पवित्र बाइबिल : Pavitr Bible ( The Holy Bible )

पुराना विधान : Purana Vidhan ( Old Testament )

दूसरा इतिहास ग्रन्थ ( 2 Chronicles )

अध्याय 1

1) राजसत्ता दाऊद के पुत्र सुलेमान के हाथ में दृढ़ हो गयी। प्रभु, उसका ईष्वर उसके साथ था और उसने उसे महान् बनाया।
2) सुलेमान ने सारे इस्राएल को, सहस्रपतियों, शतपतियों, न्यायाधीषों, इस्राएल भर के नेताओं, अर्थात् घरानों के मुखियाओं को सम्बोधित किया।
3) इसके बाद सुलेमान सारी सभा के साथ गिबओन के पहाड़ी पूजास्थान गया, क्योंकि वहीं ईष्वर का वह दर्षन- कक्ष था, जिसे प्रभु के सेवक मूसा ने उजाड़खण्ड में बनवाया था।
4) (दाऊद ईष्वर की मंजूषा को किर्यत-यआरम से उस स्थान ले आया था, जिसे दाऊद ने उसके लिए तैयार कराया था-उसके लिए उसने येरुसालेम में एक तम्बू खड़ा किया था।)
5) ऊरी के पुत्र और हूर के पौत्र बसलएल ने काँसे की जो वेदी बनायी थी, वह भी वहाँ प्रभु के निवास के सामने थी। सुलेमान और जनसमुदाय उसके दर्षन के लिए वहाँ पहुँचे।
6) सुलेमान ने दर्षन-कक्ष के पास, प्रभु के सामने काँसे की वेदी तक पहुँच कर उस पर एक हजार होम-बलियाँ चढ़ायीं।
7) उसी रात ईष्वर ने सुलेमान को दर्षन दिये ओर उस से कहा, ''बताओं, मैं तुम्हें क्या दे दूँ?''
8) सुलेमान ने ईष्वर को यह उत्तर दिया, ''तूने मेरे पिता दाऊद पर बड़ी कृपा की और मुझे उनके स्थान पर राजा बनाया।
9) प्रभु-ईष्वर! तूने मेरे पिता दाऊद से जो कहा, था, वह अब पूरा हो; क्योंकि तूने मुझे एक ऐसी प्रजा का शासक बनाया, जो पृथ्वी के रेतकणों की तरह असंख्य है।
10) अब मुझे प्रज्ञा और विवेक प्रदान कर, जिससे मैं इस प्रजा का नेतृत्व कर सकूँ। नहीं तो, कौन तेरी प्रजा, इस महान् राष्ट्र का शासन कर सकता है?''
11) ईष्वर ने सुलेमान से कहा, ''चूँकि तुमने यह चाहा, चूँकि तुमने न तो धनसम्पत्ति, न वैभव, न अपने शत्रुओं का विनाष और न लम्बी आयु, बल्कि अपने लिए प्रजा और विवेक माँगा, जिससे तुम मेरी प्रजा का शासन कर सको, जिसका मैंने तुम्हें राजा बनाया है,
12) इसलिए तुम्हें प्रज्ञा और विवेक प्रदान किया जायेगा और मैं तुम को उतना धन और वैभव दूँगा, जितना न तो तुम्हारे पहले किसी राजा के पास था और न तुम्हारे बाद किसी के पास होगा।''
13) इसके बाद सुलेमान गिबओन की पहाड़ी से, दर्षन-कक्ष के स्थान से, येरुसालेम लौट आया और इस्राएल पर राज्य करने लगा।
14) सुलेमान ने अपने लिए रथों और घुड़सवारों का प्रबन्ध किया। उसके पास एक हजार चार सौ रथ और बारह हजार घुड़सावर थे। उसने उन्हें रक्षा-नगरों में और अपने पास येरुसालेम में रखा।
15) राजा ने येरुसालेम में चाँदी और सोने को पत्थर जैसा सस्ता बना दिया और देवदार को निचले प्रदेष में पाये जाने वाले गूलर-जैसा प्रचुर।
16) सुलेमान के लिए मिस्र और कुए से घोड़े लाये जाते थे। राजा के व्यापारी दाम दे कर उन्हें कुए से ख़रीद लाते थे।
17) मिस्र से लाये जाने वाले रथ का मूल्य-छः सौ शेकेल। और घोड़े का डेढ़ सौ चाँदी के शेकेल। इन व्यापारियों द्वारा सबी हित्ती और अरामी राजा रथ और घोड़े ख़रीदते थे।
18) सुलेमान ने प्रभु के नाम की प्रतिष्ठा के लिए एक मन्दिर और अपने लिए राजमहल बनाने का निष्चय किया।

अध्याय 2

1) सुलेमान ने सत्तर हजार बोझा ढोने वालों और पहाड़ी प्रदेष में अस्सी हजार संगतराषों को काम पर लगाया था। उनके निरीक्षकों की संख्या तीन हजार छह सौ थी।
2) तब सुलेमान ने तीरुस के राजा हीराम के पास यह कहला भेजाः ''आपने मेरे पिता दाऊद के लिए प्रबन्ध किया था और उनके पास देवदार की लकड़ी भेजी थी, जिससे वह अपना निवास बनवा सकें।
3) मैं भी प्रभु, अपने ईष्वर के नाम की प्रतिष्ठा के लिए एक मन्दिर बनवाना चाहता हूँ। मैं उसे इसलिए प्रतिष्ठित करूँगा कि उस में उसके लिए सुगन्धित द्रव्यों की भेंट चढ़ायी जाये, निरन्तर भेंट की रोटियाँ रखी जायें और प्रातः और सन्ध्या समय, विश्राम-दिवसों, अमावस के दिनों तथा प्रभु, हमारे ईष्वर के निर्धारित उत्सवों पर होम-बलियाँ चढ़ायी जायें। यह इस्राएल के लिए सदा बना रहने वाला आदेष है।
4) जो मन्दिर मैं बनवा रहा हूँ, वह भव्य होगा; क्योंकि हमारा ईष्वर सब अन्य देवताओं से महान् है।
5) प्रभु के लिए मन्दिर बनवाने का सामर्थ्य किस में है, जब कि वह आकाष और सारे ब्रह्माण्ड में नहीं समा सकता? मैं कौन हूूँ, जो उसके लिए मन्दिर बनवाऊँ? वह मात्र एक स्थान हो, जहाँ उसके सामने चढ़ावे जलाये जायें।
6) इसलिए अब मेरे पास एक ऐसा व्यक्ति भेजिए, जो सोने, चाँदी, काँसे और लोहे के काम करने में निपुण हो; जो बैंगनी, किरमिजी और नीले कपड़ों पर कढ़ाई और नक्क़ाषी का काम भी जानता हो। वह उन कलाकारों के साथ काम करेगा, जो मेरे साथ सदा यूदा और येरुसालेम में हैं और जिन्हें मेरे पिता दाऊद ने नियुक्त कर रखा है।
7) मुझे लेबानोन से देवदार, सनोवर और चन्दन की लकड़ी भी भेजिए; क्योंकि मैं जानता हूँ कि आपके आदमी लेबानोन के वृक्ष काटने में निपुण हैं।
8) मेरे आदमी आपके आदमियों के साथ रह कर मेरे लिए बहुत-सी लकड़ी तैयार करेंगे; क्योंकि मैं जो मन्दिर बनवाने जा रहा हूँ, वह महान् और भव्य होगा।
9) मैं आपके लकड़ी काटने वाले आदमियों के लिए बीस लाख मन गेहूँ, बीस लाख मन जौ, नौ लाख लिटर अंगूरी और नौ लाख लिटर तेल दे रहा हूँ।''
10) तीरुस के राजा हीराम ने सुलेमान को भेजी हुई एक चिट्ठी में लिखा थाः ''प्रभु अपनी प्रजा से प्रेम करता है, इसलिए उसने आप को उसका राजा बनाया है।'' हीराम ने यह भी कहा, ''धन्य है प्रभु, इस्राएल का ईष्वर, जिसने स्वर्ग और पृथ्वी को बनाया है!
11) उसने राजा दाऊद को एक ऐसा बुद्धिमान, समझदार और विवेकी पुत्र दिया, जो प्रभु के लिए मन्दिर और अपने लिए राजमहल बनवायेगा।
12) मैं आपके पास एक निपुण और समझदार षिल्पकार, हूराम- अबी को भेज रहा हूँ, जो किसी दानवंषी स्त्री का पुत्र है और जिसका पिता तीरुस-निवासी है।
13) वह सोने, चाँदी, काँसे, लोहे, पत्थर और लकड़ी, लाल और बैंगनी कपड़ों, छालटी और किरमिजी कपड़ों पर कढ़ाई और सब प्रकार के नक्क़ाषी के काम और अपने को सौंपे हुए सब प्रकार का कार्य सम्पन्न कर सकता है। वह आपके और आपके पिता, मेरे स्वामी दाऊद के षिल्पकारों के साथ काम करेगा।
14) आप गेहूँ, जौ, तेल और अंगूरी, जिनके बारे में मेरे स्वामी ने कहा है अपने दासों को भेज दें।
15) हम आपकी आवष्यकता के अनुसार लेबानोन जा कर वृक्ष काटेंगे और बेड़ा बना कर समुद्री मार्ग से याफ़ो तक पहुँचा देंगे? जिससे वहाँ से आप उन्हें येरुसालेम ले जा सकें।''
16) अपने पिता द्वारा की गयी लोगों की जनगणना के बाद सुलेमान ने इस्राएल देष भर के सब परदेषियों की गणना की। उनकी संख्या एक लाख तिरपन हजार छः सौ थी।
17) उसने उन में सत्तर हजार को बोझा ढोने, अस्सी हजार को पहाड़ी प्रदेष में पत्थर काटने ओर तीन हजार छः सौ को निगरानी करने के लिए नियुक्त किया, जो उन लोगों से काम लेते थे।

अध्याय 3

1) सुलेमान ने येरुसालेम की मोरीया पहाड़ी पर प्रभु का घर बनाना प्रारम्भ किया, जहाँ प्रभु ने उसके पिता दाऊद को दर्षन दिये थे-उस स्थान पर, जिसे दाऊद ने निष्चित कर दिया था, अर्थात् यबूसी ओरनान के खलिहान पर।
2) उसने अपने शासन के चौथे वर्ष के दूसरे महीने काम शुरू किया।
3) सुलेमान ने प्रभु के मन्दिर की नींव इस प्रकार निष्चित की-पुरानी माप के अनुसार लम्बाई साठ हाथ की थी और चौड़ाई बीस हाथ की।
4) मन्दिर के मध्य भाग के सामने बीस हाथ लम्बा द्वारमण्डप था, जो मन्दिर की चौड़ाई के बराबर था। उसकी ऊँचाई एक सौ बीस हाथ थी। उसने द्वारमण्डप का भीतरी भाग शुद्ध सोने से मढ़वाया।
5) उसने मध्य भाग को सनोवर की लकड़ी से ढकवा दिया और उस पर शुद्ध सोना मढ़वाया। फिर उसने उस पर खजूर ओर मालाएँ खुदवायीं।
6) मन्दिर बहुमूल्य मणियों से सजाया गया। सोना परवाईम का सोना था।
7) इस प्रकार उसने मन्दिर, उसकी कड़ियों, देहलियों, दीवारों और उसके दरवाजों को सोने से मढ़वाया और दीवारों पर केरूब खुदवाये।
8) उसने परमपवित्र-स्थान बनवाया। मन्दिर की चौड़ाई के समान ही उसकी लम्बाई बीस हाथ थी और उसकी चौड़ाई बीस हाथ। उसने उस पर छः सौ मन शुद्ध सोना मढ़वाया।
9) सोने की कीलों का वजन पचास शेकेल था। उसने ऊपर वाले कमरों को भी सोने से मढ़वाया।
10) उसने परमपवित्र-स्थान के कक्ष में दो केरूब रखवाये। ये ढलवें धातु के बने और सोने से मढे थे।
11) उन केरूबों के फैले हुए पंख बीस हाथ लम्बे थे। पहले केरूब का एक पंख पाँच हाथ लम्बा था और वह मन्दिर की दीवार का स्पर्श करता था। उसका दूसरा पंख भी पाँच हाथ का था और वह दूसरे केरूब के पंख का स्पर्ष करता था।
12) दूसरे केरूब का पंख भी पाँच हाथ लम्बा था और वह मन्दिर की दीवार का स्पर्ष करता था। उसका दूसरा पंख भी पाँच हाथ लम्बा था और पहले केरूब के पंख का स्पर्ष करता था।
13) उन केरूबों के पंखों की चौड़ाई कुल मिला कर बीस हाथ थी। वे भीतर की ओर मुँह किये अपने पाँवों पर खड़े थे।
14) उसने बैंगनी, लाल और किरमिजी कपड़ों और छालटी से एक परदा बनवाया और उस पर केरूब कढ़वाये।
15) उसने घर के सामने पैंतीस हाथ ऊँचे दो खम्बे बनवाये और प्रत्येक के ऊपर पाँच हाथ का एक स्तम्भषीर्ष बनवाया।
16) उसने मालाएँ बनवायीं और उन्हें खम्भों के ऊपर रखा, फिर एक सौ अनार बनवा कर उन्हें उन मालाओं पर लगवाया।
17) उसने उन खम्भों को मन्दिर के सामने खड़ा किया- एक को दाहिनी ओर और एक को बायीं ओर। उसने दाहिनी ओर वाले का नाम ÷याकीन' रखा और बायीं ओर वाले का नाम ÷बोअज'।

अध्याय 4

1) उसने काँसे की एक वेदी बनवायी। वह बीस हाथ लम्बी, बीस हाथ चौड़ी और दस हाथ ऊँची थी।
2) फिर उसने काँसे का एक हौज ढलवाया। वह वृत्ताकार था। वह एक किनारे से दूसरे किनारे तक दस हाथ चौड़ा था। वह पाँच हाथ ऊँचा था और उसकी परिधि तीस हाथ थी।
3) उसके नीचे दो पंक्तियों में चारों तरफ़ बैलों की आकृतियाँ थीं, जो उसकी ढलाई के समय ही उसके साथ-साथ ढाली गयी थीं।
4) वह बारह बैलों पर स्थित था। बैलों में से तीन उत्तर की ओर मुँह किये हुये थे, तीन पष्चिम की ओर, तीन दक्षिण की ओर और तीन पूर्व की ओर। उनके ऊपर हौज आधारित था। बैलों का पिछला भाग भीतर की ओर था।
5) हौज की धातु की मोटाई चार अंगुल थी। उसका किनारा प्याले के किनारे के समान सोसन-पुष्प के आकार का था। उस में पैंतीस हजार लिटर समाता था
6) उसने शुद्धीकरण के लिए दस चिलमचियाँ बनवायीं और उन में से पाँच दाहिनी ओर रखवायीं और पाँच बायीं ओर, जिससे जो कुछ होम-बलि में चढ़ाया जाये, वह पहले उन में धोया जाये। हौज याजकों के शुद्धीकरण के लिए था।
7) उसने निर्धारित नियम के अनुसार सोने के दस दीपवृक्ष बनवाये और उन्हें मन्दिर में रखा-पाँच को दाहिनी ओर और पाँच को बायीं ओर।
8) उसने दस मेजें बनवायीं और मन्दिर में रखीं-पाँच दाहिनी ओर और पाँच बायीं ओर। इनके अतिरिक्त उसने सोने के सौ बरतन बनवाये।
9) उसने याजकों का प्रांगण और बड़ा प्रांगण बनवाया और प्रांगण के लिए फाटक बनवाये। उसने उन फाटकों को काँसे से मढ़वाया
10) और हौज को मन्दिर के दक्षिण-पूर्व में रखवाया।
11) अन्त में हूराम ने पात्र, फावड़ियाँ और कटोरे बनाये। इस प्रकार हूराम ने वह काम पूरा किया, जिसकी आज्ञा उसे राज सुलेमान ने ईष्वर के मन्दिर के लिए दी थीः
12) दो खम्बे, खम्भों के ऊपर के दो गोलाकार स्तम्भषीर्ष और खम्भों के सिरों पर दोनों गोलाकार स्तम्भशीर्षों को सजाने के लिए दो जालियाँ,
13) दोनों जालियों के लिए चार सौ अनार-खम्भों के दोनों गोलाकार स्तम्भषीर्षों को ढकने के लिए प्रत्येक जाली की दो-दो पंक्तियों में अनार लटके थे।
14) उसने ठेले बनाये और उन ठेलों पर चिलमचियाँ,
15) हौज और हौज के नीचे बारह बैल।
16) पात्र, फावड़ियाँ, काँटे और उनके साथ अन्य सब सामान, जो हूराम-अबी ने राजा सुलेमान की आज्ञा से प्रभु के मन्दिर के लिए बनाये, परिष्कृत काँसे के थे।
17) राजा ने सुक्कोत और सरेदा के बीच, चिकनी मिट्टी वाली भूमि में, यर्दन के मैदान में उन को ढलवाया।
18) सुलेमान ने उन सब चीजों को इतनी अधिक मात्रा में बनवाया कि उनके काँसे की तौल नहीं की जा सकी।
19) सुलेमान ने ईष्वर के मन्दिर के लिए ये सब सामान भी बनवायेः सोने की वेदी, भेंट की रोटियों के लिए मेजें,
20) शुद्ध सोने के दीपवृक्ष और उनके दीये, जो नियमानुसार भीतरी पवित्र-स्थान में जलाये जायें;
21) शुद्ध सोने की बौंड़ियाँ, दीये और चिमटे,
22) शुद्ध सोने की कैंचियाँ, बरतन, लोबान के पात्र और कलछियाँ, मन्दिर के फाटक, परमपवित्र स्थान के भीतरी दरवाजे और मध्य भाग के दरवाजे, जो सभी सोने के थे।

अध्याय 5

1) जब वह सब काम समाप्त हो चुका, जिसकी आज्ञा सुलेमान ने प्रभु के मन्दिर के लिए दी थी, तो सुलेमान ने अपने पिता दाऊद द्वारा समर्पित समस्त सामग्री, अर्थात् चाँदी, सोने और अन्य सब सामान ला कर ईष्वर के मन्दिर के भण्डारों में रखवा दिया।
2) इसके बाद सुलेमान ने दाऊदनगर, अर्थात् सियोन से प्रभु के विधान की मंजूषा ऊपर ले जाने के लिए इस्राएल के नेताओं और वंषों के सब अध्यक्षों, इस्राएली घरानों के मुखियाओं को येरुसालेम में एकत्रित किया।
3) इसलिए सातवें महीने के पर्व के अवसर पर इस्राएल के सब पुरुष राजा के पास एकत्रित हुए।
4) सब इस्राएली नेता आये और लेवियों ने मंजूषा उठायी।
5) वे मंजूषा, दर्षन-कक्ष और तम्बू का सब पवित्र सामान ऊपर ले गये। याजक और लेवी उन्हें ऊपर ले गये।
6) राजा सुलेमान तथा इस्राएल का समस्त समुदाय मंजूषा के सामने इकट्ठा हो गया। उन्होंने असंख्य भेड़ों तथा साँड़ों की बलि चढ़ायी।
7) याजकों ने विधान की मंजूषा को उसके स्थान पर, परमपवित्र-स्थान में केरूबों के पंखों के नीचे रख दिया।
8) केरूबों के पंख मंजूषा के स्थान के ऊपर फैले हुए थे और इस प्रकार मंजूषा तथा उसके डंडों को आच्छादित करते थे।
9) डण्डे इतने ही लम्बे थे कि उनके सिरे परम-पवित्र-स्थान के सामने के पवित्र-स्थान में दिखाई देते थे, किन्तु बाहर से नहीं। वे आज तक वहीं हैं।
10) मंजूषा में केवल विधान की वे दो पाटियाँ थी, जिन्हें मूसा ने होरेब में उस में रख दिया था। जब इस्राएली मिस्र से निकले थे, तो प्रभु ने उनके लिए होरेब में वह नियम ठहराया था।
11) तब याजक पवित्र-स्थान से बाहर आये। सब याजकों ने, जो उपस्थित थे, अपने दलों के क्रम का ध्यान रखे बिना, अपने को पवित्र किया।
12) लेवियों के समस्त गायक, आसाफ़, हेमान, यदूतून, उनके पुत्र और भाई-बन्धु-सब छालटी के वस्त्र पहने और मंजीरे, सारंगियाँ और सितार बजाते हुए वेदी के पूर्व में खड़े थे। उनके साथ तुरहियाँ बजाते हुए एक सौ बीस याजक थे।
13) तुरही बजाने वाले और गायक सब मिल कर ईष्वर की प्रषंसा और स्तुतिगान करते थे। तुरही, झाँझ तथा अन्य वाद्यों से स्वर मिला कर वे यह कहते हुए प्रभु की स्तुति करते थे : ''क्योंकि वह भला है। उसकी सत्य प्रतिज्ञता अनन्त काल तक बनी रहती है।'' उस समय ईष्वर का मन्दिर एक बादल से भर गया।
14) और याजक मन्दिर में अपना सेवा-कार्य पूरा करने में असमर्थ थे- ईष्वर का मन्दिर प्रभु की महिमा से भर गया था।

अध्याय 6

1) तब सुलेमान ने कहा : ''प्रभु ने अन्धकारमय बादल में रहने का निष्चय किया है। मैंने तेरे लिए एक भव्य निवास का निर्माण किया है;
2) एक ऐसा मन्दिर, जहाँ तू सदा के लिए निवास करेगा।''
3) इसके बाद राजा ने मुड़ कर समस्त इस्राएली समुदाय को आषीर्वाद दिया।
4) उस समय इस्राएल का समस्त समुदाय खड़ा था। उसने कहा, ''धन्य है प्रभु, इस्राएल का ईष्वर, क्योंकि उसने मेरे पिता दाऊद से की हुई यह प्रतिज्ञा पूरी की-
5) ÷जब से मैं अपनी प्रजा को मिस्र से निकाल लाया हूँ, तब से मैंने इस्राएल के किसी कुल के किसी नगर को नहीं चुना था, जिससे वहाँ मन्दिर बनवाया जाये और मेरा नाम प्रतिष्ठित हो। मैंने किसी व्यक्ति को नहीं चुना है, जो मेरी प्रजा का शासक हो,
6) मैंने येरुसालेम को चुना, जिससे मेरा नाम वहाँ प्रतिष्ठित हो और मैंने दाऊद को चुना है, जिससे वह मेरी प्रजा इस्राएल का शासक हो।'
7) मेरे पिता दाऊद की इच्छा प्रभु, इस्राएल के ईष्वर के नाम के लिए एक मन्दिर बनवाने की थी;
8) लेकिन प्रभु ने मेरे पिता दाऊद से कहा था, ÷तुम मेरे नाम पर मन्दिर बनवाना चाहते हो, यह एक अच्छी बात है।
9) परन्तु तुम यह मन्दिर नहीं बनवाओगे; बल्कि तुम्हारा पुत्र, जो तुम से उत्पन्न होगा, मेरे नाम पर एक मन्दिर बनवायेगा।'
10) अब प्रभु ने अपने दिये हुए वचन को पूरा किया है। अब मैंने अपने पिता दाऊद का स्थान ग्रहण किया है और मैं प्रभु के वचन के अनुसार इस्राएल के सिंहासन पर विराजमान हूँ। मैंने प्रभु, इस्राएल के ईष्वर के नाम पर मन्दिर बनवा दिया है
11) और वहाँ वह मंजूषा रखी है, जिस में इस्राएलियों के लिए निर्धारित प्रभु का विधान रखा है।''
12) इसके बाद सुलेमान ने इस्राएल के समस्त समुदाय के सामने प्रभु की वेदी के सामने खड़ा हो कर अपने हाथ फैलाये।
13) सुलेमान ने काँसे का एक चबूतरा बनवाया था और उसे आँगन के बीच में रखा था। वह पाँच हाथ लम्बा, पाँच हाथ चौड़ा और तीन हाथ ऊँचा था। उसने उस पर खड़ा होकर और इस्राएल के समस्त समुदाय के सामने घुटने टेक कर स्वर्ग की ओर अपने हाथ फैलाते हुए
14) कहा, ''प्रभु! इस्राएल के ईष्वर! न तो ऊपर स्वर्ग में और न नीचे पृथ्वी पर तेरे सदृष कोई ईष्वर है। तू विधान बनाये रखता और अपने सेवकों पर दयादृष्टि करता है, जो निष्कपट हृदय से तेरे मार्ग पर चलते हैं।
15) तूने अपने सेवक दाऊद, मेरे पिता से की हुई प्रतिज्ञा पूरी की है। तेरे मुख से जो बात निकली थी, तूने उसे आज पूरा किया।
16) अब, प्रभु! इस्राएल के ईष्वर! अपने सेवक दाऊद और मेरे पिता से की हुई यह प्रतिज्ञा पूरी कर- ÷यदि तुम्हारे पुत्र सावधान रहेंगे और तुम-जैसे मेरे मार्गों पर चलते रहेंगे, तो तुम्हारे वंषजों में से कोई-न-कोई सदा मेरे सामने तुम्हारे सिंहासन पर अवष्य बैठा रहेगा।
17) अब, प्रभु! इस्राएल के ईष्वर! दाऊद, तेरे सेवक से की हुई प्रतिज्ञा पूरी हो।
18) क्या यह सम्भव है कि ईष्वर सचमुच पृथ्वी पर मनुष्यों के साथ निवास करे? आकाष और समस्त ब्रह्माण्ड में तू नहीं समा सकता, तो इस मन्दिर से क्या, जिसे मैंने बनवाया है?
19) प्रभु! मेरे ईष्वर! अपने दास की प्रार्थना तथा अनुनय पर ध्यान दे। जो दुहाई और प्रार्थना तेरा सेवक तेरे सामने प्रस्तुत कर रहा है, उसे सुनने की कृपा कर।
20) तेरी कृपा-दृष्टि दिन-रात इस मन्दिर पर बनी रहे- इस स्थान पर, जिसके विषय में तूने कहा कि मेरा नाम यहाँ विद्यमान रहेगा।
21) तेरा सेवक और तेरी प्रजा इस्राएल यहाँ जो प्रार्थना करेंगे, उसे सुनने की कृपा कर। तू अपने स्वर्गिक निवासस्थान से उनकी प्रार्थना सुन और उन्हें क्षमा प्रदान कर।
22) जब कोई अपने पड़ोसी के विरुद्व अपराध करे और उस से शपथ खिला ली जाये और जब वह इस मन्दिर की वेदी के सामने शपथ खा ले,
23) तो तू उसे स्वर्ग में सुन कर अपने सेवकों का न्याय कर। तू अपराधी को दण्ड दे और उस से अपराध का बदला चुका। तू निर्दोष को निर्दोष ठहरा कर उसकी धार्मिकता के अनुसार उसके साथ व्यवहार कर।
24) ''यदि तेरी प्रजा इस्राएल शत्रुओं से इसलिए पराजित हो जाये कि उसने तेरे विरुद्व अपराध किया है, तो यदि वह फिर तेरी ओर अभिमुख हो कर और तेरा नाम ले कर इस मन्दिर में तेरी प्रार्थना और पुकार करे,
25) तो तू स्वर्ग में उसकी प्रार्थना सुन, अपनी प्रजा इस्राएल का पाप क्षमा कर और उसे फिर उसी देष ले जा, जिसे तूने उनके पूर्वजों को दिया है।
26) ''यदि आकाष के द्वार बन्द होंगे और इसलिए वर्षा नहीं होगी कि लोगों ने तेरे विरुद्व पाप किया है और यदि वे इस स्थान पर प्रार्थना करें, तेरा नाम लें और इसलिए अपने पाप छोड़ दें कि तूने उन्हें कष्ट दिया है,
27) तो तू स्वर्ग में उनकी प्रार्थना स्वीकार कर अपने सेवकों, अपनी प्रजा इस्राएल का पाप क्षमा कर। उस को वह सन्मार्ग बतला, जिस पर उसे चलना चाहिए और अपने इस देष में वर्षा कर, जिसे तूने अपनी प्रजा को दायभाग के रूप में दिया है।
28) ''यदि देष में अकाल पड़े, महामारी फैले, फ़सल में गेरूआ कीड़ा लग जाये या पाला पड़े, टिड्डियाँ या अन्य कीड़े- मकोड़े पैदा हो जायें, यदि उसका शत्रु उसके नगरों पर आक्रमण करे, यदि किसी प्रकार की विपत्ति आये या बीमारी फैले,
29) उस समय यदि कोई भी इस्राएली, किसी भी विपत्ति के कारण दुःखी हो कर इस मन्दिर की ओर हाथ पसार कर प्रार्थना करे और तुझे पुकारे,
30) तो तू स्वर्ग से उसकी प्रार्थना सुन, उसे क्षमा कर और प्रत्येक व्यक्ति को उसके कर्मों का फल दे (क्योंकि तू वही है, जो सब मनुष्यों के हृदय जानता है)।
31) इस प्रकार जब तक वे उस देष में रहेंगे, जिसे तूने हमारे पुरखों को दिया है, तब तक वे तुझ पर श्रद्धा रखेंगे।
32) ''यदि कोई परदेषी, जो तेरी प्रजा का सदस्य नहीं है, तेरे नाम के कारण दूर देष से आये- क्योंकि लोग तेरे महान् नाम, तेरे शक्तिषाली हाथ तथा तेरे समर्थ भुजबल की चरचा करेंगे- यदि वह इस मन्दिर में विनती करने आये,
33) तो तू अपने निवास-स्थान, स्वर्ग में उसकी प्रार्थना सुन और जो कुछ परदेषी माँगे, उसे दे दो। इस प्रकार सभी राष्ट्र, तेरी प्रजा इस्राएल की तरह, तेरा नाम जान जायेंगे, तुझ पर श्रद्धा रखेंगे और यह समझ जायेंगे कि यह मन्दिर, जिसे मैंने बनवाया है, तेरे नाम को समर्पित है।
34) ''यदि तेरी प्रजा, तेरे आदेष के अनुसार, शत्रुओं के विरुद्ध लड़ने जाये, जब वह तेरे बताये हुए मार्ग पर आगे बढ़े और वह तेरे द्वारा चुने हुए नगर की ओर और इस मन्दिर की ओर अभिमुख हो कर प्रार्थना करे, जिसे मैंने तेरे नाम के लिए बनवाया है,
35) तो तू स्वर्ग से उसकी प्रार्थना और पुकार सुन और उसका पक्ष ले।
36) ''यदि इस्राएली तेरे विरुद्व पाप करें- क्योंकि कोई ऐसा नहीं है, जो पाप ने करे- और तू उन पर क्रोध कर उन को उनके शत्रुओं के हाथ दे दे और उनके शत्रु उन्हें बन्दी बना कर अपने दूर या निकट देष ले जायें,
37) तो यदि वे अपने को बन्दी बनाने वाले देष में पश्चात्ताप करें और अपने शत्रुओं के देष में यह कहते हुए तुझ से दया की याचना करें, ÷हमने पाप किया है, हमने अपराध किया है, हमने अधर्म किया है;'
38) यदि वे अपने शत्रुओं के देष में, जो उन को बन्दी बना कर ले गये हों, सारे हृदय से और सारी आत्मा से तेरे पास लोैट आयें और इस देष की ओर, जिसे तूने उनके पूर्वजों को दिया है, इस नगर की ओर, जिसे तूने चुना है और इस मन्दिर की ओर, जिसे मैंने तेरे नाम पर निर्मित किया है, अभिमुख हो कर तुझ से प्रार्थना करें,
39) तो तू स्वर्ग में, अपने निवास में उनकी प्रार्थना और पुकार सुन कर उनका पक्ष ले। तू अपनी प्रजा को क्षमा कर, जिसने तेरे विरुद्ध पाप किया है।
40) मेरे ईष्वर! इस स्थान पर जो प्रार्थना की जाये, उसे तेरी आँखें देखती रहें और तेरे कान सुनते रहें।
41) ''प्रभु-ईष्वर! अब तू अपनी तेजस्वी मंजूषा के साथ अपने विश्राम-स्थान को चल। प्रभु-ईष्वर! तेरे याजक कल्याण के वस्त्र धारण करें, तेरे भक्त सुख-शान्ति में आनन्द मनायें।
42) प्रभु-ईष्वर! अपने अभिषिक्त को न त्याग, अपने सेवक दाऊद के सत्कार्यों को याद कर।''

अध्याय 7

1) सुलेमान ने जैसे ही अपनी प्रार्थना पूरी की कि आकाष से आग उतरी। उसने होम-बलि और अन्य बलियों को भस्म कर दिया और मन्दिर प्रभु की महिमा से भर गया।
2) याजकगण प्रभु के मन्दिर में प्रवेष नहीं कर पाये, क्योंकि प्रभु का मन्दिर प्रभु की महिमा से भर गया था।
3) सभी इस्राएलियों ने आग और मन्दिर पर प्रभु की महिमा को उतरते देखा। उन्होंने फ़र्ष पर घुटने टेक और भूमि तक सिर झुका कर प्रभु की आराधना की और यह कहते हुए प्रभु को धन्यवाद दियाः ''क्योंकि वह भला है। उसकी सत्यप्रतिज्ञता अनन्त काल तक बनी रहती है।''
4) इसके बाद राजा और सब लोगों ने प्रभु के सामने बलियाँ चढ़ायीं।
5) राजा सुलेमान ने बाईस हजार बैलों और एक लाख बीस हजार भेड़ों की बलि चढ़ायी। इस प्रकार राजा ने सारी प्रजा के साथ ईष्वर के मन्दिर का प्रतिष्ठान किया।
6) याजक अपने-अपने स्थान पर खड़े थे और लेवी प्रभु के वे वाद्य-यन्त्र लिये थे, जिन्हें दाऊद ने प्रभु की स्तुति के लिए बनवाया थाः ''क्योंकि उसकी सत्यप्रतिज्ञता अनन्त काल तक बनी रहती है''। वे दाऊद का स्तुतिगान गाते थे। उस समय याजक उनकी बग़ल में तुरहियाँ बजाते और सभी इस्राएली खड़े थे।
7) सुलेमान ने प्रभु के मन्दिर के सामने वाले आँगन के मध्य भाग को भी पवित्र किया और उसने वहाँ होम-बलियाँ और शान्ति-बलियों की चर्बी चढ़ायी; क्योंकि सुलेमान द्वारा निर्मित काँसे की वेदी पर होम-बलियाँ, अन्न-बलियाँ और शान्ति-बलियों की चरबी रखना सम्भव नहीं था।
8) इस प्रकार सुलेमान ने इस्राएलियों के साथ सात दिन तक उत्सव मनाया। इस में एक विषाल जनसमूह उपस्थित हुआ, जो लेबो-हमात से मिस्र के नाले तक के क्षेत्र से आया था।
9) आठवें दिन उन्होंने एक बड़ी धर्मसभा का आयोजन किया; क्योंकि उन्होंने वेदी का प्रतिष्ठान और उसका उत्सव सात दिन तक मनाया था।
10) उसने सातवें महीने के तेईसवें दिन लोगों को घर विदा कर दिया। वे लोग आनन्दित और प्रसन्नचित थे, क्योंकि प्रभु ने दाऊद, सुलेमान और अपनी प्रजा का इतना बड़ा उपकार किया था।
11) जब सुलेमान प्रभु के मन्दिर, राज-भवन और इनके सम्बन्ध में अपनी मनोनुकूल सारी योजनाएँ पूरी कर चुका,
12) तब प्रभु ने रात को उसे दर्षन दिये और कहा, ''मैंने तुम्हारी प्रार्थना सुनी और इस स्थान को यज्ञ-मन्दिर के रूप में अपने लिए चुना।
13) जब मैं आकाष के द्वार बन्द करूँगा और वर्षा नहीं होगी, जब मैं टिड्डियों से देष को चाट जाने कहूँगा या अपनी प्रजा पर महामारी ढाहूँगा,
14) तब यदि मेरी अपनी प्रजा विनयपूर्वक प्रार्थना करेगी, मेरे दर्षन चाहेगी और अपना कुमार्ग छोड़ देगी, तो मैं स्वर्ग से उसकी सुनूँगा, उसके पाप क्षमा करूँगा और उसके देष का कल्याण करूँगा।
15) इस स्थान पर जो प्रार्थना की जाये, उसे मेरी आँखें, देखती रहेंगी और मेरे कान सुनते रहेंगे।
16) मैंने इस मन्दिर को इसलिए चुना और पवित्र किया है कि इस में मेरा नाम सदा प्रतिष्ठित रहे।
17) यदि तुम अपने पिता दाऊद की तरह मेरे सामने आचरण करोगे, यदि तुम मेरे द्वारा अपने को दिये गये आदेषों, नियमों और विधियों का पालन करोगे,
18) तो जैसा कि मैंने तुम्हारे पिता से यह कहते हुए प्रतिज्ञा की, ÷इस्राएल के सिंहासन पर सदा ही तुम्हारा कोई वंशज विराजमान होगा, मैं तुम्हारा राज सिंहासन स्थापित करूँगा।
19) परन्तु यदि तुम लोग मुझ से विमुख होगे और मेरे द्वारा अपने को दी गयी आज्ञाओं और विधियों का पालन नहीं करोगे, यदि तुम जा कर अन्य देवताओं की सेवा-पूजा करोगे,
20) तो मैं इस्राएलियों को इस देष से निकाल दूँगा, जिसे मैंने उन्हें दिया है और मैं इस मन्दिर को त्याग दूँगा, जिसका मैंने अपने नाम के लिए प्रतिष्ठान किया है। सब राष्ट्र इसकी निन्दा और उपहास करेंगे।
21) यद्यपि यह मन्दिर अब बहुत भव्य है, फिर भी प्रत्येक व्यक्ति, जो उसके पास से गुजरेगा, चकित रह जायेगा और कहेगा, ÷प्रभु ने इस देष और इस मन्दिर के साथ ऐसा क्यों किया?'
22) और उसे उत्तर मिलेगा, ÷उन्होंने प्रभु, अपने पूर्वजों के ईष्वर का परित्याग किया, जो उनके पूर्वजों को मिस्र से निकाल लाया था और उन्होंने अन्य देवताओं को अपना कर उनकी आराधना और सेवा की है। इसलिए प्रभु ने उन पर ये विपत्तियाँ ढाहीं।''

अध्याय 8

1) सुलेमान ने बीस वर्ष बाद, जिन में उसने प्रभु का मन्दिर और अपना महल बनाया था,
2) उन नगरों का पुनर्निर्माण किया, जिन्हें हूराम ने उसे लौटा दिया था। उसने उन में इस्राएलियों को बसाया।
3) सुलेमान सोबा के हमात गया और उसने उसे अपने अधिकार में ले लिया।
4) उसने उजाड़खण्ड में अवस्थित तदमोर और उन सब भण्डार-नगरों का पुनर्निर्माण कराया, जिन्हें उसने हमात में बनवाया था।
5) फिर उसने निचले और ऊपरी बेत-हारोन को चारदीवारी, फाटक और अर्गलाओं से सुदृढ़ बनवाया।
6) उसने बालात का, अपने सब भण्डार-नगरों का और रथों और घुड़सवारों के लिए सब रक्षक-नगरों का पुनर्निर्माण कराया। इसके अतिरिक्त सुलेमान येरुसालेम, लेबानोन और अपने राज्य भर में जो बनवाना चहता था, उसने वह सब पूरा किया।
7) गैर-इस्राएली हित्तियों, अमोरियों, परिज्जियों, हिव्वियों और यबूसियों में से जो शेष रह गये थे,
8) अर्थात् उनके वंषज जो अब तक देष में रह रहे थे और जिनका विनाष इस्राएली नहीं कर पाये थे- उन सब से सुलेमान बेगार लेता था और आज भी ली जाती है।
9) इस्राएलियों में सुलेमान किसी से बेगार नहीं लेता था, क्योंकि वे उसके सैनिक, उसके सेनापति, उसके रथों और घुड़सवारों के अध्यक्ष थे।
10) सुलेमान के निर्माण-कार्यों के निरीक्षक साढ़े-पाँच सौ उच्चाधिकारी थे, जो काम करनेवाले लोगों पर निगरानी करते थे।
11) सुलेमान फ़िराउन की पुत्री को दाऊदनगर से उस महल में ले आया, जिसे उसने उसके लिए बनवाया था। उसका कहना था, ''इस्राएल के राजा दाऊद के महल में कोई स्त्री न रहे; क्योंकि हर वैसी जगह पवित्र है, जिस में प्रभु की मंजूषा रह चुकी है''।
12) तब सुलेमान ने प्रभु की उस वेदी पर, जिसे उसने मण्डप के सामने बनवाया था, प्रभु को होम-बलियाँ चढ़ायीं।
13) उसने मूसा के आज्ञानुसार प्रतिदिन के निर्धारित चढ़ावे अर्पित किये, अर्थात् उसने विश्राम-दिवसों, अमावस के दिनों और साल भर के तीनों पर्वों पर-बेख़मीरी रोटियों के, सप्ताहों के और षिविर -पर्व पर-ऐसा किया।
14) उसने अपने पिता दाऊद के आदेषानुसार सेवा करने के लिए याजकों के दल निर्धारित किये। उसने प्रतिदिन की आवष्यकता के अनुसार लेवियों को भी नियुक्त किया, जिससे वे स्तुतिगान और याजकों के साथ सेवा करें। उसने प्रत्येक फाटक के लिए अपने दलों के अनुसार द्वारपाल भी नियुक्त किये, क्योंकि ईष्वर-भक्त दाऊद ने ऐसा आदेष दिया था।
15) याजकों और लेवियों ने हर बात में और भण्डारों के विषय में राजा दाऊद के आदेषों का पालन किया।
16) इस प्रकार प्रभु के मन्दिर की नींव डालने से ले कर उसके निर्माण की समाप्ति तक सुलेमान का कार्य पूरा किया गया।
17) इसके बाद सुलेमान एस्योन-गेबेर और एलत गया, जो एदोम देष में समुद्र के किनारे है।
18) हूराम ने अपने नौकरों द्वारा उसे जहाज और निपुण नाविक भेजे। वे सुलेमान के सेवकों के साथ ओफ़िर गये और वहाँ से राजा सुलेमान के लिए साढ़े चार सौ मन सोना लाये।

अध्याय 9

1) जब शेबा की रानी ने सुलेमान की कीर्ति के विषय में सुना, तो वह पहलियों द्वारा उसकी परीक्षा लेने येरुसालेम आयी। वह एक बडे कारवाँ और ऊँटों के साथ आयी, जिन पर सुगन्धित रत्न लदे हुए थे।
2) उसने सुलेमान के पास पहुँच कर अपने मन में जो कुछ था, वह सब सुलेमान को बताया। सुलेमान ने उसके सभी प्रष्नों का उत्तर दिया - उन में एक भी ऐसा नहीं निकला, जिसका सुलेमान सन्तोषजनक उत्तर नहीं दे सका।
3) जब शेबा की रानी ने सुलेमान की प्रज्ञा, उसके द्वारा निर्मित भवन,
4) उसकी मेज के भोजन, उसके साथ खाने वाले दरबारियों, उसके सेवकों की परिचर्या और परिधान, उसके मदिरा पिलाने वालों और प्रभु के मन्दिर में उसके द्वारा चढ़ायी हुई होम-बलियों को देखा, तो उसके होष उड़ गये।
5) उसने राजा से यह कहा, ''मैंने अपने देष में आपके और आपकी प्रज्ञा के विषय में जो चरचा सुनी थी, वह सच है।
6) जब तक मैंने आ कर अपनी आँखों से नहीं देखा था, तब तक मुझे उस पर विष्वास नहीं था। सच पूछिए, तो मुझे आधा भी नहीं बताया गया था। मैंने जो चरचा सुनी थी, उसकी अपेक्षा आपकी प्रज्ञा और आपका वैभव कहीं अधिक श्रेष्ठ है।
7) धन्य है आपकी प्रजा और धन्य है आपके सेवक, जो आपके सामने उपस्थित रह कर आपकी विवेकपूर्ण बातें सुनते रहते हैं!
8) धन्य है प्रभु, आपका ईष्वर, जिसने आप पर प्रसन्न हो कर आप को अपने सिंहासन पर बैठाया, जिससे आप राजा के रूप में प्रभु, अपने ईष्वर की सेवा करें! आपका ईष्वर इस्राएल को प्यार करता और उसे सदा के लिए बनाये रखना चाहता है, इसलिए उसने आप को न्याय और धार्मिकता से शासन करने के लिए उसका राजा नियुक्त किया है।''
9) इसके बाद उसने राजा को एक सौ बीस मन सोना, बहुत अधिक सुगन्धित द्रव्य और बहुमूल्य रत्न प्रदान किये। शेबा की रानी ने सुलेमान को जैसा सुगन्धित द्रव्य दिया, वैसा कभी नहीं लाया गया।
10) ओफ़िर से सोना ले आने वाले हूराम और सुलेमान के सेवक चन्दन और मणियाँ भी लाते थे।
11) राजा ने चन्दन से प्रभु के मन्दिर और राजमहल के लिए छोटे-छोटे खम्भे बनवाये और गायकों के लिए सितार और सारंगियाँ बनवायीं। इसके पहले ऐसी चीजें यूदा देष में कभी नहीं देखी गयी थी।
12) राजा सुलेमान ने शेबा की रानी को वह सब कुछ दिया, जो वह चाहती थी और जिसके लिए उसने इच्छा प्रकट की। शेबा की रानी सुलेमान के लिए जो सब लायी थी, राजा ने उस को उस से अधिक दिया। इसके बाद वह चली गयी और अपने दलबल के साथ अपने देष लौट गयी।
13) उस सोने का वजन, जो प्रति वर्ष सुलेमान के यहाँ लाया जाता था, छः सौ छियासठ मन था।
14) उस में वह सोना सम्मिलित नहीं है, जो यात्री और व्यापारी ले आते थे। सुलेमान को अरब के सब राजाओं और देष के राज्यपालों से सोना और चाँदी प्राप्त होती थी।
15) राजा सुलेमान ने सोने की दो सौ ढालें बनवायी। प्रत्येक ढाल में छः सौ शेकेल सोना लगा।
16) इसके अतिरिक्त उसने सोने की तीन सौ छोटी ढालें भी बनवायीं। प्रत्येक में डेढ़ सेर सोना लगा। उसने उन्हें लेबानोन के वन-भवन में रखवाया।
17) राजा ने हाथीदाँत का एक बड़ा सिंहासन बनवाया और उसे विषुद्व सोने में मढ़वाया।
18) उस सिंहासन में छः सोपान थे और सोने का पावदान। सिंहासन के दोनों ओर हाथ रखने की पटरियाँ थीं और उनके दोनों ओर एक-एक सिंह।
19) छः सोपानों पर बारह सिंह थे-एक-एक सोपान के दोनों ओर एक-एक सिंह। ऐसा सिंहासन किसी राज्य में कभी नहीं बना था।
20) राजा सुलेमान के पीने के सभी प्याले सोने के थे। लेबानोन के वन-भवन के सब पात्र शुद्ध सोने के थे। सुलेमान के समय में चाँदी का कोई विषेष मूल्य नहीं था।
21) राजा के जहाज हूराम के आदमियों के साथ तरषीष जाते थे। वे तरषीष वाले जहाज प्रति तीन वर्ष लौटते और सोना, चाँदी, हाथीदाँत, बन्दर और मोर लाते थे।
22) इस प्रकार राजा सुलेमान धन-सम्पत्ति और विवेक में पृथ्वी के सभी राजाओं में श्रेष्ठ था।
23) सुलेमान की ईष्वर द्वारा प्रदत्त प्रज्ञा सुनने के लिए सारे संसार के सारे राजा उसके पास आया करते थे।
24) उन में प्रत्येक व्यक्ति प्रति वर्ष भेंट लाता था-चाँदी और सोने के पात्र, वस्त्र, अस्त्र-शस्त्र, गन्धरस, घोडे और खच्चर।
25) सुलेमान के पास घोड़ों और रथों के लिए चार हजार घुड़साल और बारह हजार घुड़सवार थे। वह उन्हें रक्षक-नगरों और अपने पास येरुसालेम में रखता था।
26) सुलेमान फ़रात नदी से ले कर फ़िलिस्तियों के देष तक और मिस्र की सीमा तक सब राजाओं पर शासन करता था।
27) राजा ने येरुसालेम में चाँदी को पत्थर-जैसा सस्ता बना दिया और देवदार को निचले प्रदेष में पाये जाने वाले गूलर-जैसा प्रचूर।
28) सुलेमान के लिए मिस्र और अन्य अनेक देषों से घोड़े लाये जाते थे।
29) आरम्भ से अन्त तक सुलेमान का शेष इतिहास नबी नातान के इतिहास-ग्रन्थ, षिलोवासी अहीया की भविष्यवाणियों के ग्रन्थ और नबाट के पुत्र यरोबआम के विषय में लिखित दृष्टा येदो के ग्रन्थों में लिपिबद्व है।
30) सुलेमान ने येरुसालेम में चालीस वर्ष तक समस्त इस्राएल पर राज्य किया।
31) इसके बाद वह अपने पितरों से जा मिला। उसे अपने पिता दाऊद के नगर में दफ़नाया गया। उसका पुत्र रहबआम उसके स्थान पर राजा बना।

अध्याय 10

1) रहबआम सिखेम गया, क्योंकि सभी इस्राएली उसे राजा बनाने के लिए सिखेम में एकत्रित हो रहे थे।
2) नबाट के पुत्र यरोबआम को भी इसकी सूचना मिली, तो वह मिस्र से लौटा। वह अब तक मिस्र में रह रहा था, जहाँ वह राजा सुलेमान से भाग कर गया था।
3) लोगों ने उसे वहाँ से बुलवाया। यरोबआम और इस्राएल का सारा समुदाय रहबआम से बोला,
4) ''आपके पिता ने हमारे कन्धे पर भारी जुआ रख दिया था। आप अपने पिता की कठोर बेगार और हमारे कन्धे पर रखे उसके भारी जुए को हल्का करें और हम आपकी सेवा करेंगे।''
5) उसने उन्हें उत्तर दिया, ''तीन दिन बाद फिर मुझ से मिलने आओ''। तब लोग चले गये।
6) अब राजा रहबआम ने उन बड़े-बूढ़ों से परामर्ष किया, जो उसके पिता सुलेमान के राज्यकाल में उसके यहाँ सेवा करते थे। उसने पूछा, ''आप लोगों की राय क्या है? मैं उन लोगों को क्या उत्तर दूँ?''
7) उन्होंने उस से कहा, ''यदि आप अब उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करेंगे, उनकी बात मानेंगे और उन्हें अनुकूल उत्तर देंगे, तो वे सदा आपके सेवक बने रहेंगे''
8) लेकिन उसने बड़े-बूढ़ों की राय पर ध्यान नहीं दिया और उन युवकों से सलाह ली, जो उसके समवयस्क और उसके सेवक थे।
9) उसने उन से पूछा, ''तुम लोगों की राय क्या है? मैं लोगों को क्या उत्तर दूँ, जो मुझ से कहते हैं-आपके पिता ने हम पर जो जुआ रखा, उसे हलका करें?''
10) उन युवकों ने, जो उसके समवयस्क थे, उसे यह उत्तर दिया, ''जो लोग आप से कहते हैं-आपके पिता ने हम पर भारी जुआ रखा, आप हमारा जुआ हलका कर दें, आप इन लोगों को यह उत्तर दें- मेरी छोटी उँगली मेरे पिता की कमर से भी अधिक मोटी है!
11) मेरे पिता ने तुम पर भारी जुआ रखा। मैं तुम्हारा जुआ और भारी करूँगा। मेरे पिता तुम्हें कोड़ों से पिटवाते थे। मैं कील-लगे कोड़ों से पिटवाऊँगा।''
12) राजा ने आज्ञा दी थी कि तीसरे दिन फिर से मेरे पास आ जाना; इसलिए यरोबआम और सब लोग तीसरे दिन रहबआम के पास लौटे।
13) राजा रहबआम ने उन्हें कठोर उत्तर दिया। राजा रहबआम ने नेताओं की राय की अवहेलना कर,
14) युवकों की राय के अनुसार उन को उत्तर देते हुए कहा, ''मेरे पिता ने तुम लोगों पर भारी जुआ रख दिया। मैं उसे और भारी करूँगा। मेरे पिता ने तुम्हें कोड़ों से पिटवाया। मैं तुम्हें कीले-लगे कोड़ों से पिटवाऊँगा।''
15) इस प्रकार राजा ने लोगों की माँग पर कुछ ध्यान नहीं दिया; क्योंकि यह ईष्वर की लीला थी, जिससे षिलो के माध्यम से नबाट के पुत्र यरोबआम के प्रति प्रभु की वाणी पूरी हो जाये।
16) जब सब इस्राएलियों ने देखा कि राजा हमारी नहीं सुनता, तो उन्होंने राजा को उत्तर दिया, ''दाऊद से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं। यिषय के पुत्र के साथ हमारा कुछ लेना-देना नहीं। इस्राएलियों! तुम अपने घर लौट जाओ। दाऊद! तुम अपना घर सॅँभालों!'' इस पर सभी इस्राएली अपने-अपने घर चले गये।
17) रहबआम केवल उन इस्राएलियों का राजा रह गया, जो यूदा के नगरों में रहते थे।
18) जब राजा रहबआम ने बेगार के अध्यक्ष अदोराम को भेजा, तो इस्राएली उसे तब तक पत्थर मारते रहे, जब तक उसकी मृत्यु नहीं हो गयी। राजा रहबआम शीघ्र ही अपने रथ पर सवार हो कर येरुसालेम भाग निकला।
19) इस प्रकार इस्राएल दाऊद के घराने से अलग हो गया और आज तक ऐसा ही है।

अध्याय 11

1) जब रहबआम येरुसालेम आया, तो उसने यूदा और बेनयामीन वंष के एक लाख अस्सी हजार चुने हुए योद्धाओं को एकत्रित किया, जिससे वे इस्राएल से लड़ कर रहबआम के लिए राज्य फिर प्राप्त करें।
2) लेकिन प्रभु की वाणी ईष्वर-भक्त शमाया को यह कहते हुए सुनाई पड़ी,
3) ''सुलेमान के पुत्र, यूदा के राजा रहबआम तथा यूदा और बेनयामीन के सब इस्राएलियों से कहो-
4) प्रभु का कहना है कि तुम अपने भाई-बन्धु इस्राएलियों से लड़ने मत जाओ। प्रत्येक अपने घर वापस चला जाये; क्योंकि राज्य के विभाजन में मेरा हाथ है।'' उन्होंने प्रभु की वाणी पर ध्यान दिया और वे यरोबआम के विरुद्व लड़ने नहीं गये।
5) रहबआम येरुसालेम में रहने लगा और उसने यूदा और
6) बेनयामीन में इन क़िलाबन्द नगरों का निर्माण किया- बेथलेहेम, एताम, तकोआ,
7) बेत-सूर, सोको, अदुल्लाम,
8) गत, मारेषा, जीफ़,
9) अदोरईम, लाकीष, अजेका,
10) सोरआ, अय्यालोन और हेब्रोन।
11) उसने उनके क़िलों को सुदृढ़ बनाया, उन पर अध्यक्षों को नियुक्त किया और उन में रसद, तेल और अंगूरी के भण्डार रखवाये।
12) प्रत्येक नगर में ढालें और भाले रखे गये। उसने उन्हें अत्यन्त सुदृढ़ बनाया। इस प्रकार यूदा और बेनयामीन उसके वंष में रहे।
13) इस्राएल भर के याजक और लेवी उसका समर्थन करते थे। वे जहाँ-जहाँ रहते थे, वहाँ-वहाँ उसे उसके पास आये;
14) क्योंकि लेवी लोग अपने-अपने चरागाह और भूमि छोड़ कर यूदा और येरुसालेम आने लगे थे। कारण यह था कि यरोबआम और उसके पुत्रों ने उन्हें प्रभु के याजक-पद से हटा दिया था।
15) यरोबआम ने पहाड़ी पूजास्थानों और अपने द्वारा बनवायी अज और बछड़े की मूर्तियों की सेवा के लिए अपने याजकों को नियुक्त किया।
16) सब वंषों के लोग, जिन्होंने प्रभु, इस्राएल के ईष्वर की ही उपासना करने का संकल्प किया, प्रभु, अपने पूर्वजों के ईष्वर को बलिदान चढ़ाने उन याजकों और लेवियों के पीछे-पीछे येरुसालेम आये।
17) उन लोगों ने यूदा के राज्य को सुदृढ़ किया और तीन वर्ष तक सुलेमान के पुत्र रहबआम का समर्थन करते रहे; क्योंकि वह तीन वर्ष तक दाऊद और सुलेमान के मार्ग पर चलता रहा।
18) रहबआम ने महलत से विवाह किया। दाऊद का पुत्र यरीमोत उसका पिता था और यिषय के पुत्र एलीआब की बेटी अबीहैल उसकी माता थी।
19) उस पत्नी से उसके ये पुत्र हुएः
20) यऊष, शमार्या और जाहम। इसके बाद उसने अबसालोम की पौत्री माका से विवाह किया। उस से उसके ये पुत्र हुएः अबीया, अत्तय, जीजा और शलोमीत।
21) रहबआम अपनी अन्य पत्नियों और उपपत्नियों से अबसालोम की पौत्री माका को अधिक चाहता था। उसके अठारह पत्नियाँ और साठ पुत्रियाँ।
22) रहबआम ने माका के पुत्र अबीया को अपने भाइयों के ऊपर युवराज नियुक्त किया, क्योंकि वह उसे राजा बनाना चाहता था।
23) उसने समझदारी से काम किया और अपने सब पुत्रों को यूदा और बेनयामीन के सब प्रान्तों में तथा सब क़िलाबन्द नगरों में रख कर अलग-अलग कर दिया। उसने उन्हें प्रचुर मात्रा में रसद दिया और बहुत-सी पत्नियों से उनका विवाह किया।

अध्याय 12

1) जब रहबआम का राज्य सुदृढ़ हो गया और वह स्वयं शक्तिषाली बन गया, तो उसने और उसके साथ समस्त इस्राएल ने प्रभु की संहिता का पालन करना छोड़ दिया।
2) राजा रहबआम के पाँचवें वर्ष मिस्र के राजा शीषक ने येरुसालेम पर आक्रमण किया; क्योंकि लोगों ने प्रभु के साथ विष्वासघात किया था।
3) वह बारह सौ रथ, साठ हजार घुड़सवार और मिस्र से लीबियावासियों, सुक्कियों और कूषियों की एक विषाल सेना ले कर आया।
4) उसने यूदा के क़िलाबन्द नगर अपने अधिकार में कर लेने के बाद येरुसालेम पर आक्रमण किया।
5) तब नबी शमाया रहबआम और यूदा के नेताओं के पास आया, जो शीषक से भयभीत होने के कारण येरुसालेम में जमा थे और उसने उन से कहा, ''प्रभु का यह कहना है कि तुम लोगों ने मुझे त्याग दिया है, इसलिए मैं तुम्हें शीषक के हाथ दे रहा हूँ''।
6) यह सुन कर इस्राएल के नेताओं और राजा ने दीनतापूर्वक कहा, ''प्रभु न्यायी है''।
7) जैसे ही प्रभु ने देखा कि वे दीन हो गये हैं, शमाया को प्रभु की यह वाणी सुनाई पड़ी, ''वे दीन हो गये हैं, इसलिए मैं उन्हें नष्ट नहीं करूँगा। मैं उनका उद्धार करूँगा। येरुसालेम पर शीषक के माध्यम से मेरा क्रोध नहीं भड़केगा,
8) किन्तु वे उसके अधीन हो जायेंगे, जिससे वे जान जायें कि मेरी सेवा और अन्य देषों के राज्यों की सेवा में क्या अन्तर है!''
9) मिस्र के राजा शीषक ने येरुसालेम पर आक्रमण किया। उसने प्रभु के मन्दिर और राजभवन के ख़जाने लूट लिये। उसने सब कुछ छीन लिया-सोने की उन ढालों को भी, जिन्हें सुलेमान ने बनवाया था।
10) राजा रहबआम ने उनकी जगह काँसे की ढालें बनवायीं और उन्हें उन अंगरक्षकों के अध्यक्षों को सौंपा, जो राजभवन के द्वार पर पहरा देते थे।
11) जब-जब राजा प्रभु के मन्दिर जाता था, अंगरक्षक उन्हें हाथ में लिये रहते और उसके बाद वे उन्हें रक्षकों के कमरे में ले जा कर रख देते।
12) चूँकि रहबआम ने नम्रता दिखयी, इसलिए प्रभु का कोप उस पर से हट गया और उसने पूरा विनाष नहीं किया; क्योंकि यूदा में शुभ कार्य भी होते रहते थे।
13) राजा रहबआम येरुसालेम में शक्तिषाली हो कर राज्य करता रहा। जब वह राजा बना, तो उसकी अवस्था इकतालीस वर्ष थी। उसने येरुसालेम में सत्रह वर्ष शासन किया- उस नगर में, जिसे प्रभु ने इस्राएल के सब वंषों में से अपने नाम की प्रतिष्ठा के लिए चुना था। उसकी माता का नाम नामा था, जो अम्मोनी जाति की थी।
14) उसने वही किया, जो प्रभु की दृष्टि में बुरा है; क्योंकि उसने सारे हृदय से प्रभु की खोज नहीं की।
15) प्रारम्भ से अन्त तक रहबआम का इतिहास नबी शमाया और द्रष्टा इद्दो के इतिहास-ग्रन्थ में लिखा है। रहबआम और यरोबआम में सदा युद्ध होता रहा।
16) रहबआम अपने पितरों से जा मिला और दाऊदनगर में दफ़ना दिया गया। उसका पुत्र अबीया उसकी जगह राजा बना।

अध्याय 13

1) राजा यरोबआम के शासन के अठारहवें वर्ष अबीया यूदा का राजा बना।
2) उसने येरुसालेम में तीन वर्ष तक शासन किया। उसकी माता का नाम मीकायाह था, जो गिबआवास ऊरीएल की पुत्री थी। अबीया और यरोबआम में युद्ध होता रहा।
3) अबीया ने चार लाख चुने हुए वीर योद्धाओं की एक सेना ले कर युद्ध प्रारम्भ किया और उधर यरोबआम आठ लाख चुने हुए वीर योद्धाओं के साथ उसका सामना करने आया।
4) अबीया ने एफ्रईम के पहाड़ी प्रदेष के समारईम नामक पर्वत पर खड़ा हो कर पुकारा, ''यरोबआम और सभी इस्राएलियों! मेरी बात सुनो।
5) क्या तुम्हें मालूम नहीं कि प्रभु, इस्राएल के ईष्वर ने एक चिरस्थायी विधान के अनुसार दाऊद और उसके वंषजों को सदा के लिए इस्राएल पर शासन करने का वरदान दिया है?
6) किन्तु नबाट के पुत्र यरोबआम ने, जो दाऊद के पुत्र सुलेमान का सेवक था, अपने स्वामी के विरुद्व विद्रोह किया।
7) उस से कुछ गुण्डे आ मिले थे और वे सुलेमान के पुत्र रहबआम पर हावी हो गये। उस समय रहबआम छोटा और ढुलमुल था। वह उनका सामना न कर पाया।
8) अब तुम लोग यह सोचते हो कि तुम प्रभु के राज्यपद का सामना कर सकते हो, क्योंकि तुम बहुसंख्यक हो और तुम्हारे साथ वे सोने के बछड़े हैं, जिन्हें यरोबआम ने तुम्हारे देवताओं के रूप में बनवाया है।
9) क्या तुमने प्रभु के हारूनवंषी याजकों और लेवियों को नहीं भगा दिया है और अपने लिए याजक नियुक्त नहीं किये हैं, जैसे अन्य जातियों के लोग करते हैं? जो भी एक बछड़ा और सात मेढ़े ले कर याजक बनने आ जाता, वह उन देवों का याजक हो जाता, जो कि ईष्वर नहीं हैं।
10) लेकिन हमारा ईष्वर प्रभु ही है। हमने उसका परित्याग नहीं किया। हारून के वंषज प्रभु के लिए याजकीय सेवा करते हैं और लेवी अपना-अपना काम करते हैं।
11) वे प्रति प्रातः और सन्ध्या प्रभु को सुगन्धित द्रव्य के साथ होम-बलि चढ़ाते हैं। वे शुद्ध सोने की मेज पर रोटियाँ रखते और हर सन्ध्या को सोने के दीपवृक्ष के दीपक जलाते हैं। हम तो प्रभु, अपने ईश्वर की सेवा करते हैं और तुमने उसे त्याग दिया है।
12) देखों, ईष्वर, हमारा स्वामी, हमारे साथ हैं। उसके याजक हमारे साथ हैं, जो तुम्हारे विरुद्ध युद्ध की तुरहियाँ बजाने वाले हैं। इस्राएलियों! प्रभु, अपने पूर्वजों के ईष्वर के विरुद्ध युद्ध मत करो, क्योंकि तुम सफल नहीं होगे।''
13) यरोबआम ने घात में बैठे हुए आदमियों को आज्ञा दी कि वे चक्कर लगा कर शत्रुओं के पीछे पहुँचें। वह स्वयं यूदा के सामने था और घात में बैठे हुए आदमी उनके पीछे।
14) यूदा ने मुड़ कर देखा कि सामने और पीछे उन पर आक्रमण हो रहा है। उन्होंने प्रभु की दुहाई दी और याजक तुरहियाँ बजाने लगे।
15) यूदा के लोगों ने युद्ध के लिए ललकारा और तब उन्होंने ललकारा, तो ईष्वर ने अबीया और यूदा के सामने सारे इस्राएल को पराजित किया।
16) इस्राएलियों को यूदा के सामने से भागना पड़ा। ईष्वर ने उन्हें उसके हाथ दे दिया।
17) अबीया और उसके आदमियों ने उन्हें बुरी तरह पराजित किया। इस्राएलियों के पाँच लाख चुने हुए योद्धा धराषायी हुए।
18) उस समय इस्राएलियों को नीचा दिखाया गया और यूदा के लोग विजयी हुए; क्योंकि उन्होंने प्रभु, अपने पूर्वजों के ईष्वर पर भरोसा रखा था।
19) अबीया ने यरोबआम का पीछा किया और उस से ये नगर छीन लिये : बेतेल और उसके आसपास के गाँव, यषाना और उसके आसपास के गांँव तथा एफ्रोन और उसके आसपास के गँाव।
20) जब तक अबीया जीवित रहा, यरोबआम अपना सिर फिर नहीं उठा सका। प्रभु ने उस पर आघात किया और उसकी मृत्यु हो गयी।
21) उधर अबीया शक्तिषाली हो गया। उसने चौदह स्त्रियों से विवाह किया और उसके बाईस पुत्र और सोलह पुत्रियाँ हुई।
22) अबीया का शेष इतिहास, उसका चरित और कार्यकलाप नबी इद्दो के व्याख्या-ग्रन्थ में लिखा है।
23) अबीया अपने पितरों से जा मिला और दाऊदनगर में दफ़नाया गया। उसका पुत्र आसा उसकी जगह राजा बना। उसके शासनकाल में दस वर्ष तक देष में शान्ति रही।

अध्याय 14

1) आसा ने वही किया, जो प्रभु, उसके ईष्वर की दृष्टि में अच्छा और उचित था।
2) उसने परायी वेदियों और पहाड़ी पूजा-स्थान हटा दिये, पूजा-स्तम्भ चूर-चूर कर दिये, अषेरा-देवी के खूँटे काट डाले
3) और यूदा को आषा दी कि वे प्रभु, अपने पूर्वजों के ईष्वर की ओर अभिमुख हों और संहिता तथा आज्ञाओं का पालन करें।
4) उसने यूदा के सब नगरों से पहाड़ी पूजास्थान हटा दिये और ध्ूाप की वेदियाँ भी। उसके शासनकाल में राज्य भर में शान्ति रही।
5) उसने यूदा में क़िलाबन्द नगर बनवाये, क्योंकि देष में शान्ति थी। उन दिनों उसके विरुद्ध कोई युद्ध नहीं हुआ। प्रभु ने उसे शान्ति प्रदान की।
6) उसने यूदा से कहा, ''हम इन नगरों का पुनर्निर्माण करें। इन्हें दीवारों, बुजोर्ं, फाटकों और अर्गलाओं से सुसज्जित करें। अब देष हमारा है, क्योंकि हम प्रभु, अपने ईष्वर की खोज में लगे रहे और उसने हमारे चारों ओर शान्ति बनाये रखी।'' अतः वे निर्माण करने लगे और उन्हें सफलता मिली।
7) आसा की यूदा वाली सेना में तीन लाख सैनिक थे, जो ढालों और बर्छो से सुसज्जित थे और उसकी बेनयामीन वाली सेना में दो लाख अस्सी हजार धनुर्धारी सैनिक थे, जो छोटी ढालों से सुसज्जित थे। वे सभी वीर योद्धा थे।
8) कूष के जेरह ने दस लाख की एक सेना और तीन सौ रथ ले कर उन पर आक्रमण किया। वह मारेषा तक आ गया।
9) तब आसा उसका सामना करने के लिए निकला और मारेषा के पास सापता-घाटी में व्यूह रचना की।
10) आसा ने प्रभु, अपने ईष्वर की दुहाई देते हुए कहा, ''प्रभु यदि एक बलषाली और एक बलहीन के बीच युद्ध होता, तो तेरे सिवा कोई सहायता नहीं कर सकता। प्रभु! हमारे ईष्वर हमारी सहायता कर, क्योंकि हम तुझ पर भरोसा रखते हैं। हम तेरा नाम लेकर इस विषाल जन समूह का सामना कर रहे हैं। प्रभु! तू ही हमारा ईष्वर है। तुझ पर कोई मनुष्य विजयी न हो।''
11) प्रभु ने आसा और यूदा के सामने कूषियों को पराजित किया और उन्हें भागना पड़ा।
12) आसा ने अपने सैनिकों के साथ गरार तक उनका पीछा किया। कूषी इस प्रकार मारे गये कि उन में एक भी जीवित नहीं बचा। वे प्रभु और उसकी सेना द्वारा रौंदे गये। आसा के सैनिकों को लूट का बहुत माल मिला।
13) उन्होंने गरार के आसपास के सब नगरों का विनाष किया, क्योंकि उन पर प्रभु का आतंक छा गया था। उन्होंने उन सब को लूट लिया था, क्योंकि उन नगरों में लूट का बहुत-सा माल था।
14) वे पशुपालन करने वालों के तम्बू उखाड़ कर असंख्य भेड़-बकरी और ऊँट लूट कर ले गये।

अध्याय 15

1) ओदेद का पुत्र अजर्या ईश्वर के आत्मा से आविष्ट हो कर
2) आसा की अगवानी करने निकला और उस से बोला, ''आसा और समस्त यूदा और बेनयामीन! मेरी बात सुनिए। प्रभु आपके साथ होगा, यदि आप उसके साथ होंगे। यदि आप उसे ढूँढेंगे, तो वह आप को मिलेगा। यदि आप उसे त्यागेंगे, तो वह भी आप को त्याग देगा।
3) इस्राएली बहुत समय तक बिना सच्चे ईष्वर के, बिना षिक्षा देने वाले याजकों के और बिना संहिता के रहे हैं।
4) वे विपत्ति में पड़ कर प्रभु, इस्राएल के ईष्वर की ओर अभिमुख हुए; उन्होंने उसे ढूँढ़ा और वह उन्हें मिला।
5) उस समय कोई यात्री सुरक्षित नहीं था, क्योंकि इन प्रदेषों के निवासियों में बहुत अशान्ति थी।
6) एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र से और एक नगर दूसरे नगर से लड़ता था, क्योंकि ईष्वर ने उन पर हर प्रकार की विपत्ति ढाही थी।
7) किन्तु आप सुदृढ़ बने रहें और हाथ-पर-हाथ धरे मत बैठें, क्योंकि आप को अपने परिश्रम का फल मिलेगा।''
8) जब आसा ने ये शब्द और ओदेह के पुत्र नबी अजर्या की भविष्यवाणी सुनी, तो उसे साहस मिला और उसने यूदा के सारे देष से, बेनयामीन और एफ्रईम के पहाड़ी प्रान्त में, अपने अधिकार में किये हुये नगरों से घृणित देवमूर्तियों को हटा दिया। उसने प्रभु के मण्डप के सामने अवस्थित प्रभु की वेदी का पुनर्निर्माण किया।
9) तब उसने सारे यूदा और बेनयामीन के सभी निवासियों को एकत्रित किया और एफ्रईम मनससे और सिमओन से आये हुए लोगों को भी; क्योंकि इस्राएल के बहुत-से लोग यह देख कर उसकी शरण में आये थे कि प्रभु, उसका ईष्वर उसके साथ है।
10) वे आसा के शासनकाल के पन्द्रहवें वर्ष के तीसरे महीने में येरुसालेम में एकत्रित हुए।
11) उन्होंने उसी दिन लूट के माल से सात सौ बछड़ों और सात हजार भेड़ों की बलि चढ़ायी।
12) उन्होंने यह प्रतिज्ञा की कि वे अपने सारे हृदय और सारी आत्मा से प्रभु, अपने पूर्वजों के ईष्वर की ओर अभिमुख रहेंगे।
13) जो प्रभु, इस्राएल के ईष्वर की ओर अभिमुख न हो, वह मार डाला जाये-चाहे वह छोटा हो या बड़ा, पुरुष हो या स्त्री।
14) उन्होंने तुरहियाँ और नरसिंगे बजाते हुए ऊँचे स्वर से प्रभु की शपथ ली और समस्त यूदा उस शपथ के कारण आनन्दित हुआ।
15) उन्होंने सारे हृदय से यह शपथ ली थी और वे पूरे मन से प्रभु को ढूँढते रहे, इसलिए उन्हें प्रभु मिला और प्रभु ने उन्हें चारों ओर शान्ति प्रदान की।
16) राजा आसा ने अपनी दादी माता को राजमाता के पद से हटा दिया, क्योंकि उसने घृणित अषेरा-देवी का खूँट बनवाया था। उसने उसके द्वारा स्थापित घृणित मूर्ति काट दी, उसे चूर-चूर कर दिया और केद्रोन घाटी में जलवा दिया।
17) केवल पहाड़ी पूजास्थान नष्ट नहीं किये गये। फिर भी आसा का हृदय जीवन भर प्रभु के प्रति ईमानदार रहा।
18) उसने अपने पिता के और अपने चढ़ावे प्रभु के मन्दिर में रखवाये-चाँदी, सोना और पात्र।
19) आसा के शासनकाल के पैंतीसवें वर्ष तक कोई युद्व नहीें हुआ।

अध्याय 16

1) आसा के शासनकाल के छत्तीसवें वर्ष इस्राएल के राजा बाषा ने यूदा पर आक्रमण किया। उसने रामा को क़िलाबन्द कर दिया, जिससे यूदा के राजा आसा की ओर से न कोई उसके यहाँ आ सके और न इधर से कोई जा सके।
2) तब आसा ने दमिष्कवासी अराम के राजा बेन-हदद के यहाँ प्रभु के मन्दिर और अपने महल के कोषागारों का चाँदी-सोना अपने सेवकों द्वारा यह कहते हुए भेजा,
3) ''मुझ में और आप में, मेरे पिता और आपके पिता में सन्धि है। देखिए, मैं आपके पास चाँदी ओर सोना भेजा रहा हूँ। अब इस्राएल के राजा बाषा से अपनी सन्धि तोड़ डालिए, जिससे वह मुझ पर और आक्रमण नहीं करें।''
4) बेन-हदद ने राजा आसा की बात मान ली। उसने अपने सेनापतियों को इस्राएल के नगरों पर आक्रमण करने भेजा और उन्होंने इय्योन, दान, आबेल-मैम और नफ्ताली प्रान्त के सब भण्डार-नगर अपने अधिकार में कर लिये।
5) यह सुन कर बाशा ने रामा को क़िलाबन्द करने का काम रोक दिया
6) अब राजा आसा ने सभी यूदावंषियों को बुलवाया और वे बाषा द्वारा रामा में एकत्रित सब पत्थर और लकड़ी ले गये। इन से आसा ने गेबा ओर मिस्पा को क़िलाबन्द करवाया।
7) उस समय द्रष्टा हनानी ने यूदा के राजा आसा के पास आ कर कहा, ''आपने अराम के राजा पर भरोसा रखा और प्रभु, अपने ईष्वर पर नहीं। इसलिए अराम के राजा की सेना आपके हाथ से निकल गयी।
8) क्या कूषियों और लीबिया वालों के पास एक विषाल सेना नहीं थी और उस में बड़ी संख्या में रथ और घुड़सवार नहीं थे? फिर भी प्रभु ने उन्हें आपके हाथ दे दिया, क्योंकि आपने उस पर भरोसा रखा।
9) प्रभु समस्त पृथ्वी पर दृष्टि दौड़ाता है, जिससे वह उन लोगों की सहायता करे, जो सारे हृदय से उस पर भरोसा रखते हैं। आपने इस विषय में मूर्खतापूर्ण काम किया। अब से आपके विरुद्ध युद्व होता रहेगा।''
10) यह सुन कर आसा क्रुद्व हो गया और उसने उस द्रष्टा को बन्दीगृह में डाल कर उसे काठ की बेड़ियाँ पहना दीं; क्योंकि उसे इस बात पर भारी क्रोध हुआ था। उस समय आसा ने प्रजा के अनेक लोगों पर अत्याचार किया।
11) आरम्भ से अन्त तक आसा का इतिहास यूदा और इस्राएल के राजाओं के ग्रन्थ में लिखा है।
12) उसके शासनकाल के उनतालीसवें वर्ष आसा के पाँवों में बीमारी हो गयी। वह बीमारी बड़ी भयानक थी। वह उस बीमारी में भी प्रभु के पास नहीं गया, बल्कि वैद्यों के पास गया।
13) अपने शासनकाल के इकतालीसवें वर्ष आसा की मृत्यु हो गयी और वह अपने पितरों से जा मिला।
14) उसे उस क़ब्र में दफ़नाया गया, जिसे उसने अपने लिए दाऊदनगर में बनवाया था। वह एक ऐसी अर्थी पर लिटाया गया, जिस पर सुगन्धित द्रव्य, इत्र, लेप, उबटन आदि लगे थे। उसके सम्मान में एक विषाल आग जलायी गयी।

अध्याय 17

1) आसा के स्थान पर उसका पुत्र यहोषाफ़ाट राजा बना। वह इस्राएल के विरुद्ध शक्तिषाली होता गया।
2) उसने यूदा के सब क़िलाबन्द नगरों में सैनिक रखे और यूदा में और एफ्रईम के उन नगरों में, जिन्हें उसके पिता आसा ने छीन लिया था, रक्षक सेना रखी।
3) प्रभु यहोषाफ़ाट के साथ था, क्योंकि वह उस मार्ग पर चलता था, जिस पर उसका पूर्वज दाऊद पहले चला था। वह बाल-देवताओं की नहीं,
4) बल्कि अपने पिता के ईष्वर की उपासना करता था। वह प्रभु की आज्ञाओं का पालन करता और इस्राएल के कार्यों का अनुसरण नहीं करता था।
5) इसलिए प्रभु ने उसके हाथ में राजसत्ता सुदृढ़ की। समस्त यूदा यहोषाफ़ाट को उपहार देने आया। इस प्रकार उसे बहुत धन सम्पत्ति और सम्मान मिला।
6) जैसे-जैसे उसे प्रभु के मार्गों पर चलने का उसका साहस बढ़ता गया, वैसे-वैसे वह पहाड़ी पूजास्थान और अषेरा- देवी के खूँटे यूदा से हटाता गया।
7) उसने अपने शासनकाल के तीसरे वर्ष अपने पदाधिकारी बेन-हाइल, ओबद्या, जकर्या, नतनएल और मीकायाह को भेजा, जिस से वे यूदा के नगरों में लोगों को षिक्षा प्रदान करें।
8) उनके साथ ये लेवी थे : शमाया, नतन्या, जबद्या, असाएल, शमीरामोत, यहोनातान, अदोनीया, टोबीया और टोब- अदोनीया। इन लेवियों के साथ याजक एलीषामा और यहोराम भी थे।
9) वे यूदा में षिक्षा देते थे। उनके साथ प्रभु की संहिता का ग्रन्थ भी था। वे यूदा के सब नगरों में भ्रमण करते हुए लोगों को षिक्षा देते थे।
10) यूदा के आसपास के सभी देषों के राज्यों पर प्रभु का आतंक छाया हुआ था, इसलिए वे यहोषाफ़ाट के विरूद्व युद्ध नहीं करते थे।
11) फ़िलिस्तियों में अनेक यहोषाफ़ाट को उपहार और करस्वरूप चाँदी देते थे। अरबवासियों ने भी उसे सात हजार सात सौ मेढ़े और सात हजार सात सौ बकरे भेजे।
12) इस से यहोषाफ़ाट की शक्ति बढ़ती गयी। उसने यूदा में बुर्ज और भण्डार-नगर बनवाये।
13) यूदा के नगरों में भी भण्डार और येरुसालेम में वीर सैनिक थे।
14) उनके कुटुम्बों के अनुसार उनका क्रम यह था - यूदा से : सहस्रपति मुखिया अदना; उसके साथ तीन लाख वीर योद्धा थे।
15) उसके बाद मुखिया योहानान, जिसके नीचे दो लाख अस्सी हजार योद्धा थे। फिर जिक्री का पुत्र अमस्या, जिसने स्वेच्छा से अपने आपको प्रभु को समर्पित कर दिया था।
16) उसके साथ दो लाख वीर योद्धा थे।
17) बेनयामीन से : वीर एल्यादा; उसके नीचे दो लाख धनुर्धर सैनिक थे, जिनके पास ढालें थीं ;
18) योजाबाद, जिसके नीचे युद्ध के लिए तैयार एक लाख अस्सी हजार आदमी थे।
19) ये सब राजा की सेवा में थे। उनके अतिरिक्त वे भी थे, जिनको राजा ने यूदा भर के दुगोर्ं में रखा था।

अध्याय 18

1) यहोषाफ़ाट को बड़ी धन-सम्पत्ति और सम्मान प्राप्त हुआ। उसने अहाब के परिवार के साथ अपने परिवार का वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया।
2) वह कुछ वर्ष के बाद समारिया में अहाब के यहाँ गया। अहाब ने उसके और उसके साथियों के लिए बड़ी संख्या में भेड़ों और बछड़ों का वध करवाया और उसे गिलआद के रामोत के विरुद्व आक्रमण करने को बहकाया।
3) इस्राएल के राजा अहाब ने यूदा के राजा यहोषाफ़ाट से पूछा, ''क्या आप मेरे साथ गिललाद के रामोत पर आक्रमण करने को तैयार हैं?'' उसने उत्तर दिया, ''आपकी तरह मैं और आपकी प्रजा की तरह मेरी प्रजा आपके साथ लड़ाई में भाग लेने को तैयार है''।
4) यहोषाफ़ाट ने इस्राएल के राजा से कहा, ''पहले प्रभु की आज्ञा ले लीजिए''।
5) इस पर इस्राएल के राजा ने नबियों को, जिनकी संख्या चार सौ थी, एकत्रित किया और उन से पूछा, ''क्या हम गिलआद के रामोत के विरुद्ध युद्ध करने जायें?'' उन्होंने उत्तर दिया, ''जाइए, ईष्वर उसे राजा के हाथ दे देगा।''
6) यहोषाफ़ाट ने कहा, ''क्या यहाँ प्रभु का और कोई नबी नहीं है, जिस से हम पूछ सकें?''
7) इस्राएल के राजा ने यहोषाफ़ाट को उत्तर दिया, ''एक और भी है, जिसके द्वारा हम प्रभु से पूछ सकते हैं; लेकिन मैं उस से घृणा करता हूँ, क्योंकि वह मेरे सम्बन्ध में कभी कोई अच्छी बातें कहता है। वह यिमला को पुत्र मीकयाह है।'' इस पर यहोषाफ़ाट ने कहा, ''राजा को ऐसा नहीं कहना चाहिए''।
8) तब इस्राएल के राजा ने यिमला के पुत्र मीकायाह को शीघ्र बुलाने की किसी पदाधिकारी को आज्ञा दी।
9) जब इस्राएल का राजा और यूदा का राजा अपने-अपने राजकीय वस्त्र पहने अपने-अपने आसनों पर समारिया के फाटक के पास खलिहान में बैठे थे और सब नबी उनके सामने भविष्यवाणी कर रहे थे,
10) तब कनानन के पुत्र सिदकीया ने, जिसने अपने लिए लोहे के सींग बनवाये थे, कहा, ''प्रभु का कहना है कि ऐसे सींगों से ही आप अरामियों को तब तक मारते रहेंगे, जब तक वे नष्ट न हो जायेंगे''।
11) इस प्रकार अन्य सब नबियों ने भविष्यवाणी करते हुए कहा, ''गिलआद के रामोत पर आक्रमण करने के लिए जाइए। आप जिजयी होंगे। प्रभु उसे राजा के हाथ दे देगा।''
12) उस दूत ने, जो मीकायाह को बुलाने गया था, उस से कहा, ''देखिए, सभी नबी एक स्वर से राजा की विजय की भविष्यवाणी कर रहे हैं। आपकी भविष्यवाणी भी उनकी तरह शुभ हो।''
13) परन्तु मीकायाह ने कहा, ''प्रभु की शपथ! मैं तो केवल वही कहूँगा, जो मेरा ईष्वर मुझ से कहेगा''।
14) जैसे ही वह राजा के पास आया, राजा ने उस से पूछा, ''मीकायाह! हम गिलआद के रामोत के विरुद्व लड़ने जायें या नहीं?'' उसने उत्तर दिया, ''जाइए! आप विजयी होंगे। प्रभु उसे आपके हाथ दे देगा।''
15) राजा ने उस से कहा, ''और कितनी बार मुझे आप से कहना पड़ेगा कि प्रभु के नाम पर आप सत्य के सिवा और कुछ न कहें?''
16) तब उसने कहा, ''मैंने सब इस्राएलियों को बिना चरवाहें की भेड़ों की तरह पर्वतों पर इधर-उधर बिखरते देखा; और प्रभु ने कहा, ÷इनका कोई स्वामी नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने घर शान्ति पूर्वक चला जाये'।''
17) तब इस्राएल के राजा ने यहोषाफ़ाट से कहा, ''मैंने तुम से कहा था न कि यह मेरे सम्बन्ध में कभी कोई अच्छी बात नहीं कहता, केवल अषुभ बातें कहता है''।
18) मीकायाह ने कहा, ''अब प्रभु की यह वाणी सुनिए : मैंने प्रभु को उसके सिंहासन पर विराजमान देखा। स्वर्ग के समस्त गण उसके दाहिने और बायें खड़े थे।
19) तब प्रभु ने कहा, ÷इस्राएल के राजा अहाब को कौन बहकायेगा, जिससे वह गिलआद के रामोत तक आये और वहाँ मार डाला जाये?'
20) किसी ने कुछ कहा, किसी ने कुछ। तब प्रभु के सामने एक आत्मा आया और बोला कि मैं ही उसे बहकाऊँगा। प्रभु ने उस से पूछा, ÷कैसे?'
21) उसने उत्तर दिया, ÷मैं जा कर उसके सब नबियों के मुँह में झूठ बोलने वाला आत्मा बनूँगा'। प्रभु ने कहा, ÷तुुम उसे बहका पाओगे, तुम्हें सफलता प्राप्त होगी। जा कर ऐसा करो।'
22) प्रभु ने आपके इन नबियों के मुहँ में झूठ बोलने वाला आत्मा बिठा दिया है; क्योंकि प्रभु ने आपके विषय में अषुभ परिणाम निष्चिय कर दिया है।''
23) इस पर कनाना के पुत्र सिदकीया ने पास आ कर मीकायाह को यह कहते हुए थप्पड़ मारा, ''क्या? क्या प्रभु के आत्मा ने तुम से बोलने के लिए मुझे छोड़ दिया है?''
24) मीकायाह ने उत्तर दिया, ''तुम्हें उस दिन पता चलेगा, जिस दिन तुम स्वयं भीतरी कमरे में छिपने के लिए भाग जाओगे''।
25) इस पर इस्राएल के राजा ने आदेष दिया, ''मीकायाह को पकड़ कर नगर के प्रषासक आमोन और राजकुमार योआष के पास ले जाओ
26) और कहो कि राजा का आदेष है कि इसे बन्दीगृह में डाल दिया जाये और जब तक मैं सकुषल न लौट आऊँ, तब तक उसे जीने भर के लिए रोटी-पानी दिया जाये''।
27) लेकिन मीकायाह ने कहा, ''यदि आप सकुषल लौट आयें, तो समझ लीजिएगा कि मेरे द्वारा प्रभु नहीं बोला है'' और उसने यह भी कहा, ''आप सब लोग मेरी यह बात सुन लीजिए!''
28) इसके बाद इस्राएल का राजा और यूदा का राजा यहोषाफ़ाट गिलआद के रामोत गये।
29) वहाँ इस्राएल के राजा ने यहोषाफ़ाट से कहा, ''मैं अपना वेष बदल कर युद्ध में चल रहा हूँ, लेकिन आप अपने वस्त्र धारण किये रहिए''। इसलिए इस्राएल का राजा अपना वेष बदल कर युद्ध में चला गया।
30) अराम के राजा ने अपनी रथ-सेना के अध्यक्षों से कहा, ''इस्राएल के राजा के सिवा किसी दूसरे छोटे या बडे योद्धा पर आक्रमण मत करो''।
31) जब रथ-सेना के अध्यक्षों ने यहोषाफ़ाट को देखा, तो उन्होंने कहा, ''इस्राएल का राजा यही है'' और वे उसे घेर कर उस पर टूट पड़े। यहोषाफ़ाट चिल्लाने लगा और प्रभु ने उसकी सहायता की। ईष्वर ने लोगों को दूसरी ओर भेजा;
32) क्योंकि जब रथ-सेना के अध्यक्षों को पता चला कि वह इस्राएल का राजा नहीं है, तो उन्होंने उसका पीछा करना छोड़ दिया।
33) एक सैनिक ने अपना धनुष उठा कर यों ही तीर चलाया और वह इस्राएल के राजा के कवच और कमरबन्द के बीच लग गया। तब उसने अपने सारथी को आदेष दिया, ''रथ मोड़ कर मुझे यद्धक्षेत्र के बाहर ले चलो। मैं घायल हो गया हूँ।''
34) जब उस दिन घमासान युद्ध होता रहा, तो राजा को शाम तक अरामियों के सामने रथ में खड़ा रहना पड़ा। शाम होते-होते उसकी मृत्यु हो गयी।

अध्याय 19

1) इधर यूदा का राजा यहोषाफ़ाट सकुषल अपने घर येरुसालेम आया।
2) हनानी का पुत्र द्रष्टा येहू उस से मिलने आया। उसने राजा यहोषाफ़ाट से कहा, ''क्या आप को कुकर्मी की सहायता और प्रभु से बैर करने वालों को प्यार करना चाहिए था? इस कारण प्रभु का क्रोध आप पर भड़क उठेगा।
3) फिर भी आप में कुछ भलाई भी पायी गयी; क्योंकि आपने अषेरादेवी के खूँटे हटा दिये और प्रभु की ओर अभिमुख होने का संकल्प किया।''
4) थोड़े दिन येरुसालेम में रहने के बाद यहोषाफ़ाट बएर-शेबा से ले कर एफ्रईम के पहाड़ी प्रान्त तक अपनी प्रजा के बीच घूमता रहा, जिससे वह उसे प्रभु, अपने पूर्वजों के ईष्वर की ओर अभिमुख करे।
5) उसने देश में, यूदा के सभी क़िलाबन्द नगरों में, नगर-नगर में न्यायाधीष नियुक्त किये।
6) उसने न्यायाधीषों को यह आज्ञा दी, ''अपने-अपने कर्तव्य पर ध्यान दो; क्योंकि तुम मनुष्यों के नाम पर नहीं, बल्कि प्रभु के नाम पर न्याय करते हो। न्याय करते समय प्रभु तुम्हारें साथ रहता है।
7) तुम्हें प्रभु पर श्रद्धा रखनी चाहिए। सावधानी से काम करो ; क्योंकि प्रभु, हमारे ईष्वर के यहाँ न तो अन्याय है, न पक्षपात ओर न भ्रष्टाचार।''
8) यहोषाफ़ाट ने येरुसालेम में भी लेवियों, याजकों और इस्राएली घरानों के मुखियाओं को नियुक्त किया, जिससे वे प्रभु के नाम पर न्याय करें और येरुसालेमवासियों के विवाद निपटायें।
9) उसने उनको यह आदेष दिया, ''तुम्हें प्रभु पर श्रद्धा रखते हुए ईमारदारी और निष्कपट हृदय से अपना काम करना चाहिए।
10) यदि तुम्हारे नगरों में, जहाँ तुम्हारे भाई-बन्धु रहते हैं, वे तुम्हारे यहाँ कोई मुक़दमा ले कर आयें-चाहे वह रक्तपात, संहिता, विधि-निषेधों, आदेषों या नियमों के विषय में हो- तो तुम्हें उनको समझाना चाहिए, जिससे वे प्रभु की दृष्टि में दोषी न बनें और तुम पर और तुम्हारे भाई-बन्धुओं पर उसका क्रोध नहीं भड़के। यदि तुम ऐसा ही करोगे, तो दोषी नहीं बनोगे।
11) प्रभु-सम्बन्धी सब मामलों में प्रधानयाजक अमर्या तुम्हारा अध्यक्ष होगा और सब राजकीय मामलों में इसमाएल का पुत्र जबद्या, जो यूदा के घराने का मुखिया है। लेवी लिपिक के रूप में तुम्हारी सहायता करेंगे। धैर्य से काम शुरू करो। प्रभु अच्छी तरह काम करने वाले के साथ हो।''

अध्याय 20

1) इसके बाद मोआबी, अम्मोनी और उनके साथ कुछ मऊनी लोग यहोषाफ़ाट पर आक्रमण करने चल पड़े।
2) लोगों ने आ कर यहोषाफ़ाट से कहा, ''समुद्र के उस पार से, एदोम से एक विषाल सेना आपके विरुद्ध बढ़ती आ रही है और वह हससोनतामार, अर्थात् एन-गेदी तक आ पहुँची है÷'।
3) यहोषाफ़ाट यह सुन कर भयभीत हो गया। उसने प्रभु का परामर्ष लेने का निष्चय किया और यूदा भर में उपवास की घोषणा की।
4) तब यूदावासी प्रभु की सहायता माँगने एकत्रित हुए। यूदा के सभी नगरों से आ कर लोग प्रभु से प्रार्थना करने लगे।
5) यहोषाफ़ाट ने यूदा और येरुसालेमवासियों की सभा में, प्रभु के मन्दिर के नये प्रांगण के सामने खड़ा हो कर कहा,
6) ''प्रभु, हमारे पूर्वजों के ईष्वर! क्या तू स्वर्ग का ईष्वर और राष्ट्रों के सब राज्यों का स्वामी नहीं है? तेरे ही हाथ में शक्ति ओर सामर्थ्य है और कोई भी तेरा सामना नहीं कर सकता।
7) क्या तू हमारा वही ईष्वर नहीं है जिसने इस देष के निवासियों को अपनी इस्राएली प्रजा के आने पर भगा दिया था और इस देष को अपने भक्त इब्राहीम के वंशजों को सदा के लिए दे दिया था?
8) तब वे इस में बसने लगे और यहाँ तेरे नाम की प्रतिष्ठा के लिए एक पवित्र स्थान बनवाया और
9) कहा, ÷यदि विपत्ति, तलवार, दण्ड, महामारी या अकाल का दुःख इम पर टूट पड़े और हम इस मन्दिर में सामने, तेरे सामने आयें, क्योंकि तेरा नाम इस मन्दिर में विद्यमान है और यदि हम अपनी आपत्ति में तेरी दुहाई दें, तो तू हमारी सुन कर हमारी सहायता करेगा'।
10) अब इन अम्मोनियों, मोआबियों और सेईर के पहाड़ी प्रान्त के निवासियों को देख। तूने मिस्र देष से निर्गमन के समय इस्राएलियों को इनके देष में पाँव रखने को मना किया था, इसलिए वे इन से दूर रहे और उन्होंने इनका विनाष नहीं किया।
11) अब ये उसका यह बदला दे रहे हैं कि हमें उस विरासत से वंचित कर रहे हैं, जो तू ने हमें दी है।
12) हमारे ईश्वर! क्या तू इनका न्याय नहीं करेगा? क्योंकि हम इस विषाल समुदाय का सामना करने में असमर्थ हैं, जो हम पर आक्रमण करने आ रहा है। हमें मालूम नहीं कि क्या करें। इसलिए हमारी आँखें तुझ पर लगी हैं।''
13) सभी यूदावासी अपने षिषुओं, पत्नियों और पुत्रों के साथ प्रभु के सामने खड़े थे।
14) तब एकत्रित लोगों के बीच जकर्या के पुत्र यहजीएल प्रभु के आत्मा से आविष्ट हो गया। जकर्या बनाया का पुत्र था, बनाया यईएल का और यईएल कत्तन्या का, जो आसाफ़ के वंषजों का एक लेवी था।
15) उसने कहा, ''यूदावंषियों! येरुसालेम के निवासियों और राजा यहोषाफ़ाट! सभी ध्यान दो! प्रभु तुम से कहता है कि तुम मत डरो और इस विषाल सेना से भयभीत नहीं हो; क्योंकि तुम्हें नहीं लड़ना पड़ेगा, बल्कि ईष्वर ही लड़ेगा।
16) कल तुम्हें उनके विरुद्ध कूच करना है। वे सीस के चढ़ाव से ऊपर आयेंगे और तुम लोग घाटी के छोर पर यरूएल की मरुभूमि के निकट उन से मिलोगे।
17) लेकिन तुम्हें उनके साथ लड़ना नहीं होगा। तुम वहीं खड़े रहोगे और तब तुम देखोगे कि प्रभु तुम्हें, यूदा और येरुसालेम को विजय देता है। तुम मत डरो और भयभीत नहीं हो। कल तुम्हें उनके विरुद्ध कूच करना है और प्रभु तुम्हारे साथ होगा।''
18) इस पर यहोषाफ़ाट ने धरती तक सिर झुकाया। सभी यूदावंषियों और येरुसालेम के निवासियों ने प्रभु के सामने दण्डवत् करते हुए उसकी आराधना की।
19) लेवी, जो कहात ओर कोरह के वंषज थे, प्रभु, इस्राएल के ईष्वर का ऊँचे स्वर में स्तुतिगान करने खड़े हो गये।
20) वे बड़े सबेरे तकोआ की मरुभूमि की ओर चल पड़े। वे प्रस्थान कर ही रहे थे कि यहोषाफ़ाट ने सामने आ कर कहा, ''यूदावंषियों और येरुसालेम के निवासियों! मेरी बात सुनो। प्रभु, अपने ईष्वर पर भरोसा रखो और वह तुम्हारी रक्षा करेगा। उसके नबियों पर भरोसा रखो और तुम्हें सफलता मिलेगी।''
21) उसने लोगों के साथ परामर्ष करने के बाद गायक नियुक्त किये, जिससे वे पवित्र वस्त्र धारण कर योद्धाओं के आगे आगे चलें और यह कहते हुए की महिमा और पवित्रता का स्तुतिगान करें, ''प्रभु की स्तुति करो, क्योंकि वह भला है। उसकी सत्यप्रतिज्ञता अनन्त काल तक बनी रहती है।''
22) जब उन्होंने जयकार और स्तुतिगान करना प्रारम्भ किया, तो प्रभु ने यूदा पर आक्रमण करने वाले अम्मोन, मोआब और सेईर के पहाड़ी प्रदेष के निवासियों में फूट डालने वालों को भेज दिया, जिससे वे आपस में लड़ने लगे।
23) अम्मोनी ओर मोआबी लोगों ने सेईर के पहाड़ी प्रदेष के निवासियों पर आक्रमण किया और उनका पूर्ण रूप से विनाष कर दिया। इसके बाद वे एक-दूसरे को मारने- काटने लगे।
24) जब यूदावंषी उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ से वे मरुभूमि को देख सकते थे, तो उन्होंने देखा कि भूमि पर लाषें पड़ी है। एक भी जीवित नहीं था।
25) यहोषाफ़ाट अपने आदमियों के साथ उन्हें लूटने के लिए आगे बढ़ा। उन्हें बड़ी संख्या में पशु, सामान, वस्त्र और बहुमूल्य वस्तुएँ मिलीं। उन्होंने इतना माल ले लिया कि अब वे और अधिक नहीं ले जा सकते थे। वे तीन दिन तक लूटते रहे, क्योंकि लूट के लिए माल बहुत था।
26) चौथे दिन वे बराका-घाटी में एकत्रित हुए। वहीं उन्होंने प्रभु का स्तुतिगान किया; इसलिए वह स्थान बराका-घाटी कहलाने लगा। आज तक उसका यही नाम प्रचलित है।
27) इसके बाद सभी यूदावंषी और येरुसालेम के निवासी यहोषाफ़ाट के नेतृत्व में सहर्ष येरुसालेम लौट चले; क्योंकि प्रभु ने उन्हें उनके शत्रुओं के विनाष के कारण आनन्दित कर दिया था।
28) उन्होंने सारंगी, सितार और तुरही बजाते हुए येरुसालेम के प्रभु के मन्दिर में प्रवेष किया।
29) जब लोगों ने सुना कि स्वयं प्रभु ने इस्राएल के शत्रुओं के विरुद्ध युद्ध किया था, तो अन्य देषों के सभी राष्ट्रों पर ईष्वर का भय छा गया।
30) इस प्रकार यहोषाफ़ाट के राज्य में शान्ति रही, क्योंकि उसके ईष्वर ने उसे उसके चारों ओर के शत्रुओं से शान्ति प्रदान की।
31) यहोषाफ़ाट यूदा पर शासन करता था। जब वह राजा बना, तो उस समय उसकी उम्र पैंतीस वर्ष थी। उसने येरुसालेम में पच्चीस वर्ष तक शासन किया। उसकी माता का नाम अजूबा था, जो षिलही की पुत्री थी।
32) वह अपने पिता आसा के मार्ग पर चलता था, वह कभी उस से विमुख नहीं हुआ। उसने वही किया, जो प्रभु की दृष्टि में उचित है।
33) किन्तु उसने पहाड़ी पूजास्थान नहीं हटवाये। अब तक लोग पूरे मन से अपने पूर्वजों के ईष्वर की ओर अभिमुख नहीं हुए।
34) शुरू से अन्त तक यहोषाफ़ाट का शेष इतिहास हनानी के पुत्र येहू के इतिहास-ग्रन्थ में लिखा है और वह इस्राएल के राजाओं के ग्रन्थ में सम्मिलित किया गया है।
35) बाद में यूदा के राजा यहोषाफ़ाट का इस्राएल के राजा अहज्या से मेल रहा जो कुकर्म करता था।
36) उसी के साथ उसने तरषीष जाने वाले जहाज बनवाये। उन्होंने उन जहाजों को एस्योन-गेबेर में बनवाया।
37) तब मारेषावासी दोदावाहू के पुत्र एलीएजर ने यह भविष्यवाणी की, ''तुमने अहज्या के साथ सन्धि की है, इसलिए प्रभु वह नष्ट कर देगा, जो तुमने बनवाया है''। जहाज नष्ट हो गये, वे तरषीष नहीं जा पाये।

अध्याय 21

1) यहोषाफ़ाट अपने पितरों से जा मिला। वह अपने पुरखों के पास ही दाऊदनगर में दफ़नाया गया। उसका पुत्र यहोराम उसकी जगह राजा बना।
2) यहोराम के भाई, यहोषाफ़ाट के पुत्र ये थे : अजर्या, यहीएल, जकर्या, अजर्याहू, मीकाएल और शफ़टा। ये सब यूदा के राजा यहोषाफ़ाट के पुत्र थे।
3) उनके पिता ने उन को प्रचुर मात्रा में चाँदी, सोना, बहूमूल्य चीजें और यूदा में क़िलाबन्द नगर दिये। उसने राज्याधिकार यहोराम को दिया, क्योंकि वह उसका जेठा पुत्र था।
4) जैसे ही यहोराम ने अपने पिता का राज्य प्राप्त किया और शक्तिषाली हो गया, उसने अपने सब भाइयों तथा इस्राएल के कुछ नेताओं को तलवार के घाट उतार दिया।
5) जब यहोराम राजा बना, तो उसकी अवस्था बत्तीस वर्ष थी। उसने येरुसालेम में आठ वर्ष तक राज्य किया।
6) वह अहाब के घराने के लोगों की तरह इस्राएल के राजाओं के मार्ग पर चलने लगा, क्योंकि उसने अहाब की एक पुत्री के साथ विवाह किया। उसने वही किया, जो प्रभु की दृष्टि में बुरा है।
7) प्रभु ने दाऊद से की हुई प्रतिज्ञा के कारण दाऊद का घराना नष्ट करना नहीं चाहा, क्योंकि उसने दाऊद से कहा था, कि वह दाऊद और उसके वंषजों के लिए सदा एक दीपक जलाये रखेगा।
8) उसके शासनकाल में एदोम ने यूदा के विरुद्ध विद्रोह कर अपने लिए एक अलग राजा नियुक्त किया।
9) इसलिए यहोराम ने अपने अध्यक्षों और अपने सब रथों-सहित प्रस्थान किया। उसने रात को उठ कर उन एदोमियों को पराजित किया, जो उसे और उसकी रथ- सेना के अध्यक्षों को घेरे हुए थे।
10) किन्तु एदोम यूदा के विरुद्ध विद्रोह करता रहा और यही स्थिति आज तक चली आ रही है। उसी समय लिबना ने भी उसके शासन के विरुद्व विद्रोह किया; क्योंकि उसने प्रभु, अपने पूर्वजों के ईष्वर को त्याग दिया था।
11) उसने यूदा के पहाड़ों पर पूजास्थान बनवाये और येरुसालेम के निवासियों को (प्रभु के प्रति) विष्वासघाती बना दिया और यूदा को भी बहकाया।
12) तब उसे नबी एलियाह से एक चिट्ठी मिली, जिस में लिखा थाः ''प्रभु, तुम्हारे पूर्वज दाऊद का ईष्वर यह कहता है, ÷तुम अपने पिता यहोषाफ़ाट तथा यूदा के राजा आसा के मार्ग पर नहीं चले,
13) बल्कि तुम इस्राएल के राजाओं के मार्ग पर चले और यूदा और येरुसालेम के निवासियों को प्रभु के प्रति विष्वासघात करने को बहकाया-ठीक उसी तरह, जिस तरह अहाब के घराने ने विष्वासघात करना सिखाया था-तथा तुमने अपने पिता के घराने के अपने भाइयों का वध कराया, जो तुम से अच्छे थे,
14) इसलिए प्रभु तुम्हारी प्रजा, तुम्हारे पुत्रों, तुम्हारी पत्नियों और तुम्हारी सारी सम्पत्ति पर कठोर आघात करेगा।
15) तुम स्वयं अँतड़ियों के रोग से बहुत समय तक पीड़ित रहोगे, जिसके कारण तुम्हारी अँतड़ियाँ बाहर निकल आयेंगी'।''
16) प्रभु ने यहोराम के विरुद्ध फ़िलिस्तियों एवं कूषियों के निकट रहने वाले अरबवासियों में शत्रुता पैदा की।
17) उन्होंने यूदा पर आक्रमण किया और देश में घुस कर राजा के महल की सारी सम्पत्ति लूट ली और वे उसके पुत्रों और पत्नियों को भी ले गये। केवल उसका सब से छोटा पुत्र यहोआहाज उसके पास रह गया।
18) यही नहीं, प्रभु ने उसे अँतड़ियों के असाध्य रोग से भी पीड़ित कर दिया।
19) दो वर्ष के बाद उस बीमारी के कारण उसकी अँतड़ियाँ एकदम बाहर निकल आयीं और वह घोर कष्ट सहते हुए मर गया। उसके मरने पर लोगों ने सम्मानसूचक आग नहीं जलायी, जैसे कि उसके पूर्वजों के मरने पर जलायी गयी थी।
20) जब वह राजा बना, तो वह बत्तीस वर्ष का था और उसने येरुसालेम में आठ वर्ष राज्य किया। वह चल बसा और किसी ने उसके लिए शोक नहीं मनाया। उसे दाऊदनगर में दफ़नाया गया, किन्तु राजाओं के दफ़नाये जाने के स्थान पर नहीं।

अध्याय 22

1) येरुसालेम के निवासियों ने यहोराम के सब से छोटे पुत्र अहज्या को उसके स्थान पर राजा बनाया; क्योंकि अरबवासियों के साथ जो दल षिविर में घुस गया था, उसने सब बड़े पुत्रों को मार डाला था। इसलिए यहोराम का पुत्र अहज्या यूदा का राजा बना।
2) जब अहज्या राजा बना, तो उसकी अवस्था बाईस वर्ष थी। उसने येरुसालेम में एक वर्ष शासन किया। उसकी माता को नाम अतल्या था, तो ओम्रो की पौत्री थी।
3) अहज्या भी अहाब के घराने के मार्ग पर चलता था, क्योंकि उसकी माता उसे अधर्म करने के लिए प्रोत्साहित करती थी।
4) उसने अहाब के घराने की तरह वही किया, जो प्रभु की दृष्टि में बुरा है; क्योंकि उसके पिता की मृत्यु के बाद वे लोग उसके सलाहकार बने। इस से उसका पतन हो गया।
5) उसकी सलाह मान कर वह अराम के राजा हजाएल से लड़ने के लिए इस्राएल के राजा अहाब के पुत्र यहोराम के साथ गिलआद के रामोत गया। अरामियों ने यहोराम को घायल कर दिया।
6) और वह अपने उन घावों का उपचार कराने यिज्रएल लौट गया, जो अराम के राजा के राजा हजाएल से लड़ते समय उसे रामोत में लगे थे। तब यूदा के राजा यहोराम का पुत्र अहज्या यिज्रएल में पड़े अहाब के पुत्र यहोरा को देखने गया, क्योंकि वह वहाँ बीमार पड़ा था।
7) किन्तु ईश्वर के विधान से अहज्या का पतन इसलिए हुआ कि वह यहोराम से मिलने गया। जब वह उसके पास पहुँचा, तो वह यहोराम के साथ निमषी के पुत्र येहू से मिलने गया। प्रभु ने अहाब के घराने का विनाष करने के लिए येहू का राजा के रूप में अभिषेक किया था।
8) जब येहू अहाब के घराने को दण्ड दे रहा था, तो वह यूदा के नेताओं और अहज्या की सेवा में लगे अहज्या के भाइयों के पुत्रों से मिला और उन्हें भी मार डाला।
9) इसके बाद उसने अहज्या की खोज करवायी। जब अहज्या समारिया में छिप रहा था, तो वह पकड़ा गया। वह येहू के पास लाया गया और उसने उसे मरवा डाला। लेकिन वह दफ़नाया गया; क्योंकि वे कहते थे कि वह उस यहोषाफ़ाट का पुत्र है, जो सारे हृदय से ईष्वर को खोजता था। अहज्या के घराने में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था, जिस में शासन करने का सामर्थ्य हो।
10) जब अहज्या की माता अतल्या ने देखा के उसका पुत्र मर गया है, तो वह यूदा के समस्त राजकुल का विनाष करने लगी।
11) परन्तु राजा की पुत्री यहोषेबा अहज्या के पुत्र योआष को उन राजकुमारों के बीच से हटा ले गयी, जिनका वध होने वाला था और उसे उसकी धाय के साथ शयनकक्ष में रखा। राजा यहोराम की पुत्री और याजक यहोयादा की पत्नी अहज्या की बहन थी, इसलिए उसने योआष को अतल्या की दृष्टि से छिपा दिया और वह बच गया।
12) वह छः वर्ष तक गुप्त रूप में प्रभु के मन्दिर में उनके साथ रहा। उस समय अतल्या देष पर शासन करती थी।

अध्याय 23

1) सातवें वर्ष यहोयादा ने इन शतपतियों के साथ समझौता करने का निष्चय किया-यहोराम के पुत्र अजर्या यहोहानान के पुत्र इसमाएल, ओबेद के पुत्र अजर्या, अदाया के पुत्र मासेया और जिक्री के पुत्र एलीषाफ़ाट।
2) उन्होंने यूदा का भ्रमण करते हुए यूदा के सब नगरों से लेवियों और इस्राएली घरानों के मुखियाओं को येरुसालेम में एकत्रित किया।
3) सारी सभा ने ईष्वर के मन्दिर में राजा के साथ समझौता किया। यहोयादा ने उन से कहा, ''यह राजा का पुत्र है। इसे शासन करना चाहिए, जैसा कि प्रभु ने दाऊद के वंषजों के लिए वचन दिया है।
4) तुम्हें यह करना होगाः तुम में से जो विश्राम-दिवस पर काम पर आते हैं, उन में एक तिहाई द्वार पर पहरा देंगे,
5) एक तिहाई राजभवन पर और एक तिहाई नींव-द्वार पर तैनात होंगे; सब लोग प्रभु के मन्दिर के प्रांगणों में रह जायेंगे।
6) याजकों और सेवा करने वाले लेवियों के सिवा प्रभु के मन्दिर में कोई और प्रवेष न करे। ये अन्दर आ सकते हैं, क्योंकि ये अभिषिक्त है; शेष लोग प्रभु के मन्दिर में पहरा देंगे।
7) लेवी शस्त्र धारण कर राजा के चारों ओर खड़े रहेंगे। जो व्यक्ति मन्दिर में घुसना चाहेगा उसे मार दिया जायेगा। राजा जहाँ कहीं जायेंगे, वहाँ तुम भी उनके निकट रहोगे।''
8) लेवियों और सब यूदावंषियों ने याजक यहोयादा के आदेष का पूरा-पूरा पालन किया। प्रत्येक ने अपने साथ उन आदमियों को लिया, जो विश्राम-दिवस पर काम से छूटे थे और उन को भी, जो विश्राम-दिवस पर काम करने आये थे; क्योंकि याजक यहोयादा ने उन दलों को छुट्टी नहीं दी थी।
9) फिर याजक यहोयादा ने शतपतियों को प्रभु के मन्दिर में सुरक्षित राजा दाऊद के भाले और बड़ी-छोटी ढालें दीं।
10) उसने सब लोगों को हाथ में भाले लिये हुए, मन्दिर के दक्षिण ओर से उत्तर तक, वेदी और मन्दिर के चारों ओर राजा की रक्षा के लिए खड़ा कर दिया।
11) तब लोग राजकुमार को बाहर ले आये और उन्होंने उसे मुकुट तथा राजसी वस्त्र पहनाये और उसे राजा घोषित किया। यहोयादा और उसके पुत्रों ने उसका अभिषेक किया और ऊँचे स्वर से कहा, ''राजा की जय!'
12) अतल्या ने इधर-उधर दौड़ते हुए और जयकार करते हुए जनता की आवाज सुनी। वह प्रभु के मन्दिर में लोगों के पास आयी।
13) उसने देखा कि राजा, प्रथा के अनुसार, नेताओं और तुरही बजाने वालों के साथ मंच पर खड़ा है, देष भर के लोग आनन्द मना रहे हैं और तुरहियाँ बज रही हैं। याजक वाद्य बजाते हुए स्तुतिगान का नेतृत्व कर रहे थे। इस पर अतल्या अपने वस्त्र फाड़ कर चिल्ला उठी ''यह राजद्रोह है! राजद्रोह है!'
14) याजक यहोयादा ने सैनिकों के शतपतियों को आज्ञा दी, ''पंक्तियों के बीच से उसे बाहर ले जाओ। जो उसके साथ जायेगा, उसे तलवार के घाट उतार दो।'' याजक ने आज्ञा दी थी कि प्रभु के मन्दिर में उसका वध नहीं किया जा सकता है।
15) वे उसे पकड़ कर अष्व-फाटक से हो कर राजमहल ले गये। वहाँ उसका वध कर दिया गया।
16) यहोयादा ने अपने, समस्त प्रजा और राजा के बीच एक ऐसा विधान निर्धारित किया, जिससे वे प्रभु की जनता बन जायें।
17) देष भर के लोगों ने बाल के देवालय जा कर उसे नष्ट कर दिया। उन्होंने उसकी वेदियों और मूर्तियों के टुकड़े- टुकड़े कर दिये और बाल के पुरोहित मत्तान को वेदियों के सामने मार डाला।
18) यहोयादा ने प्रभु के मन्दिर की देखरेख याजकों और लेवियों को सौंप दी; क्योंकि राजा दाऊद ने प्रभु के मन्दिर की सेवा करने के लिए उन्हें दलों में विभाजित कर दिया था, जिससे वे दाऊद के निर्देष के अनुसार आनन्द मनाते और गाते हुए प्रभु को होम-बलियाँ चढ़ाये, जैसा कि मूसा की संहिता में निर्धारित है।
19) उसने प्रभु के मन्दिर के द्वारों पर द्वारपाल भी नियुक्त किये, जिससे ऐसा कोई व्यक्ति प्रवेष न कर पाये, जो किसी भी रूप में अषुद्ध हो।
20) इसके बाद यहोयादा ने शतपतियों, सामन्तों और देष भर के सभी शक्तिषाली लोगों को बुलाया और वह राजा को प्रभु के मन्दिर से ले आ कर नीचे ले गया। वे ऊपरी द्वार से राजमहल गये। वहाँ उन्होंने राजा को राजसिंहासन पर बैठा दिया।
21) देष भर के लोग आनन्दित थे और नगर फिर शान्त हो गया था; क्योंकि अतल्या को तलवार के घाट उतारा गया।

अध्याय 24

1) जब योआष राजा बना, तो वह सात वर्ष का था उसने येरुसालेम में चालीस वर्ष राज्य किया। उसकी माता का नाम सिब्या था। वह बएर-शेबा नगर की थी।
2) जब तक याजक यहोयादा जीवित रहा, तब तक योआष ने वही किया, जो प्रभु की दृष्टि में उचित है।
3) यहोयादा ने कन्याओं से उसका विवाह कराया, जिन से उसके पुत्र और पुत्रियाँ उत्पन्न हुई।
4) इसके बाद योआष ने प्रभु के मन्दिर की मरम्मत करने का निष्चय किया।
5) उसने याजकों और लेवियों को एकत्रित कर उसे यह आदेष दिया, ''यूदा के नगरों में जा कर सब इस्राएलियों से वार्षिक चन्दा इकट्ठा करो, जिससे तुम्हारे ईष्वर के मन्दिर की मरम्मत हो सके। इस कार्य में शीघ्रता करो।'' किन्तु लेवियों को कोई जल्दी नहीं थी।
6) इस पर राजा ने प्रधानयाजक यहोयादा को बुला कर उस से कहा, ''आपने लेवियों पर क्यों नहीं दबाव डाला कि वे यूदा और येरुसालेम से वह चन्दा ले लें, जिसे प्रभु के सेवक मूसा और इस्राएली समुदाय ने विधान के तम्बू के लिए निष्चित किया था?
7) क्योंकि उस दुष्ट अतल्या और उसके पुत्रों ने ईष्वर के मन्दिर की हालत बिगड़ने दी और प्रभु के मंदिर के सब पात्रों का बाल देवताओं के लिए उपयोग किया।''
8) तब राजा ने एक सन्दूक बनवा कर प्रभु के मन्दिर के द्वार पर बाहर रखा।
9) उसने यूदा और येरुसालेम में घोषित किया कि लोग प्रभु के लिए वह चन्दा दे दें, जिसे ईष्वर के सेवक मूसा ने मरुभूमि में इस्राएलियों के लिए निर्धारित किया था।
10) यह सुन कर नेताओं और समस्त प्रजा को आनन्द हुआ। उन्होंने अपना-अपना चन्दा ला कर उस सन्दूक में डाल दिया।
11) जब लेवी देखते थे कि सन्दूक में अधिक द्रव्य इकट्ठा हो गया है, तो वे उसे उठा कर राजा के सचिव और प्रधानयाजक के एक अधिकारी के पास ले जाते थे, जो उसे खाली कर फिर अपने स्थान पर रखवाते थे। वे प्रतिदिन ऐसा ही किया करते थे और इस प्रकार उन्होंने बहुत द्रव्य एकत्र किया।
12) राजा और यहोयादा उसे उन कर्मचारियों को दिया करते थे, जो प्रभु के मन्दिर में काम करते थे और वे उसे मिस्त्रियों और बढ़इयों तथा लोहे एवं काँसे का काम करने वालों को देते थे, जिससे वे प्रभु के मन्दिर का जीर्णोद्धार करें।
13) उन लोगों ने काम प्रारम्भ किया और भवन की मरम्मत अच्छी तरह होती रही। उन्होंने प्रभु के मन्दिर का जीर्णोद्धार किया और अच्छी तरह से उसकी मरम्मत की।
14) काम समाप्त हो जाने पर वे शेष द्रव्य राजा और यहोयादा के पास ले आये। इसी से वे प्रभु के मन्दिर के लिए सामान बनाते थे, अर्थात् सोने और चाँदी के पात्र और उपकरण, जो मन्दिर की सेवा और होम-बलियों के काम आते थे। जब तक यहोयादा जीवित रहा, प्रभु के मन्दिर में निरन्तर होम-बलियाँ चढ़ायी गयीं।
15) यहोयादा का वृद्धावस्था में, बड़ी पकी उमर में प्राणान्त हुआ। वह मृत्यु के समय एक सौ तीस वर्ष का था।
16) वह दाऊदनगर मे राजाओं के पास ही दफ़नाया गया; क्योंकि उसने इस्राएल के ईष्वर और अपने घराने का बड़ा उपकार किया।
17) यूदा के नेताओं ने यहोयादा की मृत्यु के बाद राजा के पास आ कर उसे दण्डवत् किया। राजा ने उनकी बात मान ली।
18) लोगों ने प्रभु, अपने पूर्वजों के ईष्वर का मन्दिर त्याग दिया और वे अषेरा-देवियो तथा देवमूर्तियों की पूजा करने लगे। इस अपराध के कारण ईष्वर का क्रोध यूदा तथा येरुसालेम पर भड़क उठा।
19) उसने नबियों को भेजा, जिससे वे उन्हें प्रभु के पास वापस ले आयें, किन्तु लोगों ने नबियों का सन्देष सुन कर उस पर ध्यान नहीं दिया।
20) ईष्वर के आत्मा ने याजक यहोयादा क पुत्र जकर्या को प्रेरित किया और उसने जनता के सामने खड़ा हो कर कहा, ''ईष्वर यह कहता है- तुम लोग क्यों प्रभु की आज्ञाओं का उल्लंघन करते हो? इस में तुम्हारा कल्याण नहीं है। तुम लोगों ने प्रभु को त्याग दिया, इसलिए वह भी तुम्हें त्याग देगा।''
21) इसके बाद सब लोगों ने मिल कर उसका विरोध किया और राजा के आदेष से उसे प्रभु के मन्दिर के प्रांगण में पत्थरों से मार डाला।
22) राजा योआष ने जकर्या के पिता यहोयादा के सब उपकारों को भुला कर उसके पुत्र जकर्या को मरवा डाला। जकर्या ने मरते समय यह कहा, ''प्रभु देख रहा है और इसका बदला चुकायेगा''।
23) वर्ष के अन्त में अमोरियों की सेना योआष पर आक्रमण करने निकली। उसने यूदा और येरुसालेम में प्रवेष कर जनता के सब नेताओं का वध किया और लूट का सारा माल दमिष्क के राजा के पास भेज दिया।
24) अरामी सैनिकों की संख्या अधिक नहीं थी, फिर भी प्रभु ने एक बहुत बड़ी सेना को उनके हवाले कर दिया; क्योंकि उन्होंने अपने पूर्वजों के प्रभु-ईष्वर को त्याग दिया था। योआष को भी उचित दंड भोगना पड़ा। जब अरामियों की सेना योआष को घोर संकट में छोड़ कर चली गयी,
25) तो उसके दरबारियों ने उसके विरुद्ध षड्यन्त्र रच कर उसे उसके पलंग पर मारा; क्योंकि उसने याजक यहोयादा के पुत्र का रक्त बहाया था। वह मर गया और दाऊदनगर में दफ़नाया गया, किन्तु वह राजाओं के मक़बरे में नहीं रखा गया।
26) उसके विरुद्ध षड्यन्त्र रचने वाले ये थेः अम्मोनित, षिमआत का पुत्र जाबाद और मोआबिन षिम्रीत का पुत्र यहोजाबाद।
27) उसके पुत्रों का वृत्तान्त, उसके द्वारा एकत्रित किया हुआ चन्दा और प्रभु के मन्दिर का जीर्णोद्धार-सब का वर्णन राजाओं के ग्रन्थ की व्याख्या में लिखा है। उसका पुत्र अमस्या उसकी जगह राजा बना।

अध्याय 25

1) जब अमस्या राजा बना, तो वह पच्चीस वर्ष का था। उसने येरुसालेम में उनतीस वर्ष शासन किया। उसकी माता का नाम यहोअद्दान था। वह येरुसालेम की थी।
2) उसने वही किया, जो प्रभु की दृष्टि में उचित है, किन्तु वह पूरे हृदय से ईष्वर के प्रति ईमानदार नहीं रहा।
3) जब राजसत्ता उसके हाथ में सुदृढ़ हो गयी, तो उसने उन सेवकों को प्राणदण्ड दिया, जिन्होंने उसके पिता राजा का वध किया था;
4) परन्तु उनके पुत्रों का वध नहीं किया, जैसा कि संहिता, मूसा के ग्रन्थ में लिखा है, जहाँ प्रभु ने यह आदेष दिया- ÷न तो पिता को अपने किसी पुत्र के पाप के कारण प्राणदण्ड दिया जाये और न पुत्र को अपने पिता के पाप के कारण। हर व्यक्ति को अपने पाप के लिए प्राणदण्ड दिया जायेगा।'
5) अमस्या ने यूदावंषियों को एकत्रित किया और सारे यूदा और बेनयामीन के कुलों के अनुसार सहस्रपतियों और शतपतियों को नियुक्त किया। उसने उन सब की गणना की, जो बीस वर्ष और उस से ऊपर के थे, तो युद्ध-योग्य, ढाल और भालाधारी व्यक्तियों की संख्या कुल मिला कर तीन लाख थी।
6) इसके अतिरिक्त इसने एक सौ मन चाँदी दे कर इस्राएल से एक लाख वीर योद्धाओं को किराये पर ले लिया।
7) लेकिन एक ईष्वर-भक्त ने उसके पास आकर कहा, ''राजा! इस्राएल से प्राप्त सेना आपके साथ न जाये; क्योंकि प्रभु न तो इस्राएल के साथ है और न एफ्रईम के किसी सम्बन्धी के साथ।
8) यदि वह सेना आपके साथ जायेगी, तो आप भले ही वीरता से लडंे, किन्तु प्रभु आप को शुत्र के सामने हार जाने के लिए विवष करेगा; क्योंकि ईष्वर में जीतने और हराने की शक्ति है।''
9) अमस्या ने ईष्वर भक्त को उत्तर दिया, ''तो उस सौ मन चाँदी का क्या होगा, जिसे मैंने इस्राएली सेना प्राप्त करने के लिए दिया है?'' ईष्वर-भक्त ने उत्तर दिया, ''ईष्वर आप को इस से अधिक दे सकता है''।
10) तब अमस्या ने एफ्रईम से अपने पास आयी हुई सेना को विदा कर दिया और उन्हें स्वदेष लौट जाने दिया। इस से वह सेना यूदा पर बहुत क्रुद्ध हो गयी और भुनभुनाते हुए अपने देष लौटी।
11) जब अमस्या की शक्ति बढ़ गयी, तो वह अपने सैनिकों के साथ निकला और उसने लवणघाटी में सेईर के दस हजार आदमियों को मार गिराया।
12) यूदावंषियों ने उसके दस हजार सैनिकों को बन्दी बना लिया और उन्हें सेला के पर्वत षिखर पर ले जा कर वहाँ से नीचे गिरा कर उन्हें मार डाला।
13) जिन सैनिकों को अमस्या ने अपने साथ युद्ध करने से रोका था, उन्होंने समारिया से ले कर बेत-होरोन तक यूदा के नगरों पर आक्रमण किया, इन में तीन हजार आदमियों को मार डाला और बहुत-सा माल लूट लिया।
14) एदोमियों पर विजय प्राप्त कर लौटते हुए अमस्या सेईरवासियों की देवमूर्तियाँ ले आया और उन को अपने देवताओं के रूप में स्थापित किया, उनकी पूजा की और उनको धूप चढ़ायी। तब प्रभु का क्रोध अमस्या पर भड़क उठा।
15) उसने उसके पास एक नबी भेजा, जिसने उस से कहा, ''तुम इस जाति के देवताओं की उपासना क्यों करते हो, जो अपने लोगों को तुम्हारे हाथ से नहीं बचा सके?''
16) वह उस से यह कह ही रहा था कि राजा उसकी बात काटते हुए बोला, ''क्या हमने तुम को राज्यमंत्री बनाया है? चुप रहो, नहीं तो तुम मार खाओगे।'' तब नबी ने रुक कर कहा, ''अब मैं जान गया कि ईष्वर ने आपके विनाष का निष्चिय किया है, क्योंकि आपने यह किया और मेरी सलाह पर ध्यान नहीं दिया''।
17) यूदा के राजा अमस्या ने परामर्ष लेने के बाद यहोआहाज के पुत्र और येहू के पौत्र इस्राएल के राजा योआष के यहाँ दूत भेज कर उस से कहलवाया, ''आइए, हम एक दूसरे का मुकाबला करें''।
18) इस पर इस्राएल के राजा योआष ने यूदा के राजा अमस्या को उत्तर भेजा, ''लेबानोन के ऊँटकटारे ने लेबानोन के देवदार को यह सन्देष भेजा, ÷तुम अपनी बेटी का विवाह मेरे बेटे से करो'; किन्तु लेबानोन के एक जंगली पशु ने ऊँटकटारे को पैरों से रौंद डाला।
19) तुम सोचते थे कि मैंने एदोमियों को पराजित किया। इस कारण तुम घमण्डी हो गये हो। तुम अपनी विजय पर गौरव करो, किन्तु अपने घर में ही बैठे रहो। तुम अपने लिए विपत्ति क्यों मोल ले रहे हो? इस से तो तुम्हारा और तुम्हारे साथ यूदा का भी पतन हो जायेगा।''
20) अमस्या ने एक न सुनी। यह ईष्वर का विधान था। वह उन्हें योआष के हाथ देना चाहता था, क्योंकि उन्होंने एदोम के देवताओं की उपासना की थी।
21) इस्राएल का राजा योआष आक्रमण कर बैठा। उसका और यूदा के राजा अमस्या का यूदा के बेत-शेमेष के पास आमना-सामना हुआ।
22) यूदा इस्राएल द्वारा इस तरह पराजित किया गया कि यूदा के लोग अपने-अपने तम्बू में भाग गये।
23) इस्राएल का राजा योआष बेत-शेमेष के पास अहज्या के पौत्र, योआष के पुत्र, यूदा के राजा अमस्या को बन्दी बना कर येरुसालेम ले गया। उसने एफ्रईम के फाटक से ले कर कोण-फाटक तक येरुसालेम की चार सौ हाथ लम्बी चार-दीवारी गिरा दी।
24) वह प्रभु के मन्दिर का सब सोना, चाँदी और सब सामान, जो ओबेद-एदोम के यहाँ रखा था तथा राजभवन का कोष और बन्धक के रूप में व्यक्तियों को भी ले गया। इसके बाद वह समारिया लौट गया।
25) इस्राएल के राजा यहोआहाज के पुत्र योआष की मृत्यु के बाद योआष का पुत्र, यूदा का राजा अमस्या पन्द्रह वर्ष और जीवित रहा।
26) अमस्या का आरम्भ ले कर अन्त तक का शेष इतिहास यूदा और इस्राएल के राजाओं के इतिहास-ग्रन्थ में लिखा है।
27) अमस्या जिस समय से प्रभु से विमुख होने लगा, तब से उसके विरुद्ध येरुसालेम में षड्यन्त्र रचा गया। जब वह लाकीष भाग गया, तब लोगों ने लाकीष तक उसका पीछा किया और वहाँ उसका वध किया।
28) वह घोड़ों पर रख कर लाया गया और अपने पुरखों के पास दाऊदनगर में दफ़नाया गया।

अध्याय 26

1) यूदा के सब लोगों ने उज्जीया को, जो उस समय सोलह वर्ष का था, उसके पिता अमस्या की जगह राजा बनाया।
2) उसने राजा अमस्या की मृत्यु के बाद एलत को बसाया, जिसे उसने यूदा के लिए पुनः प्राप्त किया था।
3) जब उज्जीया शासन करने लगा, तो वह सोहल वर्ष का था। उसने येरुसालेम में बावन वर्ष शासन किया। उसकी माता का नाम यकोल्या था। वह येरुसालेम की थी।
4) उसने अपने पिता अमस्या की तरह वही किया, जो प्रभु की दृष्टि में उचित है।
5) जब तक जकर्या जीवित था, उज्जीया ईष्वर के प्रति ईमान-दार रहा; क्योंकि जकर्या उसे ईष्वर पर श्रद्धा रखना सिखाता था और जब तक प्रभु के प्रति ईमानदार रहा, ईश्वर उसे सफलता देता रहा।
6) उसने प्रस्थान कर फ़िलिस्तियों से युद्ध किया और गत, यबने तथा अषदोद की चारदीवारी गिरा दी। इसके बाद उसने अषदोद और फ़िलिस्तियों के नगरों का पुनर्निर्माण किया।
7) ईष्वर ने फ़िलिस्तियों, गूर-बाल के अरबवासियों और मऊनियों के विरुद्ध उसकी सहायता की।
8) अम्मोनियों ने उज्जीया को कर दिया। उसकी कीर्ति मिस्र की सीमा तक फैल गयी, क्योंकि वह अत्यन्त शक्तिषाली हो गया था।
9) उज्जीया ने येरुसालेम में कोण-फाटक, घाटी-फाटक और चारदीवारी के कोने पर बुर्ज बनवाये और उन्हें सुदृढ़ बना दिया।
10) उसने मरुभूमि में भी बुर्ज बनवाये और अनेक कुण्ड खुदवाये, क्योंकि उसके पास पशुओं के बहुत-से झुण्ड थे। इसके अतिरिक्त निचले प्रदेष और मैदान में उसके खेतिहर थे और पहाड़ों तथा करमेल में उसकी दाखबारियाँ थीं, क्योंकि वह कृषि में रुचि लेता था।
11) उज्जीया के पास भी युद्ध-योग्य एक सेना थी। वह लिपिक यईएल और पदाधिकारी मासेया द्वारा नामांकित संख्या के अनुसार दलों में विभाजित हो कर युद्ध करने जाती थी। वह राजा के एक सेनापति हनन्या के अधिकार में थी।
12) घरानों के मुखिया इन वीर योद्धाओं के नायक थे। उनकी कुल संख्या दो हजार छः सौ थी।
13) उनके नियन्त्रण में तीन लाख साढ़े सात हजार युद्ध-योग्य वीरों की शक्तिषाली सेना थी, जो शत्रुओं से राजा की रक्षा करती थी।
14) उज्जीया ने सारी सेना के लिए ढालों, भालों, टोपों, कवचों, धनुषों और गोफन के लिए ढेलों का प्रबन्ध किया।
15) उसने येरुसालेम में पत्थर फेंकने के यन्त्र बनवाये, जिनका आविष्कार निपुण लोगों ने किया था। वे तीर और बड़े पत्थर फेंकने के लिए बुजर्ो और दीवारों के कोनों पर रखे जाते थे। उसकी कीर्ति दूर-दूर तक फैल गयी थी; क्योंकि उसे बहुत सहायता मिली थी, जिससे वह शक्तिषाली हो गया था।
16) जब वह शक्तिषाली हो गया, उसका मन घमण्ड से फूल उठा और इस से उसका पतन हुआ। वह प्रभु, अपने ईष्वर के प्रति ईमानदार नहीं रहा। उसने धूप-वेदी पर धूप जलाने के लिए प्रभु के मन्दिर में प्रवेष किया।
17) याजक अजर्या प्रभु के अस्सी साहसी याजकों के साथ उसके पीछे-पीछे भीतर गया।
18) उन्होंने राजा उज्जीया का विरोध करते हुए उस से कहा, ''उज्जीया! आपको प्रभु को धूप चढ़ाने का अधिकार नहीं है। इसका अधिकार केवल हारून के वंषज याजकों को है, जिनका इस कार्य के लिए अभिषेक हुआ। इसलिए आप पवित्र-स्थान से बाहर चले जाइए। आपने अनुचित कार्य किया। इस से आप को प्रभु-ईष्वर की ओर से सम्मान नहीं मिलेगा।''
19) इस पर उज्जीया क्रुद्ध हो उठा। अभी ध्ूापदानी उसके हाथ मे ही थी और वह याजकों पर क्रोध प्रकट कर ही रहा था कि याजकों के सामने ही, प्रभु के मन्दिर में धूप- वेदी के पास खड़ा होते समय उसके माथे पर कोढ़ की बीमारी दिखाई देने लगी।
20) प्रधानयाजक अजर्या और अन्य सब याजकों ने उसकी ओर दृष्टि डाली, तो देखा कि उसके माथे पर कोढ़ की बीमारी लग गयी है। वे तुरन्त उसे बाहर करने लगे और वह स्वयं भी शीघ्र ही बाहर निकला; क्योंकि प्रभु ने उस पर आघात किया था।
21) राजा उज्जीया मृत्यु-पर्यन्त कोढ़ी रहा और उसे एक अलग मकान में रहना पड़ा, क्योंकि उसे प्रभु के मन्दिर में जाने की अनुमति नहीं थी। उस समय उसका पुत्र योताम राजभवन का प्रबन्ध करता और देष का शासन करता था।
22) उज्जीया का शेष इतिहास, प्रारम्भ से अन्त तक, आमोस के पुत्र नबी इसायाह ने लिखा है।
23) उज्जीया अपने पितरों से जा मिला और अपने पूर्वजों के पास उस खेत में, जो राजाओं के समाधिस्थल से लगा हुआ था, दफ़नाया गया; क्योंकि लोग कहते थे कि वह कोढ़ी है। उसका पुत्र योताम उसकी जगह राजा बना।

अध्याय 27

1) जब योताम राजा बना, तो उसकी अवस्था पच्चीस वर्ष थी। उसने येरुसालेम में सोलह वर्ष शासन किया। उसकी माता का नाम यरूषा था, जो सादोक की पुत्री थी।
2) उसने अपने पिता उज्जीया की तरह ही वही किया, जो प्रभु की दृष्टि में उचित है; किन्तु उसने प्रभु के मन्दिर में प्रवेष नहीं किया। जनता भ्रष्ट आचरण करती रही।
3) उसने प्रभु के मन्दिर का ऊपरी फाटक बनवाया और ओफ़ेन की दीवार पर भी बहुत-सा निर्माण-कार्य करवाया।
4) उसने यूदा के पहाड़ी प्रान्त में नगर और वनों में क़िले और बुर्ज बनवाये।
5) उसने अम्मोनियों से युद्ध किया और उन्हें पराजित किया। उस वर्ष अम्मोनियों को उसे एक सौ मन चाँदी, साढ़े चार लाख लिटर गेहूँ और साढ़े चार लाख लिटर जौ देना पड़ा। दूसरे और तीसरे वर्ष भी अम्मोनियों को उतना ही देना पड़ा।
6) इस प्रकार योताम शक्तिषाली होता गया; क्योंकि वह दृढ़तापूर्वक प्रभु, अपने ईष्वर के मार्ग पर चलता था।
7) योताम का शेष इतिहास, उसके सभी युद्व और कार्यकलाप-यह सब इस्राएल और यूदा के राजाओं के इतिहास-ग्रन्थ में लिखा है।
8) जब वह राजा बना, तो उसकी अवस्था पच्चीस वर्ष थी और उसने येरुसालेम में सोलह वर्ष शासन किया।
9) योताम अपने पितरों से जा मिला और उसे दाऊदनगर में दफ़ना दिया गया। उसका पुत्र आहाज उसकी जगह राजा बना।

अध्याय 28

1) जब आहाज राजा बना, तो उसकी अवस्था बीस वर्ष थी। उसने येरुसालेम में सोलह वर्ष शासन किया। उसने अपने पूर्वज दाऊद की तरह वही नहीं किया, जो प्रभु की दृष्टि में उचित है,
2) बल्कि वह इस्राएल के राजाओं के मार्ग पर चला। प्रभु ने जो राष्ट्र इस्राएलियों के सामने से भगा दिये थे,
3) उसने उनके घृणित कार्यों के अनुसार बाल की देवमूतियाँ बनवायीं, बेनहिन्नोम की घाटी में धूप चढ़ायी और अपने ही पुत्रों की आहुति दी।
4) वह पहाड़ी पूजास्थानों में, टीलों पर और प्रत्येक छायादार वृक्ष के नीचे बलिदान चढ़ाता और धूप देता था।
5) प्रभु, उसके ईष्वर ने उसे अरामियों के राजा अराम के हाथ दे दिया। अराम ने उसे पराजित किया और वह उसके बहुत-से लोगों को बन्दी बना कर दमिष्क ले गया। वह इस्राएल के राजा के हाथ भी दिया गया, जिसने उसे बुरी तरह पराजित किया।
6) रमल्या के पुत्र पेकह ने एक ही दिन में यूदा के एक लाख बीस हजार वीर सैनिकों को मार गिराया। यह इसलिए हुआ कि उन्होंने प्रभु, अपने पूर्वजों के ईष्वर को त्याग दिया था।
7) एफ्रईम के वीर योद्धा जिक्री ने राजा के पुत्र मासेया, महल के प्रबन्धक अज्रीकाम और एल्काना को, जिसका पद ठीक राजा के बाद था, मार गिराया।
8) इस्राएली उनके भाई-बन्धुओं में से दो लाख स्त्रियों और बच्चों को बन्दी बना कर ले गये। इसके अलावा वे लूट का बहुत-सा माल समारिया ले गये।
9) वहाँ ओदेह नामक प्रभु का एक नबी था। वह उस सेना से मिलने गया, जो समारिया लौट रही थी और उस से बोला, ''प्रभु, तुम्हारे पूर्वजों का ईष्वर यूदा पर क्रुद्ध था, इसलिए उसने उन्हें तुम्हारे हाथ दे दिया। तुम लोगों ने उनकी हत्या इतनी क्रूरता से की कि उनकी आह स्वर्ग तक पहुँच गयी।
10) और अब तुम यूदा और येरुसालेम की यह सन्तान अपने दास-दासियाँ बनाने की सोच रहे हो। क्या तुम समझते हो कि तुम प्रभु, अपने ईष्वर के सामने निर्दोष हो?
11) मेरी बात मानो और उन बन्दियों को वापस कर दो, जिन्हें तुमने अपने भाई-बन्धुओं में से बन्दी बना लिया है। नहीं तो प्रभु का क्रोध तुम पर भड़क उठेगा।''
12) तब एफ्रईम के कुछ नेता, अर्थात् यहोहानान का पुत्र अजर्या, मशिल्लेमोत का पुत्र बेरेक्या, शल्लूम का पुत्र यहिजकीया और हदलय का पुत्र अमासा लौटे हुए सैनिकों के सामने जा कर उन से कहने लगे,
13) ''उन बन्दियों को यहाँ मत लाओ। नहीं तो तुम लोग प्रभु के सामने हमें दोषी बनाओगे। तुम हमारे पाप और अपराध बढ़ाना चाहते हो, जब कि इस्राएल का अपराध बहुत भारी है और हम प्रभु की क्रोधाग्नि के षिकार हो चुके हैं।''
14) इस पर सैनिकों ने नेताओं और सारे समाज के सामने बन्दियों और लूट के माल को छोड़ दिया।
15) अब वे लोग बन्दियों की सेवा करने पास आये, जिन्हें इस कार्य के लिए नाम से नियुक्त किया गया था। उन्होंने उन सब को, जो नंगे थे, लूट के माल में से वस्त्र दिये, उन्हें कपड़े और जूते पहनाये, उन्हें खिलाया-पिलाया और उनके घावों के लिए मरहम दिया और जो निर्बल थे, उन्हें गधों पर खजूर-नगर येरीख़ो तक उनके भाई-बन्धुओं के पास पहुँचा दिया। इसके बाद वे स्वयं समारिया लौट गये।
16) उस समय राजा आहाज ने अस्सूर के राजा के यहाँ सहायता माँगने के लिए दूत भेजे।
17) एदोमियों ने यूदा पर फिर से आक्रमण किया, उसे पराजित कर दिया और वे बन्दियों को ले गये।
18) फ़िलिस्तियों ने यूदा के निचले प्रदेष के नगरों और नेगेब प्रदेष को लूट लिया। उन्होंने बेत-शेमेश, अय्यालोन, गदेरोत, सोको और उसके आसपास के गाँव, तिमना और उसके आसपास के गाँव तथा गिमजो और उसके आसपास के गाँव अधिकार में कर लिये और स्वयं वहाँ बसने लगे।
19) यह इसलिए हुआ कि प्रभु ने इस्राएल के राजा आहाज के कारण यूदा को नीचा दिखाया, क्योंकि राजा ने यूदा में अधर्म को बढ़ावा दिया और वह स्वयं प्रभु से विमुख हो गया।
20) अस्सूर के राजा तिलगत-पिलएसेर ने सहायता देने की बजाय उस पर आक्रमण किया।
21) आहाज ने प्रभु के मन्दिर, राजभवन और पदाधिकारियों की सम्पत्ति का कुछ अंष ले कर अस्सूर के राजा को दे दिया था, फिर भी उस से उसे कोई लाभ नहीं हुआ।
22) राजा आहाज ने अपने संकट के दिनों में भी प्रभु के साथ अपना विष्वासघात बढ़ाया।
23) उसने यह कहते हुए दमिष्क के देवताओं को बलिदान चढ़ाये, जिन्होंने उसे पराजित किया, ''आराम के राजाओं के देवता उनकी सहायता करते हैं, इसलिए मैं उन्हें बलिदान चढ़ाता हूँ, जिससे वे मेरी सहायता करें''।
24) आहाज ने ईष्वर के मन्दिर का सामान इकट्ठा कर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। उसने प्रभु के मन्दिर के द्वार बन्द कर दिये और येरुसालेम के कोने-कोने मे वेदियाँ बनवायीं।
25) उसने यूदा के प्रत्येक नगर में पहाड़ी पूजास्थान स्थापित किये, जिससे वहाँ पराये देवताओं को धूप चढ़ायी जाये। इस प्रकार उसने प्रभु, अपने पूर्वजों के ईष्वर का क्रोध भड़काया।
26) उसका शेष इतिहास और प्रारम्भ से अन्त तक उसका कार्यकलाप यूदा और इस्राएल के राजाओं के इतिहास-ग्रन्थ में लिखा है।
27) आहाज अपने पितरों से जा मिला और येरुसालेम के नगर में दफ़नाया गया, क्योंकि उसे इस्राएल के राजाओं के समाधिस्थल में स्थान नहीं दिया गया। उसका पुत्र हिजकीया उसकी जगह राजा बना।

अध्याय 29

1) जब हिजकीया राजा बना, तो उसकी अवस्था पच्चीस वर्ष थी। उसने येरुसालेम में उनतीस वर्ष शासन किया। उसकी माता का नाम अबीया था। वह जकर्या की पुत्री थी।
2) उसने अपने पुरखे दाऊद की तरह वही किया, जो प्रभु की दृष्टि में उचित है।
3) उसने अपने शासनकाल के पहले महीने में प्रभु के मन्दिर के द्वार खोले और उनका जीर्णोद्धार किया।
4) इसके बाद उसने याजकों और लेवियों को बुलवाया। उसने मन्दिर के पूर्व के मैदान में उन्हें एकत्रित कर उन से यह कहा,
5) ''लेवियों! मेरी बात सुनो। अपने को पवित्र करो और प्रभु, अपने पूर्वजों के ईष्वर के मन्दिर को पवित्र करो। पवित्र-स्थान में जो अषुद्वता हो, उसे दूर करा;
6) क्योंकि हमारे पूर्वज हमारे ईष्वर के प्रति ईमानदार नहीं रहे और उन्होंने वही किया, जो प्रभु की दृष्टि में बुरा है। उन्होंने प्रभु को त्याग दिया, उसके निवास से मुँह मोड़ा और प्रभु से पीठ फेर ली।
7) इसके अतिरिक्त उन्होंने सामने के द्वार बन्द किये, दीप बुझा दिये तथा इस्राएल के ईष्वर को पवित्र-स्थान में धूप और होम-बलि नहीं चढ़ायी।
8) इसलिए यूदा और येरुसालेम पर प्रभु का क्रोध भड़क उठा। उसने उन्हें त्रास, घृणा और तिरस्कार का पात्र बना दिया, जैसा कि तुम अपनी आँखों से देखते हो।
9) इतना ही नहीं, हमारे पिता तलवार के घाट उतार दिये गये और हमारे पुत्र-पुत्रियाँ और पत्नियाँ बन्दी बना कर ले जायी गयीं।
10) इसलिए मैंने प्रभु, इस्राएल के ईष्वर के साथ सन्धि करने का निष्चय किया, जिससे उसका क्रोध हम पर से दूर हो जाये।
11) मेरे पुत्रों! अब तत्पर रहो। प्रभु ने तुम्हें इसलिए चुना कि तुम उसके सामने खड़े हो कर उसकी सेवा करो और उसके याजक बन कर उसे धूप चढ़ाओ।''
12) इसके बाद ये लेवी उठ खड़े हुए- कहातियों में से अमासय का पुत्र महत और अजर्या का पुत्र योएल; मरारियों में से अबदी का पुत्र कीष और यहल्लेलएल का पुत्र अजर्या ; गेरशोनियों में से जिम्मा का पुत्र योआह और योआह का पुत्र एदेन;
13) एलीसाफ़ान के वंषजों में से जकर्या और मत्तन्या;
14) हेमान के वंषजों में से यहीएल और षिमई तथा यदूतून के वंषजों में से शमाया और उज्जीएल।
15) उन्होंने अपने भाई-बन्धुओं को एकत्रित कर अपने को पवित्र किया। इसके बाद उन्होंने राजा की आज्ञा पा कर प्रभु के नियमों के अनुसार प्रभु के मन्दिर का शुद्धीकरण करना प्रारम्भ किया।
16) याजकों ने शुद्धीकरण करने के लिए प्रभु के मन्दिर में प्रवेष किया। उन्होंने प्रभु के मन्दिर में पायी गयी सब अषुद्ध वस्तुओं को निकाल कर आँगन में ला कर रखा। लेवियों ने उन्हें वहाँ से उठा कर केद्रोन के नाले में फेंक दिया।
17) उन्होंने पहले महीने के पहले दिन शुद्धीकरण प्रारम्भ किया था। उसी महीने के आठवें दिन वे प्रभु के द्वारमण्डप तक आ गये और आठ दिन तक प्रभु के मन्दिर का पवित्रीकरण करते रहे। यह कार्य पहले महीने के सोलहवें दिन समाप्त हो गया था।
18) इसके बाद उन्होंने राजा हिजकीया के यहाँ जा कर उस से कहा, ''हमने प्रभु का पूरा मन्दिर पवित्र कियाः होम- बलि की वेदी तथा उसके सब उपकरण और भेंट की रोटियों की वेदी तथा उसके सब उपकरण।
19) हमने उन सब सामग्रियों को, जिन्हें विधर्मी राजा आहाज ने अपने शासनकाल में निकाल दिया था, फिर से रखा और पवित्र किया। वे अब प्रभु की वेदी के सामने रखी हुई है।''
20) दूसरे दिन प्रातःकाल राजा हिजकीया ने नगर के पदाधिकारियों को एकत्रित किया और प्रभु के मन्दिर में गया।
21) वे सात साँड, सात मेढ़े, सात मेमने और सात बकरे लाये, जिससे वे राजवंष, मन्दिर और यूदा के लिए प्रायष्चित- बलि के रूप में चढ़ाये जायें। राजा ने हारून के वंषज याजकों को आदेष दिया कि वे उन्हें प्रभु की वेदी पर चढ़ायें।
22) साँड़ों का वध किया गया और याजकों ने उनका रक्त एकत्र किया और वेदी पर छिड़का। मेढ़ों का वध किया गया और उनका रक्त वेदी पर छिड़का गया। फिर मेमनों का वध किया गया और उनका रक्त भी वेदी पर छिड़का गया।
23) इसके बाद प्रायष्चित-बलि के लिए बकरे राजा और उपस्थित समुदाय के पास लाये गये, जिससे वे उन पर अपने हाथ रखें।
24) इसके बाद याजकों ने उनका वध किया और उनका रक्त प्रायष्चित के लिए वेदी पर चढ़ाया, जिससे सारे इस्राएल के लिए प्रायष्चित-विधि सम्पन्न हो जाये; क्योंकि राजा ने सारे इस्राएल के लिए होम-बलि और प्रायष्चित्त-बलि का आदेष दिया था।
25) इसके बाद उसने झाँझ, सारंगी और सितार के साथ लेवियों को प्रभु के मन्दिर में उस क्रम के अनुसार खड़ा कर दिया, जो दाऊद, राजा के दृष्टा गाद और नबी नातान ने निष्चित कर दिया था; क्योंकि प्रभु ने अपने नबियों द्वारा यह आदेष दिया था
26) लेवी दाऊद द्वारा बनवाये वाद्यों के साथ और याजक तुरहियों के साथ खड़े हुए,
27) तो हिजकीया ने वेदी पर होम-बलि चढ़ाने की आज्ञा दी। जैसे ही होम-बलियाँ चढ़ायी जाने लगीं, तो प्रभु के सम्मान में गीत गाये जाने लगे, तुरहियाँ बजायी गयीं और इस्राएल के राजा दाऊद द्वारा बनवाये गये वाद्य बजाये जाने लगे।
28) सारे समुदाय ने दण्डवत् किया। होम-बलि की समाप्ति तक गीत गाये जाते रहे और तुरहियाँ बजायी जाती रहीं।
29) जब होम-बलि चढ़ायी जा चुकी, तब राजा और सब उपस्थित लोगों ने घुटने टेक कर उपासना की।
30) राजा हिजकीया और पदाधिकारियों ने लेवियों को प्रभु के आदर में दाऊद और दृष्टा आसाफ़ के गीत गाने का आदेष दिया। वे आनन्द के साथ स्तुतिगान करने लगे और उन्होंने सिर झुका कर उपासना की।
31) हिजकीया ने कहा, ''देखो, तुम प्रभु की सेवा में नियुक्त हो। अब पास आ कर प्रभु के मन्दिर में शान्ति-बलियाँ चढ़ाओ।'' समुदाय शान्ति-बलियाँ ले आया और जो लोग उदार थे, वे होम-बलियाँ ले आये।
32) समुदाय जो होम-बलियाँ ले आया, उनकी संख्या इस प्रकार थी : सत्तर बछड़े, एक सौ मेढ़े और दो सौ मेमने। ये सब होम-बलि के रूप में प्रभु को चढ़ाये गये।
33) इसके अतिरिक्त छः सौ बछड़े और तीन हजार भेड़ें अर्पित की गयीं।
34) बलि-पशुओं की खाल उतारने के लिए याजकों की संख्या कम पड़ गयी। इसलिए उनके भाइयों ने, लेवियो ने तब तक उनकी सहायता की, जब तक काम पूरा न हो गया और याजकों ने अपने को पवित्र नहीं किया। वास्तव में लेवियों ने याजकों की अपेक्षा अपने को पवित्र करने के लिए अधिक उत्साह दिखाया था।
35) बहुसंख्यक होम-बलियों के अतिरिक्त शान्ति-बलियों की चरबी और होम-बलियों के लिए निर्धारित अर्घों के कारण याजकों का काम भारी था। इस प्रकार प्रभु के मन्दिर की सेवा पुनः स्थापित की गयी।
36) हिजकीया और सब लोग इसलिए आनन्दित थे कि ईष्वर ने अपनी प्रजा का इतना बड़ा उपकार किया और कि यह कार्य इतनी शीघ्र सम्पन्न हो सका।

अध्याय 30

1) इसके बाद हिजकीया ने सारे इस्राएल और यूदा को येरुसालेम में प्रभु, इस्राएल के ईष्वर का पास्का-पर्व मनाने का निमन्त्रण दिया। उसने एफ्रईम और मनस्से के पास भी पत्र भेज दिये।
2) राजा, उसके पदाधिकारियों और येरुसालेम में एकत्रित सारे समुदाय ने निष्चय किया कि पास्का का पर्व दूसरे महीने में मनाया जाये।
3) वह नियत समय पर मनाया नहीं जा सका था, क्योंकि याजकों ने पर्याप्त संख्या में अपने को पवित्र नहीं किया था और लोग येरुसालेम में इकट्ठे नहीं हुए थे।
4) राजा और सारे समुदाय को यह निष्चय अच्छा लगा।
5) अतः उन्होंने निष्चित किया कि बएर-षेबा से ले कर दान तक इस्राएल भर में यह घोषित कर दिया जाये कि लोग आ कर प्रभु, इस्राएल के ईष्वर के लिए येरुसालेम में पास्का मनायें; क्योंकि लोगों ने उसे संहिता के अनुसार बड़ी संख्या में नहीं मनाया था।
6) दूत राजा और उसके पदाधिकारियों से लिखी चिट्ठियाँ ले कर इस्राएल और यूदा भर में चले गये। राजा की आज्ञा इस प्रकार थी : ''इस्राएलियों! तुम प्रभु, इब्राहीम, इसहाक और इस्राएल के ईष्वर की और लौट आओ और वह तुम्हारे पास लौटेगा, जो अस्सूर के राजाओं के हाथों से बच गये हो।
7) तुम अपने पूर्वजों और भाइयों-जैसे मत बनो, जिन्होंने प्रभु, अपने पूर्वजों के ईष्वर के साथ विष्वासघात किया और प्रभु ने उन्हें नष्ट हो जाने दिया, जैसा कि तुम देखते हो।
8) अब तुम अपने पूर्वजों-जैसे हठी बने मत रहो। प्रभु की ओर अपने हाथ उठाओ। उसके मन्दिर आ जाओ, जिसे उसने सदा के लिए पवित्र किया है। प्रभु, अपने ईष्वर की सेवा करो, जिससे उसकी क्रोधाग्नि तुम से दूर हो जाये।
9) यदि तुम प्रभु के पास लौटेगे, तो तुम्हारे भाई और पुत्र उन लोगों की दृष्टि में कृपापात्र बनेंगे, जिन्होंने उन को बन्दी बनाया है और वे लौट कर इस देष में आ सकेंगे; क्योंकि प्रभु, तुम्हारा ईष्वर कृपालु और करुणामय है। यदि तुम उसकी ओर अभिमुख हो जाओगे, तो वह अपना मुँह तुम से नहीं मोड़ेगा।''
10) उन दूतों ने जबुलोन तक एफ्रईम और मनस्से प्रान्त के सब नगरों का भ्रमण किया, किन्तु लोगों ने उनकी हँसी उड़ायी और उनका तिरस्कार किया।
11) आषेर, मनस्से और जबुलोन के कुछ लोग दीनतापूर्वक येरुसालेम आये,
12) किन्तु ईष्वर के विधान से यूदा के सब लोगों ने एकमत हो कर प्रभु की वाणी पर ध्यान दिया और राजा और पदाधिकारियों द्वारा दी गयी आज्ञा का पालन किया।
13) अतः दूसरे महीने में बेख़मीर रोटियों का पर्व मनाने के लिए बहुत-से लोग येरुसालेम में एकत्रित हुए। वह एक अत्यन्त विषाल समुदाय था।
14) उन्होंने येरुसालेम से वेदियों और सब धूप-वेदियों को हटाया और उन्हें केद्रोन नाले में फेंक दिया।
15) इसके बाद उन्होंने दूसरे महीने के चौदहवें दिन पास्का के बलि-पशु का वध किया। इस पर याजकों और लेवियों ने लज्जा का अनुभव किया और उन्होंने अपने को पवित्र कर प्रभु के मन्दिर में होम-बलि चढ़ायी।
16) इसके बाद वे ईष्वर-भक्त मूसा की संहिता में निर्धारित नियमों के अनुसार अपने-अपने निष्चित स्थान पर पहुँच गये। याजकों को लेवियों के हाथ जो रक्त मिला, उन्होंने उसे अर्पित किया।
17) इस समुदाय में बहुत से ऐसे लोग थे, जिन्होंने अपने को पवित्र नहीं किया था। इसलिए लेवियों ने उनके नाम पर, जो अब तक प्रभु को बलि चढ़ाने के लिए पवित्र नहीं हुए थे, पास्का के पशुओं का वध किया;
18) क्योंकि बहुत-से लोगों ने-विषेष कर एफ्रईम, मनस्से, इस्साकार और जुबलोन के लोगों ने-अब तक अपने को पवित्र नहीं किया था और संहिता के नियम के विरुद्व पास्का का मेमना खाया था। हिजकीया ने उनके लिए यह कहते हुए प्रार्थना की : ''दयालु प्रभु
19) ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को क्षमा करे, जो सच्चे हृदय से प्रभु की ओर अभिमुख हो गया है, यद्यपि उसने पवित्र स्थान के नियमों के अनुसार अपने को पवित्र नहीं किया''।
20) प्रभु ने हिजकीया की प्रार्थना सुनी और लोगों को हानि से बचाया।
21) इस प्रकार येरुसालेम में आये हुए इस्राएली सात दिन तक बड़े आनन्द के साथ बेख़मीर रोटियों का पर्व मनाते रहे। लेवी और याजक प्रतिदिन ऊँचे स्वर में प्रभु का स्तुतिगान करते थे।
22) हिजकीया ने सब लेवियों को प्रोत्साहित किया, जो समझदारी से प्रभु की सेवा करते थे। लोग सात दिन तक प्रसाद खाते रहे, शान्ति-बलियाँ चढ़ाते और प्रभु, अपने पूर्वजों के ईष्वर का स्तुतिगान करते थे।
23) इसके बाद सारे समुदाय ने तय किया कि वे और सात दिन तक पर्व मनाये। अतः वे और सात दिन आनन्द के साथ पर्व मनाते रहे।
24) यूदा के राजा हिजकीया ने जन समुदाय को एक हजार बछड़े और सात हजार भेड़ें ओर अधिकारियों ने उसे एक हजार बछड़े और दस हजार भेड़ें दी थीं। याजकों ने अपने को बड़ी संख्या में पवित्र किया।
25) यूदावंषियों का सारा समुदाय, याजक, लेवी और इस्राएल से आया हुआ सारा समुदाय और वे ग़ैर-यहूदी प्रवासी भी आनन्दित थे, जो इस्राएल से आये थे, अथवा यूदा में रहते थे।
26) येरुसालेम में बड़ा उल्लास छाया हुआ था, क्योंकि इस्राएल के राजा दाऊद के पुत्र सुलेमान के दिनों से ऐसा समारोह येरुसालेम में कभी नहीं हुआ था।
27) अन्त में लेवीवंषी याजकों ने खड़ा हो कर लोगों को आषीर्वाद दिया। ईष्वर ने उनकी वाणी सुनी और उनकी प्रार्थना स्वर्ग तक, उसके निवास तक पहुँची।

अध्याय 31

1) पर्व समाप्त होने पर वहाँ उपस्थित सभी इस्राएलियों ने यूदा के नगरों में जा कर पूजा-स्तम्भों के टुकड़े-टुकड़े कर दिये और अषेरा-देवी के खूँटों को काट दिया। उन्होंने समस्त यूदा, बेनयामीन, एफ्रईम और मनस्से में पहाड़ी पूजा स्थानों और वेदियों को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया। इसके बाद सब इस्राएली अपने-अपने नगर, अपने-अपने घर लौट गये।
2) हिजकीया ने सेवा-कार्य के अनुसार याजकों और लेवियों के दल विभाजित किये। उसने प्रत्येक को उसकी याजकीय या लेवीय सेवा के अनुसार होम एवं शान्ति-बल चढ़ाने, धन्यवाद एवं स्तुति के गीत गाने और मन्दिर के द्वारों पर पहरा देने के लिए नियुक्त किया।
3) उसने प्रभु की संहिता में निर्धारित होम-बलियों, प्रातःकाल और सन्ध्या की बलियों, विश्राम-दिवस, अमावस और पर्वों की होम-बलियों के लिए अपनी निजी सम्पत्ति में से चन्दा दिया।
4) उसने येरुसालेम में रहने वाले लोगों को आज्ञा दी कि वे याजकों और, लेवियों, के लिए निर्धारित भाग दिया करें, जिससे वे अपनी पूरी शक्ति से प्रभु की संहिता के अनुसार कार्य कर सकें।
5) ज्यों ही इस आज्ञा की घोषणा हो गयी, इस्राएली बड़ी उदारता से गेहूँ, अंगूरी, तेल, मधु और खेतों की अन्य सब फ़सलों के प्रथम फल देने आये और प्रचुर मात्रा में सारी उपज का दषमांष लाये।
6) यूदा के नगरों में रहने वाले इस्राएली और यूदावंषी भी गाय-बैलों, भेड़-बकरियों और प्रभु, अपने ईष्वर को अर्पित चढ़ावों का दषमांष ले आये और उन्होंने उनके ढेर लगाये।
7) उन्होंने यह कार्य तीसरे महीने में प्रारम्भ किया और उसे सातवें महीने में पूरा किया।
8) हिजकीया और पदाधिकारी वे ढेर देखने आये और उन्होंने प्रभु एवं उसकी प्रजा को धन्य कहा।
9) हिजकीया ने याजकों और लेवियों से जब उन ढेरों के सम्बन्ध में पूछा,
10) तब प्रधानयाजक अजर्या ने, जो सादोक के घराने का था, उस से कहा, जब से लोग प्रभु के मन्दिर में याजकों का भाग ला रहे हैं, तब से हमें भरपूर भोजन मिला और बहुत बच गया है; क्योंकि प्रभु ने अपनी प्रजा को आषीर्वाद दिया है, इसलिए इतना अधिक शेष रह गया है''।
11) हिजकीया ने प्रभु के मन्दिर में भण्डार तैयार करने का आदेष दिया। जब वे तैयार हो गया,
12) तब लोग वहाँ याजकों का भाग, दषमांष और चढ़ावे नियमित रूप से लाने लगे। लेवी कोनन्या उनका मुख्य पदाधिकारी था और उसका भाई षिमई द्वितीय अधिकारी।
13) यहीएल, अजज्या, नहत, असाएल, यरीमोत, योजाबाद, एलीएल, यिसमक्या, महत और बनाया-ये सब कोनन्या और उसके भाई शिमई के सहायक थे। उन्हें राजा हिजकीया और ईष्वर के मन्दिर के प्रबन्धक अजर्या ने नियुक्त किया था।
14) लेवी यिमना का पुत्र कोरे, जो पूर्व द्वार का द्वारपाल था, उन चढ़ावों की देखरेख करता था, जो ईष्वर को स्वेच्छा से अर्पित किये जाते थे, वह ईष्वर को अर्पित चढ़ावे और परमपवित्र बलि-प्रसाद याजकों में बाँटता था।
15) एदेन, मिनयामीन, येषूआ, शमाया, अमर्या और शकन्या उसके सहायक थे। वे याजकों के नगरों में अपने भाइयों के बीच, उनके दलों के अनुसार, छोटों और बड़ों में भेद किये बिना, उनके भाग बाँटते थे।
16) इसके अतिरिक्त वे उन नामांकित पुरुषों को भी देते थे, जो तीन वर्ष और उससे अधिक के थे और उन सब को भी, जो प्रतिदिन अपने दलों के क्रमानुसार अपनी सेवा- कार्य करने आते थे।
17) याजकों का नामांकन उनके घरानों के अनुसार किया जाता था, जब कि उन लेवियों का नामांकन उनके सेवा- कार्य और दल के अनुसार किया जाता था, जो बीस वर्ष और उस से अधिक के थे।
18) नामांकन में पूरा परिवार, अर्थात् सब छोटे बच्चे, पत्नियाँ, पुत्र और पुत्रियाँ सम्मिलित थे, क्योंकि वे बड़ी ईमानदारी से अपना पवित्र सेवा-कार्य सम्पन्न करते थे।
19) उन हारूनवंषी याजकों के लिए, जो अपने नगरों के चरागाहों पर रहते थे, प्रत्येक नगर में ऐसे लोग नियुक्त किये गये थे, जो याजकों में से प्रत्येक पुरुष को और सभी नामांकित लेवियों को उनके भाग दें।
20) हिजकीया ने यूदा भर में यही किया। उसने वही किया, जो प्रभु की दृष्टि में उचित, न्यायपूर्ण और धर्मानुसार था।
21) वह ईष्वर के मन्दिर की सेवा और संहिता एवं आज्ञाओं के पालन के लिए जो भी करता था, उस में वह सच्चे हृदय से अपने ईष्वर की खोज करता था और इसलिए उसे इस में सफलता मिलती थी।

अध्याय 32

1) हिजकीया के इन निष्ठापूर्ण कार्यों के बाद अस्सूर का राजा सनहेरब आक्रमण करने आया। उसने यूदा के क़िलाबन्द नगरों को अपने अधिकार में करने के लिए उन्हें घेर लिया।
2) जब हिजकीया ने देखा कि सनहेरीब येरुसालेम पर आक्रमण करने आ रहा है,
3) तो उसने अपने पदाधिकारियों और सेनापतियों से परामर्ष करने के बाद निष्चय किया कि नगर के बाहर के जलस्रोत बन्द कर दिये जायें। उन्होंने उसकी सहायता की।
4) बहुत-से लोग एकत्रित किये गये और उन्होने सब स्रोत और देष में बहने वाली नदियों को बन्द कर दिया। उनका कहना था कि अस्सूर के राजा को आने पर पर्याप्त जल क्यों मिले।
5) हिजकीया ने उत्साह के साथ टूटी हुई चारदीवारी का पुनर्निर्माण किया और उसके ऊपर बुर्ज बनवाये और उसके बाहर एक और दीवार उठवायी। उसने दाऊदनगर में मिल्लो-भवन को सुदृढ़ किया। इसके अतिरिक्त उसने बहुत-से भाले और ढालें बनवायीं।
6) इसके बाद उसने लोगों पर सेनापति नियुक्त किये और उन्हें नगर के द्वार के चौक पर अपने पास बुला कर ढारस दिया। उसने कहा,
7) ''दृढ़ बने रहो और ढारस रखो। अस्सूर के राजा और उसके सारे दल से मत डरो और निराष न हो, क्योंकि जो हमारे साथ है, वह उसके साथ के लोगों से महान् है।
8) उसके साथ केवल मनुष्यों का बाहुबल है, किन्तु हमारे साथ प्रभु, हमारा ईष्वर है, जो हमारी सहायता करता और हमारे लिए युद्ध करता है।'' यूदा के राजा हिजकीया के शब्दों से लोगों को आत्मबल मिला।
9) इसके बाद अस्सूर के राजा सनहेरीब ने, जो अपनी सारी सेना से लाकीष को घेरे रहता था, येरुसालेम में यूदा के राजा हिजकीया के पास और येरुसालेम में रहने वाले सब यूदावंषियों के पास यह कहते हुए अपने सेवकों को भेजाः
10) ''अस्सूर के राजा सनहेरीब का यह कहना है कि तुम लोग जिसके भरोसे पर येरुसालेम के क़िले में पड़े रहते हो।
11) जब हिजकीया तुम लोगों से कहता है कि प्रभु, हमारा ईष्वर हमें अस्सूर के राजा के हाथ से छुड़ायेगा, तो वह तुम को धोखा दे रहा है और तुम्हें भूख और प्यास से मौत का षिकार बनाना चाहता है।
12) क्या यह वही हिजकीया नहीं है, जिसने अपने पहाड़ी पूजास्थानों और वेदियों को नष्ट कर दिया है और यूदा और येरुसालेम से कहा कि केवल एक ही वेदी के सामने तुम्हें आराधना करनी चाहिए और उसी पर धूप चढ़ानी चाहिए?
13) क्या तुम नहीं जानते कि मैंने मेरे पूर्वजों ने पृथ्वी के सब लोगों के साथ क्या-क्या किया? क्या पृथ्वी के राष्ट्रों के देवता अपना देष मेरे हाथ से कभी बचा सके?
14) मेरे पूर्वजों ने जिन-जिन जातियों को पूर्ण संहार किया था, उनके सब देवताओं में ऐसा देवता कौन था, जो अपनी प्रजा को मेरे हाथ से बचा सका? तो क्या तुम्हारा ईष्वर तुम्हें मेरे हाथ से बचा सकेगा?
15) इसलिए अब हिजकीया तुम्हें न तो बहकाये और न धोखा दे। उसका विष्वास मत करो, क्योंकि किसी भी जाति या राष्ट्र का देवता अपनी प्रजा को मेरे या मेरे पूर्वजों के हाथ से नहीं बचा सका। फिर तुम्हारा ईष्वर किस हद तक तुम्हें मेरे हाथ से बचा सकेगा?''
16) सनहेरीब के पदाधिकारी इस प्रकार प्रभु-ईष्वर और उसके सेवक हिजकीया की निन्दा करते रहते थे।
17) राजा ने एक निन्दात्मक पत्र भी लिखा, जिस में उसने यह कहते हुए प्रभु-ईष्वर के राजा को चुनौती दी : ''जिस प्रकार पृथ्वी की जातियों के देवता अपनी-अपनी प्रजा को मेरे हाथ से नहीं बचा सकते थे, उसी प्रकार हिजकीया का ईष्वर भी अपनी प्रजा को मेरे हाथ से नहीं बचा सकेगा''।
18) सनहेरीब के पदाधिकारी यहूदियों की भाषा में बड़े जोर से चिल्ला-चिल्ला कर येरुसालेम के उन लोगों से ये बातें कह रहे थे, जो दीवार पर खड़े थे, जिससे वे उन्हें भयभीत एवं विस्मित करें और फिर नगर पर अधिकार कर लें।
19) वे येरुसालेम के ईष्वर के बारे में ऐसे शब्दों का प्रयोग कर रहे थे, जिनका प्रयोग वे पृथ्वी की जातियों के उन देवताओं के बारे में करते है, जो मनुष्य के हाथों से निर्मित हैं।
20) राजा हिजकीया और आमोस के पुत्र नबी इसायाह ने प्रार्थना करते हुए स्वर्ग की दुहाई दी।
21) तब प्रभु ने एक स्वर्गदूत भेजा, जिसने अस्सूर के राजा के पड़ाव के सब वीर योद्धाओं, सेनापतियों और पदाधिकारियों का विनाष कर दिया। सनहेरीब को लज्जित हो कर अपने देष लौट जाना पड़ा और जब उसने अपने देवता के मन्दिर में प्रवेष किया, तो उसके अपने पुत्रों ने उसे तलवार के घाट उतार दिया।
22) इस प्रकार प्रभु ने अस्सूर के राजा सनहेरीब और सब अन्य लोगों के हाथों से हिजकीया और येरुसालेम के निवासियों की रक्षा की और उनके चारों ओर शान्ति स्थापित की।
23) बहुत-से लोग प्रभु के लिए येरुसालेम में चढ़ावे और यूदा के राजा हिजकीया के लिए उपहार लाये। इन घटनाओं के कारण हिजकीया सब राष्ट्रों की दृष्टि में महान् बन गया।
24) उस समय हिजकीया इतना बीमार पड़ा कि मरने-मरने को हो गया। तब उसने प्रभु से प्रार्थना की और प्रभु ने उसकी सुनी और उसके लिए एक चमत्कार दिखाया।
25) लेकिन हिजकीया ने अपने प्रति किये गये उपहार का बदला नहीं चुकाया, क्योंकि वह वह अहंकारी हो गया था। इसलिए उस पर, यूदा और येरुसालेम पर कोप पड़ा।
26) तब हिजकीया ने अपने अहंकार के लिए पष्चात्ताप किया। उसने और येरुसालेम के निवासियों ने दीनता दिखायी। इसलिए प्रभु का कोप हिजकीया के समय में उन पर नहीं पड़ा।
27) हिजकीया को बहुत धन-सम्पत्ति और सम्मान प्राप्त हुआ। उसने अपने लिए चाँदी, सोने, बहुमूल्य मणियों, मसालों, ढालों और अन्य बहुमूल्य सामग्रियों का कोष बनाया
28) तथा गेहूँ, अंगूरी और तेल के लिए भण्डार और सब प्रकार के पशुओं के लिए शालाएँ और भेड़ों के लिए बाड़े बनवाये।
29) उसने नगर बसाये और उसके पास बड़ी संख्या में बैल-गायों और भेड़-बकरियों के झुण्ड थे; क्योंकि ईष्वर ने उसे विपुल सम्पत्ति प्रदान की थी।
30) हिजकीया ने गिहोन के जलस्रोत का ऊपरी निर्गम-मार्ग बन्द कर उसे नीचे की ओर दाऊदनगर के पष्चिमी भाग में बहाया। हिजकीया अपने सब कार्यों में सफल हुआ।
31) जब बाबुल के पदाधिकारी देष में घटित चमत्कार की जानकारी प्राप्त करने आये, तो ईष्वर ने उसे त्यागा और उसकी परीक्षा ली, जिससे उसके मनोभाव प्रकट हो जायें।
32) हिजकीया का शेष इतिहास और उसके सत्कार्यों का वर्णन आमोस के पुत्र नबी इसायाह के ग्रन्थ और यूदा एवं इस्राएल के राजाओं के ग्रन्थ में लिखा है।
33) हिजकीया अपने पितरों से जा मिला और वह दाऊद के वंषजों के समाधिस्थान के मार्ग के पास दफ़नाया गया। उसकी मृत्यु के समय यूदा और येरुसालेम के निवासियों ने उसका सम्मान किया। उसका पुत्र मनस्से उसकी जगह राजा बना।

अध्याय 33

1) जब मनस्से राजा बना, तो वह बारह वर्ष का था। उसने येरुसालेम में पचपन वर्ष शासन किया।
2) उसने वही किया, जो प्रभु की दृष्टि में बुरा है। उसने उन राष्ट्रों के घृणित रीति-रिवाजों का अनुसरण किया, जिन्हें प्रभु ने इस्राएलियों के सामने से भगा दिया था।
3) उसने उन पहाड़ी पूजास्थानों को फिर से बनवाया, जिन्हें उसके पिता हिजकीया ने तुड़वा दिया था। उसने बाल- देव की वेदियाँ और अषेरा-देवी के खूँटे बनवाये। उसने आकाष के नक्षत्रों को दण्डवत् किया और उनकी उपासना की।
4) उसने उसी प्रभु के मन्दिर में वेदियाँ बनवायीं, जिसके विषय में प्रभु ने कहा था, ''मैं येरुसालेम में अपना नाम सदा के लिए प्रतिष्ठित करूँगा''।
5) उसने प्रभु के मन्दिर के दोनों प्रांगणों में नक्षत्रों की वेदियाँ बनवायीं।
6) उसने बेन-हिन्नोम की घाटी में अपने पुत्रों की होम-बलि चढ़ायी। वह अभिचार और जादू-टोना करता और भूत-प्रेत साधने वालों तथा सगुन विचारने वालों से सम्बन्ध रखता था। वह वही करता था, जो प्रभु की दृष्टि में बुरा है और उसने प्रभु का क्रोध भड़काया।
7) उसने देवमूर्ति बनवा कर उसे प्रभु के उसे मन्दिर में रखवाया, जिसके विषय में ईष्वर ने दाऊद और उसके पुत्र सुलेमान से कहा था, ''इस मन्दिर में और येरुसालेम में, जिसे मैंने इस्राएल के सभी वंषों में से चुन लिया है, मैं अपना नाम सदा के लिए प्रतिष्ठित करूँगा।
8) यदि वे लोग मूसा द्वारा अपने को प्रदत्त पूरी संहिता, आदेषों और नियमों का पालन करते रहेंगे, तो मैं इस्राएलियों को उस देष से निर्वासित नहीं करूँगा, जिसे मैंने उनके पूर्वजों को दिया।''
9) मनस्से ने यूदा और येरुसालेम के निवासियों को बहकाया, जिससे उन्होंने उन राष्ट्रों से और अधिक कुकर्म किये, जिन्हें प्रभु ने इस्राएलियों के सामने भगा दिया था।
10) प्रभु ने मनस्से और उसकी प्रजा को चेतावनी दी, किन्तु उन्होंने इस पर ध्यान नहीं दिया।
11) प्रभु ने अस्सूर के राजा के सेनापति को उसके विरुद्ध भेजा। उन्होंने मनस्से को बन्दी बनाया, उसकी नाक में नकेल लगायी और उसे काँसे की दो बेड़ियों से बाँध कर बाबुल भेज दिया।
12) जब वह इस प्रकार विपत्ति में पड़ गया, तो उसने प्रभु, अपने ईष्वर का क्रोध शान्त किया और दीनता-पूर्वक अपने पूर्वजों के ईष्वर से प्रार्थना की।
13) प्रभु को तरस आया, उसने उसकी प्रार्थना सुनी और उसे येरुसालेम ले आ कर उसका राज्य लौटाया। तब मनस्से जान गया कि प्रभु ही ईष्वर है।
14) बाद में उसने घाटी में दाऊदनगर के बाहर एक दीवार बनवायी, जो गिहोन के पष्चिम से होते हुए और ओफ़ेल को घेरते हुए मत्स्य-द्वार तक पहुँचती थी। उसने वह दीवार बहुत ऊँची बनवायी। उसने यूदा के सब क़िलाबन्द नगरों में सेनापतियों को नियुक्त किया।
15) उसने प्रभु के मन्दिर से पराये देवताओं और देवमूर्ति को हटाया और उन वेदियों को येरुसालेम के बाहर फेंक दिया, जिन्हें उसने प्रभु के मन्दिर की पहाड़ी पर और येरुसालेम में बनवाया था।
16) उसने प्रभु की वेदी फिर से स्थापित की, उस पर शान्ति और धन्यवाद की बलियाँ चढ़ायीं और यूदा को आदेष दिया कि वे प्रभु, इस्राएल के ईष्वर की उपासना करें।
17) फिर भी लोग पहाड़ी पूजास्थानों पर बलियाँ चढाते थे, किन्तु वे प्रभु, अपने ईष्वर के आदर में ऐसा करते थे।
18) मनस्से का शेष इतिहास, अपने ईष्वर से उसकी प्रार्थना और द्रष्टाओं के वे शब्द, जो उसे प्रभु, इस्राएल के ईष्वर के नाम पर सम्बोधित करते थे, इस्राएल के राजाओं के इतिहास ग्रन्थों में वर्णित है।
19) उसकी प्रार्थना और उस पर प्रभु की दया, उसका पाप और विष्वासघात और वे स्थान, जहाँ उसने आने हृदयपरिवर्तन से पहले पहाड़ी पूजास्थान बनवाये और अषेरा-देवी के खूँटे और देवमूतियाँ स्थापित कीं-यह सब होजाई के इतिहास में लिखा है।
20) मनस्से अपने पितरों से जा मिला और अपने महल में दफ़नाया गया। उसका पुत्र आमोन उसकी जगह राजा बना।
21) जब अमोन राजा बना, तो वह बाईस वर्ष का था। उसने येरुसालेम में दो वर्ष शासन किया।
22) उसने अपने पिता मनस्से की तरह वही किया, जो प्रभु की दृष्टि में बुरा है। आमोन ने अपने पिता द्वारा निर्मित सब देवमूर्तियों को बलिदान चढ़ाये और उनकी उपासना की।
23) किन्तु वह अपने पिता मनस्से की तरह प्रभु के सामने दीन नहीं बना, बल्कि वह कुकर्म करता रहा।
24) उसके सेवकों ने उसके विरुद्ध षड्यन्त्र रचा और उसे उसके महल में ही मार डाला।
25) फिर देष की जनता ने उन सब को मार डाला, जिन्होंने राजा अमोन के विरुद्ध षड्यन्त्र रचा था और इसके बाद उसने उसके स्थान पर उसके पुत्र योषीया को राजा बनाया।

अध्याय 34

1) जब योषीया राजा बना, तो वह आठ वर्ष का था। उसने येरुसालेम में इक्तीस वर्ष शासन किया।
2) उसने वही किया, जो प्रभु की दृष्टि में उचित है। वह अपने पूर्वज दाऊद के मार्ग पर चलता था और उस से रंचमात्र भी विचलित नहीं हुआ।
3) अपने शासन के आठवें वर्ष, जब वह किषोर था, वह अपने पूर्वज दाऊद के ईष्वर की ओर अभिमुख हो गया। वह बारहवें वर्ष यूदा और येरुसालेम से पहाड़ी पूजा स्थान, अषेरा-देवी के खूँटे और गढ़ी एवं ढली देवमूर्तियाँ हटाने लगा।
4) उसके सामने ही बाल-देवताओं की वेदियाँ ढहा दी गयीं। उसने उन पर अवस्थित धूप-वेदिकाओं को गिरा दिया, अषेरा-देवी के खूँटों और बढ़ी एवं ढली मूर्तियों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले और उन लोगों की क़ब्रों पर बिखेर दिया, जिन्होंने उन पर बलि चढ़ायी थी।
5) उसने पुजारियों की अस्थियाँ उन वेदियों पर जला दीं। इस तरह उसने यूदा और येरुसालेम की शुद्धि की।
6) उसने मनस्से, एफ्रईम, सिमओन और नफ्ताली के नगरों में-उनके आसपास के क्षेत्रों में-
7) वेदियों को गिरा दिया। उसने अषेरा-देवी के खूँटों और मूर्तियों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले तथा इस्राएल देश भर की सब धूप-वेदिकाओं को गिरा दिया। इसके बाद वह येरुसालेम लौट गया।
8) अपने शासनकाल के अठारवें वर्ष, जब देष और मन्दिर की शुद्धि हो चुकी थी, उसने असल्या के पुत्र शाफ़ान, नगराध्यक्ष मासेया और यहोआहाज के पुत्र अभिलेखी योआह को प्रभु, अपने ईष्वर के मन्दिर का जीर्णोद्धार करने भेजा।
9) उन्होंने महायाजक हिलकीया के पास वह द्रव्य दिया, जो ईष्वर के मन्दिर में लाया गया था और जिसे लेवीवंषी द्वारपालों ने मनस्से, एफ्रईम, सारे इस्राएल, सारे यूदा, बेनयामीन और येरुसालेम के निवासियों से प्राप्त किया था।
10) उन्होंने उसे प्रभु के मन्दिर में हो रहे काम का निरीक्षण करने वाले कर्मचारियों को दिया, जिससे वे उसे मन्दिर की मरम्मत और जीर्णोद्धार के लिए ख़र्च करें।
11) उन्होंने उसे बढ़इयों और कारीगरों को दे दिया, जिससे वे गढ़े पत्थर और लकड़ी उन भवनों के लिए ख़रीदें, जिन्हें यूदा के राजाओं ने ध्वस्त हो जाने को छोड़ दिया था।
12) वे लोग अपना काम ईमानदारी से कर रहे थे। लेवी यहत एवं ओबद्या, जो मरारी के वंषज थे और जकर्या एवं मषुल्लाम, जो कहात के वंषज थे, उनका निरीक्षण करते थे।
13) कुछ और लेवी, जो वाद्य-यन्त्र बजाने में निपुण थे, बोझा ढोने वालों और विभिन्न काम करने वालों का निरीक्षण करते थे। कुछ अन्य लेवी सचिव, लिपिक और द्वारपाल थे।
14) जब वे उस द्रव्य को, जो प्रभु के मन्दिर में लाया गया था, बाहर निकाल रहे थे, तो जो संहिता प्रभु ने मूसा द्वारा दी थी, उसका ग्रन्थ याजक हिलकीया को मिला।
15) हिलकीया ने सचिव शाफ़ान से कहा, ''मुझे प्रभु के मन्दिर में संहिता का ग्रन्थ मिला है'' और हिलकीया ने उस ग्रन्थ को शाफ़ान को दे दिया।
16) इस पर शाफ़ान ग्रन्थ को राजा के पास ले गया। उसने राजा को काम का विवरण देते हुए कहा, ''आपके सेवकों को जो कार्य सौंपा गया, वे उसे ईमानदारी से कर रहे हैं।
17) उन्होंने प्रभु के मन्दिर में पाया जाने वाला द्रव्य निकाला और उसे कर्मचारियों और कारीगरों को दे दिया।''
18) सचिव शाफ़ान ने राजा से यह भी कहा, ''याजक हिलकीया ने मुझे एक ग्रन्थ दिया है''। तब शाफ़ान ने उसे राजा के सामने पढ़ कर सुनाया।
19) जब राजा ने सुना कि संहिता के ग्रन्थ में क्या लिखा है, तो उसने अपने वस्त्र फाड़ कर
20) हिलकीया, शाफ़ान के पुत्र अहीकाम, मीका के पुत्र अबदोन, सचिव शाफ़ान और राजा के सेवक असाया को आदेष दिया :
21) तुम लोग जाओ और जो ग्रन्थ मिला है, उसके विषय में मेरी और समस्त इस्राएल एवं यूदा की ओर से प्रभु से परामर्ष करो। हमारे पुरखों ने प्रभु की आज्ञाओं का पालन नहीं किया और उस में जो कुछ लिखा है, उसके अनुसार आचरण नहीं किया। इसलिए हम पर प्रभु का बड़ा क्रोध भड़क उठा।''
22) उसके बाद हिलकीया राजा द्वारा निर्दिष्ट अन्य व्यक्तियों के साथ नबिया हुल्दा के पास गया। वह वस्त्र-गृह के प्रबन्धक के शल्लूम की पत्नी थी, जो तोकहत का पुत्र और हस्रा का पौत्र था। उस समय वह येरुसालेम के नये मुहल्ले में रहती थी।
23) उसने उनके पूछने पर उन्हें यह उत्तर दिया, ''प्रभु, इस्राएल के ईष्वर का कहना है : तुम उस मनुष्य से, जिसने तुम्हें मेरे यहाँ भेजा है,
24) कहो कि प्रभु का यह कहना है : देखो, मैं इस स्थान पर और इसके निवासियों पर उस ग्रन्थ के उन सब वचनों के अनुसार, जिन्हें यूदा के राजा को पढ़ कर सुनाया गया है, विपत्तियाँ ढाहूँगा;
25) क्योंकि उन लोगों ने मेरा परित्याग किया, अन्य देवों को धूप चढ़ायी और अपने हाथ की बनायी हुई देवमूर्तियों द्वारा मेरा क्रोध प्रज्वलित किया और वह नहीं बुझेगा।
26) यूदा के राजा से, जिसने तुम्हें प्रभु से पूछने के लिए यहाँ भेजा है, यह कहो : प्रभु, इस्राएल के ईष्वर का कहना है- तुमने जो बातें सुनी हैं,
27) उनके विषय में वह कहता है। जब तुमने सुना कि मैंने इस स्थान और इसके निवासियों के विरुद्ध क्या कहा, तो तुमने हृदय से पष्चात्ताप किया, प्रभु के सामने दीन बने और अपने वस्त्र फाड़ कर मेरे सामने रोते रहे; इसलिए मैंने तुम्हारी प्रार्थना सुनी।
28) मैं तुम्हें अपने पूर्वजों से मिलाऊँगा और तुम अपनी क़ब्र में शान्ति-पूर्वक दफ़नाये जाओगे। तुम्हारी आँखें वे सब विपत्तियाँ नहीं देखेंगी, जिन्हें मैं इस स्थान और इसके निवासियों पर ढाहने जा रहा हूँ।'' तब उन्होंने जा कर राजा को इसकी सूचना दी।
29) अब राजा ने यूदा और येरुसालेम के सब नेताओं को बुला भेजा।
30) राजा यूदा के सब पुरुषों, येरुसालेम के निवासियों, याजकों, लेवियों और छोटों से ले कर बड़ों तक, सभी लोगों के साथ प्रभु के मन्दिर गया। उसने विधान का ग्रन्थ, जो प्रभु के मन्दिर में पाया गया था, पूरा-पूरा पढ़ सुनाया।
31) राजा ने मंच पर खड़ा हो कर प्रभु के सामने प्रतिज्ञा की कि हम प्रभु के अनुयायी बनेंगे। हम सारे हृदय और सारी आत्मा से उसके आदेषों, नियमों और आज्ञाओं का पालन करेंगे और इस प्रकार इस ग्रन्थ में लिखित विधान की सब बातें पूरी करेंगे।
32) इसके बाद उसके कहने पर येरुसालेम और बेनयामीन के सभी लोगों ने विधान का आज्ञापालन करना स्वीकार किया। येरुसालेम के निवासी ईष्वर के-अपने पूर्वजों के ईष्वर के-विधान के अनुसार चलने लगे।
33) योषीया ने इस्राएल के सब प्रान्तों से सब घृणित वस्तुओं को हटा दिया और इस्राएल के सब लोगों को बाध्य किया कि वे प्रभु, अपने ईष्वर की सेवा करें। वह जब तक जीवित रहा, लोगों ने प्रभु, अपने पूर्वजों के ईष्वर का परित्याग नहीं किया।

अध्याय 35

1) योषीया ने येरुसालेम में प्रभु के आदर में पास्का-पर्व मनाया। उन्होंने पहले महीने के चौदहवें दिन पास्का के मेमने का वध किया।
2) योषीया ने याजकों का सेवा-कार्य निष्चित किया और उन्हें प्रभु के मन्दिर में अपना कर्तव्य करने के लिए प्रोत्साहित किया।
3) उसने उन लेवियों से, जो समस्त इस्राएलियों को उपदेष देते थे और प्रभु की सेवा में समर्पित थे, कहा, ''दाऊद के पुत्र इस्राएल के राजा सुलेमान द्वारा निर्मित भवन में पवित्र मंजूषा रखो। अब तुम्हें उसे कन्धों पर उठा कर ले जाने की आवष्यकता नहीं। अब तुम प्रभु, अपने ईष्वर और उसकी प्रजा इस्राएल की सेवा करो।
4) तुम अपने घरानों और दलों के क्रमानुसार तैयार रहो, जैसा कि राजा दाऊद और उनके पुत्र सुलेमान के निर्देषों में लिखा है।
5) तुम अपने भाइयों, जनसाधारण के कुलों और घरानों के अनुसार और उनके लिए निर्धारित लेवियों के दलों के साथ मन्दिर में उपस्थित रहो।
6) पास्का के मेमने का वध करो। अपने को पवित्र करो और आपने भाइयों की सेवा के लिए तैयार रहो, जिससे प्रभु द्वारा मूसा को दिये गये निर्देषो के अनुसार कार्य किया जाये।''
7) योषीया ने जनता के लिए, उन सब के लिए जो आये थे, पास्का-बलि के रूप में भेड़-बकरियों के बच्चों का प्रबन्ध किया और इसके अतिरिक्त तीन हजार बछडे। ये सब राजा की निजी सम्पत्ति में से थे।
8) उसके पदाधिकारी स्वेच्छा से जनता, याजकों और लेवियों को दान देते थे। हिलकीया, जकर्या, और यहीएल ने, जो ईष्वर के मन्दिर के प्रधान थे, याजकों को पास्का-बलि के लिए दो हजार छः सौ भेड़-बकरियों के बच्चे और तीन सौ बछड़े दिये।
9) कोनन्या और उसके भाई शमाया तथा नतनएल और हषब्या, यईएल और योजाबाद ने, जो लेवियों के प्रधान थे, लेवियों को पास्का-बलि के लिए पाँच हजार भेड़-बकरियों के बच्चे और पाँच सौ बछडे दिये।
10) उपासना की व्यवस्था पूरी हो जाने पर याजक, राजा के निर्देष का पालन करते हुए, अपने-अपने स्थान पर पहुँच गये और लेवी भी अपने दलों के अनुसार।
11) उन्होंने पास्का के मेमने का वध किया। याजको ने लेवियों के हाथ से रक्त ग्रहण कर उसे वेदी पर छिड़का और लेवियों ने उनकी खालें उतारीं।
12) जैसा कि मूसा के ग्रन्थ में लिखा है, उन्होंने घरानों के मुखियाओं को उनका-अपना भाग दिया और एक भाग अलग कर दिया, जो होम-बलि के रूप में प्रभु को अर्पित किया गया जाता था। बछड़ों के साथ भी ऐसा ही किया गया।
13) उन्होंने नियम के अनुसार पास्का का मेमना भूना और अन्य पवित्र भेंटें कड़ाहों, तवों और पात्रों में पका कर उन्हें शीघ्र ही सब लोगों तक पहुँचाया।
14) इसके बाद उन्होंने अपने और याजकों के लिए प्रसाद तैयार किया; क्योंकि हारूनवंषी याजक रात को देर तक होम-बलियाँ और चर्बी चढ़ाने में लगे थे, इसलिए लेवियों ने अपने और हारूनवंषी याजकों के लिए प्रबन्ध किया।
15) दाऊद, आसाफ़, हेमान और राजा के द्रष्टा यदूतून द्वारा निर्दिष्ट व्यवस्था के अनुसार आसाफ़वंषी गायक अपने- अपने स्थानों पर उपस्थित थे और द्वारपाल अपने-अपने निष्चित द्वारों पर। उन को अपना सेवा-कार्य स्थगित नहीं करना पड़ा; क्योंकि उनके भाई-बन्धु लेवियों ने उनके लिए प्रसाद का प्रबन्ध कर दिया।
16) उस दिन प्रभु के सारे सेवा-कार्य का इस प्रकार प्रबन्ध किया गया कि राजा योषीया के निर्देष के अनुसार पास्का मनाया गया और प्रभु की वेदी पर होम-बलियाँ चढ़ायी गयीं।
17) उस समय एकत्रित इस्राएली पास्का और सात दिन तक बेख़मीर रोटियों का पर्व मनाते रहे।
18) इस्राएल में नबी समूएल के समय से पास्का-पर्व इस प्रकार नहीं मनाया गया था। जिस प्रकार योशीया ने याजकों और लेवियों, यूदा और इस्राएल से आये हुए सभी लोगों तथा येरुसालेम के निवासियों के साथ पास्का मनाया था, उस प्रकार इस्राएल के राजाओं में किसी ने कभी नहीं मनाया था।
19) इस प्रकार योषीया के शासनकाल के अठारहवें वर्ष पास्का मनाया गया।
20) उन कार्यो के बाद, जब योषीया ने मन्दिर को व्यवस्थित किया था, मिस्र का राजा नको फ़रात नदी के पास स्थित करकमीष पर आक्रमण करने गया और योषीया उसका सामना करने निकला।
21) नको ने दूतों द्वारा उस से यह कहला भेजाः ''यूदा के राजा! मुझ से आप को क्या? आज मैं आपके विरुद्ध लड़ने नहीं आया हूँ, बल्कि उस घराने के विरुद्ध लड़ने आया हूँ, जिसके साथ मेरी शत्रुता है और ईष्वर ने मुझे शीघ्रता करने को कहा है। इसलिए उस ईष्वर के कार्य में बाधा मत डालिए, जो मुझे सहायता दे रहा है। नहीं तो वह आपका सर्वनाष कर देगा।''
22) लेकिन योषीया ने अपना मन नहीं बदला और उस से युद्ध करना चाहा। उसने नको की बातों पर, जो ईष्वर- प्रेरित थीं, ध्यान नहीं दिया और वह उस से युद्ध करने मंगिद्दो के मैदान की ओर चल पड़ा।
23) धनुर्धरों ने राजा योषीया पर बाण चलाये। तब राजा ने अपने सेवकों से कहा, ''मुझे ले चलो, मैं बहुत घायल हो गया हूँ''।
24) उसके सेवकों ने उसे युद्ध-रथ से उतारा और दूसरे रथ में बिठा कर येरुसालेम ले गये। वहाँ उसकी मृत्यु हो गयी और वह अपने पूर्वजों के समाधिस्थान में दफ़नाया गया। सारे यूदा और येरुसालेम ने योषीया की मृत्यु पर शोक मनाया।
25) यिरमियाह ने योषीया के लिए शोक-गीत की रचना की। सब गायक और गायिकाएँ आज तक अपने शोक-गीतों में योषीया की चरचा करते हैं। इस्राएल में यह एक परम्परा बन गयी। वे गीत ÷शोकगीत' नामक ग्रन्थ में सम्मिलित किये गये हैं।
26) योषीया का शेष इतिहास और प्रभु की संहिता के अनुसार
27) उसके सत्कार्य प्रारम्भ से अन्त तक इस्राएल और यूदा के राजाओं के इतिहास-ग्रन्थ में लिखा है।

अध्याय 36

1) देष की जनता ने येरुसालेम में योषीया के पुत्र योआहाज को उसके पिता की जगह राजा बनाया।
2) योआहाज जब राजा बना, तो तेईस वर्ष का था। उसने येरुसालेम में तीन महीने शासन किया।
3) मिस्र के राजा ने उसे येरुसालेम के राजपद से हटा दिया और देष पर एक सौ मन चाँदी और एक मन सोने का कर लगाया।
4) इसके बाद मिस्र के राजा ने उसके भाई एल्याकीम को यूदा और येरुसालेम का राजा नियुक्त किया और उसका नाम बदल कर यहोयाकीम कर दिया। नको उसके भाई योआहाज को पकड़ कर मिस्र ले गया।
5) यहोयाकीम जब राजा बना, तो पच्चीस वर्ष का था। उसने येरुसालेम में ग्यारह वर्ष शासन किया। उसने भी वही किया, जो प्रभु, उसके ईष्वर की दृष्टि में बुरा है।
6) बाबुल के राजा नबूकदनेजर ने उस पर आक्रमण किया और उसे काँसे की दो बेड़ियों से बाँध कर बाबुल ले गया।
7) नबूकदनेजर प्रभु के मन्दिर की सामग्री का एक भाग भी बाबुल ले गया और बाबुल के अपने महल में रख दिया।
8) यहोयाकीम का शेष इतिहास, उसके घृणित कार्य और चरित-यह सब इस्राएल और यूदा के राजाओं के इतिहास ग्रन्थ में लिखा है। उसका पुत्र यहोयाकीन उसकी जगह राजा बना।
9) यहोयाकीन जब राजा बना, तो अठारह वर्ष का था। उसने येरुसालेम में तीन महीने और दस दिन शासन किया। उसने वही किया, जो प्रभु की दृष्टि में बुरा है।
10) वसन्त के दिनों में राजा नबूकदनेजर प्रभु के मन्दिर की बहुमूल्य वस्तुओं-सहित उसे बाबुल ले गया और उसके सम्बन्धी सिदकीया को यूदा और येरुसालेम का राजा नियुक्त किया।
11) सिदकीया जब राजा बना, तो इक्कीस वर्ष का था। उसने येरुसालेम में ग्यारह वर्ष शासन किया।
12) उसने वही किया, जो प्रभु की दृष्टि में बुरा है। वह यिरमियाह के सामने दीन नहीं बना, जो उसे प्रभु की ओर से समझाता था।
13) इसके अतिरिक्त उसने राजा नबूकदनेजर से विद्रोह किया, यद्यपि उसने उसे ईष्वर की शपथ दिलायी थी। वह हठी बना रहा, अपना हृदय कठोर बनाये रखा और प्रभु, इस्राएल के ईष्वर की ओर अभिमुख नहीं हुआ।
14) याजकों के नेताओं में और जनता में भी बहुत अधिक अधर्म फैल गया, क्योंकि उन्होंने गैर-यहूदी राष्ट्रों के घृणित कार्यों का अनुकरण किया और प्रभु द्वारा प्रतिष्ठित येरुसालेम को मन्दिर अपवित्र कर दिया।
15) प्रभु, उनके पूर्वजों का ईष्वर उनके पास अपने दूतों को निरन्तर भेजता रहा; क्योंकि उसे अपने मन्दिर तथा अपनी प्रजा पर तरस आता था।
16) किन्तु उन्होंने ईष्वर के दूतों का उपहास किया, उसके उपदेषों का तिरस्कार किया और उसके नबियों की हँसी उड़ायी। अन्त में ईष्वर का क्रोध अपनी प्रजा पर फूट पड़ा और उस से बचने का कोई उपाय नहीं रहा।
17) प्रभु ने खल्दैयियों के राजा को उनके विरुद्ध भेजा, जिसने उनके मन्दिर में ही उनके नौजवानों को तलवार के घाट उतार दिया और युवकों, युवतियों, वृद्धों और अतिवृद्धों पर भी दया नहीं की। ईष्वर ने सब को नबूकदनेजर के हाथ दिया था।
18) ईष्वर के मन्दिर की क्या छोटी क्या बड़ी, सब सामग्री-प्रभु के मन्दिर के कोष, राजा और उसके पदाधिकारियों के कोष-उन सब को वह बाबुल ले गया।
19) बाबुल के लोगों ने ईष्वर का मन्दिर जलाया, येरुसालेम की चारदीवारी गिरा दी, उसके सब महलों का आग लगा कर सर्वनाष किया और उसकी सब बहुमूल्य वस्तुएँ नष्ट कर दीं।
20) जो लोग तलवार से बच गये, उन्हें बन्दी बना कर बाबुल ले जाया गया। वहाँ वे तब तक राजा और उसके वंषजों के दास बने रहे, जब तक फ़ारसी लोगों का राज्य स्थापित नहीं हुआ।
21) इस तरह यिरमियाह के मुख से प्रभु ने जो कहा था, वह पूरा हो गया- ÷विश्राम-दिवस अपवित्र करने के प्रायष्चित के रूप में यूदा की भूमि उजड़ कर सत्तर वर्षों तक परती पड़ी रहेगी'।
22) यिरमियाह द्वारा घोषित अपनी वाणी पूरी करने के लिए प्रभु ने फ़ारस के राजा सीरुस को उसके शासनकाल के प्रथम वर्ष में प्रेरित किया कि वह अपने सम्पूर्ण राज्य में यह लिखित राजाज्ञा प्रसारित करेः
23) ''फ़ारस के राजा सीरुस कहते हैः प्रभु, स्वर्ग के ईष्वर ने मुझे पृथ्वी के सब राज्य प्रदान किये और उसने मुझे यहूदिया के येरुसालेम में एक मन्दिर बनवाने का आदेष दिया है। ईष्वर उनके साथ रहे, जो तुम लोगों में उसकी प्रजा के सदस्य हैं। वे लोग येरुसालेम की ओर प्रस्थान करें।''