1) याकूब के साथ के इस्राएल के जो पुत्र अपने परिवारों-सहित मिस्र आये थे, उनके नाम ये हैं : |
2) रूबेन, सिमओन, लेवी, यूदा, |
3) इस्साकार, जबुलोन, बेनयामीन, |
4) दान, नफ्ताली, गाद और अषेर। |
5) याकूब के कुल वंषज सत्तर थे। यूसुफ़ मिस्र में पहले से ही था। |
6) अब यूसुफ़, उसके सब भाई और उस पीढ़ी के सब लोग मर चुके थे; |
7) परन्तु इस्राएल के वंषज फूलते-फलते रहे और उनकी संख्या में भारी वृद्वि हुई। वे बहुत शक्तिसंपन्न हो गये और उनकी संख्या इतनी बढ़ गयी थी कि देष उन से भर गया। |
8) मिस्र देष में एक नये राजा का उदय हुआ, जो यूसुफ़ के विषय में कुछ नहीं जानता था। |
9) उसने अपनी प्रजा से कहा, सुनो ये इस्राएली संख्या और शक्ति में हम से अधिक हो गये हैं। |
10) हमें ऐसा उपाय सोच निकालना चाहिए, जिससे उनकी संख्या न बढ़ने पाये। कहीं ऐसा न हो कि युद्व छिड़ने पर ये हमारे शत्रुओं का साथ दें और हमारे विरुद्ध लड़ने के बाद देष से निकल भागें। |
11) उन्होंने इस्राएलियों पर ऐसे अधिकारियों को नियुक्त किया, जो उन्हें बेगार में लगा कर उनका दमन करें। इस्राएलियों ने इस प्रकार फिराउन के लिए पितोम और रामसेस नामक गोदाम वाले नगर बनाये। |
12) किन्तु उन पर जितना अधिक अत्याचार किया जाता था, उतना ही अधिक वे संख्या में बढ़ते और फैलते जाते थे। इस करण मिस्री उन से डरने लगे। |
13) उन्होंने इस्राएलियों को बेगार में लगाया। |
14) और उन से कठोर परिश्रम करा कर उनका जीवन कड़वा बना दिया। उन्होंने गारा और ईट बनाने और खेत में हर प्रकार का काम करने के लिए उन्हें बाध्य किया। |
15) मिस्र के राजा ने इब्रानी दाइयों को, जिन में एक का नाम षिफ्रा और दूसरी का नाम पूआ था, आज्ञा दी कि |
16) जब तुम इब्रानी स्त्रियों को प्रसव कराओ और देखों कि लड़का पैदा हुआ है, तो उसे मार डाला करो और यदि लड़की पैदा हुई हो, तो उसे जीवित छोड़ दो। |
17) लेकिन वे दाइयाँ ईष्वर पर श्रद्वा रखती थी। उन्होंने मिस्र के राजा का आदेष नहीं माना। उन्होंने लड़कों को भी जीवित छोड़ दिया। |
18) इसलिए मिस्र के राजा ने दाइयों को बुलवा कर उन से पूछा, तुम ऐसा क्यों करती हो? तुम लड़को को भी जीवित क्यों छोड़ देती हो? |
19) दाइयों ने फिराउन से कहा, इब्रानी स्त्रियाँ मिस्री स्त्रियों के समान नहीं हैं। वे बड़ी हष्ट-पुष्ट हैं और दाई के अपने पास पहुँचने के पहले ही प्रसव करती हैं। |
20) इसलिए ईष्वर ने दाइयों का भला किया। वे लोग बढ़ते और शक्तिसम्पन्ना होते गये। |
21) दाइयाँ ईष्वर पर श्रद्वा रखती थीं, इसलिए उसने उन्हें भी सन्तति प्रदान की। |
22) इसके बाद फिराउन ने अपनी समस्त प्रजा को यह आदेष दिया कि वह प्रत्येक नवजात इब्रानी लड़के को नील नदी में फेंक दे, किन्तु सब लड़कियों को जीवित रहने दे। |
1) लेवी वंष के एक व्यक्ति ने एक लेवी वंषी कन्या से विवाह किया। |
2) उसकी पत्नी गर्भवती हुई और उसको एक पुत्र उत्पन्ना हुआ। माता ने यह देख कर कि बच्चा सुन्दर है, उसे तीन महीनों तक छिपाये रखा। |
3) जब वह उसे और अधिक समय तक छिपा कर नहीं रख सकी, तो उसने बेंत की एक टोकरी ले ली और उस पर चिकनी मिट्टी और डामर का लेप लगाया। उसने उस में बालक को रख कर उसे नील नदी के तट के सरकण्डों के बीच छोड़ दिया। |
4) बालक की बहन कुछ दूरी पर यह देखने के लिए खड़ी रहा करती कि उस पर क्या बीतेगी। |
5) फिराउन की पुत्री नील नदी में स्नान करने आयी। इस बीच उसकी सखियाँ नदी किनारे घूमती रहीं। उसने सरकण्डों के बीच उस टोकरी को देखा और अपनी दासी को उसे ले आने को भेजा। |
6) उसने उसे खोल कर देखा कि उस में एक रोता हुआ बालक पड़ा है। उसे तरस आया और उसने कहा, यह इब्रानियों का कोई बालक होगा। |
7) बालक की बहन ने फिराउन की पुत्री के पास आ कर पूछा, क्या मैं इब्रानी स्त्रियों में से किसी दाई को बुला लाऊँ, जो आपके लिए इस बालक को दूध पिलाया करे? |
8) फिराउन की पुत्री ने उत्तर दिया, हाँ, यही करो। लड़की बालक की माता को बुला लायी। |
9) फिराउन की पुत्री ने उस से कहा, इस बालक को ले जा कर मेरे लिए दूध पिलाओ। मैं तुम को वेतन दिया करूँगी। वह स्त्री बालक को ले गयी और उसने उसे दूध पिलाया। |
10) जब बालक बड़ा हो गया, तो वह उसे फिराउन की पुत्री के पास ले गयी। इसने उसे गोद लिया और यह कहते हुए उसका नाम मूसा रखा कि ''मैंने इसे पानी में से निकाला।'' |
11) जब मूसा सयाना हो गया, तो वह किसी दिन अपने जाति-भाइयों से मिलने निकला। उसने उन्हें बेगार करते देखा और यह भी देखा कि एक मिस्री उसके एक इब्रानी भाई को पीट रहा है। |
12) मूसा ने इधर-उधर दृष्टि दौड़ायी और जब उसे पता चला कि वहाँ कोई दूसरा व्यक्ति नहीं हैं, तो उसने मिस्री को मार कर बालू में छिपा दिया। |
13) वह दूसरे दिन फिर निकला और उसने दो इब्रानियों को लड़तें देखा। उसने अन्याय करने वाले से कहा, ''तुम अपने भाई को क्यों पीटते हो?'' |
14) उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, ''किसने तुम को हमारा शासक और न्यायकर्ता नियुक्त किया है? क्या तुम मुझ को भी मार डालना चाहते हो, जैसे कि तुमने उस मिस्री को मारा?'' मूसा यह सोच कर डर गया कि यह बात फैल गयी है। |
15) फिराउन को भी इसका पता चला और उसने मूसा को मार डालना चाहा। मूसा फिराउन के अधिकार क्षेत्र से भाग निकला और मिदयान देष में बसने गया और वहाँ एक कुएँ के पास बैठ कर विश्राम करने लगा। |
16) मिदयानी याजक की सात पुत्रियाँ थीं। वे पानी खींचने आयीं और अपने पिता की भेड़ों को पानी पिलाने के लिए नाँदों में पानी भरने लगी। |
17) कुछ चरवाहों ने आकर उन्हें भगाना चाहा, लेकिन मूसा ने उठ कर उनकी सहायता की और उनकी भेड़ों को पानी पिलाया। |
18) जब वे अपने पिता रऊएल के पास पहुँची, तो उसने पूछा, ''तुम लोग आज इतनी जल्दी कैसे लौट आयी हो?'' |
19) उन्होंने उत्तर दिया, ''एक मिस्री ने चरवाहों से हमारी रक्षा की। उसने हमारे लिए पानी तक भर कर भेड़ों को पिलाया।'' |
20) उसने अपनी पुत्रियों से पूछा, ''वह कहाँ है? उस आदमी को तुम लोग क्यों छोड़ आयी? उसे भोजन करने के लिए बुला लाओ।'' |
21) जब मूसा ने उस आदमी के साथ रहना स्वीकार किया, तो उसने मूसा का विवाह अपनी पुत्री सिप्पोरा से कर दिया। |
22) उससे एक लड़का पैदा हुआ। मूसा ने उसका नाम गेरषोम रखा, क्योंकि उसने कहा कि ''मैं विदेष में एक प्रवासी हूँ।'' |
23) इस लम्बी अवधि में मिस्र का राजा मर गया। इस्राएली लोग दासता से त्रस्त हो कराहते थे। वे अपनी दासता में पुकारते थे और उनकी दुहाई ईष्वर तक पहुँच गयी। |
24) ईष्वर ने उनका कराहना सुना। ईष्वर को इब्राहीम, इसहाक और याकूब के लिए ठहराया अपना विधान याद आया। |
25) ईष्वर ने इस्राएलियों की ओर दृष्टि की और उसे उनकी चिन्ता हुई। |
1) मूसा अपने ससुर, मिदयान के याजक, यित्रों की भेडं+े चराया करता था। वह उन्हें बहुत दूर तक उजाड़ प्रदेष में ले जा कर ईष्वर के पर्वत होरेब के पास पहुँचा। |
2) वहाँ उसे झाड़ी के बीच में से निकलती हुई आग की लपट के रूप में प्रभु का दूत दिखाई दिया। उसने देखा कि झाड़ी में तो आग लगी है, किन्तु वह भस्म नहीं हो रही है। |
3) मूसा ने मन में कहा कि यह अनोखी बात निकट से देखने जाऊँगा और यह पता लगाऊँगा कि झाड़ी भस्म क्यों नहीं हो रही है। |
4) निरीक्षण करने के लिए उसे निकट आते देख कर ईष्वर ने झाड़ी के बीच में से पुकार कर उससे कहा, ''मूसा! मूसा!'' उसने उत्तर दिया, ''प्रस्तुत हूँ।'' |
5) ईष्वर ने कहा, ''पास मत आओ। पैरों से जूते उतार दो, क्योंकि तुम जहाँ खड़े हो, वह पवित्र भूमि है।'' |
6) ईष्वर ने फिर उस से कहा, ''मैं तुम्हारे पिता का ईष्वर हूँ, इब्राहीम, इसहाक तथा याकूब का ईष्वर।'' इस पर मूसा ने अपना मुख ढक लिया; कहीं ऐसा न हो कि वह ईष्वर को देख ले। |
7) प्रभु ने कहा, ''मैंने मिस्र में रहने वाली अपनी प्रजा की दयनीय दषा देखी और अत्याचारियों से मुक्ति के लिए उसकी पुकार सुनी है। मैं उसका दुःख अच्छी तरह जानता हूँ। |
8) मैं उसे मिस्रियों के हाथ से छुड़ा कर और इस देष से निकाल कर, एक समृद्ध तथा विषाल देष ले जाऊँगा, जहॉँ दूध तथा मधु की नदियाँ बहती हैं, जहाँ कनानी, हित्ती, अमोरी, परिज्जी, हिव्वी और यबूसी बसते हैं। |
9) मैंने इस्राएलियों की पुकार सुनी और उन पर मिस्रियों का अत्याचार देखा, इसलिए मैं तुम्हें फिराउन के पास भेजता हॅँू। |
10) तुम मेरी प्रजा इस्राएल को मिस्र देष से बाहर निकाल लाओ। |
11) मूसा ने ईष्वर से कहा, ''मैं कौन हॅूँ जो फिराउन के पास जाऊॅँ और इस्राएलियों को मिस्र देष से बाहर निकाल ले जाऊॅँ? |
12) ईष्वर ने उत्तर दिया, ''मैं तुम्हारे साथ रहूँूगा। मैंने तुम को भेजा है, तुम्हारे लिए इसका प्रमाण यह होगा कि जब तुम इस्राएल को मिस्र से निकाल लाओगें, तो तुम लोग इस पर्वत पर प्रभु की आराधना करोगें।'' |
13) मूसा ने झाड़ी में से प्रभु की वाणी सुन कर उस से कहा, ''जब मैं इस्राएलियों के पास पहुॅँच कर उन से यह कहॅूँगा - तुम्हारें पूर्वजों के ईष्वर ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है, और वे मुझ से पूछेंगे कि उसका नाम क्या है, तो मैं उन्हें क्या उत्तर दूूँगा?'' |
14) ईष्वर ने मूसा से कहा, ''मेरा नाम ÷सत् है। उसने फिर कहा, ''तुम इस्राएलियों को यह उत्तर दोगे जिसका नाम ÷सत्÷ है, उसी ने मुझे भेजा है।'' |
15) इसके बाद ईष्वर मूसा से कहा, ''तुुम इस्राएलियों से यह कहोगे - प्रभु तुम्हारे पूूर्वजों के ईष्वर, इब्राहीम, इसहाक तथा याकूब के ईष्वर ने मुझे तुम लोगों के पास भेजा है। यह सदा के लिए मेरा नाम रहेगा और यही नाम ले कर सब पीढ़ियॉँ मुझ से प्रार्थना करेंगी। |
16) अब जा कर इस्राएल के नेताओं को एकत्र करो और उन से यह कहो, ÷प्रभु तुम्हारे पूर्वजों का ईष्वर, इब्राहीम, इसहाक और याकूब का ईष्वर, मुझे दिखाई दिया और उसने मुझ से कहा - मैंने तुम लोगों की सुध ली है और मैं जानता हॅूँ कि मिस्र देष में तुम पर क्या बीत रही है। |
17) मैंने यह निर्णय किया है : मैं तुम्हें मिस्र की दीनता से निकाल कर कनानियों, हित्तियों, अमोरियों, परिज्जियों, हिव्वियों और यबूसियों के देष ले जाऊँगा। जहाँ दूध और मधु की नदियाँ बहती हैं।÷ |
18) ''वे तुम्हारी बात मानेंगे और तुम इस्राएल के नेताओं के साथ मिस्र के राजा के पास जाओगे और उस से यह कहोगे, ÷प्रभु इब्रानियों का ईष्वर, हमें दिखाई दिया। हमें मरुभूमि में तीन दिन की यात्रा करने दीजिए, जिससे हम अपने प्रभु-ईष्वर को बलि चढ़ायें।÷ |
19) मैं जानता हॅूँ कि जब तक मिस्र के राजा को विवष नहीं किया जायेगा, वह तुम लोगों को नहीं जाने देगा। |
20) इसलिए मैं अपना भुजबल प्रदर्षित करूॅँगा और विविध चमत्कार दिखाकर मिस्रियों को सन्तप्त करूॅँगा। इसके बाद वह तुम लोगों को जाने देगा। |
21) मैं तुम लोगों को मिस्री जनता का कृपापात्र बना दूूँगा, इसलिए तुम लोगों को खाली हाथ नहीं जाना पड़ेगा। |
22) प्रत्येक स्त्री अपनी पड़ोसिन से और अपने ही घर की मालकिन से चाँदी, सोने के आभूषण और वस्त्र मॉँग लेगी। तुम उन्हें अपने पुत्र-पुत्रियों को पहनाओंगे। इस प्रकार तुम मिस्रियों को लूटोगे।'' |
1) मूसा ने उत्तर दिया, ''वे लोग मेरा विष्वास नहीं करेंगे और मेरी बात नहीं मानकर यह कहेंगे कि प्रभु ने तुम्हें दर्षन नहीं दिये।'' |
2) इस पर प्रभु ने उससे कहा, ''तुम्हारे हाथ में क्या है।'' उसने बताया, ''एक डण्डा है।'' |
3) उसने उसे आदेष दिया, ''उसे जमीन पर फेंक दो।'' जैसे ही उसने उसे जमीन पर फेंका, वह साँप बन गया। मूसा उससे दूर भाग गया। |
4) प्रभु ने मूसा से कहा, ''अपना हाथ बढ़ाओ, उसकी पूूँछ पकड़ कर उसे उठा लो।'' (इसलिए उसने अपना हाथ बढ़ाया और उसे पकड़ लिया। उसके हाथ में वह फिर डण्डा बन गया।) |
5) ''तुम्हारे ऐसा करने पर उन्हें विष्वास होगा कि उनके पुरखों के ईष्वर इब्राहीम, इसहाक और याकूब के प्रभु-ईष्वर ने तुम्हें दर्षन दिये हैं।'' |
6) फिर प्रभु ने उससे कहा, ''अपना हाथ भीतर सीने पर रखो।'' उसने अपना हाथ भीतर अपने सीने पर रखा, परन्तु जब उसने उसे निकाला, तो उसके हाथ पर हिम की तरह श्वेत कोढ़ हो गया था। |
7) उसने फिर आज्ञा दी, ''अपना हाथ फिर से भीतर सीने पर रखो।'' उसने अपना हाथ भीतर सीने पर रखा। जब उसने उसे बाहर निकाला, तो वह फिर उसके सारे शरीर की तरह हो गया। |
8) ईष्वर ने कहा, ''यदि वे तुम्हारे पहले चिन्ह पर विष्वास न करें और ध्यान न दें तो वे इस दूसरे पर विष्वास करेंगे। |
9) यदि वे इन दो चिन्हों पर भी विष्वास न करें और तुम्हारी बात न मानें, तो तुम नील नदी से कुछ पानी लेना और उसे सूखी भूमि पर डाल देना। नील नदी से लिया हुआ वह पानी सूखी भूमि पर रक्त बन जायेगा। |
10) मूसा ने प्रभु से कहा, ''प्रभु! मैं अच्छा वक्ता कभी नहीं रहा। मैं पहले नहीं था, अब तू मुझ, अपने सेवक, से बोला है, इसके बाद भी नहीं हूँ। मुझे बोलने में कठिनाई होती है। मेरी जीभ भोथरी है।'' |
11) तब प्रभु ने उसे पूछा, ''मनुष्य मुख किसने बनाया है? उसे कौन गूँगा या बहरा, देखने वाला या अन्धा बनाता है? क्या मैं प्रभु ऐसा नहीं करता? |
12) अच्छा अब जाओ। मैं बोलने में तुम्हारी सहायता करूँगा। और तुमको जो कहना है उसे बता दूूँगा।'' |
13) परन्तु उसने कहा, ''प्रभु किसी दूसरे को भेजने की कृपा कर।'' |
14) तब प्रभु को मूसा पर क्रोध आया और उसने कहा, ''लेवीवंषी हारून तुम्हारा भाई है, न? मैं जानता हूँ कि वह अच्छा वक्ता है; वह तुम से मिलने आ रहा है। तुम को देख कर वह प्रसन्ना होगा। |
15) तुम उस से बात करना और उसे समझाना कि क्या कहना हैं। मैं बोलने में तुम दोनों की सहायता करूॅँगा। और जो करना है, उसे बता दूँगा। |
16) वह तुम्हारी ओर से सम्बोधित करेगा। वह मानो तुम्हारा प्रवक्ता होगा और तुम मानो उसके ईष्वर होगे। |
17) अपना यह डण्डा अपने हाथ में लो। इसी के द्वारा तुम चमत्कार दिखाओगे।'' |
18) इसके बाद मूसा अपने ससुर यित्रो के पास लौट गया और उससे बोला, ''आप कृपा कर मुझे मिस्र में अपने भाई-बन्धुओं के पास यह देखने के लिए जाने दीजिए कि वे अब तक जीवित हैं या नहीं।'' यित्रो ने मूसा से कहा, ''सकुषल जाओ।'' |
19) मिदयान में प्रभु ने मूसा से कहा, ''मिस्र लौट जाओ। वे सभी लोग मर गये, जो तुम्हारे प्राण लेना चाहते थे।'' |
20) तब मूसा अपनी पत्नी और अपने बच्चों को ले कर और उन्हें गधे पर बिठा कर मिस्र वापस चला गया। मूसा अपने हाथ में ईष्वर का डण्डा भी ले गया। |
21) प्रभु ने मूसा से कहा, ''जब तुम मिस्र वापस आओगे, तो फिराउन के सामने वे सब चमत्कार दिखाओ, जिन्हें करने का सामर्थ्य मैंने तुम को दिया है। मैं उनका हृदय कठोर कर दूूँगा, वह इस्राएलियों को नहीं जाने देगा। |
22) तुम फिराउन से कहोगे, ÷प्रभु का यह कहना है - इस्राएल मेरा पहलौठा पुत्र है। |
23) मैं तुम को आदेष देता हूँ कि मेरे पुत्र को मेरी सेवा करने के लिए जाने दो। यदि तुम उसे नहीं जाने दोगे तो मैं तुम्हारे पहलौठे पुत्र को मारूॅँगा।'' |
24) मार्ग में एक विश्रामस्थल पर प्रभु उस से मिला और उसने उसे मार डालना चाहा। |
25) तब सिप्पोरा ने एक चकमक पत्थर का टुकड़ा ले कर अपने पुत्र का खतना किया और काटी हुई चमड़ी से उसके (मूसा के) पैरों का स्पर्ष कर कहा, ''अब तुम निश्चय ही रक्त के कारण मेरे दूल्हा हो।'' |
26) प्रभु ने उसे छोड़ दिया। ख़तना हो जाने के कारण ही उसने उससे कहा, ''तुम रक्त के कारण मेरे दूल्हा हो।'' |
27) प्रभु ने हारून को मूसा से मिलने के लिये निर्जन प्रदेष जाने की आज्ञा दी। इसलिए वह ईष्वर के पर्वत के पास मूसा से मिला और उसका चुम्बन किया। |
28) मूसा ने हारून से प्रभु की वे सारी बातें कहीं, जो उसने उससे कही थीं और वे सब चिन्ह भी बता दिये, जिन्हें दिखाने की आज्ञा उसे दी गयी थी। |
29) इसके बाद मूसा और हारून ने जा कर इस्राएलियों के सब नेताओं का एकत्रित किया। |
30) हारून ने भी वे सब बातें बतायीं, जो प्रभु ने मूसा से कही थीं और लोगों के सामने उसने वे चिन्ह भी दिखाये। |
31) लोगों ने विष्वास किया और जब उन्होंने सुना कि प्रभु ने इस्राएलियों की सुध ली है और उनके कष्टों पर ध्यान दिया है, तब उन्होंने सिर झुका कर उसकी आराधना की। |
1) इसके बाद मूसा और हारून ने फिराउन के पास जा कर कहा, ''इस्राएलियों का ईष्वर प्रभु यह कहता है : मेरे लोगों को जाने दो, जिससे वे निर्जन प्रदेष जा कर मेरा एक पर्व मना सकें।'' |
2) फिराउन ने उत्तर दिया, ''वह कौन-सा प्रभु है, जिसकी मैं आज्ञा मानँू और इस्राएलियों को जाने दें, मैं न तो उस प्रभु को जानता हॅँू और न मैं इस्राएलियों को जाने दँॅूगा। |
3) फिर उन्होंने कहा, ''इब्रानियों के ईष्वर ने हमें दर्षन दिये हैं; इसलिए हमें निर्जन प्रदेष जाने दे, जहाँ की यात्रा तीन दिन की है, जिससे हम अपने ईष्वर प्रभु को वहाँ बलि चढ़ा सकें; नहीं तो वह हम पर महामारी भेज देगा या हमें तलवार के घाट उतरवा देगा।'' |
4) परन्तु मिस्र के राजा ने उन्हें उत्तर दिया, ''मूसा और हारून! तुम लोगों को उनके कामों से क्यों हटा रहे हो? जाओ, अपना बेगार का काम करो।'' |
5) इसके बाद फिराउन ने कहा, ''देखो, अब देष में लोगों की संख्या बढ़ गयी है और तुम उन्हें उनके बेगार के काम से छुड़ाना चाहते हो!'' |
6) उसी दिन फिराउन ने लोगों से बेगार करवाने वालों और मेटों को यह आदेष दिया, |
7) ''तुम अब तक जिस प्रकार लोगों को बनाने के लिए घास-फूस दिया करते थे, वह आगे मत देना। वे खुद जायें और खुद घास-फूस इकट्ठा करें। |
8) फिर भी उतनी ही ईटें उन से बनवाना, जितनी वे अब तक बनाते आये हैं। उनकी संख्या बिलकुल कम मत करना। वे आलसी हैं और इसलिए चिल्ला कर कहते हैं कि हमें अपने ईष्वर को बलि चढ़ाने के लिए जाने दीजिए। |
9) उन लोगों का बेगार और भी कठिन बना देना, जिससे वे उस में ही इतने उलझे रहें कि झूठी बातों पर ध्यान न दे सकें।'' |
10) तब लोगों पर नियुक्त अधिकारियों और मेटों ने उनके पास जा कर यह कहा, ''फिराउन का कहना है कि मैं तुम्हें घास-फूस नहीं दूँगा। |
11) तुम खुद जा कर, जहाँ कहीं मिले, घास-फूस लाओ, किन्तु तुम लोगों को पहले जितना सामान तैयार करना है। |
12) इसलिए वे मिस्र भर में इधर-उधर दूर-दूर तक भूसा बनाने के लिए डण्ठल बटोरने लगे। |
13) अधिकारी यह कहते हुए उन्हें बाध्य करते थें, ''ठीक उसी प्रकार प्रतिदिन अपना निर्धारित काम पूरा करो, जिस प्रकार तब करते थें, जब तुम को भूसा दिया जाता था।'' |
14) फिराउन द्वारा नियुक्त बेगार करवाने वाले इस्राएली मेटों को पीटते थे और उन से पूछते थे, ''तुमने पहले की तरह क्यों कल या आज ईटों की नियुक्ति की हुई संख्या का काम पूरा नहीं करवाया?'' |
15) तब इस्राएली मेट फिराउन के पास जा कर यह षिकायत करने लगे कि ''आप अपने दासों के साथ ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं |
16) आपके दासों को घास-फूस तक नहीं दिया जाता है, तब भी वे हम से ईटें बनाने को कहते हैं। आपके दासों को पीटा जाता है, परन्तु दोष आपके अपने लोगों का होता है।'' |
17) उसने उत्तर दिया, ''तुम लोग आलसी हो; हाँ तुम आलसी हो। इसलिए तुम कहते हो कि हमें प्रभु को बलि चढ़ाने के लिए जाने दीजिए। |
18) जाओ, अपना काम करो। तुम्हें भूसा नहीं दिया जायेगा, लेकिन तुम्हें ईटों की निर्धारित संख्या देनी पड़ेगी।'' |
19) जब इस्राएली मेटों से कहा गया कि तुम प्रतिदिन की ईटों की निर्धारित संख्या कम नहीं करोंगे, तो वे समझ गये कि अब उनकी हालत बहुत बुरी हो गयी है। |
20) वे फिराउन के यहाँ से बाहर निकले और मूसा तथा हारून से मिले, जो उनकी प्रतिक्षा कर रहे थे। |
21) उन लोगों ने कहा, ''आपने फिराउन और उनके सेवकों की दृष्टि में हमें घृणा का पात्र बना दिया है और आपने हमें मार डालने के लिये उनके हाथों में एक तलवार दे दी हैं। प्रभु आप को दर्षन दे कर आपका न्याय करें।'' |
22) इस पर मूसा यह कहते हुए प्रभु से दुहाई करने लगा, ''प्रभु तूने इस प्रजा को इतना क्लेष क्यों दिया हैं? तूने मुझे क्यों भेजा है, |
23) जिस समय से मैं तेरी आज्ञा से फिराउन के पास बात करने गया, तब से उसने इस प्रजा को और अधिक कष्ट दिया है; लेकिन तूने अपनी प्रजा का उद्धार करने के लिए कुछ भी नहीं किया।'' |
1) प्रभु ने मूसा से कहा, अब तुम देखोगे कि मैं फिराउन के साथ कैसा व्यवहार करता हँू। बल-प्रदर्षन के कारण वह उन को जाने देगा। इस में सन्देह नहीं कि बल-प्रदर्षन के कारण वह उन्हें अपने देष से निकाल देगा।'' |
2) ईष्वर ने मूसा से कहा, ''मैं प्रभु हँू। |
3) मैं वह सर्वषक्तिमान् ईश्वर हँू, जिसने इब्राहीम, इसहाक और याकूब को दर्षन दिये थे; किन्तु मैंने उन पर अपना ÷प्रभु÷ नाम नहीं प्रकट किया। |
4) मैंने उनके लिये अपना विधान ठहराया, जिसके अनुसार मैं उन्हें वह कनान देष दूँगा, जिस में वे प्रवासी के रूप में निवास करते थे। |
5) मैंने इस्राएलियों की कराह सुन ली है, जिन्हें मिस्रियों ने दास बना रखा है और मैंने अपना विधान याद किया है। |
6) इसलिए तुम इस्राएलियों से यह कहो कि मैं प्रभु हँू, मैं तुम्हें मिस्रियों के बेगार के काम से छुड़ाऊँगा। मैं उनकी दासता से तुम्हारा उद्धार करूँगा। मैं तुम्हें न्याय दिला कर बल-प्रदर्षन द्वारा मुक्त करूँगा। |
7) मैं तुम्हें अपनी प्रजा मानूँगा और तुम्हारा ईष्वर होऊँगा। तुम जान जाओगे कि मैं ही प्रभु, तुम्हारा वह ईश्वर हूँ, जिसने मिस्रियों की दासता से तुम्हारा उद्धार किया है। |
8) मैं तुम्हें उस देष ले जाऊॅँगा, जिसके लिए मैंने इब्राहीम, इसहाक और याकूब को शपथपूर्वक यह वचन दिया था। मैं उसे तुम्हारे अधिकार में दे दँूगा। मैं प्रभु हूँ।'' |
9) मूसा ने इस्राएली लोगों को यह बतलाया; परन्तु घोर दासता के कारण निराष हो कर उन्होंने मूसा की बातों पर ध्यान नहीं दिया। |
10) प्रभु ने मूसा से कहा, |
11) ''तुम मिस्र के राजा फिराउन के पास जा कर कहोः इस्राएलियों को अपने देष से बाहर जाने दो।'' |
12) तब मूसा ने प्रभु को उत्तर दिया, ''जब इस्राएली ही मेरी बात नहीं सुनते, तो फिराउन मेरी बात पर कैसे ध्यान देगा, मेरे-जैसे आदमी पर, जो ठीक से बोल भी नहीं सकता?'' |
13) तब प्रभु मूसा और हारून से इस्राएलियों और मिस्र के राजा के विषय में बोला और उन्हें आदेष दिया कि वे इस्राएलियों को मिस्र देष से निकाल ले जायें। |
14) उनके अपने-अपने वंषों के मुखिया ये थे। इस्राएल के पहलौठे रूबेन के पुत्र : हनोक, पल्लू, हेस्त्रोन और करमी। यही रूबेन के कुल थे। |
15) सिमओन के पुत्र : यमूएल, यामीन, ओहद, याकीन, सोहर और कनानी पत्नी का पुत्र शौल। यही सिमओन के कुल थे। |
16) अपने कुलों के अनुसार लेवी के पुत्रों के नाम ये थे : गेरषोन, कहात और मरारी। लेवी एक सौ सैंतीस वर्ष तक जीवित रहा। |
17) अपने कुलों के अनुसार गेरषोन के ये पुत्र थे : लिबनी और षिमई। |
18) कहात के ये पुत्र थे अम्राम, यिसहार, हेब्रोन और अज्जीएल। कहात एक सौ सैंतीस वर्ष तक जीवित रहा। |
19) मरारी के ये पुत्र थे : महली और मूषी। यही अपनी पीढ़ियों के अनुसार लेवी के कुल थे। |
20) अम्राम ने अपनी फूफी योकेबेद के साथ विवाह किया। उस से हारून और मूसा का जन्म हुआ। अम्राम एक सौ तैंतीस वर्ष तक जीवित रहा। |
21) यिसहार के ये पुत्र थे कोरह, नेफेग और जिक्री। |
22) उज्जीएल के ये पुत्र थे : मीषाएल, एल्साफान और सित्री। |
23) हारून ने अम्मीनादब की पुत्री और नहषीन की बहन, एलीषेबा के साथ विवाह किया। उस से नादाब, अबीहू, एलआजार, और ईतामार का जन्म हुआ। |
24) कोरह के ये पुत्र थे : अस्सीर, एल्काना और अबीयासाफ यही कोरहियों के कुल थे। |
25) हारून के पुत्र एलआजार ने पुटीएल की पुत्री के साथ विवाह किया। उस से उसकी पुत्री पीनहास हुआ। यही अपने-अपने कुलों के अनुसार लेवियों के घरानों के मुखिया थे। |
26) ये वही हारून और मूसा है, जिन्हें प्रभु ने आज्ञा दी थी कि तुम मेरी प्रजा, समस्त इस्राएली लोगों को मिस्र से निकाल ले जाओ। |
27) ये वही हारून और मूसा हैं, जिन्होंने इस्राएलियों को मिस्र से ले जाने के लिए मिस्र के राजा फिराउन से बातें कीं। |
28) जब प्रभु ने मिस्र देष में मूसा से बातें की, |
29) तब प्रभु ने मूसा से यह कहा, ''मैं प्रभु हँू। मैं तुम से जो कुछ कहता हँू, तुम उसे मिस्र के राजा फिराउन से कहो।'' |
30) इस पर मूसा ने प्रभु को उत्तर दिया, ''मैं तो अच्छी तरह बोलना भी नहीं जानता फिर फिराउन मेरी कैसे मानेगा?'' |
1) प्रभु ने मूसा से कहा, ''देखो मैं तुम को फिराउन के लिए ईष्वर-सदृष बनाता हँू और तुम्हारा भाई हारून तुम्हारी ओर से बोलेगा। |
2) मेरी आज्ञा के अनुसार तुम उसे सब कुछ समझा दो और तुम्हारा भाई हारून फिराउन से कहेगा कि वह इस्राएलियों को अपने देष से निकल जाने दे। |
3) मैं फिराउन का हृदय कठोर कर दँूगा। मैं मिस्र देष में बहुत-से चिन्ह और चमत्कार दिखाऊँगा। |
4) यदि इस पर भी फिराउन तुम्हारी बातें नहीं मानेगा, तो मैं मिस्र को दण्ड दँूगा और अपनी प्रजा को न्याय दिला कर बल-प्रदर्षन द्वारा समस्त इस्राएलियों को मिस्र देष से बाहर लाऊँगा। |
5) जिस समय मैं मिस्रियों के विरुद्ध अपना बल प्रदर्षित करूँगा और इस्राएलियों को उनके बीच से निकाल ले जाऊँगा, उस समय मिस्री जान जायेंगे कि मैं प्रभु हँू।'' |
6) मूसा और हारून ने ठीक वैसा ही किया, जैसी प्रभु की आज्ञा थी। |
7) फिराउन से बातचीत के समय मूसा की उमर अस्सी थी और हारून की तिरासी। |
8) प्रभु ने मूसा और हारून से कहा, |
9) ''जब फिराउन तुम लोगों से कहे कि तुम कोई चमत्कार दिखाओ, तब तुम हारून से यह कहो, ÷अपना डण्डा फिराउन के सामने फेंक दो और वह सर्प बन जायेगा÷।'' |
10) मूसा और हारून प्रभु की आज्ञा के अनुसार फिराउन के पास गये। हारून ने अपना डण्डा फिराउन और उसके पदाधिकारियों के सामने फेंक दिया और वह सर्प बन गया। |
11) तब फिराउन ने पण्डितों और जादूगरों को बुलवाया और इन मिस्री जादूगरों ने अपने तन्त्र मंत्र से वैसा ही किया। |
12) सब ने अपना-अपना डण्डा फेंक दिया और वह सर्प बन गया; लेकिन हारून के डण्डे का सर्प उन लोगों के डण्डों के सर्पों को निगल गया। |
13) परन्तु जैसा प्रभु ने पहले ही कहा था, फिराउन का हृदय कठोर बना रहा और उसने उनकी नहीं सुनी। |
14) प्रभु ने मूसा से कहा, ''फिराउन का हृदय कठोर हो गया है। वह लोगों को बाहर जाने की अनुमति नहीं देता है। |
15) इसलिए जब फिराउन प्रातःकाल नदी जायेगा, तब तुम नदी के किनारे उसकी प्रतीक्षा करो और उस डण्डे को, जो सर्प बन गया था, हाथ में लिये रहो। |
16) फिर उस से कहो कि इब्रानियों के ईष्वर प्रभु ने मुझे आपके पास यह आज्ञा दे कर भेजा है - मेरी प्रजा को बाहर जाने दो, जिससे वह निर्जन स्थान जा कर मेरी पूजा कर सके। अब तक आपने हमारी बात नहीं मानी है। |
17) इसलिए प्रभु यह कहता है कि इस बात से तुम जान जाओगे कि मैं ही प्रभु हँू : मैं अपने हाथ का डण्डा नील नदी के पानी पर मारूँगा और पानी रक्त में बदल जायेगा। |
18) नील नदी की मछलियाँ मर जायेंगी। नील का पानी इतना गन्दा हो जायेगा कि मिस्री नील नदी का पानी नहीं पी सकेगें। |
19) प्रभु ने मूसा से कहा, ''तुम हारून से कहो - तुम अपना डण्डा हाथ में लो और मिस्र के सब जलाषयों नदियों, नहरों, तालाबों, तलैयों पर अपना हाथ बढ़ाओं, जिससे वे सभी रक्त में बदल जायें। मिस्र देष का पानी, यहाँ तक कि लकड़ी और मिट्टी के बरतनों का पानी भी रक्त में बदल जाये।'' |
20) मूसा और हारून ने प्रभु की आज्ञा का पालन किया। फिराउन और उसके पदाधिकारियों की आँखों के सामने ही उसने डण्डा उठाया और नील नदी के पानी पर मारा। इस से नील नदी का सारा पानी रक्त में बदल गया। |
21) नील की मछलियाँ मर गयी। नील का पानी इतना गन्दा हो गया कि मिस्री लोग नील का पानी नहीं पी सकते थे। सारे मिस्र देष में रक्त ही रक्त था। |
22) परन्तु मिस्री जादूगरों ने भी अपने तन्त्र मन्त्र द्वारा ऐसा ही कर दिखाया। इसलिए, जैसा प्रभु ने कहा था, फिराउन का हृदय कठोर ही बना रहा और उसने उनकी नहीं सुनी। |
23) फिराउन अपने महल चला गया और उसने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया। |
24) अब मिस्री लोगों में कोई भी नील का पानी कैसे पी सकता था? इसलिए उन लोगों ने पीने के पानी के लिए नदी के निकट गड्ढे खोदे, क्योंकि वे नदी का पानी नहीं पी सकते थे। |
25) जब प्रभु के नील नदी पर डण्डा मारने के सात दिन हो चुके, |
26) तब प्रभु ने मूसा से कहा, ''फिराउन के पास जा कर कहो कि प्रभु यह कहता है - मेरी प्रजा को बाहर जाने दो, जिससे वह मेरी पूजा कर सके। |
27) यदि तुम उसे नहीं जाने दोगे, तो मैं तुम्हारा सारा देष मेंढकों से भर कर लोगों को सताऊँगा। |
28) नील नदी मेंढकों से भर जायेगी और वे वहाँ से निकल कर तुम्हारे महल, तुम्हारे शयनकक्ष और तुम्हारी शय्या पर पहुँच जायेंगे। वे तुम्हारे घरों में, चूल्हों और आटा गूँथने के बरतनों में भर जायेंगे। |
29) मेंढक तुम्हारी, तुम्हारी प्रजा और तुम्हारे सभी पदाधिकारियों की देह पर चढें+गे।'' |
1) प्रभु ने मूसा से कहा, ''तुम हारून से कहो कि वह हाथ में डण्डा ले कर उसे नदियों, नहरों और तालाबों के ऊपर फैलाये। ऐसा करने से मेंढक मिस्र की भूमि पर आ जायेंगे।'' |
2) हारून ने अपना हाथ मिस्र के जलाषयों के ऊपर फैलाया। इस पर मेंढक बाहर निकल पड़े और मिस्र देष मेंढकों से भर गया। |
3) लेकिन जादूगरों ने भी अपने तन्त्र-मन्त्र द्वारा ऐसा ही किया और मिस्र की भूमि में मेंढक बुला लायें। |
4) इस पर फिराउन ने मूसा और हारून को बुला कर कहा, ''प्रभु से प्रार्थना करों कि वह मेरे और मेरी प्रजा से मेंढकों को हटा ले। तब मैं प्रभु को बलि चढ़ाने के लिए लोगों को जाने दूँगा।'' |
5) मूसा ने फिराउन के कहा, ''कृपया यह बताइए कि मैं आपके लिए, आपके सेवकों और आपकी प्रजा के लिए किस समय प्रार्थना करूँ, जिससे मेंढक आप से और आपके घरों से दूर हो जायें और केवल नील नदी में ही रह जाये?'' |
6) उसने कहा, ''कल।'' मूसा ने कहा, आप जैसा कहते हैं, वेैसा ही होगा, जिससे आप जान जायें कि हमारे प्रभु ईष्वर के समान और कोई नहीं। |
7) मेंढक आपके, आपके घरों, आपके सेवकों और आपकी प्रजा के पास से हट जायेंगे। |
8) इसके बाद मूसा और हारून फिराऊन के पास से चले आये। मूसा ने मेंढको के विषय में प्रभु से प्रार्थना की, जिन्हें उसने फिराउन पर भेजा था। |
9) प्रभु ने मूसा की प्रार्थना सुनी और वैसा ही किया। मेंढक घरों, आँगनों और खेतों में मर गये। |
10) लोगों ने उन्हें इकट्टा कर उनके ढेर लगा दिये। सारा देष उनकी दुर्गन्ध से भर गया। |
11) लेकिन जब फिराउन ने देखा कि संकट टल गया है, तो जैसा प्रभु ने कहा था, उसका हृदय कठोर बना रहा और उसने मूसा और हारून की नहीं सुनी। |
12) अब प्रभु ने मूसा को आज्ञा दी, ''तुम हारून से कहो कि वह अपना डण्डा ले कर जमीन की धूल पर मारे, जिससे सारा मिस्र देष मच्छरों से भर जायें।'' |
13) उन्होंने वैसा ही किया। हारून ने डण्डा ले कर अपना हाथ फैलाया और ज+मीन की धूल पर मारा। इस पर मनुष्यों और पशुओं पर मच्छर टूट पड़े। पूरे देष की धूल मच्छर बन गयी। |
14) जादूगरों ने भी अपने तन्त्र-मन्त्र से मच्छर पैदा करने का प्रयत्न किया, किन्तु वे ऐसा नहीं कर सके। मनुष्यों और पशुओं पर मच्छर बने रहे। |
15) जादूगरों ने फिराउन से कहा, ''यह ईष्वर का कार्य है।'' किन्तु जैसा ईष्वर ने कहा था, फिाराउन का हृदय कठोर ही बना रहा और उसने मूसा और हारून की नहीं सुनी। |
16) प्रभु ने मूसा से कहा, ''तुम बडे+ सबेरे उठ कर नदी जाते हुए फिराउन की प्रतीक्षा करो और उस से कहो : प्रभु यह कहता है कि मेरे अपने लोगों को जाने दो, जिससे वे मेरी पूजा कर सकें |
17) और यदि तुम मेरी प्रजा को निकलने नहीं दोगे, तो मैं तुम पर, तुम्हारे सेवकों, तुम्हारी प्रजा और तुम्हारी घरों के ऊपर डाँसों के झुण्ड छोड़ दूँगा। मिस्रियों के घर और वह भूमि भी, जहाँ वे रहते हैं, डाँसों से भर जायेगी। |
18) किन्तु उस दिन गोषेन प्रदेष में, जहाँ मेरी प्रजा निवास करती है, डाँस नहीं होगे, जिससे तुम जान जाओगे कि इस पृथ्वी पर मैं प्रभु विद्यमान हूँ। |
19) इस प्रकार मैं तुम्हारी और अपनी प्रजा में भेद करूँगा। यह चमत्कार कल ही होगा।'' |
20) प्रभु ने ऐसा ही किया। फिराउन का महल, उसके सेवकों के घर और सारा मिस्र देष डाँसों से भर गया। डाँसों के कारण देष का विनाष हुआ। |
21) अब फिराउन ने मूसा और हारून को बुलवा कर कहा, ''जाओ और इस देष में ही अपने ईश्वर के लिए बलि चढ़ाओ।'' |
22) किन्तु मूसा ने कहा, ''ऐसा करना हमारे लिए उचित नहीं होगा। हम अपने प्रभु ईष्वर को ऐसी बलि चढ़ाते हैं, जो मिस्रियों की दृष्टि में घृणित है। यदि हम मिस्रियों के देखने में ऐसी बलि चढ़ायेंगे, जिसे वे घृणित समझते हैं, तो क्या वे हमें पत्थरों से नहीं मार डालेंगे? |
23) हमें निर्जन स्थान में, तीन दिन की यात्रा की दूरी पर जाना होगा और वहाँ अपने प्रभु ईष्वर की आज्ञा के अनुसार उसे बलि चढ़ानी होगी।'' |
24) इस पर फिराउन ने कहा, ''मैं तुम्हें अपने प्रभु-ईश्वर को निर्जन स्थान में बलि चढ़ाने के लिए जाने तो दूँगा, किन्तु तुम बहुत दूर मत जाओ। मेरे लिए प्रार्थना करो।'' |
25) मूसा ने उत्तर दिया, ''देखिए, मैं आपके यहाँ से जाने के बाद प्रभु से प्रार्थना करूँगा। कल फिराउन तथा उनके सेवकों और उनकी प्रजा के यहाँ से डाँस दूर हो जायेंगे। किन्तु फिराउन फिर धोखा न दें और प्रभु को बलि चढ़ाने के लिए लोगों को जाने से न रोकें।'' |
26) इसके बाद मूसा फिराउन के यहाँ से चला आया और उसने प्रभु से प्रार्थना की। |
27) प्रभु ने मूसा की प्रार्थना पूरी की। उसने फिराउन, उसके सेवकों और उसकी प्रजा से डाँसों को इस तरह दूर कर दिया कि कहीं एक डाँस भी शेष न रहा। |
28) परन्तु फिराउन इस बार भी अपने हृदय को कठोर बनाये रहा और उसने लोगों को नहीं जाने दिया। |
1) प्रभु ने मूसा से कहा, ''फिराउन के यहाँ जा कर उस से कहो कि इब्रानियों का ईष्वर प्रभु कहता है कि मेरे लोगों को चले जाने दो, जिससे वे मेरी पूजा कर सकें। |
2) यदि तुम उन्हें नहीं जाने दोगे और उन्हें रोके रखोगे, |
3) तो समझ लो कि प्रभु का हाथ तुम्हारे खेतों में तुम्हारे पशुओं को - घोड़ों, गधों, ऊँटों, गायों और भेड़ों को मारेगा उन में एक भयंकर महामारी फैलेगी। |
4) परन्तु प्रभु इस्राएलियों के ढोरों और मिस्रियों के ढोरों में भेद करेगा। इस्राएलियों के सभी पशुओं में एक भी नहीं मरेगा। |
5) प्रभु ने यह कहते हुए समय निर्धारित किया, ''कल प्रभु इस देष में ऐसा करेगा। |
6) दूसरे दिन प्रभु ने वही किया। मिस्रियों के सभी पशु मर गये, लेकिन इस्राएलियों के पशुओं में एक भी नहीं मरा। |
7) जब फिराउन ने जाँच करायी, तो मालूम हुआ कि इस्राएलियों के पशुओं में एक भी नहीं मरा है। इस पर भी फिराउन का हृदय कठोर ही बना रहा और उसने लोगों को नहीं जाने दिया। |
8) इस पर प्रभु ने मूसा और हारून से कहा, ''भट्ठी से मट्ठी भर राख लो। मूसा फिराउन के सामने ही उसे आकाष की ओर उड़ा देगा। |
9) वह मिस्र की सारी भूमि पर बारीक धूल बन कर फेल जायेगी। वह सारे मिस्र देष के मनुष्यों और पशुओं पर गिरेगी और इस से उनकी देह पर फोड़े निकल जायेंगे। फिर वे पक कर बहने लगेंगे। |
10) इसलिए उन्होंने भट्ठी से राख ले ली और फिराउन के सामने ही खड़े हो कर मूसा ने उसे आकाष की ओर उड़ा दिया। इस से मनुष्यों और पषुओं को फोड़े निकल आये और वे पक कर बहने लगे। |
11) फोड़ों के कारण मूसा के सामने जादूगर खड़े नहीं हो सके, क्योंकि जादूगरों और सब मिस्रियों के शरीर पर फोड़े निकल आये थे। |
12) परन्तु प्रभु ने फिराउन के हृदय को कठोर बना दिया था; इसलिए जैसा प्रभु ने मूसा से कहा था, उसने मूसा और हारून की नहीं सुनी। |
13) फिर प्रभु मूसा ने कहा, ''सबेरे जल्दी उठ कर फिराउन के पास जाओं और उस से कहो कि इब्रानियों का प्रभु-ईष्वर यह कहता है मेरे लोगों को जाने दो, जिससे वे मेरी पूजा कर सकें। |
14) नहीं तो इस बार मैं तुम पर, तुम्हारे सेवकों और तुम्हारी प्रजा पर सब प्रकार की विपत्तियाँ ढाहूँगा, जिससे तुम समझोगे कि सारी पृथ्वी पर मेरी समता करने वाला कोई नहीं है। |
15) मैं तुम पर और तुम्हारी प्रजा पर ऐसी भयंकर महामारी भेज सकता था, जिससे पृथ्वी से तुम्हारा सर्वनाष हो जाता, |
16) परन्तु मैंने तुम को केवल इसलिए जीवित रखा है कि मैं तुम्हें अपनी शक्ति का परिचय दँू, जिससे मेरा नाम समस्त पृथ्वी पर ज्ञात हो जाये। |
17) फिर भी तुम अभी तक मेरे लोगों का विरोध करते चले जा रहे हो और उन्हें नहीं जाने दे रहे हों। यदि तुम आगे भी ऐसा ही करते रहोगे, तो |
18) कल इसी समय मैं ओलों की ऐसी भीषण वर्षा करूँगा, जैसा मिस्र राष्ट्र की स्थापना से आज तक कभी नहीं हुई। |
19) इसलिए अपने सब पशुओं को और खेतों में जो कुछ तुम्हारा है, उसे किसी सुरक्षित स्थान में पहुँचा दो, क्योंकि सब मनुष्य और पशु जो खेत में होगें और अन्दर नहीं लाये गये होगें, उन सब पर ओलों की वर्षा होगी और वे मर जायेंगे। |
20) इसके बाद फिराउन के सेवकों में जो प्रभु की वाणी पर श्रद्धा रखते थे, उन्होंने अपने दासों और पशुओं को अपने घरों में आश्रय दिया। |
21) परन्तु जिन्होंने प्रभु की वाणी की उपेक्षा की, उन्होंने अपने दासों और पशुओं को खेतों में ही छोड़ दिया। |
22) तब प्रभु ने मूसा को आज्ञा दी, ''अपने हाथ आकाष की ओर फैलाओ। ऐसा करने पर मिस्र देष में ओलों की वर्षा होने लगेगी। वह सारे मिस्र के मनुष्यों, पषुओं और खेतों की प्रत्येक वनस्पति पर पड़ेगी।'' |
23) जब मूसा ने अपना डण्डा आकाष की ओर उठाया, तो प्रभु ने बादलों की गरज के साथ ओलों की वर्षा शुरू कर दी। पृथ्वी पर बिजलियाँ गिरी और प्रभु ने मिस्र देष पर ओलों की वर्षा की। |
24) ओलों की वर्षा हुई और ओलों के साथ लगातार बिजलियाँ भी चमकती रही। ओलों की ऐसी भीषण वर्षा हुई, जैसी मिस्र राष्ट्र की स्थापना के बाद देष में कहीं भी कभी नहीं हुई थी। |
25) ओलों की वर्षा ने समस्त मिस्र देष में, सब कुछ जो बाहर पड़ा था, मनुष्यों और पषुओं को, नष्ट कर दिया। ओलों की वर्षा से खेतों की सारी वनस्पति और मैदान के सभी वृक्ष नष्ट हो गये। |
26) किन्तु गोषेन प्रदेष में, जहाँ इस्राएली रहते थे, ओलों की वर्षा नहीं हुई। |
27) तब फिराउन ने मूसा और हारून को बुलवा कर उन से कहा, ''इस बार मैंने अपराध किया है। प्रभु को ऐसा करने का अधिकार था, मैं और मेरी प्रजा अपराधी है। |
28) प्रभु से प्रार्थना करो, क्योंकि अब हम बादलों के गर्जन ओर ओलों की वर्षा से बहुत तंग आ गये हैं। मैं लोगों को जाने दूँगा और अब तुम्हें यहाँ और अधिक रूकना नहीं होगा। |
29) मूसा ने उस से कहा, ''नगर से बाहर पहुँचते ही मैं प्रभु की ओर अपने हाथ फैलाऊँगा। इस से बादलों का गरजन बन्द हो जाएगा और ओलों की वर्षा रूक जाएगी। जिससे आपको विष्वास हो जाएगा कि पृथ्वी प्रभु की है। |
30) लेकिन मैं जानता हूँ कि आप और आपके पदाधिकारी अब भी प्रभु-ईष्वर पर श्रद्वा नहीं रखते।'' |
31) (अलसी और जौ तो नष्ट हो गये, क्योंकि जौ कि बालें निकल चुकी थी और अलसी कि बौड़ियाँ नहीं निकली थी। |
32) पर गेहूँ और कठिया गेहूँ नष्ट नहीं हुए, क्योंकि उनके फूटने का अभी समय नहीं हुआ था।) |
33) मूसा ने फिराउन के यहाँ से नगर के बाहर जाते ही अपने हाथ प्रभु की ओर फैलाये। इससे बादलों की गड़गडाहट और ओलों की वर्षा रूक गई और पृथ्वी पर वर्षा बन्द हो गई। |
34) परन्तु जब फिराउन ने देखा कि पानी, ओलों की वर्षा और बादलों का गर्जन बन्द हो गया, तो उसने फिर पाप किया। उसने और उसकी पदाधिकारियों ने अपना हृदय कठोर कर लिया। |
35) जैसा प्रभु ने मूसा द्वारा बताया था फिराउन का हृदय वैसा ही कठोर बना रहा और उसने इस्राएलियों को नहीं जाने दिया। |
1) फिर प्रभु ने मूसा से कहा, ''फिराउन के पास जाओ। मैंने उसके और उसके पदाधिकारियों के हृदय इसलिए कठोर कर दिये हैं कि मैं उन पर अपने चमत्कार दिखाऊँ |
2) और तुम अपने पु+त्रों और पौत्रों को यह सुना सको कि मैंने मिस्रियों के साथ कैसा कठोर व्यवहार किया और उनके बीच क्या चमत्कार दिखाये, जिससे तुम जान जाओ कि मैं ही प्रभु हूँ।'' |
3) इसलिए मूसा और हारून ने फिराउन के पास जा कर कहा, ''इब्रानियों का ईष्वर प्रभु यह कहता है तुम मेरे सामने कब तक सिर नहीं झुकाओगे? मेरी प्रजा को जाने दो, जिससे वे मेरी पूजा कर सकें। |
4) यदि तुम उन्हें नहीं जाने दोगे, तो मैं कल तुम्हारे देष में टिड्डि्याँ भेजूँगा। |
5) वे भूमि को इस प्रकार ढक लेंगी कि कहीं भी जमीन नहीं दिखाई देगी और ओलों की वर्षा से जो कुछ तुम्हारे पास बचा है, वे उसे खा जायेंगी। वे मैदानों के सभी वृक्षों को खा जायेंगी। |
6) वे तुम्हारे, तुम्हारे पदाधिकारियों और सब मिस्रियों के घरों में इस प्रकार भर जायेंगी कि तुम्हारें पुरखों ने भी जन्म से ले कर आज तक ऐसा नहीं देखा होगा।'' इसके बाद मूसा फिराउन के यहाँ से चला गया। |
7) फिराउन के पदाधिकारियों ने उससे कहा, ''यह आदमी हम लोगों को कब तक फँसाये रहेगा? उन लोगों को जाने दीजिए, जिससे वे जा कर अपने प्रभु-ईष्वर की पूजा कर सकें। क्या अभी तक आपने यह नहीं समझा कि मिस्र का विनाष होता जा रहा है?'' |
8) मूसा और हारून फिराउन के सामने बुलाये गये और उसने उन से कहा, ''अपने प्रभु-ईष्वर की पूजा करने के लिए जाओ। परन्तु कौन-कौन जायेगा?'' |
9) मूसा ने उत्तर दिया, ''हम सभी अपने बाल-बच्चों और बूढ़ों, अपने पुत्र-पुत्रियों, अपनी भेड़-बकरियों और गाय-बैलों सब को ले कर जायेंगे? क्योंकि हमें प्रभु का एक पुण्य पर्व मनाना है।'' |
10) उसने उन्हें उत्तर दिया, ''यदि मैं तुम लोगों को बाल-बच्चों साथ जाने देता हूँ, तो प्रभु तुम्हारे साथ हो! सावधान! तुम बुराई पर तुले हुए हो। मैं यह नहीं होने दूँगा। |
11) तुम में से पुरुष ही प्रभु की पूजा करने जायेंगे, इसीलिए तो तुम जाना चाहते हो।'' वे फिराउन के यहाँ से भगा दिये गये। |
12) प्रभु ने मूसा से कहा, ''मिस्र देष पर उपना हाथ फैलाओ, जिससे टिड्डियाँ मिस्र देष पर छा जायें और देष भर में ओलों की वर्षा से बचे हुए पौधे खा डालें।'' |
13) इसलिए मूसा ने मिस्र देष पर अपना डण्डा फैलाया। तब प्रभु ने पूरे दिन और रात देष में पूर्वी हवा चलायी। सबेरा होने पर पूर्वी हवा के साथ टिड्डियाँ आ गयीं। |
14) टिड्डियाँ सारे मिस्र देष पर टूट पड़ी, वे बड़ी संख्या में सारे मिस्र देष में छा गई। टिड्डियाँ का उतना बड़ा दल पहले कभी नहीं देखा गया और बाद में भी कभी नहीं देखा जायेगा। |
15) वे देष भर में इस प्रकार भर गयीं कि देष पर अँधेरा-सा छा गया था। उन्होंने आलों की वर्षा से बचे हुए खेतों के सब पौधे और वृक्षों के फल खा डाले। सारे मिस्र देष में वृक्षों या पौधों पर कुछ भी हरियाली नहीं रह गयी। |
16) अब फिराउन ने मूसा और हारून को तुरन्त बुलवाया और कहा, ''मैंने प्रभु, तुम्हारे ईष्वर और तुम्हारे प्रति अपराध किया है। |
17) कृपया एक बार और मेरा अपराध क्षमा करो। प्रभु, अपने ईष्वर, से प्रार्थना करो, जिससे वह मुझ से यह घातक विपत्ति दूर कर दे।'' |
18) इसके बाद मूसा ने फिराउन के यहाँ से चल कर प्रभु से प्रार्थना की। |
19) प्रभु ने प्रचण्ड पष्चिमी हवा चलायी, जिससे टिड्डियों को ले जा कर लाल समुद्र में डाल दिया। पूरे मिस्र देष में एक भी टिड्डी शेष नहीं रह गयी। |
20) परन्तु प्रभु ने फिराउन के हृदय को फिर कठोर कर दिया। उसने इस्राएलियों की जाने नहीं दिया। |
21) प्रभु ने मूसा से कहा, ''आकाष की ओर अपना हाथ फैलाओ, जिससे मिस्र देष पर अंधकार छा जाये-इतना घना अन्धकार कि इस में लोग टटोलते-टटोलते चले। |
22) मूसा ने अपना हाथ आकाष की ओर फैलाया और सारे मिस्र देष में तीन दिन तक घोर अन्धकार छाया रहा। |
23) तीन दिन तक कोई एक दूसरे को नहीं देख पाता था, कोई अपने स्थान से टल नहीं सकता था, लेकिन इस्राएलियों के सब स्थानों में प्रकाष था। |
24) तब फिराउन ने मूसा को बुलवाया और कहा, ''प्रभु की पूजा करने के लिए जाओं। तुम्हारे बाल-बच्चे भी तुम्हारे साथ जा सकते हैं। केवल अपनी भेड़-बकरियाँ और गाय-बैल छोड़ जाओं।'' |
25) लेकिन मूसा ने उत्तर दिया, ''आप को हमारे साथ बलि और आहुति चढ़ाने के लिए हमारे पशुओं को भी जाने देना चाहिए, जिससे हम अपने प्रभु-ईष्वर को उनकी बलि चढ़ा सके। |
26) यहाँ किसी को भी छोड़ना संभव नहीं होगा; क्योंकि प्रभु, अपने-ईष्वर की पूजा में वे हमारे काम आयेगे और तब तक हम वहाँ पहुँच नहीं जाते, हम यह नहीं जान सकते कि हमें प्रभु की पूजा में किसकी जरूरत पडे+गी।'' |
27) परन्तु प्रभु ने फिराउन के हृदय को कठोर कर दिया, जिससे उसने उन्हें जाने नहीं दिया। |
28) इस पर फिराउन ने उस से कहा, मेरे सामने से हट जाओ। सावधान रहो! फिर मेरे पास मत आओ! तुम जिस दिन मेरे सामने आओगे, मर जाओगे।'' |
29) मूसा ने उत्तर दिया, ''आपने ठीक कहा है। मैं फिर कभी आपके सामने नहीं आऊँगा।'' |
1) प्रभु ने मूसा से कहा, ''मैं फिराउन और मिस्र पर एक और विपत्ति ढाहूँगा। इसके बाद ही वह तुम लोगों को यहाँ से जाने देगा। जब वह तुम्हें जाने की आज्ञा देगा, तब तुम लोगों को यहाँ से बिलकुल निकाल देगा। |
2) लोगों को यह समझा दो कि प्रत्येक पुरुष अपने पड़ोसी से और प्रत्येक स्त्री अपनी पड़ोसिन से चाँदी और सोने के आभूषण माँग ले।'' |
3) प्रभु ने मिस्रियों की दृष्टि में इस्राएलियों को कृपापात्र बनाया। यही नहीं, मिस्र देष में फिराउन के पदाधिकारियों और लोगों की दृष्टि में मूसा एक महान् व्यक्ति समझा जाने लगा। |
4) मूसा ने कहा, ''प्रभु यह कहता है कि मैं आधी रात में मिस्र का परिभ्रमण करूँगा। |
5) तब मिस्र के सब पहलौठे मर जायेंगे, सिंहासन पर विराजमान फिराउन के पहलौठे पुत्र से लेकर चक्की पीसने वाली दासी के पहलौठे तक। पशुओं के सब पहलौठे बच्चे भी मरेंगे। |
6) सारे मिस्र में जोरों का हाहाकार मचेगा। जैसा न आज तक मचा है और न आगे कभी मचेगा। |
7) परन्तु इस्राएलियों के विरुद्ध चाहे मनुष्य हों, चाहे पशु, एक कुत्ता भी नहीं भौंकेगा। इस से आप जान जायेंगे कि प्रभु मिस्रियों और इस्राएलियों में भेद करता है। |
8) तब आपके सब पदाधिकारी मेरे पास आयेंगे और प्रणाम करते हुए कहेंगे कि आप और वे सब लोग, जो आपके अनुवर्ती हैं, चले जाइए। इसके बाद मैं चला जाऊँगा।'' इतना कह कर मूसा क्रोध से तमतमाते हुए फिराउन के यहाँ से चला गया। |
9) प्रभु ने मूसा से कहा था, ''फिराउन तुम्हारी बातों पर इसीलिए ध्यान नहीं देता कि मिस्र में मेरे चमत्कार बढ़ते जायें।'' |
10) मूसा और हारून ने फिराउन के सामने ये सब चमत्कार दिखाये। परन्तु प्रभु ने फिराउन का हृदय कठोर कर दिया था। उसने इस्राएलियों को अपने देष से जाने की आज्ञा नहीं दी। |
1) प्रभु ने मिस्र देष में मूसा और हारून से कहा, |
2) ''यह तुम्हारे लिए आदिमास होगा; तुम इसे वर्ष का पहला महीना मान लो। |
3) इस्राएल के सारे समुदाय को यह आदेष दो - इस महीने के दसवें दिन हर एक परिवार एक एक मेमना तैयार रखेगा। |
4) यदि मेमना खाने के लिए किसी परिवार में कम लोग हों, तो जरूरत के अनुसार पास वाले घर से लोगों को बुलाओ। खाने वालों की संख्या निष्चित करने में हर एक की खाने की रुचि का ध्यान रखो। |
5) उस मेमने में कोई दोष न हो। वह नर हो और एक साल का। वह भेड़ा हो अथवा बकरा। |
6) महीने के दसवें दिन तक उसे रख लो। शाम को सब इस्राएली उसका वध करेंगे। |
7) जिन घरों में मेमना खाया जायेगा, दरवाजों की चौखट पर उसका लोहू पोत दिया जाये। |
8) उसी रात बेखमीर रोटी और कड़वे साग के साथ मेमने का भूना हुआ मांस खाया जायेगा। |
9) इस में से कच्चा या उबला हुआ कुछ मत खाओं, बल्कि सिर, पैरों और अँतड़ियों के साथ पूरे को आग में भून कर खाओं। |
10) अगले दिन के लिए कुछ भी नहीं रखा जायेगा। जो कुछ बच गया हो, उसे भोर के पहले ही जला दोगे। |
11) तुम लोग चप्पल पहन कर, कमर कस कर तथा हाथ में डण्डा लिये खाओगे। तुम जल्दी-जल्दी खाओगे, क्योंकि यह प्रभु का पास्का है। |
12) उसी रात मैं, प्रभु मिस्र देष का परिभ्रमण करूँगा, मिस्र देष में मनुष्यों और पशुओं के सभी पहलौठे बच्चों को मार डालँूगा और मिस्र के सभी देवताओं को भी दण्ड दूँगा। |
13) तुम लोहू पोत कर दिखा दोगे कि तुम किन घरों में रहते हो। वह लोहू देख कर मैं तुम लोगों को छोड़ दूँगा, इस तरह जब मेैं मिस्र देश को दण्ड दूँगा, तुम विपत्ति से बच जाओगे। |
14) तुम उस दिन का स्मरण रखोगे और उसे प्रभु के आदर में पर्व के रूप में मनाओगे। तुम उसे सभी पीढ़ियों के लिए अनन्त काल तक पर्व घोषित करोगे। |
15) तुम्हें सात दिन बेखमीर रोटी खानी होगी। तुम पहले दिन अपने घरों से ख़मीर बाहर कर दो यदि कोई पहले और सातवें दिन के बीच ख़मीरी रोटी खायेगा, तो वह इस्राएली समुदाय से बहिष्कृत कर दिया जायेगा। |
16) पहले और सातवें दिन तुम धर्म-सभा करोगे। अपने लिए भोजन के प्रबन्ध के सिवा इन दिनों कोई दूसरा काम नहीं करोगे। |
17) तुम्हें बेख़मीर रोटियों का पर्व मनाना होगा, क्योंकि वह वही दिन होगा, जिस दिन मैं तुम्हारे सारे समुदाय को मिस्र देष से निकाल लाया हूँ। इसीलिए तुम यह दिन चिरस्थायी आदेष के रूप में पीढ़ी-दर-पीढ़ी मनाना। |
18) पहले महीने के चौदहवें दिन की षाम से इस महीने के इक्कीसवें दिन की शाम तक तुम्हें बेखमीर रोटी खानी होगी। |
19) सात दिन तक तुम्हारे घरों में कोई ख़मीर न हो। यदि कोई ख़मीरी रोटी खायेगा, तो वह इस्राएली समुदाय से बहिष्कृत किया जायेगा - चाहे वह प्रवासी हो, चाहे इस्राएली। |
20) तुम कोई ख़+मीरी रोटी मत खाना। अपने सब निवासस्थानों में तुम बेख़मीर रोटी ही खाना।'' |
21) मूसा ने सभी इस्राएली नेताओं को बुला कर उन से कहा, ''अपने-अपने परिवारों के लिए मेमनों का प्रबन्ध करने जाओं और पास्का-मेमने का वध करो। |
22) तब तुम जूफ़ा का गुच्छा बरतन में रखे हुए रक्त में डुबाओं और बरतन का रक्त चौखट और द्वार के दोनों बाजुओं पर लगाओं। तुम लोगों में कोई सबेरे तक अपने घर के द्वार से बाहर न निकले। |
23) प्रभु देष का परिभ्रमण करते हुए मिस्रियों को मार डालेगा। जब वह चौखट और द्वार के दोनों बाजुओं पर वह रक्त देखेगा, तो वह उस द्वार के सामने से आगे निकल जायेगा और तुम्हें मारने के लिए विनाषक को तुम्हारे घर के अन्दर जाने नहीं देगा। |
24) तुम और तुम्हारी सन्तान एक चिरस्थायी प्रथा के रूप में इस आदेष का पालन करती रहेगी। |
25) जब तुम उस देष में प्रवेष करोगे, जिसे प्रभु अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तुम्हें प्रदान करेगा, तो तुम इस प्रथा का पालन करते रहो। |
26) यदि तुम्हारी सन्तान तुम से पूछेगी कि आपकी इस प्रथा का क्या अर्थ है, |
27) तो तुम उस से कहोगे : यह प्रभु के आदर में पास्का का बलिदान है। जब प्रभु ने मिस्रियों को मारा था, तो वह मिस्र में रहने वाले इस्राएलियों के घरों के सामने से आगे निकल गया था और उसने हमारे घरों को छोड़ दिया था।'' यह सुन कर लोगों ने घुटने टेक कर दण्डवत् किया। |
28) इसके बाद इस्राएली लोग ऐसा ही करने लगे। प्रभु ने मूसा और हारून को जैसी आज्ञा दी थी, उन्होंने वैसा ही किया। |
29) प्रभु ने आधी रात को मिस्र देष के सब पहलौठों-सिंहासन पर विराजमान फिराउन के पहलौठे से ले कर बन्दीग्रह में पड़े हुए कैदी के पहलौठे और पशुओं के पहलौठे बच्चों तक को मार डाला। |
30) रात में फिराउन, उसके सब पदाधिकारी और सब मिस्री जाग गये। मिस्र में बड़ा हाहाकार मच गया, क्योंकि ऐसा एक भी घर नहीं था, जिस में कोई न मरा हो। |
31) तब रात में ही फिराउन ने मूसा और हारून को बुलवा कर कहा, ''उठो, तुम दोनों इस्राएलियों को ले कर मेरी प्रजा के यहाँ से चले जाओ। जाओ, तुमने जैसा कहा था, वैसे ही प्रभु की पूजा करो। |
32) जैसा तुमने कहा, अपनी भेड़-बकरियों, अपने गाय-बैलों को भी लेते जाओ। अब जाओ और मुझे आषीर्वाद दो।'' |
33) इस समय मिस्री उन लोगों को जल्द से जल्द देष से बाहर निकाल देना चाहते थे, क्योंकि वे सोचते थे कि कहीं ऐसा न हो कि हम सब भी मर जायें। |
34) इसलिए लोगों ने अपना आटा, खमीरी होने के पहले सिर्फ गूँध हुये रूप में, ले लिया और गूँधने के बरतनों को भी उपनी-अपनी चादरों में बाँध कर कन्धों पर रख लिया। |
35) मूसा के कहने के अनुसार इस्राएलियों ने मिस्रियों से चाँदी, सोने के आभूषण और कपड़े भी माँग लिये। |
36) प्रभु ने मिस्रियों की दृष्टि में इस्राएलियों को कृपापात्र बना दिया; इसलिए उन्होंने जो कुछ माँगा, मिस्रियों ने उन्हें दे दिया। इस तरह उन्होंने मिस्रियों को लूट लिया। |
37) इस्राएलियों ने रामसेस से सुक्कोत की ओर प्रस्थान किया। बच्चों और स्त्रियों के अतिरिक्त पैदल चलने वाले पुरुषों की संख्या लगभग छः लाख थी। |
38) बहुत से परदेषी उनके साथ हो लिये और भेड़-बकरियों तथा बैल-गायों के बहुत भारी झुण्ड भी। |
39) वे मिस्र से जो गूँधा हुआ आटा अपने साथ ले गये थे, उन्होंने उसकी बेखमीर रोटियाँ पकायी। उनके पास खमीर नहीं था, क्योंकि वे इतनी जल्दी में मिस्र से निकाल दिये गये थे कि उन्हें रास्ते के लिए भोजन तैयार करने का समय तक नहीं मिला था। |
40) इस्राएली चार सौ तीस वर्ष तक मिस्र में रहे थे। |
41) जिस दिन ये चार सौ तीस वर्ष समाप्त हुए, उसी दिन प्रभु की समस्त प्रजा मिस्र से निकल गयी। |
42) प्रभु उस रात जागरण करता रहा, जिससे वह इस्राएलियों को मिस्र से बाहर ले जाये। इसलिए समस्त इस्राएली पीढ़ी दर पीढ़ी उसी रात को प्रभु के आदर में जागरण करते है। |
43) प्रभु ने मूसा और हारून को यह आज्ञा दी, ''पास्का भोज-सम्बन्धी आदेष यह है कि कोई भी विदेषी उस में सम्मिलित न हो; |
44) लेकिन तुम्हारे द्वारा ख़तना किये जाने के बाद तुम्हारा कोई भी दास उस में सम्मिलित हो सकता है। |
45) कोई भी विदेषी या मज+दूरी करने वाला नौकर उस में सम्मिलित नहीं होगा। |
46) वह एक ही घर के अन्दर खाया जायेगा। तुम उसके मांस का कुछ भी घर के बाहर नहीं ले जाओगे। तुम उसकी एक भी हड्डी नहीं तोड़ोगे। |
47) इस्राएलियों का सारा समुदाय यह पर्व मनायेगा। |
48) यदि तुम्हारे साथ प्रवासी के समान रहते हुए कोई विदेषी प्रभु के लिए पास्का मनाना चाहता हो, तो उसके यहाँ प्रत्येक पुरुष का ख़तना किया जाये। इसके बाद ही वह उस में सम्मिलित हो सकेगा, क्योंकि तब वह देष का निवासी समझा जायेगा। कोई बेख़तना व्यक्ति उसे नहीं खा सकेगा। |
49) मूल निवासी और तुम्हारे साथ रहने वाले विदेषी, दोनों के लिए यह नियम लागू होगा। |
50) सब इस्राएलियों ने ऐसा ही किया। प्रभु ने मूसा और हारून को जैसी आज्ञा दी थी, लोगों ने भी वैसा ही किया। |
51) उसी दिन प्रभु इस्राएलियों को, उनके पूरे समुदाय को, मिस्र देष से बाहर निकाल लाया। |
1) प्रभु ने मूसा को आज्ञा दी, |
2) ''मुझे सब पहलौठे बच्चों को समर्पित कर देना। इस्राएली लोगों के सब पहलौठे बच्चे, चाहे वे मनुष्यों के हों या पशुओं के, मेरे ही हैं।'' |
3) मूसा ने लोगों से कहा, ''यह दिन स्मरण रखना। इसी दिन तुम अपनी दासता के घर, मिस्र से निकल कर बाहर आये हो, क्योंकि प्रभु ने अपने बाहुबल से तुम्हें उस स्थान से बाहर निकाला है। इसलिए तुम कोई ख़मीरी रोटी मत खाना। |
4) अबीब के महीने में आज के दिन तुम बाहर आये। |
5) प्रभु तुम्हें कनानियों, हित्तियों, अमोरियों, हिव्वियों और यबूसियों के देष ले जायेगा, जिसे प्रभु ने तुम्हारे पुरखों को देने के लिए शपथपूर्वक वचन दिया था उस देष में, जहाँ दूध और मधु की नदियाँ बहती है। वहाँ तुम इसी महीने में यह पर्व मनाओगे। |
6) तब सात दिन तक तुम बेखमीर रोटी ही खाओगे और सातवें दिन प्रभु के आदर में एक उत्सव मनाओगे। |
7) उन सातों दिनों में बेख़मीर रोटी ही खायी जायेगी। न तो तुम्हारे पास ख़मीरी रोटी होगी और न तुम्हारे सीमान्तों में ही। |
8) इस दिन तुम लोग अपने-अपने पुत्रों को इस प्रकार समझाओगे : जिस दिन मैं मिस्र से बाहर आया, प्रभु ने मेरे लिए जो कार्य किया, उसकी स्मृति के लिए यह पर्व मनाया जाता है। |
9) प्रभु बल प्रदर्षन द्वारा तुम को मिस्र से निकाल लाया। यह मानो तुम्हारे हाथ में एक चिन्ह और तुम्हारी आँखों के बीच एक स्मारक होगा, जिससे तुम निरन्तर प्रभु की संहिता की चर्चा करो। |
10) इसलिए तुम प्रतिवर्ष निष्चित समय पर इस आदेष का पालन करते रहोगे। |
11) ''फिर जब प्रभु तुम्हें कनानियों के देष पहुँचा दें और उसे तुम्हें दे दें जैसा उसने तुम्हें और तुम्हारे पुरखों को शपथ पूर्वक वचन दिया था, |
12) तब तुम अपने सब पहलौठे बच्चों को प्रभु को समर्पित करोगे। तुम्हारे पशुओं के सब पहलौठे बच्चे भी प्रभु के होंगे। |
13) तुम गधे के प्रत्येक पहलौठे बच्चे को मेमने से छुड़ाओगे। यदि तुम ऐसा नहीं करना चाहोगे, तो उसकी गर्दन तोड़ दोगे। तुम अपने, अर्थात् मनुष्यों के प्रत्येक पहलौठे पुत्र को छुड़ाओगे। |
14) जब भविष्य में तुम्हारा पुत्र तुमसे पूछे कि इसका क्या अर्थ है तो उसे यह बताना प्रभु ने अपने भुजबल से हमें दासता के घर, मिस्र से बाहर निकाला था। |
15) जब फिराउन हठपूर्वक हमें निकलने नहीं देता था, प्रभु ने मिस्र देष के प्रत्येक पहलौठे बच्चे को, चाहे मनुष्य का हो या पशु का, मार डाला था। इसलिए हम प्रभु को सब पहलौठे बच्चों को अर्पित करते है और उन्हें छुड़ा लेते है। |
16) प्रभु बल-प्रदर्षन द्वारा तुमको मिस्र से निकाल लाया था - यह मानो तुम्हारे हाथों में एक चिन्ह और तुम्हारे मस्तक पर एक स्मारक होगा। |
17) जब फिराउन ने लोगों को जाने दिया, तब ईष्वर उन्हें फिलिस्तियों के देष के मार्ग से होकर नहीं ले गया, यद्यपि वही सीधा मार्ग था। ईष्वर ने सोचा कि कहीं ऐसा न हो कि लोग युद्ध के डर से पछताने लगें और फिर मिस्र लौट जाये। |
18) इसलिये ईष्वर उन लोगों को निर्जन भूमि के मार्ग से घुमाकर लाल समुद्र की ओर ले गया, इस्राएली मिस्र देष के बाहर अस्त्र-षस्त्र के साथ निकले। |
19) मूसा अपने साथ यूसुफ़ का शव भी ले गया क्योंकि यूसुफ ने इस्राएलियों को यह शपथ खिलायी थी कि जब ईष्वर तुम्हारी सहायता करने आएगा तब तुम यहाँ से मेरा शव साथ ले जाओगे। |
20) सुक्कोत से आगे जाकर उन्होनें निर्जन प्रदेष के किनारे के एताम में अपने तम्बू खडे+ किये। |
21) प्रभु दिन में उन्हें रास्ता दिखाने के लिए बादल के खम्भे के रूप में और रात को उन्हें प्रकाष देने के लिए अग्नि-स्तम्भ के रूप में आगे-आगे चलता था, जिससे वे दिन और रात में भी यात्रा कर सके। |
22) दिन में बादल का खम्भा और रात में अग्नि स्तम्भ लोगों के सामने बराबर बना रहा। |
1) इसके बाद प्रभु ने मूसा से कहा, |
2) ''इस्राएलियों से कहो कि वे पीछे की तरफ़ मुड़ कर मिगदोल और समुद्र के बीच के पी-हहीरोत के सामने, बाल-सफोन के सामने समद्रतट पर, अपने तम्बू खड़े नहीं करें। |
3) फिराउन इस्राएलियों के विषय में यह सोचेगा कि वे देष में कहीं भटक रहे हैं और कहीं निर्जन प्रदेष में फँस गये हैं। |
4) मैं फिराउन का हृदय कठोर कर दूँगा, जिससे वह उनका पीछा करे। तब मैं फिराउन और उसकी सारी सेना को अपनी शक्ति का परिचय दूँगा, जिससे मिस्री लोग जान जायें कि मैं ही प्रभु हूँ।'' इस पर उन्होंने वैसा ही किया। |
5) जब मिस्र के राजा को यह सूचना मिली कि इस्राएली भाग गये है, तो फिराउन और उसके पदाधिकारी, अपना मन बदल कर बोल उठे, ''हम लोग यह क्या कर बैठे! हमने इस्राएलियों को, अपने दासों को भाग जाने दिया!'' |
6) फिराउन अपना रथ तैयार करा कर अपनी सेना साथ ले गया - |
7) छह सौ श्रेष्ठ रथ और मिस्र के सब रथ, जिन पर योद्धा सवार थे। |
8) प्रभु ने मिस्र के राजा फिराउन का हृदय कठोर कर दिया; इसलिए उसने इस्राएलियों का पीछा किया, |
9) जो उसे चुनौती देते हुए भाग रहे थे। मिस्रियों ने सब घोड़ों, फिराउन के रथों, उसके घुड़सवारों और उसकी सेना के साथ इस्राएलियों का पीछा किया और बालसफोन के सामने, पी-हहीरोत के निकट समुद्र के तट पर, उनके पास पहुँच गये, जहाँ उन्होंने पड़ाव डाला था। |
10) फिराउन निकट आया ही था कि इस्राएलियों ने आँखें उठा कर देखा कि मिस्री हमारा पीछा कर रहें हैं। उन पर आतंक छा गया और वे चिल्ला कर प्रभु की दुहाई देने लगे। |
11) उन्होंने मूसा से कहा, ''क्या मिस्र में हम को क़बरें नहीं मिल सकती थीं, जो आप हम को मरूभूमि में मरने के लिए यहाँ ले आये है? हम को मिस्र से निकाल कर आपने हमारा कौन-सा उपकार किया? |
12) क्या हमने मिस्र में रहते समय आप से नहीं कहा था कि हमें मिस्रियों की सेवा करते रहने दीजिए? मरूभूमि में मरने की अपेक्षा मिस्रियों की सेवा करना कहीं अधिक अच्छा है।'' |
13) मूसा ने लोगों से कहा, ''डरो मत! धीर बने रहो! और यह देखो कि किस प्रकार प्रभु आज तुम लोगों की रक्षा करेगा। जिन मिस्रियों को तुम आज देख रहे हो, तुम उन्हें फिर कभी नहीं देखोगे। |
14) प्रभु ही तुम्हारी ओर से युद्ध करेगा और तुम लोगों को कुछ भी नहीं करना पड़ेगा।'' |
15) प्रभु ने मूसा से कहा, ''तुम मेरी दुहाई क्यों दे रहे हो? इस्राएलियों को आगे बढ़ने का आदेष दो। |
16) तुम अपना डण्डा उठा कर अपना हाथ सागर के ऊपर बढ़ाओ और उसे दो भागों में बाँट दो, जिससे इस्राएली सूखे पाँव समुद्र की तह पर चल सकें। |
17) मैं मिस्रियों का हृदय कठोर बनाऊँगा और वे इस्राएलियों का पीछा करेंगे। तब मैं फिराउन, उसकी सेना, उसके रथ और घुड़सवार, सब को हरा कर अपना सामर्थ्य प्रदर्षित करूँगा |
18) और जब मैं फिराउन, उसकी सेना, उसके रथ और उसके घुड़सवार सब को हरा कर अपना सामर्थ्य प्रदर्षित कर चुका होऊँगा, तब मिस्री जान जायेंगे कि मैं प्रभु हूँ।'' |
19) प्रभु का दूत, जो इस्राएली सेना के आगे-आगे चल रहा था, अपना स्थान बदल कर सेना के पीछे-पीछे चलने लगा। बादल का खम्भा, जो सामने था, लोगों के पीछे आ गया |
20) और मिस्रियों तथा इस्राएलियों, दोनों सेनाओं के बीच खड़ा रहा। बादल एक तरफ अँधेरा था और दूसरी तरफ रात में प्रकाष दे रहा था। इसलिए उस रात को दोनों सेनाएँ एक दूसरे के पास नहीं आ सकी। |
21) तब मूसा ने सागर के ऊपर हाथ बढ़ाया और प्रभु ने रात भर पूर्व की ओर जोरों की हवा भेज कर सागर को पीछे हटा दिया। सागर दो भागों में बँट कर बीच में सूख गया। |
22) इस्राएली सागर के बीच मंें सूखी भूमि पर आगे बढ़ने लगे। पानी उनके दायें और बायें दीवार बन कर ठहर गया। मिस्री उसका पीछा करते थे। |
23) फिराउन के सब घोड़े, उसके रथ और उसके घुड़सवार, सागर की तह पर उनके पीछे चलते थे। |
24) रात के पिछले पहर, प्रभु ने आग और बादल के खम्भे में से मिस्रियों की सेना की ओर देखा और उसे तितर-बितर कर दिया। |
25) रथों के पहिये निकल कर अलग हो जाते थे और वे कठिनाई से आगे बढ़ पाते थे। तब मिस्री कहने लगे, ''प्रभु उनकी ओर से मिस्रियों के विरुद्ध लड़ता है।'' |
26) उस समय प्रभु ने मूसा से कहा, ''सागर के ऊपर अपना हाथ बढ़ाओं, जिससे पानी लौट कर मिस्रियों, उनके रथों और उनके घुड़सवारों पर लहराये।'' |
27) मूसा ने सागर के ऊपर हाथ बढ़ा दिया और भोर होते ही सागर फिर भर गया। मिस्री भागते हुए पानी में जा घुसे और प्रभु ने उन्हें सागर के बीच में ढकेल दिया। |
28) समुद्र की तह पर इस्राएलियों का पीछा करने वाली फिराउन की सारी सेना के रथ और घुड़सवार लौटने वाले पानी में डूब गये। उन में एक भी नहीं बचा। |
29) इस्राएली तो समुद्र की सूखी तह पार कर गये। पानी उनके दायें और बायें दीवार बन कर ठहर गया था। |
30) उस दिन प्रभु ने इस्राएलियों को मिस्रियों के हाथ से छुड़ा दिया। इस्राएलियों ने समुद्र के किनारे पर पड़े हुए मरे मिस्रियों को देखा। |
31) इस्राएली मिस्रियों के विरुद्ध किया हुआ प्रभु का यह महान् कार्य देख कर प्रभु से डरने लगे। उन्होंने प्रभु में और उसके सेवक मूसा में विष्वास किया। |
1) तब मूसा और इस्राएली प्रभु के आदर में यह भजन गाने लगे : मैं प्रभु का गुणगान करना चाहता हूँ। उसने अपनी महिमा प्रकट की है उसने घोड़े के साथ घुड़सवार को |
2) प्रभु मेरा शक्तिषाली रक्षक है। |
3) प्रभु महान् योद्धा है। |
4) उसने फिराउन के रथ और उसकी सेना की सागर में फेंक दिया है। |
5) समुद्र की लहरें उन्हें ढकती हैं। |
6) प्रभु तेरा दाहिना हाथ शक्तिषाली है |
7) तू अपनी तेजस्विता से अपने विरोधियों का दमन करता है। |
8) तेरी एक ही साँस में पानी थम गया। |
9) शत्रु ने कहा, ''मैं उनका पीछा करूँगा और उन्हें पकड़ लूँगा। |
10) तूने साँस फूँक कर उन्हें समुद्र से ढक दिया। |
11) प्रभु! देवताओं में तेरे सदृष कौन है? |
12) तूने दाहिना हाथ पसारा |
13) तूने जिसे प्रजा का उद्धार किया था, |
14) यह सुन कर राष्ट्र काँपने लगे, |
15) एदोम के अधिपति आतंकित हो गये, |
16) आतंक और भय उन पर छाया रहा, |
17) तू अपनी प्रजा को ले जा कर अपने पर्वत पर बसाता है, |
18) प्रभु अनन्त काल तक राज्य करता रहेगा।'' |
19) जैसे फिराउन के घोड़े, उसके रथ और उसके घुड़सवार समुद्र के अन्दर पहुँचे, प्रभु समुद्र के पानी को फिर से उनके ऊपर अपने पहले स्थान पर ले आया। इस समय तक इस्राएली समुद्र के बीच से सूखी भूमि पर चलते हुए पार हो चुके थे। |
20) इसके बाद हारून की बहन नबियानी मिरयम अपने हाथ में डफली ले कर बाहर निकली और अन्य स्त्रियाँ भी अपने-अपने हाथ में डफली लिये नाचती हुई उसके पीछे निकल पड़ी। |
21) मिरयम उनके साथ यह टेक गाती जाती थी। |
22) अब मूसा इस्राएलियों को लाल समुद्र से आगे ले गया और वे शूर नामक उजाड़ प्रदेष में पहुँचे। वे तीन दिन तक ऐसे उजाड़ प्रदेष से हो कर चलते रहे, जिस में कहीं पानी नहीं मिला था। |
23) वे मारा पहुँच कर भी मारा का पानी नहीं पी सके थे, क्योंकि वह कड़वा था और उस स्थान का नाम भी मारा पड़ा। |
24) लोग मूसा के विरुद्ध यह कहते हुए भुनभुनाने लगे, ''हम क्या पियें?'' |
25) उसने प्रभु की दुहाई दी। प्रभु ने उसे एक लकड़ी दिखायी। उसने उसे पानी में फेंका और वह पानी मीठा हो गया। प्रभु ने वहाँ उनके लिए एक आदेष निकाला और एक विधि बनायी। उसने वहाँ उनकी परीक्षा ली। |
26) उसने कहा, ''यदि तुम अपने प्रभु-ईष्वर की वाणी ध्यान से सुनोगे और उसकी इच्छा पूरी करोगे, उसकी आज्ञाओं और सब विधियों का पालन करोगे, तो मैं वे बीमारियाँ तुम्हारे ऊपर नहीं ढाहूँगा, जिन्हें मैंने मिस्रियों पर ढाही थी; क्योंकि मैं वह प्रभु हूँ, जो तुम्हें स्वस्थ करता हैं। |
27) इसके बाद वे एलीम पहुँचे। वहाँ पानी के बारह सोते और खजूर के सत्तर वृक्ष थे। उन्होंने वहीं पानी के पास अपना पड़ाव डाला। |
1) इस्राएली एलीम से आगे बढ़े। मिस्र देष से निकलने के बाद दूसरे महीने के पन्द्रहवें दिन इस्राएलियों का सारा समुदाय एलीम और सोनई के बीच सीन नामक मरूभूमि पहुँचा। |
2) इस्राएलियों का सारा समुदाय मरूभूमि में मूसा और हारून के विरुद्ध भुनभुनाने लगा। |
3) इस्राएलियों ने उन से कहा, ''हम जिस समय मिस्र देष में मांस की हड्डियों के सामने बैठते थे और इच्छा-भर रोटी खाते थे, यदि हम उस समय प्रभु के हाथ मर गये होते, तो कितना अच्छा होता! आप हम को इस मरूभूमि में इसलिए ले आये हैं कि हम सब-के-सब भूखों मर जायें।'' |
4) प्रभु ने मूसा से कहा, ''मैं तुम लोगों के लिए आकाष से रोटी बरसाऊँगा। लोग बाहर निकल कर प्रतिदिन एक-एक दिन का भोजन बटोर लिया करेंगे। मैं इस तरह उनकी परीक्षा लूँगा और देखूँगा कि वे मेरी संहिता का पालन करते हैं या नहीं। |
5) छठे दिन उन्हें दूसरे दिनों की अपेक्षा दुगुनी रोटी बटोर कर तैयार करनी चाहिए। |
6) मूसा और हारून ने इस्राएलियों के सारे समुदाय को संबोधित करते हुए कहा, ''आज शाम+ को तुम लोग जानोगे कि प्रभु ही तुम लोगों को मिस्र से निकाल लाया |
7) और कल सुबह तुम प्रभु की महिमा देखोगे क्योंकि प्रभु अपने विरुद्ध तुम्हारी षिकायतें सुन चुका है। हम कौन होते है, जो तुम हमारे विरुद्ध भुनभुनाते हो?'' |
8) मूसा ने यह भी कहा, ''प्रभु आज शाम तुम्हें खाने के लिए मांस देगा और कल सुबह इच्छा भर रोटी, क्योंकि प्रभु अपने विरुद्ध तुम्हारा भुनभुनाना सुन चुका है। हम कौन होते हैं? तुम लोगों ने हमारे विरुद्ध नहीं, बल्कि प्रभु के विरुद्ध भुनभुनाया है। |
9) मूसा ने हारून से कहा, ''इस्राएलियों के सारे समुदाय को यह आदेष दो प्रभु के सामने उपस्थित हो, क्योंकि वह तुम्हारा भुनभुनाना सुन चुका है।'' |
10) जब हारून इस्राएलियों को संबोधित कर रहा था, तो उन्होंने मुड़ कर मरुभूमि की ओर देखा और प्रभु की महिमा बादल के रूप में उन्हें दिखाई दी। |
11) प्रभु ने मूसा से यह कहा, |
12) ''मैं इस्राएलियों का भुनभुनाना सुन चुका हूँ। तुम उन से यह कहना शाम को तुम लोग मांस खा सकोगे और सुबह इच्छा भर रोटी। तब तुम जान जाओगे कि मैं प्रभु तुम लोगों का ईष्वर हूँ।'' |
13) उसी शाम को बटेरों का झुण्डा उड़ता हुआ आया और छावनी पर बैठ गया और सुबह छावनी के चारों और कुहरा छाया रहा। |
14) कुहरा दूर हो जाने पर मरुभूमि की जमीन पर पाले की तरह एक पतली दानेदार तह दिखाई पड़ी। |
15) इस्राएली यह देखकर आपस में कहने लगे, ''मानहू'' अर्थात् ''यह क्या है?'' क्योंकि उन्हें मालूम नहीं था कि यह क्या था। मूसा ने उस से कहा, ''यह वही रोटी है, जिसे प्रभु तुम लोगों को खाने के लिए देता है। |
16) प्रभु की आज्ञा है, तुम में से प्रत्येक मनुष्य जितना खा सके, उतना उस में से ले ले। अपने तम्बू में रहने वाले हर एक व्यक्ति के लिए एक-एक ओमेर बटोर लो।'' |
17) इस्राएलियों ने ऐसा ही किया। किसी ने अधिक, किसी ने कम बटोरा। |
18) किन्तु जब उन्होंने उसे ओमेर से नापा, तो जिसने अधिक बटोरा था, उसके पास अधिक नहीं था और न उसके पास कम था, जिसने कम बटोरा था। प्रत्येक ने उतना ही बटोरा था, जितनी उसकी आवष्यकता थी। |
19) मूसा ने उन से कहा, ''कोई दूसरे दिन के लिए कुछ भी बचा कर न रखे।'' |
20) किन्तु किसी-किसी ने मूसा की बात न मानकर दूसरे दिन के लिए उस में से थोड़ा बचा कर रख लिया, लेकिन वह सड़ कर दुर्गन्ध से भर गया और उस में कीडे+ पड़ गये। मूसा उन पर क्रुद्ध हुआ। |
21) वे प्रतिदिन सबेरे अपनी-अपनी आवष्यकता के अनुसार उसे बटोरते थे, लेकिन सूर्य के तपने पर वह गल जाता था। |
22) छठे दिन वे दूना बटोरते थे, हर एक के लिए दो-दो ओमेर। जब समुदाय के सब नेता आये |
23) और उन्होंने यह बात मूसा को बतायी, तो उसने उन से कहा, ''प्रभु की आज्ञा यह है कल विश्राम-दिवस है। प्रभु के लिए पवित्र सब्बात है। जितना पकाना चाहते हो, उतना पकाओ और जितना उबालना चाहते हो, उतना उबाल लो। जो कुछ बच जाये, उसे कल के उपयोग के लिए अलग रख दो।'' |
24) इसलिए मूसा की आज्ञा के अनुसार उन्होंने उसे कल के उपयोग के लिए रख लिया। उस में न दुर्गन्ध आयी और न उस में कीड़े पडे+। |
25) तब मूसा ने कहा, ''आज इसे खा लो, क्योंकि आज प्रभु का विश्राम-दिवस है। आज यह तुम्हें ज+मीन पर नहीं मिलेगा। |
26) तुम इसे छः दिन तक बटोर सकते हो, किन्तु सातवें दिन विश्राम-दिवस है। इसलिए यह नहीं मिलेगा।'' |
27) कुछ लोग सातवें दिन बटोरने के लिए बाहर गये, लेकिन उन्हें कुछ नहीं मिला। |
28) इस पर प्रभु ने मूसा से कहा, ''तुम मेरी आज्ञाओं और मेरी विधियों की अवज्ञा कब तक करते रहोगे? |
29) देखो, प्रभु ने तुम्हें विश्राम-दिवस दिया है, इसलिए छठे दिन वह तुम्हें दो दिन के लिए भोजन देता हेै। तुम में से हर एक सातवें दिन जहाँ हो, वहाँ रहे, कोई भी अपने यहाँ से नहीं जाये।'' |
30) इसलिए सातवें दिन लोगों ने विश्राम किया। |
31) इस्राएल के वंषजों ने उस रोटी का नाम मन्ना रखा। वह धनिये के बीज के समान सफ़ेद था और उसका स्वाद मधु के पुओं-जैसा था। |
32) मूसा ने कहा, ''प्रभु की आज्ञा यह है कि तुम्हारे वंषजों के लिए उस में से एक ओमेर सुरक्षित रखा जाये, जिससे वे वह रोटी देख सकें, जिसे मैंने तुम लोगों को निर्जन प्रदेष में खिलाया है, जब मैं तुम को मिस्र देष से निकाल लाया था।'' |
33) मूसा ने हारून से कहा, ''एक मर्तबान में ओमेर भर मन्ना लो और प्रभु के सामने रख दो। वह आने वाली पीढ़ियों के लिऐ सुरक्षित रहे।'' |
34) प्रभु ने मूसा को जैसी आज्ञा दी थी, हारून ने उसी के अनुसार उसे विधान-पत्र के सामने रख दिया, जिससे वह सुरक्षित रहे। |
35) इस्राएली चालीस वर्ष तक, बसने योग्य भूमि पहुँचे तक, मन्ना खाते रहे। वे कनान देष की सीमा पहुँचने तक मन्ना खाते रहे। |
36) (एक ओमेर एफा का दसवाँ भाग है।) |
1) इस्राएलियों का सारा समुदाय प्रभु की आज्ञा के अनुसार सीन की मरूभूमि से चल पड़ा और बीच-बीच में पड़ाव डाल कर रफीदीम पहुँचा। वहाँ लोगों को पीने का पानी नहीं मिला |
2) और वे यह कहते हुए मूसा के विरुद्ध भुनभुनाने लगे, ''हमें पीने को पानी दो।'' मूसा ने उन से कहा, तुम मेरे विरुद्ध क्यों भुनभुनाते हो? ईष्वर को चुनौती क्यों देते हो? |
3) लोगों को बड़ी प्यास लगी और वे यह कर मूसा के विरुद्ध भुनभुना रहे थे, ''क्या आप हमें इसलिए मिस्र से निकाल लाये कि हम अपने बाल-बच्चों और पशुओं के साथ प्यास से मर जायें?'' |
4) मूसा ने प्रभु की दुहाई दे कर कहा, ''मैं इन लोगों का क्या करूँ? ये मुझे पत्थरों से मार डालने पर उतारू हैं।'' |
5) प्रभु ने मूसा को यह उत्तर दिया, ''इस्राएल के कुछ नेताओं के साथ-साथ लोगों के आगे-आगे चलो। अपने हाथ में वह डण्डा ले लो, जिसे तुमने नील नदी पर मारा था और आगे बढ़ते जाओ। |
6) मैं वहाँ होरेब की उस चट्टान पर तुम्हारे सामने खड़ा रहूँगा। तुम उस चट्टान पर डण्डे से प्रहार करो। उस से पानी फूट निकलेगा और लोगों को पीने को मिलेगा।'' मूसा ने इस्राएल के नेताओं के सामने ऐसा ही किया। |
7) उसने उस स्थान का नाम ÷मस्सा÷ और ÷मरीबा÷ रखा; क्योंकि इस्राएलियों ने उसके साथ विवाद किया था और यह कह कर ईष्वर को चुनौती दी थी, ईष्वर हमारे साथ है या नहीं?'' |
8) अमालेकी लोगों ने आकर रफीदीम में इस्राएलियों पर आक्रमण किया। |
9) मूसा ने योषुआ से कहा, ''अपने लिए आदमी चुन लो और कल सुबह अमालेकियों से युद्ध करने जाओ। |
10) मैं हाथ में ईष्वर का डण्डा लिये पहाड़ी की चोटी पर खड़ा रहूँगा।'' मूसा के आदेष के अनुसार योषुआ अमालेकियों से युद्ध करने निकला और मूसा, हारून तथा हूर पहाड़ी की चोटी पर चढ़े। |
11) जब तक मूसा हाथ ऊपर उठाये रखता था, तब तक इस्राएली प्रबल बने रहते थे और जब वह अपने हाथ गिरा देता था, तो अमालेकी प्रबल हो जाते थे। |
12) जब मूसा के हाथ थकने लगे, तो उन्होंने एक पत्थर ला कर भूमि पर रख दिया और मूसा उस पर बैठ गया। हारून और हूर उसके हाथ सँभालते रहे, पहला इस ओर से और दूसरा उस ओर से। |
13) इस तरह मूसा ने सूर्यास्त तक अपने हाथ ऊपर उठाये रखा। योषुआ ने अमालेकियों और उनके सैनिकों को तलवार के घाट उतार दिया। |
14) इस पर प्रभु ने मूसा से कहा, ''इस घटना की स्मृति बनाये रखने के लिए ग्रन्थ में लिखो और योषुआ को सुनाओ - मैं पृथ्वी पर अमालेकियों का नाम-निषान नहीं रहने दूँगा।'' |
15) तब मूसा ने एक वेदी बनायी और उसका नाम रखा, ''प्रभु ही मेरी पताका है'' |
16) और वह बोला, ''पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रभु और अमालेकियों में युद्ध चलता रहेगा, क्योंकि उन्होंने प्रभु के सिंहासन पर हाथ उठाया है।'' |
1) ईष्वर ने जो कुछ मूसा और अपनी प्रजा इस्राएल के लिए किया था और प्रभु किस प्रकार इस्राएल को मिस्र से निकाल लाया था, उसके विषय में मूसा के ससुर, मिदयान के याजक, यित्रो ने सुना था। |
2) मूसा का ससुर यित्रो मूसा की पत्नी सिप्पोरा को जिसे मूसा ने उसके दो पुत्रों के साथ अपनी ससुराल भेज दिया था, अपने पास रखा था। |
3) दोनों पुत्रों में एक का नाम गेरषोम था, क्योंकि मूसा ने कहा था, ''मैं विदेष में प्रवासी हूँ।'' |
4) दूसरे का नाम एलीएजर था, क्योंकि उसने कहा था, ''मेरे पिता का ईष्वर मेरा सहायक हुआ और उसने मुझे फिराउन की तलवार से बचा लिया।'' |
5) मूसा का ससुर यित्रो, उसके पुत्रों और उसकी पत्नी को ले कर उस निर्जन प्रदेष में मूसा के पास आया, जहाँ उसने ईष्वर के पर्वत के पास पड़ाव डाला था। |
6) उसने मूसा को कहला भेजा, ''मैं, तुम्हारा ससुर यित्रो, तुम्हारी पत्नी और उसके दोनों पुत्रों को ले कर तुम से मिलने आया हूँ।'' |
7) मूसा अपने ससुर से मिलने गया। उसने उसे झुक कर प्रणाम किया। उन्होंने एक दूसरे का कुषल-क्षेम पूछा और तम्बू में आये। |
8) तब मूसा ने अपने ससुर को वह सब बताया, जो प्रभु ने इस्राएलियों के लिए फिराउन और मिस्रियों के विरुद्ध किया था, मार्ग में किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और प्रभु ने किस प्रकार उनकी रक्षा की थी। |
9) यित्रो प्रसन्न हुआ, जब उसने यह सुना कि प्रभु ने इस्राएलियों के साथ कैसे-कैसे उपकार किये और उन्हें किस प्रकार मिस्रियों के हाथ से छुड़ाया था। |
10) यित्रो ने कहा, ''वह प्रभु धन्य है, जिसने तुम्हें मिस्रियों और फिराउन के हाथों से बचाया है। |
11) मैं अब जान गया हॅँू कि प्रभु सब देवताओं से बड़ा है, क्योंकि उसने लोगों को उन मिस्रियों के हाथों से बचाया है, जिन्होंने उनके साथ दुर्व्यवहार किया था।'' |
12) तब मूसा के ससुर यित्रो ने प्रभु को आहुति और बलिदान चढ़ाये। इसके बाद हारून इस्राएलियों के नेताओं के साथ प्रभु के सामने मूसा के ससुर के साथ भोजन करने आया। |
13) दूसरे दिन सबेरे मूसा लोगों का न्याय करने के लिए बैठा और लोग मूसा के आस-पास सबेरे से शाम तक खड़े रहे। |
14) मूसा के ससुर ने जब यह देखा कि मूसा लोगों के लिए क्या कर रहा है, तो उसने कहा, ''तुम इन लोगों के लिए क्या कर रहे हो? तुम अकेले क्यों बैठे हो और लोग सबेरे से शाम तक तुम्हारे आस-पास क्यों खड़े हैं?'' |
15) मूसा ने अपने ससुर को उत्तर दिया, ''ईष्वर क्या चाहता है, यह जानने के लिए लोग मेरे पास आते हैं। |
16) उन में कोई झगड़ा हो, तो वे मेरे पास आते हैं और मैं उनका न्याय करता हूँ। मैं उन को ईष्वर के विधान और उसके निर्णय समझाता हूँ।'' |
17) इस पर मूसा के ससुर ने उस से कहा, ''तुम जो कर रहे हो, वह उचित नहीं हैं। |
18) तुम और तुम्हारे आस-पास के लोग थक जायेंगे, क्योंकि यह काम तुम्हारे लिऐ बहुत भारी है। तुम अकेले इसे नहीं कर सकते। |
19) मेरी बात सुनो। मैं तुम्हें एक परामर्ष देता हूँ। ईष्वर तुम्हारे साथ रहे! तुम ईष्वर के सामने लोगों के प्रतिनिधि हो और ईष्वर के सामने उनके मामले रख दिया करो। |
20) तुम उन्हें विधियों और निर्णयों को समझा दो और वह मार्ग, जिस पर उन को चलना चाहिए और वे कार्य, जो उन्हें करना चाहिए। |
21) लेकिन लोगों के बीच से तुम योग्य, ईष्वर पर श्रद्धा रखने वाले, विष्वासपात्र और घूस न लेने वाले व्यक्तियों को चुनो और उन्हें हजार-हजार, सौ-सौ, पचास-पचास और दस-दस मनुष्यों की टोली पर शासक के रूप में नियुक्त कर दो। वे हर समय लोगों का न्याय करते रहें। |
22) वे हर बड़ा मामला तुम्हारे पास लायें और सब छोटे मामलों का निपटारा स्वयं कर लिया करें। इस तरह तुम्हारे काम में वे हाथ बँटायेगे और तुम्हारा बोझ हल्का हो जायेगा। |
23) यदि तुम ऐसा करो और ईष्वर की ऐसी आज्ञा हो, तो तुम काम सँभाल लोगे और लोग भी सन्तुष्ट हो कर अपने-अपने घर जायेंगे।'' |
24) मूसा ने अपने ससुर की सलाह मान ली और उसने जैसा कहा था, वैसा ही किया। |
25) मूसा ने सारे इस्राएली लोगों में से योग्य पुरुषों को चुन लिया और उन्हें लोगों के ऊपर प्रधान नियुक्त कर दिया, हजार-हजार, सौ-सौ, पचास-पचास, दस-दस व्यक्तियों के शासक के रूप में। |
26) वे हर समय लोगों का न्याय किया करते थे। वे मूसा के पास सब कठिन मामले लाते थे, लेकिन सब छोटे मामले स्वयं निपटाते थे। |
27) इसके बाद मूसा ने अपने ससुर को विदा किया और वह स्वदेष लौट गया। |
1) मिस्र देष से निकलने के ठीक तीन महीने बाद इस्राएली सीनई की मरुभूमि पहुँचे। |
2) वे रफीदीम से चले थे और उन्होंने सीनई की मरुभूमि पहुँच कर पहाड़ के सामने ही पड़ाव डाला। |
3) मूसा ईष्वर से मिलने के लिए पर्वत पर चढ़ा और ईष्वर ने वहाँ उससे कहा, ''तुम याकूब के घराने से यह कहोगे और इस्राएल के पुत्रों को यह बता दोगे- |
4) ÷तुम लोगों ने स्वयं देखा है कि मैंने मिस्र के साथ क्या-क्या किया और मैं किस तरह तुम लोगों को गरुड़ के पंखों पर बैठा कर यहाँ अपने पास ले आया। |
5) यदि तुम मेरी बात मानोगे और मेरे विधान के अनुसार चलोगे, तो तुम सब राष्ट्रों में से मेरी अपनी प्रजा बन जाओगे; क्योंकि समस्त पृथ्वी मेरी है। |
6) तुम मेरे लिए याजकों का राजवंष तथा पवित्र राष्ट्र बन जाओगे।÷ यही सन्देष इस्राएल के पुत्रों को सुनाओ।'' |
7) मूसा ने लौट कर प्रजा के नेताओं को बुलाया और जो कुछ प्रभु ने उस से कहा था, वह सब उनके सामने प्रस्तुत किया। |
8) सब लोगों ने एक स्वर से यह उत्तर दिया, ''ईष्वर जो कुछ कहता है, हम वह सब पूरा करेंगे।'' |
9) प्रभु ने मूसा से कहा, ''मैं एक काले बादल में तुम्हारे पास आ रहा हूँ, जिससे ये लोग मुझे तुम्हारे साथ बातें करता हुआ सुनें और तुम में सदैव अटल विष्वास करें।'' मूसा ने प्रभु को लोगों का उत्तर सुना दिया। |
10) प्रभु ने मूसा से कहा, ''तुम लोगों के पास जा कर आदेष दो कि वे आज और कल अपने को पवित्र करें और अपने वस्त्र धो लें। |
11) वे परसों के लिए अपने को तैयार करें, क्योंकि परसों प्रभु सभी लोगों के सामने सीनई पर्वत पर उतरेगा। |
12) तुम लोगों के लिए चारों तरफ एक सीमा निष्चित कर दोगे और उन से कहोगे, ''ध्यान रखो, पर्वत पर कोई नहीं चढ़े और न उसकी तलहटी तक पहुँचे। जो पर्वत का स्पर्ष करेगा, वह मारा जायेगा। |
13) कोई व्यक्ति दोषी का स्पर्ष नहीं करेगा। वह पत्थरों या तीरों से मारा जायेगा। चाहे वह पशु हो, चाहे मनुष्य, वह जीवित नहीं रह सकेगा। जब नरसिंगे का शब्द बहुत देर तक सुनाई देगा, तब वे पहाड़ पर चढ़ सकेंगे। |
14) इस पर मूसा पर्वत से उतर कर लोगों के पास आया और उन्हें पवित्र होने को कहा और उन्होंने अपने कपड़े धो लिये। |
15) तब उसने लोगों से कहा, ''तीसरे दिन तैयार रहोगे। स्त्री का स्पर्ष नहीं करोगे।'' |
16) तीसरे दिन प्रातःकाल बादल गरजे, बिजली चमकी, पर्वत पर काले बादल छा गये और तुरही का प्रचण्ड निनाद सुनाई पड़ा-षिविर में सभी लोग काँपने लगे। |
17) तब मूसा ईष्वर से भेंट करने के लिए लोगों को षिविर से बाहर ले गया और वे पहाड़ के नीचे खडे+ हो गये। सीनई पर्वत धुएँ से ढका हुआ था, क्योंकि ईष्वर अग्नि के रूप में उस पर उतरा था। |
18) धुआँ भट्ठी के धुएँ की तरह ऊपर उठ रहा था और सारा पहाड़ ज+ोर से काँप रहा था। |
19) तुरही का निनाद बढ़ता जा रहा था। मूसा बोला और ईष्वर ने उसे मेघगर्जन में से उत्तर दिया। |
20) ईष्वर सीनई पर्वत की चोटी पर उतरा और उसने मूसा को पर्वत की चोटी पर बुलाया और मूसा ऊपर गया। |
21) प्रभु ने मूसा को आज्ञा दी, ''नीचे जाकर लोगों को चेतावनी दो कि वे प्रभु के दर्षन करने के लिए आगे नहीं बढ़े, नहीं तो उन में बहुतों की मृत्यु हो जायेगी। |
22) वे याजक भी, जो प्रभु के पास आया करते हैं, अपने को पवित्र कर लें, जिससे ईष्वर उन पर क्रोध न करे।'' |
23) मूसा ने प्रभु से कहा, ''लोग सीनई पर्वत पर नहीं आ सकते, क्योंकि तूने स्वयं हम लोगों को कड़ी चेतावनी दी कि पर्वत के चारों ओर एक सीमा बनाकर उसे पवित्र बनाये रखो।'' |
24) तब प्रभु ने उस से कहा, ''नीचे जाओ और हारून को ले कर फिर ऊपर आ जाओ। लेकिन याजक और लोग प्रभु के पास पहुँचने के लिए ऊपर नहीं आयें। कहीं वह उन पर क्रोध न करे।'' |
25) इस पर मूसा लागों के पास नीचे गया और उसने उन्हें यह बात समझायी। |
1) ईष्वर ने मूसा से यह सब कहा, | ||||||||||||||||||||||
2) ''मैं प्रभु तुम्हारा ईष्वर हॅँू। मैं तुमको मिस्र देष से गुलामी के घर से निकाल लाया। | ||||||||||||||||||||||
3) मेरे सिवा तुम्हारा कोई ईष्वर नहीं होगा। | ||||||||||||||||||||||
4) ''अपने लिये कोई देव मूर्ति मत बनाओ। ऊपर आकाष में या नीचे पृथ्वी तल पर या पृथ्वी के नीचे के जल में रहने वाले किसी भी प्राणी अथवा वस्तु का चित्र मत बनाओ।
5) उन मूर्तियों को दण्डवत कर उनकी पूजा मत करो; क्योंकि मैं प्रभु, तुम्हारा ईष्वर, ऐसी बातें सहन नहीं करता जो मुझ से बैर करते हैं, मैं तीसरी और चौथी पीढ़ी तक उनकी सन्तति को उनके अपराधों का दण्ड देता हॅँू।
| 6) जो मुझे प्यार करते हैं और मेरी आज्ञाओं का पालन करते है मैं हजार पीढ़ियों तक उन पर दया करता हँू।
| 7) प्रभु अपने ईष्वर का नाम व्यर्थ मत लो; क्योंकि जो व्यर्थ ही प्रभु का नाम लेता है, प्रभु उसे अवष्य दण्डित करेगा।
| 8) विश्राम-दिवस को पवित्र मानने का ध्यान रखो।
| 9) तुम छः दिनों तक परिश्रम करते रहो और अपना सब काम करो;
| 10) परन्तु सातवाँ दिन तुम्हारे प्रभु ईष्वर के आदर में विश्राम का दिन है। उस दिन न तो तुम कोई काम करो न तुम्हारा पुत्र, न तुम्हारी पुत्री, न तुम्हारा नौकर, न तुम्हारी नौकरानी, न तुम्हारे चौपाये और न तुम्हारे शहर में रहने वाला परदेषी।
| 11) छः दिनों में प्रभु ने आकाष, पृथ्वी, समुद्र और उन में से जो कुछ है वह सब बनाया है और उसने सातवें दिन विश्राम किया। इसलिए प्रभु ने विश्राम दिवस को आषिष दी है और उसे पवित्र ठहराया है।
| 12) अपने माता-पिता का आदर करों जिससे तुम बहुत दिनों तक उस भूमि पर जीते रहो, जिसे तुम्हारा प्रभु ईष्वर तुम्हें प्रदान करेगा।
| 13) हत्या मत करो।
| 14) व्यभिचार मत करो।
| 15) चोरी मत करो।
| 16) अपने पड़ोसी के विरुद्ध झूठी गवाही मत दो। अपने पड़ोसी के घर-बार का लालच मत करो।
| 17) न तो अपने पड़ोसी की पत्नी का, न उसके नौकर अथवा नौकरानी का, न उसके बैल अथवा गधे का - उसकी किसी भी चीज+ का लालच मत करो।''
| 18) जब सब लोगों ने बादलों का गरजन, बिजलियाँ, नरसिंगे की आवाज+ और पर्वत से निकलता हुआ धुआँ देखा, तो वे भयभीत होकर काँपने लगे। वे कुछ दूरी पर खड़े रहे और
| 19) मूसा से कहने लगे, ''आप हम से बोलिए और हम आपकी बात सुनेंगे, किन्तु ईष्वर हम से नहीं बोले, नहीं तो हम मर जायेंगे।''
| 20) मूसा ने लोगों को उत्तर दिया, ''डरो मत; क्योंकि ईष्वर तो तुम्हारी परीक्षा लेने आया है, जिससे तुम्हारे मन में उसके प्रति श्रद्धा बनी रहे और तुम पाप न करो।
| 21) लोग दूर ही खड़े रहे, परन्तु मूसा उस सघन बादल के पास पहॅँुचा, जिसमें ईष्वर था।
| 22) प्रभु ने मूसा से कहा, ''इस्रालियों से कहो कि तुमने स्वयं यह देखा है कि मैं स्वर्ग से तुम लोगों से बोला हँू।
| 23) तुम मेरे सिवा चाँदी या सोने के देवता नहीं बनाओगे।
| 24) मेरे लिए मिट्टी की एक वेदी बनाओ, उस पर होम और शांति-बलि-अपनी भेड़-बकरियॉँ और बैल चढ़ाओ। ऐसे हर स्थान पर, जिसे मैं अपनी पूजा के लिए निष्चित करूँगा, मैं तुम्हारे पास आ कर तुम्हें आषीर्वाद दूँूगा।
| 25) यदि तुम मेरे लिए पत्थरों की वेदी बनाओगे, तो उसे तराषे हुए पत्थरों से नहीं बनाओगे, क्योंकि जब तुुम उन को किसी औजार से तराशोगे तो वह अपवित्र हो जायेगी।
| 26) तुम मेरी वेदी पर सीढ़ियों से नहीं चढ़ोगे। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी नग्नता प्रकट हो जाये।
| |
1) ''तुम लोगों के सामने ये आदेष रखोगे। |
2) यदि तुम किसी इब्रानी दास को मोल लो, तो वह छः वर्ष तक तुम्हारी सेवा करेगा। परन्तु सातवे वर्ष वह कुछ दिये बिना छोड़ दिया जायेगा। |
3) यदि वह अकेला खरीदा गया हो, तो वह अकेला ही छोड़ दिया जाये और यदि वह विवाहित आया हो तो उसकी पत्नी भी उसके साथ जाये। |
4) यदि उसका स्वामी उसे कोई पत्नी दे और उस से उसके पुत्र या पुत्रियाँ पैदा हों, तो वह स्त्री अपने बच्चों सहित अपने स्वामी की होगी और वह अकेला छोड़ दिया जाये। |
5) यदि वह दास स्पष्ट रूप से कहे कि मैं अपने स्वामी, अपनी पत्नी और अपने बच्चों को प्यार करता हूँ और मैं जाना नहीं चाहता, |
6) तो उसका स्वामी उसे ईष्वर के पास ले जाये। वह उसे दरवाजे या चौखट तक ले जाये। वहाँ उसका स्वामी सुए से उसका कान छेद दे। इसके बाद वह आजीवन उसका दास बना रहेगा। |
7) जब कोई आदमी अपनी लड़की को दासी के रूप में बेचे, तो वह दासों की तरह नहीं छोड़ी जायेगी। |
8) यदि वह अपने स्वामी को पसन्द न आये, जिसने उसे अपने लिए खरीदा है, तो वह उसे बेच सकता है। उसे किसी विदेषी व्यक्ति को न बेचा जाये, क्योंकि यह उसके साथ विष्वासघात् होगा। |
9) यदि उसने उसे अपने पुत्र के लिए ख़रीदा हो, तो वह उसके साथ पुत्रीवत् व्यवहार करे। |
10) यदि वह अपना विवाह किसी दूसरी स्त्री से कर ले, तो वह उसके भोजन, वस्त्र तथा वैवाहिक अधिकारों की पूर्ति में कमी न करे। |
11) और यदि वह इन तीन कर्तव्यों का पालन न करे, तो वह कुछ दिये बिना छोड़ दी जायेगी। |
12) ''जो किसी मनुष्य पर ऐसी चोट करे कि वह मर जाये, तो उसे प्राणदण्ड दिया जाये। |
13) परन्तु यदि जान कर ऐसा न किया गया हो, केवल संयोगवष ऐसा हुआ हो, तो मैं तुम्हारे लिए एक निष्चित स्थान बता दूँगा, जहाँ वह शरण ले सकेगा। |
14) यदि कोई मनुष्य किसी को मार डालने के इरादे से उस पर छल से आक्रमण करे, तो तुम उसे मेरी वेदी के पास से भी घसीट कर मारो। |
15) जो अपनी माता या अपने पिता पर आघात करेगा, उसे प्राणदण्ड दिया जायेगा। |
16) जो किसी मनुष्य को चुरा कर बेच दे या वह उसके अधिकार में पाया जाये, तो उसे प्राणदण्ड दिया जाये। |
17) जो अपने पिता या अपनी माता को अभिषाप दे, उसे प्राणदण्ड दिया जाये। |
18) यदि लोग झगड़ा करें और उन में एक दूसरे को पत्थर या मुक्के से मारे, लेकिन उनकी मृत्यु न हो, बल्कि वह केवल बिस्तर पकड़ ले |
19) और बाद में उठ-बैठ सके और डण्डा लेकर चल-फिर सके, तो मारने वाले व्यक्ति को केवल यह दण्ड दिया जाये कि वह उसके समय की क्षतिपूर्ति करें और उसका पूरा-पूरा इलाज कराये। |
20) यदि कोई अपने दास या दासी को लट्ठ से इस तरह मारे कि वह उसके सामने ही मर जाये, तो उसे दण्ड दिया जायेगा। |
21) लेकिन वह दास एक या दो दिन जीवित रह जाये तो उसे दण्ड नहीं दिया जाये, क्योंकि दास तो उसकी ही सम्पत्ति है। |
22) यदि लोग आपस मे लड़ें और किसी गर्भवती स्त्री को इतनी चोट लग जाये कि गर्भपात हो जाये - और शिशु को कोई हानि न हो - तो उतना जुर्माना दिया जाये, जितना उस स्त्री का पति निर्धारित करे और न्यायधीषों के निर्णयानुसार उतना देना होगा। |
23) यदि कोई अन्य क्षति हो, तो प्राण के बदले प्राण का दण्ड दिया जाये, |
24) आँख के बदले आँख, दाँत के बदले दाँत, हाथ के बदले हाथ, पँाव के बदले पाँव, |
25) जलाने पर जलाने का, घाव के बदले घाव और मार के बदले मार का दण्ड। |
26) यदि कोई अपने दास या अपनी दासी की आँख पर इतना मारे के वह फूट जाये, तो वह उसे आँख फूटने के कारण स्वतन्त्र कर दे। |
27) यदि कोई अपने दास या अपनी दासी का दाँत तोड़े, तो वह दाँत तोड़ने के कारण उसे स्वतन्त्र कर दे। |
28) यदि कोई बैल किसी पुरुष या किसी स्त्री को सींग से मार डाले, तो वह बैल पत्थरों से मार डाला जाये। परन्तु उसका मांस न खाया जाये। बैल का मालिक निर्दोष माना जायेगा। |
29) परन्तु यदि वह बैल पहले से ही सींग मारता रहा हो उसके मालिक को चेतावनी देने पर भी उसने उसे बाँधा न हो, तो वह बैल, जिसने किसी पुरुष या स्त्री को मार डाला है, पत्थरों से मार डाला जाये और उसके मालिक को प्राण दण्ड दिया जाये। |
30) यदि उससे क्षतिपूर्ति माँगी जाये तो वह अपने प्राणों के बदले उसे उतना धन देना होगा, जितना निष्चित किया गया है। |
31) यदि वह किसी के पुत्र या पुत्री को सींग से मारे, तो यही नियम लागू किया जायेगा। |
32) यदि बैल किसी दास या किसी दासी को सींग से मार डाले, तो बैल का मालिक दास के स्वामी को चाँदी के तीस शेकेल दें और बैल पत्थरों से मार डाला जाये। |
33) ''जब कोई आदमी किसी गड्ढे को खुला रहने दे या कोई गड्ढा खोदे और उसे नहीं ढ़के और यदि उसमें कोई बैल या गधा गिर पड़े, |
34) तो जिसका गड्ढा होगा वह उसकी क्षतिपूर्ति करेगा। वह पशु के स्वामी को उसका पूरा मूल्य चुकायेगा; मृत पशु उसका होगा। |
35) यदि किसी का बैल किसी दूसरे के बैल को सींग से ऐसा मारे कि वह मर जाये तो जीवित बैल बेच दिया जाये, और उनके बीच उसका दाम आधा-आधा बाँट लिया जाये। वे मृत पशु को भी आधा-आधा बाँट लें। |
36) यदि यह पता हो कि वह बैल पहले से ही मारता रहा है और उसके मालिक ने उसे नहीं बाँधा है तो उसको उस बैल के बदले बैल देना होगा और मृत पशु उसी का होगा। |
37) ''यदि कोई आदमी बैल या भेड़ चुरा ले, उसे मार डाले या बेच दे, तो उसे एक बैल के बदले पाँच बैल और एक भेड़ के बदले चार भेड़ें देनी होंगी। यदि उसके पास कुछ न हो, तो चुराये धन के बदले स्वयं उस को बेचा जाये। |
1) ''यदि कोई चोर सेंध मारते पकड़ा जाये और उसे कोई इतनी मार मारे कि वह मर जाये, तो उसे हत्या नहीं समझा जायेगा। |
2) किन्तु यदि सूर्योदय हो गया हो, तो उसे हत्या का दोष लगेगा। |
3) यदि चुराया हुआ पशु - चाहे वह बैल हो या गधा या भेड़ - उसके पास जीवित मिले, तो उसे उसका दूना दाम देना होगा। |
4) यदि कोई अपने पशुओं से किसी का खेत या दाखबारी चरवा डाले या अपने ढ़ोरों को किसी दूसरे के खेत में चरने के लिए छोड़ दे, तो वह अपने सर्वोत्तम खेत या दाखबारी से उसकी क्षतिपूर्ति करे। |
5) यदि आग झाड़झंखाड़ में इस प्रकार फेल जाये कि वह पूलों के ढेर, खेत में खड़ी फसल या सारा का सारा खेत जला दे, तो आग लगाने वाले को इसकी क्षतिपूर्ति करनी होगी। |
6) यदि कोई किसी दूसरे के पास रुपये-पैसे या कोई दूसरी वस्तु धरोहर के रूप में रखे और यदि वह उसके घर से चोरी चली जाये, तथा चोर पकड़ा जाये, तो उसे उसका दूना मूल्य देना पड़ेगा। |
7) यदि चोर पकड़ा नहीं जा सके, तो मकान मालिक न्यायाधीषों के सामने यह प्रमाणित करे कि उस में उसका हाथ नहीं था। |
8) हर छल-कपट का ऐसा मामला - चाहे वह बैल, गधे, भेड़, वस्त्र या अन्य किसी चीज का हो - जिसके बारे में कोई व्यक्ति कहता है कि यह मेरा है, तो दोनों पक्ष न्यायाधीषों के पास जायेंगे और जिसे न्यायाधीष दोषी मानेंगे, उसे अपने पड़ोसी को उसका दुगुना दाम चुकाना पडे+गा। |
9) यदि कोई व्यक्ति अपने पड़ोसी के पास गधा, बेल, भेड़ या कोई दूसरा पशु अमानत रखता और वह मर जाता है, उसे चोट लग जाती या लोगों के अनजान मे चुराया जाता है, |
10) तो उन दोनों का मामला इस प्रकार तय किया जाये - पड़ोसी ईष्वर के सामने शपथ खायेगा कि उसने दूसरे की सम्पति नहीं चुरायी। मालिक को उसकी शपथ स्वीकार करनी पड़ेगी और क्षतिपूर्ति नहीं की जायेगी। |
11) लेकिन यदि उसके यहाँ से वह चुराया गया है, तो उसे उसके मालिक को क्षतिपूर्ति देनी होगी। |
12) यदि वह जानवरों द्वारा फाड़ डाला जाता है, तो वह प्रमाण के रूप में फाड़ा हुआ पशु ले आये और उसे क्षतिपूर्ति नहीं करनी होगी। |
13) यदि कोई मनुष्य अपने पड़ोसी से कोई पशु उधार ले और उसे चोट लग जाये या वह मर जाये जब पशु का स्वामी अनुपस्थित हो, तो उधार लेने वाले को उसकी क्षतिपूर्ति करनी होगी। |
14) यदि पशु का स्वामी उपस्थित हो, तो उधार लेने वाले को क्षतिपूर्ति नहीं करनी होगी। यदि वह किराये पर लिया गया हो, तो किराये से ही क्षतिपूर्ति हो जायेगी। |
15) यदि कोई किसी कुँवारी कन्या को, जिसकी सगाई नहीं हुर्ह है, प्रलोभन दे कर उस से संसर्ग करता है, तो उसे कन्या-शुल्क दे कर उस से विवाह करना पड़ेगा। |
16) यदि उसका पिता उसे देना सर्वथा अस्वीकार करता है, तो भी कन्या शुल्क देना पडे+गा। |
17) तुम जादूगरनी को जीवित नहीं रहने दोगे। |
18) जो कोई पशुगमन करेगा, वह मार डाला जायेगा। |
19) जो कोई प्रभु को छोड़ कर किसी अन्य देवी-देवता को बलि चढ़ायेगा, उसका बहिष्कार किया जायेगा। |
20) तुम लोग परदेषी के साथ अन्याय मत करो, उस पर अत्याचार मत करो, क्योंकि तुम भी मिस्र देष में परदेषी थे। |
21) तुम विधवा अथवा अनाथ के साथ दुर्व्यवहार मत करो। |
22) यदि तुम उनके साथ दुर्व्यवहार करोगे और वे मेरी दुहाई देंगे, तो मैं उनकी पुकार सुनूँगा |
23) और मेरा क्रोध भड़क उठेगा। मैं तुम को तलवार के घाट उतरवा दूँगा और तुम्हारी पत्नियाँ विधवा और बच्चे अनाथ हो जायेंगे। |
24) ''यदि तुम अपने बीच रहने वाले किसी दरिद्र देष-भाई को रुपया उधार देते हो, तो सूदखोर मत बनो - तुम उस से ब्याज मत लो। |
25) यदि तुम रहने के तौर पर किसी की चादर लेते हो, तो सूर्यास्त से पहले उसे लौटा दो; |
26) क्योंकि ओढ़ने क लिए उसके पास और कुछ नहीं है। वह उसी से अपना शरीर ढक कर सोता है। यदि वह मेरी दुहाई देगा, तो मैं उसकी सुनूँगा, क्योंकि मैं दयालु हूँ। |
27) ''तुम न ईष्वर की निन्दा करोगे और न अपने लोगों के शासक को शाप दोगे। |
28) अपने खेतों की पक्की फ़सल और फलों का रस अन्य देवताओं को नहीं चढ़ाओगे। अपने पुत्र में पहलौठे को मुझे अर्पित करोगे। |
29) तुम अपनी गायों और भेड़ों के पहलौठे बच्चों को भी अर्पित करोगे। वह सात दिन तक अपनी माँ के साथ रहेगा; तुम आठवें दिन उसे मुझे अर्पित करोगे। |
30) तुम लोग मेरी पवित्र प्रजा बनोगे; इसलिए जानवरों द्वारा मारे हुए पशुओं का खेत में पड़ा मांस नहीं खाओगे। उसे तुम कुत्तों के सामने फेंक दोगे। |
1) ''तुम न तो झूठी करोगे और न झूठे साक्ष्य से किसी दुष्ट का साथ दोगे। |
2) किसी कुकर्म में किसी गुट का पक्ष नहीं लोगे और न किसी मुक़दमें में अधिकांष लोगों की हाँ में हाँ मिला कर ऐसी गवाही दोगे, जो न्याय के विरुद्ध हो। |
3) किसी गरीब के अभियोग में पक्षपात नहीं करोगे। |
4) यदि तुम अपने शत्रु के बैल या गधे को इधर-उधर भटकता पाओ, तो उसे उसके पास पहुँचा दो। |
5) यदि तुम अपने विरोधी के गधे को बोझ से दबा हुआ पाओ, तो तुम उसे अकेला मत छोड़ो, उसे उठाने में उसकी सहायता करो। |
6) तुम किसी गरीब के मुक़दमें में अन्याय नहीं करोगे। |
7) झूठे दोषारोपण से दूर रहोगे। निरपराध और निर्दोष का वध नहीं करोगे। क्योंकि मैं अपराधी को निर्दोष नहीं ठहराऊँगा। |
8) तुम घूस मत लो, क्योंकि घूस अधिकारियों को अन्धा बना देती है और निरपराधियों के साथ अन्याय कराती है। |
9) तुम किसी परदेषी के साथ अत्याचार नहीं करोगे। तुम परदेशी की दषा समझते हो, क्योंकि तुम भी मिस्र देष में परदेषी थे। |
10) ''छः वर्ष तक अपनी भूमि में अनाज बोओगे और उसकी उपज एकत्रित करोगे, |
11) परन्तु सातवें वर्ष तुम उसे पड़ती पड़ी रहने दोगे, जिससे तुम लोगों में जो गरीब हैं, वे उसका उपयोग कर सकें और उसके द्वारा छोड़े हुए अवषिष्ट भाग को जंगली जानवर खा सके। ऐसा ही अपने अंगूर के बाग और जैतून के वृक्षों के साथ करो। |
12) छह दिन तक अपना काम करो और सातवें दिन विश्राम दिवस मनाओ, जिससे तुम्हारे दासी-पुत्र और प्रवासी भी आराम कर सकें। |
13) मेरे आदेषों का पूरी तरह पालन करो। किसी दूसरे देवी-देवता का नाम ले कर प्रार्थना नहीं करो। तुम्हारे मुख से उनके नाम सुनाई तक न दे। |
14) ''वर्ष में तीन बार मेरे आदर में पर्व मनाओ। |
15) बेखमीर रोटियों का पर्व मनाओ। मैंने जैसी आज्ञा दी थी, वैसे ही सात दिन तक आबीब महीने में निर्धारित समय पर बेखमीर रोटियाँ खाओ, क्योंकि इसी महीने में तुम मिस्त्र से निकले थे। मेरे दर्षनार्थ कोई भी खाली हाथ न आये। |
16) तुमने जो अपने खेतों में बोया हो, जब इस से अपने परिश्रम के प्रथम फल की उपज मिले, तब तुम कटनी का पर्व मनाओ। वर्ष के अन्त में जब तुम अपने परिश्रम के फल बटोरो, तो तुम संचय-पर्व मनाओ। |
17) वर्ष में तीन बार सब पुरुष सर्वोच्च प्रभु के सामने उपस्थित हुआ करें। |
18) तुम लोग न तो ख़मीरी रोटियों के साथ मुझे बलि-पशु का रक्त चढ़ाओ और न पर्व में चढ़ाई हुई चरबी सबेरे तक रखो। |
19) अपनी भूमि की पहली उपज का सर्वोत्तम अंष अपने प्रभु ईष्वर के घर ले आओ। किसी मेमने को उसकी माँ के दूध में मत उबालो। |
20) मैं एक दूत को तुम्हारे आगे-आगे भेजता हूँ। वह रास्तें में तुम्हारी रक्षा करेगा और तुम्हें उस स्थान ले जायेगा, जिसे मैंने निष्चित किया है। |
21) उसका सम्मान करो और उसकी बातें सुनो। उसके विरुद्ध विद्रोह मत करो। वह तुम्हारा अपराध नहीं क्षमा करेगा, क्योंकि उसे मेरी ओर से अधिकार मिला है। |
22) यदि तुम उसकी बातें मानोगे, तो मैं तुम्हारे शत्रुओं का शत्रु और तुम्हारे विरोधियों का विरोधी बनूँगा। |
23) मेरा दूत तुम्हारे आगे-आगे चलेगा और तुम्हें अमोरियों, हित्तियों, परिज्जियों, कनानियों, हिव्वियों, तथा यबूसियों के देष पहुँचा देगा और मैं उनका सर्वनाष करूँगा। |
24) तुम न तो उनके देवी-देवताओं की वन्दना और पूजा करोगे और न उनके कार्यों का अनुकरण करोगे, बल्कि उन मूर्तियों का सर्वनाष करोगे और उनके स्मारकों के टुकड़े-टुकड़े कर दोगे। |
25) तुम अपने प्रभु ईष्वर की सेवा करोगे और वह तुम्हारे अन्न-जल को आषीर्वाद देगा और मैं तुम से बीमारियाँ दूर रखूँगा। |
26) न तो तुम्हारे देष में गर्भपात होगा और न कोई बाँझ रहेगी। मैं तुम्हारी आयु के दिन बढाऊँगा। |
27) ''मैं अपना आतंक तुम्हारे आगे-आगे भेजूँगा और जिन राष्ट्रों के क्षेत्र में तुम प्रवेष करोगे, मैं उन में घबराहट पैदा करूँगा। मैं सब शत्रुओं को तुम्हारे सामने से भगाता रहूँगा। |
28) मैं तुम्हारे आगे-आगे बर्रे भेजूँगा, जो हिव्वियों, कनानियों और हित्तियों को तुम्हारे सामने से भगा देंगे। |
29) मैं उन्हें एक ही वर्ष के अन्दर नहीं भगाऊँगा, नहीं तो वह देष उजाड़ हो जायेगा और जंगली जानवरों की बढ़ती संख्या से तुम्हें नुकसान होगा। |
30) जब तक तुम्हारी संख्या बहुत अधिक नहीं हो जायेगी और तुम भूमि के पूरे अधिकारी नहीं बन जाओगे, तब तक मैं उन्हें तुम्हारे सामने से धीरे-धीरे भगाता रहूँगा। |
31) मैं तुम्हारी भूमि की सीमाएँ लाल समुद्र से लेकर फिलिस्तियों के समुद्र तक और मरूभूमि से फरात नदी तक निष्चित कर दूँगा। मैं वहाँ के निवासियों को तुम्हारे अधिकार में दे दूँगा और तुम उन्हें अपने सामने से निकाल दोगे। |
32) तुम न तो उन से और न उनके देवताओं से समझौता करो। |
33) उन्हें अपने देष में रहने नहीं दो। कहीं ऐसा न हो कि तुम उनके देवताओं की सेवा करो और यह तुम्हारे लिए फन्दा बन जाये।'' |
1) मूसा को आज्ञा मिली थी कि ''हारून, नादाब, अबीहू, और इस्राएलियों के बीच में सत्तर नेताओं को साथ ले कर प्रभु के निकट ऊपर आ जाओ। तुम सब दूर से ही आराधना करो। |
2) केवल मूसा प्रभु के निकट आ सकेगा, दूसरे निकट नहीं आ सकेंगे। लोग उसके साथ पर्वत पर न चढ़ें।'' |
3) मूसा ने सीनई पर्वत से उतर कर प्रभु के सब वचन और आदेष लोगों को सुनाये। लोगों ने एक स्वर से इस प्रकार उत्तर दिया, ''प्रभु ने जो कुछ कहा है, हम उसका पालन करेंगे।'' |
4) मूसा ने प्रभु के सब आदेष लिख दिये और दूसरे दिन, भोर को, उसने पर्वत के नीचे एक वेदी बनायी और इस्राएल के बारह वंषों के लिए बारह पत्थर खड़े कर दिये। |
5) उसने इस्राएली नवयुवकों को आदेष दिया कि वे होम-बलि चढ़ायें और शांतियज्ञ के लिए बछड़ों का वध करें। |
6) तब मूसा ने पशुओं का आधा रक्त पात्रों में इकट्ठा किया और आधा वेदी पर छिड़का। |
7) उसने विधान की पुस्तक ली और उसे लोगों को पढ़ सुनाया। लोगों ने उत्तर दिया, प्रभु ने जो कुछ कहा है, हम उसके अनुसार चलेंगे और उसका पालन करेंगे। |
8) इस पर मूसा ने रक्त ले लिया और उसे लोगों पर छिड़कते हुए कहा, ''यह उस विधान का रक्त है, जिसे प्रभु ने उन सब आदेषों के माध्यम से तुम लोगों के लिए निर्धारित किया है। |
9) इसके बाद मूसा और हारून, नादाब और अबीहू तथा इस्राएलियों के सत्तर नेता ऊपर आ गये |
10) और उन्होंने इस्राएलियों के ईष्वर के दर्षन किये। उसके चरणों के नीचे नीलमणि-जैसा फ़र्ष था, जो आकाष की तरह स्वच्छ था। |
11) उसने इस्राएली नेताओं को कुछ हानि नहीं पहुँचायी। उन्होंने ईष्वर के दर्षन किये। इसके बाद उन्होंने खाया और पिया। |
12) प्रभु ने मूसा से कहा, ''मेरे पास पर्वत पर चढ़ो और वहाँ प्रतीक्षा करो। मैं तुम्हें पत्थर की पाटियाँ दूँगा, जिन पर लोगों को षिक्षा देने के लिए मैंने विधि और आज्ञाएँ अंकित की हैं।'' |
13) तब मूसा अपने सेवक योषुआ के साथ चल कर ईष्वरीय पर्वत पर गया। |
14) उसने नेताओं से कहा, ''जब तक हम तुम्हारे पास वापस न आयें, तुम यहाँ हमारी प्रतीक्षा करो। हारून और हूर तुम्हारे साथ हैं। यदि कोई झगड़ा पैदा हो, तो उनके पास जाओ।'' |
15) जब मूसा पहाड़ पर ऊपर चढ़ गया, तब बादल ने पर्वत को ढक लिया। |
16) प्रभु की महिमा सीनई पर्वत पर उतरी। बादल छह दिनों तक उसे ढके रहा। सातवें दिन उसने बादल के कुहरे के भीतर से मूसा का बुलाया। |
17) प्रभु की महिमा इस्राएलियों को पर्वत की चोटी पर धधकती अग्नि-जैसी दिखाई पड़ी। |
18) मूसा बादल में प्रवेष कर पहाड़ की चोटी तक चढ़ गया। मूसा चालीस दिन और चालीस रात पहाड़ पर रहा। |
1) प्रभु ने मूसा से कहा : |
2) ''इस्राएलियों से कहो कि वे मेरे लिऐ चन्दा ले आयें। तुम प्रत्येक व्यक्ति से, जो स्वेच्छा से देना चाहे, मेरे लिए चन्दा स्वीकार करो। |
3) तुम उन से यह स्वीकार करोगे : सोना, चाँदी और काँसा; |
4) नीले, बैंगनी और लाल रंग के कपड़े तथा छालटी, बकरी के बाल; |
5) मेढों की सीझी हुई खालें ओर सूस की खालें; बबूल की लकड़ी; |
6) दीपक के लिए तेल, अभ्यंजन के तेल और सुगन्धित लोबान के लिए मसाले; |
7) एफ़ोद और वक्षपेटिका में लगाने के लिए सुलेमानी और अन्य मणियाँ। |
8) लोग मेरे लिए एक पवित्र-स्थान बनायें और मैं उनके बीच निवास करूँगा। |
9) जो नमूना मैं तुम को दिखाऊँगा, ठीक उसी के अनुसार निवास और उसके लिए अन्य सब सामग्री बनवाओ। |
10) ''बबूल की लकड़ी से एक मंजूषा बनवाओ। उसकी लम्बाई ढाई हाथ और चौड़ाई तथा ऊँचाई डेढ़-डेढ़ हाथ हो। |
11) उसे भीतर-बाहर शुद्ध सोने से मढ़वाओ और उसके चारों और सोने की किनारी भरवाओं। |
12) उसके चार पायों में सोने के चार कड़े ढलवा कर बनवाओं; दो कड़े एक ओर और दो कडे+ दूसरी ओर। |
13) फिर बबूल की लकड़ी के डण्डे बनवाओ और उन्हें भी सोने से मढ़वाओ। |
14) मंजूषा के किनारों के कड़ो में उन डण्डों को डलवाओ, जिससे मंजूषा उठायी जा सके। |
15) डण्डे हमेषा मंजूषा के कड़ो में लगे रहेंगे, वे उन से कभी अलग नहीं किया जायेगा। |
16) मंजूषा में उस विघान-पत्र को रख दो, जिसे मैं तुम को दूँगा। |
17) शुद्ध सोने का एक छादन-फलक बनवाओ। उसकी लम्बाई ढाई हाथ हो और उसकी चौड़ाई डेढ़ हाथ। |
18) छादन-फलक के दोनों ओर सोने से गढ़े दो केरूब बनवाओ; |
19) एक सिरे पर एक केरूब और दूसरे सिरे पर दूसरा केरूब। ये केरूब और छादल-फलक एक ही धातु खण्ड के बने हों। |
20) उन केरूबों के पंख ऊपर से ऐसे फैले हुए हों कि वे अपने पंखों से छादन-फलक को ढके रहें। वे एक दूसरे के आमने-सामने हों और उनका मुख छादन-फलक की ओर हो। |
21) मंजूषा के ऊपर उस छादन-फलक को और मंजूषा में उस विधान-पत्र को रखो, जिसे मैं तुम को दूँगा। |
22) मैं वहाँ तुम से मिलूँगा और छादन-फलक के ऊपर से, अर्थात् विधान की मंजूषा पर स्थित उन दो केरूबों के बीच के स्थान से तुम को इस्राएलियों के लिए अपनी सब आज्ञाएँ सुना दूँगा। |
23) ''बबूल की लकड़ी की एक मेज बनवाओ, जो दो हाथ लम्बी, एक हाथ चौड़ी और डेढ़ हाथ ऊँची हो। |
24) उसे शुद्ध सोने से मढ़वाओं और उसके चारों ओर सोने की किनारी लगवाओ। |
25) उसके चारों ओर चार अंगुल चौड़ी एक पटरी बनवाओ और उस पटरी के चारों ओर सोने की किनारी लगवाओ। |
26) सोने के चार कड़े बनवा कर उन कड़ों को चारों कोनों में, चारों पायों में लगवाओ। |
27) वे कड़े पटरी के पास ही हों और डण्डों के घरों का काम दे, जिससे मेज उनके द्वारा उठायी जा सके। |
28) बबूल की लकड़ी के डण्डे बनवा कर उन्हें सोने से मढ़वाओं। वे मेज उठाने के काम आयेंगे। |
29) तुम शुद्ध सोने की थालियाँ कलछे, घड़े और प्याले बनवाओं। ये अर्घ देने के काम आयेंगे। |
30) उस मेज+ पर मेरे सामने सदा भेंट की रोटियाँ रखा करोगे। |
31) शुद्ध सोने का एक दीपवृक्ष भी बनवाओ। दीपवृक्ष का पाया, उसकी डण्डी, उसके प्याले, उसकी कलियाँ और फूल-सब एक ही धातु खण्ड के होंगे। |
32) उसी में छह शाखाएँ हों। दीपवृक्ष की एक ओर तीन शाखाएँ हों और दीपवृक्ष की दूसरी ओर तीन शाखाएँ। |
33) एक शाखा में बादाम की बौंड़ी के आकार के तीन प्याले हों, जिन में एक कली और एक फूल हो। दूसरी शाखा में बादाम की बौंड़ी के आकार के तीन प्याले हों, जिन में एक कली और एक फूल हो। वृक्ष की छहों शाखाओं पर ऐसा ही हो। |
34) दीपवृक्ष में ही बादाम की बौंड़ी के आकार के चार प्याले हों, जिन में एक कली और एक फूल हो। |
35) दीपवृक्ष से निकली हुई प्रथम शाखा-द्वय के नीचे एक कली हो, दूसरी कली दूसरी शाखा-द्वय के नीचे और तीसरी कली तीसरी शाखा-द्वय के नीचे। |
36) शाखाएँ, कलियाँ और दीपवृक्ष ये सब शुद्ध सोने के एक ही धातु-खण्ड के बने हो। |
37) तब तुम उसके लिए सात दीपक बनवाओ। उन दीपकों को इस प्रकार जलते रखोगे कि उनका प्रकाष सामने के स्थान पर पड़े। |
38) उसकी कैंचियाँ और अग्निपात्र शुद्ध सोने के बने हों। |
39) उसे और उसके सब पात्रों को एक मन शुद्ध सोने से बनवाओ। |
40) इसका ध्यान रखो कि ये सब ठीक उसी नमूने अनुसार बनें, जो तुम को पर्वत पर दिखाया गया है। |
1) ''निवासस्थान को ऐसे दस परदों से बनवाओं, जो बटी हुई छालटी और नीले, बैंगनी और लाल रंग के कपड़ों से बने हों और जिन पर एक कुषल षिल्पकार द्वारा केरूबों के चित्र कढ़े हों। |
2) हर परदें की लम्बाई अट्ठाइस हाथ और चौड़ाई चार हाथ हो। हर परदा एक ही नाप का हो। |
3) पाँच परदे एक दूसरे से जुड़वाओं और इसी प्रकार दूसरे पाँच परदे भी। |
4) दोनों सामने वाले परदों के किनारे पर नीले रंग के फन्दे लगवाओं; |
5) एक परदे में पचास फन्दे और दूसरे में भी पचास फंदे। वे फन्दे एक दूसरे के आमने-सामने हों। |
6) फिर, सोने के पचास अँकुड़े बनवाओं और उन अँकुड़ों से दोनों परदों को मिलाओ, जिससे निवासस्थान एक इकाई बन जाये। |
7) ''निवासस्थान को ढकने के लिए तुम बकरी के बालों के परदे बनवाओ; ग्यारह परदे बनवाओ। |
8) हर परदे की लम्बाई तीस हाथ और चौड़ाई चार हाथ हो। ग्यारह परदे एक ही नाप के हों। |
9) उन परदों में पाँच को जोड़ कर एक परदा बनवाओं और शेष छः परदों को भी जोड़ कर एक दूसरा परदा बनवाओ। छठे परदे को तम्बू के सामने मोड़ कर दुहरा कर दो। |
10) दोनों सामने वाले परदों के किनारे पर पचास फन्दे बनवाओं। |
11) फिर काँसे के पचास अँकुड़े बनवाओं। उन अँकुड़ों में फन्दे लगवाओं और तम्बू के दोनों भाग इस प्रकार जोड़ दो कि वह एक इकाई बन जाये। |
12) परदों का वह भाग जो बचा है, उसका आधा भाग निवास के पीछे लटकता रहने दो |
13) और परदों की लम्बाई में बचा हुआ भाग निवास के अगल-बगल ढकने के लिए, एक-एक हाथ लटकता छोड़ दो। |
14) तम्बू के लिए तुम मेढ़े के सीजे चमड़े का एक आवरण बनवाओ और फिर उसके ऊपर लगाने का सूस के चमड़े का एक और आवरण। |
15) निवास के लिए बबूल की लकड़ी से चौखटें बनवा कर खड़ा कर दो। |
16) हर एक की लम्बाई दस हाथ और चौड़ाई डेढ़ हाथ हो। |
17) जोड़ने के लिए प्रत्येक चौखट में दो चूलें हों। निवास की सब चौखटें उसी तरह बनवाओ। |
18) निवास के दक्षिणी किनारे के लिए बीस चौखटें बनवाओ और |
19) उनके नीचे चाँदी की चालीस कुर्सियाँ, अर्थात् एक-एक चौखट के नीचे उसकी दोनों चूलों के लिऐ दो कुर्सियाँ। |
20) निवास की दूसरी ओर, अर्थात् उत्तरी किनारे के लिए भी बीस चौखटें बनवाओ। |
21) साथ-साथ चाँदी की चालीस कुर्सियाँ, प्रत्येक चौखट के नीचे दो कुर्सियाँ, बनवाओ। |
22) निवास के पीछे, अर्थात् पष्चिमी ओर के लिए छह और चौखटें बनवाओ। |
23) निवास के पीछे के भाग के कोनों के लिए दो चौखटें बनवाओ। |
24) वे दुहरी हों, नीचे की ओर कुछ अलग हों और ऊपर एक कड़े पर जुड़ी हों दोनों कोनों पर ऐसा ही होगा। |
25) इस तरह आठ चौखटें होगी, जिनके नीचे चाँदी की सोलह कुर्सियाँ होंगी, प्रत्येक चौखट के नीचे दो कुर्सियाँ। |
26) ''बबूल की लकड़ी के छड़ बनवाओ। निवास की एक ओर की चौखटों के लिए पाँच छड़ |
27) और निवास की दूसरी ओर की चौखटों के लिए पाँच छड़; निवास के पिछले भाग, अर्थात् पश्चिमी किनारे की चौखटों के लिए भी पाँव छड़। |
28) बीच वाला छड़ चौखटों के बीचों-बीच एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुँचता हो। |
29) चौखटों को सोने से मढ़वाओ। छड़ों के घरों के लिए सोने के कड़े बनवा कर छड़ों को भी सोने से मढ़वाओ। |
30) इस प्रकार निवास को ठीक उसी नमूने के अनुसार बनवाओ, जो तुम को पर्वत पर दिखाया गया है। |
31) ''फिर नीले, बैंगनी और लाल रंग के कपड़ों से और बटी हुई छालटी से एक अन्तरपट बनवाओ, जिस में एक कुषल षिल्पकार द्वारा केरूबों के चित्र कढ़े हों। |
32) उसे सोने के मढ़े बबूल की लकड़ी के चार खूँटों में लटकाओ। वे चाँदी की चार कुर्सियों पर लगे हों तथा सोने के अँकुड़ों में फँसे हों। |
33) अन्तरपट को अँकुड़ों द्वारा लटकाओ और अन्तरपट के पीछे विधान की मंजूषा रखवाओ। वह अन्तरपट परम-पवित्र स्थान से पवित्र स्थान को अलग करेगा। |
34) परमपवित्र स्थान में विधान की मंजूषा पर छादन-फलक को रखवाओ। |
35) अन्तरपट के बाहर, निवासस्थान के उत्तरी भाग में मेज+ रखवाओं और मेज+ के सामने, निवास के दक्षिणी भाग में, दीपवृक्ष रखवाओ। |
36) निवास के द्वार के लिए नीले, बैंगनी और लाल रंग के कपड़ों का तथा बटी हुई छालटी का एक परदा बनवाओ, जिस में बेलबूटे कढ़े हों। |
37) इस परदे को लटकाने के लिए बबूल की लकड़ी के सोने से मढ़े पाँच खूँटे बनवाओं। उनके अँकुड़े सोने के हों और उनके लिए काँसे की पाँच कुर्सियाँ ढलवाओ। |
1) ''बबूल की लकड़ी से पाँच हाथ लम्बी और पाँच हाथ चौड़ी एक वेदी बनवाओ। वह वेदी वर्गाकार हो। उसकी ऊँचाई तीन हाथ हो। |
2) उसके चारों कोनों पर सींग बनवाओ। वेदी और सींग एक ही काष्ठ-खण्ड के बने हों। उसे काँसे से मढ़वाओ। |
3) राख उठाने के लिए पात्र, फावड़ियाँ, कटोरे, काँटे और अँगीठियाँ बनवाओं - ये सब सामान काँसे के बने हों। |
4) उसके लिए काँसे की जाली की एक झंझरी बनवाओ और जाली के चारों कोनों पर काँसे के चार कडे+। |
5) उसे वेदी के नीचे इस प्रकार लगवाओ कि वह वेदी की आधी ऊँचाई तक आये। |
6) वेदी के लिऐ डण्डे बनवाओं। डण्डे बबूल की लकड़ी के हों। उन्हें काँसे से मढ़वाओ। |
7) वे डण्डे कड़ों में इस तरह लगवाओ कि जब वेदी उठायी जाये, तो वे डण्डे उसकी दोनों ओर हों। |
8) वेदी तख्+तों से बनवाओ। वह अन्दर खोखली हो। वह जैसी तुम को पर्वत पर दिखायी गयी है, वैसी ही बनायी जाये। |
9) निवास के लिए एक आँगन बनवाओ। आँगन का दक्षिणी किनारा एक सौ हाथ लम्बा हो। उसके लिए सौ हाथ लम्बे, बटी हुई छालटी के परदे, |
10) बीस खूँटे और काँसे की बीस र्कुसियाँ बनवाओ। खूँटों के अँकुड़े और उन को जोड़ने के छड़ चाँदी के हों। |
11) उत्तर की ओर के लिए ऐसा ही एक सौ हाथ लम्बे परदे बनवाओ। उनके लिए बीस खूँटे और काँसे की बीस र्कुसियाँ बनवाओं। खूँटों के अँकुडे+ और उन को जोड़ने के लिए छड़ चाँदी के हों। |
12) आँगन का पष्चिमी किराना पचास हाथ का हो। उसके लिए परदे, दस खूँटे और दस र्कुसियाँ बनवाओ। |
13) आँगन का पूर्वी किनारा भी पचास हाथ का हो। |
14) द्वार के एक ओर के परदे पन्द्रह हाथ के हों, जिनके लिए तीन खूँटे और तीन र्कुसियाँ हों, |
15) दूसरी ओर के परदे पन्द्रह हाथ के हो, जिनके भी तीन खूँटे और तीन र्कुसियाँ हों। |
16) आँगन के द्वार के लिए बीस हाथ लम्बा और नीले, बैंगनी और लाल रंग के कपड़ों तथा बटी हुई छालटी के कपड़ों का परदा बनवाओ। उस में बेलबूटे कढ़े हो। उसके लिए चार खूँटे और चार र्कुसियाँ हों। |
17) आँगन के चारों ओर के सब खूँटे चाँदी के छड़ों से जुड़े हुए हों। वे छड़ और उनके अँकुड़े चाँदी के और उनकी र्कुसियाँ काँसे की हों। |
18) आँगन की लम्बाई एक सौ हाथ और चौड़ाई पचास हाथ हो। बटी हुई छालटी के उसके परदे पाँच हाथ ऊँचे हों और उनकी र्कुसियाँ काँसे की हों। |
19) निवास के उपयोग का सारा सामान, तम्बू की सब खूँटियाँ और आँगन की सब खूँटियाँ काँसे की हो। |
20) ''इस्राएलियों को आज्ञा दो कि वे दीपवृक्ष के लिए जैतून का निकाला हुआ शुद्ध तेल तुम्हारे पास लायें, जिससे दीपक निरन्तर जलता रहे। |
21) दर्षन-कक्ष में अन्तरपट के बाहर, जो विधान मंजूषा के सामने है, हारून और उसके पुत्र, सबेरे से शाम तक, उसे प्रभु के सामने जलता रखें। यह इस्राएलियों के लिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी बना रहने वाला आदेष है। |
1) ''इस्राएलियों में से अपने भाई हारून और उसके पुत्र नादाब और अबीहू, एलआजार और ईतामार को बुलाओ, जिससे वे मेरे लिए याजक का काम करें। |
2) अपने भाई हारून के लिए, उसकी मर्यादा और शोभा के लिए, पवित्र वस्त्र सिलवाओ। |
3) उन सब कुषल षिल्पकारों को, जिन्हें मैंने इस विषय में प्रतिभा दी हैं, बताओ कि वे हारून के अभिषेक के लिए वस्त्र बनायें, जिससे वह मेरे लिए याजक का काम कर सके। |
4) वे ये वस्त्र बनायें - वक्षवेटिका, एफोद, अँगरखा, बेलबूटेदार कुरता, पगड़ी और कमरबन्द। वे तुम्हारे भाई हारून और उसके पुत्रों के लिए ये पवित्र वस्त्र बनायें, जिससे वे इन्हें पहन कर मेरे लिए याजक का काम करें। |
5) वे सोने के तार, नीले, बैंगनी और लाल रंग के कपड़े और छालटी का उपयोग करें। |
6) ''तुम एक कुषल षिल्पकार द्वारा सोने के तारों से, नीले, बैंगनी और लाल रंग के कपड़ों तथा बटी हुई छालटी से एफोद बनवाओ। |
7) कन्धे की दो पट्टियों से उसके दोनों भाग जोड़े जायें। |
8) कमरबंद एफ़ोद के साथ बुना हुआ हो और एक ही प्रकार की सामग्री से बना हो, अर्थात् सोने के तारों, नीले, बैंगनी और लाल रंग के कपड़ों और बटी हुई छालटी से। |
9) सुलेमानी की दो मणियों पर इस्राएल के पुत्रों के नाम, उनके जन्म-क्रम के अनुसार, अंकित करवाओ- |
10) एक मणि पर छह नाम और दूसरी मणि पर शेष छह नाम। |
11) जिस प्रकार जैहरी मुद्राओं को उकेरता है, उसी प्रकार तुम इन दोनों मणियों पर इस्राएल के पुत्रों के नाम अंकित करवाओ। उन्हें नक्काषी किये हुए सोने के खाँचों में जड़वाओ। |
12) इन दोनों मणियों को इस्राएल के पुत्रों की स्मृति-मणियों के रूप में एफ़ोद के कन्धे में लगवाओ। हारून अपने कन्धों पर उनके नाम प्रभु के सामने धारण करेगा और प्रभु को उनका स्मरण दिलायेगा। |
13) उन्हें नक्काषी किये हुए सोने के खाँचों में जड़वाओ। |
14) इनके सिवा शुद्व सोने की, रस्सियों के समान गुँथी हुई, दो सिकड़ियाँ बनवाओ और इन गुँथी हुई सिकड़ियों को खाँचों में लगवाओ। |
15) ''तुम एक कुषल षिल्पकार द्वारा वक्षपेटिका बनवाओ, जो निर्णय देने के काम आयेगी। उसे बेलबूटेदार एफ़ोद के समान बनवाओ। उसे सोने के तारों, नीले, बैंगनी और लाल रंग के कपड़े तथा बटी हुई छालटी से बनवाओ। |
16) वह दोहरी और वर्गाकार हो - एक बित्ता लम्बी और एक बित्ता चौड़ी। |
17) उस में मणियों की चार पंक्तियाँ लगवाओ। पहली पंक्ति में एक माणिका, एक पुखराज और एक मरकत हो। |
18) दूसरी पंक्ति में एक लाल मणि, एक नीलम और एक हीरा हो। |
19) तीसरी पंक्ति में एक तृणमणि, एक यषब और एक याकूत। |
20) चौथी पंक्ति में एक स्वर्णमणि, एक सुलेमानी और एक सूर्यकान्त मणि। इन्हें नक्काषी किये हुये सोने के खाँचों में लगवाओ। |
21) इस्राएल के पुत्रों की संख्या के अनुसार बारह मणियाँ हों। हर मणि पर बारह वंषों का एक नाम अंकित हो जिस तरह मोहरों पर होता है। |
22) वक्षपेटिका के लिए बटी हुई डोरियों के रूप में शुद्व सोनो की गूँथी हुई सिकड़ियाँ बनवाओ। |
23) वक्षपेटिका के लिए सोने के दो छल्ले भी बनवाओं और इन दोनों छाल्लों को वक्षपेटिका के दोनों सिरों पर लगवाओ। |
24) इसके बाद सोने की इन दोनों डोरियों को वक्षपेटिका के सिरों में लगे हुए दोनों छल्लों में लगवाओ। |
25) दोनों डोरियों के दूसरे सिरों को नक्काषी किये हुये दोनों खाँचों में जुड़वाओ। उन्हें एफोद के स्कन्ध-भागों, में सामने की ओर लगवाओ। |
26) फिर, सोने के दो और छल्ले बनवा कर इन्हें वक्षपेटिका के सिरों पर भीतर की ओर एफ़ोद से सटा कर लगवाओ। |
27) सोने के दो और छल्ले बनवाओं और उन्हें एफ़ोद के स्कन्ध-भागों के नीचे, सामने की ओर कमरबन्द के पास लगवाओ। |
28) वक्षपेटिका के छल्लों और एफ़ोद के छल्लों को नीली पट्टियों से जुड़वाओ, जिससे वक्षपेटिका एफ़ोद के कमरबन्द से बँधी रहे। |
29) जब हारून पवित्र-स्थान में प्रवेष करेगा, तो वह वक्षपेटिका पर अंकित इस्राएल के नाम अपने हृदय पर धारण करेगा। जिससे वह प्रभु को निरन्तर उनका स्मरण दिलाये। |
30) वक्षपेटिका में ऊरीम और तुम्मीम रख दो, जिससे हारून उन्हें अपने हृदय पर धारण किये प्रभु के सामने आये। इस प्रकार हारून प्रभु के सामने आते समय इस्राएल के लिए निर्णय करने का उपाय सदा अपने हृदय पर धारण किये रहेगा। |
31) ''एफोद का पूरा अँगरेखा नीले कपड़े का बनवाओ। |
32) बीच में सिर के लिए एक छेद हो और उस छेद के चारों ओर गरेबान जैसी एक गोट हो, जिससे वह फटे नहीं। |
33) उसके निचले घेरे में नीले, बैंगनी और लाल रंग के कपड़े के बने अनार लगवाओ। अँगरखे के नीचले घेरे में चारों तरफ अनारों के बीच में सोने की घंटियाँ लगवाओ। |
34) अँगरखें के निचले घेरे में एक अनार के बाद सोने की एक घण्टी हो, फिर एक अनार के बाद फिर एक सोने की घण्टी। |
35) हारून सेवा-कार्य करते समय उसे पहन लेगा जब वह प्रभु के सामने पवित्र-स्थान में प्रवेष करेगा ओैर उसमें से निकल आएगा, तो घण्टियों का शब्द सुनाई देगा, ऐसा नहीं होने पर उसकी मृत्यु हो जाएगी। |
36) ''शुद्ध सोने का एक पुष्प बनवाओ और मुहर में अंकित अक्षरों की तरह उस पर यह अंकित करवाओ ÷प्रभु को अर्पित÷। |
37) तुम उसे नीली डोरी से सामने की ओर पगड़ी में बाँधो। |
38) हारून उसे अपने मस्तक पर धारण करेगा और इस से वह इस्रालियों द्वारा अर्पित पवित्र चढ़ावों में जो दोष होंगे उन्हें दूर करेगा। वह उस पुष्प को सदा अपने मस्तक पर धारण करेगा, जिससे चढ़ावे प्रभु को ग्राह हों। |
39) ''कुरता और पगड़ी छालटी से बुनवाओ। कमरबन्द बेलबूटेदार हो। |
40) हारून के पुत्रों के लिए उनकी मर्यादा शोभा के लिए, कुरता, कमरबन्द ओर टोपी बनवाओ। |
41) अपने भाई हारून और उसके पुत्रों को उन्हें पहनाओ और उनका याजक के रूप में अभिषेक करो। उन्हें पवित्र करो, जिससे वे मेरे लिए याजक का काम कर सकें। |
42) ''उनका शरीर ढकने के लिए छालटी के जाँघिये बनवाओ। |
43) उनकी लम्बाई कमर से जाँघ तक हो। जब हारून और उसके पुत्र दर्षन-कक्ष में प्रवेष करें अथवा पवित्र-स्थान में सेवा करने के लिए वेदी के निकट जायें, तो वे उन्हे धारण करें, जिससे वे अपराधी न बनें और उनकी मृत्यु न हो। यह उसके और उसके बाद होने वाले उसके वंषजों के लिए चिरस्थायी आदेष है। |
1) ''मेरे याजक बनने के लिए उनका अभिषेक इस प्रकार हो। यह सामग्री तैयार करवाओ - एक बछड़ा, दो अदोष मेढ़े, |
2) गेहूँ के मैदे से बनी हुई बेखमीर रोटियाँ, तेल-मिश्रित बेखमीर पूरियाँ और तेल से चुपड़ी हुई चपातियाँ। |
3) उन्हें एक टोकरी में रखवाओ। बछड़े और मेढों के साथ वह टोकरी मेरे पास लाओ। |
4) इसके बाद हारून और उसके पुत्रों को दर्षन-कक्ष के द्वार पर पहुँचाओ और उन्हें जल से नहलाओ। |
5) फिर वस्त्र ले कर हारून को कुरता, अँगरखा, एफ़ोद और वक्षपेटिका पहनाओ। कलात्मक ढंग से बने कमरबन्द से एफ़ोद को हारून पर बाँधो। |
6) उसके सिर पर पगड़ी रखो और उस पर स्वर्ण-पुष्प लगाओ। |
7) अभ्यंजन का तेल ले कर उसे उसके सिर पर उँड़ेलते हुए उसका अभिषेक करो। |
8) उसके पुत्रों को अपने पास बुलाओ और उन्हें कुरते पहनाओ। |
9) हारून और उसके पुत्रों के शरीर पर कमरबन्द बाँधों और उन को पगड़ी पहनाओ। एक चिरस्थायी विधान द्वारा उन्हें याजक का पद प्राप्त होगा। तुम इस प्रकार हारून और उसके पुत्रों का अभिषेक करोगे। |
10) ''तब बछड़ा दर्षन-कक्ष के सामने ले आओ हारून और उसके पुत्र बछड़े के सिर पर अपने हाथ रखेंगे; |
11) फिर दर्षन-कक्ष के द्वार पर प्रभु के सामने इस बछड़े की बलि चढ़ाओ। |
12) बछड़े के रक्त से थोड़ा ले कर अँगुली से उसे वेदी के सींगों पर लगाओं और शेष सब रक्त वेदी के निचले भाग पर उँड़ेलो। |
13) अँतड़ियों के आसपास की सारी चरबी, जिगर की झिल्ली, दोनों गुरदे और उन पर की चरबी - यह सब वेदी पर रख कर जलाओं।'' |
14) बछड़े का मांस, उसकी खाल और उसका गोबर षिविर के बाहर आग में जलाओ, क्योंकि यह प्रायष्चित का बलिदान है। |
15) ''एक मेढ़ा ले आओ। हारून और उसके पुत्र मेढे+ के सिर पर अपने हाथ रखेंगे। |
16) इसके बाद मेढे+ की बलि चढ़ाओं और उसका रक्त वेदी के चारों ओर छिड़को। |
17) मेढे+ के टुकडे-टुकड़े कर दो। उसकी अँतड़ियाँ और उसके पैर धो कर उन्हें दूसरे टुकड़ों और सिर के साथ रखो। |
18) इसके बाद पूरा-का-पूरा मेढ़ा वेदी पर जला दो। यह प्रभु के लिए एक होम बलि एक सुगन्धयुक्त चढ़ावा है, जो उसे ग्राह्य है। |
19) ''इसके बाद दूसरा मेढ़ा ले आओ। हारून और उसके पुत्र उस मेढ़े के सिर पर भी अपने हाथ रखेंगे। |
20) इसके बाद मेढ़े की बलि चढ़ाओ और उसके रक्त से थोड़ा लेकर हारून और उसके पुत्रों के दाहिने कान की लौ पर लगाओ। उसे उनके दाहिने हाथों के अँगूठों और दाहिने पाँवों के अँगूठों पर भी लगाओ। शेष रक्त वेदी के चारों ओर छिड़को। |
21) वेदी पर छिड़के हुए रक्त और अभ्यंजन तेल से कुछ ले कर हारून और उसके वस्त्रों तथा उसके पुत्रों और उसके पुत्रों के वस्त्रों पर छिड़को। इस प्रकार वह, उसके वस्त्र, उसके पुत्र और उनके वस्त्र पवित्र हो जायेंगे। |
22) ''तब अभिषेक के मेढे+ की चरबी लो, अर्थात् उसकी पूँछ, अँतड़ियों के आसपास की चरबी, जिगर की झिल्ली, दोनों गुरदे और उन पर की चरबी तथा दाहिनी जाँघ। |
23) फिर प्रभु के सामने रखी टोकरी से, जिस में बेखमीर रोटियाँ हैं, एक रोटी, एक तेल-मिश्रित पूरी और एक चपाती निकालो। |
24) यह सब हारून और उसके पुत्रों के हाथों में रखों और वे उसे प्रभु के सामने हिला-हिला कर अर्पित करेंगे। |
25) फिर उन सब चीजों को उनके हाथों से लेकर होम के साथ वेदी पर जलाओ। यह होम-बलि है, एक सुगन्धयुक्त चढ़ावा, जो प्रभु को ग्राह्य है। |
26) हारून के अभिषेक में प्रयुक्त मेढे+ का सीना ले कर उसे प्रभु के सामने हिला-हिला कर अर्पित करो। यह तुम्हारा भाग होगा। |
27) मेढ़े का सीना और उसकी जाँघ अलग करो। |
28) यह इस्राएलियों द्वारा प्रभु को अर्पित बलिदानों का वह भाग है, जिसे वे हारून और उसके पुत्रों को दिया करें। |
29) हारून के पवित्र वस्त्र बाद में उसक पुत्रों को मिलेंगे। उन्हें पहन कर उनका अभिषेक किया जायेगा और उन्हें यज्ञाधिकार प्रदान किया जायेगा। |
30) जब वह पुत्र, जो उसके स्थान पर याजक बनेगा, पवित्र स्थान में सेवा करने के लिए दर्षन-कक्ष में प्रवेष करेगा, तो उन्हें सात दिन तक धारण करेगा। |
31) तुम अभिषेक के मेढ़े के माँस को एक पवित्र स्थान में पकाओ। |
32) दर्षन-कक्ष के द्वार पर हारून और उसके पुत्र मेढ़े का मांस और टोकरी में रखी हुई रोटियाँ खायेंगे। |
33) वे अपने अभिषेक और अधिकार-प्रदान के लिए आयोजित प्रायष्चित-विधि में प्रयुक्त पदार्थों को खायेंं। वे पवित्र हैं, इसलिए अनधिकारी उन्हें नहीं खा सकता। |
34) यदि अभिषेक के मेढ़े मांस या रोटी में से सबेरे तक कुछ बच जाये तो वह बचा हुआ भाग आग में जला दिया जाये। वह पवित्र है उसे कोई नहीं खा सकता। |
35) मैंने तुम्हें जैसा आदेष दिया है, ठीक उसी तरह हारून और उसके पुत्रों के साथ करों। तुम सात दिन में उनके अभिषेक की क्रिया पूरी करो। |
36) (३६-३७)प्रत्येक दिन पाप के प्रायष्चित के लिए एक बछड़े की बलि चढाओ। वेदी को प्रतिष्ठित करने के लिए सात दिन तक प्रायष्चित की बलि चढाओ और सात बार वेदी का अभ्यंजन करो। इस प्रकार वह वेदी परमपवित्र बन जायेगी। जो कुछ वेदी का स्पर्ष करेगा, वह पवित्र हो जायेगा। |
38) तुम नियमित रूप से वेदी पर यह बलिदान चढाओं - प्रति दिन दो मेमने, |
39) एक मेमना प्रातः और एक मेमना सन्ध्या को। |
40) पहले मेमने के साथ एक सेर जैतून के तेल से सना हुआ दो सेर मैदा चढाओं और अर्घ के रूप में एक सेर अंगूरी। |
41) दूसरा मेमना संध्या में चढाओ। उसके साथ प्रातःकाल के समान ही अन्न-बलि और अर्घ चढाओ। वह एक सुगन्धयुक्त होम बलि है, जो प्रभु को ग्राह्य है। |
42) दर्षन-कक्ष के द्वार पर, जहाँ मैं तुमसे मिला करता हूँ और जहाँ मैं तुम्हारे साथ बातें करता हूँ वहाँ प्रभु के सामने नित्य-प्रति, पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह होम बलि चढ़ाई जाये। |
43) वहाँ मैं इस्राएलियों से मिलने आऊँगा और वह स्थान मेरी महिमा के कारण पवित्र होगा। |
44) मैं दर्षन-कक्ष और वेदी को पवित्र करूँगा। मैं हारून और उसके पुत्रों को भी पवित्र करूँगा। जिससे वे मेरे याजक हो सकें। |
45) मैं इस्राएलियों के बीच रहूँगा और मैं उनका ईष्वर होऊँगा। |
46) वे जान जायेंगे कि मैं ही प्रभु, उनका वह ईष्वर हूँ, जो उन्हें मिस्र देष से इसलिए निकाल लाया है, जिससे मैं प्रभु, उनका ईष्वर, उनके बीच निवास करूँ। |
1) सुगन्धित द्रव्य जलाने के लिए बबूल की लकड़ी की एक वेदी बनवाओ। |
2) वह वर्गाकार - एक हाथ लम्बी, एक हाथ चौड़ी और दो हाथ ऊँची हो। उसके सींग एक ही काष्ठ-खण्ड के बने हों। |
3) उसका ऊपरी भाग, उसके चारों पहलू और उसके सींग शुद्व सोने से मढ़वाओ तथा उसके चारों ओर सोने की किनारी लगवाओ। |
4) उसके लिए सोने के दो कड़े बनवाओ और उन्हें किनारी के नीचे दोनों तरफ लगवाओ। वे डण्डों के घर हो जाये, जिन से वह उठायी जा सके। |
5) इन डण्डों को बबूल की लकड़ी से बनवा कर उन्हें सोने से मढ़वाओ। |
6) उसे विधान की मंजूषा के सामने लटके हुए अन्तरपट के आगे रखवाओ, अर्थात् विधान की मंजूषा पर रखे छादन-फलक के आगे, जहाँ, मैं तुम से मिला करूँगा। |
7) इस पर हारून प्रतिदिन सबेरे जब वह दीपक ठीक करता है, तब सुगन्धित द्रव्य जलाये |
8) और साँझ को, जब वह दीपक जलाता है। यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रभु के सामने चिरस्थायी सुगन्धयुक्त चढ़ावा है। |
9) इस पर तुम कोई अपवित्र धूप मत जलाओ और न होम-बलि, नैवैद्य या अर्घ चढ़ाओ। |
10) प्रति वर्ष एक बार हारून इसके सींगों पर प्रायष्चित की क्रिया पूरा करेगा। यह वार्षिक प्रायष्चित-विधि पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रायष्चित की बलि के रक्त से सम्पन्न की जायेगी। इस कारण वेदी प्रभु की दृष्टि में परमपवित्र है। |
11) प्रभु ने मूसा से यह कहा, |
12) जब तुम इस्राएलियों की जनगणना करते हो, तो हर एक प्रभु को रक्षा शुल्क चुकाये, जिससे गणना के समय उस पर कोई विपत्ति न आ पड़े। |
13) जिनका नामांकन किया जाता है, उन में हर एक पवित्र स्थान में प्रयुक्त तौल के अनुसार आधा शेकेल प्रभु को अर्पित करे। (एक शेकल की तौल लगभग ग्यारह ग्राम है।) |
14) जिनका नामांकन होता है, अर्थात् जिनकी अवस्था बीस वर्ष या उस से अधिक है, वो प्रभु को चढ़ावा दें। |
15) प्रभु के रक्षा शुल्क के रूप में धनी आधे शेकेल से अधिक न दें और दरिद्र इस से कम न दें। |
16) इस्राएलियों से यह रक्षा-शुल्क लो और दर्षन कक्ष के लिए इसका उपयोग करो। यह रक्षा शुल्क प्रभु को इस्राएलियों का स्मरण दिलाता रहेगा। |
17) प्रभु ने मूसा से यह कहा, |
18) ''प्रक्षालन के लिए काँसे की चिलमची और उसके साथ काँसे की चौकी बनवाओ। उसे दर्षन कक्ष और वेदी के नीचे रखवाओं और उस में जल भरवाओ। |
19) हारून और उसके पुत्र उस में से पानी ले कर अपने हाथ-पाँव धोयेंगे। |
20) दर्षन-कक्ष में प्रवेष करने से पहले वे जल से हाथ-पैर धोयें, नहीं तो उनकी मृत्यु हो जायेगी। इसी प्रकार जब वे प्रभु को होम बलि चढ़ाने वेदी के निकट आयें, |
21) तो ऐसा ही करें नहीं तो उनकी मृत्यु हो जायेगी। यह हारून और उसके वंषजों के लिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी चिरस्थायी आदेष है।'' |
22) तब प्रभु ने मूसा से यह कहा, |
23) (२३-२४) ''ये उत्तम मसाले लो, जिनकी तौल पवित्र-स्थान की तौल के अनुसार हो : पाँच सौ शेकेल स्वच्छ गन्धरस, इसका आधा अर्थात् ढाई सौ शेकेल सुगन्धित दारचीनी और ढाई सौ शेकेल सुगन्धित अगरु, पाँच सौ शेकेल तेजपात और चार सेर जैतून का तेल। |
25) इन्हें मिला कर किसी इतरसाज+ द्वारा सुगन्धित पवित्र अभ्यंजन-तेल बनवाओ। |
26) (२६-२८) इस तेल से दर्षन कक्ष, विधान की मंजूषा, मेज+ और दीपवृक्ष, उनके सारे सामान, धूप-वेदी, होम-बलि की वेदी और उसके सारे सामान चिलमची और उसकी चौकी का विलेपन करो। |
29) तुम इस प्रकार उनका अभ्यंजन करोगे और वे परमपवित्र बन जायेंगे। जो कुछ उनका स्पर्ष करेगा, वह पवित्र हो जायेगा। |
30) हारून और उसके पुत्रों का अभ्यंजन करो, जिससे वे याजक बन कर मेरी सेवा कर सके। |
31) इस्राएलियों से यह कहो कि यह भावी पीढ़ियों के लिए मेरा पवित्र अभ्यंजन का तेल होगा। |
32) यह किसी सामान्य मनुष्य के शरीर पर न लगाया जाये और इस प्रकार के सम्मिश्रण से कोई दूसरा तेल मत बनाओ, क्योंकि यह पवित्र है और तुम भी इसे पवित्र मानोगे। |
33) जो ऐसा तेल तैयार करेगा और जो उसे याजक के सिवा किसी अन्य मनुष्य पर लगायेगा, वह अपनी जाति से बहिष्कृत कर दिया जायेगा।'' |
34) प्रभु ने मूसा से यह कहा, ''तुम ये सुगन्धित मसाले लो - गन्धरस, नखी, गन्धा-बिरोजा, गन्ध द्रव्य और शुद्व लोबान। इन सब की मात्रा बराबर हो। |
35) इन में नमक लगवा कर किसी इतरसाज+ द्वारा सुगन्धित लोबान बनवाओं जो शुद्ध और पवित्र हो। |
36) फिर उस में कुछ पीस कर चूर्ण बनवाओं और उसे दर्शन कक्ष में विधान मंजूषा के सामने रखो, जहाँ मैं तुम से मिलूँगा। वह तुम्हारे लिए परमपवित्र होगा। |
37) इस प्रकार के सम्मिश्रण से अपने लिए लोबान मत बनवाओ उसे प्रभु को अर्पित समझो। |
38) जो उसकी सुगन्ध का आनन्द प्राप्त करने के लिए ऐसा लोबान तैयार करेगा, वह अपनी जाति से बहिष्कृत कर दिया जायेगा।'' |
1) प्रभु ने मूसा से कहा, |
2) ''मैंने यूदावंषी ऊरी के पुत्र और दूर हूर के पौत्र बसलएल को चुना है। |
3) मैंने उसे असाधारण प्रतिभा, प्रवीणता, ज्ञान और बहुविध कौषल प्रदान किये हैं। |
4) वह कलात्मक नमूने तैयार कर उन्हें सोने, चाँदी और काँसे पर बना सकता है। |
5) वह मणियाँ काट कर उन्हें जड़ सकता है और लकड़ी पर खुदाई कर सकता है। वह हर प्रकार के षिल्प में प्रवीण है। |
6) मैंने दानवंषी अहीसामाक के पुत्र ओहोलीआब को उसका सहयोगी नियुक्त किया। मैंने अन्य सभी षिल्पकारों को कौषल प्रदान किया, जिससे वे यह सब बना सकें, जिसके विषय में मैंने तुम को आदेष दिया : |
7) अर्थात् दर्षन-कक्ष, विधान की मंजूषा, उसका छादन-फलक और तम्बू की अन्य वस्तुएँ, |
8) मेज+ शुद्ध सोने को दीपवृक्ष और उनका सारा सामान, धूप की वेदी, |
9) होम-बलि की वेदी और उसके सब पात्र, चिलमची और उसकी चौकी, |
10) बुने हुए वस्त्र, याजक हारून के लिए पवित्र वस्त्र और उसके पुत्रों के वस्त्र, जब वे याजक का कार्य करते हैं, |
11) अभ्यंजन का तेल और पवित्र-स्थान के लिए सुगन्धित लोबान। मैंने तुम को जैसा आदेष दिया है, ठीक उसी प्रकार उन्हें यह सब बनवाना चाहिए।'' |
12) प्रभु ने मूसा से कहा, |
13) तुम इस्राएलियों को आदेष दो कि वे मेरा विश्राम-दिवस मनायें, क्योंकि वह उनके लिए और भावी पीढ़ियों के लिए एक चिह्न है कि मैं वह प्रभु हूँ, जो उन्हें पवित्र करता है। |
14) विश्राम-दिवस मनाओ, क्योंकि वह तुम्हारे लिए पवित्र है। जो उसे अपवित्र करेगा, उसे मृत्युदण्ड दिया जायेगा। प्रत्येक व्यक्ति, जो उस दिन काम करे, अपनी जाति से बहिष्कृत कर दिया जाये। |
15) छह दिन तक काम किया जाये, परन्तु सातवाँ दिन पूर्ण विश्राम-दिवस हो। वह प्रभु के लिए पवित्र है। जो व्यक्ति विश्राम-दिवस पर काम करेगा, उसे मृत्युदण्ड दिया जायेगा। |
16) इस प्रकार इस्राएली लोग विश्राम-दिवस मनायें। वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी चिरस्थायी आदेष के अनुसार विश्राम-दिवस मनायें। |
17) वह सदा-सर्वदा के लिए मेरे और इस्राएल के बीच के सम्बन्ध का चिह्न होगा, क्योंकि छह दिनों में प्रभु ने स्वर्ग और पृथ्वी को बनाया था, किन्तु सावतें दिन उसने कार्य समाप्त कर विश्राम किया। |
18) जब प्रभु सीनई पर्वत पर मूसा से अपनी बातें समाप्त कर चुका, तब उसने उसे विधान की दो पाटियाँ, ईष्वर के हाथ से लिखी हुई दो पत्थर की पाटियाँ दीं। |
1) इधर जब लोगों ने देखा कि मूसा पर्वत पर से उतरने में विलम्ब कर रहा है, तब वे हारून का विरोध करने के लिए इकट्ठे हो कर उस से कहने लगे, ''अब हमारे लिए ऐसे देवता बनाओ, जो हमारे पथप्रदर्षक हों; क्योंकि पता नहीं, उस मूूसा का क्या हुआ, जिसने हमें मिस्र से निकाला था।'' |
2) इस पर हारून ने उन से कहा, ''अपनी पत्नियों, अपने पुत्रों और अपनी पुत्रियों के कानों की सोने की बालियाँ उतार कर मेरे पास ले आओ।'' |
3) इसलिए सब लोगों ने अपने कानों की सोने की बालियाँ उतार कर हारून को सौंप दीं। |
4) उसने उनके हाथों से सोना ले कर और साँचे में ढाल कर बछड़े एक की प्रतिमा बनायी। तब लोग कहने लगे, ''इस्राएल यही तुम्हारा वह देवता है, जो तुम को मिस्र देष से निकाल लाया।'' |
5) यह देख कर हारून ने उसके सामने एक वेदी बनायी फिर हारून ने ऊँचे स्वर से यह घोषणा की : |
6) ''कल प्रभु के लिए एक उत्सव मनाया जायेगा।'' लोग बड़े सबेरे उठ कर होम बलियाँ और शान्ति के बलिदान चढ़ाने लगे। फिर लोग खान-पीने के लिए बैठ गये। इसके बाद वे उठ कर नाचने-गाने लगे। |
7) प्रभु ने मूसा से कहा, ''पर्वत से उतरो, क्योंकि तुम्हारी प्रजा, जिसे तुम मिस्र से निकाल लाये हो, भटक गयी है। |
8) उन लोगों ने शीघ्र ही मेरा बताया हुआ मार्ग छोड़ दिया। उन्होंने अपने लिए ढली हुई धातु का बछड़ा बना कर उसे दण्डवत किया और बलि चढ़ा कर कहा, ''इस्राएल; यही तुम्हारा देवता है। यही तुम्हें मिस्र से निकाल लाया।'' |
9) प्रभु ने मूसा से कहा, ''मैं देख रहा हूँ कि ये लोग कितने हठधर्मी हैं। |
10) मुझे इनका नाष करने दो। मेरा क्रोध भड़क उठेगा और इनका सर्वनाष करेगा। तब मैं तुम्हारे द्वारा एक महान् राष्ट्र उत्पन्न करूँगा।'' |
11) मूसा ने अपने प्रभु-ईष्वर का क्रोध शान्त करने के उद्देष्य से कहा, ''प्रभु; यह तेरी प्रजा है, जिसे तू सामर्थ्य तथा भुजबल से मिस्र से निकाल लाया। इस पर तू कैसे क्रोध कर सकता है? |
12) मिस्रियों को यह कहने का अवसर क्यों मिले कि बुरे उद्देष्य से वह उन्हें निकाल लाया जिससे वह उन्हें पर्वतों के बीच मार डाले और पृथ्वी पर से मिटा दे? अपनी क्रोधाग्नि को शान्त कर और अपनी प्रजा पर विपत्ति न आने दे। |
13) अपने सेवकों को, इब्राहीम, इसहाक और याकूब को याद कर। तूने शपथ खा कर उन से यह प्रतिज्ञा की है - मैं तुम्हारी संतति को स्वर्ग के तारों की तरह असंख्य बनाऊँगा और अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तुम्हारे वंषजों को यह समस्त देष प्रदान करूँगा और वे सदा के लिए इसके उत्तराधिकारी हो जायेगे।'' |
14) तब प्रभु ने अपनी प्रजा को दण्ड देने की जो धमकी दी थी, उसका विचार छोड़ दिया। |
15) मूसा विधान की दोनों पाटियाँ हाथ में लिये पर्वत से उतर कर लौटा। पाटियों पर सामने और पीछे, दोनों ओर लेख अंकित थे। |
16) वे पाटियाँ ईष्वर की बनायी हुई थीं और उन पर जो लिपि अंकित थी, वह ईष्वर की अपनी लिपि थी। |
17) योषुआ ने लोगों का कोलाहल सुन कर मूसा से कहा, षिविर में से लड़ाई जैसी आवाज+ आ रही है। |
18) उसने उत्तर दिया, ''यह न तो विजेताओं का उल्लास है और न पराजितों का विलाप। मैं तो गाने की आवाज+ सुन रहा हूँ।'' |
19) षिविर के पास पहुँच कर मूसा ने बछड़े की प्रतिमा और लोगों का नृत्य देखा। उसका क्रोध भड़क उठा और उसने अपने हाथ की पाटियों को पहाड़ के निचले भाग पर पटक कर टुकड़े-टुकड़े कर दिये। |
20) उसने लोगों का बनाया हुआ बछड़ा ले कर जला दिया। उसने उसकी राख पीस कर चूर-चूर कर डाली और उसे पानी में छिड़क कर इस्राएलियों को पिला दिया। |
21) तब मूसा ने हारून से पूछा, ''इन लोगों ने तुम्हारे साथ कौन-सा अन्याय किया, जो तुमने इन्हें इतने घोर पाप में डाल दिया हैं?'' |
22) हारून ने उत्तर दिया, ''महोदय आप क्रोध न करें। आप जानते ही हैं कि इन लोगों का झुकाव पाप की ओर है। |
23) इन्होंने मुझ से कहा, ÷हमारे लिए एक ऐसा देवता बनाइए, जो हमारे आगे-आगे चले, क्योंकि हम नहीं जानते कि जो मनुष्य हम को मिस्र से निकाल लाया, उस मूसा का क्या हुआ।÷ |
24) तब मैंने इन से कहा, ''जिसके पास सोने के आभूषण हों, वे उन्हें उतार कर ला दें उन्होंने मुझे सोना ला दिया। मैंने उसे आग में डाला और इस प्रकार यह बछड़ा बन गया।'' |
25) जब मूसा ने देखा कि लोग उच्छृंखल हो गये हैं और हारून ने उन्हें नियन्त्रण में नहीं रखा है, जिससे वे अपने शत्रुओं के लिए हँसी के पात्र बन गये हैं, |
26) तो उसने षिविर के प्रवेष पर खड़ा हो कर कहा, ''जो प्रभु का साथ देता है, वह मेरे पास आये।'' सब लेवी उसके पास आये। |
27) उसने उन से कहा, ''प्रभु इस्राएल के ईष्वर का यह कहना हैः तुम में से प्रत्येक अपनी तलवार अपनी कमर में बांध ले और षिविर में एक सिरे से दूसरे सिरे तक जा कर सब को मार डाले, चाहे वे अपने भाई, मित्र या पड़ोसी ही क्यों न हो।'' |
28) लेवियों ने मूसा के आदेष का पालन किया उस दिन लगभग तीस हजार व्यक्ति मारे गये। |
29) इसके बाद मूसा ने कहा, ''आज तुम प्रभु को अर्पित हो गये हो, क्योंकि तुमने अपने पुत्रों और भाइयों का विरोध किया और प्रभु ने इस दिन तुम को आषीर्वाद दिया।'' |
30) दूसरे दिन मूसा ने इस्राएलियों से कहा, ''तुम लोगों ने घोर पाप किया है। मैं अब पर्वत पर प्रभु के पास जा रहा हूँ। यदि हो सका, तो मैं तुम्हारे पाप का प्रायष्चित करूँगा।'' |
31) मूसा ने प्रभु के पास कहा, हाय; इन लोगों ने घोर पाप किया है। इन्होंने अपने लिए सोने का देवता बनाया है। |
32) ओह; यदि तू इन्हें क्षमा कर दे; नहीं तो, मेरा नाम अपनी लिखी हुई पुस्तक से निकाल दे। |
33) प्रभु ने उत्तर दिया, ''जिसने मेरे विरुद्ध पाप किया है, उसी को मैं अपनी पुस्तक से निकाल दूँगा। |
34) अब तुम जा कर लोगों को उस स्थान ले चलो, जिसे मैंने तुम्हें बताया हैं। मेरा दूत तुम्हारे आग-आगे चलेगा। जब दण्ड देने का दिन आयेगा, तब मैं लोगों को उनके पाप का दण्ड दूँगा।'' |
35) प्रभु ने हारून के द्वारा बनाये बछड़े की प्रतिमा के कारण उन लोगों पर आपत्तियाँ ढाहीं। |
1) तब प्रभु ने मूसा से कहा, ''यहाँ से प्रस्थान करो। तुम और वे लोग, जिन्हें तुम मिस्र से निकाल लाये हो, उस देष की ओर प्रस्थान करें, जिसे मैंने शपथ खा कर यह कहते हुए इब्राहीम, इसहाक और याकूब को देने की प्रतिज्ञा की है - मैं उसे तुम्हारे वंषजों को प्रदान करूँगा। |
2) मैं एक दूत को तुम्हारे आगे भेजूँगा और कनानियों, अमोरियों, हित्तियों, परिज्जियों, हिव्वियों और यबूसियों को भगा दूँगा। |
3) मैं तुम्हें एक ऐसे देश में ले जाऊँगा, जहाँ दूध और मधु की नदियाँ बहती हैं। मैं स्वयं तुम्हारे साथ नहीं जाऊँगा, क्योंकि तुम एक हठीली प्रजा हों। कहीं ऐसा न हो कि मैं मार्ग में तुम्हारा विनाष करूँ।;'' |
4) जब लोगों ने यह दुःखद समाचार सुना, तो वे शोक मनाने लगे और किसी ने भी आभूषण नहीं पहना; |
5) क्योंकि प्रभु ने मूसा से कहा था कि ''इस्राएलियों से कहो कि तुम एक हठीली प्रजा हो। यदि मैं क्षण भर के लिए भी तुम्हारे साथ जाता, तो शायद तुम्हारा विनाष कर देता। तुम अपने आभूषण उतार दो। तब मैं निर्णय करूँगा कि मैं तुम्हार साथ क्या करूँ।'' |
6) इसलिए होरेब पर्वत के बाद इस्राएलियों ने अपने आभूषण नहीं पहने। |
7) मूसा ने तम्बू को उठवा कर षिविर के बाहर कुछ दूरी पर खड़ा कर दिया और उसका नाम दर्षन-कक्ष रखा। यदि कोई प्रभु से परामर्ष लेना चाहता था, तो वह षिविर के बाहर उस दर्षन-कक्ष के पास चला जाता था। |
8) जब मूसा उस तम्बू की ओर जाता था, तो सब लोग अपने-अपने तम्बू के द्वार पर खड़े हो जाते और मूसा को तब तक देखते रहते थे, जब तक वह तम्बू में प्रवेष न करे। |
9) मूसा के प्रवेष करते ही बादल का खम्भा उतर कर तम्बू के द्वार पर खड़ा हो जाया करता था। तब प्रभु मूसा से बातें करता था। |
10) तम्बू के द्वार पर बादल का खम्भा खड़ा देख कर सभी लोग तुरन्त अपने-अपने तम्बू के द्वार पर से उसे दण्डवत् किया करते थे। |
11) जिस तरह एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से बात करता है, उसी तरह प्रभु मूसा के आमने-सामने प्रकट हो कर उस से बात करता था। जब मूसा षिविर में लौटता था, तो उसका सहायक नून का पुत्र, योषुआ नामक युवक तम्बू में रह जाता था। |
12) मूसा ने प्रभु से कहा, तूने मुझे इन लोगों का आगे ले जाने की आज्ञा तो दी, पर मुझे यह नहीं बताया कि तू मेरे साथ किसको भेजेगा। तूने मुझ से कहा कि मैंने तुम को चुना है और तुम मेरे कृपापात्र हो। |
13) यदि मैं सचमुच तेरा कृपापात्र हूँ, तो मुझे अपना मार्ग दिखला, जिससे मैं तुझे जान सकूँ और तेरा कृपापात्र बना रहूँ। यह भी ध्यान रख कि ये लोग तेरी ही प्रजा हैं। |
14) तब उसने कहा, ''क्या मैं तुम्हारे साथ चलूँ?'' |
15) उसने उत्तर दिया, यदि तू स्वयं हमारे साथ नहीं चलता, तो अच्छा हो कि हमें भी यहाँ से आगे जाने की आज्ञा न दें। |
16) हम यह कैसे जान सकेंगे कि मैं और तेरे ये लोग तेरे कृपापात्र हैं? यदि तू हमारे साथ नहीं चतला, तो मैं और तेरे ये लोग पृथ्वी के अन्य सब लोगों से कैसे विषिष्ट समझे जायेंगे? |
17) प्रभु ने मूसा से कहा, तुमने अभी जिस बात के लिए प्रार्थना की है, वही मैं करूँगा, क्योंकि तुम मेरे कृपापात्र हो और मैंने तुम को चुना है'। |
18) इस पर मूसा ने निवेदन किया, ''मुझे अपनी महिमा दिखाने की कृपा कर।'' |
19) उसने कहा, ''मैं अपनी सम्पूर्ण महिमा के साथ तुम्हारे सामने से निकल जाऊँगा और तुम पर अपना ÷प्रभु÷ नाम प्रकट करूँगा। मैं जिनके प्रति कृपालु हूँ, उन पर कृपा करूँगा और जिनके प्रति दयालू हूँ, उन पर दया करूँगा। |
20) किन्तु तुम मेरा मुख नहीं देख सकते, क्योंकि यदि कोई मनुष्य मुझे देख लेगा, तो वह जीवित नहीं रह सकेगा। |
21) प्रभु ने यह भी कहा, मेरे समीप एक स्थान है, जहाँ तुम एक चट्टान पर खड़े हो सकते हो। |
22) और जब तक तुम्हारे सामने से मेरी महिमा नहीं निकल जायेगी, तब तक मैं तुम्हें चट्टान की दरार में रखूँगा और तुम्हारे सामने से निकलते समय अपने हाथ से तुम्हारी रक्षा करूँगा। |
23) जब मैं अपना हाथ हटा लूँगा, तुम मुझे पीछे से देख सकोगे, लेकिन मेरा मुख कोई नहीं देख सकता।'' |
1) प्रभु ने मूसा से कहा, तुम पहले की पाटियों के समान ही अपने लिए दो पत्थर की पाटियाँ बनाओ। मैं उन पाटियों पर वे बातें लिखूँगा, जो उन पहली पाटियों पर थीं, जिनके तूने टुकड़े कर डाले थे। |
2) कल प्रातःकाल तैयार रहो। कल प्रातःकाल सीनई पर्वत पर चढ़ो और पहाड़ की चोटी पर मेरे सामने उपस्थित हो जाओ। |
3) तुम्हारे साथ और कोई दिखाई नहीं दे। पर्वत के पास भेड़े या गायें नहीं चरें।'' |
4) मूसा, प्रभु की आज्ञानुसार, पत्थर की वह दो पाटियाँ हाथ में लिये बहुत सबेरे सीनई पर्वत पर चढ़ा। |
5) प्रभु बादल के रूप में उतर कर उसके पास आया और अपना ÷प्रभु÷ नाम प्रकट किया। |
6) प्रभु ने उसके सामने से निकल कर कहा, ''प्रभुः प्रभु एक करूणामय तथ कृपालु ईष्वर है। वह देर से क्रोध करता और अनुकम्पा तथा सत्यप्रतिज्ञता का धनी है। |
7) वह हजार पीढ़ियों तक अपनी कृपा बनाये रखता और बुराई, अपराध और पाप क्षमा करता है।'' |
8) मूसा ने तुरन्त दण्डवत् कर उसकी आराधना की |
9) और कहा, ''प्रभु; यदि मुझ पर तेरी कृपादृष्टि है, तो मेरा प्रभु हमारे साथ चले। ये लोग हठधर्मी तो हैं, किन्तु तू हमारे अपराध तथा पाप क्षमा कर दे और हमें अपनी निजी प्रजा बना ले।'' |
10) प्रभु ने उत्तर दिया, मैं तुम्हारे लिए एक विधान निर्धारित करता हूँ। मैं तुम्हारे सभी लोगों के सामने ऐसे चमत्कार दिखाऊँगा जैसे मैंने अब तक न कभी सारी पृथ्वी पर और न कभी किसी राष्ट्र के सामने दिखाये। जिन लोगों के बीच तुम रहते हो, वे समझ जायेंगे कि जो कार्य मैं, प्रभु, तुम्हारे लिऐ करूँगा, वे कितने विस्मयकारी हैं। |
11) जो आदेष मैं आज दे रहा हूँ, उनका पालन करो। मैं अमोरियों, कनानियों, हित्तियों, परिज्जियों, हिव्वियों और यबूसियों को तुम्हारे सामने से भगा दूँगा। |
12) तुम जिस देष में प्रवेष करने वाले हो, उस देष के निवासियों के साथ सन्धि मत करो। कहीं ऐसा न हो कि वे तुम्हारे लिए फन्दा बन जायें। |
13) उनकी वेदियों को तोड़ दो, उनके पवित्र स्मारकों को गिराओ और उनकी पूजा के खूँटों को काट दो। |
14) किसी दूसरे देवता की आराधना नहीं करो, क्योंकि प्रभु यह सहन नहीं करता। इस दृष्टि से वह असहिष्णु है। |
15) उस देष के निवासियों के साथ, जो अपने देवताओं की पूजा करते हैं और उन्हें बलि चढ़ाते हैं, सन्धि मत करो। कहीं ऐसा न हो कि तुम को अपने देवताओं का प्रसाद खाने का निमन्त्रण दें। |
16) तुम उनकी कन्याओं के साथ अपने पुत्रों का विवाह नहीं करोगे। कहीं ऐसा न हो कि वे अपने देवताओं की मूर्तिपूजा करें और तुम्हारे पुत्र भी ऐसा करें। |
17) ''तुम अपने लिए कोई देवमूर्ति नहीं बनाओगे। |
18) जब तुम आबीब मास के निर्धारित समय पर बेख़मीर रोटियाँ का पर्व मनाओगे, तब मेरे आज्ञानुसार सात दिन तक बेखमीर रोटियाँ खानी होंगी, क्योंकि आबीब महीने में तुम मिस्र से निकल आये थे। |
19) मुझे सब पहलौठे बच्चों को अर्पित करोगे और अपने सब पशुओं के पहलौठे बच्चे को भी - चाहे गाय का हो, चाहे भेड़ का। |
20) गधे के प्रत्येक पहलौठे बच्चे को मेमने से छुड़ाओगे। यदि तुम उसे छुड़ाना नहीं चाहते, तो उसकी गर्दन तोड़ दोगे। अपने पुत्रों के प्रत्येक पहलौठे पुत्र के बदले कुछ दे कर उसे छुड़ा लोगे। कोई भी खाली हाथ मेरे दर्षन को नहीं आयेगा। |
21) छः दिन तक काम करोगे और सातवें दिन विश्राम करोगे। हल जोतते और फ़सल काटते समय भी विश्राम-दिवस मनाओगे। |
22) नये गेहूँ की फ़सल के समय ÷सप्ताहों का पर्व÷ मनाओगे और वर्ष के अन्त में संचय-पर्व। |
23) प्रत्येक वर्ष तीन बार सब पुरुष सर्वोच्च प्रभु, इस्राएल के ईष्वर, के सामने उपस्थित हुआ करें। |
24) मैं तुम्हारे सामने से राष्ट्रों को भगा दूँगा, तुम्हारी सीमाओं का विस्तार करूँगा, और जब तुम प्रति वर्ष तीन बार अपने प्रभु-ईष्वर के सामने उपस्थित हुआ करोगे, तो कोई भी तुम्हारी भूमि पर आँख नहीं लगायेगा। |
25) बलि का रक्त किसी ख़मीरी पदार्थ के साथ नहीं चढ़ाओगे। पास्का-पर्व की बलि का कोई अंष दूसरे दिन के लिए नहीं रहने दोगे। |
26) अपने खेत के प्रथम फसल का उत्तम अंष तुम अपने प्रभु ईष्वर के निवास ला कर चढ़ाओगे। किसी मेमने को उसकी माँ के दूध में नहीं उबालोगे। |
27) इसके बाद प्रभु ने मूसा से कहा, ''ये शब्द लिख लो, क्योंकि मैंने इनके द्वारा तुम्हारे और इस्राएलियों के लिए अपना विधान निर्धारित किया है।'' |
28) मूसा वहाँ चालीस दिन और चालीस रात प्रभु के साथ रहा। उसने न तो रोटी खायी और न पानी पिया। उसने विधान के शब्द, अर्थात दस नियम पाटियों पर अंकित किये। |
29) जब मूसा नियम की दोनों पाटियाँ हाथ में लिये सीनई पर्वत से उतरा, तो उसे यह पता नहीं था कि ईष्वर से बातें करने के फलस्वरूप उसका मुखमण्डल देदीप्यमान है। |
30) हारून और दूसरे इस्राएली मूसा का देदीप्यमान मुखमण्डल देख कर उसके निकट जाने से डरने लगे। |
31) मूसा ने उन्हें बुलाया। इस पर हारून और समुदाय के नेता उसके पास आये और मूसा ने उन्हें सम्बोधित किया। |
32) इसके बाद सभी इस्राएली उसके पास आये और मूसा ने उन्हें वे सब आदेश सुनाये, जिन्हें प्रभु ने सीनई पर्वत पर उसे दिया था। |
33) लोगों को सम्बोधित करने के बाद मूसा ने अपना मुख परदे से ढक लिया। |
34) जब-जब मूसा प्रभु से बातें करने तम्बू में प्रवेष करता था, तो वह बाहर निकलने तक वह परदा हटा दिया करता था। बाहर निकलने के बाद जब वह ईष्वर से मिले आदेष इस्राएलियों को सुनाता था, |
35) तो इस्राएली मूसा का देदीप्यमान मुखमण्डल देखा करते थे। इसके बाद प्रभु से बात करने के लिए तम्बू में प्रवेष करने के समय तक, मूसा फिर अपना मुख परदे से ढक लिया करता था। |
1) मूसा ने इस्राएलियों के सारे समुदाय को एकत्रित कर उन से कहा, ''प्रभु के आदेष इस प्रकार हैं। उनका पालन करो। |
2) छः दिन तक काम किया जाये और सातवें दिन विश्राम-दिवस मनाओ। वह प्रभु का पवित्र दिन होगा। जो उस दिन काम करेगा, उसे प्राणदण्ड दिया जायेगा। |
3) विश्राम-दिवस पर अपने घरों में आग नहीं सुलगाओ। |
4) मूसा ने इस्राएलियों के सारे समुदाय से कहा, प्रभु ने यह आदेष दिया है : |
5) अपनी सम्पति से प्रभु को चन्दा दो। जो चाहता है, वह प्रभु को चन्दा अर्पित करे - सोना, चाँदी और काँसा; |
6) नीले, बैंगनी और लाल रंग के कपड़े और छालटी बकरी के बाल; |
7) मेढ़ों की सीझी हुई लाल खालें और सूस की खालें; बबूल की लकड़ी; |
8) दीपक के लिए तेल; अभ्यंजन के तेल और सुगन्धित लोबान के लिए मसाले; |
9) एफोद और वक्षपेटिका में लगाने के लिए सुलेमानी और अन्य मणियाँ। |
10) तुम में जो षिल्पकार हों वे आ कर प्रभु के आदेष के अनुसार सब कुछ तैयार करें - |
11) निवास, उसका तम्बू और उसका आवरण; अँकुड़े, चौखटें और छड़; उसके खूँटे और उसकी र्कुसियाँ; |
12) मंजूषा और उसके डण्डे; छादन-फलक और उसका परदा; |
13) मेज, उसके डण्डे और उसका सब सामान; भेंट की रोटियाँ; |
14) पात्रों और दीपकों के साथ दीपवृक्ष और दीपकों के लिए तेल, |
15) डण्डों के साथ धूप-वेदी, अभ्यंजन का तेल और सुगन्धित लोबान; निवास के द्वार पर का परदा, |
16) काँसे की झंझरी के साथ बलि-वेदी, उसके डण्डे और उसका सब सामान, चिलमची और उसकी चौकी; |
17) आँगन के परदे, उसके खूँटे, उसकी र्कुसियाँ और आँगन के द्वार के लिए परदा, |
18) तम्बू की खूँटियाँ और उसके साथ की आवष्यक रस्सियाँ, |
19) पवित्र-स्थान की सेवा के उपयोगी बुने हुए वस्त्र, याजक हारून के पवित्र वस्त्र और उसके पुत्रों के वस्त्र, जिन्हें धारण कर वे याजकीय सेवा करें। |
20) इस पर इस्राएलियों का सारा समुदाय मूसा के पास से चला गया। |
21) बाद में, जो लोग उदार थे, वे स्वेच्छा से दर्षन-कक्ष बनाने, उसकी सेवा के लिए और पवित्र वस्त्रों के लिए प्रभु को अपना चन्दा देने आये। |
22) पुरुष और स्त्रियाँ समान रूप से स्वच्छा से जुगनूँ, बालियाँ, अँगुठियाँ, भुजबन्ध सब प्रकार के स्वर्ण आभूषण ले आये। वे प्रभु को अपना सोना अर्पित करते थे। |
23) जिसके पास नीले, बैंगनी और लाल रंग के कपड़े या छालटी के कपड़े या बकरी के बाल या मेढ़ों की सीझी हुई खालें या सूस की खालें थीं, वह उन्हें ले आया। |
24) जो चाँदी या काँसे की भेंट दे सकता था, वह भी उसे प्रभु के लिऐ भेंटस्वरूप लाया। जिसके पास उपयोग के योग्य बबूल की लकड़ी थी, वह उसे ले आया। |
25) सब निपुण स्त्रियाँ अपने हाथों से सूत कातती थीं और कात कर नीले, बैंगनी और लाल रंग के कपड़े और छालटी के कपड़े लाती थीं |
26) और जिन स्त्रियों को बकरी के बाल कातना आता था, उन्होंने उन्हें काता। |
27) नेता एफ़ोद और वक्षपेटिका में लगाने के लिए सुलेमानी और अन्य मणियाँ ले आये। |
28) वे दीपक, अभ्यंजन का तेल और सुगन्धित लोबान के लिए मसाले और तेल ले आये। |
29) प्रभु ने जो कार्य सम्पन्न करने का आदेष उन्हें मूसा द्वारा दिया था, उसके लिए सभी इस्राएली स्त्री-पुरुष स्वेच्छा से चन्दा देने आये। |
30) इस पर मूसा ने इस्राएलियों से कहा, ''देखो, प्रभु ने यूदावंषी ऊरी के पुत्र और हूर के पौत्र बसलएल को चुना है |
31) और उसे असाधारण प्रतिभा, प्रवीणता ज्ञान और बहुविध कौषल प्रदान किया है। |
32) वह कलात्मक नमूने तैयार कर उन्हें सोने, चाँदी और काँसे पर बना सकता है। |
33) वह मणियाँ काट कर उन्हें जड़ सकता है और लकड़ी पर खुदाई कर सकता है। वह हर प्रकार के षिल्प में प्रवीण है। |
34) उसने उसे और दानवंषी अहीसामाक के पुत्र ओहोलीआब को दूसरों को सिखाने की योग्यता भी दी है। |
35) उसने उन सब को हर प्रकार का कौषल प्रदान किया। उन्हें मणियाँ काटना, काढ़ना, नीले, बैंगनी और लाल रंग के कपड़े बनाना और छालटी बनाना और छालटी बुनना आता आता है। वे स्वयं नमूने बना कर हर प्रकार की षिल्पकारी करते हैैं। |
1) प्रभु ने बसलएल, ओहोलीआब और सब षिल्पकारों को कौषल और ज्ञान प्रदान किया है, जिससे वे पवित्र-स्थान का निर्माण कर सकते हैं। उन्हें प्रभु के आदेष के अनुसार सब कुछ बनाना है। |
2) तब मूसा ने बसलएल, ओहोलीआब और उन सब षिल्कारों को बुलाया, जिन्हें प्रभु ने कौषल प्रदान किया था और जो आने और काम करने के लिए तैयार थे। |
3) मूसा ने उन्हें वह सब सौंपा, जो इस्राएली पवित्र-स्थान के निर्माण के लिए लाये थे। प्रतिदिन सबेरे लोग स्वच्छा से चन्दा देने आते थे। |
4) यह देख कर पवित्र-स्थान के निर्माण में लगे सब षिल्पकार काम छोड़ कर मूसा के पास आ कर |
5) बोले, ''जो काम प्रभु ने सम्पन्न करने का आदेष दिया, उसके लिए लोग जरूरत से ज्यादा सामान ला रहे हैं।'' |
6) यह सुन कर मूसा ने षिविर भर में यह घोषणा करने का आदेष दिया : ''कोई पुरुष या स्त्री पवित्र-स्थान के लिए अब कोई चन्दा नहीं लाये।'' इसलिए लोग और सामान नहीं लाये, |
7) क्योंकि काम पूरा करने के लिए वे ज+रूरत से ज्यादा सामान ले आये थे। |
8) सब से निपुण षिल्पकारों ने बटी हुई छालटी और नीले, बैंगनी और लाल रंग के कपड़ों से निवास के दस परदे बनाये, जिन पर केरूबों के चित्र कढ़े थे। |
9) हर परदे की लम्बाई अट्ठाईस हाथ और चौड़ाई चार हाथ थी। हर परदा एक ही नाप का था। |
10) उन्होंने पाँच परदों को एक दूसरे से जोड़ा और इसी प्रकार दूसरे पाँच को भी। |
11) उन्होंने सामने वाले परदों के किनारे पर नीले रंग के फन्दे बनाये-एक परदे में पचास फन्दे और दूसरे में भी पचास फन्दे। |
12) ये फन्दे एक दूसरे के आमने-सामने थे। |
13) तब उन्होंने सोने के पचास अँकुड़े बनाये और उन अँकुड़ों से दोनों परदों को मिलाया, जिससे निवासस्थान एक इकाई बन गया। |
14) निवास को ढकने के लिए उन्होंने बकरी के बालों के ग्यारह परदे बनाये। |
15) हर परदे की लम्बाई तीस हाथ और चौड़ाई चार हाथ थी ग्यारहों परदे एक ही नाप के थे। |
16) उन्होंने उन परदों में पाँच को जोड़ कर एक परदा बनाया और शेष छह परदों को भी जोड़ कर एक दूसरा परदा बनाया। |
17) उन्होंने दोनों सामने वाले परदों के किनारे पर पचास फन्दे लगाये। |
18) फिर उन्होंने काँसे के पचास अँकुड़े बनाये और उन्हें इस प्रकार जोड़ा कि तम्बू एक इकाई बन गया। |
19) उन्होंने तम्बू के लिए मेढ़े के सीझे चमड़े का एक आवरण बनाया और फिर उसके ऊपर सूस के चमड़े का एक आवरण। |
20) निवास के लिए उन्होंने बबूल की लकड़ी की चौखटें बना कर उन्हें खड़ा किया। |
21) हर एक चौखट की लम्बाई दस हाथ और चौड़ाई डेढ़ हाथ थी। |
22) उन्हें जोड़ने के लिए प्रत्येक चौखट में दो चूलें थी। निवास की सब चौखटें इसी तरह बनायी गयीं। |
23) निवास के दक्षिण किनारे के लिए उन्होंने बीस चौखटें बनायीं |
24) और उनके नीचे चाँदी की चालीस र्कुसियाँ, अर्थात एक-एक चौखट के नीचे उसकी दोनों चूलों के लिए दो र्कुसियाँ। |
25) निवास की दूसरी ओर, अर्थात् उत्तरी किनारे के लिए भी उन्होनें बीस चौखटे बनायीं ; |
26) साथ-साथ चालीस चाँदी की र्कुसियाँ, प्रत्येक चौखट के नीचे दो र्कुसियाँ। |
27) निवास के पीछे, अर्थात् पष्चिमी ओर के लिए उन्होंने छः चौखटें बनायीं। |
28) उन्होंने निवास के पीछे के भाग के लिए दो चौखटें बनायीं। |
29) वे दुहरी थीं, नीचे की ओर कुछ अलग और ऊपर एक कड़े पर जुड़ी थीं। दोनों कोनों पर ऐसा ही किया गया। |
30) इस तरह आठ चौखटें थीं, जिनके नीचे चाँदी की सोलह र्कुसियाँ थी, प्रत्येक चौखट के नीचे दो र्कुसियाँ। |
31) उन्होंने बबूल की लकड़ी के छड़ भी बनाये - निवास की एक ओर की चौखटों के लिए पाँच छड़ और निवास की दूसरी ओर की चौखटों के लिए पाँच छड़; |
32) निवास के पिछले भाग, अर्थात् पष्चिमी किनारे के लिए पाँच छड़। |
33) बीच वाला छड़ चौखटों के बीचोंबीच एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुँचता था। |
34) उन्होंने चौखटों को सोने से मढ़ा। छड़ों के घरों के लिए उन्होंने सोने के कड़े बनाये और छड़ों को भी सोने से मढ़ा। |
35) उन्होंने नीले, बैंगनी और लाल रंग के कपड़ों से और बटी हुई छालटी से एक अन्तरपट बनाया, जिस में एक कुषल षिल्पकार ने केरूबों के चित्र काढ़े। |
36) उन्होंने उसे सोने से मढ़े बबूल की लकड़ी के चार खूँटों में लटकाया। वे खूँटें चाँदी की चार र्कुसियों पर खड़े थे और सोने के अँकुड़े में फँसे थे। |
37) निवास के द्वार के लिए उन्होंने नीले, बैंगनी और लाल कपड़े का तथा बटी हुई छालटी का एक परदा बनाया, जिस में बेलबूटे कढ़े थे। |
38) उसे लटकाने के लिए उन्होंने पाँच खूँटे और आवष्यक अँकुड़े बनाये। उन्होंने खँूटों का ऊपरी भाग और उनके अँकुडे सोने से मढे+ और उनके लिए काँसे की पाँच र्कुसियाँ बनायीं। |
1) बसलएल ने बबूल की लकड़ी से मंजूषा बनायी। उसकी लम्बाई ढ़ाई हाथ और उसकी चौड़ाई तथा ऊँचाई ड़ेढ़ हाथ थी। |
2) उसने उसे भीतर-बाहर शुद्ध सोने से मढ़ा और उसके चारों ओर एक सोने की किनारी लगायी। |
3) उसके चारों पायों में उसने सोने के चार कड़े ढलवा कर लगाये-दो कड़े एक ओर और दो कड़े दूसरी ओर। |
4) फिर उसने बबूल की लकड़ी के डण्डे बनाये और उन्हें सोने से मढ़ा |
5) और इन डण्डों को मंजुषा के किनारों के कड़ों में डाल दिया, जिससे मंजुषा उठायी जा सके। |
6) उसने शुद्ध सोने का छादन-फलक बनाया। उसकी लम्बाई थी ढाई हाथ और चौड़ाई डेढ़ हाथ। |
7) उसने छादन-फलक के दोनों ओर सोने के गढ़े हुए दो केरूबों को बनाया - |
8) एक सिरे पर एक केरूब और दूसरे सिरे पर दूसरा केरूब। ये केरूब और छादन-फलक एक ही धातु-खण्ड के बने थे। |
9) उन केरूबों के पंख ऊपर को ऐसे फैले थे कि अपने पंखों में छादन-फलक ढकते थे। वे एक दूसरे से आमने-सामने थे और उनका मुख छादन-फलक की ओर था। |
10) इसके बाद उन्होंने बबूल की लकड़ी की मेज+ बनायी, जो दो हाथ लम्बी, एक हाथ चौड़ी और डेढ़ हाथ ऊँची थी। |
11) उन्होंने उसे शुद्ध सोने से मढ़ा और उसके चारों ओर सोने की किनारी लगायी। |
12) उन्होंने उसके चारों ओर चार अंगुल चौड़ी एक पटरी बनायी और इस पटरी के चारों ओर सोने की किनारी लगायी। |
13) सोने के चार कड़े बना कर उन्होंने उन कड़ों को चारों कोनों में, चारों पायों में लगाया। |
14) वे कड़े पटरी के पास ही थे और डण्डों के घरों का काम देते थे, जिससे मेज उनके द्वारा उठायी जा सके। |
15) उन्होंने बबूल की लकड़ी के डण्डे बना कर उन्हें सोने से मढ़ा। वे मेज+ उठाने के काम आते थे। |
16) उन्होंने शुद्ध सोने का मेज का सामान बनाया, अर्थात् थालियाँ, कलछे, घड़े प्याले। ये अर्घ देने के काम आते थे। |
17) इसके बाद उन्होंने शुद्ध सोने का एक दीपवृक्ष बनाया। दीपवृक्ष का पाया, उसकी डण्डी, उसके प्याले, उसकी कलियाँ और फूल - सब एक ही धातु-खण्ड के बने थे। |
18) उस में छह शाखाएँ थी। दीपवृक्ष की एक ओर तीन शाखाएँ और दीपवृक्ष की दूसरी ओर तीन शाखएँ थीं। |
19) एक शाखा में बादाम की बौंड़ी के आकार के तीन प्याले थे, जिन में एक कली और एक फूल था। दूसरी ओर की शाखा में भी इस प्रकार के तीन प्याले थे। दीपवृक्ष की छहों शाखाओं में ऐसा ही था। |
20) दीपवृक्ष में ही बादाम की बौंड़ी के आकार के चार प्याले थे, जिन में एक कली और एक फूल था। |
21) दीपवृक्ष से निकली हुई प्रथम शाखा-द्वय के नीचे एक कली थी, दूसरी कली दूसरी शाखा-द्वय के नीचे थी तीसरी कली तीसरी शाखा-द्वय के नीचे। |
22) शाखाएँ, कलियाँ और दीपवृक्ष-ये सब एक ही धातु-खण्ड के बने थे। |
23) उन्होंने दीपवृक्ष के लिए शुद्ध सोने के सात दीपक, गुलतराष और किष्तियाँ बनायी। |
24) पात्रों के लिए एक मन शुद्ध सोने का उपयोग हुआ। |
25) इसके बाद उन्होंने सुगन्धित द्रव्य जलाने के लिए बबूल की लकड़ी की एक वेदी बनायी। वह वर्गाकार थी - एक हाथ लम्बी, एक हाथ चौड़ी और दो हाथ ऊँची। उसके सींग एक ही काष्ठ-खण्ड के बने थे। |
26) उन्होंने उसका ऊपरी भाग, उसके चारों पहलू और उसके सींग शुद्ध सोने से मढ़े तथा उसके चारों ओर सोने की किनारी लगायी। |
27) उन्होंने सोने के दो कड़े बनाये और उन्हें किनारी के नीचे लगाया। वे डण्डों के घर थे और उन से वेदी उठायी जाती थी |
28) उन्होंने उन डण्डों को बबूल की लकड़ी से बनाया और उन्हें सोने से मढ़ा। |
29) उन्होंने किसी इतरसाज+ द्वारा अभ्यंजन का पवित्र तेल और शुद्ध सुगन्धित लोबान तैयार करवाया। |
1) फिर उन्होंने बबूल की लकड़ी से पाँच हाथ लम्बी और पाँच हाथ चौड़ी-होम बलि की वेदी बनायी। वह वर्गाकार और तीन हाथ ऊँची थी। |
2) उसके चारों कोनों पर उन्होनें सींग बनाये। वेदी और सींग एक ही काष्ठ-खण्ड के बने थे। उन्होंने उसे काँसे से मढ़ा। |
3) उन्होने वेदी का सब आवष्यक सामान भी बनाया : पात्र, फावडियाँ, कटोरे, काँटे और कलछे। यह सब सामान काँसे का था। |
4) उन्होंने वेदी के लिए काँसे की जाली की एक झंझरी बनायी, जो वेदी की आधी ऊँचाई तक पहुँचती थी। |
5) उन्होंने जाली के चारों कोनों पर डण्डों के लिए काँसे के चार कड़े बनाये। |
6) डण्डे बबूल की लकड़ी के बने थे और काँसे से मढ़े थे। |
7) तब उन्होंने डण्डों को वेदी के दोनों ओर के कड़ों में लगाया, जिससे वेदी उठायी जा सके। उन्होंने वेदी तख्तों से बनायी। वह अन्दर खोखली थी। |
8) उन्होंने दर्षन-कक्ष के द्वार पर सेवा करने वाली स्त्रियों के दर्पणों से काँसे की चिलमची बनायी और उसके लिए काँसे की चौकी भी बनायी। |
9) फिर उन्होंने आँगन तैयार किया। आँगन के दक्षिणी किनारे के लिए उन्होंने बटी हुई छालटी के एक सौ हाथ लम्बे परदे बनाये, |
10) साथ-साथ काँसे के बीस खूँटे और र्कुसियाँ, चाँदी के अँकुड़े और पट्टियाँ। |
11) उत्तरी किनारे के लिए उन्होंने एक सौ हाथ लम्बें परदे, बीस काँसे के खूँटे और र्कुसियाँ तथा चाँदी के अँकुड़े और पट्टियाँ बनायीं। |
12) पष्चिमी किनारे के लिए उन्होंने पचास हाथ लम्बे परदे, दस खूँटे और र्कुसियाँ तथा चाँदी के अँकुड़े और पट्टियाँ बनायीं। |
13) पूर्व का किनारा पचास हाथ लम्बा था। |
14) प्रवेष-द्वार की एक ओर पन्द्रह हाथ लम्बे परदे, तीन खूँटे और र्कुसियाँ थी। |
15) दूसरी ओर भी पन्द्रह हाथ लम्बे परदे, तीन खूँटे और र्कुसियाँ थीं। इस प्रकार द्वार के दोनों ओर परदे थे। |
16) आँगन के चारों ओर के परदे छालटी के थे। |
17) खूँटों की र्कुसियाँ काँसे की थी और अँकुड़े एवं पट्टियाँ चाँदी की थी। खूँटों के अँकुड़े और उनकी पट्टियाँ चाँदी की थीं। खूँटों का ऊपरी भाग चाँदी से मढ़ा था और उनकी पट्टियाँ चाँदी की थीं। |
18) आँगन के द्वार के लिऐ नीले, बैगनी और लाल कपड़ों तथा बटी हुई छालटी के कपड़ों का परदा बनाया गया। उस में बेलबूटे कढ़े थे। आँगन के अन्य परदों की तरह उसकी लम्बाई बीस हाथ और उसकी ऊँचाई पाँच हाथ थी। |
19) उसके चार खूँटे थे। उनके लिए काँसे की चार र्कुसियाँ और चाँदी के अँकुड़े थे। उनका ऊपरी भाग चाँदी से मढ़ा था और उनकी पट्टियाँ चाँदी की थी। |
20) निवास और आँगन की सब खूँटियाँ काँसे की थी। |
21) निवास अर्थात् विधान-पत्र के तम्बू के निर्माण में प्रयुक्त सामान का विवरण इस प्रकार है। मूसा की आज्ञा के अनुसार यह विवरण याजक हारून के पुत्र ईतामार की देखरेख में लेवियों द्वारा तैयार किया गया था। |
22) प्रभु ने मूसा को जो आदेष दिया था, उसके अनुसार यूदावंषी ऊरी के पुत्र और हूर के पौत्र बसलएल ने सब कुछ बनाया। |
23) उसके साथ दानवंषी अहीसामाक के पुत्र षिल्पकार ओहोलीआब ने काम किया। वह नमूने बनाता था और नीले, बैंगनी और लाल रंग के कपड़ों तथा छालटी में कढ़ाई करता था। |
24) चन्दे में अर्पित सोना, जो पवित्र-स्थान के निर्माण में प्रयुक्त हुआ, उसका वजन कुल मिला कर उनतीस मन और पवित्र-स्थान की तौल के अनुसार सात सौ तीस शेकेल था। |
25) समुदाय के नामांकन से प्राप्त चाँदी का वजन एक सौ मन और पवित्र-स्थान की तौल के अनुसार सत्रह सौ पचहत्तर षेकेन था। |
26) बीस साल और उस से ऊपर के हर नामांकित व्यक्ति से एक बेका, अर्थात् आधा शेकेल लिया गया था। कुल मिला कर छह लाख साढ़े तीन हजार व्यक्ति थे। |
27) उन्होंने चाँदी के सौ मन से पवित्र-स्थान की र्कुसियाँ और अन्तरपट की र्कुसियाँ ढालीं, अर्थात् सौ र्कुसियों के लिए सौ मन, एक-एक कुर्सी के लिए एक-एक मन। |
28) शेष सत्रह सौ पचहत्तर शेकेलों से खँूटों के अँकुड़े बनाये गये, उनका ऊपरी भाग मढ़ा गया और पट्टियाँ बनायी गयी थीं। |
29) चन्दे के रूप में दिया गया काँसा सत्तर मन और दो हजार सौ शेकेल था। |
30) इस से दर्षन-कक्ष के द्वार की र्कुसियाँ, काँसे की वेदी, काँसे की झंझरी और वेदी का अन्य सामान |
31) तथा आँगन के चारों ओर की र्कुसियाँ, आँगन के द्वार की र्कुसियाँ, निवास की सब खूँटियाँ और आँगन के चारों ओर की सब खूँटियाँ बनायी गयी थी। |
1) नीले, बैंगनी और लाल रंग के कपड़ों से उन्होंने पवित्र स्थान में सेवा करने के वस्त्र बनाये। उन्होंने हारून के लिए पवित्र वस्त्रों को उसी प्रकार बनाया जैसा कि प्रभु ने मूसा को आदेष दिया था। |
2) उन्होंने एफ़ोद को सोने के तारों, नीले बैंगनी ओर लाल रंग के कपड़ों तथा छालटी से बनाया। |
3) उन्होंने ठोंक-ठोंक कर सोने से पतली-पतली पत्तियाँ बनायीं और उन्हें कौषल से नीले, बैंगनी और लाल रंग के कपड़ों तथा छालटी में लगाया। |
4) उन्होंने एफ़ोद के दोनों भाग कन्धे की दो पट्टियों से जोड़ दिये। |
5) कमरबन्द उसी तरह नीले, बैंगनी और लाल रंग के कपड़ों से और छालटी के एफ़ोद के साथ कौषल से बुना गया, जैसा कि प्रभु ने मूसा को आदेष दिया था। |
6) इसके बाद उन्होंने सुलेमानी की दो मणियों पर इस्राएल के पुत्रों के नाम अंकित किये, जिस तरह जौहरी मुद्राओं को उकेरता है और उन्हें नक्काषी किये हुए सोने के खाँचों में जड़ दिया |
7) और उन्होंने उन्हें इस्राएल के पुत्रों की स्मृति-मणियों के रूप में एफ़ोद के कन्धों में लगाया। |
8) उन्होंने एक कुषल षिल्पकार द्वारा एफ़ोद की तरह सोने के तारों, नीले, बैंगनी और लाल रंग के कपड़ों तथा बटी हुई छालटी से वक्षपेटिका बनायी। |
9) वह दोहरी और वर्गाकार थी। - एक बित्ता लम्बी और एक बित्ता चौड़ी। |
10) उन्होंने उस में मणियों की चार पंक्तियाँ लगायी - पहली पंक्ति में एक माणिक, एक पुखराज, और एक मरकत; |
11) दूसरी पंक्ति में एक लाल मणि, एक नीलम और एक हीरा; |
12) तीसरी पंक्ति में एक तृणमणि, एक यशब और एक याकूत |
13) और चौथी पंक्ति में एक स्वर्ण-मणि एक सुलेमानी और एक सूर्यकान्त मणि थी। उन्होंने इन्हें नक्काषी किये हुए सोने के खाँचों में लगाया। |
14) इस्राएल के पुत्रों की संख्या के अनुसार बारह मणियाँ थी। हर मणि पर बारह वंषों का एक नाम अंकित था, जिस तरह मोहरों पर होता है। |
15) उन्होंने वक्षपेटिका के लिए बटी हुई डोरियों के रूप में शुद्ध सोने की गुँथी हुई सिकड़ियाँ बनायीं। |
16) इसके सिवा उन्होंने सोने के दो खाँचे और सोने के दो छल्ले बनाये। |
17) उन्होंने इन दो छल्लों को वक्षपेटिका के दोनों सिरों पर लगाया। |
18) दोनों डोरियों के दूसरे सिरों को उन्होंने सोने के दो खाँचों में जड़ दिया और उन्हें एफ़ोद के स्कन्ध-भागों में सामने की ओर लगाया। |
19) इसके बाद उन्होंने दो और सोने के छल्ले बनाये और उन्हें वक्षपेटिका के दूसरे सिरों पर भीतर की ओर एफोद से सटा कर लगाया। |
20) उन्होंने दो और सोने के छल्ले बना कर उन्हें एफोद के स्कन्ध-भागों के नीचे, सामने की ओर कमरबन्द के पास लगाया। |
21) उन्होंने वक्ष्पेटिका के छल्लों और एफ़ोद के छल्लों को नीली पट्टियों से जोड़ दिया, जिससे वक्षपेटिका एफ़ोद के कमरबन्द से बँधी रहे, जैसा कि प्रभु ने मूसा को आदेष दिया था। |
22) उन्होंने एफ़ोद का पूरा अँगरखा नीले कपड़े से बनाया। |
23) बीच में सिर के लिए एक छेद था और उस छेद के चारों ओर गरेबान-जैसी एक गोट थी, जिससे वह फटे नहीं। |
24) अँगरखे के निचले घेरे में उन्होंने नीलें, बैंगनी और लाल रंग के कपड़े तथा बटी हुई छालटी के अनार लगाये। |
25) अँगरखे के निचले घेरे में उन्होंने अनारों के बीच-बीच सोने की घण्टियाँ लगायीं। |
26) अँगरखे के निचले घेरे में एक अनार के बाद एक सोने की घण्टी थी, फिर एक अनार के बाद एक सोने की घण्टी, जेैसा कि प्रभु ने मूसा को आदेष दिया था। |
27) (२७-२९) उन्होंने हारून और उसके पुत्रों के लिए कपड़े बनाये : छालटी के कुरते, छालटी की पगड़ी और टोपियाँ, बटी हुई छालटी के जाँघिये; नीले, बैंगनी और लाल रंग और बटी हुई छालटी के बेलबूटेदार कमरबन्द, जैसा कि प्रभु ने मूसा को आदेष दिया था। |
30) उन्होंने शुद्ध सोने का एक पुष्प, पवित्र किरीट, बनाया और मुहर में अंकित अक्षरों की तरह उस में यह अंकित किया : ''प्रभु को अर्पित।'' |
31) उसे नीली डोरी से सामने की ओर पगड़ी में बाँधा, जैसा कि प्रभु ने मूसा को आदेष दिया था। |
32) इस प्रकार निवास, दर्षन कक्ष का निर्माण पूरा हुआ। इस्राएलियों ने सब कुछ वैसा ही बनाया, जैसा प्रभु ने मूसा को आदेष दिया था। |
33) तब वे निवास को मूसा के पास लाये : तम्बू और उसका सारा सामान; अँकुड़े चौखटें, छड़, खूँटें और र्कुसियाँ; |
34) मेढ़े की सीझी खाल का आवरण और सूस की खालों का बनाया आवरण और अन्तरपट; |
35) विधान की मंजूषा, उसके डण्डे और छादन-फलक; |
36) मेज, उसका सब सामान और भेंट की रोटियाँ; |
37) शुद्व सोने का दीपवृक्ष, सब दीपक, उसका अन्य सामान और दीपकों के लिए तेल; |
38) सोने की वेदी, अभ्यंजन का तेल, सुगन्धित लोबान तम्बू के प्रवेष-द्वार का परदा; |
39) काँसे की वेदी, काँसे की झंझरी; डण्डे और सब पात्र; चिलमची और उसकी चौकी; |
40) आँगन के परदे, खूँटे, र्कुसियाँ और तम्बू के प्रवेष-द्वार के परदे; आँगन की रस्सियाँ और खूँटियाँ; निवास, दर्षन-क़क्ष की सेवा के लिए सब आवष्यक सामान; |
41) पवित्र-स्थान की सेवा के लिए याजक के वस्त्र - याजक हारून और उसके पुत्रों के लिए पवित्र वस्त्र, जब वे याजक के रूप में कार्य करते हैं। |
42) इस्राएलियों ने ठीक उसी तरह काम पूरा किया, जैसा कि प्रभु ने मूसा को आदेष किया था। |
43) मूसा ने सारे काम का निरीक्षण किया और जब उसने देखा कि उन्होंने उसे ठीक उसी तरह पूरा किया, जैसा कि प्रभु ने मूसा को आदेष दिया था, तो मूसा ने उन्हें आषीर्वाद दिया। |
1) प्रभु ने मूसा से कहा, | ||
2) पहले महीने के पहले दिन दर्षन-कक्ष, निवास की स्थापना करो। | ||
3) उस में विधान की मंजूषा रखो और उसके सामने अन्तरपट लटकाओ। | ||
4) उसके सामने मेज+ और उसका सारा सामान सजा कर रखो, उसके बाद दीपवृक्ष और उसके दीपक। | ||
5) विधान की मंजूषा के सामने सोने की धूप वेदी रखो और निवास के द्वार पर परदा लगाओ। | ||
6) निवास के प्रवेष-द्वार, दर्षन-कक्ष के सामने बलि-वेदी रखो। | ||
7) दर्षन-कक्ष और वेदी के बीच चिलमची रखो और उसे जल से भर दो। | ||
8) चारों ओर का आँगन तैयार करो और उसके प्रवेष द्वार पर परदा लगाओ। | ||
9) फिर अभ्यंजन के तेल से निवास और उसकी सारी वस्तुओं का विलेपन और अभिषेक करो, जिससे वह पवित्र हो जाये। | ||
10) इसी प्रकार बलि-वेदी और उसके सारे सामान का भी विलेपन करो, जिससे वह परमपवित्र हो जाये। | ||
11) चिलमची और उसकी चौकी का भी विलेपन और अभिषेक करो। | ||
12) तब हारून और उसके पुत्रों को दर्षन-कक्ष के द्वार पर बुलाओ और उन्हें जल से नहलाओ। | ||
13) हारून को पवित्र वस्त्र पहनाओ, उसका अभ्यंजन करो और मेरे पुरोहित के रूप में उसका अभिषेक करो। | ||
14) उसके पुत्रों को बुलाओ और उन्हें कुरते पहनाओ | ||
15) और उनके पिता की तरह पुरोहित के रूप में उनका अभ्यंजन करो। उनका यह अभ्यंजन पीढ़ी-दर-पीढ़ी, सदा के लिए उन्हें याजक का पद प्रदान करेगा। | ||
16) प्रभु ने जो कुछ कहा था, मूसा ने वह सब पूरा किया। | ||
17) दूसरे वर्ष के प्रथम महीने, उस महीने के प्रथम दिन, निवास का निर्माण हुआ। | ||
18) मूसा ने निवास का निर्माण किया। उसने जमीन में र्कुसियाँ डाल दीं और उन पर तख्ते रख कर और छड़ बाँध कर खूँटे खड़े किये। | ||
19) उसने निवास पर तम्बू ताना और उसके ऊपर तम्बू का आवरण रख दिया, जैसा कि प्रभु ने मूसा को आदेष दिया था। | ||
20) उसने विधान की पाटियाँ मंजूषा में रखीं, मंजूषा में डण्डे लगाये और उस पर छादन-फलक रखा। | ||
21) उसने मंजूषा निवास में रख कर उसके सामने एक अन्तरपट लगाया और इस प्रकार विधान की मंजूषा आँखों से ओझल कर दी, जैसा कि प्रभु ने मूसा को आदेष दिया था। | ||
22) इसके बाद उसने दर्षन-कक्ष में, निवास के उत्तरी भाग में अन्तरपट के सामने मेज+ रखी | ||
23) और उस पर भेंट की रोटियाँ रखीं; जैसा कि प्रभु ने मूसा को आदेष दिया था। | ||
24) उसने दर्षन कक्ष में, उसके दक्षिणी भाग में, मेज+ के सामने दीपवृक्ष रखा। | ||
25) उसने प्रभु के लिए दीपक सजाये, जैसा कि प्रभु ने उसे आदेष दिया था। | ||
26) उसने दर्षन कक्ष में, अन्तरपट के सामने, सोने की वेदी रखी। | ||
27) इसके बाद मूसा ने सुगन्धित लोबान जलाया, जैसा कि प्रभु ने उसे आदेष दिया था। | ||
28) तब उसने निवास के प्रवेष-द्वार पर परदा लगाया। | ||
29) उसने निवास, दर्षन-कक्ष के सामने होम बलि की वेदी रखी और उस पर होम-बलि और नैवेद्य चढ़ाया, जैसा कि प्रभु ने मूसा को आदेष दिया था। | ||
30) दर्षन-कक्ष और वेदी के बीच चिलमची रखी और उस में जल भर दिया। | ||
31) मूसा, हारून और उसके पुत्रों ने उस से अपने हाथ-पैर धोये। | ||
32) जब-जब वे दर्षन-कक्ष में प्रवेष करते और वेदी के पास जाते, तब-तब वे हाथ-पैर धोते थे, जैसा कि प्रभु ने मूसा को आदेष दिया था। | ||
33) निवास और वेदी के चारों ओर आँगन लगाया गया और आँगन के द्वार पर परदा। इस प्रकार मूसा का काम समाप्त हो गया। | ||
34) तब एक बादल ने दर्षन-कक्ष को ढक लिया और प्रभु की महिमा निवास में भर गयी। | ||
35) मूसा तम्बू में प्रवेष नहीं कर सका, क्योंकि बादल उसे छाये रहता था और निवास प्रभु की महिमा से भर गया था। | ||
36) समस्त यात्रा के समय इस्राएली तभी आगे बढ़ते थे, जब बादल निवास पर से उठ कर दूर हो जाता था। | ||
37) जब बादल नहीं उठता, तो वे प्रतीक्षा करते रहते। | ||
38) उनकी समस्त यात्रा के समय प्रभु का बादल दिन में निवास के ऊपर छाया रहता था, किन्तु रात को बादल में आग दिखाई पड़ती, जिसे सभी इस्राएली देख सकते थे। | ||
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