पवित्र बाइबिल : Pavitr Bible ( The Holy Bible )

पुराना विधान : Purana Vidhan ( Old Testament )

उत्पत्ति ग्रन्थ ( Genesis )

अध्याय 1

1) प्रारंभ में ईश्वर ने स्वर्ग और पृथ्वी की सृष्टि की।
2) पृथ्वी उजाड़ और सुनसान थी। अर्थाह गर्त पर अन्धकार छाया हुआ था और ईश्वर का आत्मा सागर पर विचरता था।
3) ईश्वर ने कहा, ''प्रकाश हो जाये'', और प्रकाश हो गया।
4) ईश्वर को प्रकाश अच्छा लगा और उसने प्रकाश और अन्धकार को अलग कर दिया।
5) ईश्वर ने प्रकाश का नाम 'दिन' रखा और अन्धकार का नाम 'रात'। सन्ध्या हुई और फिर भोर हुआ - यह पहला दिन था।
6) ईश्वर ने कहा, ''पानी के बीच एक छत बन जाये, जो पानी को पानी से अलग कर दे'', और ऐसा ही हुआ।
7) ईश्वर ने एक छत बनायी और नीचे का पानी और ऊपर का पानी अलग कर दिया।
8) ईश्वर ने छत का नाम 'आकाश' रखा। सन्ध्या हुई और फिर भोर हुआ - यह दूसरा दिन था।
9) ईश्वर ने कहा, ''आकाश के नीचे का पानी एक ही जगह इक्कट्ठा हो जाये और थल दिखाई पड़े'', और ऐसा ही हुआ।
10) ईश्वर ने थल का नाम 'पृथ्वी' रखा और जल-समूह का नाम 'समुद्र'। और वह ईश्वर को अच्छा लगा।
11) ईश्वर ने कहा ''पृथ्वी पर हरियाली लहलहाये, बीजदार पौधे और फलदार पेड़ उत्पन्न हो जायें, जो अपनी-अपनी जाति के अनुसार बीजदार फल लाये'', और ऐसा ही हुआ।
12) पृथ्वी पर हरियाली उगने लगी : अपनी-अपनी जाति के अनुसार बीज पैदा करने वाले पौधे और बीजदार फल देने वाले पेड़। और यह ईश्वर को अच्छा लगाा।
13) सन्ध्या हुई और फिर भोर हुआ - यह तीसरा दिन था।
14) ईश्वर ने कहा, ''दिन और रात को अलग कर देने के लिए आकाश में नक्षत्र हों। उनके सहारे पर्व निर्धारित किये जायें और दिनों तथा वर्षों की गिनती हो।
15) वे पृथ्वी को प्रकाश देने के लिए आकाश में जगमगाते रहें'' और ऐसा ही हुआ।
16) ईश्वर ने दो प्रधान नक्षत्र बनाये, दिन के लिए एक बड़ा और रात के लिए एक छोटा; साथ-साथ तारे भी।
17) ईश्वर ने उन को आकाश में रख दिया, जिससे वे पृथ्वी को प्रकाश दें,
18) दिन और रात का नियंत्रण करें और प्रकाश तथा अन्धकार को अलग कर दें और यह ईश्वर को अच्छा लगा।
19) सन्ध्या हुई और फिर भोर हुआ - यह चौथा दिन था।
20) ईश्वर ने कहा, ''पानी जीव-जन्तुओं से भर जाये और आकाश के नीचे पृथ्वी के पक्षी उड़ने लगें''।
21) ईश्वर ने मकर और नाना प्रकार के जीव-जन्तुओं की सृष्टि की, जो पानी में भरे हुए हैं और उसने नाना प्रकार के पक्षियों की भी सृष्टि की, और यह ईश्वर को अच्छा लगा।
22) ईश्वर ने उन्हें यह आशीर्वाद दिया, ''फलो-फूलो। समुद्र के पानी में भर जाओ और पृथ्वी पर पक्षियों की संख्या बढ़ती जाये''।
23) सन्ध्या हुई और फिर भोर हुआ - यह पाँचवा दिन था।
24) ईश्वर ने कहा, ''पृथ्वी नाना प्रकार के घरेलू और ज+मीन पर रेंगने वाले जीव-जन्तुओं को पैदा करें'', और ऐसा ही हुआ।
25) ईश्वर ने नाना प्रकार के जंगली, घरेलू और जमीन पर रेंगने वाले जीव-जन्तुओं को बनाया और यह ईश्वर को अच्छा लगा।
26) ईश्वर ने कहा, ''हम मनुष्य को अपना प्रतिरूप बनायें, यह हमारे सदृश हो। वह समुद्र की मछलियों, आकाश के पक्षियों घरेलू और जंगली जानवरों और जमीन पर रेंगने वाले सब जीव-जन्तुओं पर शासन करें।''
27) ईश्वर ने मनुष्य को अपना प्रतिरूप बनाया; उसने उसे ईश्वर का प्रतिरूप बनाया; उसने नर और नारी के रूप में उनकी सृष्टि की।
28) ईश्वर ने यह कह कर उन्हें आशीर्वाद दिया, ''फलो-फूलो। पृथ्वी पर फैल जाओ और उसे अपने अधीन कर लो। समुद्र की मछलियों, आकाश के पक्षियों और पृथ्वी पर विचरने वाले सब जीव-जन्तुओं पर शासन करो।''
29) ईश्वर ने कहा, मैं तुम को पृथ्वी भर के बीज पैदा करने वाले सब पौधे और बीजदार फल देने वाले सब पेड़ देता हूँ। वह तुम्हारा भोजन होगा। मैं सब जंगली जानवरों को, आकाश के सब पक्षियों को,
30) पृथ्वी पर विचरने वाले जीव-जन्तुओं को उनके भोजन के लिए पौधों की हरियाली देता हूँ'' और ऐसा ही हुआ।
31) ईश्वर ने अपने द्वारा बनाया हुआ सब कुछ देखा और यह उसको अच्छा लगा। सन्ध्या हुई और फिर भोर हुआ - यह छठा दिन था।

अध्याय 2

1) इस प्रकार आकाश तथा पृथ्वी और, जो कुछ उन में है, सब की सृष्टि पूरी हुई।
2) सातवें दिन ईश्वर का किया हुआ कार्य समाप्त हुआ। उसने अपना समस्त कार्य समाप्त कर, सातवें दिन विश्राम किया।
3) ईश्वर ने सातवें दिन को आशीर्वाद दिया और उसे पवित्र माना; क्योंकि उस दिन उसने सृष्टि का समस्त कार्य समाप्त कर विश्राम किया था।
4) यह है आकाश और पृथ्वी की उत्पत्ति का वृत्तांत। जिस प्रकार प्रभु-ईश्वर ने पृथ्वी और आकाश बनाया,
5) उस समय पृथ्वी पर न तो जंगली पौधे थे और न खेतों में घास उगी थी; क्योंकि प्रभु-ईश्वर ने पृथ्वी पर पानी नहीं बरसाया था और कोई मनुष्य भी नहीं था, जो खेती-बारी करें;
6) किन्तु भूमि में से जलप्रवाह निकले और समस्त धरती सींचने लगे।
7) प्रभु ने धरती की मिट्ठी से मनुष्य को गढ़ा और उसके नथनों में प्राणवायु फूँक दी। इस प्रकार मनुष्य एक सजीव सत्व बन गया।
8) इसके बाद ईश्वर ने पूर्व की ओर, अदन में एक वाटिका लगायी और उस में अपने द्वारा गढ़े मनुष्य को रखा।
9) प्रभु-ईश्वर ने धरती से सब प्रकार के वृक्ष उगायें, जो देखने में सुन्दर थे और जिनके फल स्वादिष्ट थे। वाटिका के बीचोंबीच जीवन-वृक्ष था और भले-बुरे के ज्ञान का वृक्ष भी।
10) अदन से वाटिका को सींचने वाली एक नदी निकलती थी और वहाँ वह चार धाराओं में विभाजित हो जाती थी। पहली धारा का नाम पीशोन है।
11) यह वह धारा है, जो पूरे हवीला देश के चारों ओर बहती है। वहाँ सोना पाया जाता है।
12) उस देश का सोना अच्छा होता है। वहाँ गुग्गुल और गोमेद भी मिलते है।
13) दूसरी धारा का नाम गीहोन है। यह कुश देश के चारों ओर बहती है।
14) तीसरी धारा का नाम दजला है। यह अस्सूर के पूर्व में बहती है। चौथी धारा का नाम फ़रात है।
15) प्रभु-ईश्वर ने मनुष्य को अदन की वाटिका में रख दिया, जिससे वह उसकी खेती-बारी और देखरेख करता रहे।
16) प्रभु-ईश्वर ने मनुष्य को यह आदेश दिया, ''तुम वाटिका के सभी वृक्षों के फल खा सकते हो,
17) किन्तु भले-बुरे के ज्ञान के वृक्ष का फल नहीं खाना; क्योंकि जिस दिन तुम उसका फल खाओगे, तुम अवश्य मर जाओगे''।
18) प्रभु ने कहा, ''अकेला रहना मनुष्य के लिए अच्छा नहीं। इसलिए मैं उसके लिए एक उपयुक्त सहयोगी बनाऊँगा।''
19) तब प्रभु ने मिट्ठी से पृथ्वी पर के सभी पशुओं और आकाश के सभी पक्षियों को गढ़ा और यह देखने के लिए कि मनुष्य उन्हें क्या नाम देगा, वह उन्हें मनुष्य के पास ले चला; क्योंकि मनुष्य ने प्रत्येक को जो नाम दिया होगा, वही उसका नाम रहेगा।
20) मनुष्य ने सभी घरेलू पशुओं, आकाश के पक्षियों और सभी जंगली जीव-जन्तुओं का नाम रखा। किन्तु उसे अपने लिए उपयुक्त सहयोगी नहीं मिला।
21) तब प्रभु-ईश्वर ने मनुष्य को गहरी नींद में सुला दिया और जब वह सो गया, तो प्रभु ने उसकी एक पसली निकाल ली और उसकी जगह को मांस से भर दिया।
22) इसके बाद प्रभु ने मनुष्य से निकाली हुई पसली से एक स्त्री को गढ़ा और उसे मनुष्य के पास ले गया।
23) इस पर मनुष्य बोल उठा, ''यह तो मेरी हड्डियों की हड्डी है और मेरे मांस का मांस। इसका नाम 'नारी' होगा, क्योंकि यह तो नर से निकाली गयी है।
24) इस कारण पुरुष अपने माता-पिता को छोड़ेगा और अपनी पत्नी के साथ रहेगा और वे दोनों एक शरीर हो जायेंगे।
25) वह मनुष्य और उसकी पत्नी, दोनों नंगे थे, फिर भी उन्हें एक दूसरे के सामने लज्जा का अनुभव नहीं होता था।

अध्याय 3

1) ईश्वर ने जिन जंगली जीव-जन्तुओं को बनाया था, उन में साँप सब से धूर्त था। उसने स्त्री से कहा, ''क्या ईश्वर ने सचमुच तुम को मना किया कि वाटिका के किसी वृक्ष का फल मत खाना''?
2) स्त्री ने साँप को उत्तर दिया, ''हम वाटिका के वृक्षों के फल खा सकते हैं।
3) परंतु वाटिका के बीचोंबीच वाले वृक्ष के फलों के विषय में ईश्वर ने यह कहा - तुम उन्हें नहीं खाना। उनका स्पर्श तक नहीं करना, नहीं तो मर जाओगे।''
4) साँप ने स्त्री से कहा, ''नहीं! तुम नहीं मरोगी।''
5) ईश्वर जानता है कि यदि तुम उस वृक्ष का फल खाओगे, तो तुम्हारी आँखें खुल जायेंगी। तुम्हें भले-बुरे का ज्ञान हो जायेगा और इस प्रकार तुम ईश्वर के सदृश बन जाओगे।
6) अब स्त्री को लगा कि उस वृक्ष का फल स्वादिष्ट है, वह देखने में सुन्दर है और जब उसके द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है, तो वह कितना लुभावना है! इसलिए उसने फल तोड़ कर खाया। उसने पास खड़े अपने पति को भी उस में से दिया और उसने भी खा लिया।
7) तब दोनों की आँखें खुल गयीं और उन्हें पता चला कि वे नंगे हैं। इसलिए उन्होंने अंजीर के पत्ते जोड़-जोड़ कर अपने लिए लंगोट बना लिये।
8) जब दिन की हवा चलने लगी, तो पुरुष और उसकी पत्नी को वाटिका में टहलते हुए प्रभु-ईश्वर की आवाज सुनाई पड़ी और वे वाटिका के वृक्षों में प्रभु-ईश्वर से छिप गये।
9) प्रभु-ईश्वर ने आदम से पुकार कर कहा, ''तुम कहाँ हो?''
10) उसने उत्तर दिया, ''मैं बगीचे में तेरी आवाज+ सुन कर डर गया, क्योंकि में नंगा हँू और मैं छिप गया''।
11) प्रभु ने कहा, ''किसने तुम्हें बताया कि तुम नंगे हो? क्या तुमने उस वृक्ष का फल खाया, जिस को खाने से मैंने तुम्हें मना किया था?''
12) मनुष्य ने उत्तर दिया, ''मेरे साथ रहने कि लिए जिस स्त्री को तूने दिया, उसी ने मुझे फल दिया और मैंने खा लिया''।
13) प्रभु-ईश्वर ने स्त्री से कहा, ''तुमने क्या किया है?'' और उसने उत्तर दिया, ''साँप ने मुझे बहका दिया और मैंने खा लिया''।
14) तब ईश्वर ने साँप से कहा, ''चूँकि तूने यह किया है, तू सब घरेलू तथा जंगली जानवरों में शापित होगा। तू पेट के बल चलेगा और जीवन भर मिट्टी खायेगा।
15) मैं तेरे और स्त्री के बीच, तेरे वंश और उसके वंश में शत्रुता उत्पन्न करूँगा। वह तेरा सिर कुचल देगा और तू उसकी एड़ी काटेगा''।
16) उसने स्त्री से यह कहा, ''मैं तुम्हारी गर्भावस्था का कष्ट बढ़ाऊँगा और तुम पीड़ा में सन्तान को जन्म दोगी। तुम वासना के कारण पति में आसक्त होगी और वह तुम पर शासन करेगा''।
17) उसने आदम से कहा, ''चूँकि तुमने अपनी पत्नी की बात मानी और उस वृक्ष का फल खाया है, जिस को खाने से मैंने तुम को मना किया था, भूमि तुम्हारे कारण शापित होगी। तुम जीवन भर कठोर परिश्रम करते हुए उस से अपनी जीविका चलाओगे।
18) वह काँटे और ऊँट-कटारे पैदा करेगी और तुम खेत के पौधे खाओगे।
19) तुम तब तक पसीना बहा कर अपनी रोटी खाओगे, जब तक तुम उस भूमि में नहीं लौटोगे, जिस से तुम बनाये गये हो क्योंकि तुम मिट्टी हो और मिट्टी में मिल जाओगे''।
20) पुरुष ने अपनी पत्नी का नाम 'हेवा' रखा, क्योंकि वह सभी मानव प्राणियों की माता है।
21) प्रभु-ईश्वर ने आदम और उसकी पत्नी के लिए खाल के कपड़े बनाये और उन्हें पहनाया।
22) उसने कहा, ''भले-बुरे का ज्ञान प्राप्त कर मनुष्य हमारे सदृश बन गया है। कहीं ऐसा न हो कि वह जीवन-वृक्ष का फल तोड़कर खाये और अमर हो जाये!''
23) इसलिए प्रभु-ईश्वर ने उसे अदन-वाटिका से निकाल दिया और मनुष्य को उस भूमि पर खेती करनी पड़ी, जिस से वह बनाया गया था।
24) उसने आदम को निकाल दिया और जीवन-वृक्ष के मार्ग पर पहरा देने के लिए अदन-वाटिका के पूर्व में केरूबों और एक परिभ्रामी ज्वालामय तलवार को रख दिया।

अध्याय 4

1) आदम का अपनी पत्नी से संसर्ग हुआ और वह गर्भवती हो गयी। उसने काइन को जन्म दिया और कहा, ''मैंने प्रभु की कृपा से एक मनुष्य को जन्म दिया''।
2) फिर उसने काइन के भाई हाबिल को जन्म दिया। हाबिल भेड़े-बकरियों का चरवाहा बना और काइन खेती करता था।
3) कुछ समय बाद काइन ने भूमि उपज का कुछ अंश प्रभु को अर्पित किया।
4) हाबिल ने भी अपनी सर्वोत्तम भेड़ों के पहलौठे मेमनों को प्रभु को अर्पित किया। प्रभु ने हाबिल पर प्रसन्न हो कर उसकी भेंट स्वीकार की,
5) किन्तु उसने काइन और उसकी भेंट को अस्वीकार किया। काइन बहुत क्रुद्ध हुआ और उसका चेहरा उतर गया।
6) प्रभु ने काइन से कहा, ''तुम क्यों क्रोध करते हो और तुम्हारा चेहरा उतरा हुआ क्यों है?
7) जब तुम भला करोगे, तो प्रसन्न होगे। यदि तुम भला नहीं करोगे, तो पाप हिंस्र पशु की तरह तुम पर झपटने के लिए तुम्हारे द्वार पर घात लगा कर बैठेगा। क्या तुम उसका दमन कर सकोगे?
8) काइन ने अपने भाई हाबिल से कहा, ''हम टहलने चलें''। बाहर जाने पर काइन ने हाबिल पर आक्रमण किया और उसे मार डाला।
9) प्रभु ने काइन से कहा, ''तुम्हारा भाई हाबिल कहाँ है?'' उसने उत्तर दिया, ''मैं नहीं जानता। क्या मैं अपने भाई का रखवाला हूँ?''
10) प्रभु ने कहा, ''तुमने क्या किया? तुम्हारे भाई का रक्त भूमि पर से मुझे पुकार रहा है। भूमि ने मुँह फैला कर तुम्हारे भाई का रक्त ग्रहण किया, जिसे तुमने बहाया है।
11) इसलिए तुम शापित हो कर उस भूमि से निर्वासित किये जाओगे।
12) यदि तुम उस भूमि पर खेती करोगे, तो वह कुछ भी पैदा नहीं करेगी। तुम आवारे की तरह पृथ्वी पर मारे-मारे फिरोगे''।
13) तब काइन ने प्रभु से कहा, ''मैं यह दण्ड नहीं सह सकता।
14) तू मुझे उपजाऊ भूमि से निर्वासित कर रहा है। मुझे तुझ से दूर रहना पड़ेगा। मैं आवारे की तरह पृथ्वी पर मारा-मारा फिरूँगा और भेंट होने पर कोई भी मेरा वध कर देगा।''
15) ''नहीं! जो काइन का वध करेगा, उस से इसका सात गुना बदला लिया जायेगा।'' कहीं ऐसा न हो कि काइन से भेंट होने पर कोई उसका वध करे, इसलिए प्रभु ने काइन पर एक चिन्ह अंकित किया।
16) इसके बाद काइन प्रभु के पास से चला गया और अदन के पूर्व में नोद देश में रहने लगा।
17) काइन का अपनी पत्नी से संसर्ग हुआ। वह गर्भवती हुई और उसने हनोक को जन्म दिया। काइन ने एक नगर बसाया और अपने पुत्र के नाम पर उसका नाम हनोक रखा।
18) हनोक को एक पुत्र हुआ - ईराद; ईराद को महूयाएल, महूयाएल को मतूशाएल और मतूशाएल को लमेक।
19) लमेक ने दो स्त्रियों से विवाह किया। एक का नाम आदा था और दूसरी का नाम सिल्ला।
20) आदा ने याबाल को जन्म दिया। यह उन लोगों का मूलपुरुष था, जो तम्बुओं में रहते है और ढोर पालते हैं।
21) इसके भाई का नाम यूबाल था। वह उन सब लोगों का मूल पुरुष था, जो सितार और बाँसुरी बजाते हैं।
22) सिल्ला ने तूबलकाइन को जन्म दिया। यह काँसे और लोहे की वस्तुएँ बनाने वाले सब लोगों का मूलपुरुष था। तूबलकाइन की बहन नामा थी।
23) लमेक ने अपनी पत्नियों से यह कहाः ''आदा और सिल्ला! मैं जो कहता हूँ उसे सुनो; लमेक की पत्नियों! मेरी बात पर ध्यान दोः मैंने उस पुरुष का वध किया है, जिसने मुझे घायल किया था, उस नवयुवक का, जिसने मुझे मारा था।
24) यदि काइन का बदला सात गुना चुकाया जायेगा, तो लमेक का सतहत्तर गुना।
25) आदम का अपनी पत्नी से फिर संसर्ग हुआ। उसने पुत्र प्रसव किया और उसका नाम सेत रखा। उसने कहा, ''काइन ने हाबिल का वध किया, इसलिए प्रभु ने उसके बदले मुझे एक अन्य पुत्र प्रदान किया''।
26) सेत को भी पुत्र हुआ।
27) उसने उसका नाम एनोश रखा। उस समय से लोग प्रभु का नाम लेने लगे।

अध्याय 5

1) आदम की वंशावली इस प्रकार है : जब ईश्वर ने मनुष्य की सृष्टि की, तो उसने उसे ईश्वर-सदृश बनाया।
2) उसने उसकी सृष्टि नर और नारी के रूप में की, उन्हें आशीर्वाद दिया और उसका नाम 'आदमी' रखा।
3) जब आदम एक सौ तीस वर्ष का हुआ तब उस को अपने अनुरूप, अपने सदृश एक पुत्र हुआ, जिसका नाम उसने सेत रखा।
4) सेत के जन्म के बाद आदम आठ सौ वर्ष और जीता रहा तथा उसके और पुत्र तथा पुत्रियाँ हुई।
5) इस प्रकार आदम कुल मिला कर नौ सौ तीस वर्ष जीवित रहने के बाद मरा।
6) जब सेत एक सौ पाँच वर्ष का हुआ, तब उसे एनोश नामक एक पुत्र हुआ।
7) एनोश के जन्म के बाद सेत आठ सौ सात वर्ष और जीता रहा तथा उसे और पुत्र तथा पुत्रियाँ हुईं।
8) इस प्रकार सेत कुल मिला कर नौ सौ बारह वर्ष तक जीवित रहने के बाद मरा।
9) जब एनोश नब्बे वर्ष का हुआ, तब उसे केनान नामक एक पुत्र हुआ।
10) केनान के जन्म के बाद एनोश आठ सौ पन्द्रह वर्ष और जीता रहा तथा उसे और पुत्र तथा पुत्रियाँ हुईं।
11) इस प्रकार एनोश कुल मिला कर नौ सौ पाँच वर्ष तक जीवित रहने के बाद मरा।
12) जब केनान सत्तर वर्ष का हुआ, तब उसे महललएल नामक एक पुत्र हुआ।
13) महललएल के जन्म के बाद केनान आठ सौ चालीस वर्ष और जीता रहा तथा उसे और पुत्र तथा पुत्रियाँ हुईं।
14) इस प्रकार केनान कुल मिलाकर नौ सौ दस वर्ष तक जीवित रहने के बाद मरा।
15) जब महललएल पैंसठ वर्ष का हुआ, तब उसे यारेद नामक एक पुत्र हुआ।
16) यारेद के जन्म के बाद महललएल आठ सौ तीस वर्ष और जीता रहा तथा उसे और पुत्र तथा पुत्रियाँ हुईं।
17) इस प्रकार महललएल कुल मिलाकर आठ सौ पंचानबे वर्ष तक जीवित रहने के बाद मरा।
18) जब यारेद एक सौ बासठ वर्ष का हुआ, तब उसे हनोक नामक एक पुत्र हुआ।
19) हनोक के जन्म के बाद यारेद आठ सौ वर्ष और जीता रहा तथा उसे और पुत्र तथा पुत्रियाँ हुईं।
20) इस प्रकार यारेद कुल मिलाकर नौ सौ बासठ वर्ष तक जीवित रहने के बाद मरा।
21) जब हनोक पैंसठ वर्ष का हुआ, तब उसे मतूशेलम नामक एक पुत्र हुआ।
22) हनोक ईश्वर के मार्ग पर चलता था। मतूशेलह के जन्म के बाद वह तीन सौ वर्ष और जीता रहा तथा उसे और पुत्र तथा पुत्रियाँ हुईं।
23) इस प्रकार हनोक कुल मिलाकर तीन सौ पैंसठ वर्ष तक जीवित रहने के बाद मरा।
24) हनोक ईश्वर के मार्ग पर चलता था। वह अन्तर्धान हो गया, क्योंकि ईश्वर उसे उठा ले गया।
25) जब मतूशेलह एक सौ सतासी वर्ष का हुआ, तब उसे लमेक नामक एक पुत्र हुआ।
26) लमेक के जन्म के बाद मतूशेलह सात सौ बयासी वर्ष और जीता रहा तथा उसे और पुत्र तथा पुत्रियाँ हुईं।
27) इस प्रकार मतूशेलह कुल मिलाकर नौ सौ उनहत्तर वर्ष तक जीवित रहने के बाद मरा।
28) जब लमेह एक सौ बयासी वर्ष का हुआ, तब उसे एक पुत्र हुआ।
29) उसने उसका नाम नूह रखा, क्योंकि उसने कहा, ''प्रभु द्वारा अभिशप्त इस भूमि पर कठिन परिश्रम करने में हमें जो कष्ट होता है, उसका बोझ वह हलका करेगा''
30) नूह के जन्म के बाद लमेक पाँच सौ पंचानवे वर्ष और जीता रहा तथा उसे और पुत्र तथा पुत्रियाँ हुईं।
31) इस प्रकार लमेक कुल मिलाकर सात सौ सतहत्तर वर्ष तक जीवित रहने के बाद मरा।
32) जब नूह पाँच सौ वर्ष का हुआ, तब उसे सेम, हाम और याफेत नामक तीन पुत्र हुए।

अध्याय 6

1) जब मानवजाति की संख्या पृथ्वी पर बहुत अधिक बढ़ने लगी और उसके पुत्रियाँ हुईं,
2) तब ईशपुत्रों ने देखा कि मानव पुत्रियाँ सुन्दर है और उन्होंने उन में जिन को पसन्द किया, उन्हें अपनी पत्नी बनाया।
3) इसलिए प्रभु ने कहा, ''मेरा आत्मा मनुष्य में सदा बना नहीं रहेगा, क्योंकि वह मरणशील है। अब उसका जीवनकाल एक सौ बीस वर्ष का होगा।
4) उस समय तथा उसके बाद भी, जब ईशपुत्र मानवपुत्रियों से विवाह और उन से सन्तान पैदा करते थे, तब पृथवी पर नपिलीम भी निवास करते थे। वे प्राचीन काल के शक्तिशाली और सुप्रसिद्व वीर थे।
5) प्रभु ने देखा कि पृथ्वी पर मनुष्यों की दुष्टता बहुत बढ़ गयी है और उनके मन में निरन्तर बुरे विचार और बुरी प्रवृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं,
6) तो प्रभु को इस बात का खेद हुआ कि उसने पृथ्वी पर मनुष्य को बनाया था। इसलिए वह बहुत दुःखी था।
7) प्रभु ने कहा, ''मैं उस मानवजाति को, जिसकी मैंने सृष्टि की है, पृथ्वी पर से मिटा दूँगा - और मनुष्यों के साथ-साथ पशुओं, रेंगने वाले जीव-जन्तुओं और आकाश के पक्षियों को भी - क्योंकि मुझे खेद है कि मैंने उन को बनाया है''।
8) नूह को ही प्रभु की कृपादृष्टि प्राप्त हुई।
9) नूह का वृत्तान्त इस प्रकार है। नूह सदाचारी और अपने समय के लोगों में निर्दोष व्यक्ति था। वह ईश्वर के मार्ग पर चलता था।
10) नूह के तीन पुत्र थे - सेम, हाम और याफेत।
11) अब संसार ईश्वर की दृष्टि में भ्रष्टाचारी बन गया था और हिंसा से परिपूर्ण था।
12) ईश्वर ने देखा कि संसार भ्रष्टाचारी हो गया है, क्योंकि सब शरीर-धारी कुमार्ग पर चलने लगे थे।
13) ईश्वर ने नूह से कहा, ''मैंने सब शरीरधारियों का विनाश करने का संकल्प किया, क्योंकि उनके द्वारा संसार हिंसा से भर गया है। देखो, मैं पृथ्वी के साथ उनका विनाश करूँगा।
14) तुम अपने लिए गोफर वृक्ष की लकड़ी का पोत बना लो। उस पोत में कक्ष बनाना और उस में भीतर-बाहर डामर लगा देना।
15) तुम उसे इस प्रकार बनाना : पोत तीन सौ हाथ लम्बा, पचास हाथ चौड़ा और तीस हाथ ऊँचा हो।
16) उस पोत में ऊपर चारों ओर एक हाथ ऊँची एक खिड़की बनाना। पोत में एक दरवाज+ा बनाना और उस में नीचे की, बीच की और ऊपर की मंजिलें बनाना;
17) क्योंकि मैं पृथ्वी पर आकाश के नीचे सब शरीरधारी प्राणियों का विनाश करने पृथ्वी पर जलप्रलय भेजूँगा। जो कुछ पृथ्वी पर है, वह सब नष्ट हो जायेगा।
18) परन्तु मैं तुम से अपना नाता रखूँगा। तुम्हारे पुत्र, तुम्हारी पत्नी और तुम्हारे पुत्रों की पत्नियाँ, सब तुम्हारे साथ पोत में प्रवेश करें।
19) सब प्रकार के प्राणियों के नर-मादा का एक-एक जोड़ा पोत में ले आना, जिससे वे भी तुम्हारे साथ जीवित रहें।
20) विभिन्न जातियों के पक्षियों, विभिन्न जातियों के पशुओं और विभिन्न जातियों के जमीन पर रेंगने वाले प्राणियों का एक-एक जोड़ा तुम्हारे पास आयेगा, जिससे वे जीवित रहें।
21) अपने साथ सब प्रकार के भोज्य पदार्थ ले लेना और उन्हें संचित रखना। वे तुम्हारे और उनके भोजन के काम आयेंगे।''
22) नूह ने यही किया; उसने ईश्वर की आज्ञा के अनुसार सब कुछ किया।

अध्याय 7

1) प्रभु ने नूह से कहा, ''तुम अपने सारे परिवार के साथ पोत पर चढ़ो, क्योंकि इस पीढ़ी में केवल तुम्हीं मेरी दृष्टि में धार्मिक हो।
2) तुम समस्त शुद्व पशुओं में से नर-मादा के सात-सात जोड़े ले जाओ और समस्त अशुद्ध पशुओं में से दो, नर और उसकी मादा को।
3) आकाश के पक्षियों में से भी नर और मादा के सात-सात जोड़े। इस तरह समस्त पृथ्वी पर उनकी जाति बनाये रखोगे;
4) क्योंकि सात दिन बाद मैं चालीस दिन और चालीस रात पानी बरसाऊँगा और पृथ्वी पर से उन सब प्राणियों को मिटा दूँगा, जिन्हें मैंने बनाया है।''
5) नूह ने वह सब किया, जिसका आदेश प्रभु ने दिया था और सातवें दिन प्रलय का जल पृथ्वी पर बरसने लगा।
6) जब पृथ्वी पर जलप्रलय हुआ था, तब नूह की अवस्था छःसौ वर्ष की थी।
7) जलप्रलय से बचने के लिए नूह ने अपने पुत्रों, अपनी पत्नी तथा अपने पुत्रों की पत्नियों के साथ पोत में प्रवेश किया।
8) पवित्र-अपवित्र सब पशुओं, पक्षियों और पृथ्वी पर रेंगने वाले प्राणियों में से
9) नर-मादा के जोड़े नूह के साथ पोत में आये, ठीक उसी तरह जैसे ईश्वर ने नूह को आज्ञा दी थी।
10) सातवें दिन प्रलय का जल पृथ्वी पर बरसने लगा।
11) नूह की छह सौ वर्ष की अवस्था में, दूसरे महीने की ठीक सत्रहवें दिन, अगाध गर्त्त के सब स्रोत फूट पड़े और आकाश के फाटक खुल गये।
12) चालीस दिन और चालीस रात पृथ्वी पर वर्षा होती रही।
13) उसी दिन नूह, नूह के पुत्र सेम, हाम और याफेत, नूह की पत्नी तथा उसके पुत्रों की पत्नियाँ, सब उसके साथ पोत में आये।
14) वे और उनके साथ विभिन्न जातियों के जंगली पशु, विभिन्न जातियों के मवेशी, विभिन्न जातियों के पृथ्वी पर रेंगने वाले जन्तु तथा विभिन्न जातियों के पक्षी और प्रत्येक प्रकार के पतिंगे - ये सभी।
15) इस प्रकार नूह के साथ सब प्राणियों में से दो-दो पोत के अन्दर आये।
16) सब शरीरधारियों के नर-मादा का एक-एक जोड़ा आया, ठीक उसी प्रकार, जैसे ईश्वर ने आज्ञा दी थी। इसके बाद प्रभु ने उस पर दरवाज+ा बाहर से बन्द कर दिया।
17) जलप्रलय पृथ्वी पर चालीस दिन तक होता रहा। पानी बढ़ता गया और पोत को पृथ्वीतल से ऊपर उठाता गया।
18) पानी बढ़ते-बढ़ते पृथ्वी पर फैलता गया और पोत पानी की सतह पर तैरने लगा।
19) पृथ्वी पर पानी इतना अधिक बढ़ गया कि उसने आकाश के नीचे के सभी ऊँचे-से-ऊँचे पर्वतों को भी ढक लिया।
20) पर्वतों के ऊपर जल इतना बढ़ गया कि वह उनसे पन्द्रह हाथ ऊँचा हो गया।
21) तब पृथ्वी पर रहने वाले सब शरीरधारी मर गये - क्या पक्षी, क्या पशु, क्या जंगली जानवर, क्या पृथ्वी पर विचरने वाले कीड़े-मकोड़े तथा सब मनुष्य भी।
22) पृथ्वी के सब प्राणी मर गये।
23) इस प्रकार प्रभु ने पृथ्वी पर से सब प्राणियों का विनाश कर दिया। मनुष्य से ले कर पशु, पृथ्वी पर विचने वाले कीड़े-मकोड़े और आकाश के पक्षी-सब पृथ्वी पर से नष्ट कर दिये गये। बच गया केवल नूह और वे, जो उसके साथ पोत में थे।
24) पृथ्वी पर पानी एक सौ पचास दिन तक फैला रहा।

अध्याय 8

1) परंतु ईश्वर को नूह और उसके साथ पोत के सब जंगली जानवरों और सब पशुओं का ध्यान रहा। ईश्वर ने पृथ्वी पर हवा बहायी और पानी घटने लगा।
2) अब अगाध गर्त्त के स्रोत और आकाश के द्वार बन्द हो गये थे और आकाश से होने वाली वर्षा रूक गयी थी।
3) तब पृथ्वी पर पानी धीरे-धीरे कम होने लगा।
4) और सावतें महीने उस महीने के सत्रहवें दिन, पोत अरारट की पर्वत-श्रेणी पर जा लगा।
5) दसवें महीने तक पानी घटता चला गया और दसवें महीने-उस महीने के पहले दिन, पर्वतों की चोटियाँ दिखाई पड़ीं।
6) चालीस दिन बाद नूह ने उस खिड़की को खोला, जिसे उसने पोत में बनाया था
7) और एक कौआ छोड़ दिया। वह कौआ तब तक आता-जाता रहा, जब तक पृथ्वी पर का पानी नहीं सूख गया।
8) सात दिन तक प्रतीक्षा करने के बाद नूह ने पोत से एक कपोत को छोड़+ दिया, जिससे यह पता चले कि पृथ्वी पर का पानी घटा या नहीं।
9) कपोत को कहीं भी पैर रखने की जगह नहीं मिली और वह नूह के पास पोत पर लौट आया, क्योंकि समस्त पृथ्वीतल पर पानी था। नूह ने हाथ बढ़ाया और उसे पकड़ कर पोत के अन्दर अपने पास रख लिया।
10) उसने सात दिन तक प्रतीक्षा करने के बाद कपोत को फिर पोत के बाहर छोड़+ दिया,
11) शाम को कपोत उसके पास लौटा और उसकी चोंच में जैतून की हरी पत्ती थी। इस से नूह को पता चला कि पानी पृथ्वीतल पर घट गया है।
12) उसने फिर सात दिन प्रतीक्षा करने के बाद कपोत को छोड़ दिया और इस बार वह उसके पास नहीं लौटा।
13) इस प्रकार नूह के जीवन के छः सौ पहले वर्ष के पहले महीने के पहले दिन पानी पृथ्वीतल पर सूख गया। नूह ने पोत की छत हटायी और पोत के बाहर दृष्टी दौड़ायी। पृथ्वीतल सूख गया था।
14) दूसरे महीने उस महीने के सत्ताईसवें दिन, पृथ्वी सूख गयी।
15) तब ईश्वर ने नूह से कहा,
16) ''अब तुम अपनी पत्नी, अपने पुत्रों और अपने पुत्रों की पत्नियों के साथ पोत से बाहर आओ।
17) प्रत्येक प्राणी को - पशुओं, पक्षियों और पृथ्वी पर रेंगने वाले सभी जन्तुओं को बाहर ले आओ। वे पृथ्वी पर फैल जायें, फलें-फूलें और पृथ्वी पर अपनी-अपनी जाति की संख्या बढ़ायें।''
18) इस पर नूह अपने पुत्रों, अपनी पत्नी और अपने पुत्रों की पत्नियों के साथ बाहर आया।
19) जंगली जानवर, सब कीड़े-मकोड़े, सब पक्षी और भूमि पर विचरण करने वाले समस्त जीव-जन्तु जाति-क्रम के अनुसार पोत से बाहर आये।
20) नूह ने प्रभु के लिए एक वेदी बनायी और हर प्रकार के शुद्व पशुओं और पक्षियों में से कुछ को चुन कर वेदी पर उनका होम चढ़ाया।
21) प्रभु ने उनकी सुगन्ध पा कर अपने मन में यह कहा, ''मैं मनुष्य के कारण फिर कभी पृथ्वी को अभिशाप नहीं दूँगा; क्योंकि बचपन से ही मनुष्य की प्रवृत्ति बुराई की ओर होती है। मैं फिर कभी सब प्राणियों का विनाश नहीं करूँगा, जैसा कि मैंने अभी किया है।
22) जब तक पृथ्वी बनी रहेगी, तब तक बोआई और फ़सल,

अध्याय 9

1) ईश्वर ने यह कहते हुए नूह और उसके पुत्रों को आशीर्वाद दिया, फलो-फूलो और पृथ्वी पर फैल जाओ।
2) पृथ्वी के सभी पशु, आकाश के सभी पक्षी, भूमि पर रेंगने वाले सभी जीव-जन्तु और समुद्र की सभी मछलियाँ - इन सब पर तुम्हारा भय और आतंक छाया रहेगा। ये तुम्हारे अधिकार में है।
3) हर विचरने वाला प्राणी तुम्हारे भोजन के काम आ जायेगा। मैं हरी वनस्पतियों के साथ ये सब तुम्हें दिये देता हूँ;
4) किन्तु तुम वह माँस नहीं खाना, जिस में प्राण अर्थात् रक्त रह गया हो। मैं तुम लोगों के रक्त और जीवन का बदला चुकाऊँगा।
5) मैं प्रत्येक पशु को उसका बदला चुकाऊँगा और प्रत्येक मनुष्य को उसके भाई के जीवन का बदला चुकाऊँगा।
6) जो मनुष्य का रक्त बहाता है, उसी का रक्त भी मनुष्य द्वारा बहाया जायेगा; क्योंकि ईश्वर ने मनुष्य को अपना प्रतिरूप बनाया है।
7) ''तुम लोग फलो-फूलो, पृथ्वी पर फैल जाओ और उसे अपने अधिकार में कर लो।''
8) ईश्वर ने नूह और उसके पुत्रों से यह भी कहा,
9) ''देखो! मैं तुम्हारे और तुम्हारे वंशजों के लिए अपना विधान ठहराता हूँ!
10) और जो प्राणी तुम्हारे चारों ओर विद्यमान है, अर्थात पक्षी, चौपाये और सब जंगली जानवर, जो कुछ जहाज से निकला है और पृथ्वी भर के सब पशु-उन प्राणियों के लिए भी।
11) मैं तुम्हारे लिए यह विधान ठहराता हूँ-कोई भी प्राणी जलप्रलय से फिर नष्ट नहीं होगा और फिर कभी कोई जलप्रलय पृथ्वी को उजाड़ नहीं बनायेगा।''
12) ईश्वर ने यह भी कहा, ''मैं तुम्हारे लिए, तुम्हारे साथ रहने वाले सभी प्राणीयों के लिए और आने वाली पीढ़ियों के लिए जो विधान ठहराता हूँ, उसका चिन्ह यह होगा-
13) मैं बादलों के बीच अपना इन्द्र धनुष रख देता हूँ; वह पृथ्वी के लिए ठहराये हुए मेरे विधान का चिन्ह होगा।
14) जब मैं पृथ्वी के ऊपर बादल एकत्र कर लूँगा और बादलों में वह धनुष दिखाई पड़ेगा,
15) तब मैं तुम्हारे लिए और सब प्राणियों के लिए ठहराये अपने विधान को याद करूँगा और फिर कभी जलप्रलय सभी शरीरधारियों का विनाश नहीं करेगा।
16) जब इन्द्रधनुष बादलों में दिखाई पड़ेगा, तो उसे देख कर मैं उस चिरस्थायी विधान का स्मरण करूँगा, जिसे मैंने पृथ्वी के समस्त शरीरधारियों के लिए निर्धारित किया है।''
17) ईश्वर ने नूह से कहा, ''यही उस संविधान का चिन्ह है, जिसे मैंने पृथ्वी के सब शरीरधारियों के लिए निर्धारित किया है।
18) नूह के पुत्र, जो पोत से बाहर आये थे, सेम, हाम और याफेत थे। हाम कनान का पिता था।
19) ये तीनों नूह के पुत्र थे और इन से सारी पृथ्वी मनुष्यों से भर गयी।
20) नूह पहला किसान था। इसने दाखबारी लगायी।
21) उसकी अंगूरी पीने के बाद वह नशे में आ कर अपने तम्बू में नग्न हो कर पड़ा रहा।
22) जब कनान के पिता, हाम ने अपने पिता को नंगा देखा, तो उसने बाहर आ कर अपने दो भाइयों को यह बात बतायी।
23) इस पर सेम और याकेत ने एक वस्त्र ले कर अपने कन्धों पर रखा और वे पीठ की ओर से चल कर भीतर गये। फिर वस्त्र डाल कर उन्होंने अपने पिता के नग्न शरीर को ढक दिया। उन्होंने अपने मुँह फेर लिये, जिससे वे अपने पिता को नंगा न देख पायें।
24) (२४-२५) नशा दूर होने पर जब नूह होश में आया और उसे अपने छोटे पुत्र की यह बात मालूम हुई, तो उसने कहा, ''कनान को अभिशाप! वह अपने भाइयों का दास बने।''
26) उसने यह भी कहा, ''प्रभु, सेम का ईश्वर धन्य है। कनान उसका दास हो!
27) ईश्वर याफेत की भूमि का विस्तार करे, वह सेम के तम्बुओं मे रहे और कनान उसका दास हो।''
28) जलप्रलय के बाद नूह तीन सौ पचास वर्ष और जीता रहा। इस प्रकार नूह कुल मिला कर नौ सौ पचास वर्ष जीवित रहने के बाद मरा।

अध्याय 10

1) नूह के पुत्रों-सेम, हाम और याफेत की वंशावली इस प्रकार है। जलप्रलय के बाद उनके पुत्र पैदा हुए।
2) याफेत के पुत्रः गोमेर, मागोग, मादय, यावान, तूबल, मेशक और तीरासमा।
3) गोमेर के पुत्रः अशकनज, रीफत और तेगरमा।
4) यावान के पुत्रः एलीशा, तरशीश, कित्तीम और दोदानीम।
5) इन्हीं से तटवर्ती प्रजातियों की उत्पत्ति हुई। वे अपनी-अपनी भाषा और अपने-अपने कुल के अनुसार उन देशों में फैल गयीं।
6) हाम के पुत्रः कुश, मिश्राइम, पूट और कनान।
7) कुश के पुत्रः सबा, हवीला, सबता, रअमा और सबतका। रअमा के पुत्रः शबा और ददान।
8) कुश ने निम्रोद को उत्पन्न किया, जो पृथ्वी पर का प्रथम शूरवीर और
9) प्रभु की दृष्टि में महान् शिकारी था। इसलिए यह कहावत पड़ गयी - प्रभु की दृष्टि में निम्रोद के समान महान् शिकारी।
10) उसके राज्य के प्रथम केन्द्र बाबुल, एरेक, अक्कद और कलने थे। ये सभी शिनआर देश में स्थित हैं।
11) वह उस देश से अस्सूर गया, जहाँ उसने नीनवे, रहोबोत-ईर और कालह नामक नगर बसाये।
12) उसने रेसेन को भी बसाया, जो नीनवे और कालह के बीच में है; यह एक बड़ा नगर है।
13) (१३-१४) लूदी, अनामी, लहाबी, नफतुही, पत्रोसी, कसलुही (जिन से फिलिस्ती वंश निकला) और कफ्तोरी, इन सब जातियों का मूलपुरुष मिश्राइम था।
15) सीदोन कनान का पहला पुत्र था। फिर हेत पैदा हुआ।
16) (१६-१७) यबूसी, अमोरी, गिरगाशी, हिव्वी, अरकी, सीनी,
18) अरवादी, समारी और हमाती जातियों का मूलपुरुष कनान था। बाद में कनानियों के कुल दूर-दूर तक फैल गये।
19) कनानियों का जनपद सीदोन से ले कर गरार की ओर गाजा तक और सोदोम, गोमोरा, अदमा और सबोयीम की ओर लेशा तक फैल गया।
20) ये अपने-अपने कुलों और भाषाओं, अपने देशों और प्रजातियों के अनुसार हाम के वंशज हैं।
21) सेम के भी पुत्र उत्पन्न हुए। वह एबेर के सब वंशजों का मूलपुरुष और याफेत का बड़ा भाई था।
22) सेम के पुत्रः एलाम, अस्सूर, अरफक्षद, लूद और अराम।
23) अराम के पुत्रः ऊस, हूल, गेतेर और मश।
24) अरफक्षद को शेलह नामक एक पुत्र हुआ और शेलह को एबेर।
25) एबेर को दो पुत्र हुएः एक का नाम पेलेग था (उसके दिनों में पृथ्वी के लोग विभाजित हो गये), उसके भाई का नाम योकटान था।
26) योकटान के ये पुत्र हुएः अल्मोदाद, शेलेफ, हसरमावेद, येरह,
27) (२७-२८) हदोराम, ऊजाल, दिकला, ओबाल, अबीमाएल, शबा,
29) ओफिर हवीला और योबाब। ये सब योकटान के पुत्र थे।
30) उनका जनपद मेशा से ले कर सफार और पूर्व के पहाड़ी प्रदेश की ओर फैला हुआ था।
31) ये अपने-अपने कुलों, भाषाओं, अपने देशों और प्रजातियों के अनुसार सेम के वंशज हैं।
32) यही अपनी विभिन्न वंशावलियों और प्रजातियों के अनुसार नूह के पुत्रों के वंशज हैैं। जलप्रलय के बाद इन्हीं में से प्रजातियाँ पृथ्वी पर फैल गयीं।

अध्याय 11

1) समस्त पृथ्वी पर एक ही भाषा और एक ही बोली थी।
2) पूर्व में यात्रा करते समय लोग शिनआर देश के एक मैदान में पहुँचे और वहाँ बस गये।
3) उन्होंने एक दूसरे से कहा, ''आओ! हम ईटें बना कर आग में पकायें''। - वे पत्थर के लिए ईट और गारे के लिए डामर काम में लाते थे। -
4) फिर वे बोले, ''आओ! हम अपने लिए एक शहर बना लें और एक ऐसी मीनार, जिसका शिखर स्वर्ग तक पहुँचे। हम अपने लिए नाम कमा लें, जिससे हम सारी पृथ्वी पर बिखर न जायें।''
5) तब ईश्वर उतर कर वह शहर और वह मीनार देखने आया, जिन्हें मनुष्य बना रहे थे,
6) और उसने कहा, ''वे सब एक ही राष्ट्र हैं और एक ही भाषा बोलते हैं। यह तो उनके कार्यों का आरम्भ-मात्र है। आगे चल कर वे जो कुछ भी करना चाहेंगे, वह उनके लिए असम्भव नहीं होगा।
7) इसलिए हम उतर कर उनकी भाषा में ऐसी उलझन पैदा करें कि वे एक दूसरे को न समझ पायें।''
8) इस प्रकार ईश्वर ने उन्हें वहाँ से सारी पृथ्वी पर बिखेरा और उन्होंने अपने शहर का निर्माण अधूरा छोड़ दिया।
9) उस शहर का नाम बाबेल रखा गया, क्योंकि ईश्वर ने वहाँ पृथ्वी भर की भाषा में उलझन पैदा की और वहाँ से मनष्यों को सारी पृथ्वी पर बिखेर दिया।
10) सेम की वंशावली इस प्रकार है : सेम एक सौ वर्ष का था, जब उसे जलप्रलय के दो वर्ष बाद अरफक्षद नामक एक पुत्र हुआ।
11) अरफक्षद के जन्म के बाद सेम पाँच सौ वर्ष और जीता - रहा तथा उसे और पुत्र तथा पुत्रियाँ हुईं।
12) अरफक्षद पैंतीस वर्ष का था, जब उसे शेलह नामक एक पुत्र हुआ।
13) शेलह के जन्म के बाद अरफक्षद चार सौ तीन वर्ष और जीता रहा तथा उसे और पुत्र तथा पुत्रियाँ हुईं।
14) शेलह तीस वर्ष का था, जब उसे एबेर नामक एक पुत्र हुआ।
15) एबेर के जन्म के बाद शेलह चार सौ तीन वर्ष और जीता रहा तथा उसे और पुत्र तथा पुत्रियाँ हुईं।
16) एबेर चौंतीस वर्ष का था, जब उसे पेलेग नामक एक पुत्र हुआ।
17) पेलेग के जन्म के बाद एबेर चार सौ तीस वर्ष और जीता रहा तथा उसे और पुत्र तथा पुत्रियाँ हुईं।
18) पेलेग तीस वर्ष का था, जब उसे रऊ नामक एक पुत्र हुआ।
19) रऊ के जन्म के बाद पेलेग दो सौ नौ वर्ष और जीता रहा तथा उसे और पुत्र तथा पुत्रियाँ हुईं।
20) रऊ बत्तीस वर्ष का था, जब उसे सरूग नामक एक पुत्र हुआ।
21) सरूग के जन्म के बाद रऊ दो सौ सात वर्ष और जीता रहा तथा उसे और पुत्र तथा पुत्रियाँ हुईं।
22) सरूग तीस वर्ष का था, जब उसे नाहोर नामक एक पुत्र हुआ।
23) नाहोर के जन्म के बाद सरूग दो सौ वर्ष और जीता रहा तथा उसे और पुत्र तथा पुत्रियाँ हुईं।
24) नाहोर उनतीस वर्ष का था, जब उसे तेरह नामक एक पुत्र हुआ।
25) तेरह के जन्म के बाद नाहोर एक सौ उन्नीस वर्ष और जीता रहा तथा उसे और पुत्र तथा पुत्रियाँ हुईं।
26) तेरह सत्तर वर्ष का था, जब उसे अब्राम, नाहोर और हारान नामक पुत्र हुए।
27) तेरह की वंशावली इस प्रकार है : तेरह के अब्राम, नाहोर और हारान नामक पुत्र हुए। हारान को लोट नामक पुत्र हुआ।
28) अपने पिता तेरह के जीवनकाल में खल्दैया देश के ऊर नगर में, जो उसकी जन्मभूमि थी, हारान की मृत्यु हुई।
29) अब्राम और नाहोर ने विवाह किया। अब्राम की पत्नी का नाम सारय और नाहोर की पत्नी का नाम मिल्का था। मिल्का हारान की पुत्री थी। हारान मिल्का और यिस्का, दोनों का पिता था।
30) सारय बाँझ थी, उसके कोई सन्तति नहीं थी।
31) तेरह अपने पुत्र अब्राम, हारान के पुत्र अपने पौत्र लोट और अपनी बहू सारय को, जो उसके पुत्र अब्राम की पत्नी थी, सब को साथ ले कर और खल्दैया देश का ऊर नगर छोड़ कर कनान देश के लिए रवाना हुआ। किन्तु हारान पहुँच कर वे वहीं रहने लगे।
32) तेरह दो सौ पाँच वर्ष का था, जब हारान में उसकी मृत्यु हुई।

अध्याय 12

1) प्रभु ने अब्राम से कहा, ''अपना देश, अपना कुटुम्ब और पिता का घर छोड़ दो और उस देश जाओ, जिसे मैं तुम्हें दिखाऊँगा।
2) मैं तुम्हारे द्वारा एक महान् राष्ट्र उत्पन्न करूँगा, तुम्हें आशीर्वाद दूँगा और तुम्हारा नाम इतना महान् बनाऊँगा कि वह कल्याण का स्रोत बन जायेगा - जो तुम्हें आशीर्वाद देते हैं, मैं उन्हें आशीर्वाद दूँगा।
3) जो तुम्हें शाप देते है, मैं उन्हें शाप दूँगा।
4) तुम्हारे द्वारा पृथ्वी भर के वंश आशीर्वाद प्राप्त करेंगे।'' तब अब्राम चला गया, जैसा कि प्रभु ने उस से कहा था और लोट उसके साथ गया। जब अब्राम हारान छोड़ कर चला गया, तो उसकी अवस्था पचहत्तर वर्ष की थी।
5) अब्राम अपनी पत्नी सारय तथा अपने भतीजे लोट को अपने साथ ले गया और उनके द्वारा संचित समस्त सम्प+त्ति तथा उन सब लोगों को भी, जो उन्हें हारान में मिल गये थे।
6) वे कनान देश चले गये। वहाँ पहुँच कर अब्राम ने सिखेम नगर तक, मोर के बलूत तक उस देश को पार किया। उस समय कनानी उस देश में निवास करते थे।
7) प्रभु ने अब्राम को दर्शन दे कर कहा, ''मैं यह देश तुम्हारे वंशजों को प्रदान करूँगा''। अब्राम ने वहाँ प्रभु के लिए, जिसने उसे दर्शन दिये थे, एक वेदी बनायी।
8) उसने वहाँ से बेतेल के पूर्व के पहाड़ी प्रदेश जा कर पड़ाव डाला। उसके पश्चिम में बेतेल और पूर्व में अय था। उसने वहाँ प्रभु के लिए एक वेदी बनायी और प्रभु का नाम ले कर प्रार्थना की।
9) इसके बाद अब्राम जगह-जगह पड़ाव डालते हुए नेगेब की ओर आगे बढ़ा।
10) जब इस देश में अकाल पड़ा, तो अब्राम मिस्र में कुछ समय बिताने के लिए वहाँ चला गया, क्योंकि देश में घोर अकाल था।
11) मिस्र में प्रवेश करने के पहले उसने अपनी पत्नी सारय से कहा, ''मैं जानता हूँ कि तुम बड़ी सुन्दर स्त्री हो।
12) जब मिस्री तुम्हें देखेंगे, तो वे कहेंगे कि यह उसकी पत्नी है। तब वे मुझे मार डालेंगे, पर तुम्हें जीवित रहने देंगे।
13) इसलिए तुम कहना कि तुम मेरी बहन हो, जिससे वे तुम्हारे कारण मेरे साथ अच्छा व्यवहार करें और मैं तुम्हारे कारण जीवित रह जाऊँ।''
14) जब अब्राम मिस्र देश पहुँचा, तो मिस्रियों ने देखा कि वह स्त्री बहुत ही सुन्दर है।
15) फिराउन के पदाधिकारियों ने जब उसे देखा, तो फिराउन से उसकी प्रशंसा की और वह फिराउन के महल में ले जायी गयी।
16) सारय के कारण फिराउन ने अब्राम के साथ अच्छा व्यवहार किया। उस को भेड़-बकरी, गाय-बैल, गधे, नौकर, नौकरानियाँ, गधियाँ और ऊँट प्राप्त हुए।
17) परन्तु अब्राम की पत्नी सारय के कारण प्रभु ने फिराउन और उसके परिवार पर बड़ी-बड़ी विपत्तियाँ ढाहीं।
18) तब फिराउन ने अब्राम को बुलवा कर कहा, ''तुमने यह मेरे साथ क्या किया है? तुमने मुझे यह क्यों नहीं बताया कि वह तुम्हारी पत्नी है?
19) तुमने यह क्यों कहा कि वह तुम्हारी बहन है? इसलिए तो मैंने उसे अपनी पत्नी बना लिया। वह तो तुम्हारी पत्नी है। उसे ले कर यहाँ से चले जाओ।''
20) फिराउन ने अब्राम के विषय में अपने आदमियों को आज्ञा दी और उन्होंने उसकी पत्नी और उसकी सारी धन-सम्पत्ति के साथ उसे विदा कर दिया।

अध्याय 13

1) अब अब्राम अपनी पत्नी, अपनी सारी धन-सम्पत्ति और लोट के साथ मिस्र से नेगेब प्रदेश को लौट गया।
2) अब्राम पशुओं और चाँदी-सोने से सम्पन्न था।
3) वह नेगेब से आगे बढ़ कर बेतेल के उस स्थान तक पहुँचा, जहाँ उसने पहले बेतेल और अय के बीच अपना तम्बू खड़ा किया था।
4) और जहाँ उसने पहले एक वेदी बनायी थी। अब्राम ने वहाँ प्रभु से प्रार्थना की।
5) लोट अब्राम के साथ रहता था और उसके भी भेड़-बकरियाँ, चौपाये और तम्बू थे।
6) वह भूमि इतनी विस्तृत नहीं थी कि उस से दोनों का निर्वाह हो सके। उनकी इतनी अधिक सम्पत्ति थी कि वे दोनों साथ नहीं रह सकते थे।
7) इस कारण अब्राम और लोट के चरवाहों में झगडे हुआ करते थे। उस समय कनानी और परिज्जी उस देश में निवास करते थे।
8) इसलिए अब्राम ने लोट से यह कहा, ''हम दोनों में, मेरे और तुम्हारे चरवाहों में झगड़ा नहीं होना चाहिए, क्योंकि हम तो भाई हैं।
9) सारा प्रदेश तुम्हारे सामने है, हम एक दूसरे से अलग हो जायें। यदि तुम बायें जाओगे, तो मैं दाहिने जाऊँगा और यदि दाहिने जाओगे तो मैं बायें जाऊँगा।''
10) लोट ने आँखें उठा कर देखा कि प्रभु की वाटिका तथा मिस्र देश के सदृश समस्त यर्दन नदी की खाटी सोअर तक अच्छी तरह सींची हुई है। उस समय तक प्रभु ने सोदोम और गोमोरा का विनाश नहीं किया था।
11) इसलिए लोट ने यर्दन नदी की समस्त घाटी चुनी। वह पूर्व की ओर चला गया और इस प्रकार दोनों अलग हो गये।
12) अब्राम कनान की भूमि में रह गया। लोट घाटी के नगरों के बीच बस गया और उसने सोदोम के निकट अपने तम्बू खड़े कर दिये।
13) सोदोम के निवासी बहुत दुष्ट और प्रभु की दृष्टि में पापी थे।
14) जब लोट चला गया, तो प्रभु ने अब्राम से यह कहा, ''तुम आँखें ऊपर उठाओ और जहाँ खड़े हो, वहाँ से उत्तर और दक्षिण, पूर्व और पश्चिम की ओर दृष्टि दौड़ाओ -
15) मैं यह सारा देश, जो तुम्हें दिखाई दे, तुम्हें और तुम्हारे वंशजों को प्रदान करूँगा।
16) मैं तुम्हारे वंशजों को पृथ्वी की धूल की तरह असंख्य बना दूँगा - पृथ्वी के धूलि-कण भले ही कोई गिन सके, किन्तु तुम्हारे वंशजों की गिनती कोई नहीं कर पायेगा!
17) चलो; इस देश में चारों ओर घूमने जाओ, क्योंकि मैं इसे तुम को दे दूँगा।''
18) अब्राम अपना तम्बू उखाड़ कर हेब्रोन में मामरे के बलूत के पास बस गया और उसने वहाँ प्रभु के लिए एक वेदी बनायी।

अध्याय 14

1) जब अम्राफेल शिनआर का राजा था, अयोक एल्लासार का राजा, कदोरला-ओमेर एलाम का राजा और तिदआल गोयीम का राजा था,
2) तब उन्होंने मिल कर सोदोम के बेरा नामक राजा, गोमोरा के बिर्शा नामक राजा, अदमा के शिनआब नामक राजा, सबोयीम के शेमएबेर नामक राजा और बेला, अर्थात् सोअर के राजा से लड़ाई की।
3) वे सभी सिद्दीम नामक घाटी में, जहाँ अब लवण सागर है, एकत्रित हुए।
4) बारह वर्ष तक वे कदोरलाओमेर के अधीन रहे, किन्तु उन्होंने तेरहवें वर्ष विद्रोह किया।
5) इसलिए चौदहवें वर्ष कदोरला ओमेर और जो उसके साथ के अन्य राजा थे, वे अश्वरोत करनयीम में रफ़ाइयों, हाम में जूजियों, किर्यताईम के मैदान में एमियों
6) और सेईर नामक पहाड़ी प्रदेश में रहने वाले होरियों को पराजित करते हुए उसके आगे एल-परान तक पहुँच गये, जो रेगिस्तान के किनारे पर स्थित है।
7) फिर, वे पीछे मुड़े और एन-मिशपाट, अर्थात् कादेश तक आयें। उन्होंने अमालेकियों का सारा देश और अमोरियों को, जो हससोन-तामार में रहते थे, अपने अधीन कर लिया।
8) तब सोदोम का राजा, गोमोरा का राजा, अदमा का राजा, सबोयीम का राजा और बेला, अर्थात् सोअर का राजा सिद्दीम की घाटी में
9) एलाम के राजा कदोरला ओमेर, गोयीम के तिदआल राजा, शिनआर के अम्राफेल राजा और एल्लासार के अर्योक राजा, इन सब से लड़ने के लिए इकट्ठे हुए। चार राजा पाँच राजाओं के विरुद्ध थे।
10) सिद्दीम घाटी में बहुत-से डामर के गड्ढे थे। जब सोदोम और गोमोरा के राजा भाग गये, तो उनके कुछ सैनिक इन में गिर गये, शेष पहाडों की ओर निकल गये।
11) शत्रुओं ने सोदोम और गोमोरा की सारी वस्तुएँ और खाने-पीने का सारा सामान ले लिया और चले गये।
12) वे अब्राम के भतीजे लोट को भी उसके सारे सामान के साथ लेते गये, क्योंकि वह सोदोम का निवासी था।
13) फिर लड़ाई से भाग कर आये एक व्यक्ति ने इब्रानी अब्राम को इसकी खब+र दी। उस समय वह अमोरी जाति के मामरे के बलूतों के पास रहता था। मामरे एशकोल और आनेर का भाई था और अब्राम से उनकी सन्धि थी।
14) अब्राम को जैसे ही मालूम हुआ कि उसका भाई बन्दी हो गया है, उसने अपने घराने के तीन सौ अठारह युद्ध में प्रशिक्षित आदमियों को ले कर दान तक उनका पीछा किया।
15) रात के समय उसने अपने लोगों के कई दल बना कर उन पर आक्रमण किया और उन्हें होबा तक, जो दमिश्क के उत्तर में है, खदेड़ दिया।
16) फिर, वह सारे सामान तथा अपने भाई लोट को उसके सारे सामान-सहित तथा स्त्रियों और आदमियों को वापस ले आया।
17) जब वह कदोरला ओमेर और उसके साथ के राजाओं को पराजित कर लौट रहा था, तब शावे की घाटी, अर्थात् राजघाटी में सोदोम का राजा उस से मिलने आया।
18) सालेम का राजा मेलख़ीसेदेक रोटी और अंगूरी ले आया। वह सर्वोच्च का याजक था।
19) उसने उसे यह कहते हुए आशीर्वाद दिया, ''स्वर्ग और पृथ्वी का सृष्टिकर्ता सर्वोच्च ईश्वर अब्राम को आशीर्वाद प्रदान करे।
20) धन्य है सर्वोच्च ईश्वर, जिसने तुम्हारे शत्रुओं को तुम्हारे अधीन कर दिया।'' अब्राम ने उसे सब चीजों का दशमांश दिया।
21) सोदोम के राजा ने अब्राम से कहा, ''मुझे मेरे आदमी दे दो, तुम सामान अपने लिए रख लो।''
22) इस पर अब्राम ने सोदोम के राजा से कहा, ''स्वर्ग और पृथ्वी के सृष्टिकर्ता प्रभु-ईश्वर की शपथ!
23) डोरे का एक छोटा टुकड़ा हो या जूते की एक पट्टी-मैं तुम्हारी कोई भी चीज नहीं लूँगा, जिससे तुम यह न कह सको कि मैंने अब्राम को धनी बनाया है।
24) इन आदमियों ने जो कुछ खाया-पीया है और मेरे इन साथियों, अर्थात् आनेर, एशकोल और मामरे के हिस्सों के अलावा मैं और कुछ नहीं लूँगा। हाँ, ये लोग अपने-अपने हिस्से ले जायें।''

अध्याय 15

1) इन घटनाओं के बाद अब्राम ने एक दिव्य दर्शन में ईश्वर की वाणी को यह कहते हुए सुना, ''अब्राम! मत डरो! मैं तुम्हारी ढाल हूँ। तुम्हारा पुरस्कार महान् होगा!''
2) अब्राम ने कहा, ''प्रभु-ईश्वर! तू मुझे क्या दे सकता है? मैं निस्सन्तान हूँ और मेरे घर का उत्तराधिकारी दमिश्क का एलीएजर है।''
3) अब्राम ने फिर कहा, ''तूने मुझे कोई सन्तान नहीं दी। मेरा नौकर मेरा उत्तराधिकारी होगा।''
4) तब प्रभु ने उस से यह कहा, ''वह तुम्हारा उत्तराधिकारी नहीं होगा। तुम्हारा औरस पुत्र ही तुम्हारा उत्तराधिकारी होगा।''
5) ईश्वर ने अब्राम को बाहर ले जाकर कहा, ''आकाश की और दृष्टि लगाओ और सम्भव हो, तो तारों की गिनती करो''। उसने उस से यह भी कहा, ''तुम्हारी सन्तति इतनी ही बड़ी होगी''।
6) अब्राम ने ईश्वर में विश्वास किया और इस कारण प्रभु ने उसे धार्मिक माना।
7) प्रभु ने उस से कहा, ''मैं वही प्रभु हूँ, जो तुम्हें इस देश का उत्तराधिकारी बनाने के लिए खल्दैयों के ऊर नामक नगर से निकाल लाया था।''
8) अब्राम ने उत्तर दिया, ''प्रभु! मेरे ईश्वर! मैं यह कैसे जान पाऊँगा कि इस पर मेरा अधिकार हो जायेगा?''
9) प्रभु ने कहा, ''तीन वर्ष की कलोर, तीन वर्ष की बकरी, तीन वर्ष का मेढा, एक पाण्डुक और एक कपोत का बच्चा यहाँ ले आना''।
10) अब्राम ये सब ले आया। उसने उनके दो-दो टुकड़े कर दिये और उन टुकड़ों को आमने-सामने रख दिया, किन्तु पक्षियों के दो-दो टुकड़े नहीं किये।
11) गीध लाशों पर उतर आये, किन्तु अब्राम ने उन्हें भगा दिया।
12) जब सूर्य डूबने पर था, तो अब्राम गहरी नींद में सो गया और उस पर आतंक छा गया।
13) फिर प्रभु ने अब्राम से कहा, ''यह निश्चित रूप से जान लो कि तुम्हारे वंशज प्रवासियों की तरह एक ऐसे देश में निवास करेंगे, जो उनका नहीं होगा। वहाँ उन्हें दासों के रूप में रहना पडे+गा और उन पर चार सौ वर्ष अत्याचार होता रहेगा।
14) किन्तु जहाँ वे दासों के रूप में रहेंगे, मैं उस राष्ट्र को दण्ड दूँगा। इसके बाद वे बहुत धन-सम्पत्ति के साथ वहाँ से निकल आयेंगे।
15) तुम शान्तिपूर्वक अपने पूर्वजों के पास जाओगे और बड़ी अच्छी उमर तक जीवित रहने के बाद तुम्हारा दफ़न होगा।
16) तुम्हारे वंशजों की चौथी पीढ़ी यहाँ लौटेगी, क्योंकि अमोरियों के अधर्म का घड़ा अभी पूरा भरा नहीं है।''
17) सूर्य डूबने तथा गहरा अन्धकार हो जाने पर एक धुँआती हुई अंगीठी तथा एक जलती हुई मशाल दिखाई पड़ी, जो जानवरों के उन टुकडों के बीच से होते हुए आगे निकल गयीं।
18) उस दिन प्रभु ने यह कह कर अब्राम के लिए विधान प्रकट किया, मैं मिस्त्र की नदी से लेकर महानदी अर्थात् फ़रात नदी तक का यह देश तुम्हारे वंशजों को दे देता हूँ।
19) वह भूभाग, जहाँ केनी, कनिज्जी, कदमोनी,
20) हित्ती, परिज्जी, रफाई,
21) अमोरी, कनानी, गिरगाशी और यबूसी लोग रहते है।''

अध्याय 16

1) अब्राम की पत्नी सारय के कोई सन्तान नहीं हुई थी। सारय की हागार नामक एक मिस्री दासी थी।
2) उसने अपने पति से कहा, ''आप देखते ही हैं कि प्रभु ने मुझे बाँझ बना दिया है। आप मेरी दासी के पास जाइए। हो सकता है कि उसके माध्यम से मुझे सन्तान मिल जाये'' और अब्राम ने सारय की बात मान ली।
3) उस प्रकार जब अब्राम को कनान के देश में रहते दस वर्ष हो गये, तो उसकी पत्नी सारय अपनी मिस्री दासी हागार को ले कर आयी और उसने उसे उपपत्नी के रूप में अपने पति अब्राम को दे दिया।
4) अब्राम का हागार से संसर्ग हुआ और वह गर्भवती हो गयी। जब उसे मालूम हुआ कि वह गर्भवती है, तो वह अपनी स्वामिनी का तिरस्कार करने लगी।
5) सारय ने अब्राम से कहा, ''मेरे साथ जो अन्याय हो रहा है, उसके लिए आप उत्तरदायी है। मैंने आप को अपनी दासी को समर्पित कर दिया और जब से उस को मालूम हो गया है कि वह गर्भवती है, वह मेरा तिरस्कार करने लगी है। प्रभु हम दोनों का न्याय करें।''
6) अब्राम ने उत्तर दिया, ''अपनी दासी पर तुम्हारा पूरा अधिकार है। जैसी इच्छा हो, उसके साथ वैसा व्यवहार करो।'' उस समय से सारय हागार के साथ इतना दुर्व्यवहार करने लगी कि वह घर छोड़ कर भाग गयी।
7) प्रभु के दूत ने हागार को उजाड़ प्रदेश में, शूर के रास्ते पर किसी झरने के पास पाया।
8) और उस से कहा, ''सारय की दासी, हागार! तुम कहाँ से आयी और कहाँ जा रही हो?'' उसने उत्तर दिया, ''मैं अपनी स्वामिनी सारय के यहाँ से भाग आयी हूँ''?
9) प्रभु के दूत ने उस से कहा, ''तुम अपनी स्वामिनी के पास लौट जाओ और उसका दुर्व्यवहार सहन करो''।
10) प्रभु के दूत ने यह भी कहा, ''मैं तुम्हारे वंशजों की संख्या इतनी अधिक बढ़ाऊँगा कि कोई भी उनकी गिनती नहीं कर पायेगा''।
11) प्रभु के दूत ने उस से यह कहा, ''तुम गर्भवती हो और पुत्र प्रसव करोगी। तुम उसका नाम इसमाएल रखोगी, क्योंकि प्रभु ने तुम्हारे प्रति दुर्व्यवहार के विषय में सुना।
12) वह गोरख्+ार-जैसा मनुष्य होगा, वह सब पर हाथ उठायेगा। वह अपने सब सम्बन्धियों का विरोध करेगा''।
13) जो प्रभु उस से बोला था, हागार ने उसका यह नाम रखा -''तू वही ईश्वर है, जो मुझे देखता है''; क्योंकि उसने कहा, ''अब मैंने उसी को देखा है, जो मुझे देखता है''।
14) इसलिए उस कुएँ का बएर-लह-रोई (मुझे देखने वाले जीवन्त ईश्वर का कुआँ) नाम पड़ा। वह कादेश और बेरेद के बीच है।
15) हागार से अब्राम को एक पुत्र हुआ और अब्राम ने उसका नाम इसमाएल रखा।
16) जब हागार से इसमाएल उत्पन्न हुआ, उस समय अब्राम की आयु छियासी वर्ष की थी।

अध्याय 17

1) जब अब्राम की उमर निन्यानबे वर्ष की थी, तो प्रभु ने उसे दर्शन दे कर कहा, ''मैं सर्वशक्तिमान् ईश्वर हूँ। तुम मेरे सम्मुख निर्दोष आचरण करते चलो।
2) मैं तुम्हारे लिए अपना विधान निर्धारित करूँगा और तुम्हारे वंशजों की संख्या बहुत अधिक बढ़ाऊँगा।''
3) अब्राम ने साष्टांग प्रणाम किया और ईश्वर ने उस से यह कहा,
4) ''तुम्हारे लिए मेरा विधान इस प्रकार है - तुम बहुत से राष्ट्रों के पिता बन जाओगे।
5) अब से तुम्हारा नाम अब्राम नहीं, बल्कि इब्राहीम होगा, क्योंकि मैं तुम्हें बहुत-से राष्ट्रों का पिता बनाऊँगा।
6) तुम्हारे असंख्य वंशज होंगे। मैं तुम लोगों को राष्ट्रों के रूप में फलने-फूलने दूँगा। तुम्हारे वंशजों में राजा उत्पन्न होंगे।
7) मैं तुम्हारे लिए और तुम्हारे बाद तुम्हारे वंशजों के लिए पीढ़ी-पर-पीढ़ी अपना चिरस्थायी विधान निर्धारित करूँगा-मैं तुम्हारा और तुम्हारे बाद तुम्हारे वंशजों का ईश्वर होऊँगा।
8) मैं तुम्हें और तुम्हारे वंशजों को वह भूमि प्रदान करूँगा, जिस में तुम निवास करते हो, अर्थात् कनान का समस्त देश। उस पर सदा के लिए तुम लोगों का अधिकार होगा और मैं तुम्हारे वंशजों का ईश्वर होऊँगा।''
9) प्रभु ने इब्राहीम से यह भी कहा, ''तुम को और तुम्हारे बाद तुम्हारे वंशजों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी मेरे विधान का पालन करना चाहिए।
10) मैंने जो विधान तुम्हारे और तुम्हारे वंशजों के लिए निर्धारित किया और जिसका तुम को पालन करना चाहिए वह इस प्रकार है - तुम लोगों में से हर पुरुष का ख़तना किया जायेगा।
11) वह ख़तना तुम्हारे लिए मेरे द्वारा निर्धारित विधान का चिन्ह होगा।
12) तुम लोगों के बच्चों में से प्रत्येक का ख़तना जन्म के आठवें दिन किया जाये पीढ़ी-दर-पीढ़ी यही नियम कायम रहेगा। तुम्हारे घर के चाहे जिस किसी का बच्चा क्यों न हो या चाहे किसी विदेशी से धन दे कर खरीदा हुआ ही क्यों न हो,
13) वह घर में ही पैदा हुआ हो या धन द्वारा ख़रीदा गया हो, दोनों का ख़तना किया जाये। इस प्रकार मेरे विधान का यह चिन्ह तुम लोगों की देह में चिरकाल तक बना रहेगा।
14) वह पुरुष अपने लोगों से बहिष्कृत किया जायेगा, जिसकी देह में ख़तना नहीं किया गया है, क्योंकि उसने मेरे विधान का नियम भंग किया है।
15) प्रभु ने इब्राहिम से कहा, ''तुम अपनी पत्नी को सारय नहीं, बल्कि सारा कह कर पुकारो।
16) मैं उसे आशीर्वाद दूँगा और वह तुम्हारे लिए पुत्र प्रसव करेगी। मैं उसे आशीर्वाद दूँगा-वह राष्ट्रों का माता बन जायेगी और उसे राष्ट्रों के राजा उत्पन्न होंगे।''
17) इब्राहीम मुँह के बल गिर कर हँसने लगा, क्योंकि उसने अपने मन में यह कहा, ''क्या सौ वर्ष के पुरुष को पुत्र हो सकता है? क्या नब्बे वर्ष की सारा प्रसव कर सकती है?''
18) उसने ईश्वर से कहा, ''इसमाएल तेरा कृपापात्र बने''।
19) ईश्वर ने उत्तर दिया, ÷नहीं! तुम्हारी पत्नी सारा तुुम्हारे लिए पुत्र प्रसव करेगी। तुम उसका नाम इसहाक रखोगे। मैं उसके और उसके वंशजों के लिए अपना चिरस्थायी विधान बनाये रखूँगा। मैं उसके और उसके वंश का ईश्वर होऊँगा।
20) मैंने इसमाएल के लिए तुम्हारी प्रार्थना सुनी। मैं उसे आशीर्वाद दूँगा। मैं उसे सन्तति प्रदान करूँगा और उस के वंशजों की संख्या बढ़ाऊँगा। वह बारह कुलपतियों का पिता बनेगा और उस से एक महान् राष्ट्र उत्पन्न होगा।
21) किन्तु मैं इसहाक के लिए अपना विधान बनाये रखूंँगा। अगले वर्ष के इस समय सारा उसे प्रसव करेगी।''
22) इतना कह कर ईश्वर इब्राहीम को छोड़ कर चला गया।
23) तब इब्राहीम के यहाँ उसके पुत्र इसमाएल का, उसके घर में पैदा हुए सब लोगों का तथा उनका, जिन्हें उसने धन दे कर ख़रीदा था, अर्थात् इब्राहीम के घर के सब पुरुषों का उसी दिन, ईश्वर द्वारा उस को दी हुई आज्ञा के अनुसार ख़तना किया गया।
24) जब इब्राहीम का ख़तना हुआ, तब वह निन्यानबे वर्ष का था,
25) और जब उसके पुत्र इसमाएल का ख़तना किया गया, तब उसकी आयु तेरह साल की थी।
26) इब्राहीम और उसके पुत्र इसमाएल का ख़तना एक ही दिन हुआ।
27) उसके साथ ही उसके घर के सब पुरुषों का भी ख़तना हुआ, चाहे वे उसके घर में पैदा हुए हों, चाहे ऐसे हों, जो धन देकर विदेशियों से ख़रीदे गये हों।

अध्याय 18

1) इब्राहीम मामरे के बलूत के पास दिन की तेज+ गरमी के समय अपने तम्बू के द्वार पर बैठा हुआ था कि प्रभु उस को दिखाई दिया।
2) इब्राहीम ने आँख उठा कर देखा कि तीन पुरुष उसके सामने खडे+ हैं। उन्हें देखते ही वह तम्बू के द्वार से उन से मिलने के लिए दौड़ा और दण्डवत् कर
3) बोला, ''प्रभु! यदि मुझ पर आपकी कृपा हो, तो अपने सेवक के सामने से यों ही न चले जायें।
4) आप आज्ञा दे, तो मैं पानी मंगवाता हूँ। आप पैर धो कर वृक्ष के नीचे विश्राम करें।
5) इतने में मैं रोटी लाऊँगा। आप जलपान करने के बाद ही आगे बढ़ें। आप तो इसलिए अपने सेवक के यहाँ आए हैं।''
6) उन्होंने उत्तर दिया, ''तुम जैसा कहते हो, वैसा ही करो''। इब्राहीम ने तम्बू के भीतर दौड़ कर सारा से कहा ''जल्दी से तीन पसेरी मैदा गूंध कर फुलके तैयार करो''।
7) तब इब्राहीम ने ढोरों के पास दौड़ कर एक अच्छा मोटा बछड़ा लिया और नौकर को दिया, जो उसे जल्दी से पकाने गया।
8) बाद में इब्राहीम ने दही, दूध और पकाया हुआ बछड़ा ले कर उनके सामने रख दिया और जब तक वे खाते रहे, वह वृक्ष के नीचे खड़ा रहा।
9) उन्होंने इब्राहीम से पूछा, ''तुम्हारी पत्नी सारा कहाँ है?'' उसने उत्तर दिया, ''वह तम्बू के अन्दर है''।
10) इस पर अतिथि ने कहा, ''मैं एक वर्ष के बाद फिर तुम्हारे पास आऊँगा। उस समय तक तुम्हारी पत्नी को एक पुत्र होगा।''
11) इब्राहीम और सारा, दोनो बूढ़े हो चले थे; उनकी आयु बहुत अधिक हो गयी थी और सारा का मासिक धर्म बन्द हो गया था।
12) इसलिए सारा हँसने लगी और उसने अपने मन में कहा, ''क्या मैं अब भी पति के साथ रमण करूँ? मैं तो मुरझा गयी हूँ और मेरा पति भी बूढ़ा हो गया है।''
13) किन्तु प्रभु ने इब्राहीम से कहा, ''सारा यह सोच कर क्यों हँसी कि क्या सचमुच बुढ़ापे में भी मैं माता बन सकती हूँ?
14) क्या प्रभु के लिए कोई बात कठिन है? मैं अगले वर्ष इसी समय तुम्हारे यहाँ फिर आऊँगा और तब सारा को एक पुत्र होगा।''
15) सारा ने कहा, ''मैं नहीं हँसी'', क्योंकि वह डर गयी। किन्तु उसने उत्तर दिया, ''तुम निश्चय ही हँसी थी।''
16) वे लोग वहाँ से सोदोम की ओर चल पड़े। इब्राहीम उन्हें विदा करने के लिए उनके साथ हो लिया।
17) प्रभु ने अपने मन में यह कहा, ''मैं जो करने जा रहा हूँ, क्या उसे इब्राहीम से छिपाये रखूँ?
18) उस से एक महान् तथा शक्तिशाली राष्ट्र उत्पन्न होगा और उसके द्वारा पृथ्वी पर के सभी राष्ट्रों को आशीर्वाद प्राप्त होगा।
19) मैंने उसे चुन लिया, जिससे वह अपने पुत्र और अपने वंश को यह शिक्षा दे कि वे न्याय और धर्म का पालन करते हुए प्रभु के मार्ग पर चलते रहें। इस प्रकार मैं उस से जो प्रतिज्ञा कर चुका, उसे पूरा करूँगा।''
20) इसलिए प्रभु ने कहा, ''सोदोम और गोमोरा के विरुद्ध बहुत ऊँची आवाज+ उठ रही है और उनका पाप बहुत भारी हो गया है।
21) मैं उतर कर देखना और जानना चाहता हूँ कि मेरे पास जैसी आवाज+ पहुँची है, उन्होंने वैसा किया अथवा नहीं।''
22) वे दो पुरुष वहाँ से विदा हो कर सोदोम की ओर चले गये। प्रभु इब्राहीम के साथ रह गया और
23) इब्राहीम ने उसके निकट आ कर कहा, ''क्या तू सचमुच पापियों के साथ-साथ धर्मियों को भी नष्ट करेगा?
24) नगर में शायद पचास धर्मी हैं। क्या तू उन पचास धर्मियों के कारण, जो नगर में बसते हैं, उसे नहीं बचायेगा?
25) क्या तू पापी के साथ-साथ धर्मी को मार सकता है? क्या तू धर्मी और पापी, दोनों के साथ एक-सा व्यवहार कर सकता है? क्या समस्त पृथ्वी का न्यायकर्ता अन्याय कर सकता है?''
26) प्रभु ने उत्तर दिया, ''यदि मुझे नगर में पचास धर्मी भी मिलें, तो मैं उनके लिए पूरा नगर बचाये रखूँगा''।
27) इस पर इब्राहीम ने कहा, ''मैं तो मिट्ठी और राख हूँ; फिर भी क्या मैं अपने प्रभु से कुछ कह सकता हूँ?
28) हो सकता है कि पचास में पाँच कम हों। क्या तू पाँच की कमी के कारण नगर नष्ट करेगा?'' उसने उत्तर दिया, ''यदि मुझे नगर में पैंतालीस धर्मी भी मिलें, तो मैं उसे नष्ट नहीं करूँगा''।
29) इब्राहीम ने फिर उस से कहा, ''हो सकता है कि वहाँ केवल चालीस मिलें''। प्रभु ने उत्तर दिया, ''चालीस के लिए मैं उसे नष्ट नहीं करूँगा''।
30) तब इब्राहीम ने कहा, ''मेरा प्रभु क्रोध न करें और मुझे बोलने दें। हो सकता है कि वहाँ केवल तीस मिलें।'' उसने उत्तर दिया, ''यदि मुझे वहाँ तीस भी मिलें, तो मैं उसे नष्ट नहीं करूँगा''।
31) इब्राहीम ने कहा, ''तू मेरी धृष्टता क्षमा कर - हो सकता है कि केवल बीस मिले'' और उसने उत्तर दिया, ''बीस के लिए मैं उसे नष्ट नहीं करूँगा''।
32) इब्राहिम ने कहा, ''मेरा प्रभु बुरा न माने तो में एक बार और निवेदन करूँगा - हो सकता है कि केवल दस मिलें'' और उसने उत्तर दिया, ''दस के लिए भी में उसे नष्ट नहीं करूँगा।
33) इब्राहीम के साथ बातचीत करने के बाद प्रभु चला गया और इब्राहीम अपने यहाँ लौटा।

अध्याय 19

1) वे दो स्वर्गदूत सन्ध्या के समय सोदोम पहुँचे। इस समय लोट सोदोम के फाटक पर बैठा था। उन्हें देखते ही लोट उन से मिलने के लिए खड़ा हो गया और भूमि पर झुक कर उन्हें प्रणाम करते हुए
2) बोला, ''महानुभावों, आप अपने दास के घर पधारें, यहीं रात बितायें अपने पैर धोयें। फिर प्रातःकाल उठ कर प्रस्थान करें।'' उन्होंने कहा, ''नहीं, हम चौक में रात बितायेंगे''।
3) परन्तु जब उसने बहुत आग्रह किया, तब वे उसके साथ उसके घर गये। उसने उनके लिए भोजन तैयार किया, बेख़मीरी रोटियाँ बनायीं और उन्होंने खाना खाया।
4) उनके शयन करने के पहले ही नगर के लोगों, सोदोम के सब पुरुषों, क्या छोटे क्या बड़े, सब ने उसका घर घेर लिया।
5) वे लोट को पुकार कर उस से पूछने लगे, ''आज रात को जो लोग तुम्हारे पास आये थे, वे कहाँ है? उन्हें हमारे पास बाहर लाओ कि हम उनका भोग करें।''
6) लोट ने अपने पीछे दरवाजा बन्द कर दिया। उसने बाहर निकल कर उन लोगों से
7) कहा, ''भाइयों, मैं तुम लोगों से प्रार्थना करता हूँ कि तुम ऐसा कुकर्म न करो।
8) मेरी दो कुँवारी बेटियाँ हैं। मैं उन्हें तुम्हारे पास ला देता हूँ और तुम उनके साथ जैसा चाहो, कर लो। किन्तु इन आदमियों के साथ कोई कुकर्म मत करना, क्योंकि ये मेरे यहाँ आये हुए अतिथि है।''
9) इस पर उन्होंने उत्तर दिया, ''हट जाओ'' और बोले, ''देखो, यह प्रवासी हो कर यहाँ आ बसा है, फिर भी हम को उचित-अनुचित की शिक्षा देने लगा! हम उन से भी ज्यादा बुरा व्यवहार तुम्हारे साथ करेंगे!''
10) वे लोट पर टूट पड़े और किवाड़ तोड़ने के लिए पहुँचे ही थे कि उन दो व्यक्तियों ने अपने हाथ बढ़ा कर लोट को घर के भीतर अपने पास खींच लिया और किवाड़ बन्द कर लिया।
11) फिर उन्होंने घर के दरवाजे+ पर खड़े हुए छोटे-बड़े, सब-लोगों को अन्धा बना दिया, जिससे वे दरवाजे का पता नहीं लगा पा रहे थे।
12) उन व्यक्तियों ने लोट से पूछा, ''क्या यहाँ आपका कोई और भी है? दामाद, पुत्र, पुत्रियाँ अथवा नगर का आपका कोई और हो, तो उन्हें ले कर यहाँ से निकल जाइए।
13) हम इस स्थान का विनाश करने वाले हैं, क्योंकि प्रभु के पास यहाँ के लोगों के विरुद्ध बड़ी-बड़ी दुहाइयाँ पहुँच चुकी है। इसलिए प्रभु ने हमें इसका विनाश करने के लिए भेजा है।''
14) तब लोट बाहर गया और उसने अपने भावी दामादों से कहा, ''उठो, यहाँ से बाहर निकल चलो, क्योंकि प्रभु इस नगर का विनाश करने ही वाला है''। परन्तु दामादों को लगा कि वह उन से मज+ाक कर रहा है।
15) स्वर्गदूतों ने यह कहते हुए लोट से अनुरोध किया, ''जल्दी कीजिए! अपनी पत्नी और अपनी दोनों पुत्रियों को ले जाइए। नहीं तो आप भी नगर के दण्ड के लपेट में नष्ट हो जायेंगे।''
16) वह हिचकता रहा, इसलिए स्वर्गदूत उसका, उसकी पत्नी और उसकी दोनों पुत्रियों का हाथ पकड़ कर नगर के बाहर ले चले, क्योंकि प्रभु लोट को बचाना चाहता था।
17) नगर के बाहर पहुँच कर एक स्वर्गदूत ने कहा, ''जान बचा कर भाग जाइए। पीछे मुड़ कर मत देखिएगा और घाटी में कहीं भी नहीं रूकिएगा। पहाड़ पर भाग जाइए, नहीं तो आप नष्ट हो जायेंगे।''
18) लोट ने उत्तर दिया ''महोदय! यह नहीं होगा।
19) आपने मुझ पर दया दृष्टि की और मेरी जान बचा कर मेरे बड़ा उपकार किया। यदि मैं पहाड़ पर भाग जाऊँ, तो मैं विपत्ति से नहीं बच सकूँगा और निश्चय ही मर जाऊँगा।
20) देखिए, सामने की नगरी अधिक दूर नहीं है। मैं वहाँ शीघ्र ही पहँुच सकता हूँ। मुझे वहाँ शरण लेने दीजिए। वह एक छोटी-सी जगह है। मैं वहाँ सुरक्षित होऊँगा।''
21) स्वर्गदूत ने उत्तर दिया, ''आपका यह निवेदन मुझे स्वीकार है। मैं उस नगरी का विनाश नहीं करूँगा।
22) शीघ्र ही वहाँ भाग जाइए। जब तक आप वहाँ नहीं पहुँचेंगे, तब तक मैं कुछ नहीं करूँगा।'' इस कारण वह नगरी सोअर कहलाती है।
23) जिस समय पृथ्वी पर सूर्य का उदय हुआ और लोट सोअर पहुँचा,
24) उस समय प्रभु ने सोदोम और गोमोरा पर आकाश से गन्धक और आग बरसायी।
25) उसने उन नगरों को, सारी घाटी को, उसके समस्त निवासियों को और उसके सभी पेड़-पौधों को नष्ट कर दिया।
26) लोट की पत्नी ने, जो उसके पीछे चल रही थी, मुड़ कर देखा और वह नमक का खम्भा बन गयी।
27) दूसरे दिन सबेरे ही इब्राहीम उस जगह पहुँचा, जहाँ वह प्रभु के साथ खड़ा हुआ था।
28) उसने सोदोम, गोमोरा और सारी घाटी पर दृष्टि दौड़ा कर देखा कि भट्ठी के धुएँ की तरह भूमि पर से धुआँ ऊपर उठ रहा है।
29) इस प्रकार जब ईश्वर ने घाटी के नगरों का विनाश किया, तो उसने इब्राहीम का ध्यान रखा और लोट की रक्षा की, तब उसने उन नगरों को विनाश किया, जहाँ वह रहता था।
30) लोट सोअर में रहने से डरता था; इसलिए वह सोअर से आगे बढ़ा और अपनी दो पुत्रियों के साथ पहाड़ियों पर बस गया। वहाँ वह अपनी दोनों पुत्रियों के साथ एक गुफा में रहने लगा।
31) तब बड़ी बेटी ने छोटी से कहा, ''हमारे पिता अब बूढ़े हो गये हैं। इस प्रदेश में ऐसा कोई भी नहीं है, जो संसार के लोगों की परम्परा के अनुसार हमारे साथ विवाह करे।
32) आओ, हम अपने पिता को शराब पिला दें और उसी के साथ लेट जायें, जिससे हम अपने पिता के द्वारा ही अपना वंश बनाये रखें।''
33) तब उन्होंने उस रात को अपने पिता को शराब पिलायी और बड़ी पुत्री अपने पिता के पास जाकर उसके साथ लेट गयी। उसे यह नहीं मालूम हो पाया कि वह कब उसके साथ लेटी और कब उठ कर चली गयी।
34) दूसरे दिन बड़ी ने छोटी से कहा, ''देखो, पिछली रात मैं अपने पिता के साथ लेट गयी। आज रात को भी हम उसे शराब पिला दें: तब तुम जा कर उसके साथ लेट जाओ जिससे हम अपने पिता के द्वारा अपना वंश बनाये रखें।''
35) इसलिए उन्होंने उस रात को भी अपने पिता को शराब पिलायी। तब छोटी गयी और उसके साथ लेट गयी। उसे यह मालूम नहीं हो पाया कि वह कब उसके साथ लेटी ओर कब उठ कर चली गयी।
36) इस तरह लोट की दोनों पुत्रियाँ अपने पिता से गर्भवती हुईं।
37) बड़ी पुत्री को एक पुत्र पैदा हुआ, जिसका नाम उसने मोआब रखा। वह आजकल के मोआबियों का मूलपुरुष है।
38) छोटी पुत्री के भी एक पुत्र पैदा हुआ, जिसका नाम उसने बेन-अम्मी रखा। वह आजकल के अम्मोनियों का मूलपुरुष है।

अध्याय 20

1) इब्राहीम वहाँ से नेगेब प्रदेश की ओर बढ़ा और शूर के बीच में बस गया। बाद में वह गरार में रहने लगा।
2) इब्राहीम अपनी पत्नी सारा के विषय में कहा करता था कि वह मेरी बहन है। गरार के राजा अबीमेलेक ने सारा को बुलवा कर अपने पास रख लिया।
3) इस पर ईश्वर ने रात में अबीमेलेक को स्वप्न में दर्शन दिये और कहा, ''देखो, तुमने इस स्त्री का अपहरण किया, इसलिए तुम मर जाओगे; क्योंकि वह किसी की पत्नी है''।
4) अबीमेलेक का अब तक उस से संसर्ग नहीं हुआ था, इसलिए उसने कहा, ''प्रभु! क्या तू निर्दोष मनुष्यों का विनाश करेगा?
5) क्या उसने खुद मुझ से नहीं कहा था कि वह मेरी बहन है? और वह भी बोली थी कि वह मेरा भाई है? मैंने यह कार्य निर्मल हृदय और निष्पाप हाथों से किया है।''
6) तब ईश्वर ने स्वप्न दर्शन में उस से कहा, ''हाँ, मैं जानता हूँ कि तुमने यह कार्य निर्मल हृदय और निष्पाप हाथों से किया और मैंने ही तुम्हें अपने विरुद्ध पाप करने से बचाया है। इसीलिए मैंने तुम को उसका स्पर्श तक नहीं करने दिया।
7) अब उस पुरुष की पत्नी को उसे लौटाओ, क्योंकि वह एक नबी है। वह तुम्हारे लिए प्रर्थना करेगा और तुम जीवित रहोगे। यदि तुम उसे नहीं लौटाओगे, तो जान लो कि तुम्हारी और तुम्हारे सगे-सम्बन्धियों की मृत्यु हो जायेगी।''
8) अबीमेलेक ने बड़े सबेरे उठ कर अपने सब नौकरों को बुलाया और उन से ये सब बातें कहीं। इस पर वे सब बहुत डर गये।
9) फिर अबीमेलेक ने इब्राहीम को बुलवा कर उस से कहा, ''यह तुमने हमारे साथ क्या किया? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था कि तुमने मुझे और मेरे राज्य को इतने महान् पाप का भागी बनाया? तुमने मेरे साथ ऐसा किया है, जैसा कभी नहीं किया जाना चाहिए था।''
10) फिर अबीमेलेक ने इब्राहीम से पूछा, ''तुमने किस इरादे से ऐसा किया?''
11) इब्राहीम ने उत्तर दिया, ''मैंने सोचा था कि यहाँ कोई भी ईश्वर पर श्रद्धा नहीं रखता, इसलिए लोग मेरी पत्नी के कारण मुझे मार डालेंगे।
12) इसके अतिरिक्त वह सचमुच मेरी बहन है। वह मेरे पिता की पुत्री है, पर मेरी माता की नहीं है और वह मेरी पत्नी बन गयी
13) और जब ईश्वर की प्रेरणा से मुझे भ्रमण करना पड़ा, तो मैंने उस से कहा कि तुम मुझ पर यह कृपा करना कि हम जहाँ कहीं भी जायें, तुम मेरे विषय में कहना कि यह मेरा भाई है।''
14) इस पर अबीमेलेक ने इब्राहीम को भेड़ें और बैल, दास और दासियाँ भेंट की और उसे उसकी पत्नी सारा को भी लौटा दिया।
15) अबीमेलेक ने कहा, ''देखो, मेरा देश तुम्हारे सामने है। तुम जहाँ चाहो, रह सकते हो।''
16) उसने सारा से कहा, ''देखो, मैं तुम्हारे भाई को इसलिए एक हज+ार चाँदी के सिक्के देता हूँ कि तुम्हारे साथ जो अन्याय किया गया है, उसका तुम्हारे सब सम्बन्धियों की दृष्टि में प्रायश्चित हो और तुम सब की दृष्टि में निर्दोष प्रमाणित हो। सब लोगों के सामने तुम्हारा न्याय किया गया है।''
17) इसके बाद इब्राहीम ने ईश्वर से प्रार्थना की और ईश्वर ने अबीमेलेक, उसकी पत्नी तथा उसकी दासियों को स्वस्थ कर दिया, जिससे फिर उन को भी सन्तानें होने लगी;
18) क्योंकि प्रभु ने इब्राहीम की पत्नी सारा के कारण अबीमेलेक के घर की सब स्त्रियों को बन्ध्या बना दिया था।

अध्याय 21

1) प्रभु ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार सारा पर कृपादृष्टि की। प्रभु ने सारा के प्रति अपना वचन पूरा किया।
2) सारा गर्भवती हुई ओर ईश्वर द्वारा निश्चित समय पर उसे इब्राहीम से उसकी वृद्धावस्था में एक पुत्र पैदा हुआ।
3) इब्राहीम ने सारा से उत्पन्न अपने पुत्र का नाम इसहाक रखा।
4) इब्राहीम ने ईश्वर की आज्ञा के अनुसार अपने पुत्र इसहाक का आठवें दिन ख़तना किया।
5) जब उसका पुत्र इसहाक पैदा हुआ था, तब इब्राहीम की उमर सौ वर्ष की थी।
6) सारा ने कहा, ''ईश्वर ने मुझे हँसने दिया और जो भी यह बात सुनेगा, वह मुझ पर हँसेगा''।
7) फिर उसने कहा, ''इब्राहीम से कौन यह कह सकता था कि सारा बच्चों को दूध पिलायेगी? तो भी उसकी वृद्धावस्था में मैंने उसके लिए एक पुत्र को जन्म दिया है।''
8) इसहाक की दूध-छुड़ाई के दिन इब्राहीम ने एक बड़ी दावत दी।
9) सारा ने मिस्री हागार के पुत्र को अपने पुत्र इसहाक के साथ खेलते हुए देखा
10) और इब्राहीम से कहा, ''इस दासी और इसके पुत्र को घर से निकाल दीजिए। इस दासी का पुत्र मेरे पुत्र इसहाक के साथ विरासत का अधिकारी नहीं होगा।''
11) अपने पुत्र के बारे में यह बात इब्राहीम को बहुत बुरी लगी,
12) किन्तु ईश्वर ने उस से कहा, ''बच्चे और अपनी दासी की चिन्ता मत करो। सारा की बात मानो, क्योंकि इसहाक के वंशजों द्वारा तुम्हारा नाम बना रहेगा।
13) मैं दासी के पुत्र के द्वारा भी एक महान् राष्ट्र उत्पन्न करूँगा, क्योंकि वह भी तुम्हारा पुत्र है।''
14) इब्राहीम ने सबेरे उठ कर हागार को रोटी और पानी-भरी मशक दी और बच्चे को उसके कन्धे पर रख कर उसे निकाल दिया। हागार चली गयी और बएर-शेबा के उजाड़ प्रदेश में भटकती रही।
15) जब मशक का पानी समाप्त हो गया, तो उसने बच्चे को एक झाड़ी के नीचे रख दिया
16) और वह जा कर तीर के टप्पे की दूरी पर बैठ गयी, क्योंकि उसने अपने मन में कहा, ''मैं बच्चे का मरना नहीं देख सकती।'' इसलिए वह वहाँ बैठी हुई फूट-फूट कर रोने लगी।
17) ईश्वर ने बच्चे का रोना सुना और ईश्वर के दूत ने आकाश से हागार की सम्बोधित कर कहा, ''हागार! क्या बात है? मत डरो। ईश्वर ने बच्चे का रोना सुना, जहाँ तुमने उसे रखा है।
18) उठ खड़ी हो और बच्चे को उठाओ और सँभाल कर रखो, क्योंकि मैं उसके द्वारा एक महान् राष्ट्र उत्पन्न करूँगा''
19) तब ईश्वर ने हागार की आँखें खोल दीं और उसे एक कुआँ दिखाई पड़ा। उसने मशक भरी और बच्चे को पिलाया।
20) ईश्वर बच्चे का साथ देता रहा। वह बढ़ता गया और उजाड़ प्रदेश में रह कर धनुर्धर बना।
21) वह पारान के रेगिस्तान में रहता था। उसकी माँ ने मिस्र की एक स्त्री से उसका विवाह कराया।
22) उस समय अबीमेलेक और उसके सेनापति पीकोल ने इब्राहीम से कहा, ''तुम्हारे सब कार्यों में ईश्वर तुम्हारा साथ देता है।
23) इसलिए यहाँ मेरे सामने ईश्वर की शपथ खा कर कहो कि तुम मेरे साथ, मेरी सन्तति और मेरे वंशजों के साथ कभी छल-कपट नहीं करोगे। जिस प्रकार मैंने तुम्हारे साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार किया है, उसी प्रकार का व्यवहार तुम भी मेरे तथा इस देश के साथ, जिस में तुम प्रवासी हो, करोगे।''
24) इब्राहीम ने कहा, ''मैं शपथ खाता हँू।''
25) इब्राहीम ने अबीमेलेक से पानी के कुएँ के विषय में शिकायत की, क्योंकि अबीमेलेक के नौकरों ने उसे अपने अधिकार में ले लिया था।
26) इस पर अबीमेलेक ने कहा, ''मुझे पता नहीं है कि ऐसा किसने किया है। न तुमने हीे मुझे कभी बताया और न मैंने ही इसके विषय में आज तक कुछ सुना था।''
27) तब इब्राहीम ने अबीमेलेक को भेडें और बैल भेंट किये और दोनों ने एक सन्धि की।
28) इब्राहीम ने भेड़ों के सात मेमनों को अलग रखा।
29) अबीमेलेक ने इब्राहीम से पूछा, ''तुमने इन सात मेमनों को क्यों अलग रखा है?''
30) उसने उत्तर दिया, ''तुम मेरे हाथ से ये सातों मेमने ग्रहण करो, जिससे यह प्रमाणित हो जाये कि मैंने ही यह कुआँ खुदवाया है।''
31) उस स्थान का नाम बएरशेबा पड़ा, क्योंकि वहाँ पर उन दोनों ने शपथ खायी थी।
32) बएर-शेबा में उनकी इस सन्धि के बाद अबीमेलेक और उसका सेनापति पीकोल वहाँ से फ़िलिस्तयों के देश लौट गये।
33) परन्तु इब्राहीम ने बएर-शेबा में एक झाऊ का वृक्ष लगाया और वहाँ प्रभु, शाश्वत ईश्वर से प्रार्थना की।
34) इब्राहीम फ़िलिस्तियों के देश में प्रवासी के रूप में बहुत दिनों तक निवास करता रहा।

अध्याय 22

1) ईश्वर ने इब्राहीम की परीक्षा ली। उसने उस से कहा, ''इब्राहीम! इब्राहीम!'' इब्राहीम ने उत्तर दिया, ''प्रस्तुत हूँ।''
2) ईश्वर ने कहा, ''अपने पुत्र को, अपने एकलौते को परमप्रिय इसहाक को साथ ले जा कर मोरिया देश जाओ। वहाँ, जिस पहाड़ पर मैं तुम्हें बताऊँगा, उसे बलि चढ़ा देना।''
3) इब्राहीम बड़े सबेरे उठा। उसने अपने गधे पर ज+ीन बाँध कर दो नौकरों और अपने पुत्र इसहाक को बुला भेजा। उसने होम-बली के लिए लकड़ी तैयार कर ली और उस जगह के लिए प्रस्थान किया, जिसे ईश्वर ने बताया था।
4) तीसरे दिन, इब्राहीम ने आँखें ऊपर उठायीं और उस जगह को दूर से देखा।
5) इब्राहीम ने अपने नौकरों से कहा, ''तुम लोग गधे के साथ यहाँ ठहरो। मैं लड़के के साथ वहाँ जाऊँगा। आराधना करने के बाद हम तुम्हारे पास लौट आयेंगे।
6) इब्राहीम ने होम-बली की लकड़ी अपने पुत्र इसहाक पर लाद दी। उसने स्वयं आग और छुरा हाथ में ले लिया और दोनों साथ-साथ चल दिये।
7) इसहाक ने अपने पिता इब्राहीम से कहा, ''पिताजी!'' उसने उत्तर दिया, ''बेटा! क्या बात है?'' उसने उत्तर दिया, ''देखिए, आग और लकड़ी तो हमारे पास है; किन्तु होम को मेमना कहाँ है?''
8) इब्राहीम ने उत्तर दिया, ''बेटा! ईश्वर होम के मेमने का प्रबन्ध कर देगा'', और वे दोनों साथ-साथ आगे बढ़े।
9) जब वे उस जगह पहुँच गये, जिसे ईश्वर ने बताया था, तो इब्राहीम ने वहाँ एक वेदी बना ली और उस पर लकड़ी सजायी। इसके बाद उसने अपने पुत्र इसहाक को बाँधा और उसे वेदी के ऊपर रख दिया।
10) तब इब्राहीम ने अपने पुत्र को बलि चढ़ाने के लिए हाथ बढ़ा कर छुरा उठा लिया।
11) किन्तु प्रभु का दूत स्वर्ग से उसे पुकार कर बोला, ''इब्राहीम! ''इब्राहीम! उसने उत्तर दिया, ''प्रस्तुत हूँ।''
12) दूत ने कहा, ''बालक पर हाथ नहीं उठाना; उसे कोई हानि नहीं पहुँचाना। अब मैं जान गया कि तुम ईश्वर पर श्रद्धा रखते हो - तुमने मुझे अपने पुत्र, अपने एकलौते पुत्र को भी देने से इनकार नहीं किया।
13) इब्राहीम ने आँखें ऊपर उठायीं और सींगों से झाड़ी में फँसे हुए एक मेढ़े को देखा। इब्राहीम ने जाकर मेढ़े को पकड़ लिया और उसे अपने पुत्र के बदले बलि चढ़ा दिया।
14) इब्राहीम ने उस जगह का नाम ''प्रभु का प्रबन्ध'' रखा; इसलिए लोग आजकल कहते हैं, ''प्रभु पर्वत पर प्रबन्ध करता है।''
15) ईश्वर का दूत इब्राहीम को दूसरी बार पुकार कर
16) बोला, ''यह प्रभु की वाणी है। मैं शपथ खा कर कहता हूँ - तुमने यह काम किया : तुमने मुझे अपने पुत्र, अपने एकलौते पुत्र को भी देने से इनकार नहीं किया;
17) इसलिए मैं तुम पर आशिष बरसाता रहूँगा। मैं आकाश के तारों और समुद्र के बालू की तरह तुम्हारे वंशजों को असंख्य बना दूँगा और वे अपने शत्रुओं के नगरों पर अधिकार कर लेंगे।
18) तुमने मेरी आज्ञा का पालन किया है; इसलिए तुम्हारे वंश के द्वारा पृथ्वी के सभी राष्ट्रों का कल्याण होगा।''
19) इब्राहीम अपने नौकरों के पास लौटा। वे सब बएर-शेबा चले गये और इब्राहीम वहाँ रहने लगा।
20) इसके बाद इब्राहीम को यह सन्देश मिला कि आपके भाई नाहो को अपनी पत्नी मिल्का से कई पुत्र हुए।
21) उनके नाम इस प्रकार हैं: पहलौठा ऊस, इसका भाई बूज, अराम का पिता कमूएल,
22) केसेद, हजो, पिलदाश, यिदलाफ़ और बतूएल।
23) बतूएल रिबेका का पिता था। ये आठों इब्राहीम के भाई नाहोर की पत्नी मिल्का के पुत्र हैं।
24) नाहोर की उपपत्नी से टेबह, गहम, तहश और माका नामक पुत्र हुए।

अध्याय 23

1) सारा एक सौ सत्ताईस वर्ष की उमर तक जीती रही
2) और कानान के किर्यत-अरबा, अर्थात् हेब्रोन में उसका देहान्त हो गया। इब्राहीम ने उसके लिए मातम मनाया और विलाप किया।
3) इसके बाद वह उठ खड़ा हुआ और मृतक को छोड़ कर हित्तियों से बोला,
4) ''मैं आपके यहाँ परदेशी और प्रवासी हूँ। मुझे मक़बरे के लिए थोड़ी-सी ज+मीन दीजिए, जिससे मैं उचित रीति से अपनी मृत पत्नी को दफ़ना सकूँ।''
5) हित्तियों ने इब्राहीम को उत्तर दिया,
6) ''महोदय! हमारी बात सुनिए। आप हमारे बीच एक शक्तिसम्पन्न व्यक्ति हैं। अपनी मृत पत्नी को हमारे सर्वोत्तम समाधि-स्थान में दफनाइए। आप हम में से किसी के भी समाधि-स्थान में उसका दफ़न करेंगे, तो वह आप को नहीं रोकेगा।''
7) इब्राहीम ने उठ कर देश के निवासियों हित्तियों को प्रणाम किया और
8) उन से कहा, ''यदि आप लोग मुझे अनुमति देना चाहते हैं कि मैं यहाँ अपनी मृत पत्नी को दफ़नाऊँ, तो मेरी बात मानिए और सोहर के पुत्र एफ्रोन से मेरे लिए यह निवेदन कीजिए कि
9) वह मकपेला की गुफा मुझे दे दे। वह उसकी है और उसके खेत के किनारे है। वह पूरा-पूरा दाम ले कर आपके सामने ही उसे मुझे दे दे, जिससे मैं उसे समाधि-स्थान बना लूँ।''
10) एफ्रोन भी हित्तियों के बीच में बैठा था। इस पर हित्ती एफ्रोन ने उन सब हित्तियों के सामने, जो नगर के दरवाज+े के पास इकट्ठे थे, इब्राहीम को इस प्रकार उत्तर दिया,
11) ''महोदय! ऐसा नहीं। आप मेरी बात मानिए। मैं वह भूमि और वह गुफा भी, जो उस पर है, आप को दान देता हूँ। मैं अपनी जाति वालों के सामने आप को अपनी भूमि देता हूँ। आप अपनी मृत पत्नी का दफ़न कीजिए।''
12) तब इब्राहीम ने देश के निवासियों को प्रणाम किया
13) और देश के लागों के सामने एफ्रोन से कहा, ''मेरी बात मानिए। मैं खेत का दाम चुकाऊँगा। उसे मुझ से स्वीकार कीजिए, जिससे मैं अपनी मृत पत्नी को वहाँ दफ़नाऊँ।''
14) एफ्रोन ने इब्राहीम को उत्तर दिया,
15) ''महोदय, मेरी बात सुनिए। वह भूमि तो चार सौ चाँदी के शेकेल की है, लेकिन मेरे और आपके बीच इसका क्या महत्व? अपनी मृत पत्नी का दफ़न कीजिए।''
16) इस पर इब्राहीम ने एफ्रोन की बात स्वीकार कर ली। फिर चाँदी तोल कर इब्राहीम ने एफ्रोन को खेत का वह दाम दिया, जो उसने हित्तियों को सुना कर कहा था, अर्थात् बाज+ार में प्रचलित तौल के अनुसार चार सौ चाँदी के शेकेल।
17) (१७-१८) इस प्रकार नगर में फाटक पर एकत्र सब हित्तियों के सामने कमपेला में स्थित एफ्रोन की भूमि, जो मामरे के पूर्व में है और उस भूमि-सहित उस पर स्थित गुुफा तथा भूमि पर के और उसके आसपास के सब वृक्ष-इस सारी भूमि का अधिकार इब्राहीम को मिल गया।
19) इसके बाद इब्राहीम ने कनान देश के मामरे, अर्थात् हेब्रोन के पूर्व में, मकपेला के खेत की उस गुफा में अपनी पत्नी सारा को दफ़नाया।
20) इस प्रकार उसके निजी समाधि-स्थान होने के निमित्त वह भूमि और उस पर स्थित वह गुफा हित्तियों के अधिकार से निकल कर इब्राहीम के हाथ आ गयी।

अध्याय 24

1) उस समय तक इब्राहीम बहुत बूढ़ा हो गया था और प्रभु ने उसे उसके सब कार्यों में आशीर्वाद दिया था।
2) इब्राहीम ने अपने सब से पुराने नौकर से, जो उसकी समस्त सम्पत्ति का प्रबन्ध करता था, कहा, ''अपना हाथ मेरी जाँघ के नीचे रखो
3) और आकाश तथा पृथ्वी के ईश्वर की शपथ ले कर मुझे वचन दो कि जिन कनानियों के बीच मैं रहता हूँ, उनकी कन्याओं में से किसी को भी मेरे पुत्र की पत्नी नहीं बनाओगे,
4) बल्कि मेरे देश और मेरे सम्बन्धियों के पास जाओगे और वहाँ मेरे पुत्र इसहाक के लिए पत्नी चुनोगे।''
5) नौकर ने कहा, ''हो सकता है कि वहाँ कोई ऐसी स्त्री नहीं मिले, जो मेरे साथ यह देश आना चाहती हो। तो, क्या मैं आपके पुत्र को उस देश ले चलूँ, जिसे आपने छोड़ दिया है?''
6) इब्राहीम ने उत्तर दिया, ''तुम मेरे पुत्र को वहाँ कदापि नहीं ले जाना।
7) प्रभु, आकाश और पृथ्वी के ईश्वर ने मुझे मेरे पिता के घर और मेरे कुटुम्ब के देश से निकाला और शपथ ले कर मुझ से कहा कि वह यह देश मेरे वंशजों को प्रदान करेगा। वही प्रभु तुम्हारे साथ अपना दूत भेजेगा, जिससे तुम वहाँ से मेरे पुत्र के लिए पत्नी ला सको।
8) यदि कोई स्त्री तुम्हारे साथ चलने के लिए तैयार न हो तो तुम अपनी इस शपथ से मुक्त होगे, किन्तु मेरे पुत्र को वहाँ कदापि नहीं ले जाना।''
9) तब सेवक ने अपने स्वामी इब्राहीम की जाँघ के नीचे अपना हाथ रख कर और शपथ खा कर उसे वैसा ही वचन दिया।
10) इसके बाद वह सेवक अपने स्वामी के ऊँटों में से दस ऊँट और अपने स्वामी की सब प्रकार की सर्वोत्तम चीजें+ ले कर उत्तरी मेसोपोतामिया के नाहोर नामक नगर के लिए चल पड़ा।
11) वहाँ पहुँच कर उसने नगर के बाहर एक बावड़ी के पास ऊँटों को बिठा दिया। सन्ध्या हो रही थी। नगर की स्त्रियाँ उस समय वहाँ पानी भरने आया करती थीं।
12) उसने कहा, ''प्रभु, मेरे स्वामी इब्राहीम के ईश्वर! आज मुझे सफलता प्रदान कर। कृपया मेरे स्वामी इब्राहीम पर दयादृष्टि कर।
13) देख, मैं इस जलस्त्रोत के पास खड़ा हूँ। नगर के निवासियों की पुत्रियाँ पानी भरने यहाँ आने वाली हैं।
14) ऐसा कर कि मैं जिस कन्या से कहूँ कि तुम अपना घड़ा उतार दो और मुझे थोड़ा पानी पिला दो और वह बोले कि पी लो और मैं तुम्हारे ऊँटों को भी पिला दूँगी, वह वही कन्या हो, जिसे तूने अपने सेवक इसहाक के लिए चुना है। इस से मैं समझूँगा कि तूने मेरे स्वामी पर दया की है।''
15) वह ऐसा कह ही रहा था कि कन्धे पर घड़ा रखे रिबेका वहाँ आ गयी। वह इब्राहीम के भाई नाहोर की पत्नी मिल्का के पुत्र बतूएल की पुत्री थी।
16) वह कन्या अत्यन्त सुन्दर थी, कुँवारी थी और उसका किसी पुरुष से संसर्ग नहीं हुआ था। वह बावड़ी में उतरी और अपना घड़ा भर कर फिर ऊपर आयी।
17) तब सेवक ने उसके पास आ कर कहा, ''कृपा करके अपने घड़े में से मुझे कुछ पानी पीने दो।''
18) वह बोली, ''पी लीजिए, महोदय।'' उसने तुरन्त अपना घड़ा अपने हाथ पर उतार कर पीने के लिए उसे पानी दिया।
19) जब वह उसे पानी पिला चुकी, तब बोली, ''मैं आपके ऊँटों के लिए भी पानी भरती जाऊँगी, जिससे वे भी पानी पी कर तृप्त हो जायें।''
20) उसने तुरन्त अपने घड़े का पानी नाँद में डाला और पानी भरने के लिए फिर से बावड़ी पर दौड़ी। इस प्रकार वह उसके सब ऊँटों के लिए पानी भरती गयी।
21) सेवक यह जानने के लिए चुपचाप खड़ा देखता रहा कि प्रभु ने उसकी यात्रा सफल की है या नहीं।
22) ऊँटों के पानी पीने के बाद सेवक ने आधे तोले सोने की एक नथ और उसके हाथों में पहनाने के लिए दस तोले सोने के दो कंगन निकाले
23) और पूछा, ''तुम किसकी पुत्री हो? मुझे यह बताओ कि क्या तुम्हारे पिता के यहाँ रात बिताने को हमारे लिए स्थान मिलेगा?''
24) उसने उसे उत्तर दिया, ''मैं नाहोर की पत्नी मिल्का के पुत्र बतूएल की पुत्री हूँ।''
25) फिर उसने कहा, ''हमारे यहाँ बहुत पुआल और चारा है और रात में रहने को काफ़ी जगह भी है।''
26) इतना सुनना था कि सेवक ने सिर झुका कर प्रभु को प्रणाम किया
27) और कहा, ''प्रभु, मेरे स्वामी इब्राहीम का ईश्वर धन्य है! उसने मेरे स्वामी पर दयादृष्टि की और उसके प्रति अपनी सत्यप्रतिज्ञता निभायी है। प्रभु ने मुझे सीधे रास्ते पर अपने स्वामी के भाइयों के यहाँ पहुँचा दिया है।''
28) लड़की दौड़ कर अपनी माँ के पास आयी और उसने घर वालों को सारा हाल सुनाया।
29) रिबेका का लाबान नामक एक भाई था। लाबान उस व्यक्ति से मिलने के लिए बावड़ी की तरफ़ दौडा।
30) ज्योंही उसने नथ और अपनी बहन के हाथों में कंगन देखे और अपनी बहन रिबेका को यह बताते हुए सुना कि उस व्यक्ति ने उस से क्या कहा है, तो वह उस व्यक्ति के पास गया। वह अभी तक बावड़ी पर अपने ऊँटों के पास ही खड़ा था।
31) उसने कहा, ''प्रभु का तुम पर अनुग्रह है। तुम बाहर क्यों खड़े हो? मैंने तुम्हारे रहने का प्रबन्ध और ऊँटों के लिए भी स्थान तैयार किया है।''
32) इस प्रकार वह सेवक उस घर में आया।'' लाबान ने ऊँटों को खोल कर उनके लिए पुआल-चारा निकाला, फिर वह पानी लाया, जिससे वह और उसके साथी अपने पैर धो सकें।
33) जब उसे भोजन परोसा गया, तो उसने कहा, ''जब तक मैं अपना सन्देश न सुना लूँगा, तब तक मैं भोजन नहीं करूँगा।''
34) लाबान ने कहा, ''तो कहो।'' तब उसने कहना आरम्भ किया, ''मैं इब्राहीम का सेवक हूँ।
35) प्रभु ने मेरे स्वामी को इतना आशीर्वाद दिया है कि वे बहुत धनी हो गये हैं। उसने उन्हें भेंड़-बकरी, गाय-बैल, चाँदी, सोना, दास, दासी, ऊँट और गधे दिये है।
36) मेरे स्वामी की पत्नी सारा को उसकी वृद्धावस्था में एक पुत्र हुआ और उसने अपना सब कुछ उसके सुपुर्द कर दिया है।
37) मेरे स्वामी ने मुझे यह शपथ खिलायी कि मैं जिन कनानियों के देश में रहता हूँ, उनकी कन्याओं में से किसी के साथ मेरे पुत्र का विवाह नहीं कराना,
38) बल्कि मेरे पिता के घर और मेरे कुटुम्ब वालों के पास जा कर वहीं से मेरे पुत्र के लिए एक पत्नी लाना।
39) मैंने अपने स्वामी से कहा कि शायद वह स्त्री मेरे साथ आने के लिए राजी नहीं होगी।
40) इस पर उन्होंने मुझ से कहा, ''प्रभु, जिसका मैं भक्त हूँ, वही अपने दूत को तुम्हारे साथ भेज कर तुम्हारी यात्रा सफल करेगा। इसलिए तुम मेरे कुल और मेरे पितृगृह में से मेरे पुत्र के लिए एक पत्नी ला सकोगे।
41) परन्तु जब तुम मेरे कुटुम्ब वालों के पास जाओगे और वे तुम्हें कोई कन्या नहीं देंगे, तो तुम अपनी शपथ से मुक्त हो जाओगे। ऐसी बात होने पर ही तुम अपनी इस शपथ से मुक्त होगें।
42) इसीलिए मैं आज बावड़ी के पास आया और मैंने इस प्रकार प्रार्थना की : प्रभु मेरे स्वामी इब्राहीम के ईश्वर! मेरी इस यात्रा को सफल कर।
43) देख, मैं अब इस बावड़ी के पास खड़ा हूँ। अब यदि कोई कन्या पानी भरने यहाँ आये और मैं उस से कहूँ कि अपने घड़े में से मुझे कुछ पानी पिला दो
44) और वह मुझ से यह कहे कि पी लो और मैं तुम्हारे ऊँटों के लिए भी पानी भरूँगी, तो वह वही कन्या होगी, जिसे प्रभु ने मेरे स्वामी के पुत्र की पत्नी बनने के लिए चुना है।
45) मेरे मन की यह प्रार्थना अभी पूरी नहीं हो पायी थी कि रिबेका अपनी कन्धे पर घड़ा रखे वहाँ आ गयी। वह बावड़ी में उतरी और पानी भरने लगी। तब मैंने उस से कहा कि मुझे कुछ पानी पिला दो।
46) उसने तुरन्त अपना घड़ा नीचे अतारा और कहा, ''पी लीजिए और मैं आपके ऊँटों को भी पिला देती हूँ।'' मैंने पानी पिया और उसने मेरे ऊँटों को भी पानी पिलाया।
47) इसके बाद मैंने उस से पूछा कि तुम किसकी पुत्री हो। उसने उत्तर दिया, ''मैं नाहोर की पत्नी मिल्का के पुत्र बतूएल की पुत्री हूँ।'' इस पर मैंने उसकी नाक में एक तथ पहना दी और उसके हाथों में कंगन पहना दिये।
48) मैंने झुक कर प्रभु को प्रणाम किया और प्रभु को, अपने स्वामी इब्राहीम के ईश्वर को धन्यवाद दिया; क्योंकि उसने मुझे सही मार्ग से यहाँ पहुँचा दिया, जिससे मैं उसके कुटुम्बी की पुत्री को अपने स्वामी के पुत्र की पत्नी के रूप में प्राप्त करूँ।
49) अब, यदि आप मेरे स्वामी के प्रति प्रेम तथा ईमान रखना चाहें, तो मुझे बतायें। यदि नहीं रखना चाहें, तो मुझे बतायें और मैं अन्यत्र पता लगाऊँगा।''
50) लाबान और बतूएल ने उत्तर दिया, ''इस में प्रभु का हाथ है। हम इस में हस्तक्षेप नहीं कर सकते।
51) रिबेका यहाँ आपके सामने है। इसे अपने साथ ले जाइए, जिससे यह आपके स्वामी के पुत्र की पत्नी बन जाये, जैसा कि प्रभु ने कहा है।''
52) जब इब्राहीम के सेवक ने उनके ये शब्द सुने, तो उसने पृथ्वी पर सिर नमा कर प्रभु को दण्डवत् किया।
53) इसके बाद उस सेवक ने चाँदी-सोने के आभूषण और वस्त्र निकाले और उन्हें रिबेका को भेंट में दिया। उसने उसके भाई और माँ को भी बहुमूल्य भेंट दी।
54) उसने और उसके साथियों ने भोजन किया और वहीं रात बितायी। दूसरे दिन सुबह उठ कर उसने कहा, ''अब मुझे अपने स्वामी के यहाँ जाने की अनुमति दीजिए।''
55) इस पर रिबेका के भाई और उसकी माँ ने कहा, ''लड़की कुछ दिन तक, दस-एक-दिन तक, हमारे पास रह जाये। इसके बाद वह चली जायेगी।''
56) परन्तु उसने यह उत्तर दिया, ''जब प्रभु ने मेरी यात्रा सफल कर दी है, तो मुझे मत रोकिए। मुझे विदा कीजिए, जिससे मैं अपने स्वामी के पास लौट जाऊँ।''
57) उन्होंने कहा, ''हम लड़की को बुला कर उसी से पूछ लें।''
58) उन्होंने रिबेका को बुला कर उस से कहा, ''क्या तुम इस मनुष्य के साथ जाने को तैयार हो?'' वह बोली, ''जी हाँ, जाऊँगी।''
59) इस पर उन्होंने उसकी धाय के साथ अपनी बहन रिबेका को इब्राहीम के सेवक और उसके परिजनों के साथ जाने दिया।
60) उन्होंने यह कहते हुए रिबेका को आशीर्वाद दिया, ''हमारी बहन! तुम हज+ारों क्या, लाखों की माता बन जाओ। तुम्हारा वंश अपने शत्रुओं के नगरों पर अधिकार करे।''
61) रिबेका और उसकी दासियाँ ऊँटों पर चढ़ कर उस मनुष्य के साथ चली गयीं। इस प्रकार इब्राहीम का सेवक रिबेका को साथ ले कर चला गया।
62) इसहाक लहय-रोई नामक कुएँ से लौटा था, क्योंकि उस समय वह नेगेब प्रदेश में रहता था।
63) इसहाक, सन्ध्या समय, खेत में टहलने गया और उसने आँखें उठा कर ऊँटों को आते देखा।
64) रिबेका ने भी आँखें उठा कर इसहाक को देखा।
65) उसने ऊँट से उतरकर सेवक से कहा, ''जो मनुष्य खेत में हमारी और आ रहा है, वह कौन है?'' सेवक ने उत्तर दिया, ''यह मेरे स्वामी है।'' इस पर उसने पल्ले से अपना सिर ढक लिया।
66) सेवक ने इसहाक को बताया कि उसने क्या-क्या किया है।
67) इसहाक रिबेका को अपनी माता सारा के तम्बू ले आया। उसने उसके साथ विवाह किया और वह उसकी पत्नी बन गयी। इसहाक रिबेका को प्यार करता था और उसे अपनी माता सारा के देहान्त के बाद सान्त्वना मिली।

अध्याय 25

1) इब्राहीम ने कटूरा नामक एक दूसरी पत्नी से विवाह किया।
2) उससे ये पुत्र हुए : जिम्रान, योकशान, मदान, मिदयान, यिशबाक और शुअह।
3) योकशान के पुत्र थेः शबा और ददान। ददान के वंशज हुए : अशूरी, लटूशी और लउम्मी लोग।
4) मिदयान के पुत्र थे : एफा, एफेर, हनोक, अबीदा और एल्दाआ। ये सब कटूरा के वंशज है।
5) इब्राहीम ने अपनी सारी सम्पत्ति इसहाक को दे दी।
6) अपनी उप-पत्नियों के पुत्रों को इब्राहीम ने केवल धन, वस्त्र आदि दिये और अपने जीवनकाल में ही उन्हें अपने पुत्र इसहाक से दूर पूर्व देश में भेजा।
7) इब्राहीम कुल मिला कर एक सौ पचहत्तर वर्ष तक जीवित रहने के बाद मरा।
8) सुखी वृद्धावस्था में, अच्छी पकी उमर में उसका देहान्त हुआ और वह अपने पूर्वजों से जा मिला।
9) उसके पुत्र इसहाक और इसमाएल ने मामरे के पूर्व हित्ति सोहर के पुत्र एफ्रोन के खेत में, मकपेला की गुफा में उसे दफ़नाया।
10) इब्राहीम ने वह खेत हित्तियों से खरीदा था। वहाँ इब्राहीम और उसकी पत्नी सारा को दफ़न किया गया।
11) इब्राहीम के मरने के बाद ईश्वर ने उसके पुत्र इसहाक को आशीर्वाद दिया। इसहाक बएर-लहय-रोई नामक कुएँ के पास रहता था।
12) इब्राहीम के पुत्र इसमाएल की, जो सारा की मिस्री दासी हागार से इब्राहीम के यहाँ पैदा हुआ था, वंशावली यह है :
13) इसमाएल के पुत्रों के नाम उनके जन्म के क्रमानुसार ये हैं : इसमाएल का सब से बड़ा पुत्र नबायोत, फिर केदार, अदबेएल, मिबसाम,
14) मिशमा, दूमा, मस्सा,
15) हदद, तेमा, यटूर, नाफीश और केदमा।
16) ये ही इसमाएल के पुत्र थे। इनके नामों के आधार पर इनकी बस्तियों और शिविरों के नाम पड़ गये और ये बारह वंशों के मूलपुरुष हैं।
17) इसमाएल कुल मिलाकर एक सौ सैंतीस वर्ष तक जीवित रहने के बाद मरा और अपने पूर्वजों से जा मिला।
18) उसके वंशज हवीला से ले कर शूर तक, जो मिस्र के पूर्व और अस्सूर की दिशा में अवस्थित है, बस गये। वे अपने सब भाई-बन्धुओं के विरोधी थे।
19) यह इब्राहीम के पुत्र इसहाक की वंशावली है। इब्राहीम इसहाक का पिता था।
20) इसहाक चालीस वर्ष का था, जब उसने पद्दन-अराम के निवासी अरामी बतूएल की पुत्री और अरामी लाबान की बहन रिबेका के साथ विवाह किया था।
21) रिबेका को कोई सन्तान नहीं हुई, इसलिए इसहाक ने प्रभु से प्रार्थना की कि उसकी पत्नी को पुत्र उत्पन्ना हो। प्रभु ने उसकी प्रार्थना सुन ली। उसकी पत्नी रिबेका गर्भवती हुई।
22) गर्भ में बच्चे एक दूसरे को धक्का देते थे, इसलिए उसने कहा, ''मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है?'' इसलिए वह प्रभु से पूछने गयी।
23) प्रभु ने उसे उत्तर दिया, ''तुम्हारे गर्भ में दो प्रजातियाँ है। तुम से दो राष्ट्र उत्पन्न होंगे और वे अलग-अलग हो जायेंगे। एक अपने भाई से शक्तिशरली होगा और बड़ा छोटे के अधीन हो जायेगा।''
24) जब जन्म का समय आया, तो मालूम हुआ कि उसके गर्भ में जुड़वां बच्चे है।
25) जो पहले दिखाई दिया, वह लाल था और उसका सारा शरीर कम्बल की तरह रोयेंदार था। इसलिए उसका नाम एसाव रखा गया
26) इसके बाद उसका भाई दिखाई दिया। वह अपने हाथ से एसाव की एड़ी पकड़े हुए था। इसलिए उसका नाम याकूब पड़ा। इन बच्चों के जन्म के समय इसहाक की आयु साठ वर्ष की थी।
27) बड़ा हो कर एसाव वन में रहने वाला एक कुशल शिकारी बना, परन्तु याकूब शान्त स्वभाव का था और अपने तम्बुओं में रहा करता था।
28) इसहाक एसाव को बहुत चाहता था, क्योंकि उसके द्वारा शिकार किये हुए पशुओं का मांस उसे पसन्द था। परन्तु रिबेका याकूब को प्यार करती थी।
29) एक दिन, जब याकूब दाल बना चुका था, एसाव जंगल से लौटा। उस समय वह बहुत भूखा था।
30) एसाव ने याकूब से कहा, ''मुझे उस लाल दाल में से कुछ खिला दो। मैं भूख से मरा जा रहा हूँ।'' (इस कारण वह एदोम अर्थात् लाल कहलाने लगा।)
31) याकूब ने उत्तर दिया, ''पहले तुम अपने पहलौठा होने का अधिकार मुझे दे दो''।
32) इस पर एसाव ने कहा, ''मैं मरने-मरने को हूँ, तो पहलौठा होने के अधिकार से मुझे क्या लाभ?''
33) याकूब बोला, ''तो पहले इस बात की शपथ खाओ''। इस पर उसने शपथ खा कर अपने पहलौठा होने का अधिकार याकूब को दे दिया।
34) इस पर याकूब ने एसाव को दाल रोटी खिलायी। खाने-पीने के बाद वह उठ कर चला गया। एसाव ने अपना पहलौठा होने का अधिकार इतना तुच्छ समझा।

अध्याय 26

1) देश में अकाल पड़ा। यह वही नहीं था, जो पहले इब्राहीम के समय में पड़ा था। तब इसहाक गरार देश में फ़िलिस्तियों के राजा अबीमेलेक के पास गया।
2) प्रभु ने उसे दर्शन दे कर कहा, ''मिस्र देश मत जाओ उस देश में रहना, जिसे मैं तुम्हें बताऊँगा।
3) प्रवासी की तरह उस देश में कुछ समय तक रहना। मैं तुम्हारे साथ रहूँगा और तुम को आशीर्वाद दूँगा। मैं तुम्हारे वंशजों को ये सब देश दूँगा और इस प्रकार मैं तुम्हारे पिता इब्राहीम के सामने की गयी अपनी शपथ पूरी करूँगा।
4) मैं तुम्हारे वंशजों की संख्या आकाश के तारों की तरह असंख्य बनाऊँगा। मैं यह सब देश तुम्हारे वंशजों को दूँगा और पृथ्वी की समस्त जातियाँ तुम्हारे वंशजों द्वारा आशीर्वाद प्राप्त करेंगी;
5) क्योंकि इब्राहीम ने मेरे आदेश, मेरी आज्ञा, मेरे विधि-निषेध आदि सब का पूरी तरह पालन किया था।''
6) इसलिए इसहाक गरार देश में रह गया।
7) जब इस स्थान के लोग उसकी पत्नी के विषय में पूछते, तो वह कहता, ''वह मेरी बहन है''। वह यह कहने में डरता था कि ''वह मेरी पत्नी है''। उसे भय था कि उस स्थान के लोग रिबेका के लोभ में कहीं उसे मार न डालें, क्योंकि वह रूपवती थी।
8) जब वह वहाँ बहुत समय तक रह चुका, तब एक दिन फ़िलिस्तियों के राजा अबीमेलेक ने खिड़की से झाँक कर देखा कि इसहाक अपनी पत्नी का चुम्बन कर रहा है।
9) इस पर अबीमेलेक ने इसहाक को बुलवा कर कहा, ''अवश्य ही वह तुम्हारी पत्नी है। तुमने यह क्यों कहा कि वह तुम्हारी बहन है?'' इसहाक ने उसे उत्तर दिया, ''मैं सोचता था कि कहीं उसके कारण मेरा वध न किया जाये''।
10) अबीमेलेक ने कहा, ''तुमने हमारे साथ ऐसा क्यों किया? यदि हम लोगों में से किसी का तुम्हारी पत्नी के साथ संसर्ग हुआ होता, तो तुमने हमारे सिर एक बड़ा दोष मढ़ा होता।''
11) इसलिए अबीमेलेक ने यह कहते हुए अपने सब लोगों को चेतावनी दी कि ''जो कोई इस पुरुष या इसकी पत्नी का स्पर्श करेगा, उसे मृत्युदण्ड मिलेगा''।
12) इसहाक ने उस देश की भूमि में अनाज बोया और उसी वर्ष उसने सौ गुनी फ़सल काटी। प्रभु के आशीर्वाद से वह धनसम्पन्न हो गया।
13) अधिकाधिक लाभ उठाते हुए वह बड़ा धनी बन गया।
14) उसके यहाँ भेड़-बकरी, गाय-बैल और बहुत-से नौकर-चाकर हो गये। इसलिए फ़िलिस्ती लोग उस से जलने लगे।
15) फ़िलिस्तियों ने उन सब कुओं को मिट्टी भर कर बन्द कर दिया था, जो उसके पिता इब्राहीम के समय उसके पिता के नौकरों द्वारा खोदे गये थे।
16) अबीमेलेक ने इसहाक से कहा, ''हमारे यहाँ से चले जाओ, क्योंकि तुम हम लोगों से बहुत अधिक शक्तिशाली हो गये हो''।
17) इसलिए इसहाक वहाँ से चला गया और गरार के मैदान में अपने तम्बू डाल कर रहने लगा।
18) इसहाक ने उन कुओं को फिर से खोला, जो उसके पिता इब्राहीम के समय बनाये गये थे और जिन्हें इब्राहीम की मृत्यु के बाद फिलिस्तियों ने बन्द कर दिया था। उसने उन्हें फिर वही नाम दिये, जो उसके पिता ने रखे थे।
19) इसहाक के नौकरों ने घाटी में खोदा और उन्हें उस में बहते पानी का स्रोत मिला।
20) तब गरार के चरवाहे इसहाक के चरवाहों से यह कहते हुए लड़ने लग, ''यह पानी हमारा है''। इसीलिए उसने उस कुएँ का नाम ऐसेक (झगड़ा) रखा, क्योंकि उन्होंने वहाँ उसके साथ झगड़ा किया।
21) तब उन्होंने एक दूसरा कुआँ खोदा और उसके बारे में भी झगड़ा हुआ। इसलिए उसने उसका नाम सिटाना (विरोध) रखा।
22) वहाँ से आगे चल कर उसने एक और कुआँ खुदवाया। उसके लिए कोई झगड़ा नहीं हुआ। इसलिए उसने उसका नाम रहोबोत (विस्तार) रखा और कहा, ''प्रभु ने हमारे विस्तार के लिए हमें भूमि प्रदान की है। अब हम देश भर में बढ़ते जायेंगे।''
23) वहाँ से वह बएर-शेबा गया।
24) उसी रात प्रभु ने उसे दर्शन दे कर कहा, ''मैं तुम्हारे पिता इब्राहीम का ईश्वर हूँ। डरो मत, मैं तुम्हारे साथ हूँ। मैं तुम को आशीर्वाद दूँगा और अपने सेवक इब्राहीम के कारण मैं तुम्हारे वंशजों की संख्या बढ़ाऊँगा।''
25) उसने वहीं एक वेदी बनायी, प्रभु से प्रार्थना की और वहीं उसने अपना तम्बू डाल लिया। इसहाक के नौकरों ने वहाँ एक कुआँ खोदा।
26) इसके बाद अबीमेलेक अपने मन्त्री अहुज्जत और अपने सेनापति पीकोल के साथ गरार से उसके पास आया।
27) इसहाक ने उन से पूछा, ''आप मेरे पास क्यों आये? आप लोग तो मेरा विरोध करते हैं और आपने मुझे अपने यहाँ से निकाल दिया है।''
28) उन्होंने उत्तर दिया, ''हमने अपनी आँखों से देखा कि प्रभु तुम्हारे साथ हैं। तभी हमने सोचा कि हमारे-तुम्हारे बीच शपथपूर्वक एक सन्धि होनी चाहिए। इसलिए हम तुम्हारे साथ सन्धि करना चाहते हैं।
29) तुम हमें कोई हानि नहीं पहुँचाओगे, क्योंकि हमने भी तुम्हारी कोई हानि नहीं की, बल्कि तुम को शान्तिपूर्वक विदा किया था। अब तो तुम को प्रभु की कृपा प्राप्त है।''
30) इसहाक ने उन्हें एक भोज दिया और उन्होंने खाया-पीया।
31) फिर दूसरे दिन बड़े सबेरे उठ कर उन्होनें आपस में सन्धि की शपथ खायी। इसहाक ने उन्हें विदा किया और वे शान्तिपूर्वक उसके वहाँ से चले गये।
32) उसी दिन इसहाक के नौकरों ने आ कर उस कुएँ के विषय में, जिसे वे खोद रहे थे, यह खबर दी कि ''हम को पानी मिल गया है''।
33) उसने उसे शेबा नाम दिया इसलिए आज तक उस नगर का नाम बएर-शेबा है।
34) अब एसाव चालीस वर्ष का था, तो उसने हित्ती बएरी की यूदित नामक पुत्री के साथ और हित्ती एलोन की पुत्री बासमत के साथ विवाह किया।
35) इन पत्नियों ने इसहाक और रेबेका, दोनों का जीवन बड़ा दुःखी बना दिया।

अध्याय 27

1) इसहाक बूढ़ा हो गया और उसकी आँखें इतनी कमज+ोर हो गयीं कि वह देख नहीं पाता था। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र एसाव को बुलाया और कहा, ''बेटा!'' एसाव ने उत्तर दिया, ''क्या आज्ञा है?''
2) इसहाक ने कहा, ''तुम देखते ही हो कि मैं बूढ़ा हो गया हूँ। न जाने कब तक जीवित रहूँगा।
3) तुम अपने हथियार, अपना तरकश और अपना धनुष ले कर जाओ और मेरे लिए शिकार ले आओ।
4) तब मेरी पसन्द का स्वादिष्ट भोजन बना कर मुझे खिलाओ। मैं मरने से पहले तुम्हें आशीर्वाद देना चाहता हूँ।''
5) रिबेका इसहाक और उसके पुत्र एसाव की बातचीत सुन रही थी।
6) इसी बीच रिबेका ने अपने पुत्र याकूब से कहा, ''मैंने सुना है कि तुम्हारे पिता तुम्हारे भाई एसाव से इस प्रकार कह रहे थे कि
7) तुम मेरे लिए शिकार ला कर स्वादिष्ट भोजन बनाओ और मुझे खिलाओ, जिससे मैं उसे खा कर मरने से पूर्व प्रभु के सामने तुम्हें आशीर्वाद दूँ।
8) इसलिए बेटा! मेरी बात मानो और वही करो, जो मैं कहती हूँ।
9) बकरियों के बाड़े में जा कर उनके दो अच्छे-अच्छे बच्चे मेरे पास ले आओ। मैं उन्हें पका कर तुम्हारे पिता की पसन्द का स्वादिष्ट भोजन तैयार करूँगी।
10) फिर तुम उसे ले जा कर अपने पिता को खिला देना, जिससे, वह मरने से पहले तुम्हें आशीर्वाद दे दें।''
11) इस पर याकूब ने अपनी माँ रिबेका से कहा, ''तुम्हें मालूम है कि मेरे भाई एसाव का शरीर रोयेंदार है, किन्तु मेरा तो रोमहीन है।
12) सम्भव है कि मेरे पिता मेरा स्पर्श करें, तो वह समझे कि मैं उन से छल-कपट कर रहा हूँ और आशीर्वाद के बदले अभिशाप मेरे सिर पड़ेगा।''
13) उसकी माता उस से बोली, ''बेटा! तुम्हारा अभिशाप मेरे सिर पड़े। तुम मेरी बात मानो और जा कर बकरी के दो बच्चे मुझे ला दो।''
14) इस पर वह गया और उन्हें ला कर अपनी माता को दिया। उसकी माता ने उसके पिता की रूचि के अनुसार स्वादिष्ट भोजन तैयार किया।
15) रिबेका ने अपने ज्येष्ठ पुत्र के उत्तम वस्त्र, जो घर में उसके पास थे, ले लिये और अपने कनिष्ठ पुत्र याकूब को पहनाये।
16) उसने उसके हाथ और चिकनी गरदन पर बकरी का चमड़ा पहना दिया।
17) तब उसने अपने द्वारा पकाया भोजन और रोटी अपने पुत्र याकूब के हाथ में दे दी।
18) उसने अपने पिता इसहाक के पास जा कर कहा, ''पिताजी!'' उसने उत्तर दिया, हाँ, बेटा! तुम कौन हो?''
19) याकूब ने अपने पिता से कहा, ''मैं आपका पहलौठा एसाव हूँ। मैंने वही किया, जो आपने कहा था। कृपा करके आइए, बैठ कर मेरा शिकार खाइए और मुझे आशीर्वाद दीजिए।''
20) इसहाक ने अपने पुत्र से कहा, ''बेटा! तुम को कैसे यह इतने जल्दी मिल गया?'' उसने उत्तर दिया, ''यह प्रभु, आपके ईश्वर, की कृपा है''।
21) इसहाक ने याकूब से कहा, ''बेटा! मेरे पास आओ। मैं टटोल कर जान लेना चाहता हूँ कि तुम सचमुच मेरे पुत्र एसाव हो।''
22) याकूब अपने पिता इसहाक के पास आया। इसने उसे टटोल कर कहा, ''आवाज तो याकूब की है लेकिन हाथ एसाव के है''।
23) वह याकूब को नहीं पहचान पाया, क्योंकि उसके हाथ उसके भाई एसाव के हाथों की तरह रोयेदार थे और इसलिए उसने उसे आशीर्वाद दिया।
24) उसने कहा, ''क्या तुम सचमुच मेरे पुत्र एसाव हो?'' उसने उत्तर दिया ''हाँ, मैं वही हूँ''।
25) तब इसहाक ने कहा, ''मुझे अपना शिकार ला कर खिलाओ और मैं तुम्हें आशीर्वाद दूँगा''। याकूब भोजन लाया और इसहाक खाने लगा। इसके बाद उसने अंगूरी ला कर इसहाक को पिलायी।
26) तब उसके पिता इसहाक ने कहा, ''बेटा! आओ और मुझे चुम्बन दो''।
27) उसने अपने पिता के पास आ कर उसका चुम्बन किया। को उसके वस्त्रों की गन्ध मिली और उसने यह कहते हुए उसे आशीर्वाद दिया, ''ओह! मेरे पुत्र की गन्ध उस भूमि की गन्ध-जैसी है, जिसे प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त है।
28) ईश्वर तुम्हें आकाश की ओस, उपजाऊ भूमि और भरपूर अन्न तथा अंगूरी प्रदान करे।
29) अन्य जातियाँ तुम्हारी सेवा करें, राष्ट्र तुम्हारे सामने झुकें। तुम अपने भाइयों के स्वामी होओ और तुम्हारी माता के पुत्र तुम को दण्डवत् करें। जो तुम को अभिशाप दे, वह अभिशप्त हो और जो तुम को आशीर्वाद दे, उसे आशीर्वाद प्राप्त हो।''
30) जब इसहाक याकूब को आशीर्वाद दे चुका था और याकूब जैसे ही अपने पिता इसहाक के पास से जा रहा था, तो उसका भाई एसाव शिकार से लौटा।
31) उसने भी स्वादिष्ट भोजन तैयार किया और उसे अपने पिता के पास ला कर बोला, ''पिताजी! उठिए, अपने पुत्र का शिकार खाइए और मुझे आशीर्वाद दीजिए''।
32) उसके पिता इसहाक ने उस से पूछा, ''तुम कौन हो''? उसने उत्तर दिया, ''मैं आपका पुत्र, आपका पहलौठा पुत्र एसाव हूँ''।
33) यह सुन इसहाक को बड़ा आश्चर्य हुआ और वह बोला, ''तो वह कौन था, जो शिकार का भोजन ले कर मेरे पास आया था? तुम्हारे आने से पहले मैंने उसका परोसा भोजन खाया और उसे आशीर्वाद दिया, और वह आशीर्वाद उस पर बना ही रहेगा।''
34) अपने पिता की बातें सुनते ही एसाव ने बड़े ऊँचे और दुःखभरे स्वर से पुकारते हुए अपने पिता से कहा, ''पिताजी, मुझे भी आशीर्वाद दीजिए''।
35) पर उसने कहा, ''तुम्हारे भाई ने आ कर मुझ से धोखे से तुम्हारा आशीर्वाद छीन लिया है''।
36) उसने कहा, ''उसका नाम याकूब ठीक ही तो रखा गया था। उसने मुझे दो बार धोखा दिया है। उसने पहले तो मेरा पहलौठा होने का अधिकार मुझ से छीन लिया था और अब उसने मेरा आशीर्वाद भी छीन लिया।'' फिर उसने पूछा, ''क्या आपने मेरे लिए कोई भी आशीर्वाद शेष नहीं रख छोड़ा है?''
37) इसहाक ने उत्तर देते हुए एसाव से कहा, ''सुनो, मैंने उसे तुम्हारा स्वामी बना दिया है और उसके सब भाइयों को उसके अधीन किया है। मैंने अन्न और अंगूरी से उसे सम्पन्न कर दिया है। मेरे पुत्र! अब में तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूँ?''
38) पर एसाव ने अपने पिता से कहा, ''पिताजी! क्या आपके पास एक ही आशीर्वाद है? पिताजी! मुझे भी आशीर्वाद दीजिए।'' यह कह कर एसाव फूट-फूट कर रोने लगा।
39) तब उसके पिता इसहाक ने उससे कहाः
40) तुम अपनी तलवार के बल पर जियोगे, पर अपने भाई के अधीन रहोगे। जब तुम्हारा असन्तोष बढ़ जायेगा, तो तुम अपनी गरदन का जूआ तोड़ कर फेंक दोगे।''
41) एसाव याकूब से बैर करता था, क्योंकि उसके पिता ने उस को आशीर्वाद दे दिया था। एसाव ने मन में कहा, ''अब हमारे पिता के लिए शोक मनाने के दिन जल्द ही आने को हैं। उसके बाद मैं अपने भाई याकूब को जान से मार डालूँगा।''
42) जब अपने बड़े बेटे एसाव की ये बातें रिबेका को मालूम हुईं, तो उसने अपने छोटे बेटे याकूब को बुला कर उस से कहा, ''सुनो, तुम्हारा भाई एसाव तुम से बदला लेने के लिए तुम्हें मार डालना चाहता है।
43) बेटा! अब मेरी बात मानो। हारान देश में मेरे भाई लाबान के यहाँ शीघ्र भाग जाओ।
44) जब तक तुम्हारे भाई का क्रोध शान्त न हो जाये, तब तक कुछ समय तक उसी के यहाँ रहो।
45) जैसे ही तुम पर तुम्हारे भाई को क्रोध दूर हो जायेगा और वह भूल जायेगा कि तुमने उसके साथ क्या किया है, वैसे ही मैं किसी को भेज कर तुम्हें वहाँ से घर वापस बुलवा लूँगी। मैं एक ही दिन तुम दोनों को क्यों खो बैठूँ?
46) रिबेका ने इसहाक से कहा, ''इन हित्ती स्त्रियों के कारण तो मैं जीवन से ऊब गयी हूँ। यदि याकूब ने भी इस देश की किसी कन्या से, किसी हित्ती कन्या से, विवाह कर लिया, तो फिर जीने से मुझे क्या लाभ?''

अध्याय 28

1) इसहाक ने याकूब को बुलाया और उसे आशीर्वाद देते हुए यह आदेश दिया, ''कनान की कन्याओं में से किसी के साथ विवाह मत करना।
2) उठो, पद्दन-अरम में अपने नाना बतूएल के यहाँ जाओ और वहाँ अपने मामा लाबान की कन्याओं में से किसी से विवाह कर लो।
3) सर्वशक्तिमान् ईश्वर तुम्हें आशीर्वाद दे, तुम्हें सन्तति प्रदान करें और तुम्हारे वंशजों की संख्या इतनी बढ़ाये कि तुम कई राष्ट्रों के मूलपुरुष बन जाओ।
4) उसने इब्राहीम को जैसा आशीर्वाद दिया था, वैसा ही तुम्हें और तुम्हारे वंशजों को भी दे, जिससे तुम इस देश के अधिकारी बन जाओ, जहाँ तुम अब तक प्रवासी हो कर रह रहे हो और जिसे ईश्वर ने इब्राहीम को दिया था।''
5) इस प्रकार इसहाक ने याकूब को विदा किया। वह पद्दन-अराम में अरामी बतूएल के पुत्र लाबान के पास गया। लाबान याकूब और एसाव की माँ रिबेका का भाई था।
6) अब एसाव ने देखा कि इसहाक ने याकूब को आशीर्वाद दे दिया है और उसे यह आज्ञा दे कर कि कनानी स्त्रियों में से किसी कन्या के साथ विवाह मत करना, पद्दन-अराम भेज दिया है
7) तथा यह भी कि याकूब अपने माता-पिता की आज्ञा मान कर पद्दन-अराम चला गया है।
8) तब एसाव को मालूम हुआ कि कनानी स्त्रियाँ उसके पिता को पसन्द नहीं हैं।
9) इसलिए एसाव इसमाएल के यहाँ गया और उसने अपनी अन्य पत्नियों के सिवा इब्राहीम के बेटे इसमाएल की पुत्री और नबायोत की बहन महलत से विवाह किया।
10) याकूब ने बएर-शेबा छोड़ कर हारान के लिए प्रस्थान किया।
11) वह किसी तीर्थ-स्थान जा पहुँचा और वहाँ रात भर ठहर गया, क्योंकि सूर्यास्त हो गया था। उसने वहाँ पड़े हुए पत्थरों में से एक को उठा लिया और उसे तकिया बना कर वहाँ सो गया।
12) उसने यह स्वप्न देखा : एक सीढ़ी धरती पर खड़ी थी; उसका सिरा स्वर्ग तक पहुँचता था और ईश्वर के दूत उस पर उतरते-चढ़ते थे।
13) ईश्वर याकूब के पास खड़ा हो गया और बोला, ''मैं प्रभु, तुम्हारे पिता इब्राहीम का ईश्वर तथा इसहाक का ईश्वर हूँ। मैं तुम्हें और तुम्हारे वंशजों को यह धरती दे दूँगा, जिस पर तुम लेट रहे हो।
14) तुम्हारे वंशज भूमि के रजकणों की तरह असंख्य हो जायेंगे और पश्चिम तथा पूर्व, उत्तर तथा दक्षिण में फैल जायेंगे। तुम्हारे और तुम्हारे वंश द्वारा पृथ्वी भर के राष्ट्र आशीर्वाद प्राप्त करेंगे।
15) मैं तुम्हारे साथ रहूँगा। तुम जहाँ कहीं भी जाओगे, मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा और तुम्हें इस प्रदेश वापस ले जाऊँगा, क्योंकि मैं तुम्हें तब तक नहीं छोडूँगा, जब तक तुम से जो कहा, उसे पूरा न कर दूँ।''
16) याकूब नींद से जाग उठा और बोला, ''निश्चय ही प्रभु इस स्थान पर विद्यमान है और यह मुझे मालूम नहीं था''।
17) वह भयभीत हो गया और बोला, ''यह स्थान कितना श्रद्धाजनक है! यह तो ईश्वर का निवास है, यह स्वर्ग का द्वार है!''
18) उसने बहुत सबेरे उठ कर सिरहाने का वह पत्थर उठाया, उसे स्मारक के रूप में खड़ा किया और उसके सिरे पर तेल उँड़ेल दिया।
19) उसने स्थान का नाम बेतेल रखा। वह नगर पहले लूज कहलाता था।
20) याकूब ने यह प्रतिज्ञा की, ''यदि ईश्वर मेरे साथ रहेगा और मेरी इस यात्रा में मेरी रक्षा करेगा, यदि वह मुझे खाने के लिए भोजन और पहनने के लिए कपड़े देगा और
21) यदि मैं सकुशल अपने पिता के घर लौटूँगा, तो प्रभु ही मेरा ईश्वर होगा और जो पत्थर मैंने स्मारक के रूप में खड़ा किया, वह ईश्वर का मन्दिर होगा।
22) जो कुछ तू मुझे प्रदान करेगा, मैं उसका दशमांश तुझे दिया करूँगा।''

अध्याय 29

1) इसके बाद याकूब आगे बढ़ा और वह पूर्व के निवासियों के देश में पहँुचा।
2) सहसा उसकी दृष्टि किसी खेत में एक कुएँ पर जा पड़ी। वहाँ भेड़-बकरियों के तीन झुण्ड थे, क्योंकि उस कुएँ से ही उन को पानी पिलाया जाता था। कुएँ के मुँह पर एक बड़ा पत्थर पड़ा हुआ था।
3) जब झुण्ड वहाँ इकट्ठे हो जाते थे, तब चरवाहे कुएँ के मुँह पर का पत्थर हटा देते और भेड़ों को पानी पिला देते थे। फिर वे उस पत्थर को कुएँ के मुँह पर उसकी जगह रख देते थे।
4) याकूब ने उन से पूछा, ''भाइयों, तुम लोग कहाँ से आये हो?'' उन्होंने उत्तर दिया ''हारान से आये है''।
5) फिर उसने उन से पूछा, ''क्या तुम नाहोर के पुत्र लाबान को जानते हो?'' उन्होंने कहा, ''हाँ, हम उन को जानते हैं।''
6) तब उसने पूछा, ''क्या वह सकुशल है?'' उन्होंने उत्तर दिया, हाँ, वह अच्छी तरह हैं। देखिए, उनकी बेटी राहेल भेडों के साथ आ रही है।''
7) तब याकूब ने कहा, ''अभी तो दिन बीतने में बहुत देर है। पशुओं को इकट्ठा करने का समय नहीं हुआ है। भेड़ों को पानी पिलाओ और जाओ, उन्हें फिर से चराओ।''
8) परन्तु उन्होंने कहा, ''हम ऐसा नहीं कर सकते। जब सब पशु इकट्ठे हो जायेंगे और कुएँ के मुँह से पत्थर हटाया जायेगा, तभी हम भेड़ों को पानी पिला सकेंगे।''
9) वह इस प्रकार उन से बातें कर ही रहा था कि अपने पिता की भेड़ों के साथ राहेल वहाँ आ पहुँची। वह भेड़ें चराया करती थी।
10) जब याकूब ने अपने मामा लाबान की बेटी राहेल को और अपने मामा लाबान की भेड़ों को देखा, तब याकूब ने पास जाकर कुएँ के मुँह पर से पत्थर हटा दिया और अपने मामा लाबान की भेड़ों को पानी पिलाया।
11) फिर याकूब ने राहेल का चुम्बन लिया और फूट-फूट कर रोने लगा।
12) उसने राहेल को बताया कि वह उसके पिता का सम्बन्धी और रिबेका का पुत्र है। यह सुन वह अपने पिता को यह खबर देने दौड़ पड़ी।
13) जैसे ही लाबान ने अपनी बहन के पुत्र याकूब के आने का समाचार सुना, वह उस से मिलने को दौड़ा और उसे गले लगा कर उसका चुम्बन किया। फिर वह उसे अपने घर ले गया।
14) याकूब ने लाबान से सब बातें कह सुनायीं लाबान ने उस से कहा, ''निश्चय ही तुम मेरे रक्तसम्बन्धी हो''।
15) इसके बाद लाबान ने उस से कहा, ''तुम मेरे ही कुटुम्ब के हो, तो क्या इसलिए तुम मुफ्त में मेरी सेवा करते रहोगे? मुझे बताओ कि तुम्हारी मज+दूरी क्या होनी चाहिए?''
16) लाबान की दो पुत्रियाँ थीं। बड़ी का नाम लेआ और छोटी का नाम राहेल था।
17) लेआ की आँखें कमजोर थीं, परन्तु राहेल सुडौल और सुन्दर थी।
18) याकूब राहेल को प्यार करता था; इसलिए उसने कहा, ''मैं आपकी छोटी पुत्री राहेल के लिए सात वर्ष आपकी सेवा करूँगा''।
19) लाबान ने कहा, ''किसी अपरिचित व्यक्ति को देने की अपेक्षा उसे तुम्हें देना अधिक अच्छा है। इसलिए तुम मेरे पास रहो।''
20) याकूब ने राहेल के लिए सात वर्ष सेवा की। उसे उस से इतना प्रेम था कि उसका यह समय बहुत जल्द बीता हुआ जान पड़ा।
21) इसके बाद याकूब ने लाबान से कहा, अब मेरी पत्नी मुझे दीजिए, जिससे मैं उसके साथ रहूँ। मेरा सेवा-काल अब पूरा हो चुका है।''
22) तब लाबान ने उस स्थान के सब आदमियों को निमन्त्रित किया और एक भोज दिया।
23) शाम को वह अपनी पुत्री लेआ को याकूब के पास ले गया और उसने उसके साथ रात बितायी।
24) लाबान ने अपनी दासी जिलपा को अपनी पुत्री लेआ के लिए दासी के रूप में दिया। सबेरे मालूम पड़ा वह तो लेआ थी।
25) तब याकूब ने लाबान से कहा, ''आपने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? क्या मैंने राहेल के लिए ही अपकी सेवा नहीं की? फिर आपने मुझे धोखा क्यों दिया?''
26) लाबान ने उत्तर दिया, ''हमारे देश में ऐसा नहीं होता कि बडी+ बेटी के रहते छोटी का विवाह कर दिया जाये
27) इसके साथ पूरे इस सप्ताह भर रहो। इसके बाद में तुम्हें दूसरी को भी दे दूँगा। उसके लिए भी तुम्हें मेरे यहाँ और सात वर्ष तक सेवा करनी पड़ेगी।''
28) याकूब ने ऐसा ही किया। उसने पूरा सप्ताह उसके साथ बिताया। इसके बाद लाबान ने अपनी पुत्री राहेल को भी पत्नी के रूप में उसे दे दिया।
29) लाबान ने अपनी दासी बिल्हा को अपनी पुत्री राहेल के लिए दासी के रूप में दिया।
30) तब याकूब का राहेल से भी संसर्ग हुआ। वह राहेल को लेआ से अधिक प्यार करता था। उसने उसके लिए यहाँ और सात वर्षों तक सेवा की।
31) जब प्रभु ने देखा कि लेआ को समुचित प्यार नहीं मिल पा रहा है, तब उसने उसे पुत्रवती बनाया, परन्तु राहेल निस्सन्तान रही।
32) लेआ गर्भवती हुई और उसे एक पुत्र पैदा हुआ। उसने उसका नाम रूबेन रखा; क्योंकि उसने कहा, ''प्रभु ने मेरे दुःख को समझा है। अब मेरे पति मुझ से अवश्य प्रेम करेंगे।''
33) इसके बाद वह फिर गर्भवती हुई और उसे एक और पुत्र हुआ। वह बोली, ''प्रभु ने यह जान कर कि मुझ से समुचित प्रेम नहीं किया जाता है, मुझे यह पुत्र भी दिया है।'' उसने उसका नाम सिमओन रखा।
34) वह फिर गर्भवती हुई और उसे एक पुत्र और हुआ। वह बोली, ''अवश्य ही अब मेरे पति मुझ से प्रेम करेंगे, क्योंकि मैं उनके लिए तीन पुत्रों को जन्म दे चुकी हूँ''। इसलिए उसने उसका नाम लेवी रखा।
35) इसके बाद वह फिर गर्भवती हुई और उसे फिर एक पुत्र हुआ। वह बोली, ''अब मैं प्रभु की स्तुति करूँगी''। इसलिए उसने उसका नाम यूदा रखा। इसके बाद उसके सन्तति होना बन्द हो गया।

अध्याय 30

1) जब राहेल ने देखा कि उससे याकूब को कोई पुत्र नहीं हुआ है, तब वह अपनी बहन से जलने लगी और उसने याकूब से कहा, ''मुझे बाल-बच्चे दो, नहीं तो मैं मर जाऊँगी''
2) याकूब को राहेल पर क्रोध आ गया। वह कहने लगा, ''मैं क्या ईश्वर बन सकता हूँ। उसी ने तो तुम्हें सन्तान से वंचित किया।''
3) वह बोली, ''यह मेरी दासी बिल्हा है। तुम इसे रख लो, जिससे उसके माध्यम से मेरी गोद में बच्चे खेल सकें।''
4) इसलिए उसने अपनी दासी बिल्हा को उपपत्नी के रूप में उसे दिया। याकूब का उस से संसर्ग हुआ।
5) बिल्हा गर्भवती हुई और याकूब से उसे एक पुत्र हुआ।
6) राहेल ने कहा, ''ईश्वर ने मेरे साथ न्याय किया है, उसी ने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर मुझे एक पुत्र दिया है।'' इसलिए उसने उसका नाम दान रखा।
7) राहेल की दासी बिल्हा फिर गर्भवती हुई और याकूब से उसे एक दूसरा पुत्र हुआ।
8) तब राहेल ने कहा, ''बड़े संघर्ष के बाद मैं अपनी बहन को पराजित कर सकी हूँ''। इसलिए उसने उसका नाम नफ्ताली रखा।
9) लेआ ने जब देखा कि उसके सन्तान होना बन्द हो गया है, तब उसने अपनी दासी जिलपा को उपपत्नी के रूप में याकूब को दिया।
10) लेआ की दासी जिलपा से याकूब को एक पुत्र हुआ।
11) तब लेआ बोली, ''मेरा कितना सौभाग्य है।'' इसलिए उसने उसका नाम गाद रखा।
12) इसके बाद लेआ की दासी जिलपा से याकूब को एक और पुत्र हुआ।
13) अब लेआ ने कहा, ''मैं कितनी धन्य हूँ! स्त्रियाँ मुझे धन्य कहेंगी।'' इसलिए उसने उसका नाम आशेर रखा।
14) गेहूँ की कटनी के समय रूबेन खेत गया। वहाँ उसे लक्ष्मणा फल मिले, जिन्हे ला कर उसने अपनी माँ लेआ को दिया। तब राहेल ने लेआ से कहा, ''कृपया मुझे अपने पुत्र के लाये हुए लक्ष्मणा फलों में से थोड़ा दे दो''।
15) परन्तु उसने उत्तर दिया, ''क्या इस से तुम्हारा जी नहीं भरा कि तुमने मुझ से मेरा पति छीन लिया है? और अब तुम मेरे पुत्र के लक्ष्मणा फल भी छीन लेना चाहती हो?'' राहेल ने कहा, ''तुम्हारे पुत्र के लाये लक्ष्मणा फलों के बदले में वह आज रात को तुम्हारे साथ सो सकते हैं''।
16) जब शाम को याकूब खेत से वापस घर आया, तब लेआ उस से मिलने को निकली और कहने लगी, ''तुम्हें मेरे साथ सोना पड़ेगा, क्योंकि अपने पुत्र के लक्ष्मणा फलों के बदले मैंने तुम्हें किराये पर ले लिया है''। इसलिए वह रात उसने उसके साथ बितायी।
17) ईश्वर ने लेआ की सुन ली। वह गर्भवती हुई और उसने याकूब के लिए पाँचवें पुत्र को जन्म दिया।
18) लेआ बोली, ''मैंने अपनी पति को अपनी दासी दे दी थी, इसलिए ईश्वर ने मुझे यह पुरस्कार दिया है''। इसलिए उसने उसका नाम इस्साकार रखा।
19) लेआ फिर गर्भवती हुई और उस से याकूब का छठा पुत्र उत्पन्न हुआ।
20) तब लेआ बोली, ''ईश्वर ने मुझे अच्छा वरदान दिया है। अब मेरे पति मेरे साथ रहेंगे, क्योंकि मैं उनके लिए छह पुत्रों को जन्म दे चुकी हूँ।'' इसलिए उसने उसका नाम ज+बुलोन रखा।
21) बाद में उसने एक पुत्री को भी जन्म दिया और उसका नाम दीना रखा।
22) तब ईश्वर को राहेल को ध्यान आया। ईश्वर ने उसकी विनती स्वीकार की और उस को सन्तान उत्पन्न करने की शक्ति दी।
23) वह गर्भवती हुई और उसने एक पुत्र को जन्म दिया। वह बोली, ''ईश्वर ने मेरा कलंक दूर कर दिया है''
24) और यह कहते हुए कि ''प्रभु मुझे एक और पुत्र दे'', उसने उसका नाम यूसुफ़ रखा।
25) जब राहेल यूसूफ़ को जन्म दे चुकी, तब याकूब ने लाबान से कहा, ''मुझे विदा कीजिए, जिससे मैं अपने घर, अपनी जन्मभूमि लौट जाऊँ।
26) मुझे मेरी पत्नियाँ और सन्तानें भी दीजिए, जिनके लिए मैंने आपकी सेवा की है। मुझे जाने की आज्ञा दीजिए, क्योंकि मैंने आपकी जो सेवा की है, वह तो आप को अच्छी तरह मालूम है''
27) लाबान ने उसे उत्तर दिया, ''यदि तुम्हें पसन्द है, तो मेरे यहाँ रहो। प्रभु ने तुम्हारे कारण ही मुझे भी आशीर्वाद दिया है। मैंने ऐसा अनुभव किया है''।
28) आगे उसने कहा, ''तुम अपनी जो मज+दूरी बतलाओ, मैं तुम्हें दे दूँगा''।
29) याकूब ने उस को उत्तर दिया, ''मैंने आपकी जो सेवा की है और आपका पशुधन मेरे रहते किस प्रकार बढ़ गया, वह आप स्वयं जानते हैं।
30) मेरे आने से पहले आपके पास जो थोड़ा-सा था, वह बढ़ कर आज कितना अधिक हो गया है! और जहाँ भी मैं जाता रहा, वहाँ प्रभु ने आप को आशीर्वाद दिया है। लेकिन अब मैं अपनी घर-गृहस्थी के लिए कब काम करूँगा?''
31) उसने उत्तर दिया, ''मुझे तुम को क्या देना चाहिए?'' याकूब ने कहा, ''आप को मुझे कुछ नहीं देना चाहिए। आगे भी मैं आपकी भेड़-बकरियों को चराऊँगा और उनकी देखरेख करूँगा।
32) आप मेरे लिए बस इतना कीजिए कि आज मैं आपकी भेड़बकरियों के बीच जाऊँ और उन में से चित्तीदार और चितकबरी-सभी भेड़ों को, मेमनों में से सभी काले मेमने और बकरियों में से चित्तीदा+र और चितकबरी बकरियाँ छाँट लूँ। ये मेरी मज+दूरी हों।
33) जब आप मेरी मज+दूरी में प्राप्त उन पशुओं को देखने आयेंगे, तब आप को मेरी ईमानदारी का परिचय मिल जायेगा। यदि उन में चित्तीदार या चितकबरी बकरियाँ या काले रंग के मेमनों के अलावा और कुछ मिलेगा, तो वह चुराया हुआ समझा जायेगा''।
34) लाबान ने कहा, ''ठीक है। तुमने जैसा कहा है, वैसा ही करो।
35) तब उसी दिन लाबान ने धारीदार और चितकबरे बकरों और सब चित्तीदार और चितकबरी बकरियों को, अर्थात् जिन पर कुछ सफे+द चिन्ह थे, और प्रत्येक काले मेमने को अलग कर उन्हें अपने पुत्रों के सुपुर्द कर दिया।
36) उसने अपने और याकूब के बीच तीन दिन के मार्ग की दूरी निश्चित की। याकूब लाबान की शेष भेड़-बकरियों को चराने लगा।
37) याकूब ने चिनार, बदाम और अमोन के वृक्षों की हरी डालियाँ ली और उनकी छाल से छल्ले काट कर भीतर की सफेदी उघाड़ी, जिससे उन पर सफेद धारियाँ दिख पड़ीं।
38) उसने इस प्रकार छिली हुई लकडियाँ पानी की नाँदों और नालियों में पशुओं के सामने वहाँ रख दीं, जहाँ वे पानी पीने आते थे।
39) जब मादा पशु वहाँ पानी पीने आते थे, तो वहाँ गाभिन हो जाते और फिर धारीदार, चित्तीदार, चितकबरे बच्चे पैदा करते थे।
40) याकूब ने मेमनों को अलग कर दिया और दूसरे पशुओं को लाबान के धारीदार और काले पशुओं के पीछे-पीछे हाँका। इस प्रकार उसने अपना निजी झुण्ड तैयार किया और उसे लाबान के झुण्ड से नहीं मिलने दिया।
41) जब-जब हष्ट-पुष्ट भेड़-बकरियाँ गाभिन होने को होतीं, याकूब उन डालियों को नाँदों में रख देता था, जिससे वे डालियों को देख कर गाभिन हो जायें।
42) लेकिन वह झुण्ड की कमजोर भेड़-बकरयों के सामने उन्हें नहीं रखता। इस तरह लाबान को कमज+ोर और याकूब को हष्ट-पुष्ट पशु मिल जाते थे।
43) इस से वह बहुत अधिक धनी हो गया। उसके पास बहुत-सी भेड़-बकरियाँ, दास-दासियाँ, ऊँट और गधे हो गये।

अध्याय 31

1) याकूब को मालूम हुआ कि लाबान के पुत्र कहते हैं, ''याकूब ने हमारे पिता का सब कुछ ले लिया है और हमारे पिता के धन से ही उसने यह सारी सम्पत्ति पायी है''।
2) याकूब को लाबान के रूख से मालूम पड़ा कि अब हम दोनों का सम्बन्ध पहले-जैसा नहीं है।
3) प्रभु ने याकूब से कहा, ''तुम अपने पुरखों के देश में, अपने कुटुम्बियों के पास लौट जाओ। मैं तुम्हारे साथ रहूँगा।''
4) इसलिए याकूब ने राहेल और लेआ को खेत में, जहाँ उसके झुण्ड थे, बुलवाया
5) और उन से कहा, ''मुझे तुम्हारे पिता के रूख से मालूम पड़ता है कि अब हम दोनों का सम्बन्ध पहले की तरह नहीं है। परन्तु मेरे पिता का ईश्वर मेरे साथ है।
6) तुम लोग खुद जानती हो कि मैंने अपनी पूरी शक्ति से तुम्हारे पिता की सेवा की है।
7) तब भी तुम्हारे पिता ने मुझे धोखा दिया और दसों बार मेरी मज+दूरियों को बदल दिया, परन्तु ईश्वर की कृपा से वह मुझे हानि न पहुँचा सका।
8) जब वह कहता था कि चितकबरे बच्चे तुम्हारी मज+दूरी होेंगे तो प्रायः सब भेड़-बकरियों को चितकबरे बच्चे ही पैदा होते थे, और जब वह कहता था कि धारीदार बच्चे ही तुम्हारी मज+दूरी होंगे, तो प्रायः सब भेड़-बकरियों को धारीदार बच्चे पैदा होते थे।
9) इस प्रकार ईश्वर ने तुम्हारे पिता से उसके झुण्ड को ले कर मुझे दे दिया।
10) एक बार, जब भेड़-बकरियों के गाभिन होने का समय आया, मैंने स्वप्न में देखा कि वे बकरे जो बकरियों से संसर्ग करते थे, चित्तीदार, चितकबरे और धारीदार थे।
11) उस स्वप्न में ईश्वर के दूत ने मुझे पुकारा, ''याकूब! मैंने जब उत्तर दिया, ''क्या आज्ञा है?''
12) तो उसने कहा, ''आँखें उठा कर देखो कि वे सभी बकरे, जो बकरियों से संसर्ग कर रहे है, चित्तीदार, चितकबरे या धारीदार हैं, और लाबान तुम्हारे साथ जो कुछ कर रहा था, वह सब मैंने देख लिया है।
13) मैं वही ईश्वर हूँ, जिसने तुम को बेतेल में दर्शन दिये थे, जहाँ तुमने एक पत्थर में तेल डाल कर प्रतिष्ठित किया था और मेरी मन्नत मानी थी। अब उठो और इस देश से निकल कर अपनी मातृभूमि को लौट जाओ''
14) राहेल और लेआ ने यह कहते हुए उत्तर दिया, ''हमें तो अपने पिता के यहाँ की सम्पति का कोई भाग विरासत के रूप में मिलेगा नहीं, वह हमें पराया समझते है।''
15) उन्होंने तो हमें बेच दिया है और हमारे मूल्य के रूप में जो कुछ मिला, उन्होंने उसे स्वयं ख़र्च किया।
16) वह सारी सम्पत्ति, जिसे ईश्वर ने हमारे पिता से ले ली हैं, हमारी और हमारे बच्चों की है। इसलिए अब, जैसा ईश्वर ने तुम से कहा है, वैसा ही करो।''
17) तब याकूब उठा, अपने बच्चों और पत्नियों को ऊँटों पर बिठाया
18) और अपने सब पशुओं को, अर्थाात् अपनी सारी सम्पत्ति और पद्दन-अराम में प्राप्त किये गये अपने सब पशुओं को, हाँक कर अपने पिता इसहाक के पास, कनान देश में, जाने को तैयार हुआ।
19) लाबान उस समय अपनी भेड़ों को ऊन काटने चला गया था। उस समय राहेल ने अपने पिता के गृह-देवताओं की मूर्तियाँ चुरा लीं।
20) याकूब ने अरामी लाबान को धोखा दिया और उसे यह नहीं बताया कि वह भागने वाला है।
21) वह अपन+ा सब कुछ ले कर चला गया और फ़रात नदी पार कर गिलआद के पर्वतीय प्रदेश की ओर रवाना हो गया।
22) तीसरे दिन लाबान को खबर मिली कि याकूब भाग गया है।
23) तब उसने अपने सगे-सम्बन्धियों के साथ सात दिन तक उसका पीछा किया। जब वह गिलआद के पर्वतीय प्रदेश तक उसका पीछा करता हुआ पहुँचा,
24) तब रात को स्वप्न में ईश्वर ने अरामी लाबान को दर्शन दिये और चेतावनी दी, ''सावधान रहो! याकूब से अच्छा-बुरा एक शब्द भी नहीं कहना।''
25) लाबान याकूब के पास पहुँचा। याकूब ने पहाड़ी प्रदेश में तम्बू डाला था। लाबान ने भी अपने कुटुम्बियों के साथ गिलआद पर्वत पर अपना तम्बू डाला।
26) लाबान ने याकूब से कहा, ''तुमने यह क्या किया है? तुमने मुझे धोखा दिया और मेरी पुत्रियों को युद्ध-बन्दियों की तरह ले भागे।
27) तुम चोरी-छिपे क्यों भाग गये? तुमने मुझे क्यों धोखा दिया? तुमने मुझे क्यों नहीं बताया? मैं तुम्हें प्रसन्नतापूर्वक गीत गाते, डफ-सितार बजाते विदा करता।
28) तुमने मुझे अपने नातियों और बेटियों को चूम कर अन्तिम विदा क्यों नहीं देने दिया? तुमने यह मूर्खतापूर्ण काम किया है।
29) मुझ में सामर्थ्य है कि मैं तुम्हें हानि पहुँचा सकता, किन्तु तुम्हारे पिता के ईश्वर ने पिछली रात मुझ से कहा है कि सावधान रहो! याकूब से अच्छा-बुरा एक शब्द भी नहीं कहना।
30) सम्भव है, तुम अपने पिता के घर पहुँचने की प्रबल इच्छा के कारण भाग गये हो, लेकिन तुम मेरे देवताओं को क्यों चुरा लाये?''
31) याकूब ने लाबान को उत्तर दिया, ''मुझे इस बात का डर था कि कहीं आप मुझ से अपनी पुत्रियों को न छीन लें।
32) लेकिन जिस किसी के पास आप अपने देवतोओं को पायेंगे, वह जीवित नहीं छोड़ा जायेगा। हम दोनों के कुटुम्बियों के सामने ही आप अपनी जो भी चीज मेरे पास पाते हैं, उसे ले लीजिए।'' याकूब यह नहीं जानता था कि राहेल उन्हें चुरा लायी है।
33) इस पर लाबान याकूब के तम्बू के अन्दर गया, फिर लेआ के तम्बू में और फिर दोनों दासियों के तम्बू में गया, परन्तु उसे वे कहीं नहीं मिले। इसके बाद वह लेआ के तम्बू से निकल कर राहेल के तम्बू के अन्दर घुसा।
34) राहेल ने गृह-देवताओं को चुरा कर उन्हें ऊँट की काठी में छिपा रखा था और उन पर बैठी थी। लाबान ने पूरे तम्बू में खोजबीन की, परन्तु उसे कुछ नहीं मिला।
35) वह अपने पिता से बोली, ''पिताजी! मैं आपके सामने भी इस समय उठ नहीं सकती, इसलिए नाराज मत होइए, क्योंकि मैं अभी रजस्वला हूँ। वह ढूँढता रहा, किन्तु गृह-देवताओं का पता नहीं चला।
36) तब याकूब क्रुद्ध हुआ और उसने लाबान को फटकारा। याकूब ने लाबान से कहा, ''मेरा क्या अपराध है? मेरा क्या दोष है, जो आपने क्रुद्ध होकर मेरा पीछा किया?
37) आपने मेरा सारा सामान ढूँढ डाला। आप को कौन-सी चीज+ मिली, जो आपके घर की हो? उसे मेरे और अपने कुटुम्बियों के सामने रख दीजिए, जिससे वे हम दोनों के विषय में निर्णय दें।
38) पिछले बीस वर्षों से मैं आपके साथ रहा हूँ। आपकी भेड़ों और बकरियों का गर्भ-पात तक नहीं हुआ। मैंने तो आपके झुण्ड की भेड़ों के माँस तक को कभी नहीं चखा
39) जब कभी जंगली जानवरों द्वारा भी कोई बकरी या भेड़ मारी गयी, तो मैं उसे भी कभी आपके पास नहीं लाया। मैंने ही उस घाटे का भुगतान किया। जब कभी कोई पशु दिन में या रात में उठा लिया जाता, तो आप उसकी पूर्ति मुझ से करवाते थे।
40) मेरी हालत यह थी कि दिन भर तो मुझे गर्मी में झुलसना पड़ता और रात भर ठण्ड में ठिठुरना पड़ता। मेरी आँखों की नींद भी हराम थी।
41) पिछले बीस वर्षों तक मैं आपके यहाँ रहा। मैंने आपकी दोनों पुत्रियों के लिए चौदह वर्ष तक और आपके पशुओं के लिए छह वर्ष तक आपकी सेवा की। आप मेरी मज+दूरी में भी दसों बार उलट-फेर करते रहे।
42) यदि मेरे पिता का ईश्वर, अर्थात् इब्राहीम का ईश्वर, वह जिस पर इसहाक की भी श्रद्धा थी, मेरा साथ नहीं देता रहता, तो अवश्य आपने मुझे ख़ाली हाथों भगा दिया होता। लेकिन ईश्वर ने मेरे कष्टों और मेरे शारीरिक परिश्रम को देख कर पिछली रात आप को डाँटा।''
43) इसके उत्तर में लाबान ने याकूब से कहा, ''ये पुत्रियाँ तो मेरी ही पुत्रियाँ है; ये बाल-बच्चे भी मेरे ही बाल-बच्चे है; भेड़-कबरियाँ भी मेरी ही है। वह सब, जो यहाँ दिखाई देता है, मेरा ही है। किन्तु आज मैं अपनी ही पुत्रियों और उनके बच्चों के लिए कर ही क्या सकता हूँ?
44) इसलिए आओ, हम दोनों, मैं और तुम, एक सन्धि कर लें। वही हमारे बीच के सम्बन्ध का साक्षी हो।
45) तब याकूब ने एक पत्थर ले कर उसे स्मारक के रूप में खड़ा कर दिया।
46) याकूब ने अपने कुटुम्बियों से कहा, ''पत्थरों को जमा करो''। उन्होंने पत्थरों को इकट्ठा कर उनका ढेर लगा दिया और पत्थरों के उस ढेर पर बैठ कर भोजन किया।
47) लाबान ने उसका नाम ''यगर-साहदूता'' (साक्षी का ढेर) और याकूब ने 'गलएद' (साक्षी का ढेर) रखा।
48) लाबान ने कहा, ''यह ढेर आज हमारे बीच के सम्बन्ध का साक्षी हो''। उसने उसका नाम 'गलएद'
49) और 'मिस्पा' (निगरानी का स्थान) रखा, क्योंकि उसने कहा : ''जिस समय हम एक दूसरे से अलग रहेंगे, उस समय प्रभु हम पर निगरानी रखे।
50) यदि तुम मेरी पुत्रियों से बुरा व्यवहार करोगे या मेरी पुत्रियों के अतिरिक्त दूसरी स्त्रियाँ रखोगे, तो याद रखो कि चाहे कोई दूसरा व्यक्ति हमारे साथ हो या नहीं, ईश्वर तुम्हारे और मेरे बीच साक्षी होगा।''
51) लाबान ने याकूब से यह भी कहा, ''पत्थरों के इस ढेर और इस स्तम्भ को देखो, जिसे मैंने अपने और तुम्हारे बीच खडा+ कर दिया है।
52) पत्थरों का यह ढेर और यह स्तम्भ इस बात का साक्षी हों। तुम्हें हानि पहुँचाने के उद्देश्य से मैं इस ढेर और स्तंभ को पार कर तुम्हारे पार नहीं जाऊँगा और तुम भी पत्थरों के इस ढेर और स्तभं को पार कर मुझे हानि पहुँचाने नहीं आओगे।
53) इब्राहीम का ईश्वर और नाहोर का ईश्वर, अर्थात् उनके पूर्वजों का ईश्वर, मेरे और तुम्हारे बीच इस बात का साक्षी होगा।'' इस पर याकूब ने उस ईश्वर की शपथ खाई, जिस पर उसके पिता इसहाक की श्रद्धा थी।
54) इसके बाद याकूब ने पहाड़ पर एक बलि चढ़ायी और भोज के निमित अपने कुटुम्बियों को आमन्त्रित किया। उन्होंने भोजन किया और उसी पहाड़ पर रात बितायी।

अध्याय 32

1) बड़े सबेरे लाबान ने अपने नातियों और पुत्रियों का चुम्बन लिया और उन्हें आशीर्वाद दिया। इसके बाद लाबान लौट कर अपने यहाँ वापस चला गया।
2) याकूब भी अपने रास्ते चल पड़ा।
3) तब ईश्वर के दूत उस से मिले। उन्हें देखते ही याकूब ने कहा, ''यह ईश्वर का शिविर है''। इसलिए उस स्थान का नाम उसने 'महनयीम' रखा।
4) याकूब ने अपने आगे अपने भाई एसाव के पास एदोम के मैदान में, सेईर के प्रदेश में दूत भेज दिये।
5) उसने उन्हें यह आज्ञा दी, ''तुम मेरे स्वामी एसाव से कहना : आपके दास याकूब ने यह कहलाया है - मैं लाबान के साथ था और अब तक उसके यहाँ ठहरा।
6) मेरे पास बैल, गायें, गधे, भेड-बकरियाँ और दास-दासियाँ हैं। अब मैं अपने स्वामी के पास यह संदेश इसलिए पहुँचा रहा हूँ कि मैं आपकी कृपादृष्टि प्राप्त कर सकूँ''।
7) वे दूत याकूब के पास लौटे और उन्होंने उस से यह कहा, ''हम आपके भाई एसाव से मिले। वे आप से मिलने चार सौ आदमियों को ले कर आ रहे हैं।''
8) याकूब को बहुत डर और दुःख हुआ। उसने अपने आदमियों और भेड-बकरियों और बैलों, गायों, ऊँटों - सब को दो दलों में विभाजित कर दिया।
9) उसने सोचा कि यदि एसाव एक दल पर आक्रमण कर उसका नाश कर देगा, तो दूसरा दल बच कर भाग निकलेगा।
10) तब याकूब ने प्रार्थना की, ''प्रभु! मेरे पुरखे इब्राहीम के ईश्वर और मेरे पिता इसहाक के ईश्वर! तूने मुझ से कहा था कि तुम अपने देश में, अपने कुटुम्बियों के पास लौट जाओ, मैं तुम्हारी भलाई करूँगा।
11) तूने अपने इस दास के प्रति जो कृपा और सत्य-प्रतिज्ञता का व्यवहार किया, उसके योग्य मैं नहीं हूँ; क्योंकि मैं तो केवल अपना एक डण्डा लेकर यर्दन नदी के पार गया था और अब इन दो दलों का स्वामी बन गया हूँ।
12) कृपया मेरे भाई एसाव से मेरी रक्षा कर, क्योंकि मुझे डर है कि कहीं वह आ कर बच्चों-सहित माताओं का और हम सब का नाश न कर दे।
13) तूने ही तो वचन दिया था कि मैं तुम्हारी भलाई करूँगा और तुम्हारे वंशजों को समुद्र के रेतकणों की तरह असंख्य बना दूँगा''।
14) वह रात को वहीं ठहर गया और उसके पास जो पशुधन था, उस में से उसने अपने भाई एसाव के लिए यह उपहार अलग कर दियाः
15) दो सौ बकरियाँ और बीस बकरे, दो सौ भेड़ें और बीस मेढे+,
16) अपने अपने बच्चों के साथ तीस दूध देने वाली ऊँठनियाँ, चालीस गायें और दस साँड़, बीस गधियाँ और दस गधे।
17) उन पशुओं के कई झुण्ड बना कर उसने उन्हें अपने नौकरों को सौंप दिया और उन से कहा : ''मुझ से पहले चले जाओ और एक-एक झुण्ड के बीच पर्याप्त दूरी रखो''।
18) इसके बाद उसने सब से आगे चलने वाले नौकर को यह आदेश दिया, ''यदि मेरे भाई एसाव तुम से मिलें और पूछें कि तुम किसके आदमी हो, तुम कहाँ जा रहे हो और तुम्हारे आगे चलने वाले ये पशु किसके हैं,
19) तो इस प्रकार उत्तर देना : 'ये आपके दास याकूब के हैं। उन्होंने अपने स्वामी एसाव के लिए इन को उपहार के रूप में भेजा है और वे स्वयं भी हमारे पीछे आ रहे हैं।''
20) इसी तरह उसने दूसरे, तीसरे और उन सब को जो झुण्डों को हाँकने वाले थे, आदेश दिये और कहा, ''जब तुम एसाव से मिलो, तो मेरी यही बात एसाव से कहना
21) और यह अवश्य कहना कि देखिए, आपके दास याकूब स्वयं भी हमारे पीछे आ रहे हैं''। उसने मन में सोचा कि पहले ही ये उपहार भेज कर मैं उसे शान्त करूँगा। इसके बाद मैं उस से मिल लूँगा। हो सकता है कि तब वह मेरा स्वागत करे।
22) इसलिए उसके उपहार की सामग्री उसके पहले ही पहुँचा दी गयी। वह स्वयं उस रात को शिविर में रह गया।
23) याकूब उसी रात को उठा और अपनी दो पत्नियों, दो दासियों और ग्यारह पुत्रों के साथ यब्बोक नामक नदी के उस पार गया।
24) वह उन्हें और अपनी सारी सम्पत्ति नदी के उस पार ले गया और
25) इस पार अकेला ही रह गया। एक पुरुष भोर तक उसके साथ कुश्ती लड़ता रहा।
26) जब उसने देखा कि वह याकूब को पछाड़ नहीं सका, तो उसने उसकी जाँघ की नस पर प्रहार किया और लड़ते-लड़ते याकूब की जाँघ का जोड़ उखड़ गया।
27) उसने कहा, ''मुझे जाने दो, क्योंकि भोर हो गया है''। याकूब ने उत्तर दिया, ''जब तक तुम मुझे आशीर्वाद नहीं दोगे, तब तक मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगा''।
28) उसने पूछा, ''तुम्हारा नाम क्या है?'' उसने उत्तर दिया, ''मेरा नाम याकूब है''।
29) इस पर उसने कहा, ''अब से तुम याकूब नहीं, बल्कि इस्राएल कहलाओगे; क्योंकि तुम ईश्वर और मनुष्यों के साथ लड़ कर विजयी हो गये हो''
30) तब याकूब ने पूछा, ''मुझे अपना नाम बता दो''। उसने उत्तर दिया ''तुम मेरा नाम क्यों जानना चाहते हो?''
31) और उसने वहाँ याकूब को आशीर्वाद दिया। याकूब ने उस स्थान को नाम 'पनुएल' रखा, क्योंकि उसने यह कहा, ''ईश्वर को आमने-सामने देखने पर भी मैं जीवित रह गया''।
32) जब उसने पनुएल पार किया, तो सूर्य उग रहा था। उस समय से जाँघ का जोड़ उखड़ जाने के कारण वह लँगड़ाता रहा।
33) इस कारण इस्राएली आज तक जाँघ की नस नहीं खाते, क्योंकि उस मनुष्य ने याकूब की उस नस पर प्रहार किया था।

अध्याय 33

1) याकूब ने जब अपनी आँखें ऊपर उठायीं तो उसने चार सौ आदमियों के साथ एसाव को आते देखा। उसने लेआ, राहेल और दोनों दासियों को उनके अपने-अपने बच्चे दे दिये।
2) उसने सब से आगे दासियों और उनके बच्चों को रखा, फिर अपने बच्चों के साथ लेआ को और सब के पीछे राहेल और यूसुफ़ को।
3) वह आगे बढ़ा और अपने भाई के पास पहुँच कर उसने उसे सात बार भूमि पर झुक कर प्रणाम किया।
4) उधर एसाव उस से मिलने को दौड़ा आया, उस को गले लगाया और उसका चुम्बन लिया। वे दोनों रोने लगे।
5) उसने अपनी आँखें उठा कर जब बच्चों के साथ स्त्रियों को देखा, तो पूछा, ''ये, जो तुम्हारे साथ हैं, कौन हैं,'' उसने उत्तर दिया, ''ये वे बच्चे हैं, जिन को ईश्वर ने आपके दास को दिया है''।
6) फिर अपने-अपने बच्चों को ले कर दासियाँ पास आईं और उन्होंने उसे प्रणाम किया।
7) उसी प्रकार लेआ भी अपने बच्चों को ले कर पास आयी और प्रणाम किया। अन्त में यूसुफ़ और राहेल ने पास आ कर प्रणाम किया।
8) तब एसाव ने पूछा, ''जो झुण्ड रास्ते में मिले, उन से तुम्हारा क्या अभिप्राय है?'' याकूब ने उत्तर दिया, ''वे मेरे स्वामी की कृपा प्राप्त करने के लिए थे''।
9) एसाव ने कहा, ''भाई! मेरे पास तो बहुत कुछ है। जो तुम्हारा है, उसे तुम अपने पास ही रखो।''
10) याकूब ने कहा, ''नहीं मैं आप से प्रार्थना करता हूँ कि यदि मुझ पर आपकी कृपा दृष्टि है, तो आप को मेरी इस भेंट को स्वीकार कर लेना चाहिए। मेरे लिए तो आपके दर्शन ईश्वर के दर्शनों के तुल्य है; क्योंकि आपने मेरा स्वागत किया है। मैं फिर आप से प्रार्थना करता हूँ
11) कि जो उपहार मैं आपके लिए लाया, आप उसे स्वीकार कीजिए, क्योंकि ईश्वर ने मुझ पर बड़ी कृपा की है और मेरे पास बहुत है''। जब इस प्रकार याकूब ने उस से आग्रह किया, तो उसने उसकी भेंट स्वीकार कर ली।
12) तब एसाव ने कहा, ''हम शिविर उठा कर आगे चलें, मैं तुम्हारे साथ चलूँगा।''
13) परन्तु याकूब ने उस से कहा, ''स्वामी आप जानते ही है कि बच्चे कमज+ोर हैं और मेरे साथ की दूध देने वाली भेड़ों, बकरियों और गायों की मुझे देखरेख करनी पड़ती है। यदि एक दिन के लिए भी वे जल्दी-जल्दी हाँकी जायेंगी, तो सब मर जायेंगी।
14) इसलिए, मेरे स्वामी अपने दास के आगे चलें और मैं अपने साथ के पशुओं और बच्चों की चाल के अनुसार पीछे से तब तक धीरे-धीरे आऊँगा, जब तक मैं अपने स्वामी के यहाँ सेईर तक पहुँच जाऊँ।
15) एसाव ने कहा, ''मैं अपने आदमियों में से कुछ को तुम्हारे पास छोड़ जाता हूँ''। परन्तु उसने कहा ''क्यों? मुझे अपने स्वामी की कृपा दृष्टि प्राप्त है। यह बहुत है''।
16) इसलिए एसाव उसी दिन सेईर लौट गया।
17) याकूब सुक्कोत की ओर चला गया। वहाँ उसने अपने लिए एक घर बनाया और पशुओं के लिए पशुशालाएँ बनवायीं। इसलिए उस स्थान का नाम सुक्कोत पड़ गया।
18) पद्दन-अराम से लौट कर याकूब कनान देश के सिखेम नामक नगर में सुरक्षित पहुँच गया और नगर के पास अपना तम्बू खड़ा किया।
19) उसने चाँदी के सौ सिक्के दे कर सिखेम के पिता हमोर के पुत्रों से उस भूमि भाग को ख़रीद लिया और उस पर अपना तम्बू खड़ा कर दिया।
20) वहीं उसने एक वेदी भी बनायी और उसका नाम 'इस्राएल का महान् ईश्वर' रखा।

अध्याय 34

1) एक दिन याकूब से उत्पन्न लेआ की पुत्री दीना उस स्थान की स्त्रियों से मिलने गयी।
2) जब हिव्वी भूमिपति हमोर के पुत्र सिखेम ने उसे देखा, तो उसे पकड़ कर उसके साथ बलात्कार किया।
3) वह याकूब की पुत्री दीना पर मुग्ध हो गया। वह उस लड़की को प्यार करता था और उसने उस से मीठी-मीठी बातें कीं।
4) सिखेम ने अपने पिता हमोर से कहा, ''इस लड़की से मेरा विवाह करा दो''।
5) याकूब ने सुना कि उसकी पुत्री दीना के साथ बलात्कार हुआ हैं। इस समय उसके पुत्र खेतों में ढोरों को चराने गये थे, इसलिए याकूब उनके लौट आने तक कुछ न बोला।
6) सिखेम का पिता हमोर याकूब से बातचीत करने के लिए उसके पास आया।
7) जब याकूब के पुत्र खेतों से घर लौटे और उन को इसकी ख़बर मिली, तो वे क्रोध से आगबबूला हो उठे, क्योंकि इस्राएल में याकूब की पुत्री के साथ बलात्कार कर सिखेम ने उनके प्रति बड़ा अपमानजनक काम किया था। ऐसा नहीं किया जाना चाहिए था।
8) परन्तु हमोर ने यह कहते हुए उन को सम्बोधित किया, ''मेरा पुत्र सिखेम तुम्हारी पुत्री पर मोहित हो गया है, इसलिए मैं प्रार्थना करता हूँ कि तुम लोग उसका उस से विवाह करा दो।
9) हम लोगों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करना प्रारम्भ कर दो। अपनी कन्याएँ हमें देने लगो और तुम हमारी कन्याओं को अपने लिए लेने लगो।
10) तुम हमारे साथ रहो, यह भूमि तुम लोगों के सामने है। उस में बसो, व्यापार करो और धन-सम्पत्ति अर्जित करो''।
11) इसके बाद सिखेम ने दीना के पिता और भाइयों से कहा, ''तुम लोग मुझ पर कृपा करो। जो कुछ तुम मुझ से माँगोगे, मैं दूँगा।
12) जितना भी दहेज या भेंट तुम मुझ से चाहोगे, मैं दूँगा। बस, उस कन्या को विवाह के लिए मुझे दे दो।''
13) याकूब के पुत्रों ने सिखेम और उसके पिता को छलपूर्ण उत्तर दिया, क्योंकि वह उनकी बहन दीना को भ्रष्ट कर चुका था।
14) उन्होंने उन से कहा, ''हम ऐसा नहीं कर सकते। हम किसी भी ऐसे मनुष्य को अपनी बहन नहीं दे सकते, जिसका ख़तना न हुआ हो, क्योंकि यह हमारे लिए अपमान जनक बात होगी।
15) हम इस शर्त पर ही तुम्हें स्वीकृति दे सकते हैं कि तुम भी हमारे समान हो जाओ और तुम में से प्रत्येक पुरुष का ख़तना किया जाये;
16) तभी हम तुम को अपनी कन्याएँ देंगे और अपने लिए तुम्हारी कन्याएँ स्वीकार करेंगे। इस प्रकार हम तुम्हारे साथ बस कर एक जाति बन जायेंगे।
17) यदि तुम हमारी बात न मानोगे और ख़तना न कराओगे, तो हम अपनी लड़की को लेकर आगे चले जायेंगे''।
18) उनकी बातों से हमोर और उसका पुत्र सिखेम, दोनों प्रसन्न हुए।
19) सिखेम ने इस बात को पूरा करने में जरा भी देर न की, क्योंकि वह याकूब की पुत्री पर मुग्ध था। वह अपने सारे घराने में सब से अधिक प्रतिष्ठित था।
20) इसलिए हमोर और उसका पुत्र सिखेम, दोनों अपने नगर के द्वार पर आये और अपने नगर के पुरुषों से कहने लगे,
21) ''ये लोग हम लोगों से मित्रतापूर्ण सम्बन्ध चाहते हैं, इसलिए इन्हें अपने देश में बसने और व्यापार करने दिया जाये, क्योंकि इनके लिए देश में पर्याप्त जगह है। हम इनकी कन्याओं के साथ विवाह कर लें और इन्हें अपनी कन्याएँ विवाह में दें।
22) ये हमारे साथ बसने और हमारी जाति में मिल जाने को इस शर्त पर तैयार हैं कि हम में से प्रत्येक पुरुष का इनकी तरह ख़तना किया जाये।
23) तब क्या इस हालत में उनके सारे ढोर, धन-सम्पत्ति और पशु सभी हमारे न हो जायेंगे? सिर्फ हम उनसे सहमत भर हो जायें, वे हमारे साथ बस जायेंगे।''
24) इस पर उन सब पुरुषों ने, जो नगर-द्वार पर आये थे, हमोर और उसके पुत्र सिखेम के प्रस्ताव को मान लिया और उन सब ने, जो वहाँ आये थे, अपना ख़तना करवा लिया।
25) तीसरे दिन, जब वे सब दर्द से छटपटा रहे थे, याकूब के दो पुत्र सिमओन और लेवी, जो दीना के भाई थे, अपनी तलवारें ले कर बिना किसी सूचना के नगर पर टूट पड़े और उन्होंने सब पुरुषों को मार डाला।
26) उन्होंने हमोर और उसके पुत्र सिखेम को भी तलवार से घाट उतारा। फिर सिखेम के घर से दीना को ले कर चले आये।
27) याकूब के दूसरे पुत्र मृतकों के पास आये और उन्होंने नगर को लूट लिया, क्योंकि उनकी बहन के साथ बलात्कार किया गया था।
28) उन्होंने उनकी भेड-बकरियाँ, गायें, बैल, गधे और नगर और खेतों की सारी चीजें ले लीं।
29) उन्होंने उनकी सारी धन-सम्पत्ति, उनके बाल-बच्चों और उनकी स्त्रियों को तथा जो कुछ उनके घरों में था, उसे लूट कर अपने अधिकार में ले लिया।
30) तब याकूब ने सिमओन और लेवी से कहा, ''तुम लोगों ने कनानी और परिज्जी देशवासियों की दृष्टि में मुझे घृणित बना कर मेरे लिए आपत्ति मोल ले ली है। मेरे पास बहुत थोडे+ आदमी हैं। यदि वे लोग एकत्रित होकर मुझ पर आक्रमण कर दें, तो मेरा और मेरे परिवार का नाश होगा।''
31) परन्तु उन्होंने उत्तर दिया, ''क्या उस को हमारी बहन के साथ एक वेश्या की तरह व्यवहार करने का अधिकार था?''

अध्याय 35

1) ईश्वर ने याकूब से कहा, ''उठो, बेतेल जा कर वहाँ बस जाओ। जब तुम अपने भाई एसाव के सामने से भाग रहे थे, तो ईश्वर तुम्हें दिखाई दिया था - उसी ईश्वर के लिए वहाँ एक वेदी बनाओ।''
2) इसलिए याकूब ने अपने परिवार और अपने साथ रहने वालों से कहा, ''अपने पास के पराये देवताओं को हटा दो, अपने आप को शुद्ध करो और अपने वस्त्र बदल लो।
3) तब हम उठ कर बेतेल चले जायेंगे। मैं वहाँ उस ईश्वर के लिए एक वेदी बनाऊँगा, जिसने संकट में मेरी प्रार्थना सुनी और यात्रा में मेरी सहायता की।''
4) उन्होंने याकूब को अपने पास के सभी पराये देवता दे दिये और अपने कान की बालियाँ भी। याकूब ने उन को सिखेम के बलूत के पास गाड़ दिया।
5) जब वे जा रहे थे, तो उनके आसपास के नगरों में ऐसा आतंक छा गया कि उनके निवासियों ने याकूब के पुत्रों का पीछा नहीं किया।
6) याकूब और जो लोग उसके साथ थे, कनान देश के लूज - अर्थात् बेतेल - नामक स्थान पहुँचे।
7) वहाँ याकूब ने एक वेदी बनायी और उस स्थान का नाम 'एल-बेतेल' रखा, क्योंकि वहाँ ईश्वर ने उसे उस समय दर्शन दिये थे, जब कि वह अपने भाई के पास से भागा था।
8) रिबेका की धाय दबोरा वहाँ मर गयी। और बेतेल के पास एक बलूत वृक्ष के नीचे गाड़ दी गयी। इसलिए उसका नाम अल्लोन बलूत (शोक बलूत) पड़ा।
9) जब याकूक पद्दन-अराम से लौट आया था, ईश्वर ने दूसरी बार उसे दर्शन दिये और आशीर्वाद दिया।
10) ईश्वर ने उस से कहा, ''तुम्हारा नाम याकूब है। अब से तुम्हारा नाम याकूब नहीं रहेगा, बल्कि तुम्हारा नाम इस्राएल होगा।'' इसलिए उसका नाम इस्राएल पड़ा।
11) आगे ईश्वर ने उस से कहा, ''मैं सर्वशक्तिमान ईश्वर हूँ। तुम फलो-फूलो। एक राष्ट्र ही नहीं, एक राष्ट्रसमूह तुम से उत्पन्न होगा और तुम्हारे वंशजों में राजा भी उत्पन्न होंगे।
12) यह देश, जो मैंने इब्राहीम और इसहाक को दिया था, तुम्हें भी दे दूँगा और तुम्हारे बाद तुम्हारे वंशजों को भी यह देश दे दूँगा।''
13) फिर ईश्वर उस स्थान से, जहाँ उसने उसके साथ बातें की थीं, ऊपर प्रस्थान कर गया।
14) उस स्थान पर, जहाँ ईश्वर उस से बोला था, याकूब ने सब स्मारक-स्तम्भ बनाया। वह पत्थर का स्तम्भ था। उसने उस पर तेल और अर्ध्य उँड़ेला।
15) इसलिए याकूब ने उस स्थान का नाम, जहाँ ईश्वर उस से बोला था, 'बेतेल' रखा।
16) इसके बाद वे बेतेल से आगे बढ़े। एफ्रात पहुँचने के कुछ पहले ही राहेल के प्रसव का समय आया और उसे असह्य पीड़ा हुई।
17) जब उसे बहुत अधिक प्रसव-पीड़ा होने लगी, तो दाई ने उस से कहा, ''डरो मत, क्योंकि इस बार भी तुम्हें पुत्र होगा''।
18) जब वह मरने-मरने को थी, तो अन्तिम साँस लेते समय उसने उसका नाम बेनोनी रखा, परन्तु उसके पिता ने उसका नाम बेनयामीन रखा।
19) राहेल की मृत्यु हो गयी। उसे एफ्रात के, अर्थात् बेथलेहेम के मार्ग पर दफनाया गया।
20) याकूब ने उसकी कब्र पर एक स्मारक-स्तम्भ बनवाया। राहेल की कब्र का यह स्मारक-स्तम्भ आज तक सुरक्षित है।
21) तब इस्राएल आगे बढ़ा और उसने मिगदल-एदर से आगे अपना तम्बू खड़ा किया।
22) जब इस्राएल उस प्रदेश में रह रहा था, रूबेन का अपने पिता की उपपत्नी बिल्ला से संसर्ग हुआ और यह बात इस्राएल को मालूम हो गयी। याकूब के बारह पुत्र थे।
23) लेआ के पुत्र ये थेः याकूब को पहलौठा रूबेन, सिमओन, लेवी, यूदा, इस्साकार और ज+बुलोन।
24) राहेल के पुत्र ये थेः यूसुफ और बेनयामीन।
25) राहेल की दासी बिल्लाह के पुत्र ये थेः दान और नफ्ताली।
26) लेआ की दासी जिलपा के पुत्र ये थेः गाद और आशेर। यही याकूब के पुत्र हैं, जो उसके यहाँ पद्दन-अराम में पैदा हुए थे।
27) याकूब अपने पिता इसहाक के पास मामरे, अर्थात् किर्यत्-अरबा या हेब्रोन आया, जहाँ इब्राहीम और उसके बाद इसहाक भी प्रवासी हो कर रहा करते थे।
28) (२८-२९) इसहाक कुल मिलाकर एक सौ अस्सी वर्ष तक जीवित रहने के बाद मरा। उसका वृद्धावस्था में बड़ी पकी उमर में प्राणान्त हुआ और वह अपने पूर्वजों से जा मिला। उसके पुत्र एसाव और याकूब ने उसे दफ़ना दिया।

अध्याय 36

1) एसाव, अर्थात एदोम की वंशावली इस प्रकार हैं।
2) एसाव ने कनान देश की कन्याओं में कई को अपनी पत्नी बना लिया ; हित्ती जातीय एलोन की पुत्री आदा को, हिव्वी सिबओन के पुत्र अना की बेटी ओहोलीबामा को
3) तथा बासमत को, जो इसमाएल की पुत्री और नबायोत की बहन थी।
4) एसाव से आदा को एलीफस हुआ, बासमत को राऊएल और
5) ओहोलीबामा को यऊश, यालाम और कोरह हुए। यही एसाव के पुत्र है, जो कनान देश में उसके यहाँ पैदा हुए थे।
6) एसाव अपनी पत्नियों, अपने पुत्र-पुत्रियों और अपने घर के सब लोगों, सब ढोरों और पशुओं को तथा वह सब कुछ लेकर, जो उसे कनान देश में प्राप्त हुआ था, अपने भाई याकूब से अलग हो कर किसी दूसरे देश में चला गया।
7) अब उनकी सम्पत्ति इतनी अधिक हो गयी कि वे एक साथ नहीं रह सकते थे और उस देश में, जहाँ वे रहते थे, उनके ढोरों को चराने के लिए पर्याप्त भूमि नहीं थी।
8) इसलिए एसाव सेईर के पहाड़ी प्रदेश में बस गया। एसाव एदोम भी कहलाता है।
9) सेईर के पहाड़ी प्रदेश के निवासी एदोमियों के मूलपुरुष एसाव की वंशावली इस प्रकार है :
10) एसाव के पुत्रों के नाम ये हैं : एसाव की पत्नी आदा का पुत्र एलीफज और एसाव की पत्नी बासमत का पुत्र रऊएल।
11) एलीफ़ज के ये पुत्र थे : तेमान, ओमार, सफो, गाताम और कनज।
12) तिमना एसाव के पुत्र एलीफज की उपपत्नी थी। उसे एलीफज से अमालेक नामक पुत्र हुआ। ये एसाव की पत्नी आदा के पोते थे।
13) रऊएल के ये पुत्र थे नहत, जेरह, शम्मा और मिज्जा। ये एसाव की पत्नी बासमत के पोते थे।
14) एसाव की पत्नी ओहोलीबामा के, जो सिबओन की पोती और अना की पुत्री थी, ये पुत्र थे, जो उसे एसाव से उत्पन्न हुए थे : यऊश, यालाम और कोरह।
15) एसाव के वंशजों के मुखिया ये थे : एसाव के पहलौठे एलीफज के तेमान, ओमार, सफो, कनज,
16) कोरह, गताम और अमालेक नामक पुत्र। ये वे मुखिया हैं, जो एदोम देश में एलीफज के पुत्र थे। ये आदा के पोते थे।
17) एसाव के पुत्र रऊएल के पुत्रों में से मुखिया हुएः नहत, जेरह, शम्मा और मिजा। ये वे मुखिया हैं, जो एदोम देश में रऊएल के पुत्र थे। ये एसाव की पत्नी बासमत के पोते थे।
18) एसाव की पत्नी ओहोलीबामा के पुत्र ये हैः यऊश, यालाम और कोरह नामक मुखिया। ये एसाव की पत्नी ओहोलीबामा से, जो अना की बेटी थी, उत्पन्न हुए थे।
19) यही एसाव, अर्थात एदोम के पुत्र है और ये मुखिया भी थे।
20) होरी जातीय सेईर के पुत्र जो उस देश के निवासी थे, इस प्रकार हैं : लोटान, शोबाल, सिबओन, अना
21) दिशोन, एसेर और दीशान। सेईर के ये पुत्र एदोम देश में होरियों के मुखिया थे। लोटान के पुत्र : होरी और हेमाम।
22) लोटान की बहन तिमना थी।
23) शोबाल के पुत्र अलवान, मानहत, एबाल, शफो और ओनाम।
24) सिबओन के पुत्र : अय्या और अना। यह वही अना है, जिसने अपने पिता सिबओन के गधों को चराते हुए मरूभूमि में गर्म जल के स्रोतों का पता लगाया था।
25) अना की सन्तानें ये है : दिशोन और अना की पुत्री ओहोलीबामा।
26) दिशोन के पुत्र : हेमदान, एशबान, यित्रान और केरान।
27) एसेर के पुत्र बिल्हान, जवान और अकान।
28) दीशान के पुत्र : ऊस और अरान।
29) होरियों के मुखिया ये थे : लोटान, शोबाल, सिबओन, अना,
30) दिशोन, एसेर और दीशान। ये अपने कुलों के अनुसार सेईर देश और होरियों के मुखिया हैैं।
31) इस्राएली राजाओं के पूर्व एदोम देश में राज्य करने वाले राजाओं के नाम इस प्रकार है :
32) बओर का पुत्र बेला एदोम में राज्य करता था। उसकी राजधानी का नाम दिनहाबा था।
33) जब बेला मर गया, तब बोस्रा-निवासी सेरह का पुत्र योबाब उसका उत्तराधिकारी बना।
34) जब योबाब मर गया, तब तेमानियों के देश का हुशाम उसका उत्तराधिकारी बना।
35) जब हुशान मर गया, तब मोआब के मैदान में मिदयानियों को पराजित करने वाले बदद का पुत्र हदद उसका उत्तराधिकारी बना। उसकी राजाधनी का नाम अवीत था।
36) जब हदद मर गया, तब मसरेका-निवासी समला उसका उत्तराधिकारी बना।
37) जब समला मर गया, तब फ़रात नदी के किनारे स्थित रहोबोत का निवासी शौल इसका उत्तराधिकारी बना।
38) जब शौल मर गया, तब अकबोर का पुत्र बाल-हानान उसका उत्तराधिकारी बना।
39) जब अकबोर का पुत्र बाल-हानान मर गया तब हदद उसका उत्तराधिकारी बना। उसकी राजधानी का नाम पाऊ था। उसकी पत्नी का नाम मेहटबएल था। वह मेजाहाब की मट्रेद की बेटी थी।
40) एसाव के वंशजों के मुखियाओं के नाम, उनके कुलों और निवासस्थानों के नामों के अनुसार ये हैं : मुखिया तिमना, अलवा, यतेत,
41) ओहोलीबामा, एला, पीनोन,
42) मरज, तेमान, मिबसार,
43) मगदीएल और ईराम। यही है एदोम के मुखिया, अपने-अपने निवास स्थानों के अनुसार, जिन्हें उन्होंने उस देश में अपने अधिकार में ले लिया था। यही एदोमियों के मूलपुरुष एसाव की वंशावली है।

अध्याय 37

1) याकूब इस देश में, अर्थात् कनान देश में, रहता था, जहाँ उसका पिता प्रवासी की तरह रह चुका था।
2) याकूब के घराने का वृत्तान्त इस प्रकार है। जब यूसुफ़ सत्रह वर्ष का था, तब वह अपने पिता की पत्नी बिल्हा और जिलपा के पुत्रों के साथ भेड़-बकरियाँ चराया करता था और उसने अपने पिता को उनके दुराचरण की सूचना दी।
3) इस्राएल अपने सब दूसरे पुत्रों से यूसुफ़ को अधिक प्यार करता था, क्योंकि वह उसके बुढ़ापे की सन्तान था। उसने यूसुफ़ के लिए एक सुन्दर कुरता बनवाया था।
4) उसके भाइयों ने देखा कि हमारा पिता हमारे सब भाइयों से यूसुफ़ को अधिक प्यार करता है; इसलिए वे उस से बैर करने लगे और उस से अच्छी तरह बात भी नहीं करते थे।
5) यूसुफ़ ने एक स्वप्न देखा और अपने भाइयों को उसे सुनाया। उस समय से वे उस से और अधिक द्वेष रखने लगे।
6) उसने उन्हें बताया था, ''मेरा स्वप्न सुनो :
7) हम लोग एक साथ खेत पर पूले बाँध रहे थे कि मेरा पूला खड़ा हो गया और तुम सब लोगों के पूले उसके चारों और खड़े हो कर मेरे पूले से प्रणाम करने लगे।''
8) यह सुन उसके भाई उस से बोले, ''क्या तुम सचमुच हमारे राजा बनोगे और हम पर शासन करोगे?'' वे उसके स्वप्नों और उसकी बातों के कारण उस से और अधिक बैर करने लगे।
9) यूसुफ़ ने एक और स्वप्न देखा और उसे भी अपने भाइयों को सुनाया। उसने कहा, ''सुनो, मैंने फिर एक स्वप्न देखा है और इस बार सूर्य, चन्द्र और ग्यारह तारे मुझे प्रणाम कर रहे है।''
10) इस प्रकार जब उसने अपने पिता और अपने भाइयों को यह बताया, तो उसके पिता ने उसे फटकारते हुए कहा, ''तुम्हारे इस स्वप्न का अर्थ क्या है? क्या मैं, तुम्हारी माँ और तुम्हारे भाई, सभी तुम्हारे आगे भूमि पर झुक कर तुम्हें प्रणाम करेंगे?''
11) उसके भाई इस से ईर्ष्या करते रहे, परन्तु उसके पिता ने यह बात अपने मन में रख ली।
12) यूसु+फ़ के भाई अपने पिता की भेड़ बकरियाँ चराने सिखेम गये थे।
13) इस्राएल ने यूसुफ़ से कहा, ''तुम्हारे भाई सिखेम में भेडें+ चरा रहे है। मैं तुम को उनके पास भेजना चाहता हूँ।'' उसने उस को उत्तर दिया, ''जो आज्ञा।''
14) तब उसने यह आज्ञा दी, ''जाओ और देखो कि तुम्हारे भाई पशुओं-सहित सकुशल हैं या नहीं, और फिर आ कर मुझे खबर दो।'' उसने उस हेब्रोन की घाटी से भेजा। जब यूसुफ़ सिखेम पहुंँचा,
15) तो एक व्यक्ति ने उसे खेतों में भटकते हुए पाया और उसने उस से पूछा, ''आप किसे खोज रहे हैं?''
16) वह बोला, ''मैं अपने भाइयों को ढूँढ रहा हूँ। कृपया मुझे बताओ कि वे कहाँ भेडें+ चरा रहे हैं।''
17) उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, ''यहाँ से वे आगे बढ़ गये, क्योंकि मैंने उन को यह कहते हुए सुना था कि हम दोतान चलें।'' यूसुफ़ अपने भाइयों की खोज में निकला और उसने उन को दोतान में पाया।
18) उन्होंने उसे दूर से आते देखा था और उसके पहुँचने से पहले ही वे उसे मार डालने का षड्यन्त्र रचने लगे।
19) उन्होंने एक दूसरे से कहा, ''देखो, वह स्वप्नद्रष्टा आ रहा है।
20) चलो, हम उसे मार कर किसी कुएँ में फेंक दें। हम यह कहेंगे कि कोई हिंस्र पशु उसे खा गया है। तब हम देखेंगे कि उसके स्वप्न उसके किस काम आते हैं।''
21) रूबेन यह सुन कर उसे उनके हाथों से बचाने के उद्देश्य से बोला, ''हम उसकी हत्या न करें।''
22) तब रूबेन ने फिर कहा, ''तुम उसका रक्त नहीं बहाओ। उसे मरूभूमि के कुएँ में फेंक दो, किन्तु उस पर हाथ मत लगाओ।'' वह उसे उनके हाथों से बचा कर पिता के पास पहँुचा देना चाहता था।
23) इसलिए ज्यों ही यूसुफ़ अपने भाइयों के पास पहुँचा, उन्होंने उसका सुन्दर कुरता उतारा और उसे पकड़ कर कुएँ में फेंक दिया।
24) वह कुआँ सूखा हुआ था, उस में पानी नहीं था।
25) इसके बाद से वे बैठ कर भोजन करने लगे। उन्होंने आँखें ऊपर उठा कर देखा कि इसमाएलियों का एक कारवाँ गिलआद से आ रहा है। वे ऊँटों पर गोंद, बलसाँ और गन्धरस लादे हुए मिस्र देश जा रहे थे।
26) तब यूदा ने अपने भाइयों से कहा, ''अपने भाई को मारने और उसका रक्त छिपाने से हमें क्या लाभ होगा?
27) आओ, हम उसे इसमाएलियों के हाथ बेच दें और उस पर हाथ नहीं लगायें; क्योंकि वह तो हमारा भाई और हमारा रक्तसम्बन्धी है।'' उसके भाइयों ने उसकी बात मान ली।
28) उस समय मिदयानी व्यापारी उधर से निकले। उन्होंने यूसुफ़ को कुएँ से निकाला और उसे चाँदी के बीस सिक्कों में इसमाएलियों के हाथ बेच दिया और वे यूसुफ़ को मिस्र देश ले गये।
29) रूबेन जब कुएँ के पास गया, तो उसने यूसुफ़ को कुएँ में नहीं पाया। इस पर उसने अपने वस्त्र फाड़ डाले और
30) भाइयों के पास जा कर कहा, ''लड़का अब वहाँ नहीं है। तो, मैं क्या करूँ?''
31) उन्होंने एक बकरा मार कर उसके खून में यूसुफ़ का कुरता डुबाया।
32) फिर उन्होंने वह कुरता अपने पिता के पास भेजा और यह कहलाया कि ''हमने इसे पाया है। देखिए कि कहीं यह आपके पुत्र का कुरता तो नहीं है?''
33) उसने उसे पहचान लिया और कहा, ''यह कुरता मेरे पुत्र का ही है। उसे कोई जंगली जानवर खा गया। निःसन्देह किसी जंगली जानवर ने यूसुफ़ को टुकड़े-टुकड़े कर दिया है।''
34) याकूब ने अपने वस्त्र फाड़ डाले और अपनी कमर में टाट का वस्त्र लपेट लिया। उसने बहुत दिनों तक अपने पुत्र के लिए शोक मनाया।
35) उसे सब पुत्र और पुत्रियाँ उसे सान्त्वना देने का प्रयत्न करते, परन्तु उनकी सान्त्वना का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उसने कहा, ''मैं इसी शोक में अपने पुत्र के पास अधोलोक चला जाऊँगा।'' इस प्रकार उसका पिता उसके लिए शोक मनाता रहा।
36) मिदयानियों ने उसे मिस्र ले जा कर पोटीफर नामक फिराउन के एक पदाधिकारी, अंगरक्षकों के अध्यक्ष के हाथों बेच दिया।

अध्याय 38

1) एक समय यूदा अपने भाइयों से अलग हो कर अदुल्लामी हीरा के यहाँ रहने लगा।
2) वहाँ यूदा ने शूअह नामक एक कनानी पुरुष की कन्या को देखा और उस से विवाह कर लिया। उसका उस से संसर्ग हुआ,
3) वह गर्भवती हुई और उस को एक पुत्र हुआ उसने उसका नाम एर रखा।
4) वह फिर गर्भवती हुई और उस को एक और पुत्र हुआ। उसने उसका नाम ओनान रखा।
5) उसने फिर एक पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम शेला रखा गया। जब वह पैदा हुआ था, तब वह केजीब में रह रही थी।
6) यूदा ने अपने पहलौठे पुत्र एर का विवाह तामार नाम की कन्या के साथ किया।
7) परन्तु यूदा को पहलौठा एर प्रभु की दृष्टि में दुष्ट था, इसलिए प्रभु ने उसे मार डाला।
8) इस पर यूदा ने ओनान से कहा, ''तुम अपने भाई की पत्नी के साथ रह कर नियोग विधि के अनुसार अपने भाई के लिए सन्तति पैदा करो।''
9) ओनान यह जानता था कि इस प्रकार से उत्पन्ना सन्तति उसकी नहीं होगी, इसलिए जब उसका अपने भाई की पत्नी के साथ संसर्ग हुआ, तब उसने वीर्य पृथ्वी पर गिरा दिया, जिससे वह अपने भाई को सन्तति न दे।
10) उसका यह कार्य प्रभु को अच्छा नहीं लगा, इसलिए उसने उसे भी मार डाला।
11) तब यूदा ने अपनी बहु तामार से कहा, ''जब तक मेरा पुत्र शेला बड़ा न हो जाये, तब तक तुम अपने पिता के घर में विधवा की तरह रहो; क्योंकि उस को यह डर था कि कहीं वह भी अपने भाइयों के समान ही न मर जाये। इसलिए तामार अपने पिता के घर जा कर रहने लगी।
12) बहुत दिनों बाद यूदा की पत्नी, जो शूअह की पुत्री थी, मर गयी। जब यूदा उसका शोक मना चुका, तब वह अपने अदुल्लामी मित्र हीरा के साथ तिमना गया जहाँ उनके आदमी भेडों का ऊन काट रहे थे।
13) तामार को यह ख़बर मिली कि ''तुम्हारा ससुर भेडों का ऊन काटने तिमना जाने वाला है।''
14) यह सुन कर उसने अपने विधवा के वस्त्र उतार दिये, अपना मुँह ढक लिया और तिमना जाने वाले रास्ते पर स्थित एनईम के पर्वत-मार्ग पर बैठ गयी; क्योंकि उसने सोचा कि शेला इतना बड़ा हो गया, फिर भी उस से उसका विवाह नहीं किया गया।
15) यूदा ने जब उसे देखा, तो उसे देवदासी समझा, क्योंकि उसने अपना मुँह ढक लिया था।
16) रास्ते के किनारे उसके पास जा कर उसने उस से कहा, ''चलो, मुझे अपने साथ संसर्ग करने दो;'' क्योंकि वह नहीं जानता था वह उसी की पुत्रवधू हैं। वह बोली, ''आप मुझ से संसर्ग करने का मुझे क्या देंगे?''
17) उसने उत्तर दिया, ''झुण्ड में से मैं तुम को एक बकरी का बच्चा भेज दूँगा।'' वह बोली, ''जब तक आप उसे न भेजेंगे, तब तक के लिए बंन्धक मे क्या रख रहे हैं?''
18) उसने पूछा, ''बंन्धक में मैं तुम्हारे पास क्या रखूँ?'' उसने कहा, ''अपनी मुहर, उसकी डोरी और अपने हाथ का डण्डा।'' उसने उसे ये चीजें दे दीं। तब उसका उसके साथ संसर्ग हुआ और वह उसके द्वारा गर्भवती हुई।
19) उसके बाद वह उठ कर चली गयी और अपना घूँघट उतार कर फिर विधवा के वस्त्र पहन लिये।
20) उस स्त्री से अपना बन्धक वापस पाने के ख्याल से यूदा ने अपने अदुल्लामी मित्र के हाथ उसके लिए एक बकरी का बच्चा भेजा। परन्तु वह उसे नहीं मिली।
21) उस स्थान के आदमियों से उसने पूछा, ''वह देवदासी कहाँ है, जो एनईम के पास मार्ग पर बैठी थी?'' उन्होंने उत्तर दिया, ''यहाँ तो कोई देवदासी नहीं थी।''
22) तब उसने लौट कर यूदा से कहा, ''मुझे वह नहीं मिली और उस स्थान के आदमियों का कहना है कि वहाँ कोई देवदासी नहीं थी।''
23) इस पर यूदा ने कहा, ''तो उसे उन चीजों को अपने पास ही रखने दो; नहीं तो वे लोग हमारी हँसी उड़ायेंगे। तुम प्रमाण हो कि मैंने इस बकरी के बच्चे को उसके लिए भेजा, परन्तु तुम्हें वह नहीं मिली।''
24) लगभग तीन महीने बाद यूदा को यह खबर मिली, ''तुम्हारी पुत्रवधू तामार ने व्यभिचार किया है और उस व्यभिचार से वह गर्भवती भी हो गयी है।'' यूदा ने कहा, ''उसे बाहर ले जा कर जला दो।''
25) जब उसे बाहर निकाला गया, तो उसने अपने ससुर को यह कहला भेजा कि ''ये चीजें उस आदमी की है, जिस से में गर्भवती हूँ।'' उसने यह भी कहा, ''इन चीजों को ज+रा ध्यान से देखिये कि ये मुहर, डोरी और डण्डा किसके है?''
26) यूदा ने उन्हें पहचान कर कहा, ''वह स्त्री मुझ से कहीं अधिक निर्दोष है, क्योंकि मैंने ही उस से अपने पुत्र शेला का विवाह नहीं किया।'' उसका उसके साथ फिर संसर्ग नहीं हुआ।
27) तामार के प्रसव का समय आया, तो उसके पेट में जुड़वाँ बच्चे थे।
28) जब वह प्रसव की अवस्था में थी, एक बच्चे ने अपना हाथ बाहर निकाला। दाई ने उसके हाथ में एक लाल डोरा बाँध दिया और कहा, ''यह पेट से पहले निकला।''
29) परन्तु उसने अपना हाथ फिर अन्दर कर लिया और उसके भाई का जन्म हुआ। तब वह बोली, ''तूने कैसे अपने लिए निकलने का मार्ग बना लिया,'' इसलिए उसने उसका नाम पेरेस रखा।
30) बाद में उसका भाई, जिसके हाथ में लाल डोरा बाँधा था, बाहर आया। उसका नाम जेरह रखा गया।

अध्याय 39

1) यूसुफ़ मिस्र देश ले जाया गया था। फिराउन के एक पदाधिकारी, अंगरक्षकों के अध्यक्ष पोटीफर नामक मिस्र-निवासी ने उसे उन इसमाएलियों से मोल ले लिया था, जो उसे वहाँ लाये थे।
2) प्रभु यूसुफ़ का साथ देता था। इसलिए उसके सब काम सफल थे। वह अपने मिस्री स्वामी के घर में काम कर रहा था।
3) जब उसके स्वामी ने देखा कि प्रभु उसका साथ देता है और प्रभु उसके सब काम सिद्ध कर देता है,
4) तो यूसुफ़ उसका कृपापात्र बना। उसने उसे अपना निजी सेवक और अपने घर एवं समस्त सम्पत्ति का प्रबन्धक बनाया।
5) जब से उसने उसे अपने घर और समस्त सम्पत्ति का प्रबन्धक बनाया, प्रभु यूसुफ़ के कारण उस मिस्री के घर को आशीर्वाद देने लगा। क्या घर, क्या खेत, उसकी सारी सम्पत्ति पर प्रभु का आशीर्वाद था।
6) इसलिए उसने अपनी समस्त सम्पत्ति का प्रबन्ध यूसुफ़ के हाथ में दे दिया और उसके रहते उसे अब खाने-पीने के सिवा और किसी चीज+ की परवाह नहीं रह गयी।
7) यूसुफ़ सुड़ौल और सुन्दर युवक था। कुछ समय बाद उसके स्वामी की पत्नी यूसुफ़ पर आसक्त हुई और उसने उसे से कहा, ''मेरे साथ सोने आओ।''
8) परन्तु उसने इनकार करते हुए अपने स्वामी की पत्नी से कहा, ''देखिए, मेरे रहते मेरे स्वामी को अपनी घर-गृहस्थी की कुछ भी चिन्ता नहीं रहती, क्योंकि उन्होंने अपनी समस्त सम्पत्ति का प्रबन्ध मेरे हाथ में दे दिया है।
9) इस घर पर वह मुझ से अधिक अधिकार भी नहीं रखते, सिवा आपके, क्योंकि आप उनकी पत्नी हैं। उन्होंने अपने लिए कुछ भी नहीं रखा है। फिर मैं इतनी बड़ी दुष्टता और ईश्वर के विरुद्ध पापकर्म कैसे कर सकता हूँ?''
10) वह प्रतिदिन यूसुफ़ को प्रलोभन देती रही, परन्तु उसने उसकी एक न सुनी। वह उसके पास नहीं गया और उसका उसके साथ संसर्ग नहीं हुआ।
11) एक दिन ऐसा हुआ कि वह किसी काम से घर के भीतर आया। उस समय नौकरों में से कोई भी घर में नहीं था।
12) तब उसने यह कहते हुए उसका वस्त्र पकड़ लिया, ''अब मेरे साथ सोओ।'' परन्तु यूसुफ़ ने अपना वस्त्र उसके हाथ में ही छोड़ दिया और घर से बाहर भाग आया।
13) जब स्त्री ने देखा कि वह उसके हाथों में ही अपना वस्त्र छोड़ कर घर से बाहर भाग गया,
14) तब उसने घर के सेवकों को बुला कर उन से कहा, ''देखो, वह इब्रानी हमारा अपमान करने यहाँ लाया गया है। वह मेरे साथ सोने के लिए मेरे पास अन्दर गया। इस पर मैं जोरों से चिल्ला उठी।
15) जब उसने जोर-जोर से चिल्लाने की मेरी आवाज+ सुनी, तो मेरे पास अपना वस्त्र छोड़ कर वह बाहर निकल गया।''
16) जब तक उसका पति घर न लौटा, उसने उसका वस्त्र अपने पास रखा।
17) उसने उस से यह कहा, ''वह इब्रानी दास, जिसे तुम हमारे यहाँ लाये हो, मेरा अपमान करने के लिए मेरे पास आया था।
18) परन्तु जब मैं जोर-जोर से चिल्लाने लगी, तब वह अपना वस्त्र मेरे पास छोड़ कर भाग निकला।''
19) जब उसके स्वामी ने अपनी पत्नी की यह बात सुनी कि उसके दास ने उसकी पत्नी के साथ ऐसा बुरा व्यवहार किया है, तब वह क्रुद्ध हो गया।
20) यूसुफ़ के स्वामी ने उसे पकड़वा कर बन्दीगृह में डलवा दिया, जहाँ राजा के बन्दी कैद थे। वहाँ वह बन्दीगृह में रहा।
21) परन्तु प्रभु यूसुफ़ का साथ देता रहा। उसने उस पर दया की और वह बन्दीगृह के अध्यक्ष का कृपापात्र बन गया।
22) बन्दीगृह के अध्यक्ष ने जेल के सब बन्दियों पर यूसुफ़ को नियुक्त किया और वहाँ का सब प्रबन्ध उसी के हाथों में दे दिया।
23) बन्दीगृह के अध्यक्ष को अब इस बात की आवश्यकता नहीं रही कि वह यूसुफ़ के हाथों में सौंपे हुए किसी काम की परवाह करें, क्योंकि प्रभु उसके साथ था और वह जो कुछ करता था, प्रभु उस में उसे सफलता देता था।

अध्याय 40

1) इन घटनाओं के कुछ समय बाद मिस्र के राजा के साक़ी और रसोइये, दोनों ने अपने स्वामी मिस्र के राजा के विरुद्ध अपराध किया।
2) तब फिराउन को अपने दोनों कर्मचारियों पर अर्थात् प्रधान साक़ी और प्रधान रसोइये पर, क्रोध हो आया।
3) उसने उन्हें अंगरक्षकों के अध्यक्ष के यहाँ उसी बन्दीगृह में डलवा दिया, जहाँ यूसुफ़ बन्दी था।
4) अंगरक्षकों के अध्यक्ष ने यूसुफ़ को उनकी देखभाल का काम सौंपा और उसने उनकी सेवा की।
5) कुछ दिनों तक बन्दीगृह में रहने के बाद एक रात उन दोनों ने स्वप्न देखा। साक़ी और मिस्र के राजा के रसोइये ने, जो बन्दीगृह में थे, एक-एक स्वप्न देखा, जिनका अपना-अपना अर्थ था।
6) प्रातःकाल यूसुफ़ उनके पास आया, तो उसने उन्हें उदास पाया।
7) तब उसने फिराउन के उन कर्मचारियों से, जो उसके साथ उसके स्वामी के घर में बन्दी थे, पूछा, ''आपके चेहरे आज इतने मलिन क्यों है?''
8) वे उस से बोले, ''हमने स्वप्न देखे है, परन्तु कोई उनके अर्थ बतलाने वाला नहीं है।'' तब यूसुफ़ ने उन से कहा,'' तो अर्थ समझाना क्या ईश्वर का काम नहीं है? मुझे अपने-अपने स्वप्न बताइए।''
9) तब प्रधान साक़ी यूसुफ़ को अपना स्वप्न बताते हुए कहने लगा, ''मैंने स्वप्न में अपने सामने अंगूर की एक लता देखी।
10) अंगूर की उस लता में तीन शाखाएँ थीं। वे फूटने लगीं और साथ-साथ उन में बौड़ियाँ भी निकल आयीं, तब गुच्छों में अंगूर पकने लगे।
11) मेरे हाथ में फिराउन का प्याला था। फिर अंगूरों को ले कर मैंने उनका रस फिराउन के प्याले में निचोड़ दिया और प्याले को फिराउन के हाथों में दे दिया।''
12) यूसुफ़ ने उस से कहा, ''इसका अर्थ यह है। वे तीन शाखायें तीन दिन हैं।
13) तीन दिन बाद फिराउन आपका मस्तक ऊँचा करेगा और आप को आपके पूर्व पद पर फिर नियुक्त करेंगे। तब आप पहले की तरह, जब आप उनके साक़ी थें, उनके हाथों में प्याला दिया करेंगे।
14) जब आपका भला हो जाये, तो मुझे याद कीजिए। मुझ पर कृपा कर फिराउन के सामने मेरे लिए निवेदन कीजिए, जिससे मैं इस बन्दीगृह से मुक्त किया जाऊँ।
15) इब्रानियों के देश से मैं यहाँ दास बना कर लाया गया हूँ और यहाँ मैंने कोई ऐसा कुकर्म नहीं किया, जिसके कारण मैं बन्दीगृह में डाला जाता।''
16) प्रधान रसोइये ने जब देखा कि यूसुफ़ द्वारा बताया हुआ स्वप्न का फल शुभ हैं, तो वह भी उस से कहने लगा, ''मैंने स्वप्न में देखा कि मिठाई से भरी तीन टोकरियाँ मेरे सिर पर रखी हैं।
17) सब से ऊपर की टोकरी में फिराउन के लिए सब प्रकार के पकवान हैं। परन्तु पक्षी मेरे सिर पर की टोकरी में उन्हें खा रहे हैैं''
18) इस पर यूसुफ़ ने कहा, ''इसका अर्थ यह है। ये तीन टोकरियाँ तीन दिन है।
19) तीन दिन के बाद फिराउन आपका सिर धड़ से अलग करेंगे, आप को सूली पर लटका देंगे और पक्षी आपका माँस नोच कर खायेंगे।''
20) तीसरे दिन फिराउन का जन्मदिवस था। उसने अपने सब दरबारियों को दावत दी। तब उसने अपने सेवकों के सामने प्रधान साक़ी और प्रधान रसोइये को प्रस्तुत किया।
21) प्रधान साक़ी को तो उसने अपने पूर्व पद पर फिर नियुक्त किया, जिससे वह फिराउन को फिर प्याला प्रदान करता रहे,
22) किन्तु उसने प्रधान रसोइये को फ़ाँसी दिलवा दी, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार यूसुफ़ ने स्वप्न का अर्थ बताते हुए उन से कहा था।
23) प्रधान साक़ी को यूसुफ़ का ध्यान नहीं रहा। वह उसे भूल गया।

अध्याय 41

1) पूरे दो साल बाद फिराउन ने भी एक स्वप्न देखा। उसने उस में देखा कि वह नील नदी के किनारे खड़ा है।
2) इतने में नील नदी से सात सुन्दर, मोटी गायें निकलीं और कछार की घास चरने लगीं।
3) उनके पीछे फिर सात कुरूप और दुबली-पतली गायें नील नदी से निकली और उन गायों के पास नील नदी के किनारे खड़ी हो गयीं।
4) इसके बाद वे कुरूप, दुबली-पतली गायें उन सात सुन्दर, मोटी गायों को खा गयीं। इतने में फिराउन की आँखें खुलीं।
5) जब वह फिर सोया, तो उसने एक और स्वप्न देखाः एक ही डण्ठल में सात अच्छी भरी बालें फूट निकली हैं।
6) इनके बाद फिर पतली और पूर्वी हवा से झुलसी हुई सात बालें फूट निकली।
7) पतली बालें उन सात भरी-पूरी बालों को खा गयीं। तब फिराउन की नींद टूटी और उसे मालूम हुआ कि यह एक स्वप्न था।
8) प्रातःकाल उसका मन व्याकुल हो उठा। उसने मिस्र के सब जादूगरों और पण्डितों को बुलवाया। फिराउन ने उन्हें अपने स्वप्न कह सुनाये। परन्तु उन में कोई भी फिराउन को उनका अर्थ समझा न सका।
9) तब प्रधान साक़ी ने फिराउन से कहा, ''आज मुझे अपने अपराधों की फिर याद आ रही है।
10) फिराउन को किसी दिन अपने दासों पर क्रोध आया था और उन्होंने मुझे तथा प्रधान रसोइये को अंगरक्षकों के अध्यक्ष के यहाँ बन्दीगृह में डाल दिया था।
11) एक ही रात हम दोनों ने, उसने और मैंने, एक-एक स्वप्न देखा था, जिनका अपना-अपना अर्थ था।
12) वहाँ हमारे साथ अंग-रक्षकों के अध्यक्ष का एक दास, एक इब्रानी युवक था। हमने उसे अपने स्वप्न बतलाये और उसने हमारे स्वप्नों का अलग-अलग अर्थ बताया।
13) उसके बतलाये अर्थ के अनुसार ही हुआ। मुझे अपना पुराना पद मिल गया, परन्तु रसोइये को फाँसी दी गयी।''
14) तब फिराउन से यूसुफ़ को बुलवाया। वह शीघ्र ही बन्दीगृह से लाया गया। वह बाल मुड़वाने और वस्त्र बदलने के बाद फिराउन के सामने आया।
15) फिराउन ने यूसुफ़ से कहा, ''मैंने एक स्वप्न देखा, परन्तु उसका अर्थ कोई भी नहीं समझा सकता। मैंने तुम्हारे विषय में सुना है कि तुम स्वप्न सुनते ही उसका अर्थ समझा सकते हो।''
16) यूसुफ़ ने फिराउन को उत्तर दिया, ''मैं नहीं, ईश्वर ही फिराउन को सन्तोषजनक उत्तर देगा।''
17) फिराउन ने यूसुफ़ से कहा, ''मैंने अपने स्वप्न में देखा कि मैं नील नदी के किनारे खड़ा हूँ।
18) तब तक नील नदी से सात मोटी और सुन्दर गायें निकलीं और कछार की घास चरने लगीें।
19) उनके बाद सात दूसरी गायें निकलीं। वे कमजोर, बड़ी कुरूप और दुबली-पतली थीं। मैंने सारे मिस्र में पहले कभी ऐसी कुरूप गायें नहीं देखी थीं।
20) वे दुबली कुरूप गायें उन पहली मोटी गायों को खा गयीं।
21) उन्हें खा चुकने पर भी किसी को ऐसा नहीं मालूम पड़ सकता था कि वे उन्हें खा चुकी हैं ; क्योंकि अब भी वे उतनी ही कुरूप दिखती थीं, जितनी पहले थींं। इसके बाद मैं जाग गया।
22) मैंने स्वप्न में एक डण्ठल में उगती हुई, भरी, अच्छी सात बालें भी देखीं
23) और इनके बाद पूर्वी हवा से झुलसी हुई, सूखी और पतली सात बालें निकलीं और
24) ये सात पतली बालें उन सात अच्छी बालों को निगल गयीं। मैंने जादूगरों से यह बताया, परन्तु उन में कोई ऐसा न निकला, जो मुझे इसका अर्थ समझा सकें।''
25) इस पर यूसुफ़ ने फिराउन से कहा, ''फिराउन के दोनों स्वप्न एक ही हैं। ईश्वर ने फिराउन पर प्रकट कर दिया है कि वह क्या करने वाला है।
26) इन सातों अच्छी गायों का अर्थ है सात साल, और इन सातों अच्छी बालों का अर्थ भी है सात साल। इन स्वप्नों का अर्थ एक-सा होता है।
27) बाद में आने वाली दुबली और कुरूप गायों का भी अर्थ है, सात साल और उन पतली और पूर्वी हवा से झुलसी हुई सातों बालों का भी अर्थ है, अकाल वाले सात साल।
28) मैंने फिराउन से वही कहा है : ईश्वर ने फिराउन पर प्रकट किया कि वह क्या करने वाला है।
29) देखिए, अब ऐसे सात साल आने वाला हैं, जब सारे मिस्र देश में सुकाल रहेगा।
30) परन्तुु इनके बाद सात साल तक अकाल रहेगा। तब लोग मिस्र देश का सुकाल भूल जायेंगे।
31) अकाल सारे-के-सारे देश को खा जायेगा। बाद में आने वाले अकाल के कारण उस सुकाल का स्मरण ही नहीं रहेगा, क्योंकि वह बड़ा भारी अकाल होगा।
32) यह बात ईश्वर के द्वारा एकदम निश्चित कर ली गयी है और ईश्वर इसे जल्दी ही पूरा करेगा। यह समझाने के लिए फिराउन को दो बार स्वप्न दिखलायी दिये हैं।
33) इसलिए फिराउन किसी समझदार और बुद्धिमान् व्यक्ति को चुनें और उसे मिस्र देश का प्रथान अधिकारी नियुक्त करें।
34) फिर फिराउन देश भर में ऐसे अधिकारियों को भी नियुक्त करें, जो सुकाल के सातों वर्ष मिस्र देश की उपज का पाँचवाँ भाग लिया करें।
35) इन आने वाले अच्छे वर्षांेंें की पूरी उपज इकट्ठी की जाये और फिराउन के अधिकार में भोजन के लिए नगरों में सुरक्षित किये जाये।
36) तब मिस्र में आने वाले अकाल से सातों वर्ष के लिए काफ़ी अनाज हो जायेगा। इस से अकाल के समय देश सर्वनाश से बच जायेगा।
37) यह परामर्श फिराउन और उसके सब पदाधिकारियों को अच्छा लगा।
38) फिराउन ने अपने दरबारियों से कहा, ''क्या हमें इस मनुष्य की तरह कोई ऐसा व्यक्ति मिल सकता है, जिस में ईश्वर का आत्मा विद्यमान हैं?''
39) इसके बाद फिराउन ने यूसुफ़ से कहा, ''जब ईश्वर ने तुम्हीं पर सब कुछ प्रकट किया है, तो तुम्हारी तरह समझदार और बुद्धिमान् कहीं नहीं मिल सकता है।
40) तुम्हीं मेरे महल के प्रबन्धक होगे। मेरी सारी प्रजा तुम्हारी आज्ञाओं का पालन करेगी। राजसिंहासन के कारण ही में तुम से बड़ा होऊँगा।''
41) आगे फिराउन ने यूसुफ़ से कहा, ''अब मैं तुम्हें सारे मिस्र देश का शासक नियुक्त करता हूँ''।
42) फिराउन ने अपने हाथ से मुद्रा की अँगूठी उतारी और उसे यूसुफ़ की उँगली में पहना दिया। फिर उसे सुन्दर मलमल के वस्त्र पहना दिये और उसके गले में सोने की माला डाल दी।
43) उसने उसे अपने द्वितीय रथ में बिठा कर उसके सामने यह घोषणा करायी, ''इन को प्रणाम करो''। इस प्रकार उसने उसे सारे मिस्र देश का प्रशासक नियुक्त कर दिया।
44) इसके बाद फिराउन ने यूसुफ़ से कहा, ''फिराउन तो मैं हूँ, लेकिन तुम्हारी आज्ञा के बिना मिस्र देश भर में कोई कुछ न कर सकेगा।
45) फिराउन ने यूसुफ़ का 'साफ-नत-पनेअह' नाम रखा और ओन के याजक पोटी-फेरअ की पुत्री आसनत के साथ उसका विवाह करा दिया। यूसुफ़ समस्त मिस्र देश का निरीक्षण करने निकला।
46) जब यूसुफ़ मिस्र के राजा फिराउन की सेवा में नियुक्त हुआ, उसकी अवस्था तीस वर्ष की थी। यूसुफ़ फिराउन से विदा ले कर समस्त मिस्र देश का दौरा करने निकला।
47) सुकाल के सात वर्ष में भूमि से बहुत अनाज पैदा हुआ।
48) उसने इन सात वर्षांेंेंं में मिस्र देश की सारी उपज इकट्ठी कर नगरों में जमा की। उसने प्रत्येक नगर में उसके आसपास के खेतों की फ़सल इकट्ठी की।
49) इस प्रकार यूसुफ ने समुद्रतट के रेतकणों की तरह इतना अनाज इकट्ठा कर लिया कि उसने उसका लेखा रखना छोड़ दिया, क्योंकि उसकी माप असम्भव थी।
50) अकाल पड़ने से पहले यूसुफ के दो पुत्र हुए। वे ओन के याजक पोटी-फेरअ की पुत्री आसनत से उत्पन्न हुए।
51) यूसुफ ने अपने पहलौठे पुत्र का नाम मनस्से रखा। उसने कहा, ''यह इसलिए हुआ कि प्रभु की कृपादृष्टि के कारण मैंने अपना सारा कष्ट और अपने पिता का घर भुला दिया है''।
52) उसने दूसरे पुत्र का नाम एफ्राईम रखा; उसने कहा, ''यह इसलिए हुआ कि जिस देश में मुझे विपत्तियाँ झेलनी पड़ीं, र्ईश्वर ने उसी में मुझे सन्तति प्रदान की है।''
53) मिस्र देश में सात वर्ष का सुकाल आया और बीत गया।
54) इसके बाद, जैसा कि यूसुफ ने कहा था, अकाल के सात वर्ष प्रारम्भ हुए। सब देशों में अकाल पड़ा। केवल मिस्र देश में खाने को मिलता रहा।
55) समस्त मिस्र देश में अकाल पड़ने लगा और लोग फिराउन से रोटी माँगने आये। फिराउन ने सभी मिस्रियों से कहा, ''यूसुफ के पास जाओ और वह जो कहें, वही करो''।
56) हर प्रदेश में अकाल था और यूसुफ़ ने सभी गोदामों को खुलवा कर मिस्रियों को अनाज बेच दिया। मिस्र देश में अकाल बढ़ता जा रहा था।
57) सभी देशों के लोग यूसुफ़ से अनाज ख़रीदने आये, क्योंकि पृथ्वी पर घोर अकाल पड़ने लगा था।

अध्याय 42

1) याकूब को पता चला कि मिस्र में अनाज मिलता है। इसलिए उसने अपने पुत्रों से कहा, ''तुम लोग एक दूसरे का मुँह क्यों देख रहे हो?''
2) फिर उसने कहा, ''देखो, मैंने सुना है कि मिस्र में अनाज मिल रहा है। इसलिए वहाँ जा कर अपने लिए अनाज ख़रीद लाओ, जिससे हमारे प्राण बच जायें और हम मरें नहीं''।
3) इसलिए यूसुफ़ के भाइयों में से दस भाई अनाज खरीदने मिस्र गये।
4) याकूब ने यूसुफ़ के भाई बेनयामीन को उसके अन्य भाइयों के साथ नहीं भेजा। उसे भय था कि कहीं वह किसी विपत्ति में न पड़ जाये।
5) इस्राएल के पुत्र दूसरे लोगों के साथ अनाज ख़रीदने आये, क्योंकि कनान देश में अकाल था।
6) उस समय यूसुफ़ समस्त मिस्र का शासन करता था और सभी निवासियों को अनाज बेचता था। यूसुफ़ के भाई उसके पास आये और उन्होंने उसे दण्डवत् किया।
7) यूसुफ़ ने उन्हें देखते ही पहचान लिया, किन्तु उसने उनसे अपरिचित होने का स्वाँग भर कर कठोर स्वर में पूछा, ''तुम लोग कहाँ से आये हो?'' उन्होंने उत्तर दिया, ''कनान देश से; अनाज खरीदने के लिए''।
8) यूसुफ़ तो अपने भाइयों को पहचान गया, किन्तु उन्होंने उसे नहीं पहचाना।
9) तब यूसुफ़ को अपने उन स्वप्नों की याद आयी, जो उसने उनके विषय में देखे थे। उसने उन से कहा, ''तुम लोग गुप्तचर हो। तुम लोग इस देश की कमज+ोरियों का पता लगाने आये हो!
10) उन्होंने उत्तर दिया, ''नहीं महोदय! हम, आपके दास अनाज खरीदने आये हैं।
11) हम सब एक ही व्यक्ति के पुत्र है। हम ईमानदार आदमी हैं। हम, आपके दास, गुप्तचर नहीं हैं।''
12) परन्तु उसने उन्हें उत्तर दिया, ''नहीं, तुम लोग केवल इसलिए आये हो कि इस देश की कमज+ोरियों का पता लगा लो''।
13) उन्होंने उत्तर दिया, ''हम, आपके दास, कनान-निवासी एक ही व्यक्ति के पुत्र, बारह भाई हैं। सबसे छोटा भाई हमारे पिता के पास है, और एक नहीं रहा।''
14) यूसुफ़ ने उन्हें उत्तर दिया, ''मैंने तुम से जो कहा, वही ठीक है : तुम गुप्तचर हो!
15) तुम्हारी इस प्रकार परीक्षा की जायेगी : फिराउन की शपथ खा कर मैं तुम से कहाता हूँ कि जब तक तुम्हारा सब से छोटा भाई भी यहाँ नहीं आ जायेगा, तब तक तुम यहाँ से नहीं जा सकोगे।
16) अपने भाई को लाने के लिए अपने में से किसी को भेजो। इस बीच तुम कैद में रहोगे, जिससे इस बात की परीक्षा की जाये कि तुम सच कहते हो या नहीं। फिराउन की शपथ! तुम लोग गुप्तचर ही हो!''
17) यूसुफ़ ने उन्हें तीन दिन तक कैद में डाल दिया।
18) तीसरे दिन उसने उन से कहा, ''यदि तुम जीवित रहना चाहते हो, तो मैं तुम से जो कहने जा रहा हूँ, वही करो; क्योंकि मैं ईश्वर पर श्रद्धा रखता हूँ।
19) यदि तुम सच्चे हो, तो तुम में से एक भाई यहाँ कैद में रहेगा। दूसरे अपने भूखे परिवारों के लिए अनाज ले कर जा सकते हैं,
20) लेकिन तुम्हें अपने कनिष्ठ भाई को मेरे पास ले आना होगा। तभी तुम्हारी बात सच निकलेगी और तुम लोग जीवित रहोगे।'' उन्होंने ऐसा ही किया और
21) एक दूसरे से कहा, ''हमने अपने भाई के साथ जो अन्याय किया, उसका दण्ड हम भोग रहे है। उसने हम से दया की याचना की और हमने उसकी दुर्गति देख कर भी उसे ठुकराया। इसी से हम यह विपत्ति भोग रहे हैं।''
22) रूबेन ने उन से कहा, ''मैने तुम लोगों को कितना समझाया कि बच्चे के साथ अन्याय मत करो; किन्तु तुमने मेरी एक भी नहीं मानी और अब हमसे उसके खून का बदला लिया जा रहा है''।
23) उन्होंने एक दुभाषिये का उपयोग किया था, इसलिए उन्हें मालूम नहीं था कि यूसुफ़ उनकी बातें समझ रहा है।
24) यूसुफ़ उन से अलग हो गया और रोने लगा। बाद में उसने लौट कर उन से बातचीत की।
25) तब यूसुफ़ ने आज्ञा दी कि उनके बोरे अनाज से भर दिये जायें, उनके बोरों में उनके रूपये भी रख दिये जायें और रास्ते के लिए उनको खाद्य सामग्री भी दे दी जाये। ऐसा ही किया गया।
26) वे अपने-अपने गधों पर अनाज रख कर वहाँ से चल दिये।
27) जब उन में से एक ने सराय में अपना बोरा खोला, जिससे वह अपने गधे को कुछ खाने को दे दे, तो वह देखता क्या है कि उसके रूपये बोरे के ऊपरी भाग में रखे हुए हैं।
28) वह अपने भाइयों से बोला, ''मेरे रूपये तो मेरे इसी बोरे के ऊपरी भाग में रखे हैं''। यह सुन वह हक्का-बक्का रह गये। वे काँपते हुए एक-दूसरे से कहने लगे, ''ईश्वर ने हमारे साथ ऐसा क्यों किया''?
29) उन्होंने कनान देश में अपने पिता याकूब के पास पहुँच कर उस से सब हाल सुनाते हुए कहा,
30) ''उस देश के शासक ने हम से कठोर शब्द कहे और हम को उस देश का गुप्तचर समझा।
31) लेकिन हमने उस से कहा कि हम ईमानदार आदमी हैं, हम गुप्तचर नहीं हैं।
32) हम एक ही पिता के पुत्र बारह भाई हैं। एक जीवित नहीं है और सब से छोटा कनान देश में हमारे पिता के पास है।
33) तब उस व्यक्ति ने, जो उस देश का शासक है, हम से कहा - तुम लोग ईमानदार आदमी हो या नहीं, यह मैं इस बात से जानूँगा कि तुम अपने किसी एक भाई को मेरे पास छोड़ जाओ। फिर अपने भूखे घर वालों के लिए अनाज ले कर चले जाओ;
34) लेकिन तुम्हें अपने छोटे भाई को मेरे पास लाना ही पड़ेगा। इस से मैं यह मान जाऊँगा कि तुम गुप्तचर नहीं, बल्कि ईमानदार हो। इसके बाद मैं तुम्हें तुम्हारे भाई को लौटा दूँगा और फिर तुम इस देश में कहीं भी आ-जा सकोगे''।
35) वे अपने बोरों को खाली करने लगे, तो देखते क्या हैं कि प्रत्येक के रूपयों की थैली उसके बोरे में ही पड़ी है। जब उन्होंने और उनके पिता ने रूपयों की थैलियाँ देखीं, तो वे डर गये।
36) उनके पिता याकूब ने उन से कहा, ''तुम लोग तो मुझे सन्तानहीन किये दे रहे हो। यूसुफ़ जीवित नहीं रहा, सिमओन भी नहीं है और तुम अब बेनयामीन को भी ले जाना चाहते हो। मेरे तो बुरे दिन आ गये हैं।''
37) रूबेन ने अपने पिता से कहा, ''यदि मैं उसे आपके पास सुरक्षित न लौटा लाऊँ, तो आप मेरे दोनों पुत्रों को मार डालियेगा। उसे मेरे सुपुर्द कर दीजिए, मैं उसे आपके पास वापस ले आऊँगा।''
38) लेकिन उसने उत्तर दिया, ''मेरा पुत्र तुम्हारे साथ नहीं जायेगा। उसका भाई मर चुका है और वह अकेला बचा है। कहीं रास्ते में उस पर कोई विपत्ति आयी, तो शोक के मारे मुझ-जैसे बूढ़े को तुम अधोलोक पहँुचा दोगे।

अध्याय 43

1) देश में अभी तक जोरों का अकाल था।
2) जब वह अनाज, जो वे मिस्र से लाये थे, समाप्त हो गया, तो उनके पिता ने उन से कहा, ''फिर उधर जाओ और अपने लिए कुछ अनाज ख़रीद कर ले आओ''।
3) यूदा ने उसे उत्तर दिया, ''उस व्यक्ति ने हमें कड़ा आदेश दिया है कि जब तक तुम अपने भाई को अपने साथ न ले आओगे, तब तक मुझ से नहीं मिल सकोगे।
4) इसलिए यदि आप हमारे भाई को हमारे साथ भेजने को तैयार हों, तो हम जा कर आपके लिए अनाज ख़रीद कर ले आयें,
5) लेकिन यदि आप उसे हमारे साथ नहीं भेजेंगे, तो हम वहाँ नहीं जायेंगे। कारण, उस व्यक्ति ने हम से कहा है, ''जब तक तुम अपने भाई को अपने साथ न ले आओगे, तब तक मुझ से नहीं मिल सकोगे।''
6) इस्राएल ने कहा, ''तुमने मेरे साथ यह बुराई क्यों की? और उस व्यक्ति को क्यों बताया कि तुम्हारा एक और भाई हैं?''
7) उन्होंने उत्तर दिया, ''उस व्यक्ति ने हमारे और हमारे परिवार के विषय में पूछताछ की और पूछा कि क्या तुम्हारे पिता जीवित है, क्या तुम्हारा एक भाई और है? इस पर, उसके प्रश्नों के उत्तर में, हमें यह बताना पड़ा। हमें क्या पता था कि वह हमारे भाई को वहाँ ले जाने के लिए हम से कहेगा?''
8) यूदा ने अपने पिता इस्राएल से कहा, ''लड़के को आप मेरे साथ जाने दीजिए, जिससे हम चल कर वहाँ जायें और इस प्रकार हम, आप और हमारे बच्चे जीवित रह सकें, मरे नहीं।
9) मैं खुद इसका उत्तरदायी होऊँगा, मैं खुद उसे लौटा कर आपके हाथों में फिर सौंप दूँगा। यदि मैं उसे आपके पास सुरक्षित वापस न ला सका, तो मैं आपके प्रति आजीवन दोषी बना रहूँगा।
10) यदि हमने इतनी देर न की होती, तो निश्चय ही अब तक हम दो बार वहाँ से हो आये होते।''
11) इस पर उनके पिता इस्राएल ने उन से कहा, ''अच्छा, यदि हमें ऐसा ही करना पड़ रहा है, तो करो। अपने बोरों में इस देश की अच्छी-से-अच्छी चीजों में से थोड़ा लेते जाओ और उन्हें उस व्यक्ति को उपहार दो, जैसे कुछ बलसाँ, कुछ मधु, गोंद, गन्धरस, पिस्ते और बादाम।
12) अब दूना रूपया भी लेते जाओ, क्योंकि जो पैसा तुम्हारे बोरों में पाया गया है, उसे लौटा देना चाहिए। हो सकता है कि कोई भूल हो गयी हो।
13) अपने भाई को भी अपने साथ लो और तुरन्त उस व्यक्ति के यहाँ फिर जाओ।
14) सर्वशक्तिमान् ईश्वर ऐसा करे कि तुम उस व्यक्ति के कृपापात्र बन जाओ और वह तुम्हारे उस भाई तथा बेनयामीन को तुम्हारे साथ लौट आने दे। यदि यह बदा है कि मुझे अपनी सन्तान से वंचित होना है, तो मैं अपनी सन्तान से वंचित होऊँगा।''
15) उन लोगों ने उपहार, दूने रूपये और बेनयामीन को साथ ले लिया। वे मिस्त्र के लिए चल पड़े और यूसुफ़ के पास पहुँचे।
16) जब यूसुफ़ ने उनके साथ बेनयामीन को देखा, तो उसने अपने घर के प्रबन्धक से कहा, ''इन लोगों को घर ले जाओ और एक पशु मार कर भोजन तैयार करो, क्योंकि ये लोग दोपहर को मेरे साथ खाना खायेंगे''।
17) उस व्यक्ति ने यूसुफ़ की आज्ञा का पालन किया और वह उन लोगों को यूसुफ़ के घर ले गया।
18) यूसुफ़ के घर लाये जाने के कारण वे लोग भयभीत थे। वे सोचते थे कि हम उस चाँदी के कारण घर ले जाये जा रहे हैं, जो हमारे बोरों में पिछली बार रखी गयी थी। वे लोग हम को घेर कर हम पर आक्रमण करेंगे, हमें दास बनायेंगे और हमारे गधे छीन लेंगे।''
19) इसलिए वे यूसुफ़ के घर के प्रबन्धक के पास आ कर फाटक पर ही उस से कहने लगे,
20) ''महोदय! हम एक बार पहले भी अनाज खरीदने आये थे,
21) और जब हमने सराय पहुँचने पर अपने बोरे खोले, तो प्रत्येक की चाँदी पूरी तौल के अनुसार बोरों के ऊपरी भाग में रखी मिली। इसलिए हम उसे वापस ले आये हैं।
22) अनाज खरीदने के लिए हम और भी चाँदी लाये हैं। हम नहीं जानते कि हमारे बोरों में हमारी चाँदी किसने रखी थी।''
23) उसने उत्तर दिया, निश्चिन्त रहो, घबराओ मत। तुम लोगों और तुम्हारे पिता के ईश्वर ने तुम्हारे बोरों में वह निधि रखी है। मुझे तो तुम्हारी चाँदी मिली थी।'' इसके बाद वह सिमओन को उनके पास लाया।
24) वह व्यक्ति उन लोगों को यूसुफ़ के घर ले गया, उसने उन्हें पैर धोने के लिए पानी दिया और उनके गधों को भी चारा दिलवाया।
25) उन लोगों ने यूसुफ़ के लिए, जो दोपहर को आने वाला था, उपहार तैयार रखे; क्योंकि उन्होंने सुन लिया था कि उन्हें वहीं भोजन करना हैं।
26) जब यूसुफ़ घर आया, तब वे अपने साथ लाये हुए उपहार उसके पास ले गये और उन्होंने उसे भूमि पर झुक कर प्रणाम किया।
27) उसने उनका कुशल-क्षेम पूछते हुए कहा, ''क्या तुम्हारे वृद्ध पिता, जिनके बारे में तुमने मुझ से कहा था, सकुशल हैं? क्या वह अब तक जीवित हैं?''
28) उन्होंने उत्तर दिया, ''आपके दास, हमारे पिता सकुशल हैं। वह अब तक जीवित हैं।'' यह कह कर उन्होंने अपने सिर झुका कर प्रणाम किया।
29) यूसुफ़ ने अपनी आँखें ऊपर उठा कर जब अपने सगे भाई बेनयामीन को देखा, तो पूछा, ''क्या यही तुम्हारा सबसे छोटा भाई हैं, जिसके बारे में तुमने मुझ से कहा था?'' और फिर कहा, ''पुत्र! ईश्वर की तुम पर कृपा बनी रहे!''
30) अपने भाई को देख कर यूसुफ़ का हृदय द्रवित हो उठा। वह जल्दी बाहर जा कर एकान्त में रोने लगा।
31) फिर वह अपने मुँह धो कर वापस आया और अपने मन को वश में रख कर उसने भोजन परोसने की आज्ञा दी।
32) उसे अलग परोसा गया, उन लोगों के लिए अलग और जो उसके साथ खाने वाले मिस्री लोग थे, उनके लिए भी अलग; क्योंकि मिस्री इब्रानियों के साथ भोजन नहीं करते। मिस्री लोग ऐसा करना घृणित समझते हैं।
33) यूसुफ़ के सामने ही उसके भाई अपनी-अपनी अवस्था के क्रम से बिठाये गये-सब से बड़ा पहले, सबसे छोटा सब से पीछे। इस पर वे आश्चर्य से एक दूसरे की ओर देखने लगे।
34) उसकी मेज से थाली ले जा कर उन लोगों को परोसा गया, परन्तु बेनयामीन का हिस्सा बाकी लोगों से पाँच गुना था। वे यूसुफ़ के साथ खा-पी कर तृप्त हो गये।

अध्याय 44

1) इसके बाद यूसुफ़ ने अपने घर के प्रबन्धक को यह आज्ञा दी, ''इन लोगों के बोरों में उतना अनाज भर दो जितना ये लोग ले जा सकें और प्रत्येक की चाँदी उसके अपने बोरे के ऊपरी भाग में रख दो।
2) मेरा चाँदी का प्याला सब से छोटे भाई के बोरे में, उसके अनाज की चाँदी के साथ रख दो।''
3) उसने यूसुफ़ की आज्ञा का पालन किया। पौ फटने पर उन लोगों को अपने गधों के साथ विदा किया गया।
4) अभी वे नगर से थोड़ी ही दूर पहुँचे थे कि यूसुफ़ ने अपने घर के प्रबन्ध को आज्ञा दी, ''उन आदमियों का तुरन्त पीछा करों। तब वे तुम को मिले तो तुम यह कहा, 'तुम लोगों ने भलाई के बदले बुराई क्यों की? तुम मेरा चाँदी का प्याला क्यों चुरा लाये?
5) यह मेरे स्वामी के पीने का प्याला हैं, इस से वह सगुन विचारते हैं। तुमने जो किया, वह बुरा है'।''
6) जब वह उन लोगों के पास पहुँचा, उसने उन से यही बातें कहीं।
7) उन्होंने उसे उत्तर दिया, ''महोदय! आप इस प्रकार की बातें क्यों कर रहे हैं? आपके ये दास ऐसा कभी नहीं कर सकते।
8) देखिए, जो चाँदी हमारे बोरों में ऊपर ही रखी गयी थी, उसे ही हम कनान से आपके पास ले आये, फिर हम आपके स्वामी के घर से चाँदी सोना क्यों चुराने लगे?
9) यदि वह आपके इन दासों में से किसी के पास निकले, तो उसे मृत्युदण्ड मिले और हम आपके दास हो जायें।''
10) उसने कहा, ''तुम्हारा कहना ठीक है, लेकिन वह जिसके पास निकलेगा, केवल वही मेरा दास होगा। शेष निर्दोष माने जायेंगे।''
11) फिर प्रत्येक ने जल्दी से अपना बोरा नीचे उतारा और उसका मुँह खोला।
12) उसने सबसे बड़े के बोरे से ले कर सब से छोटे तक के सभी बोरों की तलाश की और तब वह प्याला बेनयामीन के बोरे में मिला।
13) इस पर उन्होंने अपने-अपने वस्त्र फाड़ डाले। वे फिर अपने गधों को लाद कर नगर लौट गये।
14) जब यूदा और उसके भाई यूसुफ़ के घर पहुँचे, तब वह वहीं था। वे उसके पैर पड़ने लगे।
15) यूसुफ़ ने उन से कहा, ''तुमने यह क्या किया है? क्या तुम्हें यह नहीं मालूम था कि मेरे-जैसा व्यक्ति सगुन विचारता हैं?''
16) यूदा ने कहा, ''हम अपने स्वामी से क्या कहें? हम अपने को निर्दोष प्रमाणित करने के लिए क्या बोलें? ईश्वर ने ही आपके इन दासों का अपराध प्रकट कर दिया है। हम अपने स्वामी के दास हो गये हैं - हम और वह भी, जिसके पास वह प्याला पाया गया है।''
17) उसने कहा, ''नहीं, मैं ऐसा कभी नहीं करूँगा। केवन वही, जिसके पास वह प्याला पाया गया है, मेरा दास होगा। बाकी लोग अपने पिता के पास सुरक्षित जा सकते हैं।''
18) इस पर यूदा ने यूसुफ़ के पास जा कर कहा, ''महोदय! मुझे आज्ञा दें। मैं आप से एक निवेदन करना चाहता हूूँ। आप मुझ पर क्रोध न करें। आप तो फिराउन के सदृश हैं।
19) महोदय ने हम लोगों से यह प्रश्न किया था कि 'क्या तुम लोगों के पिता और भाई भी है?'
20) और हमने उत्तर दिया था, 'हम लोगों के एक वृद्ध पिताजी हैं और उनके एक किशोर पुत्र है, जिसका जन्म उनकी वृद्धावस्था में हुआ है। उस लड़के का सगा भाई मर गया है; वह अपनी माता की एकमात्र जीवित सन्तान है और उसके पिता उसे प्यार करते हैं।'
21) आपने हम से कहा था, 'उसे मेरे पास ले आओ; मैं उसे देखना चाहता हूँ'।
22) हमने अपने स्वामी से कहा कि वह लड़का अपने पिता को नहीं छोड़ सकता। यदि वह अपने पिता से अलग हो जायेगा, तो उसके पिता मर जायेंगे।
23) तब आपने हम, अपने दासों, से कहा, 'यदि तुम्हारा कनिष्ठ भाई तुम्हारे साथ नहीं आयेगा, तो तुम्हें मुझ से फिर मिलने की अनुमति नहीं मिलेगी'।
24) इसलिए हमने आपके दास, अपने पिता, के पास जाकर उन्हें ये बातें बतायीं
25) जब हमारे पिता ने हम से कहा, 'फिर अनाज खरीदने जाओ',
26) तो हमने उत्तर दिया, 'हम नहीं जा सकते। जब तक हमारा कनिष्ठ भाई हमारे साथ नहीं हो, तब तक हम नहीं जायेंगे; क्योंकि यदि हमारा कनिष्ठ भाई हमारे साथ नहीं होगा, तो हमें उस मनुष्य से मिलने की अनुमति नहीं मिलेगी।'
27) इस पर आपके दास हमारे पिता ने हम से कहा, 'तुम जानते ही हो कि अपनी पत्नी से मुझे दो ही पुत्र हुए हैं।
28) एक मुझे छोड़ कर चला गया और मेरा अनुमान है कि किसी जानवर ने उसे टुकडे+-टुकड़े कर दिया है; क्योंकि आज तक मैंने उसे फिर कभी नहीं देखा।
29) यदि तुम इसे भी मुझ से ले जाओगे और यह किसी विपत्ति का शिकार होगा, तो तुम मुझ पके बाल वाले को शोक से मार कर अधोलोक पहुँचा दोगे।'
30) (३०-३१) इसलिए यदि अब मैं, आपका दास, अपने पिता के पास पहुँच जाता और यह लड़का हमारे साथ न होता, तो उसे न देख कर हमारे पिता निश्चय ही मर जाते; क्योंकि उनका जीवन इस लड़के पर निर्भर है और हम, आपके ये दास, पके बाल वाले आपके दास अपने पिता को शोक के साथ अधोलोक पहुँचाते।
32) मैं, आपका दास, अपने पिता से यह कहते हुए इस लड़के का उत्तरदायी बना कि यदि मैं इसे आपके पास सुरक्षित न ला सका, तो मैं आपके प्रति आजीवन दोषी बना रहूँगा।
33) इसलिए मैं आप से प्रार्थना करता हूँ कि आप इस लड़के के बदले मुझे, अपने इस दास को, अपना दास बना लें और इस लड़के को इसके भाइयों के साथ घर जाने दें।
34) इस लड़के के बिना मैं अपने पिता के पास कैसे लौट सकता हूँ? मैं अपने पिता पर आने वाली विपत्ति नहीं देखना चाहता।''

अध्याय 45

1) अब यूसुफ़ अपने परिचरों के सामने अपने को वश में नहीं रख सका और पुकार कर उन से बोला, ''सब-के-सब बाहर जाओ''। तो वहाँ कोई और व्यक्ति नहीं था जब यूसुफ़ ने अपने भाइयों को अपना परिचय दिया।
2) किन्तु वह इतने जोर से रोने लगा कि मिस्रियों ने उसका रोना सुन लिया और फिराउन के महल में भी इसकी ख़बर पहुँच गयी।
3) यूसुफ़ ने अपने भाइयों से कहा, मैं यूसुफ़ हूँ। क्या मेरे पिताजी अब तक जीवित हैं?'' उसके भाई यूसुफ़ को देख कर इतने घबरा गये कि वह उत्तर में एक शब्द भी नहीं बोल सके।
4) यूसुफ़ ने अपने भाइयों से कहा, ''मेरे और निकट आ जाओ'' और वे उसके पास आये उसने कहा, ''मैं तुम्हारा भाई यूसुफ़ हूँ, जिसे तुमने मिस्र में बेच दिया था।
5) अब तुम इसलिए न तो शोक करो और न अपने को धिक्कारो कि तुमने मुझे यहाँ बेच दिया; क्योंकि ईश्वर ने तुम्हारे प्राण बचाने के लिए मुझे तुम से पहले यहाँ भेजा।
6) इस देश में दो वर्ष से अकाल पड़ रहा है और अभी पाँच वर्ष शेष हैं, जिन में न हल जोता जायेगा और न ही फ़सल काटी जा सकेगी।
7) किन्तु ईश्वर ने तुम्हारे पहले ही मुझे भेज दिया था, जिससे देश में तुम्हारे लिए अन्न सुरक्षित रहे और बहुत-से लोगांें के प्राण बच जायें।
8) तुमने मुझे यहाँ नहीं भेजा, स्वयं ईश्वर ने भेजा। उसने मुझे फिराउन का पिता, उनके समस्त घर का स्वामी और सारे मिस्र देश का शासक बना दिया।
9) ''मेरे पिता के पास शीघ्र ही जा कर उन से कहो कि आपके पुत्र यूसुफ़ ने यह कहला भेजा है कि ईश्वर ने मुझे सारे मिस्र का शासक बनाया है। मेरे पास तुरन्त आइये।
10) आप गोशेन प्रदेश में बस जायेंगे और इस तरह मेरे निकट रहेंगे - आप, आपके पुत्र, आपके पोते, आपकी भेड़-बकरियाँ, आपकी गाय और आपका सब कुछ।
11) मैं वहाँ आपकी जीविका का प्रबन्ध कर दूँगा, जिससे अकाल के आगामी पाँच वर्षों में न आप को, न आपके परिवार और न आपके साथ रहने वालों को किसी बात की कमी हो।
12) तुम लोग और मेरा भाई बेनयामीन अपनी आँखों से देख रहे हो कि मैं यूसुफ़ हूँ, जो तुम से बोल रहा है।
13) मिस्र में मेरा सम्मान और तुमने जो कुछ देखा है, इसके विषय में मेरे पिता को बताओ और मेरे पिता को शीघ्र ही ले आओ।''
14) फिर वह अपने भाई बेनयामीन को गले लगा कर रोया और बेनयामीन भी उसकी छाती से लिपट कर रोया।
15) इसके बाद उसने अपने सब भाइयों का चुम्बन लिया और रोते हुए उन को गले लगाया। तब उसके भाई उस से बातें करने लगे।
16) फिराउन के महल में भी यह ख़बर पहुँच गयी की यूसुफ़ के भाई आये हैं। इस से फिराउन और उसके दरबारियों को प्रसन्नता हुई।
17) फिराउन ने यूसुफ़ से कहा, ''अपने भाइयों से कहो कि अपने पशुओं को लाद कर कनान देश वापस जाओ।
18) अपने पिता और अपने परिवार के लोगों को मेरे यहाँ ले आओ। मैं तुम्हें मिस्र देश की अच्छी-से-अच्छी चीजें दूँगा और तुम्हें देश की अच्छी-से-अच्छी चीजें खाने को मिलेंगी।
19) उन्हें यह भी आदेश दो कि अपने बाल-बच्चों और पत्नियों के लिए मिस्र देश से कुछ गाड़ियाँ लेते जाओ और अपने पिता के साथ आ जाओ।
20) अपने यहाँ की जायदाद की कोई विशेष चिन्ता मत करना, क्योंकि मिस्र देश की सभी अच्छी-से-अच्छी चीजें+ तुम्हारी ही हैं।''
21) इस्राएल के पुत्रों ने ऐसा ही किया। फिराउन की आज्ञा मिलने पर यूसुफ़ ने उन्हें गाड़ियाँ दी और उन्हें रास्ते के लिए रसद भी दिया।
22) फिर उसने सब को एक एक नया वस्त्र दिया, परन्तु बेनयामीन को उसने तीन सौ चाँदी के शेकेल और पाँच नये वस्त्र दिये।
23) उसने अपने पिता के लिए मिस्र की अच्छी-से-अच्छी चीजों से लदे हुए दस गधे और अपने पिता की यात्रा के लिए अनाज और रसद से लदी दस गधियाँ भेजीं।
24) इसके बाद उसने अपने भाईयों को विदा किया। जब वे जाने लगे, तो उसने उन्हें चेतावनी दी कि वे यात्रा में झगड़ा नहीं करें।
25) वे मिस्र से चल कर अपने पिता याकूब के पास कनान देश आये।
26) उन्होंने उस से कहा, ''यूसुफ़ अब तक जीवित है। वह सारे मिस्र देश का शासक है।'' यह सुनते ही वह सुन्न रह गया और उसे उन पर विश्वास नहीं हुुआ।
27) लेकिन जब उन्होंने उस से यूसुफ़ की सारी बातें कही और जब उसने यूसुफ के द्वारा उसे ले जाने के लिए भेजी हुई गाड़ियाँ देखीं, तब उनके पिता याकूब को ऐसा लगा, जैसे उसे फिर से प्राण मिल गये हों।
28) इस्राएल बोल उठा, ''बस, अब विश्वास है कि मेरा पुत्र यूसुफ़ अब तक जीवित है। मैं जा कर उसे अपने मरने से पहले देखूँगा।''

अध्याय 46

1) इस्राएल ने अपनी समस्त सम्पत्ति के साथ प्रस्थान किया और बएर-शेबा पहँुच कर अपने पिता इसहाक के ईश्वर को बलि चढ़ायी।
2) ईश्वर ने रात को एक दिव्य दर्शन में इस्राएल से कहा, ''याकूब! याकूब!'' और उसने उत्तर दिया, ''मैं प्रस्तुत हूँ।''
3) तब ईश्वर ने कहा, ''मैं ईश्वर, तुम्हारे पिता का ईश्वर हूँ। मिस्र देश जाने से मत डरो, क्योंकि मैं वहाँ तुम्हारे द्वारा एक महान् राष्ट्र उत्पन्न करूँगा।
4) मैं स्वयं तुम्हारे साथ मिस्र देश जाऊँगा और तुम को फिर वहाँ से निकाल लाऊँगा। यूसुफ़ तुम्हारे मरने पर तुम्हारी आँखें बन्द कर देगा।''
5) याकूब बएर-शेबा से चला गया। इस्राएल के पुत्रों ने अपने पिता याकूब, अपने छोटे बच्चों और अपनी पत्नियों को उन रथों पर चढ़ाया, जिन्हें फिराउन ने उन्हें ले आने के लिए भेजा था।
6) वे अपना पशुधन और जो कुछ उन्होंने कनान में एकत्र किया था, वह सब अपने साथ ले गये। याकूब अपने सब वंशजों के साथ मिस्र देश पहँुचा।
7) वह अपने पुत्रों और पौत्रों, अपनी पुत्रियाँ और अपनी पौत्रियों, अपने सब वंशजों को मिस्र ले आया।
8) जो इस्राएली, अर्थात्, याकूब और उसके वंशज मिस्र आये, उनके नाम इस प्रकार हैः याकूब का पहलौठा रूबेन।
9) रूबेन के पुत्र हनोक, पल्लू, हेस्रोन और करमी। सिमओन के पुत्र यमूएल, यामीन, ओहद, याकीन,
10) सोहर और कनानी पत्नी से उत्पन्न शौल।
11) लेवी के पुत्र गेरशोन, कहात और मरारी।
12) यूदा के पुत्र एर, ओनान, शेला, पेरेस और जेरह; लेकिन एर और ओनान कनान में ही मर चुके थे। पेरेस के पुत्र हेस्रोन और हामूल।
13) इस्साकार के पुत्र तोला, पुव्वा, याशूब और शिम्रोन।
14) ज+बुलोन के पुत्र सेरेद, एलोन और यहलएल।
15) ये लेआ के पुत्र थे, जो पद्दन-अराम में याकूब को हुए थे। इनके सिवा उसकी पुत्री दीना। इन सभी पुत्र-पुत्रियों की संख्या तैंतीस थी।
16) गाद के पुत्र सफोन, हग्गी, शूनी, एसबोन, एरी, अरोदी और अरएली।
17) आशेर के पुत्र यिमना, यिश्वा, यिश्वी, बरीआ और इनकी बहन सेरह। बरीआ के पुत्र हेबेर और मलकीएल।
18) ये उस जिलपा के पुत्र थे, जिसे लाबान ने अपनी पुत्री लेआ को दिया था। याकूब से उसे सोलह पुत्र हुए।
19) याकूब की पत्नी राहेल के पुत्र यूसुफ़ और बेनयामीन।
20) मिस्र देश में यूसुफ़ के मनस्से और एफ्राईम नामक पुत्र हुए। ये ओन के याजक पोटी-फेरेअ की पुत्री आसनत से उत्पन्न हुए थे।
21) बेनयामीन के पुत्र बेला, बेकेर, अशबेल, गेरा, नामान, एही, रोश, मुप्पीम और अर्द।
22) ये राहेल के पुत्र हैं, जो याकूब से उसे उत्पन्न हुए। इनकी कुल संख्या चौदह थी।
23) दान का पुत्र हुशीम।
24) नफ्ताली के पुत्र यहसएल, गूनी, यसेर और शिल्लेम।
25) ये उस बिल्हा के पुत्र थे, जिसे लाबान ने अपनी पुत्री राहेल को दिया था। याकूब से उसे सात पुत्र हुए।
26) याकूब के वंशज, जो उसके साथ मिस्र आये, उनकी कुल संख्या - उसके पुत्रों की पत्नियों को छोड़ कर - छियासठ थी।
27) यूसुफ़ के दो पुत्र मिस्र में पैदा हुए थे। इस प्रकार याकूब के घराने के सब व्यक्ति, जो मिस्र आये थे, कुल मिला कर सत्तर थे।
28) याकूब ने यूदा को अपने आगे भेज कर यूसुफ़ से निवेदन किया कि वह गोशेन में उस से मिलने आये।
29) जब वे गोशेन पहुँचे, तो यूसुफ़ आपना रथ माँगा कर अपने पिता इस्राएल से मिलने के लिए गोशेन गया। अपने पिता से मिल कर उसने उसे गले लगा लिया और उस से लिपट कर वह देर तक रोता रहा।
30) इस्राएल ने यूसुफ़ से कहा, ''अब तो मैं सुखपूर्वक मृत्यु की प्रतीक्षा करूँगा, क्योंकि मैं फिर तुम्हारे दर्शन कर सका और जान गया हूँ कि तुम जीवित हो।''
31) इसके बाद यूसुफ़ ने अपने भाइयों और अपने पिता के परिवार वलों से कहा, ''अब मैं जा कर फिराउन से यह कहूँगा कि मेरे भाई और मेरे पिता के घर के लोग, जो कनान देश में रहते थे, मेरे पास आ गये हैं।
32) वे लोग भेड़-बकरियाँ चराते थे और अपनी भेड़-बकरियाँ, अपनी गायें और अपना सामान ले आये हैं।
33) जब फिराउन तुम लोगों को बुलवा कर तुम से पूछें कि तुम लोग क्या काम करते हो,
34) तो तुम इस प्रकार उत्तर देना कि हम, आपके सेवक, बचपन से ढोर-डाँगर ही चराते आ रहे हैं। हम और हमारे पुरखे भी यही करते आये हैं। ऐसा इसलिए कहोगे, जिससे तुम गोशेन प्रान्त में ही रह सको, क्योंकि मिस्र के लोग सब भेड़-बकरियाँ चराने वालों को नीची दृष्टि से देखते हैं।''

अध्याय 47

1) फिराउन के पास जा कर यूसुफ़ ने उस से कहा, ''मेरे पिता और मेरे भाई कनान से अपनी भेडे+ें, गायें और सारा समान ले कर गोशेन प्रान्त आ गये हैं।''
2) उसने अपने भाइयों में से पाँच को ले कर उन को फिराउन के सामने प्रस्तुत किया।
3) फिराउन ने उसके भाइयों से पूछा, ''तुम लोग क्या काम करते हो?'' उन्होने फिराउन को उत्तर दिया, ''हम, आपके दास, अपने पूर्वजों के समान पशु चराते हैं।''
4) फिर उन्होंने फिराउन से कहा, ''हम, इस देश में कुछ समय तक ही रहने आये हैं, क्योंकि आपके दासों के पशुओं के चरने के लिए वहाँ कोई चरागाह नहीं रह गया और कनान देश में ज+ोरों का अकाल पड़ रहा है। आप कृपा कर अपने इन दासों को गोशेन प्रान्त में बसने दें।''
5) फिराउन ने यूसुफ़ से कहा, ''तुम्हारे पिता और तुम्हारे भाई तुम्हारे पास आ गये हैं।
6) मिस्र देश तुम्हारे सामने हैं। देश के सर्वोत्तम भाग में अपने पिता और अपने भाइयों को बसा दो। वे गोशेन प्रान्त में बस जायें और तुम उन में से जिस को योग्य समझते हो, उन्हें मेरे पशुधन का अधिकारी नियुक्त कर दो।''
7) इसके बाद यूसुफ़ अपने पिता याकूब को अन्दर ले गया और फिराउन के सामने प्रस्तुत किया। याकूब ने फिराउन को आशीर्वाद दिया।
8) तब फिराउन ने याकूब से पूछा, ''आपकी उम्र क्या हैं?''
9) याकूब ने फिराउन को उत्तर दिया, ''मैं अपने जीवन के एक सौ तीस वर्ष पूरा कर चुका हूँ। मेरे जीवन के ये वर्ष बहुत अधिक नहीं हैं और कष्ट में बीतें हैं। ये मेरे पूर्वजों के जीवनकाल के बराबर नहीं हैं।''
10) याकूब ने फिराउन को फिर आशीर्वाद दिया और फिराउन से विदा ले कर चला आया।
11) इसके बाद यूसुफ़ ने फिराउन की आज्ञा के अनुसार अपने पिता और अपने भाइयों को मिस्र देश के सर्वोत्तम भाग, रामसेस प्रान्त में बसा दिया।
12) यूसुफ़ ने अपने पिता, अपने भाइयों तथा अपने पिता के सारे परिवार के लोगों के लिए, उनकी संख्या के अनुसार, भोजन आदि का प्रबन्ध कर दिया।
13) घोर अकाल के कारण उस समय सारे देश में अनाज की कमी थी और इसलिए मिस्र और कनान, दोनों अकाल के कारण त्रस्त थे।
14) लोगों द्वारा अनाज ख़रीदे जाने के कारण मिस्र और कनान देश का सारा रूपया-पैसा यूसुफ़ के पास इकट्ठा हो गया था। यूसुफ़ ने उसे फिराउन के कोष में जमा कर दिया।
15) जब मिस्र और कनान देश के रूपये समाप्त हो गये, तब सब मिस्री यूसुफ़ के पास आ कर कहने लगे, ''हमारे पास पैसा नहीं रहा, लेकिन हमें खाना दीजिए। क्या हमें आपके सामने मरना पड़ेगा?''
16) यूसुफ़ ने उत्तर दिया, ''यदि तुम्हारे पास पैसा नहीं रहा, तो मुझे अपना पशुधन दे दो। मैं पशुओं के बदले तुम लोगों को अनाज दूँगा।''
17) इसलिए वे यूसुफ के पास अपना पशुध्न ले आये और यूसुफ ने उनके घोड़ों, भेड़-बकरियों, गायों और गधों के बदले उन्हें अनाज दिया। इस वर्ष उसने उनके सारे पशुधन के बदले अनाज दिया।
18) जब वह साल बीत गया, तो दूसरे साल वे फिर उसके पास आ कर कहने लगे, ''हम अपने स्वामी से यह बात नहीं छिपा सकते कि हमारा पैसा समाप्त हो गया हैं। हमारा पशुधन भी स्वामी को हो गया हैं। अब अपनी भूमि और शरीरों के सिवा हमारे पास और कुछ नहीं है।
19) क्या हम आपके सामने मर जायें और हमारी भूमि नष्ट हो जाये? आप अनाज के बदले हमें और हमारी भूमि ख़रीद लें। हम अपनी भूमि-सहित फिराउन के दास बन जायेंगे। हमें अन्न दीजिए, जिससे हम जीवित रह जायें, मरें नहीं और हमारी भूमि उजाड़ न हो जायें।''
20) यूसुफ़ ने फिराउन के लिए मिस्र की सारी भूमि ख़रीद ली, क्योंकि घोर अकाल पड़ने के कारण सब मिस्रवासियों ने अपने खेत बेच दिये। इस प्रकार सारी भूमि फिराउन की हो गयी।
21) उसने मिस्र के एक छोर से दूसरे छोर तक के सभी लोगों को दास बना लिया।
22) उसने केवल याजकों की भूमि नहीं ख़रीदी, क्योंकि याजकों को फिराउन से एक निश्चित राशि मिलती थी और वे फिराउन द्वारा निश्चित राशि से अपनी जीविका चलाते थे। इसलिए उन्हें अपनी भूमि नहीं बेचनी पड़ी।
23) यूसुफ़ ने लोगों से कहा, ''देखो, आज मैंने फिराउन के लिए तुम्हें अपनी भूमि-सहित ख़रीद लिया है। तुम्हें बीज दिया जायेगा और तुम उसे भूमि में बोओगे।
24) तुम्हें कटनी के समय फिराउन को पाँचवाँ भाग देना पडे+गा। शेष चार भाग, तुम्हारे खेतों के बीज के लिए, तुम्हारे और तुम्हारे घर वालों तथा बाल-बच्चों को खिलाने-पिलाने के लिए तुम्हारे होंगे।''
25) इस पर उन्होंने कहा, ''आपने हमारे प्राण बचा लिये हैं। आपकी कृपा बनी रहे; हम फिराउन के दास बने रहेंगे।''
26) इसलिए मिस्र की भूमि के सम्बन्ध में यूसुफ़ ने एक नियम बनाया, जो आज तक प्रचलित है : उपज का पंचमांश फिराउन का हैं। केवल याजकों की भूमि फिराउन की नहीं हुई।
27) इस्राएली लोग मिस्र देश के गोशेन प्रान्त में बस गये। उन्होने वहाँ ज+मीन-जायदाद प्राप्त कर ली; वे फलते-फूलते रहे और उनकी संख्या बहुत अधिक हो गयी।
28) याकूब मिस्र देश में सत्रह वर्ष और जीवित रहा। इस प्रकार याकूब कुल मिला कर एक सौ सैंतालीस वर्ष जीता रहा।
29) जब इस्राएल के मरने का समय निकट आया, तो उसने अपने पुत्र यूसुफ़ को बुलवा कर उस से कहा, ''यदि तुम्हारे हृदय में मेरे लिए स्थान है, तो मेरी जाँघ के नीचे अपना हाथ रख कर शपथ खाओ कि तुम मेरे प्रति ईमानदार और सच्चे बने रहोगे। तुम मुझे मिस्र में नहीं दफ़नाना।
30) जब मैं अपने पूर्वजों की तरह मर जाऊँ, तो मुझे मिस्र से ले जा कर उन्हीं के समाधि-स्थान में दफ़नाना।'' उसने उत्तर दिया, ''आपने जैसा कहा है, वैसा ही करूँगा।''
31) उसने कहा, ''इसकी शपथ खओ।'' इस पर उसने शपथ खायी। फिर इस्राएल अपने पलंग के सिरहाने पर लेट गया।

अध्याय 48

1) कुछ समय बाद यूसुफ़ को ख़बर मिली कि उसका पिता बीमार हैं। इसलिए वह अपने दोनों पुत्रों, मनस्से और एफ्रईम को वहाँ ले गया।
2) याकूब को यह सूचना दिलायी गयी, ''आपका पुत्र यूसुफ़ आपके पास आ गया है''।
3) तब इस्राएल ज+ोर लगा कर पलंग पर उठ बैठा। याकूब ने यूसुफ़ से कहा, ''सर्वशक्तिमान् ईश्वर ने कनान देश के लूज के पास मुझे दर्शन दिये थे और आशीर्वाद देते हुए
4) मुझ से कहा था, 'मैं तुम्हें सन्तति प्रदान करूँगा और तुम्हारे वंशजों की संख्या इतनी बढ़ाऊँगा कि तुम कई राष्ट्रों के मूलपुरुष बनोगे। मैं तुम्हारे बाद तुम्हारे वंशजों को यह देश सदा के लिए प्रदान करूँगा।
5) मेरे मिस्र आने के पहले मिस्र देश में पैदा हुए तुम्हारे दोनोें पुत्र मेरे ही पुत्र माने जायेंगे। जैसे रूबेन और सिमओन मेरे पुत्र हैं, वैसे एफ्रईम और मनस्से भी मेरे ही पुत्र होंगे।
6) इन दोनों के बाद तुम्हें जो पुत्र उत्पन्न होंगे, वे तुम्हारे ही पुत्र होंगे। उनके भाइयों के नाम जो क्षेत्र निर्धारित होगा, उसी में से उन्हें विरासत मिलेगी।
7) पद्दन से आते समय, कनान देश में, जब मैं एफ्रात से कुछ दूर था, तो मुझे दुःखी छोड़ कर राहेल परलोक सिधारी और मैंने उसे वहीं एफ्रात के, अर्थात् बेतलेहेम के मार्ग के पास दफ़नाया।''
8) जब इस्राएल ने यूसुफ़ के पुत्रों को देखा, तो पूछा, ''ये कौन है?''
9) यूसुफ़ ने अपने पिता को उत्तर दिया, ''ये मेरे पुत्र हैं, जिन्हें ईश्वर ने मुझे यहाँ दिया है।'' तब उसने कहा, ''उन्हें मेरे पास ले आओ; मैं उन्हें आशीर्वाद दूँगा''।
10) बुढ़ापे के कारण इस्राएल की आँखें धुँधली पड़ गयी थीं, इसलिए उसे साफ़ दिखई नहीं देता था। तब वह उन्हें उसके निकट ले गया। उसने उनका चुम्बन किया और गले लगाया।
11) इस्राएल ने यूसुफ़ से कहा, ''मुझे आशा नहीं थी कि मैं तुम्हें फिर देख सकूँगा, परन्तु ईश्वर की कृपा से मैं तुम्हारे बाल-बच्चों को भी देख रहा हूँ।''
12) इस पर यूसुफ़ ने उन्हें उसकी गोद से अलग कर और भूमि पर झुक कर उसे प्रणाम किया।
13) अब यूसुफ़ दोनों को, एफ्रईम को अपने दाहिने अर्थात् याकूब के बायें और मनस्से को अपने बायें अर्थात् याकूब के दाहिने, ले कर याकूब के पास लाया।
14) तब इस्राएल ने अपना दाहिना हाथ बढ़ा कर उसे छोटे पुत्र एफ्रईम के सिर पर रखा और अपना बायाँ हाथ पहलौठे मनस्से के सिर पर रखा।
15) उसने यूसुफ़ से यह कहते हुए आशीर्वाद दिया, ''ईश्वर, जिसके मार्ग पर मेरे पुरखे इब्राहीम और इसहाक चलते थे, वह ईश्वर, जो जन्म से ले कर आज तक मेरा रक्षक रहा हैं, वह दूत, जिसने मुझे प्रत्येक विपत्ति से बचाया हैं,
16) इन बच्चों को भी आशीर्वाद दे। इन्हीं से मेरा नाम और मेरे पुरखे इब्राहीम और इसहाक के नाम चलते रहें। वे पृथ्वी पर फलते-फूलते रहें और उनके वंशजों की संख्या बढ़ती जाये।''
17) जब यूसुफ़ ने देखा कि उसके पिता ने अपना दाहिना हाथ एफ्रईम के सिर पर रखा है, तो उसे यह अच्छा नहीं लगा। वह अपने पिता का हाथ पकड कर उसे एफ्रईम के सिर पर से हटाना और मनस्से के सिर पर रखना चाहता था।
18) यूसुफ़ ने अपने पिता से कहा, ''पिताजी ऐसा मत कीजिए। यह मेरे पहलौठा पुत्र हैं, इसलिए अपना दाहिना हाथ इसके सिर पर रखिए।''
19) लेकिन पिता ने अस्वीकार करते हुए कहा, ''मैं जानता हूँ, मैं जानता हूँ बेटा! वह भी एक राष्ट्र उत्पन्न करेगा और वह भी महान् बनेगा, लेकिन उसका छोटा भाई उससे अधिक महान् होगा और उसके वंशजों से राष्ट्रों का समूह उत्पन्न होगा।''
20) इसलिए उसने यह कहते हुए उन्हें उस दिन आशीर्वाद दिया, ''इस्राएली लोग तुम्हारा नाम ले कर ऐसा आशीर्वाद दिया करेंगे कि 'ईश्वर तुम को एफ्रईम और मनस्से के समान बनायें!'' इस तरह उसने एफ्रईम को मनस्से से पहले रखा।
21) इसके बाद इस्रएल ने यूसुफ़ से कहा, ''मेरी मृत्यु निकट है। परन्तु ईश्वर तुम्हारे साथ रहेगा और तुम लोगों को अपने पूर्वजों के देश में फिर वापस ले जायेगा।
22) मैं तुम को तुम्हारे सब भाइयों के बीच सब से अधिक भूमि देता हूँ, जो मैंने अपनी तलवार और धनुष के बल अमोरियों से ली थी।

अध्याय 49

1) तब याकूब ने अपने पुत्रों को बुला कर कहा, ''एकत्रित हो जाओ। मैं तुम लोगों को बताऊँगा कि भविष्य में तुम पर क्या बीतेगी।
2) ''याकूब के पुत्रो! एकत्र हो जाओ और सुनो। अपने पिता इस्राएल की बातों पर ध्यान दो।
3) ''रूबेन! तुम मेरे पहलौठे हो, मेरे सामर्थ्य और मेरे पौरूष के प्रथम फल। तुम्हें सम्मान और सामर्थ्य में श्रेष्ठ होना चाहिए,
4) किन्तु तुम जलप्रवाह की तरह उद्दण्ड हो। तुुम श्रेष्ठ नहीं होगे! क्योंकि तुम अपने पिता की शय्या पर सोये, तुमने अपने पिता की शय्या को अपवित्र किया।
5) ''सिमओन और लेवी सहोंदर भाई हैं, उनकी तलवारें हिंसा के शस्त्र हैं।
6) मैं उनकी बैठक में उपस्थित नहीं होऊँगा, मैं उनकी सभा में सम्मिलित नहीं होऊँगा। उन्होंने क्रोध में आ कर मनुष्यों का वध किया और अपने उन्माद में साँड़ों को पंगु बनाया है।
7) उनके प्रचण्ड क्रोध को धिक्कार! मैं याकूब के देश में उन्हें बिखेर दूँगा, इस्राएल में उन्हें तितर-बितर करूँगा।
8) यूदा! तुम्हारे भाई, तुम्हारी प्रशंसा करेंगे। तुम्हारा हाथ शत्रुओं की गरदन दबोच देगा और तुम्हारे पिता के पुत्र तुम्हें दण्डवत् करेंगे।
9) यूदा युवा सिंह के सदृश है। पुत्र! तुम शिकार कर लौटते हो। वह पशुराज सिंह की तरह, सिंहनी की तरह, झुक कर बैठा है; उसे उत्तेजित करने का साहस कौन करेगा?
10) राज्याधिकार यूदा के पास से तब तक नहीं जायेगा, राजदण्ड उसके वंश के पास तब तक रहेगा, जब तक उस पर अधिकार रखने वाला न आयें। सभी राष्ट्र उसकी अधीनता स्वीकार करेंगे।
11) वह अंगूर के पेड़ में अपने गधा बाँधेगा, उसकी गदही का बछड़ा अंगूर की सुन्दर लता में। वह अंगूरी में अपने वस्त्र, अंगूर के रक्त में अपना परिधान धोयेगा।
12) उसकी आँखें अंगूरी से अधिक लाल और उसके दाँत दूध से अधिक उज्जवल होंगे।
13) ''जबुलोन समुद्रतट पर बसेगा, जहाँ जलयान आते-जाते रहेंगे। उसके सीमान्त सीदोन तक फैलेंगे।
14) ''इस्साकार एक बलवान् गधा है, जो दो बाड़ों के बीच लेटता है।
15) जब वह देखेगा कि विश्रामस्थान अच्छा है और देश रमणीय है, तो वह बोझ उठाने के लिए कन्धा झुकायेगा और बेगार करना स्वीकार करेगा।
16) ''दान अपनी प्रजा को न्याय दिलायेगा, वह इस्राएल के वंशों में से एक है।
17) दान मार्ग में पड़ा हुआ साँप, पथ के किनारे पड़ा हुआ नाग होगा, जो घोडे+ की एड़ी काटेगा, जिससे घुड़सवार पीछे की ओर गिरेगा।
18) प्रभु! मैं तेरे उद्धार की राह देखता हूँ।
19) ''जब छापामार गाद पर आक्रमण करेंगे, तो वह उन पर पीछे से टूट पड़ेगा।
20) ''आशेर का भोजन पुष्टिकर होगा, वह राजकीय स्वादिष्ट खाद्य तैयार करेगा।
21) नफ्ताली स्वच्छन्द विचरने वाली हरिणी है, उसके हिरनौटे सुन्दर हैं।,
22) ''यूसुफ़ एक युवा साँड़ है, जलस्रोत के पास रहने वाला युवा साँड़। वह चारागाह की दीवार लाँघ जाता है।
23) धनुर्धारियों ने उस पर उग्र आक्रमण किया; उन्होंने उस पर अत्याचार किया।
24) लेकिन याकूब के सर्वशक्तिमान् के सामर्थ्य के करण, इस्राएल की चट्टान और उसके चरवाहे के नाम के कारण, यूसुफ़ का धनुष सुदृढ़ रहा और उसकी समर्थ भुजाएँ तत्पर।
25) तुम्हारे पिता का ईश्वर तुम्हारी सहायता करेगा, सर्वशक्तिमान् तुम्हें आशीर्वाद प्रदान करेगा। तुम्हें ऊपर के आकाश के वरदान मिलेंगे, नीचे की गहराइयों के वरदान और दूध-पूत के वरदान।
26) तुम्हारे पिता के वरदान प्राचीन पर्वतों के वरदानों से और चिरस्थायी पहाड़ियों के वरदानों से श्रेष्ठ हैं। ये समस्त वरदान यूसुफ के सिर पर ठहरें, उसी के ललाट पर, जो अपने भाइयों में प्रभु का कृपापात्र है।
27) ''बेनयामीन एक रक्त-पिपासु भेड़िया है। सबेरे वह अपने शिकार भकोसता है और शाम को लूटा हुआ माल बाँटता हैं।''
28) यही इस्राएल के बारह कुल और यही उनके पिता के आशीर्वचन हैं। उसने प्रत्येक को उसके योग्य आशीर्वाद दिया।
29) याकूब ने अपने पुत्रों को यह आदेश दिया, ''मैं शीघ्र ही अपने पितरों में सम्मिलित हो जाऊँगा। मुझे मेरे पूर्वजों के साथ एफ्रोन नामक हित्ती के खेत की गुफा में दफ़नाओ।
30) वह गुफा कनान देश में मामरे के पूर्व मकपेला के खेत में हैं।
31) इब्राहीम ने उसे निजी मक़बरे के लिए एफ्रोन हित्ती से ख़रीदा था।
32) वहाँ इब्राहीम और उनकी पत्नी दफ़नाये गये, वहाँ इसहाक और उनकी पत्नी रिबेका दफ़नाये गये और वहाँ मैंने लेआ को दफ़नाया।''
33) जब याकूब अपने पुत्रों को अन्तिम आदेश दे चुका, तब उसने अपनी शय्या पर अपने पैर समेट लिये और अपनी अन्तिम साँस ले कर अपने पूर्वजों से जा मिला।

अध्याय 50

1) यूसुफ़ अपने पिता के शरीर पर लेट कर रोने लगा और उसने उसका चुम्बन किया।
2) यूसुफ़ ने वैद्यों को अपने पिता के शव का मसालों से लेपन करने का आदेश दिया। इसलिए वैद्यों ने इस्राएल के शव को मसालों से लेपन किया।
3) इस में चालीस दिन लग गये, क्योंकि शव की सुरक्षा की पद्धति पूर्ण करने के लिए इतना समय आवश्यक था। मिस्रियों ने सत्तर दिन तक उसका शोक मनाया।
4) शोक का समय बीतने पर यूसुफ़ ने फिराउन के दरबारियों से कहा, ''यदि आप लोग मुझे अपना कृपापात्र समझते हैं, तो मेरे लिए फिराउन से यह निवेदन कीजिए कि
5) मेरे पिता ने यह कहते हुए मुझ से शपथ ली थीः 'मैं मरने वाला हूँ। मैंने अपने लिए कनान देश में जो कब्र बनवायी है, उसी में तुम मुझे दफ़नाना।' इसलिए अब मुझे वहाँ जाने की आज्ञा दिलवाइए, जिससे मैं वहाँ जा कर अपने पिता को दफ़नाऊँ। उसके बाद मैं लौट आऊँगा।''
6) फ़िराउन ने उत्तर दिया, ''तुम वहाँ जा कर अपने पिता को दफ़नाओ, जैसी कि उन्होंने तुम से शपथ खिलायी थी।''
7) यूसुफ़ अपने पिता को दफ़नाने वहाँ गया। उसके साथ फिराउन के समस्त पदाधिकारी, उसके दरबारी और मिस्र के सब गण्य-मान्य व्यक्ति गये।
8) इसी प्रकार यूसुफ़ के सब घर वाले, उसके भाई और उसके पिता के सब घर वाले गये। गोशेन प्रान्त में केवल उनके बाल-बच्चे, उनकी भेड़-बकरियाँ और उनके बैल और गायें रह गयीं।
9) उसके साथ रथ और घुड़सवार भी गये। इस प्रकार एक विशाल जनसमूह साथ हो गया।
10) यर्दन के दूसरे किनारे पर स्थित आटाद के खलिहान पहुँच कर उन्होंने बहुत शोक मनाया। यूसुफ़ ने अपने पिता के लिए सात दिन शोक मनाया।
11) उस देश के निवासी कनानियों ने जब आटाद के खलिहान में शोक मनाये जाते हुए देखा, तो वे कहने लगे, ''मिस्री यह शोक बड़े समारोह से मनाते हैं।'' इसलिए उस स्थान का नाम आबेल-मिस्रयीम पड़ गया। यह यर्दन के उस पार है।
12) इस प्रकार याकूब के पुत्रों ने उसकी आज्ञा के अनुसार सब कुछ किया,
13) अर्थात् उसके पुत्र उसे कनान देश ले गये और उन्होंने उसे मकपेला की भूमि में स्थित उस गुफा में दफ़ना दिया, जो मामरे के पूर्व में है और जो इब्राहीम ने इसकी भूमि सहित हित्ती एफ्रोन से समाधि-स्थान बनाने के लिए ख़रीदी थी।
14) अपने पिता का दफ़न करने के बाद यूसुफ़ अपने भाइयों तथा उन सब को ले कर लौटा, जो उसके पिता के दफ़न के लिए उसके साथ गये थे।
15) यूसुफ़ के भाई अपने पिता के देहान्त के बाद आपस में कहने लगे, ''हो सकता हैं कि यूसुफ़ हम से बैर करे और हमने उसके साथ जो बुराई की है, उसका बदला चुकाये।''
16) इसलिए उन्होंने यूसुफ़ के पास यह सन्देश भेजा,
17) ''मरने से पहले आपके पिताजी ने आप को यह सन्देश कहला भेजा था - ''तुम्हारे भाइयों ने तुम्हारे साथ अन्याय किया है। मेरा निवेदन है कि तुम अपने भाइयों का अपराध और पाप क्षमा कर दो।'' इसलिए आप अपने पिता के ईश्वर के सेवकों के अपराध क्षमा कर दीजिए।'' उनकी ये बातें सुन कर यूसुफ़ फूट-फूट कर रोने लगा।
18) यूसुफ़ के भाइयों ने स्वयं आ कर उसे दण्डवत् किया और कहा, ''आप जैसा चाहें, हमारे साथ वैसा करें। हम आपके दास हैं।''
19) यूसुफ़ ने कहा, ''डरिए नहीं। क्या मैं ईश्वर का स्थान ले सकता हूँ?
20) आपने हमारे साथ बुराई करनी चाही, किन्तु ईश्वर ने उसे भलाई में परिणत कर दिया और इस प्रकार बहुत-से लोगों के प्राण बचाये, जैसा कि आजकल हो रहा है।
21) इसलिए डरिए नहीं। मैं आपके और आपके बच्चों के जीवन-निर्वाह का प्रबन्ध करूँगा।'' इस प्रकार यूसुफ़ ने अपनी प्रेम पूर्ण बातों से उनकी आशंका दूर कर दी।
22) यूसुफ़ और उसके पिता का परिवार मिस्र में निवास करता रहा। यूसुफ़ एक सौ दस वर्ष की उमर तक जीता रहा।
23) और उसने तीसरी पीढ़ी तक एफ्रईम के बाल-बच्चों को देखा और मनस्से के पुत्र माकीर के बाल-बच्चों को भी अपनी गोद में खिलाया।
24) अन्त में यूसुफ़ ने अपने भाइयों से कहा, मैं मरने पर हूँ। ईश्वर अवश्य ही तुम लोगों की सुध लेगा और तुम्हें इस देश से निकाल कर उस देश ले जायेगा, जिसे उसने शपथ खा कर इब्राहीम, इसहाक और याकूब को देने की प्रतिज्ञा की हैं।''
25) यूसुफ़ ने इस्राएल के पुत्रों को यह शपथ दिलायी कि जब ईश्वर तुम लोगों की सुध लेगा, तो यहाँ से मेरी हड्डियाँ अपने साथ ले जाना।
26) इसके बाद यूसुफ़ का देहान्त एक सौ दस वर्ष की उमर में हो गया। उसका शव मसालों से संलिप्त कर मिस्र में ही एक शव-मंजूषा में रख दिया गया।