला दिया। इस प्रकार करनईम यहूदियों के अधीन हो गया और फिर यूदाह का सामना नहीं कर पाया।
45) इसके बाद यूदाह ने यूदा देश लौटने के लिए गिलआद में रहने वाले सभी इस्राएलियों को, उनकी पत्नियों, बच्चों और संपत्ति के साथ, एकत्र किया। वे बड़ी संख्या में जमा हो गये।
46) वे चलते-चलते एफ्रोन पहुँचे जो एक बड़ा किलाबंदी नगर था। उसके दायें-बायें कोई मार्ग नहीं था। उसे पार करना जरूरी था।
47) उस नगर के निवासियों ने उन्हें रोक दिया और फाटक बंद कर पत्थर लगा दिये।
48) यूदाह ने उसके यहाँ दूत भेज कर शांति का यह प्रस्ताव किया, ''अपने देश पहुँचने के लिए हम अपनी भूमि पार करना चाहते है। कोई आप को हानि नहीं पहुँचायेगा। हम उसे केवल पैदल पार करना चाहते हैं।'' किंतु वे उसके लिए फाटक खोलने को राजी नहीं हुए।
49) तब यूदाह ने पडाव में घोषणा की कि जो जहाँ हो, वहाँ तैयार हो जाये।
50) अतः सैनिक तैयार हो गये। यूदाह पूरे दिन और पूरी रात उस नगर से युद्ध करता रहा। इसके बाद नगर उसके हाथ आ गया।
51) उसने सभी पुरुषों को तलवार के घाट उतार दिया, नगर का सर्वनाश किया अैार उसे लूटा। उसने लाशों पर पैर रख कर नगर में प्रवेश किया।
52) इसके बाद वे यर्दन पार कर बेत-शान के विस्तृत मैदान की ओर बढ़े।
53) यूदाह बार-बार पीछे के लोगों को इकट्ठा करता था और जब तक वे यूदा देश नहीं पहुँचे, जब तक वह मार्ग में लोगों का साहस बँधाता रहा।
54) वे हर्ष और उल्लास के साथ सियोन पर्वत पर चढ़े और उन्होंने होम-बलिया चढ़ायी; क्योंकि सभी सकुशल लौट आये थे और उन में एक भी खेत नहीं रहा।
55) जब यूदाह और योनातान गिलआद में थे और उनका भाई सिमोन गलीलिया में पतोलेमाइस के सामने पडाव डाले पड़ा था,
56) तब जकार्य के पुत्र यूसुफ और अजर्या ने, जो सेनापति थे, उसके साहसी कायोर्ं और उनकी लडाइयों के संबध में सुना।
57) उन्होंने कहा, ''चलों, हम भी अपना नाम कमायें और आसपास के गैर-यहूदियों से युद्ध करने चले''।
58) उन्होंने अपनी सेना को आदेश दिया और वे यमनिया पर आक्रमण के उद्देश्य से निकल पड़े।
59) गोरगियस उन से लड़ने नगर से बाहर आया।
60) यूसुफ और अजर्या हार गये और यहूदिया की सीमा तक खदेड दिये गये। उस दिन इस्राएल के लगभग दो हजार आदमी मारे गये।
61) इस तरह लोग बुरी तरह पराजित हुए; क्योंकि उन्होंने यूदाह और उसके भाइयों की बात की चिंता नहीं की थी और सोचा था कि वे अपनी बहादुरी का परिचय दे सकेंगे
62) किंतु वे ऐसे लोग नहीं थे, जिनके हाथों इस्राएल का उद्धार हो सकें।
63) इस्राएल भर में और सारे गैर-यहूदियों के बीच, जहाँ कहीं वीर यूदाह और उसके भाइयों की चर्चा होती, उन्हें सर्वत्र सम्मान की दृष्टि से देखा जाता।
64) लोग आते और उन्हें बधाइयाँ देते।
65) यूदाह अपने भाइयों के साथ चल पड़ा और उसने दक्षिण में रहने वाले एसाववंशियों से युद्ध किया। उसने हेब्रोन और उसके निटकवर्ती नगरों को पराजित किया, उनके मोचेर्ं ध्वस्त कर दिये और उनके आसपास के बुर्ज जला दिये।
66) इसके बाद वह मरीसा होते हुए फिलिस्तिया की ओर चल पड़ा।
67) उस दिन लडाई में कई याजकों की मृत्यु हो गयी, जो अपनी वीरता का परिचय देने के लिए दुःसाहस से लडाई में गये थे।
68) फिर यूदाह अजोत की ओर गया, जो फिलिस्तियों के अधिकार में था। उसने उनकी वेदियाँ ध्वस्त कर दी, उनकी देवमूर्तियाँ जला डाली, नगर लूटे और यूदा लौट आया।

अध्याय 6

1) जब अंतियोख पहाड़ी प्रांतों का दौरा कर रहा था, तो उसने सुना कि फारस देश का एलिमईस नगर अपनी संपत्ति और सोना-चाँदी के लिए प्रसिद्ध है।
2) और यह कि वहाँ का मंदिर अत्यंत समृद्ध है और उस में वे स्वर्ण ढाले, कवच और अस्त्र-शस्त्र सुरक्षित हैं, जिन्हें फिलिप के पुत्र सिंकदर, मकूदूनिया के राजा और यूनानियों के प्रथम शासक, ने वहाँ छोड दिया था।
3) इसलिए वह उस नगर पर अधिकार करने और उसे लूटने के उद्देश्य से चल पडा, किंतु वह ऐसा नहीं कर पाया; क्योंकि नागरिकों को उस अभियान का पता चल गया था।
4) उन्होंने हथियार ले कर उसका सामना किया और उसे भागना पड़ा। उसने दुःखी हो कर वहाँ से बाबुुल के लिए प्रस्थान किया।
5) वह फारस में ही था, जब उसे यह समाचार मिला कि जो सेना यहूदिया पर आक्रमण करने निकली थी, वह पराजित हो कर भाग रही है।
6) लीसियस एक विशाल सेना ले कर वहा गया था, किंतु उसे यहूदियों के सामने से पीछे हट जाना पडा। अब यहूदी अपने अस्त्रों, अपने सैनिकों की संख्या और पराजित सेनाओं की लूट के कारण शक्तिशाली बन गये थे।
7) उन्होंने येरुसालेम की होम-वेदी पर अन्तियोख द्वारा स्थापित घृणित मूर्ति को ढाह दिया, पहले की तरह मंदिर के चारों ओर ऊँची दीवार बनवायी और उसके नगर बेत-सूर की भी किलाबंदी की।
8) राजा यह सुन कर चकित रह गया वह बहुत घबराया, पलंग पर लेट गया और दुःख के कारण बीमार हो गया; क्योंकि वह जो चाहता था, वह नहीं हो पाया था।
9) वह इस तरह बहुत दिनों तक पड़ा रहा, क्योंकि एक गहरा विषाद उस पर छाया रहा। तब वह समझने लगा कि वह मरने को है
10) और उसने अपने सब मित्रों को बुला कर उन से कहा, ''मुझे पर दुःख का कितना बड़ा पहाड टूट पड़ा है! मैं तो अपने शासन के दिनों में दयालु और लोकप्रिय था'।
11) मैंने पहले अपने मन में कहा, मैं कितना कष्ट सह रहा हूँ ओर मुझ पर दुःख का कितना बड़ा पहाड़ टूट पड़ा है। मैं तो अपने शासन के दिनों दयालु और लोकप्रिय था।
12) किंतु अब मुझे याद आ रहा है कि मैंने येरुसालेम के साथ कितना अत्याचार किया- मैं वहाँ के चाँदी और सोने के पात्र चुरा कर ले गया और मैंने अकारण यूदा के निवासियों को मारने का आदेश दिया।
13) मुझे लगता है कि मैं इसी से कष्ट भोग रहा हूँ और गहरे शोक के कारण यहाँ विदेश में मर रहा हूँ''
14) उसने अपने मित्र फ़िलिप को बुलाया और उसे अपने समस्त राज्य का प्रधान नियुक्त किया।
15) उसने उसे अपना मुकुट, अपने राजकीय वस्त्र तथा अपनी अंगूठी दी और उसे अपने पुत्र अंतियोख को सुयोग्य राजा बनने की शिक्षा दिलाने को कहा।
16) राजा अंतियोख की मृत्यु एक सौ उनचासवें वर्ष में हुई।
17) इधर जब लीसियस ने सुना कि राजा की मृत्यु हो गयी है, तो उसने उसके पुत्र अंतियोख को राजगद्दी पर बैठाया। उसने बचपन से उसकी शिक्षा का प्रबंध किया था और अब उसने उसका नाम यूपातोर रखा।
18) येरुसालेम के गढ़ के लोग मंदिर के आसपास के इस्राएलियों को तंग करते, हर समय उन को हानि पहुँचाते और गैर-यहूदियों की सहायता करते थे।
19) इसलिए यूदाह ने उसका विनाश करने का निश्चय किया और उन्हें घेरने के लिए सब लोगों को इकट्ठा किया।
20) लोग आये और उन पर घेरा डाल दिया। जब एक सौ पचासवाँ वर्ष चल रहा था। शिला-प्रक्षेपक और अन्य यंत्र तैयार किये गये;
21) किंतु घिरे हुए लोगों में कुछ निकल कर भाग गये।
22) इस्राएल के कुछ विधर्मी लोगों ने उनका साथ दिया और राजा के पास जा कर कहा, ''हमें न्याय दिलाने और हमारे भाईयों का प्र्रतिशोध लेने में आप कब तक देर करेंगे?
23) हम आपके पिता के विश्वस्त सेवक रह चुके है और उनके सभी आदेशों का पालन करते आये है।
24) इसलिए हमारी जाति के लोगों ने हमें घेर लिया है और हमारे शत्रु बन गये है। हम में से जो भी उन्हें मिल जाता है, वे उसे मार डालते हैं। हमारी संपत्ति लूट ली गयी है
25) और उन्होंने न केवल हम पर, बल्कि आपके अधीन के क्षेत्रों पर भी आक्रमण किया।
26) वे अब येरुसालेम के गढ पर अधिकार करने के लिए उस पर घेरा डाले हुए हैं और उन्होंने मंदिर और बेतसूर को किलाबंद किया है।
27) यदि आप उन्हें जल्द ही नहीं रोकेंगे, तो वे आगे न जाने क्या कर बैठेंगे। फिर वे आपके वश के नहीं रहेंगे।''
28) यह सुन कर राजा क्रुद्ध हो उठा उसने अपने सभी मित्रों, सेनापतियों और रसद के अधिकारियों को बुला भेजा।
29) अन्य राजाओं और समुद्र के द्वीपों से भी उसके यहाँ किराये के सौनिक आये।
30) उसके सैनिक बल में एक लाख पैदल सैनिक, बीस हजार घुड़सवार और बत्तीस युद्धकुशल हाथी थे।
31) वे इदुमैया होते हुए आगे बढा और उन्होंने बेत-सूर के सामने पड़ाव डाला। वे बहुत दिनों तक यंत्रों के सहारे उनके विरुद्ध युद्ध करते रहे। किंतु जो लोग घिर पडे थे, वे निकल कर टूट पडते और यंत्र जलाते। वे वीरतापूर्वक लड़ते रहे।
32) यूदाह ने गढ़ से चल कर बेत-जकर्या के पास राजा के पड़ाव के सामने पड़ाव डाला।
33) दूसरे दिन सुबह होते ही राजा ने सेना को बेत-जकर्या की ओर प्रस्थान करने का आदेश दिया। वहाँ दोनों सेनाएँ पंक्तिबद्ध खड़ी कर दी गयी और तुरहियाँ बजने लगी।
34) हाथियों को दाखरस और जैतून के रस द्वारा युद्ध के लिए उत्तेजित किया गया।
35) वे हाथी सेना के विभिन्न जत्थों में बाँटे गये। एक-एक हाथी के साथ पाँच सौ घुडसवारों के अतिरिक्त एक हजार सैनिक खडे किये गये, जो कवच और काँसे के टोप पहने थे।
36) घुड़सवार हाथी के आगे-आगे चलते थे और जहाँ वह जाता था, वे उसके साथ-साथ जाते थे और सदा उसके पास रहते थे।
37) सुरक्षा के लिए प्रत्येक हाथी की पीठ पर लकडी का एक मजबूत हौदा बँधा था और प्रत्येक के ऊपर तीन-तीन सशस्त्र सैनिक और एक भारतीय महावत था।
38) शेष घुड़सवारों को सेना के दोनों छोरों पर खडा कर दिया गया। वे बीच-बीच में शत्रु पर छापा मारते और दलों की रक्षा करते थे।
39) जब सूर्य कि किरणें सोने और काँसे की ढालों पर चमकती, तो पर्वत उन से जगमगाने लगते। ऐसा लगता कि वहाँ मशाले जल रही हों।
40) राजकीय सेना का एक दल पहाडियों पर और दूसरा मैंदान में था। वे सुव्यवस्थित रूप से आगे की ओर बढते थे।
41) जो कोई आती हुई भीड़ का कोलाहल और शस्त्रों की झंकार सुनता, वह घबरा जाता था। सेना बहुत बड़ी और शक्तिशाली थी।
42) यूदाह अपनी सेना के साथ आक्रमण करने आगे बढ़ा और राजा की सेना के लगभग छः सौ आदमी मारे गये।
43) तभी एलआजार अवरन की दृष्टि राजकीय कवच पहने सबसे से बड़े हाथी पर पड़ी। इसलिए उसने सोचा कि राजा उसी पर सवार है।
44) तब वह अपनी जाति की रक्षा करने और अपना नाम अमर करने के लिए प्राण न्योछावर करने को तैयार हो गया।
45) वह दल के बीच में साहसपूर्वक अपने दायें-बायें के सौनिकों पर प्रहर करते हुए उस पशु की ओर बढा।
46) उसने हाथी के नीचे जा कर और उसके पेट में शस्त्र मार कर उसका वध किया। हाथी उसके ऊपर आ गिरा और इस तरह वह भी वही दब कर मर गया।
47) यहूदी राजकीय सेना की शक्ति और उत्साह देख कर पीछे हट गये।
48) इसके बाद राजकीय सेना उन से लडने के लिए येरुसालेम तब आ पहुँची। राजा यहूदिया और सियोन पर्वत पर आक्रमण की तैयारियाँ करने लगा।
49) इसी बीच राजा ने बेत-सूर के लोगों से संधि कर ली। वे नगर के बाहर आ गये। उन दिनों देश का विश्राम-वर्ष चल रहा था, इसलिए उनके पास खाद्य सामग्री की कमी थी और वे अधिक दिन वहाँ घेरे में नहीं रह सकते थे।
50) इसलिए राजा ने बेत-सूर पर अधिकार कर लिया और उसे एक दल की निगरानी में रख दिया।
51) वह बहुत दिन तक मंदिर पर घेरा डाले रहा, उसके सामने मंच और यंत्र लगाये, जो आग, पत्थर और वाण फेंकते थे और गोफान-जैसे यंत्र भी लगाये।
52) इधर घेरे में पडे हुए लोगों ने भी उनके विरुद्ध यंत्र लगाये और इस तरह लडाई बहुत दिनों तक चलती रही।
53) भण्डारों में खाद्य-समाग्री समाप्त हो गयी; क्योंकि सातवाँ वर्ष चल रहा था और गैर-यहूदियों के यहाँ से आये यहूदियों ने रसद खाया था।
54) अब मंदिर के पास थोड़े ही सैनिक रह गये थे, क्योंकि जब वे भूख से छटपटाने लगे, तो वे अपने-अपने घर लौट गये।
55) लीसियस को पता चला कि फ़िलिप, जिसे राजा अंतियोख ने मरते समय अपने पुत्र अंतियोख को सुयोग्य राजा बनने की शिक्षा दिलाने को कहा,
56) फारस और मोदिया से लौट आया है और उसके साथ वह सेना भी हैं, जो राजा के साथ गयी थी। उसने यह भी सुना कि वह राज्य पर अधिकार कर लेना चाहता है।
57) इसलिए लीसियस शीघ्र ही वहाँ से चले जाने की तैयारियाँ करने लगा। उसने राजा, सेनापतियों और सैनिकों से कहा, हम प्रतिदिन कमजोर पड़ते जा रहे हैं, दिन-पर-दिन सामग्री कम होती जा रही है और यह जगह, जिसका हम घेरा कर रहे हैं, बहुत सुदृढ़ है।
58) इसलिए हम इन लोगों से हाथ मिला कर इन से और इस समस्त राष्ट्र से संधि क्यों न कर लें?
59) हम उन्हें यह अनुमति दे कि वे पहले की तरह, अपने रीति-रिवाजों के अनुसार जीवन बितायें; क्योंकि हमने उनके रीति-रिवाजों को समाप्त करने का प्रयत्न किया और इस कारण उनका क्रोध भडक उठा और उन्होंने विद्रोह किया।''
60) राजा और सेनापति यह प्रस्ताव मान गये। राजा ने उनके पास संधि का संदेश भेजा और वे लोग राजी हो गये।
61) जब राजा और सेनापतियों ने उन्हें शपथपूर्वक वचन दिया, तो वे गढ़ से बाहर आये।
62) तब राजा सियोन पर्वत गया। उसने उस स्थान की किलाबंदी देख कर अपनी शपथ भंग कर दी और आदेश दिया कि चारदीवारी गिरा दी जाये।
63) इसके बाद वह जल्द ही वहाँ से अंताकिया की ओर चल पडा। वहाँ उसने देखा कि फ़िलिप नगर का अध्यक्ष बन गया है। इसलिए वह, उस पर टूट पड़ा और बलपूर्वक नगर पर अधिकार कर लिया।

अध्याय 7

1) जब सिलूकस का पुत्र देमेत्रियस रोम से लौटा, तो एक सौ इक्यावनवाँ वर्ष चल रहा था। वह अपने कुछ आदमियों के साथ समुद्रतट के एक नगर गया और वहाँ राज्य करने लगा।
2) उसने अपने पूर्वजों के राजमहल में प्रवेश किया और उसकी सेना अंतियोख और लीसियस को गिरफ्तार कर उन्हें उसके सामने उपस्थित करना चाहती थी।
3) उसने यह जान कर कहा, ''मैं उनका मुँह भी देखना नहीं चाहता''।
4) इस पर सैनिकों ने उन्हें मार डाला और देमेत्रियस अपने राजसिंहासन पर बैठा।
5) इसके बाद अलकिमस के नेतृत्व में, जो प्रधानयाजक बनना चाहता था, उसके पास सभी निरीश्वरवादी और धर्मत्यागी इस्राएली आये।
6) उन्होंने राजा के पास आ कर लोगों पर यह अभियोग लगाया, ''यूदाह और उसके भाइयों ने आपके सभी मित्रों को मार डाला और अपने देश से हमें भी भगा दिया।
7) आप अपने एक विश्वासपात्र व्यक्ति को भेज कर पता लगवायें कि यूदाह ने हमारे और राजा के देश के साथ कैसा अनर्थ किया है। वह व्यक्ति उन्हें तथा उनके सहायकों को दण्ड दिलाये।''
8) राजा ने अपने मित्रों में बक्खीदेस को चुना, जो नदी पार के प्रदेश का राज्यपाल था तथा राज्य भर में सम्मानित और राजा का विश्वासपात्र था।
9) राजा ने उसे तथा विधर्मी अलकिमस को यह वचन दे कर वहाँ भेजा कि अलकिमस वहाँ का प्रधानयाजक बन जायेगा और उसे यह आदेश दिया कि वह इस्राएलियों से बदला चुकाये।
10) वे बड़ी भारी सेना ले कर चल पड़े और यूदा पहुँचे। उन्होंने यूदाह और उसके भाइयों के पास दूतों द्वारा शांति का कपटपूर्ण संदेश भिजवाया था,
11) लेकिन यह देख कर उन्होंने उनकी बातों पर विश्वास नहीं किया कि वे विशाल सेना के साथ आये थे।
12) उस समय अलकिमस और बक्खीदेस के पास शास्त्रियों का एक दल इस उद्देश्य से एकत्र हो गया कि उपस्थित समस्या का न्यायपूर्वक समाधान किया जाये।
13) इस्राएलियों में हसीदी-समुदाय पहला था, जो शांतिपूर्वक समस्या का समाधान चाहता था।
14) उन लोगों का कहना था कि वह याजक, जो सेना से साथ आया है, हारून का वंशज है; इसलिए वह हमारे साथ निश्चय ही अन्याय पूर्ण व्यवहार नहीं करेगा।
15) अलकिमस ने उन्हें शांति का संदेश दिया और शपथ खा कर यह वचन दिया, ''हम आप को या आपके मित्रों को कोई हानि नहीं पहुँचायेंगे''।
16) उन्होंने उस पर विश्वास किया और तब उसने उन में साठ व्यक्तियों को गिरफ्तार किया और उन्हें एक ही दिन मार डाला-जैसा कि धर्मग्रंथ में लिखा है-
17) ''उन्होंने येरुसालेम के चारों ओर तेरे संतों के शव फेंक दिये और उनका रक्त बहाया। उन को दफनाने के लिए कोई नहीं रहा।''
18) इस पर सब लोगों पर भय और आतंक छा गया और उन्होंने कहा, ''उनके पास न तो सत्य है और न न्याय। वे अपने वचन और अपनी शपथ से मुकर गये।''
19) बक्खीदेस येरुसालेम से आगे बढ़ा और उसने बेत-जैथ के पास पड़ाव डाला। वहाँ से उसने आदमी भेज कर उन लोगों में से जो उनके दल में सम्मिलित हो गये थे, और जनता में से भी कई लोगों को गिरफ्तार किया, उनका वध किया और बड़े कुएँ में डलवा दिया।
20) इसके बाद बक्खीदेस देश को अलकिमस के अधीन छोड कर और उसकी सुरक्षा के लिए उसे एक सेना दे कर राजा के पास लौट आया।
21) अलकिमस ने प्रधानयाजकीय पद पाने के लिए बड़ा यत्न किया।
22) वे सब लोग, जो जनता में अशांति फैलाते थे, उसके पीछे हो लिये। उन्होंने यूदा अपने अधिकार में कर लिया और इस्राएल को बड़ी हानि पहुँचायी।
23) यूदाह ने देखा कि अलमिकस और उसके सहचर गैर-यहूदियों से भी अधिक इस्राएलियों के साथ बुरा व्यवहार करते थे,
24) इसलिए उसने यूदा के सब प्रदेशों का दौरा करते हुए धर्मत्यागी यहूदियों से बदला चुकाया और उन्हें देश के बाहर निकलने से रोक दिया।
25) जब अलकिमस ने देखा कि यूदाह और उसके आदमी शक्तिशाली होते जा रहे हैं और यह समझ लिया कि वह भविष्य में उनका सामना नहीं कर पायेगा तो वह राजा के पास लौट गया और उन पर भारी अपराधों का अभियोग लगाया।
26) इसलिए राजा ने प्रसिद्ध सेनापति निकानोर को, जो यहूदियों का घोर शत्रु था, वहाँ भेजा और उसे यहूदियों का सर्वनाश करने का आदेश दिया।
27) निकानोर एक बड़ी सेना ले कर येरुसालेम आया। उसने धोखा देने के लिए यूदाह और उसके भाइयों को शांति का यह कपटपूर्ण संदेश भेजा,
28) ''मेरे और आपके बीच लडाई नहीं होनी चाहिए। इसलिए मैं अपने कुछ लोगों के साथ आप लोगों से शांतिपूर्वक मिलने आऊँगा।''
29) ्रइस पर वह यूदाह से मिलने गया और उन दोनों ने एक दूसरे का मित्र-भाव से अभिवादन किया; किंतु शत्रु यूदाह को जबरदस्ती उठा ले जाना चाहते थे।
30) यूदाह यह देख कर कि निकानोर उसके साथ विश्वासघात करने के विचार से उनके पास आया है, पीछे हट गया और उसने उस से फिर भेंट करने से इनकार किया।
31) इधर जब निकानोर को पता चला कि यूदाह उसका उद्देश्य समझ गया हैं, तो वह उस से लड़ने निकल पड़ा खफ़रसलामा के निकट वे एक दूसरे के विरुद्ध आ डटे।
32) निकानोर के आदमियों में लगभग पाँच सौ मारे गये; शेष लोग दाऊदनगर भाग खडे हुए।
33) इसके बाद निकानोर सियोन पर्वत गया। कुछ याजक और लोगों के कई नेता सद्भाव से उसे नमस्कार करने मंदिर के पवित्र क्षेत्र से बाहर आये। वे उसे राजा के कल्याण के लिए चढ़ायी जाने वाली बलि दिखाना चाहते थे।
34) लेकिन उसने उसकी हँसी उड़ायी, उनका अपमान किया और घमण्ड भरी बातें की।
35) फिर उसने गुस्से में यह शपथ लीः ''इस बार यदि यूदाह और उसकी सेना तुरंत मेरे हाथ में नहीं दी जाती, तो मैं सकुशल लौटने पर यह मंदिर जला कर रहूँगा''। ऐसा कह वह क्रुद्ध हो कर वहाँ से चल पड़ा।
36) इसके बाद याजक अंदर गये और बलि-वेदी और मंदिर के सामने खडे हो कर सजल नेत्रों से कहने लगे,
37) ''ईश्वर! तूने यह मंदिर इसलिए चुना था कि तेरा नाम यहाँ प्रतिष्ठित हो और यह तेरी प्रजा के लिए प्रार्थना और विनय का घर हो।
38) अब तू ही इस व्यक्ति और इसकी सेना से बदला ले। वे तलवार के घाट उतारे जायें। याद रख कि इन लोगों ने तेरी निंदा किस तरह की है। अब इन्हें यहाँ न रहने दे''
39) निकानोर येरुसालेम से चल पड़ा और उसने बेत-होरोन के निकट पडाव डाला। यहाँ सीरिया से एक और सैनिक दल उस से आ मिला।
40) इधर यूदाह तीन हजार आदमियों के साथ अदास के पास पड़ाव डाले पडा था। यूदाह ने इस प्रकार प्रार्थना की :
41) ''एक बार जब राजकीय दूतों ने तेरी निंदा की थी, तो तेरा एक देवदूत आया था और उनके एक लाख पचासी हजार लोगों को मार गिराया था।
42) तू आज भी उसी प्रकार हमारे सामने इसकी सेना का विनाश कर, जिससे अन्य लोग यह जान जायें कि उसने तेरे पवित्र स्थान की निंदा की है। तू उसके कुकर्म के अनुसार उसका न्याय कर।''
43) इसके बाद दोनों सेनाओं में युद्ध छिड़ गया। अदार मास की तेरहवीं तिथि थी। निकानोर की सेना की करारी हार हो गयी और वह लडाई के आरंभ में ही मारा गया।
44) जैसे ही निकानोर के सैनिकों ने देखा कि वह गिर गया है, वे अपने शस्त्र फेंक कर भाग खड़े हुए।
45) यहूदी अदामा से गेजेर तक दिन भर तुरहिया बजाते हुए उनके पीछा करते रहे।
46) तुरहियाँ सुन कर लोगों ने यहूदिया के आसपास के गाँवों से आ कर सैनिकों को घेरा और उन्हें तलवार के घाट उतारा। उन में एक भी जीवित नहीं रहा।
47) उनका माल लूटा गया, निकानोर का सिर और उसका दाहिना हाथ, जिसे उसने गर्व से ऊपर उठाया था, काट दिया गया और उन्हें ले जा कर येरुसालेम के पास लटका दिया गया।
48) लोगों को अपार आनंद हुआ और उन्होंने वह दिन महापर्व के रूप में मनाया।
49) यह निश्चित हुआ कि उस दिन, अर्थात् अदार मास की तेरहवीं तिथि के प्रति वर्ष उत्सव मनाया जाये।
50) इसके बाद कुछ दिन यूदा में शांति रही।

अध्याय 8

1) तब यूदाह ने रोमियों के विषय में सुना कि वे शक्तिशाली हैं, अपने पक्ष में रहने वालों के हितैषी हैं और अपने से मिलने वालों से मैत्रीपूर्ण संधि करते हैं।
2) उसे गौल में उनकी लडाइयों और उनकी वीरता के संबंध में भी बताया गया और किस प्रकार उन्होंने वहाँ के लोगों को अपने अधीन कर लिया और उन्हें कर देने के लिए बाध्य किया।
3) उसने यह भी सुना कि उन्होंने सोने और चाँदी की खानों को अपने अधिकार में करने के लिए स्पेन में क्या किया था।
4) यद्यपि वह देश उन से दूर था, उन्होंने अपने कौशल और निरंतर प्रयत्न द्वारा उसे अपने अधीन कर लिया। पृथ्वी के सीमांतों से राजा उनके विरुद्ध लडने आये थे, लेकिन उन्होंने उन्हें बुरी तरह पराजित किया, उनका विनाश कर डाला और अन्य राजाओं को वार्षिक कर देने को बाध्य किया।
5) कित्तियों के राजा फ़िलिप और उसके पुत्र परसूस तथा जिन्होंने उनके विरुद्ध विद्रोह किया, वे सब हार गये और उनके अधीन हो गये।
6) अंतियोख महान् जो एशिया का महाराजा था और जो एक सौ बीस हाथियों, घुडसवारों, रथों और विशाल सेना के साथ उन से युद्ध करने आया था, उनके द्वारा पराजित किया गया
7) और जीवित ही उनके हाथ आ गया था। उसे तथा उसके उत्तराधिकारियों को बहुत अधिक कर चुकाना पड़ा था और उसे बंधक के रूप में आदमियों को रखना पड़ा था।
8) उन्होंने भारत का क्षेत्र, मेदिया, लीदिया और उसके राज्य के कुछ उत्तम भूभाग उस से छीन कर राजा यूमेनस को दे दिये थे।
9) उसने यह भी सुना कि यूनानी उसका सर्वनाश करने चले थे, लेकिन जब उन्हें उनका यह उद्देश्य मालूम हुआ, तो उन्होंने अपने एक सेनापति को यूनानियों के विरुद्ध भेज कर उन से युद्ध आरंभ कर दिया।
10) यूनानियों में कितने ही लोग मारे गये, उनकी पत्नियों और उनके बच्चों को बंदी बनाया गया, उन्हें लूटा गया और उनका देश रोमियों के हाथ चला गया। उनके गढ़ ध्वस्त कर दिये गये और वे स्वयं अधीन हो गये, जैसी आज तक उनकी स्थिति बनी हुई है।
11) जो अन्य राज्य और द्वीप उसका सामना करते थे, उन्होंने उन्हें हराया और अपने अधीन कर लिया, किंतु वे अपने मित्रों के प्र्रति और उनके साथ, जो उन पर निर्भर रहते थे, मैंत्रीपूर्ण व्यवहार करते थे।
12) उन्होंने निकट और दूर के राजाओं को अपने अधीन कर लिया। लोग उनका नाम सुन कर भयभीत होते हैं।
13) वे जिन्हें सँभालते और राज्य करते रहने देते हैं, केवल वही राज्य कर सकते हैं। वे यदि ऐसा नहीं चाहते तो उन्हें अपदास्थ करते है। वे अत्यंत शक्तिशाली हैं।
14) इन सारी बातें के बावजूद उन में एक भी ऐसा नहीं निकला, जिसने अपने सिर पर राजकीय मुकुट पहनना चाहा या अपने बड़प्पन का प्रदर्शन करने के लिए कभी राजकीय बैंगनी वस्त्र पहने हों।
15) उनके यहाँ एक परिषद् हैं, जिस में प्रतिदिन तीन सौ बीस सभासद जनता की भलाई के लिए विचार-विमर्श करते हैं।
16) वे प्रति वर्ष एक व्यक्ति को लोगों पर शासन करने को नियुक्त करते हैं, जिससे वह देश भर का शासक हो। सब केवल उसी व्यक्ति की बात मानते हैं। उन में आपस में ईर्ष्या और द्वेष का नाम नहीं है।
17) यूदाह ने योहन के पुत्र, अक्कोस के पौत्र यूपोलेमस को और एलआजार के पुत्र यासोन को चुन कर मित्रता और संपर्क स्थापित करने के लिए रोम भेजा।
18) उसका विचार यह था : जब रोमी सुनेंगे कि यूनानियों का राज्य इस्राएल को दास बना कर हमारा शोषण करता है, तो वे हम पर से उनका जूआ हटायेंगे।
19) वे बड़ी लंबी यात्रा कर रोम पहुँचें और वहाँ परिषद में उपस्थित किये गये।
20) उन्होंने पूछने पर यह बतायाः ''यूदाह, जो मक्काबी कहा जाता है, उसके भाइयों और यहूदी जनता ने हमें आपके साथ संपर्क और संधि स्थापित करने आपके यहाँ भेजा है। हम आप लोगों का संधिबद्ध राष्ट्र और आपका मित्र बनना चाहते हैं।''
21) उन्होंने यह प्रस्ताव पंसद किया।
22) उस लेख की प्रतिलिपि यह है, जिसे उन्होंने काँसे के पत्थरों पर अंकित कर येरुसालेम भेजा, जिससे वह वहाँ इस संधि और सपंर्क के प्रमाण के रूप में बना रहे।
23) ''रोमी और यहूदी समुद्र में और पृथ्वी पर सदा सकुशल रहे! शत्रु और तलवार उन से दूर रहें।
24) यदि कोई रोमियों या उनके साम्र्राज्य से संबंद्ध लोगों पर आक्रमण करेगा,
25) तो यहूदी, जहाँ तक सम्भव होगा, सारे हृदय से लडाई में उनका साथ देंगे।
26) जैसा रोमी उचित समझें, वे उनके शत्रुओं को न तो अन्न देंगे, न शस्त्र, न पैसा न नावें। उन्हें बिना कुछ लिये अपनी शर्त पूरी करनी होगी।
27) यदि कोई यहूदियों पर आक्रमण करेगा, तो जहाँ तक संभव होगा, रोमी उनकी सहायता सारे हृदय से करेंगे।
28) आक्रमणकारी को न तो अन्न दिया जायेगा, न शस्त्र, न पैसा और न नावें। रोम का निर्णय यही है। वे भी बिना कुछ लिये ये शर्ते पूरी करेंगे।
29) ''रोमियों ने यहूदियों से इन्ही शब्दों में संधि की।
30) यदि कोई पक्ष इन बातों में कुछ घटाना-बढ़ाना चाहे, तो वह अपने इच्छानुसार ऐसा कर सकता हैं और उसका बढ़ाना-घटना मान्य समझा जायेगा।
31) हमने राजा देमेत्रियस को उसके द्वारा यहूदियों को पहुँचायी क्षति के संबंध में यह लिखा-'तुमने हमारे मित्र और संधिबद्ध यहूदियों के कंधे पर इतना भारी जुआ क्यों रख दिया?
32) यदि उन्हें तुम्हारे संबंध में फिर कोई शिकायत होगी, तो हम उनके अधिकारों की रक्षा करेंगे और तुम से समुद्र और पृथ्वी पर लडेंगे।''

अध्याय 9

1) इसी बीच देमेत्रियस ने सुना कि निकानोर और उनकी सेना युद्ध में हार गयी है। तब उसने बक्खीदेस और अलकिमस को फिर यूदा में भेजने का निश्चय किया और उसने उन्हें सेना का पार्श्व-भाग दिया।
2) वे गलीलिया हो कर चल पड़े और अरबेला के मैसालोथ पहुँचे। उन्होंने उसे अधिकार में कर लिया और बहुत लोगों का वध किया।
3) वे एक सौं बावनवें वर्ष के पहले महीने येरुसालेम के सामने आ पहुँचे।
4) वहाँ से वे बीस हजार पैदल सैनिक और दो हजार घुड़सवार ले कर बरेआ की ओर आगे बढे।
5) इधर तीन हजार चुने हुए योद्धाओं को ले कर यूदाह एलासा के पास पड़ाव डाले पड़ा था।
6) जब उसके आदमियों ने एक विशाल सेना को आते देखा-सचमुच वह सेना बहुत बड़ी थी-तो वे बहुत अधिक डर गये। बहुत-से लोग पड़ाव से भाग गये। उन में केवल आठ सौ रह गये।
7) जब यूदाह ने देखा कि उसकी सेना भाग रही है और लडाई एकदम सिर पर आ गयी है, तो उसका साहस टूट गया; क्योंकि अब लोगों को एकत्रित करने का समय भी नहीं था।
8) उसने निराशा में उन शेष लोगों से कहा, ''चलों हम अपने विरोधियों से लडने चलें। संभव है, हम उनका सामना कर सकें।''
9) लेकिन वे उस से असहमति प्रकट करते हुए कहने लगे, ''नहीं, हम असमर्थ हैं। इस बार हम अपने प्राणों की रक्षा की ही सोच सकते हैं। हम अपने भाइयों को ले कर शत्रुओं से लडने फिर लौटेंगे। हमारी संख्या बहुत थोड़ी रह गयी है।''
10) यूदाह ने कहा 'ऐसा नहीं होगा! हम उन्हें पीठ क्यों दिखायें? मरना ही है, तो हम अपने भाइयों के लिए लडते हुए मरे। हम अपने सम्मान पर आँच क्यों आने दें?''
11) उस समय शत्रुओं की सेना उनका मुकाबला करने के लिए पडाव से बाहर आ रही थी। उनके घुडसवार दो दलों में विभक्त थे, गोफन चलाने वाले और तीर चलाने वाले लोग सेना में आगे-आगे चल रहे थे। सर्वोत्तम सैनिक सब से आगे थ। बक्खीदेस दाहिन ओर था।
12) सैनिक दल तुरहियाँ बजाते हुए दोनों ओर से आगे बढ रहे थे। इधर यूदाह के लोगों ने भी तुरहियाँ बजायीं। सेनाओं के कोलाहल से पृथ्वी हिल उठी।
13) लड़ाई सबेरे से शाम तक चलती रही।
14) जब यूदाह ने देखा कि बक्सीदेस और उसकी सेना का प्रधान अंग दाहिनी ओर है, तो उसने अपने सब साहसी लोगों को अपने पास बुलाया।
15) और उन्होंने उस दाहिये अंग को पीस डाला। वे उन्हें अजोत की पहाड़ियों तक खदेड ले गये।
16) जब बायीं ओर से सैनिकों ने देखा कि दाहिना अंग पिस रहा है, तो वे मूड़ कर यूदाह और उसके आदमियों का पीछा करने गये।
17) घमासान युद्ध हुआ और दोनों ओर से बहुत-से लोग मारे गये।
18) यूदाह भी खेत रहा। शेष लोग भाग खड़े हुए।
19) तब योनातान और सिमोन अपने भाई यूदाह को उठा कर ले गये और उन्होंने उसे मोदीन के अपने पूर्वजों के क़ब्रिस्तान में दफनाया।
20) उन्होंने उसके लिए शोक मनाया और इस्राएल भर के लोगों ने उसके लिए विलाप किया। वे उसके लिए कई दिनों तक शोक मनाते और कहते रहे,
21) ''यह वीर योद्धा कैसे मारा गया? यही तो इस्राएल का उद्धारक था!''
22) यूदाह का शेष इतिहास, उसकी लड़ाइयाँ और उसके द्वारा किये गये वीरता के कार्य तथा उसकी महत्ता-वह सब लिखित नहीं है, क्योंकि वह अपार है।
23) यूदाह की मृत्यु के बाद विधर्मी इस्राएल भर में फिर दिखाई पड़ने लगे।
24) उन दिनों घोर अकाल पड़ा और लोगों ने उनका साथ दिया।
25) बक्खीदेस ने विधर्मियों को चुन-चुन कर उन्हें देश का अधिकारी बनाया।
26) वे यूदाह के समथकों को ढूँढ-ढूँढ कर बक्सीदेस के पास ले जाते और बक्सीदेख उन्हें दण्ड देता और उनकी हँसी उड़ाता था।
27) इस तरह इस्राएल की स्थिति ऐसी दुःखद हो गयी, जैसी वह तब से कभी नहीं हुई थी, जब से उनके यहाँ कोई नबी नहीं था।
28) इसलिए यूदाह के सभी मित्रों ने आ कर योनातान से कहा,
29) ''जब से आपके भाई यूदाह की मृत्यु हुई, उनके समान ऐसा कोई नहीं रहा, जो शत्रुओं के विरुद्ध, बक्खीदेस और हमारी जाति के विरोधियों से युद्ध कर सके।
30) इसलिए आज हम आपका चुनाव करते है, जिससे आप यूदाह के स्थान पर हमारे नेता बनें और हमारी ओर से युद्ध करें।''
31) योनातान ने उसी समय नेता बनना स्वीकार कर लिया और अपने भाई यूदाह का पद ग्रहण किया।
32) जैसे ही बक्खीदेस को इस बात का पता चला, वह उसकी हत्या करने की सोचने लगा,
33) जब योनातान, उसके भाई सिमोन और उनके सभी साथियों को यह बात मालूम हुई, तो वे तकोआ के उजाडखण्ड की ओर भाग गये और उन्होंने अस्फारकुण्ड के पास पड़ाव डाला।
34) बक्खीदेस को विश्राम के दिन इसका पता चल गया और वह अपनी सारी सेना ले कर यर्दन पार कर गया।
35) इधर योनातान ने अपने एक भाई को युद्ध की सामग्री के साथ अपने मित्र नबातैयी लोगों के पास भेजा और उन से निवेदन किया कि वे वह विपुल सामग्री अपने पास सुरक्षित रखें।
36) किंतु मेदेबा से यमब्री लोगों ने छापा मार कर योहन को गिरफ्तार किया और उसका सारा सामान ले लिया। इसके बाद वे अपनी लूट के साथ लौटे।
37) योनातान और उसके भाई सिमोन को कुछ ही दिनों बाद मालूम हुआ कि यमब्री लोगों के यहाँ भारी धूमधाम से विवाह हो रहा है और प्रतिष्ठित सामन्त की कन्या नदाबाय से विशाल बारात के साथ लायी जा रही है।
38) उन्हें अपने भाई योहन की हत्या की याद आयी और उन्होंने जा कर अपने को पहाड़ियों में पीछे छिपा लिया।
39) जब उन्होंने आँखे उठायी तो यह देखा कि भारी धूमधाम से बड़ी भीड चली आ रही है। वर, उसके मित्र और उसके भाई बाजों, संगीतकारों और बहुत-से अस्त्र-शस्त्रों के साथ उनकी ओर आ रहे हैं।
40) तब वे ओट से उन पर टूट पड़े और उन को मार गिराया। बहुत लोग मारे गये और शेष पहाडियों पर भाग खड़े हुए। उन्होंने उनका सारा सामान लूट लिया।
41) विवाह शोक में और उनका वाद्य-संगीत विलाप में बदल गया।
42) इस तरह उन्होंने अपने भाई की हत्या का बदला लिया और वे फिर यर्दन के निकट की दलदल भूमि में लौट आये।
43) बक्खीदेस को इसका पता लगा। वह एक विशाल दलबल के साथ यर्दन तट पर आया। वह दिन विश्राम-दिवस था
44) योनातान ने अपने आदिमयों से कहा, ''चलो, हम जा कर अपने प्राण-रक्षा के लिए लडें। आज हमारी स्थिति वही नहीं रही, जो कल तक थी।
45) हम पर सामने से या पीछे से आक्रमण हो सकता है। हमारे एक ओर यर्दन फैली है, दूसरी ओर दलदल है, झाडिया है। भाग निकलने का कोई उपाय नहीं।
46) अब स्वर्ग के ईश्वर की दुहाई करो, जिससे तुम शत्रुओं के हाथ से बच निकलो।''
47) युद्ध आरंभ हुआ। योनातान ने बक्खीदेस को मार गिराने के लिए हाथ उठाया, लेकिन वह पीछे हट गया।
48) तब योनातान और उसके आदमी यर्दन के जल में कूद पडे जिससे वे तैर कर उस पार हो जायें। शत्रुओं ने उनका पीछा नहीं किया, वे यर्दन पार नहीं गये।
49) उस दिन बक्सीदेस के लगभग एक हजार आदमी मारे गये।
50) तब वह येरुसालेम की ओर चल पडा और उसने यहूदिया के अनेक किलाबंद नगरों का निर्माण किया। उसने येरोखों, अम्माऊस, बेत-होरोन, बेतेल, थमनाथा, फारथोन और तेफोन के गढ बनवाये और उन्हें ऊँची दीवारों, फाटकों और अर्गलाओं से सुदृढ़ किया।
51) उन सब में उसने एक सेना-दल रखा, जिससे वह इस्राएल पर छापा मारता रहे।
52) उसने बेत-सूर और गेजेर नगरों और (येरुसालेम के) गढ को भी सुदृढ़ किया तथा उन में सैनिक और खाद्य-सामग्री रखी।
53) उसने देश के कुलीन पुत्रों को पकड कर और येरुसालेम के गढ में बंद कर बंधक के रूप में रखा।
54) अलकिमस ने एक सौ तिरपनवें वर्ष के दूसरे महीने में मंदिर की भीतरी आंगन की दीवार गिराने की आज्ञा दी। उसने नबियों द्वारा निर्मित भवन का विनाश करना चाहा। जैसे ही विध्वंस शुरू हुआ,
55) अलकिमस को दौरा पड़ा और काम रूक गया। अलकिमस का मुँह बंद हो गया उसे ऐसा लकवा मार गया कि वह न एक शब्द बोल सकता था और न अपनी गृहस्थी के विषय में कोई आदेश दे सकता था।
56) अलकिमस का कष्ट बढ़ता गया और उन्हीं दिनों उसकी मृत्यु हो गयी।
57) जब बक्खीदेस ने देखा कि अलकिमस की मृत्यु हो गयी हैं, तो वह राजा के पास लौट गया। इसके बाद यूदा में दो साल तक शांति रही।
58) इसके बाद विधर्मियों ने मिल कर यह कहते हुए परामर्श किया, ''देखो, योनातान और उसके आदमी शांति का जीवन बिताते हैं और अपने को सुरक्षित समझते हैं अब हम बक्सीदेस को बुलायें। वह रात भर में ही सब को पकड लेगा''।
59) इसलिए वे उसके पास गये और उसे ऐसा करने का परामर्श दिया।
60) बक्खीदेस ने एक बड़ी सेना ले कर चलने का निश्चय किया। उसने यहूदिया में अपने मित्रों के पास छिपे तौर पर चिट्ठियाँ भी लिख भेजी, जिससे वे योनातान और उसके दल को पकड लें। किंतु वे ऐसा नहीं कर सके, क्योंकि उन लोगों को इस बात का पता चल गया था।
61) बल्कि इसके विपरीत योनातान के लोगों ने ही यह षड्यंत्र रचने वालों के लगभग पचास आदमियों को पकड कर मार डाला।
62) इसके बाद योनातान और सीमोन अपने सारे लोग के साथ बेत-बासी गये, जो उजाडखण्ड में अवस्थित नगर है। उसने वहाँ खडहरों को फिर से बसाया और उन्होंने उस नगर को सुदृढ़ किया।
63) जब बक्खीदेस को इस बात का पता चला, तो उसने अपनी सारी सेना एकत्रित की और यहूदिया से भी आदमी बुलाये।
64) उसने आ कर बेत-बासी को घेर लिया और बहुत दिनों तक उसके लिए युद्ध करता रहा और उसने युद्ध-यंत्र बनवाये।
65) योनातान ने अपने भाई सिमोन को नगर में ही छोड़ दिया और कुछ आदमियों को लेकर खुले मैदान में निकल पड़ा।
66) उसने अदोमेर और उसके भाई-बंधुओं को हराया और फरीसी लोगों के शिविर में घुस कर उन्हें पराजित किया। इन विजयों के फलस्वरूप उसकी सेना की वृद्धि होती गयी।
67) उधर सिमोन और उसके आदमी नगर के बाहर टूट पड़े और युद्ध यंत्र जला डाले। वे बक्खीदेस के विरुद्ध लड़ते रहें,
68) जो बुरी तरह हार गया और अपनी योजना की असफलता देख कर बहुत उदास हुआ।
69) इसलिए उसका क्रोध उन विधर्मियों पर भड़क उठा, जिन्होंने उसे यहाँ बुलाया था। उसने उन में से बहुतों को मार डाला और अपने लौट जाने का निश्चय किया।
70) जब योनातान को इसका पता चला, तो उसने उसके पास दूत भेजे, जिससे वे उसके साथ संधि कर लें और युद्धबंदियों को लौटाने का प्रबंध करें
71) बक्खीदेस ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर उसके अनुसार कार्य किया और यह शपथ खायी कि वह आजीवन उसकी हानि नहीं करेगा।
72) वह युद्धबंदी लौटा कर अपने देश लौट गया उसने यह निश्चित किया कि वह उनके देश में फिर कभी नहीं आयेगा।
73) इस प्रकार इस्राएल में तलवार को विश्राम मिला। योनातान मिकास में रहने लगा और वहाँ रह कर लोगों का न्याय करता था। उसने इस्राएल के समस्त विधर्मियों का वध किया।

अध्याय 10

1) एक सौ साठवें वर्ष अंतियोख एपीफ़ानेस के पुत्र सिकंदर ने नाव से उतर कर पतोलेमाइस पर अधिकार कर लिया। वहाँ के लोगों ने उसका स्वागत किया और वह वहाँ राज्य करने लगा।
2) जब राजा देमेत्रियस ने यह बात सुनी, तो वह एक बड़ी सेना ले कर उस से लड़ने चल पड़ा।
3) इसके साथ देमेत्रियस ने योनातान के नाम सद््भावपूर्ण पत्र लिखा, जिस में उसने योनातान की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
4) उसने सोचा कि जब तक सिकंदर हमारे विरुद्ध उन से मित्रता स्थापित करता है, उसके पहले ही हम उन्हें मित्र बना ले;
5) क्योंकि योनातान निश्चित ही याद करेगा कि हमने उसके, उसके भाइयों और लोगों के साथ कैसा बुरा व्यवहार किया था।
6) इसलिए उसने योनातान को सेना एकत्र करने, युद्ध-सामग्री जुटाने और अपने को उसका मित्र घोषित करने की अनुमति दी। उसने जिन लोगों को गढ़ में बन्धक के रूप में रखा था, उन्हें उसे लौटाने का आदेश दिया।
7) योनातान येरुसालेम आया और वहाँ सब लोगों को और जो गढ़ में थे, उन्हें भी बुला कर उनके सामने वह चिट्ठी पढ़ सुनायी।
8) जब लोगों ने यह सुना कि राजा ने उसे सैनिक इकट्ठा करने की अनुमति दे दी है, तो वे भय से काँप उठे।
9) गढ़ के लोगों ने उन आदमियों को, जो बन्धक के रूप में पड़े थे, योनातान के हवाले कर दिया और उसने उन्हें उनके माता-पिता को लौटा दिया।
10) अब योनातान येरुसालेम में बस गया और नगर के निर्माण और उसकी मरम्मत में लग गया।
11) उसने कारीगरों को आज्ञा दी कि वे चारदीवारी फिर से उठायें और सियोन पर्वत के चारों ओर गढ़े पत्थरों से किलाबन्दी करें। उन्होंने ऐसा ही किया।
12) तब वे गैर-यहूदी भाग गये, जो उन गढ़ों में पड़े थे, जिन्हें बक्खीदेस ने बनवाया था।
13) प्रत्येक व्यक्ति अपना स्थान छोड़ कर स्वदेश लौट गया।
14) केवल बेत-सूर में कुछ ऐसे लोग रह गये जिन्होंने संहिता और आज्ञाओं का परित्याग किया था; क्योंकि यह शरण-नगर था।
15) राजा सिकन्दर ने देमेत्रियस द्वारा योनातान से की हुई प्रतिज्ञाओं के विषय में सुना। उसे उन लड़ाइयों और वीरता के कार्यों के विषय में भी बताया गया, जो योनातान और उसके भाइयों ने किये थे और उन कष्टों के सम्बन्ध में भी, जो उन्हें झेलने पडे थे।
16) वह यह सुन कर बोल उठा, ''हम इसके-जैसा आदमी कहाँ पा सकते हैं? हम इसे अपना मित्र बना ले और इस से सन्धि कर लें!''
17) उसने उसके नाम चिट्ठी लिख भेजी। उस में लिखा था :
18) ''राजा सिकन्दर का भाई योनातान को नमस्कार।
19) हमने सुना है कि आप एक वीर और शक्तिशाली योद्धा हैं और हमारे मित्र होने के सर्वथा योग्य है।
20) आज हम आप को आपकी जाति का प्रधानयाजक नियुक्त कर रहे हैं और आप को ÷राजा का मित्र' की उपाधि देते हैं। (उसने उसे एक बैंगनी वस्त्र और सोने का मुकुट भी भेजा।) आप हमारा पक्ष लें और हमारे मित्र बने रहें।
21) एक सौ साठवें वर्ष के सातवें महीने में, शिविर-वर्ष के दिन, योनातान ने पवित्र वस्त्र धारण किया। उसने सेना इकट्ठी की और बहुत-से अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण किया।
22) देमेत्रियस ने जब यह सुना, तो उसने दुःखी हो कर कहा :
23) ''हमने यह क्यों होने दिया कि हमारे पहले ही सिकन्दर ने यहूदियों को अपना मित्र बना कर अपने पक्ष में कर लिया?
24) मैं अभी उनके नाम मैत्रीपूर्ण पत्र लिख कर उन्हें सम्मान और उपहार देने का आश्वासन दूँगा, जिससे वे मुझे अपना सहयोग दें।''
25) इसलिए उसने उन्हें इस प्रकार लिखा : ''राजा देमेत्रियस का यहूदी लोगों को नमस्कार।
26) हमने सुन रखा है कि आप हमारे साथ हुए समझौते की शर्तों पर कायम रहे, आपने मित्रता का निर्वाह किया और हमारे शत्रुओं का पक्ष नहीं लिया। हम इस से बहुत प्रसन्न हैं।
27) आगे भी आप इस तरह हमारे विश्वासी बने रहें। आप इस तरह हमारे लिए जो करेंगे, हम उपकारों द्वारा उसका बदला चुकायेंगे।
28) हम आप को कर में छूट और अन्य उपहार देंगे।
29) आज से मैं आप को स्वतन्त्र घोषित करता हूँ और सारे यहूदियों पर से व्यक्तिगत कर, नमक का महसूल और राज-उपहार हटा रहा हूँ।
30) उपज का एक तिहाई भाग और फलों को आधा भाग, जिस पर मेरा अधिकार था, आज से और आगे कभी आप से नहीं लिया जायेगा! यह बात यूदा तथा उन तीनों जनपदों पर भी लागू होगी, जो आज से सदा के लिए समारिया-गलीलिया से अलग कर यूदा में मिलाये जाते हैं।
31) येरुसालेम की पवित्रता बनी रहेगी और वह तथा उसकी सीमा में निवास करने वाले लोग दशमांश तथा करों से एकदम मुक्त रहेंगे।
32) मैं येरुसालेम के गढ़ पर अपने अधिकार का परित्याग कर रहा हूँ। वह उस में अपने चुने हुए सैनिकों को रखे, जो उसकी रक्षा करें।
33) मैं यूदा के सभी यहूदियों को बिना कुछ लिये मुक्त करता हूँ जो मेरे राज्य में कहीं भी युद्धबन्दी के रूप में रहते हैं। वे सभी अपने घर और अपने पशुओं पर लगाये हुए करों से मुक्त किये जाते हैं।
34) सभी महापर्वों, विश्राम-दिवसों, अमावस के दिनों तथा अन्य पर्वों में और महापवर्ोें के तीन दिन पहले और तीन दिन बाद तक मेरे राज्य के सभी यहूदी बेगार और चुंगी से मुक्त होंगे।
35) इन दिनों किसी को यह अधिकार नहीं होगा कि वह उन में किसी पर मुक़दमा चलाये या किसी कारण से उसे तंग करे।
36) यहूदियों के तीस हजार आदमी राजकीय सेना में भरती किये जायेंगे और जैसा अन्य सभी सैनिकों के लिए निर्धारित है, उन्हें भी वेतन दिया जायेगा।
37) उन में कई लोग प्रमुख राजकीय क़िलों में नियुक्त किये जायेंगे और अन्य लोगों को विश्वासिक राजकीय पद दिये जायेंगे। उनके अध्यक्ष और अधिकारी उन्हीं में से चुने जायेंगे और जैसा राजा ने यूदा के लिए निश्चित किया है, वे अपने रीति-रिवाजों का पालन भी कर सकेंगे।
38) समारिया से अलग कर यहूदिया में मिलाये हुए तीनों जनपद यहूदिया प्रान्त का भाग माने जायेंगे और उनका एक ही अध्यक्ष होगा, जिससे वे केवल प्रधान याजक के अधीन होंगे।
39) मैं पतोलेमाइस और उसके आसपास की भूमि येरुसालेम के मन्दिर को भेंट-स्वरूप दे रहा हूँ, जिससे मन्दिर के आवश्यक ख़र्च का प्रबन्ध हो।
40) मैं स्वयं उपयुक्त स्थानों से प्राप्त राजस्व में से प्रति वर्ष चाँदी के पन्द्रह हजार शेकेल दूँगा।
41) मन्दिर को जो वार्षिक चन्दा मिलना चाहिए और जिसे अधिकारियों ने पिछले वर्षों नहीं दिया, वह फिर चुकाया जायेगा।
42) इसके अतिरिक्त चाँदी के पाँच हजार शेकेल की वह राशि, जो प्रति वर्ष मन्दिर से प्राप्त होती थी, सेवा करने वाले याजकों को प्रदान की जायेगी।
43) जो लोग राज्य-ऋण या अन्य कारण से येरुसालेम के मन्दिर और उसके सारे क्षेत्र में शरण ले चुके हैं, वे और मेरे राज्य में होने वाली उनकी सम्पत्ति सुरक्षित रहेगी।
44) मन्दिर बनाने और उसकी मरम्मत करने में जो कुछ लगेगा, वह राजकीय कोष से दिया जायेगा।
45) येरुसालेम की चारदीवारी के निर्माण और क़िलाबन्दी में जो कुछ लगेगा, वह भी राजकीय कोष से दिया जायेगा। यही बात यहूदिया की चार दीवारियों पर भी लागू होगी।
46) जब योनातान और जनता ने ये बातें सुनीं, तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ। इसलिए उन्होंने इन्हें अस्वीकार कर दिया; क्योंकि वे यह नहीं भूले थे कि देमेत्रियस ने इस्राएल के साथ कैसा दुर्व्यवहार किया और उन्हें कितना सताया था।
47) उन्होंने सिकन्दर का पक्ष लेना अधिक उचित समझा, जिसने पहले मित्र होने का प्रस्ताव किया था और उन्होंने उसके जीवन भर उसका साथ दिया।
48) तब राजा सिकन्दर ने एक बड़ी सेना तैयार की और देमेत्रियस से युद्ध करने चला।
49) दोनों राजाओं की उड़ाई शुरू हो गयी। सिकन्दर की सेना भाग खड़ी हुई। देमेत्रियस ने उसका पीछा किया और उसे हरा दिया।
50) युद्ध सूर्यास्त तक चलता रहा, किन्तु अन्त में देमेत्रियस उसी दिन मारा गया।
51) इसके बाद सिकन्दर ने मिस्र के राजा पतोलेमेउस के पास दूतों द्वारा यह कहला भेजा :
52) ''मैं अपने राज्य लौट आया और मुझे अपने पूर्वजों को राजंिसहासन प्राप्त हो गया। देमेत्रियस को हरा कर मैं यहाँ का शासक बन गया हूँ और हमारा देश अब मेरे हाथ आ गया है।
53) मैंने उसके विरुद्ध युद्ध किया और वह अपनी सेना के साथ पराजित हो गया। इसके बाद मैं उसके राजंिसहासन पर बैठ गया।
54) आइए, जब हम एक दूसरे के मित्र बन जायें। आप अपनी पुत्री का मेरे साथ विवाह कर दें। मैं आपका दामाद बनने का इच्छुक हूँ। मैं आप को और उसे भी आपके योग्य उपहार दूँगा।
55) राजा पतोलेमेउस ने यह उत्तर भेजा : ''धन्य है यह दिन, जब आप अपने पूर्वजों के देश में लौट आये और उनके राज ंिसहासन पर बैठे!
56) आपने जो लिखा है, मैं अब वही करूँगा। किन्तु आप पतोलेमाइस तक आयें, जिससे हम एक दूसरे से मिलें और मैं आपका ससुर बनूँ, जैसा आपने कहा है।''
57) पतोलेमेउस एक सौ बासठवें वर्ष अपनी पुत्री क्लेओपात्रा के साथ मिस्र से रवाना हुआ और पतोलेमाइस आया।
58) राजा सिकन्दर ने उस से भेंट की और उसने उसे अपनी पुत्री क्लेओपात्रा को दे दिया। उसने पतोलेमाइस में, राजाओं की प्रथा के अनुसार, बड़ी धूमधाम से विवाहोत्सव मनाया।
59) राजा सिकन्दर ने योनातान को पत्र लिखा, जिससे वह उस से मिलने आये।
60) तब वह धूमधाम से पतोलेमाइस आया और दोनों राजाओं से मिला। उसने उन्हें और उनके मित्रों को चाँदी-सोना और बहुत सारे उपहार दिये और वह उनका कृपापात्र बन गया।
61) उस समय इस्राएल के कुछ नीच और धर्मत्यागी लोग राजा से योनातान की शिकायत करने आये; किन्तु राजा ने उन पर ध्यान नहीं दिया,
62) बल्कि उसने आज्ञा दी कि यानातान अपने वस्त्र उतार कर बैंगनी वस्त्र धारण करे। ऐसा ही हुआ।
63) राजा ने उसे अपने पास बिठाया और अपने पदाधिकारियों से कहा, ''इनके साथ नगर जाओ और वहाँ घोषणा करो कि कोई किसी मामले में इनकी शिकायत न करे और इन्हें किसी तरह कष्ट न पहंँुचाये''।
64) जब उन लोगों ने, जो उस पर अभियोग लगाना चाहते थे, यह देखा कि उसका सम्मान किया जा रहा है, उसके लिए यह घोषणा हो रही है और उसे बैंगनी वस्त्र पहनाया गया है, तो वे सब चले गये।
65) राजा ने उसे सम्मानित किया और उसका नाम अपने घनिष्ठ मित्रों की सूची में लिखवाया। उसने उसे सेनापति और राज्यपाल बना दिया।
66) इसके बाद योनातान शान्ति और आनन्द के साथ येरुसालेम लौट गया।
67) एक सौ पैंसठवें वर्ष में देमेत्रियस का पुत्र देमेत्रियस क्रेत से अपने पूर्वजों के देश आया।
68) जब राजा सिकन्दर ने यह सुना, तो उसे बड़ा दुःख हुआ और वह अन्ताकिया लौट आया।
69) देमेत्रियस ने अपल्लोनियस को केले-सीरिया का राज्यपाल नियुक्त किया। उसने एक विशाल सेना एकत्रित की और यमनिया के निकट पड़ाव डाला। तब उसने प्रधानयाजक योनातान को यह कहला भेजा :
70) केवल आप हमारा विरोध कर रहे हैं। आपके कारण लोग मेरा उपहास और मेरी निन्दा करते हैं। आप पहाड़ी प्रान्तों पर अधिकार कर हमारा विरोध क्यों करते हैं?
71) यदि आप को अपनी सेना का गर्व है, तो आप मैदान में उतर आईए वहीं हम दोनों की शक्ति की परीक्षा हो। नगरों की सेना मेरे पक्ष में है।
72) पता कीजिए, आप को स्वयं मालूम हो जायेगा कि मैं कौन हूँ और हमारे सहायक कौन हैं। आपको बताया जायेगा की आप हमारे सामने नहीं टिक सकते। आपके पूर्वज अपने देश में ही दो बार पराजित हो चुके हैं।
73) आप हमारे घुड़सवारों और विशाल सेना के सामने मैदान में टिक नहीं सकेंगे। वहाँ न पत्थर है, न कंकड़ और न कहीं ऐसा स्थान जहाँ कोई भाग कर शरण लें''।
74) अपल्लोनियस की यह बात सुन कर योनातान घबरा गया। उसने दस हजार आदमियों के साथ येरुसालेम से प्रस्थान किया। उसका भाई सिमोन भी उसकी सहायता के लिए उसके पास गया।
75) योनातान ने याफ़ा के पास पड़ाव डाला। नगरवासियों ने फाटक बन्द कर दिये, क्योंकि अपल्लोनियस का एक दल याफ़ा के भीतर था।
76) जब योनातान ने उस पर आक्रमण किया, तो नगरवासियों ने डर कर फ़ाटक खोल दिये और योनातान ने याफ़ा पर अधिकार कर लिया।
77) यह सुनकर अपल्लोनियस तीन हजार घुड़सवार और एक विशाल सेना ले कर अजोत की ओर चल पड़ा, किन्तु वह वास्तव में मैदान की ओर बढ़ना चाहता था; क्योंकि उसे अपने बहुसंख्यक घुड़सवारों का भरोसा था।
78) योनातान अजोत तक उसका पीछा करता रहा और वहाँ दोनों सेनाओं में युद्ध आरम्भ हो गया।
79) अपल्लोनियस ने एक हजार घुड़सवार मार्ग में छोड़ दिये, जिससे वे पीछे से योनातान पर आक्रमण करें।
80) योनातान को इस बात का पता चला। उसकी सेना घिर गयी और सबेरे से शाम तक उसके आदमी बाणों का शिकार बनते रहे।
81) फिर भी, जैसा योनातान ने आदेश दिया था, उसके आदमी डटे रहे। (शत्रु के) घोड़ें थकने लगे।
82) इसी बीच सिमोन भी अपनी सेना ले कर आ पहुँचा और उसने पैदल सैनिकों पर आक्रमण किया। घोड़े भी थक चुके थे। सिमोन ने शत्रुओं को हरा दिया और वे भाग खड़े हुए।
83) घुड़सवार मैदान में तितर-बितर हो गये। भागने वाले सैनिकों ने अजोत पहुँच कर अपने देवालय में शरण ली।
84) योनातान ने अजोत और उसके आसपास के नगरों में आग लगा दी और उन्हें लूटा। दागोन का मन्दिर और उसके शरणार्थी जल कर राख हो गये।
85) तलवार से मारे गये और जलने वाले लोगों की संख्या सब मिला कर लगभग आठ हजार थी।
86) योनातान ने यहाँ से आगे बढ़ कर अशकलोन के निकट पड़ाव डाला। नगर के लोग बड़ी धूम-धाम से उस से मिलने आये।
87) लूट के माल से लदा योनातान अपने लोगों के साथ येरुसालेम लौट आया।
88) जब राजा सिकन्दर ने यह बात सुनी, तो उसने योनातान को और सम्मान देने का विचार किया।
89) उसने उसे सोने का एक बकसुआ दिया, जो केवल राजकीय सम्बन्धियों को दिया जाता था। इसके अतिरिक्त उसने उसे अक्करोन और उसके आसपास का भूभाग व्यक्तिगत सम्पत्ति के रूप में दे दिया।

अध्याय 11

1) मिस्र के राजा ने एक विशाल सेना तैयार की, जो समुद्रतट के रेतकणों की तरह असंख्य थी और उसने बहुत-सी नावें भी तैयार की। उसने सोचा कि वह धोखे से सिकन्दर के राज्य पर अधिकार कर उसे अपने राज्य में मिला ले।
2) वह शान्ति की बातें करते हुए सीरिया गया। नगरों के निवासियों ने उसके लिए अपने फाटक खोले और उसका स्वागत किया; क्योंकि राजा सिकन्दर ने आज्ञा दी थी कि वे उसके ससुर के लिए ऐसा करें।
3) लेकिन पतोलेमेउस जिस किसी नगर में प्रवेश करता था, उस में अपना एक दल छोड़ देता।
4) जब वह अजोत के पास आया, लोगों ने उसे दागोन को जलाया हुआ मन्दिर दिखाया। उन्होंने अजोत और उसके आसपास के खँडहर और लोगों की वे अस्थियाँ दिखायीं, जो लड़ाई में जलायी गयी थीं; क्योंकि उन्होंने उसके रास्ते पर ही इनके ढेर लगा दिये थे।
5) लोगों ने योनातान की शिकायत करते हुए राजा को वह सब बताया, जो उसने किया था। किन्तु राजा मौन रहा।
6) योनातान राजा से मिलने बड़ी धूम-धाम से याफ़ा आया। उन्होंने एक दूसरे को नमस्कार किया और वहीं एक साथ रात बितायी।
7) योनातान राजा के साथ एलूथरस नदी के पास तब गया और उसके बाद येरुसालेम लौट गया।
8) राजा पतोलेमेउस ने मन में सिकन्दर के विरुद्ध षड्यन्त्र रच कर सिलूकिया तक समुद्रतट के सब नगरों पर अधिकार कर लिया।
9) उसने दूतों द्वारा राजा देमेत्रियस को यह कहला भेजाः ''आइए, हम परस्पर सन्धि कर लें। मैं अपनी पुत्री आप को दे दूँगा, जो सिकन्दर की पत्नी है और आप अपने पिता के राज्य के राजा बन जायेंगे।
10) मुझे दुःख है कि मैंने उसे अपनी पुत्री दी। उसने मेरा वध करना चाहा।
11) उसने सिकन्दर पर यह अभियोग लगाया, क्योंकि वह उसका राज्य छीनना चाहता था।
12) उसने उस से अपनी पुत्री वापस ले ली और उसे देमेत्रियस को दे दिया। उसने सिकन्दर से अपनी मित्रता भंग कर दी और दोनों की शत्रुता स्पष्ट हो गयी।
13) पतोलेमेउस ने अन्ताकिया में प्रवेश कर एशिया का राजमुकुट अपने सिर पर धारण किया। इस तरह उसने दो मुकुट धारण कर लिये - एक मिस्र का और दूसरा एशिया का।
14) उन दिनों राजा सिकन्दर किलीकिया में था, क्योंकि उस प्रदेश के लोगों ने विद्रोह किया था।
15) सिकन्दर को जैसे ही यह पता चला, वह उसके विरुद्ध लड़ने चला। पतोलेमेउस ने एक विशाल सेना के साथ उसका सामना किया और उसे भगा दिया।
16) सिकन्दर शरण के लिए अरब भागा और पतोलेमेउस पूर्ण रूप से विजयी हुआ।
17) अरबी जब्दीएल ने सिकन्दर का सिर कटवा कर उसे पतोलेमेउस के पास भेज दिया।
18) इसके तीसरे ही दिन राजा पतोलेमेउस की भी मृत्यु हो गयी और उसने जो दल किलाबन्द नगरों में रख छोड़े थे, वहाँ के निवासियों ने उनकी हत्या कर दी।
19) देमेत्रियस एक सौ सड़सठवें वर्ष राजा बना।
20) उन्हीं दिनों योनातान ने येरुसालेम पर अधिकार करने के लिए यहूदिया के लोगों को इकट्ठा किया। उसने उसके विरुद्ध बहुत सारे युद्ध-यन्त्रों का निर्माण किया।
21) इस पर कुछ धर्मत्यागी यहूदी, जो अपनी जाति से बैर रखते थे, राजा के पास गये और उसे से बोले कि योनातान ने गढ़ को घेर लिया है।
22) यह सुनकर राजा क्रुद्ध हुआ और शीघ्र ही चलकर पतोलेमाइस आ पहंँुचा। उसने चिट्ठी भेज कर योनातान को आदेश दिया कि वह घेरा उठा कर जितनी जल्दी हो सके, उस से मिलने पतोलेमाइस आये।
23) योनातान ने यह सुन कर भी घेरा बनाये रखने को कहा और इस्राएल के कुछ नेताओं और याजकों को ले कर स्वयं जोखिम का सामना करने गया।
24) वह उपहार के रूप में चाँदी-सोना, वस्त्र और अन्य बहुत-सी चीजें ले कर राजा के पास पतोलेमाइस गया। इस प्रकार वह उसका कृपापात्र बन गया।
25) तब कुछ धर्मत्यागी यहूदी उस पर अभियोग करने आये,
26) किन्तु राजा ने अपने पहले के शासकों की तरह अपने सभी मित्रों के सामने योनातान का सम्मान किया।
27) उसने प्रधानयाजक के पद पर उसकी नियुक्ति की पुष्टि की, जो उपाधियाँ उसे प्राप्त हो चुकी थीं, उन्हें फिर प्रदान किया और उसका नाम अपने घनिष्ट मित्रों की सूची में लिखवाया।
28) योनातान ने राजा से निवेदन किया कि वह यहूदिया और समारिया के तीन जनपदों को कर-मुक्त कर दे और उस से प्रतिज्ञा की कि वह उसे तीन मन (द्रव्य) दिया करेगा।
29) राजा ने यह सब स्वीकार कर लिया और योनातान को इस सम्बन्ध में यह पत्र दिया :
30) भाई योनातान और यहूदियों को राजा देमेत्रियस का नमस्कार।
31) हमने आप लोगों के विषय में अपने सम्बन्धी लस्थेनस को जो पत्र भेजा है, जिससे आप उसकी जानकारी प्राप्त करें :
32) पिता लस्थेनस को राजा देमेत्रियस का प्रणाम।
33) यहूदी हमारे साथ मित्रता रखते हैं और वे आज तक हमारे अधिकारों की रक्षा करते आ रहे हैं। इसलिए हमने निश्चय किया है कि हमारे प्रति उनका जो सद्भाव है, हम उनका मूल्य चुकायें।
34) हमने उन्हें यहूदिया प्रान्त दिया हैं; साथ ही एफ्रईम, लिद्दा और रामतईम के तीनों जनपद और उनके निकटवर्ती भाग समारिया से अलग कर यहूदिया प्रान्त में येरुसालेम के याजकों के लिए मिला दिये जाते हैं। ये जनपद उन्हें अपनी भूमि और अपने फलों की उपज पर परम्परागत वार्षिक राज-कर के बदले में दिये जाते हैं।
35) अन्य सभी दशमांश और कर, नमक का महसूल, राज-उपहार-इन सब से उन्हें मुक्त किया जाता है।
36) इस में आज से कभी भी कोई परिवर्तन नहीं होगा।
37) इस पत्र की एक प्रतिलिपि तैयार करा कर योनातान को दे दें, जिससे वह पवित्र पर्वत के किसी सार्वजनिक स्थान पर रखा जायें।
38) जब राजा देमेत्रियस ने देखा कि उसके शासन में अब देश में शान्ति है और कोई उसका विरोध नहीं कर रहा है, तो उसने उन ग़ैर-यहूदियों के सिवा, जिन्हें उसने द्वीपों से ला कर भरती किया था, अपनी सारी सेना को सेवा से मुक्त कर, सभी को अपने-अपने घर जाने को कहा। इस से उसके पूर्वजों के सभी सैनिक उस से बैर करने लगे।
39) जब त्रिफ़ोन ने, जो सिकन्दर का पक्षधर, रह चुका था, यह देखा कि सभी सैनिक देमेत्रियस के विरुद्ध भुनभुना रहे हैं, तो वह अरबी इमलकुए के पास गया, जो सिकन्दर के पुत्र कुमार अन्तियोख को दीक्षा दे रहा था।
40) उस ने उसे अनुरोध किया कि वह उसे उस लड़के को दे दे, जिससे वह अपने पिता की जगह राजा बने। उसने उसे यह सब बताया कि देमेत्रियस ने क्या-क्या किया और यह भी कि सैनिक उस से कैसे बैर करते थे। वह बहुत दिनों तक रुका रहा।
41) इस बीच योनातान ने राजा देमेत्रियस से निवेदन किया कि वह येरुसालेम के गढ़ और अन्य किलाबन्द नगरों से अपने सैनिक हटा लें; क्योंकि वे इस्राएल के विरुद्ध लड़ते थे।
42) देमेत्रियस ने योनातान को कहला भेजाः ''मैं आप और आपकी जाति के लिए न केवल यह करूँगा, बल्कि उचित अवसर आने पर आपका और आपकी जाति का सम्मान करूँगा।
43) किन्तु इस समय आप ऐसे सैनिक भेजें, जो मेरी ओर से युद्ध करें, क्योंकि मेरी सारी सेना मेरे विरुद्ध हो गयी है''
44) इसलिए योनातान ने तीन हजार युद्धकुशल आदमियों को अन्ताकिया भेजा। जब वे राजा के पास पहुँचे, तो राजा बहुत प्रसन्न हुआ।
45) लेकिन नगर के एक लाख बीस हजार पुरुष राजा का वध करने के लिए जमा हो गये।
46) राजा ने अपने महल में शरण ली और नगरवासी गलियों पर अधिकार कर लड़ने लगे।
47) राजा ने यहूदियों को सहायता के लिए बुलाया। वे सब उसके पास आये और पूरे नगर में चारों और फैल गये। उन्होंने उसी दिन एक लाख आदमियों का वध किया।
48) उन्होंने उसी दिन पूरा नगर लूटा और उस में आग लगा दी। इस प्रकार उन्होंने राजा की रक्षा की।
49) जब नगरवासियों ने देखा कि नगर पर यहूदियों का अधिकार हो गया और अब वे जैसा चाहें, वैसा कर सकते हैं, तो उनका साहस टूट गया और उन्होंने राजा से दया की याचना की। उन्होंने कहा,
50) ''अपना दाहिना हाथ बढ़ा कर हमारी सहायता कीजिए। यहूदी हमसे और हमारे नगर से लड़ना बन्द करें।''
51) उन्होंने अपने शस्त्र डाल कर सन्धि कर ली। राजा और उसके राज्य के सभी लोगों की ओर से यहूदियों का बड़ा सम्मान किया गया और वे लूट से लद कर येरुसालेम लौट गये।
52) जब राजा देमेत्रियस राजसिंहासन पर फिर बैठ गया और देश भर में शान्ति हो गयी,
53) तो उसने अपना वचन भंग कर दिया और योनातान के प्रति उसका रुख़ बदल गया। उसने उसके किये हुए उपकारों का प्रतिदान नहीं दिया और उसे बहुत तंग करने लगा।
54) इन घटनोओं के बाद त्रीफ़ोन अन्तियोख के साथ लौटा, जो अभी बहुत छोटा था। उसने उसे राजा बनाया और उसके सिर पर राजमुकुट पहना दिया।
55) उसके पास वे सभी सैनिक आये, जिन्हें देमेत्रियस ने निकाल दिया था और उसके विरुद्ध लड़ने लगे। देमेत्रियस पराजित हो कर भाग निकला।
56) त्रीफ़ोन ने हाथियों को अपने अधिकार में किया और अन्ताकिया को जीता।
57) तब कुमार अन्तियोख ने योनातान को यह लिख : ''मैं आप को प्रधानयाजकीय पद पर स्थायी करता, चारों जनपदों पर नियुक्त करता और आप को राजा के मित्रों में सम्मिलित करता हूँ''।
58) उसने उसे खाने-पीने के लिए सोने के बरतन और सोने के पात्र भेजे तथा उसे सोने के पात्रों में पीने, बैंगनी वस्त्र पहनने और सोने का बकसुआ लगाने की अनुमति दी।
59) उसने उसके भाई सिमोन को तीरुस की निसेनी से ले कर मिस्र की सीमा तक के देश का सेनापति नियुक्त किया।
60) इसके बाद योनातान ने चल कर नदी के पार के प्रदेश और उसके नगरों का भ्रमण किया। सीरिया की सारी सेना उसकी सहायता करने आयी। वह अश्कलोन आया, तो नागरिकों ने उसका सादर स्वागत किया।
61) वह वहाँ से आगे गाजा तक गया, लेकिन गाजावासियों ने फाटक नहीं खोले। इसलिए उसने नगर को घेर लिया, उसके आसपास की जगहों को लूटा और उसके बाद उन में आग लगा दी।
62) गाजावासियों ने योनातान से प्रार्थना की और उसने उन से सन्धि कर ली। उसने उनके कुलीन पुत्रों को बन्धक के रूप में ले लिया और उन्हें येरुसालेम भेजा। इसके बाद उसने दमिश्क तक उस क्षेत्र का भ्रमण किया।
63) योनातान ने सुना कि देमेत्रियस के सेनापति एक बड़ी सेना के साथ गलीलिया के देश तक आ गये हैं और उसे अपदस्थ करना चाहते हैं।
64) वह अपने भाई सिमोन को अपने देश में छोड़ कर उनका सामना करने चला।
65) सिमोन ने बेत-सूर के पास पड़ाव डाला था। वह बहुत दिनों तक उसके साथ लड़ता रहा और उसे घेर लिया।
66) अन्त में वहाँ के निवासी उसकी अधीनता स्वीकार करने को तैयार हो गये और उसने उन से सन्धि कर ली। उसने उन्हें नगर से निकाल कर उस पर अधिकार कर लिया और उस में एक रक्षक-सेना को छोड़ रखा।
67) योनातान अपनी सेना के साथ गन्नेसरेत सागर के किनारे पड़ाव डालने के बाद मुँह-अँधेरे हासोर के मैदान में पहुँचा।
68) तभी गैर-यहूदियों की सेना उन्हें मैदान में दिखाई पड़ी। उन्होंने पहाड़ियों की ओट में कुछ सैनिक घात में बिठा रखे थे।
69) जब योनातान ने सेना का सामना किया, तो जो घात में बैठे थे, वे निकल पड़े और उस पर आक्रमण करने लगे।
70) योनातान के सभी सैनिक भाग खड़े हुए। अबसालोम के पुत्र मत्तथ्या और ख़ल्फ़ी के पुत्र यूदा के सिवा जो सेनापति थे, उन में एक भी पीछे नहीं रहा।
71) योनातान ने अपने कपड़े फाड़ दिये, सिर पर राख डाल और प्रार्थना की।
72) इसके बाद वह लड़ाई में कूद पड़ा। शत्रु पीछे हटने और भागने लगे।
73) जब उसके आदमियों ने, जो भाग रहे थे, यह देखा, तो वे फिर उसके पास लौट आये और शत्रुओं को केदेश के उनके पड़ाव तक खदेड़ ले गये। उन्होंने वहाँ पड़ाव डाला।
74) उस दिन लगभग तीन हजार गैर-यहूदी सैनिक मारे गये। इसके बाद योनातान येरुसालेम लौट आया।

अध्याय 12

1) योनातान ने देखा कि स्थिति उसके अनुकूल है; इसलिए उसने कुछ लोगों को चुन कर रोम भेजा, जिससे वह रोमियों के साथ मित्रता का संबंध फिर स्थापित करे।
2) उसने स्पार्तावासियों और अन्य स्थानों के लोगों को इस आशय से पत्र भेजे।
3) वे रोम आये और वहाँ उन्होंने परिषद् में यह कहा, ''प्रधानयाजक योनातान और यहूदी लोगों ने हमें आपके पास भेजा हैं, जिससे हम आपके साथ मित्रता का संबन्ध फिर स्थापित करें और सन्धि करें''।
4) परिषद् ने उन्हें हर प्रदेश के अधिकारियों के नाम पत्र दिये, जिससे वे सकुशल यूदा पहुँचने में उसकी सहायता करें।
5) योनातान ने स्पार्तावासियों के नाम जो पत्र लिखा, उसकी प्रतिलिप इस प्रकार है :
6) ''प्रधानयाजक योनातान, यहूदी परिषद, याजकों और यहूदी प्रजा का स्पार्ता के भाइयों को नमस्कार।
7) आज से पहले भी आप लोगों के राजा अरीयस ने प्रधानयाजक ओनियस को पत्र भेजा, जिसकी प्रतिलिपि इस पत्र के साथ-साथ भेजी जा रही है।
8) ओनियस ने उस दूत का सादर स्वागत किया था। उस से वह पत्र मिला था, जिस में संधि और मित्रता का प्रस्ताव किया गया था।
9) यह सच है कि हमें इस प्रकार के संबंध की आवश्यकता नहीं हैं, क्योंकि हमारे हाथ में जो धर्मग्रंथ विद्यमान हैं, उस में हमें सान्त्वा मिलती है।
10) फिर भी हमने दूत भेज कर संधि और मित्रता फिर स्थापित करने का प्रयत्न किया, जिससे हम आपकी दृष्टि में पराये न हो जायें; क्योंकि आपके पिछले पत्र के बाद बहुत समय बीत गया है।
11) हम महापवोर्ं और अन्य निश्चित दिवसों पर अपने बलिदानों और प्रार्थनाओं में सदा आप लोगों को याद करते हैं, जैसे अपने भाइयों का स्मरण करना उचित और आवश्यक है।
12) हमें आपकी महिमा का गर्व है।
13) इस बीच हमारे बुरे दिन आये; हम पर अनेक आक्रमण हुए और हमारे पड़ोसी राजाओं ने हम से युद्ध किया।
14) लेकिन इन लडाइयों में हमने अपने संधिबद्ध मित्रों को कष्ट नहीं देना चाहा;
15) क्योंकि हमारी सहायता का स्रोत ईश्वर था, वहीं से हमें सहायता मिलती रही। अब हम अपने शत्रुओं से मुक्त हो गये। हमारे शत्रुओं को नीचा दिखाया गया।
16) इसलिए हम अंतियोख के पुत्र नूमेनियस और यासोन के पुत्र अंतीपातेर को चुन कर रोमियों के यहाँ भेज रहे हैं, जिससे वे वहाँ जा कर उनके साथ संधि और मित्रता का संबंध पहले की तरह स्थापित करें।
17) हमने उन्हें आदेश दिया है कि वे आप लोगों के पास भी जायें, आप को नमस्कार करें और हमारा पत्र आप को दें, जिस में सन्धि के नवीनीकरण और मित्रता का संबंध फिर स्थापित करने का प्रस्ताव हैं।
18) आप इसका उत्तर देने की कृपा करें।''
19) उन्होंने जो पत्र ओनियस को भेजा, उसकी प्रतिलिपि इस प्रकार है :
20) ''स्पार्तावासियों के राजा अरीयस का महायजक ओनियस को प्रमाण।
21) स्पार्तावासियों और यहूदियों के संबंध में एक अभिलेख से मालूम होता हैं कि दोनों भाई हैं और दोनों इब्राहीम के वंशज हैं।
22) जब हम लोग यह जानते हैं, तो आपकी हम पर बड़ी कृपा होगी, यदि आप अपने कुशल-क्षेम के विषय में हमें पत्र देंगे।
23) हम आप से यह कहते है कि आपके पशु और आपकी संपत्ति हमारी है और जो कुछ हमारा है, वह आपका है। हम यह आदेश देते हैं कि आप को इसकी सूचना दी जाये।''
24) योनातान ने सुना कि देमेत्रियस के सेनापति पहले से भी बड़ी सेना ले कर उस से लडने आ रहे हैं।
25) इस पर वह येरुसालेम से चल पड़ा और हमात प्रदेश में उनका सामना करने गया। वह उन्हें अपने देश में पैर रखने का अवसर नहीं देना चाहता था।
26) उसने उनके पड़ाव में गुप्तचर भेजा, जिन्होंने लौट कर बताया कि वे यहूदियों पर इसी रात आक्रमण करने की तैयारियाँ कर रहे हैं।
27) योनातान ने सूर्यास्त के बाद अपने आदमियों को आदेश दिया कि वे जगे रहें और सारी रात अस्त्र-शस्त्र से लैस लडने को तैयार बैठे रहें। उसने पड़ाव के आसपास पहरे बिठा दिये।
28) जब शत्रुओं ने देखा कि योनातान और उसके आदमी युद्ध के लिए तैयार हैं, तो वे भयभीत और निरुत्साह हो गये और उन्होंने अपने पड़ाव में जगह-जगह आग जलायी।
29) योनातान और उसके आदमियों को सबेरे तक यह पता नहीं चला कि शत्रु खिसक गये हैं; क्योंकि वे आग जलते देखते रहें।
30) योनातान ने उनका पीछा किया, किंतु वह उन्हें पकड नहीं पाया; क्योंकि वे एलूथरस नदी के पार जा चुके थे।
31) इसलिए योनातान उन अरबों की ओर चल पडा, जो जबादी कहलाते हैं। उसने उन्हें हरा दिया और लूटा।
32) वह पड़ाव उठा कर दमिश्क पहुँचा और उसने उस समस्त प्रदेश का भ्रमण किया।
33) उधर सिमोन भी चल कर अशकलोन और उसके आसपास के गढों तक आ पहुँचा था। फिर उसने याफ़ा की ओर मुड कर उस पर अधिकार कर लिया;
34) क्योंकि उसने यह सुना था कि वहाँ के निवासी वह गढ देमेत्रियस के लोगों को देना चाहते हैं। इसलिए उसने उसकी रक्षा करने के लिए वहाँ एक सेना-दल रख दिया।
35) योनातान ने लौट कर जनता के नेताओं की एक सभा बुलायी और यह निश्चय किया कि यहूदिया के गढ़ों का पुनर्निर्माण किया जाये,
36) येरुसालेम की दीवार और ऊँची कर दी जाये तथा गढ़ और नगर के बीच एक बड़ी ऊँची दीवार उठायी जाये, जिससे गढ़ नगर से एकदम अलग हो जाये, और वहाँ बसने वाले लोग नगर में न कुछ खरीद सकें और न बेच सकें।
37) उन्होंने मिल कर नगर का पुनर्निर्माण किया, क्योंकि नाले वाली दीवार का, जो पूर्व की ओर थी, एक भाग गिर गया था। उसने खफेनाथा नाम के मुहल्ले की भी मरम्मत करायी।
38) सिमोन ने भी निचले प्रदेश के अदीदा का निर्माण किया और उस सुदृढ़ बनाया उसने उस में फाटक और अर्गलाएँ लगायीं।
39) त्रीफ़ोन एशिया का राजा बनना, अपने सिर पर मुकुट पहनना और राजा अन्तियोख का वध करना चाहता था।
40) किन्तु यह सोच कर कि योनातान उसे ऐसा नहीं करने देगा और सम्भवतः उसके विरुद्ध युद्ध करेगा उसने उसे बन्दी बनाने और उसे मार डालने की योजना बनायी। इसलिए वह चल कर बेत-शान आ पहुँचा।
41) योनातान उसका सामना करने के लिए चालीस हजार चुने हुए योद्धा ले कर बेत-शान गया।
42) त्रीफोन ने जब देखा कि वह इतनी बड़ी सेना ले कर उस से मिलने आया है, तो उसे उस पर आक्रमण करने का संकोच हुआ।
43) त्रीफ़ोन ने उसका आदरपूर्वक स्वागत किया, अपने मित्रों से उसका परिचय कराया, उसे उपहार दिये और अपने सभी मित्रों एवं अपनी सेना को आदेश दिया, ''तुम लोग मेरी बात की तरह योनातान की बात भी मानो।''
44) उसने योनातान से कहा, ''आपने इतने लोगों को क्यों कष्ट दिया, जब कि हम दोनों में कोई युद्ध नहीं है?
45) लोगों को अपने-अपने घर भेज दें। अपना साथ देने के लिए कुछ आदमी चुन लें और मेरे साथ पतोलेमाइस चले। मैं वह नगर और अन्य गढ़, शेष सैनिक और सभी पदाधिकारी आपके हाथ दूँगा और इसके बाद मैं घर लौट जाऊँगा। मैं तो इसलिए यहाँ आया ही हँू।''
46) योनातान ने उस पर विश्वास कर लिया और जैसा उसने कहा था, वैसा ही किया। उसने अपने सैनिकों को चले जाने का आदेश दिया कि वे यूदा देश लौट जायें
47) उसने केवल तीन हजार आदमियों को अपने पास रखा। उसने उन मे दो हजार को गलीलिया में रखने का निश्चिय किया और एक हजार को अपने साथ ले जाने का।
48) योनातान ने जैसे ही पतोलेमाइस में प्रवेश किया, पतोलेमाइसवासियों ने फाटक बंद कर दिये। उन्होंने उसे पकड़ लिया और उन सब को तलवार के घाट उतार दिया, जो उसके साथ अंदर आये थे।
49) इसके बाद त्रीफोन ने सैनिकों और घुडसवारों को गलीलिया और बड़े मैदान की ओर भेजा, जिससे वे वहाँ योनातान के सब आदमियों का विनाश कर दें
50) उधर उन लोगों ने यह सुना कि योनातान बंदी बना लिया गया हैं और अपने आदमियों के साथ उसका वध कर दिया गया है। तब वे एक दूसरे को प्रोत्साहन देते हुए शत्रु का सामना करने के लिए पंक्तिबद्ध खडे हो गये।
51) जिन्होंने उनका पीछा किया, वे यह देख कर लौट गये कि यहूदी अपनी प्राण-रक्षा के लिए लड़ने के लिए तैयार हैं।
52) इस प्रकार सभी यहूदी सकुशल यूदा लौट आये। उन्होंने योनातान और उसके आदमियों के लिए विलाप किया। वे बहुत भयभीत थे। समस्त इस्राएल ने महान् शोक मनाया।
53) आसपास जितनी अन्य जातियाँ थीं, वे सब यहूदियों का विनाश करना चाहती थीं।
54) वे कहती थीं ''उसका न तो कोई नेता हैं और न कोई सहायक। अब हम उन से लडेंगी और मनुष्यों बीच से उनका नाम तक मिटा देंगी।''

अध्याय 13

1) सिमोन ने सुना कि त्रीफोन ने एक भारी सेना एकत्रित कर रखी है, जिससे वह यूदा का विनाश करने वहाँ जाये।
2) जब सिमोन ने यह देखा कि लोग भयभीत है, तो वह येरुसालेम गया।
3) और उसने लोगों को सान्त्वना दे कर उन से कहा, ''आप जानते हैं कि मैंने, मेरे भाइयों और मेरे कुटुम्बियों ने संहिता और मन्दिर की रक्षा के लिए क्या-क्या किया, कितना संघर्ष किया और कितने कष्ट झेले।
4) इस्राएल के नाम पर मेरे सब भाइयों ने अपने प्राण न्योछावर किये। अब अकेले मैं ही जीवित हूँ
5) लेकिन इस विपत्ति के समय अपने प्राण बचाने का विचार मुझ से कोसों दूर है। मैं अपने भाइयों से बढ़ कर नहीं हूँ।
6) मैं अपनी जाति, मन्दिर, आपकी पत्नियों और सन्तान का बदला चुकाऊँगा; क्योंकि सभी गैर-यहूदी जातियाँ हम से बैर रखती और हमारा विनाश करने एकत्र हो गयी हैं।''
7) ये बातें सुन कर लोगों में नया जीवन आ गया।
8) उन्होंने ऊँचे स्वर में कहा, ''अब यूदाह और अपने भाई योनातान की जगह आप हमारे नेता बनें।
9) आप हमारी ओर से युद्ध करें। आप जो कुछ कहेंगे हम वह करने को तैयार रहेंगे।''
10) इसके बाद उसने सभी युद्धकुशल लोगों को एकत्रित किया, शीघ्र ही येरुसालेम की दीवारें बनवायीं और नगर को चारों ओर से सुदृढ़ किया।
11) उसने अबसालोम के पुत्र योनातान को पर्याप्त सेना के साथ याफ़ा भेजा। वह वहाँ के निवासियों को भगा कर स्वयं वहाँ रह गया।
12) तब त्रीफोन एक बड़ी सेना ले कर पतोलेमाइस से यूदा देश की ओर चल दिया। योनातान भी बन्दी के रूप में उसके साथ था।
13) इधर सिमोन मैदान के एक छोर पर अदीदा में पड़ा था।
14) जब त्रीफोन ने सुना कि सिमोन ने अपने भाई योनातान का स्थान ले लिया और वह उस से लड़ने को तैयार है, तो उसने दूत भेज कर उसे
15) कहलवाया; ''मैंने योनातान को बन्दी बना कर इसलिए रखा है कि अब तक उसने अपने पदों का राज-कर नहीं चुकाया।
16) यदि आप एक सौ मन चाँदी और बन्धक के रूप में उसके दो पुत्रों को भेंजे, जिससे वह मुक्त होने पर हमारा शत्रु न बने, तो हम उसे छोड़ देंगे।''
17) यद्यपि सिमोन को एक कपटपूर्ण सन्देश पर विश्वास नहीं था, फिर भी उसने यह बात मान ली और चाँदी तथा बच्चों को ले आने का आदेश दिया, जिससे उसके अपने लोग उस से बैर न करने लगें
18) और उन्हें यह कहने का अवसर न मिले, ''उसने चाँदी और बच्चों को नहीं भेजा, इसलिए योनातान का विनाश हो गया''।
19) इसलिए उसने बच्चों को और एक सौ मन चाँदी भेजी, लेकिन त्रीफोन ने धोखा दिया। उसने योनातान को मुक्त नहीं किया।
20) इसके बाद त्रीफोन ने देश का विनाश करने के लिए उस पर आक्रमण कर दिया। वह चक्कर लगा कर अदोरा की ओर बढ़ा। वह जहाँ-जहाँ जाता था, सिमोन और उसकी सारी सेना वहाँ-वहाँ उसका सामना करती।
21) येरुसालेम के गढ़ के लोगों ने त्रीफोन के पास आदमी भेज कर कहलवाया कि वह उजाड़खण्ड के मार्ग से जल्दी ही आ जाये और उनके लिए खाद्य-सामग्री भेंजे।
22) त्रीफोन ने वहाँ जाने के लिए सब घुडसवार तैयार कर लिये, किंतु उस रात इतनी बर्फ गिरी कि वे वहाँ नहीं जा सके। तब वह पडाव उठा कर गिलआद गया।
23) जब वह बसकामा के निकट पहुँचा, तो उसने योनातान का वध कराया और वह वहीं दफनाया गया।
24) इसके बाद त्रीफोन मुड कर अपने देश रवाना हुआ।
25) सिमोन ने आदमी भेज कर अपने भाई योनातान की अस्थियाँ मँगवायीं और उन्हें अपने पिता के नगर मोदीन में दफना दिया।
26) उसके लिए सभी इस्राएलियों ने बड़ा भारी शोक मनाया और वे उसके लिये बहुत दिन तक विलाप करते रहें।
27) सिमोन ने अपने पिता और अपने भाइयों की कब्रों पर एक मकबरा बनवाया, जिसके पीछे और सामने के पत्थर चमकदार थे और वह इतना ऊँचा था कि वह बहुत दूर से दिखाई देता था।
28) उसने अपने पिता, अपनी माता और अपने चार भाइयों के नाम पर एक पंक्ति में सात स्तूप बनवाये।
29) उसने कलात्मक ढंग से उन स्तूपों के चारों ओर ऊँचे स्तम्भ बनवाये और मृतकों की चिरस्थायी स्मृति के लिए उन स्तम्भों पर अस्त्र-शस्त्र और पोत खुदवाये, जिससे समुद्र की यात्रा करने वाले लोग उनके दर्शन करें।
30) वह मकबरा, जिसे उसने मोदीन में बनवाया था, आज भी वहाँ विद्यमान हैं।
31) त्रीफोन ने राजा अंतियोख को, जो अभी वयस्क नहीं था, धोखा दे कर मरवा डाला।
32) और उसके स्थान पर स्वयं राजा बन गया। इस तरह उसके एशिया का मुकुट अपने सिर पर धारण किया और देश पर भारी आपत्तियाँ ढाहीं।
33) इधर सिमोन ने यहूदिया के गढ़ों का पुनर्निर्माण किया और उन्हें बुजोर्ं, बड़ी दीवारों और अर्गलाएँ लगे फाटकों से घिरवा दिया। उसने उन गढ़ों में खाद्य-सामग्री रखवायी।
34) इसके बाद सिमोन ने आदमी चुन कर राजा देमेत्रियस से यह निवेदन करने को भेजा कि वह यहूदिया को कर में छूट दिलायें, क्योंकि त्रीफोन देश को लूटता रहा था।
35) देमेत्रियस ने उसे अनुकूल उत्तर दिया और उसके नाम यह पत्र लिखा :
36) ''राजाओ के मित्र प्रधानयाजक सिमोन, यहूदियों के नेताओं और जनता को राजा देमेत्रियस का नमस्कार।
37) आप लोगों ने जो सोने का मुकुट और खजूर की डाली हमें भेजी है, वह हमें मिल गयी है। हम आपके साथ स्थायी शांति की संधि करने और आप को छूट देने के लिए अपने पदाधिकारियों को लिखने को तैयार हैं।
38) हम आप लोगों को जो छूट दे चुके हैं, वह वैसी ही रहेगी। आप लोगों ने जो गढ बनवाये हैं, उन पर आप लोगों का अधिकार रहेगा।
39) यदि आपने आज तक किसी बात में ढिलाई की हो या आप से कोई भूल हो गयी हो और आपने राज-उपहार नहीं भेजा हो, तो हम उन सब की माफी देते हैं। यदि येरुसालेम में और कोई लगान वसूल किया जा रहा हो, तो वह आगे नहीं लिया जायेगा।
40) यदि आपके बीच ऐसे व्यक्ति हों, जो हमारे अंगरक्षक बनने के योग्य हैं, तो वे भरती होने के लिए आयें। हमारे और आप लोगों के बीच शांति बनी रहे।''
41) एक सौ सत्तरवें वर्ष यहूदियों पर से अन्य जातियों का जूआ उठा लिया गया।
42) उस समय से लोगों ने लेखों में इस प्रकार लिखना शुरू कर दियाः 'यहूदियों के सर्वश्रेष्ठ प्रधानयाजक, सेनापति और शासक सिमोन के पहले वर्ष में''
43) उस समय सिमोन ने गेजेर के विरुद्ध प्रस्थान किया और उसे अपनी सेना से घेर लिया। उसने एक युद्ध-यंत्र बनवा कर उसे नगर की दीवार से सटा कर खड़ा कर दिया, एक बुर्ज पर आक्रमण किया और उसे अपने अधिकार में किया।
44) जब उस यंत्र से आदमी नगर में घुसे, तो नगर में भारी कोलाहल मचा।
45) नगरवासी स्त्रियों और बच्चों को ले कर दीवार पर चढ़ गये, अपने कपडे फाड़ने लगे और ऊँचे स्वरों में सिमोन से निवेदन करने लगे कि वह उन पर दया करें।
46) उन्होंने कहा, ''आप हमारी दृष्टता के अनुसार नहीं, बल्कि अपनी दया के अनुसार हमारे साथ व्यवहार करे''।
47) सिमोन ने उस की बात मान ली और उन पर आक्रमण नहीं किया। किंतु उसने उन्हें नगर से भगा दिया और उन घरों का शुद्धीकरण करवाया, जिन में देवमूर्तियाँ थीं। फिर उसने भजन और धन्यवाद के गीत गाते हुए नगर में प्रवेश किया।
48) उसने नगर से सारी अपवित्र वस्तुएँ हटा दीं और उस में ऐसे आदमी बसाये, जो संहिता का पालन करते थे। फिर उसने उसे किलाबंद किया और वहाँ अपने लिए एक आवास बनवाया।
49) येरुसालेम के गढ़ में पडे हुए लोगों को देहात में आने-जाने और खरीद-बिक्री करने से रोका जाता था। उन्हें इतनी तकलीफ होने लगी कि उन में कई लोग भूखों मर गये।
50) इसलिए उन्होंने सिमोन से शांति का निवेदन किया और उसने उनकी बात मान ली। उसने उन्हें गढ़ से निकाल दिया और मूर्तिपूजा के दूषण से गढ़ का शुद्धीकरण किया।
51) उन्होंने एक सौ इकहत्तरवें वर्ष, इस वर्ष के दूसरे महीने के तेईसवें दिन स्तुतिगान करते, हाथ में खजूर की डालियाँ लिये, सितार, मंजीरा और वीणा बजाते हुए, स्तोत्र और भजन गाते हुए उस में प्रवेश किया; क्योंकि इस्राएल से एक विकट शत्रु को नष्ट कर दिया गया था।
52) सिमोन ने प्रति वर्ष उल्लास के साथ यह दिन मनाने का आदेश दिया। उसने पर्वत का वह भाग, जिस पर मन्दिर अवस्थित था और जो गढ़ से सटा हुआ था, पूरी तरह सुदृढ कर दिया और वहीं अपने लोगों के साथ रहने लगा।
53) जब सिमोन ने देखा कि अब उसका पुत्र योहन बड़ा हो गया है, तो उसने उसे अपनी समस्त सेना का अध्यक्ष नियुक्त किया और वह गेजेर में रहने लगा।

अध्याय 14

1) राज देमेत्रियस एक सौ बहत्तरवें वर्ष अपनी सेना एकत्रित कर मोदिया गया, जिससे वह त्रीफोन से लडने में वहाँ से सहायता प्राप्त करे।
2) जब फ़ारस और मोदिया के राजा अर्साकेस ने यह सुना कि देमेत्रियस उसके देश के भीतर आ गया है, तो उसने अपना एक सेनापति भेजा, जिससे वह उसे जीवित ही पकड़ लाये।
3) वह चल पड़ा और उसने देमेत्रियस की सेना को पराजित कर देमेत्रियस को बंदी बनाया और उसे अर्साकेस के सामने ले आया। उसने उसे बंदीगृह में डाल दिया।
4) सिमोन के शासनकाल में यूदा भर में शांति का साम्राज्य था वह लोगों के कल्याण के लिए सक्रिय रहता था। जनता उसके अधिकार और वैभव से संतुष्ट थी।
5) उसने याफ़ा को अधिकार में कर अपने राज्य का विस्तार किया, उसे बंदरगाह बनाया और समुद्र के द्वीपों का मार्ग खोला।
6) उसने अपने राष्ट्र की सीमाओं का विस्तार किया और अपने देश का दृढ़तापूर्वक शासन किया।
7) उसने बहुत-से यहूदी युद्धबंदी विदेश से एकत्र किये। उसने गेजेर, बेत-सूर और गढ़ पर अधिकार किया। उसने गढ़ का शुद्धीकरण कराया। ऐसा कोई नहीं रह गया, जो उसका सामना करें।
8) सब शांतिपूर्वक अपने खेत जोतते थे भूमि अपनी फसल उगाती थी, मैदान के पेड़ अपने फल देते थे।
9) चौकों में बैठ कर बडे-बूढ़े अपनी समृद्धि की ही चरचा किया करते थे। नवयुवक भड़कीले आभूषण और युद्ध के वस्त्र पहनते थे।
10) वह नगरों को खाद्य-सामग्री देता और उनकी किलाबंदी करता था। इस प्रकार उसके महिमामय नाम की चर्चा पृथ्वी के सीमांतों तक होती थी।
11) वह देश में शांति बनाये रखता था और इस्राएल में बड़ा आनंद था।
12) प्रत्येक व्यक्ति अपनी दाखलता और अंजीर के पेड के नीचे बैठता था। ऐसा कोई नहीं था, जो उन्हें डर दिखाये।
13) ऐसा कोई नहीं था, जो उनके देश पर आक्रमण करें। उन दिनों राजाओं को रौंदा जाता था।
14) वह अपनी प्रजा के सब दीन-हीन लोगों की संभाला करता था। वह संहिता के लिए उत्साह दिखाता और सब विधर्मियों एवं दुष्टों का दमन करता था।
15) उसने मंदिर की शोभा बढ़ायी और उसे बहुसंख्यक पात्रों से समृद्ध किया।
16) रोम और स्पार्ता के लोग भी योनातान की मृत्यु का समाचार सुन कर बहुत दुःखी हुए।
17) जब उन्होंने यह सुना कि उसका भाई सिमोन उसकी जगह प्रधानयाजक बन गया है और देश तथा उसके नगरों का शासक है,
18) तो उन्होंने उसके भाई यूदाह और योनातान के साथ मित्रता और संधि का जो संबंध स्थापित किया था, उसे दोहराने के लिए उसके पास काँसे के पत्तरों पर लिखा हुआ पत्र भेजा।
19) उसे येरुसालेम में सभा के सामने सुनाया गया।
20) स्पार्तावासियों के पत्र की प्रतिलिपि इस प्रकार है : 'प्रधानयाजक सिमोन, नेताओं, याजकों और अन्य यहूदियों-अपने भाइयों को स्पार्ता के पदाधिकारियों और नगर का नमस्कार।
21) आप लोगों ने हमारे यहाँ जो दूत भेजे, उन्होंने हमें आपके यश और आपकी प्रतिष्ठा के विषय में बताया। उनके आगमन से हमें बड़ी प्रसन्ना हुई।
22) उन्होंने हमें जो बताया, उसे हमने परिषद के कार्य विवरण में इस प्रकार लिपिबद्ध किया : अंतियोख के पुत्र नूमेनियस और यासोन के पुत्र अंतीपातेर हमारे यहाँ यहूदियों के दूतों के रूप में इस उद्देश्य से आये कि वे हमारे साथ मित्रता का संबंध फिर से स्थापित करें।
23) जनता ने उन दूतों का सम्मान के साथ स्वागत करने और उनके वक्तव्य की प्रतिलिपि राज्य के अभिलेखागार में रखने का निश्चय किया, जिससे स्पार्ता के लोगों को उसकी याद कायम रहें। उसकी एक प्रतिलिपि प्रधानयाजक सिमोन को भेजी गयी।''
24) इसके बाद सिमोन ने नूमेनियस को पाँच सत्तर किलों सोने की एक बड़ी-सी ढाल के साथ रोम भेजा, जिससे रोमियों के साथ संधि स्थायी हो जाये।
25) जब लोगों ने इस विषय में सुना, तो वे कहने लगे, ''हम सिमोन और पुत्रों के प्रति अपना आभार कैसे प्रकट करे?
26) वह स्वयं एक वीर योद्धा हैं, उनके भाई और उनके सारे कुटुम्बी हमारी ओर से इस्राएल के शत्रुओं के विरुद्ध लड़ते रहे और उन्होंने हमें स्वतंत्रता प्रदान की।'' उन्होंने काँसे की पाटियों पर एक अभिलेख अंकित किया और उसे सियोन पर्वत के स्तम्भों पर लगाया।
27) उस अभिलेख की प्रतिलिपि इस प्रकार हैः ''एक सौ बहत्तरवें वर्ष के एलूल मास के अठारहवें दिन, परमश्रद्धेय प्रधानयाजक सिमोन के तीसरे वर्ष,
28) याजकों, लोगों, राष्ट्र के शासकों और देश के नेताओं ने मंदिर के प्रांगण की सभा में निम्नलिखित बातों पर विचार किया।
29) जब देश भर में लड़ाइयाँ चल रही थीं, तब सिमोन ने, जो मत्तथ्या के पुत्र और यहोयारीब के वंशज है और उनके भाइयों ने मन्दिर और संहिता की रक्षा के लिए अपने को ख़तरे में डाल कर अपने राष्ट्र के शत्रुओं का सामना किया और इस प्रकार उन्होंने अपना राष्ट्र गौरवमय बनाया।
30) योनातान ने राष्ट्र में एकता की स्थापना की और वह उनके प्रधानयाजक बन गये। जब वह अपने पूर्वजों के पास दफनाये गये,
31) तो यहूदियों के शत्रु घुस कर उनका देश लूटना और मंदिर पर अधिकार करना चाहते थे।
32) उस समय सिमोन अपने राष्ट्र के लिए लड़ने को उठ खड़े हुए। उन्होंने राष्ट्रीय सेना की सज्जा और सैनिकों के वेतन के लिए अपनी व्यक्तिगत संपत्ति का एक बड़ा भाग खर्च किया।
33) उन्होंने यूदा के नगर किलाबंद किये और सीमा पर अवस्थित बेत-सूर को भी, जहाँ पहले शत्रुओं का शस्त्रागार था और वहाँ एक रक्षक-सेना रखी।
34) उन्होंने समुद्रतट पर अवस्थित याफ़ा को किलाबंद किया और गेजेर को भी, जो अजोत के पास है और जहाँ पहले शत्रु निवास कते थे। उन्होंने वहाँ यहूदियों को बसाया और उनकी जीविका का पूरा प्रबंध किया
35) लोगों ने देखा कि सिमोन ईमानदार है और अपने राष्ट्र को गौरवशाली बनाना चाहते थे। उन्होंने सिमोन को अपना शासक और प्रधानयाजक नियुक्त किया; क्योंकि वह यह सब किया करते, अपनी जाति को न्याय दिलाते, उसके प्रति ईमानदार थे और वह हर तरह अपने लोगों की उन्नति करना चाहते थे।
36) सिमोन उस समय सफल हुए-उन लोगों को, जिन्होंने येरुसालेम के दाऊदनगर में अपने लिए एक गढ बनवाया था? जहाँ वे छापा मारा करते, मंदिर के आसपास का क्षेत्र दूषित करते और मंदिर की पवित्रता को बड़ी हानि पहुँचाते थे।
37) उन्होंने वहाँ यहूदी सैनिक रखे और देश तथा नगर की सुरक्षा के लिए उसे सुदृढ़ बनाया तथा येरुसालेम की चारदीवारी और ऊँची करायी।
38) तब राजा देमेत्रियस ने प्रधानयाजक के पद उनकी नियुक्ति की पुष्टि की,
39) उन्हें अपना मित्र बनाया और बड़ा सम्मान दिया।
40) उसने सुन रखा था कि रोमी यहूदियों को अपने संधिबद्ध मित्र और भाई मानते हैं और सिमोन के राजदूतों का वहाँ बडे आदर से स्वागत किया था;
41) यह भी कि यहूदी और याजक इस बात पर सहमत हैं कि जब तक कोई निष्ठावान् नबी नहीं होगा, तब तक सिमोन ही लोगों के शासक और प्रधानयाजक रहेंगे।
42) उसने यह भी सुना था कि वही उनके सेनापति और मंदिर के प्रबंधक हैं, उनके सब निर्माण-कायोर्ं, प्रदेश, शस्त्र-भण्डार और गढ़ों के अध्यक्ष हैं,
43) सभी उनकी बात मानते हैं, देश भर की राजाज्ञाएँ उनके नाम पर निकाली जाती हैं और वह बैंगनी वस्त्र और सोने के आभूषण पहनते हैं।
44) जनता और याजकों में किसी को अधिकार नहीं कि वह इस व्यवस्था में परिवर्तन करे या सिमोन के आदेशों का उल्लंघन करे, उनकी अनुमति के बिना देश में सभा का आयोजन करे और बैंगनी वस्त्र या सोने का अभूषण पहने।
45) जो इस व्यवस्था के नियमों का उल्लंघन करेगा या उन में कोई परिवर्तन करेगा, वह दोषी माना जायेगा।''
46) सभी लोग सिमोन को ये अधिकार प्रदान करने के पक्ष में थे।
47) सिमोन ने सहमति प्रकट की और उसने प्रधानयाजक, सेनापति, यहूदियों और याजकों का अध्यक्ष और सब का शासक बनना स्वीकार किया।
48) यह भी निश्चित किया गया कि इन बातों को काँसे के पत्तरों पर लिखा जाये और उन्हें मदिर के किसी सार्वजानिक स्थान पर लगाया जाये,
49) उनकी एक प्रतिलिपि सिमोन और उसके वंशजों के लिए कोष में रख दी जायें

अध्याय 15

1) राजा देमेत्रियस के पुत्र अंतियोख ने समुद्र के द्वीपों से यहूदियों के याजक और नेता सिमोन तथा समस्त राष्ट्र के नाम एक पत्र लिखा।
2) उस में यह लिखा था : ''प्रधानयाजक और नेता सिमोन तथा समस्त यहूदी राष्ट्र को राजा अंतियोख को नमस्कार।
3) कुछ दुष्ट लोगों ने हमारे पूर्वजों के राज्य पर अधिकार कर लिया है, किंतु मैं उस राज्य को पुनः अपने हाथ में लेने और उसे पहले की तरह प्रतिष्ठित बनाने का प्रयत्न कर रहा हूँ। इसलिए मैंने बड़ी संख्या में सैनिक इकट्ठे कर लिये हैं और युद्ध-नौकाएँ तैयार कीं।
4) अब मैं देश की भूमि पर उतर कर उन लोगों से बदला चुकाना चाहता हँू जिन्होंने हमारे देश का विनाश किया है और मेरे राज्य के अनेकानेक नगरों को उजाड डाला है।
5) मेरे पहले के राजाओं ने आप को कर-संबंधी जो छूट और अन्य विशेषाधिकार प्रदान किये हैं, वे सब मुझ भी स्वीकार्य हैं।
6) मैं आप को देश में प्रचलित सिक्के ढालने का अधिकार देता हूँ।
7) येरुसालेम और मंदिर स्वतंत्र होंगे। आपने जो अस्त्र-शस्त्र जमा किये हैं, जो गढ बनवायें है और जो आपके अधिकार में है, वे सब आपके हाथ में रहेंगे।
8) आप पर राजकोष का जो ऋण इस समय है या बाद में होगा, उस से आप अब और सदा के लिए मुक्त किये जाते हैं।
9) हम जैसे ही अपने राज्य पर फिर अधिकार कर लेंगे, हम आपका, आपके राष्ट्र और आपके मंदिर का इतना सम्मान करेंगे कि आप लोगों की कीर्ति संसार के सीमांतों तक फैल जायेगी।''
10) अंतियोख ने एक सौ चौहत्तरवें वर्ष अपने पूर्वजों के देश के लिए प्रस्थान किया। सारी सेना आ कर उस से इस तरह मिल गयी कि त्रीफोन के पास थाडे ही आदमी बच गये।
11) अंतियोख ने उसका पीछा किया और वह भागते-भागते समुद्रतटवर्ती दोरा नामक नगर पहुँचा।
12) उसने देखा कि उस पर विपत्ति टूटने ही वाली हैं। उसकी समस्त सेना उस से विमुख हो गयी
13) और उधर बाहर हजार पैदल सैनिक और आठ हजार घुडसवार ले कर अंतियोख दोरा नगर के पास पहुँचा।
14) उसने नगर को घेर लिया और समुद्र की ओर से नावें पास आयीं। इस तरह उसने थल और समुद्र, दोनों ओर से नगर पर आक्रमण किया। न कोई व्यक्ति बाहर जा सकता था और न कोई अंदर आ सकता था।
15) नूमेनियम और उसके साथी विभिन्न राजाओं और देशों के नाम पत्र ले कर रोम से पहुँचे। पत्र की प्रतिलिपि इस प्रकार है :
16) ''राजा पतोलेमेउस को मुख्य न्यायाधीश लुसियस का नमस्कार। हमारे सन्धिबद्ध यहूदी मित्रों के यहाँ से हमारे पास दूत आये हैं, जिससे वे हमारे साथ पहले की तरह मित्रता और सन्धि का सम्बन्ध स्थापित करें।
17) वे प्रधानयाजक सिमोन और यहूदी लोगों की ओर से भेजे गये थे।
18) वे एक ढाल भी लाये जिसका मूल्य पाँच सौ सत्तर किलों सोना है।
19) इसलिए हमें यह उचित जान पड़ा कि हम विभिन्ना राजाओं और देशों के नाम इस आशय का पत्र लिखें कि वे न तो उन्हें हानि पहुँचायें, न उन पर और न उनके नगरों या क्षेत्रों पर आक्रमण करें और न उन लोगों की सहायता करें, जो उन से युद्ध करते हैं।
20) हमने उनकी भेजी हुई ढाल स्वीकार करने का निश्चय किया।
21) यदि उनके देश से कुछ दुष्ट लोग आपके यहाँ भाग कर आये हों, तो उन्हें प्रधानयाजक सिमोन के हवाले कर दें, जिससे वह अपने कानून के अनुसार उन्हें दण्ड दें।''
22) उसने राजा देमेत्रियस, अत्तालस, अर्याराथेस और अर्साकेस को भी यही लिखा
23) तथा इन देशों को भी-संप्सा में, स्पार्ता, देलस, मिन्दस, सिक्योन, कारिए, सामस, पंफिलिया, लीसिया, हलीकरनास्सस, रोदस, फसेलिया, कोस, सीदे, अरादस, गोर्तिना, कनीदस, साइप्रस और कुरेने को।
24) इसकी एक प्रतिलिपि प्रधानायाजक सिमोन को भी दी गयी।
25) उधर राजा अन्तियोख देश के निकट पड़ाव डाल कर अपनी सेना से और युद्ध यन्त्रों से उस पर आक्रमण करता रहा। उसने त्रीफोन को इस तरह घेर लिया कि न कोई व्यक्ति बाहर जा सकता था और न कोई अन्दर आ सकता था।
26) सिमोन ने अन्तियोख की सहायता के लिए दो हजार चुने हुए आदमी भेजे और उनके साथ चाँदी, सोना और विपुल युद्ध-सामग्री।
27) किन्तु उसने यह सब अस्वीकार किया। यही नहीं, उसने सिमोन के साथ जो भी समझौते पहले किये थे, सब को रद्द कर दिया और सिमोन के प्रति उसका रूख बदल गया।
28) उसने अपने एक मित्र अथेनोबियस के द्वारा सिमोन को यह कहला भेजा : ''तुम लोगों ने मेरे राज्य के याफ़ा, गेजेर और येरुसालेम के गढ़ पर अधिकार कर लिया।
29) तुमने उसके क्षेत्र उजाड़े, देश को भारी क्षति पहुँचायी है और मेरे राज्य के अनेक स्थानों पर अधिकार कर लिया है।
30) अब तुम वे नगर लोटा दो, जिन्हें तुमने छीना और उन स्थानों का कर दे दो, जो यहूदिया की सीमा के बाहर हैं, किन्तु जिन्हें तुमने अपने देश में मिला लिया है।
31) नहीं तो तुम उनके बदले पाँच सौ मन चाँदी दो और इसके अतिरिक्त अपने द्वारा किये हुए विनाश की क्षतिपूर्ति और नगरों के कर के रूप में और पाँच सौ मन चाँदी। यदि तुम ऐसा नहीं करोगे, तो हम आ कर तुम से युद्ध करेंगे।''
32) राजा का मित्र अथेनोबियस येरुसालेम आया। उसे सिमोन की महिमा, उसकी मेज पर चाँदी-सोने के बरतन और उसका भव्य वैभव देख कर आश्चर्य हुआ। उसने उसे राजा का सन्देश सुनाया।
33) सिमोन ने उसे उत्तर दिया, ''हमने न तो दूसरे की भूमि पर अधिकार किया और न दूसरे की सम्पत्ति छीनी। यह तो हमारे पूर्वजों का दायभाग है। हमारे शत्रुओं ने इस पर अन्याय से कुछ समय पहले अधिकार कर लिया था।
34) जब परिस्थिति हमारे अनुकूल हुई, तो हमने फिर अपने पूर्वजों का वह दायभाग वापस ले लिया।
35) आप हम से जो याफ़ा और गेजेर माँगते हैं, इसके विषय में हमारा उत्तर यह है कि वे नगर हमारी जनता और हमारे देश को बड़ी हानि पहुँचाते थे। हम उनके लिए एक सौ मन देंगे।''
36) अथेनोबियस ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह बड़े क्रोध में राजा के पास लौटा और उसने उसे सिमोन का उत्तर सुनाया। उसने सिमोन के वैभव और उन सब बातों का वर्णन किया, जिन्हें उसने उसके यहाँ देखा था। इस पर राजा के क्रोध की सीमा न रही।
37) त्रीफोन नाव पर चढ़ कर अर्थोसिया भाग निकाला।
38) तब राजा ने कन्देबैयस को समुद्रतटवर्ती प्रदेश का सेनापति नियुक्त किया और उसे पैदल सैनिक और घुड़सवार दिये।
39) उसने उसे आज्ञा दी कि वह यहूदिया की सीमा पर पड़ाव डाले, केद्रोन नगर का पुनर्निर्माण करे, उसके फाटक मजबूत करे और जनता पर छापा मारता रहे। इसके बाद राजा स्वयं त्रीफोन का पीछा करने चला।
40) इधर कन्देबैयस यमनिया आ कर वहा से लोगों को सताने लगा, यहूदिया पर छापा मारता रहा और लोगों को बंदी बनाता और उनका वध करता रहा।
41) उसने केद्रोन का पुनर्निर्माण किया और वहाँ घुडसवार और पैदल सैनिक रखे, जिससे वे, जैसी कि राजा ने आज्ञा दी थी, यूदा के मागोर्ं पर छापा मारते रहें।

अध्याय 16

1) तब योहन गेजेर से अपने पिता सिमोन के पास गया और उसे कन्देबैयस के आंतक के विषय में बतलाया।
2) सिमोन ने अपने दो बड़े पुत्र यूदाह और योहन से कहा, ''मैं, मेरे भाई और मेरे कुटुम्बी अपने बचपन से आज तक इस्राएल के लिए लड़ते आये हैं। न जाने कितनी बार हमारे हाथों ने इस्राएल की रक्षा की है।
3) अब मैं वृद्ध हो चला हूँ, लेकिन तुम प्रभु की दया से युद्ध करने योग्य हो गये हो। तुम मेरी तथा मेरे भाई की जगर हमारे राष्ट्र के लिए लड़ने जाओ। प्रभु की सहायता तुम्हारे साथ हो।''
4) उसने देश से बीस हजार सैनिक और घुड़सवार चुने और वे कन्देबैयस के विरुद्ध युद्ध करने चले। उन्होंने मोदीन में रात बितायी।
5) फिर वे भोर को मैदान की ओर आगे बढे। वहाँ उन्होंने यह देखा कि घुडसवारों और पैदल सैनिकों की एक विशाल सेना उनके सामने है। दोनों के बीच एक नदी थी।
6) योहन ने अपने आदमियों के साथ शत्रुओं के सामने पड़ाव डाला। जब उसे पता चला कि उसके आदमी नदी पार करने से डर रहे हैं, तो उसने सब से पहले नदी पार की। यह देखकर उसके सैनिक भी उसके बाद पार हुए।
7) उसने अपनी सेना को दो दलों में बाँट दिया और पैदल सैनिकों के बीच घुड़सवार रखे; क्योंकि शत्रुओं के घुडसवारों की संख्या बहुत बडी थी।
8) तुरहियाँ बज उठीं। कन्देबैयस और उसकी सेना भाग निकली। उसके कितने ही लोग मारे गये और जो बच गये, उन्होंने भाग कर गढ में शरण ली।
9) उस समय योहन का भाई यूदाह घायल हो गया; किंतु योहन ने शत्रुओं को केद्रोन तक खदेड़ दिया, जिसका कन्देबैयस ने पुनर्निर्माण किया था।
10) भागने वालों ने अजोत के मैदान के बुजोर्ं में शरण ली। योहन ने नगर को जला दिया। शत्रुओं में लगभग दो हजार मारे गये। योहान सकुशल यहूदिया लौट आया।
11) अबूबस का पुत्र पतोलेमेउस येरीखो के मैदान की सेना का अध्यक्ष नियुक्त किया गया।
12) उसके पास बहुत चाँदी-सोना था, क्योंकि वह प्रधानयाजक का दामाद था।
13) वह घमण्डी हो गया और देश पर अधिकार करने की सोचने लगा। उसने सिमोन और उसके पुत्रों का वध करने की कपटपूर्ण योजना बनायी।
14) सिमोन प्रशासक के रूप में देश के नगरों को भ्रमण करता था। एक सौ सत्तरवें वर्ष के शबाट महीने में वह, उसके पुत्र मत्तथ्या और यूदाह येरीखो आये।
15) अबूबस के पुत्र ने अपने बनवाये दोक नामक छोटे गढ़ में उनका कपटपूर्ण स्वागत-सत्कार किया। उसने उन्हें दावत दी और पास ही सैनिकों को छिपा रखा।
16) जब सिमोन और उसके पुत्र पी चुके, तो पतोलेमेउस और उसके आदमी उठे और हथियार लिये भोज-गृह में घुस आये। वे सिमोन पर टूट पडे और उसे, उसने दो पुत्रों तथा उनके साथियों में अनेक का वध किया।
17) इस प्रकार उसने भलाई का बदला बुराई से चुका कर घोर विश्वासघात किया
18) इसके बाद पतोलेमेउस ने इस विषय में राजा को लिखित विवरण भेजा और निवेदन किया कि वह उसकी सहायता के लिए सैनिक भेजे, जिससे वह नगरों के साथ देश को राजा के हाथ दे सके।
19) उसने कुछ अन्य लोगों को गेजेर भेजा, जिससे वे योहन को समाप्त करें। उसने सेनापतियों के नाम पत्र भेज कर उन्हें अपने यहाँ आने का निमंत्रण दिया, जिससे वह उन्हें चाँदी, सोना और उपहार दे।
20) उसने अन्य लोगों को येरुसालेम और मंदिर के पर्वत पर अधिकार करने भेजा।
21) किंतु उन में एक आदमी आगे दौड़ कर गेजेर में योहन के पास यह संदेश लाया कि उसके पिता और उसके भाई मार डाले गये हैं और उसे सावधान किया कि पतोलेमेउस ने आपका भी वध करने आदमी भेजे हैं।
22) यह सुन कर योहन भयभीत हो उठा और उन आदमियों को पकडवाया और मरवा डाला, जो उसका वध करने आये थे; क्योंकि उसे मालूम हो गया था कि वे उसकी हत्या करने आये थे।
23) योहन का शेष इतिहास-उसकी लडाईयों, उसकी वीरता, उसके द्वारा दीवारों का निर्माण और उसके अन्य कायोर्ं का वर्णन यह सब,
24) उन दिन से ले कर जब वह अपने पिता के स्थान पर प्रधानयाजक बना, प्रधानयाजकों के इतिहास-ग्रंथ में लिखा है।